ii. प्रभु यीशु ने फरीसियों को शाप क्यों दिया था, और फरीसियों का सार क्या था
बाइबल से उद्धृत वचन
“तब यरूशलेम से कुछ फरीसी और शास्त्री यीशु के पास आकर कहने लगे, ‘तेरे चेले पूर्वजों की परम्पराओं को क्यों टालते हैं, कि बिना हाथ धोए रोटी खाते हैं?’ उसने उनको उत्तर दिया, ‘तुम भी अपनी परम्पराओं के कारण क्यों परमेश्वर की आज्ञा टालते हो? क्योंकि परमेश्वर ने कहा है, “अपने पिता और अपनी माता का आदर करना”, और “जो कोई पिता या माता को बुरा कहे, वह मार डाला जाए।” पर तुम कहते हो कि यदि कोई अपने पिता या माता से कहे, “जो कुछ तुझे मुझ से लाभ पहुँच सकता था, वह परमेश्वर को भेंट चढ़ाया जा चुका”, तो वह अपने पिता का आदर न करे, इस प्रकार तुम ने अपनी परम्परा के कारण परमेश्वर का वचन टाल दिया। हे कपटियो, यशायाह ने तुम्हारे विषय में यह भविष्यद्वाणी ठीक ही की है : “ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उनका मन मुझ से दूर रहता है। और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश करके सिखाते हैं”’” (मत्ती 15:1-9)।
“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो स्वयं ही उसमें प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो। हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम विधवाओं के घरों को खा जाते हो, और दिखाने के लिए बड़ी देर तक प्रार्थना करते रहते हो : इसलिये तुम्हें अधिक दण्ड मिलेगा।
“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम एक जन को अपने मत में लाने के लिये सारे जल और थल में फिरते हो, और जब वह मत में आ जाता है तो उसे अपने से दूना नारकीय बना देते हो।
“हे अंधे अगुवो, तुम पर हाय! जो कहते हो कि यदि कोई मन्दिर की शपथ खाए तो कुछ नहीं, परन्तु यदि कोई मन्दिर के सोने की सौगन्ध खाए तो उससे बंध जाएगा। हे मूर्खो और अंधो, कौन बड़ा है; सोना या वह मन्दिर जिससे सोना पवित्र होता है? फिर कहते हो कि यदि कोई वेदी की शपथ खाए तो कुछ नहीं, परन्तु जो भेंट उस पर है, यदि कोई उसकी शपथ खाए तो बंध जाएगा। हे अंधो, कौन बड़ा है; भेंट या वेदी जिससे भेंट पवित्र होती है? इसलिये जो वेदी की शपथ खाता है, वह उसकी और जो कुछ उस पर है, उसकी भी शपथ खाता है। जो मन्दिर की शपथ खाता है, वह उसकी और उसमें रहनेवाले की भी शपथ खाता है। जो स्वर्ग की शपथ खाता है, वह परमेश्वर के सिंहासन की और उस पर बैठनेवाले की भी शपथ खाता है।
“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम पोदीने, और सौंफ, और जीरे का दसवाँ अंश तो देते हो, परन्तु तुम ने व्यवस्था की गम्भीर बातों को अर्थात् न्याय, और दया, और विश्वास को छोड़ दिया है; चाहिये था कि इन्हें भी करते रहते और उन्हें भी न छोड़ते। हे अंधे अगुवो, तुम मच्छर को तो छान डालते हो, परन्तु ऊँट को निगल जाते हो।
“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम कटोरे और थाली को ऊपर ऊपर से तो मांजते हो परन्तु वे भीतर अन्धेर और असंयम से भरे हुए हैं। हे अंधे फरीसी, पहले कटोरे और थाली को भीतर से मांज कि वे बाहर से भी स्वच्छ हों।
“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम चूना फिरी हुई कब्रों के समान हो जो ऊपर से तो सुन्दर दिखाई देती हैं, परन्तु भीतर मुर्दों की हड्डियों और सब प्रकार की मलिनता से भरी हैं। इसी रीति से तुम भी ऊपर से मनुष्यों को धर्मी दिखाई देते हो, परन्तु भीतर कपट और अधर्म से भरे हुए हो।
“हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम भविष्यद्वक्ताओं की कब्रें सँवारते और धर्मियों की कब्रें बनाते हो, और कहते हो, ‘यदि हम अपने बापदादों के दिनों में होते तो भविष्यद्वक्ताओं की हत्या में उनके साझी न होते।’ इससे तो तुम अपने पर आप ही गवाही देते हो कि तुम भविष्यद्वक्ताओं के हत्यारों की सन्तान हो। अतः तुम अपने बापदादों के पाप का घड़ा पूरी तरह भर दो। हे साँपो, हे करैतों के बच्चो, तुम नरक के दण्ड से कैसे बचोगे? इसलिये देखो, मैं तुम्हारे पास भविष्यद्वक्ताओं और बुद्धिमानों और शास्त्रियों को भेजता हूँ; और तुम उनमें से कुछ को मार डालोगे और क्रूस पर चढ़ाओगे, और कुछ को अपने आराधनालयों में कोड़े मारोगे और एक नगर से दूसरे नगर में खदेड़ते फिरोगे। जिससे धर्मी हाबिल से लेकर बिरिक्याह के पुत्र जकरयाह तक, जिसे तुम ने मन्दिर और वेदी के बीच में मार डाला था, जितने धर्मियों का लहू पृथ्वी पर बहाया गया है वह सब तुम्हारे सिर पर पड़ेगा। मैं तुम से सच कहता हूँ, ये सब बातें इस समय के लोगों पर आ पड़ेंगी” (मत्ती 23:13-36)।
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
क्या तुम लोग इसकी जड़ जानना चाहते हो कि फरीसियों ने यीशु का विरोध क्यों किया? क्या तुम फरीसियों के सार को जानना चाहते हो? वे मसीहा के बारे में कल्पनाओं से भरे हुए थे। इससे भी ज़्यादा, उन्होंने केवल इस पर विश्वास किया कि मसीहा आएगा, फिर भी जीवन सत्य का अनुसरण नहीं किया। इसलिए, वे आज भी मसीहा की प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि उन्हें जीवन के मार्ग के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, और नहीं जानते कि सत्य का मार्ग क्या है। तुम लोग क्या कहते हो, ऐसे मूर्ख, हठधर्मी और अज्ञानी लोग परमेश्वर का आशीष कैसे प्राप्त करेंगे? वे मसीहा को कैसे देख सकते हैं? उन्होंने यीशु का विरोध किया क्योंकि वे पवित्र आत्मा के कार्य की दिशा नहीं जानते थे, क्योंकि वे यीशु द्वारा बताए गए सत्य के मार्ग को नहीं जानते थे और इसके अलावा क्योंकि उन्होंने मसीहा को नहीं समझा था। और चूँकि उन्होंने मसीहा को कभी नहीं देखा था और कभी मसीहा के साथ नहीं रहे थे, उन्होंने मसीहा के बस नाम के साथ चिपके रहने की ग़लती की, जबकि हर मुमकिन ढंग से मसीहा के सार का विरोध करते रहे। ये फरीसी सार रूप से हठधर्मी एवं अभिमानी थे और सत्य का आज्ञापालन नहीं करते थे। परमेश्वर में उनके विश्वास का सिद्धांत था : इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा उपदेश कितना गहरा है, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा अधिकार कितना ऊँचा है, जब तक तुम्हें मसीहा नहीं कहा जाता, तुम मसीह नहीं हो। क्या यह सोच हास्यास्पद और बेतुकी नहीं है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जब तक तुम यीशु के आध्यात्मिक शरीर को देखोगे, परमेश्वर स्वर्ग और पृथ्वी को फिर से बना चुका होगा
फरीसियों की दुष्टता कैसे अभिव्यक्त होती है? सबसे पहले, अपनी चर्चा इस बात से शुरू करते हैं कि फरीसियों ने देहधारी परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार किया, और तब तुम लोग थोड़ा बेहतर समझ सकोगे। देहधारी परमेश्वर के बारे में बात करते हुए हमें सबसे पहले इस बारे में बात करनी चाहिए कि दो हजार साल पहले देहधारी परमेश्वर का जन्म किस प्रकार के परिवार और पृष्ठभूमि में हुआ था। पहली बात यह कि प्रभु यीशु का जन्म किसी धनी परिवार में नहीं हुआ था—उसका वंश बहुत प्रतिष्ठित वंश नहीं था। उसके पालक पिता, जोसेफ, बढ़ई थे और उसकी माँ, मरियम, एक सामान्य विश्वासी महिला थीं। उसके माता-पिता की पहचान और सामाजिक स्थिति उस पारिवारिक पृष्ठभूमि को दर्शाती है जिसमें प्रभु यीशु का जन्म हुआ था, और यह स्पष्ट है कि उसका जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। ... बाद की पीढ़ियों को इससे क्या संदेश मिलता है? यह साधारण एवं सामान्य व्यक्ति, जो देहधारी परमेश्वर था, के पास उच्च शिक्षा प्राप्त करने का न तो अवसर था और न ही परिस्थितियाँ। वह आम लोगों की ही तरह था, वह एक सामान्य सामाजिक माहौल में एक साधारण परिवार में रहता था, और उसमें कुछ भी खास नहीं था। ठीक इसी वजह से, प्रभु यीशु के उपदेशों और कार्यों के बारे में सुनने के बाद उन शास्त्रियों और फरीसियों ने उसका विरोध करने और खुले तौर पर उसकी आलोचना, ईशनिंदा और भर्त्सना करने का साहस किया। उन लोगों के पास प्रभु यीशु की निंदा करने का क्या आधार था? निस्संदेह, यह सब पुराने नियम के कानूनों और विनियमों के आधार पर था। सबसे पहले, प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को विश्राम के दिन, सब्त, का पालन न करने के लिए प्रेरित किया—वह सब्त के दिन भी काम करता था। इसके अलावा, उसने कानूनों और विनियमों का पालन नहीं किया और वह मंदिर नहीं जाता था, और पापियों से सामना होने पर कुछ लोगों ने उसे बताया कि उनके साथ कैसे व्यवहार किया जाए, लेकिन उसने प्रचलित कानून के अनुसार व्यवहार नहीं किया बल्कि उन पर दया दिखाई। प्रभु यीशु के कार्यों का कोई भी पहलू फरीसियों की धार्मिक धारणाओं के अनुरूप नहीं था। चूँकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे और इसलिए प्रभु यीशु से घृणा करते थे, इसलिए उन्होंने प्रभु यीशु की जमकर निंदा करने के लिए कानून के उल्लंघन का बहाना बनाया और निर्धारित किया कि उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाना चाहिए। यदि प्रभु यीशु का जन्म किसी प्रतिष्ठित और विशिष्ट परिवार में हुआ होता, यदि वह उच्च शिक्षित होता, और यदि उसका इन शास्त्रियों और फरीसियों के साथ घनिष्ठ संबंध होता, तो उस समय उसके लिए वैसी चीजें नहीं होतीं, जैसी बाद में हुईं—वे बदल सकती थीं। निश्चित रूप से उसकी साधारणता, उसकी सामान्यता और उसके जन्म की पृष्ठभूमि के कारण ही फरीसियों ने उसकी निंदा की थी। प्रभु यीशु की निंदा करने का उनका आधार क्या था? इसका आधार वे कानून और विनियम थे जिनके बारे में उनका विश्वास था कि वे अनंत काल तक कभी नहीं बदलेंगे। फरीसियों ने जिन धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों को समझा उसे उन्होंने ज्ञान और लोगों की प्रशंसा या निंदा करने का औजार माना, यहाँ तक कि उसका प्रयोग प्रभु यीशु पर भी किया गया। इस तरह प्रभु यीशु की निंदा की गई। वे लोग जिस तरह से किसी व्यक्ति का मूल्यांकन या उससे व्यवहार करते थे, वह व्यक्ति के सार पर कभी निर्भर नहीं करता था, न ही इस बात पर निर्भर करता था कि उस व्यक्ति ने जो उपदेश दिया है वह सत्य है या नहीं, और इससे भी कम इस बात पर निर्भर करता था कि उस व्यक्ति द्वारा कहे गए शब्दों का स्रोत क्या है—जिस तरह से फरीसी किसी व्यक्ति का मूल्यांकन या उसकी निंदा करते थे वह केवल बाइबल के पुराने नियम के उन विनियमों, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर निर्भर करता था जो उन्होंने सीखे थे। हालाँकि फरीसी अपने दिलों में जानते थे कि प्रभु यीशु ने जो कहा और किया वह पाप या किसी कानून का उल्लंघन नहीं था, फिर भी उन्होंने उसकी निंदा की, क्योंकि उसने जो सत्य व्यक्त किए और जो संकेत दिए और चमत्कार किए, उनके कारण बहुत से लोग उसके अनुगामी और प्रशंसक बन गए थे। फरीसियों के मन में उसके प्रति घृणा बढ़ती जा रही थी, और यहाँ तक कि वे उसे परिदृश्य से ही हटा देना चाहते थे। उन्होंने यह नहीं जाना कि प्रभु यीशु ही वह मसीहा था जो आने वाला था, न ही उन्होंने यह स्वीकार किया कि उसके वचनों में सत्य था, और यह भी नहीं देखा कि उसका कार्य सत्य का पालन करता था। उन्होंने प्रभु यीशु को राक्षसों के राजकुमार बील्जेबब के माध्यम से राक्षसों को बाहर निकालने वाला और अभिमानपूर्ण बातें करने वाला माना। प्रभु यीशु पर इन पापों को थोपना प्रदर्शित करता है कि फरीसियों के मन में प्रभु के लिए कितनी नफरत थी। इसलिए, उन्होंने इस बात को नकारने के लिए पूरी लगन से काम किया कि प्रभु यीशु को परमेश्वर ने भेजा था, और वह परमेश्वर का पुत्र था, और वह मसीहा था। उनके कहने का मतलब था कि “क्या परमेश्वर इस तरह से कार्य करेगा? यदि परमेश्वर देहधारण करता, तो उसका जन्म किसी बहुत ही संभ्रांत परिवार में होता। और उसे शास्त्रियों तथा फरीसियों से शिक्षा भी स्वीकार करनी होती। ‘देहधारी परमेश्वर’ का नाम ग्रहण करने में सक्षम होने से पहले उसने पवित्र शास्त्रों का व्यवस्थित अध्ययन किया होता, उसे शास्त्रीय ज्ञान की समझ होती, और वह शास्त्रों के सम्पूर्ण ज्ञान से लैस हुआ होता।” लेकिन प्रभु यीशु इस ज्ञान से लैस नहीं था, इसलिए उन्होंने उसकी निंदा करते हुए कहा, “सबसे पहले तो तुम इस प्रकार योग्य नहीं हो, इसलिए तुम परमेश्वर नहीं हो सकते; दूसरे, इस शास्त्रीय ज्ञान के बिना परमेश्वर होना तो दूर, तुम परमेश्वर का कार्य भी नहीं कर सकते; तीसरे, तुम्हें मंदिर के बाहर काम नहीं करना चाहिए—अभी तुम मंदिर में काम नहीं करते, बल्कि हमेशा पापियों के बीच में रहते हो, इसलिए तुम जो काम करते हो वह शास्त्रों के दायरे से परे है, जिसके कारण तुम्हारा परमेश्वर होना और भी कम संभव है।” उनकी निंदा का आधार कहाँ से आया? शास्त्र से, मनुष्य के दिमाग से, और उन्हें प्राप्त धर्मशास्त्रीय शिक्षा से। क्योंकि फरीसी धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान से भरे हुए थे, और उनका विश्वास था कि वह ज्ञान सही है, सत्य है, वैध आधार है, और परमेश्वर कभी भी इन चीजों का उल्लंघन नहीं कर सकता। क्या उन्होंने सत्य की तलाश की थी? उन्होंने ऐसा नहीं किया था। उन्होंने क्या तलाशा था? एक अलौकिक परमेश्वर जो आध्यात्मिक शरीर के रूप में प्रकट होता था। इसलिए, उन्होंने परमेश्वर के कार्यों के मानदंड निर्धारित किए, उसके कार्य को नकार दिया, और मनुष्य की धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान के आधार पर परमेश्वर के सही या गलत होने के बारे में निर्णय करने लगे। और इसका अंतिम परिणाम क्या हुआ? उन्होंने न केवल परमेश्वर के कार्य की निंदा की, बल्कि उन्होंने देहधारी परमेश्वर को सूली पर चढ़ा दिया। परमेश्वर का मूल्यांकन करने के लिए अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान का उपयोग करने से यही हुआ, और यही तो उनकी दुष्टता है।
—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग तीन)
फरीसी लोग धर्म-सिद्धांत का प्रचार करने और नारे लगाने में सर्वश्रेष्ठ थे। वे अक्सर नुक्कड़ों पर खड़े होकर चिल्लाते थे, “हे शक्तिशाली परमेश्वर!” या “पूज्य परमेश्वर!” दूसरों को वे विशेष रूप से पवित्र लगते थे, उन्होंने कानून के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया था, लेकिन क्या परमेश्वर ने उनका अनुमोदन किया? नहीं किया। उसने उनकी निंदा कैसे की? उन्हें पाखंडी फरीसी की उपाधि देकर। पहले जमाने में फरीसी इस्रायल में एक सम्मानित वर्ग होता था, तो यह नाम अब एक बिल्ला क्यों बन गया है? ऐसा इसलिए है क्योंकि फरीसी लोग एक खास किस्म के व्यक्ति के परिचायक बन गये हैं। इस प्रकार के व्यक्ति की क्या विशेषताएँ होती हैं? वे झूठ बोलने में, बनने-ठनने में और दिखावा करने में कुशल हैं; वे महान कुलीनता, पवित्रता, ईमानदारी और पारदर्शी शालीनता का दिखावा करते हैं, और वे जो नारे लगाते हैं वे अच्छे तो लगते हैं, लेकिन पता चलता है, वे बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं। उनका व्यवहार कितना अच्छा है? वे धर्मग्रंथ पढ़ते हैं और उपदेश देते हैं; वे दूसरों को कानून और नियमों का पालन करना और परमेश्वर का विरोध न करना सिखाते हैं। यह सब अच्छा व्यवहार है। वे जो कुछ भी कहते हैं वह अच्छा लगता है, लेकिन, दूसरे लोगों के पीछे मुड़ते ही, वे चुपचाप चढ़ावा चुरा लेते हैं। प्रभु यीशु ने कहा कि वे “मच्छर को तो छान डालते हो, परन्तु ऊँट को निगल जाते हो” (मत्ती 23:24)। इसका मतलब यह है कि उनका सारा व्यवहार सतही तौर पर अच्छा लगता है—वे दिखावटी नारे लगाते हैं, वे ऊँचे-ऊँचे सिद्धांत बघारते हैं, और उनकी बातें सुखद लगती हैं, फिर भी उनके कर्म गड़बड़झाला हैं, और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रतिरोधी हैं। उनका बाहरी व्यवहार सब दिखावा है, सब कपटपूर्ण है; उनके हृदय में न तो सत्य के लिए, न ही सकारात्मक चीजों के लिए जरा भी प्यार है। वे सत्य, सकारात्मक चीजों और जो कुछ भी परमेश्वर से आता है उससे विमुख रहते हैं। उन्हें क्या पसंद है? क्या उन्हें निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद है? (नहीं।) तुम कैसे बता सकते हो कि उन्हें ये चीजें पसंद नहीं हैं? (प्रभु यीशु ने स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाया, जिसे उन्होंने स्वीकारने से ही मना नहीं किया, बल्कि इसकी निंदा भी की।) यदि वे इसकी निंदा न करते, तो क्या यह बताना संभव होता? नहीं। प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने सभी फरीसियों को प्रकट कर दिया, और प्रभु यीशु की निंदा और प्रतिरोध करने के कारण ही अन्य लोग उनके पाखंड को देख पाए। यदि प्रभु यीशु का प्रकटन और कार्य न होता, तो फरीसियों को कोई नहीं समझ पाता, और फरीसियों के सिर्फ बाहरी आचरण को देखकर तो लोगों को ईर्ष्या भी होती। लोगों का विश्वास जीतने के लिए झूठे सद्व्यवहार का सहारा लेकर क्या फरीसियों ने बेईमानी और मक्कारी नहीं की? क्या ऐसे मक्कार लोग सत्य से प्रेम कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं कर सकते। अच्छा आचरण दिखाने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था? एक उद्देश्य तो लोगों को ठगना ही था। दूसरा, लोगों को गुमराह कर उनका दिल जीतना था, ताकि लोग उनके बारे में अच्छा सोचें और उनका आदर करें। और अंततः, वे पुरस्कृत होना चाहते थे। यह कैसा घोटाला था! क्या ये कुशल चालें थीं? क्या ऐसे लोगों को निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद थी? बिल्कुल भी नहीं। उन्हें सिर्फ पद, प्रसिद्धि और लाभ से प्यार था, और वे सिर्फ पुरस्कार और ताज चाहते थे। उन्होंने कभी भी उन वचनों का अभ्यास नहीं किया जो परमेश्वर ने लोगों को सिखाए थे, और उन्होंने कभी भी सत्य वास्तविकताओं को थोड़ा-सा भी नहीं जिया। उनका सारा ध्यान अच्छे आचरण के जरिये छद्मवेश धारण करने और अपने पाखंडी तरीकों से लोगों को धोखा देकर और उनके दिल जीतकर अपनी पद-प्रतिष्ठा बचाने पर था, जिसका उपयोग वे फिर पूँजी जुटाने और रोजी-रोटी कमाने के लिए करते थे। क्या यह घिनौना नहीं है? उनके इस आचरण से तुम समझ सकते हो कि वे अपने सार रूप में सत्य से प्रेम नहीं करते थे, क्योंकि उन्होंने कभी इसका अभ्यास नहीं किया। कौन-सी चीज ये दर्शाती है कि वे सत्य का अभ्यास नहीं करते थे? सबसे बड़ी बात है : प्रभु यीशु छुटकारे का कार्य करने आया, और प्रभु यीशु के सभी वचन सत्य हैं और उनमें अधिकार है। फरीसियों ने इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की? भले ही उन्होंने माना कि प्रभु यीशु के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, लेकिन उन्होंने इन्हें स्वीकार करना तो दूर रहा, इनकी निंदा और भर्त्सना की। ऐसा क्यों किया? ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे, और अपने हृदय में वे सत्य से विमुख थे और उससे घृणा करते थे। उन्होंने स्वीकार किया कि प्रभु यीशु ने जो कुछ भी कहा वह सही था, कि उसके शब्दों में अधिकार और सामर्थ्य थी, कि वह किसी भी तरह से गलत नहीं था, और उसका विरोध करके उन्हें कोई लाभ नहीं था। परन्तु वे प्रभु यीशु की निंदा करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मिलकर चर्चा की और षड्यंत्र रचकर कहा, “उसे सलीब पर चढ़ा दो। वह रहेगा या हम,” और इस तरह फरीसियों ने प्रभु यीशु का अनादर किया। उस समय न कोई सत्य को समझ पाया, और न ही कोई प्रभु यीशु को देहधारी परमेश्वर के रूप में पहचान सकता था। हालाँकि, एक मनुष्य के दृष्टिकोण से, प्रभु यीशु ने कई सत्य व्यक्त किए, राक्षसों को बाहर निकाला और रोगियों को ठीक किया। उसने कई चमत्कार किए, पाँच रोटियों और दो मछलियों से 5,000 लोगों का पेट भरा, कई सारे अच्छे कर्म किए और लोगों पर इतना अधिक अनुग्रह बरसाया। ऐसे नेक और धार्मिक लोग बहुत ही कम हैं, तो फरीसी प्रभु यीशु की निंदा क्यों करना चाहते थे? वे उसे सलीब पर चढ़ाने के लिए इतने आमादा क्यों थे? उन्होंने प्रभु यीशु के बजाय एक अपराधी को रिहा करना पसंद किया, यह दर्शाता है कि धार्मिक दुनिया के फरीसी कितने दुष्ट और दुर्भावनाग्रस्त थे। वे बहुत दुष्ट थे! फरीसियों के दुष्ट विश्वासघाती चेहरे और उनके दिखावटी, बाहरी परोपकारी चेहरे के बीच इतना बड़ा अंतर था कि बहुत से लोग यह समझ नहीं पाए कि कौन-सा असली है और कौन-सा नकली, लेकिन प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने उन सबको प्रकट कर दिया। फरीसी आम तौर पर खुद को इतनी अच्छी तरह छिपाते थे और बाहर से इतने धर्मात्मा लगते थे कि किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि वे इतनी क्रूरता से प्रभु यीशु का विरोध और उत्पीड़न कर सकते हैं। यदि तथ्य प्रकट न हुए होते, तो कोई भी उनकी असलियत नहीं जान पाता। देहधारी परमेश्वर की सत्य की अभिव्यक्ति मनुष्य के बारे में इतना खुलासा करती है!
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
बाइबल में फरीसियों द्वारा स्वयं यीशु और उसके द्वारा की गई चीज़ों का मूल्यांकन इस प्रकार था : “... वे कहते थे, कि उसका चित्त ठिकाने नहीं है। ... उसमें शैतान है, और वह दुष्टात्माओं के सरदार की सहायता से दुष्टात्माओं को निकालता है” (मरकुस 3:21-22)। शास्त्रियों और फरीसियों द्वारा यीशु की आलोचना उनके द्वारा दूसरे लोगों के शब्दों को दोहराना भर नहीं था, न ही वह कोई निराधार अनुमान था—वह तो उनके द्वारा प्रभु यीशु के बारे में उसके कार्यों को देख-सुनकर निकाला गया निष्कर्ष था। यद्यपि उनका निष्कर्ष प्रकट रूप में न्याय के नाम पर निकाला गया था और लोगों को ऐसा दिखता था, मानो वह तथ्यों पर आधारित हो, किंतु जिस हेकड़ी के साथ उन्होंने प्रभु यीशु की आलोचना की थी, उस पर काबू रखना स्वयं उनके लिए भी कठिन था। प्रभु यीशु के प्रति उनकी घृणा की उन्मत्त ऊर्जा ने उनकी अपनी खतरनाक महत्वाकांक्षाओं और उनके दुष्ट शैतानी चेहरे, और साथ ही परमेश्वर का विरोध करने वाली उनकी द्वेषपूर्ण प्रकृति को भी उजागर कर दिया था। उनके द्वारा प्रभु यीशु की आलोचना करते हुए कही गई ये बातें उनकी जंगली महत्वाकांक्षाओं, ईर्ष्या, और परमेश्वर तथा सत्य के प्रति उनकी शत्रुता की कुरूप और द्वेषपूर्ण प्रकृति से प्रेरित थीं। उन्होंने प्रभु यीशु के कार्यों के स्रोत की खोज नहीं की, न ही उन्होंने उसके द्वारा कही या की गई चीज़ों के सार की खोज की। बल्कि उन्होंने उसके कार्य पर आँख मूँदकर, सनक भरे आवेश में और सोचे-समझे द्वेष के साथ आक्रमण किया और उसे बदनाम किया। वे यहाँ तक चले गए कि उसके आत्मा, अर्थात् पवित्र आत्मा, जो कि परमेश्वर का आत्मा है, को भी जानबूझकर बदनाम कर दिया। “उसका चित्त ठिकाने नहीं है,” “शैतान” और “दुष्टात्माओं का सरदार” कहने से उनका यही आशय था। अर्थात्, उन्होंने कहा कि परमेश्वर का आत्मा शैतान और दुष्टात्माओं का सरदार है। उन्होंने देह का वस्त्र पहने परमेश्वर के देहधारी आत्मा के कार्य को पागलपन कहा। उन्होंने न केवल शैतान और दुष्टात्माओं का सरदार कहकर परमेश्वर के आत्मा की ईशनिंदा की, बल्कि परमेश्वर के कार्य की भी निंदा की और प्रभु यीशु मसीह पर दोष लगाया और उसकी ईशनिंदा की। उनके द्वारा परमेश्वर के प्रतिरोध और ईशनिंदा का सार पूरी तरह से शैतान और दुष्टात्माओं द्वारा किए गए परमेश्वर के प्रतिरोध और ईशनिंदा के समान था। वे केवल भ्रष्ट मनुष्यों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करते थे, बल्कि इससे भी बढ़कर, वे शैतान के मूर्त रूप थे। वे मानवजाति के बीच शैतान के लिए एक माध्यम थे, और वे शैतान के सह-अपराधी और अनुचर थे। उनकी ईशनिंदा और उनके द्वारा प्रभु यीशु मसीह की अवमानना का सार हैसियत के लिए परमेश्वर के साथ उनका संघर्ष, परमेश्वर के साथ उनकी प्रतिस्पर्धा और उनके द्वारा परमेश्वर की कभी न खत्म होने वाली परीक्षा था। उनके द्वारा परमेश्वर के प्रतिरोध और उसके प्रति उनके शत्रुतापूर्ण रवैये के सार ने, और साथ ही उनके वचनों और उनके विचारों ने सीधे-सीधे परमेश्वर के आत्मा की ईशनिंदा की और उसे क्रोधित किया। इसलिए, जो कुछ उन्होंने कहा और किया था, उसके आधार पर परमेश्वर ने एक उचित न्याय का निर्धारण किया, और परमेश्वर ने उनके कर्मों को पवित्र आत्मा के विरुद्ध पाप ठहराया। यह पाप इस लोक और परलोक, दोनों में अक्षम्य है, जैसा कि पवित्रशास्त्र के निम्नलिखित अंश से प्रमाणित होता है : “मनुष्य द्वारा की गई पवित्र आत्मा की निंदा क्षमा न की जाएगी” और “जो कोई पवित्र आत्मा के विरोध में कुछ कहेगा, उसका अपराध न तो इस लोक में और न परलोक में क्षमा किया जाएगा।”
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III
यहूदी फरीसी यीशु को दोषी ठहराने के लिए मूसा की व्यवस्था का उपयोग करते थे। उन्होंने उस समय के यीशु के साथ अनुकूल होने की कोशिश नहीं की, बल्कि कर्मठतापूर्वक व्यवस्था का इस हद तक अक्षरशः पालन किया कि—यीशु पर पुराने विधान की व्यवस्था का पालन न करने और मसीहा न होने का आरोप लगाते हुए—निर्दोष यीशु को सूली पर चढ़ा दिया। उनका सार क्या था? क्या यह ऐसा नहीं था कि उन्होंने सत्य के साथ अनुकूलता के मार्ग की खोज नहीं की? उनके दिमाग़ में पवित्रशास्त्र का एक-एक वचन घर कर गया था, जबकि मेरे इरादों और मेरे कार्य के चरणों और विधियों पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। वे सत्य की खोज करने वाले लोग नहीं, बल्कि सख्ती से पवित्रशास्त्र के वचनों से चिपकने वाले लोग थे; वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग नहीं, बल्कि बाइबल में विश्वास करने वाले लोग थे। दरअसल वे बाइबल की रखवाली करने वाले कुत्ते थे। बाइबल के हितों की रक्षा करने, बाइबल की गरिमा बनाए रखने और बाइबल की प्रतिष्ठा बचाने के लिए वे यहाँ तक चले गए कि उन्होंने दयालु यीशु को सूली पर चढ़ा दिया। ऐसा उन्होंने सिर्फ़ बाइबल का बचाव करने के लिए और लोगों के हृदय में बाइबल के हर एक वचन की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए किया। इस प्रकार उन्होंने अपना भविष्य त्यागने और यीशु की निंदा करने के लिए उसकी मृत्यु के रूप में पापबलि देने को प्राथमिकता दी, क्योंकि यीशु पवित्रशास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। क्या वे लोग पवित्रशास्त्र के एक-एक वचन के नौकर नहीं थे?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें मसीह के साथ अनुकूलता का तरीका खोजना चाहिए
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