i. पाखंडी फरीसियों को कैसे पहचानें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

क्या तुम लोग जानते हो कि कोई फरीसी सचमुच कैसा होता है? क्या तुम लोगों के आसपास कोई फरीसी है? इन लोगों को “फरीसी” क्यों कहा जाता है? फरीसियों का वर्णन कैसे किया जाता है? वे ऐसे लोग होते हैं जो पाखंडी हैं, जो पूरी तरह से नकली हैं और अपने हर कार्य में नाटक करते हैं। वे क्या नाटक करते हैं? वे अच्छे, दयालु और सकारात्मक होने का ढोंग करते हैं। क्या वे वास्तव में ऐसे होते हैं? बिल्कुल नहीं। चूँकि वे पाखंडी होते हैं, इसलिए उनमें जो कुछ भी व्यक्त और प्रकट होता है, वह झूठ होता है; वह सब ढोंग होता है—यह उनका असली चेहरा नहीं होता। उनका असली चेहरा कहाँ छिपा होता है? वह उनके दिल की गहराई में छिपा होता है, दूसरे उसे कभी नहीं देख सकते। बाहर सब नाटक होता है, सब नकली होता है, लेकिन वे केवल लोगों को मूर्ख बना सकते हैं; वे परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकते। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं करते, तो वे वास्तव में सत्य नहीं समझ सकते, इसलिए उनके शब्द कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे शब्द सत्य वास्तविकता नहीं होते, बल्कि शब्द और धर्म-सिद्धांत होते हैं। कुछ लोग केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को रटने पर ही ध्यान देते हैं, जो भी उच्चतम उपदेश देता है वे उसकी नकल करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में उनका शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का पाठ निरंतर उन्नत होता जाता है, और वे बहुत-से लोगों द्वारा सराहे और पूजे जाते हैं, जिसके बाद वे खुद को छद्मावरण द्वारा छिपाने लगते हैं, अपनी कथनी-करनी पर बहुत ध्यान देते हैं, और स्वयं को खास तौर पर पवित्र और आध्यात्मिक दिखाते हैं। वे इन तथाकथित आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रयोग खुद को छद्मावरण से छिपाने के लिए करते हैं। वे जहाँ कहीं जाते हैं, बस इन्हीं चीजों के बारे में बात करते हैं, ऊपर से आकर्षक लगने वाली चीजें जो लोगों की धारणाओं के अनुकूल तो होती हैं, लेकिन जिनमें कोई सत्य वास्तविकता नहीं होती। और इन चीजों का प्रचार करके—जो लोगों की धारणाओं और रुचियों के अनुरूप होती हैं—वे बहुत लोगों को गुमराह करते हैं। दूसरों को ऐसे लोग बहुत ही धर्मपरायण और विनम्र लगते हैं, लेकिन वास्तव में यह नकली होता है; वे सहिष्णु, धैर्यवान और प्रेमपूर्ण लगते हैं परंतु यह सब वास्तव में ढोंग होता है; वे कहते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, लेकिन वास्तव में यह एक नाटक होता है। दूसरे लोग ऐसे लोगों को पवित्र समझते हैं, लेकिन असल में यह झूठ होता है। सच्चा पवित्र व्यक्ति कहाँ मिल सकता है? मनुष्य की सारी पवित्रता नकली होती है, वह सब एक नाटक, एक ढोंग होता है। बाहर से वे परमेश्वर के प्रति वफादार प्रतीत होते हैं, लेकिन वे वास्तव में केवल दूसरों को दिखाने के लिए ऐसा कर रहे होते हैं। जब कोई नहीं देख रहा होता है, तो वे जरा से भी वफादार नहीं होते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह लापरवाही से किया गया होता है। सतह पर वे खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं और उन्होंने अपने परिवारों और अपनी आजीविकाओं को छोड़ दिया है। लेकिन वे गुप्त रूप से क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर के लिए काम करने के नाम पर कलीसिया का फायदा उठाते हुए और चुपके से चढ़ावे चुराते हुए कलीसिया में अपना उद्यम और अपना कार्य व्यापार चला रहे हैं...। ये लोग आधुनिक पाखंडी फरीसी हैं। फरीसी आते कहाँ से हैं? क्या वे गैर-विश्वासियों के बीच से आते हैं? नहीं, ये सभी विश्वासियों के बीच से आते हैं। ये लोग फरीसी क्यों बन जाते हैं? क्या किसी ने इन्हें इस तरह बनाया है? जाहिर है, ऐसा नहीं है। तो कारण क्या है? कारण यह है कि उनका प्रकृति-सार ही ऐसा होता है और उन्होंने जो रास्ता पकड़ा है वही इसकी वजह है। वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग केवल प्रचार करने और कलीसिया से लाभ प्राप्त करने के साधन के रूप में करते हैं। वे अपने दिमाग और मुँह परमेश्वर के वचनों से लैस कर लेते हैं, नकली आध्यात्मिक सिद्धांतों के उपदेश देते हैं, खुद को पवित्र के रूप में पेश करते हैं और फिर कलीसिया से फायदे उठाने के उद्देश्य से इसका पूँजी की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे मात्र सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, मगर उन्होंने कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया है। वे किस तरह के लोग हैं जो परमेश्वर के मार्ग का कभी भी अनुसरण न करने के बावजूद वचनों और सिद्धांतों का उपदेश देना जारी रखते हैं? ये पाखंडी फरीसी हैं। उनका थोड़ा-सा कथित अच्छा व्यवहार और अच्छा आचरण, और जो थोड़ा-बहुत उन्होंने त्यागा और खुद को खपाया है, वह सब अपनी इच्छा को रोककर और इसे नया आवरण पहनाकर हासिल किया गया है। ये सारे कृत्य पूरी तरह नकली हैं और ढोंग हैं। इन लोगों के दिल में परमेश्वर का जरा-सा भी भय नहीं है, न परमेश्वर में उनकी कोई सच्ची आस्था है। और तो और, वे अविश्वासी हैं। यदि लोग सत्य की खोज नहीं करते हैं, तो वे इस तरह के रास्ते पर चलेंगे, और वे फरीसी बन जाएँगे। क्या यह डरावना नहीं है? फरीसी जिस धार्मिक स्थान पर एकत्र होते हैं वह एक बाजार बन जाता है। परमेश्वर की दृष्टि में यह धर्म है; यह परमेश्वर की कलीसिया नहीं है, न ही वह कोई ऐसा स्थान है जिसमें उसकी आराधना की जाती है। इस प्रकार, यदि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो फिर वे परमेश्वर के कथनों से संबंधित चाहे जितने भी हू-ब-हू शब्द और सतही धर्म-सिद्धांत धारण कर लें, ये किसी काम नहीं आएंगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक

फरीसियों के पाखंडी होने का कारण, उनके दुष्ट होने का कारण यह है कि वे सत्य से विमुख हैं, लेकिन ज्ञान से प्रेम करते हैं, इसलिए वे केवल शास्त्रों का अध्ययन करते हैं और शास्त्रों में वर्णित ज्ञान का अनुसरण करते हैं, लेकिन सत्य या परमेश्वर के वचनों को कभी स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर के वचनों को पढ़ते समय उसकी प्रार्थना नहीं करते, न ही वे सत्य की खोज करते हैं या उस पर संगति करते हैं। इसके बजाय, वे परमेश्वर के वचनों का अध्ययन करते हैं, परमेश्वर ने जो कहा और किया है उसका अध्ययन करते हैं, और ऐसा करके वे परमेश्वर के वचनों को एक सिद्धांत में बदल देते हैं, जो दूसरों को सिखाने के लिए एक धर्म-सिद्धांत बन जाता है, जिसे विद्वत्तापूर्ण अध्ययन कहा जाता है। वे विद्वत्तापूर्ण अध्ययन में क्यों लगे रहते हैं? वे क्या पढ़ रहे हैं? उनकी नजर में यह परमेश्वर के वचन या परमेश्वर की अभिव्यक्ति नहीं है, और सत्य तो बिल्कुल भी नहीं है। बल्कि, यह एक प्रकार की विद्वता है, या यह भी कह सकते हैं कि यह धर्मशास्त्रीय ज्ञान है। उनके विचार में, इस ज्ञान का, इस विद्वता का प्रचार-प्रसार करना, परमेश्वर के मार्ग का प्रसार करना है, सुसमाचार का प्रसार करना है—इसे वे उपदेश देना कहते हैं, लेकिन वे जो उपदेश देते हैं वह धर्मशास्त्रीय ज्ञान भर है।

... फरीसियों ने जिन धर्मशास्त्रीय सिद्धांतों को समझा उसे उन्होंने ज्ञान और लोगों की प्रशंसा या निंदा करने का औजार माना, यहाँ तक कि उसका प्रयोग प्रभु यीशु पर भी किया गया। इस तरह प्रभु यीशु की निंदा की गई। वे लोग जिस तरह से किसी व्यक्ति का मूल्यांकन या उससे व्यवहार करते थे, वह व्यक्ति के सार पर कभी निर्भर नहीं करता था, न ही इस बात पर निर्भर करता था कि उस व्यक्ति ने जो उपदेश दिया है वह सत्य है या नहीं, और इससे भी कम इस बात पर निर्भर करता था कि उस व्यक्ति द्वारा कहे गए शब्दों का स्रोत क्या है—जिस तरह से फरीसी किसी व्यक्ति का मूल्यांकन या उसकी निंदा करते थे वह केवल बाइबल के पुराने नियम के उन विनियमों, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों पर निर्भर करता था जो उन्होंने सीखे थे। हालाँकि फरीसी अपने दिलों में जानते थे कि प्रभु यीशु ने जो कहा और किया वह पाप या किसी कानून का उल्लंघन नहीं था, फिर भी उन्होंने उसकी निंदा की, क्योंकि उसने जो सत्य व्यक्त किए और जो संकेत दिए और चमत्कार किए, उनके कारण बहुत से लोग उसके अनुगामी और प्रशंसक बन गए थे। फरीसियों के मन में उसके प्रति घृणा बढ़ती जा रही थी, और यहाँ तक कि वे उसे परिदृश्य से ही हटा देना चाहते थे। उन्होंने यह नहीं जाना कि प्रभु यीशु ही वह मसीहा था जो आने वाला था, न ही उन्होंने यह स्वीकार किया कि उसके वचनों में सत्य था, और यह भी नहीं देखा कि उसका कार्य सत्य का पालन करता था। उन्होंने प्रभु यीशु को राक्षसों के राजकुमार बील्जेबब के माध्यम से राक्षसों को बाहर निकालने वाला और अभिमानपूर्ण बातें करने वाला माना। प्रभु यीशु पर इन पापों को थोपना प्रदर्शित करता है कि फरीसियों के मन में प्रभु के लिए कितनी नफरत थी। इसलिए, उन्होंने इस बात को नकारने के लिए पूरी लगन से काम किया कि प्रभु यीशु को परमेश्वर ने भेजा था, और वह परमेश्वर का पुत्र था, और वह मसीहा था। उनके कहने का मतलब था कि “क्या परमेश्वर इस तरह से कार्य करेगा? यदि परमेश्वर देहधारण करता, तो उसका जन्म किसी बहुत ही संभ्रांत परिवार में होता। और उसे शास्त्रियों तथा फरीसियों से शिक्षा भी स्वीकार करनी होती। ‘देहधारी परमेश्वर’ का नाम ग्रहण करने में सक्षम होने से पहले उसने पवित्र शास्त्रों का व्यवस्थित अध्ययन किया होता, उसे शास्त्रीय ज्ञान की समझ होती, और वह शास्त्रों के सम्पूर्ण ज्ञान से लैस हुआ होता।” लेकिन प्रभु यीशु इस ज्ञान से लैस नहीं था, इसलिए उन्होंने उसकी निंदा करते हुए कहा, “सबसे पहले तो तुम इस प्रकार योग्य नहीं हो, इसलिए तुम परमेश्वर नहीं हो सकते; दूसरे, इस शास्त्रीय ज्ञान के बिना परमेश्वर होना तो दूर, तुम परमेश्वर का कार्य भी नहीं कर सकते; तीसरे, तुम्हें मंदिर के बाहर काम नहीं करना चाहिए—अभी तुम मंदिर में काम नहीं करते, बल्कि हमेशा पापियों के बीच में रहते हो, इसलिए तुम जो काम करते हो वह शास्त्रों के दायरे से परे है, जिसके कारण तुम्हारा परमेश्वर होना और भी कम संभव है।” उनकी निंदा का आधार कहाँ से आया? शास्त्र से, मनुष्य के दिमाग से, और उन्हें प्राप्त धर्मशास्त्रीय शिक्षा से। क्योंकि फरीसी धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान से भरे हुए थे, और उनका विश्वास था कि वह ज्ञान सही है, सत्य है, वैध आधार है, और परमेश्वर कभी भी इन चीजों का उल्लंघन नहीं कर सकता। क्या उन्होंने सत्य की तलाश की थी? उन्होंने ऐसा नहीं किया था। उन्होंने क्या तलाशा था? एक अलौकिक परमेश्वर जो आध्यात्मिक शरीर के रूप में प्रकट होता था। इसलिए, उन्होंने परमेश्वर के कार्यों के मानदंड निर्धारित किए, उसके कार्य को नकार दिया, और मनुष्य की धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान के आधार पर परमेश्वर के सही या गलत होने के बारे में निर्णय करने लगे। और इसका अंतिम परिणाम क्या हुआ? उन्होंने न केवल परमेश्वर के कार्य की निंदा की, बल्कि उन्होंने देहधारी परमेश्वर को सूली पर चढ़ा दिया। परमेश्वर का मूल्यांकन करने के लिए अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और ज्ञान का उपयोग करने से यही हुआ, और यही तो उनकी दुष्टता है।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग तीन)

फरीसी लोग धर्म-सिद्धांत का प्रचार करने और नारे लगाने में सर्वश्रेष्ठ थे। वे अक्सर नुक्कड़ों पर खड़े होकर चिल्लाते थे, “हे शक्तिशाली परमेश्वर!” या “पूज्य परमेश्वर!” दूसरों को वे विशेष रूप से पवित्र लगते थे, उन्होंने कानून के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया था, लेकिन क्या परमेश्वर ने उनका अनुमोदन किया? नहीं किया। उसने उनकी निंदा कैसे की? उन्हें पाखंडी फरीसी की उपाधि देकर। पहले जमाने में फरीसी इस्रायल में एक सम्मानित वर्ग होता था, तो यह नाम अब एक बिल्ला क्यों बन गया है? ऐसा इसलिए है क्योंकि फरीसी लोग एक खास किस्म के व्यक्ति के परिचायक बन गये हैं। इस प्रकार के व्यक्ति की क्या विशेषताएँ होती हैं? वे झूठ बोलने में, बनने-ठनने में और दिखावा करने में कुशल हैं; वे महान कुलीनता, पवित्रता, ईमानदारी और पारदर्शी शालीनता का दिखावा करते हैं, और वे जो नारे लगाते हैं वे अच्छे तो लगते हैं, लेकिन पता चलता है, वे बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं। उनका व्यवहार कितना अच्छा है? वे धर्मग्रंथ पढ़ते हैं और उपदेश देते हैं; वे दूसरों को कानून और नियमों का पालन करना और परमेश्वर का विरोध न करना सिखाते हैं। यह सब अच्छा व्यवहार है। वे जो कुछ भी कहते हैं वह अच्छा लगता है, लेकिन, दूसरे लोगों के पीछे मुड़ते ही, वे चुपचाप चढ़ावा चुरा लेते हैं। प्रभु यीशु ने कहा कि वे “मच्छर को तो छान डालते हो, परन्तु ऊँट को निगल जाते हो” (मत्ती 23:24)। इसका मतलब यह है कि उनका सारा व्यवहार सतही तौर पर अच्छा लगता है—वे दिखावटी नारे लगाते हैं, वे ऊँचे-ऊँचे सिद्धांत बघारते हैं, और उनकी बातें सुखद लगती हैं, फिर भी उनके कर्म गड़बड़झाला हैं, और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रतिरोधी हैं। उनका बाहरी व्यवहार सब दिखावा है, सब कपटपूर्ण है; उनके हृदय में न तो सत्य के लिए, न ही सकारात्मक चीजों के लिए जरा भी प्यार है। वे सत्य, सकारात्मक चीजों और जो कुछ भी परमेश्वर से आता है उससे विमुख रहते हैं। उन्हें क्या पसंद है? क्या उन्हें निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद है? (नहीं।) तुम कैसे बता सकते हो कि उन्हें ये चीजें पसंद नहीं हैं? (प्रभु यीशु ने स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाया, जिसे उन्होंने स्वीकारने से ही मना नहीं किया, बल्कि इसकी निंदा भी की।) यदि वे इसकी निंदा न करते, तो क्या यह बताना संभव होता? नहीं। प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने सभी फरीसियों को प्रकट कर दिया, और प्रभु यीशु की निंदा और प्रतिरोध करने के कारण ही अन्य लोग उनके पाखंड को देख पाए। यदि प्रभु यीशु का प्रकटन और कार्य न होता, तो फरीसियों को कोई नहीं समझ पाता, और फरीसियों के सिर्फ बाहरी आचरण को देखकर तो लोगों को ईर्ष्या भी होती। लोगों का विश्वास जीतने के लिए झूठे सद्व्यवहार का सहारा लेकर क्या फरीसियों ने बेईमानी और मक्कारी नहीं की? क्या ऐसे मक्कार लोग सत्य से प्रेम कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं कर सकते। अच्छा आचरण दिखाने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था? एक उद्देश्य तो लोगों को ठगना ही था। दूसरा, लोगों को गुमराह कर उनका दिल जीतना था, ताकि लोग उनके बारे में अच्छा सोचें और उनका आदर करें। और अंततः, वे पुरस्कृत होना चाहते थे। यह कैसा घोटाला था! क्या ये कुशल चालें थीं? क्या ऐसे लोगों को निष्पक्षता और धार्मिकता पसंद थी? बिल्कुल भी नहीं। उन्हें सिर्फ पद, प्रसिद्धि और लाभ से प्यार था, और वे सिर्फ पुरस्कार और ताज चाहते थे। उन्होंने कभी भी उन वचनों का अभ्यास नहीं किया जो परमेश्वर ने लोगों को सिखाए थे, और उन्होंने कभी भी सत्य वास्तविकताओं को थोड़ा-सा भी नहीं जिया। उनका सारा ध्यान अच्छे आचरण के जरिये छद्मवेश धारण करने और अपने पाखंडी तरीकों से लोगों को धोखा देकर और उनके दिल जीतकर अपनी पद-प्रतिष्ठा बचाने पर था, जिसका उपयोग वे फिर पूँजी जुटाने और रोजी-रोटी कमाने के लिए करते थे। क्या यह घिनौना नहीं है? उनके इस आचरण से तुम समझ सकते हो कि वे अपने सार रूप में सत्य से प्रेम नहीं करते थे, क्योंकि उन्होंने कभी इसका अभ्यास नहीं किया। कौन-सी चीज ये दर्शाती है कि वे सत्य का अभ्यास नहीं करते थे? सबसे बड़ी बात है : प्रभु यीशु छुटकारे का कार्य करने आया, और प्रभु यीशु के सभी वचन सत्य हैं और उनमें अधिकार है। फरीसियों ने इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की? भले ही उन्होंने माना कि प्रभु यीशु के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, लेकिन उन्होंने इन्हें स्वीकार करना तो दूर रहा, इनकी निंदा और भर्त्सना की। ऐसा क्यों किया? ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते थे, और अपने हृदय में वे सत्य से विमुख थे और उससे घृणा करते थे। उन्होंने स्वीकार किया कि प्रभु यीशु ने जो कुछ भी कहा वह सही था, कि उसके शब्दों में अधिकार और सामर्थ्य थी, कि वह किसी भी तरह से गलत नहीं था, और उसका विरोध करके उन्हें कोई लाभ नहीं था। परन्तु वे प्रभु यीशु की निंदा करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मिलकर चर्चा की और षड्यंत्र रचकर कहा, “उसे सलीब पर चढ़ा दो। वह रहेगा या हम,” और इस तरह फरीसियों ने प्रभु यीशु का अनादर किया। उस समय न कोई सत्य को समझ पाया, और न ही कोई प्रभु यीशु को देहधारी परमेश्वर के रूप में पहचान सकता था। हालाँकि, एक मनुष्य के दृष्टिकोण से, प्रभु यीशु ने कई सत्य व्यक्त किए, राक्षसों को बाहर निकाला और रोगियों को ठीक किया। उसने कई चमत्कार किए, पाँच रोटियों और दो मछलियों से 5,000 लोगों का पेट भरा, कई सारे अच्छे कर्म किए और लोगों पर इतना अधिक अनुग्रह बरसाया। ऐसे नेक और धार्मिक लोग बहुत ही कम हैं, तो फरीसी प्रभु यीशु की निंदा क्यों करना चाहते थे? वे उसे सलीब पर चढ़ाने के लिए इतने आमादा क्यों थे? उन्होंने प्रभु यीशु के बजाय एक अपराधी को रिहा करना पसंद किया, यह दर्शाता है कि धार्मिक दुनिया के फरीसी कितने दुष्ट और दुर्भावनाग्रस्त थे। वे बहुत दुष्ट थे! फरीसियों के दुष्ट विश्वासघाती चेहरे और उनके दिखावटी, बाहरी परोपकारी चेहरे के बीच इतना बड़ा अंतर था कि बहुत से लोग यह समझ नहीं पाए कि कौन-सा असली है और कौन-सा नकली, लेकिन प्रभु यीशु के प्रकटन और कार्य ने उन सबको प्रकट कर दिया। फरीसी आम तौर पर खुद को इतनी अच्छी तरह छिपाते थे और बाहर से इतने धर्मात्मा लगते थे कि किसी ने भी कल्पना नहीं की होगी कि वे इतनी क्रूरता से प्रभु यीशु का विरोध और उत्पीड़न कर सकते हैं। यदि तथ्य प्रकट न हुए होते, तो कोई भी उनकी असलियत नहीं जान पाता। देहधारी परमेश्वर की सत्य की अभिव्यक्ति मनुष्य के बारे में इतना खुलासा करती है!

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

कुछ ऐसे भी हैं जो नई रोशनी को स्वीकारने में सक्षम हैं, लेकिन उनके अभ्यास के तरीके नहीं बदलते हैं। वे परमेश्वर के आज के वचनों को समझने की इच्छा रखते हुए अपनी पुरानी धर्म-संबंधी धारणाओं को अपने साथ लाते हैं, इसलिए वे जो समझते हैं वह अभी भी धर्म-संबंधी धारणाओं से रंगे सिद्धांत हैं; वे आज की रोशनी को स्वीकार ही नहीं रहे हैं। नतीजतन, उनके अभ्यास दागदार हैं; नए खोल में लिपटे वही पुराने अभ्यास हैं। वे कितने भी अच्छे ढंग से अभ्यास करें, वे फिर भी ढोंगी ही हैं। परमेश्वर हर दिन नई चीजें करने में लोगों की अगुवाआई करता है, माँग करता है कि प्रत्येक दिन वे नई अंतर्दृष्टि और समझ हासिल करें, और अपेक्षा करता है कि वे पुराने ढंग के और दोहराव करने वाले न हों। अगर तुमने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास किया है, लेकिन फिर भी तुम्हारे अभ्यास के तरीके बिलकुल नहीं बदले हैं, अगर तुम अभी भी ईर्ष्यालु हो और बाहरी मामलों में ही उलझे हुए हो, अभी भी तुम्हारे पास परमेश्वर के वचनों का आनंद लेने के वास्ते उसके सामने लाने के लिए एक शांत हृदय नहीं है तो तुम कुछ भी नहीं प्राप्त करोगे। जब परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करने की बात आती है, तब यदि तुम अलग ढंग से योजना नहीं बनाते, अपने अभ्यास के लिए नए तरीके नहीं अपनाते और किसी नई समझ को पाने की कोशिश नहीं करते, बल्कि अभ्यास के अपने तरीके को बदले बिना, पुराने से चिपके रहते हो और केवल सीमित मात्रा में नई रोशनी को स्वीकारते हो, तो तुम्हारे जैसे लोग केवल नाम के लिए इस धारा में हैं; वास्तविकता में, वे मज़हबी फरीसी हैं जो पवित्र आत्मा की धारा के बाहर हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन के विषय में

कुछ लोगों में अपनी ओर ध्यान खींचने की प्रवृत्ति होती है। अपने भाई-बहनों की उपस्थिति में वे भले ही कहें कि वे परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हैं, परंतु उनकी पीठ पीछे वे सत्य का अभ्यास नहीं करते और बिल्कुल अलग ही व्यवहार करते हैं। क्या वे धार्मिक फरीसी नहीं हैं? एक ऐसा व्यक्ति जो सच में परमेश्वर से प्यार करता है और जिसमें सत्य है, वह परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होता है, परंतु वह बाहर से इसका दिखावा नहीं करता। जैसे भी हालात बनें, वह सत्य का अभ्यास करने को तैयार रहता है और अपने विवेक के विरुद्ध न तो बोलता है, न ही कार्य करता है। चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, जब कोई बात होती है तो वह अपनी बुद्धि से कार्य करता है और अपने कर्मों में सिद्धांतों पर टिका रहता है। इस तरह का व्यक्ति सच्ची सेवा कर सकता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो बस जुबान से परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं; वे अपने दिन चिंता में भौंहें चढ़ाए गुजारते हैं, अच्छा व्यक्ति होने का नाटक करते हैं, और दया के पात्र होने का दिखावा करते हैं। कितनी घिनौनी हरकत है! यदि तुम उनसे पूछते, “क्या तुम बता सकते हो कि तुम परमेश्वर के ऋणी कैसे हो?” तो वे निरुत्तर हो जाते। यदि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठावान हो, तो इस बारे में बातें मत करो; बल्कि परमेश्वर के प्रति अपना प्रेम वास्तविक अभ्यास से दर्शाओ और सच्चे हृदय से उससे प्रार्थना करो। जो लोग परमेश्वर से केवल मौखिक रूप से और बेमन से व्यवहार करते हैं वे सभी पाखंडी हैं! कुछ लोग जब भी प्रार्थना करते हैं, तो परमेश्वर के प्रति आभार की बात करते और पवित्र आत्मा द्वारा द्रवित किए बिना ही रोना आरंभ कर देते हैं। इस तरह के लोग धार्मिक रिवाजों और धारणाओं से ग्रस्त होते हैं; वे लोग हमेशा इन धार्मिक रिवाजों और धारणाओं के साथ जीते हैं, और मानते हैं कि इन कामों से परमेश्वर प्रसन्न होता है और सतही धार्मिकता या दुःख भरे आँसुओं को पसंद करता है। ऐसे बेतुके लोगों से कौन-सी भलाई हो सकती है? कुछ लोग विनम्रता का प्रदर्शन करने के लिए, दूसरों के सामने बोलते समय अनुग्रहशीलता का दिखावा करते हैं। कुछ लोग दूसरों के सामने जानबूझकर किसी नितांत शक्तिहीन मेमने की तरह गुलामी करते हैं। क्या यह तौर-तरीका राज्य के लोगों के लिए उचित है? राज्य के व्यक्ति को जीवंत और स्वतंत्र, भोला-भाला और स्पष्ट, ईमानदार और प्यारा होना चाहिए, और एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो स्वतंत्रता की स्थिति में जिए। उसमें सत्यनिष्ठा और गरिमा होनी चाहिए, और वो जहाँ भी जाए, उसे वहाँ गवाही देने में समर्थ होना चाहिए; ऐसे लोग परमेश्वर और मनुष्य दोनों को प्रिय होते हैं। जो लोग विश्वास में नौसिखिये होते हैं, वो बहुत सारे अभ्यास दिखावे के लिए करते हैं; उन्हें सबसे पहले काट-छाँट किए और तोड़े जाने की अवधि से गुजरना चाहिए। जिन लोगों के हृदय की गहराई में परमेश्वर का विश्वास है, वे ऊपरी तौर पर दूसरों से अलग नहीं दिखते, किन्तु उनके कामकाज प्रशंसनीय होते हैं। ऐसे व्यक्ति ही परमेश्वर के वचनों को जीने वाले समझे जा सकते हैं। यदि तुम विभिन्न लोगों को उद्धार में लाने के लिए प्रतिदिन सुसमाचार का उपदेश देते हो, लेकिन अंततः, तुम नियमों और सिद्धांतों में ही जीते रहते हो, तो तुम परमेश्वर को गौरवान्वित नहीं कर सकते। ऐसे लोग धार्मिक शख्सियत होने के साथ ही पाखंडी भी होते हैं। जब कभी भी ऐसे धार्मिक लोग जमा होते हैं, तो वे पूछ सकते हैं, “बहन, आजकल तुम कैसी हो?” संभव है कि बहन उत्तर दे, “मैं महसूस करती हूँ कि मैं परमेश्वर की कर्जदार हूँ और मैं उसके इरादे पूरे नहीं कर पाती।” संभव है कि दूसरी बहन कहे, “मैं भी परमेश्वर के प्रति ऋणी महसूस करती हूँ और उसे संतुष्ट नहीं कर पाती।” ये कुछ वाक्य और शब्द ही उनके हृदय की गहराई में मौजूद अधम चीजों को व्यक्त कर देते हैं; ऐसी बातें अत्यधिक घृणित और अत्यंत विरोधी हैं। ऐसे लोगों की प्रकृति परमेश्वर से उलट होती है। जो लोग वास्तविकता पर ध्यान देते हैं वे वही बोलते हैं जो उनके दिल में होता है, और संगति में अपना दिल खोल देते हैं। ऐसे लोग न तो एक भी झूठी कवायद में शामिल होते हैं, न झूठा शिष्टाचार दिखाते हैं, न खोखली हँसी-खुशी का प्रदर्शन करते हैं। वे हमेशा स्पष्ट होते हैं और किसी सांसारिक नियम का पालन नहीं करते हैं। कुछ लोगों में, समझ के निपट अभाव की हद तक, दिखावे की आदत होती है। जब कोई गाता है, तो वह नाचने लगते हैं, वो समझ ही नहीं पाते कि उनका खेल पहले ही खत्म हो चुका है। ऐसे लोग धर्मपरायण या सम्माननीय नहीं होते, वे तो बहुत ही तुच्छ होते हैं। ये सब वास्तविकता के अभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब कुछ लोग आध्यात्मिक जीवन के बारे में संगति करते हैं, तो यद्यपि वे परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ होने की बात नहीं करते, फिर भी वे अपने हृदय की गहराई में उसके प्रति सच्चा प्रेम रखते हैं। परमेश्वर के प्रति तुम्हारी कृतज्ञता का दूसरे लोगों से कोई लेना-देना नहीं है; तुम परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हो, न कि मनुष्य के प्रति। इस बारे में लगातार दूसरों को बताने का क्या फायदा है? तुम्हें वास्तविकता में प्रवेश करने को महत्व देना चाहिए, न कि बाहरी उत्साह या प्रदर्शन को। इंसान के दिखावटी काम क्या दर्शाते हैं? वे देह की इच्छाओं को दर्शाते हैं, यहाँ तक कि दिखावे के सर्वोत्तम अभ्यास भी जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करते, वे केवल तुम्हारी अपनी व्यक्तिगत मनोदशा को दर्शा सकते हैं। मनुष्य के बाहरी अभ्यास परमेश्वर के इरादों को पूरा नहीं कर सकते। तुम निरतंर परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता की बातें करते रहते हो, लेकिन तुम दूसरों के जीवन की आपूर्ति नहीं कर सकते या उनके परमेश्वर-प्रेमी हृदय को उद्दीप्त नहीं कर सकते। क्या तुम्हें विश्वास है कि तुम्हारे ऐसे कार्य परमेश्वर को संतुष्ट करेंगे? तुम्हें लगता है कि तुम्हारा इस तरीके से कार्य करना परमेश्वर का इरादा है, और तुम्हारे क्रियाकलाप आध्यात्मिक हैं, किन्तु वास्तव में, वे सब बेतुके हैं! तुम मानते हो कि जो तुम्हें अच्छा लगता है और जो तुम करना चाहते हो, वे ठीक वही चीजें हैं जिनसे परमेश्वर आनंदित होता है। क्या तुम्हारी पसंद परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकती है? क्या मनुष्य का चरित्र परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है? जो चीज तुम्हें अच्छी लगती है, परमेश्वर उसी से घृणा करता है, और तुम्हारी आदतें ऐसी हैं जिन्हें परमेश्वर ठुकराता है। यदि तुम खुद को कृतज्ञ महसूस करते हो, तो परमेश्वर के सामने जाओ और प्रार्थना करो; इस बारे में दूसरों से बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने के बजाय दूसरों की उपस्थिति में निरंतर अपनी ओर ध्यान आकर्षित करवाते हो, तो क्या इससे परमेश्वर के इरादे पूरे किए जा सकते हैं? यदि तुम्हारे काम सदैव दिखावे के लिए ही हैं, तो इसका अर्थ है कि तुम एकदम नाकारा हो। ऐसे लोग किस तरह के होते हैं जो दिखावे के लिए तो अच्छे काम करते हैं लेकिन वास्तविकता से रहित होते हैं? ऐसे लोग सिर्फ पाखंडी फरीसी और धार्मिक शख्सियत होते हैं। यदि तुम लोग अपने बाहरी अभ्यासों को नहीं छोड़ते और परिवर्तन नहीं कर सकते, तो तुम लोग और भी ज्यादा पाखंडी बन जाओगे। जितने ज्यादा पाखंडी बनोगे, उतना ही ज्यादा परमेश्वर का विरोध करोगे। और अंत में, इस तरह के लोग निश्चित रूप से निकाल दिए जाएँगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इंसान को अपनी आस्था में, वास्तविकता पर ध्यान देना चाहिए—धार्मिक रीति-रिवाजों में लिप्त रहना आस्था नहीं है

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो केवल काम और प्रचार करने, दूसरों का भरण-पोषण करने के लिए खुद को सत्य से लैस करते हैं, अपनी समस्याएँ हल करने के लिए नहीं, सत्य को अमल में लाने के लिए नहीं। उनकी संगति शुद्ध समझ की और सत्य के अनुरूप हो सकती है, लेकिन वे खुद को उससे नहीं मापते, न ही वे उसका अभ्यास या अनुभव करते हैं। यहाँ क्या समस्या है? क्या उन्होंने वाकई सत्य को अपने जीवन के रूप में स्वीकार किया है? नहीं, उन्होंने नहीं किया। व्यक्ति जिस सिद्धांत का प्रचार करता है, वह कितना भी शुद्ध क्यों न हो, इसका अर्थ यह नहीं कि उसमें सत्य वास्तविकता है। सत्य से लैस होने के लिए, व्यक्ति को पहले खुद उसमें प्रवेश करना चाहिए, और उसे समझकर अमल में लाना चाहिए। अगर व्यक्ति अपने प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं करता, बल्कि दिखावा करने के उद्देश्य से दूसरों के सामने सत्य का प्रचार करता है, तो उसका इरादा गलत है। कई नकली अगुआ हैं जो इसी तरह काम करते हैं, जो सत्य वे समझते हैं, उस पर लगातार दूसरों के साथ संगति करते, नए विश्वासियों को पोषण प्रदान करते, लोगों को सत्य का अभ्यास करने, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने, नकारात्मक न होने की शिक्षा देते हैं। ये तमाम शब्द अच्छे और बढ़िया हैं—प्रेमपूर्ण भी हैं—लेकिन उन्हें बोलने वाले सत्य का अभ्यास क्यों नहीं करते? उनका कोई जीवन-प्रवेश क्यों नहीं है? यहाँ चल क्या रहा है? क्या ऐसा व्यक्ति वास्तव में सत्य से प्रेम करता है? कहना मुश्किल है। इस्राएल के फरीसियों ने दूसरों के सामने बाइबल की व्याख्या इसी तरह की थी, लेकिन वे खुद परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं कर पाए। जब प्रभु यीशु ने प्रकट होकर कार्य किया, तो उन्होंने परमेश्वर की वाणी सुनी लेकिन प्रभु का विरोध किया। उन्होंने प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाया और परमेश्वर ने उन्हें शाप दिया। इसलिए, जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते या उसका अभ्यास नहीं करते, उन सबकी परमेश्वर द्वारा निंदा की जाएगी। वे कितने अभागे हैं! अगर उनके द्वारा प्रचारित शब्द और धर्म-सिद्धांत दूसरों की मदद कर सकता है, तो वह उनकी मदद क्यों नहीं कर सकता? हम ऐसे व्यक्ति को पाखंडी कह सकते हैं, जिसमें कोई वास्तविकता नहीं है। वे दूसरों को सत्य का शाब्दिक अर्थ प्रदान करते हैं, वे दूसरों से उसका अभ्यास करवाते हैं, लेकिन खुद उसका थोड़ा-सा भी अभ्यास नहीं करते। क्या ऐसा व्यक्ति बेशर्म नहीं होता? उसमें सत्य वास्तविकता नहीं होती, फिर भी वह दूसरों को शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के उपदेश देकर उसके होने का दिखावा करता है। क्या यह सोचा-समझा धोखा और नुकसान नहीं है? अगर ऐसे लोग उजागर कर निकाल दिए जाते हैं, तो इसके लिए केवल वे ही दोषी होंगे। वे दया के पात्र नहीं होंगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

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संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए। तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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