5. परमेश्वर पर विश्वास केवल शान्ति और आशीषों को खोजने के लिए ही नहीं होना चाहिए

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

मनुष्य ने जब पहली बार परमेश्वर पर विश्वास करना शुरू किया था, तब से उसने क्या पाया है? तुमने परमेश्वर के बारे में क्या जाना है? परमेश्वर पर अपने विश्वास के कारण तुम कितने बदले हो? आज, तुम सभी लोग यह जानते हो कि परमेश्वर में मनुष्य का विश्वास सिर्फ आत्मा के उद्धार और देह के कल्याण के लिए नहीं है, और न ही यह परमेश्वर को प्रेम करने के माध्यम से उसके जीवन को समृद्ध बनाने इत्यादि के लिए है। वर्तमान स्थिति में, यदि तुम परमेश्वर से देह के कल्याण या क्षणिक आनंद के लिए प्रेम करते हो, तो भले ही, अंत में, परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम अपने शिखर पर पहुँच जाए और तुम इससे ज़्यादा और कुछ न माँगो, लेकिन तुम्हारे द्वारा किया जाने वाला यह प्रेम अभी भी अशुद्ध प्रेम ही है, और यह परमेश्वर को प्रसन्न नहीं करता। जो लोग परमेश्वर के प्रति प्रेम का उपयोग अपने नीरस जीवन को समृद्ध बनाने और अपने हृदय के खालीपन को भरने के लिए करते हैं, वे उस तरह के लोग हैं जो आराम से जीने के लालची हैं, न कि वे, जो सच में परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं। इस प्रकार का प्रेम जबरदस्ती का प्रेम है, यह मानसिक संतुष्टि की खोज है, और परमेश्वर को इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। तो फिर, तुम्हारा प्रेम किस तरह का है? तुम परमेश्वर से किसलिए प्रेम करते हो? अभी तुम्हारे भीतर परमेश्वर के लिए कितना सच्चा प्रेम है? तुम लोगों में से अधिकांश का प्रेम उपर्युक्त प्रकार का है। इस प्रकार का प्रेम सिर्फ यथास्थिति बरकरार रख सकता है; यह अपरिवर्तनीयता प्राप्त नहीं कर सकता, न ही यह मनुष्य में जड़ें जमा सकता है। इस प्रकार का प्रेम सिर्फ ऐसे फूल की तरह होता है, जो खिलता है पर फल दिए बिना ही मुरझा जाता है। दूसरे शब्दों में, जब तुम परमेश्वर से इस तरीके से प्रेम कर लेते हो और तुम्हें इस मार्ग पर आगे ले जाने वाला कोई नहीं मिलता, तो तुम्हारा पतन हो जाएगा। यदि तुम परमेश्वर से सिर्फ परमेश्वर से प्रेम करने के समय ही प्रेम कर सकते हो, लेकिन बाद में तुम्हारा जीवन-स्वभाव अपरिवर्तित रहता है, तो फिर तुम अँधेरे के प्रभाव के कफन से बचने में असमर्थ रहोगे, और शैतान के बंधन और चालबाजी से खुद को मुक्त नहीं कर पाओगे। ऐसा कोई भी व्यक्ति परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से प्राप्त नहीं किया जा सकता; अंतत: उसकी आत्मा, प्राण और शरीर शैतान के ही रहेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता। जो लोग परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से प्राप्त नहीं किए जा सकते, वे सभी अपने मूल स्थान अर्थात् वापस शैतान के पास लौट जाएँगे, और वे परमेश्वर के दंड के अगले कदम को स्वीकार करने के लिए आग और गंधक की झील में डूब जाएँगे। परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने वाले वे होते हैं, जो शैतान को त्याग देते हैं और उसके अधिकार-क्षेत्र से बच निकलते हैं। उन्हें राज्य के लोगों में आधिकारिक रूप से गिना जाता है। राज्य के लोग इसी तरह अस्तित्व में आते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विश्वासियों को क्या दृष्टिकोण रखना चाहिए

आज, व्यावहारिक परमेश्वर में विश्वास करने के लिए तुम्हें सही रास्ते पर कदम रखना होगा। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो तो तुम्हें सिर्फ़ परमेश्वर के आशीष की ही कामना नहीं करनी चाहिए, बल्कि परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर को जानने की कोशिश भी करनी चाहिए। परमेश्वर द्वारा प्रबुद्धता प्राप्त कर और अपनी व्यक्तिगत खोज के माध्यम से, तुम उसके वचनों को खा और पी सकते हो, परमेश्वर के बारे में सच्ची समझ विकसित कर सकते हो, और तुम परमेश्वर के प्रति एक सच्चा प्रेम अपने हृदयतल से आता महसूस कर सकते हो। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम बेहद सच्चा हो, और इसे कोई नष्ट नहीं कर सके या उसके लिए तुम्हारे प्रेम के मार्ग में कोई खड़ा नहीं हो सके, तब तुम परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में सही रास्ते पर हो। यह साबित करता है कि तुम परमेश्वर के हो, क्योंकि तुम्हारे हृदय पर परमेश्वर द्वारा कब्जा कर लिया गया है और अब कोई भी दूसरी चीज तुम पर कब्जा नहीं कर सकती है। तुम अपने अनुभव, चुकाए गए मूल्य, और परमेश्वर के कार्य के माध्यम से, परमेश्वर के लिए एक स्वेच्छापूर्ण प्रेम विकसित करने में समर्थ हो जाते हो। फिर तुम शैतान के प्रभाव से मुक्त हो जाते हो और परमेश्वर के वचन के प्रकाश में जीने लग जाते हो। तुम अंधकार के प्रभाव को तोड़ कर जब मुक्त हो जाते हो, केवल तभी यह माना जा सकता है कि तुमने परमेश्वर को प्राप्त कर लिया है। परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में, तुम्हें इस लक्ष्य की खोज की कोशिश करनी चाहिए। यह हर एक व्यक्ति का कर्तव्य है। किसी को भी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति दुविधा में नहीं रह सकते, और न ही इसे हल्के में ले सकते हो। तुम्हें हर तरह से और हर समय परमेश्वर के बारे में विचार करना चाहिए, और उसके लिए सब कुछ करना चाहिए। जब तुम कुछ बोलते या करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के घर के हितों को सबसे पहले रखना चाहिए। ऐसा करने से ही तुम परमेश्वर के हृदय को पा सकते हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें सत्य के लिए जीना चाहिए क्योंकि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास है

जो कोई परमेश्वर की सेवा करता है, उसे न केवल यह पता होना चाहिए कि परमेश्वर के लिए कैसे कष्ट सहना है, बल्कि इससे भी बढ़कर, उसे यह समझना चाहिए कि परमेश्वर पर विश्वास करने का प्रयोजन परमेश्वर से प्रेम करने का प्रयास करना है। परमेश्वर तुम्हारा उपयोग सिर्फ तुम्हारा शोधन करने या तुम्हें पीड़ित करने के लिए नहीं करता, बल्कि वह तुम्हारा उपयोग इसलिए करता है, ताकि तुम उसके क्रियाकलापों को जानो, मानव-जीवन के सच्चे महत्व को जानो, और विशेष रूप से यह जानो कि परमेश्वर की सेवा करना कोई आसान काम नहीं है। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना अनुग्रह का आनंद लेने से ताल्लुक नहीं रखता, बल्कि उसके प्रति तुम्हारे प्रेम के लिए कष्ट सहने से ताल्लुक रखता है। चूँकि तुम परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हो, इसलिए तुम्हें उसकी ताड़ना का भी आनंद लेना चाहिए; तुम्हें इस सबका अनुभव करना चाहिए। तुम अपने अंदर परमेश्वर की प्रबुद्धता अनुभव कर सकते हो, और तुम यह भी अनुभव कर सकते हो कि वह तुमसे कैसे निपटता और कैसे तुम्हारा न्याय करता है। इस प्रकार तुम्हारा अनुभव व्यापक होगा। परमेश्वर ने तुम पर न्याय और ताड़ना का कार्य किया है। परमेश्वर के वचन तुमसे निपटे हैं, लेकिन इतना ही नहीं; इसने तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन भी किया है। जब तुम नकारात्मक और कमजोर होते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी चिंता करता है। यह सब कार्य तुम्हें यह ज्ञात कराने के लिए है कि मनुष्य से संबंधित सब-कुछ परमेश्वर के आयोजनों के अंतर्गत है। तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर पर विश्वास करना कष्ट सहने या उसके लिए कई चीजें करने से ताल्लुक रखता है; तुम्हें लग सकता है कि परमेश्वर में विश्वास का प्रयोजन तुम्हारी देह की शांति के लिए है, या इसलिए है कि तुम्हारी जिंदगी में सब-कुछ ठीक रहे, या इसलिए कि तुम आराम से रहो और हर चीज में सहज रहो। परंतु इनमें से कोई भी प्रयोजन ऐसा नहीं है, जिसे लोगों को परमेश्वर पर अपने विश्वास के साथ जोड़ना चाहिए। अगर तुम इन प्रयोजनों के लिए विश्वास करते हो, तो तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है, और तुम्हें पूर्ण बनाया जाना बिलकुल संभव नहीं है। परमेश्वर के क्रियाकलाप, परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके वचन, और उसकी अद्भुतता और अगाधता ही वे सब चीजें हैं, जिन्हें लोगों को समझना चाहिए। यह समझ होने पर, तुम्हें इसका उपयोग अपने हृदय को व्यक्तिगत माँगों, आशाओँ और धारणाओं से छुटकारा दिलाने के लिए करना चाहिए। केवल इन चीजों को दूर करके ही तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित शर्तें पूरी कर सकते हो, और केवल ऐसा करके ही तुम जीवन प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। परमेश्वर पर विश्वास करने का प्रयोजन उसे संतुष्ट करना और उसके द्वारा अपेक्षित स्वभाव को जीना है, ताकि अयोग्य लोगों के इस समूह के माध्यम से उसके क्रियाकलाप और उसकी महिमा प्रकट हो सके। परमेश्वर पर विश्वास करने का यही सही दृष्टिकोण है और यही वह लक्ष्य भी है, जिसे तुम्हें पाना चाहिए। परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में तुम्हारा सही दृष्टिकोण होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने की आवश्यकता है और तुम्हें सत्य को जीने, और विशेष रूप से पूरे ब्रह्मांड में उसके व्यावहारिक कर्मों, उसके अद्भुत कर्मों को देखने, और साथ ही देह में उसके द्वारा किए जाने वाले व्यावहारिक कार्य को देखने में सक्षम होना चाहिए। अपने वास्तविक अनुभवों द्वारा लोग इस बात को समझ सकते हैं कि कैसे परमेश्वर उन पर अपना कार्य करता है और उनके प्रति उसकी क्या इच्छा है। इस सबका प्रयोजन लोगों का भ्रष्ट शैतानी स्वभाव दूर करना है। अपने भीतर की सारी अशुद्धता और अधार्मिकता बाहर निकाल देने, अपने गलत इरादे छोड़ देने और परमेश्वर में सच्चा विश्वास विकसित करने के बाद—केवल सच्चे विश्वास के साथ ही तुम परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर सकते हो। तुम केवल अपने विश्वास की बुनियाद पर ही परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर सकते हो। क्या तुम परमेश्वर पर विश्वास किए बिना उसके प्रति प्रेम प्राप्त कर सकते हो? चूँकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, इसलिए तुम इसके बारे में नासमझ नहीं हो सकते। कुछ लोग जैसे ही यह देखते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास उनके लिए आशीष लाएगा, उनमें जोश भर जाता है, परंतु जैसे ही वे देखते हैं कि उन्हें शोधन सहने पड़ेंगे, उनकी सारी ऊर्जा खो जाती है। क्या यह परमेश्वर पर विश्वास करना है? अंतत:, अपने विश्वास में तुम्हें परमेश्वर के सामने पूर्ण और चरम आज्ञाकारिता हासिल करनी होगी। तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो परंतु फिर भी उससे माँगें करते हो, तुम्हारी कई धार्मिक धारणाएँ हैं जिन्हें तुम छोड़ नहीं सकते, तुम्हारे व्यक्तिगत हित हैं जिन्हें तुम त्याग नहीं सकते, और फिर भी देह के आशीष खोजते हो और चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारी देह को बचाए, तुम्हारी आत्मा की रक्षा करे—ये सब गलत दृष्टिकोण वाले लोगों के व्यवहार हैं। यद्यपि धार्मिक विश्वास वाले लोगों का परमेश्वर पर विश्वास होता है, फिर भी वे अपना स्वभाव बदलने का प्रयास नहीं करते और परमेश्वर संबंधी ज्ञान की खोज नहीं करते, बल्कि केवल अपनी देह के हितों की ही तलाश करते हैं। तुम लोगों में से कइयों के विश्वास ऐसे हैं, जो धार्मिक आस्थाओं की श्रेणी में आते हैं; यह परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं है। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए लोगों के पास उसके लिए पीड़ा सहने वाला हृदय और स्वयं को त्याग देने की इच्छा होनी चाहिए। जब तक वे ये दो शर्तें पूरी नहीं करते, तब तक परमेश्वर पर उनका विश्वास मान्य नहीं है, और वे स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम नहीं होंगे। जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर संबंधी ज्ञान की तलाश करते हैं, और जीवन की खोज करते हैं, केवल वे ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा

क्या अब तुम लोग समझते हो कि परमेश्वर पर विश्वास करना क्या होता है? क्या संकेत और चमत्कार देखना परमेश्वर पर विश्वास करना है? क्या इसका अर्थ स्वर्ग पर आरोहण करना है? परमेश्वर पर विश्वास ज़रा भी आसान नहीं है। उन धार्मिक अभ्यासों को निकाल दिया जाना चाहिए; रोगियों की चंगाई और दुष्टात्माओं को निकालने का अनुसरण करना, प्रतीकों और चमत्कारों पर ध्यान केंद्रित करना और परमेश्वर के अनुग्रह, शांति और आनंद का अधिक लालच करना, देह के लिए संभावनाओं और आराम की तलाश करना—ये धार्मिक अभ्यास हैं, और ऐसे धार्मिक अभ्यास एक अस्पष्ट प्रकार का विश्वास हैं। आज परमेश्वर में वास्तविक विश्वास क्या है? यह परमेश्वर के वचन को अपने जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना, और परमेश्वर का सच्चा प्यार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन से परमेश्वर को जानना है। स्पष्ट कहूँ तो : परमेश्वर में विश्वास इसलिए है, ताकि तुम परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सको, उससे प्रेम कर सको, और वह कर्तव्य निभा सको, जिसे परमेश्वर के एक प्राणी द्वारा निभाया जाना चाहिए। यही परमेश्वर पर विश्वास करने का लक्ष्य है। तुम्हें परमेश्वर की मनोहरता का और इस बात का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि परमेश्वर कितने आदर के योग्य है, कैसे अपने द्वारा सृजित प्राणियों में परमेश्वर उद्धार का कार्य करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है—ये परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास की एकदम अनिवार्य चीज़ें हैं। परमेश्वर पर विश्वास मुख्यतः देह-उन्मुख जीवन से परमेश्वर से प्रेम करने वाले जीवन में बदलना है; भ्रष्टता के भीतर जीने से परमेश्वर के वचनों के जीवन के भीतर जीना है; यह शैतान के अधिकार-क्षेत्र से बाहर आना और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में जीना है; यह देह की आज्ञाकारिता को नहीं, बल्कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता को प्राप्त करने में समर्थ होना है; यह परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण हृदय प्राप्त करने और तुम्हें पूर्ण बनाने देना है, और तुम्हें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से मुक्त करने देना है। परमेश्वर में विश्वास मुख्यतः इसलिए है, ताकि परमेश्वर का सामर्थ्य और महिमा तुममें प्रकट हो सके, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा पर चल सको, और परमेश्वर की योजना संपन्न कर सको, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे सको। परमेश्वर पर विश्वास संकेत और चमत्कार देखने की इच्छा के इर्द-गिर्द नहीं घूमना चाहिए, न ही यह तुम्हारी व्यक्तिगत देह के वास्ते होना चाहिए। यह परमेश्वर को जानने की कोशिश के लिए, और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, और पतरस के समान मृत्यु तक परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होने के लिए, होना चाहिए। यही परमेश्वर में विश्वास करने के मुख्य उद्देश्य हैं। व्यक्ति परमेश्वर के वचन को परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने के उद्देश्य से खाता और पीता है। परमेश्वर के वचन को खाना और पीना तुम्हें परमेश्वर का और अधिक ज्ञान देता है, जिसके बाद ही तुम उसका आज्ञा-पालन कर सकते हो। केवल परमेश्वर के ज्ञान के साथ ही तुम उससे प्रेम कर सकते हो, और यह वह लक्ष्य है, जिसे मनुष्य को परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में रखना चाहिए। यदि परमेश्वर पर अपने विश्वास में तुम सदैव संकेत और चमत्कार देखने का प्रयास कर रहे हो, तो परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का यह दृष्टिकोण गलत है। परमेश्वर पर विश्वास मुख्य रूप से परमेश्वर के वचन को जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना है। परमेश्वर का उद्देश्य उसके मुख से निकले वचनों को अभ्यास में लाने और उन्हें अपने भीतर पूरा करने से हासिल किया जाता है। परमेश्वर पर विश्वास करने में मनुष्य को परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में समर्थ होने, और परमेश्वर के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता के लिए प्रयास करना चाहिए। यदि तुम बिना शिकायत किए परमेश्वर का आज्ञापालन कर सकते हो, परमेश्वर की इच्छाओं के प्रति विचारशील हो सकते हो, पतरस का आध्यात्मिक कद प्राप्त कर सकते हो, और परमेश्वर द्वारा कही गई पतरस की शैली ग्रहण कर सकते हो, तो यह तब होगा जब तुम परमेश्वर पर विश्वास में सफलता प्राप्त कर चुके होगे, और यह इस बात का द्योतक होगा कि तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिए गए हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के वचन के द्वारा सब-कुछ प्राप्त हो जाता है

तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्‍हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्‍मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्‍हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्‍हें नहीं बचाया? तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्‍हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्‍हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्‍हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्‍हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्‍हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्‍हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्‍हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्‍हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्‍हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्‍हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है: तुम्‍हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान

आज तुम परमेश्वर से कितना प्रेम करते हो? और जो कुछ भी परमेश्वर ने तुम्हारे भीतर किया है, उस सबके बारे में तुम कितना जानते हो? ये वे बातें हैं, जो तुम्हें सीखनी चाहिए। जब परमेश्वर पृथ्वी पर आया, तो जो कुछ उसने मनुष्य में किया और जो कुछ उसने मनुष्य को देखने दिया, वह इसलिए था कि मनुष्य उससे प्रेम करे और वास्तव में उसे जाने। मनुष्य यदि परमेश्वर के लिए कष्ट सहने में सक्षम है और यहाँ तक आ पाया है, तो यह एक ओर परमेश्वर के प्रेम के कारण है, तो दूसरी ओर परमेश्वर के उद्धार के कारण; इससे भी बढ़कर, यह उस न्याय और ताड़ना के कार्य के कारण है, जो परमेश्वर ने मनुष्य में किया हैं। यदि तुम परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और परीक्षण से रहित हो, और यदि परमेश्वर ने तुम लोगों को कष्ट नहीं दिया है, तो सच यह है कि तुम लोग परमेश्वर से सच में प्रेम नहीं करते। मनुष्य में परमेश्वर का काम जितना बड़ा होता है, और जितने अधिक मनुष्य के कष्ट होते हैं, उतना ही अधिक यह स्पष्ट होता है कि परमेश्वर का कार्य कितना अर्थपूर्ण है, और उतना ही अधिक उस मनुष्य का हृदय परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर पाता है। तुम परमेश्वर से प्रेम करना कैसे सीखते हो? यातना और शोधन के बिना, पीड़ादायक परीक्षणों के बिना—और इसके अलावा, यदि परमेश्वर ने मनुष्य को अनुग्रह, प्रेम और दया ही प्रदान की होती—तो क्या तुम परमेश्वर से सच्चा प्रेम करने के मुकाम तक पहुँच पाते? एक ओर, परमेश्वर द्वारा लिए जाने वाले परीक्षणों के दौरान मनुष्य अपनी कमियाँ जान पाता है और देख पाता है कि वह तुच्छ, घृणित और निकृष्ट है, कि उसके पास कुछ नहीं है और वह कुछ नहीं है; तो दूसरी ओर, अपने परीक्षणों के दौरान परमेश्वर मनुष्य के लिए भिन्न परिवेशों की रचना करता है, जो मनुष्य को परमेश्वर की मनोहरता का अनुभव करने के अधिक योग्य बनाता है। यद्यपि पीड़ा अधिक होती है और कभी-कभी तो असहनीय हो जाती है—मिटाकर रख देने वाले कष्ट तक भी पहुँच जाती है—परंतु इसका अनुभव करने के बाद मनुष्य देखता है कि उसमें परमेश्वर का कार्य कितना मनोहर है, और केवल इसी नींव पर मनुष्य में परमेश्वर के प्रति सच्चे प्रेम का जन्म होता है। आज मनुष्य देखता है कि परमेश्वर के अनुग्रह, प्रेम और उसकी दया मात्र से वह स्वयं को सही मायने में जान सकने में असमर्थ है, और वह मनुष्य के सार को तो जान ही नहीं सकता। केवल परमेश्वर के शोधन और न्याय दोनों के द्वारा, और शोधन की प्रक्रिया के दौरान ही व्यक्ति अपनी कमियाँ जान सकता है, और यह जान सकता है कि उसके पास कुछ नहीं है। इस प्रकार, परमेश्वर के प्रति मनुष्य का प्रेम परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले शोधन और न्याय की नींव पर निर्मित होता है। यदि तुम शांतिमय पारिवारिक जीवन या भौतिक आशीषों के साथ केवल परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हो, तो तुमने परमेश्वर को प्राप्त नहीं किया है, और परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास सफल नहीं माना जा सकता। परमेश्वर ने अनुग्रह के कार्य का एक चरण देह में पहले ही पूरा कर लिया है, और मनुष्य को भौतिक आशीष पहले ही प्रदान कर दिए हैं, परंतु मनुष्य को केवल अनुग्रह, प्रेम और दया से पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। अपने अनुभवों में मनुष्य परमेश्वर के कुछ प्रेम का अनुभव करता है, और परमेश्वर के प्रेम और उसकी दया को देखता है, फिर भी कुछ समय तक इसका अनुभव करने के बाद वह देखता है कि परमेश्वर का अनुग्रह, प्रेम और दया मनुष्य को पूर्ण बनाने में असमर्थ हैं, वे मनुष्य के भीतर की भ्रष्टता प्रकट करने में असमर्थ हैं, और वे मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से छुड़ाने या उसके प्रेम और विश्वास को पूर्ण बनाने में असमर्थ हैं। परमेश्वर का अनुग्रह का कार्य एक अवधि का कार्य था, और परमेश्वर को जानने के लिए मनुष्य उसके अनुग्रह का आनंद उठाने पर निर्भर नहीं रह सकता।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो

परमेश्वर का अनुसरण करने वाले बहुत सारे लोग केवल इस बात से मतलब रखते हैं कि आशीष कैसे प्राप्त किए जाएँ या आपदा से कैसे बचा जाए। जैसे ही परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन का उल्लेख किया जाता है, वे चुप हो जाते हैं और उनकी सारी रुचि समाप्त हो जाती है। उन्हें लगता है कि इस प्रकार के उबाऊ मुद्दों को समझने से उनके जीवन के विकास में मदद नहीं मिलेगी या कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा। परिणामस्वरूप, हालाँकि उन्होंने परमेश्वर के प्रबंधन के बारे में सुना होता है, वे उसपर बहुत कम ध्यान देते हैं। उन्हें वह इतना मूल्यवान नहीं लगता कि उसे स्वीकारा जाए, और उसे अपने जीवन का अंग तो वे बिलकुल नहीं समझते। ऐसे लोगों का परमेश्वर का अनुसरण करने का केवल एक सरल उद्देश्य होता है, और वह उद्देश्य है आशीष प्राप्त करना। ऐसे लोग ऐसी किसी भी दूसरी चीज़ पर ध्यान देने की परवाह नहीं कर सकते जो इस उद्देश्य से सीधे संबंध नहीं रखती। उनके लिए, आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से ज्यादा वैध उद्देश्य और कोई नहीं है—यह उनके विश्वास का असली मूल्य है। यदि कोई चीज़ इस उद्देश्य को प्राप्त करने में योगदान नहीं करती, तो वे उससे पूरी तरह से अप्रभावित रहते हैं। आज परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोगों का यही हाल है। उनके उद्देश्य और इरादे न्यायोचित प्रतीत होते हैं, क्योंकि जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते भी हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और अपना कर्तव्य भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी न्योछावर कर देते हैं, परिवार और आजीविका त्याग देते हैं, यहाँ तक कि वर्षों अपने घर से दूर व्यस्त रहते हैं। अपने परम उद्देश्य के लिए वे अपनी रुचियाँ बदल डालते हैं, अपने जीवन का दृष्टिकोण बदल देते हैं, यहाँ तक कि अपनी खोज की दिशा तक बदल देते हैं, किंतु परमेश्वर पर अपने विश्वास के उद्देश्य को नहीं बदल सकते। वे अपने आदर्शों के प्रबंधन के लिए भाग-दौड़ करते हैं; चाहे मार्ग कितना भी दूर क्यों न हो, और मार्ग में कितनी भी कठिनाइयाँ और अवरोध क्यों न आएँ, वे दृढ़ रहते हैं और मृत्यु से नहीं डरते। इस तरह से अपने आप को समर्पित रखने के लिए उन्हें कौन-सी ताकत बाध्य करती है? क्या यह उनका विवेक है? क्या यह उनका महान और कुलीन चरित्र है? क्या यह बुराई से बिलकुल अंत तक लड़ने का उनका दृढ़ संकल्प है? क्या यह बिना प्रतिफल की आकांक्षा के परमेश्वर की गवाही देने का उनका विश्वास है? क्या यह परमेश्वर की इच्छा प्राप्त करने के लिए सब-कुछ त्याग देने की तत्परता के प्रति उनकी निष्ठा है? या यह अनावश्यक व्यक्तिगत माँगें हमेशा त्याग देने की उनकी भक्ति-भावना है? ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए, जिसने कभी परमेश्वर के प्रबंधन को नहीं समझा, फिर भी इतना कुछ देना एक चमत्कार ही है! फिलहाल, आओ इसकी चर्चा न करें कि इन लोगों ने कितना कुछ दिया है। किंतु उनका व्यवहार हमारे विश्लेषण के बहुत योग्य है। उनके साथ इतनी निकटता से जुड़े उन लाभों के अतिरिक्त, परमेश्वर को कभी नहीं समझने वाले लोगों द्वारा उसके लिए इतना कुछ दिए जाने का क्या कोई अन्य कारण हो सकता है? इसमें हमें पूर्व की एक अज्ञात समस्या का पता चलता है : मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है। अब जबकि चीज़ें इस बिंदु तक आ गई हैं, तो कौन इस क्रम को उलट सकता है? और कितने लोग इस बात को वास्तव में समझने में सक्षम हैं कि यह संबंध कितना भयानक बन चुका है? मैं मानता हूँ कि जब लोग आशीष प्राप्त होने के आनंद में निमग्न हो जाते हैं, तो कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का संबंध कितना शर्मनाक और भद्दा है।

परमेश्वर में मानवजाति के विश्वास के बारे में सबसे दु:खद बात यह है कि मनुष्य परमेश्वर के कार्य के बीच अपने खुद के प्रबंधन का संचालन करता है, जबकि परमेश्वर के प्रबंधन पर कोई ध्यान नहीं देता। मनुष्य की सबसे बड़ी असफलता इस बात में है कि जब वह परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसकी आराधना करने का प्रयास करता है, उसी समय कैसे वह अपनी आदर्श मंज़िल का निर्माण कर रहा होता है और इस बात की साजिश रच रहा होता है कि सबसे बड़ा आशीष और सर्वोत्तम मंज़िल कैसे प्राप्त किए जाएँ। यहाँ तक कि अगर कोई समझता भी है कि वह कितना दयनीय, घृणास्पद और दीन-हीन है, तो भी ऐसे कितने लोग अपने आदर्शों और आशाओं को तत्परता से छोड़ सकते हैं? और कौन अपने कदमों को रोकने और केवल अपने बारे में सोचना बंद कर सकने में सक्षम हैं? परमेश्वर को उन लोगों की ज़रूरत है, जो उसके प्रबंधन को पूरा करने के लिए उसके साथ निकटता से सहयोग करेंगे। उसे उन लोगों की ज़रूरत है, जो अपने पूरे तन-मन को उसके प्रबंधन के कार्य में अर्पित कर उसके प्रति समर्पित होंगे। उसे ऐसे लोगों की ज़रूरत नहीं है, जो हर दिन उससे भीख माँगने के लिए अपने हाथ फैलाए रहते हैं, और उनकी तो बिलकुल भी ज़रूरत नहीं है, जो थोड़ा-सा देते हैं और फिर पुरस्कृत होने का इंतज़ार करते हैं। परमेश्वर उन लोगों से घृणा करता है, जो तुच्छ योगदान करते हैं और फिर अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट हो जाते हैं। वह उन निष्ठुर लोगों से नफरत करता है, जो उसके प्रबंधन-कार्य से नाराज़ रहते हैं और केवल स्वर्ग जाने और आशीष प्राप्त करने के बारे में बात करना चाहते हैं। वह उन लोगों से और भी अधिक घृणा करता है, जो उसके द्वारा मानवजाति के बचाव के लिए किए जा रहे कार्य से प्राप्त अवसर का लाभ उठाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इन लोगों ने कभी इस बात की परवाह नहीं की है कि परमेश्वर अपने प्रबंधन-कार्य के माध्यम से क्या हासिल और प्राप्त करना चाहता है। उनकी रुचि केवल इस बात में होती है कि किस प्रकार वे परमेश्वर के कार्य द्वारा प्रदान किए गए अवसर का उपयोग आशीष प्राप्त करने के लिए कर सकते हैं। वे परमेश्वर के हृदय की परवाह नहीं करते, और पूरी तरह से अपनी संभावनाओं और भाग्य में तल्लीन रहते हैं। जो लोग परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य से कुढ़ते हैं और इस बात में ज़रा-सी भी रुचि नहीं रखते कि परमेश्वर मानवजाति को कैसे बचाता है और उसकी क्या मर्ज़ी है, वे केवल वही कर रहे हैं जो उन्हें अच्छा लगता है और उनका तरीका परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य से अलग-थलग है। उनके व्यवहार को परमेश्वर द्वारा न तो याद किया जाता है और न ही अनुमोदित किया जाता है—परमेश्वर द्वारा उसे कृपापूर्वक देखे जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है

अब तुम्हें किसका अनुसरण करना चाहिए? तुम परमेश्वर के कार्य की गवाही देने में समर्थ हो या नहीं, तुम परमेश्वर की गवाही और उसकी एक अभिव्यक्ति बनने में सक्षम हो या नहीं, और तुम उसके द्वारा उपयोग किए जाने के योग्य हो या नहीं—ये वे बातें हैं, जिनका तुम्हें पता लगाना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हारे भीतर वास्तव में कितना कार्य किया है? तुमने कितना देखा है, कितना स्पर्श किया है? तुमने कितना अनुभव किया और चखा है? चाहे परमेश्वर ने तुम्हारी परीक्षा ली हो, तुम्हारा निपटारा किया हो या तुम्हें अनुशासित किया हो, उसके क्रियाकलाप और उसका कार्य तुम पर किए गए हैं। परंतु परमेश्वर के एक विश्वासी के रूप में और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में, जो परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के लिए प्रयास करने को उत्सुक है, क्या तुम अपने व्यावहारिक अनुभव के आधार पर परमेश्वर के कार्य की गवाही देने में समर्थ हो? क्या तुम अपने व्यावहारिक अनुभव के माध्यम से परमेश्वर के वचन को जी सकते हो? क्या तुम अपने व्यावहारिक अनुभव के माध्यम से दूसरों को पोषण प्रदान करने और परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के लिए अपना पूरा जीवन खपाने में सक्षम हो? परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के लिए तुम्हें अपने अनुभव, ज्ञान और स्वयं द्वारा चुकाई गई कीमत पर निर्भर करना चाहिए। केवल इसी तरह तुम उसकी इच्छा पूरी कर सकते हो। क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो, जो परमेश्वर के कार्य की गवाही देता है? क्या तुम्हारी यह अभिलाषा है? अगर तुम उसके नाम, और इससे भी बढ़कर, उसके कार्य की गवाही देने में समर्थ हो, और अगर तुम उस छवि को जीने में सक्षम हो जिसकी वह अपने लोगों से अपेक्षा करता है, तो तुम परमेश्वर के गवाह हो। तुम वास्तव में परमेश्वर की किस प्रकार गवाही देते हो? परमेश्वर के वचन को जीने का प्रयास और उसकी लालसा करके और अपने शब्दों से गवाही देकर, और लोगों को परमेश्वर के कार्य को जानने और उसके क्रियाकलाप देखने देकर तुम ऐसा करते हो। अगर तुम वास्तव में यह सब खोजोगे, तो परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बना देगा। अगर तुम बस परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाना और अंत में धन्य किया जाना चाहते हो, तो परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का परिप्रेक्ष्य शुद्ध नहीं है। तुम्हें यह खोजना चाहिए कि वास्तविक जीवन में परमेश्वर के कर्मों को कैसे देखें, जब वह अपनी इच्छा तुम पर प्रकट करे तो उसे कैसे संतुष्ट करें, और तुम्हें यह पता लगाना चाहिए चाहिए कि उसकी अद्भुतता और बुद्धि की गवाही तुम्हें कैसे देनी चाहिए, और इसकी गवाही कैसे देनी चाहिए कि वह तुम्हें कैसे अनुशासित करता है और कैसे तुमसे निपटता है। ये सभी वे चीजें हैं, जिन पर अब तुम्हें विचार करना चाहिए। अगर परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम सिर्फ इसलिए है कि परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के बाद तुम उसकी महिमा में हिस्सा बँटा सको, तो यह अभी भी अपर्याप्त है और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर सकता। तुम्हें परमेश्वर के कार्य की गवाही देने में समर्थ होने, उसकी अपेक्षाएँ पूरी करने और उसके द्वारा लोगों पर किए गए कार्य का व्यावहारिक तरीके से अनुभव करने की आवश्यकता है। चाहे पीड़ा हो, आँसू हो या उदासी, तुम्हें अपने अभ्यास में ये सभी चीजें अनुभव करनी चाहिए। ये तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में पूर्ण करने के लिए हैं, जो परमेश्वर की गवाही देता है। वास्तव में अभी वह क्या है, जो तुम्हें कष्ट सहने और पूर्णता पाने की कोशिश करने के लिए मजबूर करता है? क्या तुम्हारा वर्तमान कष्ट सच में परमेश्वर से प्रेम करने और उसकी गवाही देने के लिए है? या यह देह के आशीषों के लिए, तुम्हारी भविष्य की संभावनाओं और नियति के लिए है? अपने जिन इरादों, प्रेरणाओं और लक्ष्यों का तुम अनुसरण करते हो, वे सब सही किए जाने चाहिए, वे तुम्हारी इच्छा से निर्देशित नहीं हो सकते।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

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