4. पवित्र शिष्टता जो परमेश्वर के विश्वासियों को धारण करनी चाहिए

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

सामान्य मानवता में कौन-से पहलू शामिल हैं? अंतर्दृष्टि, समझ, विवेक, और चरित्र। यदि तुम इनमें से प्रत्येक पहलू में सामान्यता प्राप्त कर सकते हो, तो तुम्हारी मानवता मानक के मुताबिक हो जाएगी। तुममें एक सामान्य इंसान से समरूपताहोनी चाहिए और तुम्हें परमेश्वर केविश्वासी की तरह लगनाचाहिए। तुम्हें बहुत अधिक हासिल नहीं करना है या कूटनीति में संलग्न नहीं होना है; तुम्हें बस एक सामान्य इंसान बनना है जिसके पास सामान्य व्यक्ति की समझ हो, जो चीज़ों को समझने में सक्षम हो, और जो कम से कम एक सामान्य इंसान की तरह दिखाई दे। यह पर्याप्त होगा। आज तुमसे अपेक्षित हर चीज़ तुम्हारी क्षमताओं के भीतर है और किसी भी तरह से तुमसे कुछ ऐसा करवाने के लिए नहीं है जो करने में तुम सक्षम नहीं हो। कोई अनुपयोगी वचन या अनुपयोगी कार्य तुम पर नहीं किया जाएगा। तुम्हारे जीवन में व्यक्त या प्रकट हुई समस्त कुरूपता का अवश्य त्याग कर दिया जाना चाहिए। तुम लोगों को शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया है और तुम लोग शैतान के ज़हर से भरे हुए हो। तुमसे केवल इस भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से छुटकारा पाने के लिए कहा जाता है। तुमसे कोई उच्च पदस्थ व्यक्ति, या एक प्रसिद्ध या महान व्यक्ति बनने के लिए नहीं कहा जाता। इसका कोई अर्थ नहीं है। जो कार्य तुम लोगों पर किया जाता है वह उसके अनुसार होता है जो तुम लोगों में अंतर्निहित है। मैं लोगों से जो अपेक्षा करता हूँ उसकी सीमाएँ होती हैं। यदि तुमने उस तरीके और लहजे से अभ्यास किया है जिसमें बुद्धिजीवी बात करते हैं तो इससे काम नहीं चलेगा; तुम इसे नहीं कर पाओगे। तुम लोगों की क्षमता के हिसाब से तुम्हें कम से कम बुद्धिमानी और कुशलता के साथ बोलने में सक्षम होना चाहिए और चीज़ों को स्पष्ट रूप से और समझ में आने वाले ढंग से बताना चाहिए। अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए बस इतने की ज़रूरत है। कम से कम, यदि तुम अंतर्दृष्टि और समझ प्राप्त कर लेते हो, तो यह पर्याप्त है। अभी सबसे महत्वपूर्ण बात है स्वयं के भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर करना। तुम्हें उस कुरूपता को अवश्य त्याग देना चाहिए जो तुममें व्यक्त होती है। यदि तुमने इन्हें त्यागा नहीं है, तो परम समझ और परम अंतर्दृष्टि की बात कैसे कर सकते हो? यह देखते हुए कि युग बदल गया है, बहुत से लोगों में विनम्रता या धैर्य का अभाव है, और हो सकता है कि उनमें कोई प्रेम या संतों वाली शालीनता भी न हो। ये लोग कितनेबेहूदा हैं! क्या उनमें रत्ती भर भी सामान्य मानवता है? क्या उनके पास कोई बताने लायक गवाही है? उनके पास किसी भी तरह की कोई अंतर्दृष्टि और समझ नहीं है। निस्सन्देह, लोगों के व्यवहार के कुछ पहलुओं को, जो पथभ्रष्ट और गलत हैं, सही किए जाने की आवश्यकता है। उदाहरण के तौर पर, लोगों के अतीत का कठोर आध्यात्मिक जीवन और उनका संवेदनशून्य और मूर्खतापूर्ण रूप—इन सभी चीजों को बदलना होगा। परिवर्तन का अर्थ यह नहीं है कि तुम्हें स्वच्छंद होने दिया जाए या शरीर में आसक्त होने दिया जाए या तुम जो चाहो वह बोलने दिया जाए। तुम्हें लापरवाही से नहीं बोलना चाहिए। एक सामान्य इंसान की तरह व्यवहार करना और बोलना-चालना सुसंगति से बोलना है, जब तुम्हारा आशय "हाँ" होता है तो "हाँ" बोलना, "नहीं" आशय होने पर "नहीं" बोलना। तथ्यों के मुताबिक रहो और उचित तरीके से बोलो। कपट मत करो, झूठ मत बोलो। स्वभाव में बदलाव के संबंध में सामान्य व्यक्ति जिन सीमाओं तक पहुँच सकता है, उन्हें अवश्य समझना चाहिए। अन्यथा तुम वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर पाओगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्षमता बढ़ाना परमेश्वर का उद्धार पाने के लिए है

सामान्य लोगों के स्वभाव में कोई कुटिलता या धोखेबाज़ी नहीं होती, लोगों का एक-दूसरे के साथ एक सामान्य संबंध होता है, वे अकेले नहीं खड़े होते, और उनका जीवन न तो साधारण होता है और न ही पतनोन्मुख। इसलिए भी, परमेश्वर सभी के बीच ऊँचा है, उसके वचन मनुष्यों के बीच व्याप्त हैं, लोग एक-दूसरे के साथ शांति से, परमेश्वर की देखभाल और संरक्षण में रहते हैं, पृथ्वी, शैतान के हस्तक्षेप के बिना, सद्भाव से भरी है, और मनुष्यों के बीच परमेश्वर की महिमा बेहद महत्वपूर्ण है। ऐसे लोग स्वर्गदूतों की तरह हैं: शुद्ध, जोशपूर्ण, परमेश्वर के बारे में कभी भी शिकायत नहीं करने वाले, और पृथ्वी पर पूरी तरह से परमेश्वर की महिमा के लिए अपने सभी प्रयास समर्पित करने वाले।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 16

मुझे बहुत उम्मीदें हैं। मैं आशा करता हूँ कि तुम लोग उपयुक्त और अच्छी तरह से व्यवहार करो, अपना कर्तव्य निष्ठा से पूरा करो, सत्य और मानवता को अपनाओ, ऐसे व्यक्ति बनो जो अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि अपना जीवन भी परमेश्वर के लिए न्योछावर कर सके, वगैरह-वगैरह। ये सारी आशाएँ तुम लोगों की कमियों, भ्रष्टता और अवज्ञाओं से उत्पन्न होती हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपराध मनुष्य को नरक में ले जाएँगे

जिन लोगों का परमेश्वर इस्तेमाल करता है, वे बाहर से तर्कहीन प्रतीत होते हैं और दूसरों के साथ उनके सामान्य संबंध नहीं होते, हालाँकि वे औचित्य के साथ बोलते हैं, लापरवाही से नहीं बोलते, और परमेश्वर के सामने हमेशा शांत हृदय रख पाते हैं। यह ठीक उसी तरह का व्यक्ति है, जो पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए जाने के लिए पर्याप्त है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे "तर्कहीन" व्यक्तियों के, जिनके बारे में परमेश्वर बात करता है, दूसरों के साथ सामान्य संबंध नहीं होते, और वे बाहरी प्रेम या व्यवहारों को उचित सम्मान नहीं देते, लेकिन जब वे आध्यात्मिक चीज़ों पर संवाद करते हैं, तो वे अपना हृदय पूरी तरह खोल पाने में सक्षम होते हैं और निस्स्वार्थ भाव से दूसरों को वह रोशनी और प्रबुद्धता प्रदान करते हैं, जो उन्होंने परमेश्वर के सामने अपने वास्तविक अनुभव से हासिल की होती है। इसी प्रकार से वे परमेश्वर के प्रति अपना प्रेम व्यक्त करते हैं और उसकी इच्छा पूरी करते हैं। जब दूसरे सभी लोग उनकी निंदा और उपहास कर रहे होते हैं, तो वे बाहर के लोगों, घटनाओं या चीज़ों द्वारा नियंत्रित होने से बचने में सक्षम होते हैं, और फिर भी परमेश्वर के सामने शांत रह पाते हैं। ऐसे व्यक्तियों के पास अपनी स्वयं की अनूठी अंतर्दृष्टियाँ होती हैं। दूसरे लोग चाहे कुछ भी करें, उनका हृदय कभी भी परमेश्वर से दूर नहीं जाता। जब दूसरे लोग प्रसन्नतापूर्वक और मज़ाकिया ढंग से बातें कर रहे होते हैं, उनका हृदय तब भी परमेश्वर के समक्ष रहता है, और वे परमेश्वर के वचनों पर विचार करते रहते हैं या उसकी मंशा जानने की कोशिश करते हुए अपने हृदय में परमेश्वर से चुपचाप प्रार्थना करते रहते है। वे दूसरों के साथ सामान्य संबंध बनाए रखने को महत्व नहीं देते। लगता है, ऐसे व्यक्ति का जीने के लिए कोई दर्शन नहीं होता। बाहर से ऐसा व्यक्ति जीवंत, प्रिय और मासूम होता है, लेकिन उसमें शांति की भावना भी रहती है। परमेश्वर इसी प्रकार के व्यक्ति का उपयोग करता है। जीवन-दर्शन या "सामान्य तर्क" जैसी चीज़ें इस प्रकार के व्यक्ति में काम ही नहीं करतीं; इस प्रकार के व्यक्ति ने अपना पूरा हृदय परमेश्वर के वचनों को समर्पित कर दिया होता है, और लगता है, उसके हृदय में सिर्फ़ परमेश्वर होता है। यह उस प्रकार का व्यक्ति है, जिसे परमेश्वर "तर्कहीन" व्यक्ति के रूप में देखता है, और ठीक इसी प्रकार के व्यक्ति का परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जाता है। परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले व्यक्ति की पहचान इस प्रकार है : चाहे कोई भी समय या जगह हो, उसका हृदय हमेशा परमेश्वर के समक्ष रहता है, और दूसरे चाहे जितने भी अनैतिक हों, जितने भी वे वासना और देह में लिप्त हों, इस व्यक्ति का हृदय कभी भी परमेश्वर को नहीं छोड़ता, और वह भीड़ के पीछे नहीं जाता। केवल इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर द्वारा उपयोग के लिए अनुकूल है, और केवल इसी प्रकार का व्यक्ति पवित्र आत्मा द्वारा पूर्ण किया जाता है। यदि तुम ये चीज़ें प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने और पवित्र आत्मा द्वारा पूर्ण किए जाने के योग्य नहीं हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है

जिन लोगों के पास सत्य है, वे वही हैं जो अपने वास्तविक अनुभवों में, कभी पीछे हटे बिना, अपनी गवाही पर दृढ़ता से डटे रह सकते हैं, अपने दृष्टिकोण पर दृढ़ता से डटे रह सकते हैं, परमेश्वर के पक्ष में खड़े हो सकते हैं, और जो परमेश्वर से प्रेम करने वाले लोगों के साथ सामान्य संबंध रख सकते हैं, जो अपने ऊपर कुछ बीतने पर पूर्णतः परमेश्वर का आज्ञापालन कर पाते हैं, और मृत्युपर्यंत परमेश्वर का आज्ञापालन कर सकते हैं। वास्तविक जीवन में तुम्हारा अभ्यास और तुम्हारे प्रकाशन परमेश्वर की गवाही हैं, वे मनुष्य का जीवनयापन करना और परमेश्वर की गवाही हैं, और यही वास्तव में परमेश्वर के प्रेम का आनंद लेना है; जब तुमने इस बिंदु तक अनुभव कर लिया होगा, तब तुम्हें यथोचित प्रभाव की प्राप्ति हो चुकी होगी। तुम्हारे पास वास्तविक जीवनयापन होता है और तुम्हारा प्रत्येक कार्यकलाप अन्य लोगों द्वारा प्रशंसा से देखा जाता है। तुम्हारे कपड़े और तुम्हारा बाह्य रूप साधारण है, किंतु तुम अत्यंत धर्मनिष्ठता का जीवन जीते हो, और जब तुम परमेश्वर के वचन संप्रेषित करते हो, तब तुम उसके द्वारा मार्गदर्शित और प्रबुद्ध किए जाते हो। तुम अपने शब्दों के माध्यम से परमेश्वर की इच्छा कह पाते हो, वास्तविकता संप्रेषित कर पाते हो, और तुम आत्मा से सेवा करने के बारे में बहुत-कुछ समझते हो। तुम अपनी वाणी में खरे हो, तुम शालीन और ईमानदार हो, झगड़ालू नहीं हो और मर्यादित हो, परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन कर पाते हो और जब तुम पर कुछ बीतती है तब तुम अपनी गवाही पर दृढता से डटे रहते हो, और तुम चाहे जिससे निपट रहे हो, हमेशा शांत और संयमित रहते हो। इस तरह के व्यक्ति ने सच में परमेश्वर का प्रेम देखा है। कुछ लोग अब भी युवा हैं, परंतु वे मध्यम आयु के व्यक्ति के समान व्यवहार करते हैं; वे परिपक्व, सत्य से युक्त होते हैं, और दूसरों से प्रशंसित होते हैं—और ये वे लोग हैं जिनके पास गवाही है और वे परमेश्वर की अभिव्यक्ति हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर से प्रेम करने वाले लोग सदैव उसके प्रकाश के भीतर रहेंगे

संदर्भ के लिए धर्मोपदेश और संगति के उद्धरण :

एक व्यक्ति जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है, वह हर दिन कम से कम इन पाँच पहलुओं को अपने आध्यात्मिक जीवन में क्रियान्वित करता हैः परमेश्वर के वचन को पढ़ना, परमेश्वर से प्रार्थना करना, सत्य पर संगति करना, भजनों और स्तुतियों को गाना और हर चीज़ में सत्य की खोज करना। यदि तुम्हारे पास भी सभाओं का जीवन है, तो तुम्हारे पास अधिक आनन्द होगा। यदि कोई व्यक्ति ग्रहण करने की सामान्य योग्यता रखता है, अर्थात वह परमेश्वर के वचनों को पढ़कर स्वयं ही परमेश्वर के इरादों को समझ सकता है, सत्य को समझ सकता है, और जान सकता है कि कैसे सत्य के अनुरूप कार्य करना है, तो यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर पर अपने विश्वास में सफल होगा। यदि किसी व्यक्ति का इस प्रकार का आध्यात्मिक जीवन नहीं है या यदि उसका आध्यात्मिक जीवन अत्यधिक अनुचित है और केवल यदा-कदा ही अस्तित्व में होता है, तो वह व्यक्ति एक भ्रमित विश्वासी है। भ्रमित विश्वासी अपने कर्तव्य को पूर्ण करने के द्वारा अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं कर सकते हैं। एक आध्यात्मिक जीवन जीए बिना परमेश्वर में विश्वास करना आस्था को केवल दिखावटी प्रेम करना है, उनके हृदयों में कोई परमेश्वर नहीं होता है, परमेश्वर का कोई भय तो दूर की बात है। ऐसे लोगों में कैसे एक उचित मनुष्य की समानता हो सकती है?

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एक सामान्य व्यक्ति कैसा होना चाहिए, जब इसकी बात आती है तो प्रवेश और अभ्यास करने के लिए 10 बातें हैं जिन पर ध्यान देना चाहिए:

1. शिष्टाचार का पालन करो, नियमों को जानो और वृद्धों का आदर करो तथा युवाओं की देखभाल करो।

2. एक उपयुक्त जीवन-शैली जियो जो तुम्हारे लिए और अन्य लोगों के लिए लाभकारी हो।

3. सम्मानजनक और सीधी-सादी पोशाक पहनो; अजीब सा अनोखे कपड़े निषिद्ध हैं।

4. भाइयों या बहनों से किसी भी कारण से पैसा उधार न माँगो, और अन्य लोगों की चीज़ों को यूँ ही उपयोग में मत लाओ।

5. विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ सम्पर्क में आने पर सीमाओं में रहो; क्रिया-कलाप हमेशा सम्मानीय और ईमानदार अवश्य होने चाहिए।

6. लोगों के साथ वाद-विवाद मत करो; दूसरों की बातें धैर्य से सुनना सीखो।

7. बढ़िया स्वच्छता बनाए रखो, किन्तु वास्तविक परिस्थितियों के आलोक में।

8. दूसरों के साथ उचित बातचीत करें और सामान्य संबंध रखें, लोगों का आदर करना और उनके प्रति विचारशील होना सीखो, और एक दूसरे से प्रेम करो।

9. ज़रूरत मंदों की हर सम्भव सहायता करो; दूसरे लोगों से चीज़ें न तो मांगों न स्वीकार करो।

10. दूसरों को तुम्हारी सेवा मत करने दो; अन्य लोगों से वोकार्य मत करवाओ जो तुम्हें स्वयं करना चाहिए।

ये दस नियम वे न्यूनतम होने चाहिए जिनका सभी विश्वासियों द्वारा अपने जीवन में पालन किया जाना चाहिए; जो कोई इन नियमों को तोड़ता है वो कमज़ोर चरित्र का होता है। इन्हें परमेश्वर के घर के नियम कहा जा सकता है, और जो लोग बार-बार इनका उल्लंघन करते हैं वे निश्चित रूप से किनारे कर दिए जाएँगे।

जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं उन सबको प्राचीन संतों के दस सकारत्मक चारित्रिक लक्षणों के अनुसार खुद को ढालने की आवश्यकता है। जो लोग इन्हें निंरतर अभ्यास में लाते और पालन करते हैं वे निश्चित रूप से बड़े व्यक्तिगत पुरस्कार प्राप्त करेंगे। ये मानवजाति के लिए अत्यंत लाभदायक हैं।

संत जैसी शालीनता के अनुरूप बनने के लिए दस सिद्धांत:

1. हर सुबह के समय लगभग आधे घंटे तक परमेश्वर के वचन की प्रार्थना-पठन के द्वारा आध्यात्मिक भक्ति करो।

2. अधिक परिशुद्धता के साथ सत्य का अभ्यास कर सको, इसके लिए हर दिन सभी बातों में परमेश्वर के इरादों को खोजो।

3. अपने सम्पर्क में आने वाले सभी के साथ संगति करो, एक दूसरे की ताकतों से सीखो और एक-दूसरे की कमियों को पूरा करो ताकि दोनों का विकास हो सके।

4. जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाओ, अक्सर भजनों और स्तुतियों को गाओ और परमेश्वर के अनुग्रह के लिए धन्यवाद दो।

5. धर्मनिरपेक्ष संसार द्वारा मत उलझो; नियमित रूप से अपने हृदय में परमेश्वर के नज़दीक आओ और दूसरों के मामले में हस्तक्षेप मत करो।

6. अपने हृदय में बुद्धि रखो और बुरे और खतरनाक स्थानों से दूर रहो।

7. लोगों के साथ वाद-विवाद मत करो, सत्य पर संगति करो, और दूसरों के साथ अच्छे से मिलजुल कर रहो।

8. दूसरों की सहायता के लिए वह सब करने के लिए प्रसन्न रहो जो तुम कर सकते हो, उनकी चिंताओं को कम करो, और परमेश्वकर में विश्वास के प्रवेश में उनकी कठिनाईयों को सुलझाने में उनकी सहायता करो।

9. सीखो कि कैसे दूसरों का आज्ञापालन करें, लोगों पर नियंत्रण मत करो या उन्हें मज़बूर मत करो; लोगों को सभी मामलों में कुछ लाभ लेने दो।

10. अपने हृदय में अक्सर परमेश्वर की आराधना करो; उसे हर बात में प्रभुता लेने दो और उसे सभी बातों में संतुष्ट करो।

जीवन के उपरोक्त दस नियम और संत जैसी शालीनता के अनुरूप बनने के लिए दस तरीके वे सभी बातें हैं जिन्हें करने में लोग सक्षम हैं। अगर लोग इन्हें समझते हों तो वे इन चीज़ों का अभ्यास कर सकते हैं, और यदा-कदा होने वाले उल्लंघन को सुलझाना मुश्किल नहीं है। निस्संदेह, निकृष्ट मानवता वाले कुछ लोग अपवाद हैं।

—ऊपर से संगति

उचित मानवता मुख्य रूप से अंतरात्मा, विवेकशीलता, चरित्र और गरिमा रखने को संदर्भित करती है। अंतरात्मा और विवेकशीलता में सहनशीलता, अन्य लोगों के प्रति धैर्य होना, ईमानदार होना, व्यवहार में बुद्धिमानी का होना, और भाइयों और बहनों के प्रति सच्चा प्रेम रखना शामिल हैं। ये वे पाँच अभिलक्षण हैं जो कि उचित मानवता के अंतर्गत होने चाहिए।

सबसे पहला अभिलक्षण है सहिष्णुता वाला हृदय होना। चाहे हम अपने भाइयों और बहनों में कोई भी दोष देखें, हमें उनके साथ सही ढंग से व्यवहार करना चाहिए, सहिष्णुता और समझदारी व्यक्त करनी चाहिए। जब हम दूसरों में दोष या भ्रष्टता प्रकट होते हुए देखें, तो हमें ध्यान में रखना चाहिए कि यह परमेश्वर के उद्धार के कार्य का समय है, तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा भ्रष्टता का प्रकटन सामान्य बात है, और हमें इसे समझना चाहिए। इसके अलावा, हमें अपनी स्वयं की भ्रष्टता पर विचार करने की आवश्यकता है; हम आवश्यक रूप से अन्य लोगों से कम भ्रष्टता का प्रकाशन नहीं करते हैं। हमें दूसरों की भ्रष्टता के प्रकटन के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा किहम अपनी स्वयं की भ्रष्टता के प्रकटन के साथ करते हैं। इस तरह, हम दूसरों के प्रति सहनशील हो सकते हैं। यदि तुम अन्य लोगों के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम्हारी विवेकशीलता में कोई समस्या है; जो यह भी दर्शाता है कि तुम सत्य को नहीं समझते हो और तुम परमेश्वर के कार्य को नहीं जानते हो। परमेश्वर के कार्य को नहीं जानने का क्या अर्थ है? यह इस बात को पहचानना नहीं है कि परमेश्वर का कार्य अभी ख़त्म होने को है और मनुष्य अभी भी परमेश्वर के उद्धार के कार्य की अवधि में रह रहा है—हमें पूर्ण नहीं बनाया गया है। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति अनिवार्य रूप से भ्रष्टता को प्रकट करेगा। अब हर कोई अपनी स्वयं की भ्रष्टता को जान कर और और परमेश्वर के वचन को अनुभव कर, उचित ढंग से सत्य का अनुसरण करने की कोशिश में लगा हुआ है। हर व्यक्ति सत्य के भीतर प्रवेश करने की अवधि में है और उसने अभी तक सत्य को पूरी तरह से प्राप्त नहीं किया है। यह केवल लोगों द्वारा सत्य को ग्रहण कर लेने के बाद ही होता है कि उनके जीवन स्वभाव में परिवर्तन होना आरम्भ हो जाएगा। जब लोग इस बिन्दु को समझ जाएँगे तो उनमें एक उचित व्यक्ति की विवेकशीलता आ जाएगी और वे दूसरों के साथ भी विवेकशीलता से व्यवहार करेंगे। यदि लोगों में विवेक नहीं है तो वे किसी के साथ विवेकशीलता से व्यवहार नहीं करेंगे।

दूसरा अभिलक्षण दूसरों के प्रति धैर्य का अभ्यास करना है। केवल सहिष्णु होना ही पर्याप्त नहीं है; तुम्हें धैर्यवान भी अवश्य होना चाहिए। कभी-कभी तुम केवल सहिष्णु और समझदार हो सकते हो, किन्तु अनिवार्य रूप से कोई बहन या भाई कुछ ऐसा करेगा जो तुम्हें चोट पहुँचायेगा या अपमानित करेगा। इस प्रकार की परिस्थिति में मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव फूट कर बाहर आएगा ही, क्योंकि हम सभी को लड़ना और अपने स्वयं के गौरव की रक्षा करना पसंद है, और हम सभी स्वार्थी और बेकार हैं। इसलिए यदि कोई कुछ कहता है जिससे तुम्हें चोट पहुँचती है या कुछ करता है जो तुम्हें अपमानित करने वाला लगता है, तो तुम्हें धैर्यवान होना चाहिए है। धैर्य विवेकशीलता के दायरे में भी शामिल किया जाता है। लोगों में धैर्य का विकास तभी होगा जब उनमें विवेक होगा। किन्तु हम धैर्यवान कैसे बन सकते हैं? यदि तुम दूसरों के प्रति धैर्यवान होना चाहते हो, तो सबसे पहले तुम्हें उन्हें समझने की आवश्यकता है, अर्थात चाहे कोई तुम्हें कुछ भी ऐसा कहे जिससे तुम्हें चोट पहुँचती है, तुम्हें यह समझना चाहिएः "उसके वचनों ने मुझे चोट पहुँचायी है। जो कुछ उसने कहा वह मेरी कमियों को उजागर करता हुआ प्रतीत हुआ है और मुझे निशाना बनाता हुआ प्रतीत हुआ। यदि उसके वचन मुझ पर निशाना लगा रहे हैं, तो उनसे उसका क्या अर्थ है? क्या वह मुझे नुकसान पहुँचाने की कोशिश कर रहा है? क्या वह मुझे अपने शत्रु के रूप में देखता है? क्या वह मुझसे घृणा करता है? क्या वह मुझसे बदला ले रहा है? मैंने उसका अपमान नहीं किया है, इसलिए इन प्रश्नों के उत्तर हाँ नहीं हो सकते हैं।" चूंकि मामला ये है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो भाई या बहन क्या कहता है, तुम्हें चोट पहुँचाने या तुमसे अपने शुत्र की तरह व्यवहार करने के उसके इरादे नहीं थे। यह तो पक्का है। जब उन्होंने इन वचनों को कहा, तो वे सिर्फ़ वैसा व्यक्त कर रहे थे जो एक सामान्य व्यक्ति सोचता है, वे सत्य पर सहभागिता कर रहे थे, ज्ञान की चर्चा कर रहे थे, लोगों की भ्रष्टता को उजागर कर रहे थे, या अपनी स्वयं की भ्रष्ट अवस्था को अभिस्वीकृत कर रहे थे, वे निश्चित रूप से जानबूझ कर किसी व्यक्ति विशेष को लक्षित नहीं कर रहे थे। सबसे पहले तुम समझ प्रस्तावित करते हो, तब तुम्हारा क्रोध नष्ट हो सकता है और फिर तुम धैर्य को प्राप्त कर सकते हो। कुछ लोग पूछेंगे: "यदि कोई जानबूझ कर मुझ पर प्रहार करता और मुझे निशाना बनाता है, और किसी प्रयोजन को प्राप्त करने के लिए केवल जानबूझकर इन बातों को कहता है, तो मैं किस प्रकार से धैर्यवान हो सकता हूँ?" तुम्हें इस प्रकार से धैर्यवान होना चाहिए: "भले ही कोई मेरे ऊपर जानबूझ कर प्रहार करे, मुझे तब भी धैर्यवान रहना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे मेरे भाई या बहन हैं और मेरे शत्रु नहीं हैं, और निश्चित रूप से दुष्टात्मा, शैतान नहीं हैं। यह अपरिहार्य है कि भाई और बहन कुछ भ्रष्टता प्रकट करेंगे और उनके हृदय के कुछ निश्चित इरादे होंगे। यह सामान्य बात है। मुझे समझना चाहिए, मुझे सहानुभूति दिखानी चाहिए और धैर्यवान होना चाहिए।" तुम्हें इसे इस ढंग से समझना चाहिए, फिर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और कहना चाहिएः "परमेश्वर, किसी ने अभी-अभी मेरे अभिमान पर प्रहार किया है। मैं अपमान स्वीकार नहीं कर सकता हूँ; मैं हमेशा अपना आपा खो देना चाहता हूँऔर उन पर पलटवार करना चाहता हूँ। यह वास्तव में एक भ्रष्टता का प्रकाशन है। मैं इस प्रकार से सोचा करता था कि मैं दूसरों से प्रेम करता हूँ, किन्तु अब जब कि किसी के वचन मेरे हृदय को भेद गए हैं तो मैं इसे सहन नहीं कर सकता हूँ। मैं वापस प्रहार करना चाहता हूँ। मैं बदला लेना चाहता हूँ। यहाँ पर कोई प्रेम नहीं है! क्या यह सब केवल घृणा नहीं है? मेरे हृदय में अभी भी घृणा है! परमेश्वर, जिस प्रकार से तू हमारे ऊपर दया करता है और हमारे पापों के लिए हमें क्षमा करता है वैसे ही हमें दूसरों पर दया करनी चाहिए। हमें द्वेष नहीं रखना चाहिए। परमेश्वर, कृपया मेरी रक्षा कर, मेरे स्वभाव को मत टूटने दे। मैं तेरा आज्ञापालन करने की इच्छा रखता हूँ और तेरे प्रेम में रहना चाहता हूँ। हम मसीह और परमेश्वर की बहुत अधिक अवज्ञा और विरोध करते हैं, किन्तु मसीह तब भी हमारे साथ धैर्यवान रहता है। परमेश्वर अपने कार्य के इस चरण को बहुत ही धैर्य और प्रेम के साथ कर रहा है। मसीह ने कितना अधिक दुःख, अपमान और बदनामी सहन की? यदि मसीह इसके साथ धैर्यवान रह सका, तो थोड़ी सी सहनशीलता जिसकी हममें होने की आवश्यकता है तो कुछ भी नहीं है! हमें जिस बारे में सहनशील होने की आवश्यकता है उसकी मसीह के साथ कोई तुलना नहीं की जा सकता है...।" एक बार तुम इस प्रकार से प्रार्थना करोगे तो तुम महसूस करोगे कि जैसे कि तुम अत्यधिक भ्रष्ट हो, बहुत की तुच्छ हो, कद-काठी में अत्यधिक कम हो, और यह तब होगा जब तुम सहनशील बनने में समर्थ हो जाओगे, जब तुम अब और क्रोधित नहीं होगे और तुम्हारा रोष समाप्त हो जाएगा। इसी प्रकार से तुम धैर्य प्राप्त कर सकते हो।

तीसरा अभिलक्षण है लोगों के साथ ईमानदारी के साथ व्यवहार करना। लोगों के प्रति ईमानदार होने का अर्थ कि हम कुछ भी करें, चाहे यह दूसरों की सहायता करना हो या अपने भाइयों और बहनों की सेवकाई करना हो या सत्य का संवाद करना हो, हमें हृदय से बोलना है। कभी भी झूठ मत बोलो या नकली मत बनो। इसके अलावा, तुमने जो नहीं किया है उसका उपदेश मत दो। जब भी भाईयों और बहनों को हमारी सहायता की आवश्यकता हो हमें उनकी सहायता करनी चाहिए। हमें जो भी कर्तव्य पूरा करने की आवश्यकता है हमें उसे अवश्य ही पूर्ण करना चाहिए। हमेशा ईमानदार रहो और झूठे या आडंबरी मत बनो। ...निस्संदेह, कुछ विशेष व्यक्तियों के साथ व्यवहार करते समय, ईमानदार व्यक्ति होने के लिए थोड़ी सी बुद्धि की आवश्यकता होती है। यदि तुम देखते हो कि यह व्यक्ति विश्वसनीय नहीं है, यदि उनकी भ्रष्टता काफी गहरी है, यदि तुम उनकी वास्तविक प्रकृति का पता नहीं लगा सकते हो और नहीं जानते हो कि वे क्या कर सकते हैं, तो तुम्हें बुद्धिमान होने और उन्हें सब कुछ नहीं कहने की आवश्यकता है। एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए सिद्धांतों की आवश्यकता होती है। आँख बंद करके उन चीज़ों के बारे में न कहें जिनके बारे में आपको नहीं बोलना चाहिए। हमें उन्हीं चीजों के बारे में बात करनी चाहिए जिनके बारे मे हमें बात करनी चाहिए। इसके अलावा, ईमानदार व्यक्ति होने के लिए विवेक और औचित्य के साथ बातचीत करने की आवश्यकता होती है। कुछ लोग किसी की व्यस्तता की चिंता किए बगैर उसके व्यक्ति के साथ ईमानदारी का अभ्यास करने और उसके प्रति अपना दिल खोलने पर ज़ोर देते हैं। क्या यह मूर्खतापूर्ण व्यवहार नहीं है? एक ईमानदार व्यक्ति होना एक मूर्ख व्यक्ति होना नहीं है। यह चतुर, साधारण और स्पष्ट, तथा सन्मार्ग पर लाने वाला होने के बारे में है। तुम्हें उचितऔर विवेकपूर्ण होना है। ईमानदारी समझ के आधार पर बनती है। दूसरे लोगों के साथ व्यवहार करते समय ईमानदार होना और एक ईमानदार व्यक्ति होना, यही इसका अर्थ है। वास्तव में, एक ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात परमेश्वर के प्रति ईमानदार होना है। यदि तुम दूसरे लोगों के सामने ही ईमानदार होते किन्तु तुम परमेश्वर के सामने ईमानदार नहीं होते और उसे धोखा देते हो तो क्या यह एक बड़ी समस्या नहीं होगी? यदि तुम परमेश्वर के सामने ईमानदार व्यक्ति बनना चाहते हो, तो तुम दूसरों के सामने प्राकृतिक रूप से ईमानदार बन जाओगे। यदि तुम परमेश्वर के सामने ऐसा नहीं कर सकते हो, तो तुम वास्तव में दूसरों के सामने इसे नहीं कर सकते हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम सत्य के कौन से पहलू या किस सकारात्मक चीज़ में प्रवेश कर रहे हो, तुम्हें सबसे पहले इसे परमेश्वर के सामने करना चाहिए। जब तुम परमेश्वर के सामने परिणाम हासिल कर लेते हो, तो तुम दूसरों के सामने इसे स्वाभाविक रूप से आसानी से जीने में समर्थ हो जाओगे। अपने आप पर ज़ोर डालकर दूसरों के सामने ऐसा वैसा कर, परमेश्वर के सामने जो मन में आए वो न करो। इससे काम नही चलेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात है इसे परमेश्वर के सामने करना, जो मानवजाति का परीक्षण करता है और उनके हृदयों को जाँचता है। यदि तुम परमेश्वर के सामने इस परीक्षण को उत्तीर्ण कर लेते हो तो तुममें सच में वास्तविकता है। यदि तुम परमेश्वर के सामने इस परीक्षण को उत्तीर्ण नहीं करते हो तो तुममें वास्तविकता नहीं है—यह सत्य का अभ्यास करने का एक नियम है।

चौथा अभिलक्षण है व्यवहार में बुद्धिमत्ता का होना। कुछ लोग कहते हैं: "क्या भाइयों और बहनों के साथ मेल-जोल के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है?" हाँ, होती है, क्योंकि बुद्धि का उपयोग करना तुम्हारे भाइयों और बहनों के लिए और भी अधिक लाभदायक होता है। कुछ लोग पूछेंगेः "क्या भाइयों और बहनों के साथ बुद्धि का उपयोग करना चालाक होना नहीं है?" बुद्धिमानी चालाकी नहीं है, बल्कि, यह चालाकी के ठीक विपरीत है। बुद्धि का उपयोग करने का अर्थ है तब भाइयों और बहनों से बातचीत करने के अपने तरीके पर ध्यान देना जब उनकी कद-काठी छोटी हो, ऐसा न हो कि तुम जो कहते हो वे उसे स्वीकार करने में असमर्थ हों। साथ ही, छोटी कद-काठी वालोंके लिए, खासकर जिनके पास सत्य नहीं करते हैऔर जो कुछ भ्रष्टता को प्रकट करते हैं और जिनके कुछ भ्रष्ट स्वभाव हैं, यदि तुम बहुत ही साधारण और निष्कपट हो और उन्हें सब कुछ बता देते हो, तो तुम्हारे विरुद्ध बातें खोजना या तुम्हारा फायदा उठाना उनके लिए आसान हो सकता है। इसलिए बोलते समय तुम्हें कमोबेश सावधानियाँ अवश्य रखनी चाहिए और तुम्हारे पास कुछ तकनीकें अवश्य होनी चाहिए। हालाँकि, लोगों के प्रति सचेत रहने का अर्थ उनकी सहायता नहीं करना या उनके प्रति प्रेम नहीं होना नहीं है, इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि उन्हें तुरंत परमेश्वर के घर के बारे में कुछ आवश्यक बातों को नहीं बताना है, और उनके साथ बस सत्य संवादित करना है। यदि उन्हें जीवन में आध्यात्मिक सहायता की ज़रूरत है, अगर उन्हें सत्य के पोषण की आवश्यकता होती है, तो हमें इस संबंध में उन्हें संतुष्ट करने के लिए अपनी क्षमता के अंतर्गत सब कुछ करना है। किन्तु यदि वे परमेश्वर के घर के बारे में इधर-उधर की पूछताछ कर रहे हैं, या अगुवों और कार्यकर्ताओं के बारे में इधर-उधर की पूछताछ कर रहे हैं, तो उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम उन्हें बताते हो, तो वे इस जानकारी को गलत हाथों में दे सकते हैं और इससे परमेश्वर के घर का कार्य प्रभावित होगा। दूसरे शब्दों में, यदि यह कुछ ऐसा है जो उन्हें नहीं जानना चाहिए या कुछ ऐसा है जिसके बारे में उन्हें जानने की आवश्यकता नहीं है, तो उन्हें इसके बारे में कुछ भी मत जानने दो। यदि यह कुछ ऐसा है जो उन्हें जानना चाहिए, तो इसके बारे में उन्हें, वस्तुतः और बिना रोक के, बताने के लिए तुम वह सब करो जो तुम कर सकते हो। तो वे कौन सी बातें हैं जो उन्हें जाननी चाहिए? लोगों को सत्य के अनुसरण को जानना चाहिए: किन सत्यों से उन्हें सुसज्जित होना चाहिए, सत्य के किन पहलुओं को उन्हें समझना चाहिए, कौन से कर्तव्य उन्हें पूरे करने चाहिए, कौन से कर्तव्य पूरा करना उनके लिए उचित होगा, उन्हें उन कर्तव्यों को किस प्रकार से पूरा करना चाहिए, उचितमानवता को कैसे जीना है, कलीसिया का जीवन किस प्रकार से जीना है—इन सभी बातों को लोगों को जानना चाहिए। दूसरी ओर, परमेश्वर के घर के नियम और सिद्धांत, कलीसिया के कार्य, और तुम्हारे भाइयों और बहनों की स्थितियों को बाहरी लोगों या तुम्हारे परिवार के गैर-विश्वासियों के लिए प्रकट नहीं किया जा सकता है। यही वह सिद्धांत है जिसे हमें तब अवश्य पालन करना चाहिए जब हम बुद्धि का उपयोग करते हैं। उदारहण के लिए, तुम्हें अपने अगुवों के नाम और पते के बारे में कभी बात नहीं करनी चाहिए। यदि तुम इन चीजों के बारे में बात करते हो, तो तुम्हें नहीं पता कि कब ये जानकारियाँ अविश्वासियों के कानों में पड़ जाएंगी, और चीजें तब एक बड़ी समस्या बन जाती हैं यदि ये बातें तब कुछ दुष्ट जासूसों या गुप्त एजेंटों तक पहुँच जाती हैं। इन सबके के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है, यही कारण है कि मैं कहता हूँ कि बुद्धि का होना अत्यंत आवश्यक है। इसके अलावा, जब तुम साधारण और निष्कपट होते हो, तो कुछ व्यक्तिगत बातें ऐसी हैं जिन्हें तुम किसी को भी यूँ ही नहीं बता सकते। यह देखने के लिए तुम्हें अपने भाई और बहनों की कद-काठी का आँकलन करना होगा कि क्या, तुम्हारे उन्हें बताने के बाद तुम जो कहते हो वे उसके बारे में बुरा कह सकते हैं और मज़ाक बना सकते हैं, तुम्हारी बातों के फैल जाने के बाद तुम्हारे लिए समस्या खड़ी कर सकते हैं जो तुम्हारी ईमानदारी को नुकसान पहुंचा सकती है। इसी लिए साधारण और निष्कपट होने के लिए भी बुद्धि की आवश्यकता है। यह उचित मानवजाति के लिए चौथा आवश्यक मानक है—व्यवहार में बुद्धिमत्ता का होना।

पाँचवाँ अभिलक्षण है ऐसे भाइयों और बहनों के लिए सच्चा प्रेम होना जो सच में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। इसमेंथोड़ी-सी देखभाल, सच्ची सहायता, और सेवा का एक भाव शामिल है। हम उन भाइयों और बहनों के साथ विशेष रूप से अधिक सहभागिता करते जो सत्य का अनुसरण करते हैं और उन्हें अधिक पोषण देते हैं। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि वे नए विश्वासी हैं कई साल से विश्वास करते रहे हैं। कलीसियाई जीवन का एक विशेष सिद्धांत हैः उन लोगों का विशेष ध्यान रखो जो सत्य का अनुसरण करते हैं। उनके साथ अधिक सहभागिता करो, उन्हें अधिक पोषण दो, और उन्हें अधिक सिंचन दो जिससे कि शीघ्रता से उन्हें सहायता मिले और यथाशीघ्र वे अपने जीवन में विकसित हों। जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं उनके लिए, यदि यह स्पष्ट हो जाता है कि एक अवधि तक सिंचित करने के बाद वे सत्य को प्रेम नहीं करते हैं, तो उन पर बहुत अधिक प्रयास व्यय करने की आवश्यकता नहीं है। यह आवश्यक नहीं है क्योंकि तुम मानव रूप से संभव सभी प्रयासों को पहले से ही कर चुके हो। इतना पर्याप्त है तुमने अपने उत्तरदायित्वों को पूरा कर लिया है। ...तुम्हें यह देखने की आवश्यकता है कि तुम्हें किस पर अपने कार्य को केन्द्रित करना चाहिए। क्या सत्य को नहीं खोजने वालों को परमेश्वर पूर्ण बनाएगा? यदि पवित्र आत्मा नहीं बनाएगा, तो लोगों को आँख बंद करके यह क्यों करते रहना चाहिए? तुम पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं जानते हो फिर भी हमेशा आत्मविश्वासी रहते हो—क्या यह तुम्हारी मानवीय मूर्खता और अज्ञानता नहीं है? इसलिए, दिल से सत्य को खोजने वाले भाइयों और बहनों को अधिक सहायता दो, क्योंकि वे परमेश्वर द्वारा उद्धार की वस्तुएँ हैं और उसके पूर्वनियत चुने हुए लोग हैं। यदि हम प्रायः एक हृदय और मन से इन लोगों के साथ सत्य पर सहभागिता करते हैं और एक दूसरे की सहायता करते हैं और पोषण देते हैं, तो अंत में हम सभी उद्धार हासिल करेंगे। यदि तुम इन लोगों के साथ नहीं जुड़ते हो तो तुम परमेश्वर की इच्छा के साथ विश्वासघात कर रहे हो। ...कलीसिया के भीतर जिनके पास उचित मानवता है, उन्हें स्वयं को सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों के बीच रखना चाहिए, उनके संग समरसता के साथ व्यवहार करना चाहिए और सत्य के अनुसरण के माध्यम से धीरे-धीरे एक ही हृदय और मन के साथ स्वयं को परमेश्वर के लिए व्यय करना चाहिए। इस तरह से, जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, वे बचाए जाएँगे और तुम भी बचाए जाओगे, क्योंकि पवित्र आत्मा सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों के बीच कार्य करता है। ...

जो सहभागिता हमने अभी की है, वो उन पाँच पहलुओं के बारे में है जिन्हें उचित मानवता मेंअवश्य सुसज्जित होना चाहिए। यदि तुम इन सभी पाँचों अभिलक्षणों को धारण करते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ समरसता के साथ बातचीत करने में, कलीसिया में अपना स्थान प्राप्त करने में, और अपनी सर्वोत्तम योग्यता के साथ अपने कर्तव्य को निभाने में समर्थ होगे।

—जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

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