3. परमेश्वर पर विश्वास में, तुम्हें परमेश्वर के साथ सामान्य सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

परमेश्वर में विश्वास करने में, तुम्हें कम से कम परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध रखने के मुद्दे का समाधान करना आवश्यक है। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा सामान्य संबंध नहीं है, तो परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का अर्थ खो जाता है। परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना परमेश्वर की उपस्थिति में शांत रहने वाले हृदय के साथ पूर्णतया संभव है। परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध रखने का अर्थ है परमेश्वर के किसी भी कार्य पर संदेह न करने या उससे इनकार न करने और उसके कार्य के प्रति समर्पित रहने में सक्षम होना। इसका अर्थ है परमेश्वर की उपस्थिति में सही इरादे रखना, स्वयं के बारे में योजनाएँ न बनाना, और सभी चीजों में पहले परमेश्वर के परिवार के हितों का ध्यान रखना; इसका अर्थ है परमेश्वर की जाँच को स्वीकार करना और उसकी व्यवस्थाओं का पालन करना। तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें तुम्हें परमेश्वर की उपस्थिति में अपने हृदय को शांत करने में सक्षम होना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा को नहीं भी समझते, तो भी तुम्हें अपनी सर्वोत्तम योग्यता के साथ अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए। एक बार परमेश्वर की इच्छा तुम पर प्रकट हो जाती है, तो फिर इस पर अमल करो, यह बहुत विलंब नहीं होगा। जब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाता है, तब लोगों के साथ भी तुम्हारा संबंध सामान्य होगा। सब-कुछ परमेश्वर के वचनों की नींव पर निर्मित होता है। परमेश्वर के वचनों को खाओ-पियो, फिर परमेश्वर की आवश्यकताओं को अभ्यास में लाओ, अपने विचार सही करो, और परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाला या कलीसिया में विघ्न डालने वाला कोई काम मत करो। ऐसा कोई काम मत करो, जो तुम्हारे भाई-बहनों के जीवन को लाभ न पहुँचाए; ऐसी कोई बात मत कहो, जो दूसरों के लिए सहायक न हो, और कोई निंदनीय कार्य न करो। अपने हर कार्य में न्यायसंगत और सम्माननीय रहो और सुनिश्चित करो कि तुम्हारा हर कार्य परमेश्वर के समक्ष प्रस्तुत करने योग्य हो। यद्यपि कभी-कभी देह कमज़ोर हो सकती है, फिर भी तुम्हें अपने व्यक्तिगत लाभ का लालच न करते हुए परमेश्वर के परिवार के हित पहले रखने और न्यायपूर्वक कार्य करने में सक्षम होना चाहिए। यदि तुम इस तरह से कार्य कर सकते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य होगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?

अपने हर कार्य में तुम्हें यह जाँचना चाहिए कि क्या तुम्हारे इरादे सही हैं। यदि तुम परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य कर सकते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। यह न्यूनतम मापदंड है। अपने इरादों पर ग़ौर करो, और अगर तुम यह पाओ कि गलत इरादे पैदा हो गए हैं, तो उनसे मुँह मोड़ लो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करो; इस तरह तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर के समक्ष सही है, जो बदले में दर्शाएगा कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, और तुम जो कुछ करते हो वह परमेश्वर के लिए है, न कि तुम्हारे अपने लिए। तुम जो कुछ भी करते या कहते हो, उसमें अपने हृदय को सही बनाने और अपने कार्यों में नेक होने में सक्षम बनो, और अपनी भावनाओं से संचालित मत होओ, न अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करो। ये वे सिद्धांत हैं, जिनके अनुसार परमेश्वर के विश्वासियों को आचरण करना चाहिए। छोटी-छोटी बातें व्यक्ति के इरादे और आध्यात्मिक कद प्रकट कर सकती हैं, और इसलिए, परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति को पहले अपने इरादे और परमेश्वर के साथ अपना संबंध सुधारना चाहिए। जब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य होता है, केवल तभी तुम परमेश्वर के द्वारा पूर्ण किए जा सकते हो; केवल तभी तुममें परमेश्वर का व्यवहार, काट-छाँट, अनुशासन और शोधन अपना वांछित प्रभाव हासिल कर पाएगा। कहने का अर्थ यह है कि यदि मनुष्य अपने हृदय में परमेश्वर को रखने में सक्षम हैं और वे व्यक्तिगत लाभ नहीं खोजते या अपनी संभावनाओं पर विचार नहीं करते (देह-सुख के अर्थ में), बल्कि जीवन में प्रवेश करने का बोझ उठाने के बजाय सत्य का अनुसरण करने की पूरी कोशिश करते हैं और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होते हैं—अगर तुम ऐसा कर सकते हो, तो जिन लक्ष्यों का तुम अनुसरण करते हो, वे सही होंगे, और परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य हो जाएगा। परमेश्वर के साथ अपना संबंध सही करना व्यक्ति की आध्यात्मिक यात्रा में प्रवेश करने का पहला कदम कहा जा सकता है। यद्यपि मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है और वह परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है, और मनुष्य द्वारा उसे बदला नहीं जा सकता, फिर भी तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जा सकते हो या नहीं अथवा तुम परमेश्वर द्वारा स्वीकार किए जा सकते हो या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है या नहीं। तुम्हारे कुछ हिस्से ऐसे हो सकते हैं, जो कमज़ोर या अवज्ञाकारी हों—परंतु जब तक तुम्हारे विचार और तुम्हारे इरादे सही हैं, और जब तक परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सही और सामान्य है, तब तक तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के योग्य हो। यदि तुम्हारा परमेश्वर के साथ सही संबंध नहीं है, और तुम देह के लिए या अपने परिवार के लिए कार्य करते हो, तो चाहे तुम जितनी भी मेहनत करो, यह व्यर्थ ही होगा। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, तो बाकी सब चीजें भी ठीक हो जाएँगी। परमेश्वर कुछ और नहीं देखता, केवल यह देखता है कि क्या परमेश्वर में विश्वास करते हुए तुम्हारे विचार सही हैं : तुम किस पर विश्वास करते हो, किसके लिए विश्वास करते हो, और क्यों विश्वास करते हो। यदि तुम इन बातों को स्पष्ट रूप से देख सकते हो, और अच्छी तरह से अपने विचारों के साथ अभ्यास करते हो, तो तुम अपने जीवन में उन्नति करोगे, और तुम्हें सही मार्ग पर प्रवेश की गारंटी भी दी जाएगी। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य नहीं है, और परमेश्वर में विश्वास के तुम्हारे विचार विकृत हैं, तो बाकी सब-कुछ बेकार है; तुम कितना भी दृढ़ विश्वास क्यों न करो, तुम कुछ प्राप्त नहीं कर पाओगे। परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य होने के बाद ही तुम परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करोगे, जब तुम देह-सुख का त्याग कर दोगे, प्रार्थना करोगे, दुःख उठाओगे, सहन करोगे, समर्पण करोगे, अपने भाई-बहनों की सहायता करोगे, परमेश्वर के लिए खुद को अधिक खपाओगे, इत्यादि।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?

लोग अपने हृदय से परमेश्वर की आत्मा को स्पर्श करके परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, उससे प्रेम करते हैं और उसे संतुष्ट करते हैं, और इस प्रकार वे परमेश्वर की संतुष्टि प्राप्त करते हैं; परमेश्वर के वचनों से जुड़ने के लिए वे अपने हृदय का उपयोग करते हैं और इस प्रकार वे परमेश्वर के आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाते हैं। यदि तुम एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करना चाहते हो और परमेश्वर के साथ सामान्यसंबंध स्थापित करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले उसे अपना हृदय अर्पित करना चाहिए। अपने हृदय को उसके सामने शांत करने और अपने पूरे हृदय को उस पर उँड़ेलने के बाद ही तुम धीरे-धीरे एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन विकसित करने में सक्षम होगे। यदि परमेश्वर पर अपने विश्वास में लोग परमेश्वर को अपना हृदय अर्पित नहीं करते और यदि उनका हृदय उसमें नहीं है और वे उसके दायित्व को अपना दायित्व नहीं मानते, तो जो कुछ भी वे करते हैं, वह परमेश्वर को धोखा देने का कार्य है, जो धार्मिक व्यक्तियों का ठेठ व्यवहार है, और वे परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकते। परमेश्वर इस तरह के व्यक्ति से कुछ हासिल नहीं कर सकता; इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर के काम में केवल एक विषमता का कार्य कर सकता है, परमेश्वर के घर में सजावट की तरह, फालतू और बेकार। परमेश्वर इस तरह के व्यक्ति का कोई उपयोग नहीं करता। ऐसे व्यक्ति में न केवल पवित्र आत्मा के काम के लिए कोई अवसर नहीं है, बल्कि उसे पूर्ण किए जाने का भी कोई मूल्य नहीं है। इस प्रकार का व्यक्ति, सच में, एक चलती-फिरती लाश की तरह है। ऐसे व्यक्तियों में ऐसा कुछ नहीं है, जिसका पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया जा सके, बल्कि इसके विपरीत, उन सभी को शैतान द्वारा हड़पा और गहरा भ्रष्ट किया जा चुका है। परमेश्वर इन लोगों को हटा देगा। वर्तमान में, लोगों का इस्तेमाल करते हुए पवित्र आत्मा न सिर्फ़ उनके उन हिस्सों का उपयोग करता है, जो काम करने के लिए वांछित हैं, बल्कि वह उनके अवांछित हिस्सों को भी पूर्ण करता और बदलता है। यदि तुम्हारा हृदय परमेश्वर में उँड़ेला जा सकता है और उसके सामने शांत रह सकता है, तो तुम्हारे पास पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए जाने, और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करने का अवसर और योग्यता होगी, और इससे भी बढ़कर, तुम्हारे पास पवित्र आत्मा द्वारा तुम्हारी कमियाँ दूर किए जाने का अवसर होगा। जब तुम अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करते हो, तो सकारात्मक पहलू में, तुम अधिक गहन प्रवेश प्राप्त कर सकोगे और अंतर्दृष्टि का एक उच्च तल हासिल कर सकोगे; और नकारात्मक पहलू में, तुम अपनी गलतियों और कमियों की अधिक समझ प्राप्त कर सकोगे, तुम परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति करने के लिए ज़्यादा उत्सुक होगे, और तुम निष्क्रिय नहीं रहोगे, बल्कि सक्रिय रूप से प्रवेश करोगे। इस प्रकार, तुम एक सही व्यक्ति बन जाओगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है

यदि तुम परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाना चाहते हो, तो तुम्हारा हृदय उसकी तरफ़ मुड़ना चाहिए। इस बुनियाद पर, तुम दूसरे लोगों के साथ भी सामान्य संबंध रखोगे। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा सामान्य संबंध नहीं है, तो चाहे तुम दूसरों के साथ संबंध बनाए रखने के लिए कुछ भी कर लो, चाहे तुम जितनी भी मेहनत कर लो या जितनी भी ऊर्जा लगा दो, वह मानव के जीवनदर्शन से संबंधित ही होगा। तुम दूसरे लोगों के बीच एक मानव-दृष्टिकोण और मानव-दर्शन के माध्यम से अपनी स्थिति बनाकर रख रहे हो, ताकि वे तुम्हारी प्रशंसा करें, लेकिन तुम लोगों के साथ सामान्य संबंध स्थापित करने के लिए परमेश्वर के वचनों का अनुसरण नहीं कर रहे। अगर तुम लोगों के साथ अपने संबंधों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, लेकिन परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध बनाए रखते हो, अगर तुम अपना हृदय परमेश्वर को देने और उसकी आज्ञा का पालने करने के लिए तैयार हो, तो स्वाभाविक रूप से सभी लोगों के साथ तुम्हारे संबंध सामान्य हो जाएँगे। इस तरह से, ये संबंध शरीर के स्तर पर स्थापित नहीं होते, बल्कि परमेश्वर के प्रेम की बुनियाद पर स्थापित होते हैं। इनमें शरीर के स्तर पर लगभग कोई अंत:क्रिया नहीं होती, लेकिन आत्मा में संगति, आपसी प्रेम, आपसी सुविधा और एक-दूसरे के लिए प्रावधान की भावना रहती है। यह सब ऐसे हृदय की बुनियाद पर होता है, जो परमेश्वर को संतुष्ट करता हो। ये संबंध मानव जीवन-दर्शन के आधार पर नहीं बनाए रखे जाते, बल्कि परमेश्वर के लिए दायित्व वहन करने के माध्यम से बहुत ही स्वाभाविक रूप से बनते हैं। इसके लिए मानव-निर्मित प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। तुम्हें बस परमेश्वर के वचन के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की आवश्यकता है। क्या तुम परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होने के लिए तैयार हो? क्या तुम परमेश्वर के समक्ष "तर्कहीन" व्यक्ति बनने के लिए तैयार हो? क्या तुम अपना हृदय पूरी तरह से परमेश्वर को देने और लोगों के बीच अपनी स्थिति की परवाह न करने के लिए तैयार हो? उन सभी लोगों में से, जिनके साथ तुम्हारा संबध है, किनके साथ तुम्हारे सबसे अच्छे संबंध हैं? किनके साथ तुम्हारे सबसे खराब संबंध हैं? क्या लोगों के साथ तुम्हारे संबंध सामान्य हैं? क्या तुम सभी लोगों से समान व्यवहार करते हो? क्या दूसरों के साथ तुम्हारे संबंध तुम्हारे जीवन-दर्शन पर आधारित हैं, या वे परमेश्वर के प्रेम की बुनियाद पर बने हैं? जब कोई व्यक्ति परमेश्वर को अपना हृदय नहीं देता, तो उसकी आत्मा सुस्त, सुन्न और अचेत हो जाती है। इस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को कभी नहीं समझेगा और परमेश्वर के साथ उसके संबंध कभी सामान्य नहीं होंगे; इस तरह के व्यक्ति का स्वभाव कभी नहीं बदलेगा। अपने स्वभाव को बदलना अपना हृदय पूरी तरह से परमेश्वर को अर्पित करने और परमेश्वर के वचनों से प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करने की प्रक्रिया है। परमेश्वर का कार्य व्यक्ति को सक्रियता से प्रवेश करा सकता है, और साथ ही उसे अपने नकारात्मक पहलुओं के बारे में जानने के बाद उनका परिमार्जन करने में सक्षम भी बना सकता है। जब तुम अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करने के बिंदु पर पहुँचोगे, तो तुम अपनी आत्मा के भीतर हर सूक्ष्म हलचल को महसूस कर पाओगे, और तुम परमेश्वर से प्राप्त हर प्रबुद्धता और रोशनी को जान जाओगे। इस सूत्र को पकड़कर रखोगे, तो तुम धीरे-धीरे पवित्र आत्मा द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग में प्रवेश करोगे। तुम्हारा हृदय परमेश्वर के समक्ष जितना शांत रह पाएगा, तुम्हारी आत्मा उतनी अधिक संवेदनशील और नाज़ुक रहेगी, और उतनी ही अधिक तुम्हारी आत्मा यह महसूस कर पाएगी कि पवित्र आत्मा किस तरह उसे प्रेरित करती है, और तब परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध और भी अधिक सामान्य हो जाएगा। लोगों के बीच सामान्य संबंध परमेश्वर को अपना हृदय सौंपने की नींव पर स्थापित होता है; मनुष्य के प्रयासों से नहीं। अपने दिलों में परमेश्वर को रखे बिना लोगों के अंत:संबंध केवल शरीर के संबंध होते हैं। वे सामान्य नहीं होते, बल्कि वासना से युक्त होते हैं। वे ऐसे संबंध होते हैं, जिनसे परमेश्वर घृणा करता है, जिन्हें वह नापसंद करता है। यदि तुम कहते हो कि तुम्हारी आत्मा प्रेरित हुई है, लेकिन तुम हमेशा उन लोगों के साथ साहचर्य चाहते हो, जिन्हें तुम पसंद करते हो, जिन्हें तुम उत्कृष्ट समझते हो, और यदि कोई दूसरा खोज कर रहा है लेकिन तुम उसे पसंद नहीं करते, यहाँ तक कि तुम उसके प्रति पूर्वाग्रह रखते हो और उसके साथ मेलजोल नहीं रखते, तो यह इस बात का अधिक प्रमाण है कि तुम भावनाओं के अधीन हो और परमेश्वर के साथ तुम्हारे संबंध बिलकुल भी सामान्य नहीं हैं। तुम परमेश्वर को धोखा देने और अपनी कुरूपता छिपाने का प्रयास कर रहे हो। यहाँ तक कि अगर तुम कुछ समझ साझा कर भी पाते हो, तो भी तुम गलत इरादे रखते हो, तब तुम जो कुछ भी करते हो, वह केवल मानव-मानकों से ही अच्छा होता है। परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा नहीं करेगा—तुम शरीर के अनुसार काम कर रहे हो, परमेश्वर के दायित्व के अनुसार नहीं। यदि तुम परमेश्वर के सामने अपने हृदय को शांत करने में सक्षम हो और उन सभी लोगों के साथ तुम्हारे सामान्य संबंध हैं, जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं, तो केवल तभी तुम परमेश्वर के उपयोग के लिए उपयुक्त होते हो। इस तरह, तुम दूसरों के साथ चाहे जैसे भी जुड़े हो, यह किसी जीवन-दर्शन के अनुसार नहीं होगा, बल्कि यह परमेश्वर के सामने उस तरह से जीना होगा, जो उसके दायित्व के प्रति विचारशील हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है

परमेश्वर के हर कथन को पढ़ो और जैसे ही तुम उन्हें समझ जाओ, उन पर अमल करना शुरू कर दो। शायद कुछ अवसरों पर तुम्हारी देह कमज़ोर थी, या तुम विद्रोही थे, या तुमने प्रतिरोध किया; इस बात की परवाह न करो कि अतीत में तुमने किस तरह का व्यवहार किया था, यह कोई बड़ी बात नहीं है, और यह आज तुम्हारे जीवन को परिपक्व होने से नहीं रोक सकती। अगर आज तुम परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध रख सकते हो, तो आशा की किरण बाकी है। यदि हर बार परमेश्वर के वचन पढ़ने पर तुममें परिवर्तन होता है, और दूसरे लोग बता सकते हैं कि तुम्हारा जीवन बदलकर बेहतर हो गया है, तो यह दिखाता है कि अब तुम्हारा परमेश्वर के साथ संबंध सामान्य है और उसे सही रखा गया है। परमेश्वर लोगों से उनके अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं करता। एक बार जब तुम समझ जाते हो और जागरूक हो जाते हो, जब तुम विद्रोही नहीं रहते और प्रतिरोध करना छोड़ देते हो, तो परमेश्वर फिर भी तुम पर दया करता है। जब तुम्हारे पास परमेश्वर द्वारा तुम्हें पूर्ण किए जाने की समझ और संकल्प होता है, तो परमेश्वर की उपस्थिति में तुम्हारी अवस्था सामान्य हो जाएगी। तुम चाहे कुछ भी कर रहे हो, उसे करते हुए बस इस बात पर ध्यान दो : यदि मैं यह कार्य करूँगा, तो परमेश्वर क्या सोचेगा? क्या इससे मेरे भाई-बहनों को लाभ पहुँचेगा? क्या यह परमेश्वर के घर के कार्य के लिए लाभकारी होगा? अपनी प्रार्थना, संगति, बोलचाल, कार्य और लोगों के साथ संपर्क में अपने इरादों की जाँच करो, और देखो कि क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है? यदि तुम अपने इरादों और विचारों को नहीं समझ सकते, तो इसका अर्थ है कि तुममें विवेक की कमी है, जिससे प्रमाणित होता है कि तुम सत्य को बहुत कम समझते हो। अगर तुम, जो कुछ भी परमेश्वर करता है, उसे स्पष्ट रूप से समझने और परमेश्वर के पक्ष में खड़े होकर चीजों को उसके वचनों के लेंस के माध्यम से देखने में समर्थ हुए, तो तुम्हारे दृष्टिकोण सही हो गए होंगे। अतः परमेश्वर के साथ अच्छे संबंध बनाना हर उस व्यक्ति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है, जो परमेश्वर में विश्वास रखता है; सभी को इसे सर्वोपरि महत्त्व का कार्य और अपने जीवन की सबसे बड़ी घटना मानना चाहिए। जो कुछ भी तुम करते हो, उसे इस बात से मापा जाता है कि क्या परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है? यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है और तुम्हारे इरादे सही हैं, तो कार्य करो। परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखने के लिए तुम्हें अपने व्यक्तिगत हितों का नुकसान उठाने से डरने की आवश्यकता नहीं है; तुम शैतान को जीतने नहीं दे सकते, तुम शैतान को अपने ऊपर पकड़ बनाने नहीं दे सकते, और तुम शैतान को तुम्हें हँसी का पात्र बनाने नहीं दे सकते। ऐसे इरादे होना इस बात का संकेत है कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है—यह देह के लिए नहीं है, बल्कि आत्मा की शांति के लिए है, पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने के लिए है और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए है। सही स्थिति में प्रवेश करने के लिए तुम्हें परमेश्वर के साथ अच्छा संबंध बनाना और उस पर विश्वास करने के विचारों को सही रखना आवश्यक है। ऐसा इसलिए, ताकि परमेश्वर तुम्हें प्राप्त कर सके और ताकि वह अपने वचन के फल तुममें प्रकट कर सके, और तुम्हें और अधिक प्रबुद्ध और प्रकाशित कर सके। इस प्रकार से तुम सही तरीके में प्रवेश करोगे। परमेश्वर के आज के वचनों को लगातार खाते-पीते रहो, पवित्र आत्मा के कार्य के वर्तमान तरीके में प्रवेश करो, परमेश्वर की आज की माँगों के अनुसार कार्य करो, अभ्यास के पुराने तरीकों का पालन मत करो, कार्य करने के पुराने तरीकों से मत चिपके रहो, और जितना जल्दी हो सके, कार्य करने के आज के तरीके में प्रवेश करो। इस तरह परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध पूरी तरह से सामान्य हो जाएगा और तुम परमेश्वर में विश्वास रखने के सही मार्ग पर चल पड़ोगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए। तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी...

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