iv. परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच अंतर कैसे करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
स्वयं परमेश्वर के कार्य में संपूर्ण मनुष्यजाति का कार्य समाविष्ट है, और यह संपूर्ण युग के कार्य का भी प्रतिनिधित्व करता है, कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर का अपना कार्य पवित्र आत्मा के सभी कार्य की गतिक और रुझान का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि प्रेरितों का कार्य परमेश्वर के अपने कार्य के बाद आता है और वहाँ से उसका अनुसरण करता है, वह न तो युग की अगुवाई करता है, न ही वह पूरे युग में पवित्र आत्मा के कार्य के रुझान का प्रतिनिधित्व करता है। वे केवल वही कार्य करते हैं जो मनुष्य को करना चाहिए, जिसका प्रबंधन कार्य से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर का अपना कार्य प्रबंधन कार्य के भीतर ही एक परियोजना है। मनुष्य का कार्य केवल वही कर्तव्य है जिसका निर्वहन प्रयुक्त लोग करते हैं, और उसका प्रबंधन कार्य से कोई संबंध नहीं है। कार्य की विभिन्न पहचान और कार्य के विभिन्न निरूपणों के कारण, इस तथ्य के बावजूद कि वे दोनों पवित्र आत्मा के कार्य हैं, परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य के बीच स्पष्ट और सारभूत अंतर हैं। इसके अतिरिक्त, पवित्र आत्मा द्वारा किए गए कार्य की सीमा विभिन्न पहचानों वाली वस्तुओं के अनुसार भिन्न होती है। ये पवित्र आत्मा के कार्य के सिद्धांत और दायरे हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य
देहधारी परमेश्वर का कार्य एक नये विशेष युग का आरम्भ करता है, और उसके कार्य को जारी रखने वाले वे लोग हैं जिनका उपयोग परमेश्वर करता है। मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य देहधारी परमेश्वर की सेवकाई के भीतर होता है, वह इस दायरे के परे नहीं जा सकता। यदि देहधारी परमेश्वर अपना कार्य करने के लिए न आता, तो मनुष्य पुराने युग को समाप्त कर, नए युग की शुरुआत नहीं कर पाता। मनुष्य द्वारा किया गया कार्य मात्र उसके कर्तव्य के दायरे के भीतर होता है जो मानवीय रूप से करना संभव है, वह परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता। केवल देहधारी परमेश्वर ही आकर उस कार्य को पूरा कर सकता है जो उसे करना चाहिए, उसके अलावा, इस कार्य को उसकी ओर से और कोई नहीं कर सकता। निस्संदेह, मैं देहधारण के कार्य के सम्बन्ध के बारे में बात कर रहा हूँ।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, भ्रष्ट मनुष्यजाति को देहधारी परमेश्वर द्वारा उद्धार की अधिक आवश्यकता है
परमेश्वर के वचन को मनुष्य का वचन नहीं समझा जा सकता, और मनुष्य के वचन को परमेश्वर का वचन तो बिलकुल भी नहीं समझा जा सकता। परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किया गया व्यक्ति देहधारी परमेश्वर नहीं है, और देहधारी परमेश्वर, परमेश्वर द्वारा इस्तेमाल किया गया मनुष्य नहीं है। इसमें एक अनिवार्य अंतर है। शायद इन वचनों को पढ़ने के बाद तुम इन्हें परमेश्वर के वचन न मानकर केवल मनुष्य द्वारा प्राप्त प्रबुद्धता मानो। उस हालत में, तुम अज्ञानता के कारण अंधे हो। परमेश्वर के वचन मनुष्य द्वारा प्राप्त प्रबुद्धता के समान कैसे हो सकते हैं? देहधारी परमेश्वर के वचन एक नया युग आरंभ करते हैं, समस्त मानवजाति का मार्गदर्शन करते हैं, रहस्य प्रकट करते हैं, और मनुष्य को वह दिशा दिखाते हैं, जो उसे नए युग में ग्रहण करनी है। मनुष्य द्वारा प्राप्त की गई प्रबुद्धता अभ्यास या ज्ञान के लिए सरल निर्देश मात्र हैं। वह एक नए युग में समस्त मानवजाति को मार्गदर्शन नहीं दे सकती या स्वयं परमेश्वर के रहस्य प्रकट नहीं कर सकती। अंततः परमेश्वर, परमेश्वर है और मनुष्य, मनुष्य। परमेश्वर में परमेश्वर का सार है और मनुष्य में मनुष्य का सार। यदि मनुष्य परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों को पवित्र आत्मा द्वारा प्रदत्त साधारण प्रबुद्धता मानता है, और प्रेरितों और नबियों के वचनों को परमेश्वर के व्यक्तिगत रूप से कहे गए वचन मानता है, तो यह मनुष्य की गलती होगी। चाहे जो हो, तुम्हें कभी सही और गलत को मिलाना नहीं चाहिए, और ऊँचे को नीचा नहीं समझना चाहिए, या गहरे को उथला समझने की गलती नहीं करनी चाहिए; चाहे जो हो, तुम्हें कभी भी जानबूझकर उसका खंडन नहीं करना चाहिए, जिसे तुम जानते हो कि सत्य है। हर उस व्यक्ति को, जो यह विश्वास करता है कि परमेश्वर है, समस्याओं की जाँच सही दृष्टिकोण से करनी चाहिए, और परमेश्वर द्वारा सृजित प्राणी के परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर के नए कार्य और वचनों को स्वीकार करना चाहिए; अन्यथा परमेश्वर द्वारा उन्हें बाहर निकाल दिया जाएगा।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना
जिस कार्य को परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त व्यक्ति करता है, वह मसीह या पवित्र आत्मा के कार्य से सहयोग करने के लिए है। परमेश्वर इस मनुष्य को लोगों के बीच से ही तैयार करता है, उसका काम परमेश्वर के चुने हुए लोगों का नेतृत्व करना है। परमेश्वर उसे मानवीय सहयोग का कार्य करने के लिए भी तैयार करता है। इस तरह का व्यक्ति जो मानवीय सहयोग का कार्य करने में सक्षम है, उसके माध्यम से, मनुष्य से परमेश्वर की अनेक अपेक्षाओं को और उस कार्य को जो पवित्र आत्मा द्वारा मनुष्यों के बीच किया जाना चाहिए, पूरा किया जा सकता है। इसे दूसरे शब्दों में यूँ कहा जा सकता है : ऐसे मनुष्य का इस्तेमाल करने का परमेश्वर का उद्देश्य यह है कि जो लोग परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे परमेश्वर की इच्छा को अच्छी तरह से समझ सकें, और परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर सकें। चूँकि लोग परमेश्वर के वचन को या परमेश्वर की इच्छा को सीधे तौर पर समझने में असमर्थ हैं, इसलिए परमेश्वर ने किसी ऐसे व्यक्ति को तैयार किया है जो इस तरह का कार्य करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त ऐसे व्यक्ति को माध्यम भी कहा जा सकता है जिसके ज़रिए परमेश्वर लोगों का मार्गदर्शन करता है, एक “दुभाषिया” जो परमेश्वर और लोगों के बीच में संप्रेषण बनाए रखता है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के घर में काम करने वालों लोगों से या प्रेरित से अलग होता है। उन्हीं की तरह उसे परमेश्वर का सेवाकर्मी कहा जा सकता है, लेकिन उसके बावजूद, उसके कार्य के सार और परमेश्वर द्वारा उसके उपयोग की पृष्ठभूमि में, वह दूसरे कर्मियों और प्रेरितों से बिलकुल अलग होता है। परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त व्यक्ति अपने कार्य के सार और अपने उपयोग की पृष्ठभूमि के संबंध में, परमेश्वर द्वारा तैयार किया जाता है, उसे परमेश्वर के कार्य के लिए परमेश्वर ही तैयार करता है, और वह स्वयं परमेश्वर के कार्य में सहयोग करता है। कोई भी व्यक्ति उसकी जगह उसका कार्य नहीं कर सकता—दिव्य कार्य के साथ मनुष्य का सहयोग अपरिहार्य होता है। इस दौरान, दूसरे कर्मियों या प्रेरितों द्वारा किया गया कार्य हर अवधि में कलीसियाओं के लिए व्यवस्थाओं के कई पहलुओं का वहन और कार्यान्वयन है, या फिर कलीसियाई जीवन को बनाए रखने के लिए जीवन के सरल प्रावधान का कार्य करना है। इन कर्मियों और प्रेरितों को परमेश्वर नियुक्त नहीं करता, न ही यह कहा जा सकता है कि वे पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं। वे कलीसिया में से ही चुने जाते हैं और कुछ समय तक प्रशिक्षण एवं तौर-तरीके सिखाने के बाद, जो उपयुक्त होते हैं उन्हें रख लिया जाता है, और जो उपयुक्त नहीं होते, उन्हें वहीं वापस भेज दिया जाता है जहाँ से वे आए थे। चूँकि ये लोग कलीसियाओं में से ही चुने जाते हैं, कुछ लोग अगुवा बनने के बाद अपना असली रंग दिखाते हैं, और कुछ लोग बुरे काम करने पर बाहर निकाल दिए जाते हैं। दूसरी ओर, परमेश्वर द्वारा प्रयुक्त लोग परमेश्वर द्वारा तैयार किए जाते हैं, उनमें एक विशिष्ट योग्यता और मानवता होती है। ऐसे व्यक्ति को पहले ही पवित्र आत्मा द्वारा तैयार और पूर्ण कर दिया जाता है और पूर्णरूप से पवित्र आत्मा द्वारा मार्गदर्शन दिया जाता है, विशेषकर जब उसके कार्य की बात आती है, तो उसे पवित्र आत्मा द्वारा निर्देश और आदेश दिए जाते हैं—परिणामस्वरुप परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुवाई के मार्ग में कोई भटकाव नही आता, क्योंकि परमेश्वर निश्चित रूप से अपने कार्य का उत्तरदायित्व लेता है और हर समय कार्य करता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा मनुष्य को इस्तेमाल करने के विषय में
जब परमेश्वर देहधारी हुआ, तब यदि वह केवल दिव्यता का कार्य करता, और उसके साथ सामंजस्य बनाकर कार्य करने के लिए उसकी इच्छा के अनुरूप लोग नहीं होते, तो मनुष्य परमेश्वर की इच्छा समझने या परमेश्वर के साथ जुड़ने में असमर्थ होता। परमेश्वर के लिए यह कार्य पूरा करने, कलीसियाओं की देख-रेख और उनकी चरवाही करने के लिए ऐसे सामान्य लोगों का उपयोग करना आवश्यक है जो उसकी इच्छा के अनुरूप हों, ताकि मनुष्य की संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ, उसका मस्तिष्क, जिस स्तर की कल्पना करने में सक्षम हैं, उसे प्राप्त किया जा सके। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर अपनी दिव्यता के भीतर जो कार्य करता है, उसका “अनुवाद” करने के लिए वह अपनी इच्छा के अनुरूप लोगों की एक छोटी संख्या का उपयोग करता है, ताकि उसे संप्रेषणीय बनाया जा सके—और दिव्य भाषा को मानव-भाषा में रूपांतरित किया जा सके, ताकि सभी लोग उसे समझ-बूझ सकें। यदि परमेश्वर ऐसा न करता, तो कोई भी परमेश्वर की दिव्य भाषा न समझ पाता, क्योंकि परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप लोग अंततः अल्पसंख्यक हैं, और मनुष्य की समझने की क्षमता कमजोर है। यही कारण है कि परमेश्वर केवल देहधारी शरीर में कार्य करते हुए ही यह तरीका चुनता है। यदि केवल दिव्य कार्य ही होता, तो मनुष्य के पास परमेश्वर को जानने और उसके साथ जुड़ने का कोई तरीका न होता, क्योंकि मनुष्य परमेश्वर की भाषा नहीं समझता। मनुष्य यह भाषा केवल परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप लोगों के माध्यम से ही समझ सकने में समर्थ है, जो उसके वचनों को स्पष्ट करते हैं। तथापि, यदि मानवता के भीतर केवल ऐसे लोग ही कार्यरत होते, तो यह केवल मनुष्य का सामान्य जीवन बनाए रख सकता था; यह मनुष्य का स्वभाव नहीं बदल सकता था। परमेश्वर का कार्य एक नया प्रस्थान-बिंदु नहीं हो सकता था; केवल वही पुराने गीत होते, वही पुरानी लचर बातें होतीं। केवल देहधारी परमेश्वर के माध्यम से ही, जो अपने देहधारण की अवधि के दौरान वह सब कहता है जिसे कहने की आवश्यकता है और वह सब करता है जिसे करने की आवश्यकता है, लोग उसके वचनों के अनुसार कार्य और अनुभव करते हैं, केवल इसी प्रकार उनका जीवन-स्वभाव बदल पाएगा, और केवल इसी प्रकार वे समय के साथ चल पाएँगे। जो दिव्यता के भीतर कार्य करता है वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि जो मानवता के भीतर कार्य करते हैं, वे परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोग हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि देहधारी परमेश्वर अनिवार्य रूप से परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोगों से भिन्न है। देहधारी परमेश्वर दिव्यता का कार्य करने में समर्थ है, जबकि परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोग नहीं। प्रत्येक युग के आरंभ में परमेश्वर का आत्मा मनुष्य को एक नए आरंभ में ले जाने के लिए व्यक्तिगत रूप से बोलता है और एक नए युग का सूत्रपात करता है। जब वह बोलना समाप्त कर देता है, तो इसका अर्थ होता है कि दिव्यता के भीतर उसका कार्य पूरा हो गया है। तत्पश्चात्, सभी लोग अपने जीवन-अनुभव में प्रवेश करने के लिए परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए लोगों की अगुआई का अनुसरण करते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोगों के बीच अनिवार्य अंतर
यहाँ तक कि जिस मनुष्य का पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया जाता है, वह भी स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। इतना ही नहीं कि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, बल्कि उसके द्वारा किया जाने वाला काम भी सीधे तौर पर परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के अनुभव को सीधे तौर पर परमेश्वर के प्रबंधन के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता, और वह परमेश्वर के प्रबंधन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। वह समस्त कार्य, जिसे स्वयं परमेश्वर करता है, ऐसा कार्य है, जिसे वह अपनी स्वयं की प्रबंधन योजना में करने का इरादा करता है और वह बड़े प्रबंधन से संबंध रखता है। मनुष्य द्वारा किए गए कार्य में उसके व्यक्तिगत अनुभव की आपूर्ति शामिल रहती है। उसमें उस मार्ग से भिन्न, जिस पर पहले के लोग चले थे, अनुभव के एक नए मार्ग की खोज, और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में अपने भाइयों और बहनों का मार्गदर्शन करना शामिल रहता है। इस तरह के लोग अपने व्यक्तिगत अनुभव या आध्यात्मिक मनुष्यों के आध्यात्मिक लेखन की ही आपूर्ति करते हैं। यद्यपि इन लोगों का पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किया जाता है, फिर भी वे जो कार्य करते हैं, वह छह-हज़ार-वर्षीय योजना के बड़े प्रबंधन-कार्य से संबंध नहीं रखता। वे सिर्फ ऐसे लोग हैं, जिन्हें पवित्र आत्मा द्वारा विभिन्न अवधियों में उभारा गया, ताकि वे तब तक पवित्र आत्मा की धारा में लोगों की अगुआई करें, जब तक कि वे जो कार्य कर सकते हैं, वे पूरे न हो जाएँ या उनके जीवन का अंत न हो जाए। जो कार्य वे करते हैं, वह केवल स्वयं परमेश्वर के लिए एक उचित मार्ग तैयार करना है या पृथ्वी पर स्वयं परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का एक निश्चित पहलू जारी रखना है। अपने आप में ये लोग उसके प्रबंधन का महान कार्य करने में सक्षम नहीं होते, न ही वे नए मार्गों की शुरुआत कर सकते हैं, उनमें से कोई पिछले युग के परमेश्वर के समस्त कार्य का समापन तो बिल्कुल भी नहीं कर सकता। इसलिए, जो कार्य वे करते हैं, वह केवल अपने कार्य संपन्न करने वाले एक सृजित प्राणी का प्रतिनिधित्व करता है, वह अपनी सेवकाई संपन्न करने वाले स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जो कार्य वे करते हैं, वह स्वयं परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य के समान नहीं है। एक नए युग की शुरुआत करने का कार्य ऐसा नहीं है, जो परमेश्वर के स्थान पर मनुष्य द्वारा किया जा सकता हो। इसे स्वयं परमेश्वर के अलावा किसी अन्य के द्वारा नहीं किया जा सकता। मनुष्य के द्वारा किया जाने वाला समस्त कार्य एक सृजित प्राणी के रूप में उसके कर्तव्य का निर्वहन है और वह तब किया जाता है, जब पवित्र आत्मा द्वारा उसे प्रेरित या प्रबुद्ध किया जाता है। इन लोगों द्वारा प्रदान किया जाने वाला मार्गदर्शन मनुष्य को बस दैनिक जीवन में अभ्यास का मार्ग दिखाना और यह बताना होता है कि उसे किस प्रकार परमेश्वर की इच्छा के साथ समरसता में कार्य करना चाहिए। मनुष्य के कार्य में न तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना सम्मिलित है और न ही वह पवित्रात्मा के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। उदाहरण के लिए, गवाह ली और वॉचमैन नी का कार्य मार्ग की अगुआई करना था। मार्ग चाहे नया हो या पुराना, कार्य बाइबल के सिद्धांतों के भीतर ही बने रहने के आधार पर किया गया था। चाहे स्थानीय कलीसियाओं को पुनर्स्थापित करना हो या स्थानीय कलीसियाओं को बनाना हो, उनका कार्य कलीसियाओं की स्थापना से संबंधित था। उनके द्वारा किए गए कार्य ने उस कार्य को आगे बढ़ाया, जिसे यीशु और उसके प्रेरितों ने समाप्त नहीं किया था या अनुग्रह के युग में आगे विकसित नहीं किया था। उन्होंने अपने कार्य में उस चीज़ को बहाल किया जिसे यीशु ने अपने समय के कार्य में, अपने बाद आने वाली पीढ़ियों से करने को कहा था, जैसे कि अपना सिर ढककर रखना, बपतिस्मा लेना, रोटी साझा करना या दाखरस पीना। यह कहा जा सकता है कि उनका कार्य बाइबल का पालन करना था और बाइबल के भीतर ही मार्ग तलाशना था। उन्होंने किसी तरह के कोई नए प्रयास नहीं किए। ... चूँकि पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों का कार्य स्वयं परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य से भिन्न है, इसलिए उनकी पहचान और जिन व्यक्तियों की ओर से वे कार्य करते हैं, वे भी उसी तरह से भिन्न हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि पवित्र आत्मा जिस कार्य को करने का इरादा करता है, वह भिन्न है, और इसलिए समान रूप से कार्य करने वालों को अलग-अलग पहचान और हैसियत प्रदान की जाती है। पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोग कुछ नया कार्य भी कर सकते हैं और वे पूर्व युग में किए गए किसी कार्य को हटा भी सकते हैं, किंतु उनके द्वारा किया गया कार्य नए युग में परमेश्वर के स्वभाव और उसकी इच्छा को व्यक्त नहीं कर सकता। वे केवल पूर्व युग के कार्य को हटाने के लिए कार्य करते हैं, और सीधे तौर पर स्वयं परमेश्वर के स्वभाव और उसकी इच्छा का प्रतिनिधित्व करने के उद्देश्य से कोई नया कार्य करने के लिए कुछ नहीं करते। इस प्रकार, चाहे वे पुराने पड़ चुके कितने भी अभ्यासों का उन्मूलन कर दें या वे कितने भी नए अभ्यास आरंभ कर दें, वे फिर भी मनुष्य और सृजित प्राणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। किंतु जब स्वयं परमेश्वर कार्य करता है, तो वह खुलकर प्राचीन युग के अभ्यासों के उन्मूलन की घोषणा नहीं करता या सीधे तौर पर नए युग की शुरुआत की घोषणा नहीं करता। वह अपने कार्य में स्पष्ट और ईमानदार है। वह उस कार्य को करने में बेबाक है, जिसे करने का वह इरादा रखता है; अर्थात्, वह उस कार्य को सीधे तौर पर व्यक्त करता है जिसे उसने किया है, वह अपने अस्तित्व और स्वभाव को व्यक्त करते हुए अपने मूल इरादे के अनुसार सीधे तौर पर अपना कार्य करता है। जैसा कि मनुष्य देखता है, उसका स्वभाव और कार्य भी पिछले युगों से भिन्न हैं। किंतु स्वयं परमेश्वर के दृष्टिकोण से, यह मात्र उसके कार्य की निरंतरता और आगे का विकास है। जब स्वयं परमेश्वर कार्य करता है, तो वह अपने वचन व्यक्त करता है और सीधे नया कार्य लाता है। इसके विपरीत, जब मनुष्य काम करता है, तो वह विचार-विमर्श एवं अध्ययन के माध्यम से होता है, या वह दूसरों के कार्य की बुनियाद पर निर्मित ज्ञान का विस्तार और अभ्यास का व्यवस्थापन है। कहने का अर्थ है कि मनुष्य द्वारा किए गए कार्य का सार किसी स्थापित व्यवस्था का अनुसरण करना और “नए जूतों से पुराने मार्ग पर चलना” है। इसका अर्थ है कि पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों द्वारा अपनाया गया मार्ग भी स्वयं परमेश्वर द्वारा शुरू किए गए मार्ग पर ही बना है। इसलिए, कुल मिलाकर मनुष्य फिर भी मनुष्य है, और परमेश्वर फिर भी परमेश्वर है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (1)
अनुग्रह के युग के दौरान यीशु ने कुछ वचन कहे और कार्य का एक चरण पूरा किया। उन सभी का एक संदर्भ था और वे सभी उस समय के लोगों की अवस्थाओं के लिए उपयुक्त थे; यीशु ने उस समय के संदर्भ के अनुसार बोला और कार्य किया। उसने कुछ भविष्यवाणियाँ भी कीं। उसने भविष्यवाणी की कि सत्य का आत्मा अंत के दिनों में आएगा और कार्य का एक चरण पूरा करेगा। अर्थात् उस युग के दौरान जो कार्य उसे स्वयं करना था, उसके अलावा वह कुछ नहीं समझता था; दूसरे शब्दों में, देहधारी परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य सीमित है। इसलिए, वह केवल उस युग का कार्य करता है जिसमें वह होता है, और ऐसा कोई अन्य कार्य नहीं करता, जिससे उसका कोई संबंध नहीं होता। उस समय यीशु ने भावनाओं या दर्शनों के अनुसार कार्य नहीं किया, बल्कि समय और संदर्भ के उपयुक्त कार्य किया। किसी ने उसकी अगुआई या मार्गदर्शन नहीं किया। उसकी कार्य की संपूर्णता उसका अपना स्वरूप था—यह वह कार्य था, जिसे परमेश्वर के आत्मा के देहधारण द्वारा पूरा किया जाना था, इस संपूर्ण कार्य का सूत्रपात देहधारण द्वारा किया गया था। यीशु ने जो स्वयं देखा और सुना, केवल उसके अनुसार कार्य किया। दूसरे शब्दों में, आत्मा ने सीधे कार्य किया; उसके लिए यह आवश्यक नहीं था कि दूत सामने आएँ और उसे सपने दिखाएँ या कोई महान रोशनी उस पर चमके, जिससे वह देख पाए। उसने स्वतंत्र रूप से और निर्बाध कार्य किया, क्योंकि उसका कार्य भावनाओं पर आधारित नहीं था। दूसरे शब्दों में, जब उसने कार्य किया, तो टटोलकर और अनुमान लगाकर नहीं किया, बल्कि आसानी से किया, उसने अपने विचारों के अनुसार और अपनी आँखों से जो देखा, उसके अनुसार कार्य किया और बोला, और अपना अनुसरण करने वाले प्रत्येक शिष्य को तत्काल पोषण प्रदान किया। परमेश्वर के कार्य और लोगों के कार्य के बीच यही अंतर है : जब लोग कार्य करते हैं, तो वे अधिक गहरा प्रवेश प्राप्त करने के लिए हमेशा दूसरों द्वारा रखी गई बुनियाद पर अनुकरण और विचार-विमर्श करते हुए खोजते और टटोलते हैं। परमेश्वर का कार्य उसके स्वरूप का पोषण है, और वह वही कार्य करता है जो उसे स्वयं करना चाहिए। वह किसी मनुष्य के कार्य से प्राप्त ज्ञान का उपयोग करके कलीसिया को पोषण नहीं प्रदान करता। इसके बजाय, वह लोगों की अवस्थाओं के आधार पर वर्तमान कार्य करता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (5)
जब परमेश्वर पृथ्वी पर आता है, तो वह केवल दिव्यता के भीतर अपना कार्य करता है, जो स्वर्गिक पवित्रात्मा ने देहधारी परमेश्वर को सौंपा होता है। जब वह आता है, तब वह भिन्न-भिन्न साधनों से और भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्यों से अपने कथनों को वाणी देने के लिए समूची पृथ्वी पर बोलता है। वह मुख्य रूप से मनुष्य को आपूर्ति करने और उसे सिखाने को अपने लक्ष्यों और कार्य करने के सिद्धांत के रूप में देखता है, और लोगों के अंतर्वैयक्तिक संबंधों या उनके जीवन के विवरणों जैसी चीजों की चिंता नहीं करता। उसकी मुख्य सेवकाई पवित्रात्मा के लिए बोलना है। अर्थात्, जब परमेश्वर का आत्मा मूर्त रूप में देह में प्रकट होता है, तब वह केवल मनुष्य के जीवन के लिए पोषण प्रदान करता है और सत्य विमोचित करता है। वह मनुष्य के कार्य में शामिल नहीं होता, जिसका तात्पर्य यह है कि वह मनुष्य के कार्य में भाग नहीं लेता। मनुष्य दिव्य कार्य नहीं कर सकते, और परमेश्वर मनुष्य के कार्य में भाग नहीं लेता। इन सारे वर्षों में जबसे परमेश्वर अपना कार्य करने के लिए इस धरती पर आया है, उसने उसे सदैव लोगों के माध्यम से किया है। परंतु इन लोगों को देहधारी परमेश्वर नहीं माना जा सकता—उन्हें केवल ऐसे मनुष्य माना जा सकता है, जिनका परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जाता है। इस बीच, आज का परमेश्वर पवित्रात्मा की वाणी सुनाते हुए और पवित्रात्मा की ओर से कार्य करते हुए, सीधे दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से बात कर सकता है। इसी प्रकार, वे सब जिनका परमेश्वर ने युगों-युगों के दौरान उपयोग किया है, दैहिक शरीर के भीतर कार्यरत परमेश्वर के आत्मा के दृष्टांत हैं—तो उन्हें परमेश्वर क्यों नहीं कहा जा सकता? परंतु आज का परमेश्वर देह में सीधे कार्यरत परमेश्वर का आत्मा भी है, और यीशु भी देह में कार्यरत परमेश्वर का आत्मा था; उन दोनों को परमेश्वर कहा जाता है। तो अंतर क्या है? जिन लोगों का परमेश्वर ने युगों-युगों के दौरान उपयोग किया है, वे सब सामान्य विचार और तर्क करने में समर्थ हैं। वे सभी मानव-आचरण के सिद्धांतों को समझ चुके हैं। उनके सामान्य मानवीय विचार हैं और उनमें वे सभी चीजें रही हैं, जो सामान्य लोगों में होनी चाहिए। उनमें से अधिकांश के पास असाधारण प्रतिभा और जन्मजात बुद्धिमानी है। इन लोगों पर कार्य करते हुए परमेश्वर का आत्मा उनकी प्रतिभाओं का उपयोग करता है, जो उनकी परमेश्वर-प्रदत्त प्रतिभाएँ हैं। परमेश्वर का आत्मा उनकी प्रतिभाओं को उपयोग में लाता है, परमेश्वर की सेवा में उनकी शक्तियों का उपयोग करता है। फिर भी परमेश्वर का सार मतों या विचारों से रहित है, उसमें मनुष्य के इरादों की मिलावट नहीं है, यहाँ तक कि उसमें वह भी नहीं है जो सामान्य मनुष्यों के पास है। कहने का तात्पर्य यह है कि वह मानव-आचरण के सिद्धांतों से भी परिचित नहीं है। ऐसा ही होता है, जब आज का परमेश्वर पृथ्वी पर आता है। उसके कार्य और वचनों में मनुष्य के इरादों या मानव-विचार की मिलावट नहीं है, बल्कि वे पवित्रात्मा के इरादों की सीधी अभिव्यक्ति हैं, और वह सीधे परमेश्वर की ओर से कार्य करता है। इसका अर्थ है कि पवित्रात्मा सीधे बात करता है, अर्थात्, दिव्यता सीधे कार्य करती है, उसमें मनुष्य के इरादों की रत्ती भर मिलावट नहीं होती। दूसरे शब्दों में, देहधारी परमेश्वर सीधे दिव्यता का मूर्त रूप है, मानवीय सोच या विचार से रहित है, और उसे मानव-आचरण के सिद्धांतों की कोई समझ नहीं है। यदि केवल दिव्यता ही कार्यरत होती (अर्थात् यदि केवल स्वयं परमेश्वर कार्यरत होता), तो पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य करने का कोई उपाय न होता। इसलिए जब परमेश्वर पृथ्वी पर आता है, तो उसके पास थोड़ी संख्या में ऐसे लोग होने चाहिए, जिनका उपयोग वह परमेश्वर द्वारा दिव्यता में किए जाने वाले कार्य के साथ मानवता के भीतर कार्य करने के लिए करता है। दूसरे शब्दों में, वह अपने दिव्य कार्य की पुष्टि करने के लिए मानव-कार्य का उपयोग करता है। यदि वह ऐसा न करे, तो मनुष्य के पास दिव्य कार्य से सीधे जुड़ने का कोई उपाय नहीं होगा। यीशु और उसके अनुयायियों के साथ ऐसा ही था। संसार में अपने समय के दौरान यीशु ने पुरानी व्यवस्था को समाप्त कर दिया और नई आज्ञाएँ स्थापित कीं। उसने अनेक वचन भी कहे। यह सारा कार्य दिव्यता में किया गया था। पतरस, पौलुस और युहन्ना जैसे अन्य सभी ने अपने अनुवर्ती कार्य यीशु के वचनों की नींव पर अवलंबित किए। कहने का तात्पर्य यह है कि उस युग में परमेश्वर ने अपना कार्य अनुग्रह के युग का आरंभ करते हुए आरंभ किया; अर्थात्, उसने पुराने युग को समाप्त करके नया युग आरंभ किया, और साथ ही “परमेश्वर ही आरंभ और अंत है” वचनों को भी साकार किया। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को दिव्य कार्य की नींव पर ही मानव-कार्य करना चाहिए। जब यीशु ने वह सब-कुछ कह दिया जो उसे कहने की आवश्यकता थी और पृथ्वी पर अपना कार्य समाप्त कर लिया, तो वह मनुष्य को छोड़कर चला गया। इसके बाद, सभी लोगों ने, कार्य करते हुए, उसके वचनों में व्यक्त सिद्धांतों के अनुसार ऐसा ही किया, और उसके द्वारा बोले गए सत्यों के अनुसार अभ्यास किया। इन सभी लोगों ने यीशु के लिए कार्य किया। यदि यीशु अकेले ही कार्य कर रहा होता, तो उसने चाहे जितने भी वचन बोले होते, लोगों के पास उसके वचनों के साथ जुड़ने के कोई साधन न होते, क्योंकि वह दिव्यता में कार्य कर रहा था और केवल दिव्यता के वचन ही बोल सकता था, और वह चीजों को उस बिंदु तक नहीं समझा सकता था, जहाँ सामान्य लोग उसके वचन समझ पाते। और इसलिए उसे प्रेरित और नबी रखने पड़े, जो उसके कार्य की पूर्ति के लिए उसके बाद आए। यही वह सिद्धांत है, जिससे देहधारी परमेश्वर अपना कार्य करता है—बोलने और कार्य करने के लिए देहधारी शरीर का उपयोग करना, ताकि दिव्यता का कार्य पूरा किया जा सके, और फिर अपने कार्य की पूर्ति के लिए परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कुछ, या शायद अधिक, लोगों का उपयोग करना। अर्थात्, परमेश्वर मानवता में चरवाही और सिंचन करने के लिए अपनी इच्छा के अनुरूप लोगों का उपयोग करता है, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकें।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोगों के बीच अनिवार्य अंतर
मनुष्य का कार्य उसके अनुभव और उसकी मानवता के तात्पर्य को सूचित करता है। मनुष्य जो कुछ मुहैया कराता है और जो कार्य करता है, वह उसका प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य की अंतर्दृष्टि, उसकी विवेक-बुद्धि, उसकी तर्कशक्ति और उसकी समृद्ध कल्पना, सभी उसके कार्य में शामिल होते हैं। मनुष्य का अनुभव, विशेष रूप से उसके कार्य के तात्पर्य को सूचित करने में समर्थ होता है, और व्यक्ति के अनुभव उसके कार्य के घटक बन जाते हैं। मनुष्य का कार्य उसके अनुभव को व्यक्त कर सकता है। जब कुछ लोग नकारात्मक तरीके से अनुभव करते हैं, तो उनकी संगति की अधिकांश भाषा नकारात्मक तत्वों से ही युक्त होती है। यदि कुछ समयावधि तक उनका अनुभव सकारात्मक है और उनके पास विशेष रूप से, सकारात्मक पहलू में एक मार्ग होता है, तो उनकी संगति बहुत प्रोत्साहन देने वाली होती है, और लोग उनसे सकारात्मक आपूर्ति प्राप्त कर सकते हैं। यदि कोई कर्मी कुछ समयावधि तक नकारात्मक हो जाता है, तो उसकी संगति में हमेशा नकारात्मक तत्व होंगे। इस प्रकार की संगति निराशाजनक होती है, और अन्य लोग अनजाने में ही उसकी संगति के बाद निराश हो जाएँगे। अगुआ की अवस्था के आधार पर अनुयायियों की अवस्था बदलती है। एक कर्मी भीतर से जैसा होता है, वह वैसा ही व्यक्त करता है, और पवित्र आत्मा का कार्य प्रायः मनुष्य की अवस्था के साथ बदल जाता है। वह मनुष्य के अनुभव के अनुसार कार्य करता है और उसे बाध्य नहीं करता, बल्कि लोगों के अनुभव के सामान्य क्रम के अनुसार उनसे माँग करता है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य की संगति परमेश्वर के वचन से भिन्न होती है। लोग जो संगति करते हैं वह उनकी व्यक्तिगत अंतर्दृष्टि और अनुभव को बताती है, और परमेश्वर के कार्य के आधार पर उनकी अंतर्दृष्टि और अनुभव को व्यक्त करती है। उनकी ज़िम्मेदारी यह है कि परमेश्वर के कार्य करने या बोलने के पश्चात्, वे पता लगायें कि उन्हें इसमें से किसका अभ्यास करना चाहिए, या किसमें प्रवेश करना चाहिए, और फिर इसे अनुयायियों को सौंप दें। इसलिए, मनुष्य का कार्य उसके प्रवेश और अभ्यास का प्रतिनिधित्व करता है। निस्संदेह, ऐसा कार्य मानवीय सबक और अनुभव या कुछ मानवीय विचारों के साथ मिश्रित होता है। पवित्र आत्मा चाहे जैसे कार्य करे, चाहे वह मनुष्य में कार्य करे या देहधारी परमेश्वर में, कर्मी हमेशा वही व्यक्त करते हैं जो वे होते हैं। यद्यपि कार्य पवित्र आत्मा ही करता है, फिर भी मनुष्य अंतर्निहित रूप से जैसा होता है कार्य उसी पर आधारित होता है, क्योंकि पवित्र आत्मा बिना आधार के कार्य नहीं करता। दूसरे शब्दों में, कार्य शून्य में से नहीं आता, बल्कि वह हमेशा वास्तविक परिस्थितियों और असली स्थितियों के अनुसार किया जाता है। केवल इसी तरह से मनुष्य के स्वभाव को रूपान्तरित किया जा सकता है और उसकी पुरानी धारणाओं एवं पुराने विचारों को बदला जा सकता है। जो कुछ मनुष्य देखता है, अनुभव करता है, और कल्पना कर सकता है, वह उसी को अभिव्यक्त करता है, और यह मनुष्य के विचारों द्वारा प्राप्य होता है, भले ही ये सिद्धांत या धारणाएँ ही क्यों न हों। चाहे मनुष्य के कार्य का आकार कुछ भी हो, यह उसके अनुभव के दायरे से परे नहीं जा सकता, न ही जो वह देखता है, या जिसकी वह कल्पना या जिसका विचार कर सकता है, उससे बढ़कर हो सकता है। परमेश्वर वही सब प्रकट करता है जो वह स्वयं है, और यह मनुष्य की पहुँच से परे है, अर्थात्, मनुष्य की सोच से परे है। वह संपूर्ण मानवजाति की अगुवाई करने के अपने कार्य को व्यक्त करता है, इसका मानवीय अनुभव के विवरणों से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह उसके अपने प्रबंधन से संबंधित है। मनुष्य जो व्यक्त करता है वह उसका अपना अनुभव है, जबकि परमेश्वर अपने स्वरूप को व्यक्त करता है, जो कि उसका अंतर्निहित स्वभाव है और मनुष्य की पहुँच से परे है। मनुष्य का अनुभव उसकी अंतर्दृष्टि और वह ज्ञान है जो उसने परमेश्वर द्वारा अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति के आधार पर प्राप्त किया है। ऐसी अंतर्दृष्टि और ज्ञान मनुष्य का स्वरूप कहलाता है, और उनकी अभिव्यक्ति का आधार मनुष्य का अंतर्निहित स्वभाव और उसकी क्षमता होते हैं—इसलिए इन्हें मनुष्य का अस्तित्व भी कहा जाता है। जो कुछ मनुष्य देखता और अनुभव करता है वह उसकी संगति कर पाता है। अतः कोई भी व्यक्ति उस पर संगति नहीं कर सकता जिसका उसने अनुभव नहीं किया है या देखा नहीं है या जिस तक उसका मन नहीं पहुँच पाता है, वे ऐसी चीज़ें हैं जो उसके भीतर नहीं हैं। यदि जो कुछ मनुष्य व्यक्त करता है वह उसके अनुभव से नहीं आया है, तो यह उसकी कल्पना या सिद्धांत है। सीधे-सीधे कहें तो, उसके वचनों में कोई वास्तविकता नहीं होती। यदि तुम समाज की चीज़ों से कभी संपर्क में न आते, तो तुम समाज के जटिल संबंधों की स्पष्टता से संगति करने में समर्थ नहीं होते। यदि तुम्हारा कोई परिवार न होता परन्तु अन्य लोग परिवारिक मुद्दों के बारे में बात करते, तो तुम उनकी अधिकांश बातों को नहीं समझ पाते। इसलिए, जो कुछ मनुष्य संगति करता है और जिस कार्य को वह करता है, वे उसके भीतरी अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य
मेरा व्याख्यान मेरे अस्तित्व को दर्शाता है, परन्तु जो मैं कहता हूँ वह मनुष्य की पहुँच से परे होता है। मैं जो कहता हूँ, वह वो नहीं है जिसका मनुष्य अनुभव करता है, वह कुछ ऐसा नहीं है जिसे मनुष्य देख सकता है; न ही वो है जिसे वह स्पर्श कर सकता है; बल्कि यह वो है जो मैं हूँ। कुछ लोग केवल इतना ही स्वीकार करते हैं कि जो मैं संगति करता हूँ वह मैंने अनुभव किया है, परन्तु वे इस बात को नहीं पहचानते कि यह पवित्रात्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। निस्संदेह, जो मैं कहता हूँ वह मैंने अनुभव किया है। मैंने ही छः हजार वर्षों से प्रबंधन का कार्य किया है। मैंने मनुष्यजाति के सृजन के आरम्भ से लेकर आज तक हर चीज़ का अनुभव किया है; कैसे मैं इसके बारे में बात नहीं कर पाऊँगा? जब मनुष्य की प्रकृति की बात आती है, तो मैंने इसे स्पष्ट रूप से देखा है; मैंने बहुत पहले ही इसका अवलोकन कर लिया था। कैसे मैं इसके बारे में स्पष्ट रूप से बात नहीं कर पाऊँगा? चूँकि मैंने मनुष्य के सार को स्पष्टता से देखा है, इसलिए मैं मनुष्य को ताड़ना देने और उसका न्याय करने के योग्य हूँ, क्योंकि सभी मनुष्य मुझ से ही आए हैं परन्तु उन्हें शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है। निस्संदेह, मैं उस कार्य का आकलन करने के भी योग्य हूँ जो मैंने किया है। यद्यपि यह कार्य मेरे देह द्वारा नहीं किया जाता, फिर भी यह पवित्रात्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है, और यही मेरा स्वरूप है। इसलिए, मैं इसे व्यक्त करने और उस कार्य को करने के योग्य हूँ जो मुझे करना चाहिए। जो कुछ लोग कहते हैं उसका उन्होंने अनुभव किया होता है। वही उन्होंने देखा है, जहाँ तक उनका दिमाग पहुँच सकता है और जिसे उनकी इंद्रियाँ महसूस कर सकती हैं। उसी की वे संगति कर सकते हैं। देहधारी परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन पवित्रात्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति हैं और वे उस कार्य को अभिव्यक्त करते हैं जो पवित्रात्मा द्वारा किया गया है, जिसे देह ने अनुभव नहीं किया है या देखा नहीं है, लेकिन फिर भी अपने अस्तित्व को व्यक्त करता है, क्योंकि देह का सार पवित्रात्मा है, और वह पवित्रात्मा के कार्य को व्यक्त करता है। यद्यपि यह देह की पहुँच से परे है, फिर भी इस कार्य को पवित्रात्मा द्वारा पहले ही कर लिया गया है। देहधारण के पश्चात्, देह की अभिव्यक्ति के माध्यम से, वह लोगों को परमेश्वर के अस्तित्व को जानने में सक्षम बनाता है और लोगों को परमेश्वर के स्वभाव और उस कार्य को देखने देता है जो उसने किया है। मनुष्य का कार्य लोगों को इस बारे में अधिक स्पष्ट होने में सक्षम बनाता है कि उन्हें किसमें प्रवेश करना चाहिए और उन्हें क्या समझना चाहिए; इसमें लोगों को सत्य को समझने और उसका अनुभव करने की ओर ले जाना शामिल है। मनुष्य का कार्य लोगों को पोषण देना है; परमेश्वर का कार्य मानवजाति के लिए नए मार्गों और नए युगों को प्रशस्त करना है, और लोगों के सामने वह प्रकट करना है जिसे नश्वर लोग नहीं जानते, जिससे वे परमेश्वर के स्वभाव को जानने में सक्षम हो जाएँ। परमेश्वर का कार्य सम्पूर्ण मानवजाति की अगुवाई करना है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य
मनुष्य का कार्य एक विस्तार और सीमा के भीतर रहता है। एक व्यक्ति केवल किसी निश्चित चरण के कार्य को करने में ही समर्थ होता है, वह संपूर्ण युग का कार्य नहीं कर सकता—अन्यथा, वह लोगों को नियमों के भीतर ले जाएगा। मनुष्य के कार्य को केवल एक विशेष समय या चरण पर ही लागू किया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य के अनुभव का एक दायरा होता है। परमेश्वर के कार्य की तुलना मनुष्य के कार्य से नहीं की जा सकती। मनुष्य के अभ्यास करने के तरीके और सत्य का उसका ज्ञान, ये सभी एक विशेष दायरे में लागू होते हैं। तुम यह नहीं कह सकते कि जिस मार्ग पर मनुष्य चलता है वह पूरी तरह से पवित्र आत्मा की इच्छा है, क्योंकि मनुष्य को केवल पवित्र आत्मा द्वारा ही प्रबुद्ध किया जा सकता है और उसे पवित्र आत्मा से पूरी तरह से नहीं भरा जा सकता। जिन चीज़ों को मनुष्य अनुभव कर सकता है, वे सभी सामान्य मानवता के दायरे के भीतर हैं और वे सामान्य मानवीय बुद्धि में मौजूद विचारों की सीमाओं से आगे नहीं बढ़ सकतीं। वे सभी लोग, जो सत्य वास्तविकता को जी सकते हैं, इस सीमा के भीतर अनुभव करते हैं। जब वे सत्य का अनुभव करते हैं, तो यह हमेशा पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध सामान्य मानवीय जीवन का अनुभव होता है; यह उस तरह से अनुभव करना नहीं है जो सामान्य मानवीय जीवन से भटक जाता है। वे अपने मानवीय जीवन को जीने की बुनियाद पर पवित्र आत्मा के द्वारा प्रबुद्ध किए गए सत्य का अनुभव करते हैं। इसके अतिरिक्त, यह सत्य हर व्यक्ति के लिए अलग होता है, और इसकी गहराई उस व्यक्ति की अवस्था से संबंधित होती है। यह कहा जा सकता है कि जिस मार्ग पर वे चलते हैं वह ऐसे व्यक्ति का सामान्य मानवीय जीवन है जो सत्य की खोज कर रहा है, और इसे ऐसा मार्ग कहा जा सकता है जिस पर पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध कोई सामान्य व्यक्ति चल चुका है। कोई यह नहीं कह सकता कि जिस मार्ग पर वे चलते हैं वह ऐसा मार्ग है जिस पर पवित्र आत्मा चलता है। सामान्य मानवीय अनुभव में, क्योंकि जो लोग अनुसरण करते हैं वे एक समान नहीं होते, इसलिए पवित्र आत्मा का कार्य भी समान नहीं होता। इसके अतिरिक्त, क्योंकि जिन परिवेशों का लोग अनुभव करते हैं और उनके अनुभव की सीमाएँ एक समान नहीं होतीं, इसलिए उनके मन और विचारों के मिश्रण की वजह से, उनका अनुभव विभिन्न अंशों तक मिश्रित हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भिन्न व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुसार ही किसी सत्य को समझता है। सत्य के वास्तविक अर्थ की उसकी समझ पूर्ण नहीं होती और यह उसका केवल एक या कुछ ही पहलू होते हैं। मनुष्य सत्य के जिस दायरे का अनुभव करता है, वह प्रत्येक इंसान की परिस्थितियों के अनुरूप बदलता है। इस तरह, एक ही सत्य के बारे में विभिन्न लोगों द्वारा व्यक्त ज्ञान एक समान नहीं होता। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य के अनुभव की हमेशा सीमाएँ होती हैं और यह पवित्र आत्मा की इच्छा को पूरी तरह से नहीं दर्शा सकता, और न ही मनुष्य के कार्य को परमेश्वर का कार्य समझा जा सकता, फिर भले ही जो कुछ मनुष्य द्वारा व्यक्त किया गया है, वह परमेश्वर की इच्छा से बहुत बारीकी से मेल क्यों न खाता हो, भले ही मनुष्य का अनुभव पवित्र आत्मा द्वारा किए जाने वाले पूर्ण करने के कार्य के बेहद करीब ही क्यों न हो। मनुष्य केवल परमेश्वर का सेवक हो सकता है, जो केवल वही कार्य करता है जो परमेश्वर उसे सौंपता है। मनुष्य केवल पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध ज्ञान और व्यक्तिगत अनुभवों से प्राप्त सत्यों को ही व्यक्त कर सकता है। मनुष्य अयोग्य है और पवित्र आत्मा का निर्गम बनने की शर्तों को पूरा नहीं करता। वह यह कहने का हकदार नहीं है कि उसका कार्य परमेश्वर का कार्य है। मनुष्य के पास मनुष्य के कार्य करने के सिद्धांत हैं, सभी लोगों के अनुभव अलग होते हैं और उनकी स्थितियाँ अलग होती हैं। मनुष्य के कार्य में पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के अंतर्गत उसके सभी अनुभव शामिल होते हैं। ये अनुभव केवल मनुष्य के अस्तित्व का ही प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, ये परमेश्वर के अस्तित्व का या पवित्र आत्मा की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करते। इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य जिस मार्ग पर चलता है, उसी पर पवित्र आत्मा भी चलता है क्योंकि मनुष्य का कार्य परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, मनुष्य के कार्य और अनुभव पवित्र आत्मा की संपूर्ण इच्छा नहीं हैं। मनुष्य का कार्य नियमों के चक्कर में पड़ सकता है, और उसकी कार्य-पद्धति आसानी से एक दायरे में सीमित हो जाती है और यह लोगों की स्वतंत्र मार्ग पर अगुवाई करने में असमर्थ होती है। अधिकांश अनुयायी एक सीमित दायरे में जीवन जीते हैं, और उनके अनुभव करने का तरीका भी अपने दायरे में सीमित होता है। मनुष्य का अनुभव हमेशा सीमित होता है; उसकी कार्य-पद्धति भी कुछ प्रकारों तक ही सीमित होती है और इसकी तुलना पवित्र आत्मा के कार्य से या स्वयं परमेश्वर के कार्य से नहीं की जा सकती—क्योंकि अंततः मनुष्य का अनुभव सीमित होता है। परमेश्वर अपना कार्य चाहे जिस तरह करे, वह किसी नियम से बंधा नहीं होता; इसे जैसे भी किया जाए, यह किसी एक पद्धति तक सीमित नहीं होता। परमेश्वर के कार्य के किसी प्रकार के कोई नियम नहीं होते—उसका समस्त कार्य मुक्त और स्वतंत्र होता है। भले ही मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण करते हुए कितना ही समय क्यों न बिताए, वह उसके निचोड़कर ऐसे नियम नहीं निकाल सकता जो परमेश्वर के कार्य करने के तरीके का संचालन करते हों। यद्यपि उसके कार्य के सिद्धांत हैं, फिर भी वह कार्य हमेशा नए-नए तरीकों से किया जाता है और उसमें नये-नये विकास होते रहते हैं, और यह मनुष्य की पहुँच से परे होता है। एक ही समयावधि के दौरान, परमेश्वर के पास भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य और लोगों की अगुवाई करने के भिन्न-भिन्न तरीके हो सकते हैं, ताकि लोगों के पास हमेशा नए-नए प्रवेश और नए-नए परिवर्तन हों। तुम उसके कार्य के नियमों का पता नहीं लगा सकते क्योंकि वह हमेशा नए तरीकों से कार्य करता है, और केवल इस तरह परमेश्वर के अनुयायी नियमों से नहीं बंधते। स्वयं परमेश्वर का कार्य हमेशा लोगों की धारणाओं से परहेज करता है और उनका विरोध करता है। जो लोग सच्चे हृदय से उसका अनुसरण और उसकी खोज करते हैं, केवल वही अपने स्वभाव में बदलाव लाकर स्वतंत्रता से जी सकते हैं, वे किसी नियम से बेबस नहीं होते या किसी भी धार्मिक धारणा के बंधन में नहीं बंधते। मनुष्य का कार्य लोगों से उसके अपने अनुभव और जो वह स्वयं हासिल कर सकता है, उसके आधार पर माँगें करता है। इन अपेक्षाओं का स्तर एक निश्चित दायरे के भीतर सीमित होता है, और अभ्यास के तरीके भी बहुत सीमित होते हैं। इसलिए अनुयायी अनजाने में ही सीमित दायरे के भीतर जीवन जीते हैं; जैसे-जैसे समय गुजरता है, ये बातें नियम और रिवाज बन जाती हैं। यदि एक अवधि के कार्य की अगुवाई कोई ऐसा व्यक्ति करता है जो परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से पूर्ण किए जाने से नहीं गुजरा है और जिसने न्याय प्राप्त नहीं किया है, तो उसके सभी अनुयायी धर्मावलम्बी बन जाएँगे और परमेश्वर का विरोध करने में माहिर हो जाएँगे। इसलिए, यदि कोई योग्य अगुवा है, तो उसने अवश्य ही न्याय से गुजरकर, पूर्ण किया जाना स्वीकार किया होगा। जो लोग न्याय से नहीं गुजरे हैं, उनमें भले ही पवित्र आत्मा का कार्य हो, वे केवल अस्पष्ट और अव्यावहारिक चीजों को ही व्यक्त करते हैं। समय के साथ, वे लोगों को अस्पष्ट और अलौकिक नियमों में ले जाएँगे। परमेश्वर का कार्य मनुष्य की देह से मेल नहीं खाता; वह मनुष्य के विचारों से मेल नहीं खाता, बल्कि मनुष्य की धारणाओं का विरोध करता है; यह अस्पष्ट धार्मिक रंग से कलंकित नहीं होता। परमेश्वर के कार्य के परिणामों को ऐसा व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है जो उसके द्वारा पूर्ण नहीं किया गया है; वे मनुष्य की सोच से परे होते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य
कुछ लोग पूछेंगे, “देहधारी परमेश्वर के द्वारा किये गए कार्य और अतीत के भविष्यवक्ताओं और प्रेरितों द्वारा किये गए कार्य में क्या अन्तर है? दाऊद को भी प्रभु कहकर पुकारा गया था, और उसी प्रकार यीशु को भी; यद्यपि उन्होंने जो कार्य किया वह भिन्न था, फिर भी उन्हें एक जैसे ही नाम से पुकारा गया था। मुझे बताओ उनकी पहचान एक जैसी क्यों नहीं थी? जिसकी यूहन्ना ने गवाही दी थी वह एक दर्शन था, ऐसा दर्शन जो पवित्र आत्मा से भी आया था, और वह उन वचनों को कहने में समर्थ था जो पवित्र आत्मा ने कहने का इरादा किया था; तो यूहन्ना की पहचान यीशु से भिन्न क्यों है?” यीशु के द्वारा कहे गए वचन परमेश्वर का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करने में समर्थ थे और वे परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करते थे। जो यूहन्ना ने देखा वह एक दर्शन था, और वह परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ था। ऐसा क्यों है कि यूहन्ना, पतरस और पौलुस ने बहुत से वचन कहे—जैसे यीशु ने कहे थे—फिर भी उनके पास यीशु के समान पहचान नहीं थी? मुख्य रूप से ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने जो कार्य किया वह भिन्न था। यीशु ने परमेश्वर के आत्मा का प्रतिनिधित्व किया, और वह परमेश्वर का आत्मा था जो सीधे तौर पर कार्य कर रहा था। उसने नये युग का कार्य किया, ऐसा कार्य जिसे पहले कभी किसी ने नहीं किया था। उसने एक नया मार्ग प्रशस्त किया, उसने यहोवा का प्रतिनिधित्व किया, और उसने स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व किया जबकि पतरस, पौलुस और दाऊद, इस बात की परवाह किए बिना कि उन्हें क्या कहकर पुकारा जाता था, उन्होंने केवल सृजित प्राणी की पहचान का प्रतिनिधित्व किया था, और उन्हें यीशु या यहोवा ने भेजा था। इसलिए भले ही उन्होंने कितना ही काम क्यों न किया हो, भले ही उन्होंने कितने ही बड़े चमत्कार क्यों न किये हों, वे तब भी बस सृजित प्राणी ही थे, और परमेश्वर के आत्मा का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ थे। उन्होंने परमेश्वर के नाम पर या परमेश्वर द्वारा भेजे जाने के बाद ही कार्य किया था; इससे भी बढ़कर, उन्होंने यीशु या यहोवा द्वारा शुरू किए गए युगों में कार्य किया था, और उन्होंने जो कार्य किया वह पृथक नहीं था। वे आखिरकार सृजित प्राणी ही थे।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पदवियों और पहचान के सम्बन्ध में
अनुग्रह के युग में यीशु ने भी कई वचन बोले और बहुत कार्य किया। वह यशायाह से कैसे अलग था? वह दानिय्येल से कैसे अलग था? क्या वह कोई नबी था? ऐसा क्यों कहा जाता है कि वह मसीह है? उनके मध्य क्या भिन्नताएँ हैं? वे सभी मनुष्य थे, जिन्होंने वचन बोले थे, और उनके वचन मनुष्य को लगभग एक-से प्रतीत होते थे। उन सभी ने वचन बोले और कार्य किए। पुराने विधान के नबियों ने भविष्यवाणियाँ कीं, और उसी तरह से, यीशु भी वैसा ही कर सकता था। ऐसा क्यों है? यहाँ भेद कार्य की प्रकृति के आधार पर है। इस मामले को समझने के लिए तुम्हें देह की प्रकृति पर विचार नहीं करना चाहिए, न ही तुम्हें उनके वचनों की गहराई या सतहीपन पर विचार करना चाहिए। तुम्हें हमेशा सबसे पहले उनके कार्य और उसके द्वारा मनुष्य में प्राप्त किए जाने वाले परिणामों पर विचार करना चाहिए। उस समय नबियों द्वारा की गई भविष्यवाणियों ने मनुष्य के जीवन की आपूर्ति नहीं की, यशायाह और दानिय्येल जैसे लोगों द्वारा प्राप्त की गई प्रेरणाएँ मात्र भविष्यवाणियाँ थीं, जीवन का मार्ग नहीं। यदि यहोवा की ओर से प्रत्यक्ष प्रकाशन नहीं होता, तो कोई भी इस कार्य को नहीं कर सकता था, जो नश्वर लोगों के लिए संभव नहीं है। यीशु ने भी कई वचन बोले, परंतु वे वचन जीवन का मार्ग थे, जिनमें से मनुष्य अभ्यास का मार्ग प्राप्त कर सकता था। दूसरे शब्दों में, एक तो वह मनुष्य के जीवन की आपूर्ति कर सकता था, क्योंकि यीशु जीवन है; दूसरे, वह मनुष्यों के विकृत पहलुओं को उलट सकता था; तीसरे, युग को आगे बढ़ाने के लिए उसका कार्य यहोवा के कार्य का अनुवर्ती हो सकता था; चौथे, वह मनुष्य के भीतर की आवश्यकताएँ जान सकता था और समझ सकता था कि मनुष्य में किस चीज का अभाव है; पाँचवें, वह नए युग का सूत्रपात और पुराने युग का समापन कर सकता था। यही कारण है कि उसे परमेश्वर और मसीह कहा जाता है; वह न केवल यशायाह से भिन्न है, अपितु अन्य सभी नबियों से भी भिन्न है। नबियों के कार्य के लिए तुलना के रूप में यशायाह को लें। पहले तो वह मनुष्य के जीवन की आपूर्ति नहीं कर सकता था; दूसरे, वह नए युग का सूत्रपात नहीं कर सकता था। वह यहोवा की अगुआई के अधीन कार्य कर रहा था, न कि नए युग का सूत्रपात करने के लिए। तीसरे, उसके द्वारा बोले गए शब्द उससे परे थे। वह सीधे परमेश्वर के आत्मा से प्रकाशन प्राप्त कर रहा था, और दूसरे लोग उन्हें सुनकर भी नहीं समझे होंगे। ये कुछ चीज़ें अकेले ही यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि उसके वचन भविष्यवाणियों से अधिक और यहोवा के बदले किए गए कार्य के एक पहलू से ज़्यादा कुछ नहीं थे। वह पूरी तरह से यहोवा का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था। वह यहोवा का सेवक था, यहोवा के काम में एक उपकरण। वह केवल व्यवस्था के युग के भीतर और यहोवा के कार्य-क्षेत्र के भीतर ही कार्य कर रहा था; उसने व्यवस्था के युग से आगे कार्य नहीं किया। इसके विपरीत, यीशु का कार्य भिन्न था। उसने यहोवा के कार्य-क्षेत्र को पार कर लिया; उसने देहधारी परमेश्वर के रूप में कार्य किया और संपूर्ण मानवजाति के छुटकारे के लिए सलीब पर चढ़ गया। दूसरे शब्दों में, उसने यहोवा द्वारा किए गए कार्य के बाहर नया कार्य किया। यह नए युग का सूत्रपात करना था। इसके अतिरिक्त, वह उस बारे में बोलने में सक्षम था, जिसे मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता था। उसका कार्य परमेश्वर के प्रबंधन के भीतर का कार्य था, जो संपूर्ण मानवजाति को समाविष्ट करता था। उसने मात्र कुछ ही मनुष्यों में कार्य नहीं किया, न ही उसका कार्य कुछ सीमित संख्या के लोगों की अगुआई करना था। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि कैसे परमेश्वर मनुष्य के रूप में देहधारी हुआ, कैसे उस समय पवित्रात्मा ने प्रकाशन दिए, और कैसे पवित्रात्मा कार्य करने के लिए एक मनुष्य पर उतरा, तो ये ऐसी बातें हैं, जिन्हें मनुष्य देख या छू नहीं सकता। इन सत्यों का इस बात का साक्ष्य होना सर्वथा असंभव है कि वह देहधारी परमेश्वर है। इस प्रकार, अंतर केवल परमेश्वर के वचनों और कार्य में ही किया जा सकता है, जो मनुष्य के लिए दृष्टिगोचर हैं। केवल यही वास्तविक है। इसका कारण यह है कि पवित्रात्मा के मामले तुम्हारे लिए दृष्टिगोचर नहीं हैं और केवल स्वयं परमेश्वर को ही स्पष्ट रूप से ज्ञात हैं, यहाँ तक कि देहधारी परमेश्वर का देह भी सारी चीज़ें नहीं जानता; तुम केवल उसके द्वारा किए गए कार्य से ही सत्यापन कर सकते हो कि वह परमेश्वर है या नहीं? उसके कार्यों से यह देखा जा सकता है कि एक तो वह एक नए युग की शुरुआत करने में सक्षम है; दूसरे, वह मनुष्य के जीवन की आपूर्ति करने और मनुष्य को अनुसरण का मार्ग दिखाने में सक्षम है। यह इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वह स्वयं परमेश्वर है। कम से कम, जो कार्य वह करता है, वह पूरी तरह से परमेश्वर के आत्मा का प्रतिनिधित्व कर सकता है, और ऐसे कार्य से यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का आत्मा उसके भीतर है। चूँकि देहधारी परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य मुख्य रूप से नए युग का सूत्रपात करना, नए कार्य की अगुआई करना और नया राज्य खोलना था, इसलिए ये कुछ स्थितियाँ अकेले ही यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि वह स्वयं परमेश्वर है। इस प्रकार यह उसे यशायाह, दानिय्येल और अन्य महान नबियों से भिन्नता प्रदान करता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर
यद्यपि यूहन्ना ने भी कहा था, “मन फिराओ, क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है,” और उसने स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का भी उपदेश दिया था, किंतु उसका कार्य आगे नहीं बढ़ा और उसने मात्र शुरुआत की। इसके विपरीत, यीशु ने एक नए युग का सूत्रपात करने के साथ-साथ पुराने युग का अंत भी किया, किंतु उसने पुराने विधान की व्यवस्था भी पूरी की। उसके द्वारा किया गया कार्य यूहन्ना के कार्य से अधिक महान था, और इतना ही नहीं, वह समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए आया—उसने कार्य के इस चरण को पूरा किया। जबकि यूहन्ना ने बस मार्ग तैयार किया। यद्यपि उसका कार्य महान था, उसके वचन बहुत थे, और उसका अनुसरण करने वाले चेले भी बहुत थे, फिर भी उसके कार्य ने लोगों के लिए एक नई शुरुआत लेकर आने से बढ़कर कुछ नहीं किया। मनुष्य ने उससे कभी जीवन, मार्ग या गहरे सत्य प्राप्त नहीं किए, न ही मनुष्य ने उसके जरिये परमेश्वर की इच्छा की समझ प्राप्त की। यूहन्ना एक बहुत बड़ा नबी (एलिय्याह) था, जिसने यीशु के कार्य के लिए नई ज़मीन खोली और चुने हुओं को तैयार किया; वह अनुग्रह के युग का अग्रदूत था। ऐसे मामले केवल उनके सामान्य मानवीय स्वरूप देखकर नहीं पहचाने जा सकते। यह इसलिए भी उचित है, क्योंकि यूहन्ना ने भी काफ़ी उल्लेखनीय काम किया; और इतना ही नहीं, पवित्र आत्मा द्वारा उसकी प्रतिज्ञा की गई थी, और उसके कार्य को पवित्र आत्मा द्वारा समर्थन दिया गया था। ऐसा होने के कारण, केवल उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य के माध्यम से व्यक्ति उनकी पहचान के बीच अंतर कर सकता है, क्योंकि किसी मनुष्य के बाहरी स्वरूप से उसके सार के बारे में बताने का कोई उपाय नहीं है, न ही कोई ऐसा तरीका है जिससे मनुष्य यह सुनिश्चित कर सके कि पवित्र आत्मा की गवाही क्या है। यूहन्ना द्वारा किया गया कार्य और यीशु द्वारा किया गया कार्य भिन्न प्रकृतियों के थे। इसी से व्यक्ति यह निर्धारित कर सकता है कि यूहन्ना परमेश्वर था या नहीं। यीशु का कार्य शुरू करना, जारी रखना, समापन करना और सफल बनाना था। उसने इनमें से प्रत्येक चरण पूरा किया था, जबकि यूहन्ना का कार्य शुरुआत से अधिक और कुछ नहीं था। आरंभ में, यीशु ने सुसमाचार फैलाया और पश्चात्ताप के मार्ग का उपदेश दिया, और फिर वह मनुष्य को बपतिस्मा देने लगा, बीमारों को चंगा करने लगा, और दुष्टात्माओं को निकालने लगा। अंत में, उसने मानवजाति को पाप से छुटकारा दिलाया और संपूर्ण युग के अपने कार्य को पूरा किया। उसने लगभग हर स्थान पर जाकर मनुष्य को उपदेश दिया और स्वर्ग के राज्य का सुसमाचार फैलाया। इस दृष्टि से यीशु और यूहन्ना समान थे, अंतर यह था कि यीशु ने एक नए युग का सूत्रपात किया और वह मनुष्य के लिए अनुग्रह का युग लाया। उसके मुँह से वह वचन निकला जिसका मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए, और वह मार्ग निकला जिसका मनुष्य को अनुग्रह के युग में अनुसरण करना चाहिए, और अंत में उसने छुटकारे का कार्य पूरा किया। यूहन्ना यह कार्य कभी नहीं कर सकता था। और इसलिए, वह यीशु ही था जिसने स्वयं परमेश्वर का कार्य किया, और वही है जो स्वयं परमेश्वर है और सीधे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारण का रहस्य (1)
देहधारी परमेश्वर का रंग-रूप मूल रूप से वैसा ही था, जैसा कि नबियों और मनुष्य के पुत्रों का था। देहधारी परमेश्वर तो नबियों की अपेक्षा और भी अधिक सामान्य और व्यावहारिक था। इसलिए मनुष्य उनके मध्य अंतर करने में अक्षम है। मनुष्य केवल रूप-रंग पर ध्यान देता है, इस बात से पूरी तरह से अनजान, कि यद्यपि दोनों काम करने और बोलने में एक-जैसे हैं, फिर भी उनमें अनिवार्य अंतर है। चूँकि चीज़ों को अलग-अलग करके बताने की मनुष्य की क्षमता बहुत ख़राब है, इसलिए वह सरल मुद्दों के बीच अंतर करने में भी अक्षम है, जटिल चीज़ों का तो फिर कहना ही क्या। जब नबियों ने और पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए गए लोगों ने बोला और कार्य किया तो यह मनुष्य के कर्तव्य निभाने के लिए था, यह एक सृजित प्राणी का कार्य करने के लिए था, जिसे मनुष्य को करना चाहिए। किंतु देहधारी परमेश्वर के वचन और कार्य उसकी सेवकाई करने के लिए थे। यद्यपि उसका बाहरी स्वरूप एक सृजित प्राणी का था, किंतु उसका काम अपना कार्य करने के लिए नहीं, बल्कि अपनी सेवकाई करने के लिए था। “कर्तव्य” शब्द सृजित प्राणियों के संबंध में इस्तेमाल किया जाता है, जबकि “सेवकाई” देहधारी परमेश्वर के देह के संबंध में। इन दोनों के बीच एक मूलभूत अंतर है; इन दोनों की अदला-बदली नहीं की जा सकती। मनुष्य का कार्य केवल अपना कर्तव्य निभाना है, जबकि परमेश्वर का कार्य अपनी सेवकाई का प्रबंधन करना और उसे कार्यान्वित करना है। इसलिए, यद्यपि कई प्रेरित पवित्र आत्मा द्वारा इस्तेमाल किए गए और कई नबी उसके साथ थे, किंतु फिर भी उनका कार्य और उनके वचन केवल सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के लिए थे। हो सकता है, उनकी भविष्यवाणियाँ देहधारी परमेश्वर द्वारा कहे गए जीवन के मार्ग से बढ़कर रही हों, और उनकी मानवता देहधारी परमेश्वर की मानवता का अतिक्रमण करती हो, पर फिर भी वे अपना कर्तव्य ही निभा रहे थे, सेवकाई पूरी नहीं कर रहे थे। मनुष्य का कर्तव्य उसके कार्य को संदर्भित करता है; मनुष्य के लिए केवल यही प्राप्य है। जबकि, देहधारी परमेश्वर द्वारा की जाने वाली सेवकाई उसके प्रबंधन से संबंधित है, और यह मनुष्य द्वारा अप्राप्य है। चाहे देहधारी परमेश्वर बोले, कार्य करे, या चमत्कार करे, वह अपने प्रबंधन के अंतर्गत महान कार्य कर रहा है, इस प्रकार का कार्य उसके बदले मनुष्य नहीं कर सकता। मनुष्य का कार्य केवल सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य के किसी दिए गए चरण में केवल अपना कर्तव्य पूरा करना है। परमेश्वर के प्रबंधन के बिना, अर्थात्, यदि देहधारी परमेश्वर की सेवकाई खो जाती है, तो सृजित प्राणी का कर्तव्य भी खो जाएगा। अपनी सेवकाई करने में परमेश्वर का कार्य मनुष्य का प्रबंधन करना है, जबकि मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य की पूर्ति स्रष्टा की माँगें पूरी करने के लिए अपने दायित्वों की पूर्ति है, और उसे किसी भी तरह से अपनी सेवकाई करना नहीं माना जा सकता। परमेश्वर के अंतर्निहित सार के लिए—उसके पवित्रात्मा के लिए—परमेश्वर का कार्य उसका प्रबंधन है, किंतु देहधारी परमेश्वर के लिए, जो एक सृजित प्राणी का बाहरी रूप धारण करता है, उसका कार्य अपनी सेवकाई करना है। वह जो कुछ भी कार्य करता है, अपनी सेवकाई करने के लिए करता है, और मनुष्य जो अधिकतम कर सकता है, वह है उसके प्रबंधन के क्षेत्र के भीतर और उसकी अगुआई के अधीन अपना सर्वश्रेष्ठ देना।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर
आखिरकार, परमेश्वर का कार्य इंसान के कार्य से अलग है और, इसके अलावा, उसकी अभिव्यक्तियाँ इंसानों की अभिव्यक्तियों के समान कैसे हो सकती हैं? परमेश्वर का अपना विशेष स्वभाव है, जबकि इंसानों के ऐसे कर्तव्य हैं जिनका उन्हें निर्वहन करना ही चाहिए। परमेश्वर का स्वभाव उसके कार्य में व्यक्त होता है, जबकि इंसान का कर्तव्य इंसान के अनुभवों में समाविष्ट होता है और इंसान के अनुसरण में व्यक्त होता है। इसलिए यह किए गए कार्य से स्पष्ट हो जाता है कि कोई चीज़ परमेश्वर की अभिव्यक्ति है या इंसान की अभिव्यक्ति। इसे स्वयं परमेश्वर द्वारा बताने की आवश्यकता नहीं है, न ही इंसान को गवाही देने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है; इसके अलावा, स्वयं परमेश्वर को किसी व्यक्ति का दमन करने की आवश्यकता है। यह सब सहज प्रकटन के रूप में आता है; न तो यह जबरन होता है, न ही इंसान इसमें हस्तक्षेप कर सकता है। इंसान के कर्तव्य को उसके अनुभवों से जाना जा सकता है, और इसके लिए लोगों को कोई अतिरिक्त अनुभवजन्य कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। इंसान जब अपना कर्तव्य निभाता है तो उसका समस्त सार प्रकट हो सकता है, जबकि परमेश्वर अपना कार्य करते समय अपना अंतर्निहित स्वभाव प्रकट कर सकता है। अगर यह इंसान का कार्य है, तो इसे छिपाया नहीं जा सकता। अगर यह परमेश्वर का कार्य है, तो किसी के लिए भी परमेश्वर के स्वभाव को छिपाना और भी असंभव है, इसे इंसान द्वारा नियंत्रित करना तो बिल्कुल ही संभव नहीं। किसी भी इंसान को परमेश्वर नहीं कहा जा सकता, न ही उसके काम और शब्दों को पवित्र या अपरिवर्तनीय माना जा सकता है। परमेश्वर को इंसान कहा जा सकता है क्योंकि उसने देहधारण किया, लेकिन उसके कार्य को इंसान का कार्य या इंसान का कर्तव्य नहीं माना जा सकता। इसके अलावा, परमेश्वर के कथन और पौलुस के पत्रों को समान नहीं माना जा सकता, न ही परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को और इंसान के अनुदेशों के शब्दों को समान दर्जा दिया जा सकता है। इसलिए, ऐसे सिद्धांत हैं जो परमेश्वर के कार्य को इंसान के काम से अलग करते हैं। इन्हें उनके सारों के अनुसार अलग किया जाता है, न कि कार्य के विस्तार या उसकी अस्थायी कार्यकुशलता के आधार पर। इस विषय पर, अधिकतर लोग सिद्धांतों की गलती करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इंसान बाह्य स्वरूप को देखता है, जिसे वह हासिल कर सकता है, जबकि परमेश्वर सार को देखता है, जिसे इंसान की भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता। अगर तुम परमेश्वर के वचनों और कार्य को औसत इंसान के कर्तव्य मानते हो, और इंसान के बड़े पैमाने के काम को उसका कर्तव्य-निर्वहन मानने के बजाय देहधारी परमेश्वर का कार्य मानते हो, तो क्या तुम सैद्धांतिक रूप से गलत नहीं हो? इंसान के पत्र और जीवनियाँ आसानी से लिखी जा सकती हैं, मगर केवल पवित्र आत्मा के कार्य की बुनियाद पर। लेकिन परमेश्वर के कथनों और कार्य को इंसान आसानी से संपन्न नहीं कर सकता या उन्हें मानवीय बुद्धि और सोच द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, न ही लोग उनकी जाँच-पड़ताल करने के बाद पूरी तरह से उनकी व्याख्या कर सकते हैं। यदि सिद्धांत के ये मामले तुम लोगों के अंदर कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं करते हैं, तो तुम लोगों की आस्था स्पष्टतः बहुत सच्ची या शुद्ध नहीं है। केवल यही कहा जा सकता है कि तुम लोगों की आस्था अस्पष्टता से भरी हुई है, और उलझी हुई तथा सिद्धांतविहीन है। परमेश्वर और इंसान के सर्वाधिक मौलिक अनिवार्य मसलों को समझे बिना, क्या इस प्रकार की आस्था पूरी तरह से प्रत्यक्षबोध से रहित नहीं है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तेरह धर्मपत्रों पर तुम्हारा दृढ़ मत क्या है?
तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में भेद कैसे करना है। तुम मनुष्य के कार्य में क्या देख सकते हो? मनुष्य के कार्य में उसके अनुभव के बहुत से तत्व होते हैं; मनुष्य वही व्यक्त करता है जैसा वह होता है। परमेश्वर का अपना कार्य भी वही अभिव्यक्त करता है जो वह है, परंतु उसका अस्तित्व मनुष्य से भिन्न है। मनुष्य का अस्तित्व मनुष्य के अनुभव और जीवन का प्रतिनिधि है (जो कुछ मनुष्य अपने जीवन में अनुभव करता या जिससे सामना होता है, या जो उसके सांसारिक लोकाचार के फलसफे हैं), और भिन्न-भिन्न परिवेशों में रहने वाले लोग भिन्न-भिन्न अस्तित्व व्यक्त करते हैं। क्या तुम्हारे पास सामाजिक अनुभव है और तुम वास्तव में किस प्रकार अपने परिवार में रहते और उसके भीतर कैसे अनुभव करते हो, इसे तुम्हारी अभिव्यक्ति में देखा जा सकता है, जबकि तुम देहधारी परमेश्वर के कार्य से यह नहीं देख सकते कि उसके पास सामाजिक अनुभव हैं या नहीं। वह मनुष्य के सार से अच्छी तरह से अवगत है, वह सभी प्रकार के लोगों से संबंधित हर तरह के अभ्यास प्रकट कर सकता है। वह मानव के भ्रष्ट स्वभाव और विद्रोही व्यवहार को भी बेहतर ढंग से प्रकट करता है। वह सांसारिक लोगों के बीच नहीं रहता, परंतु वह नश्वर लोगों की प्रकृति और सांसारियों की समस्त भ्रष्टता से अवगत है। यही उसका अस्तित्व है। यद्यपि वह संसार के साथ व्यवहार नहीं करता, लेकिन वह संसार के साथ व्यवहार करने के नियम जानता है, क्योंकि वह मानवीय प्रकृति को पूरी तरह से समझता है। वह पवित्रात्मा के आज के और अतीत के, दोनों कार्यों के बारे में जानता है जिन्हें मनुष्य की आँखें नहीं देख सकतीं और कान नहीं सुन सकते। इसमें बुद्धि शामिल है जो कि सांसारिक लोकाचार का फलसफा और चमत्कार नहीं है जिनकी थाह पाना मनुष्य के लिए कठिन है। यही उसका अस्तित्व है, लोगों के लिए खुला भी और उनसे छिपा हुआ भी है। वह जो कुछ व्यक्त करता है, वह असाधारण मनुष्य का अस्तित्व नहीं है, बल्कि पवित्रात्मा के अंतर्निहित गुण और अस्तित्व हैं। वह दुनिया भर में यात्रा नहीं करता परंतु उसकी हर चीज़ को जानता है। वह “वन-मानुषों” के साथ संपर्क करता है जिनके पास कोई ज्ञान या अंतर्दृष्टि नहीं होती, परंतु वह ऐसे वचन व्यक्त करता है जो ज्ञान से ऊँचे और महान लोगों से ऊपर होते हैं। वह मंदबुद्धि और संवेदनशून्य लोगों के समूह में रहता है जिनमें न तो मानवीयता होती है और न ही वे मानवीय परंपराओं और जीवन को समझते हैं, परंतु वह लोगों से सामान्य मानवता का जीवन जीने के लिए कह सकता है, साथ ही वह इंसान की नीच और अधम मानवता को भी प्रकट करता है। यह सब-कुछ उसका अस्तित्व ही है, किसी भी रक्त-माँस के इंसान के अस्तित्व की तुलना में कहीं अधिक ऊँचा है। उसके लिए, यह आवश्यक नहीं है कि वह उस कार्य को करने के लिए जो उसे करना है और भ्रष्ट मनुष्य के सार को पूरी तरह से प्रकट करने के लिए जटिल, बोझिल और पतित सामाजिक जीवन का अनुभव करे। पतित सामाजिक जीवन उसके देह को कुछ नहीं सिखाता। उसके कार्य और वचन केवल मनुष्य के विद्रोहीपन को प्रकट करते हैं, वे संसार के साथ निपटने के लिए मनुष्य को अनुभव और सबक प्रदान नहीं करते। जब वह मनुष्य को जीवन की आपूर्ति करता है तो उसे समाज या मनुष्य के परिवार की जाँच-पड़ताल करने की आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य को उजागर करना और न्याय करना उसके देह के अनुभवों की अभिव्यक्ति नहीं है; यह लम्बे समय तक मनुष्य के विद्रोहीपन को जानने के बाद, उसका मनुष्य की अधार्मिकता को प्रकट करना और मनुष्य की भ्रष्टता से घृणा करना है। परमेश्वर के सारे कार्य का तात्पर्य मनुष्य के सामने अपने स्वभाव को प्रकट करना और अपने अस्तित्व को व्यक्त करना है। केवल वही इस कार्य को कर सकता है; इस कार्य को रक्त-माँस का व्यक्ति नहीं कर सकता।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य
जिस कार्य को परमेश्वर करता है वह उसके देह के अनुभव का प्रतिनिधित्व नहीं करता; जिस कार्य को मनुष्य करता है वह मनुष्य के अनुभव का प्रतिनिधित्व करता है। हर कोई अपने व्यक्तिगत अनुभव की बात करता है। परमेश्वर सीधे तौर पर सत्य व्यक्त कर सकता है, जबकि मनुष्य केवल सत्य का अनुभव करने के पश्चात् तदनुरूप अनुभव को व्यक्त कर सकता है। परमेश्वर के कार्य में कोई नियम नहीं होते और वह समय या भौगोलिक सीमाओं से मुक्त है। वह जो है उसे वह किसी भी समय, कहीं पर भी प्रकट कर सकता है। उसे जैसा अच्छा लगता है वह वैसा ही करता है। मनुष्य के कार्य में परिस्थितियाँ और सन्दर्भ होते हैं; उनके बिना, वह कार्य करने में असमर्थ होता है और वह परमेश्वर के बारे में अपने ज्ञान को व्यक्त करने या सत्य के बारे में अपने अनुभव को व्यक्त करने में भी असमर्थ होता है। यह बताने के लिए कि यह परमेश्वर का कार्य है या मनुष्य का, तुम्हें बस उनके बीच अन्तर की तुलना करनी है। यदि कोई कार्य स्वयं परमेश्वर द्वारा नहीं किया गया है और वह केवल मनुष्य का ही कार्य है, तो तुम्हें आसानी से पता चल जाएगा कि मनुष्य की शिक्षाएँ ऊँची हैं, जो किसी की भी क्षमता से परे हैं; उसके बोलने का अंदाज, चीजों को सँभालने का उसका सिद्धांत और कार्य करने का उसका अनुभवी और सधा हुआ तरीका दूसरों की पहुँच से बाहर होते हैं। तुम सभी इन अच्छी क्षमता और उत्कृष्ट ज्ञान वाले लोगों की सराहना करते हो, परंतु तुम परमेश्वर के कार्य और वचनों से यह नहीं देख पाते कि उसकी मानवता कितनी ऊँची है। इसके बजाए, वह साधारण है, और कार्य करते समय, वह सामान्य और व्यावहारिक होता है, फिर भी नश्वर इंसान के लिए वह असीमित भी है, जिसकी वजह से लोगों में उसका भय मानने वाला हृदय उत्पन्न होता है। शायद किसी व्यक्ति का अपने कार्य में अनुभव विशेष रूप से ऊँचा हो, या उसकी कल्पना और तर्कशक्ति विशेष रूप से ऊँची हो, और उसकी मानवता विशेष रूप से अच्छी हो; ये चीज़ें केवल लोगों की प्रशंसा ही अर्जित कर सकती हैं, परंतु उनके अंदर भय या डर जाग्रत नहीं कर सकतीं। सभी लोग ऐसे लोगों की प्रशंसा करते हैं जो अच्छी तरह कार्य कर सकते हैं, विशेष रुप से जिनका अनुभव गहरा होता है और जो सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, परंतु ऐसे लोग कभी भी भय नहीं दिखा सकते, केवल प्रशंसा और ईर्ष्या प्राप्त कर सकते हैं। परंतु जिन लोगों ने परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर लिया है वे परमेश्वर की प्रशंसा नहीं करते; बल्कि उन्हें लगता है कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य की पहुँच से परे है और यह मनुष्य के लिए अथाह है, यह तरोताज़ा और अद्भुत है। जब लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, तो उसके बारे में उनका पहला ज्ञान यह होता है कि वह अथाह, बुद्धिमान और अद्भुत है, और वे अनजाने में उसका भय मानते हैं और उस कार्य के रहस्य को महसूस करते हैं जो वह करता है, जो कि मनुष्य के दिमाग की पहुँच से परे है। लोग केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने, उसकी इच्छाओं को संतुष्ट करने में समर्थ होना चाहते हैं; वे उससे बढ़कर होने की इच्छा नहीं करते, क्योंकि जो कार्य परमेश्वर करता है वह मनुष्य की सोच और कल्पना से परे होता है और वह परमेश्वर के बदले उस कार्य को नहीं कर सकता। यहाँ तक कि मनुष्य खुद अपनी कमियों को नहीं जानता, फिर भी परमेश्वर ने एक नया मार्ग प्रशस्त किया है और वह मनुष्य को एक अधिक नए और अधिक खूबसूरत संसार में ले जाने के लिए आया है, जिससे मनुष्य ने नई प्रगति और एक नई शुरुआत की है। लोगों के मन में परमेश्वर के लिए जो भाव है वो प्रशंसा का भाव नहीं है, या सिर्फ प्रशंसा नहीं है। उनका गहनतम अनुभव भय और प्रेम है; और उनकी भावना यह है कि परमेश्वर वास्तव में अद्भुत है। वह ऐसा कार्य करता है जिसे करने में मनुष्य असमर्थ है, और ऐसी बातें कहता है जिसे कहने में मनुष्य असमर्थ है। जिन लोगों ने परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है उन्हें हमेशा एक अवर्णनीय एहसास होता है। पर्याप्त गहरे अनुभव वाले लोग परमेश्वर के लिए प्रेम को समझ सकते हैं; वे हमेशा उसकी मनोरमता को महसूस कर सकते हैं, महसूस कर सकते हैं कि उसका कार्य बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण और बहुत अद्भुत है, और परिणामस्वरूप उनके बीच असीमित सामर्थ्य उपजती है। यह डर या कभी-कभार का प्रेम और श्रद्धा नहीं है, बल्कि यह मनुष्य के लिए परमेश्वर की करुणा और सहिष्णुता की गहरी भावना है। हालाँकि, जिन लोगों ने उसकी ताड़ना और न्याय का अनुभव किया है, उन्हें बोध है कि वह प्रतापी है और अपमान सहन नहीं करता। यहाँ तक कि जिन लोगों ने उसके अधिकांश कार्य का अनुभव किया है, वे भी उसकी थाह पाने में असमर्थ हैं; जो लोग सचमुच उसका भय मानते हैं, वे सभी जानते हैं कि उसका कार्य लोगों की धारणाओं से मेल नहीं खाता बल्कि हमेशा उनकी धारणाओं के विरुद्ध होता है। वह यह नहीं चाहता कि लोग उसकी पूरी तरह प्रशंसा करें या वे उसके प्रति समर्पण-भाव दिखाएँ; बल्कि वह चाहता है कि उनके अंदर सच्चा भय और समर्पण हो। उसके इतने सारे कार्य में, सच्चे अनुभव वाले किसी भी व्यक्ति में उसका भय मानने वाला हृदय विकसित होता है, जो प्रशंसा से बढ़कर है। लोगों ने ताड़ना और न्याय के उसके कार्य के कारण उसके स्वभाव को देखा है, और इसलिए उनके पास उसका भय मानने वाला हृदय होता है। परमेश्वर भय माने जाने और समर्पण करने योग्य है, क्योंकि उसका अस्तित्व और उसका स्वभाव सृजित प्राणियों के समान नहीं है, ये सृजित प्राणियों से ऊपर हैं। परमेश्वर स्व-अस्तित्वधारी, चिरकालीन और असृजित प्राणी है, और केवल परमेश्वर ही भय और समर्पण के योग्य है; मनुष्य इसके योग्य नहीं है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य
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