57. शिकायत करूं या न करूं
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अपनी नियति के लिए, तुम लोगों को परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना चाहिए। कहने का अर्थ है, चूँकि तुम लोग यह मानते हो कि तुम परमेश्वर के घर के एक सदस्य हो, तो तुम्हें परमेश्वर के मन को शांति प्रदान करनी चाहिए और सभी बातों में उसे संतुष्ट करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, तुम लोगों को अपने कार्यों में सिद्धांतवादी और सत्य के अनुरूप होना चाहिए। यदि यह तुम्हारी क्षमता के परे है, तो परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा और तुम्हें अस्वीकृत कर देगा, और हर इंसान तुम्हें ठुकरा देगा। अगर एक बार तुम ऐसी दुर्दशा में पड़ गए, तो तुम्हारी गिनती परमेश्वर के घर में नहीं की जा सकती। परमेश्वर द्वारा अनुमोदित नहीं किए जाने का यही अर्थ है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर चाहता है कि हम नियम से, सत्य के अनुरूप काम करें। विश्वासी होने के नाते यह हमारा दायित्व भी है। हम परमेश्वर के मानदंडों पर खरे उतरे बिना उसकी स्वीकृति नहीं पा सकते। पहले, मेरा भ्रष्ट स्वभाव मुझे हमेशा रोक देता। मैं सिद्धांतों के मुताबिक न बोलती थी, न काम करती थी। जब मुझे कलीसिया के झूठे अगुआओं या कर्मियों का पता चलता, तो मैं उन्हें उजागर करने या उनकी शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर पाती थी, इससे परमेश्वर के घर का कार्य पिछड़ जाता। मैंने अनुभव से सीखा कि सिद्धांतों के अनुसार काम करना कितना अहम होता है।
पिछली गर्मियों में, हमारी कलीसिया-अगुआ ने मुझे लिखने का काम दे दिया ताकि मैं टीम-कार्य में टीम-अगुआ की मदद कर सकूँ। तीन महीने पहले मुझे अपने पिछले काम से बर्खास्त कर दिया गया था, इसलिए एक और मौक़ा देने के लिए मैंने परमेश्वर का हार्दिक धन्यवाद किया। मेरे लिए ये मौका बहुत ही कीमती था और परमेश्वर के भरोसे मैं इसे करना चाहती थी। टीम-अगुआ ने मुझे टीम के काम के बारे में जानकारी दी, मैंने देखा कि उनके पास आलेखों का संपादन करने वाले पर्याप्त लोग नहीं हैं। इससे उनका काम आगे नहीं बढ़ पा रहा है। मैंने कुछ भाई-बहनों के नाम सुझाये, ताकि हम चर्चा कर सकें कि उस काम के लिए सबसे उपयुक्त कौन हैं। लेकिन उसका जवाब था, "कोई जल्दी नहीं है। आराम से—पहले तुम लोग कुछ आलेखों का संपादन करो, फिर देखेंगे।" उसे इतना बेपरवाह देख कर मैं घबरा गयी। टीम में ऐसे लोग ज़्यादा नहीं थे, जो सत्य को समझते हों और जो सक्षम हों, इससे काम पर पहले ही बुरा असर पड़ चुका था। वह कैसे कह सकता है, "आराम से करो"? क्या ये गैर-ज़िम्मेदाराना नहीं है? मुझे लगा मुझे उसके सामने ये बात उठानी चाहिए। फिर मैंने सोचा, "यह प्रभारी है। उसको यह काम संभालते मुझसे ज़्यादा दिन हो चुके हैं और उसे सिद्धांतों की जानकारी मुझसे ज़्यादा है। चीज़ों की व्यवस्था के बारे में उसे ज़्यादा समझ होनी चाहिए। मैं अभी हाल ही में टीम में शामिल हुई हूँ और मेरे लिए सब-कुछ नया है। अगर मैं ज़्यादा बड़बड़ करूंगी तो क्या वह ये नहीं कहेगा कि मैं बहुत महत्वाकांक्षी हूँ और अपनी हद से बाहर जा रही हूँ? जाने दो। इंतज़ार करके देखती हूँ।"
कुछ समय बाद मैंने देखा कि वह टीम के सदस्यों के प्रशिक्षण के बारे में वाकई बेपरवाह है, और वह लोगों को काम सौंपने में किसी नियम का पालन नहीं कर रहा था। कुछ भाई-बहन कोई ख़ास काम कर रहे होते, और फिर पूरे हालात का जायज़ा लिये बिना, किसी व्यक्ति की खूबियों और काबिलियत का ख़याल किये बिना, वह अपनी मर्ज़ी से उसे किसी नयी टीम में नियुक्त कर देता। इससे परमेश्वर के घर के कार्य पर बुरा असर पड़ा और हमारी तरक्की में रूकावट पैदा हुई। मैंने उससे कहा कि ये व्यवस्थाएं न तो सिद्धांतों के अनुसार हैं और न ही उपयुक्त हैं, लेकिन वह अपने फैसले पर कायम रहा। वह जो कर रहा था उसका विश्लेषण कर उसकी प्रकृति को प्रकट करने के लिए, मैंने उसके साथ संगति करनी चाही, फिर मैंने सोचा, "मैं टीम में नयी हूँ। अगर मैं लगातार सुझाव देती रही, तो क्या वह कहेगा कि मैं नियंत्रण करना चाहती हूँ और नासमझ हूँ?" मैंने दोबारा कहने की हिम्मत नहीं की।
जल्दी ही, मुझे एक कलीसिया-अगुआ का पत्र मिला जिसमें पूछा गया था कि क्या हमें आलेख-संपादन के लिए कोई मिला, और क्या टीम-अगुआ और मैं साथ मिल कर ठीक से काम कर रहे हैं। इससे मुझे थोड़ी चिंता हुई। समझ नहीं पायी कि क्या जवाब दूं। अगर टीम-अगुआ को पता चल गया कि उसके व्यवहारिक कार्य न करने के बारे में मैंने कलीसिया-अगुआ को बता दिया है, तो हम लोग साथ-साथ काम कैसे कर पायेंगे? इसके अलावा, मुझे नहीं पता था कि टीम के दूसरे लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं। अगर मेरी समझ गलत निकली, तो क्या कलीसिया-अगुआ कहेंगे कि मैं मीन-मेख निकाल रही हूँ, पक्षपात कर रही हूँ? लेकिन अगर मैं नहीं बोली, तो मुझे लगेगा मैं ईमानदार नहीं हूँ या परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रख रही हूँ। बहुत सोच-विचार के बाद, मैंने फैसला किया कि पहले उसके बारे में दूसरों के विचारों का पता लगाऊँगी। मैं पत्र का जवाब बाद में भी दे सकती हूँ।
मैंने भाई यांग को एक सभा में देखा। उसने बताया कि वह कई महीनों से टीम में है, उसने टीम-अगुआ को कभी भी बहुत ज़िम्मेदार नहीं देखा। उसे काम की ताज़ा जानकारी नहीं होती और न ही वह समय पर काम की खोज-ख़बर रखता है, वह न तो भाई-बहनों का मार्गदर्शन करता है, न ही सिद्धांतों को जानने में उनकी मदद करता है। ऐसे कुछ ज़रूरी आलेख भी थे जो उसने लोगों को समय रहते नहीं सौंपे, वह दूसरे लोगों द्वारा लायी गयी समस्याओं के बारे में वाकई लापरवाह है। भाई यांग ने यह भी कहा कि उसने सभाओं में उसे आत्मचिंतन कर खुद को जानने और समस्या खड़ी होने पर परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने के बारे में संगति करते हुए भी शायद ही कभी सुना है, वह बस थोड़े-से सिद्धांत उगल देता है। वह मीठी बातें कर लेता है, लेकिन कोई भी वास्तविक कार्य नहीं करता। मैंने मन-ही-मन सोचा, "लगता है, वह कोई असल काम किये बिना बस यूं ही वक्त जाया करता है। वह दूसरों से न तो सत्य स्वीकार करता है और न ही सुझाव। क्या यह एक झूठे अगुआ या कर्मी की परिभाषा नहीं है? अगर परमेश्वर के घर के इस महत्वपूर्ण कार्य की ज़िम्मेदारी उसके सिर पर रही, तो इससे परमेश्वर के घर के कार्य को वाकई नुकसान हो सकता है।" इस सबसे मुझे एहसास हुआ कि समस्या बहुत गंभीर है, मुझे बिना देर किये किसी कलीसिया-अगुआ को बता देना चाहिए। फिर मैंने सोचा, "अगर मैंने यह शिकायत कर दी, और उसके स्थान पर किसी और को नियुक्त नहीं किया गया, तो वह मेरे लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है या मुझे मेरे काम से बरखास्त भी कर सकता है। मैं तीन महीनों तक धार्मिक कार्य और आत्म-चिंतन करती रही हूँ। इस काम में मुझे ज़्यादा दिन नहीं हुए। अगर मुझे बर्खास्त कर दिया गया, तो क्या मुझे कोई नया काम मिलेगा? पुरानी कहावत है, 'जो कील बाहर निकली होती है, सबसे पहली चोट उसी पर की जाती है।' मुझे कुछ भी नहीं कहना चाहिए। मैं किसी दूसरे के शिकायत करने का इंतज़ार करूंगी, फिर मैं भी बात जोड़ दूंगी। इस प्रकार मैं अपना सिर ओखली में नहीं डालूँगी।"
मैं बस एक आँख खुली और एक आँख बंद रख कर काम चलाना चाहती थी, लेकिन परमेश्वर हमारे दिल के अंदर देख लेता है। घर जाते वक्त मुझे बहुत बेचैनी महसूस हो रही थी। मेरी अंतरात्मा मुझे कचोट रही थी। मुझे लगा कि पवित्र आत्मा मुझे फटकार रहा है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे मुझे प्रबुद्ध करने को कहा ताकि मैं खुद को जान सकूं। प्रार्थना के बाद, मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आये : "तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम में शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफ़ाश कर सकोगे? क्या तुम मेरी इच्छा को स्वयं में पूरा होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। मैं सच में बहुत बेचैन थी। मैं हमेशा परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होने और कलीसिया के कार्य को कायम रखने की बातें करती थी, लेकिन जब सत्य का उल्लंघन कर परमेश्वर के घर को नुकसान पहुँचाने वाली कोई घटना वास्तव में घट गयी, तो मैंने सिर्फ अपने ही हितों को कायम रखा। मुझे पता था कि टीम का अगुआ अपने काम में लापरवाह है और कोई असल काम नहीं करता, इससे कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुंच चुका है, और मुझे कलीसिया के अगुआ को बता देना चाहिए। लेकिन इस डर से कि वह मुझसे बदला लेगा या मेरी नौकरी जा सकती है, मैंने बस खुद को बचा कर रखा, अहम घड़ी में पीछे हट गयी, जो हो रहा है उसे न जानने का बहाना करके अनदेखा करती रही। मैं परमेश्वर के घर के हितों को जरा भी कायम नहीं रख रही थी। मैं बिना किसी इंसानियत और समझ के, बहुत ज़्यादा स्वार्थी और घिनौनी थी!
घर पहुँचने पर, मैंने खोजने के प्रयास में परमेश्वर से प्रार्थना की : "दरअसल मैंने किस कारण से सत्य का अभ्यास नहीं किया और कलीसिया के कार्य को कायम नहीं रखा?" फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का कोई संकल्प और इच्छा नहीं होती है; उनके अंदर सत्य का जीवन बिल्कुल भी नहीं होता है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे दुष्ट या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान उठाना पड़ता है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? इनमें से तो कोई नहीं; बात यह है कि तुम कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित किये जा रहे हो। इन सभी स्वभावों में से एक है, कुटिलता। तुम यह मानते हुए सबसे पहले अपने बारे में सोचते हो, 'अगर मैंने अपनी बात बोली, तो इससे मुझे क्या फ़ायदा होगा? अगर मैंने अपनी बात बोल कर किसी को नाराज कर दिया, तो हम भविष्य में एक साथ कैसे काम कर सकेंगे?' यह एक कुटिल मानसिकता है, है न? क्या यह एक कुटिल स्वभाव का परिणाम नहीं है? ... तुम्हारा शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें नियंत्रित कर रहा है; तुम तो अपने मुँह के मालिक भी नहीं हो। भले ही तुम ईमानदारी भरे शब्दों को कहना चाहते हो, लेकिन इसके बावजूद तुम ऐसा करने में असमर्थ होने के साथ-साथ डरते भी हो। तुम्हें जो करना चाहिए, जो बातें तुमको कहनी चाहिए, जो ज़िम्मेदारियाँ तुम्हें निभानी चाहिए, उनका दस हज़ारवाँ हिस्सा भी तुम नहीं कर पा रहे; तुम्हारे हाथ-पैर, तुम्हारे शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव से बंधे हुए हैं। इन पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है। तुम्हारा शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें यह बताता है कि बात कैसे करनी है, और तुम उसी तरीके से बात करते हो; यह तुम्हें बताता है कि क्या करना चाहिए और फ़िर तुम वही करते हो। ... तुम सत्य की खोज नहीं करते, सत्य का अभ्यास तो तुम और भी कम करते हो, फिर भी तुम प्रार्थना करते रहते हो, अपना निश्चय दृढ़ करते हो, संकल्प करते हो और शपथ लेते हो। यह सब करके तुम्हें क्या मिला है? तुम अब भी हर बात का समर्थन करने वाले व्यक्ति ही हो : 'मैं किसी को नहीं उकसाऊंगा और न ही मैं किसी को नाराज करूँगा। अगर कोई बात मेरे किसी मतलब की नहीं है, तो मैं इससे दूर ही रहूँगा; मैं उन चीजों के बारे में कुछ नहीं कहूँगा जिनका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है, इनमें कोई अपवाद नहीं है। अगर कोई चीज़ मेरे हितों, मेरे रुतबे या मेरे आत्म-सम्मान के लिए हानिकारक है, तब भी मैं इस पर कोई ध्यान नहीं दूँगा, इन सब चीज़ों पर सावधानी बरतूंगा; मुझे बिना सोचे-समझे काम नहीं करना चाहिए। जो कील बाहर निकली होती है, सबसे पहली चोट उसी पर की जाती है और मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ!' तुम पूरी तरह से दुष्टता, कपट, कठोरता और सत्य से नफ़रत करने वाले अपने भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में हो। वे तुम्हें ज़मीन पर गिरा रहे हैं, ये तुम्हारे लिये इतने कठोर हो गये हैं कि तुम सुनहरे छल्ले वाले सुरक्षा कवच को पहनकर भी इसे बरदाश्त नहीं कर सकते। भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण में रहना हद से ज़्यादा थकाऊ और कष्टदायी है!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे धूर्त और दुष्ट शैतानी स्वभाव को बड़ी तीक्ष्णता से प्रकट कर दिया। जब शुरुआत में मैंने टीम में लोगों की कमी की बात उठायी, और देखा कि टीम-अगुआ को कुछ फ़र्क नहीं पड़ा और उसने कोई ज़िम्मेदारी नहीं ली, तभी मैंने अच्छे से जान लिया कि इससे कलीसिया का कार्य प्रभावित होगा। लेकिन ज़्यादा कुछ कहने की मेरी हिम्मत नहीं हुई, कहीं वह ये न कहे कि मैं हद पार कर रही हूँ और वह मुझे नापसंद करने लगेगा। फिर मैंने देखा कि वह बिना किसी सिद्धांत के लोगों की अदला-बदली कर रहा है, एक का पेट काट कर दूसरे का भर रहा है और हमारे काम को नुकसान पहुंचा रहा है। मैंने हल्का-सा संकेत दिया, फिर बात को भुला दिया। मुझे पता था कि मेरे संकेत का कोई नतीजा नहीं निकला, लेकिन मैं निपटने या उसे उजागर करने से डर रही थी। जब भाई यांग ने मुझे उसके बारे में और ज़्यादा बताया, तो मुझे कोई शक नहीं रहा कि वह व्यवहारिक कार्य नहीं कर रहा है और सच्चाई को स्वीकार नहीं करेगा, कि वह एक झूठा अगुआ है, और मुझे तुरंत किसी कलीसिया-अगुआ को शिकायत कर देनी चाहिए। फिर भी, मुझे डर था कि कहीं वह मुझसे मेरा काम न छीन ले, इसलिए मैं बस अपने पद और भविष्य की रक्षा के लिए फिर से दुम दबा कर भाग निकली। मैं बहुत स्वार्थी और कुटिल हो गयी थी! मैं जब भी उसकी कोई गलत हरकत देखती, तो उसे उजागर करने या किसी कलीसिया-अगुआ को बताने की हिम्मत नहीं कर पाती थी। नतीजा यह हुआ कि परमेश्वर के घर के काम में रुकावट पैदा हो गयी। मैं शैतानी ज़हर के साथ जी रही थी, जैसे "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "जो कील बाहर निकली होती है, सबसे पहली चोट उसी पर की जाती है," "जिसकी लाठी उसकी भैंस," और "काउंटी अधिकारी आसपास के लोगों को उस तरह से आदेश नहीं दे सकता है जैसे स्थानीय अधिकारी दे सकता है।" मेरा नज़रिया बहुत बेतुका था, मैं बेहद खुदगर्ज़ और कुटिल हो गयी थी। मैं चौकन्नी थी, हर कदम फूंक-फूंक कर रख रही थी, हर जगह अपने हित देख रही थी, मुझे इस बात का डर था कि कहीं किसी मुसीबत के लिए मैं ज़िम्मेदार न ठहरा दी जाऊँ। मैं नुकसान उठाने के ख़याल को झेल नहीं पा रही थी। दरअसल क्या चल रहा है, यह बताने के लिए एक भी शब्द सच बोलना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो गया था। मुझमें एक झूठे अगुआ की शिकायत कर उसे उजागर करने की हिम्मत नहीं थी। मैं शारीरिक और मानसिक दोनों ही तरह से, इस शैतानी स्वभाव और ज़हर से मजबूती से बंधी हुई और नियंत्रित थी। मैं सच्चाई नहीं बता सकती थी और मुझमें धार्मिकता बिलकुल भी नहीं थी। यह जीवन जीने का बेहद कायराना तरीका था। मैंने महसूस किया कि यह शैतानी ज़हर बेहद बेतुका है, उसके प्रभाव में जीते हुए, मेरा किया हर काम सच्चाई के खिलाफ़ है और परमेश्वर-विरोधी है। मुझमें बिल्कुल भी इंसानियत नहीं है।
तभी, कलीसिया द्वारा अपनी कार्य-व्यवस्था को निर्धारित करने का समय आ गया। हमसे फिर कहा गया कि अगर ऐसे दुष्कर्मियों, मसीह-विरोधियों, झूठे अगुआओं या कर्मियों का पता चले, जो व्यवहारिक कार्य न करते हों, तो परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए उनकी शिकायत कर दी जाए। यह ज़िम्मेदारी परमेश्वर के प्रत्येक चुने हुए व्यक्ति की है। परमेश्वर के घर की ये अपेक्षाएं जब मेरे सामने रखी गयीं, तो मुझे बहुत बुरा लगा। मैं भली भांति जानती थी कि हमारी टीम में एक झूठा अगुआ है, लेकिन मैंने उसकी शिकायत करने की हिम्मत नहीं की थी। मैं परमेश्वर के चुने हुए लोगों में होने के योग्य कैसे हो सकती हूँ? मैंने परमेश्वर के कुछ ऐसे वचन ढूंढ़े, जो मेरी दशा के लिए उपयुक्त थे और मुझे यह अंश मिला : "एक अगुआ या कार्यकर्ता के साथ व्यवहार करने के तरीके के बारे में लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? अगर वह जो करता है वह सही है, तो तुम उसका पालन कर सकते हो; अगर वह जो करता है वह गलत है, तो तुम उसे उजागर कर सकते हो, यहाँ तक कि उसका विरोध कर सकते हो और एक अलग राय भी ज़ाहिर कर सकते हो। अगर वह व्यावहारिक कार्य करने में असमर्थ है, और खुद को एक झूठे अगुआ, झूठे कार्यकर्ता या मसीह विरोधी के रूप में प्रकट करता है, तो तुम उसकी अगुआई को स्वीकार करने से इनकार कर सकते हो, तुम उसके ख़िलाफ़ शिकायत करके उसे उजागर भी कर सकते हो। हालाँकि, परमेश्वर के कुछ चुने हुए लोग सत्य को नहीं समझते और विशेष रूप से कायर हैं, इसलिए वे कुछ करने की हिम्मत नहीं करते। वे कहते हैं, 'अगर अगुआ ने मुझे निकाल दिया, तो मैं बर्बाद हो जाऊँगा; अगर उसने सबको मुझे उजागर करने और मेरा त्याग करने पर मजबूर कर दिया, तो मैं परमेश्वर पर विश्वास नहीं कर पाऊँगा। अगर मैंने कलीसिया को छोड़ दिया, तो परमेश्वर मुझे नहीं चाहेगा और मुझे नहीं बचाएगा। कलीसिया परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है!' क्या सोचने के ऐसे तरीके उन चीजों के प्रति ऐसे व्यक्ति के रवैये को प्रभावित नहीं करते हैं? क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है कि अगर अगुआ ने तुमको निकाल दिया, तो तुमको बचाया नहीं जायेगा? क्या तुम्हारे उद्धार का प्रश्न तुम्हारे प्रति अगुआ के रवैये पर निर्भर है? इतने सारे लोगों में इतना डर क्यों है? अगर कोई झूठा अगुआ या कोई मसीह विरोधी व्यक्ति तुम्हें धमकी देता है, और तुम इसके ख़िलाफ़ ऊँचे स्तर पर जाकर आवाज़ नहीं उठाते और यहाँ तक कि यह गारंटी भी देते हो कि इसके बाद से तुम अगुआ की बातों से सहमत होगे, तो क्या तुम बर्बाद नहीं हो गये? क्या इस तरह का व्यक्ति सत्य की खोज करने वाला व्यक्ति है? तुम न केवल ऐसे दुष्ट व्यवहार को उजागर करने की हिम्मत नहीं करते जो शैतानी मसीह विरोधियों द्वारा किया जा सकता है, बल्कि इसके विपरीत, तुम उनका आज्ञापालन करते हो और यहाँ तक कि उनके शब्दों को सत्य मान लेते हो, जिनके प्रति तुम समर्पित होते हो। क्या यह मूर्खता का प्रतीक नहीं है?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (1)')। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ कर मेरा दिल रोशन हो गया। मैं टीम के अगुआ की शिकायत करने से इसलिए डर रही थी क्योंकि मुझे आशंका थी कि नाराज़ करने से वह मेरा काम करना मुश्किल कर देगा, या शायद मेरी नौकरी भी चली जाए। मानो मेरा काम और मेरी नियति तय करना उसके हाथ में हो। इन बातों को इस ढंग से देखने का यह बहुत ही बेतुका तरीका था। मेरा बर्खास्त होना या मेरी नियति तो परमेश्वर के हाथ में है। किसी इंसान के हाथ में कुछ नहीं है। झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी इस पर काबू नहीं कर सकते। परमेश्वर का घर दुनिया की तरह नहीं है। यहाँ सत्य और धार्मिकता का बोलबाला होता है। परमेश्वर के घर में झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी पैर नहीं जमा सकते। वे थोड़े समय के लिए ताकत हासिल कर सकते हैं, लेकिन आखिरकार सबके सब उजागर कर हटा दिये जाएंगे। कलीसिया ने पहले भी बहुत-से झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को बर्खास्त किया है, उन्हें हटाया है। मुझे ये बात साफ़ तौर पर समझ में आ गयी, लेकिन जब उनमें से एक मेरे दायरे में आ गया और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा के लिए उसकी शिकायत करने की नौबत आयी, तो मैं पीछे हट गयी। मुझे शैतान की नन्हीं प्यादा बनना बेहतर लगा। मैं बेहद कमज़ोर और कायर थी। मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं समझ पायी और वाकई नहीं जान पायी कि हर चीज़ पर उसका शासन और उसकी नज़र है। मैं एक इंसान को नाराज़ करने का डर था, लेकिन परमेश्वर को नाराज़ करने का नहीं। मेरे दिल में परमेश्वर के लिए जगह थी ही कहाँ?
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "यदि कलीसिया में ऐसा कोई भी नहीं है जो सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक हो, और परमेश्वर की गवाही दे सकता हो, तो उस कलीसिया को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया जाना चाहिए और अन्य कलीसियाओं के साथ उसके संबंध समाप्त कर दिये जाने चाहिए। इसे 'मृत्यु दफ़्न करना' कहते हैं; इसी का अर्थ है शैतान को बहिष्कृत करना। यदि किसी कलीसिया में कई स्थानीय गुण्डे हैं, और कुछ छोटी-मोटी 'मक्खियों' द्वारा उनका अनुसरण किया जाता है जिनमें विवेक का पूर्णतः अभाव है, और यदि समागम के सदस्य, सच्चाई जान लेने के बाद भी, इन गुण्डों की जकड़न और तिकड़म को नकार नहीं पाते, तो उन सभी मूर्खों का अंत में सफाया कर दिया जायेगा। भले ही इन छोटी-छोटी मक्खियों ने कुछ खौफ़नाक न किया हो, लेकिन ये और भी धूर्त, ज़्यादा मक्कार और कपटी होती हैं, इस तरह के सभी लोगों को हटा दिया जाएगा। एक भी नहीं बचेगा! जो शैतान से जुड़े हैं, उन्हें शैतान के पास भेज दिया जाएगा, जबकि जो परमेश्वर से संबंधित हैं, वे निश्चित रूप से सत्य की खोज में चले जाएँगे; यह उनकी प्रकृति के अनुसार तय होता है। उन सभी को नष्ट हो जाने दो जो शैतान का अनुसरण करते हैं! इन लोगों के प्रति कोई दया-भाव नहीं दिखाया जायेगा। जो सत्य के खोजी हैं उनका भरण-पोषण होने दो और वे अपने हृदय के तृप्त होने तक परमेश्वर के वचनों में आनंद प्राप्त करें। परमेश्वर धार्मिक है; वह किसी से पक्षपात नहीं करता। यदि तुम शैतान हो, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते; और यदि तुम सत्य की खोज करने वाले हो, तो यह निश्चित है कि तुम शैतान के बंदी नहीं बनोगे—इसमें कोई संदेह नहीं है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। उसके वचनों को पढ़ कर मुझे वाकई परमेश्वर के पवित्र, धार्मिक, अपमानित न किये जा सकने वाले स्वभाव का एहसास हुआ। वह झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के घर में गड़बड़ी पैदा करना और अपने चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाना बरदाश्त नहीं करेगा। वह उनसे भी घृणा करता है जो सत्य का अभ्यास नहीं करते, जो ऐसे लोगों के प्रकट होने पर, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते। अगर वे प्रायश्चित नहीं करते, तो आखिर वे सब हटा दिये जाएंगे और दंडित भी होंगे। मैंने सोचा कि टीम-अगुआ के झूठे अगुआ होने की बात जान कर भी मैंने सत्य का अभ्यास नहीं किया, या उसकी शिकायत करने की हिम्मत नहीं जुटायी। यह सब मैंने अपने स्वार्थ के लिए किया था। मैंने बार-बार शैतान के सामने सिर झुकाया, उसके साथ खड़ी रही, परमेश्वर के घर के कार्य की कीमत पर उस झूठे अगुआ को शह दे कर उसे बचाती रही। मैं भी उसकी दुष्टता में भागीदार थी। मैं परमेश्वर के दिये सत्य का आनंद ले रही थी, उसकी मेज़ से ले कर खा-पी रही थी। लेकिन जब शैतान परमेश्वर के घर में तबाही मचा रहा था, उस अहम मौके पर, मैं परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं कर पायी। बल्कि मैंने उसी हाथ को काट लिया जो मुझे खाना खिलाता है, मैं दुश्मन का साथ देती रही। यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात था और इससे उसके स्वभाव का भयंकर अपमान हुआ था। परमेश्वर के इन वचनों को याद करके, "उन सभी को नष्ट हो जाने दो जो शैतान का अनुसरण करते हैं!" मैं सचमुच भयभीत हो गयी। मुझे पता था कि अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया, तो परमेश्वर झूठे अगुआ के साथ मुझे भी अवश्य हटा देगा, मैंने एक झूठे अगुआ की शिकायत न करने की प्रकृति और गंभीर परिणामों को समझ लिया, अपने स्वार्थ और घिनौनेपन के कारण मुझे ख़ुद से नफ़रत हो गयी। मैंने परमेश्वर के घर के हितों की बिल्कुल भी रक्षा नहीं की थी। मुझमें ज़रा भी इंसानियत नहीं थी। फिर मैंनेपरमेश्वर से प्रार्थना की। "हे परमेश्वर, मैं बहुत स्वार्थी और कुटिल हूँ। कलीसिया में एक झूठे अगुआ के बारे में जानकारी होने के बावजूद, मैंने न तो कभी उसकी शिकायत की और न ही कभी उसे उजागर किया। मैंने उसे छिपाया और उसे शह दी, और सिर्फ अपने हितों की रक्षा के लिए मैंने शैतान की अनुचर के रूप में काम किया। मुझे दंड मिलना चाहिए। हे परमेश्वर, मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूंगी। मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ। मुझे शक्ति दो ताकि मैं सत्य का अभ्यास कर सकूं, उस झूठे अगुआ की शिकायत कर उसे उजागर कर सकूं और कलीसिया के कार्य को कायम रख सकूं।"
अगले दिन धार्मिक कार्य में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "तुम्हें अपने विचारों और सुझावों का विश्लेषण करना सीखना चाहिए। जो गलत काम तुम करते हो, तुम्हारा जो व्यवहार परमेश्वर को पसंद नहीं आयेगा, तुम्हें उन्हें तुरंत परिवर्तित करके सुधारने में सक्षम होना चाहिए। इन्हें सुधारने का मकसद क्या है? इसका मकसद यह है कि तुम अपने भीतर उन चीजों को अस्वीकार करो जो शैतान से संबंधित हैं और उनकी जगह सत्य को लाते हुए, सत्य को स्वीकार करो और उसका पालन भी करो। पहले तुम कपट और धोखेबाज़ी जैसे अपने भ्रष्ट स्वभावों पर भरोसा करते थे, लेकिन अब तुम ऐसे नहीं हो; अब, जब तुम कोई काम करते हो, तो उन प्रवृत्तियों, अवस्थाओं और स्वभावों पर भरोसा करते हो जो ईमानदार, निश्छल और सच्चे हैं। ... एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, उसके बाद अगर कोई परमेश्वर की निंदा करता है, उसके प्रति कोई श्रद्धा नहीं रखता, वह लापरवाह होता है और अपना काम करने में सिर्फ़ खानापूर्ति करता है, परमेश्वर के घर के काम में रुकावट या गड़बड़ी का कारण बनता है, तो यह सब देखकर तुम समझदारी से, जिस बात को समझना चाहिए उसे समझते हुए और जिसे उजागर करना चाहिए उसे उजागर करते हुए, सत्य के सिद्धांतों के अनुसार इसे सुलझाने में सक्षम होगे"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे एहसास कराया कि आस्था का सबसे बुनियादी तत्व ईमानदार दिल का होना है, सत्य का अभ्यास करना है, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना है और सिद्धांतों के अनुसार काम करना है। परमेश्वर को आनंद देने का यही तरीका है। मैं जानती थी कि मुझे सत्य का अभ्यास करना है और सिद्धांतों के अनुसार हमारे टीम के अगुआ की शिकायत करनी है। इसलिए मैंने उसके हर काम के बारे में सटीक और विस्तृत ब्यौरा लिख दिया, और एक कलीसिया-अगुआ को दे दिया। हर चीज़ का सत्यापन करने के बाद, कलीसिया-अगुआ ने पुष्टि कर दी कि वह अपना काम लापरवाही से कर रहा है और उसने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया है। वह सचमुच में झूठा अगुआ था, फिर उसे काम से बर्खास्त कर दिया गया। इस बात की सूचना पा कर मुझे सुकून मिला। उस अनुभव ने मुझे एहसास कराया कि परमेश्वर कितना धार्मिक है, और उसके घर में मसीह और सत्य का शासन होता है। किसी का पद चाहे जितना भी ऊंचा हो, कोई कितना भी वरिष्ठ क्यों न हो, उसे सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते, वे परमेश्वर के घर में टिक नहीं सकते। अंत में उन्हें हटा दिया जाएगा। सिर्फ एक ईमानदार व्यक्ति हो कर परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना, और सिद्धांतों के अनुसार काम करना ही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होता है और उसकी स्वीकृति प्राप्त करता है।