अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7)
मद सात : विभिन्न प्रकार के लोगों को उनकी मानवता और खूबियों के आधार पर समझदारी से कार्य आवंटित कर उनका उपयोग करो, ताकि उनमें से प्रत्येक का सर्वोत्तम उपयोग किया जा सके (भाग दो)
पिछली संगति में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सातवीं जिम्मेदारी पर चर्चा की गई थी : “विभिन्न प्रकार के लोगों को उनकी मानवता और खूबियों के आधार पर समझदारी से कार्य आवंटित कर उनका उपयोग करो, ताकि उनमें से प्रत्येक का सर्वोत्तम उपयोग किया जा सके।” हमने इस जिम्मेदारी के तीन पहलुओं पर मुख्य रूप से संगति की थी। ये तीन पहलू क्या हैं? (एक है विभिन्न प्रकार के लोगों का उनकी मानवता के आधार पर समझदारी से उपयोग करना; दूसरा है विभिन्न प्रकार के लोगों का उनकी खूबियों के आधार पर समझदारी से उपयोग करना; और एक और यह है कि कुछ विशेष प्रकार के लोगों के साथ कैसे व्यवहार करना है और उनका कैसे उपयोग करना है।) तीन पहलू मूल रूप से यही हैं। इन तीनों पहलुओं को उलट-पुलटकर देखा जाए, तो क्या लोगों का उपयोग करने का परमेश्वर का सिद्धांत ऐसा है कि प्रत्येक व्यक्ति का सर्वोत्तम उपयोग किया जाता है? (हाँ।) क्या यह सिद्धांत सटीक है? क्या यह लोगों के प्रति न्यायसंगत है? (यह न्यायसंगत है।) जहाँ तक कमजोर बुद्धि वाले बेवकूफ लोगों की बात है, वे कुछ भी करने में अक्षम हैं, और थोड़ा-सा भी कर्तव्य नहीं कर सकते हैं। अगर तुम उन्हें कोई कार्य सौंपते हो, चाहे वह पेशेवर, तकनीकी पहलुओं से संबंधित हो या श्रम के संबंध में हो, वे इसे पूरा नहीं कर पाते हैं। ऐसे लोगों का बिल्कुल उपयोग नहीं किया जा सकता है, यहाँ तक कि सेवा करने के लिए भी नहीं। यह बुद्धिमत्ता के संबंध में है। मानवता के संबंध में, जिन लोगों की मानवता खराब है और जो कुकर्मी हैं, वैसे तो वे कुछ कार्य कर सकते हैं और कुछ कर्तव्य कर सकते हैं, लेकिन क्योंकि उनकी मानवता बहुत ज्यादा बुरी है, वे अपना कर्तव्य करने में गड़बड़ियाँ और विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न करेंगे, जिससे फायदे की तुलना में नुकसान ज्यादा होगा, वे कुछ भी अच्छी तरह से करने में असमर्थ होंगे। ऐसे लोग कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं और उनका बिल्कुल भी उपयोग नहीं किया जा सकता है। अगर ऐसे लोग हैं जिनके पास कुछ खूबियाँ हैं, जब तक वे परमेश्वर के घर के कार्य के लिए जरूरी सभी शर्तें पूरी करते हैं—उनकी मानवीय योग्यता के आधार पर—उन्हें समझदारी से व्यवस्थित किया जा सकता है और उनका उपयोग किया जा सकता है। पिछली बार, हमने इस बारे में भी संगति की थी कि कुछ विशेष प्रकार के लोगों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए और उनका उपयोग कैसे करना चाहिए। पहले प्रकार के लोग वे हैं जो यहूदा जैसे हैं, जो विशेष रूप से बुजदिल होते हैं। उनकी विशेष बुजदिली को देखा जाए, तो एक बार जब वे बड़े लाल अजगर द्वारा कैद कर लिए जाते हैं तो इस बात की 100% संभावना रहती है कि वे एक यहूदा बन जाएँगे; अगर उन्हें कोई महत्वपूर्ण कार्य सौंपा जाता है, तो जैसे ही कुछ होता है, वे सभी चीजों को धोखा दे देते हैं। क्या ये खतरनाक चरित्र नहीं हैं? इस प्रकार के लोग भी हैं जो छद्म-विश्वासियों जैसे होते हैं, जिन्हें हम कलीसिया के मित्र कहते हैं। ऐसा लगता है जैसे ये लोग अपने दिलों में मानते हैं कि आसमान में कोई बूढ़ा आदमी है, लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता है कि परमेश्वर का वास्तव में अस्तित्व है या नहीं, परमेश्वर कहाँ है, या क्या परमेश्वर ने सचमुच अपना नया कार्य किया है या नहीं, वे अक्सर परमेश्वर के अस्तित्व पर संदेह करते हैं। वे सही मायने में परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और उसका अनुसरण नहीं करते हैं। इसलिए, ऐसे लोगों का उपयोग नहीं किया जा सकता है, वे परमेश्वर के घर में कर्तव्य करने के लिए अनुपयुक्त हैं। यहाँ तक कि जो लोग सही मायने में विश्वास रखते हैं, उनके संबंध में भी यह जरूरी नहीं है कि वे भी अपना कर्तव्य संतोषजनक तरीके से कर पाएँगे, फिर छद्म-विश्वासी, कलीसिया के मित्र की तो बात ही छोड़ दो! दूसरे प्रकार के लोग वे हैं जिन्हें बर्खास्त किया जा चुका है; इस समूह को भी कई परिस्थितियों में विभाजित किया गया है।
अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सातवीं जिम्मेदारी के बारे में पिछली संगति की सामग्री में मूल रूप से इन तीन मुख्य बिंदुओं को शामिल किया गया था : एक है विभिन्न प्रकार के लोगों का उनकी मानवता के आधार पर समझदारी से उपयोग करना; दूसरा है विभिन्न प्रकार के लोगों का उनकी खूबियों के आधार पर समझदारी से उपयोग करना; और एक और यह है कि कुछ विशेष प्रकार के लोगों के साथ कैसे व्यवहार करना है और उनका कैसे उपयोग करना है। सातवीं जिम्मेदारी में उल्लेखित कई पहलुओं के आधार पर इन तीन मुख्य बिन्दुओं पर संगति की गई थी, और सभी सिद्धांतों पर स्पष्ट रूप से संगति की गई थी। कुछ लोग कहते हैं : “वैसे तो सिद्धांतों पर स्पष्ट रूप से संगति की गई है, लेकिन जब कुछ विशिष्ट मामलों और विशेष परिस्थितियों की बात आती है, तो हमें अब भी नहीं मालूम है कि इन सिद्धांतों को कैसे लागू किया जाए, लोगों से कैसे पेश आया जाए, या व्यक्तियों को कैसे पदोन्नत किया जाए और उनका कैसे उपयोग किया जाए; हम अब भी ज्यादातर समय दुविधा में ही रहते हैं।” क्या ऐसी कोई समस्या मौजूद है? (हाँ, है।) तो इस समस्या को कैसे सुलझाना चाहिए? लोगों को पदोन्नत करने और उनका उपयोग करने में पहला विचार परमेश्वर के घर के कार्य की जरूरतें हैं। दूसरा विचार यह है कि क्या परमेश्वर के घर के कार्य पर किसी व्यक्ति का उपयोग करने का प्रभाव नुकसानदायक कम है और फायदेमंद ज्यादा है या इसका विपरीत है। अगर किसी व्यक्ति की मानवता दोषपूर्ण है, लेकिन उसका उपयोग करना परमेश्वर के घर के कार्य के लिए नुकसानदायक के बनिस्पत फायदेमंद ज्यादा है, तो जब तक कोई बेहतर व्यक्ति नहीं मिल जाता है, तब तक ऐसे व्यक्ति का अस्थायी रूप से उपयोग किया जा सकता है। अगर इस व्यक्ति का उपयोग करने से भला कम और बुरा ज्यादा होता है, फायदा कम और नुकसान ज्यादा होता है, जिससे कलीसिया के कार्य में सिर्फ गड़बड़ी और घपला होता है, तो ऐसे व्यक्ति का उपयोग बिल्कुल नहीं किया जा सकता है। यह गुण-दोष को तोलने का सिद्धांत है, उन परिस्थितियों में जहाँ कोई उपयुक्त उम्मीदवार नहीं है पहले इसे समझा जाना चाहिए, और यह लोगों का अस्थायी रूप से उपयोग करने का सिद्धांत भी है। जब उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिल पाए और यह अस्पष्ट हो कि कौन अपेक्षाकृत बेहतर हो सकता है, जब यह प्रत्यक्ष नहीं हो कि कार्य के लिए कौन पूरी तरह से उपयुक्त है और हर कोई आम लगे, तो क्या करना चाहिए? ऐसे में एकमात्र विकल्प यही है कि ऐसे दो लोगों को ढूँढा जाए जिनके पास अपेक्षाकृत आध्यात्मिक समझ हो, यानी जो सत्य पूरी तरह से समझते हों, ताकि वे एक दूसरे का सहयोग करते हुए कार्य कर सकें। जब वे अपना कर्तव्य कर रहे होते हैं, उनके साथ सत्य के बारे में ज्यादा संगति करनी चाहिए, और उनकी स्थितियों को देखना और समझना चाहिए; इससे यह तय करना संभव हो जाता है कि किसमें अपेक्षाकृत बेहतर काबिलियत है, जिससे सही उम्मीदवार ढूँढना आसान हो जाता है। कर्तव्य करने के लिए चाहे किसी की भी व्यवस्था क्यों ना की जाए, यह उसकी काबिलियत, खूबियों और चरित्र पर आधारित होना चाहिए; यह बेहद जरूरी है। अगर इन पहलुओं को पहचाना नहीं जा सकता है और यह समझ नहीं आता है कि व्यक्ति में क्या खूबियाँ है, तो पहले उसे एक साधारण कर्तव्य, या कुछ शारीरिक श्रम वाला कार्य सौंपना चाहिए, या सुसमाचार का प्रचार करने के लिए उसके द्वारा सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की खोज करने की व्यवस्था करनी चाहिए। एक परीक्षण अवधि के बाद, अनुवर्ती कार्रवाई और आगे की जाँच-परख से उसकी स्थिति का सटीकता से आकलन करना संभव हो जाता है और उसके लिए सबसे उपयुक्त कर्तव्य तय करना आसान हो जाता है। अगर उसकी काबिलियत बहुत ही खराब है और उसमें खूबियों की कमी है, तो उसे कोई शारीरिक कार्य सौंपना ही काफी होगा। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को महत्वपूर्ण कार्य की देखरेख करने वालों, सुसमाचार निर्देशकों, प्रत्येक समूह के अगुआ, फिल्म निर्माण दलों के निर्देशकों आदि की समझ विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करनी चाहिए और उन्हें इन लोगों का गहन प्रेक्षण और परीक्षण करना चाहिए। केवल इस तरह से लोगों को काम सौंपकर ही वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि व्यवस्थाएँ सही हैं और लोग अपने कार्य में प्रभावी होंगे। कुछ लोग कहते हैं, “यहाँ तक कि गैर-विश्वासी कहते हैं, ‘न तो उन लोगों पर संदेह करो जिन्हें तुम नियोजित करते हो, न ही उन लोगों को नियोजित करो जिन पर तुम संदेह करते हो।’ परमेश्वर का घर इतना शक्की कैसे हो सकता है? वे सभी विश्वासी हैं; वे कितने बुरे हो सकते हैं? क्या वे सभी अच्छे लोग नहीं हैं? परमेश्वर के घर को उन्हें क्यों समझना चाहिए, उन पर नजर क्यों रखनी चाहिए और उनका पर्यवेक्षण क्यों करना चाहिए?” क्या ये बातें मान्य हैं? क्या वे समस्यात्मक हैं? (हाँ।) क्या किसी को समझना और उसका गहराई से प्रेक्षण करना और उसके साथ निकटता से बातचीत करना सिद्धांतों के अनुरूप है? यह सिद्धांतों का पूर्ण अनुपालन करना है। यह किन सिद्धांतों के अनुरूप है? (अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों की मद संख्या चार : “विभिन्न कार्यों के निरीक्षकों और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों के लिए जिम्मेदार कर्मियों की परिस्थितियों से अवगत रहो, और आवश्यकतानुसार तुरंत उनके कर्तव्यों में बदलाव करो या उन्हें बरखास्त करो, ताकि अनुपयुक्त लोगों को काम पर रखने से होने वाला नुकसान रोका या कम किया जा सके, और कार्य की दक्षता और सुचारु प्रगति की गारंटी दी जा सके।”) यह एक अच्छा संदर्भ बिंदु है, लेकिन ऐसा करने का वास्तविक कारण क्या है? ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है। हालाँकि, आज, बहुत से लोग कर्तव्य करते हैं, लेकिन कम ही लोग सत्य का अनुसरण करते हैं। बहुत कम लोग अपने कर्तव्य करने के दौरान सत्य का अनुसरण करते हुए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं; अधिकांश लोगों के काम करने के तरीके में कोई सिद्धांत नहीं होते, वे अब भी सच्चाई से परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते; वे केवल यह दावा करते हैं कि उन्हें सत्य से प्रेम है, सत्य का अनुसरण करने और सत्य के लिए प्रयास करने के इच्छुक हैं, लेकिन पता नहीं उनका यह संकल्प कितने दिनों तक टिकेगा। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनका भ्रष्ट स्वभाव किसी भी समय या स्थान पर बाहर आ सकता है। उनमें अपने कर्तव्य के प्रति किसी जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे अक्सर अनमने होते हैं, मनमर्जी से कार्य करते हैं, यहाँ तक कि काट-छाँट भी स्वीकार करने में अक्षम होते हैं। जैसे ही वे नकारात्मक और कमजोर होते हैं, वे अपने कर्तव्य त्यागने में प्रवृत्त हो जाते हैं—ऐसा अक्सर होता रहता है, यह सबसे आम बात है; सत्य का अनुसरण न करने वाले लोगों का व्यवहार ऐसा ही होता है। और इसलिए, जब लोगों को सत्य की प्राप्ति नहीं होती, तो वे भरोसेमंद और विश्वास योग्य नहीं होते। उनके भरोसेमंद न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जब उन्हें कठिनाइयों या असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो बहुत संभव है कि वे गिर पड़ें, और नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ। जो व्यक्ति अक्सर नकारात्मक और कमजोर हो जाता है, क्या वह भरोसेमंद होता है? बिल्कुल नहीं। लेकिन जो लोग सत्य समझते हैं, वे अलग ही होते हैं। जो लोग वास्तव में सत्य की समझ रखते हैं, उनके अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय, परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला हृदय होता है, और जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, केवल वही लोग भरोसेमंद होते हैं; जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, वे लोग भरोसेमंद नहीं होते। जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, उनके प्रति कैसा रवैया अपनाया जाना चाहिए? उन्हें प्रेमपूर्वक सहायता और सहारा देना चाहिए। जब वे कर्तव्य कर रहे हों, तो उनका अधिक अनुवर्तन करना चाहिए, और उन्हें अधिक मदद और निर्देश दिए जाने चाहिए; तभी वे अपना कार्य प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। और ऐसा करने का उद्देश्य क्या है? मुख्य उद्देश्य परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखना है। दूसरा मकसद है समस्याओं की तुरंत पहचान करना, तुरंत उनका पोषण करना, उन्हें सहारा देना, या उनकी काट-छाँट करना, भटकने पर उन्हें सही मार्ग पर लाना, उनके दोषों और कमियों को दूर करना। यह लोगों के लिए फायदेमंद है; इसमें दुर्भावनापूर्ण कुछ भी नहीं है। लोगों का पर्यवेक्षण करना, प्रेक्षण करना, और उन्हें समझने की कोशिश करना—यह सब उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश करने में मदद करने के लिए है, ताकि वे परमेश्वर के कहे के मुताबिक और सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य कर सकें, ताकि उन्हें किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न करने से रोका जा सके, ताकि उन्हें व्यर्थ का कार्य करने से रोका जा सके। ऐसा करने का उद्देश्य पूरी तरह से उनके प्रति और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति उत्तरदायित्व दिखाने के लिए है; इसमें कोई दुर्भावना नहीं है। मान लो कि कोई कहता है, “तो यही वे सिद्धांत हैं जिनके अनुसार परमेश्वर का घर लोगों के साथ व्यवहार करता है, यही वे साधन हैं जिनका वह उपयोग करता है। अब से मुझे सावधान रहने की जरूरत है। परमेश्वर के घर में सुरक्षा की कोई भावना नहीं है। कोई ना कोई हमेशा तुम्हारी निगरानी करता रहता है; यहाँ अपना कर्तव्य करना मुश्किल है!” क्या यह कथन सही है? किस किस्म के लोग ऐसी बात कहेंगे? (छद्म-विश्वासी।) छद्म-विश्वासी, बेतुके लोग और वे लोग जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी है—वे सत्य समझे बगैर ही ऊलजलूल बकवास करते रहते हैं। यहाँ क्या मुद्दा है? क्या ये वही शब्द नहीं हैं जो कलीसिया के कार्य की आलोचना और निंदा करते हैं? यह सत्य और सकारात्मक चीजों की भी आलोचना और निंदा है। जो लोग ऐसे शब्द बोलने के काबिल हैं वे यकीनन भ्रमित लोग हैं जो सत्य नहीं समझते हैं, वे सभी छद्म-विश्वासी हैं जो सत्य से प्रेम नहीं करते हैं।
परमेश्वर का घर उन लोगों का निरीक्षण, अवलोकन और उन्हें समझने का प्रयास करता है जो कर्तव्य करते हैं। क्या तुम लोग परमेश्वर के घर का यह सिद्धांत स्वीकारने में सक्षम हो? (हाँ।) अगर तुम परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारी निगरानी, अवलोकन और तुम्हें समझने का प्रयास करना स्वीकार कर सकते हो, तो यह एक अद्भुत बात है। यह तुम्हारा कर्तव्य निभाने में, संतोषजनक तरीके से तुम्हारा कर्तव्य कर पाने में और परमेश्वर के इरादे पूरे करने में तुम्हारे लिए मददगार है। यह बिना किसी भी नकारात्मक पक्ष के तुम्हें फायदा पहुँचाता है और तुम्हारी मदद करता है। एक बार जब तुम इस सिद्धांत को समझ गए हो, तो क्या तुममें अब अपने अगुआओं, कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी के खिलाफ प्रतिरोध या सतर्कता की कोई भावना होनी चाहिए? भले ही कभी-कभी कोई तुम्हें समझने का प्रयास करता हो, तुम्हारा अवलोकन करता हो, और तुम्हारे कार्य की निगरानी करता हो, यह व्यक्तिगत रूप से लेने वाली बात नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जो कार्य अब तुम्हारे हैं, जो कर्तव्य तुम निभाते हो, और कोई भी कार्य जो तुम करते हो, वे किसी एक व्यक्ति के निजी मामले या व्यक्तिगत कार्य नहीं हैं; वे परमेश्वर के घर के कार्य को स्पर्श करते हैं और परमेश्वर के कार्य के एक भाग से संबंध रखते हैं। इसलिए, जब कोई तुम्हारी पर्यवेक्षण या प्रेक्षण करने में थोड़ा समय लगाता है या तुम्हें गहराई से समझने लगता है, तुम्हारे साथ खुले दिल से बातचीत करने और यह पता लगाने की कोशिश करता है कि इस दौरान तुम्हारी स्थिति कैसी रही है, यहाँ तक कि कभी-कभी जब उसका रवैया थोड़ा कठोर होता है, और तुम्हारी थोड़ी काट-छाँट करता है, अनुशासित करता और धिक्कारता है, तो वह यह सब इसलिए करता है क्योंकि उसका परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति एक ईमानदार और जिम्मेदारी भरा रवैया होता है। तुम्हें इसके प्रति कोई नकारात्मक विचार या भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम दूसरों की निगरानी, निरीक्षण और समझने की कोशिश को स्वीकार कर सकते हो, तो इसका क्या मतलब है? यह कि अपने दिल में तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो। अगर तुम लोगों के द्वारा अपनी निगरानी, निरीक्षण और समझने के प्रयासों को स्वीकार नहीं करते—अगर तुम इस सबका विरोध करते हो—तो क्या तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करने में सक्षम हो? परमेश्वर की जाँच लोगों की समझने की कोशिश से ज्यादा विस्तृत, गहन और सटीक होती है; परमेश्वर की अपेक्षाएँ इससे अधिक विशिष्ट, कठोर और गहन होती हैं। अगर तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा पर्यवेक्षण किया जाना स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हारे ये दावे कि तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर सकते हो, खोखले शब्द नहीं हैं? परमेश्वर की जाँच और परीक्षा स्वीकार करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर के घर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, या भाई-बहनों द्वारा पर्यवेक्षण स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “मेरे पास मानवाधिकार हैं, मेरे पास अपनी आजादी है, मेरा कार्य करने का अपना एक तरीका है। मैं जो कुछ भी करता हूँ, उसकी निगरानी और मुआयना करना, क्या यह जीने का बहुत ही दमघोंटू तरीका नहीं है? मेरे मानवाधिकार कहाँ हैं? मेरी आजादी कहाँ है?” क्या यह कथन सही है? क्या मानवाधिकार और आजादी सत्य हैं? वे सत्य नहीं हैं। मानवाधिकार और आजादी मानव समाज में लोगों के साथ व्यवहार करने के सिर्फ अपेक्षाकृत सभ्य और प्रगतिशील तरीके हैं, लेकिन परमेश्वर के घर में, परमेश्वर का वचन और सत्य सर्वोपरि हैं—उन्हें “मानवाधिकार” और “आजादी” के साथ एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता है। इसलिए, परमेश्वर के घर में, जो भी किया जाता है वह अविश्वासियों की दुनिया के उच्च सिद्धांतों या ज्ञान पर आधारित नहीं होता है, बल्कि परमेश्वर के वचन और सत्य पर आधारित होता है। इसलिए, जब कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें मानवाधिकार और आजादी चाहिए, तो क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है? (यह नहीं है।) यह अत्यंत स्पष्ट है कि यह कर्तव्य करने के सिद्धांत के अनुरूप नहीं है। तुम परमेश्वर के घर में हो, सृजित प्राणी का कर्तव्य कर रहे हो, समाज में पैसा कमाने के लिए कार्य नहीं कर रहे हो। इसलिए, तुम्हारे मानवाधिकारों की रक्षा करने के लिए किसी को तुम्हारे समर्थन में खड़े होने की जरूरत नहीं है; ऐसी चीजें अनावश्यक हैं। क्या ज्यादातर लोगों में मानवाधिकारों और आजादी के संबंध में सूझ-बूझ है? ये मानवीय विचारों और परिप्रेक्ष्यों से संबंधित हैं और इनको सत्य के साथ एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता है; परमेश्वर के घर में ऐसे विचार मान्य नहीं हैं। यह तो अच्छी बात है कि कोई अगुआ तुम्हारे कार्य की निगरानी करता है। क्यों? क्योंकि इसका यह अर्थ है कि वह कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी ले रहा है; यह उसका कर्तव्य है, उसकी जिम्मेदारी है। यह जिम्मेदारी पूरी करने में समर्थ होना यह साबित करता है कि वह एक योग्य अगुआ है, एक अच्छा अगुआ है। अगर तुम्हें पूरी आजादी और मानवाधिकार दे दिए जाते, और तुम जो चाहते कर पाते, अपनी इच्छाओं का अनुसरण कर पाते, और पूरी आजादी और लोकतंत्र का आनंद ले पाते, और चाहे तुम कुछ भी करते या कैसे भी करते, अगुआ इसकी परवाह या निगरानी नहीं करता, तुमसे कभी भी प्रश्न नहीं करता, तुम्हारे कार्य की जाँच नहीं करता, समस्याएँ पाए जाने पर कुछ नहीं बोलता और सिर्फ तुम्हें या तो मनाता या फिर तुमसे बातचीत करता, तो क्या वह अच्छा अगुआ होता? बिल्कुल नहीं। ऐसा अगुआ तुम्हें नुकसान पहुँचा रहा है। वह तुम्हें कुकर्म करने की खुली छूटदेता है, और तुम्हें सिद्धांतों के खिलाफ जाने और जो चाहो वह करने की अनुमति देता है—वह तुम्हें आग के कुएँ की तरफ धकेल रहा है। यह एक जिम्मेदार, मानक स्तर का अगुआ नहीं है। दूसरी तरफ, अगर कोई अगुआ नियमित रूप से तुम्हारी निगरानी कर सकता है, तुम्हारे कार्य में समस्याओं को पहचान सकता है और तुम्हें फौरन चेता सकता है या फटकार सकता है और उजागर कर सकता है, और समय पर तुम्हारे गलत अनुसरणों और कर्तव्य से विचलनों को ठीक करके तुम्हारी मदद कर सकता है, और उसकी निगरानी, फटकार, प्रावधान और मदद के तहत, तुम्हारा अपने कर्तव्य के प्रति गलत रवैया बदल जाता है, तुम कुछ बेतुके विचारों को छोड़ने में समर्थ हो जाते हो, आवेग से उत्पन्न होने वाले तुम्हारे अपने विचार और चीजें धीरे-धीरे कम हो जाती हैं, और तुम सही और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कथनों और दृष्टिकोणों को शांति से स्वीकार करने में समर्थ हो जाते हो, तो क्या यह तुम्हारे लिए फायदेमंद नहीं है? इसके फायदे सचमुच बेशुमार हैं!
परमेश्वर का घर निगरानी, जाँच-परख और समझ को लागू कर अपने अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ व्यवहार करता है। लोगों के साथ इस तरह से व्यवहार करने का आधार क्या है? लोगों के साथ इस तरह से व्यवहार क्यों करें? क्या यह अपने कर्तव्य के प्रति वफादार, गंभीर और जिम्मेदार होने के सिद्धांतों से उत्पन्न तरीका और रवैया नहीं है? (हाँ, है।) अगर कोई अगुआ कभी भी उसके उत्तरदायित्व के क्षेत्र में अपने कर्तव्यों का पालन करने वाले लोगों की निगरानी या जाँच-परख नहीं करता है या गहराई से उन्हें नहीं समझता है, तो क्या उसे अपने कर्तव्य के प्रति वफादार अगुआ माना जा सकता है? स्पष्ट रूप से, उसे ऐसा नहीं माना जा सकता है। क्या तुम लोगों के अगुआओं, कार्यकर्ताओं और पर्यवेक्षकों ने कभी तुम्हारे कार्य की जाँच की है? क्या उन्होंने तुम्हारे कार्य की प्रगति के बारे में पूछताछ की है? क्या उन्होंने तुम्हारे कार्य में उत्पन्न हुई समस्याओं को सुलझाया है? क्या उन्होंने तुम्हारे कार्य में किसी स्पष्ट दोष या विचलन को ठीक किया है? क्या उन्होंने तुम्हारी मानवता और जीवन प्रवेश के तुम्हारे लक्ष्य की विभिन्न अभिव्यक्तियों और खुलासों के संबंध में मदद, प्रावधान, समर्थन या काट-छाँट करने की पेशकश की है? अगर कोई अगुआ ना सिर्फ सामान्य कर्तव्य करने वाले लोगों को कभी मार्गदर्शन प्रदान नहीं करता है, बल्कि महत्वपूर्ण कार्य में व्यस्त लोगों को भी कभी संगति, मदद या समर्थन प्रदान नहीं करता है—निगरानी, जाँच-परख या गहरी समझ का तो जिक्र ही क्या करना—तो इन अभिव्यक्तियों और क्रियाकलापों के बिना, क्या इस अगुआ को ठोस कार्य करने वाला अगुआ माना जा सकता है? क्या वह एक अगुआ के रूप में मानक पर खरा उतरता है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “हमारा अगुआ सिर्फ हफ्ते में दो बार हमारे लिए सभाएँ आयोजित करता है, थोड़ी देर के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करता है, और फिर ऊपरवाले से कुछ संगति पढ़ता है, और कभी-कभी वह अपनी व्यक्तिगत अनुभवजन्य समझ के बारे में संगति करता है। लेकिन उसने हमारी विभिन्न स्थितियों के बारे में, और साथ ही हमारे कर्तव्यों को करने में या जीवन प्रवेश में हमें होने वाली मुश्किलों के बारे में कभी कोई सलाह, प्रावधान या मदद की पेशकश नहीं की।” इस अगुआ के बारे में तुम्हारी क्या राय है? (वह मानक पर खरा नहीं उतरता है, वह एक झूठा अगुआ है।) अगर कोई अगुआ अपने कार्य या अपने अधीन लोगों की विभिन्न स्थितियों की परवाह नहीं करता है, ना ही वह अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करता है, तो वह अगुआ के रूप में मानक पर खरा नहीं उतरता है। वह किसी की निगरानी या जाँच-परख नहीं करता है, या किसी को समझने का प्रयास नहीं करता है। हर बार, आपकी उसके साथ ऐसी बातचीत होती है : “यह व्यक्ति अभी कैसा कार्य कर रहा है?” “मैं फिलहाल उसकी जाँच-परख कर रहा हूँ।” “तुम कब से उसकी जाँच-परख कर रहे हो? क्या तुम उसे जानते हो?” “मैं एक-दो वर्षों से उसकी जाँच-परख कर रहा हूँ। मैं अब भी उसे अच्छी तरह से नहीं जानता हूँ।” “अच्छा, उस व्यक्ति के बारे में क्या कहना है?” “मैं अब भी उसके बारे में ज्यादा स्पष्ट नहीं हूँ, लेकिन वह अपना कर्तव्य करने में कष्ट सहन कर सकता है, उसमें संकल्प है, और वह परमेश्वर के लिए खुद को खपाने का इच्छुक है।” “यह सब सतही बातें हैं। सत्य की उसकी खोज के बारे में तुम्हारा क्या कहना है?” “मुझे उस बारे में भी जानना पड़ेगा? ठीक है, मैं इसकी छानबीन करूँगा।” उसके यह कहने के बाद कि वह इसकी छानबीन करेगा, तुम्हें नतीजों के लिए कितने समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, यह किसी को नहीं मालूम, यह अनिश्चित है। ऐसा झूठा अगुआ अपने कार्य में भरोसेमंद नहीं है।
क्या तुम्हारी कलीसिया के अगुआ और तुम्हारे पर्यवेक्षक तुम्हारे कार्य के प्रति जिम्मेदार रवैया रखते हैं? क्या वे कार्य के संबंध में तुम लोगों की स्थितियों को सही मायने में समझते हैं? क्या कार्य के इस पहलू पर उचित रूप से ध्यान दिया गया है? (नहीं।) उनमें से किसी ने भी इस पहलू पर उचित रूप से ध्यान नहीं दिया है; कोई भी अपने कर्तव्य के प्रति वफादार होने और कार्य के लिए गंभीर और जिम्मेदार होने की हद तक नहीं पहुँचा है। तो, क्या इसे हासिल करना आसान है? क्या यह मुश्किल है? यह मुश्किल नहीं है। यदि तुम वास्तव में एक निश्चित स्तर की काबिलियत रखते हो, तुम अपनी जिम्मेदारी के दायरे में पेशेवर कौशल की समझ रखते हो और अपने पेशे से अनजान नहीं हो, तो तुम्हें बस एक वाक्यांश का पालन करना है, और तुम अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान बन सकोगे। कौन-सा वाक्यांश? “पूरे दिल से कार्य करो।” यदि तुम पूरे दिल से काम करोगे और अपना दिल लोगों में लगाओगे, तो तुम अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और जिम्मेदार बन पाओगे। लेकिन क्या इस वाक्यांश का अभ्यास करना आसान है? तुम इसे व्यवहार में कैसे लाओगे? इसका मतलब कानों से सुनना या दिमाग से सोचना नहीं है—इसका मतलब है अपने हृदय का इस्तेमाल करना। यदि कोई व्यक्ति वास्तव में किसी चीज में अपना दिल लगा सकेगा, तो जब उसकी आँखें किसी को कुछ करते, देखती हैं, किसी रूप में कोई क्रिया करती हैं, या किसी चीज के प्रति किसी प्रकार की प्रतिक्रिया देखती हैं या जब उसके कान कुछ लोगों की राय या तर्क सुनते हैं, इन बातों पर विचार और मनन करने के लिए अपने हृदय का उपयोग करके, उनके दिमाग में कुछ ख्याल, विचार और दृष्टिकोण पैदा होता है। ये ख्याल, विचार और दृष्टिकोण उस व्यक्ति या वस्तु की गहरी, उसी के बारे में और सही समझ देंगे और साथ ही, उपयुक्त और सही निर्णय और सिद्धांतों को जन्म देंगे। जब किसी व्यक्ति में अपने दिल का इस्तेमाल करने की ऐसी अभिव्यक्तियाँ होती हैं, क्या तभी इसका अर्थ है कि वह अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होगा। लेकिन अगर तुम चीजों में दिल नहीं लगाते हो, अगर तुम्हारे पास इसके लिए दिल नहीं है, तो तुम जो कुछ भी देखते हो, उसके प्रति तुम्हारी आँखें प्रतिक्रिया नहीं करती हैं, और तुम जो कुछ भी सुनते हो, उसके प्रति तुम्हारे कान प्रतिक्रिया नहीं करते हैं। तुम्हारी आँखें कभी भी लोगों, घटनाओं और चीजों की जाँच-परख नहीं करती हैं; वे तुम्हें मिलने वाली जानकारी की जाँच-परख नहीं करती हैं। तुम अपने दिल में उन विभिन्न आवाजों और दलीलों को पहचान नहीं पाओगे जिन्हें तुम सुनते हो, तुम उस जानकारी को पहचानने में असमर्थ रहोगे जो तुम्हें सुनाई पड़ती है। यह ऑंखें खुली होने के बावजूद अंधे होने जैसा है। जब किसी व्यक्ति का दिल अंधा होता है, तो उसकी आँखें भी अंधी होती हैं। तो, आँखों से चीजों की जाँच-परख करने और कानों से जानकारी प्राप्त करने से जो विचार, दृष्टिकोण और रवैये बनते हैं, उनके पीछे क्या कारण है? यह सब चीजों में अपना दिल लगाकर सत्य की तलाश करने पर निर्भर करता है। अगर तुम चीजों में दिल लगा देते हो, तो जब भी तुम्हें कोई जानकारी मिलती है, चाहे वह देखने से मिली हो या सुनने से, तुम किसी व्यक्ति या चीज के बारे में अपनी राय बना पाओगे और उसकी गहरी समझ हासिल कर पाओगे। लेकिन अगर तुम चीजों में दिल नहीं लगाते हो, तो मिली हुई कोई भी जानकारी फायदेमंद नहीं होगी; अगर तुम इसे पहचानने या समझने में दिल नहीं लगाते हो, तो तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा, तुम निकम्मे और बेकार बन जाओगे। कोई व्यक्ति बेकार है, इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है वह व्यक्ति पूरे दिल से अपना कर्तव्य नहीं करता है—उसके पास आँखें और कान तो होते हैं, लेकिन इनका कोई फायदा नहीं होता है। बिना दिल वाला व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं होगा और ना ही वह अपने कार्य के प्रति गंभीर और जिम्मेदार रवैया रखेगा।
परमेश्वर का घर सभी स्तरों पर अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर निगरानी रखता है, उनकी गहराई से जाँच-परख करता है और उन्हें समझता है, जिसका उद्देश्य कलीसिया के कार्य में सुधार करना और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को जल्द से जल्द परमेश्वर में विश्वास रखने के सही रास्ते पर लाना है। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की निगरानी और जाँच-परखबेहद जरूरी है और इसी तरीके से इसका अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी से, अगर यह पता चलता है कि अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य में शामिल नहीं हो रहे हैं और उनसे फौरन निपटा जाता है और इस पर ध्यान दिलाया जाता है, तो यह कलीसिया के कार्य की प्रगति के लिए फायदेमंद है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं की निगरानी करना परमेश्वर के चुने हुए लोगों की जिम्मेदारी है, और ऐसा करना पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। चूँकि अगुआ और कार्यकर्ता भ्रष्ट स्वभाव के होते हैं, इसलिए अगर उनकी निगरानी नहीं की जाए, तो यह ना सिर्फ उनके लिए नुकसानदायक होगा, बल्कि कलीसिया के कार्य को भी सीधे प्रभावित करेगा। किन परिस्थितियों में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी की और जरूरत नहीं होती है? यह तब होता है जब अगुआ और कार्यकर्ता सत्य पूरी तरह से समझ लेते हैं, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं, और सिद्धांतों के साथ कार्य करते हैं, जिससे वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण और उपयोग किए गए लोग बन जाते हैं। ऐसे मामलों में, परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निगरानी अनावश्यक हो जाती है, और परमेश्वर का घर अब इस मामले पर और जोर नहीं देगा। लेकिन, क्या यह बात पूरी तरह से निश्चित है कि परमेश्वर द्वारा पूर्ण किया गया व्यक्ति गलतियों और विचलनों से बिल्कुल मुक्त होता है? ऐसा जरूरी नहीं है। इसलिए, परमेश्वर द्वारा जाँच-पड़ताल अब भी जरूरी है, उसी तरह सत्य समझने वालों द्वारा निगरानी भी जरूरी है; यह अभ्यास पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। चूँकि सभी मनुष्य भ्रष्ट स्वभाव के होते हैं, इसलिए सिर्फ निगरानी के जरिए ही अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर अपने कार्य की जिम्मेदारी लेने और अपने कर्तव्यों के प्रति वफादार होने का दबाव डाला जा सकता है। निगरानी के बिना, ज्यादातर अगुआ और कार्यकर्ता जान-बूझकर लापरवाही से कार्य करेंगे और औपचारिक तरीका अपनाएँगे—यह एक वस्तुनिष्ठ तथ्य है। अगर तुम अगुआ या कार्यकर्ता हो, और तुम्हारे आसपास के भाई-बहन अक्सर तुम्हारी निगरानी और जाँच-परख करते हैं, यह समझने का प्रयास करते हैं कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो या नहीं, तो यह तुम्हारे लिए अच्छी चीज है। अगर उन्हें तुम्हारी किसी समस्या का पता चलता है और तुम उसे जल्द से जल्द सुलझा पाते हो, तो यह तुम्हारे सत्य की खोज और तुम्हारे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद है। अगर उन्हें पता चलता है कि तुम कुकर्म कर रहे हो, और तुम अकेले में कई बुरे व्यवहार प्रदर्शित करते हो, और यकीनन कोई ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो वे तुम्हें उजागर कर देंगे और तुम्हारे पद से तुम्हें बर्खास्त कर देंगे, जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए एक संकट दूर हो जाएगा, और तुम भी ज्यादा कठोर सजा से बच सकोगे : इस तरह की निगरानी किसी के लिए भी फायदेमंद है। और इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निगरानी किए जाने के प्रति सही प्रतिक्रिया देनी चाहिए। अगर तुम परमेश्वर का भय मानने वाले और बुराई से दूर रहने वाले व्यक्ति हो, तो तुम्हें महसूस होगा कि तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी की जरूरत है, और कि इससे भी ज्यादा, तुम्हें उनकी सहायता की जरूरत है। अगर तुम कुकर्मी हो, और तुम्हारा जमीर दोषी है, तो तुम निगरानी किए जाने से डरोगे और इससे बचने का प्रयास करोगे; यह अवश्यंभावी है। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो लोग परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निगरानी किए जाने का प्रतिरोध करते हैं और उसके प्रति विमुखता महसूस करते हैं, वे कुछ कुछ छिपा रहे होते हैं, और वे यकीनन ईमानदार लोग नहीं हैं; धोखेबाज लोग ही निगरानी से सबसे ज्यादा डरते हैं। तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निगरानी किए जाने के प्रति अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या रवैया अपनाना चाहिए? क्या यह नकारात्मकता, सतर्कता, प्रतिरोध और द्वेष का रवैया होना चाहिए या परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारिता और विनम्र स्वीकृति का रवैया होना चाहिए? (विनम्र स्वीकृति का रवैया होना चाहिए।) विनम्र स्वीकृति का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है परमेश्वर से सब कुछ स्वीकार लेना, सत्य की तलाश करना, सही रवैया अपनाना और आवेगपूर्ण ना होना। अगर किसी को वास्तव में तुम्हारी किसी समस्या का पता चलता है और वह तुम्हें इस बारे में बताता है, इसे पहचानने और समझने में तुम्हारी मदद करता है, इस समस्या को सुलझाने में तुम्हारी सहायता करता है, तो वह तुम्हारे प्रति जिम्मेदार हो रहा है, और परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के प्रति जिम्मेदार हो रहा है; यही चीज करना सही है, और यह बिल्कुल स्वाभाविक और उचित है। अगर ऐसे लोग हैं जो कलीसिया द्वारा निगरानी किए जाने को शैतान से, और दुर्भावनापूर्ण इरादों से उत्पन्न होने वाली चीज मानते हैं, तो वे दुष्ट लोग और शैतान हैं। ऐसी शैतानी प्रकृति के साथ, वे यकीनन परमेश्वर द्वारा जाँच-पड़ताल किए जाने को स्वीकार नहीं करेंगे। अगर कोई सही मायने में सत्य से प्रेम करता है, तो उसमें परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निगरानी किए जाने की सही समझ होगी, वह इसे प्रेम के कारण किया जा रहा, परमेश्वर से आने वाला कार्य मान सकेगा, और वह इसे परमेश्वर से स्वीकार लेने में समर्थ होगा। वह यकीनन आवेगपूर्ण नहीं होगा या आवेश में आकर कार्य नहीं करेगा, उसके दिल में प्रतिरोध, सतर्कता या संदेह तो बिल्कुल नहीं होगा। परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निगरानी किए जाने को संभालने का सबसे सही रवैया यह है : कोई भी ऐसा शब्द, क्रियाकलाप, निगरानी, जाँच-परख, या सुधार—यहाँ तक कि काट-छाँट किया जाना—जो तुम्हारे लिए उपकारी है, उसे तुम्हें परमेश्वर से स्वीकार लेना चाहिए; आवेगपूर्ण मत बनो। आवेगपूर्ण होना उस दुष्ट से, शैतान से आता है, यह परमेश्वर से नहीं आता है, और लोगों को सत्य के प्रति यह रवैया नहीं रखना चाहिए।
हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सातवीं जिम्मेदारी के बारे में बस इतना ही कहेंगे और इतनी ही संगति करेंगे। तो क्या इसका यह अर्थ है कि जिम्मेदारी के बारे में पूरी तरह से संगति की जा चुकी है और अब इसमें कहने लायक और कोई विशिष्ट सामग्री नहीं बची है? नहीं, हर जिम्मेदारी में अब भी बहुत ज्यादा विशिष्ट और विस्तृत सामग्री बची है। मैंने जिन चीजों के बारे में संगति की, वे व्यापक सिद्धांत हैं; बाकी, विशिष्ट विवरणों को कैसे लागू किया जाए और इन सिद्धांतों का अभ्यास और उपयोग कैसे किया जाए, यह अनुभव के जरिए तुम लोगों की अपनी सहभागिता पर निर्भर करता है। अगर तुम लोग अब भी इन सिद्धांतों को समझ नहीं पा रहे हो या तुम्हें नहीं पता है कि इन्हें कैसे लागू करना है, तो सब साथ मिलकर तलाश और संगति करो। अगर साथ मिलकर संगति करने से भी तुम्हें नतीजे नहीं मिलते हैं, तो अपने से उच्च पदों पर आसीन लोगों से पूछताछ करो। संक्षेप में, चाहे यह किसी भी प्रकार के व्यक्ति से निपटना हो या यह तय करना हो कि किसे पदोन्नत करना है और किसका उपयोग करना है, इन सभी में सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। कुछ प्रतिभाशाली व्यक्तियों के मामले में, ऐसी परिस्थितियों में जहाँ कोई भी उन्हें पूरी तरह से पहचान या समझ नहीं पाता है, उन्हें कलीसिया के कार्य की जरूरतों के अनुसार प्रारंभिक रूप से पदोन्नत किया जा सकता है और उनका उपयोग किया जा सकता है—कार्य में देरी मत करो, और लोगों को विकसित करने में देरी मत करो; यही कुंजी है। कुछ लोग पूछते हैं, “अगर उपयोग किए जाने के बाद वे कार्य में गड़बड़ी कर देते हैं, तो क्या होगा? कौन जिम्मेदार होगा?” जब तुम किसी का उपयोग करते हो, तो क्या यह ऐसा है जैसे तुम उसे किसी वीरान द्वीप पर छोड़ देते हो जहाँ कोई भी उससे संपर्क नहीं कर सकता है? क्या वास्तव में उसके आसपास ऐसे कई दूसरे लोग नहीं हैं जो विशिष्ट कार्यों में लगे हुए हैं? इन सभी मामलों को सुलझाने के तरीके हैं; यानी, उसकी निगरानी करना, जाँच-परख करना और उसे समझना, और, अगर परिस्थितियाँ अनुमति दें, तो यह सब नजदीकी संपर्क के जरिए करना। नजदीकी संपर्क से वास्तव में क्या अभिप्राय है? इससे अभिप्राय है उसके साथ मिलकर कार्य करना; कार्य करने की प्रक्रिया उसे समझने की प्रक्रिया है। क्या तुम इस किस्म के संपर्क के जरिए उसे धीरे-धीरे समझने नहीं लगोगे? अगर तुम्हारे पास संपर्क बनाने का अवसर तो है लेकिन तुम ऐसा नहीं करते हो, और कुछ प्रश्न पूछने के लिए बस एक फोन कॉल कर लेते हो और फिर उसे वहीं छोड़ देते हो, तो फिर उसे समझना असंभव है। समस्याओं को सुलझाने के लिए तुम जिन लोगों से संपर्क बना सकते हो उनसे तुम्हें संपर्क बनाना चाहिए। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अपने कार्य में आलसी नहीं होना चाहिए। तो, अगर तुम किसी की जाँच-परख कर उसे समझना चाहते हो, तो तुम्हें यह कैसे करना चाहिए? (उससे संपर्क बनाकर करना चाहिए।) सही कहा ना? यहाँ मुख्य बात यह है कि तुम्हें इस कार्य में अपना दिल लगाना होगा! तुम लोग अपने दिमागों में जो जानकारी रख सकते हो, उसकी तुलना किसी बंदर के मकई चुनने से की जा सकती है—वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है उसे चुनता रहता है और उसे चुनते ही गिरा भी देता है और अंत में उसके पास सिर्फ मकई का एक दाना बच जाता है, जिससे उसकी सारी मेहनत बेकार हो जाती है। धर्मोपदेश सुनने के बाद तुम लोग संगति की गई सामग्री वापस याद नहीं कर पाते हो, इसका क्या कारण है? (हम उसमें अपना दिल नहीं लगाते हैं।) आम तौर पर तुम लोग सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हो, इसलिए तुम लोगों के दिल इन मामलो पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। सत्य को कैसे समझना है और वास्तविकता में कैसे प्रवेश करना है, खुद को कैसे जानना है और सत्य से विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के सार को कैसे पहचान लेना है, इन सबके संबंध में तुम लोगों के पास किसी भी तरह का प्रवेश नहीं है; इसलिए, तुम लोगों के दिलों में इन मामलों का कोई आधार नहीं है। जहाँ तक सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से संबंधित चीजों का प्रश्न है, तुम लोग हमेशा उलझन में ही रहते हो। अब, धर्मोपदेश सुनने के लिए अभी भी तुम लोग हर हफ्ते सभाओं में शामिल होते हो। अगर तुम धर्मोपदेश नहीं सुनते हो, तो क्या इससे तुम लोगों के दिलों में परमेश्वर में जो थोड़ी सी आस्था है, वह कम नहीं हो जाएगी, धीरे-धीरे लुप्त नहीं हो जाएगी? यह एक खतरनाक संकेत है! क्या तुम लोग इसमें अपने दिल लगा सकते हो या नहीं? मैंने तुम लोगों को सारे विवरण बता दिए हैं, अगर सही मायने में तुम्हारे पास दिल है, तो तुम ऐसा करने में समर्थ हो जाओगे। अगर तुम्हारे पास दिल नहीं है, तो मैं चाहे किसी भी तरह से बोलूँ, तुम्हें समझ नहीं आएगा। इस विषय पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।
मद आठ : काम के दौरान आने वाली उलझनों और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और उन्हें हल करने का तरीका खोजो (भाग एक)
अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कठिनाइयाँ तुरंत पहचाननी और हल करनी चाहिए
आज, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आठवीं जिम्मेदारी पर संगति करने जा रहे हैं : “काम में आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और मार्गदर्शन प्राप्त करो।” हम इस जिम्मेदारी के संबंध में झूठे अगुआओं की विभिन्न अभिव्यक्तियों को उजागर करेंगे। काम में आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देना और मार्गदर्शन प्राप्त करना—क्या यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कार्य और कर्तव्यों का हिस्सा नहीं है? (हाँ, है।) अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अनिवार्य रूप से अपने कार्य में कुछ पेचीदा मुद्दों का सामना करना पड़ेगा, या कलीसियाई कार्य के दायरे के बाहर मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा, या ऐसे विशेष मामलों का सामना करना पड़ेगा जिनमें सत्य सिद्धांत शामिल नहीं हैं, और वे इस बात से अनजान होंगे कि इन परिस्थितियों से कैसे निपटना है। या, क्योंकि उनमें खराब काबिलियत है और इसलिए वे सिद्धांतों को सही ढंग से समझने में असमर्थ हैं, वे अनिवार्य रूप से कुछ सुलझाने में मुश्किल उलझन और कठिनाइयों का सामना करते हैं। ये उलझन और कठिनाइयाँ कर्मचारियों के उपयोग, कार्य-संबंधी मुद्दों, बाहरी परिवेश से उत्पन्न समस्याओं, लोगों के जीवन प्रवेश से संबंधित मुद्दों, कुकर्मियों द्वारा उत्पन्न विघ्न-बाधाओं के साथ-साथ लोगों को बहिष्कृत या निष्कासित करने के मुद्दों, वगैरह से संबंधित हो सकती हैं। इन सभी मुद्दों के लिए, परमेश्वर के घर की विशिष्ट अपेक्षाएँ और विनियम हैं, या कुछ मौखिक निर्देश हैं। इन विशिष्ट विनियमों से परे, अनिवार्य रूप से कुछ अवर्णित विशेष मामले भी हैं। इन विशेष मामलों के संबंध में, कुछ अगुआ उन्हें परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों का पालन करके संभाल सकते हैं, जैसे कि परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना, भाई-बहनों की सुरक्षा सुनिश्चित करना, और कलीसिया के कार्य के सुचारू संचालन को बनाए रखना—और, इसके अतिरिक्त, वे यह सब बड़ी अच्छी तरह से करते हैं—जबकि कुछ अगुआ ऐसा करने में विफल हो जाते हैं। उन समस्याओं के बारे में क्या करना चाहिए जिन्हें संभाला नहीं जा सकता है? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता भ्रमित तरीके से कार्य करते हैं, वे समस्याओं को पहचानने में असमर्थ होते हैं, और अगर वे पहचान भी लें, तो भी उन्हें सुलझा नहीं पाते हैं। वे ऊपरवाले से मार्गदर्शन प्राप्त किए बिना सिर्फ जैसे-तैसे काम चलाते हैं, बस भाई-बहनों से कह देते हैं, “इसे खुद सुलझाओ; परमेश्वर पर भरोसा करो और समाधान के लिए परमेश्वर से अपेक्षा करो,” और फिर वे इसे निपट चुका मान लेते हैं। चाहे कितनी भी समस्याओं का ढेर क्यों ना लग जाए, वे उन्हें खुद नहीं सुलझा पाते हैं, फिर भी वे इसकी सूचना ऊपर नहीं देते हैं या मार्गदर्शन प्राप्त नहीं करते हैं, शायद वे डरते हैं कि ऊपरवाला उन्हें पहचान लेगा और वे अपना मान-सम्मान खो देंगे। ऐसे कुछ अगुआ और कार्यकर्ता भी हैं जो कभी भी ऊपरवाले को समस्याओं की सूचना नहीं देते हैं, और मुझे नहीं पता कि वे ऐसा क्यों करते हैं। यह जरूरी नहीं है कि ऊपर सूचना देने का अर्थ सीधे ऊपरवाले को सूचना देना ही हो; यकीनन पहले किसी जिले या क्षेत्र के अगुआओं को सूचना दी जा सकती है। और अगर वे इसे नहीं सुलझा पाते हैं, तो फिर तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं से इसकी सूचना सीधे ऊपरवाले को देने के लिए कह सकते हो। अगर तुम किसी अगुआ या कार्यकर्ता से किसी मामले की सूचना ऊपरवाले को देने के लिए कहते हो, और परिस्थिति को स्पष्ट कर देते हो, तो क्या वह इसे यूँ ही दबा सकता है और मामले को नजरअंदाज कर सकता है? ऐसे लोग बहुत ही कम हैं। अगर सचमुच ऐसे अगुआ हैं भी, तो भी तुम दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ इस मामले को स्पष्ट कर सकते हो ताकि उस व्यक्ति को उजागर किया जा सके जो मुद्दे को दबाता है और इसकी सूचना नहीं देता है। अगर ये दूसरे अगुआ और कार्यकर्ता अब भी इस मामले की सूचना नहीं देते हैं, तो एक अंतिम उपाय है : तुम सीधे परमेश्वर के घर की वेबसाइट को लिख सकते हो ताकि इसे आगे ऊपरवाले को भेज दिया जाए, और इस प्रकार यह सुनिश्चित हो जाए कि मुद्दे की सूचना ऊपरवाले को दे दी गई है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऊपरवाला पहले भी कई बार ऐसे पत्रों से निपट चुका है, और बाद में उसने सीधे अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह मामला संभालने का कार्य सौंपा है। दरअसल, किसी मुद्दे की सूचना ऊपर देने के कई रास्ते हैं; इसका अभ्यास करना आसान है, यह सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति सही मायने में समस्या को सुलझाना चाहता है या नहीं। भले ही तुम्हें किसी अगुआ या कार्यकर्ता पर भरोसा ना हो, फिर भी तुम्हें यह विश्वास रखना चाहिए कि परमेश्वर धार्मिक है और ऊपरवाला सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। अगर तुम्हें परमेश्वर पर वास्तविक आस्था नहीं है, और तुम नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में सत्य का राज है, तो तुम कुछ भी नहीं कर सकते। बहुत-से लोग सत्य नहीं समझते; वे नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में सत्य राज करता है, और उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता है। वे हमेशा यही सोचते रहते हैं कि दुनिया के सारे अधिकारी एक-दूसरे को बचाने के लिए बहाने बनाते हैं, और परमेश्वर का घर भी ऐसा ही होगा। वे नहीं मानते हैं कि परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है। इसलिए ऐसे व्यक्ति को छद्म विश्वासी कहा जा सकता है। लेकिन लोगों की एक छोटी संख्या वास्तविक समस्याओं की सूचना देने में सक्षम है। ऐसे लोगों को परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने वाले लोग कहा जा सकता है; वे जिम्मेदार लोग हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता गंभीर समस्याओं का पता चलने पर ना सिर्फ उन्हें सुलझाने में विफल रहते हैं; बल्कि वे उनकी सूचना भी ऊपर के स्तर को नहीं देते हैं। उन्हें मामले की गंभीरता का एहसास तब होना शुरू होता है जब ऊपरवाला इसकी छानबीन करता है। इससे चीजों में देरी होती है। इसलिए, चाहे तुम कोई साधारण भाई या बहन हो या कोई अगुआ या कार्यकर्ता, जब भी तुम किसी ऐसे मुद्दे का सामना करो जिसे तुम हल न कर पाओ और जो कार्य के ज्यादा बड़े सिद्धांतों से संबंधित हो, तो तुम्हें हमेशा समय पर ऊपरवाले को इसकी सूचना देनी चाहिए और मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। अगर तुम उलझनों या कठिनाइयों का सामना करते हो लेकिन उनका समाधान नहीं करते, तो कुछ कार्य आगे नहीं बढ़ पाएगा; उसे दरकिनार कर रोक देना पड़ेगा। यह कलीसिया के कार्य की प्रगति को प्रभावित करता है। इसलिए, जब ऐसी समस्याएँ उत्पन्न हों, जो इस कार्य की प्रगति को सीधे प्रभावित कर सकती हैं, तो उन्हें उजागर कर समयबद्ध तरीके से हल किया जाना चाहिए। अगर किसी समस्या को हल करना आसान न हो, तो तुम्हें ऐसे लोग ढूँढ़ने चाहिए जो सत्य समझते हों और जो उस क्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हों, फिर उनके साथ बैठकर जाँच करनी चाहिए और मिलकर समस्या का समाधान करना चाहिए। इस तरह की समस्याओं में देरी नहीं की जा सकती! तुम्हारे द्वारा उन्हें हल करने में की जाने वाली हर दिन की देरी, कार्य की प्रगति में एक दिन की देरी होती है। यह किसी अकेले व्यक्ति के मामलों को बाधित नहीं कर रहा है; यह कलीसिया के कार्य को प्रभावित करता है, साथ ही इस बात को भी कि परमेश्वर के चुने हुए लोग अपने कर्तव्य कैसे करते हैं। इसलिए, जब तुम इस किस्म की उलझन या कठिनाई का सामना करते हो, तो इसे तुरंत सुलझाना चाहिए, इसमें देरी नहीं की जा सकती है। अगर तुम वाकई उसे हल नहीं कर सकते, तो जल्दी से उसकी रिपोर्ट ऊपरवाले को करो। वह इसे सुलझाने के लिए सीधे आगे आएगा, या तुम्हें मार्ग बता देगा। अगर कोई अगुआ इस प्रकार की समस्याएँ सँभालने में असमर्थ है, और ऊपरवाले को उनकी रिपोर्ट करने और उससे मार्गदर्शन प्राप्त करने के बजाय उन पर बैठा रहता है, तो वह अगुआ अंधा है; मूर्ख है, बेकार है। उसे बर्खास्त कर उसके पद से हटा दिया जाना चाहिए। अगर उसे उसके पद से नहीं हटाया गया, तो कलीसिया का कार्य आगे नहीं बढ़ पाएगा; वह उसके हाथों में नष्ट हो जाएगा। इसलिए इससे तुरंत निपटा जाना चाहिए।
फिल्म निर्माण का कार्य भी परमेश्वर के घर के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य है। फिल्म निर्माण टीम को अक्सर ऐसी समस्या का सामना करना पड़ता है जहाँ पटकथा को लेकर सभी के बीच मतभेद रहता है। मिसाल के तौर पर, निर्देशक का मानना है कि पटकथा वास्तविक जीवन से अलग भटकी हुई है और फिल्माए जाने पर अवास्तविक लगेगी, और इसलिए वह इसमें बदलाव करना चाहता है। लेकिन, पटकथा लेखक इससे पूरी तरह असहमत है, उसका मानना है कि पटकथा उचित रूप से लिखी गई है और उसकी माँग है कि निर्देशक पटकथा के अनुसार ही फिल्माए। अभिनेताओं की भी अपनी-अपनी आपत्तियाँ हैं, वे पटकथा लेखक और निर्देशक दोनों ही से असहमत हैं। एक अभिनेता कहता है, “अगर निर्देशक इसे उसी तरीके से फिल्माने पर अड़ गया, तो मैं अभिनय नहीं करूँगा!” पटकथा लेखक कहता है, “अगर निर्देशक ने पटकथा बदल दी, तो कोई भी समस्या उत्पन्न होने पर तुम सभी जिम्मेदार होगे!” निर्देशक कहता है, “अगर मुझे पटकथा के अनुसार फिल्माने पर मजबूर किया गया और फिर गलतियाँ हुईं, तो परमेश्वर का घर मुझे जवाबदेह ठहराएगा। अगर तुम चाहते हो कि मैं फिल्मांकन करूँ, तो यह मेरी अपनी सोच के आधार पर किया जाना चाहिए; अगर ऐसा नहीं हुआ, तो मैं इसे नहीं करूँगा।” अब, तीनों पक्ष गतिरोध की स्थिति में हैं, है ना? यह कार्य स्पष्ट रूप से आगे नहीं बढ़ सकता है। क्या यह एक उलझन पैदा नहीं हो गई है? तो, वास्तव में कौन सही है? हर किसी के अपने खुद के सिद्धांत, अपने खुद के तर्क हैं, और कोई भी समझौता करने का इच्छुक नहीं है। तीनों पक्षों के इस तरह की गतिरोध की स्थिति में होने से, किसको नुकसान पहुँचता है? (परमेश्वर के घर के कार्य को।) परमेश्वर के घर का कार्य बाधित होता है और उसे नुकसान पहुँचता है। क्या तुम लोग ऐसी परिस्थितियों का सामना करने पर बेचैन और चिंतित महसूस करते हो? अगर नहीं, तो इससे साबित होता है कि तुम लोगों ने इसमें सच में अपना दिल नहीं लगाया है। जब ऐसी उलझन और गतिरोध उत्पन्न होते हैं, तो कुछ लोग इतने बेचैन हो जाते हैं कि उनके लिए खाना-पीना और सोना असंभव हो जाता है, वे बस सोचते रहते हैं, “क्या करना चाहिए? इस तरह से बहस करने और झुकने से इनकार करने का कोई फायदा नहीं है। क्या यह फिल्मांकन की प्रगति को प्रभावित नहीं कर रहा है? इसके कारण पहले ही कई दिनों की देरी हो चुकी है और अब इसे आगे के लिए टाला नहीं जा सकता है। हम इस समस्या को कैसे सुलझा सकते हैं ताकि यह सुनिश्चित हो जाए कि शूटिंग सुचारू रूप से चलती रहे और कार्य में देरी ना हो? इस मुद्दे को सुलझाने के लिए हमें किससे मदद माँगनी चाहिए?” अगर तुममें हिम्मत है, तो तुम्हें अगुआओं से समाधान माँगने चाहिए, और अगर अगुआ इसे सुलझा नहीं पाते हैं, तो तुम्हें जल्दी से इसकी सूचना ऊपरवाले को दे देनी चाहिए। अगर तुम सही मायने में परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील हो, तो तुम्हें इस समस्या को जल्द से जल्द सुलझाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए; यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। और अगर तुम इस बारे में चिंतित नहीं हो तो? तो तुम यह सोचते हुए इस पर चिंतन कर सकते हो, “वे गलत हैं। मैं अपने नजरिये पर अड़ा रहूँगा—मुझे शक है कि वे मेरा कुछ बिगाड़ सकते हैं। मैं खाना खाऊँगा और फिर कुछ देर झपकी लूँगा, वैसे भी दोपहर में करने के लिए कुछ नहीं है।” तुम्हारे पैरों में भारीपन आ जाता है, सिर चकराने लगता है, दिल कमजोर पड़ने लगता है और तुम सुस्त पड़ जाते हो। कठिनाइयों का ढेर लगा हुआ है, लेकिन तुम लापरवाह और सुस्त हो, इसलिए समस्या को सुलझाने का कोई तरीका नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि तुममें इसे सुलझाने की प्रेरणा और इच्छा की कमी है, इसलिए तुम इसका समाधान नहीं सोच पाते हो। तुम मन ही मन सोचते हो : “ऐसा अक्सर नहीं होता है कि कठिनाइयाँ उत्पन्न हों और कार्य ठप्प पड़ जाए। मैं इस मौके का उपयोग कुछ दिन आराम करने और तनावमुक्त होने के लिए करूँगा। हर समय इतना थकाहारा रहना ही क्यों? अगर मैं अभी कुछ देर आराम कर लेता हूँ, तो इस बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता है। आखिर, मैं अपने कार्य के प्रति ढिलाई नहीं कर रहा हूँ या गैर-जिम्मेदार नहीं बन रहा हूँ। मैं जिम्मेदार बनना चाहता हूँ, लेकिन हमारे रास्ते में यह कठिनाई है—इसे कौन सुलझाने वाला है? इसे सुलझाए बिना हम फिल्मांकन कैसे कर सकते हैं? अगर ऐसी कठिनाइयाँ मौजूद हैं जो हमें फिल्माने से रोकती हैं, तो क्या हमें बस कुछ देर का अवकाश नहीं ले लेना चाहिए?” तुम्हारे सामने इतना बड़ा मुद्दा होने पर, अगर इसे तुरंत सुलझाया नहीं गया तो क्या परिणाम होंगे? अगर समस्याएँ लगातार उत्पन्न होती रहें और कोई भी सुलझाई नहीं जा सके, तो क्या कार्य लगातार आगे बढ़ सकता है? इससे असीम देरी होगी। कार्य की प्रगति सिर्फ आगे की तरफ हो सकती है, पीछे की तरफ नहीं, इसलिए यह जानते हुए कि यह समस्या कठिनाइयाँ पेश करती है, तुम्हें अब और टालमटोल नहीं करनी चाहिए; तुम्हें इसे जल्दी से सुलझाने की जरूरत है। एक बार यह समस्या सुलझ जाए, तो अगली समस्या उत्पन्न होने पर उसे जल्दी से सुलझाओ, लगातार कोशिश करो को समय बर्बाद नहीं होताकि कार्य सुचारू रूप से आगे बढ़ सके और नियत समय पर पूरा हो सके। सुनने में यह कैसा लगता है? (अच्छा लगता है।) जिन लोगों के पास दिल है, वे इस रवैये से उलझन और कठिनाइयों का सामना करते हैं। वे समय बर्बाद नहीं करते, अपने लिए बहाने नहीं बनाते और दैहिक सुख-सुविधाओं का लालच नहीं करते। दूसरी तरफ, बेदिल लोग कमियों का फायदा उठाएँगे; वे बहाने बनाएँगे और कुछ देर का अवकाश लेने के मौके तलाशेंगे, सब कुछ बड़े आराम से और बिना किसी तरह की जल्दबाजी या बेचैनी के करेंगे, उनमें कष्ट सहने या कीमत चुकाने का कोई संकल्प नहीं होगा। और फिर अंत में क्या होता है? किसी उलझन या कठिनाई का सामना करने पर हर कोई कई दिनों तक खुद को गतिरोध की स्थिति में पाता है। ना निर्देशक, ना अभिनेता, और ना ही पटकथा लेखक इस मुद्दे की सूचना देता है। इस बीच, अगुआ अंधे हैं और इसे एक समस्या के रूप में पहचानने में असमर्थ हैं; अगर वे इसे एक समस्या के रूप में पहचान लेते भी हैं तो भी वे इसे खुद सुलझा नहीं पाते हैं, वे इसकी सूचना ऊपर नहीं देते हैं। जब तक इसकी सूचना स्तर-दर-स्तर ऊपरवाले को दी जाती है, तब तक दस दिन या आधा महीना बीत चुका होता है। इन दस दिनों से आधे महीने के दौरान क्या किया गया? क्या कोई अपने कर्तव्य कर रहा था? नहीं, वे अपना समय खाने-पीने और मौज-मस्ती करने में आराम से बिता रहे थे! क्या वे सिर्फ मुफ्तखोरी नहीं कर रहे हैं? वे सभी पर्यवेक्षक जो अपने कार्य में आने वाली उलझन और कठिनाइयों का तुरंत समाधान नहीं तलाश पाते हैं, वे सिर्फ मुफ्तखोरी कर रहे हैं, बिना किसी उद्देश्य के दिन गुजार रहे हैं। ऐसे लोगों को संक्षेप में “निठल्ला” कहा जाता है। “निठल्ला” क्यों? क्योंकि ये लोग अपने कर्तव्यों को गंभीरता, जिम्मेदारी, दृढ़ता या सकारात्मकता के दृष्टिकोण से नहीं संभालते हैं, बल्कि वे लापरवाह होते हैं, नकारात्मक होते हैं और ढिलाई बरतते हैं, बस यही उम्मीद करते रहते हैं कि कोई कठिनाई या गतिरोध उत्पन्न हो जाए ताकि उन्हें अपना तामझाम समेटने और कार्य बंद करने का बहाना मिल जाए।
अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ना सिर्फ कार्य में आने वाली उलझन और कठिनाइयों का तुरंत समाधान करना चाहिए, बल्कि इन मुद्दों की तुरंत जाँच और पहचान भी करनी चाहिए। ऐसा क्यों करना चाहिए? ऐसा करने का सिर्फ एक ही लक्ष्य है : परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के घर के कार्य की सुरक्षा करना, यह सुनिश्चित करना कि प्रत्येक कार्य सुचारू रूप से प्रगति करे और सामान्य समयसीमा में सफलतापूर्वक पूरा हो जाए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि कार्य सुचारू रूप से प्रगति करे, किन मुद्दों को सुलझाने की जरूरत है? सबसे पहले, यह बेहद जरूरी है कि कलीसिया के कार्य में विघ्न डालने वाली बाधाओं या रुकावटों को पूरी तरह से हटा दिया जाए, अविश्वासियों और कुकर्मियों को प्रतिबंधित कर दिया जाए ताकि उन्हें मुसीबत खड़ी करने से रोका जा सके। इसके अतिरिक्त, सत्य समझने और अभ्यास का मार्ग ढूँढने, मिलजुलकर सहयोग करने और एक-दूसरे की निगरानी करना सीखने के लिए कार्य की प्रत्येक मद के पर्यवेक्षकों और भाई-बहनों का मार्गदर्शन करना चाहिए। सिर्फ इसी तरीके से कार्य के पूरा होने की गारंटी दी जा सकती है। चाहे कैसी भी कठिनाइयाँ या उलझनों का सामना क्यों ना करना पड़े, अगर अगुआ और पर्यवेक्षक उन्हें सुलझा नहीं पाते हैं, तो उन्हें जल्दी से इन मुद्दों की सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए और मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। अगुआ और पर्यवेक्षकों को, चाहे वे कोई भी कार्य क्यों ना करें, समस्याएँ सुलझाने को प्राथमिकता देनी चाहिए, कार्य से जुड़ी तकनीकी समस्याओं और सिद्धांत के मुद्दों को, और साथ ही लोग अपने जीवन प्रवेश के संबंध में जिन विभिन्न कठिनाइयों का सामना करते हैं उनका समाधान करना चाहिए। अगर तुम उलझन और कठिनाइयों को नहीं सुलझा पाते हो तो तुम अपना कार्य अच्छी तरह से नहीं कर पाओगे। इसलिए, जब तुम ऐसी असामान्य कठिनाइयों या उलझनों का सामना करते हो जिन्हें तुम नहीं सुलझा पाते हो तो तुम्हें उनकी सूचना ऊपरवाले को तुरंत देनी चाहिए। समय बर्बाद मत करो, क्योंकि तीन से पांच दिन की देरी से कार्य में नुकसान हो सकता है, और अगर इसमें आधे महीने या एक महीने की देरी हो गई, तो नुकसान बहुत ही ज्यादा होगा। इसके अतिरिक्त, समस्या चाहे कोई भी हो, उसे सत्य सिद्धांतों के आधार पर निपटाना चाहिए। चाहे कुछ भी हो जाए, समस्याओं को सुलझाने के लिए मनुष्य के सांसारिक आचरण के फलसफों का उपयोग कभी मत करना। गंभीर मुद्दों को मामूली मुद्दे मत बनाओ, और फिर मामूली मुद्दों को तुच्छ मत बनाओ या मुद्दों में शामिल दोनों पक्षों को सिर्फ डाँट देने और फिर उन्हें कुछ सुखद बात कहकर शांत करने वाला तरीका मत अपनाओ, इस डर से कि मुद्दे कहीं तूल ना पकड़ लें, हमेशा उनसे बातचीत करने और उन्हें मनाने के तरीके का सहारा मत लो। इससे समस्याओं का जड़ से समाधान नहीं हो पाता है जिससे मुद्दे लंबित रह जाते हैं। क्या यह चीजों को शांत करने का प्रयास करने का एक तरीका भर नहीं है? अगर तुम्हें लगता है कि तुमने किसी समस्या के लिए सभी मानवीय समाधान आजमाकर देख लिए हैं और यह सही मायने में सुलझ नहीं सकती है, और तुम कार्य से जुड़े तकनीकी मुद्दों के लिए सिद्धांत नहीं ढूँढ पा रह हो, तो फिर तुम्हें बिना प्रतीक्षा या टालमटोल किए जल्दी से इन मुद्दों की सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए और मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। कोई भी समस्या जिसे सुलझाया नहीं जा सकता है, उसकी सूचना तुरंत ऊपरवाले को देनी चाहिए ताकि मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सके। यह सिद्धांत तुम्हें कैसा लगता है? (अच्छा।)
क्या फिल्म निर्माण और पटकथा-लेखन टीम अक्सर शूटिंग के मुद्दों पर गतिरोध की स्थिति में आ जाते हैं? इनमें से प्रत्येक के पास अपना तर्क होता है, और वे सर्वसहमति पर पहुँचने में असमर्थ होते हैं, हमेशा कहा-सुनी में उलझे रहते हैं। क्या इन मुद्दों के उत्पन्न होने पर अगुआ इन्हें सुलझा सकते हैं? (कभी-कभी वे सुलझा सकते हैं।) क्या तुम लोगों ने कभी ऐसी परिस्थिति का सामना किया है जहाँ किसी अगुआ ने संगति के जरिये कुछ समस्याओं को सुलझाया हो, और सुनने में वह पूरी तरह से उचित और सैद्धांतिक रूप से ठोस लगा हो, लेकिन तुम्हें फिर भी पूरा यकीन नहीं हुआ हो कि वह परमेश्वर के घर या सत्य सिद्धांतों की जरूरतों के अनुरूप है? (हाँ।) तुम लोगों ने ऐसी परिस्थितियों को कैसे संभाला? (कभी-कभी हमने ऊपरवाले से मदद माँगी।) यही सही दृष्टिकोण है। क्या तुम लोग कभी ऐसी परिस्थिति में रहे हो जहाँ तुमने किसी मुद्दे के बारे में पूछताछ नहीं करने का फैसला किया क्योंकि तुमने देखा कि ऊपरवाला भाई बहुत ही व्यस्त है, और तुमने सोचा कि जब तक मामला सैद्धांतिक रूप से सही है, तब तक यह ठीक ही है, और फिर तुमने इस बात की परवाह किए बिना कि वह सत्य का अनुपालन करता है या नहीं, पहले शूटिंग करने का फैसला किया? (पहले हमारे सामने इसे लेकर गंभीर समस्याएं थीं। इसके कारण हमें चीजों को फिर से करना पड़ा था और कार्य में गड़बड़ियाँ और विघ्न उत्पन्न हुए थे।) वह एक गंभीर परिस्थिति है! फिल्म निर्माण टीमें जिन समस्याओं का सामना करती हैं उनमें से कई समस्याएँ अंत में दरअसल पटकथा-लेखन टीम की जिम्मेदारी होती हैं। मिसाल के तौर पर, अगर कोई फिल्म ढाई घंटे चलने वाली बेतुकी कहानी बन जाती है, तो इसके लिए मुख्य रूप से पटकथा लेखक जिम्मेदार होते हैं। लेकिन निर्देशकों की जिम्मेदारी के बारे में क्या? अगर पटकथा बेतुकी हो, तो क्या निर्देशकों को यह देखने में समर्थ होना चाहिए? सैद्धांतिक रूप में, उन्हें होना चाहिए। लेकिन, फिर भी ऐसी परिस्थितियों में निर्देशक फिल्मांकन पूरा करने में महीनों लगा सकते हैं और काफी श्रमशक्ति, भौतिक संसाधन और पैसे खर्च कर सकते हैं। यह किस किस्म की समस्या है? निर्देशकों के रूप में, तुम लोगों की क्या जिम्मेदारी है? पटकथा मिलने पर, तुम्हें ऐसे सोचना चाहिए, “यह पटकथा लंबी है और समृद्ध विषयवस्तु वाली है, लेकिन इसमें कोई मर्म, कोई प्रसंग नहीं है; पूरी संरचना बेजान है। इस पटकथा को फिल्माया नहीं जा सकता है; इसमें संशोधन करने के लिए इसे पटकथा लेखकों को वापस करना होगा।” क्या तुम लोग इसे करने में सक्षम हो? क्या तुम लोगों ने कभी कोई पटकथा वापस की है? (नहीं।) क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम मुद्दों को नहीं देख पाते हो, या इसलिए है क्योंकि तुम इसे वापस करने से डरते हो? या क्या तुम डरते हो कि कोई तुम्हारी आलोचना करेगा, और कहेगा, “उन्होंने तुम्हें यह तैयार पटकथा दी और तुमने इसे बस एक शब्द के साथ नामंजूर कर दिया, इसे वापस भेज दिया—तुम बहुत ही घमंडी हो, है ना?” आखिर तुम लोग किस बात से डरते हो? तुम्हें समस्या नजर आती है, तो फिर लेखकों को यह पटकथा वापस क्यों नहीं करते हो? (हम अपने फिल्म निर्माण कार्य के लिए जिम्मेदार नहीं हैं।) फिल्म निर्माण टीमों के लिए, कलीसियाई अगुआओं के अलावा, निर्देशकों को भी पर्यवेक्षकों के रूप में कार्य करना चाहिए, जो फैसले लेते हों और अंतिम फैसला उन्हीं का हो। यह ध्यान रखते हुए कि तुम निर्देशक हो, तुम्हें इस मामले की पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए, पटकथा प्राप्त करते ही तुम्हें बड़ी सावधानी से इसकी जाँच करनी चाहिए। मान लो कि तुम्हें एक पटकथा दी जाती है और तुम शुरू से अंत तक उसकी समीक्षा करते हो, और पाते हो कि इसकी विषय-वस्तु बहुत अच्छी है। इसमें एक मर्म और प्रसंग है, पटकथा एक मुख्य कहानी के इर्द-गिर्द घूमती है, और कुल मिलाकर इस पटकथा में कोई बड़ी समस्या नजर नहीं आती है—यह अच्छी दिखती है, फिल्माने लायक है, और इसलिए इस पटकथा को स्वीकार किया जा सकता है। लेकिन, अगर पटकथा बहुत लंबी है, बिना किसी केंद्र-बिंदु या प्रमुख प्रसंग के शुरू से आखिर तक एक व्यक्ति की कहानी सुनाती है, यह अस्पष्ट ही रह जाता है कि पटकथा क्या व्यक्त करना चाहती है, यह दर्शकों से क्या हासिल करवाना चाहती है, या इसका केंद्रीय विचार और आध्यात्मिक अर्थ क्या है—तो यह मूल रूप से सिर्फ एक बेतुका वर्णन है, एक उलझी हुई पटकथा है—क्या इस पटकथा को स्वीकार किया जा सकता है? ऐसी स्थिति में निर्देशकों को क्या करना चाहिए? उन्हें पटकथा वापस कर देनी चाहिए और पटकथा लेखकों को इसमें संशोधन करने के लिए सुझाव देने चाहिए। पटकथा लेखन टीम के लोग आपत्ति जता सकते हैं, वे कह सकते हैं, “यह उचित नहीं है! हमारी लिखी पटकथा का ऑडिट करने वाले वे कौन होते हैं? उन्हें फैसला लेने का अधिकार क्यों दिया गया है? परमेश्वर के घर को लोगों के साथ निष्पक्ष और उचित रूप से व्यवहार करना चाहिए!” तब क्या करना चाहिए? अगर निर्देशक पटकथा में मुद्दों को पहचान पाते हैं, तो उन्हें फैसला लेने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, बल्कि पहले कलीसियाई अगुआओं और फिल्म निर्माण टीम के सदस्यों से इस मामले पर चर्चा करनी चाहिए। अगर सभी लोग, अपने पिछले कई वर्षों के फिल्मांकन के अनुभव और पटकथा की समझ के आधार पर, सर्वसम्मति से पटकथा को मानक स्तर की नहीं मानते हैं, और यह मानते हैं कि इसके फिल्मांकन से ना सिर्फ फिल्म निर्माण कार्य में देरी होगी, बल्कि इसमें शामिल सभी मानवीय, भौतिक और आर्थिक संसाधनों की बर्बादी भी होगी, और कोई भी ऐसी जिम्मेदारी नहीं उठा सकता है तो इस पटकथा को वापस कर देना चाहिए। एक बेतुकी पटकथा को बिल्कुल भी फिल्माना नहीं चाहिए; यह एक सिद्धांत है। अगर सभी लोग पटकथा के बारे में एक जैसा महसूस करते हैं, तो पटकथा लेखकों को बिना शर्त के इसे स्वीकार कर लेना चाहिए और फिल्म निर्माण टीम के सुझावों के अनुसार पटकथा को संशोधित करना चाहिए। अगर अब भी मतभेद रहते हैं, तो दोनों पक्षों के सदस्य और अगुआ साथ मिलकर इस बारे में वाद-विवाद कर सकते हैं कि किसके तर्क सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं। अगर बिना किसी निष्कर्ष पर पहुँचे गतिरोध वैसे का वैसा बना रहता है, तो अंतिम उपाय का उपयोग करना चाहिए, जो कि आज संगति की गई अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आठवीं जिम्मेदारी है : “काम में आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना दो और मार्गदर्शन प्राप्त करो।” जो मुद्दे गतिरोध की स्थिति में हैं और जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता है उन्हें उलझन और कठिनाइयाँ कहते हैं। प्रत्येक पक्ष को लगता है कि उनका तर्क सही है और कोई भी फैसला लेने में समर्थ नहीं होता है। इस तरह एक कदम आगे-दो कदम पीछे जाने से समस्या उलझ जाती है, जिससे मुद्दे के पूरे विवरण और सही दिशा के बारे में सभी की समझ धुंधली पड़ जाती है। इस मौके पर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य में सामने आने वाले इन मुद्दों और उलझनों की तुरंत सूचना देने और मार्गदर्शन प्राप्त करने का प्रभार लेना चाहिए, मुद्दों को कार्य की प्रगति में बाधा डालने से रोकने के लिए, और इससे भी ज्यादा, मुद्दों का अंबार लगने से रोकने के लिए उन्हें तुरंत सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। इन मुद्दों की तुरंत सूचना देना और मार्गदर्शन प्राप्त करना—क्या यह कार्य करना नहीं है? क्या यह कार्य के प्रति गंभीर और जिम्मेदार रवैया दिखाना नहीं है? क्या यह अपना कर्तव्य करने में अपना दिल लगाना नहीं है? क्या यह वफादार होना नहीं है? (हाँ।) यह अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा रखना है।
कार्य के प्रभारी अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को तुरंत देख लेना चाहिए और उनका समाधान करना चाहिए, क्योंकि सिर्फ ऐसा करने से ही कार्य की सुचारू प्रगति सुनिश्चित हो सकती है। ऐसे सभी अगुआ और कार्यकर्ता जो समस्याओं का समाधान नहीं कर पाते हैं, उनमें सत्य वास्तविकता की कमी है और वे झूठे अगुआ और कार्यकर्ता हैं। जिस किसी को भी मुद्दों का पता चलता है लेकिन वह उन्हें सुलझाने में विफल रहता है, सुलझाने के बजाय वह उन्हें टाल देता है या छिपा लेता है, वह एक बेकार निकम्मा व्यक्ति है जो किसी काम का नहीं हैं और सिर्फ कार्य में गड़बड़ करता है। विवादित मुद्दों को संगति और वाद-विवाद के जरिये सुलझाना चाहिए। अगर उनसे सही परिणाम नहीं मिलते हैं, बल्कि और झोल हो जाता है, तो प्राथमिक अगुआ को व्यक्तिगत रूप से मामले से निपटने का प्रभार लेना चाहिए, समाधानों और तरीकों का तुरंत प्रस्ताव देना चाहिए, और साथ ही तुरंत जाँच-परख करनी चाहिए, समझना चाहिए और फैसला लेना चाहिए ताकि वह यह देख सके कि स्थिति का परिणाम कैसा निकलेगा। जब किसी समस्या पर अब भी विवाद बने रहते हैं और किसी फैसले पर पहुँचना संभव नहीं होता है, तो मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए मुद्दे की सूचना जल्दी से ऊपरवाले को देनी चाहिए, ना कि बस चीजों को आसान बनाने, प्रतीक्षा करने या टालमटोल करने का प्रयास करना चाहिए, और विशेष रूप से ना कि बस मुद्दे को अनदेखा कर देना चाहिए। क्या तुम लोगों के मौजूदा अगुआ और कार्यकर्ता इस तरह से कार्य करते हैं? उन्हें कार्य की तुरंत निगरानी करनी चाहिए और उसकी प्रगति को आगे बढ़ाना चाहिए, और साथ ही कार्य में प्रकट होने वाले विभिन्न टकरावों को पहचानना चाहिए, और साथ ही विभिन्न मामूली मुद्दों को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। जब महत्वपूर्ण समस्याओं को पहचाना जाता है तो मुख्य अगुआओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें सुलझाने में भाग लेने के लिए मौजूद रहना चाहिए, ताकि वे पूरे विवरण की, समस्या के उत्पन्न होने के कारण की और इसमें शामिल लोगों के परिप्रेक्ष्यों की सटीक समझ प्राप्त कर सकें, जिससे वे सटीकता से यह समझ सकें कि वास्तव में क्या चल रहा है। साथ ही, उन्हें इन मुद्दों पर संगति करने, वाद-विवाद करने और यहाँ तक कि इन मुद्दों का खंडन करने में भी भाग लेना चाहिए। यह एक जरूरत है; सहभागिता अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह कार्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर फैसले लेने और उन्हें सुलझाने में तुम्हारी मदद करती है। अगर तुम बिना शामिल हुए सिर्फ सुनते रहते हो, हमेशा हाथ पर हाथ बाँधकर एक किनारे खड़े रहते हो और कक्षा में बैठे व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हो, यह सोचते हो कि कार्य में उत्पन्न होने वाली कोई भी समस्या तुम्हारे लिए चिंता का विषय नहीं है और उस मामले के प्रति तुम्हारा कोई विशेष नजरिया या रवैया नहीं होता है, तो तुम स्पष्ट रूप से एक झूठे अगुआ हो। जब तुम शामिल होगे, तो ही तुम विस्तार से जानोगे कि कार्य में कौन-सी समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, उनका कारण क्या है, कौन जिम्मेदार है, मुख्य मुद्दा कहाँ है, और क्या यह लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के कारण है या तकनीकी और पेशेवर अपर्याप्तता के कारण है—इन सभी बातों को स्पष्ट किया जाना चाहिए ताकि समस्याओं को निष्पक्ष रूप से संभाला और सुलझाया जा सके। जब तुम इस कार्य में भाग लेते हो और तुम्हें पता चलता है कि समस्याएँ मानव-निर्मित नहीं हैं या किसी के द्वारा जानबूझकर उत्पन्न नहीं की गई हैं, फिर भी तुम्हें समस्या का सार ढूँढ निकालना मुश्किल लगता है और तुम्हें यह नहीं पता होता है कि इसे कैसे सुलझाया जाए, जबकि दोनों पक्ष लंबे समय से इस पर विवाद कर रहे होते हैं, या जब हर व्यक्ति किसी समस्या में अपना दिल और प्रयास लगा देता है, फिर भी इसे सुलझा नहीं पाता है, और सिद्धांत ढूँढने या दिशा ढूँढने में असमर्थ होता है, जिससे कार्य ठप्प पड़ जाता है, और उसे यह डर भी रहता है कि इसे जारी रखने से आगे और गलतियाँ, विघ्न और नकारात्मक परिणाम होंगे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे ज्यादा जो चीज करनी चाहिए वह यह है कि उन्हें सभी के साथ प्रत्युपायों या समाधानों पर चर्चा नहीं करनी चाहिए, बल्कि जल्द से जल्द इस मुद्दे की सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य में आने वाली समस्याओं को संक्षेप में प्रस्तुत करना चाहिए और उन्हें दर्ज करना चाहिए और बिना किसी टालमटोल, प्रतीक्षा या भाग्य पर भरोसा करने की मानसिकता के उनकी सूचना तुरंत ऊपरवाले को देनी चाहिए, यह नहीं सोचना चाहिए कि एक रात की नींद से प्रेरणा या अचानक स्पष्टता आ सकती है—यह एक दुर्लभ घटना है जिसके होने की संभावना नहीं है। इसलिए, सबसे अच्छा समाधान है समस्या की सूचना ऊपरवाले को देना और जल्द से जल्द मार्गदर्शन प्राप्त करना, और यह सुनिश्चित करना कि समस्या तुरंत और जल्द से जल्द सुलझ जाए; यही सही मायने में कार्य करना है।
अगुआओं और कार्यकर्ताओं के सामने अक्सर अपने कार्य में आने वाली उलझनें और कठिनाइयाँ
I. उलझनें
हमने अभी जो चर्चा की है, उसके आधार पर इसे संक्षेपित करते हैं कि “भ्रमों” और “कठिनाइयों” का वास्तव में क्या मतलब होता है। ये दोनों एक ही चीज नहीं हैं। सबसे पहले, मैं “भ्रम” शब्द की व्याख्या करूँगा। भ्रम तब होता है जब तुम किसी मामले को ठीक से समझ नहीं पाते; तुम नहीं जानते कि सिद्धांतों के अनुरूप या सटीक तरीके से निर्णय कैसे लें या समझ कैसे पैदा करें। भले ही तुम इसे थोड़ा बहुत समझ पाते हो, लेकिन तुम अनिश्चित होते हो कि तुम्हारा दृष्टिकोण सही है या नहीं, तुम नहीं जानते कि मामले को कैसे सँभालना या हल करना है, और तुम्हारे लिए इस बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुँचना मुश्किल हो जाता है। संक्षेप में, तुम इसके संबंध में अनिश्चित होते हो और कोई निर्णय लेने में असमर्थ होते हो। यदि तुम सत्य को थोड़ा भी नहीं समझते और कोई अन्य व्यक्ति उस समस्या का समाधान नहीं करता, तो वह हल न हो सकने वाली समस्या हो जाती है। क्या यह कठिन चुनौती का सामना करना नहीं है? जब ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ऊपरवाले को सूचना देनी चाहिए और ऊपरवाले से मदद माँगनी चाहिए ताकि मुद्दों को और अधिक तेजी से हल किया जा सके। क्या तुम लोग अक्सर भ्रम का सामना करते हो? (हाँ।) नियमित रूप से भ्रम का सामना करना अपने आप में एक समस्या है। मान लो कि तुम किसी समस्या का सामना कर रहे हो और तुम्हें नहीं पता कि उसे कैसे सँभालना है। कोई व्यक्ति एक ऐसा समाधान प्रस्तावित करता है जो तुम सोचते हो कि उचित है, साथ ही कोई अन्य व्यक्ति एक दूसरा समाधान पेश करता है और तुम्हारे विचार में वह भी उचित होता है, और तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते कि कौन सा समाधान अधिक उपयुक्त है, सभी की राय अलग-अलग है और कोई भी समस्या के मूल कारण या सार को नहीं समझ पा रहा है, तो समस्या के समाधान में चूक होना तय है। इसलिए, किसी समस्या को हल करने के लिए उसके मूल कारण और सार को निर्धारित करना आवश्यक और महत्वपूर्ण होता है। यदि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पहचान नहीं है, वे समस्या के सार को समझने में विफल रहते हैं, और सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते, तो उन्हें तुरंत इस मुद्दे की सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए और उससे समाधान खोजना चाहिए; यह आवश्यक है और यह जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया देना नहीं है। अनसुलझी समस्याएँ गंभीर परिणाम पैदा कर सकती हैं और कलीसिया के काम को प्रभावित कर सकती हैं—इस बात को ठीक से समझा जाना चाहिए। अगर तुम आशंकाओं से भरे हुए हो, हमेशा इस बात से डरते रहते हो कि ऊपरवाला तुम्हारी असल औकात को समझ सकता है या यह देखकर कि तुम वास्तविक काम करने में सक्षम नहीं हो, तो वह तुम्हारे कर्तव्य में परिवर्तन कर सकता है या तुमको बरखास्त कर सकता है, और इसलिए तुम इस मुद्दे की सूचना देने की हिम्मत नहीं करते, तो इससे आसानी से मामले में देरी हो सकती है। अगर तुमको ऐसे भ्रमों का सामना करना पड़ता है जिन्हें तुम खुद हल नहीं कर सकते, फिर भी ऊपरवाले को सूचना नहीं देते, तो जब इसके गंभीर परिणाम होंगे और ऊपरवाला तुमको ही जवाबदेह ठहराएगा, तो तुम मुसीबतों के जंजाल में पड़ जाओगे। क्या इस स्थिति के लिए मात्र तुम ही दोषी नहीं होगे? ऐसे भ्रमों का सामना करते समय अगर अगुआ और कार्यकर्ता जिम्मेदार नहीं होते और केवल कुछ धर्म-सिद्धांतों का उच्चारण करते हैं और मुद्दे को बेमन से सुलझाने के लिए कुछ विनियम लागू करते हैं, तो समस्या अनसुलझी रह जाती है और चीजें जहाँ की तहाँ रह जाती हैं, काम आगे नहीं बढ़ पाता। जब भ्रम अनसुलझे रह जाते हैं तो ठीक यही होता है; इससे बहुत आसानी से देरी हो जाती है।
जब उलझननें होती हैं, तोओंओं भाँप लेते हैंउलझन उत्पन्न होने पर कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं को लग सकता है को लग सकता हैकि कोई समस्या खड़ी हो गई है, जबकि दूसरे अगुआ और कार्यकर्ता उस मुद्दे का पता लगाने में असमर्थ होते हैं—दूसरे समूह के लोग खराब काबिलियत के होते हैं, और सुन्न और मंदबुद्धि होते हैं; उनमें किसी भी समस्या के प्रति संवेदनशीलता नहीं होती है। चाहे उत्पन्न हुई उलझन कितनी भी बड़ी क्यों ना हो, वे जो प्रदर्शित करते हैं वह सुन्नता और मंदबुद्धि है; वे मुद्दे को नजरअंदाज करते हैं और समस्या को दरकिनार करने का प्रयास करते हैं—ये झूठे अगुआ हैं जो वास्तविक कार्य में शामिल नहीं होते हैं। जिन अगुआओं और कार्यकर्ताओं में कुछ मात्रा में काबिलियत और कार्य क्षमता होती है वे ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न होने पर इन्हें महसूस करनेसमझनेमहसूस करने में समर्थ होते हैं : “यह एक समस्या है। मुझे इस पर ध्यान देना चाहिए। ऊपरवाले ने पहले कभी इस किस्म के मुद्दे का जिक्र नहीं किया है और हम इसका पहली बार सामना कर रहे हैं, इसलिए इस प्रकार की स्थिति को संभालने के लिए वास्तव में क्या सिद्धांत हैं? इस विशिष्ट मुद्दे को कैसे सुलझाना चाहिए? ऐसा लगता है कि मेरे पास कुछ स्वतःस्फूर्त विचार तो हैं, लेकिन वे अस्पष्ट हैं, और ऐसे मामलों के प्रति मेरा एक रवैया है, लेकिन सिर्फ एक रवैया रखना पर्याप्त नहीं है; समस्या को सुलझाने के लिए सत्य की तलाश करना अत्यंत जरूरी है। इस मामले पर साथ मिलकर संगति और चर्चा करने के लिए हमें इसे सबके सामने बाहर लाने की जरूरत है।” संगति और चर्चा के एक दौर के बाद भी, अगर वे यह नहीं जानते हैं कि कैसे आगे बढ़ना है, उनके पास समस्या सुलझाने के लिए अभ्यास की कोई सटीक योजना मौजूद नहीं है, और उलझन ज्यों की त्यों बनी रहती है, तो उन्हें उसे सुलझाने के लिए ऊपरवाले से तरीका प्राप्त करना चाहिए। इस मुकाम पर, समस्या के बारे में उलझन के बिंदुओं को लिख लेना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है, ताकि समय आने पर वे स्पष्ट रूप से यह समझा सकें कि उलझन की समस्या वास्तव में क्या है और वास्तव में किस चीज की तलाश की जा रही है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही करना चाहिए।
II. कठिनाइयाँ
क. कठिनाइयाँ क्या हैं
इसके बाद, चलो “कठिनाइयाँ” शब्द को देखें। शाब्दिक परिप्रेक्ष्य से, कठिनाइयाँ उलझन से ज्यादा गंभीर होती हैं। तो, कठिनाइयाँ वास्तव में क्या हैं? कोई समझाओ। (परमेश्वर, हमारी समझ यह है कि कठिनाइयाँ सामने आने वाली वे वास्तविक समस्याएँ हैं, जिन्हें व्यक्ति सुलझाने का प्रयास पहले से ही कर चुका है, लेकिन उन्हें सुलझा नहीं पाया है; ये कठिनाइयाँ मानी जाती हैं।) (मैं एक बिंदु जोड़ रहा हूँ, कभी-कभी व्यक्ति कुछ बहुत ही पेचीदा समस्याओं का सामना कर सकता है जिनसे पहले कभी सामना नहीं हुआ है, जहाँ हर किसी के पास अनुभव की कमी है, हर कोई पूरी तरह से घबराया हुआ है, और किसी के भी पास कोई राय या विचार नहीं है—ये एक प्रकार की बहुत ही चुनौतीपूर्ण समस्याएँ हैं।) बहुत ही चुनौतीपूर्ण समस्याओं को कठिनाइयाँ कहते हैं, है ना? कठिनाइयों की सबसे आसान, सबसे सीधी व्याख्या यह है कि वे ऐसी समस्याएँ हैं जो वास्तव में मौजूद हैं। मिसाल के तौर पर, किसी व्यक्ति की काबिलियत, व्यावसायिक कौशल, शारीरिक बीमारियाँ, साथ ही परिवेशीय और सामायिक मुद्दे, वगैरह, वास्तव में मौजूद इन समस्याओं को कठिनाइयाँ कहते हैं। लेकिन, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आठवीं जिम्मेदारी जिसके बारे में हम अब संगति कर रहे हैं, वह यह है कि उन्हें काम के दौरान आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देनी चाहिए और उन्हें हल करने का तरीका खोजना चाहिए। यहाँ, जिन कठिनाइयों का जिक्र किया गया है, वे व्यापक रूप से परिभाषित, वास्तव में मौजूद समस्याएँ नहीं हैं, बल्कि कामकार्य के दौरान आने वाली खास तौर से पेचीदा समस्याएँ हैं जिन्हें संभाला नहीं जा सकता है। ये किस किस्म की समस्याएँ हैं? ये बाहरी मामले हैं जो सत्य सिद्धांतों से खास तौर से संबंधित नहीं हैं। वैसे तो इन मुद्दों का संबंध सत्य सिद्धांतों से नहीं है, लेकिन ये आम समस्याओं से ज्यादा पेचीदा हैं। ये कैसे पेचीदा हैं? मिसाल के तौर पर, इनका संबंध कानूनी और सरकारी विनियमों से है, या ये कलीसिया में कुछ लोगों की सुरक्षा के बारे में है, इत्यादि। ये सभी वही कठिनाइयाँ हैं जिनका सामना अगुआ और कार्यकर्ता अपने कार्य में करते हैं। मिसाल के तौर पर, विदेशों में, चाहे व्यक्ति किसी भी देश में रहता हो, परमेश्वर में विश्वास रखने में भाई-बहनों को तमाम कलीसियाई कार्य और रहने के परिवेशों में स्थानीय सरकारी विनियमों का अनुपालन करना चाहिए और उन्हें स्थानीय कानूनों और नीतियों की समझ होनी चाहिए। ये मामले बाहरी दुनिया से बातचीत करने और बाहरी मामलों से निपटने से संबंधित हैं; ये कलीसियाई कार्मिकों के अंदरूनी मुद्दों की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा जटिल हैं। यह जटिलता किसमें है? यह बस कलीसिया में लोगों को परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, आज्ञाकारी होने, सत्य का अभ्यास करने, निष्ठा से कर्तव्य करने और सत्य समझने और सिद्धांतों के अनुसार मामले संभालने के लिए कहने जितना आसान नहीं है—खाली ये बातें कह देने से समस्याएँ नहीं सुलझेंगी। इसके बजाय, इसके लिए दूसरी चीजों के साथ-साथ, देश के कानूनों, नीतियों और विनियमों और स्थानीय रीति-रिवाजों और प्रथाओं के हर पहलू की भी समझ होनी चाहिए। ये बाहरी मामले कई कारकों से संबंधित हैं, और अप्रत्याशित मुद्दों या ऐसे मुद्दों का उठना आम है जिनका कलीसिया के सिद्धांतों का उपयोग करके समाधान करना मुश्किल होता है, और इन मुद्दों के उभरने से कठिनाइयाँ पैदा होती हैं। मिसाल के तौर पर, कलीसिया के आंतरिक मामलों में, अगर कुछ लोग अपने कर्तव्य लापरवाह तरीके से करते हैं तो इन मुद्दों को सत्य की संगति करके, काट-छाँट करके, या मदद और समर्थन प्रदान करके सुलझाया जा सकता है। लेकिन बाहरी मामलों में, क्या तुम इन सिद्धांतों और तरीकों का उपयोग मामलों को संभालने के लिए कर सकते हो? क्या यह दृष्टिकोण ऐसी समस्याओं को सुलझा सकता है? (नहीं।) तो फिर क्या करना चाहिए? ऐसे मुद्दों को संभालने और उनका प्रत्युत्तर देने के लिए कुछ बुद्धिमानी भरे तरीकों का उपयोग करना चाहिए। इन बाहरी मामलों से निपटने की प्रक्रिया में, परमेश्वर के घर ने भी कुछ सिद्धांत निर्दिष्ट किए हैं, लेकिन चाहे इन्हें किसी भी तरीके से क्यों ना समझाया जाए, सभी किस्म की कठिनाइयाँ फिर भी अक्सर उत्पन्न होती रहती हैं। क्योंकि यह दुनिया, यह समाज और यह मानवजाति बहुत ही अस्पष्ट और बहुत ही जटिल है, और बड़े लाल अजगर की बुरी शक्तियों के व्यवधान के कारण, इन बाहरी मामलों से निपटते समय, कुछ अप्रत्याशित और अतिरिक्त कठिनाइयाँ आएँगी। जब ये कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, तब अगर तुम लोगों को सिर्फ एक सरल सिद्धांत दिया जाए, जो कहता है, “बस परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करो; सब कुछ परमेश्वर द्वारा आयोजित है, बस समस्या को अनदेखा कर दो,” तो क्या इससे समस्या सुलझ सकती है? (नहीं।) अगर यह समस्या नहीं सुलझ सकती है, तो जिस परिवेश में भाई-बहन अपने कर्तव्य करते हैं, वह और उनके जीवनयापन का परिवेश, अशांत, परेशान और खराब हो जाता है। क्या इससे कठिनाइयाँ उत्पन्न नहीं होती हैं? तो फिर क्या करना चाहिए? क्या आवेगशीलता से इसका समाधान किया जा सकता है? जाहिर है नहीं। कुछ लोग कहते हैं, “तो फिर क्या हम इसे कानूनी साधनों से सुलझा सकते हैं?” कई चीजें कानून द्वारा नहीं सुलझाई जा सकती हैं। मिसाल के तौर पर, जिन जगहों पर बड़ा लाल अजगर टाँग अड़ाता है और बाधा डालता है, क्या वहाँ कानून मुद्दों को सुलझा सकता है? वहाँ कानून का कोई प्रभाव नहीं होता है। कई जगहों पर, मानव शक्ति अक्सर कानून से बढ़कर होती है, इसलिए कानून पर भरोसा करके समस्याएँ सुलझाने की अपेक्षा मत करो। इन्हें सुलझाने के लिए मानवीय तरीकों या आवेगशीलता का उपयोग करना भी उचित नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को क्या करना चाहिए? क्या जो लोग सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को लगातार बड़बड़ाना जानते हैं, वे इन समस्याओं के उत्पन्न होने पर उन्हें सुलझा सकते हैं? क्या ये खास तौर से पेचीदा मुद्दे नहीं हैं? क्या तुम्हें लगता है कि उन्हें सुलझाने के लिए वकील नियुक्त करने और न्यायलय जाने से काम बन जाएगा? क्या वे लोग सत्य समझते हैं? इस दुनिया में तर्क के लिए कोई जगह नहीं है; यहाँ तक कि एक कानूनवादी देश में भी न्यायाधीश हमेशा कानून के अनुसार कार्य नहीं करते हैं, बल्कि वे अपने फैसलों को इस आधार पर समायोजित करते हैं कि इसमें कौन शामिल है, जिसमें निष्पक्षता नहीं होती है। इस दुनिया में, हर जगह लोग अपनी बात को मजबूत करने के लिए प्रभाव पर, शक्ति पर भरोसा करते हैं। तो, हम लोग जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उन्हें किस पर भरोसा करना चाहिए? हमें परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य के अनुसार लोगों के साथ व्यवहार करना चाहिए और मामलों को संभालना चाहिए। लेकिन अगर हम परमेश्वर के वचनों और सत्य पर भरोसा करें, तो क्या दुनिया में हमारे लिए सब कुछ सुचारू रूप से आगे बढ़ सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है; इसके लिए बुद्धिमानी की जरूरत है। इसलिए, जब अगुआ और कार्यकर्ता ऐसे मुद्दों का सामना करते हैं, तब अगर उन्हें लगता है कि मामला बहुत ही महत्वपूर्ण है और वे डरते हैं कि कहीं वे इसे अनुचित तरीके से ना संभाल लें और इस तरह से परमेश्वर के घर में मुसीबत ना ले आएँ, जिसके अवांछनीय प्रभाव या परिणाम हों, तो ऐसे मुद्दे उनके लिए कठिनाइयाँ हैं। जब वे उन कठिनाइयों का सामना करते हैं जिन्हें वे सुलझा नहीं पाते हैं, तो उन्हें तुरंत ऊपरवाले को मुद्दों की सूचना देनी चाहिए और उन्हें सुलझाने का तरीका खोजना चाहिए; अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही करना चाहिए।
ख. कठिनाइयों का सामना करते समय वे सही दृष्टिकोण और रवैये जो व्यक्ति में होने चाहिए
मुझे यहाँ तुम लोगों को जो समझाने की जरूरत है, वह ना सिर्फ अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए, बल्कि यहाँ मौजूद सभी लोगों के लिए भी सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है। तुम लोग चाहे कहीं भी कलीसिया का कार्य कर रहे हो, अपने कर्तव्य कर रहे हो या सुसमाचार का प्रचार कर रहे हो, अनिश्चितता भरी कठिनाइयाँ हमेशा बनी रहेंगी। यहाँ तक कि परमेश्वर का अपना कार्य भी कठिनाइयों से भरा हुआ है—क्या तुम सभी ने यह सच्चाई देखी है? वैसे तो हो सकता है कि तुम सभी बारीकियों को नहीं जानते हो या उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं समझते हो, लेकिन तुम सभी को व्यापक परिस्थितियों के बारे में पता है। परमेश्वर का सुसमाचार फैलाना कोई आसान कार्य नहीं है, और तुम सभी को इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए और इसे पहचानना चाहिए। यह स्थापित तथ्य यहाँ प्रदर्शित किया गया है, इसलिए इन मामलों के प्रति हमें कौन-सा रवैया अपनाना चाहिए जो सबसे उचित, सबसे तर्कसंगत और सबसे सही हो? क्या अंदर से बुजदिल और भयभीत होना सही है? (नहीं।) चूँकि बुजदिल और भयभीत होना सही नहीं है, तो क्या यह रवैया और नजरिया रखना सही है कि तुम ना तो स्वर्ग से डरते हो और ना ही धरती से, तुम पूरी दुनिया के विरोधी हो, पूरी दुनिया का अंत तक प्रतिरोध करते हो और धारा के विपरीत चलते हो? (नहीं।) क्या यह सामान्य मानवता की तार्किकता है या आवेगशीलता है? ये सभी गलत नजरिये सच्ची आस्था के नहीं, बल्कि आवेगशीलता के प्रतिबिंब हैं। तो फिर किस तरह के नजरिये और रवैये सही हैं? आओ, मैं तुम लोगों के लिए कुछ नजरिये और रवैये सूचीबद्ध करता हूँ। यह पहला नजरिया है जो लोगों को अपनाना चाहिए : चाहे विदेश में हो या चीन में, पूरे दिल से खुद को परमेश्वर के लिए खपाना और अपने कर्तव्य करना प्राचीन काल से लेकर आज के समय तक संपूर्ण मानवजाति में सबसे न्यायसंगत उद्देश्य है। हमारा कर्तव्य करना खुला और ईमानदार कार्य है, गुप्त नहीं है, क्योंकि हम अभी जो कर रहे हैं वह मानवजाति में सबसे न्यायसंगत उद्देश्य है। यह “न्यायसंगत” शब्द किस बारे में है? यह सत्य के बारे में, परमेश्वर की इच्छा के बारे में, सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं और आदेशों के बारे में है; यह मानवीय नैतिकता, आचार-विचार और कानूनों से पूरी तरह से श्रेष्ठ है, और यह सृष्टिकर्ता की अगुवाई और देखभाल के अंतर्गत पूरा किया जाने वाला उद्देश्य है। क्या यह सबसे सही नजरिया नहीं है? पहली बात, यह नजरिया एक सही मायने में विद्यमान तथ्य है; दूसरी बात, यह किसी व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले कर्तव्य की सबसे सही पहचान भी है। दूसरा नजरिया जो लोगों को अपनाना चाहिए, वह यह है : परमेश्वर सभी चीजों और सभी घटनाओं पर संप्रभु है। दुनिया के शासक और दुनिया की हर शक्ति, धर्म, संगठन और जातीयता सहित हर चीज परमेश्वर के हाथ द्वारा शासित और नियंत्रित है—किसी की भी नियति स्वयं के द्वारा नियंत्रित नहीं है। हम कोई अपवाद नहीं हैं; हमारी नियतियाँ परमेश्वर के हाथ द्वारा शासित और नियंत्रित हैं, और कोई भी इसकी दिशा नहीं बदल सकता है कि हम कहाँ जाते हैं और कहाँ रहते हैं, और ना ही कोई हमारा भविष्य और गंतव्य बदल सकता है। ठीक जैसा बाइबल कहती है, “राजा का मन नालियों के जल के समान यहोवा के हाथ में रहता है, जिधर वह चाहता उधर उसको मोड़ देता है” (नीतिवचन 21:1)। हम तुच्छ मनुष्यों की नियतियों के लिए तो ऐसा और भी ज्यादा है! हम जिस देश में रहते हैं, उसके शासक का शासन और व्यवस्था, साथ ही इस देश में जीवनयापन का परिवेश, चाहे वह हमारे प्रति डरावना हो, शत्रुतापूर्ण हो या मित्रवत हो—यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, और हमें किसी बात की चिंता करने या परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। यही वह नजरिया है जो लोगों को अपनाना चाहिए और यही वह जागरूकता है जो उनमें होनी चाहिए, साथ ही यही वह सत्य है जो उनके पास होना चाहिए और उन्हें समझना चाहिए। और तीसरा नजरिया जो यकीनन सबसे महत्वपूर्ण भी है, वह है : हम चाहे कहीं भी, किसी भी देश में रहते हों, और हमारी क्षमताएँ या काबिलियत चाहे कैसी भी हो, हम तुच्छ सृजित प्राणियों के समूह का एक हिस्सा मात्र हैं। हमें जो एकमात्र जिम्मेदारी और कर्तव्य पूरा करना चाहिए, वह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण करना है; इसके अलावा और कुछ भी नहीं है, यह इतना ही आसान है। भले ही फिलहाल हम एक स्वतंत्र देश और एक स्वतंत्र परिवेश में हैं, लेकिन अगर एक दिन परमेश्वर हमें कष्ट देने और नुकसान पहुँचाने के लिए एक शत्रुतापूर्ण शक्ति खड़ी कर देता है, तो हमें बिल्कुल शिकायत नहीं होनी चाहिए। हमें शिकायत क्यों नहीं होनी चाहिए? क्योंकि हम लंबे समय से तैयार हैं; हमारा दायित्व, जिम्मेदारी और कर्तव्य परमेश्वर के सभी कार्यों के प्रति, परमेश्वर द्वारा आयोजित हर चीज के प्रति समर्पण करना है। क्या यह समर्पण ही सत्य है? क्या यही वह रवैया है जो लोगों में होना चाहिए? (हाँ।) अगर एक दिन, पूरी मानवजाति और पूरा परिवेश हमारे खिलाफ हो जाता है और हम मौत का सामना करते हैं, तो क्या हमें शिकायत होनी चाहिए? (हमें नहीं होनी चाहिए।) कुछ लोग कहते हैं, “क्या परमेश्वर ने हमें विदेश इसलिए नहीं भेजा कि हमें शैतान का क्रूर अत्याचार और ना सहना पड़े? क्या यह इसलिए नहीं था कि हम आजादी से अपने कर्तव्य कर सकें और आजादी की हवा में साँस ले सकें? तो परमेश्वर फिर भी क्यों चाहता है कि हम मौत का सामना करें?” ये शब्द सही नहीं हैं। परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना एक रवैया है, वही रवैया जो लोगों को परमेश्वर के प्रति, परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति रखना चाहिए। यह वही रवैया है जो एक सृजित प्राणी के पास होना चाहिए।
एक और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है जिसे लोगों को समझना चाहिए : वैसे तो विदेश में चीजें अपेक्षाकृत स्थिर और स्वतंत्र हैं, फिर भी बड़े लाल अजगर द्वारा बार-बार परेशान किए जाने से बचना मुश्किल होता है। बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न का सामना करने पर कुछ लोगों को चिंता होती है : “बड़े लाल अजगर की ताकत बहुत ही ज्यादा है। वह दुनिया भर के महत्वपूर्ण व्यक्तियों को अपने लिए सेवा करने, अपनी तरफ से कार्य करने के लिए पैसे दे सकता है। इसलिए, भले ही हम भागकर विदेश चले जाएँ, हम तब भी खतरे में ही होंगे, हम पर तब भी संकट मंडरा रहा होगा! हम क्या कर सकते हैं?” हर बार जब ये खबरें सुनाई पड़ती हैं, तो कुछ लोग चिंतित और भयभीत हो जाते हैं, वे समझौता करना चाहते हैं, भाग जाना चाहते हैं, उन्हें नहीं पता होता है कि उन्हें कहाँ छिपना चाहिए। जब भी ऐसा होता है तो कुछ लोग सोचते हैं, “दुनिया इतनी बड़ी है, फिर भी मेरे लिए कोई जगह नहीं है! मैं बड़े लाल अजगर की ताकत के तले उसका अत्याचार सहता हूँ और उसके अधिकार के दायरे से बाहर भी, क्या कारण है कि मैं अब भी उससे परेशान हूँ? बड़े लाल अजगर की ताकत बहुत ही ज्यादा है; अगर मैं भागकर धरती के अंतिम छोर तक भी पहुँच जाता हूँ तो भी क्या कारण है कि वह मुझे ढूँढ ही लेता है?” लोग आतंकित हो जाते हैं और उन्हें समझ नहीं आता कि वे क्या करें। क्या यह आस्था होने की अभिव्यक्ति है? यहाँ क्या समस्या है? (परमेश्वर में आस्था की कमी है।) क्या यह सिर्फ परमेश्वर में आस्था की कमी है? क्या तुम लोगों को अपने दिल की गहराई में यह महसूस होता है कि तुम दूसरों से कमतर हो? क्या सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने और कलीसिया में अपना कर्तव्य करने में तुम चोर की तरह थोड़ी गोपनीयता महसूस करते हो? क्या तुम खुद को धार्मिक दुनिया के लोगों से कुछ हद तक हीन महसूस करते हो? “उनकी ताकत देखो; उनके पास आधिकारिक पादरी और राज्य से मान्यता प्राप्त भव्य गिरजाघर हैं, कितनी शान शौकत है! उनके पास विभिन्न देशों में गायक मंडलियाँ और उद्यम हैं। लेकिन हमें देखो, हम जहाँ भी जाते हैं, वहीं हमेशा डराए-धमकाए जाते हैं, बहिष्कार का सामना करते हैं—हम उनसे अलग क्यों हैं? हम जहाँ भी जाते हैं, वहाँ इसके बारे में खुलेआम बात क्यों नहीं कर सकते हैं? हमें इतने दयनीय ढंग से क्यों जीना पड़ता है? खास तौर से, ऑनलाइन इतना सारा नकारात्मक प्रचार किया जाता है। इसे दूसरी कलीसियाओं को क्यों नहीं सहना पड़ता है, हमें ही हमेशा ये सब क्यों सहना पड़ता है? परमेश्वर में विश्वास रखने वाले दूसरे लोग जहाँ भी जाते हैं, वहीं ईसाई धर्म में अपनी आस्था का खुलेआम प्रचार करते हैं, लेकिन हम लोग जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं करते हैं, डरते हैं कि बुरे लोग हमारी रिपोर्ट कर देंगे और फिर हमें गिरफ्तार कर लिया जाएगा।” हाल ही में, मैंने सुना कि सरकारी अधिकारी होने का दावा करने वाले एक व्यक्ति ने कुछ भाई-बहनों से कुछ प्रश्न पूछे। जब उन्होंने देखा कि एक अधिकारी उनसे पूछताछ कर रहा है, तो वे डर गए और उन्हें जो कुछ भी मालूम था, उन्होंने वह सब कुछ उसे बता दिया, उनसे जो भी पूछा गया उन्होंने उसका उत्तर दे दिया। उनके इस तरह से व्यवहार करने में क्या समस्या थी? तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो—तुम्हें अधिकारियों से क्यों डरना चाहिए? अगर तुमने कोई गैर-कानूनी चीज नहीं की है, तो डरने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारे पास सत्य है तो राक्षसों और शैतान से क्यों डरना? क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास रखना सही तरीका नहीं है? क्या तुम्हें लगता है कि तुमने कोई गैर-कानूनी चीज की है? फिर तुम किसी अधिकारी से क्यों डरते हो? क्या ऐसे लोग मूर्ख और अज्ञानी नहीं हैं? मुख्य भूमि में कुछ लोगों को बड़े पैमाने पर चुन चुनकर तलाशे जाने और सताए जाने का कष्ट सहना पड़ा; विदेश आने के बाद, क्या वे परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में ग्लानि महसूस करते हैं? क्या वे बड़े लाल अजगर के अत्याचार से अपमानित महसूस करते हैं? क्या वे अपने पूर्वजों का सामना करने में शर्मिंदगी और कलंकित महसूस करते हैं क्योंकि उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य करने की वजह से विदेश भाग जाने के लिए मजबूर किया गया है? क्या वे शैतानी शासन और धार्मिक समुदाय को परमेश्वर और कलीसिया के साथ विरोधी के रूप में व्यवहार करते हुए देखते हैं और खुद को हीन महसूस करते हैं, जो शायद उन्हें कोई अपराध करने से भी ज्यादा शर्मनाक लगता है? क्या तुम लोगों में ये भावनाएँ हैं? (नहीं।) तुम लोग ऊपरी तौर पर अपना सिर हिला सकते हो, इन विचारों और भावनाओं पर विचार नहीं करना चाहते हो, लेकिन जब व्यक्ति वास्तविक परिस्थितियों का सामना करता है तो उसकी मानसिकता, उसके व्यवहार और वह जो अचेतन क्रियाकलाप करता है, वे अनिवार्य रूप से उसके दिल के सबसे गहरे, सबसे छिपे हुए पहलुओं को उजागर कर देते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? अगर तुम्हारे मन में ये चीजें नहीं हैं, तो तुम क्यों भयभीत हो? क्या वह व्यक्ति जिसने कानून नहीं तोड़ा है पुलिस से डरता है? क्या वह न्यायाधीश से डरता है? नहीं। सिर्फ वही लोग पुलिस से सबसे ज्यादा डरते हैं जिन्होंने कानून तोड़ा है, और सिर्फ चीनी लोग, जो पुलिस द्वारा दमन किए जाने के आदी हो चुके हैं, उससे सबसे ज्यादा डरते हैं क्योंकि सीसीपी पुलिस अराजक है और वह जो चाहे करती है। इसलिए, जब चीनी लोग पहली बार विदेश पहुँचते हैं तो महज पुलिस को देखते ही डरने लगते हैं। यह बड़े लाल अजगर के शासन से डरने का परिणाम है, यह ऐसी चीज है जो उनके अवचेतन में प्रकट होती है। पश्चिमी देशों में, तुम्हारा रुतबा वैध है, तुम्हारे पास निवास के अधिकार हैं, तुमने किसी भी कानून का उल्लंघन नहीं किया है और ना ही तुमने सरकार पर आक्रमण किया है और तुमने कोई अपराध नहीं किया है। तुम्हारी आस्था धार्मिक समुदाय में चाहे कितना भी विवाद क्यों ना खड़ा करे, एक सच्चाई तो निश्चित है : तुम्हारी आस्था कानूनी रूप से सुरक्षित है, यह वैध और स्वतंत्र है, और यह तुम्हारा वाजिब मानवाधिकार है। तुमने किसी भी कानून का उल्लंघन नहीं किया है, इसलिए अगर कोई व्यक्ति पुलिस अधिकारी होने का दावा करता है और तुमसे पूछता है, “क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो? मुझे अपना पहचान पत्र दिखाओ! तुम कहाँ से हो? तुम्हारी क्या आयु है? तुम कितने वर्षों से विश्वासी हो? तुम कहाँ रहते हो? मुझे अपना पता बताओ!” तुम कैसे उत्तर दोगे? पहले प्रश्न, “क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो?” का तुम कैसे उत्तर दोगे? (हाँ कहकर।) तुम लोग “हाँ” क्यों कहोगे? क्या यह सच्चाई पर आधारित है? या एक नागरिक के नाते यह तुम्हारी जिम्मेदारी है कि पूछे जाने पर तुम्हें “हाँ” ही कहना चाहिए? या क्या परमेश्वर ने तुम्हें “हाँ” कहने का निर्देश दिया है? तुम लोगों का आधार क्या है? दूसरी चीज जो उसने पूछी, “मुझे अपना पहचान पत्र दिखाओ!”, क्या तुम लोग इसे दिखाओगे? (नहीं।) और तीसरा प्रश्न : “तुम कहाँ रहते हो? अपना पता लिखकर दो।” क्या तुम इसे लिखकर दोगे? (नहीं।) चौथा प्रश्न : “तुमने कितने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रख रहे हो? इस आस्था से तुम्हें किसने परिचित कराया? तुम क्यों विश्वास करते हो? तुम कितने वर्षों से विदेश में हो?” क्या तुम इनके उत्तर दोगे? (नहीं।) पाँचवा प्रश्न : “तुम यहाँ कौन-सा कर्तव्य कर रहे हो? तुम्हारा अगुआ कौन है?” क्या तुम इसका उत्तर दोगे? (नहीं।) क्यों नहीं? (मैं उन्हें बताने के लिए बाध्य नहीं हूँ।) फिर पहले प्रश्न पर लौटते हैं : अगर तुमसे पूछा जाता है कि क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम सभी ने एकमत होकर कहा कि तुम “हाँ” में उत्तर दोगे। क्या इस तरह से उत्तर देना सही है? (नहीं।) यह गलत क्यों है? (क्योंकि आस्था एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता है। पुलिस को दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए, मुझे उन्हें नहीं बताने का अधिकार है।) तो फिर तुम उन्हें यह बात क्यों नहीं बताओगे? (क्योंकि पहले मुझे यह स्पष्ट करना होगा कि वे मुझसे क्यों पूछताछ कर रहे हैं, वे किस हैसियत से ऐसा कर रहे हैं, और उनकी पूछताछ वैध है या नहीं। अगर उनका उद्देश्य और उनकी पहचान अस्पष्ट हैं, तो मैं उनके प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हूँ।) यह कथन सही है। शुरू में, तुम सभी ने कहा कि तुम “हाँ” में उत्तर दोगे, लेकिन जैसे-जैसे मैं पूछता गया, तुम लोगों को लगने लगा कि कुछ गड़बड़ है, यह महसूस होने लगा कि तुम्हारा उत्तर गलत था। क्या तुम लोगों ने पहचान लिया कि समस्या कहाँ है? इस मामले में, तुम लोगों के पास यह समझ होनी चाहिए : हमने परमेश्वर में विश्वास रखकर किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया है, हम अपराधी नहीं हैं, हमारे पास अपने मानवाधिकार और स्वतंत्रता है। यूँ ही कोई भी व्यक्ति अपनी मर्जी से हमसे पूछताछ या प्रश्न नहीं कर सकता है। यह मामला ऐसा नहीं है कि जो कोई भी हमसे प्रश्न पूछता है, हमें सच्चाई से उत्तर देना चाहिए; हम ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं हैं। क्या ये शब्द सही हैं? (हाँ।) किसी के लिए भी, चाहे वह कोई भी हो, हमसे मनमाने ढंग से पूछताछ करना अवैध है; हमें कानून समझना चाहिए और अपनी रक्षा करने के लिए इसका उपयोग करने का तरीका सीखना चाहिए। यही वह बुद्धिमानी है जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों के पास होनी चाहिए। तो, अगर भविष्य में तुम्हारे सामने ऐसी स्थिति आती है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? अगर कोई तुमसे पूछता है कि क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम कैसे उत्तर दोगे, तुम इसे कैसे संभालोगे? पहली बात जो तुम्हें कहनी है, वह यह है, “तुम कौन हो? तुम किस अधिकार से मुझसे यह पूछ रहे हो? क्या मैं तुम्हें जानता हूँ?” अगर वह कहता है कि वह किसी सरकारी संस्था का कर्मचारी है, तो तुम्हें उससे उसका परिचय पत्र दिखाने के लिए कहना चाहिए। अगर वह अपना परिचय पत्र नहीं दिखाता है, तो तुम्हें कहना है, “तुममें मुझसे बात करने की योग्यता नहीं है, और मैं तुम्हें उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हूँ। यहाँ कई सरकारी कर्मचारी हैं; क्या मुझे उन सभी को उत्तर देना चाहिए? सरकार ने कुछ कार्य संभालने के लिए लोग नियुक्त किए हैं—क्या तुम वाकई इस मामले के प्रभारी हो? अगर तुम हो भी, तो मैंने कानून नहीं तोड़ा है, फिर मैं तुम्हें उत्तर क्यों दूँ? मैं तुम्हें सब कुछ क्यों बताऊँ? अगर तुम्हें लगता है कि मैंने कुछ गलत किया है और कानून तोड़ा है, तो तुम सबूत पेश कर सकते हो। लेकिन अगर तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे किसी भी प्रश्न का उत्तर दूँ तो जाकर मेरे वकील से बात करो। मैं तुम्हें उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हूँ, और तुम्हें पूछने का अधिकार नहीं है!” उत्तर देने का यह तरीका कैसा है? क्या यह गरिमा प्रकट करता है? (हाँ।) तो फिर तुम लोगों के उत्तर ने क्या दर्शाया? क्या उसने गरिमा प्रकट की? (नहीं।) तुम लोगों के तरीके से उत्तर देना कानून की अज्ञानता दर्शाता है। दूसरे तुमसे जो भी पूछते हैं, तुम बस उसका उत्तर दे देते हो, और अंत में क्या होता है? तुम यहूदा बन जाते हो। तुम लोग लापरवाही से उत्तर दे सकते हो, और इसका एक कारण यह है : बड़े लाल अजगर के देश में लोगों को यह सोचने के लिए शिक्षित और गुमराह किया जाता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले अज्ञानी, निम्न-वर्ग के लोग होते हैं, और राज्य द्वारा सताए जाते हैं, इस देश में उन्हें मानवाधिकारों या गरिमा के बिना जीवन जीना चाहिए; इस तरह, विश्वासी खुद को एक निम्न रुतबे की ओर धकेल देते हैं। पश्चिमी देशों में आने के बाद, उन्हें ये चीजें समझ नहीं आती हैं, जैसे कि मानवाधिकार क्या होते हैं, गरिमा क्या होती है या एक नागरिक के क्या दायित्व होते हैं। इसलिए, जब कोई पूछता है कि क्या तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम डर के मारे हड़बड़ाकर इसे स्वीकार कर लेते हो, जो कुछ भी तुम्हें पता होता है वह सब कुछ उसे बता देते हो और बिल्कुल भी आध्यात्मिक कद नहीं दिखाते हो। यह सब किसके कारण हुआ? यह बड़े लाल अजगर की शिक्षा और शासन के कारण हुआ। मुख्य भूमि में हर व्यक्ति के अवचेतन की गहराई में यह विचार है कि एक बार जब तुम परमेश्वर में विश्वास रख लेते हो तो इस समाज में, मानवजाति में तुम्हारा रुतबा निम्नतम हो जाता है; समाज और मानवजाति से तुम्हारा संबंध टूट जाता है। इस तरह, इन लोगों में गरिमा, मानवाधिकार और अपनी रक्षा करने की जागरूकता की कमी है; वे मूर्ख, अज्ञानी हैं और उनमें अंतर्दृष्टि नहीं है, वे दूसरों को जब चाहे तब उन्हें डराने-धमकाने और उनके साथ हेरफेर करने की अनुमति देते हैं। यही तुम लोगों की मानसिकता है। परमेश्वर की अपनी गवाही में अडिग रहने के बजाय, तुम किसी भी पल उससे विश्वासघात कर देते हो, किसी भी पल यहूदा बन जाते हो। तो, तुम गरिमा के साथ कार्य कैसे कर सकते हो? तुम्हें किसी ऐसे अजनबी का सामना कैसे करना चाहिए जो तुमसे प्रश्न पूछता है? सबसे पहले, यह पूछो कि वह कौन है, फिर उससे उसका परिचय पत्र दिखाने के लिए कहो। यही उचित कानूनी प्रक्रिया है। पश्चिमी देशों में, पुलिस या दूसरे सरकारी कर्मचारी, जब सरकार की तरफ से कार्य करने वाले प्रतिनिधियों के रूप में आम जनता से बातचीत करते हैं, तो वे हमेशा पहले अपना परिचय पत्र पेश करते हैं। उनके परिचय पत्र के आधार पर उनकी पहचान सत्यापित कर लेने के बाद, तुम यह तय करते हो कि उनके प्रश्नों के उत्तर कैसे देने हैं या तुमसे उनकी जो माँगें हैं उनसे कैसे निपटना है। निश्चित रूप से, इस मामले में, यकीनन तुम्हारे पास विकल्प चुनने की गुंजाइश है, तुम्हारे पास पूरी तरह से स्वायत्तता है, तुम कठपुतली नहीं हो। वैसे तो तुम चीनी व्यक्ति हो और सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया के सदस्य हो, लेकिन तुम जिस देश में रहते हो उसके वैध और मान्यता प्राप्त सदस्य भी हो। यह मत भूलो कि तुम्हारे पास स्वायत्तता है; तुम किसी देश के गुलाम या कैदी नहीं हो, तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो इस देश के कानूनों, मानवाधिकारों और व्यास्थाओं का लाभ उठा सकता है।
मेरे द्वारा संगति की गई सामग्री के आधार पर, तुम्हें आकस्मिक परिवेशों और अप्रत्याशित घटनाओं का सामना कैसे करना चाहिए? हमें इसी चौथे बिंदु—दब्बू मत बनो—पर संगति करनी है। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या दब्बू नहीं बनने का अर्थ बस बेवकूफी भरे दबंग तरीके से कार्य करना नहीं है?” नहीं, दब्बू नहीं होने का अर्थ है किसी ताकत से नहीं डरना क्योंकि हम अपराधी नहीं हैं, हम गुलाम नहीं हैं; हम परमेश्वर के चुने हुए गरिमापूर्ण लोग हैं, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन गरिमापूर्ण सृजित मनुष्य हैं। इस मामले में तुम्हारे दृष्टिकोण में, सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दब्बू मत बनो; साथ ही, सक्रियता से अपना कर्तव्य करते रहो और उस परिवेश की रक्षा करो जिसमें तुम अपना कर्तव्य करते हो, और विभिन्न परिवेशों, और विभिन्न ताकतें जो हमें निशाना बनाती हैं उनके कथनों, क्रियाकलापों और दूसरी चीजों का भी अग्रसक्रिय रवैये से सामना करो। सक्रियता से उनका सामना करना और दब्बू नहीं बनना—तुम इस रवैये के बारे में क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) इस तरह से जीना गरिमापूर्ण है, एक व्यक्ति की तरह; यह सिर्फ जैसे-तैसे गुजारा करने के लिए तुच्छ जीवन जीना नहीं है। हम अपना कर्तव्य करने के लिए विदेश आते हैं, अपना पेट भरने या जैसे-तैसे निर्वाह करने के लिए नहीं; हमने कोई कानून नहीं तोड़ा है, किसी देश के लिए परेशानी उत्पन्न नहीं की है, और हम यकीनन किसी देश के गुलाम नहीं हैं। हम परमेश्वर के घर के भीतर सृजित प्राणियों का कर्तव्य कर रहे हैं; हम अपना भरण-पोषण खुद करते हैं, दूसरों पर निर्भर नहीं रहते हैं; यह पूरी तरह से कानूनी है।
हमने अभी-अभी जिन चार बिंदुओं पर चर्चा की, उनमें से हर बिंदु बेहद जरूरी है। पहला बिंदु क्या था? (चाहे विदेश में हो या चीन में, पूरे दिल से खुद को परमेश्वर के लिए खपाना और अपने कर्तव्य करना प्राचीन काल से लेकर आज के समय तक संपूर्ण मानवजाति में सबसे न्यायसंगत उद्देश्य है। हमारा कर्तव्य करना खुला और ईमानदार कार्य है, गुप्त नहीं है, क्योंकि हम अभी जो कर रहे हैं वह मानवजाति में सबसे न्यायसंगत उद्देश्य है।) और दूसरा? (परमेश्वर सभी चीजों और सभी घटनाओं पर संप्रभु है। दुनिया के शासक और दुनिया की हर शक्ति सहित हर चीज परमेश्वर के हाथ द्वारा शासित और नियंत्रित है—किसी की भी नियति स्वयं के द्वारा नियंत्रित नहीं है। हम कोई अपवाद नहीं हैं; हमारी नियतियाँ परमेश्वर के हाथ द्वारा शासित और नियंत्रित हैं, और कोई भी इसकी दिशा नहीं बदल सकता है कि हम कहाँ जाते हैं और कहाँ रहते हैं। हम जिस देश में रहते हैं, उसके शासक का शासन और व्यवस्था कैसी हैं, इस देश में जीवनयापन का परिवेश कैसा है, और क्या वह हमारे प्रति भयंकर है, शत्रुतापूर्ण है या मित्रवत है—यह सबकुछ परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, और हमें किसी बात की चिंता करने या उसके बारे में परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है।) तीसरा बिंदु? (हम चाहे कहीं भी हों और हमारी क्षमताएँ या काबिलियत चाहे कैसी भी हो, हम तुच्छ सृजित प्राणियों के समूह का एक हिस्सा मात्र हैं। हमें जो एकमात्र जिम्मेदारी और कर्तव्य पूरा करना चाहिए, वह सृष्टिकर्ता की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण करना है। भले ही फिलहाल हम एक स्वतंत्र देश में हैं, लेकिन अगर एक दिन परमेश्वर हमें सताने और नुकसान पहुँचाने के लिए एक शत्रुतापूर्ण शक्ति खड़ी कर देता है, तो हमें बिल्कुल शिकायत नहीं होनी चाहिए। वह इसलिए क्योंकि हमारा दायित्व, जिम्मेदारी, और कर्तव्य परमेश्वर के सभी कार्यों के प्रति, परमेश्वर द्वारा आयोजित हर चीज के प्रति समर्पण करना है।) चौथा बिंदु है बिना दब्बूपन के सभी बाहरी लोगों, घटनाओं और चीजों का सक्रिय रूप से सामना करना। ये चार बिंदु वही रवैये और समझ हैं जो अपना कर्तव्य करने वाले हर व्यक्ति में होनी चाहिए, और ये वही सत्य भी हैं जिन्हें कर्तव्य करने वाले हर व्यक्ति को समझना चाहिए। वैसे तो ये चार बिंदु आज संगति की जाने वाली अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आठवीं जिम्मेदारी से बहुत ज्यादा संबंधित नहीं हैं, लेकिन चूँकि हम कार्य में आने वाली कठिनाइयों के बारे में बात कर रहे हैं, हमें इन मामलों का जिक्र करने की जरूरत है; यह बेवजह नहीं है।
ग. कठिनाइयों का सामना करते समय वे सिद्धांत जिनका अभ्यास अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए
कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बाहरी मामलों में, संभालने में बहुत कठिन मुद्दों का सामना करते हैं और अंत में घबड़ा जाते हैं, समस्या की जड़ को पहचान नहीं पाते हैं, और ना ही यह जानते हैं कि इससे किस तरीके से निपटना है। वे बस इसे नजरअंदाज कर देते हैं जिससे मामले में देरी हो जाती है। यह क्या समस्या है? यह झूठे अगुआओं का कार्य करने में असमर्थ होना और सिर्फ देरी करवाना है। झूठे अगुआओं में एक सामान्य व्यक्ति के विवेक की कमी होती है; जब वे समस्याओं को संभाल नहीं पाते हैं, तो फिर वे ऊपरवाले को उनकी सूचना क्यों नहीं देते हैं? अगर तुम ऊपरवाले को किसी समस्या की सूचना देते हो तो हम मिलकर उसका सामना कर सकते हैं और अंत में समस्या सुलझ जाएगी। ऐसी कुछ चीजें हैं जिन्हें तुम लोग नहीं समझ सकते हो; मैं उनका विश्लेषण करने में तुम्हारी मदद करूँगा। जब तक हम कानून या सरकारी विनियमों का उल्लंघन नहीं करते हैं, तब तक कोई भी समस्या इतनी बड़ी नहीं है कि उस पर काबू पाना असंभव हो। जहाँ तक सत्य सिद्धांतों से संबंधित मुद्दों की बात है, उन्हें हम खुद ही सुलझाते हैं; जहाँ तक कानून से संबंधित मुद्दों की बात है, उनके बारे में हम मदद के लिए कानूनी सलाह ले सकते हैं और कानूनी उपायों से उन्हें सुलझा सकते हैं। चाहे कोई भी दुष्ट ताकतें जानबूझकर परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालें और तोड़-फोड़ करें, एक बात याद रखना : जब तक हम कानून नहीं तोड़ते हैं या सरकारी विनियमों का उल्लंघन नहीं करते हैं, तब तक कोई भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। वह इसलिए क्योंकि ज्यादातर विदेशी देश लोकतांत्रिक हैं और कानून द्वारा शासित हैं; भले ही बुरी ताकतें कानून के खिलाफ कार्य करती हों, उन्हें भी उजागर होने और कानूनी प्रतिबंधों का डर रहता है। यह एक सच्चाई है। बड़े लाल अजगर के दुष्ट हाथ परमेश्वर के घर के कार्य को चाहे कैसे भी बाधित करें और नुकसान पहुँचाएँ, या हमारे सामान्य जीवन को उत्पीड़ित करें, या बुरे कार्य करने के लिए किसी को पैसे दें, हमें तस्वीरें लेनी चाहिए और प्रामाणिक वीडियो बनाने चाहिए, गंभीरता से सटीक अभिलेख रखने चाहिए, और समय, जगह और इनमें शामिल लोगों के बारे में स्पष्ट रूप से लिख लेना चाहिए। सही समय आने पर, हम इसे कानूनी उपायों से सुलझाएँगे और हमें इससे डरने की जरूरत नहीं है। बड़े लाल अजगर का दमन चाहे कितना भी पागलपन भरा क्यों ना हो, हम इससे नहीं डरते हैं क्योंकि परमेश्वर हमारा सहारा है, और एक दिन परमेश्वर उसे मिटा देने के लिए आपदाएँ भेजेगा, परमेश्वर सीधे इसके खिलाफ बदला लेगा, और हमें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। कभी-कभी तुम लोग कुछ मुद्दों को नहीं समझ पाते हो; ऐसे में, तुम्हें जल्दी से इसकी सूचना ऊपर देनी चाहिए, और ऊपरवाला तुम्हें एक मार्ग दिखाएगा, बड़े मुद्दों को छोटा कर देगा और छोटे मुद्दों को सुलझा देगा। दरअसल, कई मुद्दों के लिए, तुम लोगों को यह नहीं पता होता है कि उनका विश्लेषण कैसे करना है और तुम लोग उनका सार नहीं समझ पाते हो और सोचते हो कि यह परिस्थिति महत्वपूर्ण और गंभीर है, लेकिन ऊपरवाले से विश्लेषण के बाद, तुम लोग यह महसूस करोगे कि यह मूल रूप से कुछ भी नहीं है; यह डरने की कोई बात नहीं है और कोई महत्वपूर्ण चीज नहीं है—बस ऊपरवाले को निर्णय लेने दो, और यह कुछ देर बाद अपने आप ही सुलझ जाएगा। बुरी शक्तियों की बाधाओं से कोई बड़ा हडकंप नहीं मच सकता है; वे जनता के सामने उजागर होने से सबसे ज्यादा डरते हैं, इसलिए वे सीमाएँ लाँघने की हिम्मत नहीं करते हैं। अगर मुट्ठी भर विदूषक सीमाएँ लाँघने की हिम्मत कर भी लें, तो हम कानूनी उपाय करके इसे कानूनी तरीके से सुलझा सकते हैं। यह एक ऐसी चीज है जिसे सभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं को समझना चाहिए। चाहे तुम किसी भी परिस्थिति का सामना क्यों ना करो, तुम्हें बिल्कुल भी भ्रमित नहीं होना चाहिए या बेवकूफी नहीं करनी चाहिए। अगर तुम किसी परिस्थिति को समझ नहीं पाते हो या उसे संभाल नहीं पाते हो, तो तुम्हें इसकी सूचना तुरंत ऊपर देनी चाहिए और ऊपरवाले से सलाह और रणनीतियाँ प्राप्त करनी चाहिए। यहाँ एकमात्र सच्चा डर यह है कि झूठे अगुआ मुद्दों को समझ नहीं पाते हैं या उन्हें संभाल नहीं पाते हैं और फिर भी वे उनकी सूचना ऊपरवाले को नहीं देते हैं या उनके बारे में ऊपरवाले को जानकारी नहीं देते हैं; वे उनकी सूचना ऊपर देने से पहले परिस्थिति के बदतर होने और कार्य में देरी होने की प्रतीक्षा करते हैं, और संभवतः समस्या को संभालने का सबसे अच्छा अवसर खो देते हैं। यह किसी ऐसे व्यक्ति की तरह है जिसे कैंसर हुआ है लेकिन वह समय पर इसकी जाँच या इलाज नहीं करवाता है, वह कैंसर के अंतिम चरण में ही इलाज के लिए अस्पताल जाता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और उसके पास मृत्यु की प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है। इस प्रकार, अपने कार्य में झूठे अगुआओं द्वारा मामलों में देरी करने की संभावना सबसे ज्यादा होती है। झूठे अगुआ मानसिक रूप से विकृत होते हैं, वे अधम होते हैं, वे ना तो जिम्मेदार होते हैं और ना ही परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखते हैं। ऐसा क्यों कहते हैं कि झूठे अगुआ बदमाश, विनाश के अग्रदूत, बेवकूफ लोग होते हैं जिनमें विवेक की सबसे ज्यादा कमी होती है? इसका यही कारण है। कोई भी झूठा अगुआ जिसकी काबिलियत इतनी खराब है कि वह बाहरी मामले तक संभाल नहीं सकता है, उसे तुरंत बर्खास्त कर देना चाहिए और हटा देना चाहिए, उसका फिर कभी उपयोग नहीं करना चाहिए ताकि परमेश्वर के घर के कार्य में और देरी ना हो। झूठे अगुआओं का कार्य सबसे ज्यादा विघ्न डालता है। अक्सर, जब कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो उसे सभी के साथ समय पर सलाह के जरिए सुलझाया जा सकता है; यहाँ एकमात्र चिंता यही है कि प्रभारी झूठे अगुआ मानसिक रूप से विकृत होते हैं, वे समस्या को खुद सुलझाने में असमर्थ होते हैं और फिर भी फैसले लेने वाले समूह से इस पर चर्चा नहीं करते हैं या ऊपरवाले को इसकी सूचना नहीं देते हैं, और वे लापरवाही का रवैया अपनाते हैं, समस्या को छिपाते हैं और दबाते हैं—इसी कारण मामलों में सबसे ज्यादा देरी होती है। अगर मुद्दे में देरी की जाती है और हालात बदल जाते हैं, तो इससे समस्या को संभालने की पहल हाथ से निकल सकती है, जिससे एक निष्क्रिय परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है। इससे क्या साबित होता है? कुछ चीजों में देरी नहीं की जा सकती है और उन्हें पहला अवसर मिलते ही, तुरंत निपटा देना चाहिए। लेकिन, झूठे अगुआ इस बात से अनजान होते हैं, इसलिए अत्यंत खराब काबिलियत वाले व्यक्तियों को अगुवाई बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। झूठे अगुआ सिर्फ कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत बड़बड़ाना जानते हैं और कोई भी वास्तविक समस्या नहीं सुलझा सकते हैं; वे सिर्फ लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं या देरी का कारण बनते हैं। इन झूठे अगुआओं को बर्खास्त करके और दायित्व और जिम्मेदारी की भावना वाले व्यक्तियों को अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में चुनकर ही कलीसिया का कार्य सामान्य रूप से आगे बढ़ सकता है। चाहे तुम्हें कैसी भी समस्याओं का सामना क्यों ना करना पड़े, जब तक तुम सत्य की तलाश कर पाते हो, तब तक उन्हें सुलझाने का एक तरीका होता है। बाहरी मामलों और बड़े लाल अजगर के कारण पैदा होने वाली विघ्न-बाधाओं को जरूरत पड़ने पर कानूनी उपायों से सुलझाया जा सकता है, यह कोई बड़ी बात नहीं है। जब तक हम कानून नहीं तोड़ते हैं या सरकारी विनियमों का उल्लंघन नहीं करते हैं, तब तक कोई भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है, और इस आत्मविश्वास के साथ, हमें शैतान या दुष्ट लोगों द्वारा पैदा की गई किसी भी विध्न-बाधा से डरने की जरूरत नहीं है।
अब, झूठे अगुआओं के मुद्दे का गहन-विश्लेषण करना और उसे समझना चाहिए। कलीसिया का कार्य अच्छी तरह से करने के लिए यह बहुत जरूरी है! आओ, अब हम इस बारे में संगति करें कि झूठे अगुआओं को जब ऐसे मुद्दों का सामना करना पड़ता है जिन्हें वे खुद नहीं सुलझा सकते हैं, तब भी वे उनकी सूचना ऊपरवाले को क्यों नहीं देते हैं। हमें इसे कैसे देखना चाहिए? तुम सभी लोग इसका विश्लेषण कर सकते हो और ऐसा करने से लाभान्वित हो सकते हो। झूठे अगुआओं के वास्तविक कार्य नहीं करने की समस्या पहले से ही गंभीर है, लेकिन एक इससे भी ज्यादा गंभीर मुद्दा है : जब कलीसिया में कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों द्वारा व्यवधान डाले जाते हैं, तो बात सिर्फ यही नहीं होती है कि झूठे अगुआ इन्हें नहीं संभालते हैं; इससे भी बदतर बात यह होती है कि वे ऊपरवाले को इसकी सूचना देने में भी विफल रहते हैं, और कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को कलीसिया में व्यवधान डालने देते हैं—वे बस किनारे खड़े होकर सुरक्षित रूप से देखते रहते हैं, किसी को नाराज नहीं करते हैं। चाहे कलीसिया का कार्य किसी भी हद तक बाधित क्यों ना हो जाए, झूठे अगुआओं को इसकी कोई परवाह नहीं होती है। यहाँ क्या समस्या है? क्या ऐसे झूठे अगुआओं में नैतिकता बिल्कुल भी नहीं है? ऐसे झूठे अगुआओं को निष्कासित करने के लिए अकेले यह सच्चाई ही पर्याप्त है। झूठे अगुआओं द्वारा कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को कलीसिया में बेरोकटोक विघ्न डालने की अनुमति देना कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इन कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को सौंपने के समान है, झूठे अगुआ कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों के लिए एक ढाल के तौर पर कार्य करते हैं। इससे कलीसिया के कार्य को बहुत बड़ा नुकसान होता है! अकेले इस बिंदु पर, प्रश्न यह नहीं है कि झूठे अगुआओं को बर्खास्त किया जाना चाहिए या नहीं, बल्कि यह है कि क्या उन्हें बहिष्कृत कर देना चाहिए। कौन-सी बात ज्यादा गंभीर प्रकृति की है : झूठे अगुआओं का वास्तविक कार्य नहीं करना या झूठे अगुआओं का कलीसिया में कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को विघ्न डालने देना? वास्तविक कार्य नहीं करने से परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश और कलीसिया के कार्य की प्रगति प्रभावित हो सकती है; यह पहले से ही महत्वपूर्ण मामलों में देरी का कारण बना हुआ है। लेकिन, जब झूठे अगुआ, बिना समाधान की तलाश किए या ऊपरवाले को इसकी सूचना दिए, कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को कलीसिया में मनमाने ढंग से विघ्न डालने की अनुमति देते हैं, तो नतीजों की कल्पना करना भी असंभव है। कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों के कारण कलीसियाई जीवन कम से कम पूरी तरह से अराजकता और अशांति की चपेट में आ जाता है, और इसके अलावा, कलीसिया का कार्य गड़बड़ और ठप्प हो जाता है। क्या इससे सुसमाचार फैलाने का कार्य सीधे प्रभावित नहीं होता है? नतीजे सचमुच गंभीर होते हैं! इसलिए, अगर झूठे अगुआ यह गलती करते हैं, तो उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए। कई अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास ऊपरवाले को मुद्दों की सूचना देने के बारे में हमेशा एक अलग विचार और धारणा होती है। कुछ लोग कहते हैं, “ऊपरवाले को मुद्दों की सूचना देने से भी हो सकता है कि उनका समाधान नहीं हो पाए।” यह बेतुकी बात है! “हो सकता है कि उनका समाधान नहीं हो पाए” से तुम्हारा क्या अर्थ है? सिर्फ इसलिए कि इसे तुम नहीं सुलझा पाए, इसका अर्थ यह नहीं है कि ऊपरवाला भी इसे नहीं सुलझा पाएगा। अगर ऊपरवाला तुम्हें कोई मार्ग बताता है, तो समस्या वास्तव में मूलतः हल हो गई है; अगर ऊपरवाला कोई मार्ग नहीं बताता है, तो तुम्हारे पास वैसे ही कोई समस्या नहीं बचती है। तुम इस मामूली-सी बात की असलियत तक नहीं समझ पाते हो; तुम बहुत ही घमंडी और आत्मतुष्ट हो! कुछ लोग यह भी कहते हैं, “जब हम कठिनाइयों या समस्याओं का सामना करते हैं, तो हमें पहले कुछ दिनों तक विचार करना चाहिए, और तभी सूचना देनी चाहिए जब हमें वाकई कोई समाधान नहीं मिलता है।” ऐसा लग सकता है कि ऐसी बात कहने वालों में कुछ सूझ-बूझ है, लेकिन क्या विचार करने में लगे इन दिनों के कारण देरी होने की संभावना नहीं है? क्या तुम निश्चित हो सकते हो कि कुछ दिनों तक विचार करने से मुद्दा सुलझ जाएगा? क्या तुम यह आश्वासन दे सकते हो कि इससे और देरी नहीं होगी? दूसरे लोग कहते हैं, “अगर हम किसी मुद्दे की सूचना तुरंत दे देते हैं, तो क्या ऊपरवाला यह नहीं सोचेगा कि हम इस मामूली मुद्दे की असलियत तक नहीं समझ पाए? क्या वह हमें बेवकूफ और अज्ञानी नहीं कहेगा और हमारी काट-छाँट नहीं करेगा?” उनका यह कहना गलत है—चाहे तुम मुद्दे की सूचना दो या ना दो, तुम्हारी काबिलियत की गुणवत्ता पहले से ही स्पष्ट है; ऊपरवाले को यह सब मालूम है। क्या तुम सोचते हो कि अगर तुमने किसी मुद्दे की सूचना नहीं दी, तो ऊपरवाला तुम्हारा बहुत सम्मान करेगा? अगर तुम मुद्दे की सूचना दे देते हो, और इससे महत्वपूर्ण मामलों में देरी नहीं होती है, तो परमेश्वर का घर तुम्हें जवाबदेह नहीं ठहराएगा। लेकिन, अगर तुम इसकी सूचना नहीं देते हो और इससे देरी हो जाती है, तो तुम्हें सीधे जिम्मेदार ठहराया जाएगा और तुम्हें तुरंत बर्खास्त कर दिया जाएगा, तुम्हारा फिर कभी उपयोग नहीं किया जाएगा। परमेश्वर के चुने हुए लोग भी तुम्हें अज्ञानी, बेवकूफ, कमजोर दिमाग वाले और मानसिक रूप से विक्षिप्त के रूप में देखेंगे, और वे तुमसे नफरत करेंगे और हमेशा के लिए तुम्हें तुच्छ समझेंगे। जो लोग हमेशा समस्याओं की सूचना देने के लिए ऊपरवाले द्वारा काट-छाँट किए जाने या नीची नजर से देखे जाने से डरते हैं, वे खराब काबिलियत वाले और सबसे बेवकूफ होते हैं; उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए, उनका फिर कभी उपयोग नहीं करना चाहिए। इतनी खराब काबिलियत होना और फिर भी अपनी लाज बचाने की इच्छा रखना—क्या यह पूरी तरह से बेशर्मी नहीं है? मुझे बताओ, क्या झूठे अगुआ, जो ना सिर्फ अपना कार्य खराब तरीके से करते हैं बल्कि महत्वपूर्ण मामलों में देरी भी करवाते हैं, घिनौने नहीं हैं? क्या उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए? (हाँ।) अगर उन्हें किसी बड़े मुद्दे का सामना करना पड़ता है और वे बिना देरी के या बिना गंभीर नतीजों का कारण बने तुरंत उसकी सूचना दे देते हैं, तो ऐसे अगुआओं को कैसे देखना चाहिए? कम से कम, उन्हें विवेकी माना जाता है और वे कलीसिया के कार्य को बनाए रखने में समर्थ होते हैं। क्या ऐसे अगुआओं का उपयोग किया जाना जारी रखना चाहिए? इसे जारी रखना चाहिए। सिर्फ मानसिक रूप से सबसे विकृत अगुआ ही काट-छाँट किए जाने के डर से मुद्दों की सूचना देने से कतराएँगे। क्या फिर भी भविष्य में ऐसे अगुआओं का उपयोग किया जा सकता है? मुझे लगता है कि अब उनका उपयोग नहीं किया जा सकता है क्योंकि उनका उपयोग करने से बहुत ज्यादा देरी होती है। अब तक, तुम सभी को इस तरह की समस्याओं को समझने में समर्थ हो जाना चाहिए, है ना? जब तुम ऐसे मुद्दों का सामना करते हो जिन्हें तुम संभाल नहीं सकते हो, तो तुरंत उनकी सूचना दो और फैसला लेने वाले समूह के साथ उनके समाधानों के लिए संगति करो। अगर फैसला लेने वाला समूह उन्हें संभाल नहीं सकता है, तो तुरंत उनकी सूचना ऊपरवाले को दो; इस या उस चीज के बारे में फिक्र मत करो, समस्या को तुरंत सुलझाने में समर्थ होना ही सबसे ज्यादा जरूरी है। अभी-अभी जिस उदाहरण का जिक्र किया गया वह सभी कलीसियाओं में होता है; ये कठिनाइयाँ और समस्याएँ उत्पन्न होंगी। कलीसिया की कुछ आंतरिक कठिनाइयों की तुलना में, इन बाहरी मुद्दों के नतीजे ज्यादा गंभीर होते हैं। इस प्रकार, कलीसिया के आंतरिक मुद्दों की तुलना में बाहरी मुद्दों की कठिनाई कुछ अधिक है। अगर तुम बाहरी मुद्दों का सामना करते हो, तो तुम्हें सलाह लेकर उन्हें जल्दी से सुलझाना चाहिए या ऊपरवाले को उनकी सूचना देनी चाहिए; यह अनिवार्य है। सिर्फ इस तरीके से अभ्यास करने से ही कलीसिया के कार्य की सामान्य प्रगति सुनिश्चित हो सकती है और इस बारे में आश्वस्त हुआ जा सकता है कि स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार फैलाने में कोई बाधा नहीं आएगी। कलीसिया के बाहरी मुद्दों को संभालने के सिद्धांतों पर हमारी संगति यहीं समाप्त होती है।
हर कलीसिया में खराब काबिलियत वाले कुछ लोग होते हैं और चाहे किसी भी तरीके से उनके साथ सत्य की संगति क्यों ना की जाए, वे अपने कर्तव्य करने में हमेशा कठिनाइयों का सामना करते हैं, अभ्यास के सिद्धांतों को ढूँढने में असमर्थ होते हैं, और बिना किसी वास्तविक प्रभावशीलता के, बस आँख मूंदकर विनियमों को लागू करते रहते हैं। ऐसे मामलों में, इन लोगों के कर्तव्यों को फिर से सौंपे जाने की जरूरत है। कर्तव्यों को फिर से सौंपने का अर्थ कर्मचारियों को इन्हें फिर से आबंटित करना है। मिसाल के तौर पर, एक व्यक्ति को एक महत्वपूर्ण कार्य सौंपा जाता है लेकिन उसके कार्य में उसके कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता है, चाहे तुम उसके साथ कितनी भी संगति क्यों ना कर लो। तुम समस्या के सार की या इस बात की असलियत नहीं जान पाते हो कि यह व्यक्ति अब भी उपयोग किए जाने योग्य है या नहीं, और जाँच-परख या आगे की संगति से भी कोई नतीजा हासिल नहीं होता है। वैसे तो यह व्यक्ति कार्य में बहुत ज्यादा देरी नहीं करता है, लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दे कभी नहीं सुलझते हैं, जिससे तुम हमेशा असहज महसूस करते हो। यह समस्या सामने आने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? यह एक बहुत जरूरी मुद्दा है। अगर तुम इसे खुद नहीं सुलझा सकते हो तो तुम्हें इस मुद्दे को संगति, गहन-विश्लेषण और विश्लेषण के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं की एक सभा में उठाना चाहिए। अगर अंत में किसी सर्वसम्मति पर पहुँचा जा सकता है, तो यह समस्या सुलझ जाएगी। अगर इस तरीके से अभ्यास करने से समस्या नहीं सुलझती है, तो इसके लंबा चलते रहने पर, क्या यह महत्वपूर्ण मामलों में देरी का कारण बन सकती है? अगर यह देरी का कारण बन सकती है, तो तुम्हें इसकी सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए और जल्द से जल्द एक समाधान की तलाश करनी चाहिए। संक्षेप में, तुम अपने कार्य में चाहे किसी भी उलझन या कठिनाइयों का सामना क्यों ना करो, अगर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके कर्तव्य करने में प्रभावित कर सकती हैं या कलीसियाई कार्य की सामान्य प्रगति में बाधा डाल सकती हैं, तो इन मुद्दों को तुरंत सुलझाना चाहिए। अगर तुम किसी मुद्दे को अकेले नहीं सुलझा सकते हो तो तुम्हें कुछ ऐसे लोगों की तलाश करनी चाहिए जो सत्य समझते हैं ताकि तुम उनके साथ मिलकर इसे सुलझा सको। अगर इससे भी काम नहीं बनता है तो तुम्हें मुद्दे को आगे ले आना चाहिए और समाधान की तलाश करने के लिए ऊपरवाले को इसकी सूचना देनी चाहिए। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी और दायित्व है। अगुआ और कार्यकर्ता जिन भी कठिनाइयों और उलझनों का सामना करते हैं, उन्हें उन सभी को गंभीरता से लेना चाहिए, ना कि बस कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करना चाहिए, भाई-बहनों को जोश में लाने के लिए नारे लगाने चाहिए, या मुद्दों या कठिनाइयों का पता चलने के बाद उनकी काट-छाँट करनी चाहिए और कार्य को पूरा हो चुका मान लेना चाहिए। कभी-कभी शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने से कुछ सतही मुद्दे सुलझ सकते हैं, लेकिन सभी पहलुओं पर विचार किया जाए, तो इससे मूल समस्याएँ नहीं सुलझ सकती हैं। मूल, भ्रष्ट स्वभावों और लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं से संबंधित मुद्दों को परमेश्वर के वचनों पर आधारित सत्य की संगति के जरिए सुलझाना चाहिए। इसके साथ ही, लोगों की व्यक्तिगत कठिनाइयाँ, परिवेशीय मुद्दे और कर्तव्यों को करने के लिए जरूरी पेशेवर ज्ञान से संबंधित समस्याएँ भी हैं; इन सभी व्यावहारिक मुद्दों को अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा समाधान की जरूरत होती है। इन मुद्दों में से, कोई भी उलझन और कठिनाइयाँ, जिन्हें अगुआ और कार्यकर्ता नहीं सुलझा सकते हैं, उन्हें गहन-विश्लेषण, विश्लेषण और समाधान के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं की सभा में उठाया जा सकता है, या वे इनके समाधान के लिए सत्य की तलाश करने के लिए सीधे ऊपरवाले को इनकी सूचना दे सकते हैं। इसे वास्तविक कार्य करना कहते हैं, और सिर्फ इस तरीके से वास्तविक कार्य करने का प्रशिक्षण लेकर ही व्यक्ति का आध्यात्मिक कद बढ़ सकता है और वह अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कर सकता है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं में जब तक जिम्मेदारी की भावना है, वे कहीं भी कभी भी समस्याओं को पहचान लेंगे; ऐसी कुछ समस्याएँ हैं जिन्हें उन्हें हर रोज सुलझानी चाहिए। मिसाल के तौर पर, मैंने अभी-अभी एक घटना का जिक्र किया जिसमें कोई पूछता है कि क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो और तुम लोग हैरानी में पड़ गए। शुरू में सभी ने कहा कि वे “हाँ” में उत्तर देंगे, लेकिन बाद में कुछ लोगों ने कहा कि यह सही उत्तर नहीं है, और दूसरों ने कहा कि उन्हें नहीं पता है; सभी किस्म के उत्तर मिले। अंत में, अगुआ और कार्यकर्ता भी चकरा गए, उन्होंने सोचा, “सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में ‘नहीं’ कहने का अर्थ दूसरों के सामने परमेश्वर को नकारना होगा, और फिर परमेश्वर हमें स्वीकार नहीं करेगा—लेकिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में ‘हाँ’ कहने के क्या नतीजे होंगे? दोनों ही विकल्प गलत लगते हैं।” अगुआ और कार्यकर्ता यह नहीं जानते थे कि इसे कैसे सुलझाया जाए और वे कोई फैसला नहीं ले पाए; इस प्रकार, जब भाई-बहन फिर से ऐसी परिस्थितियों का सामना करेंगे, तो उनके पास अब भी सही नजरियों और रवैयों की कमी रहेगी, और समस्या अनसुलझी रह जाएगी, जिसका अर्थ है कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं और वे अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह रहे हैं। अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह होना क्षमता की और काबिलियत की समस्या है, लेकिन जब ऐसे मुद्दे उठते हैं और अगर तुम्हें पता हो कि उन्हें सुलझाया नहीं गया है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए या मामले को शांत करने के लिए उसे दबाना नहीं चाहिए, सभी को स्वच्छंदता से कार्य करने और उन्हें जैसा अच्छा लगे वैसा करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें इसकी सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए, ऐसी परिस्थितियों में करने योग्य उचित क्रियाकलाप और अभ्यास के मार्ग की तलाश करनी चाहिए। आखिरकार, सभी को यह समझा देना चाहिए कि इन परिस्थितियों में परमेश्वर के इरादे क्या हैं, लोगों को कौन-से सिद्धांत बनाए रखने चाहिए, और उन्हें कौन-से रवैये और रुख अपनाने चाहिए। फिर, जब भविष्य में उन्हें फिर से ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा, तो वे सत्य सिद्धांतों को समझ जाएँगे और उनके पास अभ्यास का एक मार्ग होगा। इस तरह से, अगुआ और कार्यकर्ता अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करते हैं। तो फिर शुरू में तुम सभी से यह पूछे जाने पर कि क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुमने यह क्यों कहा कि तुम “हाँ” में उत्तर दोगे? इसका एक कारण है : अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने कभी भी तुम लोगों से इस बात पर संगति नहीं की कि ऐसे मुद्दों को कैसे सुलझाना है। वे इन्हें मामूली मामले मानते हैं जिनके बारे में हर किसी की अपनी समझ होती है, जिन्हें हर कोई जैसे चाहे वैसे समझ सकता है और जैसा उसे उचित लगे वैसा अभ्यास कर सकता है। इस प्रकार, जब तुम लोगों से यह प्रश्न पूछा गया तो सभी किस्म के उत्तर मिले। तो, क्या अब तुम सब इस मामले में किसी निष्कर्ष पर पहुँच गए हो? अगर कोई तुमसे पूछता है कि क्या तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, उससे पूछो कि वह कौन है। दूसरा, उससे पहचान पत्र दिखाने के लिए कहो। अगर वह तुमसे कोई दूसरी व्यक्तिगत जानकारी माँगता है, तो कोई उत्तर मत दो। अगर वह पहचान पत्र दिखाता भी है तो भी उसे मत बताओ, क्योंकि यह तुम्हारी व्यक्तिगत निजता है। तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखते हुए कितने वर्ष हो गए हैं, तुम्हें सुसमाचार का उपदेश किसने दिया, तुमने अपने कर्तव्य कहाँ-कहाँ किए हैं, तुम्हारी आस्था कितनी मजबूत है, तुम अपने भविष्य का मार्ग कैसे चुनते हो, तुम सत्य का अनुसरण कैसे करते हो और उसे कैसे प्राप्त करते हो—ये मामले हमारे लिए इतने मूल्यवान हैं कि हम यूँ ही किसी अजनबी के सामने इनका खुलासा नहीं कर सकते हैं। उसे ऐसी महत्वपूर्ण जानकारी के बारे में पूछताछ करने का कोई अधिकार नहीं है। अगर अगुआ और कार्यकर्ता ऐसे मुद्दों को नहीं सुलझा सकते हैं, तो उन्हें तुरंत इनकी सूचना ऊपरवाले को देनी चाहिए ताकि समाधान मिल सकें और प्रतिक्रिया करने के उचित तरीके पूछे जा सकें। ऊपरवाला तुम्हारा मजाक नहीं उड़ाएगा; ज्यादा से ज्यादा वह यही कहेगा कि तुम बहुत ही बेवकूफ हो। चाहे जो हो, समस्या का समाधान कर पाना सबसे अच्छा परिणाम है।
आज, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की आठवीं जिम्मेदारी—काम के दौरान आने वाली उलझन और कठिनाइयों की तुरंत सूचना देना और उन्हें सुलझाने का तरीका खोजना—के बारे में हमने मुख्य रूप से इस बात पर चर्चा की कि उलझन और कठिनाइयाँ क्या होती हैं, साथ ही जब अगुआ और कार्यकर्ता इन मुद्दों का सामना करते हैं, तो उन्हें इन्हें कैसे संभालना और सुलझाना चाहिए, और इन मामलों से कैसे निपटना चाहिए। आज, अभी तक हमने उन अभिव्यक्तियों का गहन-विश्लेषण नहीं किया है जिन्हें झूठे अगुआ इन मुद्दों का सामना करते समय प्रदर्शित करते हैं; हम अगली संगति में उस हिस्से पर चर्चा करेंगे।
27 मार्च 2021