अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2)
आओ, पहले पिछली सभा में अपनी संगति की मुख्य विषयवस्तु की समीक्षा करें। (पिछली बार, तुमने अगुआओं और कार्यकर्ताओं की 15 जिम्मेदारियों को सूचीबद्ध किया था, और मुख्यतः शुरुआत के दो मुद्दों पर संगति की थी : पहला मुद्दा है परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और समझने, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों की अगुआई करना; दूसरा है कि हर तरह के व्यक्ति की स्थितियों से परिचित होना, और जीवन प्रवेश से संबंधित जिन विभिन्न कठिनाइयों का वे अपने जीवन में सामना करते हैं, उनका समाधान करना। इन दो मदों के आधार पर, तुमने नकली अगुआओं की प्रासंगिक अभिव्यक्तियों का विश्लेषण किया था।) क्या तुम लोगों ने कभी सोचा है कि यदि तुम अगुआ होते तो इन दो जिम्मेदारियों में से कौन-सी निभा सकते थे? बहुत-से लोग हमेशा महसूस करते हैं कि उनके पास थोड़ी काबिलियत, बुद्धिमत्ता और दायित्व की भावना है, और परिणामतः वे अगुआ बनने की स्पर्धा में शामिल होना चाहते हैं और साधारण अनुयायी नहीं बनना चाहते हैं। इसलिए, पहले देखो कि क्या तुम इन दो जिम्मेदारियों को निभा सकते हो, और तुम कौन-सी जिम्मेदारी निभाने में अधिक सक्षम हो, और कौन-सी जिम्मेदारी उठा सकते हो। चलो अभी इस बारे में बात नहीं करते हैं कि तुममें अगुआ बनने की काबिलियत है या नहीं, या तुम्हारे पास दिए गए कार्यक्षमता या दायित्व की भावना है या नहीं, बल्कि पहले यह देखते हैं कि क्या तुम इन दो जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से निभा सकते हो। क्या तुम लोगों ने कभी इस प्रश्न पर चिंतन किया है? कुछ लोग कह सकते हैं कि “अगुआ बनने की मेरी कोई योजना नहीं है, इसलिए मैं इस पर क्यों चिंतन करूँ मुझे बस अपना काम अच्छी तरह से करना चाहिए—इस प्रश्न का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं जीवन में कभी भी अगुआ नहीं बनना चाहता, और मैं कभी भी अगुआ या कार्यकर्ता की जिम्मेदारियाँ नहीं लेना चाहता, इसलिए मुझे ऐसे प्रश्नों पर विचार करने की जरूरत नहीं है।” क्या यह कथन सही है? (नहीं।) भले ही तुम अगुआ नहीं बनना चाहते, क्या फिर भी तुम्हें यह जानने की जरूरत नहीं है कि तुम्हारी अगुआई करने वाला व्यक्ति इन दो जिम्मेदारियों को कितनी अच्छी तरह से निभा रहा है, क्या उसने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं, क्या उसके पास वांछित काबिलियत, योग्यता और दायित्व की भावना है, और क्या वह इन दो अपेक्षाओं को पूरा करता है? अगर तुम इन चीजों को नहीं समझते या उनकी असलियत नहीं जान सकते, और वह तुम्हें गड्ढे में ले जाता है, तो क्या तुम्हें इस बारे में कुछ पता होगा? अगर तुम केवल भ्रमित तरीके से उसका अनुसरण करते हो और मंदबुद्धि हो, अगर तुम नहीं जानते कि वह नकली अगुआ है, या वह तुम्हें गुमराह कर रहा है या वह तुम्हें कहाँ ले जा रहा है, तो तुम्हारे लिए खतरा होगा। चूँकि तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों के दायरे को नहीं समझते, और तुममें नकली अगुआओं की पहचान करने की समझ नहीं है, इसलिए तुम यह जाने बिना कि वे तुम्हारे साथ जो संगति करते हैं वह परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप है या नहीं, या वास्तविकता है या नहीं, तुम भ्रमित तरीके से उनका अनुसरण करोगे, और वे जो भी करने को कहेंगे वही करोगे। तुम सोचोगे कि चूँकि वे उत्साही हैं, सुबह से शाम तक भागदौड़ करते हैं और कड़ी मेहनत करते हैं और कीमत चुकाने में सक्षम हैं, और क्योंकि, जब कोई मुश्किल में होता है तो वे उसकी सहायता के लिए हाथ बढ़ाते हैं, और उसे अनदेखा नहीं करते, इसलिए वे मानक स्तर के अगुआ हैं। तुम नहीं जानते कि नकली अगुआओं में परमेश्वर के वचनों को समझने की क्षमता का अभाव है, कि चाहे वे कितने भी लंबे समय तक लोगों की अगुआई करें, वे लोग परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ पाते या नहीं जान पाते कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, वे यह भी नहीं समझ पाते कि धर्म-सिद्धांत और सत्य वास्तविकताएँ क्या हैं, और नकली अगुआ यह भी नहीं जान पाते कि परमेश्वर के किन वचनों के बारे में लोगों की समझ विकृत हैं, और यह कि लोग नहीं जान पाते कि उन्हें परमेश्वर के वचनों को कैसे खाना-पीना चाहिए। नकली अगुआ तुम्हारे साथ संगति करेंगे और औपचारिकताएँ पूरी करेंगे, लेकिन वे इस बारे में स्पष्ट नहीं होंगे कि तुम किस स्थिति में हो, तुम किन कठिनाइयों का सामना कर रहे हो, और क्या वे वास्तव में हल हो गई हैं, और तुम खुद भी इन बातों को नहीं जान पाओगे। बाहरी तौर पर, उन्होंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ा होगा और तुम्हारे साथ सत्य पर संगति की होगी, लेकिन बिना किसी बदलाव के तुम तब भी एक गलत स्थिति में रह रहे होगे। तुम चाहे जिन कठिनाइयों का सामना करो, वे अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हुए दिखाई देंगे, लेकिन तुम्हारी कोई भी कठिनाई उनकी संगति या सहायता के माध्यम से हल नहीं होगी, और समस्याएँ बनी रहेंगी। क्या इस तरह का अगुआ मानक के अनुरूप है? (नहीं।) तो, इन मामलों को समझने के लिए तुम्हें किन सत्यों को समझने की आवश्यकता है? तुम्हें यह समझने की जरूरत है कि क्या अगुआ और कार्यकर्ता दिए गए हर काम को करते हैं और हर समस्या का समाधान परमेश्वर के वचनों की अपेक्षाओं के अनुसार करते हैं, क्या उनके द्वारा बोला गया हर शब्द व्यावहारिक है और परमेश्वर के वचनों में व्यक्त सत्य के अनुरूप है। इसके अतिरिक्त, तुम्हें यह समझने की जरूरत है कि जब तुम विभिन्न कठिनाइयों का सामना करते हो, तो क्या समस्याओं को हल करने के उनके दृष्टिकोण से तुम परमेश्वर के वचनों को समझ पाते हो और अभ्यास का मार्ग प्राप्त कर पाते हो, या वे केवल कुछ शब्द और सिद्धांत बोलते हैं, नारे लगाते हैं, या तुम्हें फटकारते हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता लोगों को उपदेश देकर, कुछ प्रेरणा देकर और कुछ दूसरे उजागर करके, आरोप लगाकर और काट-छाँट के माध्यम से मदद करना पसंद करते हैं। वे चाहे जिस तरीके का उपयोग करते हों, वह अगर वास्तव में सत्य वास्तविकता में प्रवेश में तुम्हारी अगुआई करता हो, तुम्हारी वास्तविक कठिनाइयों को हल करता हो, तुम्हें परमेश्वर के इरादे समझा देता हो और इस तरह तुम्हें अपने आप को जानने और अभ्यास का मार्ग पाने में सक्षम बनाता हो, तो जब भविष्य में तुम इसी तरह की परिस्थितियों का सामना करोगे, तो तुम्हारे पास अनुसरण करने के लिए एक मार्ग होगा। इसलिए, किसी अगुआ या कार्यकर्ता के मानकों के अनुरूप होने या न होने का सबसे बुनियादी मानक यह है कि क्या वह लोगों की समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए सत्य का इस प्रकार उपयोग कर सकता है, जिससे वे सत्य समझ जाएँ और अभ्यास का मार्ग प्राप्त कर सकें।
पिछली बार, हमने कमोबेश अगुआओं और कार्यकर्ताओं की पहली और दूसरी जिम्मेदारियों पर संगति की थी और हमने इन दो जिम्मेदारियों के संबंध में नकली अगुआओं की कुछ अभिव्यक्तियों का गहन-विश्लेषण किया था। उनकी प्राथमिक अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर के वचनों की उथली और सतही समझ और सत्य समझने में विफल होना हैं। यह स्पष्ट है कि इसके परिणामस्वरूप वे परमेश्वर के वचनों और उसके इरादों को समझने में दूसरों की अगुआई नहीं कर सकते। जब लोग कठिनाइयों का सामना करते हैं तो नकली अगुआ सत्य समझने और वास्तविकता में प्रवेश करने में उनकी अगुआई करने के लिए अपने अनुभवात्मक ज्ञान का उपयोग नहीं कर सकते, ताकि उनके पास अनुसरण करने का एक मार्ग हो, न ही वे लोगों को विभिन्न कठिनाइयों के बीच आत्मचिंतन करने और अपने आप को जानने, और साथ ही उन कठिनाइयों को हल करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। तो आज, आओ हम सबसे पहले इस बात पर संगति करें कि जीवन प्रवेश की कठिनाइयाँ क्या हैं, और लोगों के दैनिक जीवन में प्रायः सामने आने वाली जीवन प्रवेश से संबंधित विभिन्न सामान्य कठिनाइयाँ क्या हैं। आओ, इन चीजों का एक विशिष्ट सारांश बनाते हैं। क्या इस पर संगति करने की जरूरत है? (हाँ।) तुम लोग अब जीवन प्रवेश से संबंधित इन विषयों में थोड़ी बहुत रुचि रखते हो, है ना? जब मैं पहली बार तुम लोगों से मिला था और बातचीत की थी, तो चाहे जो भी कहा गया हो, तुम लोग सुन्न और ढीले-ढाले, सुस्त और प्रतिक्रिया करने में धीमे थे। ऐसा लगता था कि तुम लोग कुछ भी नहीं समझते थे, और जीवन प्रवेश की तो बात ही छोड़ो, तुम लोगों का कोई आध्यात्मिक कद ही नहीं था। अब, जब हम किसी के जीवन स्वभाव को बदलने से जुड़े मामलों के बारे में बात करते हैं, तो तुम में से अधिकांश लोग इस विषय में अपेक्षाकृत ज्यादा रुचि रखते हैं, और थोड़ी-बहुत प्रतिक्रियाएँ करते हैं। यह सकारात्मक परिघटना है। यदि तुम लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर रहे होते, तो क्या तुम इन चीजों को प्राप्त कर सकते थे? (नहीं, हम प्राप्त नहीं कर सकते थे।) यह परमेश्वर का अनुग्रह है; यह सब उसकी कृपा के कारण है।
मद दो : हर तरह के व्यक्ति की स्थितियों से परिचित हो, और जीवन प्रवेश से संबंधित जिन विभिन्न कठिनाइयों का वे अपने वास्तविक जीवन में सामना करते हैं, उनका समाधान करो (भाग दो)
जीवन प्रवेश की आठ प्रकार की कठिनाइयाँ
I. कर्तव्य करने से संबंधित कठिनाइयाँ
जीवन प्रवेश की कठिनाइयों के संबंध में, आओ पहले अपने कर्तव्यों के निर्वहन से संबंधित कठिनाइयों पर ज्यादा विस्तारपूर्वक दृष्टि डालें। जब तुम अपने उन कर्तव्यों के निर्वहन में समस्याओं का सामना करते हो जिनमें सत्य का अभ्यास करना शामिल है, और तुम सिद्धांतों के अनुसार चीजों को संभाल नहीं पाते तो क्या यह जीवन प्रवेश की कठिनाई नहीं है? (हाँ, है।) सरल शब्दों में, कर्तव्यों के निर्वहन के समय विभिन्न स्थितियाँ, विचार, दृष्टिकोण और सोचने के कुछ गलत तरीके लोगों के सामने आते हैं। तो, इस संबंध में कौन-सी विशिष्ट कठिनाइयाँ मौजूद हैं? उदाहरण के लिए, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय हमेशा अनमना, धूर्त और धीमा पड़ने की कोशिश करना—क्या यह ऐसी स्थिति नहीं है जो कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान आम तौर पर व्यक्त और उजागर होती है? इसके अलावा, अपने उचित काम पर ध्यान न देना, और अपना कर्तव्य निभाते समय लगातार दूसरों से तुलना करना, अपने कार्यस्थल को खेल या युद्ध का मैदान मानना, और कर्तव्य निभाते समय किसी “मानक” को हासिल करने के बारे में सोचना, मन ही मन यह कहना कि “देखता हूँ कि मुझसे बेहतर कौन है और कौन मेरी लड़ने की भावना को भड़का सकता है, फिर मैं उसके साथ प्रतिस्पर्धा करूँगा, उससे होड़ करूँगा और तुलना करूँगा कि अपने कर्तव्य के निर्वहन में कौन बेहतर परिणाम और उच्चतर दक्षता प्राप्त करता है, और लोगों के दिल जीतने में कौन बेहतर है।” फिर अपने कर्तव्य को निभाने के सिद्धांतों को समझना लेकिन उनका निर्वहन करने, या परमेश्वर के वचनों या परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं में सत्य के अनुसार कार्य करने की इच्छा न करना, और हमेशा अपने कर्तव्य के निर्वहन को व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के साथ मिलाना पसंद करना, यह कहना कि, “मुझे इसे इस तरह करना पसंद है, मुझे इसे उस तरह करना पसंद है; मैं इसे इस तरह करने के लिए तैयार हूँ, मैं इसे उस तरह करना चाहता हूँ।” यह हठधर्मिता है, हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार चलने की चाह रखना है, और अपनी प्राथमिकता के अनुसार जो जी में आए उस तरह से काम करना, परमेश्वर के घर की सभी अपेक्षाओं को अनसुना कर देना, और सही मार्ग से भटकना पसंद करना है। क्या ये वे वास्तविक अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं जिन्हें अधिकांश लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय प्रदर्शित करते हैं? स्पष्टतः, इन सभी मुद्दों में अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में आने वाली कठिनाइयाँ शामिल हैं। इनमें और कुछ जोड़ो। (अपने कर्तव्य का निर्वहन करते समय दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने में विफल होना और हमेशा अपने ही नियम बना लेना।) इसकी गिनती भी एक कठिनाई के रूप में होती है। अपने कर्तव्य का निर्वहन करते समय दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने में विफल होना, और हमेशा अपने ही एक कानून बनाना और अंतिम रूप से अपनी बात को सर्वोपरि रखने की चाह रखना; समस्याओं से सामना होने पर दूसरों की सलाह लेने और उनकी राय सुनने के लिए विनम्र होने की चाह रखना लेकिन इसका अभ्यास करने में असमर्थ होना, और जब कोई इसका अभ्यास करने का प्रयास करे तो असहज महसूस करना—यह एक समस्या है। (कर्तव्य निभाते समय हमेशा अपने हितों की रक्षा करना, स्वार्थी और नीच होना, और कोई समस्या उत्पन्न होने पर वास्तव में उसका समाधान करना जानते हुए भी ऐसा महसूस करना कि इसका मुझसे कोई संबंध नहीं है, कुछ गलत हो जाए तो जिम्मेदारी लेने से डरना, और परिणामस्वरूप आगे बढ़ने का साहस न करना।) किसी समस्या को देखने पर उसका समाधान न करना, उसे स्वयं से असंबंधित समझना, और उसकी उपेक्षा करना—यह भी अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में निष्ठाहीन होने के रूप में गिना जाता है। तुम किसी कार्य के लिए जिम्मेदार हो या नहीं हो, अगर तुम किसी समस्या को समझकर उसका समाधान कर सकते हो, तो तुम्हें यह जिम्मेदारी निभानी चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य और तुम्हें सौंपा गया काम है। अगर पर्यवेक्षक उस समस्या को हल कर सकता है तो तुम उसकी अनदेखी कर सकते हो, लेकिन अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो तुम्हें आगे बढ़कर उस समस्या को हल करना चाहिए। समस्याओं को इस आधार पर विभाजित मत करो कि वे किसकी जिम्मेदारी के दायरे में आती हैं—यह परमेश्वर के प्रति निष्ठाहीनता है। और कुछ? (अपना कर्तव्य निभाते समय काम के लिए अपनी बुद्धि और विशेष गुणों पर निर्भर रहना और सत्य की खोज नहीं करना।) इस तरह के बहुत-से लोग हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि उनके पास बुद्धि और काबिलियत है, और वे अपने साथ होने वाली हर चीज के प्रति उदासीन रहते हैं; वे सत्य की खोज बिल्कुल नहीं करते, और केवल अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, और परिणामस्वरूप, वे कोई भी कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाते हैं। ये सभी वे कठिनाइयाँ हैं जिनका सामना लोग अपने कर्तव्य निभाते समय करते हैं।
II. अपनी संभावनाओं और नियति के साथ व्यवहार से संबंधित मुद्दे
अपनी संभावनाओं और नियति के साथ कोई कैसा व्यवहार करता है, यह भी जीवन प्रवेश से जुड़ा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। कुछ लोगों को जब लगता है कि उनके बचाए जाने की उम्मीद है तब वे कीमत चुकाने के लिए तैयार होते हैं, और जब उन्हें लगता है कि उनके बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है, तब वे नकारात्मक हो जाते हैं। यदि परमेश्वर का घर उन्हें प्रोत्साहन नहीं देता और उनका विकास नहीं करता, तो वे कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते और वे बिना कोई जिम्मेदारी लिए बस अपने कर्तव्यों के निर्वहन की औपचारिकता करते हैं। वे चाहे कुछ भी करें, वे हमेशा अपनी संभावनाओं और नियति पर विचार करते हैं और खुद से पूछते रहते हैं, “क्या वास्तव में मुझे कोई अच्छा गंतव्य मिलेगा? क्या परमेश्वर के वादों में उल्लेख किया गया है कि मेरे जैसे किसी व्यक्ति की संभावनाएँ और गंतव्य क्या होंगे?” अगर उन्हें कोई सटीक उत्तर नहीं मिलता तो ऐसे लोगों में कुछ भी करने का उत्साह नहीं होता। यदि उन्हें परमेश्वर के घर से प्रोत्साहन मिलता है और उन्हें विकसित किया जाता है तो वे ऊर्जा से भर जाते हैं और वे जो कुछ भी करते हैं उसमें वे विशेष रूप से पूर्वसक्रिय होते हैं। परंतु, यदि वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में विफल रहते हैं और उन्हें हटा दिया जाता है तो वे सारी उम्मीदें छोड़ कर तुरंत नकारात्मक हो जाते हैं और अपना कर्तव्य छोड़ देते हैं। जब उन्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ता है तो वे सोचते हैं, “क्या परमेश्वर अब मुझे पसंद नहीं करता? यदि ऐसा है तो दुनियादारी के मेरे अनुसरणों को बाधित करने के बजाय उसे मुझे इस बारे में पहले ही बताना चाहिए था।” यदि उन्हें बर्खास्त कर दिया जाए तो वे सोचते हैं “क्या वे मुझे नीची निगाह से नहीं देख रहे हैं? मेरे बारे में शिकायत किसने की? क्या मुझे हटाया जा रहा है? अगर ऐसा ही है, तो उन्हें मुझे पहले ही बताना चाहिए था!” इसके अलावा, उनके दिल लेन-देन, माँगों और परमेश्वर से अनुचित अनुरोधों से भरे हुए हैं। कलीसिया उनके लिए चाहे जो भी व्यवस्था करे, वे उसे करने के लिए अच्छी संभावनाओं और अच्छी नियति के साथ-साथ परमेश्वर के आशीषों को पूर्वापेक्षाएँ मानते हैं। कलीसिया की व्यवस्था स्वीकार करने और उसके प्रति समर्पण करने के लिए उनकी पूर्वापेक्षा होती है कि कम से कम उनके साथ अच्छे हाव-भाव और रवैये के साथ पेश आया जाए और उन्हें स्वीकृति मिले। क्या ये इस बात की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं कि वे अपनी संभावनाओं और नियति को कैसे लेते हैं? इनमें कुछ और जोड़ो। (यदि अपने कर्तव्य करते समय विचलन या समस्याएँ उत्पन्न होती हैं और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हैं और उससे सावधान रहते हैं; उन्हें उजागर होने और हटा दिए जाने का डर लगता है, और वे हमेशा अपने लिए एक विकल्प बचाकर रखते हैं।) उजागर होने और हटा दिए जाने का डर महसूस करना, और अपने लिए हमेशा एक विकल्प बचाए रखना—ये भी इस बात की अभिव्यक्तियाँ हैं कि वे अपनी संभावनाओं और नियति को कैसे लेते हैं। (जब कोई देखता है कि उजागर किए जाने और चित्रित किए जाने के संबंध में परमेश्वर के वचन उससे मेल खाते हैं या जब वे काट-छाँट का सामना करते हैं और शर्मिंदा होते हैं तो वे निष्कर्ष निकालते हैं कि वे भ्रमित हैं, दानव और शैतान हैं, और वे सत्य को स्वीकार करने में असमर्थ हैं। वे तय करते हैं कि उन्हें बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है और वे नकारात्मक हो जाते हैं।) जब संभावनाओं और नियति की बात हो तो लोग अपने इरादों और इच्छाओं को पूरी तरह से नहीं छोड़ पाते हैं। वे लगातार उन्हें सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं और उसी के अनुसार उनका अनुसरण करते हैं, और उन्हें अपने हर अनुसरण के लिए प्रेरक शक्ति और पूर्वापेक्षा मानते हैं। जब वे न्याय, ताड़ना, परीक्षण, शोधन या खुलासा किए जाने का सामना करते हैं, या खतरनाक परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो वे तुरंत सोचने लगते हैं, “क्या परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता? क्या वह मुझे ठुकरा रहा है? जिस लहजे में वह मुझसे बात करता है वह बहुत कठोर है; क्या वह मुझे बचाना नहीं चाहता? क्या वह मुझे हटा देना चाहता है? अगर वह मुझे हटा देना चाहता है, तो उसे जल्द से जल्द मेरी युवावस्था में ही यह कह देना चाहिए ताकि दुनियादारी के मेरे अनुसरणों में बाधा न पड़े।” इससे उनमें नकारात्मकता, प्रतिरोध, विरोध और सुस्ती पैदा होती है। ये कुछ स्थितियाँ और अभिव्यक्तियाँ हैं जो बताती हैं कि लोग अपनी संभावनाओं और नियति को किस तरह से लेते हैं। यह एक महत्वपूर्ण कठिनाई है जिसका संबंध जीवन प्रवेश से है।
III. अंतर्वैयक्तिक संबंधों से जुड़ी कठिनाइयाँ
आओ, एक और पहलू पर नजर डालें—अंतर्वैयक्तिक संबंध। यह भी जीवन प्रवेश से संबंधित एक महत्वपूर्ण कठिनाई है। उन लोगों के साथ तुम कैसा व्यवहार करते हो जो तुम्हें नापसंद हैं, या जिनकी राय तुमसे अलग होती है, या जो लोग तुम्हारे परिचित हैं, या जिन लोगों के साथ तुम्हारा पारिवारिक संबंध है या जिन्होंने कभी तुम्हारी मदद की है, और जो लोग तुम्हें हमेशा उचित चेतावनी देते हैं, और तुमसे सच बोलते हैं, और तुम्हारी मदद करते हैं और क्या तुम प्रत्येक व्यक्ति के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर सकते हो, साथ ही तुम कैसे व्यवहार करते हो जब दूसरे लोगों के साथ विवाद होता है, जब तुम लोगों के बीच ईर्ष्या और संघर्ष उत्पन्न होते हैं, और जब तुम सामंजस्यपूर्ण ढंग से बातचीत करने में सक्षम नहीं होते, या अपने कर्तव्यों को करने की प्रक्रिया में सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग तक नहीं कर पाते—ये अन्तर्वैयक्तिक संबंधों से जुड़ी कुछ स्थितियाँ और अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या कुछ और भी स्थितियाँ और अभिव्यक्तियाँ हैं? (खुशामदी इंसान होना और किसी दूसरे व्यक्ति की समस्याओं का पता चलने पर उनकी नाराजगी के डर से बोलने की हिम्मत न करना।) यह वह स्थिति है जो तब उत्पन्न होती है जब कोई दूसरों को नाराज करने से डरता है। (इसके अलावा, कोई अगुआओं और कार्यकर्ताओं, या सत्ता और रुतबे वाले लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है।) तुम अगुआओं और कार्यकर्ताओं, या सत्ता और रुतबे वाले लोगों के साथ कैसे पेश आते हो—चापलूसी और चाटुकारिता से, या सही तरीके से—वह इस बात की विशिष्ट अभिव्यक्ति है कि तुम सत्ता और प्रभाव रखने वालों के साथ कैसा व्यवहार करते हो। ये कमोबेश अन्तर्वैयक्तिक संबंधों की कठिनाइयाँ हैं।
IV. मानवीय भावनाओं से संबंधित मुद्दे
आओ, थोड़ी बात मानवीय भावनाओं के बारे में करें। कौन से मसले भावनाओं से संबंधित हैं? पहला यह है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन कैसे करते हो और उनके कार्यकलापों को कैसे देखते हो। यहाँ “उनके कार्यकलापों” में कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालना, पीठ पीछे लोगों की आलोचना करना, छद्म-विश्वासियों जैसे अभ्यास अपनाना, इत्यादि स्वाभाविक रूप से शामिल हैं। क्या तुम इन चीजों को निष्पक्ष रूप से देख सकते हो? जब तुम्हारे लिए अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन लिखना आवश्यक हो तो क्या तुम अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर वस्तुपरक और निष्पक्ष रूप से ऐसा कर सकते हो? इसका संबंध इस बात से है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों के प्रति कैसा रवैया रखते हो। इसके अलावा, क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जिनके साथ तुम्हारी निभती है या जिन्होंने तुम्हारी पहले कभी मदद की है? क्या तुम उनके कार्यकलापों और व्यवहार को वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और सटीक तरीके से देख पाते हो? अगर वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा करते हैं और बाधा डालते हैं तो क्या तुम इसके बारे में पता चलने के बाद तुरंत रिपोर्ट कर पाओगे या उन्हें उजागर कर सकोगे? यह भी कि क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जो अपेक्षाकृत तुम्हारे करीब हैं या जिनकी रुचियाँ तुम्हारे ही जैसी हैं? क्या तुम्हारे पास उनके कार्यकलापों और व्यवहार का निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने, इन्हें परिभाषित करने और इनसे निपटने का तरीका है? मान लो कि जिन लोगों के साथ तुम्हारा भावात्मक संबंध है उनसे कलीसिया सिद्धांतों के अनुसार निपटती है और इसके परिणाम तुम्हारी अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते हैं—तो तुम इसे कैसे देखोगे? क्या तुम आज्ञापालन कर पाओगे? क्या तुम उनसे गुपचुप जुड़े रहोगे, क्या तुम उनसे गुमराह होते जाओगे और यहाँ तक कि उनके लिए बहाने बनाने, उन्हें सही ठहराने और उनका बचाव करने के लिए उनके उकसावे में आते जाओगे? क्या तुम सत्य सिद्धांतों की अवहेलना और परमेश्वर के घर के हितों की अनदेखी करते हुए अपनी मदद करने वाले लोगों का सहयोग करोगे और उनके दोष अपने सिर पर लोगे? क्या ऐसे विभिन्न मुद्दे भावनाओं से संबंधित नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं, “क्या भावनाओं का संबंध केवल रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से नहीं होता है? क्या भावनाओं का दायरा सिर्फ तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन और परिवार के दूसरे सदस्यों तक सीमित नहीं है?” नहीं, भावनाओं में लोगों का एक व्यापक दायरा शामिल होता है। अपने परिवार के सदस्यों का निष्पक्ष मूल्यांकन करने की बात तो भूल ही जाओ—कुछ लोग तो अपने अच्छे दोस्तों और साथियों का भी निष्पक्ष मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं होते हैं और इन लोगों के बारे में बोलते हुए वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर उनका दोस्त अपने कर्तव्य के दौरान उचित कार्य पर ध्यान न देकर हमेशा कुटिल और दुष्ट चलनों में लिप्त रहता है तो वे उसे काफी चंचल बताकर कहेंगे कि अभी उसकी मानवता अपरिपक्व और अस्थिर है। क्या इन शब्दों में भावनाएँ नहीं छिपी हैं? यह भावनाओं से भरे हुए शब्द बोलना है। अगर कोई ऐसा व्यक्ति जिसका उनसे कोई संबंध नहीं है, अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देता और कुटिल और दुष्ट चलनों में लिप्त रहता है, तो उसके बारे में कहने के लिए उनके पास और कठोर बातें होंगी और वे उनकी निंदा भी कर सकते हैं। क्या यह भावनाओं के आधार पर बोलने और कार्य करने की अभिव्यक्ति नहीं है? क्या अपनी भावनाओं के अनुसार जीने वाले लोग निष्पक्ष होते हैं? क्या वे ईमानदार होते हैं? (नहीं।) जो लोग अपनी भावनाओं के अनुसार बोलते हैं, उनमें क्या गड़बड़ है? वे दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार क्यों नहीं कर सकते? वे सत्य सिद्धांतों के आधार पर क्यों नहीं बोल सकते? दोगली बातें करने वाले और तथ्यों के आधार पर न बोलने वाले लोग दुष्ट होते हैं। बोलते समय निष्पक्ष न होना, हमेशा सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं बल्कि अपनी भावनाओं के अनुसार और अपने हित के लिए बोलना, परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में न सोचना और केवल अपनी व्यक्तिगत भावनाओं, प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की रक्षा करना—यही मसीह-विरोधियों का चरित्र है। मसीह-विरोधी इसी तरह बोलते हैं; वे जो कुछ भी कहते हैं वह दुष्टतापूर्ण, विघ्न-बाधा पैदा करने वाला होता है। जो लोग देह की प्राथमिकताओं और हितों के बीच जीते हैं, वे अपनी भावनाओं में जीते हैं। जो लोग अपनी भावनाओं के अनुसार जीते हैं, वे वही लोग हैं जो सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते या उसका अभ्यास नहीं करते हैं। जो लोग अपनी भावनाओं के आधार पर बोलते और कार्य करते हैं, उनमें जरा भी सत्य वास्तविकता नहीं होती। यदि ऐसे लोग अगुआ बन जाते हैं तो वे निस्संदेह नकली अगुआ या मसीह-विरोधी होंगे। न केवल वे वास्तविक कार्य करने में असमर्थ होते हैं, बल्कि वे विभिन्न कुकर्मों में भी संलिप्त हो सकते हैं। उन्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और दंडित किया जाएगा।
V. दैहिक सुख-सुविधाओं की लालसा से संबंधित मुद्दे
दैहिक सुख-सुविधाओं की लालसा करना भी एक गंभीर मुद्दा है। तुम लोगों को क्या लगता है कि शारीरिक सुख-सुविधाओं की लालसा की कुछ अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? तुम लोगों ने निजी तौर पर जो अनुभव किए हैं, उनके आधार पर तुम लोग क्या उदाहरण दे सकते हो? क्या रुतबे के लाभों का आनंद लेना इसमें शामिल है? (हाँ।) कुछ और? (अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय कठिन के बजाय आसान कार्यों को प्राथमिकता देना और हमेशा हल्का काम करना पसंद करना।) कर्तव्य करते समय, लोग हमेशा हल्का काम चुनते हैं, ऐसा काम जो थकाए नहीं और जिसमें बाहर जाकर चीजों का सामना करना शामिल न हो। इसे आसान काम चुनना और कठिन कामों से भागना कहा जाता है, और यह दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्ति है। और क्या? (अगर कर्तव्य थोड़ा कठिन, थोड़ा थका देने वाला हो, अगर उसमें कीमत चुकानी पड़े, तो हमेशा शिकायत करना।) (भोजन और वस्त्रों की चिंता और दैहिक आनंदों में लिप्त रहना।) ये सभी दैहिक सुखों के लालच की अभिव्यक्तियाँ हैं। जब ऐसे लोग देखते हैं कि कोई कार्य बहुत श्रमसाध्य या जोखिम भरा है, तो वे उसे किसी और पर थोप देते हैं; खुद वे सिर्फ आसान काम करते हैं, और यह कहते हुए बहाने बनाते हैं कि उनकी काबिलियत कम है, कि उनमें उस कार्य को करने की क्षमता नहीं है और वे उस कार्य का बीड़ा नहीं उठा सकते—जबकि वास्तव में, इसका कारण यह होता है कि वे दैहिक सुखों का लालच करते हैं। वे कोई भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे कष्ट नहीं उठाना चाहते। अगर उन्हें बताया जाए कि काम खत्म करने के बाद उन्हें खाने के लिए भुना पोर्क मिलेगा, तो वे उस काम को बहुत जल्दी और दक्षता से करते हैं, और तुम्हें उनसे काम जल्दी निपटाने के लिए कहने, उत्साहित करने या उन पर नजर रखने की जरूरत नहीं होगी; लेकिन अगर उनके खाने के लिए भुना पोर्क न हो, और उन्हें अपना काम सामान्य समय के बाद तक करना पड़े, तो वे टाल-मटोल करते हैं, और उस काम को टालने के लिए हर तरह के कारण और बहाने ढूँढ़ते हैं, और कुछ समय तक ऐसा करने के बाद, कहते हैं कि “मुझे चक्कर आ रहे हैं, मेरा पैर सुन्न हो गया है, मेरा दम निकल रहा है! मेरे शरीर का हर हिस्सा दर्द कर रहा है, क्या मैं थोड़ी देर आराम कर सकता हूँ?” यहाँ समस्या क्या है? वे दैहिक सुखों की लालसा करते हैं। ऐसा भी होता है कि लोग अपना कर्तव्य करते समय कठिनाइयों की शिकायत करते हैं, वे मेहनत नहीं करना चाहते, जैसे ही उन्हें थोड़ा अवकाश मिलता है, वे आराम करते हैं, बेपरवाही से बकबक करते हैं, या आराम और मनोरंजन में हिस्सा लेते हैं। और जब काम बढ़ता है और वह उनके जीवन की लय और दिनचर्या भंग कर देता है, तो वे इससे नाखुश और असंतुष्ट होते हैं। वे भुनभुनाते और शिकायत करते हैं, और अपना कर्तव्य करने में अनमने हो जाते हैं। यह दैहिक सुखों का लालच करना है, है न? उदाहरण के लिए, अपना फिगर बनाए रखने के लिए कुछ महिलाएँ हर दिन तय समय पर व्यायाम करती हैं और अच्छी नींद लेती हैं। परंतु, जैसे ही काम बढ़ जाता है और निर्धारित दिनचर्या बाधित होती है, वे दुःखी हो जाती हैं और कहती हैं, “यह ठीक नहीं है; इस काम से सारी चीजों में देरी हो जाती है। मैं अपने निजी मामलों को इससे प्रभावित नहीं होने दे सकती। मैं किसी ऐसे व्यक्ति पर ध्यान नहीं दूँगी जो मुझ पर जल्दी करने का दबाव डालने कोशिश करता हो; मैं अपनी गति से चलती रहूँगी। जब योग करने का समय होगा, मैं योग करूँगी। जब मेरा सोने का समय होगा, मैं अपनी नींद लूँगी। ये काम मैं वैसे ही करती रहूँगी जैसे मैं पहले करती थी। मैं तुम सब लोगों की तरह मूर्ख और मेहनती नहीं हूँ। कुछ सालों में, तुम सब बूढ़ी, साधारण-सी दिखने वाली महिलाओं में बदल जाओगी, तुम्हारा शरीर खराब हो जाएगा और तुम छरहरी नहीं रहोगी। कोई भी तुम्हें देखना नहीं चाहेगा और तुम्हांरे जीवन में आत्मविश्वास नहीं रह जाएगा।” अपने कर्तव्यों को करने में वे कितनी भी व्यस्त क्यों न हों, दैहिक भोग-विलास की संतुष्टि के लिए, सुंदरता के लिए, दूसरों द्वारा पसंद किए जाने के लिए और अधिक आत्मविश्वास के साथ जीने के लिए, वे अपने दैहिक सुखों और प्राथमिकताओं को त्यागने से इनकार करती हैं। यह दैहिक भोग-विलास में लिप्त होना है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर व्याकुल है, और हमें परमेश्वर के इरादों के बारे में विचारशील होना चाहिए।” लेकिन ये महिलाएँ कहती हैं, “मैंने नहीं देखा कि परमेश्वर व्याकुल है; जब तक मैं व्याकुल नहीं हूँ, तब तक मेरे लिए सब ठीक है। यदि मैं परमेश्वर के इरादों के लिए विचारशील होऊँगी, तो मेरे लिए कौन विचारशील होगा?” क्या ऐसी महिलाओं में कोई मानवता है? क्या वे शैतान नहीं हैं? कुछ महिलाएँ ऐसी भी होती हैं, जो चाहे जितनी भी व्यस्तता और दबाव वाला काम करती हों, उसे वे अपने कपड़ों और उन्हें पहनने के तरीके को प्रभावित नहीं करने देतीं। वे हर दिन मेकअप पर घंटों बिताती हैं, और बिना किसी भ्रम के उन्हें अपने घर के पते की तरह ही अच्छी तरह याद रहता है कि किस दिन कौन-से कपड़े पहनने हैं, वे जूतों की किस जोड़ी से मेल खाते हैं, और कब उन्हें सौंदर्य उपचार लेना है और कब मालिश करवानी है। परंतु, जब यह बात आती है कि वे कितना सत्य समझती हैं, कौन-से सत्य वे अभी भी नहीं समझ सकी हैं या उनमें प्रवेश नहीं कर पाई हैं, किन चीजों को वे अभी भी अनमने तरीके से और निष्ठाहीनता से संभालती हैं, उन्होंने कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए हैं, और सत्य से संबंधित ऐसे अन्य मुद्दे जिनमें जीवन प्रवेश शामिल है, वे इन चीजों के बारे में कुछ भी नहीं जानती हैं। जब उनसे इनके बारे में पूछा जाता है, तो वे पूरी तरह से अनभिज्ञ होती हैं। फिर भी, जब खाने, पीने और मनोरंजन जैसे दैहिक आनंदों से संबंधित विषयों की बात आती है तो वे अंतहीन रूप से बकबक कर सकती हैं कि उन्हें रोकना असंभव होता है। कलीसिया का काम या उनके कर्तव्य कितने भी व्यस्ततापूर्ण क्यों न हों, उनके जीवन की दिनचर्या और सामान्य स्थिति कभी बाधित नहीं होती। वे दैहिक जीवन की छोटी से छोटी बात को लेकर भी कभी लापरवाह नहीं होतीं और बहुत सख्त और गंभीर होते हुए उन्हें पूरी तरह से नियंत्रित करती हैं। लेकिन, परमेश्वर के घर का काम करते समय, मामला चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो और भले ही उसमें भाई-बहनों की सुरक्षा शामिल हो, वे उससे लापरवाही से निपटती हैं। यहाँ तक कि वे उन चीजों की भी परवाह नहीं करती, जिनमें परमेश्वर का आदेश या वह कर्तव्य शामिल होता है, जिसे उन्हें करना चाहिए। वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेतीं। यह देह-सुखों के भोग में लिप्त होना है, है न? क्या दैहिक सुखों के भोग में लिप्त लोग कोई कर्तव्य करने के लिए उपयुक्त होते हैं? जैसे ही कोई उनसे कर्तव्य करने या कीमत चुकाने और कष्ट सहने की बात करता है, तो वे इनकार में सिर हिलाते रहते हैं। उन्हें बहुत सारी समस्याएँ होती हैं, वे शिकायतों से भरे होते हैं, और वे नकारात्मकता से भरे होते हैं। ऐसे लोग निकम्मे होते हैं, वे अपना कर्तव्य करने की योग्यता नहीं रखते, और उन्हें हटा दिया जाना चाहिए। जहाँ तक दैहिक-सुखों की लालसा की बात है, हम इसे यहीं छोड़ देते हैं।
VI. स्वयं को जानने से संबंधित कठिनाइयाँ
खुद को जानना जीवन में प्रवेश का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। लेकिन अधिकांश लोगों के लिए खुद को जानना सबसे बड़ी कठिनाई बन जाती है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते या उसका अनुसरण नहीं करते। इसलिए, यह निश्चित है कि जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे असल में खुद को नहीं जान सकते। आत्म-ज्ञान के कौन से पहलू हैं? पहला तो यह जानना है कि किसी की बातचीत और कार्यों में कौन से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं। कभी-कभी, यह अहंकार होता है, कभी धोखेबाजी या शायद दुष्टता, हठधर्मिता अथवा विश्वासघात आदि और भी चीजें हैं। इसके अलावा, जब किसी व्यक्ति पर कोई मुसीबत आती है, तो उसे यह जानने के लिए अपनी जांच करनी चाहिए कि कहीं उसका ऐसा कोई इरादा या मंशा तो नहीं है जो सत्य के अनुरूप न हो। उसे यह भी जाँचना चाहिए कि क्या उसकी बातचीत या कार्यों में ऐसा कुछ तो नहीं है जो परमेश्वर का विरोध या उससे विद्रोह करता हो। विशेष रूप से उन्हें यह जाँचना चाहिए कि जब उनके कर्तव्य की बात हो, तो क्या उसमें भार का बोध है और वह निष्ठावान है, क्या वह ईमानदारी में खुद को परमेश्वर के लिए खपा रहा है या कहीं वह सौदेबाजी तो नहीं कर रहा है या लापरवाह तो नहीं हो रहा है। आत्म-ज्ञान का अर्थ यह जानना भी है कि क्या उसमें अपनी कोई धारणाएँ और कल्पनाएँ तो नहीं हैं, अनावश्यक अपेक्षाएँ तो नहीं हैं या परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और शिकायतें तो नहीं हैं और क्या उसका दिमाग समर्पण के लिए तैयार है। इसका अर्थ यह जानना है कि क्या वह सत्य खोज सकता है, परमेश्वर से प्राप्त कर सकता है और जब उसे परमेश्वर द्वारा आयोजित परिस्थितियों, लोगों, मामलों और चीजों का सामना करना पड़ता है, तो क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है। इसका अर्थ यह जानना है कि क्या उसमें अंतरात्मा और विवेक है और क्या वह सत्य-प्रेमी है। इसका अर्थ यह जानना है कि जब उस पर कोई मुसीबत आती है तो क्या वह समर्पित होता है या तर्क देने की कोशिश करता है, और क्या वह धारणाओं और कल्पनाओं का आश्रय लेता है या इन मामलों को समझने के लिए सत्य की खोज करता है। यह सब आत्म-ज्ञान के दायरे में आता है। विभिन्न स्थितियों, लोगों, मामलों और घटनाओं के प्रति अपने रवैये के प्रकाश में इंसान को इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि क्या वह सत्य से प्रेम करता है और क्या परमेश्वर में सच्ची आस्था रखता है। यदि कोई अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानकर यह समझ सकता है कि परमेश्वर के विरुद्ध उसका विद्रोह कितना बड़ा है, तो इसका अर्थ है कि वह समझदार हो गया है। इसके अलावा, जब उन मामलों की बात आती है जिनमें परमेश्वर के साथ उनका व्यवहार शामिल होता है, तो व्यक्ति को इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या उसमें धारणाएँ हैं, क्या परमेश्वर के नाम और देहधारण के प्रति उसके व्यवहार में भय या समर्पण है और विशेषकर सत्य के संबंध में उसका दृष्टिकोण क्या है। एक व्यक्ति को अपनी कमियों, अपने आध्यात्मिक कद का पता होना चाहिए और उसे यह भी जानना चाहिए कि क्या उसमें सत्य वास्तविकता है, साथ ही उसे यह ज्ञान भी होना चाहिए कि क्या उसका अनुसरण और जिस पथ पर वह चल रहा है, वह सही और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। लोगों को ये तमाम बातें जाननी चाहिए। संक्षेप में, आत्म-ज्ञान के विभिन्न पहलुओं में अनिवार्यतः निम्नलिखित शामिल होती हैं : यह ज्ञान कि स्वयं की काबिलियत ऊंची है या नीची, अपने चरित्र का ज्ञान, अपने कार्यों में अपने इरादों और मंशा का ज्ञान, अपने द्वारा प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभाव और प्रकृति सार का ज्ञान, अपनी प्राथमिकताओं और खोज का ज्ञान, वह जिस राह पर चल रहा है, उसका ज्ञान, चीजों के बारे में अपने विचारों का ज्ञान, जीवन और मूल्यों के बारे में अपने दृष्टिकोण का ज्ञान, परमेश्वर और सत्य के प्रति अपने रवैये का ज्ञान। आत्म-ज्ञान मुख्यतः इन्हीं पहलुओं से युक्त होता है।
VII. परमेश्वर के साथ व्यवहार में लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ
जीवन प्रवेश के बारे में अगली विषयवस्तु परमेश्वर से पेश आने में लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों से संबंधित है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखना, उसके बारे में गलतफहमियाँ विकसित करना और उसके प्रति सतर्कता बरतना, उससे अनुचित माँगें करना, हमेशा उससे बचना चाहना, उसके बोले वचनों को नापसंद करना और लगातार उसकी पड़ताल करने की कोशिश करना। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को ठीक से समझने या पहचानने में असमर्थ होना, साथ ही हमेशा परमेश्वर की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और अधिकार के प्रति संदेह का रवैया रखना और इन चीजों के बारे में पूरी तरह से ज्ञान का अभाव होना भी इसमें शामिल है। इसके अलावा, न केवल गैर-विश्वासियों और दुनिया द्वारा परमेश्वर पर किए जाने वाले आक्षेपों और ईशनिंदा से बचने या इनकार करने में विफल होना, बल्कि इसके उलट, यह पूछना चाहना भी है कि क्या वे आक्षेप या निंदात्मक बातें सच या तथ्यात्मक हैं। क्या यह परमेश्वर पर संदेह करना नहीं है? इनके अलावा, और क्या अभिव्यक्तियाँ हैं? (परमेश्वर के प्रति शंकालु होना और परमेश्वर की परीक्षा लेना।) (परमेश्वर का अनुग्रह पाने की कोशिश करना।) (परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार न करना।) परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकार न करना और साथ ही इस बात पर संदेह करना कि परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदय की जाँच-पड़ताल कर सकता है। (परमेश्वर का विरोध करना भी इसमें शामिल है।) परमेश्वर का विरोध करना और उसके खिलाफ शोर मचाना—यह भी एक अभिव्यक्ति है। परमेश्वर के पास जाने, उससे बात करने और उससे जुड़ने के लिए तिरस्कारपूर्ण और अवमाननापूर्ण रवैया अपनाना भी इसमें शामिल है। और कुछ? (परमेश्वर के प्रति बेपरवाही दिखाना और उसे धोखा देना।) (परमेश्वर के बारे में शिकायत करना।) इसी तरह, मामलों के सामने आने पर कभी भी समर्पण नहीं करना या सत्य की खोज नहीं करना, और हमेशा अपने पक्ष में बहस करना और शिकायत करना। (परमेश्वर के बारे में निर्णय सुनाना और उसकी निंदा करना भी इसमें शामिल है।) (रुतबे के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करना।) (परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करना और उसका गलत फायदा करना।) (परमेश्वर को नकारना, परमेश्वर को अस्वीकार करना और परमेश्वर को धोखा देना।) ये सभी आवश्यक मुद्दे हैं; ये वे विभिन्न स्थितियाँ और भ्रष्ट स्वभाव हैं जो परमेश्वर के प्रति लोगों के व्यवहार में उत्पन्न होते हैं। मूलतः ये लोगों के परमेश्वर के साथ पेश आने की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।
VIII. सत्य के साथ व्यवहार में लोगों के रवैये और विभिन्न अभिव्यक्तियाँ
जीवन प्रवेश संबंधी विषयवस्तु का एक और पहलू यह है कि लोग सत्य के साथ कैसे पेश आते हैं। इस पहलू में कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं? सत्य को एक सिद्धांत या नारा, विनियम या कलीसिया के बूते जीवनयापन करने और रुतबे के लाभों का आनंद लेने की पूंजी के रूप में मानना। इसमें और कुछ जोड़ो। (सत्य को आध्यात्मिक पोषण के रूप में लेना।) सत्य को व्यक्ति की आध्यात्मिक आवश्यकताएँ पूरी करने वाले आध्यात्मिक पोषण के रूप में ग्रहण किया जाना इसमें शामिल है। (सत्य स्वीकार न करना और उससे विमुख होना।) यह सत्य के प्रति एक रवैया है। (यह सोचना कि परमेश्वर के वचन दूसरों को उजागर करने के लिए हैं, उनका स्वयं से संबंध न समझना, और स्वयं को सत्य का महारती समझना।) तुमने इस अभिव्यक्ति का वर्णन काफी सटीक तरीके से किया है। इस अभिव्यक्ति वाले लोग मानते हैं कि वे परमेश्वर के बोले सभी सत्य समझते हैं, और मनुष्य के जो भ्रष्ट स्वभाव और सार वह उजागर करता है, वे दूसरों के संदर्भ में हैं, न कि उनके अपने संदर्भ में। वे समझते हैं कि उन्हें सत्य में महारत हासिल है, और अक्सर दूसरों को उपदेश देने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करते हैं, मानो खुद उनमें भ्रष्ट स्वभाव न हो, वे पहले से ही सत्य की प्रतिमूर्ति और सत्य के प्रवक्ता हों। वे किस किस्म के कूड़ा हैं? वे सत्य की प्रतिमूर्ति बनना चाहते हैं—क्या वे ठीक पौलुस जैसे नहीं हैं? पौलुस इस बात से इनकार करता था कि प्रभु यीशु ही मसीह और परमेश्वर था; वह खुद मसीह और परमेश्वर का पुत्र बनना चाहता था। ये लोग पौलुस जैसे हैं, ये उसी तरह के हैं, वे मसीह-विरोधी हैं। और कुछ? (परमेश्वर के वचनों को अभ्यास किए जाने वाले सत्य के रूप में देखने के बजाय उन्हें किसी साधारण व्यक्ति के शब्द मानना, और परमेश्वर के वचनों के प्रति एक तिरस्कारपूर्ण और सरसरी रवैया रखना।) परमेश्वर के वचनों को स्वीकार किए जाने और अभ्यास किए जाने वाले सत्य के रूप में न देखना, बल्कि उन्हें मानवीय शब्द मानना—यह एक है। (परमेश्वर के वचनों को गैर-विश्वासियों के फलसफों और सिद्धांतों से जोड़ना।) परमेश्वर के वचनों को फलसफे से जोड़ना, परमेश्वर के वचनों को सजावटी या खोखले शब्दों के रूप में मानना जबकि प्रसिद्ध और महान लोगों की प्रचलित कहावतों को सत्य मानना, और ज्ञान, पारंपरिक संस्कृति और रीति-रिवाजों को सत्य के रूप में मानना और परमेश्वर के वचनों को उनसे प्रतिस्थापित कर देना। जो लोग इस अभिव्यक्ति का प्रदर्शन करते हैं, वे हालात का सामना होने पर सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों की गवाही देने और उन्हें प्रसारित करने की बात लगातार करते हैं, लेकिन अपने दिलों में वे धर्मनिरपेक्ष दुनिया के उन प्रसिद्ध और महान लोगों की प्रशंसा करते हैं, और यहाँ तक कि प्राचीन सोंग राजवंश के बाओ गोंग की भी प्रशंसा करते हैं, और कहते हैं, “वह वास्तव में एक सख्त और निष्पक्ष न्यायाधीश था। उसने कभी भी कोई अन्यायपूर्ण फैसला नहीं सुनाया, उससे कभी भी न्याय में कोई चूक नहीं हुई, या उसके जल्लाद की तलवार की धार से किसी की आत्मा के साथ कुछ गलत नहीं हुआ!” क्या यह किसी प्रसिद्ध व्यक्ति और ऋषि की चापलूसी और प्रशंसा भाव का प्रदर्शन नहीं है? प्रसिद्ध लोगों के शब्दों और कार्यों को सत्य के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करना सत्य की बदनामी और घोर निंदा करना है! कलीसिया में इस तरह के लोग सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के वचनों के प्रसार की इच्छा के बारे में बहुत बात करते हैं, लेकिन वे अपने दिमाग में जो सोचते हैं और आम तौर पर जो कहते हैं वह सिर्फ लोकोक्तियाँ और कहावतें हैं, जिन्हें वे बहुत ही अभ्यस्त और निर्बाध तरीके से व्यक्त करते हैं। ये बातें हमेशा उनके होठों पर होती हैं और उनकी जुबान से आसानी से निकलती रहती हैं। उन्होंने कभी भी परमेश्वर के वचनों के बारे में अपनी अनुभवजन्य समझ के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा होता, और इस बारे में तो और भी नहीं बोलते हैं कि परमेश्वर के कौन-से वचन उनके कृत्यों और आचरण का मानदंड या आधार हैं। वे जो भी बोलते हैं, वे सब भ्रांतियाँ हैं, जैसे, “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है”, “मारने से कोई फायदा नहीं होता”, “दयनीय लोगों में हमेशा कुछ न कुछ घृणा योग्य होता है”, “अपने लिए हमेशा थोड़ी गुंजाइश छोड़ो”, “भले ही मैंने कोई उपलब्धि हासिल न की हो, मगर मैंने कठिनाई झेली है; अगर कठिनाई नहीं तो थकान ही सही।”, “नदी पार करने के बाद पुल को न जलाओ; काम निकल जाने के बाद कामगार के हाथ न काटो”, “दूसरों के लिए उदाहरण स्थापित करने के लिए किसी को कठोर दंड दो, और उसे दूसरों के लिए चेतावनी बना दो”, और “नया मुल्ला ज्यादा प्याज खाता है”, आदि—वे जो भी कहते हैं, वह सत्य नहीं होता। कुछ लोग समकालीन कवियों के शब्दों को याद कर लेते हैं और उन्हें परमेश्वर के घर के वीडियो के टिप्पणी अनुभाग में भी पोस्ट करेंगे। क्या यह आध्यात्मिक समझ के अभाव की अभिव्यक्ति नहीं है? क्या वे शब्द सत्य हैं? क्या वे सत्य से संबंधित हैं? कुछ लोग अक्सर ऐसी बातें कहते हैं, “तुम्हारे तीन फीट ऊपर एक परमेश्वर है,” और “अच्छाई और बुराई का बदला अंत में मिलेगा; यह बस वक्त की बात है।” क्या ये कथन सत्य हैं? (नहीं।) ये कथन कहाँ से आते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों में मिलते हैं? वे बौद्ध संस्कृति से आते हैं और उनका परमेश्वर में विश्वास करने से कोई संबंध नहीं है। इसके बावजूद, लोग अक्सर उन्हें खींच कर सत्य के स्तर पर लाने की कोशिश करते हैं; यह आध्यात्मिक समझ के अभाव की अभिव्यक्ति है। कुछ लोगों में खुद को परमेश्वर के लिए खपाने का थोड़ा-बहुत संकल्प होता है, और वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर ने मुझे प्रोत्साहन दिया है, परमेश्वर ने मुझे ऊपर उठाया है, इसलिए मुझे इस कहावत को चरितार्थ करना चाहिए कि ‘एक सज्जन उसे समझने वालों के लिए अपनी जान न्योछावर कर देगा।’” तुम भले आदमी नहीं हो, और परमेश्वर ने तुमसे तुम्हारा जीवन बलिदान करने को नहीं कहा है। क्या कर्तव्य करते समय शौर्य की इतनी उच्च भावना रखना आवश्यक है? तुम अपने कर्तव्यों को जीवित रहते पूरा नहीं कर सकते, तो क्या मृत्यु के बाद ऐसा कर पाने की कोई उम्मीद है? फिर तुम अपने कर्तव्यों का पालन कैसे करोगे? कुछ दूसरे लोग कहते हैं, “मैं स्वाभाविक रूप से निष्ठावान हूँ, मैं बहादुर और जुझारू व्यक्ति हूँ। मैं अपने दोस्तों के लिए सब कुछ दांव पर लगाना पसंद करता हूँ। परमेश्वर के साथ भी ऐसा ही है : चूँकि परमेश्वर ने मुझे चुना है, बढ़ावा दिया है और ऊपर उठाया है, इसलिए मुझे परमेश्वर के अनुग्रह का प्रतिदान करना चाहिए। मौत आ जाए तो भी मैं निश्चित रूप से परमेश्वर के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दूँगा!” क्या यह सत्य है? (नहीं।) परमेश्वर ने इतने सारे वचन कहे हैं, इन लोगों ने उनमें से एक भी वचन याद क्यों नहीं रखा? हर समय, वे जो संगति करते हैं वह बस यही है: “कुछ और कहने की जरूरत नहीं है। एक सज्जन उसे समझने वालों के लिए अपनी जान न्योछावर कर देगा, और लोगों को अपने दोस्तों के लिए सब कुछ दाँव पर लगा देना चाहिए और निष्ठावान होना चाहिए।” वे “परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करना” वाक्यांश भी नहीं बोल सकते। इतने सालों तक धर्मोपदेश सुनने और परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद भी, वे एक भी सत्य नहीं जानते, और दो-चार आध्यात्मिक शब्द भी नहीं बोल सकते—यही उनकी आंतरिक समझ और सत्य की परिभाषा है। मुझे बताओ कि क्या यह दयनीय नहीं है? क्या यह हास्यास्पद नहीं है? क्या यह आध्यात्मिक समझ नहीं होने की अभिव्यवक्ति नहीं है? इतने सारे उपदेशों को सुनने के बाद भी, वे सत्य नहीं समझते और नहीं जानते कि सत्य क्या है, फिर भी वे सत्य को प्रतिस्थापित करने के लिए बेशर्मी से उन शैतानी, बेहूदा, भद्दे और बेहद हास्यास्पद शब्दों का उपयोग करते हैं। न केवल उनकी आंतरिक सोच और समझ ऐसी है, बल्कि वे लगातार इसे फैलाते और दूसरों को भी सिखाते हैं, जिससे दूसरों की समझ भी उनके जैसी ही हो जाए। क्या इसमें कुछ हद तक विघ्न-बाधा पैदा करने वाली प्रकृति नहीं है? ऐसा लगता है कि ये लोग जो कि सत्य नहीं समझते और जिनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है, वे खतरनाक हैं, विघ्न-बाधा पैदा करने में और कभी भी कहीं भी हास्यास्पद और भद्दी चीजें करने में सक्षम होते हैं। लोग सत्य के साथ कैसे पेश आते हैं, उसकी कुछ अन्य अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? (सत्य का तिरस्कार करना, केवल वही स्वीकार करना जो किसी की अपनी धारणाओं के साथ मेल खाता हो, और उनसे मेल न खाए उसे अस्वीकार करना और उसका अभ्यास करने से इनकार करना।) केवल वही स्वीकार करना और उसका अभ्यास करना जो किसी की अपनी धारणाओं के साथ मेल खाता है और जो मेल न खाए उसका सतत विरोध और निंदा करना—यह एक रवैया है। (यह नहीं मानना कि सत्य किसी के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर सकता है या किसी व्यक्ति को बदल सकता है।) सत्य स्वीकार नहीं करना या सत्य पर विश्वास नहीं करना भी एक रवैया है। एक और अभिव्यक्ति यह है कि सत्य के प्रति किसी का रवैया और नजरिया उसके मिजाज, माहौल और भावनाओं के अनुसार बदल जाता है। इन लोगों के संदर्भ में, जब वे किसी दिन अच्छा और उत्साहित महसूस करते हैं तो सोचते हैं, “सत्य उत्कृष्ट है! सत्य सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है, मनुष्यों के लिए अभ्यास करने और प्रसारित करने के लिए सबसे योग्य चीज है।” जब उनका मूड खराब हो, तो वे सोचते हैं, “सत्य क्या है? सत्य का अभ्यास करने से क्या लाभ हैं? क्या इससे पैसे मिल सकते हैं? सत्य क्या बदल सकता है? यदि सत्य का अभ्यास किया जाए, तो क्या हो सकता है? मैं इसका अभ्यास नहीं करूँगा—इससे क्या फर्क पड़ता है?” ऐसे लोगों की राक्षसी प्रकृति उभर कर आती है। ये अभिव्यक्तियाँ वे स्वभाव और विभिन्न स्थितियाँ हैं जिन्हें लोग सत्य के साथ व्यवहार करने के तरीके में प्रकट करते हैं। कुछ अन्य विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? (परमेश्वर के वचनों को सत्य या जीवन के रूप में न मानकर उनका विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना।) परमेश्वर के वचनों को अकादमिक दृष्टिकोण से देखना, बिना किसी स्वीकृति और समर्पण के दृष्टिकोण के हमेशा अपने ज्ञान के आधार पर सत्य का विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना। कमोबेश, ये सत्य के प्रति लोगों के व्यवहार में आने वाली कठिनाइयाँ हैं जिन्हें परिभाषित किया जा सकता है और सारांश के शीर्षकों में विभक्त किया जा सकता है।
जीवन प्रवेश की कठिनाइयों पर हमारी विषयवस्तु में कुल आठ पहलू हैं, जो जीवन प्रवेश और उद्धार प्राप्त करने से जुड़ी मुख्य कठिनाइयाँ हैं। इन आठ पहलुओं के भीतर लोगों द्वारा प्रकट की गई सभी स्थितियाँ और स्वभाव परमेश्वर के वचनों में उजागर होते हैं; परमेश्वर ने लोगों से अपेक्षाएँ निर्धारित की हैं और उन्हें अभ्यास का मार्ग बताया है। अगर लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार प्रयास कर सकें, एक गंभीर रवैया अपना सकें, तीव्र लालसा का रवैया अपना सकें, और अपने जीवन प्रवेश का दायित्व उठा सकें, तो परमेश्वर के वचनों में वे इन आठों प्रकार की समस्याओं को हल करने के प्रासंगिक सत्य पा सकते हैं, और उनमें से प्रत्येक के लिए अभ्यास के मार्ग हैं। उनमें से कोई भी न सुलझने वाली चुनौतियाँ या किसी भी प्रकार का रहस्य नहीं है। हालाँकि, अगर तुम अपने जीवन प्रवेश के लिए बिल्कुल भी बोझ नहीं उठाते, और सत्य में या अपना स्वभाव बदलने में जरा भी दिलचस्पी नहीं रखते, तो परमेश्वर के वचन कितने भी स्पष्ट और सटीक क्यों न हों, वे तुम्हारे लिए केवल सामान्य पाठ और धर्म-सिद्धांत ही रहेंगे। यदि तुम सत्य का अनुसरण या अभ्यास नहीं करते, तो तुम्हारे सामने चाहे कोई भी समस्या हो, तुम उसका समाधान नहीं पा सकोगे, जिससे तुम्हारे लिए उद्धार प्राप्त करना बहुत कठिन हो जाएगा। शायद तुम हमेशा मजदूर होने की अवस्था में बने रहोगे; शायद तुम हमेशा उद्धार प्राप्त करने में असमर्थ रहने और परमेश्वर द्वारा ठुकराए जाने और हटाए जाने की अवस्था में बने रहोगे।
नकली अगुआओं के काम के दुष्प्रभाव और परिणाम
जब लोगों के जीवन प्रवेश में आने वाली तमाम कठिनाइयों की बात आती है, तो नकली अगुआ क्या करते हैं? जब लोग कठिनाइयों के इन आठ प्रकारों में से किसी एक के अंतर्गत आने वाली किसी भी तरह की स्थिति का सामना करते हैं तो क्या नकली अगुआ इसे पहचान सकते हैं, और इन लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों और अपने स्वयं के अनुभवजन्य ज्ञान का उपयोग कर सकते हैं? दुर्भाग्य से, जब लोग कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो ये नकली अगुआ केवल सतही प्रयास करते हैं, बस कुछ उथली, बेमतलब की और अप्रासंगिक टिप्पणियाँ करते हैं जिनका लोगों के स्वभाव और लोगों की समस्याओं को हल करने में वास्तविक कठिनाइयों से कोई संबंध नहीं होता। उदाहरण के लिए, नकली अगुआ अक्सर कहते हैं कि “तुम सत्य से प्रेम नहीं करते!” इस तरह से वे लोगों की वास्तविक कठिनाइयों को हल करने और उनके सार को चित्रित करने का प्रयास करते हैं। वे लोगों को किसी छोटी-सी समस्या या स्थिति का भी हल परमेश्वर के वचनों में खोजने में मदद नहीं कर सकते, न ही वे सत्य पर संगति करके इसे हल कर सकते हैं। इसके बजाय, वे कुछ धर्म-सैद्धांतिक और असंबंधित टिप्पणियाँ करते हैं, या वे समस्या का फायदा उठाते हैं और लोगों को पश्चात्ताप करने का अवसर दिए बिना उन्हें पूरी तरह से खारिज करने के लिए बात का बतंगड़ बना देते हैं। वास्तव में, यदि किसी के पास परमेश्वर के वचन समझने की क्षमता है और आध्यात्मिक समझ है, तो वह परमेश्वर के वचनों में इन आठ पहलुओं का प्रकाशन पा सकता है, यह मुश्किल नहीं है। परंतु, चूँकि नकली अगुआओं में आध्यात्मिक समझ नहीं होती, उनकी काबिलियत कम होती है, और उनमें समझने की क्षमता का अभाव होता है, साथ ही यह भी एक तथ्य है कि उनमें से कुछ तो बस उत्साही होते हैं, कुछ करने के उत्सुक होते हैं, पाखंडी होते हैं, और आध्यात्मिक व्यक्ति होने का दिखावा करते हैं, वे दूसरे लोगों की समस्याओं को बिल्कुल हल नहीं कर सकते। जब लोगों के सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं की बात आती है, तो नकली अगुआ उन्हें इन शब्दों में सलाह देते हैं, “परमेश्वर का कार्य इतना आगे बढ़ चुका है; तुम अभी भी ईर्ष्या और दूसरों से विवाद क्यों कर रहे हो? क्या तुम्हारे पास इसके लिए समय है? इस पर लड़ने का क्या फायदा है? क्या इस बात पर लड़े बिना तुम काम नहीं चला सकते?” “परमेश्वर का कार्य इतना आगे आ चुका है, लेकिन तुम अभी भी इतने भावुक हो, और तुम इसे जाने नहीं दे सकते। देर-सवेर, ये भावनाएँ तुम्हारी जान ले लेंगी!” “परमेश्वर का कार्य इतना आगे आ चुका है, तो तुम अब भी भोजन और कपड़ों के बारे में इतने चिंतित क्यों हो? क्या तुम कोई खास पोशाक पहने बिना काम नहीं चला सकते? क्या तुम चमड़े के जूते खरीदे बिना काम नहीं चला सकते? तुम्हें परमेश्वर के वचनों और अपने कर्तव्य के बारे में अधिक सोचना चाहिए!” “जब तुम पर कोई बात आन पड़े, तो परमेश्वर से अधिक प्रार्थना करो। तुम्हारे साथ कुछ भी हो, एक ही सबक है: परमेश्वर के प्रति समर्पण करना सीखना और उसकी संप्रभुता और व्यवस्था को समझना।” क्या यह सलाह वास्तविक समस्याओं को हल कर सकती है? बिल्कुल नहीं। अन्यथा, वे कहते हैं, “शैतान ने लोगों को गहराई से भ्रष्ट कर दिया है। भावुक होकर, क्या तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर रहे हो? खुद को नहीं जानकर क्या तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर रहे हो?” समस्या चाहे जो हो, नकली अगुआ नहीं जानते कि किसी व्यक्ति के सार या स्थिति का गहन-विश्लेषण करने के लिए सत्य की संगति कैसे करें, वे यह नहीं समझ पाते कि लोगों की स्थितियाँ कैसे उत्पन्न होती हैं, और न ही वे उनकी स्थितियों के आधार पर, उनकी समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की संगति, उचित सहायता और प्रावधान प्रदान कर पाते हैं। इसके बजाय, वे हमेशा एक ही बात कहते हैं : “परमेश्वर से प्रेम करो! अपने कर्तव्य करने के लिए कड़ी मेहनत करो, तुम्हें परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, और जब तुम समस्याओं का सामना करो तो अधिक प्रार्थना करो!” “सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के भीतर है। सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है!” “सत्य की खोज किए बिना काम नहीं चलेगा। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ना चाहिए। परमेश्वर के वचन सब कुछ स्पष्ट कर देते हैं, लेकिन लोग बस सत्य से प्रेम नहीं करते!” “आपदाएँ आने ही वाली हैं, सभी चीजों का अंतिम परिणाम निकट है, और परमेश्वर का कार्य समाप्त हो रहा है, लेकिन तुम्हें बेचैनी नहीं है। मनुष्यों के पास कितने दिन बचे हैं? परमेश्वर का राज्य आ गया है!” नकली अगुआ बस ये बेतुकी बातें कहते हैं, कभी भी विभिन्न समस्याओं का विशिष्ट और गहन विश्लेषण नहीं करते, न ही लोगों को वास्तविक प्रावधान या सहायता प्रदान करते हैं। या तो वे लोगों को पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों से कुछ अंश ढूँढ़ते हैं, या वे उनसे निपटने की अप्रासंगिक सलाह देते हैं। अंत में क्या होता है? नकली अगुआओं से हुए नुकसान के चलते लोग न केवल अपने भ्रष्ट स्वभाव को नहीं जान पाते, बल्कि वे यह भी नहीं जानते हैं कि उनका अपना चरित्र कैसा है, वे किस तरह के व्यक्ति हैं, और उनका प्रकृति सार कैसा है; वे इस बारे में स्पष्ट नहीं होते कि उनकी अपनी काबिलियत कैसी है, उनमें समझने की क्षमता है या नहीं, या वे किस मार्ग पर हैं। वे अपने दिल में जिन सांसारिक और चलन की चीजों से प्रेम करते हैं और महत्व देते हैं, उन्हें अब भी पकड़े रखते हैं, और कोई भी उन्हें इन चीजों को समझने, उनका गहन-विश्लेषण करने या विश्लेषण करने में मदद नहीं करता। ये नकली अगुआओं के काम के परिणाम हैं। जब समस्याएँ खड़ी होती हैं, तो वे या तो लोगों को बहुत बुरी तरह से झाड़ते हैं, मनमाने ढंग से उनकी निंदा करते हैं और गलत तरीके से उन पर आरोप लगाते हैं, या वे लोगों को यथार्थ से परे सलाह और सबक देते हैं, या वे गलत तुलनाएँ करने के लिए परमेश्वर के वचनों का जबरदस्ती उपयोग करते हैं। जो लोग उन्हें सुनते हैं, वे सोचते हैं, “मुझे ऐसा लगता है कि मैं समझ रहा हूँ, लेकिन ऐसा भी लगता है कि मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा—यह ऐसा है कि उन्होंने जो कहा वह मैंने शायद समझ लिया है, लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि मैं नहीं समझ पाया हूँ। ऐसा क्यों है? अगुआ जो कुछ भी कहता है वह सही है, लेकिन मैं अपने दिल में इस मुद्दे से छुटकारा क्यों नहीं पा रहा हूँ? मैं इस कठिनाई का समाधान क्यों नहीं ढूँढ़ पा रहा हूँ? मैं अभी भी इस तरह क्यों सोचता हूँ और क्यों ये चीजें करना चाहता हूँ? मैं यह क्यों नहीं समझ पाता हूँ कि मुद्दे का सार और मूल कहाँ है? अगुआ कहता है कि मुझे सत्य से प्रेम नहीं है, और मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझे सत्य से प्रेम नहीं है, लेकिन मैं इस स्थिति से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहा हूँ?” क्या इन अगुआओं का कोई प्रभाव पड़ा है? हालाँकि उन्होंने बात की है और काम किया है, पर यह सब बहुत बड़ी उलझन है, और इसका वह प्रभाव नहीं पड़ा जो होना चाहिए था। उन्होंने लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने, परमेश्वर के वचनों से अपनी तुलना करने, अपनी स्थितियाँ सटीक रूप से समझने या अपनी कठिनाइयों को हल करने में सक्षम नहीं बनाया है। जहाँ तक उन अड़ियल, बेशर्म लोगों की बात है जो सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, जब वे इन अगुआओं को गंभीरतापूर्वक और धैर्यपूर्वक डांटते हुए सुनते हैं, तो उनका सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता हैं। साथ ही, वे इन अगुआओं द्वारा कहे गए शब्दों को बार-बार दोहराते हैं—अगुआ जब पहला भाग समाप्त करते हैं, तब ये लोग उसके अगले भाग पर आ जाते हैं, और वे जल्दी ही अधीर होकर कहते हैं, “और मत कहो। मैं पहले से ही तुम्हारी सारी बातें समझ चुका हूँ। यदि तुम बोलना जारी रखोगे तो मेरा जी मिचलाने लगेगा और उल्टी होने को आएगी!” फिर भी, अगुआ कहते रहते हैं, “तुम सत्य से प्रेम नहीं करते। अगर तुम सत्य से प्रेम करते तो तुम मेरी कही हर बात समझ जाते।” वे जवाब देते हैं, “मुझे सत्य से प्रेम हो या न हो, किंतु तुमने ये शब्द इतनी बार दोहराए हैं कि उनमें कुछ भी नया नहीं है, और मैं उन्हें सुनते-सुनते थक गया हूँ!” नकली अगुआ विनियमों से सख्ती से चिपके हुए और कुछ खास वाक्यांशों पर अड़े रहते हुए इस तरह से काम करते हैं, वे लोगों की वास्तविक कठिनाइयों को हल करने में पूरी तरह विफल रहते हैं। अगर कोई परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखता है, तो नकली अगुआ कहते हैं कि वह व्यक्ति खुद को नहीं जानता। अगर किसी में मानवता कम है, वह लोगों के साथ घुल-मिल नहीं पाता, और उसके सामान्य अंतर्वैयक्तिक संबंध नहीं हैं, तो नकली अगुआ कहते हैं कि वह और इस मामले में शामिल दूसरा व्यक्ति, दोनों ही दोषी हैं, वह उन दोनों को उपदेश देते हैं, उन दोनों पर दोष मढ़ते हुए कहते हैं, “ठीक है, अब तुम दोनों का हिसाब बराबर हो गया। हमें अपने कार्यों में निष्पक्ष और औचित्यपूर्ण होना चाहिए, बिना किसी पक्षपात के सभी के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। जो कोई भी तार्किक बात करता है, वह सत्य से प्रेम करता है, जबकि जो बिना तर्क के बोलते हैं उन्हें अपना मुँह बंद कर लेना चाहिए, कम बोलना चाहिए और भविष्य में बोलना कम और काम ज्यादा करना चाहिए। जो कोई भी सही बात कहता हो उसे अधिक सुना जाना चाहिए।” क्या यह किसी समस्या का समाधान करना है? क्या यह काम करना है? क्या यह बच्चों को बहलाने और लोगों को बेवकूफ बनाने जैसी बात नहीं है? नकली अगुआ भले ही व्यस्त दिखें, लेकिन वे किसी की समस्याएँ हल नहीं कर सकते। उनका काम कितना प्रभावी है? यह रद्दी और बेतुका है! ये गैर-विश्वासियों के काम हैं।
परमेश्वर में विश्वास करने के अपने अनुभव के दौरान, लोग अक्सर कुछ कठिनाइयों का सामना करते हैं, और नकली अगुआ उनमें से किसी का भी समाधान नहीं कर सकते। नकली अगुआ कुछ उन प्रत्यक्ष कठिनाइयों को भी हल नहीं कर सकते जिन्हें सिर्फ कुछ शब्दों से ठीक किया जा सकता है, और वे उन पर बहुत ज्यादा हंगामा भी करते हैं और हर छोटी-मोटी समस्या को बड़ा मुद्दा बना देते हैं। कुछ लोग बुरे नहीं होते, बस उनकी मानवता के लिहाज से उनमें शिष्टाचार की थोड़ी कमी होती है, वे बुनियादी शिष्टाचार नहीं समझते, और थोड़े गंदे होते हैं। नकली अगुआ इन छोटी-मोटी समस्याओं को पकड़ कर उन पर बहुत ज्यादा हंगामा करते हैं, भाई-बहनों से उन पर चर्चा करवाते हैं, उनकी आलोचना करते हैं और उनकी निंदा करते हैं। यह सब उन लोगों पर एक स्थायी छाप छोड़ने के उद्देश्य से होता है ताकि वे वैसा व्यवहार जारी रखने की हिम्मत न करें। क्या यह जरूरी है? क्या यह समस्याओं को हल करने का कोई तरीका है? क्या यह समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना है? (नहीं।) जब तक किसी व्यक्ति की मानवता में कोई बड़ी समस्या न हो, और वह व्यक्ति बुरा न हो और ईमानदारी से खुद को खपा सकता हो, तब तक, उन पर काम करना जारी रखना, उन्हें चेताते रहना, उन्हें सहायता, संगति और समर्थन प्रदान करना पर्याप्त है, बशर्ते वे इन्हें स्वीकार कर रहे हों। यदि लोग लगातार ऐसा व्यवहार करते हैं, तो उनके चरित्र में कोई समस्या होती है या उनका स्वभाव क्रूर होता है, और तब कठोर कटाई-छँटाई और अनुशासन आवश्यक है। यदि वे इसे स्वीकार करने से इनकार करें, तो या तो उनका कर्तव्य निलंबित कर दिया जाना चाहिए, या उन्हें हटा दिया जाना चाहिए। नकली अगुआ इसकी असलियत नहीं समझ सकते, न ही वे इस तरह से कार्य करते हैं; जब वे ऐसे दुष्ट लोगों का सामना करते हैं, तो वे उनके साथ भाई-बहनों की तरह व्यवहार करते हैं, उन्हें सहायता और समर्थन प्रदान करते हैं। क्या यही काम करना है? क्या यह समस्याओं को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना है? (नहीं।) नकली अगुआओं का काम बेतुका, बचकाना और हास्यास्पद होता है, और उसमें कुछ भी परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं होता। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें तुम देख सकते हो कि वे आम आदमी हैं, उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है और वे बिना सिद्धांतों के लापरवाही से कार्य करते हैं। इसी तरह, वे लोगों के जीवन में आने वाली विभिन्न कठिनाइयों की असलियत नहीं जान सकते या उन्हें सटीक तरीके से नहीं समझ सकते। नतीजतन, समाधान के उनके प्रयास अविश्वसनीय रूप से अनाड़ी, मूर्खतापूर्ण और किसी आम आदमी की तरह के लगते हैं। जो लोग उनकी मदद स्वीकार करते हैं, वे भी असहज और दबे हुए महसूस करते हैं। समय बीतने पर, कुछ लोग आस्था भी खो देते हैं, और कहते हैं, “अगुआ ने मेरे साथ इतनी बार संगति की है, तो मैं क्यों नहीं बदला? मैं बार-बार क्यों पूर्वावस्था में पँहुच जाता हूँ? क्या ऐसा है कि मेरी मानवता विशेष रूप से कमजोर है, और मैं बचाए जाने लायक नहीं हूँ?” कुछ लोग तो यह कहते हुए संदेह भी पालते हैं कि, “क्या मेरी आत्मा में कुछ गड़बड़ है? क्या मुझमें बुरी आत्माएँ सक्रिय हैं? क्या परमेश्वर मुझे नहीं बचाएगा? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि मेरे लिए कोई आशा नहीं है?” ये नकली अगुआओं के काम के परिणाम हैं। अपने काम में, वे एक चीज को दूसरी चीज समझ लेते हैं, और वे हास्यास्पद, बेतुके, मूर्खतापूर्ण और अनाड़ियों जैसे तरीके से काम करते हैं, जिसके कारण अंततः वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाले कुछ लोगों के सामने आने वाली विभिन्न कठिनाइयों का त्वरित समाधान नहीं हो पाता। इसके परिणामस्वरूप उन लोगों में नकारात्मकता और कमजोरी पैदा होती है, साथ ही परमेश्वर और उसके कार्य के बारे में कुछ धारणाएँ और गलतफहमियाँ भी पैदा होती हैं। वे कहते हैं, “मैंने परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़े हैं, तो मेरी समस्या का समाधान क्यों नहीं हो सकता? क्या परमेश्वर के वचन वास्तव में लोगों को बचा सकते हैं और बदल सकते हैं?” उनके दिलों में संदेह पैदा होता है, और वे भ्रम में फँस जाते हैं। इसलिए, जब नकली अगुआ काम करते हैं, तो वे बहुत सारे सकारात्मक परिणाम नहीं देते हैं, लेकिन वे बहुत सारी नकारात्मक और प्रतिकूल चीजों को जन्म देते हैं। उनका काम न केवल परमेश्वर के बारे में लोगों की धारणाओं, संदेहों और आलोचनाओं को दूर करने में विफल रहता है, बल्कि इसके विपरीत, वह परमेश्वर के बारे में उनकी गलतफहमियों और सतर्कता को बढ़ाता है। कई वर्षों तक आस्था रखने के बाद भी, इन लोगों के मुद्दे अनसुलझे रह जाते हैं। जब वे नकली अगुआओं द्वारा गुमराह कर गलत दिशा में ले जाए जा रहे होते हैं, तो परमेश्वर के बारे में उनकी गलतफहमियाँ और सतर्कता और भी गहरी हो जाती है। ऐसा होने पर, क्या वे जीवन प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं?
सत्य और मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन जैसी सकारात्मक चीजों के बारे में नकली अगुआओं की समझ बहुत-से लोगों के सकारात्मक चीजों के प्रति दृष्टिकोण और रवैये को प्रभावित कर सकती है। जब नकली अगुआ कोई काम नहीं कर रहे होते हैं तब अलग बात है—लेकिन जैसे ही वे काम करना शुरू करते हैं, विचलन सामने आते हैं और प्रतिकूल परिणाम उत्पन्न होते हैं। इन कलीसियाओं में एक अनुचित माहौल बन जाता है, यानी, अक्सर कुछ गलत और बेहूदा कहावतें उत्पन्न हो जाती हैं, और वहाँ के लोग परमेश्वर के वचनों में अक्सर आने वाले आध्यात्मिक शब्दों को नहीं समझ पाते हैं, न ही यह जानते हैं कि उन्हें कैसे लागू करें, जबकि इन नकली अगुआओं द्वारा अक्सर बोले जाने वाले तथाकथित आध्यात्मिक शब्द और कहावतें इन कलीसियाओं में व्यापक रूप से फैल जाती हैं। इन चीजों का लोगों पर कम प्रभाव नहीं होता : वे न केवल लोगों को परमेश्वर के वचनों और सत्य का अधिक व्यावहारिक और सटीक ज्ञान प्राप्त करने में मदद नहीं कर पाते, या उसके वचनों में अभ्यास का सटीक मार्ग खोजने में सक्षम नहीं बना पाते, बल्कि इसके उलट, वे वास्तव में लोगों को सत्य का अधिक विकृत, सैद्धांतिक और धर्म-सैद्धांतिक ज्ञान देते हैं, और साथ ही, वे लोगों को अभ्यास के मार्ग के बारे में और अधिक भ्रमित कर देते हैं। ऐसा करके नकली अगुआ लोगों का दृष्टिपथ बाधित करते हैं और सत्य की उनकी शुद्ध समझ को प्रभावित करते हैं। इन कामों को करने में नकली अगुआओं का क्या प्रभाव होता है? वे क्या भूमिका निभाते हैं? उन्हें विघ्न-बाधा डालने वाले व्यक्ति के रूप में चित्रित करना कुछ हद तक अतिशयोक्ति हो सकती है, लेकिन उन्हें हर जगह भागते-कूदते रहने वाले मसखरे कहना बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं है। जब मैंने काम के इस चरण को शुरू किया ही था, तो मैं कुछ व्यक्तियों से मिला और जब मैं उनकी बातें सुन रहा था, तो उनमें से एक ने किसी व्यक्ति की स्थिति के बारे में सवाल किया, तो एक अन्य व्यक्ति अचानक बोल उठा, “वह तो जलकर खाक हो गया।” जब मैंने पूछा, “जलकर खाक हो गया? इसका क्या मतलब है?”, तो उसने जवाब दिया “जलकर खाक हो जाने का मतलब है कि उसको बर्खास्त कर दिया गया है और शायद उसने विश्वास करना बंद कर दिया है।” मैंने कहा, “यह तो बहुत ही क्रूर शब्द है—यह तो किसी व्यक्ति के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। क्या मैंने कभी ऐसा कुछ कहा है? ऐसा कैसे है कि मुझे इस शब्द के बारे में पता ही नहीं है? मैंने तो कभी किसी को इस तरह से चित्रित नहीं किया है, या यह नहीं कहा है कि यदि कोई अपना कर्तव्य करना बंद कर देता है या परमेश्वर में विश्वास करना छोड़ देता है, तो वह ‘जलकर खाक हो जाता है।’ यह शब्द कहाँ से आया?” बाद में, मुझे पता चला कि यह वाक्यांश एक बुजुर्ग विश्वासी, एक बूढ़े रूढ़िवादी से पैदा हुआ था। वह बहुत विद्वान था, लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करता था, और वरिष्ठ था। जब उसने यह वाक्यांश बोला, तो भ्रमित लोगों के उस समूह ने विवेक का प्रयोग नहीं किया और उससे इसे सीख लिया, और यह एक लोकप्रिय वाक्यांश बन गया। क्या तुम लोगों को लगता है कि यह वाक्यांश सही है? क्या इसका कोई आधार है? क्या यह सटीक है? (नहीं, यह सटीक नहीं है।) हमें इसे कैसे लेना चाहिए? क्या इसे कलीसिया में चलते रहने देना चाहिए? (नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए।) इसे उजागर किया जाना चाहिए और इसकी आलोचना की जानी चाहिए, और इसका जड़ से समाधान किया जाना चाहिए। बाद में, आलोचना और गहन-विश्लेषण के बाद, इन भ्रमित लोगों ने इसे कहने की हिम्मत नहीं की, लेकिन हो सकता है कुछ अनजान व्यक्ति अभी भी इसे गुप्त रूप से निजी तौर पर इस्तेमाल करते हों। हो सकता है वे लोग सोचते हों कि यह एक बहुत ही आध्यात्मिक वाक्यांश है जो एक “सुप्रसिद्ध व्यक्ति” से चलन में आया है और मानते हों कि इसका उपयोग जारी रहना चाहिए। क्या तुम लोगों के अगुआ इसी तरह के अभ्यासों में लगे हैं? क्या उन्होंने तुम लोगों के जीवन प्रवेश को, स्वभाव में परिवर्तन को या जिस मार्ग पर तुम लोगों को चलना चाहिए उसे, नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है? (अतीत में, सुसमाचार का प्रचार करते समय एक नकली अगुआ ने एक बार कहा था, “परमेश्वर न्याय और ताड़ना के माध्यम से हम पर जीत हासिल करता है, इसलिए जब हम धार्मिक लोगों में सुसमाचार का प्रचार करते हैं, तो हमें उनसे कठोर लहजे में बात करने और उन्हें डाँटने की आवश्यकता होती है; उन्हें तभी जीता जा सकता है।”) यह कथन उचित लग सकता है, लेकिन क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? क्या परमेश्वर ने लोगों को ऐसा करने का निर्देश दिया था? क्या परमेश्वर का वचन कहता है कि “सुसमाचार का व्यापक रूप से प्रचार करते समय, तुम्हें उठकर लोगों को लोहे के डंडे से नियंत्रित करना चाहिए, सुसमाचार का व्यापक रूप से प्रचार करने के लिए न्याय और ताड़ना का उपयोग करना चाहिए”? (नहीं।) तो, यह कथन कहाँ से आया? स्पष्ट रूप से, यह किसी नकली अगुआ के दिमाग से निकला एक सिद्धांत है जिसके पास आध्यात्मिक समझ नहीं है। सतह पर, यह कथन ऐसा लग सकता है कि इसमें कोई समस्या नहीं है : “संपूर्ण मानवजाति को परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुजरना होगा। यदि वे इसे सीधे परमेश्वर के वचनों से प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या वे इसे अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त नहीं कर सकते? हर हाल में, यही वह प्रभाव है जिसे प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन हैं—संपूर्ण मानवजाति पर विजय प्राप्त करना। क्या उनके लिए इसे बाद में पाने के बजाय पहले पाना बेहतर नहीं होगा? परमेश्वर के कार्य करने से पहले, हम यह निवारक उपाय करेंगे, ताकि लोग एक प्रकार की प्रतिरक्षा विकसित कर सकें। फिर जब परमेश्वर वास्तव में उनका न्याय करेगा और उन्हें ताड़ना देगा, तो वे लोग परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह नहीं करेंगे, उसका विरोध नहीं करेंगे, या उसे धोखा नहीं देंगे। यह परमेश्वर की भावनाओं को ठेस पहुँचाने से रोकेगा। क्या यह अच्छी बात नहीं है?” सतह पर, हर वाक्य सही लगता है, और सैद्धांतिक रूप से, यह तर्कसंगत लगता है। परंतु, क्या यह एक सत्य सिद्धांत है? सुसमाचार के प्रचार के लिए परमेश्वर के घर में क्या नियम निर्धारित हैं? क्या लोगों को ऐसा करने की आवश्यकता है? (नहीं।) इसलिए, यह सिद्धांत मान्य नहीं है, और जिस व्यक्ति ने इसे प्रस्तावित किया है वह नकली अगुआ है।
नकली अगुआ अक्सर आध्यात्मिक होने का दिखावा करते हैं, लोगों को गुमराह करने और भटकाने के लिए कुछ ऊपर से अच्छे लगने वाली भ्रांतियाँ बोलते हैं। यद्यपि सतही तौर पर लग सकता है कि इन भ्रांतियों में कोई समस्या नहीं है लेकिन इनका लोगों के जीवन प्रवेश पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, ये लोगों को परेशान और गुमराह कर सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने में बाधा डालती हैं। इन छद्म-आध्यात्मिक शब्दों के कारण कुछ लोगों में परमेश्वर के वचनों के प्रति संदेह और प्रतिरोध पैदा होता है, उनमें धारणाएँ पैदा होती हैं, यहाँ तक कि ये परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ और परमेश्वर से सतर्क रहने का भाव भी पैदा करती हैं, और फिर वे परमेश्वर से दूर चले जाते हैं। नकली अगुआओं की छद्म-आध्यात्मिक बातों का लोगों पर यही प्रभाव पड़ता है। जब किसी कलीसिया के सदस्य किसी नकली अगुआ द्वारा गुमराह और प्रभावित किए जा रहे होते हैं, तो वह कलीसिया एक धर्म बन जाती है, ठीक ईसाई या कैथोलिक धर्म की तरह, जिसमें लोग केवल मनुष्य की बातों और शिक्षाओं का पालन करते हैं। वे सब पौलुस की शिक्षाओं की आराधना करने लगते हैं, परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने के बजाय प्रभु यीशु के वचनों के स्थान पर पौलुस की बातों का उपयोग करने की हद तक चले जाते हैं। परिणामस्वरूप, वे सभी पाखंडी फरीसी और मसीह-विरोधी बन जाते हैं। इस प्रकार, वे परमेश्वर द्वारा शापित और निंदित होते हैं। पौलुस की तरह, नकली अगुआ खुद को ऊंचा उठाकर अपनी ही गवाही देते हैं, वे लोगों को गुमराह और परेशान करते हैं। वे उन्हें भटकाकर धार्मिक अनुष्ठानों में उलझा देते हैं और जिस तरह से ये लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं वह धार्मिक लोगों के समान ही हो जाता है जिससे परमेश्वर में उनकी आस्था के सही पथ पर उनके प्रवेश में देरी होती है। नकली अगुआ लोगों को निरंतर गुमराह और बाधित करते हैं और वे लोग तब ढेरों छद्म-आध्यात्मिक सिद्धांत और कथन पैदा कर देते हैं। ये सिद्धांत, कहावतें और प्रथाएं सत्य के बिल्कुल विपरीत होती हैं और इनका इससे कोई लेना-देना नहीं होता। फिर भी, नकली अगुआ द्वारा जब लोग गुमराह किए और भटकाए जा रहे होते हैं तो वे इन चीजों को सकारात्मक चीजों की तरह, सत्य की तरह ग्रहण करते हैं। वे भ्रमवश इन बातों को सत्य मान लेते हैं, सोचते हैं कि जब तक वे अपने हृदय में इन चीजों पर विश्वास करते रहेंगे और उन्हें स्पष्टता से बोल सकेंगे और जब तक इन चीजों से सभी लोग सहमत रहेंगे तब उन्होंने सत्य को पा लिया होगा। इन विचारों और दृष्टिकोणों से भ्रमित होकर, लोग न तो सत्य समझ पाते हैं और न ही वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास या अनुभव करने में समर्थ हो पाते हैं, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना तो दूर की बात है। इसके विपरीत, वे परमेश्वर के वचनों से और भी दूर होकर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से और अधिक वंचित हो जाते हैं। कागज पर, नकली अगुआ जो कहते हैं और जो नारे लगाते हैं, उनमें कुछ भी गलत नहीं है, वे सब बातें सही होती हैं। फिर उन्हें कुछ भी हासिल क्यों नहीं होता? उसकी वजह यह है कि नकली अगुआ जो समझते और जानते हैं वह बहुत उथला होता है। वह सब धर्म-सिद्धांत होता है, जिसका परमेश्वर के वचनों में सत्य वास्तविकता से, परमेश्वर की अपेक्षाओं या उसके इरादों से कोई लेना-देना नहीं होता। सच तो यह है कि नकली अगुआ जिन सिद्धांतों का प्रचार करते हैं, वे सत्य वास्तविकता से बहुत दूर होते हैं—अगर सटीक तौर पर कहा जाए तो, उनका सत्य से कोई वास्ता नहीं होता और न ही परमेश्वर के वचनों से कोई लेना-देना होता है। तो जब नकली अगुआ अक्सर इन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का बखान करते हैं, तो उनका संबंध किन चीजों से होता है? वे हमेशा सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में असमर्थ क्यों होते हैं? यह सीधे तौर पर नकली अगुआओं की काबिलियत से जुड़ा होता है। यह पूरी तरह से प्रमाणित है कि नकली अगुआओं में काबिलियत की कमी होती है और वे सत्य समझने की क्षमता नहीं रखते। चाहे वे कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखते हों, वे सत्य को नहीं समझेंगे और उनका जीवन प्रवेश नहीं होगा और यह भी कहा जा सकता है कि चाहे वे कितने भी वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखें, उनके लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना आसान नहीं होगा। यदि एक नकली अगुआ को बरखास्त नहीं किया जाता और उसे पद पर बने रहने दिया जाता है, तो किस प्रकार के परिणाम सामने आएँगे? उनकी अगुआई और अधिक लोगों को धार्मिक अनुष्ठानों और विनियमों की ओर, शब्दों और धर्म-सिद्धांतों की ओर, अस्पष्ट धारणाओं और कल्पनाओं की ओर आकर्षित करेगी। मसीह-विरोधियों के विपरीत, नकली अगुआ लोगों को अपने सामने या शैतान के सामने आने के लिए अगुआई नहीं करते, लेकिन यदि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके वचनों के सत्य वास्तविकता में न ले जा पाएँ, तो क्या परमेश्वर के चुने हुए लोग उसका उद्धार प्राप्त करने में सक्षम होंगे? क्या वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जा सकेंगे? बिल्कुल नहीं। यदि परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य वास्तविकता में प्रवेश न कर सकें, तो क्या वे अभी भी शैतान की सत्ता के अधीन नहीं जी रहे हैं? क्या वे अभी भी शैतान की सत्ता के अधीन रहने वाले पतित नहीं हैं? क्या इसका मतलब यह नहीं है कि वे नकली अगुआओं के हाथों बर्बाद हो जाएँगे? इसीलिए नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों के काम के परिणाम मूलतः एक जैसे होते हैं। इनमें से कोई भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को न तो सत्य समझा सकता है, न वास्तविकता में प्रवेश कराकर उनका उद्धार कर सकता है। वे दोनों ही परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हानि पहुँचाते हैं और तबाह कर देते हैं। दोनों के परिणाम बिल्कुल एक जैसे हैं।
नकली अगुआओं के कुछ पाखंड और भ्रांतियाँ क्या हैं? बाद में इनका सारांश खुद निकाल लेना। मैं ये काम तुम लोगों पर छोड़ रहा हूँ ताकि देख सकूँ कि तुम लोग इन्हें पहचान पाते हो या नहीं। क्या तुम लोगों के आसपास के अगुआओं ने कभी ऐसे शब्द कहे हैं जो ऊपर से आध्यात्मिक या मानवीय भावनाओं के अनुरूप, सही और सच्चे लगते हों, लेकिन वे तुम्हारे जीवन प्रवेश का प्रावधान करने और तुम्हारी असली परेशानियों को हल करने में असफल रहते हों? यदि तुम्हें इन शब्दों की समझ नहीं है और यहाँ तक कि तुम उन्हें पसंद भी करते हो और उन्हें दिल में रखते हो, और उन्हें खुद पर हावी होने और हर समय अपनी अगुआई करने, और हर समय अपने विचारों और व्यवहार को प्रभावित करने देते हो, तो क्या इसके परिणाम काफी गंभीर नहीं होंगे? (हाँ, होंगे।) तो तुम्हारे लिए इन मुद्दों की जड़ तक जाना, यह पता लगाना आवश्यक है कि कौन-सी चीजें पाखंड और भ्रांतियाँ हैं जो लोगों को इस हद तक गिरा सकती हैं कि परमेश्वर में उनकी आस्था धार्मिक विश्वास में बदल जाती है, जिसके परिणामस्वरूप वे परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर द्वारा अस्वीकार कर दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि कोई व्यक्ति कहता है, “अगुआ बनने का प्रयास मत करो। अगुआ बनने के बाद यदि तुम्हें बरखास्त कर दिया जाता है या हटा दिया जाता है, तो तुम्हारे पास साधारण विश्वासी बने रहने का भी मौका नहीं होगा।” क्या इस तरह की बातें नकली अगुआओं के पाखंड और भ्रांतियाँ हैं? (हाँ, हैं।) क्या ऐसा है? नकली अगुआओं के पाखंडों और भ्रांतियों को मसीह विरोधियों से अलग किया जाना चाहिए; उनमें घालमेल मत करो। उस व्यक्ति के ऐसी बातें कहने का क्या मतलब है? इन शब्दों में क्या प्रेरणाएँ छिपी हैं? क्या उनके भीतर कुछ संदिग्ध है? स्पष्टतः उन बातों में लोगों को गुमराह करने के इरादे वाली एक चाल है, उनका मतलब है कि अन्य लोगों को अगुआ बनने का प्रयास करने से बचना चाहिए, ऐसा करने का अच्छा परिणाम नहीं निकलेगा। ऐसा कहने का उसका उद्देश्य है कि लोग अगुआ बनने का विचार त्याग दें, ताकि कोई भी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए उनके साथ प्रतिस्पर्धा न करे, जिससे वे आराम से हमेशा के लिए अगुआ बने रह सकें। साथ ही, वे लोगों से कह रहे हैं, “यही वह तरीका है जिससे परमेश्वर का घर अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ व्यवहार करता है, जब उसे तुम्हारी जरूरत होती है तो वह तुम्हें प्रोत्साहित करता है और जब उसे तुम्हारी जरूरत नहीं होती है तो वह तुम्हें सबसे निचले पायदान पर धकेल देता है, जिससे तुम्हें एक साधारण विश्वासी होने का भी कोई मौका न मिले।” इन शब्दों की प्रकृति क्या है? (परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा।) किस तरह का व्यक्ति परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा वाले शब्द बोलता है? (मसीह-विरोधी।) इन शब्दों में दो बुरे इरादे हैं जो दो परिणामों को जन्म दे सकते हैं : एक तो दूसरों को यह बताना है कि वे पद के लिए बिल्कुल भी प्रतिस्पर्धा न करें, जिससे उनकी अपनी स्थिति सुरक्षित रहे; दूसरा इरादा है परमेश्वर को गलत समझने, परमेश्वर पर विश्वास करना बंद करने और इसके बजाय उन पर विश्वास करना शुरू करने के लिए तुम्हें मजबूर करना। यह मसीह-विरोधियों का सबसे स्पष्ट प्रकार है। ऐसा लगता है कि तुम लोगों में समझने की क्षमता नहीं है; मैंने पहले भी इसके उदाहरणों के बारे में बात की है। तुम लोग न केवल लापरवाह और कमजोर याददाश्त वाले हो, बल्कि तुम्हारी समझने की क्षमता भी कम है। तुम लोग इतने स्पष्ट मसीह-विरोधी को भी नहीं पहचान सकते। क्या नकली अगुआ ऐसी बातें कहेंगे? क्या वे जानबूझकर और खुले आम लोगों को गुमराह करेंगे और परमेश्वर का विरोध करेंगे? (नहीं।) हालाँकि नकली अगुआ जो कहते और करते हैं, वह सब ऊपर से समस्यारहित लग सकता है, लेकिन उनके काम में सिद्धांतों का अभाव होता है और वे परिणाम प्राप्त नहीं कर सकते। नकली अगुआ लोगों की किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते, उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर नहीं ला सकते, या उन्हें परमेश्वर के सामने नहीं ले जा सकते। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह ठीक होता है, उन्होंने अपने काम में बिल्कुल भी कोताही नहीं की होती है, उनमें जोश और जुनून होता है, और ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि उनमें आस्था है, दृढ़ संकल्प है, और वे कठिनाइयाँ सहने और कीमत चुकाने को तैयार हैं। इसके अलावा, ऐसा लगता है कि उनमें अविश्वसनीय सहनशक्ति है और वे हर तरह की थकान और कठिनाई के बावजूद दृढ़ बने रहने में सक्षम हैं। बात बस इतनी है कि उनकी काबिलियत और समझने की क्षमता कम है, और उनमें सत्य की सटीक समझ नहीं है। समझ की इस कमी से निपटने के लिए वे क्या करते हैं? वे इस समस्या के हल के लिए विनियमों और धर्म-सिद्धांतों के साथ-साथ उन आध्यात्मिक सिद्धांतों का उपयोग करते हैं, जिनके बारे में वे अक्सर बात करते हैं। उनकी अगुआई में कुछ वर्ष रहने के बाद, लोगों के बीच सभी प्रकार के धर्म-सिद्धांत, विनियम और बाह्य अभ्यास उत्पन्न हो जाते हैं। लोग इन धर्म-सिद्धांतों, विनियमों और अभ्यासों का पालन करते हैं, और मानते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में, वे तब भी सत्य वास्तविकता से बहुत दूर होते हैं! ये चीजें जब लोगों के दिल में भर जाती हैं, उन पर हावी हो जाती हैं और उनकी अगुआई करने लगती हैं, तो समाधान मुश्किल हो जाता है। प्रत्येक मामले का व्यक्तिगत रूप से सटीक और गहन-विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि लोग उन्हें समझ सकें। फिर, लोगों को बताया जाना चाहिए कि सत्य, धर्म-सिद्धांत, नारे और विनियम क्या हैं, और सत्य की सही समझ, सटीक कथन और सत्य सिद्धांत क्या हैं। इन सभी का व्यक्तिगत रूप से समाधान करने की आवश्यकता होती है; अन्यथा, जो लोग अपेक्षाकृत अच्छे व्यवहार वाले, नियमों का पालन करने वाले और आध्यात्मिकता का अनुसरण करने वाले होते हैं, वे नकली अगुआओं द्वारा गुमराह और बर्बाद हो जाएँगे। ये लोग धर्मनिष्ठ लग सकते हैं, कठिनाई को सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हो सकते हैं, और कठिनाइयाँ सामने आने पर प्रार्थना करने में सक्षम हो सकते हैं। परंतु, जब परमेश्वर वापस आता है, तो धार्मिक लोगों की ही तरह, उन लोगों में से कोई भी उसे नहीं पहचानता, उनमें से कोई भी यह स्वीकार नहीं करता कि परमेश्वर फिर से नया कार्य कर रहा है और वे सभी उसका विरोध करते हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि नकली अगुआओं और मसीह विरोधियों ने उन्हें गुमराह किया होता है—उन्होंने ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखने वाले बहुत से लोगों को नुकसान पहुँचाया है और बर्बाद कर दिया है।
नकली अगुआ केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं—लोगों को वे जो समझाते हैं वह केवल धर्म-सिद्धांत है, सत्य नहीं, और जो वे लोगों को दिखाते हैं वह केवल झूठी आध्यात्मिकता है। शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलने के क्या परिणाम होते हैं? झूठी आध्यात्मिकता, झूठी समझ, झूठा ज्ञान, झूठा अभ्यास और झूठा अनुपालन—ये सब झूठ है। यह “झूठ” कैसे पैदा होता है? यह नकली अगुआओं द्वारा सत्य की विकृत, एक तरफा और सतही समझ रखने और सत्य के सार को समझने में पूरी तरह से विफल होने के कारण होता है। नकली अगुआ लोगों के सामने बहुत सारे नियम, शब्द और धर्म-सिद्धांत, साथ ही कुछ नारे और सिद्धांत लेकर आते हैं। वे लोग परमेश्वर के सच्चे इरादों को बिल्कुल नहीं समझते, और विभिन्न जटिल परिस्थितियों का सामना होने पर वे नहीं जानते कि उन्हें कैसे संभालें, उनके प्रति कैसा रवैया अपनाएँ, या परमेश्वर के इरादों को कैसे समझें। क्या ऐसे व्यक्ति परमेश्वर के सामने आ सकते हैं? क्या वे परमेश्वर को स्वीकार कर सकते हैं और उसका विरोध करना बंद कर सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। इसलिए, तुम लोगों के लिए नकली अगुआओं के पाखंडों और भ्रांतियों का सारांश बनाना और उनके बारे में समझ हासिल करना महत्वपूर्ण और आवश्यक है। सारांश बनाते समय, लोगों को गुमराह करने के लिए मसीह विरोधियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भ्रांतियों से उन्हें अलग करना आवश्यक है। अगुआओं और कार्यकर्ताओं की दूसरी जिम्मेदारी—हर तरह के व्यक्ति की स्थितियों से परिचित होना, और जीवन प्रवेश से संबंधित जिन विभिन्न कठिनाइयों का वे अपने जीवन में सामना करते हैं, उनका समाधान करना—के बारे में हम नकली अगुआओं के विभिन्न अभ्यासों और उनकी समस्याओं के सार का गहन-विश्लेषण करके अपनी संगति का समापन करेंगे।
मद तीन : उन सत्य सिद्धांतों के बारे में संगति करो, जिन्हें प्रत्येक कर्तव्य को ठीक से निभाने के लिए समझा जाना चाहिए (भाग एक)
लोगों को झिड़कने के लिए नकली अगुआ केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत बोल सकते हैं
इसके बाद, हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं की तीसरी जिम्मेदारी—उन सत्य सिद्धांतों के बारे में संगति करना जिन्हें प्रत्येक कर्तव्य को ठीक से निभाने के लिए समझा जाना चाहिए—पर संगति करेंगे। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं का महत्वपूर्ण और मौलिक कार्य है, और हम इस जिम्मेदारी के आधार पर नकली अगुआओं की अभिव्यक्तियों पर संगति और उनका गहन-विश्लेषण करेंगे। लोगों को अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने के लिए जिन सत्य सिद्धांतों को समझना चाहिए उन पर स्पष्ट रूप से संगति करने की किसी अगुआ या कार्यकर्ता की क्षमता इस बात का सबसे अच्छा संकेत है कि क्या उसके पास सत्य वास्तविकता है, और यह इस बात के निर्धारण की कुंजी है कि क्या वह वास्तविक कार्य को अच्छी तरह से कर सकता है। आओ, अब देखें कि नकली अगुआ इस कार्य को कैसे संभालते हैं। नकली अगुआओं का एक लक्षण यह है कि वे सत्य सिद्धांतों से जुड़ी किसी भी समस्या को पूरी तरह से समझाने या स्पष्ट करने में असमर्थ होते हैं। अगर कोई उनसे कुछ जानना चाहता है तो वे उसे केवल कुछ खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत भर बता सकते हैं। जब उन्हें ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़े जिनका समाधान किया जाना हो, तो वे अक्सर इस तरह के कथनों में उत्तर देते हैं, “तुम सभी इस कर्तव्य को निभाने में माहिर हो। अगर तुम लोगों को कोई समस्या है, तो तुम्हें खुद ही उसका समाधान निकालना चाहिए। मुझसे मत पूछो; मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ और मुझे इसकी समझ नहीं है। इसे तुम लोग अपने आप हल करो।” कुछ लोग जवाब दे सकते हैं कि “हम तुमसे इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि हम समस्या का समाधान नहीं कर पा रहे हैं; अगर हम इसे हल कर पाते, तो तुमसे नहीं पूछते। हम सत्य सिद्धांतों से जुड़ी इस समस्या को नहीं समझते।” नकली अगुआ जवाब देंगे कि “क्या मैं तुम लोगों को पहले ही सिद्धांत नहीं बता चुका हूँ? अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाओ और विघ्न-बाधा न पैदा करो। तुम अब भी किस बारे में पूछ रहे हो? तुम्हें जैसे ठीक लगे वैसे इसे संभालो! परमेश्वर के वचन पहले ही बोले जा चुके हैं : परमेश्वर के घर के हितों को प्राथमिकता दो।” इससे वे लोग पूरी तरह से भ्रमित हो जाते हैं और सोचते हैं, “यह तो समस्या का समाधान नहीं है!” नकली अगुआ अपने कार्य को इसी तरह लेते हैं; वे केवल इसका निरीक्षण करते हैं, औपचारिकता निभाते हैं और कभी समस्याओं का समाधान नहीं करते। लोग चाहे जो भी समस्याएँ उठाएं, नकली अगुआ उन्हें खुद सत्य खोजने के लिए कहते हैं। वे अक्सर लोगों से पूछते हैं, “क्या तुम्हें कोई समस्या है? तुम्हारा जीवन प्रवेश कैसा है? क्या तुम अपने कर्तव्यों को अनमने ढंग से निभा रहे हो?” वे लोग जवाब देते हैं, “कभी-कभी, मैं खुद को अनमनी स्थिति में पाता हूँ और प्रार्थना के माध्यम से इसे हल कर खुद को ठीक कर लेता हूँ, लेकिन मैं अभी भी अपने कर्तव्य निभाने के सत्य सिद्धांतों को नहीं समझता।” नकली अगुआ कहते हैं, “क्या मैंने पिछली सभा में तुम्हारे साथ विशिष्ट सिद्धांतों पर संगति नहीं की थी? मैंने तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों के कई अंश भी सुनाए थे। क्या तुम्हें अब तक समझ नहीं जाना चाहिए था?” वास्तव में वे सभी धर्म-सिद्धांत समझते हैं, फिर भी वे अभी अपनी समस्याओं को हल करने में असमर्थ हैं। नकली अगुआ बड़ी-बड़ी बातें भी करते हैं, “तुम इसे हल क्यों नहीं कर सकते? तुमने परमेश्वर के वचनों को ठीक से पढ़ा ही नहीं है। यदि तुम अधिक प्रार्थना करो और परमेश्वर के वचन और अधिक पढ़ो तो तुम्हारी सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी। तुम लोगों को एक साथ चर्चा करना और रास्ता निकालना सीखना होगा, फिर तुम्हारी समस्याएँ अंततः हल हो जाएँगी। जहाँ तक पेशेवर समस्याओं की बात है तो उनके बारे में मुझसे मत पूछो; मेरी जिम्मेदारी काम का निरीक्षण करने की है। मैंने अपना काम पूरा कर लिया है और बाकी काम ऐसे पेशेवर मामले हैं जिन्हें मैं नहीं समझता।” नकली अगुआ अक्सर लोगों को टालने और सवालों से बचने के लिए “मुझे समझ में नहीं आता, मैंने इसे कभी नहीं सीखा, मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ” जैसे कारण और बहाने गिनाते हैं। वे काफी विनम्र लग सकते हैं; परंतु यह नकली अगुआओं से जुड़ी एक गंभीर समस्या को उजागर करता है—उन्हें कुछ कामों के पेशेवर ज्ञान से जुड़ी समस्याओं की कोई समझ नहीं होती है, वे अशक्त महसूस करते हैं और बेहद अजीब और शर्मिंदा दिखते हैं। फिर वे क्या करते हैं? वे सभाओं के दौरान सबके साथ संगति करने के लिए सिर्फ परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश जुटा सकते हैं और लोगों को प्रेरित करने के लिए कुछ धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात कर सकते हैं। थोड़े दयालु किस्म के अगुआ लोगों के प्रति चिंता दिखाकर समय-समय पर उनसे पूछ सकते हैं, “क्या हाल ही में तुम्हें अपने जीवन में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ा है? क्या तुम्हारे पास पर्याप्त कपड़े हैं? क्या तुम में से कोई ऐसा है जो दुर्व्यवहार कर रहा है?” यदि हर कोई कहता है कि उन्हें ऐसी कोई समस्या नहीं है तो वे जवाब देते हैं, “तो कोई समस्या नहीं है। तुम लोग अपना काम जारी रखो; मुझे दूसरे मामले देखने हैं” और वे इस डर से तुरंत वहाँ से चले जाते हैं कि कोई सवाल पूछकर उनसे समाधान करने के लिए कह सकता है जिससे वे शर्मनाक स्थिति में पड़ सकते हैं। नकली अगुआ इसी तरह काम करते हैं—वे किसी भी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं कर सकते। कलीसिया के कार्य को वे कैसे प्रभावी ढंग से कार्यान्वित सकते हैं? नतीजतन, अनसुलझी समस्याओं का ढेर अंततः कलीसिया के कार्य में बाधा डालता है। यह नकली अगुआओं की कार्यशैली का एक प्रमुख लक्षण और अभिव्यक्ति है।
अपने काम में, नकली अगुआ केवल उपदेश देने के प्रति उत्साहित होते हैं, और उन्हें सबसे ज्यादा शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलना पसंद होता है, और यह सोचकर कि जब तक वे लोगों को उनके कर्तव्य निर्वहन में ऊर्जावान और व्यस्त रखते हैं, तो यह उनके द्वारा अच्छा काम करने के समान ही है, उन्हें लोगों को प्रोत्साहित करने और सांत्वना देने वाले शब्द बोलना पसंद होता है। इसके अतिरिक्त, नकली अगुआ हर व्यक्ति के दैनिक जीवन की स्थिति का ध्यान रखने के बारे में जुनूनी होते हैं। वे अक्सर लोगों से पूछते हैं कि क्या उन्हें इस संबंध में कोई कठिनाई आ रही है, और अगर वास्तव में कोई कठिनाई होती है, तो वे उन कठिनाइयों को हल करने में मदद करने के लिए तैयार होते हैं। वास्तव में वे इन सामान्य मामलों में खुद को व्यस्त रखते हैं, कभी-कभी तो भोजन भी नहीं करते, और अक्सर देर रात तक जागते हैं और सुबह जल्दी उठ जाते हैं। उनकी इतनी व्यस्तता और कड़ी मेहनत के बाद भी कलीसिया के कार्य से संबंधित समस्याएँ और अपने कर्तव्य करते समय परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने आने वाली कठिनाइयाँ अनसुलझी क्यों रहती हैं? ऐसा इसलिए है कि नकली अगुआ कभी भी कर्तव्य करने से संबंधित सत्य सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकते। उनके शब्द और धर्म-सिद्धांत, और उपदेश पूरी तरह से निष्प्रभावी होते हैं और वे वास्तविक मुद्दों को बिल्कुल भी हल नहीं कर सकते हैं। वे चाहे जितना बोलें या चाहे जितने भी व्यस्त या थके हुए हों, कलीसिया का कार्य कभी आगे नहीं बढ़ता। यद्यपि बाहर से हर कोई अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ दिखाई देता है, लेकिन वे बहुत से वास्तविक परिणाम प्राप्त नहीं करते, क्योंकि नकली अगुआ कर्तव्य करने से जुड़े सत्य सिद्धांतों पर संगति करने या वास्तविक मुद्दों को हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने में सक्षम नहीं होते—इसलिए वे कर्तव्य निर्वहन से जुड़ी बहुत-सी समस्याओं को हल करने में असमर्थ होते हैं। उदाहरण के लिए, एक बार परमेश्वर के घर को परमेश्वर के वचनों की किताबें छापने की जरूरत थी और एक अगुआ को इस कार्य का प्रभारी बनाने के लिए दो व्यक्तियों का चयन करना था। लोगों को चुनने के लिए क्या मानक हैं? उनकी मानवता अपेक्षाकृत अच्छी होनी चाहिए, उन्हें विश्वसनीय होना चाहिए और जोखिम उठाने में सक्षम होना चाहिए। व्यक्तियों के चयन के बाद, इस अगुआ ने उनसे कहा, “आज, मैंने तुम दोनों को एक काम सौंपने के लिए बुलाया है : परमेश्वर के घर में एक किताब है जिसे छपवाना है, और मैं चाहता हूँ कि तुम एक छापाखाना ढूँढ़ो और जब प्रतियाँ छप जाएँ, तो उन्हें तुरंत परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बाँट दो, ताकि वे बिना किसी देरी के परमेश्वर के वचनों को खा-पी सकें। क्या तुम लोग इस कार्य को करने का दृढ़ संकल्प करते हो? क्या तुम यह दायित्व और यह जोखिम उठाने के लिए तैयार हो?” दोनों व्यक्तियों का मानना था कि इसके माध्यम से परमेश्वर उन्हें ऊपर उठा रहा था, इसलिए उन्होंने हामी भर दी। फिर अगुआ ने उनसे पूछा, “क्या तुम लोग परमेश्वर के आदेश को पूरा करने का संकल्प लेते हो? क्या तुम शपथ लेने के लिए तैयार हो?” फिर दोनों व्यक्तियों ने शपथ लेते हुए कहा, “यदि हम परमेश्वर के आदेश को पूरा न कर सके और इस काम में गड़बड़ी करें, जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान हो, तो हम पर स्वर्ग से गर्जन के साथ बिजली गिर जाए। आमीन!” अगुआ ने कहा, “साथ ही, हमें सत्य पर संगति करने की आवश्यकता है। अब इस काम को करते हुए क्या तुम व्यवसाय कर रहे हो? क्या तुम लोगों से कर्मचारी के रूप में काम करने के लिए कहा जा रहा है?” दोनों व्यक्तियों ने उत्तर दिया, “नहीं, यह हमारा कर्तव्य है।” अगुआ ने कहा, “चूँकि यह तुम्हारा कर्तव्य है, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करना चाहिए। तुम परमेश्वर को परेशान नहीं कर सकते या उसे चिंता में नहीं डाल सकते। जोखिम उठाने के लिए तैयार होना ही पर्याप्त नहीं है; तुम्हें अपना कर्तव्य निष्ठा के साथ निभाना चाहिए। जब तुम समस्याओं का सामना करते हो, तो तुम्हें अधिक प्रार्थना करनी चाहिए और एक दूसरे से परामर्श करना चाहिए। जो मन में आए वही मत करने लगो, अपनी मनमर्जी मत चलाओ। मैंने तुम दोनों को साथ क्यों रखा है? ऐसा इसलिए है ताकि जब कोई समस्या सामने आए तो तुम चीजों पर चर्चा कर सको, जिससे तुम्हारे लिए कार्रवाई करना आसान हो जाए। यदि तुम किसी सहमति पर नहीं पहुँच पाते तो प्रार्थना करो। तुम दोनों को अपनी निजी राय छोड़ देनी चाहिए, और केवल तभी काम करना चाहिए जब तुम्हारे बीच सहमति हो। मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम दोनों इस काम को सफलतापूर्वक पूरा कर लोगे!” अंत में, इस अगुआ को अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने के तरीकों के बारे में परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला, और उन तीनों ने इसे कई बार पढ़ते हुए प्रार्थना की। इसके साथ ही यह मान लिया गया कि मामला उन्हें सौंप दिया गया है और अगुआ की जिम्मेदारी पूरी हो गई है। इस काम में अगुआ का प्रदर्शन कैसा था? अगुआ और उन दोनों व्यक्तियों को भी काफी संतुष्टि महसूस हुई। दूर से देखने वालों ने टिप्पणी की, “यह अगुआ वास्तव में काम करवाने के बारे में कुछ बातें जानता है; उसका भाषण सुव्यवस्थित और अच्छे आधार वाला है, और वह चरणबद्ध तरीके से काम करता है। सबसे पहले उसने उन दोनों को कार्य सौंपा, फिर उन्होंने उनके विचारों और दृष्टिकोणों से जुड़े मुद्दों को सुलझाया, और अंत में, उसने कुछ कठोर शब्द कहे, उन्हें शपथ दिलाई और प्रतिज्ञा करवाई। उसने वास्तव में इस कार्य को विधिवत किया और वह वास्तव में अगुआ की उपाधि का हकदार है—वह अनुभवी है और बोझ उठाता है।” अंत में, अगुआ ने उनसे कहा, “याद रखो : किताबें छापना कोई आसान काम नहीं है, यह ऐसा काम नहीं है जिसे कोई साधारण व्यक्ति कर सके। यह कार्य मैंने या परमेश्वर के घर ने तुम्हें नहीं सौंपा है; यह परमेश्वर का आदेश है। तुम्हें उसे निराश नहीं करना चाहिए। जब तक तुम इस कार्य को अच्छी तरह से पूरा करोगे, तुम्हारा जीवन आगे बढ़ेगा, और तुम्हारे पास वास्तविकता होगी।” सैद्धांतिक ढंग से देखें तो, इन शब्दों में कोई सिद्धांत संबंधी मुद्दे नहीं थे; उन्हें कमोबेश सही माना जा सकता था। तो आओ, इस मामले का विश्लेषण करें और देखें कि इस नकली अगुआ में “नकलीपन” कहाँ अभिव्यक्त हुआ। क्या अगुआ ने इस कार्य से संबंधित पेशेवर और तकनीकी पहलुओं जैसे विभिन्न विस्तृत मुद्दों पर कोई निर्देश दिए? क्या उसने किन्हीं विशिष्ट सत्य सिद्धांतों या आवश्यक मानकों पर संगति की? (नहीं।) उसने केवल कुछ खोखले और अर्थहीन शब्द कहे—ऐसे शब्द जो अधिकांश लोग अक्सर कहते हैं, ऐसे शब्द जिनमें कोई वजन नहीं होता। चूँकि अगुआ व्यक्तिगत रूप से बोल रहा था और निर्देश दे रहा था, इसलिए लोगों ने इन शब्दों को सामान्य से अधिक वजनदार माना, लेकिन वास्तव में, वे कुछ अप्रासंगिक बातें थीं और पुस्तकों की छपाई से संबंधित किसी भी वास्तविक मुद्दे को हल करने पर उनका कोई प्रभाव नहीं था। तो, पुस्तक छपाई में शामिल कुछ विशिष्ट मुद्दे क्या हैं? हमें उन पर चर्चा करनी चाहिए और देखना चाहिए कि क्या इस अगुआ ने जो काम किया वह किसी नकली अगुआ का काम था।
पहली बात यह कि किताबों की छपाई में टाइपसेटिंग, और फिर पाठ की प्रूफरीडिंग, विषय-सूची और मुख्य पाठ का प्रारूप तैयार करना शामिल होता है, साथ ही कागज का वजन, रंग और गुणवत्ता आदि भी शामिल हैं। किताब का आवरण-पृष्ठ भी तैयार करना होता है, वह लचीला होगा या कठोर, और आवरण-पृष्ठ के लिए डिजाइन, रंग, पैटर्न और फॉन्ट आदि का भी चयन करना होता है। अंत में, बाइंडिंग का चयन करना होता है, गोंद से चिपकाया जाए या सिलाई की जाए। ये सभी मुद्दे हैं जो पुस्तक मुद्रण के दायरे में आते हैं। क्या अगुआ ने इनमें से किसी पर चर्चा की? (नहीं।) एक और मुद्दा छापाखाने की तलाश का है : क्या छपाई और बाइंडिंग की मशीनें अत्याधुनिक हैं, छपाई और बाइंडिंग की गुणवत्ता कैसी है, और मूल्य निर्धारण—क्या उसे सिद्धांतों और दायरों के साथ-साथ इन सभी चीजों के बारे में निर्देश नहीं देने चाहिए थे? यदि अगुआ ने कहा होता, “ये चीजें मुझे समझ में नहीं आती हैं; बस जो भी हो, देख लो,” तो क्या वह उपयोगी अगुआ होता? क्या उसके द्वारा बोले गए अप्रासंगिक शब्द पुस्तक मुद्रण में शामिल विभिन्न विस्तृत मुद्दों का स्थान ले सकते हैं? (नहीं।) और फिर भी, इस नकली अगुआ को विश्वास था कि उसके शब्द ऐसा कर सकते हैं। उसने सोचा, “मैंने पहले ही बहुत सारे सत्यों पर संगति की है, और मैंने उन्हें सभी सिद्धांत बता दिए हैं। उन्हें ये बातें समझ में आनी चाहिए!” यह “चाहिए” इस नकली अगुआ का तर्क और समस्या का समाधान करने का तरीका है। अंत में, जब किताबें छपीं, तो बहुत घटिया और बहुत पतला कागज होने के कारण मुद्रित सामग्री दोनों तरफ से दिख रही थी, जिससे बुजुर्गों और कमजोर दृष्टि वाले लोगों के लिए इस किताब को पढ़ना बहुत कष्टदायक और कठिन था। पुस्तक प्रकाशन के अंतिम चरण, बाइंडिंग प्रक्रिया का मुद्दा भी था—बाइंडिंग मानक के अनुसार है या नहीं, यह बात पुस्तक की समग्र गुणवत्ता और जीवनकाल को प्रभावित करती है। क्योंकि अगुआ ने निर्देश नहीं दिए थे, और जिन्होंने इस कार्य को अंजाम दिया उनके पास सिद्धांतों और अनुभव की कमी थी, और वे गैर-जिम्मेदाराना सौदेबाजी में लगे हुए थे, छापाखाने वाले ने घटिया काम किया और लागत निकालने के लिए घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया, और अंत में ये किताबें जब भाई-बहनों को दी गईं, तो दो महीने के भीतर ही उनके पन्ने अलग होने लगे। आवरण और पन्ने अलग-अलग हो गए, और छपाई का पूरा काम व्यर्थ हो गया। यह किसकी जिम्मेदारी थी? अगर किसी को जवाबदेह ठहराना हो, तो प्रत्यक्ष जिम्मेदारी उन दो व्यक्तियों की होगी जो किताबों की छपाई के प्रभारी थे, और अप्रत्यक्ष जिम्मेदारी उस नकली अगुआ की होगी। नकली अगुआ के पास एक बहाना भी था, उसने कहा “इस काम के खराब होने के लिए तुम मुझे दोषी नहीं ठहरा सकते; मैं तो यह काम जानता ही नहीं! मैंने कभी किताबें नहीं छापी हैं, और मेरे पास कोई छापाखाना भी नहीं है। मुझे इन चीजों के बारे में कैसे पता होगा?” क्या यह बहाना ठीक है? एक अगुआ के रूप में यह काम तुम्हारी जिम्मेदारियों के दायरे में आता है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह किसी पेशे, कौशल, एक तरह के ज्ञान या सत्य से संबंधित काम है, तुम्हें इसके हर हिस्से को समझने की जरूरत नहीं है, लेकिन तुम जो नहीं जानते क्या उसे जानने का तुमने प्रयास किया है? क्या तुमने अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता और कर्तव्यनिष्ठ तरीके से पूरा किया है? कुछ लोग कह सकते हैं कि “मैं अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहता हूँ, लेकिन मुझे यह काम समझ में ही नहीं आता। मैं सीखने की चाहे जितनी भी कोशिश करूँ, मैं इसे सीख नहीं सकता!” इसका मतलब है कि अगुआ के रूप में तुम मानक स्तर के नहीं हो; तुम सरासर नकली अगुआ हो। भाई-बहनों को किताबों की खराब गुणवत्ता के कारण कुछ नाराजगी महसूस हुई, तो उन्होंने कहा, “हालाँकि इन किताबों पर हमें पैसे खर्च नहीं करने पड़े, लेकिन इनकी गुणवत्ता बहुत खराब है! इस अगुआ ने अपना काम कैसे किया? उसने इस काम को किस तरह अंजाम दिया?” जब अगुआ ने यह सुना, तो उसने सवाल किया “क्या तुम इसके लिए मुझे दोषी ठहरा सकते हो? मैं छापाखाने का मालिक नहीं हूँ, और इसमें मेरा निर्णय ही अंतिम नहीं है। इसके अलावा, क्या इस काम से परमेश्वर के घर के लिए पैसे नहीं बचे? क्या परमेश्वर के घर के लिए पैसे बचाना गलत है?” अगुआ के शब्द सही थे, वे गलत नहीं थे; अगुआ को कानूनी जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं थी। परंतु, समस्या यह थी कि किताबों की छपाई पर खर्च किया गया पैसा बर्बाद हो गया। भाई-बहनों को वितरित की गई किताबों के पन्ने दो महीने के भीतर ही अलग होकर निकलने लगे। इसका खामियाजा किसे भुगतना चाहिए? क्या यह अगुआ की जिम्मेदारी नहीं थी? यह तुम्हारे काम के दायरे में हुआ था, उस समय हुआ था जब तुम अगुआ के रूप में सेवारत था, तो क्या तुम्हें जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? यह दोष तुम्हें लेना होगा; तुम अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते! कुछ लोग अनुचित तरीके से भी बोल सकते हैं, कह सकते हैं, “मैंने पहले कभी यह काम नहीं किया है। क्या मुझसे उस काम में गलतियाँ नहीं हो सकतीं जिसे मैंने पहले कभी नहीं किया हो?” सिर्फ इस कथन के आधार पर जाना जा सकता है कि तुम अपने काम के अयोग्य हो, और तुम्हें बरखास्त कर दिया जाना चाहिए। तुम अगुआ बनने के लिए उपयुक्त नहीं हो; तुम वास्तव में नकली अगुआ ही हो। बहुत सारे सुखद लगने वाले शब्द बोलना, लेकिन कोई वास्तविक काम न करना—यह नकली अगुआ की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है।
कुछ नकली अगुआ जमीन पर अपने पैर जमाए हुए वास्तविक काम की हर मद को ठीक से और ठोस तरीके से करने में असमर्थ होते हैं। वे केवल कुछ सामान्य मामलों को ही संभाल सकते हैं, और फिर भी मानते हैं कि वे अगुआ के रूप में मानक स्तर के हैं, वे अद्भुत हैं, और वे अक्सर डींग हाँकते हुए कहते हैं, “मुझे कलीसिया में हर चीज की चिंता करनी होती है, और मुझे हर समस्या से निपटना होता है। क्या कलीसिया मेरे बिना चल सकती है? अगर मैं तुम लोगों के लिए सभाएँ आयोजित नहीं करता, तो क्या तुम लोग रेत के ढेर की तरह बिखर नहीं जाते? अगर मैं फिल्म निर्माण कार्य पर नजर नहीं रखता और उसे बनाए रखने में मदद नहीं करता, तो क्या लोग इसमें लगातार बाधा नहीं पहुँचाते? क्या फिल्म निर्माण कार्य सुचारू रूप से आगे बढ़ सकता था? यद्यपि मैं भजनों के काम में बस एक आम आदमी हूँ, लेकिन अगर मैं अक्सर तुम्हारे काम का निरीक्षण करने नहीं आता, तुम लोगों के लिए दृढ़ता से डटा नहीं रहता, और तुम्हारे लिए सभाएँ आयोजित नहीं करता, तो क्या तुम लोग उन भजनों का निर्माण कर सकते थे? इन चीजों को समझने में तुम लोगों को कितना समय लगेगा?” ये कथन उचित और सही लग सकते हैं, लेकिन यदि तुम ध्यान से देखो, तो पता चलेगा कि इन नकली अगुआओं के पर्यवेक्षण में विभिन्न पेशेवर कार्य किस तरह से आगे बढ़ रहे हैं? क्या वे सत्य सिद्धांतों पर स्पष्ट रूप से संगति कर सकते हैं? (नहीं।) एक बार, एक फिल्म निर्माण टीम ने पोशाक के रंगों के मुद्दे पर सुझाव माँगा। उन्होंने कई स्टिल शॉट लिए, और उन शॉट्स में पृष्ठभूमि और लोग अलग-अलग थे, लेकिन पोशाकें मूल रूप से एक ही रंग योजना में थीं—वे सभी भूरे और पीले रंग की थीं। मैंने पूछा, “ये क्या हो रहा है? वे इन रंगों के कपड़े क्यों पहन रहे हैं?” उन्होंने कहा कि इन रंगों को जानबूझकर चुना गया है, उन्होंने बड़ी मेहनत और प्रयास से इन्हें बाजार से हासिल किया है। मैंने कहा, “तुमने ये रंग क्यों चुने? क्या ऊपरवाले ने तुम्हें इस बारे में निर्देश दिए थे? क्या ऊपरवाले ने तुम्हें विभिन्न रंगों का उपयोग करने और रंगों को गरिमापूर्ण और सभ्य रखने का निर्देश नहीं दिया था? यह परिणाम कैसे आया?” अंत में, पूछताछ के बाद, कुछ लोगों ने कहा, “दूसरे रंग पर्याप्त गरिमापूर्ण और सभ्य नहीं लगते, या परमेश्वर में विश्वास करने वालों या संतों द्वारा पहने जाने वाले रंगों जैसे नहीं लगते। विश्वासियों को जो पहनना चाहिए, उससे केवल यही रंग योजना अधिक मेल खाती है। इसलिए, सभी का साझा विचार था कि इस तरह के रंगों के कपड़े पहनने से परमेश्वर का सबसे अधिक महिमामंडन होता है और परमेश्वर के घर की छवि सबसे अच्छे ढंग से प्रदर्शित होती है।” मैंने कहा, “मैंने तुम लोगों को इन रंगों में कपड़े पहनने के लिए कभी नहीं कहा। बहुत सारे गरिमापूर्ण और सभ्य रंग हैं। सोचो कि इंद्रधनुष कितना सुंदर है जिसे परमेश्वर ने मानवजाति के साथ अपनी वाचा के संकेत के रूप में स्थापित किया है। लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, जामुनी, बैंगनी—उसमें हर रंग का प्रतिनिधित्व है सिवाय उनके जिन्हें तुम लोगों ने पहना है। तुमने उन रंगों को क्यों चुना?” क्या उनके अगुआ ने इन मामलों के बारे में जाँच-पड़ताल करने का ठोस काम किया था? मैं कह सकता हूँ कि उसने यह काम बिल्कुल नहीं किया। अगर अगुआ के पास शुद्ध समझ होती और वह वास्तव में सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझता, तो फिल्म निर्माण टीम के सदस्य ऐसी वेशभूषा नहीं चुनते और इस बारे में ऊपरवाले से सलाह नहीं लेते। वेशभूषा का मुद्दा निचले स्तर पर हल किया जा सकता था, लेकिन नकली अगुआ इस पर ध्यान देने में अक्षम रहा। इसके बजाय, उसने बेशर्मी से ऊपरवाले से इसके बारे में पूछा। क्या ऐसे व्यक्ति की काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए? यह नकली अगुआ इतनी आसान समस्या को भी हल नहीं कर सका—वह किस काम का है? तुम बस कचरा हो! तुम्हें परमेश्वर का महिमामंडन करने और उसकी गवाही देने के लिए कहा गया था, लेकिन तुमने परमेश्वर का अपमान कर बैठे। क्या तुम बहुत कुछ नहीं समझते? क्या तुम ज्ञान और धर्मसिद्धांतों का खजाना नहीं बता सकते? फिर, वे सभी धर्म-सिद्धांत और वह सारा ज्ञान इस स्थिति में अप्रभावी क्यों रहे? तुम वेशभूषा के मुद्दे की जाँच करने और उसे हल करने में भी कैसे विफल हो सकते हो? क्या तुमने वह प्रभाव डाला है जो तुम्हें एक अगुआ के रूप में डालना चाहिए? क्या तुमने वे जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं जो तुम्हें एक अगुआ के रूप में निभानी चाहिए? यह नकली अगुआ की अभिव्यक्ति है। किसी भी विशिष्ट कार्य में, नकली अगुआओं में सिद्धांतों की समझ का अभाव होता है। वे सत्य की विकृत समझ के किसी भी मुद्दे को समय पर सुधारने और उसका समाधान करने में, और इसके माध्यम से लोगों को दिशा और एक मार्ग खोजने में सक्षम बनाने में असमर्थ होते हैं। नकली अगुआ केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते हैं और नारे लगाते हैं; वे कोई भी ठोस काम करने में असमर्थ होते हैं।
नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करते, न ही अपने उचित कार्य पर ध्यान देते हैं
कुछ नकली अगुआ कोई भी ठोस काम करने में असमर्थ होते हैं, लेकिन वे कुछ महत्वहीन सामान्य मामलों को संभालते हैं, और सोचते हैं कि यही ठोस काम करना है, यह उनकी जिम्मेदारियों के दायरे में आता है। इसके अलावा, वे इन मामलों को बहुत गंभीरता से संभालते हैं और वास्तव में बहुत प्रयास करते हैं, उन्हें बहुत ही सभ्य तरीके से पूरा करते हैं। उदाहरण के लिए, कलीसिया में एक व्यक्ति था जो पहले पेस्ट्री शेफ के रूप में काम करता था। एक दिन, उसने भले मन से फैसला किया कि उसे बस मेरे लिए पेस्ट्री बनानी है, और इस बारे में मुझे बताए बिना ऐसा करने की तैयारी करने लगा। उसने अपने अगुआओं से पूछा कि क्या इसकी अनुमति है, और उन्होंने कहा, “आगे बढ़ो। अगर उनका स्वाद अच्छा हुआ, तो हम उन्हें परमेश्वर को अर्पित करेंगे। अगर नहीं हुआ, तो हम सब उन्हें खा लेंगे।” उसे अगुआओं की अनुमति प्राप्त हो गई थी जिससे यह काम वैध और उचित बन गया, इसलिए उसने जल्दी से सामग्री इकट्ठा की और यह कहते हुए एक घान पेस्ट्रियाँ तैयार कीं, “मुझे नहीं पता कि उनका स्वाद अच्छा होगा या नहीं, या ये परमेश्वर को संतुष्ट कर सकेंगी या नहीं, या वे परमेश्वर के स्वाद के मुताबिक होंगी या नहीं।” अगुआओं ने जवाब दिया, “कोई बात नहीं। हम थोड़े से समय और अपने स्वास्थ्य का बलिदान करेंगे, और परमेश्वर के लिए थोड़ा जोखिम उठाएँगे। हम पहले उन्हें चखेंगे और परमेश्वर के लिए उन्हें परखेंगे। अगर वे वास्तव में अच्छे नहीं लगते और हम परमेश्वर से उन्हें खाने के लिए कहते हैं, तो वह हमसे नाराज होगा और बहुत निराश महसूस करेगा। इसलिए, अगुआओं के रूप में, इस मामले की जाँच करने की जिम्मेदारी और दायित्व हमारा है। ठोस काम करना यही है।” इसके बाद, थोड़ी भी “जिम्मेदारी की भावना” रखने वाले सभी समूह प्रमुखों ने उन पेस्ट्रियों का स्वाद चखा। उन्हें चखने के बाद, उन्होंने समीक्षा करते हुए कहा कि “इस घान के लिए ओवन बहुत गर्म था, तापमान बहुत अधिक था, और इनसे अंदरूनी गर्मी पैदा हो सकती है—ये थोड़ी कड़वी भी हैं। यह ठीक नहीं है! हमें एक जिम्मेदार रवैया अपनाते हुए एक और घान बनाकर चखना चाहिए!” इस घान को चखने के बाद उन्होंने कहा, “यह लगभग सही है। इसमें मक्खन जैसा स्वाद है, अंडे का स्वाद है, और तिल का भी। यह वास्तव में एक पेस्ट्री शेफ के योग्य है! चूँकि ये बहुत सारी हैं और परमेश्वर अकेले इन सबको नहीं खा सकता, इसलिए इनमें से 10-20 पेस्ट्रियों को एक छोटे जार में डाल कर चखने के लिए नमूने के रूप में परमेश्वर को पेश किया जाए। अगर परमेश्वर को वे स्वादिष्ट लगे, तो हम उन्हें ज्यादा मात्रा में बना सकते हैं।” उन्होंने मुझे एक जार दिया और मैंने उनमें से दो को चखा। मुझे लगा कि वे स्वाद बदलने के लिए तो ठीक हैं, लेकिन मुख्य भोजन के रूप में अनुपयुक्त हैं, इसलिए मैंने उन्हें और नहीं खाया। कुछ लोगों ने तो यह भी सोचा कि उन पेस्ट्रियों को परमेश्वर के घर के किसी सदस्य ने घर पर बनाया था, वे प्रेम, निष्ठा और भय से भरी हुई थीं और बहुत महत्व रखती थीं, हालाँकि उनका स्वाद बस ठीक-ठाक था। बाद में मैंने पेस्ट्री का जार वापस कर दिया। मुझे ऐसी चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है और मुझे उन्हें खाने की इच्छा भी नहीं होती। इसके अलावा, अगर मुझे पेस्ट्री खाने की इच्छा होगी, तो बिना बहुत पैसे खर्च किए मैं बाजार से विभिन्न स्वादों और विभिन्न देशों की पेस्ट्री खरीद सकता हूँ। बाद में, मैंने उनसे कहा, “मैं तुम्हारी इस भावना की कद्र करता हूँ, लेकिन कृपया मेरे लिए और पेस्ट्री मत बनाना। मैं उन्हें नहीं खाऊँगा, और अगर मुझे कुछ चाहिए तो मैं उन्हें खुद ही खरीद लूँगा। अगर जरूरत पड़ी तो बस जब मैं तुमसे कहूँ, तब उन्हें बना लेना; अगर मैं तुमसे उन्हें बनाने के लिए नहीं कहता, तो तुम्हें उन्हें फिर से बनाने की जरूरत नहीं है।” क्या यह समझना आसान नहीं था? अगर वे अच्छे आचरण वाले और आज्ञाकारी होते, तो वे मेरे वचनों को याद रखते और उन्हें फिर से नहीं बनाते। जब परमेश्वर बोलता है, तो “हाँ” का मतलब “हाँ” होता है, “नहीं” का मतलब “नहीं” होता है, और “कुछ भी मत बनाओ” का मतलब है “कुछ भी मत बनाओ।” परंतु, कुछ समय बीतने के बाद उन्होंने मुझे पेस्ट्री के दो और जार भेजे। मैंने उनसे कहा, “क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि अब इन्हें मत बनाना?” उन्होंने उत्तर दिया, “ये पिछली बार से अलग हैं।” मैंने उत्तर दिया, “भले ही वे अलग हों, फिर भी वे पेस्ट्री हैं। पेस्ट्री बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं विनम्रता नहीं दिखा रहा हूँ—अगर मुझे कुछ चाहिए होगा, तो मैं तुम लोगों को बता दूँगा। क्या तुम मानवीय भाषा नहीं समझ सकते? इन्हें अब और मत बनाना।” क्या ये शब्द समझ में आते हैं? (हाँ।) फिर भी उन्हें बनाने वाला व्यक्ति हमेशा क्यों भूल जाता था? यदि उसके अगुआ उसे नियंत्रण में रख सकते थे, और उसके साथ सक्रिय सहयोग करने या उसे ऐसा करने का प्रोत्साहन देने से मना कर सकते थे, और उसे तुरंत रोक सकते थे, तो क्या पेस्ट्री बनाने वाला व्यक्ति फिर भी ऐसा करने की हिम्मत करता? कम से कम, वह यह काम इतनी निर्भीकता और असावधानी से नहीं करेगा। तो, इस स्थिति में उन अगुआओं का क्या प्रभाव था? उन्होंने हर बात का सूक्ष्म प्रबंधन किया, हर चीज में अपनी नाक घुसेड़ी, और मेरी ओर से जाँच करने का कार्यभार संभाला। वे इतने “प्रेमपूर्ण” थे कि उसका वर्णन शब्दातीत है। क्या यही वह काम है जो उन्हें करना चाहिए था? परमेश्वर के घर के काम के सिद्धांतों के भीतर ऐसा करने के कोई निर्देश नहीं थे, और मैंने उन्हें यह काम नहीं सौंपा था; लोगों ने ही इसे शुरू किया था, मैंने ऐसा अनुरोध नहीं किया था। तो इन अगुआओं ने इस काम को अग्र-सक्रियता से क्यों किया? यह नकली अगुआओं की अभिव्यक्ति है : अपने उचित काम पर ध्यान न देना। कलीसिया में बहुत सारे काम थे जिन पर उन्हें आगे की कार्रवाई, निरीक्षण और आग्रह करने की आवश्यकता थी, और बहुत सारी वास्तविक समस्याएँ थीं जिनके समाधान के लिए उन्हें सत्य पर संगति करने की आवश्यकता थी, लेकिन उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया। इसके बजाय, वे रसोई में मेरे लिए पेस्ट्री चखने बैठे रहे। इस मामले में, वे काफी गंभीर थे और उन्होंने बहुत प्रयास किए। क्या नकली अगुआ ऐसा नहीं करते? क्या यह बहुत घिनौनी बात नहीं है? मैंने कभी ऐसी उम्मीद नहीं की थी कि कुछ समय के बाद यह मामला फिर से सामने आएगा। पेस्ट्री बनाने वाला व्यक्ति मेरे लिए फिर से पेस्ट्री बनाना शुरू करना चाहता था। मैंने एक अगुआ से विशेष रूप से कहा, “तुम जाकर इस समस्या का समाधान करो। तुम्हें उसे यह स्पष्ट रूप से समझाना होगा। अगर उसने फिर से ऐसा किया तो मैं तुम्हें जवाबदेह ठहराऊँगा!” कलीसिया में इतना सारा काम है कि कोई भी काम उन्हें कुछ समय के लिए व्यस्त रख सकता है। वे इतने निठल्ले क्यों थे? क्या वे यहाँ मोटे होने या बेकार की गपशप करने आए हैं? यह जगह उन चीजों के लिए नहीं है। इसके बाद, इस मामले के बारे में कोई और खबर नहीं मिली। मेरे एक बार निर्देशित करने के बाद उस अगुआ ने कोई सूचना नहीं दी। जो भी हो, किसी ने मुझे फिर से वे छोटी पेस्ट्रियाँ नहीं भेजीं, जो काफी राहत की बात थी। इस घटना के मद्देनजर, क्या हम कह सकते हैं कि ये अगुआ अपने उचित काम पर ध्यान नहीं दे रहे थे? (हाँ।) यह मामला इतना गंभीर भी नहीं है; इससे भी गंभीर मामले हैं।
मैं आसपास का जायजा लेने, अगुआओं से मिलने, कुछ काम के लिए निर्देश देने और कुछ मुद्दों को सुलझाने अक्सर कुछ कलीसियाओं में जाता रहता हूँ। कभी-कभी, मुझे इन कलीसियाओं में दोपहर का खाना खाना पड़ता है, जिससे यह सवाल उठता है कि भोजन कौन बनाएगा। अगुआ इतने जिम्मेदार थे कि उन्होंने किसी ऐसे व्यक्ति को चुना जिसका दावा था कि वह शेफ है। मैंने कहा, “वह शेफ है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है; जो मायने रखता है वह यह है कि मुझे सादा खाना पसंद है। मुझे भोजन सामग्री का असली स्वाद लेना पसंद है। खाना बहुत ज्यादा नमकीन, तेलयुक्त या उत्तेजक नहीं होना चाहिए। सर्दियों में मुझे कुछ गर्म खाने की जरूरत होती है। साथ ही, खाना कम पका हुआ नहीं बल्कि अच्छी तरह से पका हो और पचने में आसान हो।” क्या मैंने इन सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से नहीं बताया? क्या इन्हें हासिल करना आसान था? इन्हें याद रखना और करना दोनों ही चीजें आसान थीं। जिस भी गृहिणी ने तीन से पाँच साल तक खाना बनाया हो, वह इन सिद्धांतों को समझ सकती है और अपेक्षित परिणाम हासिल कर सकती है। इसलिए, मेरा खाना बनाने के लिए शेफ खोजने पर जोर देने की जरूरत नहीं थी; कोई ऐसा व्यक्ति जो घरेलू खाना बना सके वह पर्याप्त होता। हालाँकि, ये अगुआ इतने “प्रेमपूर्ण” थे कि जब उन्होंने मेरी मेजबानी की तो भोजन तैयार करने के लिए एक “शेफ” खोजने पर जोर दिया। शेफ द्वारा आधिकारिक तौर पर मेरे लिए खाना पकाने से पहले, अगुआओं को जाँच करनी थी। उन्होंने यह सब कैसे किया? उन्होंने शेफ से पकौड़े और शोरबेदार नूडल बनवाया, और उसे कुछ व्यंजन तलने के लिए कहा। सभी अगुआओं और विभिन्न समूहों के प्रमुखों ने उन्हें चखा, और उन्हें सभी व्यंजन काफी अच्छे लगे। अंत में, उन्होंने शेफ से मेरे लिए खाना पकाने को कहा। अगुआओं के स्वाद परीक्षण के परिणामों और इसमें शामिल मुद्दों की प्रकृति की बात को छोड़कर, आओ पहले इस शेफ द्वारा तैयार किए गए भोजन के बारे में बात करते हैं। पहली बार जब मैं गया, तो शेफ ने कुछ व्यंजन तले, और हर कोई काफी संतुष्ट था। दूसरी बार, शेफ ने पकौड़े बनाए। पहला पकौड़ा खाने के बाद, मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है—यह थोड़ा मसालेदार था। मेरे आस-पास के अन्य लोगों ने भी कहा कि पकौड़े थोड़े तीखे थे, और उन्हें लगा कि उनकी जीभ पर सूजन आने लगी है। फिर भी, चूँकि पकौड़े ही एकमात्र मुख्य व्यंजन थे, इसलिए तेज मसालेदार होने के बावजूद मुझे वे खाने पड़े। उन पकौड़ों के भरावन में कोई मिर्च दिख नहीं रही थी, इसलिए मैंने उसके मसालेदार होने का जो भी कारण था, उसे नजरअंदाज कर दिया और भोजन खत्म किया। नतीजतन, उस शाम मेरे शरीर में एलर्जी शुरू हो गई। मेरे शरीर के कई हिस्सों में लगातार खुजली होने लगी, और मैं खुजलाता रहा; मैं खुद को तब तक खुजलाता रहा जब तक कि खून नहीं निकल आया। तब जाकर मुझे बेहतर महसूस हुआ। तीन दिनों तक मुझे खुजली होती रही, फिर धीरे-धीरे कम हो गई। इस एलर्जी के बाद मुझे एहसास हुआ कि पकौड़ों में निश्चित रूप से काली मिर्च डाली गई थी; अन्यथा, वे इतने मसालेदार नहीं होते। मैंने उन्हें सूचित किया था कि वे काली मिर्च जैसी तीखी सामग्री न डालें क्योंकि मैं उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता। परंतु, उन्होंने अपने स्वादानुसार काफी मात्रा में इसका प्रयोग किया, जो सामान्य से अधिक थी; उन पकौड़ों को खाने पर काफी तीखी सनसनाहट हो रही थी। शेफ खाना पकाने में सामग्री का अनुपात भी सही नहीं रख पाया, उसने इतनी काली मिर्च डाली कि कि किसी को भी एलर्जी हो जाए। बाद में, मैंने उससे कहा, “कभी भी उन मसालेदार सामग्रियों को दोबारा मत डालना। मैं उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर तुममें वाकई थोड़ी-सी भी मानवता है, तो ऐसा दोबारा मत करना। अगर तुम अपने लिए खाना बनाते हो, तो मैं तुम्हारे खाने में हस्तक्षेप नहीं करूँगा। परंतु, अगर तुम मेरे लिए खाना बना रहे हो, तो उनमें से कुछ भी मत डालो। मेरे अपेक्षित मानकों का पालन करो।” क्या वह ऐसा कर सकता था? क्या अगुआओं को यह काम नहीं संभालना चाहिए था? दुर्भाग्य से, किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया और उन्हें जो करना चाहिए उनमें से कोई काम नहीं किया। एक बार, जब शेफ फिर से खाना बनाने वाला था, तो उसने डिश में डालने के लिए कुछ काली मिर्च उठाई, और पास में मौजूद किसी व्यक्ति ने यह देख लिया और उसे रोक दिया। उसकी सख्त निगरानी में, शेफ को उसे डालने का अवसर नहीं मिला। अगुआ इतनी छोटी-सी समस्या का भी समाधान नहीं कर सके—तब, वे क्या कर सकते थे? जब शेफ खाना बना रहा था, तो उसे चखने के बारे में वे काफी सक्रिय थे। कई लोग इसे चखने गए। यह घर का बना सामान्य भोजन था; इसमें चखने लायक क्या था? क्या तुम सभी पाक विशेषज्ञ हो? क्या अगुआ बनने के बाद तुम अचानक सब कुछ समझने लगे हो? क्या तुम स्वास्थ्य के सिद्धांत समझते हो? क्या परमेश्वर के घर ने तुम्हारे ऐसा करने के लिए व्यवस्था की थी? मैंने तुम्हें मेरी ओर से भोजन चखने का काम कब सौंपा या कब तुम्हें नियुक्त किया? तुम लोग बहुत तर्कहीन हो, और तुम्हें जरा भी शर्म नहीं है! अगर किसी में थोड़ी भी शर्म है तो वह इतना खुल्लमखुल्ला, इतना घिनौना, इतना तर्कहीन काम नहीं करेगा। इससे दिखता है कि इन लोगों में जरा भी शर्म नहीं है—उन्होंने मेरे लिए भोजन चखा! तुम लोगों ने मेरे बताए किसी भी सिद्धांत का न पालन किया, न उन्हें पूरा किया। जो भी तुम्हें अच्छा और तुम्हारे स्वाद के अनुकूल लगा, तुमने शेफ से वही पकाने के लिए कहा। क्या यह मेरे लिए खाना बनवाना है? क्या यह अपने लिए खाना बनवाना नहीं है? क्या तुम लोग अगुआओं के रूप में इसी तरह से काम करते हो? लाभ उठाने और खामियों का फायदा उठाने का कोई अवसर नहीं छोड़ना, और यहाँ तक कि मुझे खुश करने की कोशिश करके मेरे पसंदीदा बनने की कोशिश करना—अगर तुम मेरे पसंदीदा बनना चाहते हो, तो मुझे नुकसान मत पहुँचाओ! क्या यह सद्गुणों की कमी नहीं है? क्या यह अनुचित इरादे पालना नहीं है? वे बेशर्म हैं और अनुचित इरादे रखते हैं, फिर भी वे सोचते हैं कि वे बहुत निष्ठावान हैं! उन्होंने जो कुछ किया, क्या उसमें से कोई भी काम अगुआओं को वास्तव में करना चाहिए? (नहीं।) उन्होंने जो कुछ भी किया, उसका कोई मानक नहीं था। उन्हें यह भी नहीं पता था कि अमुक भोजन स्वास्थ्यकर है या अस्वास्थ्यकर, फिर भी उन्होंने सोचा कि वे यहाँ आकर मेरे लिए स्वास्थ्य और भोजन विशेषज्ञ की भूमिका निभा सकते हैं! किसने निर्धारित किया कि जब मेरे लिए खाना पकाने की बात हो तो उन्हें जाँच करनी चाहिए? क्या कलीसिया में यह निर्धारित शर्त है? क्या परमेश्वर के घर ने यह व्यवस्था की है? कलीसिया के काम के विभिन्न मदों में बहुत कमियाँ थीं, बहुत लोगों को परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ थीं और वे सत्य बिल्कुल भी नहीं समझते थे, फिर भी तुमने उन चीजों पर काम नहीं किया। इसके बजाय, तुमने रसोई जैसे छोटे-से क्षेत्र में प्रयास किए, और अपनी “जिम्मेदारी” निभाई। तुम सरासर नकली अगुआ हो, पाखंडी हो! तुम मेरे सामने ही चीजों की जाँच कर रहे थे—तुम लोगों की समझ में क्या आया? क्या तुमने मुझसे सलाह ली? तुम अपने विचार व्यक्त कर रहे थे या मेरे? यदि तुम मेरे विचार व्यक्त कर रहे होते, और मैंने तुमसे इसे आगे पहुँचाने के लिए कहा होता, तो तुम लोग जो कर रहे थे वह सही होता। यह तुम्हारी जिम्मेदारी होती। अगर तुम मेरे नहीं, बल्कि अपने विचार व्यक्त कर रहे थे, और दूसरों को उसे सुनने और स्वीकार करने के लिए जोर देकर बाध्य कर रहे थे, तो इस कार्य की प्रकृति क्या है? मुझे बताओ, क्या मुझे इससे घृणा नहीं होगी? मैं वहीं था, और उन्होंने मुझसे एक शब्द भी नहीं पूछा कि मैं क्या खाता हूँ या मेरी क्या जरूरतें हैं—उन्होंने मेरी स्वीकृति के बिना ही बस निर्णय ले लिए, और मेरी पीठ पीछे मनमाने ढंग से आदेश दिए। क्या वे मेरा प्रतिनिधि बनने की कोशिश कर रहे थे? यह नकली अगुआओं के अनियंत्रित तरीके से कुकर्म करते हुए आध्यात्मिक होने का दिखावा करने, परमेश्वर के बोझ पर विचार करने का दिखावा करना है, और सत्य समझने का दिखावा करना है, और बस पाखंड करना है। क्या यह कुछ ज्यादा नहीं है? क्या यह अपने आप में बहुत घृणित और घिनौना नहीं है? (हाँ, है।) क्या तुम लोगों को इससे कोई अंतर्दृष्टि मिली? क्या तुमने इससे कोई सबक सीखा? इनमें से प्रत्येक मामला पिछले से ज्यादा घृणित है, और एक और मामला है जो और भी ज्यादा घृणित है।
इस सर्दी में, किसी दयालु व्यक्ति ने मुझे हंस के भीतरी पंखों से बना एक “सुंदर” कोट खरीद दिया। इसकी सुंदरता कोट के रंग या शैली में नहीं थी, बल्कि इसकी ऊँची कीमत और आला दर्जे की उच्च गुणवत्ता में थी; यह मूल्यवान था। गैर-विश्वासियों के बीच एक कहावत है, “हजार मील दूर से भेजा गया हंस पंख का कोट छोटा-सा उपहार हो सकता है, लेकिन उसके पीछे गहरी भावनाएं होती हैं।” सो, इस कोट से न केवल भावनाएँ जुड़ी थीं, बल्कि यह वास्तव में बहुत महँगा था। कोट को देखने से पहले ही मैं सुन चुका था कि यह अच्छा दिखता है और लाल रंग का बढ़िया डिजाइन वाला कोट है, और यह एक अच्छा एहसास देता है। मैंने इसके बारे में सुना था, इसका मतलब है कि कुछ लोगों ने पहले से ही वास्तविक वस्तु को जरूर देखा था—यानी, बहुत से लोगों ने उसे पहले ही देख लिया था, मोटे तौर पर इसे नाप लिया था, और इसकी बारीकी से जाँच करने के बाद बातें कर रहे थे, जैसे कि, “मैं इस ब्रांड को जानता हूँ,” “इसका रंग बढ़िया है, यह काफी सुंदर है!” “तुम देख लो तो, मुझे भी इसे दिखाना” आदि और बस इसी तरह यह खबर फैल गई। मुझे नहीं पता कि इस खबर को मेरे कानों तक पहुँचने में और मुझे इसके बारे में थोड़ा-बहुत जानने में कितना समय लगा। क्या तुम लोग इसमें कोई समस्या देख सकते हो? कोट को मैं देखूँ उससे पहले ही उसे कई अन्य लोगों ने देखा, इधर-उधर किया और प्रदर्शित किया। क्या यह कोई समस्या नहीं है? क्या लोग मेरी चीजों को सहजता से देख, छू और प्रदर्शित कर सकते हैं? (नहीं।) किसकी चीजों को लोग सहजता से छू और देख सकते हैं? (कोई भी ऐसा नहीं चाहेगा और किसी को भी ऐसा नहीं करना चाहिए।) तो, क्या मेरी चीजें और भी अधिक वर्जित नहीं होनी चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “उन्हें वर्जित क्यों होना चाहिए? तुम सार्वजनिक व्यक्ति हो। क्या मशहूर हस्तियों और सितारों की निजी जिंदगी हमेशा उजागर नहीं होती? वे कहाँ खेलते हैं, कहाँ सौंदर्य उपचार करवाते हैं, किसके साथ जुड़ते हैं, कौन-से ब्रांड पहनते हैं—क्या ये सभी चीजें सार्वजनिक नहीं होतीं? तुम्हारी चीजें क्यों उजागर नहीं होनी चाहिए?” क्या मैं कोई मशहूर हस्ती हूँ? मैं मशहूर हस्ती नहीं हूँ, और तुम मेरे प्रशंसक नहीं हो। तुम कौन हो? तुम साधारण व्यक्ति, सृजित प्राणी और भ्रष्ट मनुष्य हो। मैं कौन हूँ? (परमेश्वर।) मैं कोई लोक प्रसिद्ध हस्ती नहीं हूँ; मुझे तुम्हारे सामने सब कुछ उजागर करने, तुम्हें सारी जानकारी देने या तुम्हें हर चीज के बारे में सूचित करने की बाध्यता नहीं है। तो, तुम मेरी किसी चीज को क्यों छू रहे हो? क्या ऐसा करना घृणित काम नहीं है? क्या मैंने तुम्हें आदेश दिया था कि तुम मेरी इस चीज को देखो और इसकी जाँच करो? नहीं। फिर भी कुछ लोगों ने इसे लेने और धृष्टतापूर्वक इसे देखने की हिम्मत की, और इसे इधर-उधर एक-दूसरे को देखने के लिए भी दिया। तुम्हें इसे एक-दूसरे को देने का अधिकार किसने दिया? क्या यह तुम्हारा दायित्व है? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो हम एक-दूसरे के लिए अजनबी हैं। परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास के कारण ही मैं जानता हूँ कि तुम कौन हो, लेकिन मैं नहीं जानता कि तुम्हारा परिवार, दैनिक जीवन या वित्तीय परिस्थितियाँ कैसी हैं, और मैं जानना भी नहीं चाहता। क्या हम करीबी हैं? मैं तुम्हारा यार, दोस्त या साथी नहीं हूँ। हम परिचित नहीं हैं, और हमारा संबंध उस बिंदु तक नहीं पहुँचा है जहाँ मेरी हर चीज तुम्हारे देखने के लिए लिए खुली हो। क्या तुम मुझे अपनी सारी चीजें देखने और सबको दिखाने और छूने के लिए दोगे? जब लोग बाजार से कोई चीज घर लाते हैं, तो उसे भी कीटाणुरहित करने के लिए कई बार धोना पड़ता है! क्या जिन चीजों को दूसरे लोगों ने लापरवाही से छुआ होता है, उनसे घिन नहीं आती? क्या तुम स्वयं को बाहरी लोगों की तरह पेश करने में विफल नहीं रहे हो? तुम्हें मेरे कोट का निरीक्षण करने के लिए किसने नियुक्त किया? क्या मैं तुम पर भरोसा करता हूँ? क्या मेरे कोट को लापरवाही से छूने से पहले तुमने अपने हाथ धोए हैं? क्या मुझे तुमसे गहरी चिढ़ नहीं होगी? क्या तुम इस बारे में स्पष्ट हो? तुम इतने बेशर्म क्यों हो? तुममें कितना कम विवेक है! तुमने कई सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया है और इतने सारे उपदेश सुने हैं; फिर तुममें जरा-सा भी तर्क कैसे नहीं है? परमेश्वर के चढ़ावे को लापरवाही से खोलना, उसके कपड़ों को, उसकी चीजों को लापरवाही से छूना—यह किस तरह की समस्या है? जब मैं देखता हूँ कि इन चीजों की पैकिंग खोल कर फेंक दी गई है, तो मुझे क्रोध कैसे नहीं आएगा? मुझे इन चीजों से गहरी चिढ़ होती है और मैं ऐसे लोगों से घृणा करता हूँ। मैं उन्हें दोबारा नहीं देखना चाहता, और मैं निश्चित रूप से इन लोगों के साथ जुड़ना नहीं चाहता जो सूअरों और कुत्तों से भी बदतर हैं! याद रखो, हर व्यक्ति की अपनी गरिमा होती है, और मेरी तो और भी ज़्यादा है। मेरी चीजों में शामिल मत हो; अन्यथा, मैं तुम्हें नापसंद करूँगा और अत्यधिक घृणा करूँगा!
संभव है कि ऊपरी तौर पर नकली अगुआ बड़ी बुराइयाँ न करें या पूरी तरह से विश्वासघाती खलनायक न हों। परंतु, उनके बारे में सबसे घृणास्पद बात यह है कि वे देख सकते हैं कि वास्तविक कार्य किया जाना है, लेकिन वे उसे नहीं करते, वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे मुद्दों को हल नहीं कर सकते, किंतु वे सत्य की तलाश नहीं करते, वे बुरे लोगों को बाधाएँ डालते देखते हैं, लेकिन वे उनसे नहीं निपटते, और इसके बजाय वे केवल बाहरी सामान्य मामलों का ध्यान रखते हैं। वे कम महत्वपूर्ण मुद्दों और तुच्छ मामलों पर कड़ी नजर रखते हैं और उन्हें नियंत्रित करते हैं, लेकिन वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश से संबंधित कोई भी कार्य नहीं करते, न ही सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध जाने वाले विभिन्न मामलों की परवाह करते हैं। इसके बजाय, वे केवल ऐसे कार्य करते हैं जिसका संबंध सत्य से नहीं होता। ये सरासर नकली अगुआ हैं। नकली अगुआ कलीसिया के काम की विभिन्न मदों में शामिल सत्य सिद्धांतों से पूरी तरह अनभिज्ञ होते हैं। यदि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के सिद्धांतों और मानकों के आधार पर पर मापा जाए, तो नकली अगुआ मूर्ख और बेवकूफ होते हैं। कलीसिया के काम में आने वाली समस्याएँ चाहे कितनी भी गंभीर क्यों न हों, और भले ही वे उनकी नाक के नीचे ही हों, नकली अगुआ उन्हें न देख सकते हैं, न हल कर सकते हैं, और ऊपरवाले को खुद आकर उन समस्याओं को हल करना पड़ता है। क्या ये लोग नकली अगुआ नहीं हैं? (हाँ, हैं।) वे वास्तव में नकली अगुआ हैं। उदाहरण के लिए, कलीसिया के पाठ आधारित कार्य में, किन पुस्तकों की प्रूफरीडिंग की जानी चाहिए और किन पुस्तकों का अनुवाद किया जाना चाहिए—ये कलीसिया के महत्वपूर्ण कार्य हैं। पुस्तकों की प्रूफरीडिंग और अनुवाद करने के बारे में क्या कोई सिद्धांत हैं? इस कार्य में निश्चित रूप से सिद्धांत हैं, यह अत्यधिक सिद्धांत-आधारित है, और वास्तव में इसके लिए विशेष रूप से संगति और मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है; लेकिन नकली अगुआ यह काम नहीं कर सकते। जब वे भाई-बहनों को अपने कर्तव्यों में व्यस्त देखते हैं, तो दिखावा करते हुए कहते हैं, “पाठ आधारित कार्य और अनुवाद कार्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। तुम्हें इस कार्य को अच्छी तरह से करने में दिल लगाना चाहिए, और मैं तुम्हारे सभी मुद्दों का समाधान कर दूँगा।” जब कोई व्यक्ति वास्तव में कोई मुद्दा उठाता है, तो ये नकली अगुआ कहते हैं, “मैं इस मामले को नहीं समझता। विदेशी भाषाओं से अनुवाद के मामले में मैं बिलकुल आम आदमी हूँ। परमेश्वर से प्रार्थना करो और उससे निर्देश प्राप्त करो।” जब यह कहते हुए कोई दूसरा मुद्दा उठाता है, “हमें कुछ भाषाओं का अनुवाद करने के लिए उपयुक्त लोग नहीं मिल रहे हैं, हमें इस बारे में क्या करना चाहिए?”, तो नकली अगुआ जवाब देते हैं, “मैं इस मामले में आम आदमी हूँ। तुम लोग इसे खुद ही संभाल लो।” क्या ऐसा कहने से समस्या हल हो सकती है? वे यह कहते हुए कि, “मैं आम आदमी हूँ; मैं इस पेशे को नहीं समझता,” कोई बहाना ढूँढ़ते हैं और इस तथ्य को छिपा ले जाते हैं कि वे अपना काम नहीं कर रहे हैं, और इस तरह वे उस समस्या से बचते हैं जिसे उन्हें हल करना चाहिए। नकली अगुआ इसी तरह काम करते हैं। जब कोई सवाल उठाता है, तो नकली अगुआ कहते हैं, “परमेश्वर से प्रार्थना करो और उससे मांगो; मैं इस पेशे को नहीं समझता, लेकिन तुम लोग समझते हो।” यह बात विनम्र लग सकती है, क्योंकि वे स्वीकार कर रहे हैं कि वे अक्षम हैं और पेशे को नहीं समझते हैं, लेकिन वास्तव में, वे अगुआई का काम बिल्कुल नहीं कर सकते। बेशक अगुआ होने का अनिवार्य रूप से यह मतलब नहीं है कि उनमें हर तरह के पेशे की समझ हो, लेकिन उन्हें समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक सत्य सिद्धांतों की संगति स्पष्ट रूप से करनी चाहिए, फिर चाहे समस्याएँ जिस किसी पेशे से संबंधित हों। अगर लोग सत्य सिद्धांतों को समझते हैं तो समस्याओं को उसी के अनुसार हल किया जा सकता है। नकली अगुआ समस्याओं को हल करने के लिए सत्य सिद्धांतों की संगति से बचने के लिए “मैं इस काम से अनजान हूँ; मैं इस पेशे को नहीं समझता” जैसे कारण गिनाते हैं। यह वास्तविक कार्य करना नहीं है। अगर नकली अगुआ समस्याओं को हल करने से बचने के लिए ऐसे कारण गिनाते हैं कि “मैं इस काम से अनजान हूँ; मैं इस पेशे को नहीं समझता” तो वे अगुआई के कार्य के लिए उपयुक्त नहीं हैं। सबसे अच्छी बात यह होगी कि वे इस्तीफा दे दें और किसी और को अपनी जगह लेने दें। लेकिन क्या नकली अगुआओं के पास इस तरह का विवेक होता है? क्या वे इस्तीफा दे पाएँगे? नहीं दे पाएँगे। वे तो यहाँ तक सोचते हैं, “लोग क्यों कहते हैं कि मैं कोई कार्य नहीं कर रहा हूँ? मैं हर दिन सभाएँ करता हूँ और इतना व्यस्त रहता हूँ कि मैं समय पर भोजन भी नहीं कर पाता और कम सो पाता हूँ। कौन कहता है कि समस्याओं का समाधान नहीं हो रहा है? मैं उनके साथ सभाएँ और संगति करता हूँ और उनके लिए परमेश्वर के वचनों के अंश ढूँढ़ता हूँ।” मान लो कि तुम उनसे पूछते हो कि, “कोई कह रहा था कि उसे कुछ भाषाओं के लिए उपयुक्त अनुवादक नहीं मिल रहे हैं। तुमने इस विशिष्ट समस्या का समाधान कैसे किया?” इस पर वे कहेंगे, “मैंने उनसे कहा कि मैं इस पेशे को नहीं समझता, और उनसे इस पर चर्चा करने और इसे खुद संभालने के लिए कहा।” फिर तुम उनसे कहते हो कि, “इस समस्या में चढ़ावे का खर्च और कलीसिया के कार्य की प्रगति शामिल है। वे अपने आप निर्णय नहीं ले सकते, उनकी इस समस्या को हल करने के लिए तुम्हें निर्णय लेने और सत्य सिद्धांतों की खोज करने की आवश्यकता है। क्या तुमने ऐसा किया?” वे जवाब देंगे : “मैंने कैसे नहीं किया? मैंने किसी भी काम में देरी नहीं की। अगर उस भाषा का अनुवाद करने वाला कोई नहीं है, तो उन्हें बस दूसरी भाषा में अनुवाद करना चाहिए!” तुम देख रह हो कि नकली अगुआ वास्तविक कार्य नहीं कर सकते, फिर भी वे ढेरों बहाने बनाते हैं। यह सचमुच बेशर्मी और घिनौनापन है! तुम्हारी काबिलियत इतनी खराब है, तुम किसी भी पेशे को नहीं समझते और पेशेवर काम की हर मद से जुड़े सत्य सिद्धांतों की समझ तुममें नहीं है—तुम्हारे अगुआ होने का क्या फायदा? तुम बस मूर्ख और निकम्मे हो! जब तुम कोई वास्तविक कार्य कर नहीं सकते, तो फिर तुम अब भी कलीसिया के अगुआ के रूप में क्यों सेवारत हो? तुममें विवेक है ही नहीं। चूँकि तुममें आत्म-जागरूकता की कमी है, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की प्रतिक्रियाएँ सुननी चाहिए और यह मूल्यांकन करना चाहिए कि क्या तुम अगुआ होने के मानक पूरा करते हो। फिर भी, नकली अगुआ इन बातों पर कभी विचार नहीं करते। अगुआ के रूप में उनकी कई सालों की सेवा के दौरान कलीसिया के कार्य में चाहे जितनी भी देरी हुई हो और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश का कितना भी नुकसान हुआ हो, उन्हें इसकी परवाह नहीं होती। यह सरासर नकली अगुआओं का बदसूरत चेहरा है।
इस बारे में सोचो कि अगुआ और कार्यकर्ता अपना काम कैसे करते हैं—क्या यह उससे मेल खाता है जो मैंने अभी तुम्हें बताया है? क्या कोई ऐसा है जो वास्तविक काम नहीं करता है, और क्या तुम उन्हें नकली अगुआ के रूप में पहचान सकते हो? यदि तुम उन्हें नकली अगुआ के रूप में पहचानते हो, तो आज से तुम्हें उन्हें अगुआ नहीं मानना चाहिए; तुम्हें उनके साथ किसी अन्य व्यक्ति की तरह व्यवहार करना चाहिए। यह अभ्यास का सटीक सिद्धांत है। कुछ लोग सोच सकते हैं, “क्या इसका मतलब उनके साथ भेदभाव करना, उन्हें नीचा दिखाना या उन्हें अलग-थलग करना है क्योंकि वे नकली अगुआ हैं?” नहीं, ऐसा नहीं है। वे वास्तविक काम नहीं कर सकते, और वे केवल कुछ शब्द और धर्म-सिद्धांत और कुछ खोखले शब्द बोल सकते हैं ताकि टालमटोल करके तुम्हें धोखा दे सकें। यह सब तुम्हें एक तथ्य बताता है, जो यह है कि वे तुम्हारे अगुआ नहीं हैं। तुम्हें अपने काम में आने वाली किसी भी समस्या या कठिनाई के लिए उनसे निर्देश मांगने की आवश्यकता नहीं है। यदि आवश्यक हो, तो तुम ऊपरवाले को इसकी सूचना देकर और उस समस्या को संभालने और हल करने के बारे में ऊपरवाले से परामर्श करके उनसे बच सकते हो। मैंने तुम्हें अभ्यास का पूरा मार्ग सिखाया है, लेकिन तुम काम कैसे करते हो यह तुम लोगों पर निर्भर है। मैंने कभी नहीं कहा कि सभी अगुआ परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित होते हैं, कि तुम्हें उनकी बात जरूर सुननी चाहिए और उनका पालन करना चाहिए, और यह कि भले तुम उन्हें नकली अगुआ समझते हो तब भी तुम्हें उनकी बात सुननी ही चाहिए। मैंने तुमसे ऐसा कभी नहीं कहा। मैं अब जो संगति कर रहा हूँ वह यह है कि नकली अगुआओं को कैसे पहचाना जाए। जब तुम किसी को नकली अगुआ के रूप में पहचान लेते हो, तो तुम उसकी बात स्वीकार कर सकते हो और उसका पालन कर सकते हो, अगर वह सही है और सत्य के अनुरूप है। परंतु, यदि वह किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकता, और वह तुम्हारे साथ टालमटोल करता है और काम की प्रगति को प्रभावित करता है, तो तुम्हें उसकी अगुआई स्वीकार करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम खुद सिद्धांतों को समझ सकते हो, तो तुम्हें उनके अनुसार कार्य करना चाहिए। अगर तुम समझ नहीं सकते, अनिश्चित हो, या सिद्धांतों के बारे में निश्चित नहीं हो, तो तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए और समस्या से निपटने के लिए एक-दूसरे के साथ चर्चा करनी चाहिए। अगर तुम चर्चा के बाद भी कोई निर्णय नहीं ले पा रहे हो, तो समस्या के बारे में ऊपरवाले को बताओ और उससे इस बारे में सलाह लो। समस्याओं को हल करने के ये सभी अच्छे तरीके हैं—कोई भी कठिनाई ऐसी नहीं है जिसका समाधान नहीं किया जा सके।
चलो, आज हम अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं। अलविदा!
16 जनवरी 2021