4. परमेश्वर से हमेशा माँग करने की समस्या का समाधान कैसे करें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं या नहीं, यह आकलन करने में मुख्य बात यह है कि वे उससे असंयत माँगें कर रहे हैं या नहीं, और उसके प्रति उनके गुप्त अभिप्राय हैं या नहीं। अगर लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते हैं, तो यह साबित करता है कि वे उसके प्रति समर्पित नहीं हैं। तुम्हारे साथ चाहे जो भी हो, यदि तुम इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार नहीं करते, तुम सत्य की तलाश नहीं करते, हमेशा अपने लिए तर्क-वितर्क करते हो और हमेशा यह महसूस करते हो कि सिर्फ तुम सही हो, और यहाँ तक कि तुम अभी भी यह संदेह करने में सक्षम हो कि परमेश्वर सत्य और धार्मिकता है, तो तुम संकट में पड़ जाओगे। ऐसे लोग सबसे अहंकारी और परमेश्वर के प्रति विद्रोही होते हैं। जो लोग हमेशा परमेश्वर से माँगते रहते हैं, वे कभी सच्चे रूप से उसके प्रति समर्पण नहीं कर सकते। अगर तुम परमेश्वर से माँग करते हो, तो यह साबित करता है कि तुम उससे सौदा कर रहे हो, तुम अपनी ही इच्छा चुन रहे हो, और इसी के अनुसार कार्य कर रहे हो। ऐसा करके तुम परमेश्वर को धोखा दे रहे हो और तुममें समर्पण की कमी है। परमेश्वर से माँग करना अपने आप में ही नासमझी है; अगर तुम्हें सचमुच विश्वास है कि वह परमेश्वर है, तो तुम उससे माँगने की हिम्मत नहीं करोगे, न तुम खुद को उससे माँग करने के योग्य समझोगे, फिर चाहे तुम इन माँगों को उचित समझो या नहीं। अगर तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास है, तो फिर तुम सिर्फ उसकी आराधना और उसके प्रति समर्पण करोगे, इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है। आज, लोग न सिर्फ अपनी पसंद-नापसंद खुद चुनते हैं, बल्कि वे यह भी माँग करते हैं कि परमेश्वर उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करे। वे न केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण न मानने का फैसला करते हैं, बल्कि वे परमेश्वर से भी कहते हैं कि वह उनके प्रति समर्पण करे। क्या यह विवेकशून्यता नहीं है? इसलिए, अगर मनुष्य में कोई सच्ची आस्था नहीं है, कोई सारभूत विश्वास नहीं है, तो वह कभी भी परमेश्वर से स्वीकृति नहीं पा सकता। जब लोग परमेश्वर से कम माँगें करने में सक्षम हो जाएँगे, तो उनमें सच्ची आस्था और समर्पण अधिक होगा, और उनकी तार्किक समझ भी अपेक्षाकृत सामान्य हो जाएगी। अक्सर ऐसा होता है कि लोग तर्क-वितर्क करने में जितने अधिक प्रवृत्त होते हैं, और वे जितने अधिक औचित्य बताते हैं, उतना ही अधिक कठिन उन्हें संभालना होता है। उनकी बहुत-सी माँगें तो होती ही हैं, उन्हें उंगली पकड़ाओ तो वे सिर पर चढ़ जाते हैं। एक मामले में संतुष्ट होने पर वे दूसरे मामले में माँग करने लगते हैं। उन्हें सभी मामलों में संतुष्ट करना होता है, वरना वे शिकायत करने लगते हैं, और चीजों को निराशाजनक बताकर खारिज करते हुए लापरवाही से कार्य करते हैं। बाद में वे कृतज्ञ और पछतावा महसूस करते हैं, फूट-फूटकर रोते हैं और मरना चाहते हैं। इसका क्या फायदा? क्या यह अविवेकी और अनवरत संताप-दायी होना नहीं है? समस्याओं की इस कड़ी को जड़ से मिटाना होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं

परमेश्वर से लोगों की माँगों की समस्या का समाधान करने से अधिक मुश्किल और कुछ नहीं है। जब परमेश्वर के कार्यकलाप तुम्हारी सोच के अनुरूप नहीं होते या वे तुम्हारी सोच के अनुसार नहीं किए गए होते तो तुम कदाचित उसका विरोध कर सकते हो—जो यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि अपनी प्रकृति में तुम परमेश्वर विरोधी हो। इस समस्या की पहचान केवल बार-बार आत्म-चिंतन करने और सत्य की समझ पाने से हो सकती है, और इसका पूर्ण समाधान केवल सत्य का अनुसरण करने से हो सकता है। जब लोग सत्य को नहीं समझते तो परमेश्वर से कई माँगें कर बैठते हैं, जबकि जब वे सत्य को वास्तव में समझते हैं तो कोई माँग नहीं करते हैं; उन्हें सिर्फ यह लगता है कि उन्होंने परमेश्वर को पर्याप्त रूप से संतुष्ट नहीं किया है, कि वे परमेश्वर के प्रति पर्याप्त समर्पण नहीं करते हैं। लोगों का हमेशा परमेश्वर से माँगें करना उनकी भ्रष्ट प्रकृति को दिखाता है। अगर तुम खुद को नहीं जान सकते और इस मामले में सच्चे मन से प्रायश्चित्त नहीं कर सकते तो परमेश्वर में विश्वास के अपने मार्ग में तुम छिपे हुए खतरों और जोखिम का सामना करोगे। तुम साधारण चीजों को तो वश में कर सकते हो, लेकिन जब तुम्हारे भाग्य, संभावनाओं और मंजिल जैसे महत्वपूर्ण मामले आएंगे तो शायद तुम इन्हें वश में नहीं कर पाओगे। उस समय, अगर तुममें अभी भी सत्य की कमी होगी तो तुम फिर से अपने पुराने तरीकों पर उतर आओगे और इस तरह नष्ट किए जाने वालों में शामिल हो जाओगे। अनेक लोग हमेशा इसी तरह अनुसरण और विश्वास करते आए हैं; जिस दौरान उन्होंने परमेश्वर का अनुसरण किया, वे अच्छा व्यवहार करते रहे लेकिन इससे यह तय नहीं होता कि भविष्य में क्या होगा। ऐसा इसलिए है कि तुम मनुष्य की घातक कमजोरी बिल्कुल नहीं जानते या मनुष्य की प्रकृति में निहित उन चीजों को नहीं जानते जो परमेश्वर का विरोध कर सकती हैं, और तुम इनसे तब तक अनभिज्ञ रहते हो जब तक ये तुम्हें तबाही के कगार पर लाकर खड़ा नहीं कर देतीं। चूँकि परमेश्वर का विरोध करने की तुम्हारी प्रकृति का निराकरण नहीं होता है, यह तुम्हें तबाही की ओर ले जाती है, और संभव है कि जब तुम्हारा सफर पूरा हो जाए और परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाए, तब तुम वह कर दोगे जिससे परमेश्वर का सर्वाधिक विरोध होता हो और वह कह दोगे जिससे उसकी निंदा होती हो, और इस प्रकार तुम निंदित और बहिष्कृत कर दिए जाओगे। अंतिम क्षण में, सबसे संकटपूर्ण समय में, पतरस ने बचने की कोशिश की। उस समय उसने परमेश्वर की इच्छा नहीं समझी और अपना अस्तित्व बचाने और कलीसियाओं का कार्य करने की सोची। बाद में यीशु ने उसे दर्शन देकर कहा : “क्या तुम मुझे एक बार फिर अपने लिए सूली पर लटकाओगे?” पतरस तब परमेश्वर की इच्छा समझ गया और उसने फौरन समर्पण कर दिया। मान लो कि उस क्षण उसकी अपनी माँगें होतीं और वह कहता, “मैं अभी नहीं मरना चाहता, मुझे दर्द से डर लगता है। क्या तुम हमारी खातिर सूली पर नहीं लटकाए गए थे? तुम क्यों चाहते हो कि मुझे सूली पर लटकाया जाए? क्या मैं सूली पर लटकने से बच सकता हूँ?” अगर उसने ऐसी माँगें की होतीं तो फिर वह जिस मार्ग पर चला, वह व्यर्थ रहता। किंतु पतरस तो हमेशा ऐसा व्यक्ति रहा जिसने परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसकी इच्छा खोजी, और अंत में वह परमेश्वर की इच्छा समझ गया और उसने पूरी तरह समर्पण कर दिया। अगर पतरस ने परमेश्वर की इच्छा नहीं खोजी होती और अपनी सोच के अनुसार कार्य किया होता तो फिर उसने गलत रास्ता पकड़ लिया होता। लोगों में सीधे परमेश्वर की इच्छा समझने की क्षमता की कमी होती है, लेकिन अगर वे सत्य समझने के बाद भी समर्पण नहीं करते तो फिर वे परमेश्वर को धोखा दे रहे हैं। अर्थात्, लोगों का सदा परमेश्वर से माँगें करते रहने का संबंध उनकी प्रकृति से है : उनकी माँगें जितनी ज्यादा होती हैं, वे उतने ही अधिक विद्रोही और प्रतिरोधी होते हैं, और उनमें उतनी ही अधिक धारणाएँ होती हैं। लोग जितनी ज्यादा माँगें परमेश्वर से करते हैं, संभावना है कि वे उतना ही अधिक उससे विद्रोह करेंगे, उसका प्रतिरोध करेंगे और यहाँ तक कि विरोध भी करेंगे। शायद एक दिन वे परमेश्वर को धोखा देकर छोड़ सकते हैं। अगर तुम इस समस्या का निराकरण करना चाहते हो तो तुम्हें सत्य के कई पहलू जानने के साथ ही कुछ व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करने की भी जरूरत है ताकि तुम इसे पूरी तरह समझ कर इसका समूल समाधान कर सको।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं

लोगों के परमेश्वर से हमेशा माँग करते रहने में क्या समस्या है? और उनके हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पालने में क्या समस्या है? मनुष्य की प्रकृति में क्या निहित है? मैंने पाया कि लोगों के साथ चाहे कुछ भी घटित हो या वे चाहे जिस चीज से निपट रहे हों, वे हमेशा अपने हितों की सुरक्षा और अपने दैहिक सुखों की चिंता करते हैं, और वे हमेशा अपने पक्ष में तर्क और बहाने ढूंढ़ते रहते हैं। वे लेशमात्र भी सत्य खोजते और स्वीकारते नहीं हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं वह अपने दैहिक सुखों की सुरक्षा और अपने भविष्य की संभावनाओं के लिए होता है। वे सब परमेश्वर से अनुग्रह पाना चाहते हैं ताकि हर संभव लाभ उठा सकें। लोग परमेश्वर से इतनी सारी माँगें क्यों करते हैं? यह साबित करता है कि लोग अपनी प्रकृति से लालची हैं, और परमेश्वर के समक्ष उनमें कोई समझ नहीं है। लोग जो कुछ भी करते हैं—वे चाहे प्रार्थना कर रहे हों या संगति या प्रचार कर रहे हों—उनके अनुसरण, विचार और आकांक्षाएँ, ये सारी चीजें परमेश्वर से माँगें हैं और उससे चीजें पाने के प्रयास हैं, ये सब परमेश्वर से कुछ हासिल करने के लिए किए जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि “यह मानव प्रकृति है,” जो सही है! इसके अलावा, परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना और बहुत अधिक असंयत लालसाएँ रखना यह साबित करता है कि सचमुच लोगों में विवेक और समझ की कमी है। वे सब अपने लिए चीजों की माँग और आग्रह कर रहे हैं, या अपने लिए बहस करने और बहाने ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं—वे यह सब अपने लिए करते हैं। कई मामलों में देखा जा सकता है कि लोग जो कुछ करते हैं वह पूरी तरह समझ से रहित है, जो इस बात का पूर्ण प्रमाण है कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” वाला शैतानी तर्क पहले ही मनुष्य की प्रकृति बन चुका है। परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना किस समस्या को दर्शाता है? यह दर्शाता है कि लोगों को शैतान एक निश्चित बिंदु तक भ्रष्ट कर चुका है, और परमेश्वर में अपने विश्वास में वे उसे परमेश्वर बिल्कुल नहीं मानते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “अगर हम परमेश्वर को परमेश्वर न मानते तो फिर हम उस पर विश्वास क्यों करते? अगर हम उसे परमेश्वर न मानते तो क्या हम अब तक उसका अनुसरण कर रहे होते? क्या हम यह तमाम कष्ट सह सकते थे?” ऊपरी तौर पर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, और तुम उसका अनुसरण करने में सक्षम हो, फिर भी उसके प्रति अपने रवैये में, और कई चीजों को लेकर अपने विचारों में, तुम परमेश्वर को स्रष्टा की तरह बिल्कुल भी नहीं मानते हो। अगर तुम परमेश्वर को परमेश्वर मानते हो, अगर परमेश्वर को स्रष्टा मानते हो तो तुम्हें सृजित प्राणी के रूप में खड़ा होना चाहिए, और तुम्हारे लिए परमेश्वर से और अधिक माँगें करना या कोई असंयत इच्छा पालना असंभव होगा। इसके बजाय, तुम मन से सच्चा समर्पण करने में सक्षम रहोगे और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसमें विश्वास कर उसके सभी कार्यों के प्रति समर्पण करने में पूरी तरह सक्षम रहोगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं

अपने विश्वास में लोग परमेश्वर को उन्हें एक उपयुक्त मंज़िल और जितना वे चाहते हैं, उतना अनुग्रह देने, उसे अपना सेवक बनाने, उसे अपने साथ एक शांतिपूर्ण, मैत्रीपूर्ण संबंध, फिर वह चाहे कभी भी हो, बनाए रखने के लिए बाध्य करना चाहते हैं, ताकि उनके बीच कभी कोई संघर्ष न हो। अर्थात् परमेश्वर में उनका विश्वास यह माँग करता है कि वह उनकी सभी आवश्यकताएँ पूरी करने का वादा करे और उनके द्वारा बाइबल में पढ़े गए इन वचनों को ध्यान में रखते हुए कि, “मैं तुम लोगों की प्रार्थनाएँ सुनूँगा,” उन्हें वह सब प्रदान करे, जिसके लिए वे प्रार्थना करें। वे परमेश्वर से किसी का न्याय या काट-छाँट न करने की अपेक्षा करते हैं, क्योंकि वह हमेशा दयालु उद्धारकर्ता यीशु रहा है, जो हर समय और सभी जगहों पर लोगों के साथ एक अच्छा संबंध रखता है। लोग परमेश्वर में कुछ इस तरह विश्वास करते हैं : वे बस बेशर्मी से परमेश्वर से माँग माँगें करते हैं, यह मानते हैं कि चाहे वे विद्रोही हों या आज्ञाकारी, वह बस आँख मूँदकर उन्हें सब-कुछ प्रदान करेगा। वे बस परमेश्वर से लगातार “ऋण वसूली” करते हैं, यह विश्वास करते हुए कि उसे उन्हें बिना किसी प्रतिरोध के “चुकाना” चाहिए और इतना ही नहीं, दोगुना भुगतान करना चाहिए; वे सोचते हैं कि परमेश्वर ने उनसे कुछ लिया हो या नहीं, वे उसके साथ चालाकी कर सकते हैं, वह लोगों के साथ मनमानी नहीं कर सकता, और लोगों के सामने जब वह चाहे और बिना उनकी अनुमति के अपनी बुद्धि और धार्मिक स्वभाव तो बिल्कुल भी प्रकट नहीं कर सकता, जो कई वर्षों से छिपाए हुए हैं। वे बस परमेश्वर के सामने अपने पाप स्वीकार करते हैं, और यह मानते हैं कि परमेश्वर उन्हें दोषमुक्त कर देगा, वह ऐसा करने से नाराज़ नहीं होगा, और यह हमेशा के लिए चलता रहेगा। वे परमेश्वर को आदेश दे देते हैं, और यह मानकर चलते हैं कि वह उनका पालन करेगा, क्योंकि यह बाइबल में दर्ज है कि परमेश्वर मनुष्यों से सेवा करवाने के लिए नहीं आया, बल्कि उनकी सेवा करने के लिए आया है, वह यहाँ उनका सेवक है। क्या तुम लोग अब तक यही मानते नहीं आए हो? जब भी तुम परमेश्वर से कुछ पाने में असमर्थ होते हो, तुम भाग जाना चाहते हो; जब तुम्हें कुछ समझ में नहीं आता, तो तुम बहुत क्रोधित हो जाते हो, और इस हद तक चले जाते हो कि उसे तरह-तरह की गालियाँ देने लगते हो। तुम लोग स्वयं परमेश्वर को पूरी तरह से अपनी बुद्धि और चमत्कार भी व्यक्त नहीं करने दोगे, तुम लोग तो बस अस्थायी आराम और सुविधा का आनंद लेना चाहते हो। परमेश्वर में आस्था को लेकर अब तक तो तुम्हारा वही पुराना दृष्टिकोण रहा है। यदि परमेश्वर तुम लोगों को थोड़ा-सा प्रताप दिखा दे, तो तुम लोग दुखी हो जाते हो। क्या तुम लोग देख रहे हो कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना कितनी महान है? यह न समझो कि तुम सभी परमेश्वर के प्रति वफ़ादार हो, जबकि वास्तव में तुम लोगों के पुराने विचार नहीं बदले हैं। जब तक तुम पर कोई मुसीबत नहीं आ पड़ती, तुम्हें लगता है कि सब-कुछ सुचारु रूप से चल रहा है, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा प्रेम एक ऊँचे मुकाम पर पहुँच जाता है। अगर तुम्हारे साथ कुछ मामूली-सा भी घट जाए, तो तुम रसातल में जा गिरते हो। क्या यही परमेश्वर के प्रति तुम्हारा निष्ठावान होना है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए

लोगों का विवेक बहुत कमजोर होता है—वे परमेश्वर से बहुत अधिक अपेक्षाएँ रखते हैं, उससे बहुत कुछ माँगते रहते हैं, उनके पास थोड़ा सा भी विवेक नहीं होता। लोग हमेशा अपेक्षाएँ करते रहते हैं कि परमेश्वर यह करे या वह करे, और स्वयं उसके प्रति पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाते या उसकी आराधना नहीं कर पाते। इसके बजाय वे खुद की प्राथमिकताओं के अनुसार परमेश्वर से अनुचित अपेक्षाएँ करते रहते हैं, और चाहते हैं कि परमेश्वर बेहद उदार हो और किसी भी बात पर क्रोधित न हो, और वह जब भी लोगों से मिले, वह हमेशा मुस्कराता रहे, उनसे बात करता रहे, और उन्हें सत्य प्रदान करे और उनके साथ सत्य पर संगति करता रहे। वे यह भी अपेक्षा रखते हैं कि परमेश्वर हमेशा धैर्यवान बना रहे और उनके सामने हँसमुख भाव बनाए रखे। लोगों की अपेक्षाएँ बहुत हैं; वे बेहद तुनकमिजाज होते हैं! तुम लोगों को इन बातों पर विचार करना चाहिए। मानवीय विवेक बहुत तुच्छ होता है, है ना? न केवल लोग पूरी तरह से परमेश्वर के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में अक्षम होते हैं या जो कुछ भी परमेश्वर से आता है उसे स्वीकार नहीं कर पाते, बल्कि इसके उलट वे परमेश्वर पर अतिरिक्त अपेक्षाएँ थोपते रहते हैं। परमेश्वर से इस प्रकार की अपेक्षाएँ रखने वाले लोग उसके प्रति निष्ठावान कैसे हो सकते हैं? वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित कैसे हो सकते हैं? वे परमेश्वर से प्रेम कैसे कर सकते हैं? सभी लोगों की ये अपेक्षाएँ होती हैं कि परमेश्वर लोगों से किस तरह प्रेम करे, किस तरह उन्हें बर्दाश्त करे, उनकी निगरानी करे, उनकी रक्षा करे, और उनकी देखभाल करे, लेकिन उनमें से कोई यह अपेक्षाएँ नहीं रखता कि वे स्वयं परमेश्वर को किस प्रकार प्रेम करें, किस प्रकार परमेश्वर के बारे में सोचें, किस प्रकार परमेश्वर के प्रति विचारशील हों, किस तरह परमेश्वर को संतुष्ट करें, किस तरह परमेश्वर को अपने हृदय में रखें, और किस तरह परमेश्वर की आराधना करें। क्या लोगों के दिल में ये बातें होती हैं? ये वे चीजें हैं जिन्हें लोगों को हासिल करना चाहिए; तो वे इन चीजों को पाने के लिए कर्मठता से आगे क्यों नहीं बढ़ते? कुछ लोग थोड़े समय के लिए उत्साही हो सकते हैं और कुछ हद तक चीजों का त्याग भी करते हैं और खुद को खपाते भी हैं, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चलता; थोड़ी सी कठिनाई आने पर उनका उत्साह कम हो सकता है, उम्मीद खत्म हो सकती है, और वे शिकायत करने लग सकते हैं। लोगों को बहुत-सी कठिनाइयाँ आती हैं, और ऐसे बहुत ही कम लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर को प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। इंसानों में विवेक की बेहद कमी होती है, वे गलत स्थान पर खड़े होते हैं और अपने आपको विशिष्ट रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं : "परमेश्वर हमें अपनी आँख का तारा मानता है। उसने मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए बिना हिचकिचाए अपने इकलौते पुत्र को सूली पर चढ़ने दिया। हमें वापस पाने के लिए परमेश्वर ने ऊँची कीमत चुकाई है—हम बेहद कीमती हैं और हमारा परमेश्वर के दिल में खास स्थान है। हम लोगों का एक खास समूह हैं और हमारी हैसियत अविश्वासियों से कहीं अधिक ऊँची है—हम स्वर्ग के राज्य के लोग हैं।" वे अपने आप को काफी ऊँचा और महान समझते हैं। अतीत में बहुत से अगुआओं की यही मानसिकता थी, वे मानते थे कि पदोन्नत होने के बाद परमेश्वर के घर में उनकी एक निश्चित हैसियत और प्रतिष्ठा है। वे सोचते थे, "परमेश्वर मुझे बहुत मानता है और मेरे बारे में अच्छा सोचता है, और उसने मुझे अगुआ के रूप में सेवा करने की अनुमति दी है। मुझे उसके लिए जितना हो सके भाग-दौड़ और काम करना चाहिए।" वे अपने आप पर लट्टू रहते थे। हालाँकि एक समय के बाद उन्होंने कुछ बुरा किया और उनका असली चेहरा सामने आ गया, फिर उन्हें बदल दिया गया और वे निरुत्साहित हो गए और उनके सिर झुक गए। जब उनका अनुचित व्यवहार उजागर हो गया और उनसे निपटा गया, तब वे और निराश हो गए और आगे परमेश्वर पर विश्वास रखने में सक्षम नहीं रहे। उन्होंने सोचा, "परमेश्वर को मेरी भावनाओं की कोई कदर नहीं है, उसे मेरा स्वाभिमान बचाने की बिलकुल परवाह नहीं है। लोग कहते हैं कि परमेश्वर इंसान की कमजोरियों के प्रति सहानुभूति रखता है, तो कुछ छोटे से अपराधों के कारण मुझे बरखास्त क्यों कर दिया गया?" फिर वे निरुत्साहित हो गए और उन्होंने अपनी आस्था छोड़नी चाही। क्या ऐसे लोगों की परमेश्वर में सच्ची आस्था होती है? अगर वे निपटान और काट-छाँट तक को स्वीकार नहीं कर पाते, तो उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और यह अनिश्चित है कि वे भविष्य में सत्य को स्वीकार कर भी पाएँगे या नहीं। ऐसे लोग खतरे में हैं।

लोग स्वयं से तो बहुत ऊँची अपेक्षाएँ नहीं रखते, लेकिन उन्हें परमेश्वर से बहुत ऊँची अपेक्षाएँ होती हैं। वे परमेश्वर से उन पर विशेष दया दिखाने, उनके प्रति धैर्यवान और सहनशील होने, उन्हें संजोने, उनका पोषण करने और उनकी तरफ मुस्कराकर देखने, उनके प्रति सहिष्णु होने, उन्हें छूट देने और कई तरीकों से उनकी देखभाल करने के लिए कहते हैं। वे अपेक्षा रखते हैं कि वह उनके प्रति बिल्कुल भी सख्त न हो, या ऐसा कुछ भी न करे जिससे उन्हें जरा-सी भी परेशानी हो, और वे केवल तभी संतुष्ट होते हैं यदि वह हर दिन उनसे मीठी-मीठी बातें करता रहे। मनुष्य में विवेक की कितनी कमी होती है! उनके मन में यह स्पष्ट नहीं होता कि खुद उन्हें क्या करना चाहिए, क्या हासिल करना चाहिए, उनके दृष्टिकोण क्या होने चाहिए, परमेश्वर की सेवा में उन्हें क्या रुख अपनाना चाहिए, और उन्हें खुद को किस स्थान पर खड़ा करना चाहिए। छोटा-मोटा रुतबा हासिल करने के बाद लोग खुद को बहुत बड़ा मानने लगते हैं, और किसी रुतबे के बिना भी लोग खुद को काफी ऊँचा समझने लगते हैं। मनुष्य खुद को कभी नहीं जान पाते। तुम्हें परमेश्वर में अपने विश्वास के एक ऐसे बिंदु पर आना होगा जहाँ वह तुमसे जैसे चाहे बात करे, चाहे तुमसे जितना भी सख्त हो, और चाहे तुम्हारी कितनी भी अनदेखी करे, तुम बिना शिकायत किए उस पर विश्वास करना जारी रख सको, और सामान्य रूप से अपने कर्तव्यों को पूरा करते रहो। तब तुम एक परिपक्व और अनुभवी व्यक्ति होगे, और तुम्हारे पास वास्तव में कुछ आध्यात्मिक कद होगा और एक सामान्य व्यक्ति की कुछ समझ होगी। तुम परमेश्वर से अपेक्षाएँ नहीं करोगे, तुम्हारे अंदर अनावश्यक इच्छाएँ नहीं होंगी, और तुम अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर दूसरों से या परमेश्वर से उनके लिए अनुरोध नहीं करोगे। इससे यह पता चलेगा कि तुम कुछ हद तक एक मनुष्य के समान हो। वर्तमान में तुम लोगों की बहुत अधिक अपेक्षाएँ हैं और वे बहुत अपरिमित हैं और तुम में बहुत अधिक मानवीय इरादे हैं। इससे साबित होता है कि तुम सही जगह पर नहीं खड़े हो; तुम जिस जगह खड़े हो वह बहुत ऊँची है, और तुमने खुद को अत्यधिक सम्माननीय मान लिया है—मानो तुम परमेश्वर से बहुत नीचे नहीं हो। इसलिए तुमसे निपटना मुश्किल है, और यह बिल्कुल शैतान की प्रकृति है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

परमेश्वर से सदा माँगते रहना मनुष्य की प्रकृति का अंग है, और तुम लोगों को इस प्रकृति का विश्लेषण परमेश्वर के वचनों के अनुरूप करना चाहिए। तुम्हें इसका विश्लेषण किस ढंग से करना चाहिए? पहला कदम यह स्पष्ट जानना है कि परमेश्वर को लेकर लोगों में कौन-सी अनुचित माँगें और कौन-सी असंयत इच्छाएँ हैं, और तुम्हें इनमें से एक-एक का विश्लेषण करना चाहिए : लोग ऐसी माँग क्यों करते हैं? उनकी मंशा क्या है? उनका उद्देश्य क्या है? तुम जितना अधिक सचेत होकर इस तरह विश्लेषण करोगे, तुम्हें अपनी प्रकृति की उतनी ही अधिक समझ आएगी, और वह समझ उतनी ही अधिक विस्तृत होती जाएगी। अगर तुम इसका विस्तृत विश्लेषण नहीं करते हो, बल्कि सिर्फ यह जानते हो कि लोगों को परमेश्वर से माँगें नहीं करनी चाहिए, केवल यह समझते हो कि परमेश्वर से माँगें करना अनुचित है, और बात खत्म, तो फिर अंततः तुम न तो कोई प्रगति करोगे और न बदलोगे। कुछ लोग कहते हैं : “हम लोगों की परमेश्वर से इतनी अधिक माँगें होती हैं क्योंकि हम बेहद स्वार्थी हैं। हमें क्या करना चाहिए?” स्वाभाविक रूप से, लोगों को सत्य समझना और स्वार्थ का सार जानना चाहिए। जब तुम वास्तव में मनुष्य की स्वार्थपरता को समझ लोगे, तो जान लोगे कि तुममें क्या कमी है; डर तो इस बात का है कि अगर लोग यह नहीं समझ सके तो क्या होगा। विश्लेषण के जरिए प्रकट रूप से असंयत या अनुचित माँगों को पहचाना आसान है, और खुद से नफरत करना संभव है। कभी-कभी तुम सोच सकते हो कि तुम्हारी माँगें तर्कसंगत और उचित हैं, और चूँकि तुम उन्हें तर्कसंगत मानते हो और सोचते हो कि चीजें इसी तरह होनी चाहिए, और चूँकि दूसरे भी ऐसी ही माँगें करते हैं, तो तुम्हें भी लग सकता है कि तुम्हारी माँगें हद से ज्यादा नहीं हैं, बल्कि उचित और स्वाभाविक हैं। यह दर्शाता है कि तुमने अभी भी सत्य हासिल नहीं किया है, इसीलिए तुम इन्हें स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकते हो। एक उदाहरण पेश है : मान लो कि किसी व्यक्ति ने कई साल तक परमेश्वर का अनुसरण किया, और अनेक झंझावातों और चुनौतियों से गुजरकर बहुत ज्यादा दुःख भोगे। उसका व्यवहार हमेशा ठीक लगता था, और अपनी मानवता, अपनी पीड़ा और परमेश्वर के प्रति निष्ठा के मामलों में वह संतोषजनक दिखता था। यहाँ तक कि वह विवेक संपन्न भी था, हमेशा परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने का इच्छुक रहता था, और अपना कार्य संपन्न करते हुए आम तौर पर सावधानी से कदम बढ़ाना जानता था। बाद में मैंने पाया कि यह व्यक्ति स्पष्ट और सौम्य होकर बोलता था, लेकिन लेशमात्र भी समर्पित नहीं था, इसलिए मैंने उसे हटाते हुए आदेश दिया कि भविष्य में दोबारा उसका उपयोग न किया जाए। उसने कलीसिया के लिए कई साल तक काम किया था, बहुत अधिक कष्ट उठाए थे, फिर भी उसे आखिर हटा दिया गया। यही नहीं, मैंने उसकी कुछ व्यावहारिक कठिनाइयों का समाधान नहीं किया था। लोग इस प्रकार की स्थिति के बारे में क्या सोचेंगे? पहली बात, कई लोग उसके बचाव में आकर कहेंगे, “यह ठीक नहीं है। इस परिस्थिति में परमेश्वर को उसके प्रति अत्यधिक दया और अनुग्रह दिखाना चाहिए क्योंकि वह परमेश्वर से प्रेम करता है और उसके लिए खपता है। अगर उसके जैसा कोई व्यक्ति, जिसने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, बहिष्कृत किया जा सकता है तो हम जैसे नए विश्वासियों के लिए क्या उम्मीद है?” यहाँ एक बार फिर लोगों की माँगें सामने आ जाती हैं, वे हमेशा उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर उस व्यक्ति को आशीष देगा, उसे रहने देगा, वे अब भी सोचते हैं : “इस आदमी ने परमेश्वर के साथ सही किया है, परमेश्वर को उसे निराश नहीं करना चाहिए!” लोग परमेश्वर से जो माँगें करते हैं, उनमें से कई माँगें मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं से उपजती हैं। लोग यह माप-जोख कर रहे हैं कि परमेश्वर को लोगों को क्या देना चाहिए, और उसे उनके साथ उन विवेक के मानकों के अनुसार कैसा व्यवहार करना चाहिए जो इससे संबंधित है कि मनुष्यों के बीच क्या उचित और तर्कसंगत है, लेकिन यह सत्य के अनुरूप कैसे हो सकता है? मैं यह क्यों कहता हूँ कि मानवजाति की सभी माँगें अनुचित हैं? क्योंकि ये वो मानक हैं जिनकी माँग लोग दूसरों से करते हैं। क्या लोगों के पास सत्य है? क्या वे मनुष्य के सार को समझने में सक्षम हैं? कुछ लोग माँग करते हैं कि परमेश्वर लोगों के साथ विवेक के मानक के अनुसार व्यवहार करे, वे परमेश्वर को मनुष्यों द्वारा अपेक्षित मानकों पर कसते हैं। यह सत्य के अनुरूप नहीं है और अनुचित है। जब कोई छोटी-मोटी बात हो तो लोग धैर्य रख लेते हैं, लेकिन जब अंततः उनका परिणाम निर्धारण होता है तो वे शायद धैर्य न रख सकें। उनकी माँगें बाहर आ जाएँगी, और उनके मुँह से बेरोकटोक शिकायत और निंदा के बोल निकलेंगे, और वे अपना असली रंग दिखाने लगेंगे। उस समय उन्हें अपनी ही प्रकृति का ज्ञान हो जाएगा। मानवीय धारणाओं और अपनी इच्छा के अनुसार लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते रहते हैं, और वे इस प्रकार की कई माँगें करते हैं। तुम लोग शायद आम तौर पर ध्यान नहीं देते होगे और सोचते होगे कि कभी-कभी किसी चीज के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने को माँग के रूप में नहीं देखा जा सकता है, लेकिन दरअसल, सावधानीपूर्वक विश्लेषण से पता चलता है कि कई मानवीय माँगें अनुचित हैं, बेतुकी हैं, साथ ही हास्यास्पद भी हैं। तुमने पहले इस मामले की गंभीरता नहीं पहचानी, लेकिन भविष्य में धीरे-धीरे तुम्हें इसका पता चल जाएगा, और तब तुम्हें अपनी प्रकृति की सच्ची समझ आ जाएगी। धीरे-धीरे, अपने अनुभव से तुम्हें अपनी प्रकृति के बारे में ज्ञान मिलेगा और तुम इसे पहचानने लगोगे, सत्य पर संगति के साथ में तुम इसे स्पष्ट रूप से जान लोगे—तब तुम इस संबंध में सत्य में प्रवेश कर चुके होगे। जब तुम वास्तव में मनुष्य के प्रकृति सार को स्पष्ट रूप से समझ लोगे तो तुम्हारा स्वभाव बदल जाएगा और तब तुम्हारे पास सत्य होगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं

लोगों की सभी माँगें और कुचक्र सत्य के प्रतिकूल हैं, और परमेश्वर की अपेक्षाओं और इच्छा के विपरीत हैं। परमेश्वर उनमें से किसी से भी प्रेम नहीं करता, वह उन सबसे घृणा कर उनका तिरस्कार करता है। लोग परमेश्वर से जो माँगें करते हैं, जो कुछ वे पाना चाहते हैं, और वे जिन रास्तों पर चलते हैं, उनका सत्य से कोई वास्ता नहीं होता। कुछ लोग सोचते हैं, “मैं इतने साल से कलीसिया के लिए काम कर रहा हूँ—अगर मैं बीमार पड़ा तो परमेश्वर को मुझे स्वस्थ कर आशीष देना चाहिए।” खास कर जो लोग लंबे अरसे से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं, वे उससे और भी अधिक माँग करते हैं; जिन लोगों ने थोड़े-से समय विश्वास किया है वे खुद को पात्र नहीं मानते, लेकिन थोड़ी देर बाद ही वे खुद को इसका हकदार मानने लगते हैं। लोग बिल्कुल ऐसे ही होते हैं; यह मनुष्य की प्रकृति है, और कोई भी व्यक्ति इससे अछूता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने कभी भी परमेश्वर से अत्यधिक माँग नहीं की है क्योंकि मैं सृजित प्राणी हूँ, और मैं उससे कुछ भी माँगने लायक नहीं हूँ।” यह कहने में उतावली न करो, समय सब कुछ बता देगा। आखिरकार एक दिन लोगों की प्रकृति और इरादे उजागर होकर फूट पड़ेंगे। लोग परमेश्वर से माँगें इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि यह जरूरी है या यह सही समय है या कि वे पहले भी परमेश्वर से बहुत सारी माँगें कर चुके हैं, बल्कि बात यह है कि उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि यह एक माँग है। संक्षेप में, लोगों की इस प्रकार की प्रकृति होती है, इसलिए हो ही नहीं सकता कि वे इसे प्रकट न करें। अनुकूल परिस्थिति या अवसर आते ही यह स्वाभाविक रूप से प्रकट होकर रहेगी। इस पर संगति आज क्यों की जा रही है? इसका उद्देश्य लोगों को यह समझाना है कि उनकी अपनी प्रकृति में क्या है। यह मत सोचो कि कुछ साल परमेश्वर में विश्वास करने या कुछ दिन कलीसिया के लिए काम करने का यह अर्थ है कि तुम उसके लिए काफी खप चुके हो, समर्पित रह चुके हो या कष्ट सह चुके हो और कुछ चीजें पाने के हकदार बन चुके हो, जैसे भौतिक चीजों का आनंद, शारीरिक पोषण, या दूसरों की नजरों में अधिक सम्मान और अहमियत पाना, या परमेश्वर तुमसे सौम्यता से बात करे या तुम्हारा ज्यादा ख्याल रखकर अक्सर पूछे कि क्या तुम ठीक से खा-पहन रहे हो, तुम शारीरिक रूप से कैसे हो, इत्यादि। ये चीजें लोगों के मन में अनजाने में ही तब उपजती हैं जब वे परमेश्वर के लिए लंबे समय तक खप चुके होते हैं और सोचने लगते हैं कि वे उससे कुछ भी माँगने के हकदार हैं। जब वे थोड़े समय से ही परमेश्वर के लिए खप रहे होते हैं तो वे खुद को हकदार न मानकर परमेश्वर से माँग करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। लेकिन समय के साथ, वे सोचेंगे कि उनके पास आध्यात्मिक पूँजी है और उनकी माँगें सामने आने लगेंगी, और उनकी प्रकृति के ये पहलू उजागर हो जाएंगे। क्या लोग ऐसे ही नहीं हैं? लोग इस बारे में क्यों नहीं सोचते कि क्या परमेश्वर से इस तरह माँगना सही है? क्या तुम इन चीजों के हकदार हो? क्या परमेश्वर ने तुमसे इनका वादा किया था? अगर कोई चीज तुम्हारी नहीं है, फिर भी तुम हठपूर्वक इसे माँगते हो, तो यह सत्य के विपरीत है, और पूरी तरह से तुम्हारी शैतानी प्रकृति की उपज है। शुरुआत में महादूत ने कैसा व्यवहार किया था? उसे बड़ा ही ऊँचा स्थान दिया गया, बहुत अधिक दिया गया, इसलिए उसने सोचा कि वह जो कुछ भी चाहता है और उसे जो कुछ भी मिला है, वह उसका हकदार है, आखिरकार वह इस हद तक पहुँच गया कि बोल पड़ा, “मैं परमेश्वर के बराबर होना चाहता हूँ!” इसी कारण लोग बहुत अधिक माँगों, बहुत बड़ी इच्छाओं के साथ परमेश्वर में विश्वास करते हैं। अगर वे अपनी ही जाँच नहीं करते और समस्या की गंभीरता समझने में विफल रहते हैं, तो एक दिन कह देंगे, “परमेश्वर, हट जाओ। मैं कमोबेश खुद परमेश्वर हो सकता हूँ” या “हे परमेश्वर, मैं वही पहनूँगा जो तुम पहनते हो, वही खाऊँगा जो तुम खाते हो।” जो लोग इस स्तर तक पहुँच चुके हैं कि वे पहले ही परमेश्वर को मानव के रूप में मान रहे हैं। यद्यपि लोग मुँह-जुबानी मानते हैं कि देहधारी परमेश्वर ही स्वयं परमेश्वर है, लेकिन ये सब सिर्फ सतही शब्द हैं। वास्तव में, उनके दिल में परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी समर्पण या भय नहीं है। कुछ लोग तो परमेश्वर बनना चाहते हैं, और अगर उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ इस हद तक बढ़ जाएँ तो मुसीबत होगी। संभावना है कि उन पर कोई विपत्ति आ पड़ेगी, और भले ही वे कलीसिया से निकाल दिए जाएँ, फिर भी उन्हें परमेश्वर दंडित करेगा।

परमेश्वर में विश्वास करने वालों को परमेश्वर को परमेश्वर के रूप में मानना चाहिए, और ऐसा करके ही वे सचमुच परमेश्वर में विश्वास करते हैं। उन्हें सिर्फ परमेश्वर के दर्जे को नहीं स्वीकारना चाहिए, बल्कि उनमें परमेश्वर के सार और स्वभाव के प्रति सच्ची समझ और भय भी होना चाहिए, और उन्हें पूर्ण समर्पित होना चाहिए। इसका अभ्यास करने के कुछ तरीके इस प्रकार हैं : पहला, परमेश्वर के साथ बातचीत करते समय अपने अंदर धर्मपरायण और ईमानदार रवैया रखो, इसमें कोई धारणा या कल्पना न हो, और दिल समर्पणकारी बना रहे। दूसरा, तुम जो कुछ भी कहते हो, जो भी प्रश्न पूछते हो और जो कुछ भी करते हो, उसके पीछे के इरादों को जाँच के लिए परमेश्वर के सामने लाओ और प्रार्थना करो। सत्य सिद्धांतों के अनुसार और परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास कैसे किया जाए, केवल यह जानकर ही तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। अगर तुम सत्य की खोज नहीं करते तो सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने में तो असमर्थ रहोगे ही, तुम अधिकाधिक धारणाएँ भी बटोर लोगे और इससे मुसीबत आएगी। जब तुम परमेश्वर को व्यक्ति मानते हो तो तुम जिस परमेश्वर में विश्वास करते हो वह स्वर्ग में एक अस्पष्ट परमेश्वर है; तुम देहधारण को पूरी तरह नकार चुके होगे, और तुम फिर कभी अपने दिल में व्यावहारिक परमेश्वर को स्वीकार नहीं करोगे। इस समय, तुम मसीह-विरोधी बनकर अंधकार में गिर जाओगे। तुम जितने अधिक औचित्य दोगे, परमेश्वर से उतनी ही अधिक माँगें करोगे, और उसके बारे में तुम्हारी उतनी ही अधिक धारणाएँ होंगी, जो तुम्हें ज्यादा से ज्यादा खतरे में डाल देंगी। तुम परमेश्वर से जितनी अधिक माँगें करते हो, उससे उतना ही ज्यादा साबित होता है कि तुम परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मानते। अगर तुम सदा अपने दिल में परमेश्वर से माँगें करते रहे तो समय के साथ-साथ संभावना है कि तुम खुद को परमेश्वर मानने लगोगे और कलीसिया में काम करते समय अपने लिए गवाही दोगे, यहाँ तक कहने लगोगे, “क्या परमेश्वर खुद अपनी गवाही नहीं देता? तो मैं क्यों नहीं दे सकता?” चूँकि तुम परमेश्वर के कार्य को नहीं समझते, इसलिए तुम्हारे मन में उसके बारे में धारणाएँ होंगी, और तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होगा। तुम्हारा लहजा बदल जाएगा, तुम्हारा स्वभाव अहंकारी हो जाएगा, और अंत में तुम धीरे-धीरे अपनी बड़ाई करने और अपने लिए गवाही देने लगोगे। इंसान के पतन की प्रक्रिया यही होती है, और ऐसा पूरी तरह सत्य का अनुसरण न करने के कारण होता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं

यद्यपि अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था या स्वयं अपने कानों से परमेश्वर के वचन कभी नहीं सुने थे, फिर भी अय्यूब के हृदय में परमेश्वर का स्थान था। परमेश्वर के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति क्या थी? जैसा पहले उल्लेख किया गया है, यह थी, “यहोवा का नाम धन्य है।” उसके द्वारा परमेश्वर के नाम को धन्य कहना बेशर्त, संदर्भ से निरपेक्ष था, और किसी तर्क से बंधा नहीं था। हम देखते हैं कि अय्यूब ने अपना हृदय परमेश्वर को दे दिया था, उसे परमेश्वर द्वारा नियंत्रित होने दिया था; अपने हृदय में वह जो सोचता था, वह जो निर्णय लेता था, और वह जिसकी योजना बनाता था वह सब परमेश्वर के लिए खुला छोड़ दिया गया था और परमेश्वर से बंद नहीं रखा गया था। उसका हृदय परमेश्वर के विरोध में खड़ा नहीं हुआ था, और उसने परमेश्वर से कभी नहीं कहा कि वह उसके लिए कुछ करे या उसे कुछ दे, और उसने अंधाधुँध इच्छाएँ नहीं पालीं कि परमेश्वर की उसकी आराधना से उसे कुछ न कुछ प्राप्त जाए। उसने परमेश्वर से किन्हीं लेन-देनों की बात नहीं की, और परमेश्वर से कोई याचनाएँ या माँगें नहीं कीं। उसका परमेश्वर के नाम की स्तुति करना भी सभी चीज़ों पर शासन करने की परमेश्वर की महान सामर्थ्य और अधिकार के कारण था, और वह इस पर निर्भर नहीं था कि उसे आशीषें प्राप्त हुईं या उस पर आपदा टूटी। वह मानता था कि परमेश्वर लोगों को चाहे आशीष दे या उन पर आपदा लाए, परमेश्वर की सामर्थ्य और उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, व्यक्ति की परिस्थितियाँ चाहे जो हों, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। मनुष्य को धन्य किया जाता है तो परमेश्वर की संप्रभुता के कारण किया जाता है, और इसलिए जब मनुष्य पर आपदा टूटती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही टूटती है। परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से संबंधित सब कुछ पर शासन करते हैं और उसे व्यवस्थित करते हैं; मनुष्य के सौभाग्य के उतार-चढ़ाव परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके अधिकार की अभिव्यंजना हैं, और जिसका चाहे जो दृष्टिकोण हो, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। यही वह है जो अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जानने लगा था। अय्यूब के सभी विचार और कार्यकलाप परमेश्वर के कानों तक पहुँचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर द्वारा महत्वपूर्ण माने गए थे। परमेश्वर ने अय्यूब के इस ज्ञान को सँजोया, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सँजोया। यह हृदय सदैव, और सर्वत्र, परमेश्वर के आदेश की प्रतीक्षा करता था, और समय या स्थान चाहे जो हो, उस पर जो कुछ भी टूटता उसका स्वागत करता था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई माँगें नहीं कीं। उसने स्वयं अपने से जो माँगा वह यह था कि परमेश्वर से आई सभी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करे, इन्हें स्वीकार करे, इनका सामना करे और इनके प्रति समर्पण करे; अय्यूब इसे अपना कर्तव्य मानता था, और यह ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, न ही उसे कोई वचन बोलते, कोई आज्ञा देते, कोई शिक्षा देते, या उसे किसी चीज़ का निर्देश देते सुना था। आज के वचनों में, जब परमेश्वर ने उसे सत्य के संबंध में कोई प्रबुद्धता, मार्गदर्शन या पोषण नहीं दिया था, उसके लिए परमेश्वर के प्रति ऐसा ज्ञान और प्रवृत्ति रख पाना—यह बहुमूल्य था, और उसका ऐसी चीज़ें प्रदर्शित करना परमेश्वर के लिए पर्याप्त था, और उसकी गवाही परमेश्वर द्वारा सराही और सँजोई गई थी।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

लोग परमेश्‍वर से माँगें करने के योग्य नहीं हैं। परमेश्‍वर से माँगें करने से ज्यादा अनुचित कुछ नहीं है। वह वही करेगा जो उसे करना ही चाहिए, और उसका स्‍वभाव धार्मिक है। धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्‍हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्‍हें तुम्‍हारे हक का हिस्‍सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्‍हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्‍हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्‍म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्‍यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्‍वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्‍वर धार्मिक है। अगर परमेश्‍वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्‍ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। हालाँकि, लोग भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्‍वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्‍या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्‍वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्‍वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्‍ट है, और जो परमेश्‍वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; लेकिन परमेश्‍वर चाहे जैसे उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्‍वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्‍हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्‍ट कर दिया होता, तब भी क्‍या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। तुम इसे तथ्यों से इस समय भले न पहचान सको, लेकिन तुम्‍हें धर्म-सिद्धांत में इसे समझना ही चाहिए। तुम लोग क्‍या कहोगे—परमेश्‍वर द्वारा शैतान का विनाश क्‍या उसकी धार्मिकता की अभिव्‍यक्ति है? (हाँ।) अगर उसने शैतान को बने रहने दिया होता, तब तुम क्‍या कहते? तुम हाँ कहने का दुस्‍साहस तो नहीं करते? परमेश्‍वर का सार धार्मिकता है। हालाँकि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्‍वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्‍या थी? “तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्‍य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्‍हारी सदिच्छा समाई है; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्‍भव है कि मैं तुम्‍हारी बुद्धि और कर्मों की सराहना न करूँ?” अब तुम्हें यह देखना चाहिए कि मनुष्य के उद्धार के समय परमेश्वर द्वारा शैतान को नष्ट न किए जाने का कारण यह है कि मनुष्य स्पष्ट रूप से देख सकें कि शैतान ने उन्हें कैसे और किस हद तक भ्रष्ट किया है, और परमेश्वर कैसे उन्हें शुद्ध करके बचाता है। अंततः, जब लोग सत्य समझ लेंगे और शैतान का घिनौना चेहरा स्पष्ट रूप से देख लेंगे, और शैतान द्वारा उन्हें भ्रष्ट किए जाने का राक्षसी पाप देख लेंगे, तो परमेश्वर उन्हें अपनी धार्मिकता दिखाते हुए शैतान को नष्ट कर देगा। जब परमेश्वर शैतान को नष्ट करेगा, वह समय परमेश्वर के स्वभाव और बुद्धि से भरा होगा। वह सब जो परमेश्‍वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग परमेश्वर की धार्मिकता को समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्‍य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक अतर्कसंगत हो रहे हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करते हो, तुम्हें अपना सर्वस्व उसे अर्पित कर देना चाहिए, और व्यक्तिगत चुनाव या माँगें नहीं करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर की इच्छा संतुष्ट करनी चाहिए। चूँकि तुम्हें सृजित किया गया था, इसलिए तुम्हें उस प्रभु के प्रति समर्पण करना चाहिए जिसने तुम्हें सृजित किया, क्योंकि तुम्हारा स्वयं अपने ऊपर कोई स्वाभाविक प्रभुत्व नहीं है, और तुममें स्वयं अपनी नियति को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं है। चूँकि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर में विश्वास करता है, इसलिए तुम्हें पवित्रता और परिवर्तन की खोज करनी चाहिए। चूँकि तुम सृजित प्राणी हो, इसलिए तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, और अपनी स्थिति के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए, और तुम्हें अपने कर्तव्य का अतिक्रमण कदापि नहीं करना चाहिए। यह तुम्हें सिद्धांत के माध्यम से बाध्य करने, या तुम्हें दबाने के लिए नहीं है, बल्कि इसके बजाय यह वह पथ है जिसके माध्यम से तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकते हो, और यह उन सभी के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है—और प्राप्त किया जाना चाहिए—जो धार्मिकता का पालन करते हैं। ... परमेश्वर ने सभी चीजों की सृष्टि की थी, और इसलिए वह समूची सृष्टि को अपने प्रभुत्व के अधीन लाता और अपने प्रभुत्व के प्रति समर्पित करवाता है; वह सभी चीजों पर अधिकार रखेगा, ताकि सभी चीजें उसके हाथों में हों। परमेश्वर की सारी सृष्टि, पशुओं, पेड़-पौधों, मानवजाति, पहाड़ तथा नदियों, और झीलों सहित—सभी को उसके प्रभुत्व के अधीन आना ही होगा। आकाश में और धरती पर सभी चीजों को उसके प्रभुत्व के अधीन आना ही होगा। उनके पास कोई विकल्प नहीं हो सकता है और सभी को उसके आयोजनों के समक्ष समर्पण करना ही होगा। इसकी आज्ञा परमेश्वर द्वारा दी गई थी, और यह परमेश्वर का अधिकार है। परमेश्वर सब कुछ पर अधिकार रखता है, और सभी चीज़ों का क्रम और उनकी श्रेणी निर्धारित करता है, जिसमें प्रत्येक को, परमेश्वर की इच्छानुसार, प्रकार के अनुरूप वर्गीकृत किया जाता है, और उनका अपना स्थान प्रदान किया जाता है। चाहे वह कितनी भी बड़ी क्यों न हो, कोई भी चीज़ परमेश्वर से बढ़कर नहीं हो सकती है, और सभी चीजें परमेश्वर द्वारा सृजित मानवजाति की सेवा करती हैं, और कोई भी चीज परमेश्वर की अवज्ञा करने या परमेश्वर से कोई भी माँग करने की हिम्मत नहीं करती है। इसलिए मनुष्य को भी सृजित प्राणी होने के नाते मनुष्य का कर्तव्य निभाना ही चाहिए। वह सभी चीजों का चाहे प्रभु हो या देख-रेख करने वाला हो, सभी चीजों के बीच मनुष्य का कद चाहे जितना ऊँचा हो, तो भी वह परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन एक अदना मानव भर है, और महत्वहीन मानव, सृजित प्राणी से अधिक कुछ नहीं है, और वह कभी परमेश्वर से ऊपर नहीं होगा। सृजित प्राणी के रूप में मनुष्य को सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की कोशिश करनी चाहिए, और दूसरे विकल्पों को छोड़कर परमेश्वर से प्रेम करने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के प्रेम के योग्य है। वे जो परमेश्वर से प्रेम करने की तलाश करते हैं, उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं ढूँढने चाहिए या वह नहीं ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे व्यक्तिगत रूप से लालायित हैं; यह अनुसरण का सबसे सही माध्यम है। यदि तुम जिसकी खोज करते हो वह सत्य है, तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह सत्य है, और यदि तुम जो प्राप्त करते हो वह तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन है, तो तुम जिस पथ पर क़दम रखते हो वह सही पथ है। यदि तुम जिसे खोजते हो वह देह के आशीष हैं, और तुम जिसे अभ्यास में लाते हो वह तुम्हारी अपनी अवधारणाओं का सत्य है, और यदि तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं होता है, और तुम देहधारी परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी समर्पित नहीं हो, और तुम अभी भी अस्पष्टता में जीते हो, तो तुम जिसकी खोज कर रहे हो वह निश्चय ही तुम्हें नरक ले जाएगा, क्योंकि जिस पथ पर तुम चल रहे हो वह विफलता का पथ है। तुम्हें पूर्ण बनाया जाएगा या हटा दिया जाएगा यह तुम्हारे अपने अनुसरण पर निर्भर करता है, जिसका तात्पर्य यह भी है कि सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद :"हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए। तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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