36. शोहरत और किस्मत की बंदिशों से आजाद

शाओ मिन, चीन

मैं एक साल पहले कलीसिया की अगुआ चुनी गई थी। मुझे पता था कि यह मेरे लिए परमेश्वर की मेहरबानी और उन्नति है। मैंने मन ही मन ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने का संकल्प लिया। इसके बाद मैं कलीसिया के काम में व्यस्त हो गई, और जब मुझ पर मुश्किलें आतीं, मैं परमेश्वर का सहारा लेती और उसी की ओर देखती। मैंने उनकी चर्चा सहकर्मियों से भी करती और उन्हें हल करने के लिए सत्य की खोज भी करती। कुछ समय बाद, कलीसिया के काम के हर पहलू ने प्रगति करना शुरू कर दिया, और मैंने परमेश्वर के मार्गदर्शन के लिए तहेदिल से उसका शुक्रिया अदा किया। जल्दी ही कलीसिया की एक अन्य अगुआ के लिए चुनाव हुआ, और यह देखकर मैं हैरान रह गई कि उसके लिए बहन ज़िया चुनी गई, जो कुछ साल पहले मेरे साथ काम कर चुकी थी। बहन ज़िया ने लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास नहीं किया था और उसका जीवन-अनुभव थोड़ा सतही था। जब हम पहले साथ में काम कर रहे थे, तो मैंने उसके सामने आईं मुश्किलें और समस्याएँ हल करने में उसकी मदद की थी। मुझे लगा कि इस बार साथ काम करने पर मैं जरूर उससे ज्यादा काबिल साबित होऊँगी।

एक बार मैं घर लौटी, तो मुझे बहन ज़िया द्वारा मेरे लिए छोड़ा गया एक संदेश मिला, जिसमें कहा गया था कि चेंगज़ी कलीसिया में एक समूह-अगुआ व्यावहारिक काम नहीं कर पा रहा और उसे बदलने की जरूरत है, और वहाँ कुछ व्यावहारिक समस्याएँ भी हैं, जिन्हें फौरन हल करना जरूरी है। वह चाहती थी कि मैं जाकर मदद करूँ। इस बारे में सोचने पर मुझे लगा कि वह सच में मुझे अपने से ज्यादा काबिल मानती है, और चूँकि वह मुझसे इतनी आशा रखती है, इसलिए मुझे अच्छा काम करना होगा और शर्मिंदा होने से बचना होगा! मैंने जितना ज्यादा इस बारे में सोचा, मुझे उतनी ही ज्यादा खुशी महसूस हुई। जब मैं सभा में पहुँची, तो मैंने पाया कि बहन ज़िया को काम के बारे में विस्तार से जानकारी है, और सत्य पर उनकी सहभागिता बहुस्तरीय और व्यावहारिक है। यह देख मुझे हैरानी हुई कि पिछले कुछ सालों में उसने काफी तरक्की की है। मुझे लगता था कि मैं उससे ज्यादा काबिल हूँ और मुझे काम के मामले में उसे काफी मदद करनी होगी, लेकिन लग रहा था कि वह मुझसे कम काबिल नहीं थी! मुझे बहुत बुरा लगा और ऐसा दिखाई दिया कि वह मुझसे आगे निकल जाएगी, इसलिए मैंने सोचा कि मुझे अपने समस्त भाई-बहनों को दिखाना होगा कि मैं क्या चीज हूँ! मैंने थोड़ी-सी भी कोताही नहीं बरती, और अपने दिमाग पर जोर देकर सोचा कि मैं अपनी सहभागिता उससे बेहतर कैसे बना सकती हूँ। नतीजतन मेरी सहभागिता खाई के पानी जैसी बेजान रही, यहाँ तक कि मुझे भी उसमें कोई आनंद नहीं आया। मुझे लगा, जैसे मैंने अपनी प्रतिष्ठा खो दी है, और मैं बहुत दुखी हो गई।

तब से मैं खुद को बहन ज़िया से मुकाबला करने से नहीं रोक पाई। एक बार एक सभा में जब उसे भाई-बहनों की स्थितियों के बारे में पता चला, तो उसने परमेश्वर के प्रासंगिक वचन ढूँढ़े, फिर अपनी सहभागिता में उन वचनों के साथ अपना वास्तविक अनुभव पिरो दिया, और मैंने देखा कि हर कोई उन्हें सुनते समय अपना सिर हिलाकर हामी भर रहा था। कुछ तो नोट्स भी लिख रहे थे, और कुछ ने कहा, "अब हमारे पास चलने के लिए एक मार्ग है।" यह देख मुझे सराहना और जलन दोनों महसूस हुईं, और मैं क्या सोच रही थी? "अब मुझे जल्दी से कोई सहभागिता साझा करनी होगी। कुछ भी हो जाए, मैं उससे कमतर नहीं दिख सकती।" लेकिन जितना ज्यादा मैंने इस बारे में सोचा, उतना ही कम मैं यह सोच पाई कि मैं किस विषय पर सहभागिता करूँ। मैंने बहन ज़िया के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त होना शुरू कर दिया, और मैं सोचने लगी, "क्या तुम्हारे पास सहभागिता करने के लिए इतना कुछ है? कहने लायक बातें तुम पहले ही कह चुकी हो। मैं यहाँ एक बहरे आदमी की तरह बैठी हूँ—सिर्फ एक सजावटी सामान की तरह। ऐसा नहीं चलेगा, मुझे अपना गौरव वापस हासिल करने के लिए किसी चीज पर तो सहभागिता करनी ही होगी।" जैसे ही वह पानी पीने के लिए रुकी, मैं अपना स्टूल आगे की तरफ ले गई और सहभागिता करने लगी। मैं कुछ बहुत अच्छा कहना चाहती थी, पर सफल नहीं हो पाई। मेरी सहभागिता एक गड़बड़झाला थी। जब मैंने देखा कि भाई-बहन मुझे मजाकिया ढंग से देख रहे हैं, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं विषय से पूरी तरह भटक गई थी। मैंने बहुत ही असहज महसूस किया और मेरा मन किया कि धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊँ। मैंने खुद को मूर्ख बना लिया था। मैंने बस खुद को अच्छा दिखाना चाहा था, लेकिन मैं हास्यास्पद दिख रही थी। मैंने खुद को मंच पर रखा, और सबने मुझे नाकाम होते देखा। अपने मन में मैंने मेरी बहन को प्रबुद्ध करने और मुझे प्रबुद्ध नहीं करने के लिए परमेश्वर को दोषी ठहराना शुरू कर दिया, और मुझे फिक्र हुई कि पता नहीं, अब से मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मेरा मन जितना अधिक उस मार्ग पर गया, उतना ही अधिक मैं परेशान होती गई। मैं हालात से भाग जाना चाहती थी और अब और उसके साथ काम नहीं करना चाहती थी। मुझे याद है, एक बार एक सभा में कुछ बहनें अच्छी स्थिति में नहीं थीं, और बहन ज़िया की सहभागिता के बाद भी उसमें कोई सुधार नहीं आया था। न केवल मैंने सहभागिता में मदद नहीं की, बल्कि यह तक सोचा, "अब हर कोई देखेगा कि वह समस्याएँ हल नहीं कर सकती, इसलिए अब कोई मुझे नीची निगाह से देखते हुए उसे ऊँची निगाह से नहीं देखेगा।" उस दौरान मैं लगातार बहन ज़िया के साथ मुकाबला करने की कोशिश कर रही थी, और मेरी आध्यात्मिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। सभाओं में परमेश्वर के वचनों पर मेरी सहभागिता में कोई रोशनी नहीं रहती थी, और जब मैं भाई-बहनों को मुश्किलों या समस्याओं का सामना करते देखती, तो मुझे पता नहीं चलता था कि उन्हें कैसे हल किया जाए। मैं हर रात वाकई जल्दी सोने लगी, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए मुझे खुद को बाध्य करना पड़ता था। मेरी तकलीफ बस बढ़ती रही। परमेश्वर से प्रार्थना करने और खुद को बचाने के लिए कहने के सिवाय मैं कुछ नहीं कर पाती थी।

अपनी आराधना में एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "जैसे ही पद, प्रतिष्ठा या रुतबे की बात आती है, हर किसी का दिल प्रत्याशा में उछलने लगता है, तुममें से हर कोई हमेशा दूसरों से अलग दिखना, मशहूर होना, और अपनी पहचान बनाना चाहता है। हर कोई झुकने को अनिच्छुक रहता है, इसके बजाय हमेशा विरोध करना चाहता है—इसके बावजूद कि विरोध करना शर्मनाक है और परमेश्वर के घर में इसकी अनुमति नहीं है। हालांकि, वाद-विवाद के बिना, तुम अब भी संतुष्ट नहीं होते हो। जब तुम किसी को दूसरों से विशिष्ट देखते हो, तो तुम्हें ईर्ष्या और नफ़रत महसूस होती है, तुम्हें लगता है कि यह अनुचित है। 'मैं दूसरों से विशिष्ट क्यों नहीं हो सकता? हमेशा वही व्यक्ति दूसरों से अलग क्यों दिखता है, और मेरी बारी कभी क्यों नहीं आती है?' फिर तुम्हें कुछ नाराज़गी महसूस होती है। तुम इसे दबाने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम ऐसा नहीं कर पाते, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो। और कुछ समय के लिए बेहतर महसूस करते हो, लेकिन जब एक बार फिर तुम्हारा सामना इसी तरह के मामले से होता है, तो तुम इससे जीत नहीं पाते हो। क्या यह एक अपरिपक्व कद नहीं दिखाता है? क्या किसी व्यक्ति का इस तरह की स्थिति में गिर जाना एक फंदा नहीं है? ये शैतान की भ्रष्ट प्रकृति के बंधन हैं जो इंसानों को बाँध देते हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत पूरी तरह से उजागर कर दी और वे सीधे मेरे दिल में उतर गए। मैंने इस बात पर चिंतन किया कि मैं क्यों इस मुश्किल और थकाऊ तरीके से अपनी जिंदगी जी रही हूँ। इसका कारण यह था कि शोहरत और हैसियत के लिए मेरी इच्छा बहुत सशक्त थी, और मेरा स्वभाव बहुत अहंकारी था। मैंने उस वक्त को याद किया, जब मैंने यह कर्तव्य निभाना शुरू किया था। जब मुझे अपने काम में थोड़ी सफलता मिली और भाई-बहन मेरी इज्जत करने लगे, तो मैं वाकई खुद को सराहती और अपने को प्रतिभाशाली मानती। बहन ज़िया के साथ काम करके और यह देखकर कि वह मुझसे बेहतर काम कर रही है, मैं उससे जलने और असहमत होने लगी, और मैं लगातार उसके साथ मुकाबला करने लगी। जब मैं उससे आगे नहीं निकल पाई, तो मैं नकारात्मक हो गई और शिकायत करने लगी, यहाँ तक कि अपने कर्तव्य-पालन के दौरान भी अपनी भड़ास निकालने लगी। जब मैंने देखा कि वह उन बहनों की स्थितियाँ हल नहीं कर पाई, तो मैंने न केवल सहभागिता में मदद नहीं की, बल्कि मैंने एक उँगली हिलाने से भी इनकार कर दिया और उसकी नाकामी से खुश हुई। मैं उसे शर्मिंदा होते हुए देखने पर आमादा थी। मेरा यह कैसा कर्तव्य-पालन था? कलीसिया की एक अगुआ के रूप में मैं पूरी तरह से गैर-जिम्मेदार थी और मैंने कलीसिया के काम के बारे में बिलकुल नहीं सोचा, और न इस बात की फिक्र की कि भाई-बहनों की परेशानियाँ हल हुईं या नहीं। मैं बस यही सोच रही थी कि मैं उससे ऊपर कैसे उठ सकती हूँ। मैं बहुत स्वार्थी, निंदनीय और चालाक थी। शोहरत और हैसियत ने मेरा दिमाग खराब कर दिया था। मैं यह देखने के लिए तैयार थी कि मेरे भाई-बहनों की समस्याएँ हल न हों और कलीसिया के काम का नुकसान हो जाए, बस मेरी प्रतिष्ठा और हैसियत बनी रहे। क्या मैं जिस थाली में खा रही थी, उसी में छेद नहीं कर रही थी? मैं इतने महत्त्वपूर्ण काम के लायक नहीं थी। यह परमेश्वर के लिए बहुत घिनौना और निंदनीय था! इस विचार के आते ही मैंने प्रार्थना और पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आने में देर नहीं की, और उससे कहा कि शोहरत और हैसियत की इन बंदिशों से आजाद होने में मेरी मदद करे।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में मननशील होना चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ने से मेरा दिल फौरन रोशन हो गया, और फिर मेरे पास एक ही रास्ता था। अगर मैं शोहरत और हैसियत की बंदिशों से आजाद होना चाहती हूँ, तो पहले मुझे अपने दिल को सही करना होगा। मुझे परमेश्वर की आज्ञा पर ध्यान देना होगा और परमेश्वर की इच्छा का खयाल रखना होगा, और मुझे विचार करना होगा कि मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकती हूँ। ज्यादा सकारात्मक चीजों से दिल को भरने पर नाम, हैसियत, गुरूर और प्रतिष्ठा जैसी नकारात्मक चीजें छोड़ना ज्यादा आसान हो जाएगा। मुझे एहसास हुआ कि अगर दूसरे लोग यह मानते हैं कि मैं कुछ हूँ, तो जरूरी नहीं कि परमेश्वर को भी मैं मंजूर हूँ, और अगर दूसरे लोग यह मानते हैं कि मैं कुछ नहीं हूँ, तो जरूरी नहीं कि परमेश्वर मुझे नहीं बचाएगा। महत्त्वपूर्ण यह है कि परमेश्वर के प्रति मेरा रवैया कैसा है, और मैं सत्य का अभ्यास कर सकती हूँ या नहीं और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकती हूँ या नहीं। मैंने परमेश्वर को इस प्रबुद्धता के लिए शुक्रिया कहा, जिसने मुझे गलत रास्ते से वापस आने में मदद की। अब मैं बहन ज़िया के साथ मुकाबला नहीं करना चाहती थी, मैं बस परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहती थी। तब से मैं पूरे होशोहवास में परमेश्वर से प्रार्थना करती और तहेदिल से अपना काम पूरा करती, और कलीसिया की सभाओं में भाई-बहनों की सहभागिता गौर से सुना करती। अगर मुझे किसी समस्या का पता चलता, तो मैं संजीदगी से उस पर विचार करती, फिर परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों की तलाश करके उन्हें अपने अनुभवों के साथ जोड़कर सहभागिता करती। मैंने अपनी कमियाँ दूर करने के लिए बहन ज़िया की खूबियों से भी सीखा। इस तरह अभ्यास करने से मैं ज्यादा सहज और शांत महसूस करने लगी, और मेरी हालत बहुत बेहतर हो गई। मैंने तहेदिल से परमेश्वर का आभार महसूस किया। लेकिन शोहरत और हैसियत की इच्छा मेरे अंदर इतने गहरे जड़ जमाए थी कि सही स्थिति पैदा होते ही मेरी शैतानी प्रकृति दोबारा उभर आई।

मुझे याद है, एक बार मैं एक समूह की कुछ समस्याएँ सुलझाने के लिए जाने ही वाली थी, और रास्ते पर कदम रखा ही था कि बहन ज़िया ने कहा कि उस समूह की समस्याएँ पेचीदा किस्म की हैं, और वह मेरे साथ चलना चाहती है। उसे ऐसा कहते सुनकर खुशी की जिस लहर पर मैं सवार थी, वह विलीन हो गई। मैंने सोचा, "तो सिर्फ तुम ही हो, जो चीजें ठीक कर सकती है? तुम्हें सिर्फ यह दिखाना है कि तुम क्या कर सकती हो, है न? हमारे वरिष्ठ के सामने यह कहकर तुम क्या जताना चाहती हो? क्या तुम जानबूझकर मुझे खराब दिखाने की कोशिश नहीं कर रही हो?" उस वक्त मैं सचमुच परेशान हुई। मैं आखिरकार अकेले ही गई, लेकिन अपनी परेशानी पर काबू नहीं पा सकी। मैं रास्ते भर बहन ज़िया पर इतना भुनभुनाई कि मैं सभास्थल भी नहीं ढूँढ़ पाई और मुझे वैसे ही वापस लौटना पड़ा। मुझे बहुत बुरा लग रहा था। मैंने सोचा, "क्या मैं वाकई इतनी बेकार हूँ? मैं सभा-स्थल तक नहीं ढूँढ़ पाई। हमारे वरिष्ठ मेरे बारे में क्या सोचेंगे? इस बार मैंने सच में खुद को बहुत शर्मिंदा किया है!" वापस आकर जब मैंने बाकी बहनों को देखा, तो मेरी उनसे बात करने की इच्छा नहीं हुई।

अगले दिन मैं और बहन ज़िया कुछ काम पूरे करने के लिए अलग-अलग कलीसिया गए, और मैं एक बार फिर भावनात्मक उथल-पुथल में पड़ गई। मैं सोच रही थी, "मुझे इसकी कोई परवाह नहीं कि तुम किस मिट्टी की बनी हो, देखते हैं कौन बेहतर करता है!" मैं पूरे जोश के साथ कलीसिया पहुँची और फौरन सीधे काम करने, सहभागिता करने और काम बाँटने में लग गई। मैंने सोचा, "इस बार मैंने सचमुच बहुत मेहनत की है। मुझे जरूर फल मिलेगा, और तब मैं बहन ज़िया से आगे निकल जाऊँगी।" बाद में सहकर्मियों की एक बैठक में मुझे पता चला कि अपने कर्तव्य में मैंने सबसे कम कामयाबी हासिल की है। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा कुछ हो सकता है। उस वक्त मेरी हर उम्मीद खत्म हो गई और मुझे लगा कि मैं चाहे जितनी मेहनत कर लूँ, मैं कभी भी बहन ज़िया से आगे नहीं निकल पाऊँगी। उस दौरान, बहन ज़िया के देर से वापस आने पर हमारे वरिष्ठ को उसके बारे में फिक्र करते देख मुझे लगता कि मेरी किसी को परवाह नहीं है। मुझे उससे वाकई बहुत जलन होती थी। जब मैंने देखा कि वह हर काम में मुझसे बेहतर कर रही है और हमारे वरिष्ठ उसे बहुत महत्त्व देते हैं, तो मुझे लगा कि वह दिन दोबारा कभी नहीं आएगा, जब मेरी भी पूछ होगी। मैंने सोचा कि कलीसिया की अगुआ होने से अच्छा होगा कि मैं एक समूह की अगुआ बन जाऊँ। कम से कम भाई-बहन मेरी इज्जत तो करेंगे और मेरा साथ तो देंगे। मुझे लगा कि एक बड़े तालाब में छोटी मछली बनकर रहने से अच्छा है कि छोटे तालाब में बड़ी मछली बनकर रहा जाए। मेरी शिकायतें बस बाहर निकलती रहीं। मैं इस माहौल में रहने के लिए वाकई तैयार नहीं थी और जल्दी से जल्दी वहाँ से निकलने का इंतजार कर रही थी। मेरी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। मैं बहन ज़िया से जलती थी, उनसे गुस्सा थी, और मुझे लगता था कि उसी की वजह से मैं आगे नहीं निकल पाती। मैंने यह भी सोचा, "अगर वह अपने काम में किसी तरह की गलती कर दे और उसे कहीं और स्थानांतरित कर दिया जाए, तो बहुत अच्छा रहेगा।"

चूँकि मैं निरंतर प्रतिष्ठा और निजी हितों की लड़ाई की हालत में जी रही थी, और अपने बारे में बिलकुल भी चिंतन नहीं कर रही थी, इसलिए जल्दी ही परमेश्वर का अनुशासन मुझ पर आ पड़ा। एक बार मैंने कुछ अन्य अगुआओं के साथ एक सभा आयोजित की। न केवल सभा में कोई नहीं आया, बल्कि वापस जाते वक्त मेरी गाड़ी का टायर भी पंक्चर हो गया, और जल्दी ही मेरी पीठ में तेज दर्द होने लगा। पीठ की सूजन और दर्द सहन करना बहुत मुश्किल हो रहा था। वह इतना ज्यादा बढ़ गया कि मुझे अपना काम करना भी दूभर हो गया। तब मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : "आज तुम लोगों से—सद्भावना में एक साथ मिलकर काम करने की अपेक्षा करना—उस सेवा के समान है जिसकी अपेक्षा यहोवा इस्राएलियों से करता था : अन्यथा, सेवा करना बंद कर दो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इस्राएलियों की तरह सेवा करो)। इसने मुझे डरा दिया। क्या ऐसा हो सकता है कि परमेश्वर मुझसे कर्तव्य निभाने का मौका छीनना चाहता है? बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अन्य अंश पढ़ा : "तुम जितना अधिक संघर्ष करोगे, उतना ही अंधेरा तुम्हारे आस-पास छा जाएगा, तुम उतनी ही अधिक ईर्ष्या और नफ़रत महसूस करोगे, और कुछ पाने की तुम्हारी इच्छा अधिक मजबूत ही होगी। कुछ पाने की तुम्हारी इच्छा जितनी अधिक मजबूत होगी, तुम ऐसा कर पाने में उतने ही कम सक्षम होगे, जैसे-जैसे तुम कम चीज़ें प्राप्त करोगे, तुम्हारी नफ़रत बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे तुम्हारी नफ़रत बढ़ती है, तुम्हारे अंदर उतना ही अंधेरा छाने लगता है। तुम्हारे अंदर जितना अधिक अंधेरा छाता है, तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन उतने ही बुरे ढंग से करोगे; तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन जितने बुरे ढंग से करोगे, तुम उतने ही कम उपयोगी होगे। यह एक आपस में जुड़ा हुआ, कभी न ख़त्म होने वाला दुष्चक्र है। अगर तुम कभी भी अपने कर्तव्य का निर्वहन अच्छी तरह से नहीं कर सकते, तो धीरे-धीरे तुम्हें हटा दिया जाएगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के कठोर वचनों ने मुझे डरा दिया और मैं भय से काँपने लगी। मैं परमेश्वर के कोई अपमान न सहने वाले धार्मिक स्वभाव को महूसस कर पा रही थी। खास तौर पर जब परमेश्वर के वचनों में मैंने यह पढ़ा, "अगर तुम कभी भी अपने कर्तव्य का निर्वहन अच्छी तरह से नहीं कर सकते, तो धीरे-धीरे तुम्हें हटा दिया जाएगा।" मुझे सच में लगा कि मैं आसन्न खतरे में हूँ। इसके कुछ ही समय बाद मैंने बहन ज़िया को कहते हुए सुना, "कलीसिया का काम वास्तव में हर तरह से ढलान पर है।" वह इतनी चिंतित थी कि रोने लगी। तब मुझे याद आया कि हमारे वरिष्ठ ने हम दोनों के मिलकर अच्छी तरह से काम कर पाने में विफलता के सार का विश्लेषण करते हुए कहा था कि यह परमेश्वर के घर के काम में रुकावट डाल रहा है और उसे नुकसान पहुँचा रहा है। मैं उसके बारे में सोचना जारी रखने की हिम्मत नहीं जुटा पाई, बस दौड़कर परमेश्वर के सामने गई और प्रार्थना करने लगी, और समझने की कोशिश करने लगी। मैं अच्छी तरह जानती थी कि शोहरत और हैसियत की इच्छा करना और दूसरों से जलन रखना परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं हैं, फिर आखिर क्यों मैं अपने आप को इन बुराइयों के पीछे जाने से रोक नहीं पाई?

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों से एक और अंश पढ़ा। "शैतान मनुष्य के विचारों को नियन्त्रित करने के लिए प्रसिद्धि एवं लाभ का तब तक उपयोग करता है जब तक लोग केवल और केवल प्रसिद्धि एवं लाभ के बारे में सोचने नहीं लगते। वे प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए कठिनाइयों को सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए जो कुछ उनके पास है उसका बलिदान करते हैं, और प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते वे किसी भी प्रकार की धारणा बना लेंगे या निर्णय ले लेंगे। इस तरह से, शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनके पास इन्हें उतार फेंकने की न तो सामर्थ्‍य होती है न ही साहस होता है। वे अनजाने में इन बेड़ियों को ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पाँव घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते, मनुष्यजाति परमेश्वर को दूर कर देती है और उसके साथ विश्वासघात करती है, तथा निरंतर और दुष्ट बनती जाती है। इसलिए, इस प्रकार से एक के बाद दूसरी पीढ़ी शैतान के प्रसिद्धि एवं लाभ के बीच नष्ट हो जाती है। अब शैतान की करतूतों को देखने पर, क्या उसकी भयानक मंशाएँ बिलकुल ही घिनौनी नहीं हैं? हो सकता है कि आज तुम लोग अब तक शैतान की भयानक मंशाओं की वास्तविक प्रकृति को नहीं देख पा रहे हो क्योंकि तुम लोग सोचते हो कि प्रसिद्धि एवं लाभ के बिना कोई जी नहीं सकता है। तुम सोचते हो कि यदि लोग प्रसिद्धि एवं लाभ को पीछे छोड़ देते हैं, तो वे आगे के मार्ग को देखने में समर्थ नहीं रहेंगे, अपने लक्ष्यों को देखने में समर्थ नहीं रह जायेँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, मद्धिम एवं विषादपूर्ण हो जाएगा" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन में मुझे समस्या की जड़ मिल गई। मैं अपने आप को प्रतिष्ठा और हैसियत के पीछे भागने से कभी रोक नहीं पाई, क्योंकि मेरी शिक्षा एक स्कूल में हुई थी और बचपन से ही मुझ पर समाज का असर रहा है। शैतानी फलसफे और भ्रांतियाँ मेरे दिल के भीतर गहरे रोपे गए थे, जैसे, "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो," "केवल एक ही अल्फा पुरुष हो सकता है," "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है," और "एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है" मैंने इन चीजों को जीने के सिद्धांतों के रूप में ले लिया था और उन्हें अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। चाहे बाहर की दुनिया में हो या परमेश्वर के घर में, मैं बस दूसरों से उच्च सम्मान पाने की लालसा रखती थी। चाहे कोई भी समूह हो, मैं चाहती थी कि मैं सबसे आगे और केंद्र में रहूँ, और हर कोई मेरे इर्द-गिर्द मँडराए। मुझे लगता था कि जीने का यही एकमात्र सार्थक तरीका है। मेरी क्षमता कभी भी बहुत बढ़िया नहीं रही, और मैं किसी भी चीज में विशेष रूप से अच्छी नहीं थी, लेकिन मुझे दूसरों से कम होना बरदाश्त नहीं होता था। अगर कोई मुझसे बेहतर होता, तो मुझे बहुत बुरा लगता, और मैं खुद को उसके साथ बराबरी और मुकाबला करने से रोक न पाती। मैं उससे आगे निकलने के लिए कुछ भी करने के बारे में सोचती। अगर मैं उससे आगे न निकल पाती, तो मुझे जलन होती, और मैं उससे नफरत करने लगती, और मैं अपने अलावा हर किसी को दोष देती। जीने का यह बहुत ही बुरा तरीका था। आखिरकार मुझे समझ आ गया कि शोहरत और हैसियत के पीछे भागना बिलकुल भी सही रास्ता नहीं है, और जितना मैं उनके पीछे भाग रही थी, उतनी ही अहंकारी और ओछे सोच वाली बनती जा रही थी। मैं बहुत स्वार्थी और शातिर हो गई थी, और मुझ में इंसान जैसी कोई चीज नहीं बची थी। फिर मैंने बहन ज़िया की ओर देखा : वह अपना कर्तव्य जिम्मेदारी और संजीदगी से निभा रही थी, और उसकी सहभागिता में रोशनी होती थी। वह भाई-बहनों की व्यावहारिक मुश्किलें सुलझाने में भी सक्षम थी। यह दूसरों के लिए और कलीसिया के काम के लिए भी लाभदायक था। यह एक बहुत अच्छी चीज थी, जो परमेश्वर को दिलासा दे सकती थी। दूसरी ओर, मैं ओछी और ईर्ष्यालु थी, जो हमेशा यही सोचती रहती कि वह मुझसे मेरी ख्याति छीन रही है, और इसलिए मैं उसके प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो गई। मैं इस बात के लिए मरी जा रही थी कि कब वह अपना काम खराब करे और कब उसे बदल दिया जाए। मैंने देखा कि मैं अंदर से कितनी द्वेष से भरी हुई हूँ! परमेश्वर यह देखने की आशा करता है कि ज्यादा से ज्यादा लोग सत्य पर चलेंगे और उसकी इच्छा का खयाल करेंगे, और उसे संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होंगे। लेकिन अपनी खुद की प्रतिष्ठा और हैसियत बचाने के प्रयास में मैं ऐसा करने वाले भाई-बहनों को बरदाश्त नहीं कर पाती थी। मैं उनसे जलती थी और उनके प्रति असहिष्णु थी। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ जाना और उसका विरोध करना नहीं था? क्या यह परमेश्वर के घर के काम में रुकावट डालना नहीं था? मैं दानव, शैतान से अलग कैसे थी? साथ ही, कम्युनिस्ट पार्टी के वे अधिकारी भी हैं, जो गुट बनाकर प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए क्षुद्र संघर्षों में लिप्त रहते हैं, और अपने दुश्मनों का खात्मा और लोगों का दमन करते हुए अपने विरोधी को मार गिराने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। इस बात की गिनती भी नहीं की जा सकती कि उन्होंने कितनी बुराइयाँ की हैं और कितने लोगों को मार डाला है! आखिर में, वे खुद को बरबाद कर लेते हैं, और मरने के बाद नरक में जाते हैं और सजा पाते हैं। उनका ऐसा अंत क्यों होता है? क्या ऐसा इसलिए नहीं, क्योंकि वे प्रतिष्ठा और हैसियत को सबसे ऊपर रखते हैं? हालाँकि मेरा बरताव उनके जितना बुरा नहीं था, लेकिन यह था बिलकुल वैसा ही। मैं शैतानी फलसफों और नियमों के मुताबिक जी रही थी, और जो स्वभाव मैंने दिखाया, वह अहंकारी, चालाक और बुरा था। मैं एक राक्षसी जीवन जी रही थी, जिसमें जरा-सी भी इंसानी समानता नहीं थी। यह परमेश्वर के लिए घिनौना और निंदनीय कैसे नहीं होगा? इस तरह से अनुशासित किया जाना मुझ पर परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का आना था, और इससे भी ज्यादा, यह मेरे लिए उसका उद्धार था। यह सब समझने के बाद मैं फौरन परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना करने लगी। मैंने कहा, "हे परमेश्वर, मैं सत्य का अनुसरण नहीं कर रही हूँ। मैं बस शोहरत और हैसियत के पीछे दौड़ रही हूँ। मैं शैतान का खिलौना बन गई हूँ और उसके द्वारा भ्रष्ट कर दी गई हूँ, और मैं इंसान जैसा बिलकुल भी महसूस नहीं कर रही हूँ। जब मैंने अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत खो दी, तो मैं आगे अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहती थी और तुम्हें धोखा देने के कगार पर थी। परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। तुम्हें संतुष्ट करने के लिए मैं सत्य का अनुसरण करने, अपनी बहन के साथ सहयोग करने, और अपने कर्तव्य में संलग्न होने के लिए तैयार हूँ।"

इसके बाद मैंने बहन ज़िया से खुलकर बात की। मैंने विस्तार से उसे बताया कि मैं कैसे शोहरत और लाभ की होड़ में थी और उसके साथ मुकाबला करने की कोशिश कर रही थी। मैंने उससे यह भी कहा कि वह मुझ पर नजर रखे और मेरी मदद करे। उसके बाद हम अपने काम में कहीं अधिक सुचारु रूप से सहयोग करने में सक्षम हो गईं। हालाँकि कई बार अभी भी मुझमें शोहरत और फायदे की इच्छा नजर आ जाती है, लेकिन मैं जल्दी से देख पाती हूँ कि मेरा शैतानी स्वभाव उभर रहा है, मैं इस तरह की प्रकृति और ऐसे जारी रखने के नतीजों पर विचार करती हूँ, और फिर मैं फौरन परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना करती हूँ और अपने विचारों पर गौर करती हूँ। मैं दिल से अपनी बहन की सहभागिता में जाती और उसे सुनती हूँ और उसकी खूबियों से सीखती हूँ। जब मैं देखती हूँ कि वह अपनी सहभागिता में कुछ भूल गई है, तो मैं फौरन सही तरीके से उसमें अपना सुर मिला देती हूँ। ऐसे मौकों पर मैं यह सोचती हूँ कि सत्य पर स्पष्ट रूप से सहभागिता कैसे करनी चाहिए, ताकि सबको फायदा हो सके। सबको महसूस होता है कि इस तरह की सभाएँ सच में शिक्षाप्रद होती हैं, और मैं भी उनसे कुछ न कुछ हासिल करती हूँ। मैं अपने दिल में आजाद और सहज महसूस करती हूँ। जैसा कि परमेश्वर के वचन बताते हैं : "यदि तुम अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा सको, अपने दायित्वों और कर्तव्यों को पूरा कर सको, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत अभिलाषाओं और इरादों को त्याग सको, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रख सको, और परमेश्वर तथा उसके घर के हितों को सर्वोपरि रख सको, तो इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह जीने का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक संकुचित मन वाले या ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को पूरा करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी। ... तुम्‍हें लगता है कि इस तरह जीवन जीने में अर्थ और पोषण है। तुम्‍हारी आत्‍मा स्थिर, शान्‍त और सन्‍तुष्‍ट हो जाएगी। इस तरह की अवस्‍था तुम्‍हारी अपनी होगी, तुम्‍हारे द्वारा अपनी मंशाओं, हितों और स्‍वार्थपूर्ण आकांक्षाओं को छोड़ दिये जाने का परिणाम होगी। उसे तुमने अर्जित किया होगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। मैं तहेदिल से मानती हूँ कि परमेश्वर के वचनों के मुताबिक जीना बहुत अच्छा है। परमेश्वर का शुक्रिया!

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