21. किसी पर हमला करने और उसे बाहर करने के बाद आत्म-चिंतन
मई 2023 में मैं शिन जी, जियांग यान और शियाओ शिन के साथ पाठ-आधारित कर्तव्यों पर सहयोग कर रही थी। बहन शिन जी नई-नई आई थी, और उसे जो समझ नहीं आता था या जहाँ उसके अलग दृष्टिकोण होते थे, उन बातों को संगति के लिए सामने लाती थी। लेकिन मामलों का सामना करते समय वह गंभीर रहती थी, सत्य की खोज करने में अच्छी थी पहले मैं उसके साथ प्यार और धैर्य के साथ संगति कर पाती थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, शिन जी अक्सर मेरे विचारों से अलग दृष्टिकोण रखने लगी, जिससे मुझे शर्मिंदगी महसूस होती थी, इसलिए अंदर ही अंदर मैंने उसका प्रतिरोध करना और उसे बाहर करना शुरू कर दिया।
एक बार हम मिलकर एक धर्मोपदेश का विश्लेषण कर रहे थे और शिन जी का दृष्टिकोण मुझसे अलग था। मैंने सोचा, “जब हम मिलकर धर्मोपदेशों का अध्ययन या समीक्षा कर रहे होते हैं, तुम अक्सर अलग दृष्टिकोण रखती हो, लेकिन इस बार मुझे तुम्हारे साथ अपने विचारों पर पूरी तरह से संगति करने की जरूरत है।” इसलिए मैंने अपने दृष्टिकोण के बारे में विस्तार से बताया, लेकिन शिन जी फिर भी असहमत थी। बाकी दो बहनों ने इस पर कुछ देर सोचा और उन्हें भी लगा कि शिन जी की बातें सही हैं और उन्होंने मेरे दृष्टिकोण का खंडन करना शुरू कर दिया, जिससे मुझे वाकई शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने सोचा, “मैं तुमसे ज्यादा समय से अपना कर्तव्य निभा रही हूँ और तुमसे अधिक समझती हूँ, मैं टीम अगुआ भी हूँ, अगर मैं चीजों को किसी नवागंतुक से बेहतर नहीं समझ पाई तो यह बेहद अपमानजनक होगा! शिन जी मेरे लिए मुसीबत खड़ी कर रही है। ऐसे नहीं चलेगा। मुझे दूसरी बहनों को मनाने का कोई तरीका ढूँढ़ना होगा और उन्हें अपने पक्ष में लाना होगा।” लेकिन इस मामले पर मैंने चाहे जितनी संगति की, बहनें फिर भी मेरे दृष्टिकोण से सहमत नहीं थीं। मैंने मामले को यूँ ही नहीं जाने दिया और सोचा, “शिन जी हमेशा मेरे विचारों से असहमत होती है। इससे वास्तव में एक टीम अगुआ के रूप में मेरी छवि कमजोर होती है। ऐसे नहीं चल सकता। मुझे प्रासंगिक सिद्धांत खोजते रहना होगा ताकि बहनों से यह मनवाकर अपनी प्रतिष्ठा बचा सकूँ कि मेरा दृष्टिकोण सही है।” लेकिन लंबे समय तक संगति करने के बाद भी बहनें मेरे दृष्टिकोण से सहमत नहीं हुईं। आखिरकार शिन जी ने पर्यवेक्षक से सलाह लेने का सुझाव दिया और मुझे हार माननी पड़ी। बाद में पर्यवेक्षक ने कहा कि शिन जी का दृष्टिकोण सिद्धांतों के अनुरूप था। इस परिणाम ने मुझे और भी बुरा महसूस कराया और मैंने सोचा, “यह तो भयानक है, न केवल टीम में बहनों ने शिन जी के दृष्टिकोण को स्वीकार किया बल्कि पर्यवेक्षक भी उससे सहमत है। मैं केवल नाममात्र के लिए टीम अगुआ हूँ, इस टीम में पूरी तरह से बेकार हूँ।” शिन जी को लेकर मेरी राय बिगड़ती गई और जब काम में समस्याएँ आती थीं, तो मैं नियम से हटकर केवल अन्य दो बहनों से संवाद करती थी और मैंने शिन जी से बात करना बंद कर दिया।
कुछ दिनों बाद शिन जी ने हमें एक संवाद पत्र दिया जो उसने हमारी समीक्षा के लिए लिखा था। शिन जी का पत्र कुल मिलाकर काफी ठोस था और जिन दो बहनों के साथ मैं सहयोग कर रही थी, उन्होंने भी उसे अपनी स्वीकृति दे दी। मैंने सोचा, “ऐसे नहीं चलेगा, मुझे इसकी बारीकी से जाँच-पड़ताल करनी होगी और तुम्हारी कमियाँ बतानी होंगी ताकि दोनों बहनें देख सकें कि तुम इतनी महान नहीं हो।” जब मैं पत्र की समीक्षा कर रही थी, तो मैं विशेष रूप से सावधान थी और मुझे जो भी समस्या मिली उसे दर्ज किया, कीबोर्ड पर लगातार जोर से टाइप करती गई जैसे अपनी नाराजगी निकाल रही हूँ। सच तो यह था कि शिन जी के पत्र में वाकई सुधार दिखा था और भले ही कुछ छोटी-मोटी समस्याएँ थीं, जो सामान्य बात थी और मुझे पत्र को संशोधित करने और सुधारने के तरीके के बारे में धैर्यपूर्वक उसके साथ संगति करनी चाहिए थी। लेकिन अपना अभिमान बचाने के प्रयास में मैं उनके लिखे में कमियाँ खोजती गई, उससे सख्त लहजे में बोली, “यह भाग उचित रूप से नहीं लिखा गया है, वह भाग सिद्धांतों के साथ एकीकृत नहीं था, यह भाग परमेश्वर की गवाही नहीं दे रहा है बल्कि तुम्हारी गवाही दे रहा है। तुम्हें इसे सिद्धांतों के अनुसार फिर से संशोधित करना चाहिए।” यह सुनकर शिन जी ने अपना सिर झुका लिया और कुछ नहीं कहा और स्टूडियो में माहौल विशेष रूप से दमनकारी हो गया। थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि शिन जी ने अभी भी पत्र को संशोधित करना शुरू नहीं किया था और मैंने सोचा, “तुमने अभी तक इसे संशोधित करना शुरू क्यों नहीं किया है? क्या तुम्हें मेरे सुझाव स्वीकार नहीं हैं या कुछ और बात है? ऐसे नहीं चलेगा! मैं तुम्हें बताऊँगी और सबके सामने तुम्हें अपमानित करूँगी!” इसलिए मैंने शिन जी से दबंग लहजे में कहा, “आज रात तक संशोधन पूरा करके इसे पर्यवेक्षक को भेज देना। टालमटोल करना बंद करो!” शिन जी को संशोधन बहुत चुनौतीपूर्ण लगा, उसे नहीं पता था कि आगे कैसे बढ़ना है और वह मेरे कारण बेबस महसूस कर रही थी। वह अपनी कठिनाइयों के बारे में बोलने की हिम्मत नहीं कर पाई और वास्तव में परेशान दिख रही थी। फिर जियांग यान के संगति करने के बाद ही शिन जी ने पत्र को संशोधित किया और उसे भेजा गया।
एक दिन मुझे अचानक शिन जी का एक पत्र मिला। मैंने इसे खोला तो पाया कि इस बार शिन जी मेरे व्यवहार के बारे में बता रही थी और एक ऐसे अंश की रोशनी में मेरे क्रियाकलापों की प्रकृति का गहन-विश्लेषण कर रही थी जिसमें परमेश्वर दूसरों पर हमला करने और उन्हें बाहर करने वाले मसीह-विरोधियों को उजागर करता है। अपने मन में लगातार मैंने बहस करने की कोशिश की और मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाई। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत थी और मुझे स्वीकृति और आज्ञाकारिता से शुरुआत करनी चाहिए। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, चूँकि शिन जी ने मेरी समस्याएँ बताई हैं, तो वे मेरे भीतर मौजूद होनी चाहिए, लेकिन मैं अभी भी उनसे अनजान हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो और मेरे भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।”
अपनी खोज के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला : “लोगों पर आक्रमण और उन्हें निकालने की और क्या अभिव्यक्तियाँ होती हैं? (दूसरों को नीचा दिखाना।) दूसरों को नीचा दिखाना इसे अभिव्यक्त करने के तरीकों में से एक है; चाहे तुम कितना भी अच्छा काम करो, मसीह-विरोधी फिर भी तुम्हें नीचा दिखाएँगे या तुम्हारी निंदा करेंगे, जब तक कि तुम नकारात्मक, कमजोर और खड़े होने में अक्षम नहीं हो जाते। तब वे प्रसन्न होंगे, और उन्होंने अपना लक्ष्य पूरा कर लिया होगा। क्या निंदा करना दूसरों को नीचा दिखाने के अर्थ का एक हिस्सा है? (हाँ।) मसीह-विरोधी लोगों की निंदा कैसे करते हैं? वे राई का पहाड़ बनाते हैं। उदाहरण के लिए, तुमने कुछ ऐसा किया जो कोई समस्या नहीं थी, लेकिन वे इस मामले को बढ़ा चढ़ा कर पेश करना चाहते हैं ताकि तुम पर आक्रमण कर सकें, इसलिए वे तुम पर कीचड़ उछालने के तमाम तरीकों के बारे में सोचते हैं, और राई का पहाड़ बनाकर तुम्हारी निंदा करते हैं, ताकि सुनने वाले लोग सोचें कि मसीह-विरोधी जो कहते हैं, उसमें दम है और तुमने जरूर कुछ गलत किया है। इसके साथ, मसीह-विरोधी अपना लक्ष्य पूरा कर लेते हैं। यह है विरोधियों की निंदा करना, उन पर आक्रमण करना और उन्हें निकालना। निकालने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि अपने दिल में वे जानते हैं कि तुमने जो कुछ किया है वह सही था, परन्तु वे तुमसे ईर्ष्या और घृणा करते हैं, जानबूझकर तुम पर आक्रमण करने का प्रयास करते हैं, इसलिए वे कहते हैं कि तुमने जो किया वह गलत था। फिर वे तुम्हें बहस में हराने के लिए अपने विचारों और भ्रांतियों का उपयोग करेंगे, और सम्मोहक तरीके से बोलेंगे ताकि सुनने वाले सभी लोगों को लगे कि उनकी बात सही है और अच्छी तरह से कही गई है; तब, वे सभी लोग उनकी हाँ में हाँ मिलाएँगे और तुम्हारे विरोध में उनके पक्ष में खड़े हो जाएँगे। मसीह-विरोधी इसका उपयोग तुम पर आक्रमण करने, तुम्हें नकारात्मक और कमजोर बनाने के लिए करते हैं। इससे वे विरोधियों पर आक्रमण कर उन्हें निकालने का अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। विरोधियों को निकालना कभी-कभी आमने-सामने बहस के रूप में हो सकता है या कभी-कभी किसी के बारे में फैसला करके, आलोचना करके, विवाद खड़ा करके, उनकी बदनामी करके और पीठ पीछे उनके बारे में बातें बनाने के रूप में ऐसा किया जाता है। ... मसीह-विरोधी का मानना होता है कि किसी विरोधी को दबाकर रखना सबसे अच्छा है, लेकिन अगर उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता तो फिर मसीह-विरोधी उन्हें अलग-थलग करने और फिर उन्हें निकालने के लिए हर संभव प्रयास करता है। अगर उन्हें निकाला नहीं जा सकता, तो फिर मसीह-विरोधी उन्हें अलग-थलग करना जारी रखता है और अंततः उन्हें झुकने और दया के लिए भीख माँगने पर मजबूर कर देता है। मसीह-विरोधी उन लोगों पर आक्रमण करने के लिए कुछ ताकतों को आकर्षित करके उनका उपयोग करता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं या जिनकी राय उसकी अपनी राय के अनुरूप नहीं होती। वे कलीसिया को बर्बाद करते हैं और उसे गुटों में बाँट देते हैं, और अंततः कलीसिया दो या तीन गुटों में विभाजित हो जाता है—एक वह गुट जो उनकी बात सुनता है, एक जो उनकी नहीं सुनता और एक जो तटस्थ रहता है। उनके ‘शानदार’ मार्गदर्शन के तहत अधिक से अधिक लोग उनकी बात सुनते हैं और ऐसे लोग कम ही होते हैं जो उनकी बात नहीं सुनते। पहले से अधिक लोग उनके सामने हथियार डाल देते हैं और मसीह-विरोधी से हट कर अलग राय रखने वाले लोग अलग-थलग पड़ जाते हैं और बोलने की हिम्मत नहीं करते। पहले से कम लोग ही उन्हें पहचान पाते या उनका विरोध कर पाते हैं और इस तरह मसीह-विरोधी धीरे-धीरे कलीसिया में अधिकांश लोगों पर नियंत्रण करके अधिकार की स्थिति को हासिल कर लेता है। यही वह लक्ष्य है जिसे मसीह-विरोधी प्राप्त करना चाहता है। जब मसीह-विरोधी उन लोगों के साथ व्यवहार करता है जिनकी राय उससे भिन्न होती है तो वह बिल्कुल भी सहिष्णुता नहीं दिखाता। वह सोचता है : ‘भले ही तुम्हारी राय मुझ से अलग है, फिर भी तुम्हें मेरी अगुआई के प्रति समर्पण करना होगा, क्योंकि अब अंतिम फैसला मेरा ही चलेगा। तुम मेरे नीचे हो। अगर तुम अजगर हो, तो तुम्हें कुण्डली मार कर बैठ जाना चाहिए; अगर बाघ हो, तो तुम्हें पेट के बल लेट जाना चाहिए; चाहे तुम्हारे पास जो भी क्षमताएँ हों, जब तक मैं यहाँ हूँ, तुम मुझसे ऊपर होने या किसी तरह की मुसीबत खड़ी करने के बारे में भूल ही जाओ!’ यही वह लक्ष्य है जिसे मसीह-विरोधी प्राप्त करना चाहता है—कलीसिया को एकतरफा रूप से नियंत्रित करना और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दो : वे विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं)। परमेश्वर उजागर करता है कि सत्ता हासिल करने, समूह में अपनी जगह बनाने और दूसरों को नियंत्रित करने का अपना उद्देश्य पाने के लिए मसीह-विरोधी सभी तरीकों और साधनों का उपयोग करते हैं; उन लोगों पर हमला करते हैं और उन्हें बाहर करते हैं जो उनसे असहमत होते हैं या उनके रुतबे के लिए खतरा बनते हैं। मैंने परमेश्वर के वचनों की रोशनी में अपने व्यवहार पर आत्म-चिंतन किया। टीम अगुआ के बतौर मेरे कार्यकाल में ज्यादातर समय मेरे आसपास की बहनें आमतौर पर मेरे विचारों से सहमत होती थीं और रुतबे की मेरी इच्छा संतुष्ट हो जाती थी, लेकिन शिन जी आने के बाद कभी-कभी अलग-अलग सुझाव देने लगी और मुझे महसूस हुआ कि समूह में मेरी मौजूदगी ही कम हो गई है, जिससे मैं दुखी हो जाती थी, जिसके कारण मैंने शिन जी को बाहर करना शुरू कर दिया। हमारे अध्ययन और चर्चाओं के दौरान जब बहनें मेरे विचारों को स्वीकार नहीं करती थीं, तो अपनी प्रतिष्ठा बचाने और शिन जी से यह मनवाने के लिए कि मेरे विचार सही हैं, मैं परदे के पीछे की जानकारी खोजती और सभी को राजी करने की कोशिश में बार-बार बहनों के साथ संगति करती थी। जब शिन जी मुझसे असहमत होती, तो मैं उसके प्रति उदासीन रवैया दिखाती और अगर काम में समस्याएँ होतीं, तो मैं शिन जी के साथ संगति नहीं करती थी, इसके बजाय उसे अलग-थलग करके बेबस कर देती थी। अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए जब मैंने शिन जी के पत्र की समीक्षा की, तो गलतियाँ मिलने पर प्यार से उसे परिष्कृत करने और सुधारने में मदद करने के बजाय मैंने जान-बूझकर उसकी खामियों को चुना, उसकी आलोचना की और उसे नीचा दिखाया। इससे वह नकारात्मक हो गई और उसे लगा कि पत्र को संशोधित करने का कोई तरीका नहीं है और फिर भी मैं नहीं रुकी, उसे प्रगति में देरी न करने के बहाने पत्र को जल्दी से संशोधित करने के लिए दबाव डालती रही, जान-बूझकर उसके लिए मुश्किलें खड़ी करती रही। क्या असहमत होने वालों पर हमला करने और उन्हें बाहर करने के मेरे ये व्यवहार और क्रियाकलाप वैसे ही नहीं थे जैसा कि परमेश्वर ने उजागर किया है? जब भाई-बहन अपने कर्तव्यों में सहयोग करते हैं, तो यह लौकिक संसार की तरह नहीं होता जहाँ रुतबे और सत्ता वाले लोग सब कुछ तय करते हैं। परमेश्वर के घर में सत्य की सत्ता होती है और सिद्धांत खोजने के लिए अलग-अलग विचारों पर एक साथ संगति की जा सकती है और हमें जो भी सही है और सिद्धांतों के अनुसार है, उसका अनुसरण करना चाहिए, सब कुछ परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार लागू करना चाहिए। लेकिन मैं खुद को बहुत ऊँचा समझती थी और हमेशा दूसरों को अपनी इच्छा के अनुसार झुकाना चाहती थी और अगर कोई मेरी बात न सुने, तो मैं उसे अपने अधीन करने के तरीके खोजती थी, भले ही इसका मतलब काम में बाधा डालना हो और बहन को बेबस करना हो, मैं हिचकिचाती नहीं थी। यह सोचकर कि कैसे केवल मसीह-विरोधी और बुरे लोग ही लोगों पर हमला करने और उन्हें बाहर करने जैसे बुरे कर्म कर सकते हैं, मुझे यकीन नहीं हुआ कि मैं भी ऐसा कर सकती हूँ। मुझे एहसास हुआ कि मेरी समस्याएँ वास्तव में गंभीर थीं, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे मेरी समस्याएँ पहचानने के लिए प्रबुद्ध करे।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “जब कोई मसीह-विरोधी किसी विरोधी पर आक्रमण करके उसे निकाल देता है, तो उसका मुख्य उद्देश्य क्या होता है? वे लोग कलीसिया में एक ऐसी स्थिति पैदा करने का प्रयास करते हैं जहाँ उनकी आवाज के विरोध में कोई आवाज न उठे, जहाँ उनकी सत्ता, उनकी अगुआई का दर्जा और उनके शब्द सब सर्वोपरि हों। सभी को उनकी बात माननी चाहिए, भले ही उनमें मतभेद हो, उन्हें इसे व्यक्त नहीं करना चाहिए, बल्कि इसे अपने दिल में सड़ने देना चाहिए। जो कोई भी उनके साथ खुले तौर पर असहमत होने का साहस करता है, वह मसीह-विरोधी का दुश्मन बन जाता है, वे सोचते रहते हैं कि किसी भी तरह उनके लिए हालात को मुश्किल बना दिया जाए और उन्हें गायब कर देने के लिए बेचैन रहते हैं। यह उन तरीकों में से एक है जिसके जरिए मसीह-विरोधी अपने रुतबे को मजबूत करने और अपनी सत्ता की रक्षा के लिए विरोध करने वालों पर आक्रमण कर उन्हें निकाल देते हैं। वे सोचते हैं, ‘तुम्हारी राय मुझसे अलग हो सकती है, लेकिन तुम उसके बारे में मनचाही बातें नहीं बना सकते, मेरी सत्ता और हैसियत को जोखिम में तो बिल्कुल नहीं डाल सकते। अगर कुछ कहना है, तो मुझसे अकेले में कह सकते हो। यदि तुम सबके सामने कहकर मुझे शर्मिंदा करोगे तो मुसीबत को बुलावा दोगे, और मुझे तुम्हारा ध्यान रखना पड़ेगा!’ यह किस प्रकार का स्वभाव है? मसीह-विरोधी दूसरों को खुलकर नहीं बोलने देते। अगर उनकी कोई राय होती है—फिर वह चाहे मसीह-विरोधी के बारे में हो या किसी और चीज के बारे में—तो वे खुद उसे यूँ ही सामने नहीं ला सकते; उन्हें मसीह-विरोधी के चेहरे के भावों का ख्याल रखना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया, तो मसीह-विरोधी उन्हें शत्रु मानेगा और उन पर आक्रमण कर उन्हें निकाल देगा। यह किस तरह की प्रकृति है? यह एक मसीह-विरोधी की प्रकृति है। और वे ऐसा क्यों करते हैं? वे कलीसिया के लिए किसी वैकल्पिक आवाज की अनुमति नहीं देते, वे कलीसिया में अपने विरोधी को नहीं रहने देते, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को खुले तौर पर सत्य की संगति और लोगों की पहचान नहीं करने देते। वे सबसे ज्यादा इस बात से डरते हैं कि कहीं लोग उन्हें पहचानकर उजागर न कर दें; वे लगातार अपनी सत्ता और लोगों के दिलों में अपनी हैसियत को मजबूत करने की कोशिश में लगे रहते हैं, उन्हें लगता है हैसियत हमेशा बनी रहनी चाहिए। वे ऐसी कोई चीज बरदाश्त नहीं कर सकते, जो एक अगुआ के रूप में उनके गौरव, प्रतिष्ठा या हैसियत और मूल्य को धमकाए या उस पर असर डाले। क्या यह मसीह-विरोधियों की दुर्भावनापूर्ण प्रकृति की अभिव्यक्ति नहीं है? वे पहले से मौजूद अपनी ताकत से संतुष्ट नहीं होते, वे उसे भी मजबूत और सुरक्षित बनाकर शाश्वत सत्ता चाहते हैं। वे केवल लोगों के व्यवहार को ही नियंत्रित नहीं करना चाहते, बल्कि उनके दिलों को भी नियंत्रित करना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले ये तरीके पूरी तरह से अपनी सत्ता और हैसियत की रक्षा करने के लिए होते हैं, और ये पूरी तरह सत्ता से चिपके रहने की उनकी इच्छा का परिणाम है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दो : वे विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं)। “विरोधियों पर आक्रमण करने और उन्हें निकालने के मसीह-विरोधियों के तरीकों, अभिव्यक्तियों, कार्रवाई के उद्देश्यों और कार्रवाई के स्रोतों के मूल क्या होते हैं? (शैतान होता है।) विशिष्ट रूप से कहें तो वे मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से और शैतान की प्रकृति से आते हैं। तो फिर मसीह-विरोधी का लक्ष्य क्या होता है? उसका लक्ष्य सत्ता हथियाना, लोगों के दिलों को नियंत्रित करना और अपनी हैसियत के लाभों का आनंद उठाना होता है। इसी से एक वास्तविक मसीह-विरोधी बनता है। लोगों के दिलों को जीतने और विरोधियों पर आक्रमण करके उन्हें निकालने के इन दो मदों के दृष्टिकोण से एक मसीह-विरोधी ‘अगुआ’ शब्द के अर्थ और एक अगुआ की भूमिका की व्याख्या कैसे करता है? उसका मानना होता है कि एक अगुआ वह व्यक्ति होता है जिसके पास सत्ता और हैसियत होती है, उसके पास उन लोगों को आदेश देने, उन्हें आकर्षित करने, गुमराह करने, धमकाने और नियंत्रित करने की शक्ति होती है जिनकी वह अगुआई कर रहा होता है। इस तरह वह ‘अगुआ’ शब्द का मतलब समझता है। इसलिए जब वे एक अगुआ की भूमिका में होते हैं, तो वे अपने काम में इन्हीं रणनीतियों का उपयोग करते हैं और इसी तरह अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। तो फिर अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए वे वास्तव में क्या कर रहे होते हैं? यह बात विश्वास के साथ कही जा सकती है कि वे बुरे कर्म कर रहे होते हैं और सटीकता से कहें तो वे अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर रहे होते हैं, चुने हुए लोगों, लोगों के दिलों और हैसियत के मामले में परमेश्वर के साथ होड़ कर रहे होते हैं। वे लोगों के दिलों में परमेश्वर की जगह को बदलना चाहते हैं और ताकि लोग उनकी आराधना करें” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दो : वे विरोधियों पर आक्रमण करते हैं और उन्हें निकाल देते हैं)। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी की प्रकृति वाले लोग रुतबे को ही जीवन मानते हैं और अपने रुतबे और सत्ता की रक्षा के लिए वे लापरवाही से काम करने में सक्षम होते हैं, लोगों के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करने, उनसे अपना अनुसरण करवाने और अपनी आज्ञा मनवाने के लिए वे किसी भी जरूरी साधन का उपयोग करते हैं। आत्म-चिंतन करने पर मुझे एहसास हुआ कि मैं भी प्रतिष्ठा और रुतबे को बहुत महत्व देती हूँ, टीम अगुआ बनने के बाद से ही मैं हमेशा टीम में अंतिम निर्णय लेना चाहती थी और सभी का ध्यान खुद पर केंद्रित कराना चाहती थी, अगर किसी के क्रियाकलाप मेरे रुतबे का अतिक्रमण करते थे, तो मैं उसे सताने के लिए चालें चलती थी, केवल तभी रुकती थी जब लोग मेरे अधीन हो जाते थे। मैं “सिर्फ एक अल्फा पुरुष हो सकता है,” “जो मेरा अनुपालन करते हैं उन्हें फूलने-फलने दो और जो मेरा विरोध करते हैं उन्हें नष्ट होने दो” और “सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ” जैसे शैतानी फलसफों के अनुसार जीती थी, मैं इन विचारों को अस्तित्व के अपने सिद्धांतों के रूप में लेती थी। मैंने उस समय पर विचार किया जब मैंने हमारे कर्तव्य पूरे करने के लिए एक बहन के साथ सहयोग किया था। वह मेरे दृष्टिकोणों से असहमत थी और मेरे निर्देशों का पालन नहीं करती थी और बदले में मैंने उसका जीना मुहाल कर दिया, वह मुझसे बेबस महसूस करने लगी और मेरे साथ कर्तव्य करने के लिए अनिच्छुक हो गई। अब शिन जी और कुछ अन्य लोगों के साथ सहयोग करते हुए मैं आत्म-केंद्रित बनी रही और दूसरों को अलग सुझाव देने की अनुमति नहीं देती थी और जब शिन जी मुझसे असहमत हुई, तो मुझे लगा कि मुझे निशाना बनाया जा रहा है, इसलिए मैंने अपना रुतबा और छवि बचाने के लिए उसे अपने विचार स्वीकारने को मजबूर किया, जिससे समस्याओं पर चर्चा करते समय लंबे समय तक गतिरोध बना रहा, लेकिन न केवल मैं आत्म-चिंतन करने में विफल रही, मैंने हमला करने और बदला लेने के अवसर भी तलाशे, जान-बूझकर शिन जी को अपमानित करने के लिए चीजों को मुश्किल बनाया। इससे शिन जी को बहुत नुकसान हुआ। मुझमें सच में कोई मानवता नहीं थी! मेरा टीम अगुआ का कर्तव्य निभा पाना परमेश्वर का उत्कर्ष था और परमेश्वर का इरादा था कि मैं सभी को साथ लेकर सत्य सिद्धांतों को खोजने, सामंजस्यपूर्ण सहयोग करने और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और जीवन प्रवेश और तकनीकी क्षेत्रों में प्रगति करने के लिए उनकी अगुआई करूँ, न कि एक अधिकारी के रूप में कार्य करके दूसरों को बेबस करूँ। मेरा लंबे समय तक कर्तव्य निभाने का मतलब यह नहीं था कि मैं सत्य समझती थी या मेरे पास वास्तविकता थी। दरअसल मैंने चीजों को व्यापक रूप से नहीं देखा और मेरी संगति और समझ हमेशा सही नहीं होते थे। मुझे हर किसी के सुझावों को अधिक सुनना चाहिए था और जो भी सत्य के अनुरूप संगति करे, उसके साथ चलना चाहिए था। हर किसी की काबिलियत और समझ अलग-अलग होती है, मुद्दों पर सभी के अलग-अलग परिप्रेक्ष्य होंगे, इसलिए स्वाभाविक रूप से अलग-अलग दृष्टिकोण सामने आएँगे और मुझे अपना रुतबा बचाने के लिए अलग-अलग विचारों को बाहर नहीं करना चाहिए और न ही उन्हें ठुकराना चाहिए, बल्कि सभी के साथ मिलकर सत्य सिद्धांत खोजने चाहिए। लेकिन मैंने अपने दृष्टिकोणों और समझ को सत्य सिद्धांत मान लिया, दूसरों को उन्हें स्वीकारने और समर्पण करने के लिए मजबूर किया और जिन्होंने नहीं सुना उन पर हमला किया। मेरे ये बुरे कर्म परमेश्वर के सामने अपराध थे! मैंने परमेश्वर के घर से निष्कासित किए गए कई मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा, जिन्होंने अपना रुतबा बचाने के लिए उन लोगों को दबाया और बाहर किया था जो उनका भेद पहचान सकते थे, जिससे कलीसिया के काम में बेलगाम अराजकता फैली और गंभीर विघ्न-बाधाएँ पैदा हुईं। फिर मैंने खुद को देखा और मुझे एहसास हुआ कि मैं भी टीम अगुआ के रूप में अपना रुतबा बचाने के लिए अलग विचारों वाली बहन पर हमला कर रही थी और उसे बाहर कर रही थी। मैं हमेशा उसका जीवन कठिन बनाने और उसे अलग-थलग करने के लिए खामियाँ ढूँढ़ती रहती थी। मेरा व्यवहार बिल्कुल मसीह-विरोधियों जैसा था! मैं वास्तव में दुर्भावनापूर्ण थी! अगर मैंने पश्चात्ताप न किया, तो मेरा भी वही अंजाम होगा जो उन मसीह-विरोधियों का हुआ था और परमेश्वर मुझे हटा देगा और मैं दंडित की जाऊँगी! इस एहसास के बाद मैं डर गई और पश्चात्ताप करना चाहा।
इसके बाद मैंने दूसरों के साथ सहयोग करने का मार्ग खोजा और परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “सामंजस्यपूर्ण सहयोग में कई चीजें शामिल होती हैं। कम से कम, इन कई चीजों में से एक है दूसरों को बोलने देना और विभिन्न सुझाव देने देना। अगर तुम वास्तव में विवेकशील हो, तो चाहे तुम जिस भी तरह का काम करते हो, तुम्हें पहले सत्य सिद्धांतों की खोज करना सीखना चाहिए, और तुम्हें दूसरों की राय लेने की पहल भी करनी चाहिए। अगर तुम हर सुझाव गंभीरता से लेते हो, और फिर एकदिल हो कर समस्याएँ हल करते हो, तो तुम अनिवार्य रूप से सामंजस्यपूर्ण सहयोग प्राप्त करोगे। इस तरह, तुम्हें अपने कर्तव्य में बहुत कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, उन्हें हल करना और उनसे निपटना आसान होगा। सामंजस्यपूर्ण सहयोग का यह परिणाम होता है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातों पर विवाद हो जाते हैं, लेकिन अगर काम पर उनका असर नहीं पड़ता, तो कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन, महत्वपूर्ण मामलों और कलीसिया के काम से जुड़े प्रमुख मामलों में तुम्हें आम सहमति पर पहुँचना चाहिए और उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। एक अगुआ या एक कार्यकर्ता के तौर पर अगर तुम हर समय अपने को तुम्हें दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी ओहदे की तरह मजे करोगे, हमेशा अपने रुतबे के फायदे उठाने में लगे रहोगे, हमेशा अपनी ही योजनाएँ बनाते रहोगे, अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की सोचकर मजे लेते रहोगे, हमेशा अपना ही अभियान चलाते रहोगे, और हमेशा ऊँचा रुतबा पाने, अधिकाधिक लोगों का प्रबंधन और उन पर नियंत्रण करने और अपनी सत्ता का दायरा बढ़ाने के प्रयास करोगे तो यह मुसीबत वाली बात है। एक महत्वपूर्ण कर्तव्य को एक सरकारी अधिकारी की तरह अपने पद का आनंद लेने का मौका मानना बहुत खतरनाक है। यदि तुम हमेशा इस तरह पेश आकर दूसरों के साथ सहयोग नहीं करना चाहते, अपनी सत्ता को कम कर इसे किसी दूसरे के साथ साझा नहीं करना चाहते, और यह नहीं चाहते कि कोई दूसरा तुम्हें पीछे धकेलकर शोहरत लूट ले, यदि तुम अकेले ही सत्ता के मजे लेना चाहते हो तो तुम एक मसीह-विरोधी हो। लेकिन अगर तुम अक्सर सत्य खोजते हो, अपने देह-सुख, अपनी प्रेरणाओं और विचारों से विद्रोह करने का अभ्यास करते हो, और दूसरों के साथ सहयोग करने की जिम्मेदारी ले पाते हो, दूसरों से राय लेने और खोजने के लिए अपना दिल खोलते हो, दूसरों के विचारों और सुझावों को ध्यान से सुनते हो और चाहे सलाह किसी ने भी दी हो, सही और सत्य के अनुरूप होने पर इसे स्वीकार लेते हो तो फिर तुम बुद्धिमानी के साथ और सही तरीके से अभ्यास कर रहे हो और तुम गलत मार्ग अपनाने से बच जाते हो, जो कि तुम्हारे लिए सुरक्षा कवच है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। “जब दो लोग एक कर्तव्य निभाने के लिए सहयोग करते हैं, तो कभी-कभी उनमें सिद्धांत के मामले पर विवाद हो जाएगा। उनके दृष्टिकोण अलग-अलग होंगे और उनकी राय भी अलग-अलग होगी। ऐसी स्थिति में क्या किया जा सकता है? क्या यह एक ऐसा मुद्दा है, जो अक्सर सामने आता है? यह एक सामान्य घटना है। सभी के दिमाग, क्षमताएँ, अंतर्दृष्टियाँ, आयु और अनुभव अलग-अलग होते हैं, और दो लोगों के बिल्कुल एक-जैसे विचार और दृष्टिकोण होना असंभव है, और इसलिए दो लोगों का अपनी राय और दृष्टिकोण में भिन्न हो सकना बहुत सामान्य घटना है। इससे ज्यादा सामान्य घटना नहीं हो सकती। इसमें हंगामा करने की कोई बात नहीं। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जब ऐसी समस्या पैदा हो, तब परमेश्वर के समक्ष सहयोग और एकता की खोज कैसे करें और विचारों और मतों में अखंडता कैसे लाएँ। विचारों और मतों की एकता प्राप्त करने का मार्ग क्या है? वह मार्ग है सत्य सिद्धांतों के प्रासंगिक पहलू खोजना, अपने या किसी अन्य के इरादों के अनुसार कार्य न करना, बल्कि परमेश्वर के इरादों का पता लगाना। सामंजस्यपूर्ण सहयोग का यही मार्ग है। जब तुम परमेश्वर के अभिप्रायों और उसके द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों की खोज करोगे, केवल तभी तुम एकता प्राप्त कर पाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अपने कर्तव्य में दूसरों के साथ सहयोग करने के लिए अभ्यास का मार्ग दिखाया। जब कोई मेरे विचारों से असहमत होता है, तो मुझे अपने रुतबे और पद को अलग रखना चाहिए और खुद पर जोर नहीं देना चाहिए और दूसरों के साथ प्रासंगिक सिद्धांत तलाशने चाहिए, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। चूँकि हम में से प्रत्येक के पास अलग-अलग काबिलियत और अनुभव होते हैं और एक ही मामले के बारे में प्रत्येक व्यक्ति की समझ अलग-अलग होती है, इसलिए परमेश्वर हमें एक-दूसरे का पूरक बनने और एक-दूसरे की ताकत और कमजोरियों की भरपाई करने के लिए एक साथ सहयोग करने की व्यवस्था करता है। मैंने उस समय पर विचार किया जब शिन जी ने एक अलग दृष्टिकोण रखा था। अगर मैं एक टीम अगुआ के बतौर अपने रुतबे को अलग रख पाती और उसके सुझावों को एक खोजपूर्ण हृदय से स्वीकार कर पाती, तो काम की प्रगति में देरी न होती। अपने रुतबे को बहुत अधिक महत्व देना और अपने रुतबे और छवि को लगातार बचाना मेरी ही गलती थी, क्योंकि इन चीजों ने काम में बाधा डाली। बाद में मैंने शिन जी से माफी माँगी और अपने बुरे कर्मों को उजागर किया, लेकिन मुझे हैरानी हुई कि शिन जी ने मेरे पहुँचाए नुकसान के बावजूद मेरे खिलाफ कोई नाराजगी नहीं रखी और हम फिर से सामान्य रूप से बातचीत करने में सक्षम थे। तकनीकी मामलों का अध्ययन करते समय और साथ मिलकर मुद्दों पर चर्चा करते समय मैंने बहनों के दृष्टिकोण सुनने पर भी ध्यान केंद्रित किया। कभी-कभी जब बहनें मेरे विचारों से असहमत होती थीं तो मुझे थोड़ा बुरा लगता था, लेकिन मैं परमेश्वर से प्रार्थना करने और खुद के खिलाफ विद्रोह करने, दूसरों के दृष्टिकोण खोजने और उन पर विचार करने में सक्षम थी; मुझे एहसास हुआ कि हर व्यक्ति की अपनी समझ होती है और वह चीजों पर कुछ रोशनी डाल सकता है और मैं दूसरों की संगति से लाभ उठा सकती हूँ।
बाद में धर्मोपदेशों का चयन करते हुए मुझे लगा कि किसी में समस्या है, तो मैंने उसे छोड़ दिया, लेकिन शिन जी ने अपनी समीक्षा में एक अलग दृष्टिकोण रखा। बहन के सुझाव के सामने मैंने कुछ हद तक प्रतिरोध महसूस किया, यह सोचा, “अगर मैं शिन जी के दृष्टिकोण से सहमत होती हूँ, तो क्या यह मुझे उसके मुकाबले कमतर दिखाएगा? दूसरी बहनें मेरे बारे में क्या सोचेंगी?” इस तरह सोचते हुए मैंने शिन जी के साथ कुछ देर बहस की, उसे मेरा दृष्टिकोण स्वीकारने के लिए मनाने की कोशिश की। मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा गलत थी और मैं अपने अभिमान की रक्षा करने और शिन जी को अपनी बात सुनने के लिए मजबूर करने की कोशिश कर रही थी, इसलिए मैंने मन ही मन प्रार्थना की, “परमेश्वर, मुझे शिन जी के अलग सुझाव स्वीकारने में कठिनाई हो रही है। मेरे दिल की रक्षा करो और मुझे खुद की अनदेखी करने, इससे सिद्धांतों की तलाश करना सीखने में मदद करो, ताकि मैं अलग-अलग दृष्टिकोणों से सामना होने पर उन्हें स्वीकारना और समर्पण करना शुरू करूँ और खुद को नकारना सीख सकूँ। अगर मेरा दृष्टिकोण अनुपयुक्त है, तो मैं दूसरों के सुझाव स्वीकारने के लिए तैयार हूँ।” फिर हमने प्रासंगिक सिद्धांतों पर विचार किया और एक साथ धर्मोपदेश की समीक्षा की और हमने पाया कि मैंने जिन मुद्दों का उल्लेख किया था वे वास्तविक समस्याएँ नहीं थीं और कुल मिलाकर धर्मोपदेश ठोस था। हालाँकि मेरा अभिमान थोड़ा आहत हुआ था, लेकिन मुझे बहुत खुशी थी क्योंकि अगर शिन जी के सुझाव न होते, तो मैंने एक अच्छा धर्मोपदेश नजरअंदाज कर दिया होता। दूसरों के सुझाव सुनने से न केवल मुझे बुराई करने से रोकने में मदद मिलती है, बल्कि मुझे अपनी कमियाँ ढूँढ़ने का भी मौका मिलता है, जो मेरी खामियों की भरपाई करता है।
इस अनुभव के जरिए मैंने देखा कि अगर मैं सही रास्ते पर नहीं चलती और अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण नहीं करती और केवल अपने रुतबे को बचाने की कोशिश करती हूँ, तो मैं किसी भी समय बुराई करने और परमेश्वर का प्रतिरोध करने में प्रवृत्त हो सकती हूँ, जिससे मैं लोगों की घृणा और परमेश्वर के तिरस्कार की पात्र बन सकती हूँ, जो मुझे ऐसे मार्ग पर ले जाएगा जहाँ से किसी की वापसी नहीं होती। केवल अभिमान और रुतबे को छोड़ने, अपने विचार अलग रखने, सत्य सिद्धांत तलाशने और दूसरों के साथ सहयोग करना सीखने से ही मुझे अप्रत्याशित लाभ मिल सकता है। मैंने सचमुच अलग-अलग सुझावों को स्वीकारने और सिद्धांतों के अनुसार काम करने के लाभों का अनुभव किया। परमेश्वर का धन्यवाद!