22. एक छोटी सी बात ने मेरे असली स्वभाव को बेनकाब कर दिया
अप्रैल 2021 में मैं कलीसिया में पाठ आधारित कार्य की सुपरवाइजर के रूप में कार्य कर रही थी। एक दिन मुझे ऊपरी अगुआई की तरफ से एक पत्र मिला जिसमें मुझसे कलीसिया की एक अगुआ लियू ली का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा गया था। वे चाहते थे कि मैं इसे तीन दिन में तैयार कर भेज दूँ। मैं इस बारे में अटकलें लगाने से खुद को रोक नहीं सकी, “ऊपरी अगुआई ने अचानक मुझे लियू ली का मूल्यांकन लिखने के लिए क्यों कहा है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसकी कार्यक्षमता कमजोर है और वे उसे बर्खास्त करने पर विचार करने के लिए मूल्यांकन जुटा रहे हैं? या हो सकता है वे उसमें बोझ उठाने की भावना और उसे वास्तविक कार्य करते देख रहे हों और उसे पदोन्नति देना चाहते हों? यदि लियू ली को पदोन्नत किया जाता है और मैं उसकी कमियों को उजागर करती हूँ तो क्या अगुआ यह नहीं कहेंगे कि लोगों के साथ मेरा व्यवहार पक्षपातपूर्ण होता है? क्या वे यह नहीं कहेंगे कि हर किसी में कमियाँ होती हैं और विकसित होने की संभावना वाले किसी व्यक्ति की ऐसी नकारात्मक छवि पेश करना भेद पहचानने की कमी दिखाता है? लेकिन अगर लियू ली को बर्खास्त किया जाना है और मैं उसकी खूबियों को उजागर करती हूँ तो क्या अगुआई यह नहीं कहेगी कि मेरे अंदर सच में काबिलियत की कमी है? क्या वे यह सवाल नहीं करेंगे कि मैं पाठ आधारित कार्य की सुपरवाइजर होने और अक्सर भाई-बहनों के साथ लोगों के भेद पहचानने के सिद्धांतों पर संगति करने के बावजूद जब किसी का मूल्यांकन करती हूँ तो बर्खास्त किए जाने वाले व्यक्ति का इतना सकारात्मक वर्णन करती हूँ और इससे पता लगता है कि मुझ में भेद पहचानने की कमी है तो फिर मैं ऐसी काबिलियत के साथ इतने महत्वपूर्ण कर्तव्य को कैसे निभा सकती हूँ? अगर ऐसा हुआ तो अगुआओं के मन में मेरी खराब छाप छूटेगी।” यह सोचकर मैंने खुद को चेताया कि मैं यह मामला सावधानी से संभालूँ और लियू ली का मूल्यांकन भेजने से पहले इसे सटीक रूप से लिखूँ। मुझे पता था कि लियू ली की सहयोगी वांग यिंग अगले दिन मुझसे मिलने आएगी, इसलिए मेरे मन में एक विचार आया। मैंने सोचा, “क्यों न मैं पहले वांग यिंग से कुछ सुराग पाने की कोशिश करूँ और माहौल को थोड़ा परखूँ ताकि यह पता चले कि लियू ली को पदोन्नत किया जा रहा है या बर्खास्त। अगर मैं समझ सकूँ कि लियू ली किस दिशा में जा रही है तो फिर उसका मूल्यांकन लिखना आसान हो जाएगा। अगर उसे पदोन्नति दी जा रही है तो मैं उसकी खूबियों पर जोर दूँगी और अगर उसे बर्खास्त किया जा रहा है तो मैं उसकी कमियों को उजागर करूँगी। मैं ऊपरी अगुआओं के इरादों के अनुसार मूल्यांकन लिखूँगी। इस तरह अगुआ निश्चित रूप से कहेंगे कि एक सुपरवाइजर के रूप में मुझमें भेद पहचानने की कुछ क्षमता है और मैं उनके सामने मूर्ख साबित होने से बच जाऊँगी।”
अगले दिन कलीसिया की दूसरी अगुआ वांग यिंग मुझसे कार्य संबंधी बातें करने आई लेकिन मैं उसे कार्य की रिपोर्ट करने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रही थी, बल्कि यही सोचे जा रही थी, “मैं ऐसा क्या कहूँ कि वांग यिंग मुझे यह बता दे कि लियू ली के साथ क्या होने वाला है और उसे इसका एहसास भी न हो?” वांग यिंग ने जैसे ही अपनी बात खत्म की, मैं सजग होकर भेद जानने वाले सवाल पूछने लगी, “आजकल केवल तुम ही हमारे साथ कार्य पर चर्चा करने आ रही हो। लियू ली क्यों नहीं आ रही? क्या वह व्यस्त है?” वांग यिंग ने धीरे से जवाब दिया, “वह दूसरे कार्यों में व्यस्त है।” मैंने अनुमान लगाया कि लियू ली को शायद बर्खास्त किया जा रहा है लेकिन मैं पूरी तरह से सुनिश्चित नहीं थी। मैंने उससे सीधे पूछने की हिम्मत नहीं की क्योंकि मुझे डर था कि कहीं वांग यिंग यह न कह दे कि मैं अपने कार्य पर ध्यान नहीं दे रही हूँ इसलिए मैं घुमा-फिराकर पूछती रही, “वहाँ तो केवल तुम दोनों ही अगुआ हो, तो फिर तुम सारे कार्यभार का प्रबंध कैसे करती हो?” यह पूछने के बाद मैंने वांग यिंग के हावभाव और अभिव्यक्ति को ध्यान से देखा और यह जानने की कोशिश की कि क्या मुझे कोई ऐसा छोटा सा भी संकेत मिल सकता है जिससे मैं यह तय कर सकूँ कि लियू ली के साथ क्या हो रहा है। लेकिन मेरी उम्मीद के विपरीत वांग यिंग ने बस यह जवाब दिया, “आजकल कार्य बहुत व्यस्त चल रहा है।” उसके जवाब से मुझे कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिली जिससे मैं बहुत चिंतित हो गई। अब मैं क्या करूँ? मुझे अभी भी यह पता नहीं था कि लियू ली को पदोन्नत किया जा रहा है या बर्खास्त। मूल्यांकन सौंपने की अंतिम तिथि नजदीक आ रही थी लेकिन मैं इसे लिखने का साहस नहीं कर पा रही थी, क्योंकि मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि इसे सही ढंग से कैसे लिखा जाए। मैंने सोचा, “क्यों न मैं जो जानती हूँ वही लिख दूँ और फिर अगुआई को समझा दूँ कि मैं लियू ली से केवल कुछ ही बार मिली हूँ और मैं उसे अच्छी तरह से नहीं जानती इसलिए हो सकता है कि मेरा मूल्यांकन सटीक न हो?” लेकिन फिर मैंने इस बारे में दोबारा सोचा, “क्या ऊपरी अगुआ यह नहीं कहेंगे कि एक सुपरवाइजर के रूप में अगर मैं किसी व्यक्ति से कई बार मिलने के बाद भी उसका भेद नहीं पहचान पाई, तो मेरी काबिलियत कमजोर है और मैं चीजों को भली-भाँति समझने में असमर्थ हूँ? यह तो बहुत शर्मनाक बात होगी! छोड़ो। बेहतर होगा कि मैं मूल्यांकन ही न लिखूँ, ताकि ऊपरी अगुआई यह जान ही न सके कि मुझमें भेद पहचानने की क्षमता की कमी है या नहीं।” इसलिए मैंने मूल्यांकन नहीं लिखा। लेकिन बाद में जब मैंने इस मामले के बारे में सोचा तो मुझे बहुत अपराधबोध हुआ। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर का घर हमसे अपेक्षा करता है कि हम लोगों का निष्पक्ष रूप से और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करें, उसका उद्देश्य मुख्य रूप से यह समझना है कोई व्यक्ति विकास और चयन के सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं या यह निगरानी या जाँच करना है कि क्या कोई व्यक्ति वास्तविक कार्य कर रहा है या नहीं और अपने काम के लिए योग्य है या नहीं। किसी कार्य के लिए सही व्यक्ति का चयन करना बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि यह सीधे कार्य की प्रभावशीलता को प्रभावित करता है और परमेश्वर के घर के कार्य की सुरक्षा से जुड़ा होता है और साथ ही मूल्यांकन लिखने से मुझे एक ईमानदार व्यक्ति बनने के सत्य में प्रवेश मिल सकता था। तो फिर मैं कलम उठाने से इतनी अनिच्छुक क्यों थी? मैं इतनी परेशान क्यों थी? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर लियू ली का मूल्यांकन लिखने के काम ने मुझे बहुत उलझन में डाल दिया है। मैं इस विषय में हिचकिचा रही हूँ और अत्यधिक सतर्क हूँ और मुझे डर है कि अगर मैंने भेद परखने में कमी कर दी और मूल्यांकन गलत निकला तो अगुआ मुझे तुच्छ समझेंगे, इसलिए मैं इसे लिखने के लिए तैयार नहीं हूँ। हे परमेश्वर, मेरा भ्रष्ट स्वभाव पहचानने में मार्गदर्शन करो।”
मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति अंधे होते हैं, उनके हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं होता। मसीह से सामना होने पर वे उसे एक साधारण व्यक्ति से अलग नहीं मानते, लगातार उसकी अभिव्यक्ति और स्वर से संकेत लेते रहते हैं, स्थिति के अनुरूप अपनी धुन बदल लेते हैं, कभी नहीं कहते कि वास्तव में क्या हो रहा है, कभी कुछ ईमानदारी से नहीं कहते, केवल खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते रहते हैं, अपनी आँखों के सामने खड़े व्यावहारिक परमेश्वर को धोखा देने और उसकी आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करते हैं। उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल भी नहीं होता। वे परमेश्वर के साथ दिल से बात करने, कुछ भी वास्तविक बात कहने तक में सक्षम नहीं होते हैं। वे ऐसे बात करते हैं जैसे एक साँप रेंगता है, लहरदार और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता चुनते हुए। उनके शब्दों का अंदाज और दिशा किसी खंभे पर चढ़ती खरबूजे की बेल की तरह होते हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम कहते हो कि किसी में भरपूर योग्यता है और उसे आगे बढ़ाया जा सकता है, तो वे फौरन बताने लगते हैं कि वे कितने अच्छे हैं, और उनमें क्या अभिव्यक्त और उजागर होता है; और अगर तुम कहते हो कि कोई बुरा है, तो वे यह कहने में देर नहीं लगाते कि वे कितने बुरे और दुष्ट हैं, और वे किस तरह कलीसिया में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते रहते हैं। जब तुम किसी वास्तविक स्थिति के बारे में पूछते हो तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; वे टालमटोल करते रहते हैं और इंतजार करते हैं कि तुम खुद ही कोई निष्कर्ष निकाल लो, वे तुम्हारे शब्दों का अर्थ टटोलते हैं, ताकि अपने शब्दों को तुम्हारे विचारों के अनुरूप ढाल सकें। वे जो कुछ भी कहते हैं वे सिर्फ सुनने में अच्छे लगने वाले शब्द होते हैं, चापलूसी और निचले दर्जे की चाटुकारिता होती है; उनके मुँह से एक भी ईमानदार शब्द नहीं निकलता। वे इसी तरह लोगों के साथ बातचीत करते हैं और परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हैं—वे इतने धूर्त होते हैं। यही एक मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो))। “शैतान के शब्दों की एक निश्चित विशेषता है : शैतान जो कुछ कहता है, वह तुम्हें अपना सिर खुजलाता छोड़ देता है, और तुम उसके शब्दों के स्रोत को समझने में असमर्थ रहते हो। कभी-कभी शैतान के इरादे होते हैं और वह जानबूझकर बोलता है, और कभी-कभी वह अपनी प्रकृति से नियंत्रित होता है, जिससे ऐसे शब्द अनायास ही निकल जाते हैं, और सीधे शैतान के मुँह से निकलते हैं। शैतान ऐसे शब्दों को तौलने में लंबा समय नहीं लगाता; बल्कि वे बिना सोचे-समझे व्यक्त किए जाते हैं। जब परमेश्वर ने पूछा कि वह कहाँ से आया है, तो शैतान ने कुछ अस्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया। तुम बिल्कुल उलझन में पड़ जाते हो, और नहीं जान पाते कि आखिर वह कहाँ से आया है। क्या तुम लोगों के बीच में कोई ऐसा है, जो इस प्रकार से बोलता है? यह बोलने का कैसा तरीका है? (यह अस्पष्ट है और निश्चित उत्तर नहीं देता।) बोलने के इस तरीके का वर्णन करने के लिए हमें किस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए? यह ध्यान भटकाने वाला और गलत दिशा दिखाने वाला है। मान लो, कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि दूसरे यह जानें कि उसने कल क्या किया था। तुम उससे पूछते हो : ‘मैंने तुम्हें कल देखा था। तुम कहाँ जा रहे थे?’ वह तुम्हें सीधे यह नहीं बताता कि वह कहाँ गया था। इसके बजाय वह कहता है : ‘कल क्या दिन था। बहुत थकाने वाला दिन था!’ क्या उसने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया? दिया, लेकिन वह उत्तर नहीं दिया, जो तुम चाहते थे। यह मनुष्य के बोलने की चालाकी की ‘प्रतिभा’ है। तुम कभी पता नहीं लगा सकते कि उसका क्या मतलब है, न तुम उसके शब्दों के पीछे के स्रोत या इरादे को ही समझ सकते हो। तुम नहीं जानते कि वह क्या टालने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि उसके हृदय में उसकी अपनी कहानी है—वह कपटी है। क्या तुम लोगों में भी कोई है, जो अक्सर इस तरह से बोलता है? (हाँ।) तो तुम लोगों का क्या उद्देश्य होता है? क्या यह कभी-कभी तुम्हारे अपने हितों की रक्षा के लिए होता है, और कभी-कभी अपना गौरव, अपनी स्थिति, अपनी छवि बनाए रखने के लिए, अपने निजी जीवन के रहस्य सुरक्षित रखने के लिए? उद्देश्य चाहे कुछ भी हो, यह तुम्हारे हितों से अलग नहीं है, यह तुम्हारे हितों से जुड़ा हुआ है। क्या यह मनुष्य का स्वभाव नहीं है? ऐसी प्रकृति वाले सभी व्यक्ति अगर शैतान का परिवार नहीं हैं, तो उससे घनिष्ठ रूप से जुड़े अवश्य हैं। हम ऐसा कह सकते हैं, है न? सामान्य रूप से कहें, तो यह अभिव्यक्ति घृणित और वीभत्स है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IV)। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के साथ अपने व्यवहार में हमेशा धोखेबाजी करते हैं और वे पहले परमेश्वर की अभिव्यक्ति को देखते हैं और फिर यह तय करते हैं कि कैसे कार्य करना है। वे मसीह के सामने ईमानदारी से बात नहीं करते और परमेश्वर को धोखा देने के लिए मानवीय संकीर्ण सोच का उपयोग करते हैं। उनका स्वभाव वास्तव में कपटी और दुष्ट होता है और इसके कारण परमेश्वर उनसे घिनाता है। इस बारे में सोचने पर मुझे एहसास हुआ कि मैंने भी वैसा ही व्यवहार किया था। ऊपरी अगुआई ने मुझसे लियू ली का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा था और चाहे लियू ली को पदोन्नत किया जा रहा हो या बर्खास्त, मुझे उसके बारे में अपनी समझ के आधार पर निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ रूप से मूल्यांकन लिखना चाहिए था क्योंकि इसका उद्देश्य कलीसिया के कार्य की रक्षा करना था। लेकिन ईमानदारी से बात कहने और अपनी जानकारी को निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीके से लिखने और अपनी जिम्मेदारी निभाने के बारे में सोचने के बजाय मैंने सबसे पहले यह अटकल लगाई कि यह मूल्यांकन कराने का क्या मतलब है और कैसे मैं इसे अपने फायदे के हिसाब से लिखूँ। मुझे इस बात का डर था कि अगर मेरा मूल्यांकन गलत निकला तो ऊपरी अगुआई मेरी कमियों को देख लेगी और सोचेगी कि मुझमें भेद पहचानने की कमी है और उसके मन पर मेरी गलत छाप छूटेगी। अगुआई की नजरों में अपनी छवि और रुतबे की रक्षा करने के लिए मैं अगुआई की मंशा को समझना चाहती थी और उसी के अनुसार कार्य करना चाहती थी। जब वांग यिंग मेरे कार्य की जाँच करने आई तो मैं उसे सही रिपोर्ट देने पर ध्यान नहीं दे रही थी बल्कि मैं यह सोचते हुए अपने दिमाग पर जोर डाल रही थी कि मैं कैसे वांग यिंग से पता लगाऊँ कि लियू ली के साथ क्या हो रहा है। अगर लियू ली को पदोन्नत किया जा रहा होता तो मैं यह संकेत पाकर उसकी तारीफ लिखती, उसकी खूबियों को उजागर करती और उसकी कमियों को नजरअंदाज कर देती लेकिन अगर लियू ली को बर्खास्त किया जा रहा होता तो मैं उसकी कमियों पर जोर देती। मैंने सोचा कि ऐसा मूल्यांकन सौंपने से ऊपरी अगुआई को लगेगा कि मैं एक अच्छी काबिलियत वाली सुपरवाइजर हूँ, जो लोगों को सही तरीके से देखती है और मुझमें इतनी भी कोई कमी नहीं है। जब मैं किसी का मूल्यांकन करती थी कि वह अच्छा है या बुरा, तो यह तथ्यों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर नहीं होता था, बल्कि इस पर निर्भर होता था कि उस व्यक्ति को पदोन्नत किया जा रहा है या बर्खास्त। जिस दिशा में हवा चल रही हो मैं बस उसी दिशा में झुक रही थी जिससे मेरा मूल्यांकन न तो निष्पक्ष था और न ही सत्य पर आधारित था। हर व्यक्ति में खूबियाँ और कमियाँ दोनों होती हैं इसलिए मुझे मूल्यांकन निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ और सत्यता के साथ लिखना चाहिए था। अगर कोई व्यक्ति अच्छा नहीं है और मैं उसके बारे में एक सकारात्मक मूल्यांकन लिखती हूँ तो फिर मैं धोखा दे रही हूँ और अगर इससे अन्य लोग गुमराह होते हैं और इसके कारण नकारात्मक परिणाम निकलते हैं और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ और बाधा पड़ती है तो मैं बुराई कर रही हूँ और परमेश्वर का विरोध कर रही हूँ। लेकिन अगर कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और मैं उसके बारे में एक नकारात्मक मूल्यांकन लिखती हूँ तो मैं उसके साथ अन्याय कर रही हूँ, उसे नुकसान पहुँचा रही हूँ और उसे प्रशिक्षण का अवसर देने से वंचित कर रही हूँ। अगुआओं ने मुझसे किसी व्यक्ति का मूल्यांकन इसलिए माँगा था ताकि वे अधिकांश लोगों के मूल्यांकन के आधार पर उसकी जाँच कर सकें और उसे समग्र रूप से परख सकें, क्योंकि इससे सटीकता और निष्पक्षता सुनिश्चित होती है। इसलिए हर मूल्यांकन महत्वपूर्ण होता है। लेकिन मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव से प्रेरित थी, और अपने ही लाभ के लिए किसी की खूबियों और कमियों को बढ़ा-चढ़ाकर या कम करके दिखाने की कोशिश कर रही थी और यह बात लोगों को गुमराह कर सकती थी और अगुआई के लिए किसी व्यक्ति को सटीक और निष्पक्ष रूप से समझना कठिन बना सकती थी। मैं लोगों को चुनने और विकसित करने संबंधी परमेश्वर के घर के कार्य में अनजाने में ही रुकावट और गड़बड़ी पैदा कर रही थी। मैंने देखा कि मेरा स्वभाव एक मसीह-विरोधी जैसा ही है और मैं अपने ही स्वार्थ के लिए बोलने और सुनने की कोशिश कर रही थी, मैं इशारों-इशारों में बातें समझने की कोशिश कर रही थी और जानकारी इकट्ठा करने के लिए बहुत मेहनत कर रही थी। मैं बहुत बड़ी धोखेबाज थी और बिना किसी गरिमा या ईमानदारी के जी रही थी। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीजें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर की हमसे बहुत बड़ी अपेक्षाएँ नहीं होती हैं। वह बस यह उम्मीद करता है कि हम निष्कपट होकर बात और कार्य करें, सच को सच कहें और एक ईमानदार व्यक्ति बनें जो व्यावहारिक और सच्चा हो और झूठ बोलने, धोखा देने और बातें छुपाने से बचें। मैं लियू ली को अच्छी तरह से नहीं जानती थी और मैं उसका सही तरीके से भेद नहीं पहचान सकती थी इसलिए मुझे जो भी जानकारी थी उसके आधार पर मूल्यांकन लिखना चाहिए था और सत्य बोलना चाहिए था। मेरी कोई छुपी हुई मंशा नहीं होनी चाहिए थी और मुझे किसी भी तरह की धोखेबाजी नहीं करनी चाहिए थी और बस दूसरों के साथ व्यावहारिक और निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए था। लेकिन मेरे इरादे सही नहीं थे और मैंने इस मूल्यांकन का उपयोग ऊपरी अगुआई से प्रशंसा पाने के लिए करना चाहा और इसीलिए मैंने उनकी पसंद और इरादे भाँपने की कोशिश की और उनकी इच्छाओं के अनुसार मूल्यांकन लिखने का निर्णय लिया। अगुआ मुझसे मूल्यांकन माँगकर किसी व्यक्ति की जाँच करना चाहते थे लेकिन उन्हें मुझसे एक भी ईमानदारी भरी बात नहीं मिली। ऐसा रवैया एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करने से बहुत दूर था! इस हकीकत को समझने के बाद मुझे अपने धोखेबाज स्वभाव से घृणा होने लगी।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या है? उदाहरण के लिए जब तुम किसी का मूल्यांकन करते हो—यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से संबंधित है। तुम उसका मूल्यांकन कैसे करते हो? (हमें ईमानदार, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए और हमारे शब्द हमारी भावनाओं पर आधारित नहीं होने चाहिए।) जब तुम ठीक वही कहते हो जो तुम सोचते हो और जो तुमने देखा है, तो तुम ईमानदार होते हो। सबसे पहले, ईमानदार होने का अभ्यास और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण एक सीध में होते हैं। परमेश्वर लोगों को यही सिखाता है; यह परमेश्वर का मार्ग है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। क्या ईमानदार होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का अंग नहीं है? और क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना नहीं है? (हाँ, बिल्कुल है।) अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुमने जो देखा है और जो तुम सोचते हो, वह वो नहीं होता जो तुम्हारे मुँह से निकलता है। कोई तुमसे पूछता है, ‘उस व्यक्ति के बारे में तुम्हारी क्या राय है? क्या वह कलीसिया के कार्य में जिम्मेदार है?’ और तुम उत्तर देते हो, ‘वह बहुत अच्छा है, वह मुझसे भी अधिक जिम्मेदार है, मुझसे भी ज्यादा काबिल है, उसकी मानवता भी अच्छी है। वह परिपक्व और स्थिर है।’ लेकिन तुम अपने दिल में क्या यही सोच रहे होते हो? तुम वास्तव में यह देखते हो कि भले ही वह व्यक्ति काबिल है, लेकिन वह भरोसेमंद नहीं, बल्कि कपटी और बहुत मतलबी है। अपने मन में तुम वास्तव में यही सोच रहे होते हो, लेकिन बोलने की बारी आने पर तुम्हारे मन में आता है कि ‘मैं सच नहीं बोल सकता, मुझे किसी को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए,’ इसलिए तुम जल्दी से कुछ और कह देते हो, तुम उसके बारे में कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हो, और तुम जो कुछ भी कहते हो, वह वास्तव में वह नहीं होता जो तुम सोचते हो, वह सब झूठ और फर्जीवाड़ा होता है। क्या यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? नहीं। तुमने शैतान का मार्ग अपनाया है, राक्षसों का मार्ग अपनाया है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? यह सत्य है, यह वह आधार है जिसके अनुसार लोगों को आचरण करना चाहिए, और यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग है। भले ही तुम किसी अन्य व्यक्ति से बात कर रहे हो, लेकिन परमेश्वर भी सुनता है, तुम्हारा दिल देख रहा है, और तुम्हारे दिल की जाँच-पड़ताल करता है। लोग वह सुनते हैं जो तुम कहते हो, पर परमेश्वर तुम्हारा दिल जाँचता है। क्या लोग इंसान के दिल की जाँच-पड़ताल करने में सक्षम हैं? ज्यादा से ज्यादा, लोग यह देख सकते हैं कि तुम सच नहीं बोल रहे; वे वही देख सकते हैं, जो सतह पर होता है; लेकिन परमेश्वर ही तुम्हारे दिल की गहराई में देख सकता है। केवल परमेश्वर ही देख सकता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, तुम्हारे दिल में कौन-सी छोटी योजनाएँ, कौन-से कपटी तरीके, कौन-से सक्रिय विचार हैं। यह देखकर कि तुम सच नहीं बोल रहे, परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या राय बनाता है, वह तुम्हारा क्या मूल्यांकन करता है? यही कि इस मामले में तुमने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि तुमने सच नहीं बोला” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से यह स्पष्ट है कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है। ईमानदार लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है और वे उसे महान मानकर सम्मान देते हैं, फिर चाहे वे किसी भी मामले का सामना क्यों न कर रहे हों। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मूल्यांकन लिखना परमेश्वर का भय मानने के सत्य से जुड़ा हुआ है, इसलिए मैंने इस मूल्यांकन को गंभीरता से नहीं लिया। अब लियू ली का मूल्यांकन करने के विषय में चिंतन करते हुए मैंने देखा कि लियू ली के कर्तव्य में कुछ कमियाँ और कमजोरियाँ थीं, लेकिन उसमें कुछ खूबियाँ भी थीं अगर मैं उसका सही ढंग से भेद नहीं पहचान सकी थी तो मुझे वो सब सीधे रिपोर्ट कर देना चाहिए था जो कुछ भी मैंने देखा था और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार करना चाहिए था, और ईमानदार बनना चाहिए था न कि धोखेबाज। यही सत्य बोलने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने का सही अर्थ था। लेकिन अपने आत्मसम्मान और रुतबे की रक्षा करने के लिए मुझे डर था कि अगर मेरा मूल्यांकन गलत निकला तो ऊपरी अगुआ शायद मेरी असलियत जान लेंगे और मैं प्रतिष्ठा खोने और तुच्छ समझे जाने से भयभीत थी, इसलिए मैंने चालाकी का सहारा लिया और सत्य नहीं बोला। मैंने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए मूल्यांकन लिखने से इंकार कर दिया। मैं कितनी बड़ी धोखेबाज और शंकालु थी! मैं ईमानदार बनने और सत्य बोलने के लिए तैयार नहीं थी जो यह दर्शाता है कि मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था! जिन लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है वे दूसरों का मूल्यांकन करते समय सतर्क और सावधान रहते हैं और वे किसी भी व्यक्ति के बारे में अपनी समझ और विचारों को व्यावहारिक रूप से व्यक्त कर सकते हैं। वे ऐसा व्यक्तिगत उद्देश्य के बिना कर सकते हैं और उतना ही बोलते हैं जितना उन्हें पता होता है और न तो कुछ बढ़ा-चढ़ाकर कहते हैं और न ही कुछ छुपाते हैं। यही एक ईमानदार व्यक्ति का व्यवहार होता है। लेकिन जिन लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता वे दूसरों का मूल्यांकन करते समय यह नहीं सोचते कि उनके शब्द तथ्यों पर आधारित हैं या नहीं या क्या वे परमेश्वर को नाराज कर रहे हैं या नहीं और वे बस वही कहते हैं जो उनके लिए लाभकारी होता है और उनके मुँह से एक भी सच नहीं निकलता। ऐसे लोगों का स्वभाव धोखेबाजी वाला होता है। इस बार यह मूल्यांकन लिखकर मैं बेनकाब हो गई और मैंने देखा कि मैं अपने कर्तव्य में परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार नहीं कर पाई और मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था और मैंने इस आधार पर कार्य किया कि मेरे लिए क्या फायदेमंद है, मैंने सत्य के अभ्यास से ज्यादा तरजीह अपने हितों को दी। इसका यह मतलब था कि मैं परमेश्वर का विरोध करने के मार्ग पर चल रही थी। मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि परमेश्वर में इतने साल विश्वास रखने के बाद भी मेरा शैतानी स्वभाव ज्यों का त्यों रहेगा और जब अपने हितों की बात आएगी तो मैं अभी भी कपटी हो सकती हूँ। अगर मैं ऐसे ही चलती रही तो यह बहुत ही खतरनाक होगा! पश्चात्ताप करने के लिए मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे मार्गदर्शन माँगा ताकि मैं अपने शैतानी स्वभाव को गहराई से समझूँ।
एक दिन मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “दुष्टता को पहचानना सबसे कठिन है, क्योंकि यह मनुष्य की प्रकृति बन गया है और वे इसे गौरवान्वित करने लगते हैं और अधिक दुष्टता भी उन्हें दुष्टता नहीं लगेगी। अतः दुष्ट स्वभाव की पहचान करना हठधर्मी स्वभाव की पहचान करने से भी अधिक कठिन है। कुछ लोग कहते हैं : ‘इसे पहचानना आसान कैसे नहीं है? सभी लोगों की दुष्ट इच्छाएँ होती हैं। क्या यह दुष्टता नहीं है?’ यह सतही है। असली दुष्टता क्या है? प्रकट होने पर कौन-सी अवस्थाएँ दुष्ट होती हैं? जब लोग अपने दिल की गहराइयों में छिपे दुष्ट और शर्मनाक इरादे छिपाने के लिए प्रभावशाली लगने वाले कथनों का उपयोग करते हैं और फिर दूसरों को यह विश्वास दिलाते हैं कि ये कथन बहुत अच्छे, ईमानदार और वैध हैं, और अंततः अपने गुप्त मकसद हासिल कर लेते हैं, तो क्या यह एक दुष्ट स्वभाव है? इसे दुष्ट क्यों कहा जाता है और कपट करना क्यों नहीं कहा जाता? स्वभाव और सार के अनुसार कपट उतना बुरा नहीं होता। दुष्ट होना कपटी होने से ज्यादा गंभीर है, यह एक ऐसा व्यवहार है जो कपट से ज्यादा घातक और खराब है, और औसत व्यक्ति के लिए इसे समझना मुश्किल है। उदाहरण के लिए, साँप ने हव्वा को लुभाने के लिए किस तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया? दिखावटी शब्द, जो सुनने में सही लगते हैं और तुम्हारी भलाई के लिए कहे गए प्रतीत होते हैं। तुम नहीं जानते कि इन शब्दों में कुछ गलत है या इनके पीछे कोई द्वेषपूर्ण मंशा है, और साथ ही, तुम शैतान द्वारा दिए गए इन सुझावों को छोड़ने में असमर्थ रहते हो। यह प्रलोभन है। जब तुम प्रलोभन में पड़ते हो और इस तरह के शब्द सुनते हो, तो तुम प्रलोभन में आए बिना नहीं रह पाते और तुम्हारे जाल में फँसने की संभावना है, जिससे शैतान का लक्ष्य पूरा हो जाएगा। इसे ही दुष्टता कहा जाता है। साँप ने हव्वा को लुभाने के लिए इसी तरीके का इस्तेमाल किया था। क्या यह एक प्रकार का स्वभाव है? (हाँ।) इस प्रकार का स्वभाव कहाँ से आता है? यह साँप से, शैतान से आता है। इस प्रकार का दुष्ट स्वभाव मनुष्य की प्रकृति के भीतर मौजूद है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है)। परमेश्वर उजागर करता है कि जब लोग एक-दूसरे के साथ बातचीत करते हैं तो वे अक्सर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और ऐसा लगता है कि वे आपस में उचित संवाद कर रहे हैं लेकिन वास्तव में यह छल-कपट से भरा होता है। वे अपनी गुप्त मंशाओं को छिपाने और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अच्छे और सही लगने वाले कथनों का प्रयोग करते हैं। यह एक दुष्ट स्वभाव है और परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे अधिक घृणा करता है और चिढ़ता है। इस मुकाम पर मुझे एहसास हुआ कि मेरे स्वभाव का दुष्ट होना कितनी गंभीर बात थी। जब वांग यिंग मेरे कार्य की जाँच करने आई तो लियू ली के प्रति अपनी चिंता दिखाने के बहाने मैंने जानबूझकर यह कहा कि मैंने लियू ली को लंबे समय से नहीं देखा और पूछा कि क्या वह कार्य में व्यस्त है। यह प्रश्न लियू ली के लिए जायज चिंता जताने जैसा लग रहा था लेकिन वास्तव में मैं इसका इस्तेमाल वांग यिंग से वह जानकारी निकालने के लिए कर रही थी जो मैं जानना चाहती थी ताकि वह मुझे लियू ली के बारे में बता दे। लेकिन जब वांग यिंग ने मेरे सवालों का अनुकूल जवाब नहीं दिया तो मैंने अपनी रणनीति बदल दी और कलीसिया के कार्य के प्रति चिंता जताने के बहाने लियू ली के बारे में पूछताछ करनी शुरू कर दी। मैंने देखा कि मैं अपना मकसद हल करने के लिए लगातार अपनी कथनी-करनी में षड्यंत्र रच रही थी और वांग यिंग को पता चलने दिए बिना उसके लिए जाल बिछा रही थी, एक सामान्य सी बातचीत का उपयोग करके उसे वह बताने के लिए उकसा रही थी जो मैं सुनना चाहती थी ताकि मुझे वह जानकारी मिल सके जिसकी मुझे तलाश थी। बाहर से मैं शांत और सामान्य दिख रही थी लेकिन अंदर से मैं लगातार साजिशें और योजनाएँ बना रही थी। दूसरों के साथ बात करते समय या बातचीत करते समय मेरे अंदर कोई ईमानदारी नहीं थी बल्कि इसके बजाय मैं अपने शैतानी स्वभाव पर भरोसा कर दूसरों के खिलाफ साजिश रच रही थी और उन्हें बहका रही थी। मैंने देखा कि मेरी प्रकृति सचमुच दुष्ट थी! ठीक वैसे ही जैसे साँप ने हव्वा को भलाई और बुराई के ज्ञान के वृक्ष से फल खाने के लिए ललचाया था, उसके शब्द भी सही लग रहे थे लेकिन उसने चतुराई से और अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को गुमराह किया और अपने असली इरादे छुपाए रखे। यह शैतान का दुष्ट स्वभाव है। क्या मेरी कथनी-करनी की प्रकृति भी बिल्कुल साँप जैसी नहीं थी? यह जीने का कैसा धोखेबाजी और चालाकी भरा तरीका था! यह तो केवल एक मूल्यांकन लिखने का मामला था और इसके पीछे कोई बड़ा स्वार्थ नहीं छुपा था, लेकिन मैं इतने घृणित और नीच तरीके अपनाकर छल-कपट कर रही थी। अगर मेरा यह स्वभाव नहीं बदला तो जब किसी बड़े स्वार्थ से जुड़ा मामला आएगा तो मैं निश्चित ही लोगों को धोखा दूँगी और अपने दुष्ट और धोखेबाजी वाले स्वभाव के साथ परमेश्वर को भी धोखा दूँगी और इससे भी बड़ी बुराइयाँ करूँगी, जो परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करेगा। मैंने देखा कि अगर मेरा दुष्ट और धोखेबाज स्वभाव नहीं बदला, तो यह मेरे लिए कितना खतरनाक होगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मेरे राज्य को उन लोगों की ज़रूरत है जो ईमानदार हैं, उन लोगों की जो पाखंडी और धोखेबाज़ नहीं हैं। क्या सच्चे और ईमानदार लोग दुनिया में अलोकप्रिय नहीं हैं? मैं ठीक विपरीत हूँ। ईमानदार लोगों का मेरे पास आना स्वीकार्य है; इस तरह के व्यक्ति से मुझे प्रसन्नता होती है, और मुझे इस तरह के व्यक्ति की ज़रूरत भी है। ठीक यही तो मेरी धार्मिकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 33)। “उस अवधि के दौरान जब कोई व्यक्ति ईमानदार बनने का अभ्यास कर रहा होता है, कई विफलताओं और ऐसे क्षणों का सामना करना अपरिहार्य है, जिनमें उसकी भ्रष्टता प्रकट होती है। ऐसे अवसर आ सकते हैं जब व्यक्ति के शब्द और विचार आपस में मेल न खाते हों, या वे दिखावे और धोखे के क्षण हो सकते हैं। लेकिन चाहे तुम पर कुछ भी आ पड़े, अगर तुम सच बताना चाहते हो और एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहते हो, तो तुम्हें अपना अभिमान और शान त्यागने में सक्षम होना चाहिए। जब तुम्हें कोई बात समझ न आए, तो कहो कि तुम नहीं समझते; जब तुम किसी चीज के बारे में अस्पष्ट हो, तो कहो कि तुम अस्पष्ट हो। इस बात से मत डरो कि दूसरे तुम्हें तुच्छ समझेंगे या तुम्हारा अनादर करेंगे। लगातार दिल से बोलने और इस तरह सच बताने से तुम्हें अपने दिल में खुशी और शांति मिलेगी, और स्वतंत्रता और मुक्ति का बोध होगा, और अभिमान और शान अब तुम्हें बेबस नहीं करेंगे। तुम चाहे जिसके साथ भी बातचीत करो, तुम जो वास्तव में सोचते हो अगर उसे व्यक्त कर सकते हो, दूसरों के सामने अपना दिल खोल सकते हो, और उन चीजों को जानने का दिखावा नहीं करते जिन्हें तुम नहीं जानते, तो यह एक ईमानदार रवैया है। कभी-कभी लोग तुम्हें इसलिए नीची निगाह से देखते हुए मूर्ख कह सकते हैं कि तुम हमेशा सच बोलते हो। ऐसी स्थिति में तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, ‘भले ही सभी मुझे मूर्ख कहें, मैं एक ईमानदार व्यक्ति बनने का संकल्प लेता हूँ, धोखेबाज व्यक्ति बनने का नहीं। मैं सच्चाई के साथ और तथ्यों के अनुसार बोलूँगा। हालाँकि मैं परमेश्वर के सामने गंदा, भ्रष्ट और बेकार हूँ, फिर भी मैं बिना किसी दिखावे या स्वाँग के सच बोलूँगा।’ अगर तुम इस तरह बोलोगे, तो तुम्हारे हृदय में स्थिरता और शांति रहेगी। एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए तुम्हें अपना अभिमान और शान छोड़नी चाहिए, और सच बोलने और अपनी सच्ची भावनाएँ व्यक्त करने के लिए तुम्हें दूसरों द्वारा किए जाने वाले उपहास और अवमानना से डरना नहीं चाहिए। अगर दूसरे तुम्हें मूर्ख भी समझें, तो भी तुम्हें बहस या अपना बचाव नहीं करना चाहिए। अगर तुम इस तरह से सत्य का अभ्यास कर सको, तो तुम एक ईमानदार व्यक्ति बन सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर स्पष्ट रूप से बताता है कि वह किससे प्रेम करता है और किससे घृणा करता है। परमेश्वर केवल ईमानदार लोगों को स्वीकारता और आशीष देता है। परमेश्वर पवित्र है और उसमें कोई छल या धोखा नहीं है। परमेश्वर के वचन हमेशा सच्चे और स्पष्ट होते हैं। जैसे परमेश्वर ने आदम और हव्वा को अदन के बाग में स्पष्ट रूप से निर्देश दिया था और उन्हें बताया था कि वे किस वृक्ष का फल खा सकते हैं और किसका फल खाने से उनकी मृत्यु हो जाएगी। परमेश्वर के निर्देश स्पष्ट थे और उनमें कुछ भी छुपा नहीं था। परमेश्वर चाहता है कि हम भी एक शुद्ध और ईमानदार व्यक्ति बनें क्योंकि यही एक सच्चा मानवीय स्वरूप है। शैतान की दुनिया में जीते हुए लोग झूठ, धोखा और चालाकी का उपयोग करके एक-दूसरे से बातचीत करते हैं और वे हमेशा नकाब पहने रहते हैं और थकाऊ जीवन जीते हैं। आखिर में वे केवल शैतान द्वारा अधिक से अधिक गहराई से भ्रष्ट किए जाएंगे और वे परमेश्वर द्वारा धार्मिक दण्ड का सामना करेंगे। मैंने देखा कि मेरे आसपास कुछ भाई-बहन ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर पा रहे थे, जब वे दूसरे लोगों में समस्याएँ देखते थे तो वे उनकी मदद करने के लिए इन्हें सीधे बता सकते थे, किसी को सत्य के अनुरूप कार्य न करते देखकर खुलेआम उसकी काट-छाँट कर सकते थे और ईमानदार होकर आपसी मदद और समर्थन की पेशकश कर सकते थे। ये लोग शुद्ध थे और वे स्वतंत्र और मुक्त महसूस करते थे और वे ईमानदार व्यक्ति बनने और उद्धार के मार्ग पर चलने का प्रयास कर रहे थे। मुझे एक ईमानदार व्यक्ति होने का मतलब समझ में आया और परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का एक मार्ग दिखाया। मैं आत्मसम्मान या रुतबे के लिए अब और साजिश या धोखेबाजी नहीं कर सकती थी। ऐसा व्यवहार वास्तव में घृणित था! मुझे परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार एक ईमानदार व्यक्ति बनने के स्तर तक पहुँचना था और लियू ली के बारे में जो कुछ भी मैं जानती थी उसे सत्यता के साथ लिखना था। चाहे इसके गलत होने पर मुझे नीचा ही क्यों न देखना पड़े, अगर मैं ईमानदार रही और मैंने परमेश्वर को प्रसन्न कर दिया तो यही काफी है।
साथ ही, मूल्यांकन लिखने को लेकर मेरा दृष्टिकोण भी भ्रामक था, मुझे लगता था कि एक पाठ आधारित कार्य की सुपरवाइजर के रूप में योग्य माने जाने के लिए मुझे लोगों का भेद पहचानने और सटीक मूल्यांकन लिखने में सक्षम होना चाहिए, इसलिए मैं एक अच्छा-सा मूल्यांकन न लिख पाने और नीचा देखने के डर से ईमानदारी बरतने की अनिच्छुक थी। बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए पदोन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई विशेष रुतबा या पद है या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। निश्चय ही, इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है। पदोन्नयन और संवर्धन सीधे मायने में केवल पदोन्नयन और संवर्धन ही है, और यह भाग्य में लिखे होने या परमेश्वर की अभिस्वीकृति पाने के समतुल्य नहीं है। उनकी पदोन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है और क्या वह सत्य के अनुसरण का रास्ता चुनने में सक्षम है। इस प्रकार, जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए पदोन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में पदोन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही अगुआ के रूप में मानक स्तर का है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआई का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। ज्यादातर लोग इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, और अपनी कल्पनाओं के आधार पर वे इन पदोन्नत लोगों का सम्मान करते हैं, पर यह एक भूल है। जिन्हें पदोन्नत किया जाता है, उन्होंने चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, क्या उनके पास वास्तव में सत्य वास्तविकता होती है? ऐसा जरूरी नहीं है। क्या वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ लागू करने में सक्षम हैं? अनिवार्य रूप से नहीं। क्या उनमें जिम्मेदारी की भावना है? क्या वे निष्ठावान हैं? क्या वे समर्पण करने में सक्षम हैं? जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो क्या वे सत्य की खोज करने योग्य हैं? यह सब अज्ञात है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर के घर में व्यक्ति चाहे कोई अगुआ हो या सुपरवाइजर, इसका यह मतलब नहीं होता कि वे सत्य के हर पहलू को समझते हैं या उनके पास सभी सत्य वास्तविकताएँ होती हैं। कलीसिया द्वारा मुझे सुपरवाइजर नियुक्त करना मेरे लिए केवल प्रशिक्षण का एक अवसर था और इसका यह मतलब नहीं था कि मैं दूसरों से अधिक सत्य को समझती हूँ या विभिन्न प्रकार के लोगों का भेद पहचान सकती हूँ। मुझे यह स्पष्ट हो गया कि बहुत से ऐसे सत्य हैं जिन्हें मैं नहीं समझती थी और उन्हें प्राप्त करने के लिए मुझे विभिन्न परिस्थितियों का अनुभव करना आवश्यक था। मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं इस अवसर को संजोती हूँ और प्रार्थना के माध्यम से अधिक तलाश करती हूँ और किसी भी परिस्थिति का सामना करने पर सत्य के अनुसार कार्य करती हूँ तो मेरा जीवन तेजी से आगे बढ़ेगा। लेकिन इसके बजाय मैं सुपरवाइजर के पद पर रहते हुए खुद को बहुत ऊँचा मान रही थी और यह मान बैठी कि एक सुपरवाइजर के रूप में मेरे अंदर भेद पहचानने और सटीक मूल्यांकन लिखने की क्षमता होनी ही चाहिए। ऊपरी अगुआओं से प्रशंसा और सम्मान पाने के चक्कर में मैं अपनी भेद पहचानने की कमी देखने और इस विषय में और अधिक सत्य खोजने के बजाय खुद को छिपाने के लिए आखिरकार छल और कुटिलता में लिप्त हो गई। अगर मैं इसी तरह चलती रही तो यह न केवल मुझे सत्य को समझने से रोकेगा, बल्कि मेरे स्वभाव को और अधिक कपटी बना देगा और अंत में मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। इस हकीकत को समझने के बाद मैं अपनी कमियों को सही तरीके से देखने में सक्षम हुई।
कुछ समय बाद मुझे ऊपरी अगुआई से एक पत्र मिला जिसमें मुझसे बहन सुन लैन का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा गया था। मैंने मन ही मन में सोचा, “मुझे सुन लैन से मिले दो दिन ही हुए हैं, इसलिए उसके बारे में मेरी समझ बहुत सीमित है। अगर मूल्यांकन गलत हुआ तो क्या अगुआ सोचेंगे कि मुझमें भेद पहचानने की क्षमता नहीं है और वे मुझे तुच्छ समझेंगे?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “मेरे सुनने में आया है कि सुन लैन विकसित किए जाने के योग्य है, इसलिए शायद मुझे उसकी खूबियों पर जोर देना चाहिए। ऐसे मूल्यांकन पर अगुआ निश्चित रूप से कहेंगे कि केवल दो दिनों में ही किसी व्यक्ति का सटीक मूल्यांकन करने की मेरी क्षमता दर्शाती है कि मुझमें भेद पहचानने की क्षमता है। इससे वास्तव में मेरी छवि अच्छी होगी।” उसी क्षण मुझे लगा कि मैं फिर से धोखेबाजी करने की कोशिश कर रही हूँ। परमेश्वर ने इस परिस्थिति की योजना इसलिए बनाई थी ताकि यह परखा जा सके कि क्या मैं एक ईमानदार व्यक्ति बन सकती हूँ। मूल्यांकन लिखना किसी व्यक्ति को पदोन्नत या बर्खास्त करने से जुड़ा होता है—यह कोई साधारण मामला नहीं होता है। मैं अपने स्वार्थ के आधार पर यह तय नहीं कर सकती थी कि मूल्यांकन कैसे लिखना है। इसके बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब तुम बोलते हो, तो घुमा-घुमा कर देर तक बोलते रहते हो, बहुत सोच खपाते हो, और बेहद थकाऊ तरीके से जीते हो, सब-कुछ अपनी प्रतिष्ठा और गौरव की रक्षा के लिए! क्या परमेश्वर तुम्हारे इस तरह के आचरण से प्रसन्न होता है? परमेश्वर सबसे ज्यादा धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। अगर तुम शैतान के प्रभाव से मुक्त हो कर उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हें पहले एक ईमानदार व्यक्ति बनने से शुरुआत करनी चाहिए। स्पष्टवादी बनो, सच बोलो, अपनी भावनाओं से विवश मत होओ, अपने ढोंग और चालाकी को त्याग दो, और सिद्धांतों के साथ बोलो और मामले सँभालो—यह जीने का एक आसान और सुखद तरीका है, और तुम परमेश्वर के सामने जी पाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। मैं अब अपने अहंकार और रुतबे के लिए खुद को छुपा नहीं सकती थी और न ही खुद को ढंक सकती थी। मुझे एक ईमानदार व्यक्ति बनना था और व्यावहारिक रहना था। मुझे वही लिखना था जो मैं जानती थी, यह परवाह नहीं करनी थी कि दूसरे लोग मुझे न जाने किस रूप में देखेंगे। इस तरह से आचरण करके मैं सहज महसूस करूँगी। इसलिए मैंने सुन लैन का निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन लिखा और इसे भेज दिया। मुझे अपने दिल में राहत और मुक्ति का एहसास हुआ। अब मुझे पहले जैसा एहसास नहीं होता था, जब मेरी सारी दिमागी कवायद धोखेबाजी में लगी रहती थी। सत्य बोलने और सत्य का अभ्यास करने की मिठास का अनुभव करने के बाद मैंने खुद से कहा कि भविष्य में अपने आत्मसम्मान से जुड़े मामलों से सामना होने पर चाहे चीजें कितनी भी शर्मिंदा करने वाली क्यों न हो जाएँ, मुझे स्पष्टवादी और पारदर्शी रहना होगा। परमेश्वर का धन्यवाद!