19. मेरी हीनभावना दूर हो गई

डिंग शिन, चीन

मेरा जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ। मैं अंतर्मुखी थी और बात करना पसंद नहीं करती थी, बचपन से ही मेरे परिवार और रिश्तेदार अक्सर कहते थे कि मैं खुद को व्यक्त नहीं कर पाती और अपनी बहन जितनी आकर्षक नहीं हूँ। बाहर काम करते समय मैं लोगों से बातचीत करने या अपने वरिष्ठों को खुश रखने में भी अच्छी नहीं थी, इसलिए मुझे हमेशा बेकार और थका देने वाला काम ही सौंपा जाता था और मेरे सहकर्मी अक्सर मेरे मंदबुद्धि होने और खुद को परिस्थितियों के अनुकूल न ढाल पाने के कारण मेरा मजाक उड़ाते थे। मैंने मन ही मन इस आकलन को स्वीकार कर लिया कि मैं मंदबुद्धि हूँ, तेज नहीं और मैं लोगों से बातचीत करने में भी अच्छी नहीं हूँ, इसलिए मैं और भी अधिक खुद में सिमट गई। मैं अक्सर बोलने में अपने अनाड़ीपन को लेकर दुखी रहता थी; खासकर जब मैं ऐसे लोगों को देखती जो वाक्पटु और तेज-तर्रार थे तो मुझे उनसे ईर्ष्या होती थी, मैं सोचती कि ऐसे लोग जहाँ भी जाएँगे उन्हें पसंद किया जाएगा। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद जब मैंने पहली बार सभाओं में भाग लेना शुरू किया तो मैं भी बहुत संकोची थी, इस बात से चिंतित रहती थी कि मेरी अनाड़ी संगति मुझे भाई-बहनों के बीच हँसी का पात्र बना देगी, लेकिन भाई-बहन अक्सर मुझे और अधिक संगति करने के लिए प्रोत्साहित करते थे। मैंने देखा कि भाई-बहन आसानी से और खुले तौर पर अपनी दशाएँ और समस्याएँ साझा करते हैं और अगर किसी में कोई कमी है तो कोई उसका अपमान नहीं करता या हेय दृष्टि से नहीं देखता। इससे मुझे आजादी का एहसास हुआ। धीरे-धीरे मैं ज्यादा बातें करने लगी। मुझे इस प्रकार का कलीसियाई जीवन बहुत पसंद आया।

फरवरी 2023 में मैं सिंचन उपयाजिका बन गई। बहन रुईजिंग, जिसका मैं सिंचन कर रही थी उसमें काफी काबिलियत थी। कई बार मैंने उसके साथ सभाओं में भाग लिया था और देखा था कि उसकी संगति बहुत स्पष्ट है और समस्याओं पर उसकी अंतर्दृष्टि मुझसे खराब नहीं है, तो जब मैंने रुइजिंग के साथ फिर से सभाओं में भाग लिया तो मैं यह सोचकर कुछ हद तक खुद को बेबस महसूस करती कि उसका ज्यादा दिमाग तेज है और उसमें काबिलियत भी मुझसे ज्यादा है। मुझे लगता कि उसके सिंचन की कोशिश करना मेरी काबिलियत से बाहर है, इसलिए वह जब भी खराब दशा में होती तो मैं उससे इस बारे में संक्षेप में बात करती और फिर विषय बदल देती, मुझे चिंता रहती कि कहीं वह मेरी सतही संगति के कारण मुझे नीची नजरों से न देखे। एक बार मुझे पता चला कि रुइजिंग बेहद अहंकारी स्वभाव की है और अपनी बातों से लोगों को बेबस कर देती है। मैं उसके सामने यह मसला उठाना चाहती थी। लेकिन फिर यह सोचा कि उसमें काफी काबिलियत है, स्पष्ट वक्ता है और अपने कर्तव्य में प्रभावी भी है, तो थोड़ा अहंकार होना सामान्य बात है। वैसे भी मुझमें काबिलियत की कमी थी और खुद को अच्छे से व्यक्त नहीं कर पाती थी। अगर मैं उसके साथ साफ ढंग से संगति कर उसकी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाई तो वह मेरा मजाक उड़ाएगी। इसलिए मैंने बस उसके अहंकार की हल्की-सी चर्चा की और आगे बढ़ गई। एक दूसरे अवसर पर एक सभा के दौरान रुइजिंग ने अपने परिवार के बारे में बात की जो परमेश्वर में उसकी आस्था का विरोध कर रहा था और वह इससे कुछ हद तक विवश थी। मुझे भी ऐसे ही अनुभव हो चुके थे तो मैंने सोचा कि मैं इस बारे में उसके साथ संगति कर सकती हूँ, लेकिन जैसे ही मैंने कुछ बोला तो रुइजिंग ने कहा कि वह अपने घरवालों के स्नेह से प्रभावित नहीं है। लेकिन सच्चाई यह थी कि उसकी भावनात्मक बाध्यताएँ पहले से ही उसके कर्तव्य को प्रभावित कर रही थीं और मुझे पता था कि मुझे जल्द से जल्द इस बारे में उसके साथ संगति करने की जरूरत है। लेकिन उसकी यह बात सुनकर मेरी आगे संगति की हिम्मत नहीं हुई, मैंने सोचा, “मेरे संगति करते रहने पर कहीं रुइजिंग यह न सोचे कि मैं उसे परेशान कर रही हूँ और चीजों को समझने में असमर्थ हूँ? बेहतर होगा कि मैं अब खुद को शर्मिंदा न करूँ, रुइजिंग में काफी काबिलियत है और उसे मेरी संगति की आवश्यकता नहीं है। वह सत्य खोजकर खुद ही इसे हल कर सकती है।” इसलिए मैंने आगे संगति नहीं की। लेकिन बाद में रुइजिंग की दशा में सुधार नहीं हुआ और उसका कर्तव्य प्रभावित हुआ।

उसके बाद जब भी रुइजिंग किसी सभा में मिलती तो मैं बहुत बेबस महसूस करती, इस बात से चिंतित रहती कि मेरी खराब संगति के कारण वह मुझे तुच्छ समझेगी। मैं बहुत पीड़ित और नकारात्मक महसूस करती क्योंकि मुझे जो संगति करनी चाहिए थी वह मैं नहीं कर पा रही थी और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर पा रही थी। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं एक दयनीय जीवन जी रही हूँ। मैं खुद से यही पूछती रहती, “मैं इतने थके हुए अंदाज में क्यों जी रही हूँ?” मैं परमेश्वर को भी दोष दे रही थी कि उसने मुझे अच्छी काबिलियत नहीं दी, मैं इस स्थिति से बचना चाहती थी और अपना कर्तव्य बदलना चाहती थी। मुझे पता था कि मेरी दशा अच्छी नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अब अपने कर्तव्य में बहुत विवश हूँ, मैं बहुत थकी हुई और चिड़चिड़ी महसूस करती हूँ, मुझे समझ नहीं आ रहा कि इस दशा को कैसे हल करूँ। तुम मुझे प्रबोधन दो और मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं खुद को जानूँ और इस गलत दशा से बाहर आ सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के प्रासंगिक वचन खोजकर पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बचपन में देखने में साधारण थे, ठीक से बात नहीं कर पाते थे, और हाजिर-जवाब नहीं थे, जिससे उनके परिवार और सामाजिक परिवेश के लोगों ने उनके बारे में प्रतिकूल राय बना ली, और ऐसी बातें कहीं : ‘यह बच्चा मंद-बुद्धि, धीमा और बोलचाल में फूहड़ है। दूसरे लोगों के बच्चों को देखो, जो इतना बढ़िया बोलते हैं कि वे लोगों को अपनी कानी उंगली पर घुमा सकते हैं। और यह बच्चा है जो दिन भर यूँ ही मुँह बनाए रहता है। उसे नहीं मालूम कि लोगों से मिलने पर क्या कहना चाहिए, उसे कोई गलत काम कर देने के बाद सफाई देना या खुद को सही ठहराना नहीं आता, और वह लोगों का मन नहीं बहला सकता। यह बच्चा बेवकूफ है।’ माता-पिता, रिश्तेदार और मित्र, सभी यह कहते हैं, और उनके शिक्षक भी यही कहते हैं। यह माहौल ऐसे व्यक्तियों पर एक खास अदृश्य दबाव डालता है। ऐसे माहौल का अनुभव करने के जरिए वे अनजाने ही एक खास किस्म की मानसिकता बना लेते हैं। किस प्रकार की मानसिकता? उन्हें लगता है कि वे देखने में अच्छे नहीं हैं, ज्यादा आकर्षक नहीं हैं, और दूसरे उन्हें देखकर कभी खुश नहीं होते। वे मान लेते हैं कि वे पढ़ाई-लिखाई में अच्छे नहीं हैं, धीमे हैं, और दूसरों के सामने अपना मुँह खोलने में और बोलने में हमेशा शर्मिंदगी महसूस करते हैं। जब लोग उन्हें कुछ देते हैं तो वे धन्यवाद कहने में भी लजाते हैं, मन में सोचते हैं, ‘मैं कभी बोल क्यों नहीं पाता? बाकी लोग इतनी चिकनी-चुपड़ी बातें कैसे कर लेते हैं? मैं निरा बेवकूफ हूँ!’ अवचेतन रूप से वे सोचते हैं कि वे बेकार हैं, फिर भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होते कि वे इतने बेकार हैं, इतने बेवकूफ हैं। मन-ही-मन वे खुद से हमेशा पूछते हैं, ‘क्या मैं इतना बेवकूफ हूँ? क्या मैं सचमुच इतना अप्रिय हूँ?’ उनके माता-पिता उन्हें पसंद नहीं करते, न ही उनके भाई-बहन, न शिक्षक और सहपाठी। और कभी-कभी उनके परिवारजन, उनके रिश्तेदार और मित्र उनके बारे में कहते हैं, ‘वह नाटा है, उसकी आँखें और नाक छोटी हैं, ऐसे रंग-रूप के साथ बड़ा होकर वह सफल नहीं हो पाएगा।’ इसलिए जब वे आईना देखते हैं, तो देखते हैं कि उनकी आँखें सचमुच छोटी हैं। ऐसी स्थिति में, उनके दिल की गहराइयों में पैठा प्रतिरोध, असंतोष, अनिच्छा और अस्वीकृति धीरे-धीरे उनकी अपनी कमियों, खामियों, और समस्याओं को स्वीकार कर मान लेने में बदल जाती है। हालाँकि वे इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेते हैं, मगर उनके दिलों की गहराइयों में एक स्थाई भावना सिर उठा लेती है। इस भावना को क्या कहा जाता है? यह है हीनभावना। जो लोग हीन महसूस करते हैं, वे नहीं जानते कि उनकी खूबियाँ क्या हैं। वे बस यही सोचते हैं कि उन्हें कोई पसंद नहीं कर सकता, वे हमेशा बेवकूफ महसूस करते हैं, और नहीं जानते कि चीजों के साथ कैसे निपटें। संक्षेप में, उन्हें लगता है कि वे कुछ भी नहीं कर सकते, वे आकर्षक नहीं हैं, चतुर नहीं हैं, और उनकी प्रतिक्रियाएँ धीमी हैं। वे दूसरों के मुकाबले साधारण हैं, और पढ़ाई-लिखाई में अच्छे अंक नहीं ला पाते। ऐसे माहौल में बड़े होने के बाद, हीनभावना की यह मानसिकता धीरे-धीरे हावी हो जाती है। यह एक प्रकार की स्थाई भावना में बदल जाती है, जो उनके दिलों में उलझकर दिमाग में भर जाती है। तुम भले ही बड़े हो चुके हो, दुनिया में अपना रास्ता बना रहे हो, शादी कर चुके हो, अपना करियर स्थापित कर चुके हो, और तुम्हारा सामाजिक स्तर चाहे जो हो गया हो, बड़े होते समय यह जो हीनभावना तुम्हारे परिवेश में रोप दी गयी थी, उससे मुक्त हो पाना असंभव हो जाता है। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करके कलीसिया में शामिल हो जाने के बाद भी, तुम सोचते रहते हो कि तुम्हारा रंग-रूप मामूली है, तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कमजोर है, तुम ठीक से बात भी नहीं कर पाते, और कुछ भी नहीं कर सकते। तुम सोचते हो, ‘मैं बस उतना ही करूँगा जो मैं कर सकता हूँ। मुझे अगुआ बनने की महत्वाकांक्षा रखने की जरूरत नहीं, मुझे गूढ़ सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं, मैं सबसे मामूली बनकर संतुष्ट हूँ, और दूसरे मुझसे जैसा भी बर्ताव करना चाहें, करें।’ ... यह हीनभावना शायद तुममें पैदाइशी न हो, लेकिन एक दूसरे स्तर पर, तुम्हारे पारिवारिक माहौल, और जिस माहौल में तुम बड़े हुए हो, उसके कारण तुम्हें मध्यम आघातों या अनुचित आलोचनाओं का पात्र बनाया गया, और इस कारण से तुममें हीनभावना पैदा हुई(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझ आया कि मेरे अक्सर दबाव और निराशा में रहने का मुख्य कारण यह था कि मैं हीनता की नकारात्मक भावनाओं में रहती थी। मैं बचपन से ही बातचीत में अच्छी नहीं थी; चाहे घर पर रहते वक्त या बाहर काम करते समय, मेरे रिश्तेदार और सहकर्मी सभी कहते थे कि मैं खुद को व्यक्त या लोगों को खुश नहीं कर पाती, तो मुझे लगा कि मैं बोलने में अनाड़ी हूँ, तेज दिमाग वाली नहीं हूँ और हर तरह से दूसरों से हीन हूँ। धीरे-धीरे मुझमें और ज्यादा हीनभावना आती गई। परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी वैसा ही हुआ। खासकर जब मैंने ऐसे भाई-बहनों को देखा जो मुझसे बेहतर थे तो मुझे हीन महसूस हुआ, मैं अक्सर नकारात्मक भावनाओं में रहती। रुइजिंग के साथ बातचीत करते समय मैंने देखा कि रुइजिंग तेज-तर्रार और वाक्पटु है और मुझे लगा कि खुद को अभिव्यक्त करने की मेरी क्षमता और काबिलियत उससे कमतर है, इसलिए उसके साथ सभा के समय मुझे विवशता महसूस हुई और मैं खुद को मुक्त महसूस नहीं कर पाई। यहाँ तक कि जब मैंने उसे बुरी दशा में देखा तब भी मेरी उससे बातचीत करने की हिम्मत नहीं हुई। मैं हमेशा हीनता की नकारात्मक भावनाओं में रहती थी। मैं अच्छी तरह जानती थी कि परमेश्वर के घर में ऊँच-नीच का कोई भेद नहीं होता, फिर भी मैं प्रतिभाशाली और अच्छी काबिलियत वाले लोगों को सम्मान से देखती और मैं अपनी कमियों को सही ढंग से न देख पाती। यह चीज अक्सर मुझे मेरे कर्तव्य में बेबस कर देती थी, मुझे पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन प्राप्त करने से रोकती थी। मैं जानती थी कि इस दशा में जीते रहना खतरनाक है और मैं जल्द से जल्द इस स्थिति को पलटना चाहती थी।

मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “जब कायर लोगों के सामने कोई कठिनाई आती है, तो उन्हें कुछ भी हो जाए, वे पीछे हट जाते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? एक तो यह उनकी हीनभावना के कारण होता है। हीनभावना से ग्रस्त होने के कारण वे लोगों के सामने जाने की हिम्मत नहीं करते, वो दायित्व और जिम्मेदारियाँ भी नहीं ले सकते जो उन्हें लेनी चाहिए, न ही वे वो चीजें हासिल कर पाते हैं जो वे अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार और अपनी मानवता के अनुभव के दायरे के भीतर प्राप्त करने में सक्षम हैं। यह हीनभावना उनकी मानवता के हर पहलू को प्रभावित करती है और स्पष्ट रूप से उनके चरित्र को भी प्रभावित करती है। ... तुम्हारा दिल हीनभावना से सराबोर है, यह भावना बड़े लंबे समय से रही है, यह कोई अस्थाई भावना नहीं है। इसके बजाय यह तुम्हारी अंतरात्मा के विचारों पर सख्ती से नियंत्रण करती है, यह तुम्हारे होंठों को कसकर बंद कर देती है, और इसलिए तुम चीजों को कितने भी सही ढंग से समझो या लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति तुम्हारे विचार और राय जो भी हों, तुममें सिर्फ अपने मन में ही सोचकर चीजों पर बारंबार विचार करने की हिम्मत होती है, कभी जोर से बोलने की हिम्मत नहीं होती। चाहे दूसरे लोग तुम्हारी बात स्वीकार करें, या उसमें सुधार कर तुम्हारी आलोचना करें, तुममें ऐसा परिणाम देखने या उसका सामना करने की हिम्मत नहीं होती। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारी हीनभावना तुम्हारे भीतर है, तुम्हें बता रही है, ‘यह मत करो, तुम इस लायक नहीं हो। तुममें ऐसी योग्यता नहीं है, तुममें ऐसी वास्तविकता नहीं है, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम ऐसे बिल्कुल भी नहीं हो। अभी कुछ करो या सोचो मत। हीनभावना में जीकर ही तुम असल रहोगे। तुम इस योग्य नहीं हो कि सत्य का अनुसरण करो, या अपना दिल खोलकर जो मन में हो वह कहो और दूसरे लोगों की तरह बाकी सबसे जुड़ो। ऐसा इसलिए क्योंकि तुम किसी काम के नहीं हो, तुम उनके जितने अच्छे नहीं हो।’ लोगों के दिमाग में उनकी सोच को यह हीनभावना ही निर्देशित करती है; सामान्य व्यक्ति को जो दायित्व निभाने चाहिए, उन्हें निभाने और जो सामान्य मानवता का जीवन उन्हें जीना चाहिए, उसे जीने से यह रोकती है, साथ ही यह लोगों और चीजों के प्रति उनके दृष्टिकोण, उनके आचरण और कार्य के तरीकों और साधनों और दिशा और लक्ष्यों का निर्देशन भी करती है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जब लोग हीनभावना में रहते हैं तो लोगों और चीजों पर उनके विचार, साथ ही उनका आचरण और कार्य परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं होता, वे अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में विफल रहते हैं और उनकी अंतर्निहित काबिलियत का उपयोग नहीं हो पाता। इसी तरह चलते रहने पर न केवल उनके अपने जीवन प्रवेश में बाधा आती है बल्कि गंभीर मामलों में यह उनके कर्तव्य पर भी असर डाल सकता है और कलीसिया के काम को बाधित कर सकता है। अतीत पर विचार करते हुए देखा कि मैंने बचपन से ही अपने बारे में बाहरी मूल्यांकन स्वीकार कर लिया था और मैं हीनभावना में जीती थी। मैं खुद को हमेशा दूसरों से हीन महसूस करती थी, समस्याएँ देखकर भी बताने या उन पर चर्चा करने का साहस नहीं कर पाती थी। रुइजिंग के साथ बातचीत करते समय मैंने उसका बेहद अहंकारी स्वभाव देखा, उसकी बातें और कार्य भाई-बहनों को विवश कर देते थे, इसलिए मुझे उसके साथ संगति करनी चाहिए थी और यह बताना चाहिए था लेकिन मुझे लगा कि मेरी काबिलियत उसके जितनी अच्छी नहीं है जिससे मुझे उसके साथ संगति करने में झिझक होने लगी क्योंकि मुझे लगा कि यह धृष्टता है। मैंने देखा कि उसका कर्तव्य-पालन उसके स्नेह से प्रभावित हो रहा है और हालाँकि मुझे इस क्षेत्र में कुछ अनुभव था लेकिन मुझे लगा कि मुझमें काबिलियत की कमी है इसलिए मैंने संगति करने की हिम्मत नहीं की। मैंने देखा कि मैं पूरी तरह से हीनभावनाओं से नियंत्रित हूँ, लगता जैसे मेरे मुँह पर ताला लगा हो, वह न कह पाती जो कहना चाहिए था। मैं रुइजिंग को भ्रष्ट स्वभाव में जीते देखती रही लेकिन मैंने उसके साथ संगति करने की हिम्मत नहीं की और मैं कलीसिया के काम की रक्षा करने का अपना कर्तव्य पूरा नहीं पाई। मैं एक पीड़ादायक और नकारात्मक दशा में जी रही थी, कोई राहत नहीं मिल रही थी। यह वाकई दूसरों के लिए भी हानिकारक था और मेरे लिए भी! मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “तुम्हारी यह भावना सिर्फ नकारात्मक नहीं, और सटीक रूप से कहें तो यह वास्तव में परमेश्वर और सत्य के विरुद्ध है। तुम सोच सकते हो कि यह तुम्हारी सामान्य मानवता के भीतर की एक भावना है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, यह बस भावना की एक मामूली बात नहीं है, बल्कि परमेश्वर के विरोध की पद्धति है। यह नकारात्मक भावनाओं द्वारा चिह्नित पद्धति है जो लोग परमेश्वर, उसके वचनों और सत्य का प्रतिरोध करने में प्रयोग करते हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। मैंने अपनी अब तक की यात्रा पर विचार किया, चूँकि मैं अक्सर हीनभावना में रहती थी, तो मैं सत्य जानकर भी उसका अभ्यास नहीं करती थी, बल्कि मुझे काबिलियत न देने के लिए परमेश्वर को भी दोष देती थी। मैं अपने कर्तव्य के प्रति नकारात्मक और निष्क्रिय थी, यहाँ तक कि इसे छोड़ ही देना चाहती थी। ये व्यवहार परमेश्वर के विरुद्ध निष्क्रिय प्रतिरोध का एक रूप थे। मुझे लगा कि मैं बहुत बड़े खतरे में हूँ और मैं अपनी नकारात्मक भावनाओं को दूर करने, अभ्यास और प्रवेश का मार्ग खोजने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करने को तैयार हो गई।

बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “तो फिर तुम स्वयं का सही आकलन कर स्वयं को कैसे जान सकते हो, और हीनभावना से कैसे दूर हो सकते हो? तुम्हें स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने, अपनी मानवता, योग्यता, प्रतिभा और खूबियों के बारे में जानने के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार बनाना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हें गाना पसंद था और तुम अच्छा गाते थे, मगर कुछ लोग यह कहकर तुम्हारी आलोचना करते और तुम्हें नीचा दिखाते थे कि तुम तान-बधिर हो, और तुम्हारा गायन सुर में नहीं है, इसलिए अब तुम्हें लगने लगा है कि तुम अच्छा नहीं गा सकते और फिर तुम दूसरों के सामने गाने की हिम्मत नहीं करते। उन सांसारिक लोगों, उन भ्रमित लोगों और औसत दर्जे के लोगों ने तुम्हारे बारे में गलत आकलन कर तुम्हारी आलोचना की, इसलिए तुम्हारी मानवता को जो अधिकार मिलने चाहिए थे, उनका हनन किया गया और तुम्हारी प्रतिभा दबा दी गई। नतीजा यह हुआ कि तुम एक भी गाना गाने की हिम्मत नहीं करते, और तुम बस इतने ही बहादुर हो कि किसी के आसपास न होने पर या अकेले होने पर ही खुलकर गा पाते हो। चूँकि तुम साधारण तौर पर बहुत अधिक दबा हुआ महसूस करते हो, इसलिए अकेले न होने पर गाना गाने की हिम्मत नहीं कर पाते; तुम अकेले होने पर ही गाने की हिम्मत कर पाते हो, उस समय का आनंद लेते हो जब तुम खुलकर साफ-साफ गा सकते हो, यह समय कितना अद्भुत और मुक्ति देनेवाला होता है! क्या ऐसा नहीं है? लोगों ने तुम्हें जो हानि पहुँचाई है, उस कारण से तुम नहीं जानते या साफ तौर पर नहीं देख सकते कि तुम वास्तव में क्या कर सकते हो, तुम किस काम में अच्छे हो, और किसमें अच्छे नहीं हो। ऐसी स्थिति में, तुम्हें सही आकलन करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को सही मापना चाहिए। तुमने जो सीखा है और जिसमें तुम्हारी खूबियाँ हैं, उसे तय करना चाहिए, और जाकर वह काम करना चाहिए जो तुम कर सकते हो; वे काम जो तुम नहीं कर सकते, तुम्हारी जो कमियाँ और खामियाँ हैं, उनके बारे में आत्मचिंतन कर उन्हें जानना चाहिए, और सही आकलन कर जानना चाहिए कि तुम्हारी योग्यता क्या है, यह अच्छी है या नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि हीनता की नकारात्मक भावनाओं से छुटकारा पाने के लिए मुझे सबसे पहले परमेश्वर के वचनों के आधार पर खुद का सही मूल्यांकन और आकलन करना होगा। परमेश्वर के वचन सत्य हैं और लोगों, घटनाओं और चीजों को मापने के लिए उनका उपयोग करना सबसे सटीक है। पहले मैंने अपने बारे में अविश्वासियों के मूल्यांकन के आधार पर खुद का आकलन किया था जिसके कारण मैं अंधेरे और निराशापूर्ण भावनाओं में जीने लगी थी, खुद को बाहर निकालने में असमर्थ हो गई थी। अब मुझे सत्य खोजने और परमेश्वर के वचनों के आधार पर खुद को सही ढंग से देखने की आवश्यकता थी। तो मैंने खुद से पूछा, “मुझे हमेशा लगता है कि मुझमें काबिलियत की कमी है। तो फिर खराब और अच्छी काबिलियत के मूल्यांकन के लिए परमेश्वर का मानक क्या है?” मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “हम लोगों की काबिलियत कैसे मापते हैं? यह काम करने का उचित तरीका सत्य के प्रति उनके रवैए को देखना और यह जानना है कि वे सत्य को अच्छी तरह से समझ सकते हैं या नहीं। कुछ लोग कुछ विशेषज्ञताएँ बहुत तेजी से हासिल कर सकते हैं, लेकिन जब वे सत्य को सुनते हैं, तो भ्रमित हो जाते हैं और उनका ध्यान भटक जाता है। अपने मन में वे उलझे हुए होते हैं, वे जो कुछ भी सुनते हैं वह उनके अंदर नहीं जाता, न ही वे जो सुन रहे हैं उसे समझ पाते हैं—यही खराब काबिलियत होती है। कुछ लोगों को जब आप बताते हैं कि उनकी काबिलियत खराब है, तो वे सहमत नहीं होते हैं। वे सोचते हैं कि ऊँची शिक्षा प्राप्त और जानकार होने का मतलब है कि वे अच्छी काबिलियत वाले हैं। क्या अच्छी शिक्षा ऊँचे दर्जे की काबिलियत दर्शाती है? ऐसा नहीं है। लोगों की काबिलियत कैसे मापी जानी चाहिए? इसे इस आधार पर मापा जाना चाहिए कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को किस सीमा तक गहराई से समझते हैं। मापन का यह सबसे सटीक तरीका है। कुछ लोग वाक्-पटु, हाजिर-जवाब और दूसरों को संभालने में विशेष रूप से कुशल होते हैं—लेकिन जब वे धर्मोपदेश सुनते हैं, तो उनकी समझ में कभी भी कुछ नहीं आता, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे उन्हें नहीं समझ पाते हैं। जब वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बताते हैं, तो वे हमेशा वचन और सिद्धांत बताते हैं, और इस तरह खुद के महज नौसिखिया होने का खुलासा करते हैं, और दूसरों को इस बात का आभास कराते हैं कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। ये खराब काबिलियत वाले लोग हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्‍य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्‍य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि किसी व्यक्ति की काबिलियत को मापने का मानक इस चीज पर आधारित होता है कि कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को कितनी अच्छी तरह समझता है। कुछ लोग गुणी और तेज-तर्रार दिख सकते हैं और लग सकता है कि उनमें बोलने का अच्छा कौशल भी है लेकिन अगर वे परमेश्वर के वचन नहीं समझ पाते या सत्य पर परमेश्वर की संगति नहीं समझ सकते तो ऐसे लोग कम काबिलियत के होते हैं। हो सकता है कि कुछ लोगों के पास औसत शिक्षा हो और बोलने का कौशल विशेष रूप से अच्छा न हो लेकिन अगर वे परमेश्वर के वचनों से उसके इरादों को समझ सकें और अभ्यास के सिद्धांतों को पा सकें तो ये लोग अच्छी काबिलियत वाले हैं। उदाहरण के लिए पौलुस को ही लो। हालाँकि उसमें गुण, ज्ञान, वाक्पटुता सब कुछ था और उसने अधिकांश यूरोप में सुसमाचार फैलाया, लेकिन जब उसने परमेश्वर के वचन सुने तो वे उसे समझ नहीं आए। अंत में वह प्रभु यीशु को नहीं जान पाया और यीशु के प्रति अपने प्रतिरोध के सार को कभी नहीं माना। उसका मेहनत से किया गया कार्य मुकुट और पुरस्कार पाने के लिए था और उसने अहंकारपूर्वक यह भी दावा किया कि उसके लिए जीवित रहना ही मसीह है। इससे पता चलता है कि पौलुस वास्तव में परमेश्वर के वचनों को आत्मसात नहीं कर सका या सत्य नहीं समझ सका। पौलुस एक ऐसा इंसान था जिसमें काबिलियत की कमी थी। इसके विपरीत पतरस परमेश्वर के वचनों से उसके इरादों को समझने और अभ्यास का मार्ग खोजने में सक्षम था। वह परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार सटीकता से अभ्यास कर सका और उसने मृत्यु तक परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और परमेश्वर से अत्यधिक प्रेम करने की गवाही दी। इस प्रकार पतरस एक अच्छी काबिलियत वाला व्यक्ति था। आत्मचिंतन कर मैंने जाना कि मैंने लोगों या चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखा। मैंने हमेशा वक्तृत्व कौशल और तेजतर्रार बुद्धि को अच्छी काबिलियत का मानक माना और जब मुझमें ये अंतर्निहित गुण नहीं थे तो मैं हीनभावना और नकारात्मकता की भावनाओं में जीने लगी और निष्क्रिय होकर अपने कर्तव्य में ढीली पड़ गई। इससे न केवल मेरे अपने जीवन प्रवेश में बाधा उत्पन्न हुई बल्कि कलीसिया के कार्य को भी नुकसान हुआ। आगे विचार करते हुए देखा, हालाँकि मेरा वक्तृत्व कौशल बहुत अच्छा नहीं था लेकिन मैं परमेश्वर के कुछ वचन पढ़कर उन्हें समझ सकती थी और सत्य पर संगति के जरिए कुछ मुद्दों को हल कर सकती थी और भाई-बहनों ने मेरी काबिलियत का मूल्यांकन औसत के रूप में किया। मुझे परमेश्वर के वचनों और भाई-बहनों के मूल्यांकन के आधार पर स्वयं को सही ढंग से देखने की आवश्यकता थी और धारणाओं के आधार पर अपने बारे में फैसला नहीं करना था। यह एहसास होने पर मुझे मन में बहुत राहत महसूस हुई। बाद में मेरी मुलाकात रुइजिंग से हुई, मैंने एक-एक कर उसकी समस्याएँ बताईं और परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों का उपयोग करते हुए उसके साथ संगति की। रुइजिंग ने उन बातों और मदद को स्वीकारा और वह सत्य खोजने, पश्चात्ताप करने और बदलाव के लिए तैयार हो गई। इस प्रकार अभ्यास करने के बाद मुझे बहुत सहजता और शांति का एहसास हुआ।

बाद में मैंने फिर से आत्मचिंतन कर खुद से पूछा कि मेरी निरंतर हीनभावनाओं के पीछे और कौन सा भ्रष्ट स्वभाव हो सकता है? एक दिन मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी विशेष रूप से प्रतिष्ठा और रुतबे को महत्व देते हैं और वे प्रतिष्ठा और रुतबे को जीवन की तरह ही महत्वपूर्ण मानते हैं। मुझे एहसास हुआ कि मेरा व्यवहार भी मसीह-विरोधियों जैसा ही रहा था। मेरी सोच और विचार सत्य का अनुसरण करने के लिए नहीं हैं बल्कि मैं हमेशा अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर चिंतित रहती हूँ, लाभ और हानि के बारे में ही सोचती रहती हूँ। बचपन से ही मैं अपने बारे में दूसरों की राय की बहुत परवाह करती थी और जब मेरे रिश्तेदार, दोस्त और सहकर्मी कहते कि मैं अनाड़ीपन से बात करती हूँ तो मैंने दूसरों से बात करना कम कर दिया और मैं अपने आपमें सिमट गई ताकि मैं कम से कम अपने आत्मसम्मान को होने वाली क्षति को तो कम कर सकूँ। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, हालाँकि मैं जानती थी कि भाई-बहनों में एक-दूसरे के प्रति खुलापन और ईमानदारी है और हमारी कमियाँ किसी का उपहास किए बिना खुलकर बेनकाब की जा सकती हैं, लेकिन प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मेरी चिंता बहुत अधिक थी और ऐसे लोगों के साथ सभाओं में जिनकी काबिलियत और बोलने का कौशल बेहतर था, मुझे चिंता रहती थी कि बातचीत में अनाड़ी होने के कारण भाई-बहन मुझे तुच्छ समझेंगे, इसलिए मैं यथासंभव कम बोलने की कोशिश करती ताकि अपनी कमियों को छुपाकर मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बनाए रख सकूँ। एक सिंचन उपयाजक के रूप में कर्तव्यों और जीवन प्रवेश से संबंधित सभी के मुद्दों को हल करना मेरी जिम्मेदारी थी, लेकिन मुझे फिक्र यह थी कि कहीं मेरी बात को तुच्छ और वाचालता न समझ लिया जाए जिससे भाई-बहन मुझे हेय दृष्टि से देखें, इसलिए मैंने अपने आत्मसम्मान और रुतबे की रक्षा के लिए अपने कर्तव्य को त्यागना पसंद किया। “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है,” और “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” जैसे शैतानी जहर मेरे जीने के नियम बन गए थे। मैंने आत्मसम्मान और रुतबे को हर चीज से ऊपर रखा, यहाँ तक कि मैंने अपनी सबसे बुनियादी जिम्मेदारियों की भी उपेक्षा की। मैं बेहद स्वार्थी और नीच हो गई थी। यह अपना कर्तव्य निभाने का मेरा कौन-सा तरीका था? मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। अगर मैं यूँ ही चलती रही और पश्चात्ताप नहीं किया तो न केवल मैं पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने में असफल हो जाऊँगी, बल्कि मुझे परमेश्वर द्वारा हटा भी दिया जाएगा। तब से मैं परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप करने और खुद को इन नकारात्मक भावनाओं के बंधन से मुक्त करने के लिए तैयार हो गई।

नवागंतुकों के साथ एक सभा के दौरान मैंने बहन यियी को स्पष्ट रूप से धाराप्रवाह अभिव्यक्ति के साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति करते देखा। उसकी बात पर सभी भाई-बहन सहमति में सिर हिला रहे थे और मैं फिर हीनभावना की शिकार हो गई। मैंने मन ही मन सोचा, “देखो, यियि खुद को अभिव्यक्त करने में कितनी अच्छी है और उसकी संगति कितनी प्रबोधनकारी है। मैं खुद को व्यक्त करने में कितनी बुरी हूँ, कहीं भाई-बहन यह सोचकर मेरा उपहास तो नहीं करेंगे कि इतने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद मेरी संगति एक नवागंतुक जितनी प्रबोधनकारी भी नहीं है?” इसलिए मैं संगति करने में झिझक रही थी। जब मेरे मन में ये विचार आए तो मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से प्रतिष्ठा और रुतबे की चिंताओं में फँस गई हूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह इस गलत दशा से छुटकारा पाने में मेरा मार्गदर्शन करे। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब विविध नकारात्मक भावनाएँ फिर से पैदा होंगी, तो तुममें जागरूकता और विवेक होगा, तुम उनसे स्वयं को होनेवाली हानि जानोगे और निस्संदेह तुम्हें धीरे-धीरे उन्हें जाने भी देना चाहिए। जब ये भावनाएँ पैदा होंगी, तब तुम आत्म-नियंत्रण का अभ्यास कर सकोगे, बुद्धि का प्रयोग कर सकोगे, और तुम उन्हें जाने दे सकोगे, या उन्हें सुलझा कर संभालने के लिए सत्य खोज सकोगे। किसी भी स्थिति में, इनका तुम्हारे सही विधियों, सही रवैये, और लोगों और चीजों के प्रति और अपने आचरण और कार्य के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाने पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। इस प्रकार, सत्य के अनुसरण के तुम्हारे मार्ग की रुकावटें और बाधाएँ और भी कम हो जाएँगी, तुम परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सामान्य मानवता के दायरे में बाधारहित या कम बाधाओं के साथ सत्य का अनुसरण करने में सक्षम हो सकोगे, और हर प्रकार की स्थितियों में अपने द्वारा प्रकट भ्रष्ट स्वभावों को दूर कर पाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग प्रदान किया। जब नकारात्मक भावनाएँ फिर से उठें तो मुझे सचेत रहकर उन्हें समझना होगा और त्याग देना होगा। नकारात्मक भावनाओं में जीने का यह दौर और लगातार अपने आत्मसम्मान और रुतबे पर विचार करना वाकई पीड़ादायक था। बहन यियि के साथ सभा में परमेश्वर का इरादा मुझे बेनकाब करना या मुझे बुरा दिखाना नहीं था बल्कि उसकी संगति से प्राप्त प्रकाश का उपयोग मेरी कमियों को पूरा करने और मुझे और अधिक लाभ पाने में मदद करने के लिए था। यह एहसास होने पर मुझे उतनी बेबसी महसूस नहीं हुई और मैं उसकी संगति सुनने के लिए शांत हो गई। उसकी संगति में मुझे कुछ और प्रकाश मिला और उसकी संगति के बाद मैंने अपनी समझ भी साझा की। सभा से सभी को लाभ हुआ और परिणाम काफी अच्छे रहे। इस अनुभव से मैंने जाना कि केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और मैंने उनका स्वाद चखा केवल लोगों और मामलों को देखने, सही आचरण करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार काम करने से ही इंसान सच में स्वतंत्र और मुक्त जीवन जी सकता है।

पिछला: 18. खतरनाक परिस्थिति में भी अपने कर्तव्य पर अडिग रहना

अगला: 20. अब मैं प्रसिद्धि और रुतबे से बँधी नहीं हूँ

परमेश्वर का आशीष आपके पास आएगा! हमसे संपर्क करने के लिए बटन पर क्लिक करके, आपको प्रभु की वापसी का शुभ समाचार मिलेगा, और 2024 में उनका स्वागत करने का अवसर मिलेगा।

संबंधित सामग्री

26. अपने हृदय का द्वार खोलना और प्रभु की वापसी का स्वागत करना

योंगयुआन, अमेरिका1982 के नवंबर में, हमारा पूरा परिवार संयुक्त राज्य अमेरिका जाकर बस गया। मेरे दादा की पीढ़ी से ही हम सभी को परमेश्वर पर...

27. प्रभु से फिर से मिलना

जियांदिंग, यू.एस.ए.मेरा जन्म एक कैथलिक परिवार में हुआ था। छोटी उम्र से ही मेरी माँ ने मुझे बाइबल पढ़ना सिखाया था। उस समय, चीनी कम्युनिस्ट...

34. ईसाई आध्यात्मिक जागृति

लिंग वू, जापानमैं अस्सी के दशक का हूँ, और मैं एक साधारण से किसान परिवार में जन्मा था। मेरा बड़ा भाई बचपन से ही हमेशा अस्वस्थ और बीमार रहता...

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें