75. एक बुरे इंसान के निष्कासन से मैंने क्या सीखा
अप्रैल 2021 में मैं बाहर रहने के बाद अपनी मूल कलीसिया में लौट आई और लियू मिन से मिली। लियू मिन को पहले लगभग निष्कासित किया जा चुका था क्योंकि एक कलीसिया अगुआ के रूप में वह न केवल अपना वास्तविक कार्य करने में नाकाम रही, बल्कि उसने सिद्धांत के विरुद्ध जाकर अपनी इच्छा के आधार पर लोगों को पदोन्नत भी किया और मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों से निपटे बिना उनका बचाव किया। इसके फलस्वरूप कलीसिया के विभिन्न कार्य बेअसर हो गए। उस दौरान कुछ भाई-बहनों ने उसके साथ संगति की लेकिन उसने इसे स्वीकारने से इनकार कर दिया। उस समय की अगुआ, बहन वांग यी ने उसके व्यवहार का आकलन किया और उसे संदेह हुआ कि वह बुरी इंसान हो सकती है, लेकिन पर्याप्त साक्ष्य न होने के कारण उसने यह मान लिया कि शायद यह सिर्फ अस्थायी अभिव्यक्ति हो। दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं से चर्चा करने के बाद उन्होंने उसे पश्चात्ताप का एक और मौका देने और उस पर नजर रखने का फैसला किया। इस प्रकार उसे निष्कासित नहीं किया गया।
एक बार लियू मिन से बातचीत करते समय मैंने पूछ लिया कि उस अनुभव से उसने क्या सबक सीखे थे। मुझे लगा कि इतनी बड़ी विफलता और प्रकाशन के बाद उसे कुछ सच्ची समझ आई होगी और पश्चात्ताप हुआ होगा। उम्मीद के विपरीत लियू मिन ने कहा, “मुझमें बस आवेग में आकर कार्य करने की प्रवृत्ति थी। इसके अलावा, किसी ने भी उस समय मेरी मदद नहीं की।” यह सुनकर मैंने सोचा, “भले ही तुम्हें निष्कासित नहीं किया गया, लेकिन यह सच है कि तुमने बुरी चीजें की थीं। तुम आत्म-चिंतन क्यों नहीं करती हो और इससे सीख क्यों नहीं लेती हो?” बाद में मैंने देखा कि वह खुद को जानने में ही विफल नहीं हुई, बल्कि उसने तथ्यों को भी तोड़ा-मरोड़ा और जहाँ कहीं गई वहाँ अफवाहें फैलाईं जिससे दूसरे लोग यह मानने लगे कि वांग यी ने उसके साथ अन्याय किया है और उसका दमन किया है। मामले की सत्यता से अनजान भाई-बहनों ने यह सोचकर उसका यकीन कर लिया कि वांग यी ही समस्या है। बाद में कलीसिया का अगुआ मुझे चुन लिया गया। अभी ज्यादा समय नहीं हुआ था जब मैंने देखा कि लियू मिन व्यक्तिगत मामलों को तरजीह देकर अपने कर्तव्य की अनदेखी कर रही है। मैंने उसके गैर-जिम्मेदाराना रुख की ओर इशारा किया और उसके साथ कर्तव्यों के प्रति उचित रवैये से संबंधित परमेश्वर के वचनों पर संगति की। लेकिन उसने इसे स्वीकार नहीं किया और मेरे प्रति पूर्वाग्रह तक पाल लिया। सभाओं में वह भाई-बहनों को बार-बार बताती थी कि मैं उससे बहुत ही ज्यादा अपेक्षाएँ रखती हूँ और वह उन्हें अपनी बातों से इस तरह गुमराह करने लगी कि वे भी मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो गए। इस स्थिति ने मुझे बहुत बेबस कर दिया। मुझमें दोबारा इतनी आसानी से उसकी समस्याएँ बताने की हिम्मत नहीं हुई, मुझे डर था कि वह मुझे निशाना बनाती रहेगी और छोड़ेगी नहीं। लेकिन लियू मिन ने बुराइयाँ करना नहीं छोड़ा। उसने इस समाचार का फायदा उठाया कि कलीसिया द्वारा एक बहन को आत्म-चिंतन के लिए अलग-थलग किया गया है और वह झूठ फैलाने के लिए यह कहकर तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने लगी कि अगुआ और कार्यकर्ता मनमाने ढंग से लोगों को निष्कासित कर रहे हैं और इस तरह उनकी जिंदगियाँ बर्बाद कर रहे हैं। इसने भाई-बहनों में घबराहट पैदा कर दी और उन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं के प्रति चौकस कर दिया और कलीसिया में खलबली मचा दी। स्थिति की गंभीरता देखकर मुझे समस्या का एहसास हुआ। मैंने लियू मिन के व्यवहार के बारे में सोचा, कैसे वह निरंतर सत्य को अस्वीकार करती है और उसमें यह प्रवृत्ति है कि वह दूसरों के कार्यकलापों की आलोचना करे और इनका इस्तेमाल उनसे बदला लेने के लिए करे। उसने न केवल अपने पद से बरखास्त होने के बाद अपने विगत कुकर्म को स्वीकार नहीं किया था, बल्कि उसने इस मामले का फायदा उठाना जारी रखकर इसे छोड़ा नहीं, वह हर मोड़ पर वांग यी की आलोचना करती रही और यह दावा करती रही कि उसके साथ अन्याय हुआ है; और जब मैंने यह इशारा किया था कि वह अपने कर्तव्य निर्वहन में गैर-जिम्मेदार थी तो उसने मेरे प्रति भी दुर्भावना पाल ली और मेरी पीठ पीछे आलोचना करने के लिए तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा, जिसके कारण भाई-बहन मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह रखने लगे। मैंने यह भी जाना कि जब वह एक अगुआ थी तो कलीसिया में मसीह-विरोधियों का एक गिरोह उभरने के बावजूद वह उनसे निपटने में न सिर्फ नाकाम रही थी, बल्कि उसने उपयाजक से कहा था कि वह इन मसीह-विरोधियों की प्रेमपूर्वक अधिक मदद करे, यहाँ तक कि मसीह-विरोधियों की रिपोर्ट करने वाले लोगों से यह माँग की थी कि वे अपने बारे में बेहतर समझ हासिल करें और अपने सबक सीखें। यही नहीं, जब उसकी छोटी बहन को वास्तविक कार्य न करने पर बरखास्त कर दिया गया था तो लियू मिन ने उच्च अगुआओं को कई बार लिखा, उनसे कड़ी पूछताछ की कि उसकी बहन को क्यों बरखास्त किया गया, उसने यहाँ तक कह दिया था, “अगर कोई मुझे मेरे पद से बरखास्त करता है तो मैं उसके साथ नरमी नहीं बरतूँगी।” यह पता चलने पर मैंने सोचा, “लियू मिन का व्यवहार भ्रष्टता का क्षणिक खुलासा भर नहीं है; इस समस्या का संबंध उसके प्रकृति सार से है!” मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली दानव और शैतान हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। “चाहे उन्होंने कोई भी गलती की हो या कोई भी बुरा काम किया हो, क्रूर स्वभाव वाले ये लोग किसी को भी उन्हें उजागर करने या उनकी काट-छाँट नहीं करने देंगे। अगर कोई उन्हें उजागर करे और अपमानित करे, तो वे क्रोधित हो जाते हैं, जवाबी कार्रवाई करते हैं और मुद्दे को कभी नहीं छोड़ते। उनमें धैर्य और दूसरों के प्रति सहनशीलता नहीं होती, और वे उनके प्रति आत्म-नियंत्रण नहीं दिखाते। उनका स्व-आचरण किस सिद्धांत पर आधारित होता है? ‘मैं विश्वासघात का शिकार होने के बजाय विश्वासघात करना पसंद करूँगा।’ दूसरे शब्दों में, वे किसी के द्वारा अपमानित होना बरदाश्त नहीं करते। क्या यह बुरे लोगों का तर्क नहीं है? यह ठीक बुरे लोगों का ही तर्क होता है। कोई भी उन्हें अपमानित नहीं कर सकता। उन्हें किसी के भी द्वारा थोड़ा सा भी छेड़ा जाना अस्वीकार्य होता है, और वे ऐसा करने वाले किसी भी व्यक्ति से घृणा करते हैं। वे उस व्यक्ति के पीछे लग जाते हैं, कभी भी मामले को खत्म नहीं करने देते—बुरे लोग ऐसे ही होते हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (14))। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में मैंने देखा कि लियू मिन की प्रकृति दुर्भावनापूर्ण है और वह सत्य से घृणा करती है। न केवल वह निरंतर मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों को बचाती थी, बल्कि अक्सर दूसरे लोगों के कार्यकलापों की आलोचना करती थी ताकि परेशानी खत्म होने का नाम न ले। जो लोग उसे सलाह देते थे या उसके हितों को खतरे में डालने वाली चीजें करते थे, वह उनकी आलोचना करने या उनसे बदला लेने के तरीके ढूँढ़ने के लिए अपना दिमाग दौड़ाती रहती थी। ऐसा करके उसने कलीसिया के अंदर कलह के बीज बो दिए और कलीसियाई जीवन में बाधा पैदा कर दी। उसके साथ संगति और उसकी मदद करने के अनेक प्रयासों के बावजूद उसने अभी भी पश्चात्ताप नहीं किया। उसके सिलसिलेवार व्यवहार के आधार पर मैंने यह पुष्टि कर ली कि वह वास्तव में एक बुरी इंसान है। दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ चर्चा करने के बाद हमने उसकी स्थिति उच्च अगुआओं को बता दी।
उच्च अगुआओं ने निर्देश दिया कि हम शुरुआत में लियू मिन को अलग-थलग कर दें ताकि कलीसियाई जीवन को और बाधा पहुँचने से बचाया जा सके और उससे संबंधित सामग्री जुटाएँ। उसके बाद हमें भाई-बहनों के साथ संगति कर उसका भेद पहचानना था और फिर उसे निष्कासित कर देना था। यह सुनकर मेरे मन में कुछ चिंताएँ उठीं और मैं सोचने लगी, “पिछली दफा अपर्याप्त साक्ष्य होने के कारण लियू मिन को निष्कासित नहीं किया गया था और जब उसे पता चला तो उसने अंतहीन मुसीबतें खड़ी कर दीं और वांग यी को चैन से नहीं रहने दिया। जब मैंने उसे उसकी समस्याएँ बताई थीं तो उसने न केवल इन्हें स्वीकारा नहीं, बल्कि मेरी आलोचना करने के लिए तथ्यों को लगातार तोड़ा-मरोड़ा। जब उसकी छोटी बहन को बरखास्त किया गया था तो उसने यहाँ तक कहा था कि अगर किसी ने खुद उसे बरखास्त किया तो वह उन्हें आसानी से नहीं छोड़ेगी। लियू मिन की मानवता इतनी बुरी है; अगर उसके अपने निष्कासन का पता चल गया तो क्या वह बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा नहीं करेगी? वह न जाने मेरे लिए क्या मुसीबतें पैदा करेगी? कहीं वह मुझसे बदला तो नहीं लेगी? वह तो यह भी जानती है कि मैं कहाँ रहती हूँ। अगर वह गुस्से में मेरे घर आकर झगड़ने लगे और ऐसा तमाशा खड़ा कर दे कि मेरे सारे पड़ोसियों को मेरी आस्था के बारे में पता चल जाए और मैं खतरे में पड़ जाऊँ तो क्या होगा?” मैंने इसके बारे में जितना ज्यादा सोचा, मैं उतनी ही भयभीत होती गई। मैं नहीं जानती थी कि आसन्न स्थिति का सामना कैसे करूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे मार्गदर्शन माँगा। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधियों का स्वभाव बहुत ही शातिर होता है। अगर तुम उनकी काट-छाँट करने या उन्हें उजागर करने की कोशिश करोगे तो वे तुमसे नफरत करेंगे और जहरीले साँप की तरह तुम पर अपने दाँत गड़ा देंगे। तुम चाहे कितनी भी कोशिश करो, उन्हें बदल नहीं पाओगे या उनसे पीछा नहीं छुड़ा पाओगे। जब ऐसे मसीह-विरोधियों से तुम्हारा सामना होता है तो क्या तुम लोगों को डर लगता है? कुछ लोग डर जाते हैं और कहते हैं, ‘मुझमें उनकी काट-छाँट करने की हिम्मत नहीं है। वे जहरीले साँपों की तरह बहुत ही खौफनाक हैं और अगर वे अपनी कुंडली में मुझे लपेट लें तो मैं खत्म ही हो जाऊँगा।’ ये किस तरह के लोग हैं? उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, वे किसी काम के नहीं हैं, वे मसीह के अच्छे सैनिक नहीं हैं और वे परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते। तो जब ऐसे मसीह-विरोधियों से तुम लोगों का सामना हो, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? अगर वे तुम्हें धमकाते हैं या तुम्हारी जान लेने की कोशिश करते हैं तो क्या तुम्हें डर लगेगा? ऐसी परिस्थितियों में तुम्हें तुरंत अपने भाई-बहनों के साथ मिलकर खड़े होना चाहिए, उनकी छानबीन करनी चाहिए, सबूत इकट्ठा करके मसीह-विरोधी को तब तक उजागर करना चाहिए जब तक कि उसे कलीसिया से नहीं निकाल दिया जाता। यह समस्या को जड़ से हल करना है। जब तुम्हें किसी मसीह-विरोधी का पता चले और तुम स्पष्टता से पहचान लो कि उसमें एक बुरे व्यक्ति की विशेषताएं हैं और वह दूसरों को दंडित करने और उनके खिलाफ प्रतिशोध लेने में सक्षम है तो उससे निपटने के लिए उसके बुरे काम करने और सबूत जुटाने का इंतजार मत करो। यह तो निष्क्रिय होना है और इससे पहले ही कुछ न कुछ नुकसान हो चुका होगा। सबसे अच्छा तो यह है कि जब मसीह-विरोधी यह दिखा दें कि उनमें बुरे व्यक्ति की विशेषताएँ हैं और वे अपना धूर्त और दुर्भावनापूर्ण स्वभाव प्रकट कर दें और वे कुछ करने ही वाले हों तो उसी समय उनसे निपटकर उन्हें संबोधित, बहिष्कृत और निष्कासित कर लिया जाए। यह सबसे समझदारी भरा नजरिया है। कुछ लोग मसीह-विरोधियों के प्रतिशोध से डरकर उन्हें उजागर करने का साहस नहीं करते। क्या यह मूर्खता नहीं है? तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने में असमर्थ हो, जो सहज रूप से दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के प्रति निष्ठाहीन हो। तुम डरते हो कि मसीह-विरोधी तुमसे बदला लेने की शक्ति पा सकता है—समस्या क्या है? क्या यह हो सकता है कि तुम परमेश्वर की धार्मिकता पर भरोसा नहीं करते? क्या तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के घर में सत्य राज करता है? अगर कोई मसीह-विरोधी तुममें भ्रष्टता की कुछ समस्याएँ पकड़ भी ले और उस पर हंगामा खड़ा कर दे, तो भी तुम्हें डरना नहीं चाहिए। परमेश्वर के घर में समस्याएँ सत्य सिद्धांतों के आधार पर हल की जाती हैं। अपराध करने का यह मतलब नहीं कि कोई व्यक्ति बुरा है। परमेश्वर का घर कभी किसी को भ्रष्टता के क्षणिक प्रकाशन या कभी-कभार होने वाले अपराध के कारण परेशान नहीं करता। परमेश्वर का घर उन मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों से निपटता है, जो लगातार गड़बड़ी पैदा करते और बुराई करते हैं, और जो चुटकी भर भी सत्य नहीं स्वीकारते। परमेश्वर का घर कभी किसी अच्छे व्यक्ति के साथ अन्याय नहीं करेगा। वह सबके साथ उचित व्यवहार करता है। अगर नकली अगुआ या मसीह-विरोधी किसी अच्छे व्यक्ति पर गलत आरोप लगा भी दें, तो भी परमेश्वर का घर उसे दोषमुक्त कर देगा। कलीसिया कभी ऐसे अच्छे व्यक्ति को नहीं निकालेगी या परेशान नहीं करेगी, जो मसीह-विरोधियों को उजागर कर सकता है और जिसमें न्याय की भावना है। लोगों को हमेशा यह डर रहता है कि मसीह-विरोधी किसी बात का फायदा उठाकर उनसे बदला ले लेंगे। लेकिन क्या तुम परमेश्वर को अपमानित करने और उसके द्वारा ठुकराए जाने से नहीं डरते? अगर तुम्हें डर है कि कोई मसीह-विरोधी तुम्हारे खिलाफ बदला लेने के मौके का फायदा उठा सकता है, तो उस मसीह-विरोधी के बुरे कर्मों के सबूत इकट्ठा करके उसकी रिपोर्ट करो और उसे उजागर करो? ऐसा करने से, तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की स्वीकृति और समर्थन प्राप्त करोगे, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर तुम्हारे अच्छे कर्मों और न्यायपूर्ण कार्यों को याद रखेगा। तो, क्यों न ऐसा करें? परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हमेशा परमेश्वर के आदेश को ध्यान में रखना चाहिए। बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को स्वच्छ करना शैतान के खिलाफ युद्ध में सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई है। अगर यह लड़ाई जीत ली जाती है, तो यह एक विजेता की गवाही बन जाएगी। शैतानों और राक्षसों के खिलाफ लड़ाई एक अनुभवजन्य गवाही है जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों के पास होनी चाहिए। यह एक सत्य वास्तविकता है जो विजेताओं के पास होनी चाहिए। परमेश्वर ने लोगों को बहुत सारा सत्य प्रदान किया है, इतने लंबे समय तक तुम्हारी अगुआई की है और तुम्हें इतना कुछ दिया है, ताकि तुम गवाही दे सको और कलीसिया के कार्य की रक्षा करो। ऐसा लगता है कि जब बुरे लोग और मसीह-विरोधी बुरे कर्म करते हैं और कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं, तो तुम डरपोक बनकर पीछे हट जाते हो, हाथ खड़े कर भाग जाते हो—तुम किसी काम के नहीं हो। तुम शैतानों को नहीं हरा सकते, तुम गवाह नहीं बने हो और परमेश्वर तुमसे घृणा करता है। इस महत्वपूर्ण क्षण में तुम्हें मजबूती से खड़े होकर शैतानों के खिलाफ युद्ध छेड़ना चाहिए, मसीह-विरोधियों के बुरे कर्मों को उजागर करना चाहिए, उनकी निंदा कर उन्हें कोसना चाहिए, उन्हें छिपने की कोई जगह नहीं देनी चाहिए और उन्हें कलीसिया से निकाल बाहर करना चाहिए। केवल इसे ही शैतान पर विजय पाना और उनकी नियति को खत्म करना कहा जा सकता है। तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो, परमेश्वर के अनुयायी हो। तुम चुनौतियों से नहीं डर सकते; तुम्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए। विजेता होने का यही अर्थ है। अगर तुम चुनौतियों से डरकर और बुरे लोगों या मसीह-विरोधियों के प्रतिशोध से डरकर उनसे समझौता कर लेते हो, तो तुम परमेश्वर के अनुयायी नहीं हो और तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से नहीं हो। तुम किसी काम के नहीं हो, तुम तो सेवाकर्मियों से भी कमतर हो। कुछ कायर लोग कह सकते हैं, ‘मसीह-विरोधी बहुत भयानक होते हैं; वे कुछ भी करने में सक्षम हैं। अगर वे मुझसे प्रतिशोध लेते हैं तो क्या होगा?’ यह भ्रमित सोच है। अगर तुम मसीह-विरोधियों के प्रतिशोध से डरते हो, तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था कहाँ है? क्या परमेश्वर ने तुम्हारे जीवन के इतने वर्षों में तुम्हारी रक्षा नहीं की है? क्या मसीह-विरोधी भी परमेश्वर के हाथ में ही नहीं हैं? अगर परमेश्वर अनुमति न दे तो वे तुम्हारे साथ क्या कर लेंगे? इसके अलावा, चाहे मसीह-विरोधी कितने भी बुरे क्यों न हों, वे वास्तव में क्या करने में सक्षम हैं? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए एकजुट होकर उन्हें उजागर करना और उनसे निपटना बहुत आसान नहीं है? तो फिर मसीह-विरोधियों से डरना क्यों? ऐसे लोग किसी काम के नहीं हैं और परमेश्वर का अनुसरण करने के लायक नहीं हैं। अपने घर चले जाओ, बच्चे पालो और अपना जीवन जियो। कलीसिया के काम में बाधा डालने वाले और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाने वाले मसीह-विरोधियों के सामने परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके बुरे कर्मों का जवाब कैसे देना चाहिए? परमेश्वर का अनुसरण करने वालों को अपनी गवाही में कैसे दृढ़ रहना चाहिए? उन्हें शैतान और मसीह-विरोधियों की ताकतों के खिलाफ कैसे लड़ना चाहिए? तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर उसके प्रति निष्ठावान हो या फिर एक किनारे बैठकर परमेश्वर को धोखा दे रहे हो, यह पूरी तरह से तब प्रकट होगा जब मसीह-विरोधी परमेश्वर को परेशान करेंगे, बुराई करेंगे और उसका विरोध करेंगे। अगर तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाले और निष्ठावान नहीं हो, तो तुम परमेश्वर को धोखा देने वाले व्यक्ति हो। कोई दूसरा विकल्प नहीं है। कुछ भ्रमित व्यक्ति और विवेकहीन लोग बीच का रास्ता अपनाते हैं और खड़े होकर तमाशा देखते हैं। परमेश्वर की नजरों में, इन लोगों में परमेश्वर के प्रति निष्ठा की कमी है और वे परमेश्वर को धोखा देते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों को उजागर करना परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों का दायित्व और कर्तव्य है और यह कलीसिया के कार्य की रक्षा करने की असली अभिव्यक्ति है। लेकिन मैं तो बुरे लोगों को उजागर करने और उनसे निपटने के प्रति बहुत भयभीत थी। मुझे हमेशा यही लगता था कि अगर मैंने उन्हें उजागर कर दिया तो वे जहरीले साँप की तरह मेरे चारों ओर कुंडली बना लेंगे और मैं उनसे पीछा नहीं छुड़ा पाऊँगी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, वे किसी काम के नहीं हैं, वे मसीह के अच्छे सैनिक नहीं हैं और वे परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते।” जब मैंने ये वचन पढ़े कि “वे किसी काम के नहीं हैं,” तो मुझे आत्म-ग्लानि और घबराहट हुई। एक कलीसिया अगुआ होने के नाते मुझे परमेश्वर के इरादे का ख्याल करना चाहिए था और कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन के सामान्य परिचालन की रक्षा करनी चाहिए थी। लेकिन जब मैंने देखा कि लियू मिन सब जगह ये अफवाहें फैला रही है और आलोचना कर रही है कि अगुआ और कार्यकर्ता सिद्धांतों के बिना लोगों को निष्कासित कर रहे हैं, जिससे भाई-बहन अगुआओं और कार्यकर्ताओं के प्रति पूर्वाग्रह रखने लगे और उनसे सावधान रहने लगे और कलीसियाई जीवन में गंभीर बाधा उत्पन्न हो गई तो मुझमें लियू मिन से सिद्धांतों के अनुसार निपटने की हिम्मत नहीं थी। मुझे डर था कि वह मेरे पीछे पड़कर मुझसे बदला लेगी, मुझे सताएगी और मेरे लिए मुसीबत खड़ी करेगी। अपने हितों को बचाने के लिए मैंने कछुए की तरह पेश आना चाहा, बुरे लोगों को कलीसिया को अस्त-व्यस्त करते देखते रहना लेकिन उससे न निपटना और कलीसिया के कार्य की समय पर रक्षा न करना। मैंने वास्तव में अपनी जिम्मेदारियाँ ठीक से नहीं निभाईं। मैं इतनी ज्यादा स्वार्थी और ऐसी डरपोक निकम्मी थी! खासकर जब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर तुम मसीह-विरोधियों के प्रतिशोध से डरते हो, तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था कहाँ है? क्या परमेश्वर ने तुम्हारे जीवन के इतने वर्षों में तुम्हारी रक्षा नहीं की है? क्या मसीह-विरोधी भी परमेश्वर के हाथ में ही नहीं हैं? अगर परमेश्वर अनुमति न दे तो वे तुम्हारे साथ क्या कर लेंगे?” मैं और भी ज्यादा शर्मिंदा हो गई। परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है और मसीह-विरोधी और बुरे लोग भी परमेश्वर के हाथों में हैं। परमेश्वर की अनुमति के बिना वे कुछ नहीं कर सकते। मैंने परमेश्वर में विश्वास किया था और परमेश्वर के इतने सारे वचन खाए-पिए थे, फिर भी परमेश्वर में मेरी सच्ची आस्था नहीं थी। मैं सचमुच दयनीय थी! इस बारे में सोचकर मुझे ऐसी निराशाजनक इंसान होने पर खुद से घृणा हुई और मैंने मन बना लिया कि इस बुरी इंसान को स्वच्छ करने के लिए मैं परमेश्वर के इरादे का ख्याल रखूँगी और परमेश्वर पर भरोसा करूँगी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे आस्था व शक्ति माँगी ताकि मैं सिद्धांतों पर अडिग रहूँ और इस बुरी इंसान से न डरूँ।
बाद में हमने लियू मिन के व्यवहार को उजागर किया और इसका गहन-विश्लेषण किया और उसे अलग-थलग कर दिया। लियू मिन ने इसे स्वीकार नहीं किया या आत्म-चिंतन बिल्कुल नहीं किया और उसने यहाँ तक कह दिया कि उसने ये चीजें इसलिए कीं क्योंकि भाई-बहनों ने उसकी मदद नहीं की थी। उसे अपने बुरे कर्मों का एहसास नहीं था, पछतावा होना तो दूर की बात है। उस समय भाई-बहनों के पास उसका भेद पहचानने का ज्यादा विवेक नहीं था। उन्हें लगता था कि लियू मिन में कुछ खूबियाँ हैं, वह तार्किक और स्पष्ट रूप से संगति करती है और वह पीड़ा सहने और खुद को खपाने में सक्षम है। उनके मन में उसकी अच्छी छाप थी। मैं परेशान हो गई और सोचने लगी, “अगर मैं भाई-बहनों के साथ संगति कर लियू मिन का एक बुरी इंसान मानकर गहन विश्लेषण करूँ और उन्होंने इसे न स्वीकारा और उसके निष्कासन से असहमत हुए तो मैं क्या करूँगी? क्या हर कोई यह नहीं सोचेगा कि मैंने चीजों को पक्षपातपूर्ण तरीके से संभाला और मेरे बारे में पूर्वाग्रह नहीं पाल लेगा? क्या कलीसिया में अराजकता नहीं फैल जाएगी? अगर ऐसा हुआ तो क्या मुझे जिम्मेदार ठहराया जाएगा? क्या मुझे बरखास्तगी का सामना करना पड़ेगा?” उस समय मुझे लगा कि मैं फिर से कायरता और चिंता की स्थिति में जी रही हूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपने विरुद्ध विद्रोह व सत्य का अभ्यास करने को तैयार हो गई। फिर मैंने यह खोजा कि भाई-बहनों के साथ किस प्रकार संगति करूँ जिससे नतीजे हासिल हों। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बारहवीं जिम्मेदारी में तीसरी अपेक्षा यह है कि बुरे लोगों द्वारा उत्पन्न की गई विघ्न-बाधाओं से निपटते समय, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ मिलकर परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना चाहिए ताकि वे आत्मचिंतन कर सकें और स्वयं को जान सकें, और वास्तविक बदलाव ला सकें। उन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सत्य वास्तविकता में प्रवेश कराने, उनके भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने और परमेश्वर का अनुसरण करने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, और परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होना चाहिए। केवल इस तरह का कार्य परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होता है। एक बात तो यह है कि इस तरह से काम करने वाले अगुआ और कार्यकर्ता समस्याओं का समाधान करने और कार्य करते समय स्वयं को सत्य से लैस करने में सक्षम होते हैं। इसके अलावा, समस्याओं का समाधान करने के लिए सत्य पर संगति करने के द्वारा वह भाई-बहनों को सत्य समझने, स्वयं के बारे में आत्मचिंतन करने और स्वयं को जानने, अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्यागने, अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने, लोगों को पहचानने और उनके साथ व्यवहार करने, परमेश्वर का अनुसरण करने और उसके प्रति समर्पित होने, दूसरों द्वारा विवश न होने, अपनी गवाही में दृढ़ रहने में सक्षम होने में सहायता करते हैं। यह अगुआओं और कार्यकर्ताओं के कर्तव्यों को पूरा करना है; अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कलीसिया का कार्य करते समय समस्याओं को हल करने के लिए इस सिद्धांत का अभ्यास करना चाहिए। कलीसिया में भले ही कैसी भी समस्याएँ उत्पन्न हों, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को सबसे पहले सत्य की तलाश करनी चाहिए, परमेश्वर के इरादों को समझना चाहिए, और साथ मिलकर परमेश्वर का मार्गदर्शन खोजना चाहिए। फिर उन्हें विभिन्न मौजूदा समस्याओं का समाधान करने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों को जानना चाहिए। समस्याओं का समाधान करने की प्रक्रिया में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को भाई-बहनों के साथ परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों के बारे में और ज्यादा संगति करनी चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के आधार पर समस्याओं का सार समझना चाहिए। उन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों से इन मुद्दों को पहचानने के लिए उनकी खुद की समझ पर संगति करानी चाहिए। एकबार जब अधिकांश लोग एकसमान समझ और एकमत होने में समर्थ हो जाते हैं, तो समस्याओं का समाधान करना आसान हो जाता है। समस्याओं का समाधान करने में, घटनाओं का बार-बार जिक्र न करो, या मामूली ब्यौरों के पीछे मत भागो या समस्याओं में शामिल व्यक्तियों को दोष न दो। सबसे पहले, मामूली मुद्दों पर ध्यान न दो, इसके बजाय, स्पष्ट रूप से सत्य पर संगति करो, क्योंकि इससे समस्याओं की प्रकृति का खुलासा होगा। केवल इस तरह से परमेश्वर के चुने हुए लोगों की परमेश्वर के वचनों के आधार पर मुद्दों को पहचानने, लोगों, घटनाओं और उत्पन्न होनेवाली चीजों से विवेक प्राप्त करने और उनसे व्यावहारिक सबक सीखने में मदद मिलती है। यह उन्हें उन वचनों और धर्म-सिद्धांतों की वास्तविक जीवन से तुलना करने का भी अवसर देता है जिन्हें वे आमतौर पर समझते हैं, जिससे वे सत्य को सही मायने में समझने में सक्षम हो जाते हैं। क्या अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यही काम नहीं करना चाहिए? ... कलीसिया के अगुआओं को परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई कैसे करनी चाहिए? प्रमुख तरीका है कि वास्तविक जीवन की समस्याओं की पहचान करने और उन्हें हल करने में परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई करना, वास्तविक जीवन में परमेश्वर के वचन का अभ्यास और अनुभव करना ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग न केवल सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हों, अपितु नकारात्मक चीजों और नकारात्मक लोगों—नकली अगुआओं, नकली कार्यकर्ताओं, बुरे लोगों, छद्म-विश्वासियों, और मसीह-विरोधियों को पहचानने में भी सक्षम हों। विभिन्न लोगों को पहचानने का उद्देश्य समस्याओं का समाधान करना है। केवल बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों द्वारा उत्पन्न की गई बाधाओं का समाधान करके ही कलीसिया का कार्य निर्विघ्न रूप से चल सकता है, और परमेश्वर की इच्छा को कलीसिया में कार्यान्वित किया जा सकता है। उसी समय, बुरे लोगों को संबोधित करना भी गलतियाँ करने या बुराई करने से बचने की चेतावनी का काम करता है, और व्यक्ति को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम बनाता है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (20))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं यह समझ गई कि जब बुरे लोग और मसीह-विरोधी कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी पैदा करें तो अगुआ और कार्यकर्ताओं के दायित्व का एक पहलू यह है कि उन्हें खुद को और भाई-बहनों को सत्य से लैस करना चाहिए और मिलकर सबक सीखने चाहिए, मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों का भेद पहचानने में उनकी अगुआई करनी चाहिए और उनसे गुमराह और परेशान नहीं होना चाहिए। साथ ही उन्हें कलीसिया के स्वच्छता कार्य का महत्व समझने में भाई-बहनों का मार्गदर्शन भी करना चाहिए। छद्म-विश्वासियों, मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों को दूर करके ही परमेश्वर के चुने हुए लोग एक स्थिर माहौल में सत्य का अनुसरण और अपने कर्तव्यों का अच्छे से निर्वहन कर सकते हैं। ये चीजें समझकर मैंने सोचा, “अभी भाई-बहनों ने लियू मिन का भेद नहीं पहचाना है और कुछ तो उसकी आराधना तक करते हैं क्योंकि वे उसके प्रत्यक्ष गुण और उसकी वाक्पटुता देखते हैं लेकिन वे उसके कार्यकलापों के मंसूबों और प्रकृति के आधार पर उसका सार और सत्य के प्रति उसका रवैया नहीं पहचानते हैं। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार लियू मिन के व्यवहार और कार्यकलापों का भेद पहचानने में भाई-बहनों की अगुआई करनी चाहिए जिससे वे और आगे गुमराह न हों। यही एक अगुआ के दायित्व का निर्वहन है।” फिर मैंने लोगों के प्रकृति सार का भेद पहचानने के सत्य खोजे और भाई-बहनों के साथ संगति के लिए लियू मिन के सिलसिलेवार व्यवहार को आधार बनाया। सुनने के बाद वे लियू मिन को निष्कासित करने पर सहमत हो गए। कुछ भाई-बहनों ने तो यहाँ तक कहा, “अब मुझे समझ आया कि जब परमेश्वर यह उजागर करता है कि बुरे लोग कैसे पश्चात्ताप करने से हठपूर्वक इनकार करते हैं तो उसका अर्थ क्या होता है, लियू मिन इसकी जीती-जागती मिसाल है।” यह नतीजा देखकर मेरा दिल परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गया और मैं जान गई कि यह परमेश्वर के वचनों का नतीजा है। बाद में हमने मिलकर संगति की और देखा कि परमेश्वर द्वारा कलीसिया में मसीह-विरोधी और बुरे लोग होने की अनुमति देने में उसका अच्छा इरादा होता है, उसने लियू मिन के इस वास्तविक उदाहरण का इस्तेमाल हमें यह दिखाने के लिए किया कि बुरे लोग कैसे होते हैं। यह सिद्धांत के खोखले शब्द बोलने से कहीं ज्यादा व्यावहारिक है।
बाद में मैंने अपने बारे में भी चिंतन किया, मुझे अचरज हुआ कि जब बुरे लोगों के निष्कासन की बात आती थी तो मैं सिद्धांतों का पालन करने को लेकर इतनी भयभीत और संकोची क्यों हो जाती थी। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। उस प्रकृति में विशिष्ट रूप से क्या शामिल होता है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीजें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीजें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, ‘लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?’ तो लोग जवाब देंगे, ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गए हैं। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे ऐसा बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’—यही मनुष्य का जीवन-दर्शन है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति बन गए हैं, और वे भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर हैं। यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है। कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों पर मनन कर मुझे एहसास हुआ कि लियू मिन को निष्कासित करने को लेकर मेरे हिचकने और परेशान होने का कारण यह था कि मैं शैतानी जहर से नियंत्रित हो रही थी, जैसे : “समझदार लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं, वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं,” “परेशानी जितनी कम हो उतना अच्छा है,” और “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” साथ ही “जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।” जब चीजें घटित होती थीं तो मैं यह सोचकर शुरुआत करती थी कि खुद को कैसे बचाऊँ और यह सुनिश्चित करती थी कि मेरे हितों को नुकसान न पहुँचे। एक कलीसिया अगुआ के रूप में मैंने लियू मिन के बुरी इंसान के रूप में सार को स्पष्ट रूप से पहचान लिया था, लेकिन मैं उसे नाराज करने से और उसकी बदला लेने की भावना से डरती थी और इस बात से परेशान थी कि भाई-बहनों में उसका भेद पहचानने की कमी के कारण वे फिर से मेरे खिलाफ पूर्वाग्रह पाल लेंगे और अगर ऐसा हुआ तो कलीसिया में अराजकता फैल जाएगी और मुझे बरखास्त किया जा सकता है और शायद मैं अपना रुतबा न बचा सकूँ। मैंने इस बारे में चाहे जैसे सोचा, मुझे लगा कि इस बुरी इंसान को उजागर करना मेरे लिए हानिकारक होगा, इसलिए मैं पीछे हट गई और समय रहते मैंने इस बुरी इंसान को निष्कासित नहीं किया। कलीसिया का स्वच्छता कार्य कलीसिया को शुद्ध करने और यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि कलीसिया के कार्य और कलीसियाई जीवन में बाधा पैदा न हो। लेकिन मैं कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं कर पाई और भाई-बहनों को गुमराह होते और कलीसियाई जीवन में बाधा पड़ते देखती रही, मैंने यह सोचकर कुछ नहीं किया कि जब तक मेरे हितों को नुकसान नहीं होता, तब तक सब ठीक है। मैंने देखा कि इन शैतानी जहरों के मुताबिक जीते हुए मेरी अंतरात्मा कुंद होती जा रही थी और मैं सिर्फ अपने हितों के बारे में ही सोच पाती थी। मैंने इस बारे में जितना ज्यादा सोचा उतना ही अधिक मुझे यह लगा कि मैं कितनी ज्यादा स्वार्थी और घृणित हूँ, कि मुझमें परमेश्वर के प्रति कोई निष्ठा नहीं है और मुझमें मानवता की नितांत कमी है! तब जाकर ही मुझे यह एहसास हुआ कि अपने कार्यकलापों में इन शैतानी जहरों पर भरोसा करना शैतान के अनुचर बनकर परमेश्वर का प्रतिरोध करना और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा करना है। अगर मैंने प्रायश्चित्त न किया तो मैं और ज्यादा बुराइयाँ ही करूँगी और अंततः परमेश्वर मुझे तिरस्कृत कर हटा देगा! मैंने सिद्धांतों का पालन क्यों नहीं किया, इस बारे में मेरी एक और चिंता यह थी कि इस बुरी इंसान से ठीक से न निपटने के कारण अगर कलीसिया में अराजकता फैल गई तो मुझे बरखास्त किया जा सकता है। अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “परमेश्वर के घर में कर्तव्य करने वाले लोग ऐसे होने चाहिए जो कलीसिया के काम को अपना दायित्व समझें, जो जिम्मेदारी लें, सत्य सिद्धांत कायम रखें, और जो कष्ट सहकर कीमत चुकाएँ। अगर कोई इन क्षेत्रों में कम होता है, तो वह कर्तव्य करने के अयोग्य होता है, और कर्तव्य करने की शर्तों को पूरा नहीं करता है। कई लोग ऐसे होते हैं, जो कर्तव्य पालन की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। ... वे मन में कहते हैं, ‘अगर यह चीज मुझे ही सुलझानी है, तो अगर मैं गलती कर बैठा तो होगा? जब वे देखेंगे कि किसे दोष देना है, तो क्या वे मुझे नहीं पकड़ेंगे? क्या इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले मुझ पर नहीं आएगी?’ उन्हें इसी बात की चिंता रहती है। लेकिन क्या तुम मानते हो कि परमेश्वर सबकी जाँच करता है? गलतियाँ सबसे होती हैं। अगर किसी नेक इरादे वाले व्यक्ति के पास अनुभव की कमी है और उसने पहले कोई मामला नहीं सँभाला है, लेकिन उसने पूरी मेहनत की है, तो यह परमेश्वर को दिखता है। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों और मनुष्य के हृदय की जाँच करता है। अगर कोई इस पर भी विश्वास नहीं करता, तो क्या वह छद्म-विश्वासी नहीं है? फिर ऐसे व्यक्ति के कर्तव्य निभाने के मायने ही क्या हैं?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि परमेश्वर धार्मिक है, वह हर चीज की पड़ताल करता है और कलीसिया लोगों से सिद्धांतों के अनुसार निपटती है और इसका आधार उनका नियमित प्रदर्शन और प्रकृति सार होता है। अगर किसी व्यक्ति का इरादा परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होने और कलीसिया के कार्य की रक्षा करने का है और अगर बात सिर्फ इतनी है कि सत्य को न समझ पाने या किसी समस्या के सार की असलियत न जान पाने के कारण वह इससे ठीक से निपट नहीं पा रहा है लेकिन वह संगति और मदद के जरिए समय रहते चीजों को पूरी तरह बदल लेता है तो कलीसिया ऐसे लोगों के साथ उचित रूप से पेश आएगी और उनसे निपटेगी नहीं या उन्हें बरखास्त नहीं करेगी। लेकिन अगर कोई बुरे इरादों के साथ जानबूझकर अराजकता पैदा करता है तो कलीसिया उसके साथ सिद्धांतों के अनुसार निपटेगी। मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं समझती थी या यह नहीं मानती थी कि परमेश्वर लोगों के दिलों की पड़ताल करता है, न ही मैं यह मानती थी कि कलीसिया में सत्य का शासन चलता है। मैं सिर्फ अपनी ही धारणाओं और कल्पनाओं में जीते हुए परेशान और चिंतित रहती थी। यह वाकई विकृत सोच थी! इन चीजों को समझने से मुझे पूरी तरह मुक्ति का एहसास हुआ। मैंने यह भी पढ़ा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अब तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। कोई कर्तव्य निभाने का पहला सिद्धांत क्या है? वह यह है कि पहले तुम्हें भरसक प्रयास करते हुए अपने पूरे दिल से वह कर्तव्य निभाना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए। यह एक सत्य सिद्धांत है, जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। भविष्य में जब भी मसलों से मेरा सामना हो, मुझे परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए और कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी चाहिए। यही मेरे कर्तव्य का अच्छे से निर्वहन है।
बाद में मैंने अपनी साथी बहन के साथ जाकर लियू मिन के बुरे कर्मों को उजागर किया और उसके निष्कासन की घोषणा की। हालाँकि मेरे मन में अभी भी कुछ चिंताएँ थीं, मगर मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुममें शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफ़ाश कर सकोगे? क्या तुम मेरे इरादों को स्वयं में संतुष्ट होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ उसके वचनों में उसके प्रश्नों में निहित हैं। परमेश्वर यह उम्मीद करता है कि हम उसके इरादे का ध्यान रखें, सिद्धांतों का पालन करें और बुरे लोगों को उजागर करने की हिम्मत रखें। मैं अब और परमेश्वर को निराश नहीं कर सकती थी। मुझे सत्य का अभ्यास करना था और कलीसिया के कार्य को बचाना था। इसलिए मैंने अपनी साथी बहन के साथ दिल-दिमाग से मिलकर प्रार्थना की। परमेश्वर के वचनों के आधार पर हमने लियू मिन की समस्याओं को उजागर कर इनका गहन विश्लेषण किया। यद्यपि वह अब भी खुद को नहीं जानती थी, लेकिन उसके पास कहने को कुछ नहीं था। यह नतीजा देखकर मैं अपने दिल में परमेश्वर का आभार व्यक्त किए बिना रह नहीं पाई। इस अनुभव के बाद मेरी परमेश्वर में कुछ आस्था बढ़ गई और मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की कुछ समझ हासिल हो गई। मैंने उस शांति का अनुभव किया जो सत्य का अभ्यास करने से आती है।