76. मैंने छद्मवेश और छल से खुद को नुकसान पहुँचाया
सितंबर 2021 में कलीसिया ने मुझे वीडियो बनाने के एक नए प्रोजेक्ट के काम में लगाया—यह प्रोजेक्ट काफी मुश्किल लग रहा था। मुझे पता था कि सिद्धांतों और पेशेवर क्षमता के मामले में मुझमें कमी है। इसलिए मैंने कड़ी मेहनत से पढ़ाई की और सभाओं में हिस्सा लेते समय और समस्याओं पर चर्चा करते समय मैं इस उम्मीद में हमेशा सक्रिय रूप से अपनी बात रखती थी कि दूसरे लोग देख लेंगे कि मुझमें अच्छी खासी काबिलियत है और सोचेंगे कि मैं विकसित होने लायक हूँ। लेकिन कुछ ही समय में एक के बाद एक कई समस्याएँ सामने आने लगीं।
एक बार जब हम एक वीडियो प्रोडक्शन पर चर्चा कर रहे थे तो मैंने एक ऐसी बात बताई जो मुझे समस्या लग रही थी। लेकिन सैद्धांतिक मूल्यांकन के आधार पर बाकी सभी ने माना कि यह कोई समस्या नहीं है। इससे मैं हतोत्साहित हो गई, मानो मैं किसी काम की नहीं हूँ। एक और बार जब मेरे मन में एक वीडियो के लिए सुझाव आया तो मैंने अपनी राय बताने से पहले इसके बारे में बहुत सोचा। लेकिन इसे ठीक से नहीं समझा पाई। बोलने के बाद मुझे पछतावा हुआ, मैंने सोचा, “अगर मुझे पता होता कि लोग ऐसी प्रतिक्रिया देंगे तो मैं कुछ कहती ही नहीं!” पहले जब मैं आसान प्रोजेक्ट बना रही थी तो जब भी मैं कोई सुझाव या राय देता तो कमोबेश हर बार मुझे अपने भाई-बहनों की स्वीकृति मिल जाती थी। लेकिन अब मैं समस्याएँ साफ नहीं देख पाती और हमेशा गलतियाँ करती रहती हूँ। क्या भाई-बहन सोचते होंगे कि मैं उतनी काबिल नहीं हूँ? अगर चीजें ऐसे ही चलती रहीं तो क्या वे सवाल करने लगेंगे कि मैं इस काम के लिए लायक भी हूँ या नहीं? ऐसा लग रहा था मानो भविष्य में सुझाव देते या कोई राय रखते समय मुझे अधिक सतर्क रहना होगा—अगर मैं किसी चीज के बारे में निश्चित नहीं हूँ तो बेहतर होगा कि मैं कुछ न कहूँ और जितना संभव हो गलतियाँ करने से बचूँ ताकि दूसरे यह सच्चाई न देख पाएँ कि मैं कितनी अयोग्य हूँ। लेकिन फिर मेरा सबसे भयानक डर हकीकत बन गया। एक दिन एक सभा में संगति करते समय समूह अगुआ ने अचानक मुझे टोक दिया। उसने कहा कि मैं विषय से भटक गई हूँ और मेरी संगति परमेश्वर के वचनों के इर्द-गिर्द होनी चाहिए। मैं बहुत शर्मिंदा हुई—मेरा चेहरा लाल हो गया और मैं बस चाहती थी कि धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ। पूरी सभा के दौरान मैं बस अपना सिर झुकाकर मुरझाए हुए फूल की तरह बैठी रही। मैं शर्मिंदा, अपमानित और निस्तेज महसूस कर रही थी। शुरू से ही मेरी पेशेवर क्षमताएँ बाकी सबसे काफी कम थीं और समस्याओं पर मेरा नजरिया सतही था। लेकिन अब मैं बोलते समय मुख्य बिंदुओं को भी साफ नहीं बता पा रही थी। अब सब मेरे बारे में क्या सोचेंगे क्योंकि इतने कम समय में मेरी इतनी सारी कमियाँ उजागर हो गई हैं? क्या वे मेरी काबिलियत को कमतर समझेंगे? उस पल से जब भी हम साथ मिलकर काम करने के बारे में बात करते तो मैं बेचैन हो जाती और मुझे घबराहट होने लगती। मैं सुझाव देना चाहती लेकिन जब भी मुझे कोई सुझाव सूझता तो मैं फिर से सोचती और बोलने की हिम्मत नहीं कर पाती, डरती रहती कि अगर मैंने कोई गलती कर दी तो हर कोई सोचेगा कि मैं किसी लायक नहीं हूँ। मैंने तय किया कि कुछ गलत कहने से बेहतर है कि कुछ न कहा जाए। इसलिए समस्याओं पर चर्चा करते समय मैंने बोलना ही बंद कर दिया। कभी-कभी मैं खुद को दूसरों की प्रशंसा करते हुए पाती जो हमेशा अपने मन के विचार खुलकर व्यक्त करते। लेकिन मैं अभी तक खुद ऐसा नहीं कर पाई थी—मेरे पास वैसी हिम्मत नहीं थी। दरअसल मुझे पता था कि यह गलत है। मुझे बेचैनी और परेशानी महसूस होती थी, लेकिन मैं नहीं जानती थी कि क्या करूँ। कुछ समय बाद हमारी कलीसिया की एक अगुआ को बर्खास्त कर दिया गया। जब ऊपरी अगुआओं ने उसका प्रदर्शन उजागर किया तो उन्होंने बताया कि उसने अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा अपनी खामियाँ छिपाने की कोशिश की और कभी खुलकर बात नहीं की। उनके शब्दों का मुझ पर बहुत असर पड़ा और मैं अपने कार्यकलापों के बारे में सोचने से खुद को रोक नहीं पाई। हाल फिलहाल मैंने बातचीत में खुद को सीमित कर दिया था, अपने विचार और नजरिया इस डर से छिपा रही थी कि लोग मेरी असलियत जान लेंगे। उसी पल मुझे एहसास हुआ कि मेरी अवस्था कितनी खतरनाक है और मुझे पता चल गया कि मुझे सत्य की तलाश करनी होगी और इसे तुरंत सुलझाना होगा।
खोज करते समय मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “गलतियाँ करना या छद्मवेश धारण करना : इनमें से कौन-सी चीज स्वभाव से संबंधित है? छद्मवेश धारण करना स्वभाव का मामला है, इसमें अहंकारी स्वभाव, दुष्टता और धूर्तता शामिल होती है; परमेश्वर इससे विशेष रूप से घृणा करता है। ... यदि कोई गलती करने के बाद तुम उसे सही तरह से ले सको, और अन्य सभी को उसके बारे में बात करने दे सको, उस पर टिप्पणी और विचार करने दे सको, और उसके बारे में खुलकर बात कर सको और उसका गहन-विश्लेषण कर सको, तो तुम्हारे बारे में सभी की राय क्या होगी? वे कहेंगे कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो, क्योंकि तुम्हारा दिल परमेश्वर के प्रति खुला है। तुम्हारे कार्यों और व्यवहार के माध्यम से वे तुम्हारे दिल को देख पाएँगे। लेकिन अगर तुम खुद को छिपाने और हर किसी को धोखा देने की कोशिश करते हो, तो लोग तुम्हें तुच्छ समझेंगे और कहेंगे कि तुम मूर्ख और नासमझ व्यक्ति हो। यदि तुम ढोंग करने या खुद को सही ठहराने की कोशिश न करो, यदि तुम अपनी गलतियाँ स्वीकार सको, तो सभी लोग कहेंगे कि तुम ईमानदार और बुद्धिमान हो। और तुम्हें बुद्धिमान क्या चीज बनाती है? सब लोग गलतियाँ करते हैं। सबमें दोष और कमजोरियाँ होती हैं। और वास्तव में, सभी में वही भ्रष्ट स्वभाव होता है। अपने आप को दूसरों से अधिक महान, परिपूर्ण और दयालु मत समझो; यह एकदम अनुचित है। जब तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और सार, और उनकी भ्रष्टता के असली चेहरे को पहचान जाते हो, तब तुम अपनी गलतियाँ छिपाने की कोशिश नहीं करते, न ही तुम दूसरों की गलतियों के करण उनके बारे में गलत धारणा बनाते हो—तुम दोनों का सही ढंग से सामना करते हो। तभी तुम समझदार बनोगे और मूर्खतापूर्ण काम नहीं करोगे, और यह बात तुम्हें बुद्धिमान बना देगी। जो लोग बुद्धिमान नहीं हैं, वे मूर्ख होते हैं, और वे हमेशा पर्दे के पीछे चोरी-छिपे अपनी छोटी-छोटी गलतियों पर देर तक बात किया करते हैं। यह देखना घृणास्पद है। वास्तव में, तुम जो कुछ भी करते हो, वह दूसरों पर तुरंत जाहिर हो जाता है, फिर भी तुम खुल्लम-खुल्ला वह करते रहते हो। लोगों को यह मसखरों जैसा प्रदर्शन लगता है। क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? यह सच में मूर्खतापूर्ण ही है। मूर्ख लोगों में कोई अक्ल नहीं होती। वे कितने भी उपदेश सुन लें, फिर भी उन्हें न तो सत्य समझ में आता है, न ही वे चीजों की असलियत देख पाते हैं। वे अपने हवाई घोड़े से कभी नीचे नहीं उतरते और सोचते हैं कि वे बाकी सबसे अलग और अधिक सम्माननीय हैं; यह अहंकार और आत्मतुष्टि है, यह मूर्खता है। मूर्खों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती, है न? जिन मामलों में तुम मूर्ख और नासमझ होते हो, वे ऐसे मामले होते हैं जिनमें तुम्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती, और तुम आसानी से सत्य को नहीं समझ सकते। मामले की सच्चाई यह है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने अपनी हालिया अवस्था पर विचार किया। पहले मैंने सोचा था कि नए वीडियो प्रोजेक्ट के लिए चुने जाने का मतलब है कि मेरी काबिलियत और क्षमता बहुत बुरी नहीं हैं और मैं विकसित होने लायक हूँ। इसलिए मैंने सक्रियता से अपनी राय रखी और संगति और चर्चाओं में भाग लिया, उम्मीद जताई कि मुझे सबकी स्वीकृति मिलेगी। लेकिन जब मैंने देखा कि मेरी समस्याएँ लगातार उजागर हो रही हैं तो मुझे शर्मिंदगी हुई। लोग मेरी असलियत देख रहे थे और मैं इसे स्वीकार नहीं पाई। मैंने सोचा कि मेरी गलतियों ने साबित कर दिया है कि मैं किसी काम की नहीं हूँ, मैं इस काम के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। इसलिए मैंने इस उम्मीद से खुद को बातचीत में सीमित कर लिया और छिपा लिया कि दूसरे यह न देख लें कि मुझमें कितनी कमी है। मेरा स्वभाव इतना घमंडी और कपटी था! दरअसल मुझे यह कर्तव्य सौंपे जाने भर से यह साबित नहीं हो जाता कि मैं पहले से ही काबिल थी—कलीसिया मुझे सिर्फ अभ्यास करने का मौका दे रही थी। दरअसल मुझमें अब भी बहुत सी कमियाँ और खामियाँ थीं और मुझे अपना कर्तव्य निभाते हुए सीखना और अपने में सुधार करना था। लेकिन मैं इन मुद्दों को ठीक से नहीं संभाल रही थी। मैं अपनी गलतियों के कारणों पर विचार नहीं कर रही थी और मैं अपनी कमियाँ पूरी करने के लिए सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं कर रही थी। इसके बजाय मैं अपनी समस्याएँ छिपाने के तरीके खोजने के लिए दिमाग लगा रही थी ताकि दूसरे लोग मेरी असलियत न देख सकें। मैं इतनी धोखेबाज और अज्ञानी कैसे हो सकती थी? बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “जब लोग परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य या कोई कार्य करते हैं, तो उनका दिल शुद्ध होना चाहिए : ताजे पानी के कटोरे की तरह—एकदम साफ, अशुद्धियों से अछूता। तो किस तरह का रवैया सही है? चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे तुम्हारे दिल में जो हो या जो भी तुम्हारे विचार हों, तुम उस पर दूसरों के साथ संगति कर पाते हो। अगर कोई कहता है कि चीजें करने का तुम्हारा तरीका नहीं चलेगा और वह कोई और विचार रखता है, और अगर तुमको लगता है कि यह बहुत बढ़िया विचार है, तो तुम अपना तरीका छोड़ देते हो, और उसकी सोच के अनुसार काम करने लगते हो। ऐसा करने से हर कोई देखता है कि तुम दूसरों के सुझाव स्वीकार कर सकते हो, सही रास्ता चुन सकते हो, सिद्धांतों के अनुसार और पारदर्शिता और स्पष्टता के साथ कार्य कर सकते हो। तुम्हारे मन में कोई दुर्भावना नहीं रहती और तुम ईमानदारी के रवैये पर भरोसा करके सच्चाई से काम करते और बोलते हो। तुम बिना लाग-लपेट के बोलते हो। यह है, तो है; नहीं है, तो नहीं है। कोई चालाकी नहीं, कोई राज़ नहीं, बस एक बहुत पारदर्शी व्यक्ति। क्या यह एक प्रकार का रवैया नहीं है? यह लोगों, घटनाओं और चीज़ों के प्रति एक रवैया है, और यह एक व्यक्ति के स्वभाव का द्योतक है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है। मुझे ईमानदार रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। चाहे मैं कुछ भी करूँ या कहूँ, मुझे स्पष्ट और खुलकर कहना चाहिए, जो मैं सोचती हूँ वही कहना चाहिए और अगर समस्याएँ आती हैं तो मुझे उन्हें स्वीकारना चाहिए और उन्हें उचित तरीके से संभालना और सुलझाना चाहिए। इसलिए मैंने एक-एक करके अपनी पिछली गलतियों का आकलन किया। मैंने वे कारण ढूँढे़ कि गलती कहाँ हुई और संबंधित सिद्धांत समझने की कोशिश की। तभी मुझे एहसास हुआ कि गलतियाँ करने से हमें अपनी कमजोरियों का पता चलता है और समय रहते उन्हें ठीक करने में मदद मिलती है, जो अच्छी बात है। लेकिन मैं हमेशा अपनी छवि और रुतबे की फिक्र करती थी, खुद को सीमित कर लेती थी, झूठा दिखावा करती थी, अपनी बात नहीं कहती थी और अपनी कमियाँ उजागर करने से डरती थी। इस तरीके से मैं कभी अपनी कमी पूरी नहीं कर पाऊँगी और मेरी प्रगति धीमी होगी। क्या मैं अपनी ही कब्र नहीं खोद रही थी? इसका एहसास होने के बाद मैं सजग होकर अपनी मानसिकता सुधारने लगी। दूसरे भाई-बहनों के साथ काम पर चर्चा करते समय या वीडियो के लिए सुझाव देते समय मैंने वही विचार रखे जो मेरे मन में आए, अंदाजा नहीं लगाया कि इसे कैसे लिया जाएगा। हालाँकि मेरे कुछ विचार और रायें अभी भी गलत थीं, लेकिन मेरे भाई-बहनों ने मेरी गलतियाँ सुधारीं और मुझे मार्गदर्शन दिया और मैं इससे संबंधित कुछ सिद्धांत समझने लगी। धीरे-धीरे मेरी बेबसी घट गई, मैं ज्यादा सहज हो गई और मेरा दिल हल्का हो गया।
कुछ समय बाद वीडियो की क्वॉलिटी सुधारने के लिए हमें नई तकनीक अपनानी पड़ी। मेरे लिए यह तकनीक नई थी, लेकिन दूसरों के साथ मिलकर आवश्यक कौशल पर चर्चा करने और सीखने से मैं धीरे-धीरे इसे कुछ हद तक समझने लगी। जब मैंने देखा कि मेरी साथी बहन कैसे अपने विचार रखती और सुझाव देती है, कैसे उसका विश्लेषण हमेशा तार्किक और उचित होता है और कैसे पर्यवेक्षक अक्सर विभिन्न चीजों पर उसकी राय लेते हैं तो मुझे इससे बहुत जलन हुई। दूसरी तरफ मुझे कोई नहीं पूछता था। मुझे हैरानी हुई कि आखिरकार सबको कब पता चलेगा कि मैं कौन हूँ। कभी-कभी काम पर चर्चा के दौरान मैंने सोचा कि अपने शब्द कैसे गढ़ूँ ताकि दूसरों के मन में मेरे बारे में अच्छी धारणा बने—ताकि उन्हें पता चले कि मैं इस मामले के बारे में पूरी तरह अनजान नहीं हूँ। एक दिन हम सभी वीडियो प्रोडक्शन की योजना पर चर्चा कर रहे थे तभी मैंने एक समस्या देखी। संक्षिप्त और सीधी बात रखने और यह दिखाने के लिए कि मुझे इस नई तकनीक के बारे में कुछ पता है, मैंने बोलने से पहले अपने शब्द सावधानी से चुनना चाहे। लेकिन मैंने जितना सोचा, मुझे उतना ही कम समझ आया कि कहना क्या है। आखिर में मेरी साथी बहन ने मेरे लिए यह मुद्दा उठाया। बाद में मैंने समाधान का एक तरीका सोचा। मैं और मेरी साझेदार बहन पहले चर्चा कर सकती थीं कि क्या कहना है। फिर मैं सभा में दूसरों के साथ सबसे पहले अपने नजरिए पर संगति करूँ। इस तरह मैं खुद को बेहतर ढंग से व्यक्त कर पाऊँगी और मुझे लगेगा कि हमारी टीम में मैं भी हूँ। समस्या यह थी कि अकेले में चर्चा करने के बाद भी मैं अपने विचार रखने की हिम्मत नहीं कर पाई। इसके बजाय मैं बाकी सभी को अपनी राय रखने देने का इंतजार करती रही, फिर एक बार “ठीक है” बोलकर दिखावा किया कि मैंने उनकी बात समझ ली है। यह सिलसिला इस हद तक जारी रहा कि समस्याओं पर चर्चा करते समय मैं कोई बोझ नहीं उठा रही थी। जब मैं उनकी बातें सुनती तो कभी-कभी मेरा ध्यान भटक जाता या मेरी झपकी भी लग जाती।
एक दिन मेरी साथी बहन मेरे पास आकर बोली कि मैं पहले की तरह सक्रियता से अपना कर्तव्य नहीं निभा रही हूँ। उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं किसी खास अवस्था में हूँ और मैंने उसे अपने हालिया खुलासे के बारे में बताया। उसने मेरी मदद करने के लिए अपने अनुभव का इस्तेमाल किया और मुझे परमेश्वर के कुछ वचन भेजे, जो कहते हैं : “मसीह-विरोधी मानते हैं कि अगर वे बहुत ज्यादा बात करेंगे, लगातार अपने विचार व्यक्त करेंगे और दूसरों के साथ संगति करेंगे, तो हर कोई उनकी असलियत जान जाएगा; उन्हें लगेगा कि मसीह-विरोधी में गहराई नहीं है, वह सिर्फ एक साधारण व्यक्ति है, और उनका सम्मान नहीं करेगा। मसीह-विरोधी के लिए सम्मान खोने का क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है दूसरों के दिलों में अपनी प्रतिष्ठित स्थिति खोना, औसत दर्जे का, अज्ञानी और साधारण दिखना। यही वह है जो मसीह-विरोधी देखने की उम्मीद नहीं करते। इसलिए, जब वे कलीसिया में दूसरों को हमेशा अपनी नकारात्मकता, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह, पिछले दिन की गई गलतियों या आज ईमानदार न होने से होने वाले असहनीय दर्द को स्वीकार करते देखते हैं, तो मसीह-विरोधी इन लोगों को मूर्ख और भोला समझते हैं, क्योंकि वे कभी भी ऐसी बातें स्वीकार नहीं करते, अपने विचारों को छिपाए रखते हैं। कुछ लोग खराब काबिलियत या सरल-मन, जटिल विचारों की कमी के कारण कम बोलते हैं, लेकिन मसीह-विरोधियों का कभी-कभार बोलना इस कारण से नहीं होता; यह स्वभाव की समस्या होती है। वे दूसरों से मिलते समय शायद ही कभी बोलते हैं और आसानी से मामलों पर अपने विचार व्यक्त नहीं करते। वे अपने विचार क्यों व्यक्त नहीं करते? सबसे पहले, उनमें निश्चित रूप से सत्य की कमी होती है और वे चीजों की असलियत नहीं समझ पाते। यदि वे बोले, तो वे गलतियाँ कर सकते हैं और उनकी असलियत सामने आ सकती है; उन्हें नीचा दिखाए जाने का डर होता है, इसलिए वे चुप रहने का दिखावा करते हैं और गंभीरता का ढोंग करते हैं, जिससे दूसरों के लिए उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है, वे बुद्धिमान और प्रतिष्ठित दिखते हैं। इस दिखावे के साथ, लोग मसीह-विरोधी को कम आँकने की हिम्मत नहीं करते, और बाहर से उनके शांत और संयमित रूप को देखकर वे उन्हें और अधिक सम्मान देते हैं और उन्हें तुच्छ समझने की हिम्मत नहीं करते। यह मसीह-विरोधियों का कुटिल और दुष्ट पहलू होता है। वे आसानी से अपने विचार व्यक्त नहीं करते क्योंकि उनके अधिकांश विचार सत्य के अनुरूप नहीं होते, बल्कि केवल मानवीय धारणाएँ और कल्पनाएँ होती हैं, जो सबके सामने लाने योग्य नहीं होतीं। इसलिए, वे चुप रहते हैं। ... वे अपनी सीमाओं को जानते हैं और अपनी असलियत बाहर आने नहीं देना चाहते; लेकिन इसके पीछे एक घृणित इरादा भी होता है—प्रशंसा पाना। क्या यह सबसे घिनौनी बात नहीं है?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह)। पहले जब मैंने मसीह-विरोधियों का स्वभाव उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़े थे तो मैंने कभी भी उन वचनों के माध्यम से खुद को नहीं देखा था। मुझे लगा था कि मेरे पास कोई रुतबा ही नहीं है, कोई बड़ी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होना तो दूर की बात है। लेकिन अब परमेश्वर के वचनों की कसौटी पर खुद को कसने से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी अक्सर अपनी कमियाँ छिपाने के लिए अपने विचार रखने में अनिच्छुक होते हैं और वे गंभीरता का दिखावा करने के लिए अक्सर चुप रहते हैं। ऐसा इसलिए होता है ताकि उनके आसपास के सभी लोग गलती से मान लें कि वे सत्य समझते हैं और उनका सम्मान करें। क्या मैं भी ऐसा ही नहीं कर रही थी? असल में इस नई तकनीक की मुझे जरा भी समझ नहीं थी। लेकिन अपनी छवि बचाने और समूह में मजबूती से जमे रहने के लिए मैंने अपनी कमियों या अक्षमताओं के बारे में कभी भी खुलकर बात नहीं करती थी। मैं झूठा दिखावा करती थी, चीजों को समझने का ढोंग करती थी और सबके सामने अपनी राय साझा करने की हिम्मत नहीं करती थी, डरती रहती थी कि मैं गलत बोल बैठूँगी और वे जान लेंगे कि मुझे कुछ नहीं आता। मैं अपनी कमियाँ छिपाने के लिए सभाओं में जल्दबाजी में ऐसी बातें सुझाने लगीं, जिन पर मैंने पहले अपनी साथी बहन के साथ चर्चा की थी। इससे न सिर्फ मुझे ऐसा लगा कि मैं चीजों का हिस्सा हूँ, बल्कि दूसरों को भी पता नहीं चला कि असल में मेरा स्तर कितना कम है। मैं इतनी धोखेबाज थी! पुरानी बातें सोचकर मुझे एहसास हुआ कि बहुत से लोग कहते थे मैं बहुत बातूनी नहीं हूँ। मैं सोचती थी कि मेरा व्यक्तित्व ही ऐसा है। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से ही मैं देख पाई कि मैं इसलिए चुप रहती थी ताकि दूसरे मेरी असलियत न जान पाएँ। मैंने पहले भी अपना कर्तव्य निभाते समय ऐसा ही किया था। कभी-कभी मुझे कुछ समस्याएँ दिखती थीं, लेकिन अगर वे साफ समझ नहीं आती थीं तो मैं कुछ भी कहने से बचती थी। इसके बजाय मैं तब तक इंतजार करती थी जब तक कि मैं समस्या पूरी तरह नहीं समझ लेती, फिर व्यवस्थित और तार्किक ढंग से अपना नजरिया समझाती थी। ऐसा करने से धीरे-धीरे सभी को लगने लगा कि मुझमें समस्याएँ पहचानने की क्षमता है और कभी-कभी वे चतुरता और ऊँची काबिलियत के लिए मेरी तारीफ भी करते थे। इससे मुझे बहुत खुशी होती थी। जब मैंने देखा कि मेरी कुछ अन्य बहनें कितनी स्पष्टवादी हैं, जो सोचती हैं वही कहती हैं और जब उन्हें कुछ समझ नहीं आता है तो उसे मान लेती हैं तो मैं उन्हें नीची नजरों से देखती थी। मुझे लगता था कि वे बिना सोचे-समझे बोलती हैं और दूसरे तुरंत समझ जाते थे कि वे कितनी नालायक हैं। मुझे पता चल गया कि मैं इस तरह पेश नहीं आ सकती हूँ। अब जब मुझे इसका एहसास हो गया तो मुझे पता चला कि मेरा मसीह-विरोधी स्वभाव बहुत गंभीर है। मैं रुतबा पाने और दूसरों के नजरों में बड़ी बनने के लिए झूठा दिखावा कर रही थी। मैं रुतबे को लेकर बहुत चिंतित रहती थी और खुद को बहुत बड़ी समझती थी। मैं हमेशा एक ऐसी इंसान बनना चाहती थी जिसमें कोई कमी न हो और एक आम इंसान बनने के लिए तैयार नहीं थी। यह वाकई मेरा अहंकार और तर्कहीनता थी। मैंने इन जटिल वीडियो परियोजनाओं में अपनी भागीदारी के बारे में सोचा। मेरे पास न केवल अपनी पेशेवर क्षमताएँ बढ़ाने का मौका था, बल्कि मैं इस प्रक्रिया में और अधिक सिद्धांत समझ सकती थी। यह बहुत अच्छी बात थी! लेकिन अपने भाई-बहनों के साथ नए कौशल और सिद्धांत सीखने के लिए कड़ी मेहनत करने के बजाय मैंने अपने कर्तव्य की उपेक्षा करते हुए अपने दिन बिताए। मैं कुटिलता से सोचती रही, दूसरों से प्रशंसा पाने और खोने की फिक्र करती रही और अपनी छवि बचाने की पूरी कोशिश करती रही। मैं इतनी मूर्ख थी! इतने सालों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी मुझे पता ही नहीं था कि मेरा अनुसरण कहाँ केंद्रित होना चाहिए। मैंने लापरवाही में इतना कीमती समय बर्बाद कर दिया और आखिरकार मुझे इससे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा रही थी, मैं परमेश्वर द्वारा तिरस्कृत और घृणित भी हो गई। मैंने जितना ज्यादा इस बारे में सोचा, मुझे उतना ही बुरा लगा। मुझे खुद पर शर्म आई। इसलिए मैंने पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की।
उसके बाद मुझे परमेश्वर के वचनों से अभ्यास का मार्ग मिला। परमेश्वर कहता है : “सामान्य लोगों की कथनी-करनी कैसी दिखती है? एक सामान्य व्यक्ति अपने दिल से बोल सकता है। वह बिना किसी छल-फरेब के वही कहेगा, जो उसके दिल में होगा। अगर वह अपने सामने आने वाले मामले को समझ पाता है, तो वह अपने जमीर और विवेक के अनुसार कार्य करेगा। अगर वह उसे स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाता, तो वह गलतियाँ करेगा और असफल होगा, वह गलतफहमियाँ, धारणाएँ और व्यक्तिगत कल्पनाएँ पालेगा, और अपने दृष्टि-भ्रमों से अंधा हो जाएगा। ये सामान्य मानवता के बाहरी लक्षण हैं। क्या सामान्य मानवता के ये बाहरी लक्षण परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करते हैं? नहीं। अगर लोगों में सत्य नहीं है, तो वे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर सकते। सामान्य मानवता के ये बाहरी लक्षण एक साधारण, भ्रष्ट व्यक्ति की संपत्तियाँ हैं। ये वे चीजें हैं, जिनके साथ मनुष्य जन्म लेता है, उसकी जन्मजात चीजें। तुम्हें ये बाहरी लक्षण और खुलासे दिखने देने होंगे। ये बाहरी लक्षण और खुलासे दिखने देते हुए तुम्हें यह समझना चाहिए कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ, क्षमता और जन्मजात प्रकृति ऐसी ही है। यह समझ जाने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस पर सही तरह से विचार करना चाहिए। लेकिन तुम इस सही विचार को अभ्यास में कैसे लाते हो? यह किया जाता है परमेश्वर के वचन और ज्यादा पढ़कर, सत्य से और ज्यादा लैस होकर, उन चीजों को परमेश्वर के सामने लाकर जिन्हें तुम नहीं समझते, जिनके बारे में तुम धारणाएँ पालते हो और जिनके बारे में तुम गलत निर्णय ले सकते हो, ताकि उन पर विचार कर सको और अपनी सभी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोज सको। ... चूँकि तुम कोई अतिमानव नहीं हो, न ही कोई महामानव हो, इसलिए तुम सभी चीजें नहीं जान सकते और न ही उन्हें समझ सकते हो। तुम्हारे लिए दुनिया को एक नजर में समझना, मानवजाति को एक नजर में समझना और अपने आस-पास होने वाली हर चीज एक नजर में समझना असंभव है। तुम एक साधारण व्यक्ति हो। तुम्हें कई असफलताओं, भ्रम की कई अवधियों, निर्णय में कई त्रुटियों और कई भटकावों से गुजरना होगा। यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव, तुम्हारी कमजोरियाँ और कमियाँ, तुम्हारी अज्ञानता और मूर्खता पूरी तरह से प्रकट कर सकता है, जिससे तुम खुद को फिर से जाँच और जान सकते हो, और परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता, पूर्ण बुद्धिमत्ता और उसके स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर सकते हो। तुम उससे सकारात्मक चीजें प्राप्त करोगे और सत्य समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। तुम्हारे अनुभव के बीच बहुत-कुछ ऐसा होगा, जो तुम्हारी इच्छा के अनुरूप नहीं होगा, जिसके सामने तुम शक्तिहीन महसूस करोगे। ऐसा होने पर तुम्हें तलाश और प्रतीक्षा करनी चाहिए; प्रत्येक मामले का उत्तर परमेश्वर से प्राप्त करना चाहिए, और उसके वचनों से प्रत्येक मामले का अंतर्निहित सार और हर तरह के व्यक्ति का सार समझना चाहिए। एक साधारण, सामान्य व्यक्ति इसी तरह व्यवहार करता है। तुम्हें यह कहना सीखना चाहिए, ‘मैं नहीं कर सकता,’ ‘यह मेरे वश में नहीं,’ ‘मैं इसे नहीं समझ सकता,’ ‘मैंने इसका अनुभव नहीं किया है,’ ‘मैं कुछ भी नहीं जानता,’ ‘मैं इतना कमजोर क्यों हूँ? मैं इतना बेकार क्यों हूँ?’ ‘मैं इतना नाकाबिल हूँ,’ ‘मैं इतना सुन्न और मंदबुद्धि हूँ,’ ‘मैं इतना अज्ञानी हूँ कि मुझे इस चीज को समझने और सँभालने में कई दिन लग जाएँगे,’ और ‘मुझे इस पर किसी से चर्चा करने की जरूरत है।’ तुम्हें इस तरह से अभ्यास करना सीखना चाहिए। यह तुम्हारे एक सामान्य व्यक्ति होने और एक सामान्य व्यक्ति बने रहने की स्वीकारोक्ति का बाहरी लक्षण है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद मुझे समझ आया कि मैं औसत काबिलियत वाली आम इंसान हूँ, मेरा अनुभव और सत्य सिद्धांतों की समझ बहुत कम हैं। जब मेरे सामने कोई नई तकनीक और नई समस्याएँ आती हैं तो कभी-कभी मैं चीजें नहीं समझ पाती या गलतियाँ कर देती हूँ—लेकिन यह सामान्य बात है। मुझे अपनी कमियाँ और खामियाँ स्वीकारनी होंगी और समस्या सुलझाने के लिए सत्य सिद्धांतों की तलाश करनी होगी। ऐसा करके ही मैं निरंतर सुधार कर पाऊँगी। इसका एहसास होने पर मेरा मन रोशन हो गया। मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप अभ्यास करने, दिखावा करना और धोखा देना बंद करने, व्यावहारिक तरीके से आचरण करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार थी।
एक बार हमारा समूह अपने पर्यवेक्षक के साथ वीडियो सुधारने पर चर्चा कर रहा था। जब सभी ने अपने सुझाव दे दिए तो मुझे एक और समस्या दिखी—लेकिन मुझे यकीन नहीं था कि मैं सही हूँ या नहीं और मुझे कुछ चिंताएँ भी थीं। मैंने सोचा, “क्या मुझे इसका जिक्र करना चाहिए या नहीं? अगर मैं कोई ऐसा मुद्दा उठाती हूँ जो असल में कोई समस्या नहीं है तो इससे मैं अज्ञानी और मूर्ख के रूप में उजागर हो जाऊँगी।” तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी छवि बचाने के लिए फिर से बच निकलना और छिप जाना चाहती हूँ। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मेरे गलत इरादे के खिलाफ विद्रोह करने की शक्ति मांगी और फिर अपने विचारों के बारे में दूसरों के सामने खुल कर बात की। पर्यवेक्षक और अन्य बहनों ने भी अपनी राय दी। भले ही मैंने जो मामला उठाया था, वह चिंता की बात नहीं निकली, लेकिन हमारी चर्चा के माध्यम से मुझे सिद्धांतों की साफ समझ मिली। समय बीतने के साथ काम के बारे में हमारी बातचीत और चर्चाओं में मेरी चिंता और आशंका कम होती गई। कभी-कभी मैं कुछ समस्याएँ देखती, लेकिन समझ नहीं पाती कि उन्हें कैसे सुलझाया जाए। इसलिए मैंने समस्याओं को दूसरों के साथ ईमानदारी से साझा किया और सभी को मिलकर उन्हें सुलझाने का तरीका खोजने दिया। कभी-कभी मैंने भी समाधान बताया लेकिन चर्चा के दौरान इसे उचित नहीं पाया गया। ऐसे में मैंने अपनी गलती मानी और बेहतर नतीजे पाने के लिए इसे सुधारने के तरीकों पर सभी के साथ चर्चा की। ... जब मैंने इस तरह से अभ्यास किया तो मेरा दिल को काफी सुकून और आराम मिला और मैं अपने कर्तव्य में अपनी छोटी सी भूमिका निभा पाई। मैंने व्यक्तिगत अनुभव से सीखा है कि इस तरह से आचरण करने और अपना कर्तव्य निभाने से मुझे शांति, सहजता और मुक्ति का एहसास होता है!