73. जब मैंने स्कूल और कर्तव्य में से एक को चुना

जहाँ तक मुझे याद है, मेरे माँ-बाप में कभी नहीं पटी। वे आए दिन झगड़ते रहते, कभी-कभी तो पिता मेरी माँ को पीट भी देते। वह बरसों इसी तरह हम दो बच्चों के लिए जीती रहीं। अपनी आधी जिंदगी मुझे और मेरे भाई को पालने में खपा दी, इसलिए सोचती थी कि हमारे लिए उनका प्यार वाकई महान है, और बड़े होकर मुझे उनका मान-सम्मान रखना है। बाद में मेरी माँ ने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारा और फिर मेरे और भाई के साथ सुसमाचार साझा किया। हम अक्सर इकट्ठे नाच-गाकर परमेश्वर की स्तुति करते तो मैं बहुत खुश होती। लेकिन माँ ने सत्य का अनुसरण ज्यादा नहीं किया, सभाओं में आना और परमेश्वर के वचन पढ़ना कम कर दिया। उनके कुछ और साल पिता से झगड़ने और पिटने में कटे, आखिरकार उन्होंने तलाक ले लिया। तलाक के बाद माँ ने किराये और मेरी पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए काम किया, इस बात ने मुझे दुखी कर दिया। मैंने खुद से वादा किया कि मेहनत से पढ़ूँगी, अच्छी-सी नौकरी करूँगी, माँ के लिए घर खरीदूँगी और उन्हें बाकी जिंदगी खुशी-खुशी जीने दूँगी। मुझे लगा, बेटी होने के नाते यह मेरा फर्ज है। इसके बाद मैंने सभाओं में जाना और परमेश्वर के वचन पढ़ना काफी कम कर दिया ताकि ध्यान पढ़ाई पर लगा सकूँ। सारा समय और पूरी मेहनत स्कूली कामकाज में झोंक दी।

सितंबर 2019 में मैंने दूसरे प्रांत के वोकेशनल कॉलेज में दाखिला ले लिया। मैं रोज कड़ी मेहनत से पढ़ती, यूनिवर्सिटी और ग्रेजुएट स्कूल जाने के ख्वाब देखती, ताकि अपनी माँ की जिंदगी बेहतर बना सकूँ। लेकिन कैंपस की जिंदगी ने मुझे बहुत निराश कर दिया। चापलूसी में उस्ताद छात्रों पर अध्यापक बहुत मेहरबान रहते, इसलिए उन्हें परीक्षाओं में हमेशा ज्यादा अंक मिलते, लेकिन जो सचमुच योग्य थे मगर चापलूसी नहीं करते थे उन्हें उतने अच्छे अंक नहीं मिलते थे। जिन छात्रों को देखकर लगता कि इनमें खूब पटती होगी, जो साथ-साथ हँसते-मुस्कराते बातें करते, वे पीठ पीछे बिल्कुल बदल जाते, एक दूसरे की बुराई करते। कुछ तो बेशर्म होकर खुलेआम ऐसा करते थे। कैंपस की जिंदगी ने मुझे वाकई निराश कर दिया और वहाँ एक दिन काटना भी मुश्किल हो गया, लेकिन जब मैं माँ से किए वादे के बारे में सोचती कि मेहनत से पढ़कर नाम कमाऊँगी, उनका सिर नहीं झुकने दूँगी, तो वहीं रहने के सिवाय मेरे पास दूसरा चारा नहीं बचता।

फिर जब 2020 की सर्दियों की छुट्टी में मैं घर लौटी, तो मेरी आंटी ने परमेश्वर के वचनों पर मेरे साथ संगति की और एक वीडियो दिखाया “वह जिसका हर चीज़ पर प्रभुत्व है।” इसने मुझे पूरी तरह झकझोर दिया! मुझे परमेश्वर की सर्वशक्तिमान संप्रभुता का एहसास कराया, कि वह मानवजाति की किस्मत का मालिक है, और उसने हमेशा मानवजाति को विकास की राह दिखाई है। मैंने बढ़ती आपदाओं और वैश्विक महामारी के बारे में सोचा और यह भी कि कैसे परमेश्वर का कार्य समापन की ओर है, लेकिन पढ़ाई के कारण मैं कोई कर्तव्य नहीं निभा रही थी, कलीसिया जिंदगी में भी भाग नहीं ले पा रही थी। अंत में, मुझे सत्य हासिल नहीं होगा और आपदा में नष्ट होकर मुझे सजा मिलेगी। परमेश्वर के वचनों पर आंटी की संगति ने मेरी मदद की, मुझे सहारा दिया और मेरे दिल को सुकून पहुँचाया। मैं समझ गई कि परमेश्वर हमेशा मेरे साथ रहा है और मैंने कलीसिया में और अधिक सभाओं में जाकर कर्तव्य निभाना चाहा।

एक दिन अपनी भक्ति में मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “जिस क्षण तुम रोते हुए इस दुनिया में आते हो, उसी पल से तुम अपना कर्तव्य पूरा करना शुरू कर देते हो। परमेश्वर की योजना और उसके विधान के लिए तुम अपनी भूमिका निभाते हो और तुम अपनी जीवन-यात्रा शुरू करते हो। तुम्हारी पृष्ठभूमि जो भी हो और तुम्हारी आगे की यात्रा जैसी भी हो, कोई भी स्वर्ग के आयोजनों और व्यवस्थाओं से बच नहीं सकता, और किसी का भी अपनी नियति पर नियंत्रण नहीं है, क्योंकि केवल वही, जो सभी चीज़ों पर शासन करता है, ऐसा करने में सक्षम है। जिस दिन से मनुष्य अस्तित्व में आया है, परमेश्वर ने ब्रह्मांड का प्रबंधन करते हुए, सभी चीज़ों के लिए परिवर्तन के नियमों और उनकी गतिविधियों के पथ को निर्देशित करते हुए हमेशा ऐसे ही काम किया है। सभी चीज़ों की तरह मनुष्य भी चुपचाप और अनजाने में परमेश्वर से मिठास और बारिश तथा ओस द्वारा पोषित होता है; सभी चीज़ों की तरह मनुष्य भी अनजाने में परमेश्वर के हाथ के आयोजन के अधीन रहता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। “जिस मानवजाति की परमेश्वर दिन-रात परवाह करता है, उसका एक भी व्यक्ति परमेश्वर की आराधना करने की पहल नहीं करता। परमेश्वर ही अपनी बनाई योजना के अनुसार, मनुष्य पर कार्य करता रहता है, जिससे वह कोई अपेक्षाएँ नहीं करता। वह इस आशा में ऐसा करता है कि एक दिन मनुष्य अपने सपने से जागेगा और अचानक जीवन के मूल्य और अर्थ को समझेगा, परमेश्वर ने उसे जो कुछ दिया है, उसके लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत और परमेश्वर की उस उत्सुक व्यग्रता को समझेगा, जिसके साथ परमेश्वर मनुष्य के वापस अपनी ओर मुड़ने की प्रतीक्षा करता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मैं बहुत भावुक हो गई। याद आया कि मैंने बचपन में कैसे माँ के साथ अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा था, लेकिन पढ़ाई के कारण सभाओं में जाना और परमेश्वर के वचन पढ़ना बंद करके मैं परमेश्वर से दूर होती जा रही हूँ। जब मैंने सोचा कि मेरी जिंदगी यूँ ही चलती रहेगी, ठीक तभी अचानक मेरी आंटी मुझसे मिली, मुझे परमेश्वर के वचन सुनाए और सुसमाचार का वीडियो दिखाया। मैं बखूबी समझ गई कि यह परमेश्वर की व्यवस्था है। मेरी किस्मत हमेशा परमेश्वर के हाथ में रही है। जन्म से ही मैं उसकी सत्ता और नियति के अनुसार जी रही हूँ। भले ही मैं बीच में परमेश्वर से दूर रही, लेकिन मेरी आत्मा को जगाने और मुझे वापस उसके घर लाने के लिए वह लोगों और परिस्थितियों की व्यवस्था करता रहा। मैंने परमेश्वर का प्रेम और संरक्षण देखा। मैंने परमेश्वर के वचन एक बार फिर सुने और उसके खिलाफ विद्रोह नहीं कर पाई, न उसे आहत ही कर पाई। मैं सचमुच परमेश्वर पर विश्वास कर सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहती थी।

लेकिन मैं समझ ही नहीं पाई, जीवन का सच्चा मूल्य और अर्थ क्या है? क्या यह वाकई डिग्री-डिप्लोमा के पीछे भागना हो सकता है? इस सवाल पर विचार करते हुए मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया। “जब कोई प्रसिद्धि और लाभ के दलदल में फँस जाता है, तो फिर वह उसकी खोज नहीं करता जो उजला है, जो धार्मिक है, या वे चीजें नहीं खोजता जो खूबसूरत और अच्छी हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि प्रसिद्धि और लाभ की जो मोहक शक्ति लोगों के ऊपर हावी है, वह बहुत बड़ी है, वे लोगों के लिए जीवन भर, यहाँ तक कि अनंतकाल तक सतत अनुसरण की चीजें बन जाती हैं। क्या यह सत्य नहीं है? कुछ लोग कहेंगे कि ज्ञान अर्जित करना पुस्तकें पढ़ने या कुछ ऐसी चीजें सीखने से अधिक कुछ नहीं है, जिन्हें वे पहले से नहीं जानते, ताकि समय से पीछे न रह जाएँ या संसार द्वारा पीछे न छोड़ दिए जाएँ। ज्ञान सिर्फ इसलिए अर्जित किया जाता है, ताकि वे भोजन जुटा सकें, अपना भविष्य बना सकें या बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी कर सकें। क्या कोई ऐसा व्यक्ति है, जो मात्र मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए, और मात्र भोजन की समस्या हल करने के लिए एक दशक तक कठिन परिश्रम से अध्ययन करेगा? नहीं, ऐसा कोई नहीं है। तो फिर व्‍यक्ति इतने वर्षों तक ये कठिनाइयाँ क्‍यों सहन करता है? प्रसिद्धि और लाभ के लिए। प्रसिद्धि और लाभ आगे उसका इंतजार कर रहे हैं, उसे इशारे से बुला रहे हैं, और वह मानता है कि केवल अपने परिश्रम, कठिनाइयों और संघर्ष के माध्यम से ही वह उस मार्ग का अनुसरण कर सकता है, जो उसे प्रसिद्धि और लाभ प्राप्त करने की ओर ले जाएगा। ऐसे व्यक्ति को अपने भविष्य के पथ के लिए, अपने भविष्य के आनंद के लिए और एक बेहतर जिंदगी प्राप्त करने के लिए ये कठिनाइयाँ सहनी ही होंगी। भला यह ज्ञान क्या है—क्या तुम लोग मुझे बता सकते हो? क्या यह जीवन जीने के वे नियम और फलसफे नहीं है जिन्हें शैतान मनुष्य के भीतर डालता है, जैसे ‘पार्टी से प्यार करो, देश से प्यार करो, और अपने धर्म से प्यार करो’ और ‘बुद्धिमान व्यक्ति परिस्थितियों के अधीन हो जाता है’? क्या ये जीवन के ‘ऊँचे आदर्श’ नहीं हैं, जिन्हें शैतान द्वारा मनुष्य के भीतर डाला गया है? उदाहरण के लिए, महान लोगों के विचार, प्रसिद्ध लोगों की ईमानदारी या वीर शख्सियतों की बहादुरी की भावना को लो, या सामरिक उपन्यासों में नायकों और तलवारबाजों के शौर्य और उदारता को लो—क्‍या ये सभी वे उपाय नहीं हैं, जिनसे शैतान ये आदर्श बैठाता है? ये विचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी पर अपना प्रभाव डालते हैं, और प्रत्येक पीढ़ी के लोगों को ये विचार स्वीकार करने के लिए तैयार किया जाता है। वे उन ‘ऊँचे आदर्शों’ की खोज में लगातार संघर्ष करते हैं, जिनके लिए वे अपना जीवन भी बलिदान कर देंगे। यही वह साधन और नजरिया है, जिसके द्वारा शैतान लोगों को भ्रष्ट करने के लिए ज्ञान का उपयोग करता है। तो जब शैतान लोगों को इस रास्ते पर ले जाता है, तो क्या वे परमेश्वर की आज्ञा मानने और उसकी आराधना करने में सक्षम होते हैं? और क्या वे परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करने और सत्य का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं? बिल्कुल नहीं—क्योंकि वे शैतान द्वारा गुमराह किए जा चुके होते हैं। हम फिर से शैतान द्वारा लोगों में डाले गए ज्ञान, विचार और मत देखें : क्या इन चीजों में परमेश्वर की आज्ञाकारिता और उसकी आराधना के सत्य हैं? क्या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के सत्य हैं? क्या परमेश्वर का कोई वचन है? क्या उनमें कुछ ऐसा है, जो सत्य से संबंधित है? बिल्कुल नहीं—ये चीजें पूरी तरह से अनुपस्थित हैं(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ में आया कि शैतान अपने विचार लोगों के मन में भरता है कि लगातार पढ़कर ज्ञान हासिल करो और भीड़ में अलग नजर आओ और अपने परिवार का नाम ऊँचा करो। इससे वे कायल हो जाते हैं कि उनकी किस्मत उनके अपने हाथ में है और वे पढ़-लिखकर इसे बदल सकते हैं। ऐसे विचारों के अनुसार जिंदगी जीकर लोग परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं और उससे दूर-दूर होने लगते हैं। जब हम पढ़ते थे तो अध्यापक अक्सर कहते : “अगर अच्छी जिंदगी चाहते हो तो हाथ में बैचलर और पोस्ट-ग्रेजुएट की डिग्री होनी चाहिए। केवल इन्हीं से साबित होगा कि तुम सक्षम हो।” ऐसे विचार अपनाने के बाद, मैं अपने हुनर साधने, प्रतियोगी और पेशेवर सर्टिफिकेट परीक्षाओं में भाग लेने के तरीकों के बारे में सोचने लगी। सोचती थी कि इसी तरह अपनी किस्मत बदल सकती हूँ। लेकिन पढ़ाई के अंधानुकरण के साथ शिक्षा और ज्ञान का इस्तेमाल कर अलग दिखने की धुन के कारण मेरा मन धीरे-धीरे परमेश्वर से हटने लगा। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़ने बंद कर दिए, प्रार्थना भी कभी-कभार ही करती थी। मैं किसी अविश्वासी से अलग नहीं थी। मैंने देखा कि मैं सत्य को नहीं समझती थी, पढ़ाई और ज्ञान के सहारे हमेशा अलग दिखना चाहा। तभी समझ सकी कि ज्ञान की तलाश हमें भ्रष्ट और गुमराह करने का शैतानी तरीका है, हम जितना ज्यादा इसके पीछे भागेंगे, परमेश्वर से उतनी ही दूर जाएंगे और उसका विरोध करेंगे। ऐसे हश्र का ख्याल आते ही मैं अपने चुने रास्ते के बारे में दुबारा सोचने लगी।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का अंश पढ़ा : “मानवजाति के एक सदस्य और एक सच्चे ईसाई होने के नाते अपने मन और शरीर परमेश्वर के आदेश की पूर्ति करने के लिए समर्पित करना हम सभी का उत्तरदायित्व और कर्तव्य है, क्योंकि हमारा संपूर्ण अस्तित्व परमेश्वर से आया है, और वह परमेश्वर की संप्रभुता के कारण अस्तित्व में है। यदि हमारे मन और शरीर परमेश्वर के आदेश और मानवजाति के धार्मिक कार्य के लिए नहीं हैं, तो हमारी आत्माएँ उन लोगों के योग्य महसूस नहीं करेंगी, जो परमेश्वर के आदेश के लिए शहीद हुए थे, और परमेश्वर के लिए तो और भी अधिक अयोग्य होंगी, जिसने हमें सब-कुछ प्रदान किया है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा मन जिम्मेदारी के तीव्र भाव से भर उठा। मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया। परमेश्वर पर विश्वास करना, उसकी आराधना करना और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना सही और सहज कार्य हैं। ये सम्मानजनक चीजें भी हैं। परमेश्वर चाहता है कि हम उसके सुसमाचार का प्रचार करें और उसका उद्धार पाने के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को उसके सामने लाएँ। परमेश्वर का कार्य पहले पाकर मैं बड़ी खुशकिस्मत थी, लिहाजा सोचा कि उसकी इच्छा का ख्याल रखकर मुझे यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए। अपना कर्तव्य न निभा पाना वाकई विद्रोह है और यह हमें इस धरती पर रहने लायक नहीं छोड़ता। सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाकर ही हम इंसान कहलाने के हकदार हैं। तभी मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना, “किसका अनुसरण करें नौजवान।” उसकी कुछ पँक्तियाँ इस प्रकार हैं : “युवाओं को मुद्दों में विवेक का उपयोग करने और न्याय और सत्य को खोजने के संकल्प से रहित नहीं होना चाहिए। तुम लोगों को सभी सुंदर और अच्छी चीज़ों का अनुसरण करना चाहिए, और तुम्हें सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता प्राप्त करनी चाहिए। तुम्हें अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए और उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए(मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। एक इंसान के रूप में मुझे सत्य का अनुसरण कर सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए और सार्थक जीवन जीना चाहिए। अपनी जिंदगी के लिए मुझे खुद जिम्मेदार होना था। मैंने आगे नहीं पढ़ना चाहती थी। कलीसिया में कर्तव्य निभाना चाहती थी।

बाद में मैंने माँ को अपनी भावना बताई। मेरी माँ तो बिफर पड़ी। उन्होंने कहा : “मैंने तुम्हारी पढ़ाई पर इतने साल इतना पैसा बहाया सिर्फ इसलिए कि तुम्हारा भविष्य सँवार सकूँ और जब तुम ग्रेजुएट होकर कोई अच्छी नौकरी करने लगो तो मेरी भी इज्जत बढ़ेगी। चाहे जो कहो, मैं तुम्हें स्कूल नहीं छोड़ने दूँगी। मैं सिर्फ यह सोच रही हूँ कि तुम्हारे के लिए सबसे अच्छा क्या है।” माँ की यह बात सुनकर मैं तिलमिला गई। सोचा नहीं था कि वह ऐसा जवाब देंगी। लेकिन मैं दुविधा से घिर गई और उन्होंने मेरे लिए जो कुछ किया था, उसे भुला नहीं पाई। अगर कर्तव्य चुनती हूँ तो उन्हें निराश कर दूँगी, उनका सिर झुक जाएगा, लेकिन अगर स्कूल में ही रहकर अपनी आस्था और कर्तव्य छोड़ देती हूँ, तो मुझे अपराध बोध होगा, और मैं इस तरह भी जीना नहीं चाहती थी। हिचकते हुए, मैंने स्कूल छोड़ने का मन बनाया। मेरा पक्का इरादा देखकर वह स्कूल छुड़ाने मेरे साथ आने को राजी हो गईं। लेकिन स्कूल में मेरे सुपरवाइजर ने कहा : “देखो, अच्छी तरह आगा-पीछा सोच लो। एक साल में ही ग्रेजुएट बन सकती हो और जब डिग्री हाथ में होगी तो जो चाहे कर सकती हो। तुम्हें पता होना चाहिए कि बिना डिग्री के नौकरी मिलना बहुत कठिन है। ...” यह देखकर कि मुझ पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है, मेरी माँ ने दिल से कहा : “क्या तुम स्कूल में रुक नहीं सकती? मैंने तुमसे इतनी बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं। पैसों की चिंता मत करो। तुम्हारी पढ़ाई के लिए हमेशा पैसे दूँगी। तुम्हारे पिता से तलाक के बाद अब तुम ही मेरी सब कुछ हो। मेरी अकेली उम्मीद हो। ...” यह कहकर माँ रोने लगी। माँ के आँसू देखकर मैं बहुत दुखी और परेशान हो गई। मैंने सोचा : “मेरे ग्रेजुएट होने में एक ही साल बचा है। क्या मुझे डिग्री पूरी नहीं कर लेनी चाहिए? अगर मैं ग्रेजुएट होने के बाद कर्तव्य निभाना शुरू करती हूँ तो माँ भी एतराज नहीं करेगी।” इसलिए मैंने समझौता कर स्कूल में रुकने का फैसला किया। लेकिन पढ़ाई के दौरान मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा सकी और मुझे बहुत ग्लानि होने लगी। इसलिए मैंने प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, मैं बहुत कमजोर हूँ और अपने आगे के मार्ग पर चलना नहीं जानती हूँ। मुझे राह दिखाओ।”

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का अंश पढ़ा। “चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोग यह मानते हैं कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, ‘संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता, तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और मुझे समाज द्वारा फटकार लगाई जाएगी। मैं ऐसा व्यक्ति हूँगा, जिसमें जमीर नहीं है।’ क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सभी सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है। हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से घृणा करते हैं और उसके विरुद्ध विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, यदि वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास सही मार्ग है और यह उनका उद्धार कर सकता है, फिर भी ग्रहणशील नहीं होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे सत्य से उकताए हुए लोग हैं, वे सत्य से घृणा करते हैं और इसमें कोई शक नहीं है कि वे परमेश्वर का विरोध और उससे घृणा करते हैं—और स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर उनसे घृणा और उनका तिरस्कार करता है। क्या तुम ऐसे माता-पिता का तिरस्कार कर सकते हो? वे परमेश्वर का विरोध और उसकी आलोचना कर सकते हैं—ऐसा है तो, वे निश्चित रूप से दानव और शैतान हैं। क्या तुम भी उनका तिरस्कार करके उन्हें धिक्कार सकते हो? ये सब वास्तविक प्रश्न हैं। यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकें, तो तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जैसा कि परमेश्वर चाहता है, परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो। अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा, ‘कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?’ ‘क्योंकि जो कोई मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और मेरी बहिन, और मेरी माता है।’ ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : ‘उससे प्रेम करो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करो, जिससे परमेश्वर घृणा करता है।’ ये वचन बिलकुल सीधे हैं, फिर भी लोग अकसर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते। अगर कोई व्यक्ति ऐसा है, जो परमेश्वर को नकारता और उसका विरोध करता है, जो परमेश्वर द्वारा शापित है, लेकिन वह तुम्हारी माता या पिता या कोई संबंधी है, जहाँ तक तुम बता सकते हो, वह कुकर्मी नहीं है, और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो संभवत: तुम उस व्यक्ति से घृणा न कर पाओ, यहाँ तक कि उसके निकट संपर्क में बने रहो, तुम्हारे संबंध अपरिवर्तित रहें। यह सुनना कि परमेश्वर ऐसे लोगों से घृणा करता है, तुम्हें परेशान करेगा, और तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाओगे और उन लोगों को निर्ममता से नकार नहीं पाओगे। तुम हमेशा भावनाओं से बँधे रहते हो, और तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम भावनाओं को बहुत अधिक महत्व देते हो, और यह तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकता है। वह व्यक्ति तुम्हारे लिए अच्छा है, इसलिए तुम उससे नफरत नहीं कर पाते। तुम उससे तभी नफरत कर पाते हो, जब उसने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। क्या यह नफरत सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होगी? साथ ही, तुम परंपरागत धारणाओं से भी बँधे हो, तुम सोचते हो कि वे माता-पिता या रिश्तेदार हैं, इसलिए अगर तुम उनसे नफरत करोगे, तो समाज तुम्हारा तिरस्कार करेगा और जनमत तुम्हें धिक्कारेगा, कपूत, अंतरात्मा से विहीन, यहाँ तक कि अमानुष कहकर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसके लिए दैवी निंदा और दंड भुगतना होगा। भले ही तुम उनसे नफरत करना चाहो, लेकिन तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें ऐसा नहीं करने देगी। तुम्हारी अंतरात्मा इस तरह काम क्यों करती है? यह सोचने का एक तरीका है, जो तुम्हें बचपन से ही तुम्हारे परिवार द्वारा दिया गया है, जिसे तुम्हें तुम्हारे माता-पिता द्वारा सिखाया गया है और जिसे परंपरागत संस्कृति द्वारा तुममें भरा गया है। यह तुम्हारे दिलों में बहुत गहराई से जड़ जमाए है, जिसके कारण तुम गलती से यह मान लेते हो कि मातृ-पितृ-भक्ति स्वर्ग द्वारा निर्धारित है और पृथ्वी द्वारा स्वीकृत है, कि यह ऐसी चीज है जो तुम्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है और हमेशा एक अच्छी चीज है। पहले तुमने इसे सीखा और तब से यह तुम पर हावी है, तुम्हारी आस्था और सत्य की स्वीकृति में एक बड़ी बाधा और गड़बड़ी पैदा कर रही है, जिससे तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने में, और जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करने और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करने में असमर्थ हो गए हो। ... क्या मनुष्य दयनीय नहीं है? क्या उसे परमेश्वर के उद्धार की आवश्यकता नहीं है? कुछ लोगों ने परमेश्वर में कई वर्षों से विश्वास किया है, लेकिन संतानोचित निष्ठा के मामले में उनमें अभी भी कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। वे वास्तव में सत्य नहीं समझते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि पारंपरिक संस्कृति के विकृत प्रभाव के कारण “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” मेरी आचार संहिता बन गई थी। मुझे लगता था कि संतानोचित धर्मनिष्ठा सबसे महत्वपूर्ण चीज है और इसका पालन न करने का मतलब हुआ कि मैं इंसान नहीं हूँ। अपने बचपन के बारे में सोचते हुए, मैंने देखा कि माँ ने बहुत कष्ट भोगे और उनके लिए यह इतना आसान नहीं रहा होगा, इसलिए मैंने खुद से कहा कि उसकी सुनूँगी और उसका दिल नहीं दुखाऊँगी। मेरी परवरिश में मेरी माँ ने इतने कष्ट उठाए, अगर उनका सम्मान न किया या आदेश न माना, तो मैं कृतघ्न और निर्दयी हूँ। इसलिए बचपन से ही मैंने मेहनत कर पढ़ने-लिखने और कुछ बनकर दिखाने का प्रण किया था, ताकि मेरी माँ अच्छी जिंदगी जी सके। उन्होंने जो कुछ कहा मैंने किया, ताकि उनके दिल को चोट न पहुँचे। अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद, मुझे समझ में आया कि कर्तव्य निभाना और सत्य का अनुसरण करना सार्थक और समुचित है, लेकिन माँ के रोने-धोने और स्कूल में रुकने की मिन्नतें करने पर मैंने समझौता कर लिया। भले ही मैं परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहती थी, पर अपनी माँ की उम्मीदें पूरी करने के लिए मैंने अपना कर्तव्य छोड़ दिया। मैं “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” के विचार में फँस चुकी थी। परमेश्वर चाहता है कि वह जिससे प्यार या नफरत करता है, हम भी उससे प्यार या नफरत करें। यही हमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं और ये ऐसे सिद्धांत हैं जिन पर हमें टिके रहना चाहिए। अगर मेरे माता-पिता वाकई परमेश्वर पर आस्था रखते हैं, तो मुझे उनसे प्यार कर भाई-बहनों की तरह पेश आना चाहिए। लेकिन अगर वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते, मुझे सताते हैं या मेरी आस्था में बाधा डालते हैं, तो वे सत्य से घृणा करते हैं और परमेश्वर के खिलाफ हैं, और मुझे आँख मूँदकर उनका कहना नहीं मानना चाहिए। मेरी माँ ने परमेश्वर पर विश्वास किया लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं किया और मुझे भी कर्तव्य निभाने से रोका। मैंने देखा कि वह गैर-विश्वासी और परमेश्वर की दुश्मन थी। पहले मुझमें विवेक नहीं था, सोचती थी कि बच्चे के रूप में मुझे अपने माता-पिता का सम्मान कर हमेशा उनकी बात माननी चाहिए, इसे ही मानवता और अंतरात्मा रखना कहते हैं। तभी मेरी समझ में आया कि यह गलत नजरिया सत्य के अनुरूप नहीं है। अपने माता-पिता का सम्मान सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए, हमें आँख बंद कर उनकी बात नहीं माननी चाहिए। यही अभ्यास का सिद्धांत है।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अब तुम्हें उस मार्ग को स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाना चाहिए, जिस पर पतरस चला था। यदि तुम पतरस के मार्ग को स्पष्ट रूप से देख सको, तो तुम उस कार्य के बारे में निश्चित होगे जो आज किया जा रहा है, इसलिए तुम शिकायत नहीं करोगे या निष्क्रिय नहीं होगे, या किसी भी चीज़ की लालसा नहीं करोगे। तुम्हें पतरस की उस समय की मनोदशा का अनुभव करना चाहिए : वह दुख से त्रस्त था; उसने फिर कोई भविष्य या आशीष नहीं माँगा। उसने सांसारिक लाभ, प्रसन्नता, प्रसिद्धि या धन-दौलत की कामना नहीं की; उसने केवल सर्वाधिक अर्थपूर्ण जीवन जीना चाहा, जो कि परमेश्वर के प्रेम को चुकाने और परमेश्वर को अपनी सबसे अधिक बहुमूल्य वस्तु समर्पित करने के लिए था। तब वह अपने हृदय में संतुष्ट होता। ... उसकी परीक्षा की पीड़ा के दौरान, यीशु पुनः उसके सामने प्रकट हुआ और बोला : ‘पतरस, मैं तुझे पूर्ण बनाना चाहता हूँ, इस तरह कि तू फल का एक टुकड़ा बन जाए, जो मेरे द्वारा तेरी पूर्णता का ठोस रूप हो, और जिसका मैं आनंद लूँगा। क्या तू वास्तव में मेरे लिए गवाही दे सकता है? क्या तूने वह किया, जो मैं तुझे करने के लिए कहता हूँ? क्या तूने मेरे कहे वचनों को जिया है? तूने एक बार मुझे प्रेम किया, किंतु यद्यपि तूने मुझे प्रेम किया, पर क्या तूने मुझे जिया है? तूने मेरे लिए क्या किया है? तू महसूस करता है कि तू मेरे प्रेम के अयोग्य है, पर तूने मेरे लिए क्या किया है?’ पतरस ने देखा कि उसने यीशु के लिए कुछ नहीं किया था, और परमेश्वर को अपना जीवन देने की पिछली शपथ स्मरण की। और इसलिए, उसने अब और शिकायत नहीं की, और तब से उसकी प्रार्थनाएँ और अधिक बेहतर हो गईं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस ने यीशु को कैसे जाना)। यह बात प्रभु यीशु ने पतरस से पूछी थी, लेकिन मुझे लगा कि परमेश्वर भी मुझसे यही बात पूछ रहा है। मैंने खुद से पूछा : “मैंने परमेश्वर के लिए क्या किया है? पतरस ने परमेश्वर से इतना प्रेम किया कि प्रभु का अनुसरण करने के लिए सब कुछ त्याग दिया। और मैं? परमेश्वर ने मुझे जिंदगी दी लेकिन मैंने उसके लिए क्या किया? कुछ भी नहीं। अगर मैंने कभी कुछ सोचा तो सिर्फ अपने माता-पिता और अपने भविष्य के बारे में। मैं तो अपना सारा समय और मेहनत पढ़ने और पैसा कमाने में लगाने को तैयार हूँ ताकि मैं उनकी दया का कर्ज चुका सकूँ। अगर मैं उनकी उम्मीदों पर खरी न उतर सकी, तो मुझे लगेगा कि मैंने उन्हें नीचा दिखाया है और मुझे ग्लानि होगी, लेकिन सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य न करने के बावजूद मुझे परमेश्वर को नीचा दिखाने का एहसास नहीं हो रहा है। मुझमें अंतरात्मा नहीं है।” पतरस के अनुभव के बारे में सोचें तो उसके माता-पिता उसके आड़े आ गए थे, लेकिन उसने इस विरोध की फिक्र नहीं की और प्रभु यीशु का अनुसरण करने के लिए सब कुछ त्याग दिया। उसमें सच्ची अंतरात्मा और समझ थी। हमें परमेश्वर ने रचा है, इसलिए उस पर विश्वास करना और उसकी आराधना करना सही और सहज है। परमेश्वर ने मुझे चुना और अपनी शरण में लेकर मुझे बचा लिए जाने का अवसर दिया। परमेश्वर का प्रेम सचमुच महान है! मुझे इस प्रेम का कर्ज चुकाना होगा और पतरस की तरह सब कुछ छोड़कर परमेश्वर का अनुसरण करना होगा। इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े जिनसे मुझे और प्रेरणा मिली। “जागो, भाइयो! जागो, बहनो! मेरे दिन में देरी नहीं होगी; समय जीवन है, और समय को थाम लेना जीवन बचाना है! वह समय बहुत दूर नहीं है! यदि तुम लोग महाविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होते, तो तुम पढ़ाई कर सकते हो और जितनी बार चाहो फिर से परीक्षा दे सकते हो। लेकिन, मेरा दिन अब और देरी बर्दाश्त नहीं करेगा। याद रखो! याद रखो! मैं इन अच्छे वचनों के साथ तुमसे आग्रह करता हूँ। दुनिया का अंत खुद तुम्हारी आँखों के सामने प्रकट हो रहा है, और बड़ी-बड़ी आपदाएँ तेज़ी से निकट आ रही हैं। क्या अधिक महत्वपूर्ण है : तुम लोगों का जीवन या तुम्हारा सोना, खाना-पीना और पहनना-ओढ़ना? समय आ गया है कि तुम इन चीज़ों पर विचार करो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 30)। “नज़र रखो! नज़र रखो! बीता हुआ समय फिर कभी नहीं आएगा, यह याद रखो! दुनिया में ऐसी कोई दवाई नहीं है जो पछतावे का इलाज कर सके! तो, मैं तुम लोगों से कैसे बात करूँ? क्या मेरे वचन इस योग्य नहीं कि तुम उन पर सावधानीपूर्वक बार-बार सोच-विचार करो?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 30)। परमेश्वर के हर वचन ने मेरे मन की बात कह दी। वक्त बहुत तेजी से बीत रहा है। आपदाएँ बढ़ती जा रही हैं, दुनिया भर के देश उथल-पुथल से गुजर रहे हैं। दिन एक-एक कर घटते जा रहे हैं, ऐसे में सत्य का अनुसरण सबसे महत्वपूर्ण है। अगर मैंने परमेश्वर का कार्य नहीं संभाला और सांसारिक चीजों का पीछा करते हुए पढ़ाई, भविष्य और परिवार जैसी चीजों पर ध्यान देती रही, तो परमेश्वर का कार्य खत्म होते-होते सत्य का अनुसरण करने में बहुत देर हो जाएगी। सत्य के बिना मैं आपदाओं में नष्ट हो जाऊँगी और दंड पाऊँगी, और पश्चात्ताप भी नहीं कर सकूँगी। परमेश्वर का उद्धार फिर मेरे सामने था और मुझे इस अवसर को लपककर सत्य का अनुसरण करना था, सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना था ताकि परमेश्वर के प्रेम का कर्ज चुका सकूँ।

मैंने स्कूल छोड़ने का मन बना लिया था। लिहाजा अपनी माँ से कहा : “माँ, मैं वापस स्कूल नहीं जा रही हूँ। दूसरे क्या कहते हैं मुझे इसकी परवाह नहीं, मैं अपना रास्ता खुद चुनना चाहती हूँ और उम्मीद है कि आप इसका सम्मान करेंगी।” उन्होंने कहा : “तुम्हारी आंटी पहले ही कह चुकी है कि ग्रेजुएट की डिग्री मिलते ही, वह तुम्हें नौकरी दिला देगी। उसके बाद हम तुम्हारे लिए अच्छा-सा जीवनसाथी ढूंढ लेंगे और तुम सुख से जीवन जी सकती हो।” लेकिन माँ के शब्द मुझे और नहीं बहला सके, क्योंकि मुझे साफ दिख रहा था कि माँ ऐसा सच्चे प्यार के कारण नहीं कर रही थी। उन्हें तो सिर्फ मेरे फौरी हितों की फिक्र थी, मेरी जिंदगी या मेरे भविष्य की मंजिल की नहीं। उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद किया। “मुझे बताओ, लोगों के साथ जुड़ी हर चीज किससे पैदा होती है? मानव-जीवन के लिए सबसे बड़ा दायित्व कौन वहन करता है? (परमेश्वर।) मात्र परमेश्वर ही लोगों से सबसे अधिक प्रेम करता है। क्या लोगों के माता-पिता और रिश्तेदार वास्तव में उनसे प्रेम करते हैं? वे जो प्यार देते हैं क्या वह सच्चा प्रेम होता है? क्या वह लोगों को शैतान के प्रभाव से बचा सकता है? नहीं बचा सकता। लोग सुन्न और मंदबुद्धि होते हैं, वे इन चीजों के परे नहीं देख पाते और हमेशा कहते हैं, ‘परमेश्वर मुझसे कैसे प्रेम करता है? मुझे तो महसूस नहीं होता। वैसे भी, मेरे माता-पिता मुझे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। वे मेरी पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठाते हैं, तकनीकी कौशल सिखवाते हैं ताकि मैं बड़ा होकर कुछ बन सकूँ, सफल हो सकूँ, एक प्रसिद्ध व्यक्ति या हस्ती बन सकूँ। मेरे माता-पिता मेरे पालन-पोषण पर इतना पैसा खर्च करते हैं, शिक्षा दिलाते हैं, बचत करके खुद थोड़े में गुजारा करते हैं। वह कितना महान प्रेम है? मैं उनका ऋण कभी नहीं चुका सकता!’ तुम्हें लगता है कि यह प्यार है? जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें एक कामयाब इंसान बनाते हैं, दुनिया में एक हस्ती बनने, एक अच्छी नौकरी पाने योग्य और दुनियादारी के लायक बनाते हैं तो उसके क्या परिणाम होते हैं? तुम निरंतर सफलता के पीछे भागने, अपने परिवार को सम्मान दिलाने और दुनियादारी की बुरी प्रवृत्तियों को अपनाने में लग जाते हो और नतीजा यह होता है कि अंतत: तुम पाप के गड्ढे में जा गिरते हो, तबाही झेलते हुए खत्म हो जाते हो और फिर शैतान तुम्हें निगल जाता है। क्या यह प्रेम है? वे तुमसे प्यार नहीं कर रहे, तुम्हारा नुकसान कर रहे हैं, तुम्हें तबाह कर रहे हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, मामलों और चीज़ों से सीखना चाहिए)। लगता तो था कि माँ सब कुछ मेरे भले के लिए कर रही है, अपने खाने-पहनने में कटौती कर मेरी पढ़ाई के लिए कमर-तोड़ मेहनत कर रही है, लेकिन उन्हें यह एहसास नहीं था कि मैं जो कुछ सीख रही हूँ उसमें शैतानी जहर और भ्रांतियाँ भरी हैं जो मुझे परमेश्वर से दूर कर देंगी और मैं उसके अस्तित्व को नकारने लगूँगी। छात्रों को ऐसे नास्तिक विचार पढ़ाए जाते हैं, जैसे “कभी भी कोई उद्धारकर्ता नहीं हुआ है,” “मनुष्य अपने स्वयं के हाथों से एक सुखद मातृभूमि का निर्माण कर सकता है,” “तुम जितना अधिक सहोगे, उतना अधिक सफल होगे” और “भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो,” और ये हममें अपने आदर्शों को हासिल करने और भीड़ से ऊपर उठकर दूसरों से आगे बढ़ने की लालसा जगाते हैं। लोग इन विचारों और सोच के अनुसार जीकर, परमेश्वर की व्यवस्था को न मानकर अपनी किस्मत अपने हाथों चमकाने की कोशिश करते हैं। वे परमेश्वर का अधिक से अधिक विरोध कर उसका अस्तित्व नकारते हैं और अंत में बचाए जाने का अवसर खो बैठते हैं। यह शैतान का बुरा मार्ग है। इन चीजों का अनुसरण मुझे परमेश्वर से और दूर ले जाकर शैतान की भ्रष्टता में डाल सकता है। यह मुझे नरक की ओर धकेल सकता है! इस पर मैं समझ गई कि मेरे माता-पिता का प्यार सच्चा प्यार नहीं था और सिर्फ परमेश्वर का प्रेम सच्चा प्रेम है। भीड़ से अलग खड़े होकर अपने परिवार का नाम चमकाना जिंदगी का सही रास्ता नहीं है। सिर्फ सत्य का अनुसरण कर और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाकर ही परमेश्वर का संरक्षण मिलेगा। यह सब समझ में आते ही मैंने स्कूल छोड़ने और परमेश्वर के कार्य में समर्पित होने का फैसला किया। मैंने अपनी माँ से कहा : “माँ, आप चाहती हैं कि मैं पढ़ाई जारी रखूँ, फिर अच्छी-सी नौकरी और पति ढूंढूँ और अपने लिए कुछ करूँ, लेकिन क्या आप गारंटी दे सकती हैं कि इससे मुझे खुशी मिलेगी? मुझे अच्छी किस्मत मिलेगी? नहीं, आप नहीं दे सकतीं, कोई भी नहीं दे सकता! माँ, आपने अपनी जिंदगी में जो सबसे अच्छा काम किया, वह था हमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर का सुसमाचार सुनाना और मुझे सही मार्ग दिखाना। यह एकदम सही रास्ता था।” एक पल के लिए मेरी माँ अवाक रह गई और फिर बोली : “अपना ख्याल रखना। मिलते रहना।” इसके बाद मैंने स्कूल जाकर अपना नाम कटा लिया। स्कूल के बाहर कदम रखते ही मैं सचमुच आजाद थी। अपनी पढ़ाई या परिवार के कारण बेबस नहीं थी और आखिर कलीसिया में कर्तव्य निभा सकती थी।

इस बात को कई साल बीत चुके हैं, लेकिन जितनी बार भी यह बात याद आती है, मुझे बेहद खुशी होती है। यह कदम-कदम पर मिला परमेश्वर का मार्गदर्शन ही था जिसने मुझे अपने कर्तव्य और अपनी पढ़ाई में सही चुनाव करना और जिंदगी में सही मार्ग पर चलना सिखाया। मैंने परमेश्वर के प्रेम और सदिच्छा को सचमुच अनुभव किया। अब मैं सृजित प्राणी के रूप में कर्तव्य निभाने में सक्षम हूँ और मेरा जीवन व्यर्थ नहीं है। मैं सचमुच खुश हूँ।

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