40. मैं दूसरे लोगों पर आँख मूँद कर भरोसा क्यों करती हूँ?

चेन सी, चीन

2021 में मेरे पास तीन कलीसियाओं के सिंचन कार्य की जिम्मेदारी थी। एक कलीसिया में दो सिंचन समूह अगुआ ली कैन और झांग ज़ुआन मेरे साथ काम करती थीं। उस समय मुझे लगा कि ली कैन अपने कर्तव्य को लेकर सक्षम है और जिम्मेदारी लेती है। वह समय रहते मेरे कर्तव्य में किसी भी विचलन को बता देती थी और उसे सुधारने में मेरी मदद करती थी। उसके नजर रखने और चेताते रहने से कुछ काम टलता नहीं था। झांग जुआन भी जिम्मेदारी लेती थी और जब मैं खराब अवस्था में होती तो वह प्यार भरे दिल से मेरी मदद करती। मैं उनके साथ काम करके बहुत खुश थी, सोचती थी कि उनकी कार्य क्षमताएँ, काबिलियत और अपने कर्तव्यों के प्रति दृष्टिकोण बहुत अच्छे थे। उन दोनों के यहाँ कार्यभार संभालने के बाद मुझे इस कलीसिया के सिंचन कार्य के बारे में ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं थी और मैं अन्य दो कलीसियाओं के काम पर ध्यान केंद्रित कर सकती थी। बाद में उनके पत्रों से मैंने जाना कि उनके काम के नतीजे दूसरी कलीसियाओं से बेहतर थे। मैंने उनकी कार्य क्षमताओं की और पुष्टि की, इसलिए मैं शायद ही कभी उनके काम में शामिल हुई।

एक बार मेरे अगुआ ने मुझे पत्र भेजकर कहा कि मैं सिंचन कार्य में व्यावहारिक रूप से भाग लूँ और काम में देरी से बचने के लिए ऐसे किसी भी कर्मचारी को तुरंत बदल दूँ जो मुझे अनुपयुक्त रहता है। पत्र पाने के बाद मैं जल्दी से अन्य दो कलीसियाओं में गई और देखा कि काम कैसे चल रहा है। मैंने देखा कि एक सिंचन समूह का अगुआ वास्तविक कार्य नहीं कर पा रहा है और मैंने तुरंत फेरबदल कर दिया। जब मैं ली कैन के प्रभार वाली कलीसिया का दौरा करने वाली थी तो मैंने सोचा, “चाहे उसकी कार्य क्षमता, बोझ उठाने का बोध या काबिलियत की बात हो, वह और झांग झुआन सभी मामलों में ठीक हैं। उन दोनों के वहाँ होने से काम में निश्चित रूप से कोई समस्या नहीं होगी।” इसलिए मैंने उनके काम की जाँच नहीं की। एक और बार, मैंने कई कलीसियाओं से सिंचन समूह के अगुआओं को इकट्ठा किया क्योंकि मैं उनके काम में विचलन के बारे में विस्तार से जानना चाहती थी, ताकि समस्याओं का पता लगाया जा सके और उन्हें समय पर सुलझाया जा सके। हालाँकि, तब मैंने मुख्य रूप से अन्य समूह के अगुआओं के काम के बारे में पूछताछ की, उनसे पूछा कि वे आम तौर पर नए विश्वासियों के लिए कैसे सभाएँ करते हैं और वे परमेश्वर के किन वचनों का उपयोग संगति करने, नए विश्वासियों के प्रश्नों को हल करने, इत्यादि उद्देश्यों के लिए करते हैं। विस्तृत पूछताछ के माध्यम से मुझे कुछ समस्याएँ मिलीं और मैंने उनके बारे में संगति की और उन्होंने इन्हें वहीं दुरुस्त कर दिया। जब ली कैन और झांग ज़ुआन की बारी आई तो मैंने सोचा कि उनके काम के बोझ उठाने और काम करने की क्षमता ठीक है, इसलिए मैंने उनके काम के बारे में विस्तार से पूछताछ नहीं की। बाद में मेरे अगुआ ने मुझसे एक अपेक्षाकृत अच्छा सिंचनकर्ता उपलब्ध कराने के लिए कहा, इसलिए मैंने ली कैन की सिफारिश की। लेकिन स्थिति देखने के बाद अगुआ ने पाया कि ली कैन के सिंचन के नतीजे अच्छे नहीं थे और मुझसे पूछा कि मैं उसे उस जैसी इंसान को कैसे दे सकती थी। मैंने सोचा, “हो सकता है कि अगुआ की अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा हों? जहाँ तक मैं ली कैन को समझती थी, भले ही उसे पदोन्नत न किया जा सके, फिर भी वह कलीसिया में नए विश्वासियों को सींचने में अत्यंत सक्षम है।” बाद में अगुआ ने मुझसे कहा, “ली कैन और झांग ज़ुआन आलसी और धूर्त हैं और अपने कर्तव्य निभाते हुए आराम खोजती हैं। हमने उनके साथ इस बारे में संगति कर ली है; देखते हैं कि वे भविष्य में कैसा प्रदर्शन करती हैं।” यह सुनकर मैंने इसे गंभीरता से तो नहीं ही लिया, बल्कि यह भी सोचा, “अपनी देह का ख्याल रखने के क्षणिक विचार किसके मन में नहीं आते? वे अपना वर्तमान कार्य ठीक से कर रही हैं, क्या इतना काफी नहीं है?” उसके बाद भी मैंने उनके काम पर नजर नहीं रखी और न ही निरीक्षण किया।

कुछ समय बाद अगुआ ने एक पत्र भेजकर कहा कि ली कैन के प्रभार वाली कलीसिया के सिंचन कार्य में कई समस्याएँ हैं और मैं इन्हें जल्द से जल्द सुलझा लूँ। जब मैंने पत्र देखा तो सोचा, “ली कैन ने कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है और एक अगुआ के रूप में सेवा की है। मैं उसकी कार्य क्षमता और काबिलियत जानती हूँ। क्या स्थिति वाकई इतनी खराब हो सकती है? कहीं अगुआ से कोई गलती तो नहीं हो गई है? लेकिन अगुआ ने ऐसा कहा है तो इसके पीछे कोई कारण तो होगा ही। मुझे व्यावहारिक रूप से स्थिति पर गौर करने की आवश्यकता है।” स्थिति के बारे में जानने के बाद ही मुझे पता चला कि न तो ली कैन और न ही झांग ज़ुआन वास्तविक कार्य कर रही थीं। उन्होंने कलीसिया में उन प्रतिभाशाली व्यक्तियों को विकसित नहीं किया, जिन्हें विकसित किया जाना चाहिए था और नए विश्वासी सभाओं में जो खा और पी रहे थे, वह परमेश्वर का कार्य जानने के बारे में सबसे बुनियादी सत्य नहीं था। कुछ नए विश्वासी भी थे जो सीसीपी की अफवाहों को सुनने के बाद नकारात्मक हो गए थे लेकिन हैरानी की बात है कि ली कैन और झांग ज़ुआन ने उनका साथ देने के लिए एक गैर-जिम्मेदार व्यक्ति की व्यवस्था कर दी। नए विश्वासियों की समस्याओं का समाधान नहीं किया गया था और ली कैन और झांग ज़ुआन ने नए विश्वासियों के साथ संगति करने और उनकी आगे मदद करने के तरीके नहीं खोजे थे। कुछ नए विश्वासी लगभग दूर हो गए थे। आखिरकार नए विश्वासियों ने खुद ही परमेश्वर के वचनों को पढ़कर अपनी अवस्थाओं को उलट दिया था। हालाँकि सिंचन कार्य में कई विचलन और खामियाँ थीं, लेकिन ली कैन और झांग ज़ुआन ने आत्मचिंतन नहीं किया और दूसरों को दोषी ठहराने की भी कोशिश की। ये बातें जानकर मैं हैरान रह गई, “चीजें इस तरह कैसे हो गईं? मेरी समझ के अनुसार पहले वे अपने कर्तव्य निर्वहन में बोझ उठाती थीं। अब चीजें इस तरह कैसे हो गईं?” लेकिन सच्चाई मेरी आँखों के सामने थी; मुझे इसे स्वीकारना ही था। साथ ही मुझे अपराध बोध भी बहुत हुआ। अगर मैंने पहले ही उनके काम की निगरानी की होती और नजर रखी होती तो सिंचन कार्य में इतनी समस्याएँ नहीं आतीं। यह मेरी जिम्मेदारी थी और मैं इसे टाल नहीं सकती थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “नकली अगुआ उन पर्यवेक्षकों के बारे में कभी पूछताछ नहीं करते जो वास्तविक कार्य नहीं कर रहे होते हैं, या जो अपने उचित कार्यों पर ध्यान नहीं दे रहे होते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें बस एक पर्यवेक्षक चुनना है और मामला खत्म; और कि बाद में पर्यवेक्षक सभी कार्य-संबंधी मामलों को अपने आप संभाल सकता है। इसलिए नकली अगुआ जब-तब बस सभाएँ आयोजित करता है और काम का पर्यवेक्षण नहीं करता, न ही पूछता है कि काम कैसा चल रहा है, और कार्यस्थल से दूर रहने वाले उच्चाधिकारियों की तरह से व्यवहार करता है। अगर कोई पर्यवेक्षक से जुड़ी समस्या को लेकर आता है, तो नकली अगुआ कहेगा, ‘यह तो मामूली-सी समस्या है, कोई बड़ी बात नहीं है। इसे तो तुम लोग खुद ही सँभाल सकते हो। मुझसे मत पूछो।’ समस्या की रिपोर्ट करने वाला व्यक्ति कहता है, ‘वह पर्यवेक्षक आलसी पेटू है। वह केवल खाने और मनोरंजन पर ध्यान केंद्रित रखता है, एकदम निकम्मा है। वह अपने काम में थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं उठाना चाहता, काम और जिम्मेदारियों से बचने के लिए हमेशा छलपूर्वक ढिलाई बरतता है और बहाने बनाता है। वह निरीक्षक बनने लायक नहीं है।’ झूठा अगुआ जवाब देगा, ‘जब उसे पर्यवेक्षक चुना गया था, तब तो वह बहुत अच्छा था। तुम जो कह रहे हो, वह सच नहीं है, और अगर है भी तो यह सिर्फ एक अस्थायी अभिव्यक्ति है।’ झूठा अगुआ निरीक्षक की स्थिति के बारे में अधिक जानने की कोशिश नहीं करेगा, बल्कि उस पर्यवेक्षक के साथ अपने पिछले अनुभवों के आधार पर ही मामले को परखेगा और इस मामले में फैसला सुनाएगा। चाहे कोई भी पर्यवेक्षक से जुड़ी समस्याओं की रिपोर्ट करे, नकली अगुआ उसे अनदेखा करेगा। पर्यवेक्षक वास्तविक काम नहीं कर रहा है, और कलीसिया का काम लगभग ठप हो गया है, लेकिन नकली अगुआ को कोई परवाह नहीं होती, ऐसा लगता है कि उसका इससे मतलब ही नहीं है। यह वैसे भी बुरी बात है कि जब कोई व्यक्ति पर्यवेक्षक के मुद्दों की रिपोर्ट करता है, तो अगुआ आंखें मूंद लेता है। लेकिन सबसे घृणा करने योग्य क्या होता है? जब लोग उसे पर्यवेक्षक के गंभीर मुद्दों के बारे में बताते हैं, तो वह उन्हें सुलझाने की कोशिश नहीं करेगा, और दुनियाभर के बहाने बनाएगा : ‘मैं इस निरीक्षक को जानता हूँ, वह सच में परमेश्वर में विश्वास करता है, उसे कभी कोई समस्या नहीं होगी। यदि कोई छोटी-मोटी समस्या हुई भी, तो परमेश्वर उसकी रक्षा करेगा और उसे अनुशासित करेगा। अगर उससे कोई गलती हो भी जाती है, तो वह उसके और परमेश्वर के बीच का मामला है—हमें इससे चिंतित होने की जरूरत नहीं है।’ नकली अगुआ इसी तरह अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार काम करते हैं। वे सत्य समझने और आस्था होने का दिखावा करते हैं—लेकिन, वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर देते हैं, कलीसिया का काम ठप भी हो सकता है फिर भी वे इससे अनजान होने का ढोंग करते हैं। क्या नकली अगुआ बहुत हद तक बाबुओं जैसा अभिनय नहीं कर रहे हैं? वे स्वयं कोई वास्तविक कार्य करने में अक्षम होते हैं और समूह अगुआओं और पर्यवेक्षकों के कार्य के बारे में सूक्ष्मता से ध्यान भी नहीं देते—वे इसकी न तो अनुवर्ती देखभाल करते हैं, न ही इस बारे में पूछताछ करते हैं। लोगों के बारे में उनका नजरिया उनकी अपनी सोच और कल्पनाओं पर आधारित होता है। किसी को कुछ समय के लिए अच्छा काम करते देखते हैं, तो उन्हें लगता है कि वह व्यक्ति हमेशा ही अच्छा काम करेगा, उसमें कोई बदलाव नहीं आएगा; अगर कोई कहता है कि इस व्यक्ति के साथ कोई समस्या है, तो वह उस पर विश्वास नहीं करता, अगर कोई उन्हें उस व्यक्ति के बारे में चेतावनी देता है, तो वह उसे अनदेखा कर देता है। क्या तुम्हें लगता है कि नकली अगुआ बेवकूफ होता है? वे बेवकूफ और मूर्ख होते हैं। ... नकली अगुआओं में यह घातक कमी होती है कि यह भी एक बड़ी विफलता होती है : वे अपनी कल्पनाओं के आधार पर लोगों पर जल्दी भरोसा कर लेते हैं। और यह सत्य को न समझने के कारण होता है, है न? परमेश्वर के वचन भ्रष्ट लोगों का सार कैसे प्रकट करते हैं? जब परमेश्वर ही लोगों पर भरोसा नहीं करता, तो वे क्यों करें? नकली अगुआ बहुत घमंडी और आत्मतुष्ट होते हैं, है न? वे यह सोचते हैं, ‘मैं इस व्यक्ति को परखने में गलत नहीं रहा हो सकता। जिस व्यक्ति को मैंने उपयुक्त समझा है, उसके साथ कोई समस्या नहीं होनी चाहिए; वह निश्चित रूप से ऐसा नहीं है, जो खाने, पीने और मस्ती करने में रमा रहे, आराम पसंद करे और मेहनत से नफरत करे। वे पूरी तरह से भरोसेमंद और विश्वसनीय हैं। वे बदलेंगे नहीं; अगर वे बदले, तो इसका मतलब होगा कि मैं उनके बारे में गलत था, है न?’ यह कैसा तर्क है? क्या तुम कोई विशेषज्ञ हो? क्या तुम्हारे पास एक्सरे जैसी दृष्टि है? क्या तुममें विशेष कौशल है? तुम किसी व्यक्ति के साथ एक-दो साल तक रह सकते हो, लेकिन क्या तुम उसके प्रकृति सार को पूरी तरह से उजागर करने वाले किसी उपयुक्त वातावरण के बिना यह देख पाओगे कि वह वास्तव में कौन है? अगर परमेश्वर द्वारा उन्हें उजागर न किया जाए, तो तुम्हें तीन या पाँच वर्षों तक उनके साथ रहने के बाद भी यह जानने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा कि उनका प्रकृति सार किस तरह का है। और जब तुम उनसे शायद ही कभी मिलते हो, शायद ही कभी उनके साथ होते हो, तो यह भी कितना सच होगा? किसी के साथ थोड़ी-बहुत बातचीत या किसी के द्वारा उनके सकारात्मक मूल्यांकन के आधार पर नकली अगुआ प्रसन्नतापूर्वक उन पर भरोसा कर लेते है और ऐसे व्यक्ति को कलीसिया का काम सौंप देते हो। इसमें क्या वे अत्यधिक अंधे नहीं हो जाते हो? क्या वे उतावली से काम नहीं ले रहे हैं? और जब नकली अगुआ इस तरह से काम करते हैं, तो क्या वे बेहद गैर-जिम्मेदार नहीं होते?(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (3))। परमेश्वर मेरी अवस्था को सटीक उजागर कर रहा था; मैं अपने कर्तव्य के प्रति बहुत गैरजिम्मेदार थी। मैंने पहले ली कैन और झांग ज़ुआन के साथ काम किया था और चूँकि उनमें कुछ कार्य क्षमताएँ थीं और उन्होंने अपने कर्तव्य निभाते हुए कुछ नतीजे हासिल किए थे, इसलिए मैंने आसानी से उन पर भरोसा कर लिया। उन्हें पूरी तरह काम सौंपकर मैंने इसकी निगरानी तक नहीं की या इसके बारे में पूछा तक नहीं। जब अगुआ ने मुझसे पूछा कि क्या सिंचन समूह के अगुआ वास्तविक काम कर रहे हैं तो भी मैंने उनके काम की जाँच नहीं की थी क्योंकि मुझे उन पर भरोसा था। यहाँ तक कि जब मैंने उनके साथ सभा की तो भी मैंने उनके काम के बारे में विस्तार से पूछताछ नहीं की थी। बाद में जब अगुआ ने कहा कि वे अपने कर्तव्यों में आराम के लिए लालायित रहती हैं और वास्तविक कार्य नहीं करती हैं तो मैंने अपने दिल में थोड़ा प्रतिरोध महसूस किया और सोचा कि वे ऐसी नहीं हैं और अगुआ उन्हें अच्छी तरह से नहीं जानता। मैंने अपने दिल में उनके पक्ष में तर्क भी दिया था। इस पर विचार करते हुए मुझे पता चला कि मैंने उनसे केवल कुछ महीनों तक ही बातचीत की थी। ऊपरी तौर पर लगा कि उनमें कुछ कार्य क्षमताएँ हैं और अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति जिम्मेदारी का कुछ एहसास है लेकिन मैंने उनकी मानवता और प्रकृति सार को बिल्कुल भी नहीं समझा था। मैंने अस्थायी धारणाओं और अच्छी भावनाओं के आधार पर उन पर भरोसा जताया और फिर यह सोचकर सहज हो गई कि उन्हें काम सौंपकर निगरानी करने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर ने उजागर किया कि लोग शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट हो चुके हैं, इसलिए उनके सभी भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं हुआ है, वे सभी लापरवाह, गैर-जिम्मेदार हो सकते हैं और पूर्ण बनाए जाने से पहले अपने तरीके से चल सकते हैं। मैं परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजों को नहीं देख रही थी, बल्कि मैंने अपनी धारणाओं और कल्पनाओं पर भरोसा किया था और उनके अस्थायी अच्छे कार्य प्रदर्शन के आधार पर उनके अच्छे पहलू को अपने मन में बैठा लिया था। यहाँ तक कि जब अगुआ ने उनकी समस्याओं की ओर इशारा किया तो भी मुझे यकीन नहीं हुआ क्योंकि मुझे लगा कि अगुआ की अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा हैं। शैतान के स्वभाव के अनुसार जीने के कारण मैंने खासकर खुद पर भरोसा किया और चीजों को देखने के लिए अपने दृष्टिकोण पर कायम रही और सोचा कि जो मुझे अच्छा लगता है वह निर्विवाद है, दूसरों ने जो भी समझाया उसे नहीं स्वीकारा, जिससे काम में देरी हुई। मैं वास्तव में बहुत घमंडी और दंभी थी!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा : “हालाँकि, आज, बहुत से लोग कर्तव्य करते हैं, लेकिन कम ही लोग सत्य का अनुसरण करते हैं। बहुत कम लोग अपने कर्तव्य करने के दौरान सत्य का अनुसरण करते हुए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं; अधिकांश लोगों के काम करने के तरीके में कोई सिद्धांत नहीं होते, वे अब भी सच्चाई से परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते; वे केवल यह दावा करते हैं कि उन्हें सत्य से प्रेम है, सत्य का अनुसरण करने और सत्य के लिए प्रयास करने के इच्छुक हैं, लेकिन पता नहीं उनका यह संकल्प कितने दिनों तक टिकेगा। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, उनका भ्रष्ट स्वभाव किसी भी समय या स्थान पर बाहर आ सकता है। उनमें अपने कर्तव्य के प्रति किसी जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे अक्सर अनमने होते हैं, मनमर्जी से कार्य करते हैं, यहाँ तक कि काट-छाँट भी स्वीकार करने में अक्षम होते हैं। जैसे ही वे नकारात्मक और कमजोर होते हैं, वे अपने कर्तव्य त्यागने में प्रवृत्त हो जाते हैं—ऐसा अक्सर होता रहता है, यह सबसे आम बात है; सत्य का अनुसरण न करने वाले लोगों का व्यवहार ऐसा ही होता है। और इसलिए, जब लोगों को सत्य की प्राप्ति नहीं होती, तो वे भरोसेमंद और विश्वास योग्य नहीं होते। उनके भरोसेमंद न होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि जब उन्हें कठिनाइयों या असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो बहुत संभव है कि वे गिर पड़ें, और नकारात्मक और कमजोर हो जाएँ। जो व्यक्ति अक्सर नकारात्मक और कमजोर हो जाता है, क्या वह भरोसेमंद होता है? बिल्कुल नहीं। लेकिन जो लोग सत्य समझते हैं, वे अलग ही होते हैं। जो लोग वास्तव में सत्य की समझ रखते हैं, उनके अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय, परमेश्वर के प्रति समर्पण वाला हृदय होता है, और जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, केवल वही लोग भरोसेमंद होते हैं; जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, वे लोग भरोसेमंद नहीं होते। जिनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता, उनके प्रति कैसा रवैया अपनाया जाना चाहिए? उन्हें प्रेमपूर्वक सहायता और सहारा देना चाहिए। जब वे कर्तव्य कर रहे हों, तो उनका अधिक अनुवर्तन करना चाहिए, और उन्हें अधिक मदद और निर्देश दिए जाने चाहिए; तभी वे अपना कार्य प्रभावी ढंग से कर पाएँगे। और ऐसा करने का उद्देश्य क्या है? मुख्य उद्देश्य परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखना है। दूसरा मकसद है समस्याओं की तुरंत पहचान करना, तुरंत उनका पोषण करना, उन्हें सहारा देना, या उनकी काट-छाँट करना, भटकने पर उन्हें सही मार्ग पर लाना, उनके दोषों और कमियों को दूर करना। यह लोगों के लिए फायदेमंद है; इसमें दुर्भावनापूर्ण कुछ भी नहीं है। लोगों का पर्यवेक्षण करना, प्रेक्षण करना, और उन्हें समझने की कोशिश करना—यह सब उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश करने में मदद करने के लिए है, ताकि वे परमेश्वर के कहे के मुताबिक और सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य कर सकें, ताकि उन्हें किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न करने से रोका जा सके, ताकि उन्हें व्यर्थ का कार्य करने से रोका जा सके। ऐसा करने का उद्देश्य पूरी तरह से उनके प्रति और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति उत्तरदायित्व दिखाने के लिए है; इसमें कोई दुर्भावना नहीं है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि भले ही हम कलीसिया में अपने कर्तव्य निभा रहे थे और इन्हें अच्छी तरह निभाने के लिए भी तैयार थे, लेकिन यह केवल एक अच्छा इरादा था। चूँकि हम सभी के स्वभाव भ्रष्ट थे, इसलिए हम परमेश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित नहीं हो सकते थे और हमारे कार्यों में सिद्धांतों की कमी थी। इससे हमारे काम में विचलन हुआ और हम अक्सर लापरवाह और गैरजिम्मेदार हो जाते थे। इसलिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए काम की निगरानी करना जरूरी था ताकि समस्याओं को तुरंत पता लगाकर दूर किया जा सके। ली कैन और झांग ज़ुआन भी भ्रष्ट थीं। हालाँकि वे पहले अपने कर्तव्यों निर्वहन में बोझ उठाती थीं, इसका मतलब यह नहीं था कि वे हमेशा ऐसी ही रहेंगी। इसके अलावा उनकी अच्छी काबिलियत और कार्य क्षमता का मतलब यह नहीं था कि वे मामलों को संभालने के सत्य सिद्धांत हासिल कर चुकी हैं और पूरी तरह भरोसेमंद बन चुकी हैं। इसके लिए उनके काम की निगरानी और जाँच जरूरी थी। मैं लोगों के भ्रष्ट सार को नहीं ताड़ पाती थी और लोगों और चीजों को अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर देखकर उन पर आसानी से विश्वास कर लेती थी और बिना निगरानी के काम सौंप देती थी। मैं वाकई मूर्ख थी। अगर मैंने उन पर आँख मूँदकर विश्वास न किया होता और परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं के अनुसार उनके काम की नियमित निगरानी और जाँच करके अपनी जिम्मेदारियाँ निभाई होतीं तो कई महीनों तक सिंचन कार्य इतना बेअसर नहीं होता। जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मैंने खुद को दोषी ठहराया।

मैंने इस पर और अधिक विचार किया : मैंने ली कैन और झांग ज़ुआन पर उनके कर्तव्यों की निगरानी या जाँच किए बिना इतना भरोसा क्यों किया? यहाँ तक कि जब अगुआ ने मुझे याद दिलाया, तब भी मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। इसके पीछे कौन सा भ्रष्ट स्वभाव मुझे नियंत्रित कर रहा था? इस बारे में आत्मचिंतन करते हुए मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश नजर आया : “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर आत्मचिंतन करते हुए मैंने अपनी असफलता का कारण जान लिया : यह असफलता मुख्य रूप से मेरे अहंकारी स्वभाव और खुद पर जरूरत से ज्यादा भरोसे से उपजी थी। मैं मानती थी कि वे अपने कर्तव्य निभाने में गंभीर और जिम्मेदार हैं, बोझ उठाती हैं और लापरवाही नहीं बरतेंगी। इसलिए मैं पूरी तरह खुद पर भरोसा कर हमेशा इस तरह सोचती थी “मेरी राय में,” “मुझे विश्वास है,” “मुझे लगता है,” और यह मानती थी कि लोगों के बारे में मेरा आकलन सटीक होता है और यह गलत नहीं हो सकता। उन्हें काम सौंपने के बाद मैंने उनकी निगरानी करने या उनके बारे में पूछताछ करने की भी जहमत नहीं उठाई। यहाँ तक कि जब अगुआ ने स्पष्टता से उनकी समस्याओं की ओर इशारा किया तो भी मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया, यही सोचा कि वे बस कुछ भ्रष्टता प्रकट रही हैं, कोई बड़ी बात नहीं है। मेरा खुद पर अत्यधिक आत्मविश्वास ही मेरी असफलता का कारण था। मैंने लोगों को मापने के लिए खुद के दृष्टिकोण को मानकों के रूप में इस्तेमाल किया। चाहे दूसरे कुछ भी कहें, मैं इसे स्वीकार नहीं करती थी। मैं मानती थी कि मैं लोगों का सटीक मूल्यांकन करती हूँ, उन्हें बखूबी जानती हूँ और इस लायक हूँ कि उनका मूल्यांकन कर सकूँ। दूसरों के जो विचार मुझसे अलग होते थे, मैं उन्हें न मानकर खारिज कर देती थी। मैंने कभी नहीं सोचा कि मेरे विचार और दृष्टिकोण गलत हो सकते हैं, पक्षपाती हो सकते हैं या काम को नुकसान पहुंचा सकते हैं। मैं वास्तव में अहंकारी और अविवेकी थी! अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए अपने अहंकारी स्वभाव पर भरोसा करते हुए मैं दूसरों के सुझाव गंभीरता से नहीं लेती थी, सत्य सिद्धांत खोजना तो दूर की बात है। मेरे मन में वाकई दूसरों के प्रति अहंकार और तिरस्कार भरा था, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। मैं सोचती थी कि मैं जिन लोगों पर भरोसा करती हूँ और जो फैसले करती हूँ, वे मेरी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार यकीनन सही होते हैं, मैं अपने ही नजरियों से हठपूर्वक चिपके रहकर अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करती रहती थी, जिससे काम को काफी नुकसान हुआ। इस तरह क्या मैं अपना कर्तव्य निभा भी रही थी? मैं परमेश्वर का विरोध कर रही थी, बुराई कर रही थी। इसकी प्रकृति और दुष्परिणाम की गंभीरता का एहसास कर मैं फौरन परमेश्वर के सामने प्रार्थना और पश्चात्ताप करने आई।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा जिसने मुझे अभ्यास करने का मार्ग दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तुम चाहे जो कुछ कर रहे हो, तुम्हें यह सीखना चाहिए कि सत्य को कैसे खोजें और उसके प्रति समर्पण कैसे करें; तुम्हें चाहे कोई भी सलाह दे रहा हो, अगर यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है तो फिर चाहे कोई छोटा बच्चा भी बताए, इसे स्वीकार कर मान लेना चाहिए। किसी व्यक्ति में चाहे कोई समस्या हो, अगर उसकी बातें और सलाह पूरी तरह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं तो फिर तुम्हें उन्हें स्वीकार कर मान लेना चाहिए। इस ढंग से कार्य करने के परिणाम सुखद और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होंगे। महत्वपूर्ण यह देखना है कि तुम्हारे प्रयोजन क्या हैं और चीजें सँभालने के तुम्हारे सिद्धांत और तरीके क्या हैं। अगर चीजें सँभालने के तुम्हारे सिद्धांत और तरीके मनुष्य की इच्छा से, मनुष्य के विचारों और धारणाओं से, या शैतान के फलसफों से उपजे हैं, तो तुम्हारे सिद्धांत और तरीके अव्यावहारिक हैं, और उनका अप्रभावी होना तय है। ऐसा इसलिए है कि तुम्हारे सिद्धांतों और तरीकों का मूल गलत है, यह सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं हैं। अगर तुम्हारे विचार सत्य सिद्धांतों पर आधारित हैं, और तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार चीजें सँभालते हो, तो तुम निस्संदेह उन्हें सही तरीके से सँभालोगे। भले ही उस समय कुछ लोग तुम्हारे चीजें सँभालने के तरीकों को न स्वीकारें, या फिर इनके बारे में धारणाएँ पालें या इनका विरोध करें, कुछ समय बाद इन्हें स्वीकारा जाएगा। जो चीजें सत्य सिद्धांतों के अनुसार होती हैं, उनके उत्तरोत्तर सकारात्मक नतीजे निकलते जाते हैं, जबकि जो चीजें सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं होतीं, उनके उत्तरोत्तर नकारात्मक नतीजे निकलते हैं, भले ही वे उस समय लोगों की धारणाओं के अनुरूप हों। तमाम लोग इसकी पुष्टि करेंगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने का मार्ग)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझाया कि कि कुछ परिस्थितियों का सामना करते समय हमें सबसे पहले खुद को नकारना चाहिए, सत्य की खोज करनी चाहिए और परमेश्वर के वचनों के आधार पर मामलों को देखना चाहिए। हमें जाँचना चाहिए कि क्या हमारे दृष्टिकोण और नजरिए परमेश्वर के इरादों के साथ मेल खाते हैं और क्या वे परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों पर टिके हैं। भाई-बहन जब हमें चेताएँ और सुझाव दें तो हमारे पास खोजी दिल होना चाहिए, हमें अपने ही नजरियों पर अड़ा नहीं रहना चाहिए। हमें सिद्धांतों के अनुसार उनसे निपटना चाहिए। इस तरह के दृष्टिकोण का अर्थ है परमेश्वर के सामने खोज, समर्पण और तार्किकता। अपने पिछले दृष्टिकोण पर आत्मचिंतन करूँ तो मैंने चीजों को सत्य सिद्धांतों के आधार पर नहीं देखा बल्कि अपने दृष्टिकोण पर अड़ी रही और सोचा कि मैं दूसरों से बेहतर जानती हूँ। जब भाई-बहन सुझाव देते थे तो मेरे पास खोजी हृदय नहीं होता था और मैं खुद पर अत्यधिक भरोसा करती थी। यही मेरी विफलता का मुख्य कारण था। आगे बढ़ने के लिए मुझे सबसे पहले खुद को नकारना सीखना था और भाई-बहनों के सुझावों को अधिक सुनना था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा जिसमें कहा गया था : “पर्यवेक्षण के शाब्दिक अर्थ को देखा जाए, तो इसका अर्थ है निरीक्षण करना : यह जाँचना कि किन कलीसियाओं ने कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित किया है और किन कलीसियाओं ने नहीं, कार्यान्वयन की प्रगति जाँचना, यह जाँचना कि कौन से अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य कर रहे हैं और कौन से नहीं, और क्या कुछ अगुआ या कार्यकर्ता विशिष्ट कार्यों में भाग लिए बिना सिर्फ कार्य-व्यवस्थाओं को वितरित कर रहे हैं। पर्यवेक्षण एक विशिष्ट कार्य है। कार्य-व्यवस्थाओं के कार्यान्वयन के पर्यवेक्षण—जैसे कि उन्हें कार्यान्वित किया गया है या नहीं, कार्यान्वयन की गति, कार्यान्वयन की गुणवत्ता और हासिल हुए परिणामों—के अलावा उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह जाँचना चाहिए कि क्या अगुआ और कार्यकर्ता कार्य-व्यवस्थाओं का सख्ती से पालन कर रहे हैं। कुछ अगुआ और कार्यकर्ता बाहरी तौर पर कहते हैं कि वे कार्य-व्यवस्थाओं का पालन करने के इच्छुक हैं, लेकिन एक खास परिवेश से सामना होने के बाद, उन्हें गिरफ्तार किए जाने का डर सताने लगता है और वे सिर्फ छिपने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, लंबे समय से कार्य-व्यवस्थाओं को अपने दिमाग में पीछे धकेल चुके होते हैं; भाई-बहनों की समस्याएँ अनसुलझी रह जाती हैं, और उन्हें नहीं पता होता है कि कार्य-व्यवस्थाएँ क्या निर्दिष्ट करती हैं या अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं। इससे यह पता चलता है कि कार्य-व्यवस्थाएँ बिल्कुल भी कार्यान्वित नहीं की गई हैं। दूसरे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के पास कार्य-व्यवस्थाओं की कुछ अपेक्षाओं के बारे में राय, धारणाएँ और प्रतिरोध होता है। जब उन्हें कार्यान्वित करने का समय आता है, तो वे कार्य-व्यवस्थाओं के वास्तविक अर्थ से भटक जाते हैं, अपने खुद के विचारों के अनुसार कार्य करते हैं, सिर्फ खानापूर्ति करते हैं और चीजों को जैसे-तैसे पूरा करने के लिए उन पर सतही ध्यान देते हैं, या अपना खुद का रास्ता अपना लेते हैं, उन्हें जैसे अच्छा लगता है वैसे ही कार्य करते हैं। ऐसी सभी परिस्थितियों में उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा पर्यवेक्षण की जरूरत पड़ती है। पर्यवेक्षण का उद्देश्य है कार्य-व्यवस्थाओं द्वारा अपेक्षित विशिष्ट कार्यों को बिना विचलन के और सिद्धांतों के अनुसार बेहतर तरीके से कार्यान्वित करना। पर्यवेक्षण करते समय, उच्च-स्तरीय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह पहचानने पर बहुत जोर देना चाहिए कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो वास्तविक कार्य नहीं कर रहा है या कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने में गैर-जिम्मेदार और धीमा है; क्या कोई व्यक्ति कार्य-व्यवस्थाओं के संबंध में प्रतिरोधी मनोदशा दर्शाता है और उन्हें कार्यान्वित करने का अनिच्छुक है या उन्हें चुन-चुनकर कार्यान्वित करता है, या कार्य-व्यवस्थाओं का बिल्कुल भी पालन नहीं करता है, बल्कि सिर्फ खुद का उद्यम चलाता है; क्या कोई व्यक्ति कार्य-व्यवस्थाओं को रोके हुए है, और सिर्फ अपने विचारों के अनुसार ही उन्हें संप्रेषित करता है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को कार्य-व्यवस्थाओं का सही अर्थ और विशिष्ट जरूरतें नहीं बताता है—सिर्फ इन मुद्दों का पर्यवेक्षण और निरीक्षण करके ही उच्च-स्तरीय अगुआ यह जान सकते हैं कि वास्तव में क्या चल रहा है। अगर उच्च-स्तरीय अगुआ पर्यवेक्षण और निरीक्षण नहीं करते हैं, तो क्या इन समस्याओं को पहचाना जा सकता है? (नहीं।) उन्हें नहीं पहचाना जा सकता है। इसलिए, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को ना सिर्फ कार्य-व्यवस्थाओं को संप्रेषित करना चाहिए और स्तर दर स्तर मार्गदर्शन करना चाहिए, बल्कि कार्य-व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करते समय कार्य का स्तर दर स्तर पर्यवेक्षण भी करना चाहिए। क्षेत्रीय अगुआओं को जिला अगुआओं के कार्य का पर्यवेक्षण करना चाहिए, जिला अगुआओं को कलीसियाई अगुआओं के कार्य का पर्यवेक्षण करना चाहिए, और कलीसियाई अगुआओं को हर समूह के कार्य का पर्यवेक्षण करना चाहिए। पर्यवेक्षण स्तर दर स्तर किया जाना चाहिए। पर्यवेक्षण का उद्देश्य क्या है? इसका उद्देश्य कार्य-व्यवस्थाओं की विशिष्ट अपेक्षाओं के अनुसार उनकी सामग्री के सटीक कार्यान्वयन को सुगम बनाना है। इसलिए, पर्यवेक्षण का कार्य बहुत ही महत्वपूर्ण है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (10))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि कर्तव्य को पर्याप्त रूप से निभाने के लिए अगुआओं और कार्यकर्ताओं को कार्य के हर मद की व्यावहारिक रूप से निगरानी और जाँच करनी चाहिए, गहराई में जाना चाहिए और काम की प्रगति को जानना और समझना चाहिए। उन्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं और कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार कार्य करना चाहिए। कार्य में सिद्धांतों का कोई भी उल्लंघन मिलने पर इसे फौरन संगति के जरिये हल करना चाहिए। क्षमतावान प्रतिभाशाली लोगों को पहचानते ही समय पर विकसित कर लेना चाहिए। इसके लिए व्यावहारिक निरीक्षण, पूछताछ, पर्यवेक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई की आवश्यकता होती है, जो व्यक्ति के कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदार रवैये को दर्शाता है। पहले मैं अपनी व्यक्तिगत कल्पनाओं पर निर्भर रहती थी और अपने पसंदीदा लोगों को आसानी से काम सौंप देती थी और उनकी निगरानी या जाँच भी नहीं करती थी, न ही उनके काम की वास्तविक स्थिति को समझती थी। यह निहायत गैर-जिम्मेदार नजरिया था और मैंने अपने कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाए। भविष्य में मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए और व्यावहारिक रूप से उस कार्य की निगरानी और जाँच करती रहनी चाहिए जिसके लिए मैं जिम्मेदार हूँ।

ली कैन के बर्खास्त होने के बाद मैंने उसकी देखरेख में चलने वाली कलीसिया का दौरा किया और कुछ नए विश्वासियों से मिली जिन्हें विकसित किया जा सकता था। मैंने उनके साथ सभाएँ कीं ताकि उनकी दशाओं और कठिनाइयों को व्यावहारिक रूप से समझ सकूँ और इन समस्याओं को सुलझाने के लिए संगति की। मैंने सिंचनकर्ताओं के कार्य में आ रहीं कठिनाइयाँ दूर करने और उनके कार्यशैली की त्रुटियाँ दूर करने के लिए संगति की। मैंने उनसे परमेश्वर का कार्य समझने संबंधी सत्य के बारे में संगति पर ध्यान केंद्रित कराया ताकि नए विश्वासी यथाशीघ्र सच्चे मार्ग पर ठोस नींव रख सकें। बाद में मुझे एहसास हुआ कि इस कलीसिया में नए सदस्यों के सिंचन में आ रहीं समस्याएँ अन्य कलीसियाओं में भी हो सकती हैं। इसलिए मैंने तुरंत अन्य कलीसियाओं में सिंचन समूहों के अगुआओं को पत्र लिखे। पत्र लिखने के बाद भी मुझे असहज महसूस हुआ क्योंकि लिखित संवाद उतना प्रभावी नहीं होता जितनी प्रभावी आमने-सामने की संगति होती है। इसलिए मैंने अगुआओं को पत्र लिखकर उम्मीद जताई कि वे व्यक्तिगत रूप से इस कार्य की निगरानी और जाँच करेंगे। आखिरकार अगुआओं ने जवाब दिया कि उनकी कलीसियाओं में भी ये समस्याएँ अलग-अलग स्तर पर मौजूद हैं और वे इनकी समुचित रूप से निगरानी और जाँच करते रहेंगे। तब जाकर मुझे वाकई एहसास हुआ कि परमेश्वर की ये अपेक्षाएँ अत्यावश्यक हैं कि अगुआ और कार्यकर्ता कार्य की निगरानी और जाँच व्यावहारिक रूप से करते रहें।

इस अनुभव से मुझे अपने घमंडी स्वभाव की कुछ समझ मिली है और यह एहसास भी हुआ कि “पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को अपनी कसौटी मानकर लोगों और चीजों को देखना और आचरण और कार्य करना” कितना महत्वपूर्ण है जैसा कि परमेश्वर कहता है। अब से मुझे अपनी कल्पनाओं के आधार पर कार्य नहीं करना चाहिए। मामलों का सामना करते हुए मुझे सबसे पहले सत्य खोजना चाहिए और लोगों, घटनाओं और अपने आस-पास की चीजों के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए।

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