41. जब नए पद पर तैनाती से मैं बेनकाब हो गया

ओवेन, स्पेन

2018 में, मैं कलीसिया में वीडियो बना रहा था। चूँकि मैंने अपने पेशेवर कौशल में तेजी से सुधार किया और मैंने आमतौर पर भाई-बहनों को कुछ समस्याएँ और कठिनाइयाँ सुलझाने में मदद की, हर किसी ने मेरे बारे में अच्छी धारणा बनाई और अगुआओं द्वारा मुझे कुछ महत्वपूर्ण कार्य सौंपे गए। अगुआओं से मान्यता और भाई-बहनों से उच्च सम्मान मिलने के कारण मुझे खूब उपलब्धि का एहसास हुआ और मेरा उत्साह बढ़ गया। हालाँकि मैं टीम अगुआ नहीं था, लेकिन मैं अपने काम में समस्याओं की तुरंत पहचान और विश्लेषण करता था। मैंने हमेशा अगुआओं और टीम अगुआओं द्वारा सौंपे गए कार्यों को पूरा करने की पूरी कोशिश की, इसलिए मुझे लगा कि मेरे पास अपने कर्तव्य के लिए काफी बोझ है और मैं अपेक्षाकृत आज्ञाकारी था। खासकर जब मैंने अपने आस-पास के कुछ भाई-बहनों को नकारात्मक होते, अपने कर्तव्यों में ढिलाई बरतते और अपने कर्तव्यों को समुचित ढंग से नहीं करते देखा क्योंकि वे कलीसिया द्वारा सौंपे गए कार्यों से असंतुष्ट थे, तो मैंने सोचा कि अगर मुझे ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा तो मैं उनके जैसा व्यवहार नहीं करूँगा; मैं तब भी आज्ञाकारी रहूँगा।

2022 में एक दिन समूह अगुआ ने मुझे बताया कि पाठ-आधारित कार्य के लिए लोगों की कमी थी। चूँकि हमारे समूह में काम का बोझ बहुत ज्यादा नहीं था और मुझमें कुछ लेखन कौशल था और मैं आमतौर पर कुछ समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य पर संगति कर सकता था, एक व्यापक मूल्यांकन के बाद अगुआओं ने मुझे पाठ-आधारित कार्य में लगाने का फैसला किया। जब मैंने यह समाचार सुना तो मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। मैंने सोचा, “क्या वे मेरे कर्तव्य को समायोजित करने जा रहे हैं? मैं इस समूह में ही ठीक हूँ। मेरे बारे में भाई-बहनों की अच्छी राय है और दूसरे समूहों के लोग भी सलाह के लिए मेरे पास आते हैं। इससे मेरी खूब अच्छी छवि दिखती है! अगर मैं पाठ-आधारित कार्य करने जाता हूँ और सिद्धांतों को समझ नहीं पाता हूँ और मुझे नहीं पता कि मुझे दूसरों के बराबर पहुँचने में कितना समय लगेगा क्योंकि मैं शून्य से शुरू कर रहा हूँ, तो क्या मैं अपने समूह में सबसे फिसड्डी नहीं हो जाऊँगा? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि उन्होंने मुझे ही क्यों चुना?” मैंने कुछ बहनों के बारे में सोचा जिन्हें मैं जानता था जिनके पास अच्छा लेखन कौशल था। पाठ-आधारित कार्य करने के कुछ समय बाद ही उन्हें बदल दिया गया क्योंकि वे इस काम के लायक नहीं थीं। मुझे लगा कि मैं उनके जितना अच्छा नहीं हूँ और अगर मैं काम अच्छी तरह से नहीं कर पाया तो यह अपमानजनक होगा। चाहे मैंने दोनों की तुलना कैसे भी की हो, मुझे लगा कि मेरा वर्तमान काम अधिक स्थिर और प्रतिष्ठित है। जितना अधिक मैंने इस तरह से सोचा, उतना ही मुझे लगा कि अगुआ बहुत हड़बड़ी कर रहे हैं, कि वे मुझे स्थानांतरित करने से पहले मेरी खूबियों को बखूबी नहीं समझ रहे हैं। मैंने टीम अगुआ से शिकायत की, “क्या अगुआओं ने इस मामले का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन नहीं किया है? मैं वीडियो बनाने में बेहतर हूँ। पाठ-आधारित कार्य मेरी खूबी नहीं है; अगर मुझे जाना पड़ा तो मैं इसे अच्छी तरह से नहीं कर पाऊँगा। क्या उन्हें मेरी खूबी के आधार पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए?” मैंने सोचा कि टीम अगुआ मेरे दृष्टिकोण से मेरे साथ सहानुभूति रखेगी और शायद मेरे समायोजन पर पुनर्विचार करने के बारे में अगुआओं से बात करेगी। लेकिन उसने मेरे साथ संगति कर कहा कि मुझे सबसे पहले कलीसिया के कार्य की जरूरतों की परवाह करनी चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि मुझे बहस नहीं करनी चाहिए और पहले आज्ञा माननी चाहिए।

बाद में मैंने कर्तव्यों के समायोजन के बारे में सिद्धांतों को देखा। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “परमेश्वर का घर लोगों के लिए कुछ कर्तव्य निभाने की व्यवस्था उनकी प्राथमिकताओं के आधार पर नहीं करता है, बल्कि कार्य की जरूरतों और इस पर आधार कर करता है कि किसी व्यक्ति के उस कर्तव्य को निभाने से नतीजे मिल सकते हैं या नहीं। क्या तुम लोग यह कहते हो कि परमेश्वर के घर को व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के आधार पर कर्तव्यों की व्यवस्था करनी चाहिए? क्या उसे लोगों का उपयोग उनकी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को संतुष्ट करने की शर्त के आधार पर करना चाहिए? (नहीं।) इनमें से कौन-सा आधार लोगों का उपयोग करने संबंधी परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुरूप है? कौन-सा सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? यही कि लोगों का चयन परमेश्वर के घर में कार्य की जरूरतों और उनके कर्तव्य निर्वहन के नतीजे के अनुसार करना(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मुझे समझ आया : कलीसिया में व्यक्तिगत खूबियों के अनुसार कर्तव्य सौंपना केवल एक पहलू है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे कलीसिया के काम की जरूरतों के आधार पर किया जाए। इस समय पाठ-आधारित कार्य के लिए लोगों की कमी है और मेरे समूह के भीतर काम का बोझ ज्यादा नहीं है। भले ही मैं यहाँ न रहूँ, इससे काम नहीं टलेगा। मुझे अपनी व्यक्तिगत पसंद और माँगों को अलग रखकर पहले कलीसिया के काम पर विचार करना चाहिए। अगर मैं केवल अपनी प्राथमिकताएँ पूरी करता हूँ तो यह बहुत स्वार्थ की बात होगी। यह जानकर मुझे अब अपने दिल में इतना प्रतिरोध महसूस नहीं हुआ।

बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “यदि कोई परमेश्वर में विश्वास तो करता है लेकिन उसके वचनों पर ध्यान नहीं देता है, सत्य को स्वीकार नहीं करता, या उसकी व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण नहीं करता; यदि वह केवल कुछ अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करता है, लेकिन देह की इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने में असमर्थ है, और अपने अभिमान या स्वार्थ को बिल्कुल भी नहीं त्यागता है; यदि, दिखावे भर के लिए वह अपना कर्तव्य तो निभाता है, पर फिर भी अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार ही जीता है, और उसने शैतान के फलसफे और जीने के तौर-तरीकों को जरा-भी नहीं छोड़ा है, तो वह परमेश्वर में कैसे विश्वास कर सकता है? ... उन्होंने कितने ही बरस परमेश्वर में विश्वास क्यों न किया हो, वे परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध नहीं बना पाते; वे चाहे कुछ भी करें या उनके साथ कुछ भी घटे, वे सबसे पहले यह सोचते हैं : ‘मैं क्या करना चाहता हूं; मेरे हित में क्या होगा और क्या नहीं होगा; अगर मैं ऐसा या वैसा करता हूं तो क्या हो जाएगा?’—वे सबसे पहले ये बातें सोचते हैं। वे इस पर कोई विचार नहीं करते कि किस तरह का अभ्यास परमेश्वर की जयकार करने और उसकी गवाही देने का काम करेगा, या परमेश्वर के इरादों को पूरा करेगा; न ही वे यह जानने के लिए प्रार्थना करते हैं कि परमेश्वर की अपेक्षाएं क्या हैं और उसके वचन क्या कहते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के इरादे या अपेक्षाएं जानने पर या परमेश्वर को संतुष्ट करने वाला अभ्यास का तरीका जानने पर ध्यान नहीं देते। भले ही वे कभी-कभी परमेश्वर के सम्मुख प्रार्थना करें और उसके साथ संगति करें, पर वे मात्र खुद से बात कर रहे होते हैं, न कि ईमानदारी से सत्य की खोज करते हैं। जब वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसके वचन पढ़ते हैं, तो वे इन्हें अपने वास्तविक जीवन के मामलों से जोड़कर नहीं देखते। तो, परमेश्वर द्वारा आयोजित परिवेश में वे उसकी संपभुता, व्यवस्थाओं और आयोजनों को किस तरह लेते हैं? जब वे ऐसी चीजों का सामना करते हैं जो उनकी अपनी इच्छाओं को संतुष्ट नहीं करतीं, तो वे उनसे कन्नी काटते हैं और दिल-ही दिल में उनका प्रतिरोध करते हैं। जब वे ऐसी चीजों का सामना करते हैं जो उनके हितों को नुकसान पहुंचाती हैं, या उनके हितों को संतुष्ट नहीं करतीं, तो वे बचकर निकलने का हर साधन अपनाते हैं, और खुद को ज्यादा-से ज्यादा फायदा पहुंचाने और किसी भी तरह का नुकसान न झेलने के लिए पूरा जोर लगा देते हैं। वे परमेश्वर के इरादों को पूरा करने के बजाय अपनी ही इच्छाओं की तृप्ति में लगे रहते हैं। क्या यह परमेश्वर में आस्था रखना हुआ? क्या ऐसे लोगों का परमेश्वर के साथ कोई नाता होता है? नहीं, नहीं होता। वे एक पतित, कुत्सित, अड़ियल और कुरूप तरीके से जीते हैं। न सिर्फ उनका परमेश्वर के साथ कोई नाता नहीं होता, बल्कि वे हर मौके पर परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के खिलाफ जाते हैं। वे अक्सर कहते हैं, ‘परमेश्वर मेरी ज़िंदगी की हर चीज पर संप्रभुता रखे और नियंत्रण करे। मैं परमेश्वर को सिंहासन पर बिठाने और उसे अपने दिल पर राज और हुकूमत करने देने के लिए तैयार हूं। मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के आगे समर्पण के लिए तैयार हूं।’ हालाँकि, जब वे ऐसी चीजों का सामना करते हैं जिनसे उन्हें नुकसान पहुंच सकता है, तो वे समर्पण नहीं कर पाते। परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश में सत्य की खोज करने के बजाय वे पलटकर उस परिवेश से भागने की कोशिश करते हैं। वे परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के आगे समर्पण करना नहीं चाहते, बल्कि अपनी ही इच्छा के अनुसार चलना चाहते हैं, बस उनके हितों पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए। वे परमेश्वर के इरादों को पूरी तरह नकार देते हैं, और सिर्फ खुद के हितों और खुद के हालात के बारे में और अपनी मनोदशा और भावनाओं के बारे में सोचते हैं। क्या यह परमेश्वर में आस्था रखना हुआ? (नहीं।)” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जब परमेश्वर के सच्चे विश्वासियों को ऐसी चीजों का सामना करना पड़ता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती हैं या जब उनके हितों को नुकसान पहुँचता है तो वे अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए सक्रिय रूप से सत्य की तलाश करेंगे परमेश्वर के वचनों में उत्तर पाएँगे और परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन की प्रतीक्षा करेंगे। जो लोग सत्य नहीं खोजते और अविवेकी हैं वे केवल उन लोगों या परिस्थितियों पर ध्यान केन्द्रित करेंगे जब उन्हें ऐसी चीजों का सामना करना पड़ता है जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होती हैं और वे परमेश्वर के बारे में शिकायत भी कर सकते हैं और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने से इनकार कर सकते हैं। इसे अपने आप से जोड़ते हुए जब भी मैंने सोचा कि पाठ-आधारित कार्य करते समय दूसरों से सम्मान नहीं पाया जा सकता है और निकम्मे के रूप में बेनकाब किया जा सकता है तो मैंने अपने आप को सही ठहराने और बहाने बनाने की कोशिश की, कौशल की कमी का आवरण ओढ़कर खुद को छिपाने की कोशिश की, मैंने सोच-समझकर अपनी कमजोरियाँ बताकर यह उम्मीद की कि टीम अगुआ मुझसे सहानुभूति रखेगी और मुझे समझेगी, ताकि मैं उसी समूह में रहकर अपना रुतबा कायम रख सकूँ। जब मेरे साथ कुछ नहीं हुआ था और मैं अपनी प्रतिष्ठा का आनंद ले रहा था, तो मैं दावा करता था कि मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित हूँ और उससे चीजें स्वीकारता हूँ। लेकिन जब ऐसी चीजों का सामना करना पड़ा जो मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं थीं या मेरे व्यक्तिगत हितों को नुकसान पहुँचाती थीं तो मैंने बहस की और प्रतिरोध किया, परमेश्वर के आयोजनों के प्रति अवज्ञा दिखाकर असंतोष जताया। इसके अतिरिक्त, मैंने दूसरों में दोष ढूँढ़े और दावा किया कि अगुआओं की व्यवस्थाएँ अनुचित थीं। इसके बारे में ध्यान से सोचने पर अगुआ स्पष्ट रूप से कार्य की जरूरतों के आधार पर उचित समायोजन कर रहे थे और मुझमें कुछ लेखन कौशल तो था ही; मैं कोई निपट अकुशल तो था नहीं। लेकिन चूँकि मुझे लगा कि यह समायोजन मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे को नुकसान पहुँचाएगा, इसलिए मैंने शिकायत की और विरोध किया। यह वास्तव में मेरा अनुचित रवैया था! इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं उससे पाठ-आधारित कार्य स्वीकार कर समर्पण करने और इसे भरसक प्रयास लगाकर करने के लिए तैयार था।

अपने कर्तव्य के समायोजन के बाद मैंने देखा कि वहाँ के अधिकांश भाई-बहनों के पास मुझसे बेहतर लेखन कौशल था। कुछ लोग पहले अगुआ रह चुके थे और कुछ लोग वर्षों से पाठ-आधारित कार्य कर रहे थे, उन्हें सिद्धांतों की अच्छी समझ थी और वे समस्याओं पर स्पष्ट रूप से और अंतर्दृष्टि के साथ चर्चा करते थे और अपने विचार व्यक्त करते थे। मुझे काफी जलन होने लगी। अनजाने में मैं थोड़ा कुंठित हो गया और सोचने लगा कि मैंने तो अभी-अभी शुरुआत की है और मैं पहले ही उनसे बहुत पीछे हूँ, मैंने सोचा, “मैं उनके स्तर तक कब पहुँच पाऊँगा?” लेकिन मैं बहुत निराश नहीं हुआ। यह जानकर कि सिद्धांतों, पेशे और दूसरे पहलुओं के मामले में मुझमें काफी कमी थी, मैंने खुद को सिद्धांतों से परिचित करने में समय बिताया और जब मुझे कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने भाई-बहनों से मार्गदर्शन मांगा और सीखा। चूँकि मेरे लिए यह नया कर्तव्य था, इसलिए भाई-बहनों के साथ समस्याओं पर चर्चा करते समय मेरे पास कोई अच्छी अंतर्दृष्टि नहीं होती थी। कभी-कभार जब मैं कुछ विचार व्यक्त करता भी था तो वे अनुचित होते थे और मुझे काफी शर्मिंदगी होती थी। इस हिसाब से मैं जितना ज्यादा कार्य करता था उतना ही बेकार दिखता था—लोगों से सम्मान पाने की बात तो छोड़ ही दो। मुझे चिंता थी कि भाई-बहनों को लगेगा कि मेरी काबिलियत बहुत कम है और मैं विकसित किए जाने लायक नहीं हूँ। यह देखते हुए कि यह काम कितना महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण था, मैं अच्छा कार्य न कर पाने और यहाँ से भी हटा दिए के बारे में सोचकर और अधिक चिंतित हो गया। यह बहुत ही अपमानजनक होता। तब से मैं हमेशा आधे-अधूरे मन से अपना कर्तव्य निभा रहा था। मैं कंप्यूटर स्क्रीन को ताकता रहता था, मेरा दिमाग खाली रहता। पेशे को सीखने के लिए मुझमें रुचि और प्रेरणा की कमी थी। मेरे मन में लगातार निराशा का भाव तैरता रहता था जिसे बयान नहीं किया जा सकता। कभी-कभी तो मैं उस समय की कल्पना तक करने लगता कि शायद अगुआ अपना मन बदल लें और मुझे वापस भेज दें, मैं यह सोचता था कि यहाँ निकम्मा बनकर बेनकाब होने और गुमनाम रहने से तो बेहतर पुरानी जगह लौटना रहेगा। बाद में मुझे नए पेशे के गुर सिखाने वाली बहन ने मेरे कर्तव्यों में सिद्धांत संबंधी कुछ समस्याओं की पहचान की। इनका विश्लेषण करने के बाद उसने इन समस्याओं और विचलनों को समूह के सामने भी रखा। इससे मैं बहुत शर्मिंदा हुआ। अचानक उस समय की यादें दिमाग में आ गईं जब मैं वीडियो बनाता था। उस समय मैं प्रतिष्ठित था। लोग मेरे पास सवाल लेकर आते थे और मैं ही ज्यादातर समय दूसरों की गलतियाँ बताता था। लेकिन अब मैं एक नकारात्मक मिसाल बन गया था और मुझे लगातार मेरी गलतियाँ बताई जा रही थीं। यह बस दो चरम सीमाएं थीं! इस विरोधाभास ने मुझे और भी नकारात्मक बना दिया। मैंने अगुआओं को यह बताने के बारे में भी सोचा कि मैं इस काम के लिए सक्षम नहीं हूँ और वीडियो बनाने के लिए वापस जाना चाहता हूँ। लेकिन मुझे डर था कि दूसरे कहेंगे कि मैं आज्ञाकारी नहीं हूँ, इसलिए मैं अनिच्छा से अपने कर्तव्य निभाता रहा।

एक दिन अचानक मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “यदि तुम समस्याएँ आने पर समय रहते उन्हें हल नहीं करते हो, तो जब ये समस्याएँ तुम्हारे अंदर इकट्ठा हो जाएँगी और अधिक से अधिक गंभीर बन जाएँगी, और तुम्हारा उत्साह या संकल्प कर्तव्य निभाने में तुम्हारा साथ देने के लिए पहले से ही काफी नहीं है, तो तुम नकारात्मकता में गिर जाओगे, यहाँ तक कि तुम पर परमेश्वर को छोड़ देने का खतरा बन जाएगा, और यकीनन तुम दृढ़ नहीं रह सकोगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (11))। मुझे एहसास हुआ कि इस नकारात्मक स्थिति को दूर न करना बहुत खतरनाक है। भले ही मैं ऊपरी तौर पर अपना कर्तव्य निभाता था, इसमें मेरा मन नहीं लगता था। मैं अक्सर उन दिनों को याद करता था जब दूसरे लोग मेरा सम्मान करते थे और मेरी प्रशंसा करते थे और मैंने कभी भी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास नहीं किया। मुझे एहसास हुआ कि इस समस्या का समाधान होना चाहिए और मैं इस तरह से लापरवाह नहीं रह सकता और खुद को धोखा नहीं दे सकता। बाद में आत्मचिंतन करते हुए मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण, प्रतिष्ठित, कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को दूसरों से अलग समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना और कभी भी अपनी भूलों और असफलताओं का सामना न कर पाना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देना या अपने से बेहतर नहीं होने देना—ऐसा अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों की खूबियों को कभी खुद से श्रेष्ठ या बेहतर न होने देना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना और दूसरे लोगों के बेहतर होने का पता चलने पर खुद नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना, तथा परेशान हो जाना—ये सभी चीजें अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा के प्रति रक्षात्‍मक, दूसरों के सुधारों को स्वीकार करने में असमर्थ, अपनी कमियों का सामना करने तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को विवश महसूस कर सकते हो, कुछ इस तरह कि अब तुम अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते और इसे निभाने में अनमने हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें प्रकट हो जाती हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे मेरी नकारात्मकता का कारण खोजने में मदद की। मैं खुद को हमेशा काबिल मानता था और बहुत ऊँचा आँकता था, मैं चाहता था कि मैं प्रमुख पद पर रहूँ और जहाँ भी जाऊँ लोग मेरे चक्कर काटें और मेरी प्रशंसा करें। जब मैं दूसरों से सम्मान न पा सका या सुर्खियों में नहीं आ पाया तो मैं नकारात्मक हो गया और इस स्थिति से निकलना चाहता था। यह सब मेरे स्वभाव के बहुत घमंडी होने के कारण था। मैंने पाठ-आधारित कार्य का अभ्यास करना अभी-अभी शुरू किया था और ऐसी बहुत सी चीजें थीं जिन्हें मैं समझता नहीं था या करना नहीं जानता था। कोई भी सिद्धांत केवल कुछ बार सुनने या पढ़ने से नहीं सीखा जा सकता है; इसे एक अरसे तक व्यावहारिक रूप से सीखना पड़ता है। इस दौरान गलतियाँ और असफलताएँ अपरिहार्य हैं। जिन लोगों के पास वाकई विवेक है वे सभी इन चीजों को सही तरीके से देख सकते हैं। लेकिन मुझमें बिल्कुल भी आत्म-जागरूकता नहीं थी। मैं जहाँ कहीं जाता था, खुद को खास दिखाना चाहता था। मैं वास्तव में अभी-अभी शुरुआत कर रहा था, लेकिन अपनी योग्यता दिखाने के लिए कुछ हासिल करने की उतावली में था, ताकि मेरे भाई-बहन देख सकें कि मेरे पास अच्छी काबिलियत है। जब मैं अच्छा नहीं कर पाया, खरा नहीं उतर पाया या सुर्खियों में नहीं रहा तो मैं नकारात्मक होकर ढिलाई बरतने लगा और नए पेशा सीखने के लिए उत्साह गँवा बैठा। मैंने अपना कर्तव्य छोड़कर जाने के बारे में भी सोचा। मुझे एहसास हुआ कि मैं वाकई घमंडी था और सोचता था कि मैं इतना बड़ा आदमी हूँ। मैं जो पीड़ा भोग रहा था वह मेरी अपनी करनी का नतीजा था।

मैं सोचने लगा, “पहले वीडियो बनाते समय मुझमें इतना उत्साह क्यों होता था, लेकिन अब जब मैं पाठ-आधारित काम कर रहा हूँ तो मैं कभी भी उत्साह नहीं जुटा पाता?” बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अपनी अवस्था के बारे में कुछ समझ हासिल की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर लोगों के पास सत्य से प्रेम करने वाला दिल होगा, तो उनमें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति होगी, और वे सत्य का अभ्यास करने के लिए कड़ी मेहनत कर सकते हैं। वे उसे त्याग सकते हैं जिसे त्यागना चाहिए, और उसे छोड़ सकते हैं जिसे छोड़ना चाहिए। विशेष रूप से, जो चीजें तुम्हारी प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से संबंधित हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए। अगर तुम उन्हें नहीं छोड़ते, तो इसका मतलब है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते और तुममें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति नहीं है। जब तुम्हारे साथ घटनाएँ घटें, तो तुम्हें सत्य खोजकर इसका अभ्यास करना चाहिए। अगर, ऐसे समय में, जब तुम्हें सत्य का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है, तुम्हारा हृदय हमेशा स्वार्थी बना रहे और तुम अपना स्वार्थ नहीं छोड़ सकते, तो तुम सत्य पर अमल नहीं कर पाओगे। अगर तुम किसी भी परिस्थिति में सत्य की तलाश या उसका अभ्यास नहीं करते, तो तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो। चाहे तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुम सत्य प्राप्त नहीं करोगे। कुछ लोग हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और स्वार्थ के पीछे दौड़ते रहते हैं। कलीसिया उनके लिए जिस भी कार्य की व्यवस्था करे, वे हमेशा यह सोचते हुए उसके बारे में विचार करते हैं, ‘क्या इससे मुझे लाभ होगा? अगर होगा, तो मैं इसे करूँगा; अगर नहीं होगा, तो मैं नहीं करूँगा।’ ऐसा व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता—तो क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? निश्चित रूप से नहीं निभा सकता। भले ही तुमने कोई बुराई न की हो, फिर भी तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति नहीं हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते, और कुछ भी तुम पर आ पड़े, तुम सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत, अपने स्वार्थ और जो तुम्हारे लिए अच्छा है, उसकी परवाह करते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो केवल स्वार्थ से प्रेरित होता है और स्वार्थी और नीच है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि यदि लोगों के पास सत्य से प्रेम करने वाला हृदय है तो जब उन पर ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जो उनके अहंकार, रुतबे और हितों को प्रभावित करती हैं तो वे इसे छोड़ सकते हैं और सत्य का अभ्यास करने के लिए वे अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं। मैंने इस बात पर विचार किया कि जब मैं वीडियो बना रहा था तो मुझे लगता था कि मैं बोझ उठाता हूँ और आज्ञाकारी हूँ और खुद को एक ऐसा व्यक्ति मानता था जो सत्य का अनुसरण करता है। हकीकत का सामना करने पर ही मुझे एहसास हुआ कि मैं पहले जो करता था वह कोई परमेश्वर को संतुष्ट करने की कोशिश नहीं होती थी, बल्कि मैं बस कुछ काम कर रहा था, जिसमें मेरा अपना हित शामिल नहीं था। अब मैं वीडियो बनाने के काम में लौटने के लिए इसलिए उतावला नहीं था कि मुझे यह कार्य पसंद है, बल्कि इसलिए लौटना चाहता था कि मैं अपने भाई-बहनों से मिलने वाला प्रोत्साहन और सम्मान नहीं छोड़ सकता था। भले ही देखने में मेरे पास टीम अगुआ की उपाधि नहीं थी, फिर भी भाई-बहनों के मन पर मैंने अपनी अच्छी छाप बना रखी थी। जब भी मैंने कोई समस्या हल की या कुछ अच्छा किया, मुझे उनसे सम्मान और प्रशंसा मिली, जिसका मैंने भरपूर आनंद लिया। इसलिए चाहे मैंने कितनी भी कीमत चुकाई हो या मुझे कितना भी कष्ट सहना पड़ा हो, मुझे कोई शिकायत नहीं थी। इसके विपरीत पाठ-आधारित कार्य करने से मैं अपमानित हुआ। यहाँ मुझे सब कुछ शुरू से सीखना था और कोई भी मेरी ओर ध्यान नहीं देता था। मेरे लिए पहले की तरह दूसरों का उस्ताद बनना असंभव था। इस नए पेशे में मुझे न केवल अपनी भावनाओं को भुलाकर दूसरों से बुनियादी बातें पूछनी थीं, बल्कि मुझमें इतनी कमी थी कि मुझे लगातार दूसरों से मार्गदर्शन भी लेते रहना था। मैं अपनी कमियों का सामना नहीं करना चाहता था; मैं बस दूसरों से फूलमालाएँ और तालियाँ बटोरकर सम्मान और प्रशंसा के मजे लेना चाहता था। मैंने यह भी कल्पना की थी कि एक दिन अगुआ मुझे फिर से वीडियो बनाने देंगे, ताकि मैं लोगों से घिरा रहूँ और उनकी प्रशंसा पाता रहूँ। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। इसके बजाय मेरी भ्रष्टता और कमियाँ निरंतर बेनकाब होती गईं। इसलिए मैं नकारात्मक और परेशान हो गया और अपना कर्तव्य निभाने में उत्साह खो बैठा। इस बिंदु पर मुझे एहसास हुआ कि पहले मैंने अपना कर्तव्य केवल प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए किया था और मैंने अपने कर्तव्य को बिल्कुल भी जिम्मेदारी नहीं माना था।

उस दौरान मैंने बार-बार खोज कर अपनी दशा पर आत्मचिंतन किया। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी घने-पुराने जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचेंगे। भले ही मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं, तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में उनकी आस्था में सत्य का अनुसरण प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है; प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है, और प्रतिष्ठा और रुतबा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा, लाभ या रुतबा नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या सम्मान या उनका अनुसरण नहीं करता है, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में अंतिम निर्णय उनका ही हो, और उनके पास शोहरत, लाभ और रुतबा हो—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं। वे हमेशा ऐसी बातों के बारे में ही क्यों सोचते रहते हैं? परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, उपदेश सुनने के बाद, क्या वे वाकई यह सब नहीं समझते, क्या वे वाकई यह सब नहीं जान पाते? क्या परमेश्वर के वचन और सत्य वास्तव में उनकी धारणाएँ, विचार और मत बदलने में सक्षम नहीं हैं? मामला ऐसा बिल्कुल नहीं है। समस्या उनमें ही है, यह पूरी तरह से इसलिए है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, क्योंकि अपने दिल में वे सत्य से विमुख हो चुके हैं, और परिणामस्वरूप वे सत्य के प्रति बिल्कुल भी ग्रहणशील नहीं होते—जो उनके प्रकृति सार से निर्धारित होता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचन यह उजागर करते हैं कि मसीह-विरोधी प्रतिष्ठा और रुतबे से अत्यंत प्रेम करते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, चीजें त्यागते हैं और प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए अपना सब कुछ खपाते हैं। एक बार जब वे अपना पद गँवा देते हैं तो ऐसा लगता है जैसे उनका जीवन छीन लिया गया है; वे हर चीज में रुचि और प्रेरणा खो देते हैं। खुद के व्यवहार पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं भी मसीह-विरोधी की तरह ही था, दूसरों से सराहना पाने और अपनी आराधना कराने के लिए लालायित रहता था और प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को भी सकारात्मक चीज मानता था। कई सालों से मैं इसके पीछे भाग रहा था। घर में मेरे पिता अक्सर मुझसे यह कहते थे कि “भीड़ से ऊपर उठो” और “परिवार का नाम रोशन करो” और सफल व्यक्ति बनना ही अपना भविष्य सँवारने का एकमात्र तरीका है। स्कूल में शिक्षकों ने मेरे मन में यह विचार बैठाया कि “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है।” ये बातें लगातार मेरे विचारों में डाली गईं, जिससे मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति अधिकाधिक आकर्षित हुआ, और इसके लिए कोई भी कठिनाई सहने को तैयार हो गया। अपने स्कूल के वर्षों के दौरान अच्छे ग्रेड पाने और शिक्षकों और सहपाठियों की प्रशंसा और तारीफ पाने के लिए मैं देर रात तक काम करने के लिए कॉफी पीता था और बीमार होने पर भी कक्षाओं में जाता था। पिछले कुछ सालों से कलीसिया में वीडियो बनाते समय मैंने बाहरी तौर पर मुश्किलें झेलीं और कीमत चुकाई, कौशल सीखा और अधिक काम किया, यह सब दूसरों से प्रशंसा पाने के लक्ष्य के साथ किया। कर्तव्य बदलने के बाद जब मुझे दूसरों से प्रशंसा मिलनी बंद हो गई और गलतियों के कारण मेरी कमियाँ और अयोग्यताएँ भी प्रकट होने लगीं तो मैं हतोत्साहित हो गया, मैंने गलतफहमी पाल ली और मैं परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिस्थितियों से कुढ़कर कर्तव्य निभाने की प्रेरणा खो बैठा। मैंने देखा कि मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए जी रहा था, लगातार दूसरों से प्रशंसा पाने के बारे में सोचता रहता था। मैं जो अनुसरण कर रहा था वह परमेश्वर की अपेक्षाओं के बिल्कुल विपरीत था। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “लोगों के रुतबे के पीछे भागने से परमेश्वर को सबसे ज्यादा घृणा है और फिर भी तुम अड़ियल बनकर रुतबे के लिए होड़ करते हो, उसे हमेशा संजोए और संरक्षित किए रहते हो, उसे हासिल करने की कोशिश करते रहते हो। क्या इन तमाम चीजों की प्रकृति परमेश्वर-विरोधी नहीं है?(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। हालाँकि मैंने अभी तक लोगों को जीतने, खुद को स्थापित करने या मसीह-विरोधी की तरह रुतबे के लिए एक स्वतंत्र राज्य बनाने का सहारा नहीं लिया है और अभी तक कोई स्पष्ट बुरे कृत्य नहीं किए हैं, लेकिन अनुसरण को लेकर मेरे इरादे और विचार गलत थे। मैं लगातार लोगों के दिलों में जगह बनाने की कोशिश करता रहा। इस रास्ते पर चलते रहना खतरनाक है और परमेश्वर के लिए घृणित है। यह महसूस करते हुए मैं परमेश्वर की सुरक्षा के लिए बहुत आभारी था।

अपने कर्तव्यों में इस समायोजन के माध्यम से मैं उस गलत रास्ते पर विचार करने और समय रहते पीछे मुड़ने के लिए प्रेरित हुआ। यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार है। भले ही मुझे अब अलग दिखने और सुर्खियों में आने का अवसर नहीं मिला, फिर भी मैं ईमानदारी से समर्पण करने में सक्षम था। मुझे पिछले कुछ वर्षों में इतना समय बर्बाद करने के लिए थोड़ा पछतावा भी हुआ। अगर मैंने रुतबे की तलाश करने के बजाय सत्य का अनुसरण करने और खुद को जानने में वही प्रयास किया होता तो मैं अधिक विवेकशील, परमेश्वर के प्रति अधिक आज्ञाकारी होता और अब जितना विद्रोही और भ्रष्ट नहीं होता। इन समस्याओं को हल करने के लिए मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “यदि तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए सभी चीजों में अपनी सारी निष्ठा देना चाहते हो, तो तुम इसे केवल एक कर्तव्य निभाकर नहीं कर सकते हो; तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए हर आदेश को स्वीकार करना चाहिए। चाहे वह तुम्हारी पसंद के अनुसार हो और तुम्हारी रुचियों से मेल खाता हो, या कुछ ऐसा हो जो तुम्हें पसंद नहीं है, पहले कभी नहीं किया हो, या कठिन हो, फिर भी तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए। तुम्हें न केवल इसे स्वीकार करना चाहिए, बल्कि तुम्हें सक्रिय रूप से सहयोग भी करना चाहिए, और अनुभव और प्रवेश करते समय इसके बारे में सीखना चाहिए। भले ही तुम्हें कष्ट झेलना पड़े, भले ही तुम थके-माँदे हो, अपमानित हो, या बहिष्कृत कर दिए गए हो, फिर भी तुम्हें अपनी पूरी निष्ठा लगा देनी चाहिए। केवल इस तरह से अभ्यास करके ही तुम सभी चीजों में अपनी पूरी निष्ठा दे पाओगे और परमेश्वर के इरादे पूरे कर पाओगे। तुम्हें इसे अपना व्यक्तिगत कामकाज नहीं, बल्कि कर्तव्य मानना चाहिए जिसे निभाना ही है। लोगों को कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए? उन्हें इसे सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—द्वारा किसी व्यक्ति को करने के लिए दी गई चीज समझना चाहिए; लोगों के कर्तव्य ऐसे ही आरंभ होते हैं। परमेश्वर जो आदेश तुम्हें देता है, वह तुम्हारा कर्तव्य होता है, और यह पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है कि तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाओ। अगर तुम्हें यह स्पष्ट है कि यह कर्तव्य परमेश्वर का आदेश है, कि यह तुम पर परमेश्वर के प्रेम और आशीष की वर्षा है, तो तुम परमेश्वर में रमे हृदय के साथ अपना कर्तव्य स्वीकार कर सकोगे, और तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहोगे और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सभी मुश्किलों से उबरने में सफल रहोगे। जो लोग खुद को सचमुच परमेश्वर के लिए खपाते हैं, वे परमेश्वर के आदेश को कभी नहीं ठुकराते, वे कभी कोई कर्तव्य नहीं ठुकरा सकते। परमेश्वर तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य सौंपे, उसमें चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों, तुम्हें मना करने के बजाय उसे स्वीकार करना चाहिए। यह अभ्यास का रास्ता है, जिसका अर्थ है परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करना और सभी चीजों में अपनी निष्ठा देना। यहाँ केन्द्र बिन्दु कहाँ है? यह ‘सभी चीजों में’ है। ‘सभी चीजों’ का मतलब वे चीजें नहीं हैं जिन्हें तुम पसंद करते हो या जिन कामों में तुम अच्छे हो, वे वह चीजें तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिनसे तुम वाकिफ हो। कभी-कभी वे ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम कुशल नहीं हो, ऐसी चीजें होंगी जिन्हें तुम्हें सीखने की जरूरत है, ऐसी चीजें जो कठिन हैं, या ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम्हें कष्ट सहना होगा। लेकिन चाहे कोई भी चीज हो, जब तक परमेश्वर ने यह तुम्हें सौंपी है, तुम्हें उससे यह स्वीकारनी चाहिए; तुम्हें इसे स्वीकार कर पूरी निष्ठा के साथ अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए और परमेश्वर के इरादे पूरे करने चाहिए। यही अभ्यास का मार्ग है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना अच्छी बात है। यह तुम्हें अपनी कमियाँ समझने, और अभिमान के प्रति अपना प्रेम देखने में तुम्हारी सहायता करता है। यह तुम्हें दिखाता है कि तुम्हारी समस्याएँ कहाँ हैं और स्पष्ट रूप से यह समझने में मदद करता है कि तुम एक पूर्ण व्यक्ति नहीं हो। कोई भी पूर्ण व्यक्ति नहीं होता और नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना बहुत सामान्य है। सभी लोगों के सामने ऐसा समय आता है, जब वे नादानी करके हँसी का पात्र बनते हैं या शर्मिंदा होते हैं। सभी लोग असफल होते हैं, विफलताएँ अनुभव करते हैं और सभी में कमजोरियाँ होती हैं। नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना बुरा नहीं है। जब तुम ऐसा करते हो लेकिन शर्मिंदा या भीतर गहराई में अवसाद-ग्रस्त महसूस नहीं करते, तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम चिकने घड़े हो; इसका मतलब यह है कि तुम इस बात की परवाह नहीं करते कि हँसी का पात्र बनने से तुम्हारी प्रतिष्ठा प्रभावित होगी या नहीं और इसका मतलब है कि तुम्हारा घमंड अब तुम्हारे विचारों पर हावी नहीं है। इसका मतलब है कि तुम अपनी मानवता में परिपक्व हो गए हो। यह अद्भुत है! क्या यह अच्छी बात नहीं है? यह एक अच्छी बात है। यह न सोचो कि तुमने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है या तुम्हारा भाग्य खराब है, और इसके पीछे वस्तुगत कारणों की तलाश न करो। यह सामान्य है। तुम खुद को हँसी का पात्र बना सकते हो, दूसरे खुद को हँसी का पात्र बना सकते हैं, सभी लोग खुद को हँसी का पात्र बना सकते हैं—आखिरकार तुम्हें पता चलेगा कि सब लोग एक समान हैं, सभी साधारण हैं, सभी नश्वर हैं, कोई भी किसी और से बड़ा नहीं है, कोई भी किसी और से बेहतर नहीं है। सभी लोग कभी-कभार खुद को हँसी का पात्र बना लेते हैं, इसलिए किसी को भी किसी दूसरे का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। एक बार जब तुम अनगिनत नाकामयाबियों का अनुभव कर लेते हो, तो तुम अपनी मानवता में थोड़े सयाने हो जाते हो; तो जब भी इन चीजों से तुम्हारा दोबारा सामना होगा, तब तुम विवश नहीं होगे, और इनका तुम्हारे सामान्य कर्तव्य-निर्वाह पर असर नहीं पड़ेगा। तुम्हारी मानवता सामान्य होगी, और तुम्हारी मानवता सामान्य होने पर तुम्हारा विवेक भी सामान्य होगा(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मुझे इस परिस्थिति में अभ्यास करने का एक मार्ग मिला। चाहे मुझे दूसरों से प्रशंसा मिले या न मिले या दूसरों से अलग दिखने के मौके मिलें या न मिलें मुझे परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित वातावरण के प्रति समर्पित होना चाहिए और अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाना चाहिए, अपना दिल और ताकत उसमें लगानी चाहिए। यह मेरी जिम्मेदारी थी और मुझे यही करना चाहिए। बाद में भले ही मेरे काम में अभी भी कभी-कभी गलतियाँ छूट जाती थीं और दूसरे लोग मेरी कई समस्याएँ बताते थे तो मुझे बुरा लगता था, लेकिन मैंने नकारात्मक ढंग से प्रतिक्रिया देना बंद कर दिया। जितनी अधिक गलतियाँ और असफलताएँ मुझे मिलीं, उतना ही उन्होंने मुझे समय रहते परमेश्वर के पास लौटने के लिए प्रेरित किया ताकि मैं अपनी भ्रष्टता को जान सकूँ, अपने विचलन और कमियों का विश्लेषण और चिंतन कर सकूँ। इससे मुझे कुछ सिद्धांत और ज्यादा याद हो गए जिससे मेरे कर्तव्य निर्वहन और मेरे जीवन प्रवेश दोनों को लाभ हुआ। इस समझ के कारण मेरी मानसिकता सुधर गई और अब मुझे इस बात की उतनी परवाह नहीं थी कि दूसरे मुझे कैसे देखते हैं। पेशे के संदर्भ में मैंने अपने विचलन और समस्याओं का विश्लेषण किया, जब मुझे कुछ समझ में नहीं आता था तो भाई-बहनों से मदद माँगी और प्रासंगिक सिद्धांतों की तलाश की और उनमें प्रवेश किया। मैंने दूसरों की अच्छी परिपाटियों से भी सीखा। जहाँ तक मेरी दशा का सवाल है, मैंने अपना खाली समय चिंतन-मनन करने में लगाया और खुद को परमेश्वर के उन वचनों के आधार पर जाना जो मेरी प्रकट भ्रष्टताओं से संबंधित थे। कुछ समय तक इसका अभ्यास करने के बाद मुझे अपना वर्तमान कर्तव्य पसंद आने लगा और मेरे कर्तव्य के नतीजे पहले से बेहतर होते गए। इस प्रक्रिया पर पीछे मुड़कर देखने पर मुझे परमेश्वर के ईमानदार इरादों का एहसास हुआ। इस माहौल में अपना कर्तव्य निभाने से मुझे कई लाभ हुए हैं। इन असफलताओं और खुलासों के जरिये ही मैं अपनी कमियों और वास्तविक आध्यात्मिक कद के अभाव को स्पष्ट रूप से देख पाया, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना और अपने कर्तव्यों में सिद्धांतों की और अधिक खोज करना सीख सका। यही नहीं, इस माहौल में लगातार तपने के कारण मेरी मानवता परिपक्व हो गई मेरे अंदर आवेग और नाजुकपन घट गया, मैं अपनी कमियों का सही उपचार करने में सक्षम हो गया और परमेश्वर के इरादों और सत्य सिद्धांतों की खोज करना सीखने लगा। ये सभी मेरे लिए प्रशिक्षण और पूर्णता हैं।

अपने कर्तव्यों में इस समायोजन का अनुभव करते हुए मैं समझ गया हूँ कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि हम कौन-सा कर्तव्य निभा रहे हैं, हमारी प्रतिष्ठा कायम है या नहीं या दूसरे हमारी प्रशंसा कर रहे हैं या नहीं, ये बातें महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण यह है कि हम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हैं या नहीं और हमारे पास सत्य का अभ्यास करने की गवाहियाँ हैं या नहीं। पहले जब मैंने दूसरों को उनके कर्तव्यों में समायोजन के बाद नकारात्मक और अवज्ञाकारी बनते देखा तो मैंने उन्हें तुच्छ समझा और सोचा कि मैं बेहतर हूँ। अब सच्चाई सामने आई तो मैंने देखा कि मेरी बहुत ही अहंकारी प्रकृति थी और परमेश्वर के प्रति मैं कोई दूसरों से अधिक समर्पित नहीं था। परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिस्थितियों के माध्यम से मैंने अपने बारे में कुछ ज्ञान पाया है और कुछ बदलावों से गुजरा हूँ। परमेश्वर के हाथों उद्धार के लिए मैं वास्तव में तहेदिल से आभारी हूँ!

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