33. कर्तव्यों में फेरबदल ने मुझे प्रकट कर दिया

ब्रियाना, यूएसए

मैं कलीसिया में वीडियो बनाने का काम कर रही थी, पर कुछ समय के लिए ज्यादा काम न होने के कारण अगुआ ने फेरबदल कर मुझे नए सदस्यों का सिंचन करने दिया। बाद में, वीडियो-कार्य चलते मुझे फिर से वीडियो बनाने भेज दिया गया, और फिर जब काम ज्यादा नहीं था तो मुझे वापस नए सदस्यों का सिंचन करने भेज दिया गया। इस तरह, आगे पीछे दो बार फेरबदल की गई। फिर एक बहन ने कहा, “जहां भी उन्हें तुम्हारी जरूरत होती है, तुम वहां चली जाती हो!” उस वक्त मैंने इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा। मगर करीब एक महीने बाद, वीडियो बनाने का काम फिर से कम हो गया, तब मुझे चिंता होने लगी कि अब हमें ज्यादा लोगों की जरूरत नहीं होगी, और मैं वापस नए सदस्यों के सिंचन के लिए भेज दी जाऊँगी। यह सोचकर मेरा गला रुँध गया। मैं इतनी बेकार क्यों थी? जब भी थोड़ा कम काम रहता और कम लोगों की जरूरत पड़ती, तो मेरा तबादला कर दिया जाता। मैं टीम के लिए इतनी बेकार थी। अगर सच में फिर से फेरबदल हुई तो लोग क्या सोचेंगे? कहीं वे यह तो नहीं सोचेंगे कि हमेशा मेरे कर्तव्य की फेरबदल क्यों की जाती है और दूसरों की नहीं? उन्हें लगेगा कि न मैं काम में अच्छी थी और न मेरे पास टीम में कोई अहम भूमिका थी। ये विचार मुझे काफी परेशान करते थे, और मैं इन हालात का सामना नहीं करना चाहती थी।

एक बार हम वीडियो की कुछ समस्याओं पर चर्चा कर रहे थे, और सभी लोग सुर में सुर मिला रहे थे—यह एक खुली चर्चा थी। मगर काफी सोचने के बाद भी, मैंने कोई अच्छा सुझाव नहीं दिया, कुछ नहीं कहा। कुछ न सूझा, तो बस चुप बैठी रही। सभी लोग कुछ न कुछ बोल रहे थे, पर मेरे पास कहने को कुछ नहीं था। ऐसा लगा, मेरा कोई वजूद नहीं है। मैंने सोचा, “यह नहीं चलेगा। मुझे कुछ तो कहना होगा। कोई गहरी समझ की बात कहनी होगी ताकि वे मुझे अनदेखा न करें।” मैंने काफी सोच-विचार कर आखिर में एक सुझाव दिया, पर मुझसे कोई सहमत नहीं था। मैंने अपमानित महसूस किया। मैंने सोचा, “यह कितनी शर्मिंदगी की बात थी—वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” आठ महीने से मैंने कोई वीडियो कार्य नहीं किया था, इसलिए मेरे पेशेवर कौशल और सिद्धांतों की समझ तब के मुकाबले काफी कम थी जब मैंने टीम को छोड़ा था। मैं दूसरों से काफी पिछड़ गई थी। वीडियो बनाने का कौशल केवल निरंतर अध्ययन करके ही सुधारा जा सकता है। बाकी लोग वीडियो कार्य में अपना पूरा समय दे रहे थे और कौशल और सिद्धांतों की उनकी समझ लगातार निखर रही थी, जबकि मैं थोड़ा समय यहाँ तो थोड़ा समय वहाँ दे रही थी। मैंने किसी एक जगह पर लंबे समय तक अभ्यास नहीं किया, इसलिए मैं किसी भी क्षेत्र में खास महारत हासिल न कर पाई। जैसे ही काम कम रह जाता, सबसे पहले मुझे चलता कर दिया जाता। मेरे होने, न होने से उन्हें फर्क नहीं पड़ता था। काम के बोझ के हिसाब से, मैंने सोचा कि सुपरवाइजर मुझे कभी भी नए सदस्यों के सिंचन में वापस भेज सकती है। इस विचार ने मुझे वाकई परेशान कर दिया और मैं रोने लगी। मैंने सोचा, “हमेशा मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है?” टीम में कुछ लोगों के पास पेशेवर कौशल थे, कुछ लोग सक्षम थे, बाकी लोग अनुभवी थे, उन्होंने कुछ समय तक यह काम किया था, जबकि कुछ लोग बहुत कार्यकुशल थे...। उन सभी ने किसी न किसी तरह अपनी पहचान बनाई थी, मगर जहाँ तक मेरी बात थी, मैं उन जैसी काबिल नहीं थी, कार्यकुशल नहीं थी और हमेशा उनसे एक कदम पीछे रहती थी। जब काम का बोझ कम हुआ और कुछ ही लोगों की जरूरत रह गई, तो पहले मेरे कर्तव्य का फेरबदल होना स्वाभाविक था। अगर उनकी तरह मुझमें भी अच्छी काबिलियत होती, पेशेवर कौशल होते, तो हर बार फेरबदल नहीं होती, पर बदकिस्मती से, मैं ऐसी नहीं थी। मैं दूसरों की तरह कार्यकुशल क्यों नहीं थी? इस तरह मैं जितना सोचती, उतनी ही अधिक उदास होती, और मैं परमेश्वर को गलत समझने लगी।

उसके बाद, भले ही मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, पर मुझमें कोई उत्साह नहीं बचा था। मैं हर काम में बस तय ढर्रे पर चलती, जो भी करती उससे संतुष्ट रहती थी। मैंने नहीं सोचा कि ज्यादा नतीजे हासिल करने के लिए बेहतर तरीके से काम कैसे करें। मैंने समस्याओं का सामना करते हुए अपना भरसक प्रयास नहीं किया। मुझे नहीं पता था कब तक इस टीम में रहूँगी, इसलिए चीजों को जस की तस छोड़ दिया। उस दौरान, जब भी टीम अगुआ मुझसे बात करने आता तो मुझे बड़ी चिंता होती, सोचने लगती कि वह शायद मेरे कर्तव्य के फेरबदल की बात करने वाला है। जब तक मुझे नहीं पता चलता कि यह काम की सामान्य चर्चा थी, मेरा दिल जोरों से धड़कता रहता। ऐसा बार-बार होने लगा, जिससे मेरा हर दिन थकाऊ होता। मैं रात को ठीक से सोती, फिर भी भक्ति के दौरान ऊंघती रहती और परमेश्वर के वचनों से कोई प्रबोधन नहीं ले पा रही थी। मुझे पता था कि मेरी दशा ठीक नहीं थी, इसलिए मैं प्रार्थना करने, सत्य खोजने और अपनी समस्या पर चिंतन करने के लिए परमेश्वर के पास भागी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे खुद को समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अपने आचरण के संबंध में तुम लोगों के क्‍या सिद्धांत हैं? तुम्हारा आचरण तुम्हारे पद के अनुसार होना चाहिए, अपने लिए सही स्‍थान खोजो और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए उसे निभाओ; केवल ऐसा व्यक्ति ही समझदार होता है। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग कुछ पेशेवर कौशलों में निपुण होते हैं और सिद्धांतों की समझ रखते हैं, और उन्हें जिम्मेदारी लेनी चाहिए और उस क्षेत्र में अंतिम जाँचें करनी चाहिए; कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने विचार और अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं, और दूसरों को प्रेरित कर उन्हें अपने कर्तव्य बेहतर तरीके से निभाने में मदद कर सकते हैं—तो फिर उन्हें अपने विचार साझा करने चाहिए। यदि तुम अपने लिए सही स्‍थान खोज सकते हो और अपने भाई-बहनों के साथ सद्भाव से कार्य कर सकते हो, तो तुम अपना कर्तव्य पूरा करोगे, और तुम अपने पद के अनुसार आचरण करोगे। मूल रूप से, हो सकता है कि तुम केवल कुछ विचार प्रदान करने में सक्षम हों, लेकिन यदि तुम कुछ और पेश करने का प्रयास करते हो और तुम ऐसा करने की बहुत कोशिश करने के बावजूद इसमें असमर्थ होते हो; और फिर, जब दूसरे लोग वे चीजें प्रदान करते हैं, तो तुम असहज हो जाते हो, और सुनना नहीं चाहते, तुम्हारा दिल दुखी और लाचार हो जाता है, और तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करते हो और कहते हो कि परमेश्वर अधार्मिक है—तो फिर यह महत्वाकांक्षा है। वह कौन सा स्वभाव है जो किसी व्यक्ति में महत्वाकांक्षा उत्पन्न करता है? व्यक्ति का अभिमानी स्वभाव ही महत्वाकांक्षा उत्पन्न करता है। निश्चित रूप से ऐसी अवस्थाएँ तुम लोगों में किसी भी समय उत्पन्न हो सकती हैं, और यदि तुम लोग इनका समाधान करने के लिए सत्य की खोज नहीं करते हो, न तुम्हारे पास जीवन प्रवेश हो और इस संबंध में बदल नहीं सकते, तो जिस योग्यता और शुद्धता के साथ तुम लोग अपना कर्तव्य करते हो, उसका स्‍तर बहुत ही निम्न होगा और परिणाम भी बहुत अच्छे नहीं होंगे। यह अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभाना नहीं है और इसका मतलब है कि परमेश्वर ने तुम लोगों से महिमा प्राप्त नहीं की है। परमेश्वर ने हर व्यक्ति को अलग-अलग प्रतिभा और गुण दिए हैं। कुछ लोगों के पास दो या तीन क्षेत्रों में प्रतिभाएँ होती हैं, कुछ के पास एक ही क्षेत्र में प्रतिभा होती है, और कुछ के पास कोई भी प्रतिभा नहीं होती है—यदि तुम लोग इन बातों को सही तरीके से समझ सको, तो तुम्‍हारे पास विवेक है। एक विवेकपूर्ण व्‍यक्ति अपना स्थान खोजने और उसके अनुसार आचरण कर अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में सक्षम होगा। जो व्यक्ति कभी अपना स्थान प्राप्त नहीं कर सकता, वह वो व्यक्ति होता है जो हमेशा महत्वाकांक्षा रखता है। वह हमेशा रुतबे और लाभ के पीछे भागता है। उसके पास जो कुछ होता है, वह उससे कभी संतुष्ट नहीं होता। अधिक लाभ पाने के लिए वह जितना हो सके, उतना लेने की कोशिश करता है; वह हमेशा अपनी असंयत इच्छाएँ पूरी होने की आशा करता है। वह सोचता है कि अगर उसके पास गुण हैं और उसकी क्षमता अच्छी है, तो उसे परमेश्वर का ज्यादा अनुग्रह मिलना चाहिए, और यह कि कुछ असंयत इच्छाएँ रखना कोई गलती नहीं है। क्या इस तरह के व्यक्ति में विवेक है? क्या हमेशा असंयत इच्छाएँ रखना बेशर्मी नहीं है? जिन लोगों में जमीर और विवेक होता है, वे महसूस कर सकते हैं कि यह बेशर्मी है। जो लोग सत्य समझते हैं, वे ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें नहीं करेंगे। अगर तुम परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करने के लिए अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने की आशा रखते हो, तो यह कोई असंयत इच्छा नहीं है। यह सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के अनुरूप है। यह परमेश्वर को प्रसन्न करता है। अगर तुम सच में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले अपने लिए उपयुक्त स्थान ढूँढ़ना होगा, उसके बाद तुम्हें वह चीज करनी होगी जिसे तुम पूरे मन से, पूरे दिमाग से, अपनी पूरी शक्ति से कर सकते हो, और अपना सर्वश्रेष्ठ करो। यह संतोषजनक है और कर्तव्य के ऐसे प्रदर्शन में शुद्धता का अंश मौजूद होता है। यह वही चीज है जो एक सच्चे सृजित प्राणी को करनी चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों ने दिखाया कि मेरे मायूस होने की वजह यह थी कि मेरी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएं पूरी नहीं हुई थीं। लोग मेरी प्रशंसा नहीं करते या मुझे अहमियत नहीं देते थे, मैं अपने हालात बदल नहीं पा रही थी, इसलिए मैंने परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोष दिया, लगा कि उसने मुझे जो दिया वह काफी नहीं था। मेरे कर्तव्य में दो बार फेरबदल की गई क्योंकि काम घट गया था, और वापस आने के करीब एक महीने में ही तीसरी फेरबदल की संभावना थी। ऐसे हालात में, मुझे लगा शायद मैं टीम में सबसे बेकार और नाकारा हूँ, और मेरे होने की कोई अहमियत ही नहीं है। मैं इस हकीकत को स्वीकार ही नहीं पाई, और दुखी हो गई। काम की चर्चाओं में, मैं किसी से पीछे नहीं रहना चाहती थी, इसलिए सोच-विचार कर कुछ अहम, सार्थक राय व्यक्त करने की कोशिश की, पर मेरे सुझाव ठुकरा दिये गए और मैंने अपमानित महसूस किया। मेरे कौशल दूसरों के मुकाबले कितने पिछड़े हुए थे, यह देखकर मुझे निराशा भी हुई और गुस्सा भी आया। मैंने सोचा किसी भी चीज में मेरे ज्यादा कुशल न होने की वजह थी कि मेरे कर्तव्य की फेरबदल की जाती रही, और मैं जहां भी गई वहां सबसे निचले पायदान पर ही रही, मेरे कर्तव्य की फेरबदल कभी भी हो सकती थी। मैंने मन-ही-मन दूसरों से खुद की तुलना की। मुझे लगा उन सभी में खूबियाँ थीं, उन्होंने खास क्षेत्र में अच्छा किया था, और मैं हर मामले में औसत दर्जे की थी, मुझमें गंभीर कमियाँ भी थीं—मैं हर काम में धीमी थी। इस वास्तविकता का सामना करने का इच्छुक न होने के कारण, तो मैंने परमेश्वर को दोष दिया कि उसने मुझे काबिलियत नहीं दी। मैं मायूस हो गई, लगा मेरे साथ गलत हुआ है, काम में उत्साह कम हो गया। लेकिन असल में, परमेश्वर हर किसी को अलग-अलग गुण, खूबियाँ और काबिलियत देता है। हम अलग-अलग कर्तव्य निभाने के लिए बने हैं—यह सब परमेश्वर का आयोजन है। जिसके पास विवेक होता है वह दिल से समर्पण करता है। वे अपने मुकाम चुनते हैं, और खुद का बेहतर इस्तेमाल करते हैं। मैंने बिल्कुल भी समर्पण नहीं किया—मैं सबसे पीछे रहना नहीं चाहती थी। मैंने दूसरों के दिलों में जगह बनाने, उनका सम्मान और प्रशंसा पाने की कोशिश की, जब मुझे यह सब नहीं मिला तो मैं नकारात्मक होकर ढीली पड़ गई। मैं वाकई विवेकहीन थी! परमेश्वर ने मुझे महान काबिलियत नहीं दी, पर उसने मुझसे अधिक अपेक्षा भी नहीं की। वह चाहता था कि मैं बस सही मुकाम खोजूँ, और कर्तव्य में सब कुछ झोंक दूं। मैं जो कर सकती थी वही करना मेरे लिए काफी था। मगर मैं बहुत अहंकारी और विवेकहीन थी। मैं किसी काम में अच्छी नहीं थी, पर हकीकत का सामना नहीं करना चाहती थी। मैं रातोरात कामयाब होने और दूसरों का सम्मान पाने की बेतुकी महत्वाकांक्षाएं पाले हुए थी। नतीजतन, काफी ऊर्जा खपाने के बाद भी कुछ हासिल न कर पाई, और निराश हो गई। मैं खुद पर जुल्म कर रही थी।

बाद में मैंने सोचा, “मैं हमेशा दूसरों के गुणों और खूबियों से ईर्ष्या क्यों करती हूँ? क्यों हमेशा लोगों के दिलों में जगह बनाने की कोशिश करती हूँ, और किसी से पीछे नहीं रहना चाहती हूँ? इसकी असली वजह क्या है?” अपनी खोज में, मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। ... अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा, लाभ या रुतबा नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या सम्मान या उनका अनुसरण नहीं करता है, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में अंतिम निर्णय उनका ही हो, और उनके पास शोहरत, लाभ और रुतबा हो—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर खुलासा करता है कि मसीह-विरोधी इज्जत और रुतबे को संजोते हैं। वे जो भी करते हैं, उसमें लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाने की सोचते हैं। वे इज्जत और रुतबे को अपनी जिंदगी और खोज का मकसद बना लेते हैं। इज्जत या प्रशंसा न मिलने पर वे मायूस हो जाते हैं, यहाँ तक कि चीजों में रुचि ही खो बैठते हैं। क्या मैं भी ऐसी ही नहीं थी? इधर-उधर मेरे कर्तव्य की फेरबदल किये जाने पर, मुझे लगा मानो मैं निरर्थक, नाकारा इंसान हूँ, मेरा कोई रुतबा नहीं, बिल्कुल ही बेकार हूँ, मैं बहुत बेचैन हो गई। समस्याओं पर चर्चा करते हुए, मेरे पास कोई मूल्यवान सुझाव नहीं होता, मेरे विचार कोई नहीं स्वीकारता था। लगा मानो मैं टीम में किसी काम की नहीं, कोई मुझे अहमियत नहीं देता या मेरा सम्मान नहीं करता, जैसे मेरी उपस्थिति की कोई अहमियत ही नहीं थी। मैं कमजोर और निराश हो गई, परमेश्वर को गलत समझकर दोष देने लगी। मैंने इज्जत और रुतबे को अपना जीवन बना लिया और नकारात्मक महसूस किया, जब इन्हें हासिल नहीं कर पाई तो ढीली पड़ गई, सारा जोश खत्म हो गया। मैं इन चीजों की बहुत अधिक परवाह करती थी। मैं हमेशा इन चीजों के पीछे इसलिए भागती थी क्योंकि मुझ पर शैतान के इन विषों का असर हो गया था “सबसे ऊपर उठो,” “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है,” और “लोगों को हमेशा अपने समकालीनों से बेहतर होने का प्रयत्न करना चाहिए।” मैं सोचती थी ये जीवन के सबसे सही लक्ष्य हैं, और इनके पीछे भागने का मतलब महत्वाकांक्षी होना है। मैंने स्कूल में बहुत कड़ी मेहनत की। मैं अक्सर मिडिल स्कूल और हाई स्कूल की परीक्षाओं में अव्वल आती थी। मैं काफी मशहूर थी, सहपाठी और शिक्षक अक्सर मेरी प्रशंसा करते थे। मुझे बहुत संतुष्टि हुई। कलीसिया से जुड़कर दायित्व संभालने के बाद भी, मैं उन शैतानी विषों के अनुसार ही जीती रही, और दूसरों के दिलों में अपनी जगह बनाने की परवाह की, हमेशा लोगों से तारीफ करवाने की कोशिश की। मैं कोई टीम अगुआ या सुपरवाइजर नहीं थी, फिर भी मुझे ऐसी अहम इंसान बनना था जिसकी बात सभी लोग मानें। जब मुझे शोहरत और रुतबा नहीं मिला और मेरी महत्वाकांक्षाएं अधूरी रह गईं, तो मैंने शिकायत की और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं पर नाखुशी दिखाई। मैंने कुछ कहने की हिम्मत नहीं की, पर दिल से परमेश्वर का विरोध किया, और अपने काम में नकारात्मक हो गई और ढीली पड़ गई। उन शैतानी विषों के अनुसार जीवन जीकर मैंने खुद को दुःख और पीड़ा में झोंक दिया, मैं परमेश्वर के साथ नहीं थी, उससे कुतर्क और सौदेबाजी कर रही थी, अनजाने में उसकी धार्मिकता पर संदेह कर उसका विरोध कर रही थी। इस तरह मैं परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करती और उसके द्वारा हटा दी जाती। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया : “लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालें या बेकार के सपने न देखें, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागें या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करें। इससे भी बढ़कर, उन्हें महान या अलौकिक व्यक्ति या लोगों में श्रेष्ठ बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और दूसरों से अपनी पूजा नहीं करवानी चाहिए। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। अगर लोग पश्चात्ताप किए बिना लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : हटा दिया जाना(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। पहले, मुझे कभी एहसास नहीं हुआ कि प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने के ये परिणाम कितने गंभीर थे। मैं सोचती थी किसी मसीह-विरोधी जैसे बुरे कर्म कभी नहीं करूंगी या कलीसिया के काम में बाधा नहीं बनूंगी, और दूसरों से तारीफ न मिलने पर बस निराश, कमजोर और बेचैन ही महसूस करूंगी। मगर फिर देखा कि ऐसा तो बिलकुल नहीं था। ऊपरी तौर पर, ऐसा नहीं लगता था कि मैंने कोई बहुत बुरा काम किया है, पर मैं परमेश्वर के बनाये हालात से संतुष्ट नहीं थी, और हमेशा शिकायत करती थी। मैं दिल से परमेश्वर के खिलाफ जा रही थी। मैं उसका प्रतिरोध कर रही थी। मैंने पहले साथ काम कर चुकी एक बहन के बारे में सोचा। पहले तो वह अपने कार्य में जोशीली थी, और उसे अगुआ चुना गया, बाद में उसे बर्खास्त करके फेरबदल की गई और उसने अपना रुतबा गँवा दिया। दूसरों की प्रशंसा न मिलने के कारण वह अक्सर निराश रहती थी, आखिर में परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया और निकल गई। स्पष्ट रूप से, लोगों का हमेशा इज्जत और रुतबे के पीछे भागना बहुत खतरनाक है, और जब उनकी महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं होती तो वे निराश होकर परमेश्वर को गलत समझने और दोष देने लगते हैं। वे परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं या उसे धोखा तक दे देते हैं। तब जाकर एहसास हुआ कि मेरी हालत खतरनाक थी। मैं परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करना और उसका विरोध करने के बजाय इज्जत और रुतबे की बेड़ियों को तोड़ देना चाहती थी।

अपनी भक्ति में एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े : “जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएं तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या उत्कृष्ट व्यक्ति बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने सुना है उसे अच्छे से याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसा करो। उन्हें तुम्हारा जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएं और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाने दो। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। “अगर परमेश्वर ने तुम्हें मूर्ख बनाया है, तो तुम्हारी मूर्खता अर्थवान है; अगर उसने तुम्हें तेज दिमाग का बनाया है, तो तुम्हारे में तेज होना अर्थवान है। परमेश्वर तुम्हें जो भी प्रतिभा दे, तुम्हारे जो भी ताकत हो, चाहे तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कितनी भी ऊँची हो, उन सभी का परमेश्वर के लिए एक उद्देश्य है। ये सब बातें परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं। अपने जीवन में तुम जो भूमिका और कर्तव्य निभाते हो—उन्‍हें परमेश्वर ने बहुत पहले ही नियत कर दिया था। कुछ लोग देखते हैं कि दूसरों के पास ऐसी क्षमताएँ हैं जो उनके पास नहीं हैं और असंतुष्ट रहते हैं। वे अधिक सीखकर, अधिक देखकर, और अधिक मेहनती होकर चीजों को बदलना चाहते हैं। लेकिन उनकी मेहनत जो कुछ हासिल कर सकती है, उसकी एक सीमा है, और वे प्रतिभा और विशेषज्ञता वाले लोगों से आगे नहीं निकल सकते। तुम चाहे जितना भी लड़ो, वह व्‍यर्थ है। परमेश्वर ने तय किया हुआ है कि तुम क्या होगे, और उसे बदलने के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। तुम जिस भी चीज में अच्छे हो, तुम्हें उसी में प्रयास करना चाहिए। तुम जिस भी कर्तव्य के उपयुक्त हो, तुम्‍हें उसी कर्तव्य को करना चाहिए। अपने कौशल से बाहर के क्षेत्रों में खुद को विवश करने का प्रयास न करो और दूसरों से ईर्ष्या मत करो। सबका अपना कार्य है। हमेशा दूसरे लोगों का स्थान लेने या आत्म-प्रदर्शन करने की इच्छा रखते हुए यह मत सोचो कि तुम सब-कुछ अच्छी तरह कर सकते हो, या तुम दूसरों से अधिक परिपूर्ण या बेहतर हो। यह भ्रष्ट स्वभाव है। ऐसे लोग भी हैं जो सोचते हैं कि वे कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते, और उनके पास बिल्कुल भी कौशल नहीं है। अगर ऐसी बात है तो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो शालीनता से सुने और समर्पण करे। तुम जो कर सकते हो, उसे अच्छे से, अपनी पूरी ताकत से करो। इतना पर्याप्त है। परमेश्वर संतुष्ट होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि हमारे लिए उसका इरादा यह नहीं है कि हम महान इंसान बनें। वह चाहता है, हम अपने पद के अनुसार और जमीन से जुड़े रहकर आचरण करें और अपने कर्तव्य निभाएँ, उसके वचनों का अभ्यास करने और आज्ञाकारी सृजित प्राणी बनने पर ध्यान दें। हमारी काबिलियत या पेशेवर योग्यता सब परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन है। मुझे स्वीकार कर समर्पण करना सीखना होगा, और परमेश्वर की दी गई सभी खूबियों का बेहतर इस्तेमाल कर भरसक प्रयास करना होगा। मेरे कौशल दूसरों जैसे अच्छे नहीं थे, पर मैं काम करने में अक्षम नहीं थी। चूंकि कलीसिया ने मेरे लिए उस दायित्व की व्यवस्था की थी, मुझे अडिग होकर और अपना सब कुछ देकर भरसक प्रयास करना था। काम की चर्चा के दौरान, मुझे सिर्फ उन चीजों पर बात करनी थी जिन्हें मैं समझती थी। अगर मुझमें गहरी समझ नहीं थी या मैं सिद्धांत नहीं जानती थी, तो मुझे दूसरों से खोजना और संगति करनी थी, उनके सुझाव सुनकर, उनकी खूबियों से सीखना और अपनी कमियों की भरपाई करना था। यह सोचकर मेरा दिल रोशन हो गया, मुझे अभ्यास का मार्ग और सही दिशा मिल गई। मैं सोचती थी कि तबादला शर्मिंदगी की बात है। फेरबदल किए जाने पर लगता कि यह मुझे सबसे नाकारा साबित करता है, मैं इसे सही तरीके से नहीं ले पाई। अब इस बारे में सोचती हूँ तो लगता है मेरे नजरिये में ही समस्या थी। परमेश्वर हर किसी को अलग-अलग गुण, खूबियाँ और काबिलियत देता है, और हर किसी से अलग-अलग अपेक्षाएं रखता है। यह सही है कि मेरे कौशल उतने अच्छे नहीं थे, इसलिए जब टीम के पास ज्यादा काम नहीं था, कलीसिया ने मेरी खूबियों के आधार पर मेरे कर्तव्य में फेरबदल की। यह सिद्धांतों के अनुरूप और कलीसिया के कार्य के हित में था। मुझे इसके प्रति सही रवैया अपनाना चाहिए। इसके अलावा, परमेश्वर किसी इंसान को सिर्फ इस आधार पर नहीं परखता कि वह कोई काम अच्छे से कर पाता है या नहीं, बल्कि इस आधार पर कि क्या वह सत्य का अनुसरण कर उसके प्रति समर्पित हो पाता है, और क्या वह अपने कर्तव्य में निष्ठावान है। इस बारे में सोचकर मेरा दिल रोशन हो गया, अब मुझे कोई बेबसी महसूस नहीं हुई। मैं यह भी जान गई कि अनुसरण कैसे करें। मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करने और तुम्हारा इरादा समझने में मदद करने के लिए धन्यवाद। मुझे नहीं पता कि फेरबदल कब होगी, पर मैं तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ। मैं चाहे जहां भी कर्तव्य निभाऊं, अपना सब कुछ देकर तुम्हें संतुष्ट करना चाहती हूँ!”

मानसिकता बदलने के बाद, कर्तव्य करते समय मेरी दशा भी बदल गई। मैं हमेशा सोचती थी कि मैं दूसरों के जैसी नहीं हूँ, मैं टीम की एक अस्थायी सदस्य हूँ जो कभी भी छोड़कर जा सकती है। मुझे लगता था मैं सबसे निचले दर्जे की हूँ, मुझे चीजों की कोई समझ नहीं है। मैं परमेश्वर को गलत समझकर उससे दूर हो गई, अपने कर्तव्य में अपना सब कुछ नहीं झोंका। मगर आज, मैं वैसी महसूस नहीं करती। चाहे जहां या जब तक कर्तव्य निभाऊं, परमेश्वर का नेक इरादा मेरे पीछे होगा, मुझे बस समर्पण करना सीखना चाहिए। भले ही मुझे बाद में छोड़कर जाना पड़े, मैं ठीक अभी वीडियो बना रही हूँ, और मुझे हर दिन भरसक प्रयास करना है, अपने कर्तव्य में दिल लगाकर हर हालात का अनुभव करना है। फिर से अपना कर्तव्य निभाते समय मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती, अधिक कार्यकुशल बनने के लिए राह दिखाने की विनती करती। मैं अपने काम की समस्याओं पर भी विचार करती, ताकि उनका सारांश तैयार कर जल्द से जल्द हल कर सकूं। जब मुझे सिद्धांत समझ न आते तो मैं दूसरों से खोजती, तो दूसरों के साथ संगति करती। इस तरह कर्तव्य निभाने में मुझे काफी सुकून मिलता था, लगता कि मैं परमेश्वर के करीब थी।

बाद में एक सभा में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसने मेरे दिल को द्रवित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोगों को अपने भाग्य के बारे में परमेश्वर की व्यवस्थाओं और उस पर उसकी संप्रभुता के जवाब में क्या करना चाहिए? (परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए।) पहले, तुम्हें यह समझने के लिए खोजना चाहिए कि सृष्टिकर्ता ने तुम्हारे लिए इस तरह के भाग्य और जीने के परिवेश की व्यवस्था क्यों की है, क्यों वह तुम्हारा कुछ चीजों से सामना और उनका अनुभव कराता है, और क्यों तुम्हारा भाग्य ऐसा है। इससे तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारा दिल किस चीज के लिए लालायित है और उसे क्या चाहिए, साथ ही तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को समझना चाहिए। इन चीजों को समझने और जानने के बाद तुम्हें अपने भाग्य का प्रतिरोध नहीं करना चाहिए, उसके बारे में अपने चुनाव नहीं करने चाहिए, उसे नकारना, उसका खंडन करना या उससे बचना नहीं चाहिए। बेशक, तुम्हें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें समर्पित होना चाहिए। तुम्हें समर्पित क्यों होना चाहिए? क्योंकि तुम एक सृजित प्राणी हो, अपने भाग्य को आयोजित नहीं कर सकते और तुम्हारी उस पर संप्रभुता नहीं है। तुम्हारा भाग्य परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है। जब तुम्हारे भाग्य की बात आती है, तो तुम निष्क्रिय होते हो और तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं होता। एकमात्र चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है समर्पित होना। तुम्हें अपने भाग्य के बारे में अपने चुनाव नहीं करने चाहिए या उससे बचना नहीं चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए, अपने भाग्य के खिलाफ नहीं जाना चाहिए या शिकायत नहीं करनी चाहिए। बेशक, तुम्हें खासकर ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, ‘परमेश्वर ने मेरे लिए जिस भाग्य की व्यवस्था की है, वह खराब है। वह दयनीय और दूसरों के भाग्य से बदतर है,’ या ‘मेरा भाग्य खराब है और मुझे कोई सुख या समृद्धि नहीं मिल रही। परमेश्वर ने मेरे लिए खराब तरह से चीजों की व्यवस्था की है।’ ये शब्द आलोचनाएँ हैं और इन्हें बोलकर तुम अपने स्थान से बाहर जा रहे हो। ये ऐसे शब्द नहीं हैं, जिन्हें सृजित प्राणी द्वारा बोला जाना चाहिए और ये ऐसा दृष्टिकोण या रवैये नहीं हैं, जो सृजित प्राणी में होने चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें भाग्य की ये भ्रामक समझ, परिभाषाएँ, विचार और बोध छोड़ देने चाहिए। साथ ही, तुम्हें एक सही रवैया और रुख अपनाने में सक्षम होना चाहिए, ताकि तुम उन सभी चीजों के प्रति समर्पित हो सको, जो उस भाग्य के हिस्से के रूप में घटित होंगी जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए व्यवस्थित किया है। तुम्हें प्रतिरोध नहीं करना चाहिए, और निश्चित रूप से तुम्हें खिन्न होकर शिकायत नहीं करनी चाहिए कि स्वर्ग निष्पक्ष नहीं है, कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए चीजें खराब तरह से व्यवस्थित की हैं, और तुम्हें सर्वोत्तम चीजें प्रदान नहीं की हैं। सृजित प्राणियों को अपना भाग्य चुनने का अधिकार नहीं है। परमेश्वर ने तुम्हें इस तरह का दायित्व नहीं दिया है और उसने तुम्हें यह अधिकार नहीं दिया है। इसलिए तुम्हें चुनाव करने, परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करने या उससे अतिरिक्त अनुरोध करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर की व्यवस्थाओं के अनुरूप होना चाहिए और उनका सामना करना चाहिए, चाहे वे जो भी हों। परमेश्वर ने जो कुछ भी व्यवस्थित किया है, तुम्हें उसका सामना करना चाहिए और उसका अनुभव करने और उसे समझने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हें हर उस चीज के प्रति पूरी तरह से समर्पित होना चाहिए, जिसका तुम्हें परमेश्वर की व्यवस्थाओं के माध्यम से अनुभव करना चाहिए। तुम्हें उस भाग्य का पालन करना चाहिए, जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए व्यवस्थित किया है। अगर तुम्हें कोई चीज पसंद न भी हो या अगर तुम्हें उसके कारण कष्ट भी उठाना पड़े, अगर वह तुम्हारे गर्व और सम्मान को खतरे में डालकर कुचलती भी हो, तो भी अगर वह ऐसी चीज है जिसे तुम्हें अनुभव करना चाहिए, ऐसी चीज जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए आयोजित और व्यवस्थित किया है, तो तुम्हें उसके प्रति समर्पित होना चाहिए, तुम्हारे पास उसके बारे में कोई विकल्प नहीं है। चूँकि परमेश्वर लोगों के भाग्य की व्यवस्था करता है और उस पर उसकी संप्रभुता है, इसलिए उसे लेकर उसके साथ मोल-भाव नहीं किया जा सकता। इसलिए, अगर लोग समझदार हैं और उनमें सामान्य मानवता का विवेक है, तो उन्हें यह शिकायत नहीं करनी चाहिए कि उनका भाग्य खराब है या यह या वह चीज उनके लिए अच्छी नहीं है। उन्हें अपने कर्तव्य को, अपने जीवन को, उस मार्ग को जिस पर वे अपनी आस्था में चलते हैं, उन स्थितियों को जिन्हें परमेश्वर ने व्यवस्थित किया है, या उनसे उसकी अपेक्षाओं को सिर्फ इसलिए खिन्न रवैये के साथ नहीं लेना चाहिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका भाग्य खराब है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे साफ पता चल गया कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को लेकर कैसा नजरिया होना चाहिए। हमारी नियति परमेश्वर के हाथों में है। कोई इंसान कैसे परिवार में पैदा होगा, उसे कैसी शिक्षा मिलेगी, उसके गुण और खूबियाँ क्या होंगी, वह कब कलीसिया में आकर कोई कर्तव्य निभाएगा और कौन सा काम करेगा, सारी व्यवस्था परमेश्वर ने की है, और उनके पीछे उसी का नेक इरादा है। पहले, मैं कभी नहीं समझ पाई कि हमेशा मेरा ही तबादला क्यों होता है, मगर इस पर ध्यान से सोचने पर मैंने जाना कि यही मेरी जरूरत थी। इन अनुभवों के बिना, मैं नहीं जान पाती कि इज्ज़त और रुतबे की मेरी चाह कितनी बुरी थी। अभी भी यही सोच रही होती कि मैं थोड़ी बदल गई हूँ, इस बात से अनजान होती कि शैतान के फलसफे मेरे अंदर कितनी गहराई तक जड़ें जमाये थे, इनकी वजह से मैंने सामान्य इंसान की समझ खो दी और परमेश्वर से बहसकर उसका विरोध करने लगी, मैं यह भी नहीं जान पाती कि इस तरह अनुसरण करते रहने से मुझे हटा दिया जाएगा। इन बातों पर विचार कर, मुझे इज्जत और रुतबे के पीछे भागने के अपने भ्रामक नजरिये की थोड़ी समझ आई, मुझे एहसास हुआ यह सही मार्ग नहीं है, यह वही मार्ग है जिससे शैतान लोगों को भ्रष्ट कर नुकसान पहुंचाता है। मैंने यह भी सीखा कि मुझे अपनी काबिलियत को सही ढंग से देखना चाहिए, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार कर समर्पण करना चाहिए, अपनी मुनासिब जगह काम करते जाना और विवेकशील सृजित प्राणी बनना चाहिए। आगे से भले ही मेरी फेरबदल कर दी जाये, चाहे मैं कोई भी काम करूँ, मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर उसका इरादा जानना होगा, उसके बनाये हर हालात को अपनाकर उसका अनुभव करना होगा और खुद को उसमें झोंक देना होगा, उनके जरिये कुछ हासिल करने का प्रयास करना और खुद को जानना होगा।

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