25. दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते पर चिंतन

नोएल, दक्षिण कोरिया

कुछ समय के लिए, मेरे कर्तव्य में कई छोटी-बड़ी समस्याएँ आ रही थीं। कुछ मेरी ज्यादा लापरवाही के, तो कुछ सिद्धांतों को न जानने के कारण थे। मैं थोड़ी परेशान थी, मुझे डर था जिस अगुआ या बहन के साथ मैं काम करती थी वह मुझे कर्तव्य में अनमनी बताकर मेरे साथ काट-छाँट करेगी, पर मेरी सहयोगी बहन ने मेरी समस्याओं को ज्यादा उल्लेख नहीं किया, बस आगे से ज्यादा सावधान रहने को कहा। इससे मुझे हमेशा खुशी होती थी। बाद में, जब मुझे दूसरों के काम में कुछ समस्याएं स्पष्ट नजर आईं, तो लगा वे अपने काम में कुछ ज्यादा ही अनमने हैं, मैं उनके साथ संगति करके उनकी समस्याओं का गहन-विश्लेषण करना चाहती थी ताकि वे अनमने होने की समस्या की प्रकृति और इस तरह काम करने के गंभीर परिणामों को समझ सकें। मगर फिर मैंने सोचा कि लोगों की समस्याएं सीधे बता देने से उनकी गरिमा को ठेस पहुँचेगी। सिर्फ इतना कहकर छोड़ देना काफी होगा जिससे कि उन्हें अपनी समस्याओं का पता चल जाये। फिर, मुझमें भी यही समस्याएँ हैं, तो मुझे बोलने का क्या अधिकार था? अगर मैंने किसी बात के लिए दूसरों की काट-छाँट की और फिर खुद वही काम किया तो क्या होगा? क्या मैं पाखंडी नहीं कहलाऊँगी? मैंने सोचा यही बेहतर होगा कि मैं उन्हें उजागर या उनकी काट-छाँट न करूँ और मुझे बस अच्छी बातें ही कहनी चाहिए। इस तरह अगर आगे जाकर मैंने कोई गलती की, तो लोग बात का बतंगड़ नहीं बनाएंगे। दूसरों को माफ करना, खुद को माफ करना है। इस तरह सोचकर, मेरे दिल में मौजूद न्याय बिल्कुल खत्म हो गया। मैंने अपनी सहयोगी बहन से कहा, “जिनमें समस्याएँ है उनका नाम लेने की कोई जरूरत नहीं है। बस समस्याओं पर चर्चा करना ही काफी होगा।” उसने कोई जवाब नहीं दिया। इससे मुझे थोड़ी बेचैनी हुई। अगर एक-एक कर समस्या नहीं बतायी गई तो क्या लोगों को अपनी समस्या का एहसास हो पाएगा? क्या वे आगे जाकर खुद में बदलाव करेंगे? अगर नहीं किया, तो इसका बुरा असर काम पर पड़ेगा। मैं उलझन में थी। मैं बोलना चाहती थी पर नहीं बोल सकी और इससे लगा कि मैं अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही थी। इसके बाद, मैंने विचार किया कि यह मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों था। मैं दूसरे भाई-बहनों की समस्याओं को उजागर क्यों नहीं कर पा रही थी? मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की, अपनी समस्या को समझने में परमेश्वर से मार्गदर्शन की विनती की।

बाद में, मैंने एक और बहन को अपनी मौजूदा हालत के बारे में बताया, तो उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा। उसे पढ़कर मेरी आँखें खुल गईं, मैं अपनी समस्या को थोड़ा समझ पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “क्या तुम नैतिक आचरण की इस कहावत के समर्थक हो, ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’? अगर कोई इस कहावत का समर्थक हो, तो क्या तुम लोग सोचोगे कि वह महान और सज्जन है? कुछ लोग हैं जो कहेंगे, ‘देखो, वह चीजें थोपता नहीं, वह दूसरों के लिए चीजें मुश्किल नहीं बनाता, न ही उन्हें कठिन स्थितियों में रखता है। क्या वह अद्भुत नहीं है? वह हमेशा अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु रहता है; वह कभी किसी को ऐसा कुछ करने के लिए नहीं कहता, जो वह खुद नहीं करता। वह दूसरों को बहुत ज्यादा स्वतंत्रता देता है, और उन्हें भरपूर गर्मजोशी और स्वीकार्यता का एहसास कराता है। क्या महान व्यक्ति है!’ क्या वाकई यही मामला है? ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ कहावत का निहितार्थ यह है कि तुम्हें दूसरों को सिर्फ वही चीजें देनी या उन्हीं चीजों की आपूर्ति करनी चाहिए, जिन्हें तुम पसंद करते हो और जिनमें तुम आनंद लेते हो। लेकिन भ्रष्ट लोग कौन-सी चीजें पसंद करते और उनमें आनंद लेते हैं? दूषित चीजें, बेतुकी चीजें और फालतू इच्छाएँ। अगर तुम लोगों को ये नकारात्मक चीजें देते और उनकी आपूर्ति करते हो, तो क्या समस्त मानवजाति ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट नहीं हो जाएगी? सकारात्मक चीजें कम से कम होंगी। क्या यह तथ्य नहीं है? यह एक तथ्य है कि मानवजाति गहराई से भ्रष्ट हो चुकी है। भ्रष्ट मनुष्य प्रसिद्धि, लाभ, हैसियत और दैहिक सुख के पीछे भागना पसंद करते हैं; वे मशहूर हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी और अतिमानव बनना चाहते हैं। वे एक आरामदायक जीवन चाहते हैं और कड़ी मेहनत के विरुद्ध हैं; वे चाहते हैं कि सब-कुछ उन्हें सौंप दिया जाए। उनमें से बहुत कम लोग सत्य या सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। अगर लोग दूसरों को अपनी भ्रष्टता और अभिरुचियाँ देते हैं और उनकी आपूर्ति उन्हें करते हैं, तो क्या होगा? वही, जिसकी तुम कल्पना करते हो : मानवजाति ज्यादा से ज्यादा भ्रष्ट होती जाएगी। जो लोग, ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,’ इस विचार के समर्थक हैं, वे चाहते हैं कि लोग दूसरों को अपनी भ्रष्टता, अभिरुचियां और फालतू इच्छाएं दें और उनकी आपूर्ति करें, जिससे दूसरे लोग बुराई, आराम, धन और उन्नति की तलाश करें। क्या यह जीवन का सही मार्ग है? यह स्पष्ट दिखाई देता है कि ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ एक बहुत ही समस्यात्मक कहावत है। इसमें कमियाँ और खामियाँ बिल्कुल स्पष्ट हैं; यह विश्लेषण करने और पहचानने लायक भी नहीं है। जरा-सी जाँच करने पर ही इसकी त्रुटियाँ और हास्यास्पदता स्पष्ट दिखाई दे जाती है। हालाँकि, तुममें से कई ऐसे हैं, जो इस कहावत से आसानी से सहमत और प्रभावित हो जाते हैं और बिना विचारे इसे स्वीकार लेते हैं। दूसरों के साथ बातचीत करते हुए तुम अक्सर इस कहावत का उपयोग खुद को धिक्कारने और दूसरों को प्रोत्साहन देने के लिए करते हो। ऐसा करने से, तुम सोचते हो कि तुम्हारा चरित्र विशेष रूप से श्रेष्ठ है, और तुम्हारा व्यवहार बहुत तर्कसंगत है। लेकिन अनजाने ही इन शब्दों ने उस सिद्धांत को, जिसके अनुसार तुम जीते हो, और मुद्दों पर तुम्हारे रुख को प्रकट कर दिया है। इसी के साथ, तुमने दूसरों को गुमराह कर गलत राह पर डाल दिया है जिससे लोगों और परिस्थितियों के प्रति उनके विचार और रुख भी तुम्हारे जैसे हो गए हैं। तुमने एक असली तटस्थ व्यक्ति की तरह काम किया है और पूरी तरह से बीच का रास्ता अपना लिया है। तुम कहते हो, ‘मामला चाहे जो भी हो, इसे गंभीरता से लेने की कोई जरूरत नहीं। अपने या दूसरों के लिए चीजें कठिन मत बनाओ। अगर तुम दूसरे लोगों के लिए चीजें कठिन बनाते हो, तो तुम उन्हें अपने लिए कठिन बना रहे हो। दूसरों के प्रति दयालु होना खुद के प्रति दयालु होना है। अगर तुम दूसरे लोगों के प्रति कठोर हो, तो तुम अपने प्रति कठोर होते हो। खुद को कठिन स्थिति में क्यों डाला जाए? दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, यह सबसे अच्छी बात है जो तुम अपने लिए कर सकते हो, और सबसे ज्यादा विचारशील भी।’ यह रवैया स्पष्ट रूप से किसी भी चीज में सावधानी न बरतने का है। तुम्हारा किसी भी मुद्दे पर कोई सही रुख या दृष्टिकोण नहीं होता; हर चीज के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण उलझा हुआ होता है। तुम सावधान नहीं रहते और चीजों को नजरंदाज करते हो। जब तुम अंततः परमेश्वर के सामने खड़े होगे और अपना हिसाब दोगे, तो यह एक बड़ी उलझन होगी। ऐसा क्यों है? क्योंकि तुम हमेशा कहते हो कि तुम्हें दूसरों पर वह नहीं थोपना चाहिए जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। यह तुम्हें बहुत सूकून और सुख देता है, लेकिन साथ ही यह तुम्हारे लिए बहुत बड़ी परेशानी का कारण बनेगा, जिससे ऐसा हो जाएगा कि तुम कई मामलों में स्पष्ट दृष्टिकोण या रुख नहीं रख पाओगे। बेशक, यह तुम्हें स्पष्ट रूप से यह समझने में असमर्थ भी बनाता है कि इन परिस्थितियों का सामना करने की हालत में तुम्हारे लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ और मानक क्या हैं, या तुम्हें क्या परिणाम प्राप्त करना चाहिए। ये चीजें इसलिए होती हैं, क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो, उसमें तुम सावधानी नहीं बरतते; वे तुम्हारे उलझे हुए रवैये और सोच के कारण होती हैं। क्या ‘दूसरों पर वह नहीं थोपना जो तुम अपने लिए नहीं चाहते,’ सहिष्णु रवैया है, जो तुम्हारा लोगों और चीजों के प्रति होना चाहिए? नहीं, यह वह रवैया नहीं है। यह सिर्फ एक सिद्धांत है, जो बाहर से सही, महान और दयालु दिखता है, लेकिन वास्तव में यह पूरी तरह से नकारात्मक चीज है। स्पष्ट रूप से, यह वो सत्य सिद्धांत तो बिल्कुल भी नहीं है, जिसका लोगों को पालन करना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10))। परमेश्वर के वचनों ने दूसरों के साथ मेल-जोल को लेकर मेरा रवैया उजागर कर दिया। जब मुझे कर्तव्य के प्रति किसी की सोच में कोई समस्या दिखती, तो मैं उसे स्पष्ट बताना नहीं चाहती थी। देखने से लगता था मैं उदार बन रही हूँ, दूसरों को शर्मिंदा न कर उन्हें अपनी छवि बचाने का मौका दे रही हूँ, पर मेरी एक छिपी हुई मंशा थी। चूँकि मैं भी अअपने कर्तव्य में अक्सर नमनी हो जाती थी, मुझमें भी यही समस्याएँ थीं, इसलिए दूसरों की समस्याएं बताने और बाद में खुद वही गलती करने से डरती थी। क्या इससे मैं पाखंडी नहीं कहलाऊँगी? मेरा मानना था कि दूसरों के साथ कठोर बनना मेरे लिए भी अच्छा नहीं होगा, इससे मेरा रास्ता भी बंद हो जाएगा, तो मैंने दूसरों की समस्याओं पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, उन्हें अनदेखा करना ही बेहतर समझा। मैं अच्छी तरह जानती थी कि अगर वे अपने कर्तव्य में अनमने रहे, तो न सिर्फ उन्हें अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे या उनके पास अच्छे कर्म नहीं होंगे, बल्कि इसका असर कलीसिया के कार्य पर भी पड़ेगा, बड़ी विघ्न-बाधाएं आएँगी। सुपरवाइजर होने के नाते, मुझे जिम्मेदारी उठानी थी, संगति करके दूसरों की समस्याएं बतानी थी, और जरूरत पड़ने पर उन्हें उजागर करके उनका गहन-विश्लेषण और काट-छाँट करना था। मगर अपनी छवि और रुतबा बचाने के चक्कर में, सत्य पर अमल करने की मेरी इच्छा ही खत्म हो गई। देखने से मैं दूसरों का ध्यान रखने वाली लगती थी, पर असल में, खुद को बचाना और दूसरों को मेरी समस्याएं उजागर करने से रोकना चाहती थी। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के बिना, मुझे कभी एहसास भी नहीं होता कि दूसरों की समस्याएं नहीं बताना असल में शैतानी फलसफों के प्रभाव और काबू में होने का नतीजा है। मुझे कभी पता ही नहीं चलता कि मैं इतनी धूर्त हूँ।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों में कुछ पढ़ा : “शाब्दिक अर्थ में, ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ का अर्थ है कि अगर तुम कोई चीज पसंद नहीं करते, या कोई चीज करना पसंद नहीं करते, तो तुम्हें उसे अन्य लोगों पर भी नहीं थोपना चाहिए। यह चतुराई भरा और उचित लगता है, लेकिन अगर तुम हर स्थिति सँभालने के लिए यह शैतानी फलसफा इस्तेमाल करोगे, तो तुम कई गलतियाँ करोगे। इस बात की संभावना है कि तुम लोगों को चोट पहुँचाओगे, गुमराह करोगे, यहाँ तक कि लोगों को नुकसान भी पहुँचा दोगे। वैसे ही, जैसे कुछ माता-पिताओं को पढ़ने का शौक नहीं होता लेकिन वे चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ें, और उनसे मेहनत से पढ़ने का आग्रह करते हुए हमेशा बहस करने की कोशिश करते हैं। अगर यहाँ ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ की अपेक्षा लागू की जाए, तो इन माता-पिताओं को अपने बच्चों को पढ़ने पर मजबूर नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन्हें खुद इसमें आनंद नहीं आता। कुछ लोग हैं जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते; फिर भी वे अपने हृदय में जानते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना ही जीवन का सही मार्ग है। अगर वे देखते हैं कि उनके बच्चे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते और सही रास्ते पर नहीं हैं, तो वे उनसे परमेश्वर पर विश्वास करने का आग्रह करते हैं। भले ही वे खुद सत्य का अनुसरण नहीं करते, फिर भी वे चाहते हैं कि उनके बच्चे सत्य का अनुसरण करें और आशीष पाएँ। इस स्थिति में, अगर उन्होंने ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ की कहावत का पालन किया, तो इन माता-पिताओं को अपने बच्चों से परमेश्वर पर विश्वास करने का आग्रह नहीं करना चाहिए। यह इस शैतानी फलसफे के अनुरूप होगा, लेकिन यह उनके बच्चों का उद्धार का अवसर भी नष्ट कर देगा। इस परिणाम के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या नैतिक आचरण की परंपरागत कहावत ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ लोगों को नुकसान नहीं पहुँचाती? ... क्या इन उदाहरणों ने इस कहावत का पूरी तरह से खंडन नहीं कर दिया? इसमें कुछ भी सही नहीं है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग सत्य से प्रेम नहीं करते; वे दैहिक सुखों के लिए लालायित रहते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते समय ढीले पड़ने के तरीके ढूँढ़ते हैं। वे कष्ट उठाने या कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं हैं। वे सोचते हैं कि ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ कहावत अच्छी तरह से बात को कहती है, और वे लोगों को बताते हैं, ‘तुम लोगों को सीखना चाहिए कि आनंद कैसे लिया जाए। तुम्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने या कठिनाई झेलने या कोई कीमत चुकाने की आवश्यकता नहीं है। अगर तुम ढीले पड़ सकते हो, तो ढीले पड़ जाओ; अगर तुम कोई चीज जैसे-तैसे निपटा सकते हो, तो निपटा दो। अपने लिए चीजें इतनी कठिन मत बनाओ। देखो, मैं इसी तरह जीता हूँ—क्या यह बहुत अच्छा नहीं है? मेरा जीवन एकदम उत्तम है! तुम लोग उस तरह जीकर खुद को थका रहे हो! तुम लोगों को मुझसे सीखना चाहिए।’ क्या यह ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ की अपेक्षा पूरी नहीं करता? अगर तुम इस तरह से कार्य करते हो, तो क्या तुम जमीर और विवेक वाले व्यक्ति हो? (नहीं।) अगर व्यक्ति अपना जमीर और विवेक खो देता है, तो क्या उसमें सद्गुण की कमी नहीं है? इसे ही सद्गुण की कमी कहा जाता है। हम इसे ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि वह आराम की लालसा रखता है, अपना कर्तव्य जैसे-तैसे निपटाता है, और दूसरों को अनमना होने और आराम की लालसा रखने में अपने साथ शामिल होने के लिए उकसाता और प्रभावित करता है। इसमें क्या समस्या है? अपने कर्तव्य में अनमना और गैर-जिम्मेदार होना चालाकी बरतने और परमेश्वर का विरोध करने का कार्य है। अगर तुम अनमने बने रहते हो और पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम उजागर कर बाहर निकाल दिए जाओगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10))। “अगर लोगों के पास सत्य से प्रेम करने वाला दिल होगा, तो उनमें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति होगी, और वे सत्य का अभ्यास करने के लिए कड़ी मेहनत कर सकते हैं। वे उसे त्याग सकते हैं जिसे त्यागना चाहिए, और उसे छोड़ सकते हैं जिसे छोड़ना चाहिए। विशेष रूप से, जो चीजें तुम्हारी प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से संबंधित हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए। अगर तुम उन्हें नहीं छोड़ते, तो इसका मतलब है कि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते और तुममें सत्य का अनुसरण करने की शक्ति नहीं है। जब तुम्हारे साथ घटनाएँ घटें, तो तुम्हें सत्य खोजकर इसका अभ्यास करना चाहिए। अगर, ऐसे समय में, जब तुम्हें सत्य का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है, तुम्हारा हृदय हमेशा स्वार्थी बना रहे और तुम अपना स्वार्थ नहीं छोड़ सकते, तो तुम सत्य पर अमल नहीं कर पाओगे। अगर तुम किसी भी परिस्थिति में सत्य की तलाश या उसका अभ्यास नहीं करते, तो तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो। चाहे तुमने कितने भी वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुम सत्य प्राप्त नहीं करोगे। कुछ लोग हमेशा प्रसिद्धि, लाभ और स्वार्थ के पीछे दौड़ते रहते हैं। कलीसिया उनके लिए जिस भी कार्य की व्यवस्था करे, वे हमेशा यह सोचते हुए उसके बारे में विचार करते हैं, ‘क्या इससे मुझे लाभ होगा? अगर होगा, तो मैं इसे करूँगा; अगर नहीं होगा, तो मैं नहीं करूँगा।’ ऐसा व्यक्ति सत्य का अभ्यास नहीं करता—तो क्या वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है? निश्चित रूप से नहीं निभा सकता। भले ही तुमने कोई बुराई न की हो, फिर भी तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति नहीं हो। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते, और कुछ भी तुम पर आ पड़े, तुम सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत, अपने स्वार्थ और जो तुम्हारे लिए अच्छा है, उसकी परवाह करते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो केवल स्वार्थ से प्रेरित होता है और स्वार्थी और नीच है। ... वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी अगर लोग कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, तो वे छद्म-विश्वासी हैं; वे बुरे लोग हैं। अगर तुम कभी सत्य का अभ्यास नहीं करते, अगर तुम्हारे अपराध बहुत अधिक बढ़ जाते हैं, तो तुम्हारा परिणाम निश्चित है। यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि तुम्हारे सभी अपराध, वह गलत मार्ग जिस पर तुम चलते हो, और पश्चात्ताप करने से तुम्हारा इनकार—ये सभी मिलकर बुरे कर्मों का ढेर बन जाते हैं; और इसलिए तुम्हारा परिणाम यह है कि तुम नरक में जाओगे—तुम्हें दंडित किया जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मेरे हृदय को धक्का-सा लगा। “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” के सांसारिक आचरण के फलसफे के आधार पर मेरे मेल-जोल करने से मैं दूसरों को समझती हूँ और उनके प्रति विचारशील दिखती थी, पर असल में, उनका नुकसान ही कर रही थी। मैं परमेश्वर के वचनों का अभ्यास या उनमें प्रवेश नहीं कर रही थी, उसकी अपेक्षाएं पूरी नहीं कर रही थी। दूसरों को परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और उनमें प्रवेश करने के लिए न कहकर, मैं उनकी समस्याएं बढ़ा रही थी, मानो उन्हें भी मेरी तरह बनकर प्रगति नहीं करनी चाहिए, नकारात्मक होना और दुष्ट बन जाना चाहिए। इस तरह काम करना गैर-जिम्मेदारी है। यह खुशामदी बनना है। यह विवेकहीन और गुणहीन होना है। मेरा बर्ताव ऐसा ही था। मैंने सत्य से प्रेम नहीं किया, बस खुद को सहज स्थिति में रखने की सोचती रही। मैं अपने कर्तव्य को गंभीरता से लेना या विस्तार में जाना नहीं चाहती थी, जिसके कारण मेरे कर्तव्य में सभी तरह की समस्याएं और कमियां थीं। मैंने अपनी गलतियाँ और कमियाँ उजागर करने से डरती थी और उम्मीद करती थी कि अगुआ और मेरी साथी मेरे साथ ज्यादा कठोर न बनें। मैं उन लोगों को उजागर करने की भी अनिच्छुक थी जिनमें मेरे जैसे ही समस्याएँ थीं और मुझे डर था कि अगर मैंने दूसरों से स्पष्ट बात की, तो मुझे एक मिसाल बनना होगा, उनकी निगरानी स्वीकारनी पड़ेगी, और इससे मुझे देह की देखभाल करने के कम मौके मिलेंगे। तो मैं दूसरों का बचाव करके उन्हें भी अपने जैसा बनाना चाहती थी, ताकि हमें दिखने वाली कोई समस्या उजागर न करें, और एक-दूसरे पर नजर न रखें। सत्य हासिल करने से पहले, लोग जीवन में अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार चलते हैं, ढीले पड़ जाते हैं और अपने कर्तव्य में लापरवाही करते हैं। ऐसे में आपसी देखरेख और मार्गदर्शन सबसे जरूरी होता है। यह एक सकारात्मक बात है, इससे कलीसिया के कार्य की रक्षा होती है। सुपरवाइजर होने के नाते, मुझे आगे बढ़कर सत्य का अभ्यास करना चाहिए था, पर न सिर्फ मैं दूसरों के लिए अच्छी मिसाल नहीं बन पाई, बल्कि दूसरों को भी अपनी तरह अनमनी और आगे बढ़ने की कोशिश न करने वाली बना दिया। दरअसल, मैं सत्य से विमुख थी, उसे स्वीकार नहीं करना चाहती थी। मैं अनमना होने और परमेश्वर को धोखा देने में अगुआई कर रही थी। मैं न सिर्फ अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा रही थी, बल्कि भाई-बहनों को भी नुकसान पहुँचा रही थी। मैंने जितना अधिक विचार किया उतना ही लगा कि यह समस्या मेरी सोच से कहीं अधिक गंभीर थी। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए, मैंने कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश पर ध्यान नहीं दिया। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी! मैंने यह भी समझा कि परमेश्वर ऐसे लोगों को छद्म-विश्वासी क्यों कहता है, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के घर में परजीवी बनकर घुस आये हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें बस खुद से प्रेम है—वे कलीसिया के कार्य के बारे में नहीं सोचते। परमेश्वर चाहता है कि हम सभी सत्य का अभ्यास करें, सिद्धांत के अनुसार बातचीत और काम करें। मगर मुझे सत्य से प्रेम नहीं था। मैं चाहती थी सब एक-दूसरे का बचाव करें, कोई सत्य का अभ्यास न करे। मैं परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध काम कर रही थी—यह कुकर्म था! मुझे लगता था जानबूझकर कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा डालना ही कुकर्म है जिससे परमेश्वर नफरत करता है, मगर फिर मैंने जाना कि हर मोड़ पर अपने फायदे देखना, अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर बातचीत और बर्ताव करना, और सत्य पर अमल न करना भी कुकर्म ही था। इसका एहसास होने पर मैंने फौरन पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं सुपरवाइजर हूँ, पर सत्य पर अमल नहीं कर रही। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए, मैंने चाहा कि सभी एक-दूसरे का बचाव करें और अनमने बनें। मुझमें जरा भी विवेक या समझ नहीं है, मैं इस कर्तव्य के लायक नहीं हूँ। परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करके बदलना चाहती हूँ।” प्रार्थना के बाद, मैंने हाल ही में सबके कर्तव्य में आई समस्याओं की सूची बनाई। सभी समस्याओं का ब्यौरा देखकर मैं चौंक गई। कुछ लोग अपने कर्तव्यों में गैर-जिम्मेदार और अनमने थे, जिसका अर्थ था कि कुछ काम दोबारा करना जरूरी था। एक-के-बाद-एक समस्याएं देखकर मैं बहुत परेशान हो गई। मुझे कोई अंदाजा नहीं था कि सबके काम में इतनी सारी समस्याएं होंगी। फिर भी अपना और दूसरों का मन रखने के लिए यह भी सोचा कि इन्हें अनदेखा करना ही सही होगा। मुझे परमेश्वर के इरादे का कोई ख्याल नहीं था। अगर इसी तरह चलता रहता, तो मेरे कारण काम में बहुत देरी हो जाएगी।

एक शाम मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे अपने व्यवहार को समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, वे पहले अपना हित देखते हैं, वे तभी कार्य करते हैं जब वे हर चीज पर अच्छी तरह सोच-विचार कर लेते हैं; वे बिना समझौते के, सच्चाई से, ईमानदारी से और पूरी तरह से सत्य के प्रति समर्पित नहीं होते, बल्कि वे चुन-चुन कर अपनी शर्तों पर ऐसा करते हैं। यह कौन-सी शर्त होती है? शर्त है कि उनका रुतबा और प्रतिष्ठा सुरक्षित रहे, उन्हें कोई नुकसान न हो। यह शर्त पूरी होने के बाद ही वे तय करते हैं कि क्या करना है। यानी मसीह-विरोधी इस बात पर गंभीरता से विचार करते हैं कि सत्य सिद्धांतों, परमेश्वर के आदेशों और परमेश्वर के घर के कार्य से किस ढंग से पेश आया जाए या उनके सामने जो चीजें आती हैं, उनसे कैसे निपटा जाए। वे इन बातों पर विचार नहीं करते कि परमेश्वर के इरादों को कैसे संतुष्ट किया जाए, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने से कैसे बचा जाए, परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए या भाई-बहनों को कैसे लाभ पहुँचाया जाए; वे लोग इन बातों पर विचार नहीं करते। मसीह-विरोधी किस बात पर विचार करते हैं? वे सोचते हैं कि कहीं उनके अपने रुतबे और प्रतिष्ठा पर तो आँच नहीं आएगी, कहीं उनकी प्रतिष्ठा तो कम नहीं हो जाएगी। अगर सत्य सिद्धांतों के अनुसार कुछ करने से कलीसिया के काम और भाई-बहनों को लाभ पहुँचता है, लेकिन इससे उनकी अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान होता है और लोगों को उनके वास्तविक कद का एहसास हो जाता है और पता चल जाता है कि उनका प्रकृति सार कैसा है, तो वे निश्चित रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। यदि कुछ वास्तविक काम करने से और ज्यादा लोग उनके बारे में अच्छी राय बना लेते हैं, उनका सम्मान और प्रशंसा करते हैं, उन्हें और ज्यादा प्रतिष्ठा प्राप्त करने देते हैं, या उनकी बातों में अधिकार आ जाता है जिससे और अधिक लोग उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं, तो फिर वे काम को उस प्रकार करना चाहेंगे; अन्यथा, वे परमेश्वर के घर या भाई-बहनों के हितों पर ध्यान देने के लिए अपने हितों की अवहेलना करने का चुनाव कभी नहीं करेंगे। यह मसीह-विरोधी का प्रकृति सार है। क्या यह स्वार्थ और घिनौना नहीं है? किसी भी स्थिति में मसीह-विरोधी अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को सर्वोच्च महत्व देते हैं। उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। चाहे जो भी तरीका जरूरी हो, अगर यह काम लोगों को जीतता है और दूसरों से उनकी पूजा करवाता है, तो मसीह-विरोधी इसे करेंगे। ... संक्षेप में कहूँ तो मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसके पीछे उनका लक्ष्य और उद्देश्य सिर्फ रुतबे और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द ही घूमता है। यह चाहे उनके बात करने, काम करने, व्यवहार करने का बाहरी तरीका हो या फिर उनकी सोच, दृष्टिकोण या अनुसरण का तरीका हो, ये सभी चीजें उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे के इर्द-गिर्द घूमती हैं। मसीह-विरोधी इसी तरह से काम करते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। मसीह-विरोधी सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए काम करते हैं। कलीसिया के कार्य की रक्षा कैसे की जाए या भाई-बहनों को किससे फायदा होता है, वे इस बारे में कभी नहीं सोचते। वे अपने हितों को खतरे में डालने के बजाय कलीसिया के कार्य का नुकसान होने देंगे। उन्हें प्रतिष्ठा और रुतबे की बहुत अधिक चिंता रहती है। अपने चिंतन में, मैंने देखा कि मेरा बर्ताव एक मसीह-विरोधी जैसा ही था। समस्या का सामना होने पर मैं हमेशा अपने हितों, अपनी छवि और रुतबे को सबसे ऊपर रखती थी। जब मैंने देखा कि कुछ लोग अपने कर्तव्यों में काफी अनमने हैं, तो यह जानती थी कि इस बारे में बताकर उनकी काट-छाँट और उनके साथ संगति करनी चाहिए ताकि वे अपनी समस्याओं को देखकर अपने भ्रष्ट स्वभावों को पहचान सकें। मगर मैंने किसी को नाराज न करने और खुद को बचाने के चक्कर में, सत्य पर अमल नहीं किया। मैं सत्य के अनुरूप एक शब्द भी नहीं बोल पा रही थी। इसके बजाय, मैं अपना बचाव करने के बारे में सोचती रही। मैं बहुत धूर्त और धोखेबाज थी, एक खुशामदी इंसान थी जो बीच का रास्ता चुनना चाहती थी। अपने हितों की रक्षा करते हुए, मैं बस शोहरत और रुतबे के पीछे भागती रही, लोगों को उनके भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर और कलीसिया के कार्य के बारे में नहीं सोचा। मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। इसी तरह चलती रहती, तो परमेश्वर मुझे प्रकट करके जरूर हटा देता। इससे मुझे एहसास हुआ कि यह समस्या कितनी गंभीर थी। मैंने परमेश्वर से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की, ताकि शोहरत और रुतबे का मोह त्याग सकूं, कलीसिया के कार्य को कायम रखकर अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर सकूं।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “परमेश्वर यह अपेक्षा नहीं करता कि लोग दूसरों पर वह नहीं थोपें जो वे अपने लिए नहीं चाहते, इसके बजाय वह लोगों से उन सिद्धांतों पर स्पष्ट होने के लिए कहता है, जिनका पालन उन्हें विभिन्न स्थितियाँ सँभालते समय करना चाहिए। अगर यह सही है और परमेश्वर के वचनों के सत्य के अनुरूप है, तो तुम्हें इस पर दृढ़ रहना चाहिए। और न केवल तुम्हें इस पर दृढ़ रहना चाहिए, बल्कि तुम्हें दूसरों को सावधान करना, मनाना और उनके साथ संगति करनी चाहिए, ताकि वे समझ सकें कि परमेश्वर के इरादे असल में क्या हैं और सत्य सिद्धांत क्या हैं। यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। परमेश्वर तुमसे बीच का रास्ता अपनाने के लिए नहीं कहता, और यह दिखाने के लिए तो बिल्कुल नहीं कहता कि तुम्हारा दिल कितना बड़ा है। तुम्हें उन बातों पर दृढ़ रहना चाहिए, जिनके बारे में परमेश्वर ने तुम्हें चेताया है और जो तुम्हें सिखाई हैं, और जिनके बारे में परमेश्वर अपने वचनों में बात करता है : अपेक्षाएँ, कसौटी और सत्य सिद्धांत जिनका लोगों को पालन करना चाहिए। न केवल तुम्हें उनसे चिपके रहना चाहिए, और उन पर हमेशा के लिए कायम रहना चाहिए, बल्कि तुम्हें एक मिसाल बनकर इन सत्य सिद्धांतों पर अमल भी करना चाहिए; साथ ही साथ, तुम्हें अपनी ही तरह दूसरों को इनसे चिपके रहने, इनका पालन करने और अभ्यास करने के लिए समझाना, उनकी निगरानी करना, उनकी मदद करना और उनका मार्गदर्शन करना चाहिए। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि तुम ऐसा करो—वह यही काम तुम्हें सौंपता है। तुम केवल दूसरों को अनदेखा करके खुद से अपेक्षाएं नहीं रख सकते। परमेश्वर अपेक्षा करता है कि तुम मुद्दों पर सही रुख अपनाओ, सही कसौटी से चिपके रहो, और ठीक-ठीक जान लो कि परमेश्वर के वचनों में क्या कसौटी है, और ठीक-ठीक समझ लो कि सत्य सिद्धांत क्या हैं। अगर तुम इसे पूरा न भी कर पाओ, अगर तुम अनिच्छुक भी हो, अगर तुम्हें यह पसंद न हो, अगर तुम्हारी धारणाएँ हों, या अगर तुम इसका विरोध करते हो, तो भी तुम्हें इसे अपनी जिम्मेदारी, अपना दायित्व मानना चाहिए। तुम्हें लोगों के साथ उन सकारात्मक चीजों पर संगति करनी चाहिए जो परमेश्वर से आती हैं, उन चीजों पर जो सही और सटीक हैं, और उनका उपयोग दूसरों की मदद करने, उन्हें प्रभावित करने और उनका मार्गदर्शन करने के लिए करो, ताकि लोग उनसे लाभान्वित और शिक्षित हो सकें, और जीवन में सही मार्ग पर चल सकें। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है, और तुम्हें हठपूर्वक ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ के विचार से नहीं चिपकना चाहिए, जिसे शैतान ने तुम्हारे दिमाग में डाल दिया है। परमेश्वर की दृष्टि में, यह कहावत सिर्फ सांसारिक आचरण का एक फलसफा है; यह एक ऐसी सोच है जिसमें शैतान की चाल निहित है; यह सही मार्ग तो बिल्कुल नहीं है, न ही यह कोई सकारात्मक चीज है। परमेश्वर तुमसे केवल इतना चाहता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनो, जो स्पष्ट रूप से समझता हो कि उसे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। वह तुमसे चापलूस या तटस्थ बनने के लिए नहीं कहता; उसने तुम्हें बीच का रास्ता अपनाने के लिए नहीं कहा है। जब कोई मामला सत्य सिद्धांतों से संबंधित हो, तो तुम्हें वह कहना चाहिए जो कहने की आवश्यकता है, और वह समझना चाहिए जो समझने की आवश्यकता है। अगर कोई व्यक्ति कोई चीज नहीं समझता लेकिन तुम समझते हो, और तुम संकेत देकर उसकी मदद कर सकते हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से यह जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना चाहिए। तुम्हें एक किनारे खड़े होकर देखना भर नहीं चाहिए, और तुम्हें उन फलसफों से तो बिल्कुल भी नहीं चिपकना चाहिए जो शैतान ने तुम्हारे दिमाग में बैठा दिए हैं, जैसे कि दूसरों पर वह नहीं थोपना जो तुम अपने लिए नहीं चाहते। ... नैतिक आचरण के बारे में यह कहावत ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ वास्तव में लोगों के मन पर काबू पाने की शैतान की कुटिल योजना है। अगर तुम हमेशा इसे कायम रखते हो, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो शैतानी फलसफों के अनुसार जीता है; ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से शैतानी स्वभाव में रहता है। अगर तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं करते, तो तुम सत्य से प्रेम या उसका अनुसरण नहीं करते। चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें जिस सिद्धांत का पालन करना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है जितना हो सके लोगों की मदद करना। तुम्हें वैसा अभ्यास नहीं करना चाहिए जैसा शैतान कहता है, यानी ‘दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते’ और एक ‘चतुर’ खुशामदी इंसान बनना। जितना हो सके लोगों की मदद करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करना। जैसे ही तुम देखो कि कोई चीज तुम्हारी जिम्मेदारियों और दायित्वों का हिस्सा है, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य पर संगति करनी चाहिए। अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने का यही अर्थ है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (10))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” एक ऐसी चाल है जिसे शैतान लोगों को भ्रष्ट कर उनके विचारों पर काबू करने के लिए इस्तेमाल करता है। जब वे शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, तो उनके मेलजोल में सत्य के अभ्यास का कोई माहौल नहीं रह जाता और बे एक-दूसरे के प्रति सहनशील बनकर एक दूसरे को बचाते हैं। अगर सभी अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जियेंगे, तो शैतान हम पर काबू पा लेगा और बुराई ताकतवर हो जाएगी। आखिर में, पवित्र आत्मा हमें त्याग देगा। हालांकि मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने, उन पर अमल करने या उसकी अपेक्षाएं पूरी करने में नाकाम रही थी, मुझे अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करके अपने प्रबोधन और परमेश्वर के वचनों की समझ पर सबके साथ संगति करनी थी। लोगों को अपने कर्तव्य में सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध जाते देखकर, मुझे उदार और सहनशील रवैया रखने के बजाय, सिद्धांत के अनुसार संगति करके और उनकी समस्याएँ बताकर दूसरों की मदद करनी थी। ऐसा करके ही मैं कलीसिया के कार्य को कायम रखकर अपनी ज़िम्मेदारी निभा सकती थी। मुझे सत्य पर अमल करने की मिसाल भी कायम करनी थी। यह सच था कि मेरे कर्तव्य में समस्याएं थीं, पर मैं ढीली बनकर दिखावा नहीं कर सकती थी, वास्तविकता से भाग नहीं सकती थी। अगर भागी, तो कभी प्रगति नहीं कर पाऊँगी। मुझे आगे बढ़कर अपनी समस्याओं को कबूल कर, दूसरों की निगरानी स्वीकारनी चाहिए, और अपने कर्तव्य को गंभीरता से लेना चाहिए। मुझे यह भी एहसास हुआ कि यह विचार कि दूसरों की आलोचना करने के लिए खुद में कोई गलतियाँ या समस्याएं नहीं होनी चाहिए, सत्य के अनुरूप बिल्कुल नहीं है। मैं भी एक बेहद शैतानी स्वभाव वाली भ्रष्ट इंसान हूँ। मैं अपने कर्तव्य में अक्सर सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध चली जाती हूँ, इसलिए मुझे परमेश्वर के न्याय और काट-छाँट का सामना करने की आवश्यकता है। मुझे भाई-बहनों की निगरानी की जरूरत भी है। मुझे अपने प्रति सही नजरिया रखना होगी ताकि अगर और समस्याएं स्पष्ट होती हैं, तो मुझे उनसे भागने या खुद को छिपाने के बजाय उनका सामना करना होगा। इससे एहसास से मुझे प्रबुद्धता मिली और अभ्यास का मार्ग मिला।

एक सभा में, मैंने पहले अपने कर्तव्य में आई हाल की समस्याओं पर चर्चा की, अपने अनमनेपन को उजागर कर उसका गहन-विश्लेषण किया और सभी से मुझ पर नजर रखने को कहा। मैंने उनसे यह भी कहा कि वे इसे एक चेतावनी समझें। आखिर में, मैंने ऐसे दो भाई-बहनों के नाम भी लिए जो खास तौर पर अनमने थे और बदलाव लाने में नाकाम रहने के नतीजों पर संगति की। ऐसा करके मुझे बहुत शांति मिली। मुझे बहुत खुशी हुई जब एक भाई, जिसकी मैंने काट-छाँट की थी, इस तरह नाम लिए जाने पर अपनी समस्या को पहचान पाया, और एक संदेश भेजकर कहा, “अगर मुझे इस तरह उजागर करके काट-छाँट नहीं की जाती, तो मुझे अपनी समस्या का कभी पता नहीं चलता। इस तरह मेरी मदद करने के लिए आपका धन्यवाद। अब मैं वाकई चिंतन कर सत्य में प्रवेश करना चाहता हूँ।” यह संदेश पढ़कर मैं प्रेरित हो गई। मुझे काट-छाँट और उजागर किये जाने से नफरत थी, तो मैं दूसरों के साथ भी ऐसा कम ही करना चाहती थी, पर असल में, इससे उन्हें कोई फायदा नहीं होता था। मुझे बहुत गहराई से पछतावा हुआ कि अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए, मैंने हमेशा दूसरों को खुश रखा, उनके काम की समस्याओं को सहा, और अपने कर्तव्य या जिम्मेदारियां पूरी न कीं। मैं परमेश्वर और भाई-बहनों की बहुत ऋणी थी। मुझे यह भी समझ आया कि परमेश्वर के वचन ही वे सिद्धांत हैं जिनके अनुसार हमें काम और आचरण करना चाहिए। बातों को घुमाए बिना लोगों को उनकी समस्याएं बताने से उन्हें मदद मिलती है—इससे हमें भी फायदा होता है। मगर “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” वास्तव में एक शैतानी भ्रांति है जिससे लोगों का और हमारा नुकसान होता है। मैंने यह भी देखा कि अपने कर्तव्य में समस्याएं आने पर काट-छाँट से डरते रहने और दूसरों की समस्याओं को उजागर करने और उनकी काट-छाँट करने का इच्छुक न होने का मतलब था कि मैं काट-छाँट का महत्व नहीं समझती थी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “लोगों का पर्यवेक्षण करना, प्रेक्षण करना, और उन्हें समझने की कोशिश करना—यह सब उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते में प्रवेश करने में मदद करने के लिए है, ताकि वे परमेश्वर के कहे के मुताबिक और सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य कर सकें, ताकि उन्हें किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न करने से रोका जा सके, ताकि उन्हें व्यर्थ का कार्य करने से रोका जा सके। ऐसा करने का उद्देश्य पूरी तरह से उनके प्रति और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति उत्तरदायित्व दिखाने के लिए है; इसमें कोई दुर्भावना नहीं है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। यह सच है। हम सबका स्वभाव भ्रष्ट है, हम सभी अपने कर्तव्य में अनमने और धूर्त हो सकते हैं। अगर हमारे काम की देखरेख और छानबीन करने वाला कोई न हो, या कोई हमारी समस्याओं पर सलाह न दे, हमारी काट-छाँट करके हमारे साथ संगति न करे, तो हम कभी अच्छा काम नहीं कर पाएंगे। हम अपने देह की खुशामदी करेंगे और आराम खोजेंगे, ना चाहते हुए भी कलीसिया के कार्य में बाधा खड़ी कर देंगे। जब अगुआ काम की देखरेख करते या काट-छाँट करते हैं, तो वे अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं, यह कलीसिया के कार्य को कायम रखना है। यह हमारे जीवन में प्रवेश के लिए अच्छा है, इससे हमारे लिए मुश्किलें खड़ी नहीं होंगी। मगर मैं “दूसरों पर वह मत थोपो जो तुम अपने लिए नहीं चाहते” की शैतानी फलसफे पर चलने वाली सुपरवाइजर थी। दूसरों के कामों में समस्या दिखने पर भी मैं उनके प्रति उदार बनी रही। मैंने संगति करके किसी की मदद या काट-छाँट नहीं की, बल्कि छूट देकर उनका बचाव किया। यह गैर-जिम्मेदारी थी, कलीसिया और भाई-बहनों के लिए नुकसानदेह थी। इस अनुभव से मेरी यह गलत सोच बदल गई, मैंने निगरानी, आलोचना, काट-छाँट और उजागर करने की अहमियत को भी जाना।

मैं भी इस अनुभव से बहुत प्रभावित हुई। मैंने देखा कि जब हम शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं, तो हमारे सभी विचार विकृत होते हैं। हम सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच अंतर नहीं कर पाते, और यह नहीं जान पाते कि सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप क्या है और क्या नहीं। शैतानी फलसफों के अनुसार चलकर कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा डालना आसान है। चीजों को परखकर परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना ही उसके इरादे के अनुरूप है। मुझे सत्य पर अमले करने का फल और आगे से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार काम करने का आत्मविश्वास भी मिला। परमेश्वर का धन्यवाद!

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