26. कोविड होने के बाद के विचार

मोनिक, यूएसए

सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का सुसमाचार स्वीकारने के तुरंत बाद मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि जब परमेश्वर अपना अंत के दिनों का कार्य पूरा कर रहा होगा तो अच्छे लोगों को पुरस्कृत करने और बुरे लोगों को दंडित करने के लिए मानवजाति पर बड़ी आपदाएँ आएँगी। जिन लोगों ने बुरा काम किया और परमेश्वर का विरोध किया वे आपदाओं में नष्ट हो जाएँगे, जबकि जो लोग परमेश्वर के वचनों का न्याय स्वीकार कर शुद्ध हो गए, परमेश्वर उनकी रक्षा करेगा और वे बच जाएँगे। वे अनंत आशीषों का आनंद लेने के लिए उसके द्वारा अपने राज्य में लाए जाएँगे। मैं उस समय सोचती थी कि राज्य में प्रवेश करना और अनंत जीवन पाना महान आशीष होगा। मुझे पता था कि मुझे जीवन में एक बार मिलने वाले इस अवसर को संजोना है, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है और परमेश्वर के लिए कड़ी मेहनत करनी है ताकि जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो तो मैं बने रहने के योग्य हो जाऊँ। इसलिए मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी और सुसमाचार प्रचार का अपना कर्तव्य करने लगी। इस महत्वपूर्ण समय में जब आपदाएँ लगातार बढ़ रही हैं, मुझे और अधिक अच्छे कर्म करने थे और परमेश्वर का अंत के दिनों का सुसमाचार और भी अधिक लोगों के साथ साझा करना था। इस तरह मैं राज्य का सुसमाचार फैलाने में योगदान दे सकती थी। इसलिए मैंने अपनी सारी ऊर्जा सुसमाचार साझा करने में लगा दी और हर दिन सुबह से शाम तक व्यस्त रहने लगी। मेरे जिले में अधिक से अधिक लोग परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार रहे थे और एक के बाद एक कलीसिया स्थापित किए जा रहे थे। यह नतीजे देखकर मैं अपने आप से बहुत खुश थी। मुझे लगा कि सुसमाचार के काम में मेरा योगदान अनदेखा नहीं किया जा सकता। जब महामारी फैली और दुनिया भर में संक्रमण की संख्या बढ़ रही थी तो मैं पूरी तरह से शांत थी। मैंने सोचा कि चूँकि मैंने अपने कर्तव्य में खुद को परमेश्वर के लिए खपाया है, इसलिए महामारी मुझे प्रभावित नहीं करेगी, चाहे यह कितनी भी व्यापक क्यों न हो। लेकिन अचानक वायरस से संक्रमित होने के कारण मुझे वर्षों से अपने कर्तव्य के प्रदर्शन के पीछे निहित उद्देश्यों और अशुद्धियों पर आत्म-चिंतन करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

मई 2021 में एक दिन मुझे अचानक खाँसी आने लगी, फिर मुझे बुखार हो गया और पूरे शरीर में कमजोरी महसूस होने लगी। पहले तो मुझे लगा कि मुझे सर्दी लग गई है और मुझे वाकई फिक्र नहीं हुई, लेकिन लक्षण एक सप्ताह तक बने रहे और ठीक नहीं हुए। एक बहन ने देखा कि मेरे लक्षण वाकई कोविड से मिलते-जुलते हैं और उसे चिंता हुई कि मुझे कोराना हो गया है, इसलिए उसने मुझे चेक-अप के लिए अस्पताल जाने की सलाह दी। मैंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और सोचा, “मैंने अपने कर्तव्य के लिए दिन-रात काम किया है, कष्ट सहे हैं और त्याग किए हैं और मैंने बहुत अच्छा काम किया है। साथ ही मैंने कोई बुराई नहीं की है और कलीसिया के काम में बाधा नहीं डाली है। तो मैं संक्रमित कैसे हो सकती हूँ?” लेकिन टेस्ट पॉजिटिव आया, जिसकी मुझे जरा भी उम्मीद नहीं थी। मैं स्तब्ध होकर पैदल घर जा रही थी, कुछ समझ नहीं पा रही थी। मैंने सोचा, “मैं सालों से अपने कर्तव्य निभा रही हूँ तो मुझे कोविड कैसे हो सकता है? अगर भाई-बहनों को पता चल गया तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? कहीं वे यह तो नहीं मान लेंगे कि मुझे परमेश्वर को नाराज करने वाला कोई कार्य करने के लिए दंडित किया जा रहा है? लेकिन मैंने कोई बुरा काम नहीं किया है और कलीसिया के काम में गड़बड़ी नहीं की है।” पिछले साल जब महामारी फैली थी, तब से दुनिया भर में लाखों लोग मर चुके हैं, तो क्या अब जब मैं संक्रमित हो गई हूँ तो मैं भी मरने वाली हूँ? क्या पिछले कुछ सालों का मेरा त्याग और खपना व्यर्थ नहीं हो जाएगा अगर मैं उस समय मर गई जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला है? इससे मुझे भविष्य के राज्य के आशीष में कोई हिस्सा नहीं मिलेगा। सोच-सोचकर मेरी हालत खराब हो रही थी। मैं इस स्थिति से कैसे बाहर निकल पाऊँगी? मैंने प्रार्थना की, परमेश्वर को पुकारा, “परमेश्वर, तुमने अपने अच्छे इरादे से मुझे यह बीमारी होने दी है। तुम कभी गलत नहीं करते तो क्या ऐसा है कि मैंने किसी तरह से तुम्हारे खिलाफ विद्रोह किया है और तुम्हारा विरोध किया है? यह कोई संयोग नहीं है कि मैं संक्रमित हो गई हूँ और यह सब तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्था के अंतर्गत आता है, इसलिए मैं तुम्हारा इरादा जानना चाहती हूँ और आत्म-चिंतन करना चाहती हूँ। लेकिन मैं नहीं जानती कि मैंने तुम्हारे स्वभाव को कैसे नाराज किया है। मुझे प्रबोधन और मार्गदर्शन दो कि मैं कहाँ गलत हो गई। मैं पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ।” इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा : “अगर बीमारी आ जाए तो तुम्हें इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के इरादे जानने और टटोलने चाहिए; तुम्हें अपनी जाँच करनी चाहिए कि तुमने ऐसा क्या कर दिया जो सत्य के विरुद्ध है, और तुम्हारी कौन-सी भ्रष्टता दूर नहीं हुई है। कष्ट भोगे बिना तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं हो सकता है। कष्टों की आँच से तपकर ही लोग स्वच्छंद नहीं बनेंगे और हर घड़ी परमेश्वर के समक्ष रह सकेंगे। जब कोई कष्ट भोगता है तो वह हमेशा प्रार्थना में लगा रहता है। तब उसे खान-पान, कपड़े-लत्तों और दूसरी सुख-सुविधाओं की सुध नहीं रहती; वह मन ही मन प्रार्थना करता रहता है, हमेशा आत्म-परीक्षण करता है कि कहीं वह कुछ गलत तो नहीं कर बैठा या कहीं सत्य के विरुद्ध तो नहीं चला गया। आम तौर पर जब तुम किसी गंभीर या अजीब बीमारी का सामना करते हो और बेहद पीड़ा झेलते हो तो ऐसा संयोगवश नहीं होता। चाहे तुम बीमार हो या खूब तंदुरुस्त हो, इसके पीछे परमेश्वर का इरादा होता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों से समय पर मिले प्रबोधन ने मुझे दिखाया कि मेरा संक्रमण आकस्मिक नहीं था और यह पूरी तरह से परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के कारण था। मुझे परमेश्वर का इरादा खोजना था और ठीक से आत्म-चिंतन करना था। चाहे जो भी हो, मैं परमेश्वर से शिकायत नहीं कर सकती थी और उस पर दोष नहीं मढ़ सकती थी। अगले कुछ दिनों तक घर पर क्वारंटीन में रहने के दौरान अपनी किसी भी भ्रष्टता के बेनकाब होने पर मैंने भाई-बहनों से खुलकर बात की। मैंने अपनी भ्रष्टताओं का गहन-विश्लेषण किया और खुद को जाना और परमेश्वर के वचनों में अभ्यास और प्रवेश का मार्ग खोजा। साथ ही चाहे मैं शारीरिक रूप से कैसा भी महसूस कर रही थी, मैंने सुसमाचार का ऑनलाइन प्रचार करके अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा। कुछ दिनों बाद मैं ठीक होने लगी। अब मुझे खाँसी नहीं आ रही थी, मेरा बुखार ठीक हो गया था और मेरी ऊर्जा और ताकत भी वापस आ गई थी। मुझे वाकई बहुत खुशी हुई और मुझे लगा कि परमेश्वर ने मेरी आज्ञाकारिता और पश्चात्ताप देखकर मेरी देखभाल और रक्षा की है। यह सोचकर मेरी चिंता कम हो गई।

लेकिन अगले ही दिन अचानक मुझे सीने में जकड़न और बेचैनी महसूस हुई और खाँसी रुक ही नहीं रही थी। फिर मुझे बुखार हो गया और बहुत कमजोरी आ गई। मुझमें बेहद घबराहट होने लगी। जब से मेरे रोग का निदान हुआ था, मैंने परमेश्वर पर दोष नहीं मढ़ा था और लगातार अपना कर्तव्य निभा रही थी। मेरी बीमारी बढ़ कैसे सकती थी? कोविड के इलाज की कोई दवा नहीं थी, इसलिए अगर परमेश्वर ने मुझे नहीं बचाया तो मेरा मरना तय था। मरने का ख्याल वाकई डरावना था—मैं मौत के आगे हार नहीं मान सकती थी। मैंने सोचा कि कैसे मैंने 10 साल से भी ज्यादा समय से परमेश्वर का अनुसरण किया है, अपना घर और नौकरी छोड़कर दिन-रात अपना कर्तव्य निभाया है। मैंने बहुत कुछ सहा है और काफी कीमत चुकाई है। क्या परमेश्वर को यह सब याद नहीं होगा? अगर मैं मर गई तो मैं कभी भी राज्य की खूबसूरती नहीं देख पाऊँगी या स्वर्ग के राज्य के आशीष का आनंद नहीं ले पाऊँगी। जितना मैंने इसके बारे में सोचा, मैं उतनी ही नकारात्मक होती गई। मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभा रही थी, लेकिन मेरे अंदर कोई आंतरिक प्रेरणा नहीं थी और जब अतिरिक्त काम आता था तो मैं वाकई परेशान हो जाती थी। मैं बस जल्दी-जल्दी काम निपटाती थी ताकि मुझे थोड़ा आराम मिल सके। पहले मैं सुबह से रात तक अपने कर्तव्य पर काम करती थी और सोचती थी कि परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा, लेकिन अब जब परमेश्वर ऐसा नहीं कर रहा था तो मुझे अपनी सेहत के बारे में सोचना था और अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना था। बहुत अधिक तनाव और थकान से मुझे ठीक होने में मदद नहीं मिलेगी। सभाओं में जब दूसरे भाई-बहन बोलते थे तो उनमें बहुत जोश होता था। लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, जब भी मैं बोलती थी तो मुझे खाँसी आने लगती थी और परमेश्वर के वचनों की कुछ पंक्तियाँ पढ़ने के बाद मैं हाँफने लगती थी। मैं सचमुच बहुत परेशान थी और मन ही मन तर्क-वितर्क करती, “मैं आमतौर पर अपने कर्तव्य में बहुत मेहनती हूँ, मैं गंभीर और जिम्मेदार हूँ। कुछ लोग तो अपने कर्तव्यों में मेरे आगे कहीं नहीं ठहरते। बाकी सभी स्वस्थ हैं और अपना कर्तव्य निभा रहे हैं तो मुझे ही इस वायरस ने क्यों पकड़ा? अगर यह परमेश्वर की ओर से एक परीक्षण है तो फिर ऐसा ही कलीसिया में अन्य लोगों के साथ क्यों नहीं हुआ जो मुझसे भी अधिक सत्य का अनुसरण करते हैं? और अगर यह परमेश्वर की ओर से सजा है फिर ऐसा क्यों है जबकि मैंने कोई बुराई नहीं की है या कलीसिया के काम में बाधा नहीं डाली है या उसके स्वभाव को नाराज नहीं किया है? हे परमेश्वर, मैं अभी भी अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ। मुझे यह पसंद है और मैं इससे तृप्त नहीं हुई हूँ। मैं जीना चाहती हूँ और अपने कर्तव्य में अच्छा काम करना चाहती हूँ। हे परमेश्वर, मैं अब एक महत्वपूर्ण कर्तव्य निभा रही हूँ और मैं अभी भी तुम्हारे लिए काम कर सकती हूँ। मेरी रक्षा करो ताकि मैं तुम्हारे लिए जीना और काम करना जारी रख सकूँ...।” जब मैंने इस तरह से इसके बारे में सोचा तो परमेश्वर के वचनों का एक अंश बहुत स्पष्ट रूप से मेरे दिमाग में आया : “तुम—सृजित प्राणी—किस आधार पर परमेश्वर से माँग करते हो? लोग परमेश्वर से माँगें करने के योग्य नहीं हैं। परमेश्वर से माँगें करने से ज्यादा अनुचित कुछ नहीं है। वह वही करेगा जो उसे करना ही चाहिए, और उसका स्‍वभाव धार्मिक है। धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्‍हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्‍हें तुम्‍हारे हक का हिस्‍सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्‍हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्‍हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्‍म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्‍यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्‍ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। वास्तव में, लोग भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्‍ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्‍या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्‍ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; परमेश्वर चाहे जैसे भी उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्‍हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्‍ट कर दिया होता, तब भी क्‍या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। ... वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग परमेश्वर की धार्मिकता को समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्‍य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक विवेकहीन साबित हो रहे हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे लगा कि वह मुझे आमने-सामने हिसाब देने के लिए बुला रहा है। क्या मैंने अभी-अभी परमेश्वर को अनुचित और धार्मिक न होने के लिए दोषी नहीं ठहराया था? और क्या यह परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने, खुद को सही ठहराने और मोल-भाव करने का मामला नहीं था? मुझे लगा कि मैंने वर्षों तक कष्ट सहने और अपने कर्तव्य में कीमत चुकाने के दौरान कुछ चीजें हासिल की हैं, इसलिए परमेश्वर को मुझे आपदा से बचाना चाहिए। यही उसकी धार्मिकता होगी। लेकिन वाकई यह सब मेरी धारणाएँ और कल्पनाएँ थीं और सत्य के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं थीं। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और मैं एक सृजित प्राणी हूँ। मैं जो कुछ भी आनंद लेती हूँ वह परमेश्वर से आता है और मुझे जीवन भी परमेश्वर ने दिया है। परमेश्वर मेरे भाग्य की व्यवस्था कैसे करता है और मुझे कितने समय तक जीने देता है यह सब उस पर निर्भर करता है। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे समर्पित होकर इसे स्वीकारना चाहिए। मैं परमेश्वर से बहस करने और शर्तें तय करने की कोशिश करने वाली कौन होती हूँ? मैंने इतने वर्षों तक आस्था रखी थी और परमेश्वर से सत्य के सिंचन और पोषण का भरपूर आनंद लिया था, लेकिन फिर भी मेरे मन में कोई कृतज्ञता नहीं थी। अब जबकि मैं वायरस से संक्रमित हो गई थी और मौत का खतरा था, मैं परमेश्वर के साथ अपने मामले पर बहस कर रही थी, उसका प्रतिरोध कर रही थी और उस पर धार्मिक न होने का दोष मढ़ रही थी। मेरी अंतरात्मा और विवेक कहाँ थे? जब मैंने इस बारे में सोचा तो मुझे और ज्यादा अपराध-बोध और शर्मिंदगी हुई और मैंने प्रार्थना में परमेश्वर के सामने घुटने टेक दिए। “परमेश्वर, मैं कितनी विवेकशून्य हूँ! मुझे तुमने बनाया है; मैं एक सृजित प्राणी हूँ। मुझे तुम्हारे सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है। तुम्हारी इच्छा से मैं इस घातक वायरस से संक्रमित हुई हूँ। मैं समर्पण नहीं करना चाहती थी और मैंने तुमसे बहस की, तुम्हें सही काम न करने के लिए दोषी ठहराया और तुमसे मुझे जीने देने के लिए कहा। मैं पूरी तरह से विवेकहीन थी। मैं कितनी विद्रोही थी! परमेश्वर, मैं ठीक से आत्म-चिंतन करना चाहती हूँ और तुम्हारे आगे पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।”

अगले कुछ दिनों में जब भी मैंने अपनी शिकायतों और परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमी के बारे में सोचा तो मुझे गहरा पछतावा हुआ। खास तौर पर यह सोचकर कि जब मेरी हालत काफी गंभीर हो गई थी तो मैंने परमेश्वर से बहस की थी, नकारात्मक हो गई थी, ढिलाई बरती थी अपने कर्तव्य में लापरवाह हो गई थी और टालमटोल कर रही थी, मुझे और भी अपराध बोध और बेचैनी हुई। जब मैं बीमार नहीं थी और कोई संकट नहीं था तो मैं परमेश्वर की धार्मिकता की घोषणा कर रही थी और कह रही थी कि सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। जब मैं बीमार पड़ी तो मैंने इतना विद्रोह और प्रतिरोध क्यों प्रकट किया? मैंने अपनी भक्ति के दौरान परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। “मसीह-विरोधी सोचते हैं, अगर कोई कर्तव्य-पालन करने, कीमत चुकाने और थोड़ी-बहुत कठिनाइयों का सामना करने योग्य है, तो उसे परमेश्वर का आशीष मिलना चाहिए। और इसीलिए, कुछ समय तक कलीसिया का काम करने के बाद ही, वे इस बात का जायजा लेना शुरू कर देते हैं कि उन्होंने कलीसिया के लिए क्या काम किया है, उन्होंने परमेश्वर के घर में क्या योगदान दिया है और भाई-बहनों के लिए उन्होंने क्या किया है। वे यह सब अपने मन में बिठाकर रखते हैं और यह देखने की प्रतीक्षा करते हैं कि इनसे उन्हें परमेश्वर से क्या अनुग्रह और आशीष मिलेगा, ताकि वे यह तय कर सकें कि वे जो काम कर रहे हैं वह इस लायक है या नहीं। वे हमेशा इस तरह की चीजों में क्यों उलझे रहते हैं? वे मन ही मन किस लक्ष्य का पीछा कर रहे होते हैं? परमेश्वर में उनकी आस्था का उद्देश्य क्या होता है? शुरू से, परमेश्वर में उनका विश्वास आशीष पाने के लिए ही रहता है। और उन्होंने चाहे जितने भी वर्षों तक प्रवचन सुने हों, परमेश्वर के कितने भी वचन खाए और पिए हों, चाहे जितने भी सिद्धांतों समझते हों, लेकिन वे आशीष पाने की इच्छा और मंशा कभी नहीं त्यागते। यदि तुम उनसे एक कर्तव्यपरायण सृजित प्राणी बनने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करने के लिए कहोगे, तो वे बोलेंगे, ‘इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मुझे इन चीजों के लिए प्रयास नहीं करना चाहिए। मुझे तो इन चीजों के लिए प्रयास करना है : अपनी लड़ाई लड़ लेने, अपने अपेक्षित प्रयास और अपेक्षित कठिनाइयों का सामना कर लेने के बाद, और परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार सब कर लेने के बाद, परमेश्वर को मुझे इनाम देना चाहिए और मेरा अस्तित्व बनाए रखना चाहिए, और मुझे राज्य में मुकुट पहनाया जाना चाहिए और मुझे परमेश्वर के लोगों की तुलना में अधिक ऊँचे ओहदे पर रखना चाहिए। मुझे कम से कम दो या तीन शहरों का प्रभारी होना चाहिए।’ मसीह-विरोधियों को इन्हीं बातों की सबसे अधिक परवाह होती है। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जैसे संगति करे, उनके इरादों और इच्छाओं को मिटाया नहीं जा सकता; वे पौलुस जैसे ही होते हैं। क्या इस तरह के बेशर्मी भरे लेन-देन में एक प्रकार की बुराई और शातिर स्वभाव नहीं होता? कुछ धार्मिक लोग कहते हैं, ‘हमारी पीढ़ी क्रूस के मार्ग पर परमेश्वर का अनुसरण करती है। हमें परमेश्वर ने हमें चुना है, इसलिए हम आशीष पाने के हकदार हैं। हमने दुःख उठाए हैं, कीमत चुकाई है और कड़वे प्याले से दाखमधु पिया है। हममें से कुछ को गिरफ्तार कर जेल में भी डाला गया है। इतने कष्ट सहने, इतने सारे उपदेश सुनने और बाइबल के बारे में इतना कुछ सीखने के बाद भी, यदि एक दिन हमें आशीष नहीं मिला, तो हम तीसरे स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से बहस करेंगे।’ क्या तुम लोगों ने कभी ऐसा कुछ सुना है? वे कहते हैं कि वे तीसरे स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से बहस करेंगे—यह कितनी धृष्टता है? क्या इसे सुनने मात्र से तुम लोग भयभीत नहीं हो जाते? परमेश्वर से बहस करने की हिम्मत कौन करता है? ... क्या ऐसे लोग महादूत नहीं हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? तुम किसी से भी बहस कर सकते हो, लेकिन परमेश्वर से नहीं। तुमको ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए, या ऐसा करने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। आशीष परमेश्वर से आते हैं : वह उन्हें जिसे चाहता है, देता है। भले ही तुम आशीष पाने की शर्तों को पूरा करते हो और परमेश्वर तुम्हें आशीष न दे, फिर भी तुमको परमेश्वर से बहस नहीं करनी चाहिए। संपूर्ण ब्रह्मांड और पूरी मानवजाति परमेश्वर के शासन के अधीन है; सारा नियंत्रण परमेश्वर के ही हाथ में है। तुम, एक छोटे-से इंसान, भला परमेश्वर से बहस करने की हिम्मत कैसे कर सकते हो? तुम अपनी क्षमताओं को इतना अधिक कैसे आँक सकते हो? तुम कौन हो, यह देखने के लिए तुम आईना क्यों नहीं देखते? इस तरह से सृष्टिकर्ता के विरुद्ध शोर मचाने और उससे विवाद करने का साहस करके, क्या तुम मृत्यु को आमंत्रित नहीं कर रहे हो? ‘यदि एक दिन हमें आशीष नहीं मिला, तो हम तीसरे स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से बहस करेंगे’ यह एक ऐसा कथन है जो खुले तौर पर परमेश्वर के विरुद्ध शोर है। तीसरा स्वर्ग किस तरह का स्थान है? यह वह स्थान है जहाँ परमेश्वर रहता है। परमेश्वर से बहस करने के लिए तीसरे स्वर्ग में जाने का साहस करना परमेश्वर को ‘उखाड़ फेंकने’ की कोशिश करने जैसा है! क्या ऐसा नहीं है? कुछ लोग पूछ सकते हैं, ‘इस बात का मसीह-विरोधियों से क्या संबंध है?’ इसका उनसे बहुत संबंध है, क्योंकि जो लोग परमेश्वर से बहस करने के लिए तीसरे स्वर्ग में जाना चाहते हैं, वे सभी मसीह-विरोधी हैं। ऐसी बातें केवल मसीह-विरोधी ही कह सकते हैं। इस तरह के शब्द, वह आवाज हैंजो मसीह-विरोधियों द्वारा उनके हृदय की गहराई में पाली गई होती है। यह उनकी दुष्टता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के आगे मैं शर्मिंदा थी और मैंने देखा कि अपने कर्तव्य निर्वहन में मेरे वर्षों के कष्ट और बलिदान का उद्देश्य परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना नहीं था। यह सब राज्य में प्रवेश करने और अनंत आशीष का आनंद लेने के लिए था। मैंने कर्तव्य को आपदा से बचने का तरीका माना था, इसे परमेश्वर के साथ सौदेबाजी का एक साधन और पूंजी माना था। यही वजह थी कि मैं हमेशा हिसाब लगाती रहती थी कि मैंने कितना काम किया है, कितने लोगों का मत-परिवर्तन किया है और कितना कष्ट सहा और बलिदान किया है। मुझे लगा कि ये जितने अधिक होंगे, मैंने उतना ही अधिक पुण्य कमाया होगा और मैं परमेश्वर द्वारा सुरक्षित होने और आपदा से बचने की उतनी ही ज्यादा हकदार बन जाऊँगी। लेकिन अप्रत्याशित रूप से कोविड से बीमार पड़ने पर मैंने परमेश्वर को दोषी ठहराया और गलत समझा, बिना यह जाने कि उसके प्रति समर्पित कैसे होना है। इसके बजाय मैंने सोचा कि परमेश्वर का अनुग्रह पाने के लिए कैसे अच्छा व्यवहार किया जाए, ताकि वह मेरी रक्षा करे और मैं जल्दी ठीक हो जाऊँ। जब मैंने देखा कि मेरी हालत खराब हो रही है तो मैं परमेश्वर से निराश हो गई। मैंने उस पर अन्याय करने और मेरी रक्षा न करने का आरोप लगाया। जाहिर है मेरी आस्था और कर्तव्य केवल आशीष पाने मात्र के लिए थे। मैं सिर्फ आशीष पाने का अपना लक्ष्य पाने के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल कर रही थी, जैसे परमेश्वर के साथ सौदा कर रही थी और उसे धोखा देने की कोशिश कर रही थी। मैं कितनी स्वार्थी और धोखेबाज थी! मैंने अनुग्रह के युग में पौलुस के बारे में सोचा, जो सुसमाचार का प्रचार करने के लिए पूरे यूरोप में घूम रहा था। उसने बहुत कष्ट सहे और बहुत त्याग किया, लेकिन उसने खुद को जितना भी खपाया, वह स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और पुरस्कृत होने के लिए था। अंत में उसने कहा, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। इसका वाकई मतलब था कि यदि परमेश्वर ने उसे मुकुट नहीं दिया तो परमेश्वर धार्मिक नहीं था। धार्मिक दुनिया के लोग पौलुस के इन शब्दों से बहुत प्रभावित हैं। जो लोग प्रभु के नाम पर कार्य करते हैं और कष्ट उठाते हैं, वे सब स्वर्ग जाने और आशीष पाने के लिए ऐसा करते हैं। अगर उन्हें आशीष नहीं मिलता है तो वे अपने मामले पर परमेश्वर से बहस करते हैं। और मैं भी उनके जैसे ही थी, है न? तब मुझे डर लगा। मैंने कभी नहीं सोचा था कि अगर मुझे आशीष नहीं मिला तो मैं किसी मसीह-विरोधी की तरह परमेश्वर से बहस करूँगी और उसका विरोध करूँगी। अगर तथ्यों का प्रकाशन न होता तो मुझे एहसास ही नहीं होता कि मेरा स्वभाव इतना ज्यादा मसीह-विरोधी है। मैंने परमेश्वर के कुछ वचनों के बारे में सोचा : “मैंने पूरे समय मनुष्य के लिए बहुत कठोर मानक रखा है। अगर तुम्हारी वफादारी इरादों और शर्तों के साथ आती है, तो मैं तुम्हारी तथाकथित वफादारी के बिना रहना चाहूँगा, क्योंकि मैं उन लोगों से घृणा करता हूँ, जो मुझे अपने इरादों से धोखा देते हैं और शर्तों द्वारा मुझसे जबरन वसूली करते हैं। मैं मनुष्य से सिर्फ यही चाहता हूँ कि वह मेरे प्रति पूरी तरह से वफादार हो और सभी चीजें एक ही शब्द : आस्था—के वास्ते—और उसे साबित करने के लिए करे। मैं तुम्हारे द्वारा मुझे प्रसन्न करने की कोशिश करने के लिए की जाने वाली खुशामद का तिरस्कार करता हूँ, क्योंकि मैंने हमेशा तुम लोगों के साथ ईमानदारी से व्यवहार किया है, और इसलिए मैं तुम लोगों से भी यही चाहता हूँ कि तुम भी मेरे प्रति एक सच्ची आस्था के साथ कार्य करो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?)। मैं परमेश्वर के वचनों से महसूस कर सकती थी कि उसका स्वभाव धार्मिक, पवित्र है और कोई भी अपमान बर्दाश्त नहीं करता। परमेश्वर मानवजाति को बचाने के लिए कार्य करता है और वह मनुष्य की ईमानदारी और वफादारी चाहता है। अगर लोगों के देने और खुद को खपाने में छिपी हुई मंशाएँ और अशुद्धियाँ होती हैं और इनमें सौदेबाजी और धोखाधड़ी शामिल होती है तो उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी और दरअसल परमेश्वर को घृणा और घिन होगी और वह उनकी निंदा करेगा। ठीक उसी तरह जैसे परमेश्वर से आशीष पाने के बजाय पौलुस को आखिरकार नरक में कठोर दंड दिया गया। क्या परमेश्वर को मेरे कर्तव्य निर्वहन के मोल-भाव वाले मिलावटी तरीके से भी घृणा और घिन नहीं हुई होगी? आज बीमार होने से मेरी आस्था में निहित घृणित इरादे उजागर हो गए और मुझे परमेश्वर की धार्मिकता और पवित्रता दिखाई दी। इस पर मैंने इस बीमारी से पीड़ित होने को पूरी तरह से स्वीकार लिया और अपने दिल से इसके लिए समर्पित हो गई।

मैंने बाद में परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “एक सृजित प्राणी के रूप में, जब व्यक्ति सृष्टिकर्ता के सामने आता है, तो उसे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यही करना सबसे उचित है, और उसे यह जिम्मेदारी पूरी करनी ही चाहिए। इस आधार पर कि सृजित प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, सृष्टिकर्ता ने मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है, और उसने लोगों पर कार्य का एक और चरण पूरा किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने, और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने और शुद्ध होने का अवसर मिलता है। इस प्रकार, वे परमेश्वर के इरादों को पूरा कर पाते हैं और जीवन में सही मार्ग अपना पाते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहने, पूर्ण उद्धार प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं, और अब शैतान के दुखों के अधीन नहीं रहते हैं। यही वह प्रभाव है जो परमेश्वर चाहता है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करके मानवजाति अंततः प्राप्त करे। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान परमेश्वर तुम्हें केवल एक चीज स्पष्ट रूप से देखने और थोड़ा-सा सत्य ही समझने नहीं देता, वह तुम्हें केवल एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से मिलने वाले अनुग्रह और आशीषों का आनंद मात्र ही लेने नहीं देता है। इसके बजाय, वह तुम्हें शुद्ध होने और बचने, और अंततः, सृष्टिकर्ता के मुखमंडल के प्रकाश में रहने का अवसर भी देता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे वाकई प्रभावित किया। एक सृजित प्राणी के लिए कर्तव्य करना जिम्मेदारी और दायित्व है, जिससे बचा नहीं जा सकता। उससे भी बढ़कर यह सत्य और स्वभावगत परिवर्तन पाने का मार्ग है। हमारे कर्तव्यों के दौरान परमेश्वर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने के लिए सभी प्रकार की परिस्थितियाँ बनाता है। फिर अपने वचनों के न्याय और प्रकाशन के माध्यम से और अपनी काट-छाँट और अनुशासन के माध्यम से वह हमें अपना भ्रष्ट स्वभाव समझने और बदलने की अनुमति देता है, ताकि हम फिर शैतान की भ्रष्टता और पीड़ा के अधीन न रहें। यही परमेश्वर का ईमानदार इरादा है। बरसों अपना अपने कर्तव्य निभाने के दौरान परमेश्वर द्वारा बनाई गई परिस्थितियों में मेरी बहुत सारी भ्रष्टता बेनकाब हुई। मुझे अपने भ्रष्ट स्वभावों की कुछ समझ मिली थी। फिर मैं खुद से घृणा करने लगी थी और पश्चात्ताप करके बदल गई थी, कुछ हद तक मानव के समान जी रही थी। मैंने अपने कर्तव्य के माध्यम से बहुत कुछ हासिल किया था, लेकिन फिर भी मैं कृतज्ञ नहीं थी। इसके बजाय मैंने अपने कर्तव्य के प्रदर्शन को आपदा से बचने के लिए सौदेबाजी के साधन और पूंजी के रूप में इस्तेमाल किया था और परमेश्वर के साथ ऐसा व्यवहार किया था मानो वह धोखा खाने और शोषण किए जाने के लिए ही हो। कितनी घृणित बात है! परमेश्वर ने बहुत सारे सत्य व्यक्त किए हैं, लेकिन उन्हें संजोने के बजाय मैंने सिर्फ इस बारे में सोचा कि कैसे आशीष पाया जाए, आपदा से कैसे बचा जाए, स्वर्ग के राज्य में कैसे प्रवेश किया जाए और पुरस्कृत हुआ जाए। मैं कितनी नीच थी! मैंने प्रार्थना की और परमेश्वर के आगे शपथ ली कि मैं सिर्फ आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य नहीं निभाऊँगी और मैं परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपने कर्तव्य में लगन से सत्य का अनुसरण करूँगी। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो कि ‘परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे समर्पण करना चाहिए और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—समर्पण—को अभ्यास में लाना चाहिए, मुझे इसे कार्यान्वित करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण की वास्तविकता को जीना ही चाहिए। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अंतिम साँस लेते हुए भी मुझे अपने कर्तव्य पर डटे रहना चाहिए,’ तो क्या यह गवाही देना नहीं है? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। ऐसे समय में तुम मन ही मन सोचोगे, ‘परमेश्वर ने मुझे यह साँस दी है, उसने इन तमाम वर्षों में मेरा पोषण और मेरी रक्षा की है, उसने मुझसे बहुत-सा दर्द लिया है और मुझे बहुत-सा अनुग्रह और बहुत-से सत्य दिए हैं। मैंने ऐसे सत्यों और रहस्यों को समझा है, जिन्हें लोग कई पीढ़ियों से नहीं समझ पाए हैं। मैंने परमेश्वर से इतना कुछ पाया है, इसलिए मुझे भी परमेश्वर को कुछ लौटाना चाहिए! पहले मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, मैं कुछ भी नहीं समझता था, और मैं जो कुछ भी करता था, उससे परमेश्वर को दुख पहुँचता था। हो सकता है, मुझे परमेश्वर को लौटाने का भविष्य में और अवसर न मिले। मेरे पास जीने के लिए जितना भी समय बचा हो, मुझे अपनी बची हुई थोड़ी-सी शक्ति अर्पित करके परमेश्वर के लिए वह सब करना चाहिए जो मैं कर सकता हूँ, ताकि परमेश्वर यह देख सके कि उसने इतने वर्षों से मेरा जो पोषण किया है, वह व्यर्थ नहीं गया, बल्कि फलदायक रहा है। मुझे परमेश्वर को और दुखी या निराश करने के बजाय उसे सुख पहुँचाना चाहिए।’ इस तरह सोचने के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? यह सोचकर अपने आपको बचाने और कतराने की कोशिश न करो कि ‘यह बीमारी कब ठीक होगी? जब यह ठीक हो जाएगी, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने का भरसक प्रयास करूँगा और वफादार रहूँगा। मैं बीमार होते हुए वफादार कैसे रह सकता हूँ? मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?’ जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम नहीं हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम परमेश्वर को शर्मिंदा न करने में सक्षम हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, जब तक तुम्हारी सोच स्पष्ट है, क्या तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत न करने में सक्षम हो? (हाँ।) अभी ‘हाँ’ कहना बड़ा आसान है, पर यह उस समय इतना आसान नहीं होगा जब यह सचमुच तुम्हारे साथ घटेगा। इसीलिए, तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अक्सर सत्य पर कठिन परिश्रम करना चाहिए और यह सोचने में ज्यादा समय लगाना चाहिए कि ‘मैं परमेश्वर के इरादे कैसे पूरे कर सकता हूँ? मैं परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान कैसे कर सकता हूँ? मैं सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?’ सृजित प्राणी क्या होता है? क्या सृजित प्राणी का कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को सुनना भर है? नहीं—उसका कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को जीना है। परमेश्वर ने तुम्हें इतना सारा सत्य दिया है, इतना सारा मार्ग और इतना सारा जीवन दिया है, ताकि तुम इन चीजों को जी सको और उसकी गवाही दे सको। यही है, जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए, यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है)। परमेश्वर के वचन मेरे लिए बहुत ही मार्मिक हैं। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और मैं सृजित प्राणी हूँ, इसलिए मेरा भाग्य उसके हाथों में है। उसने मुझे बीमारी होने दी, इसलिए चाहे मैं जीवित रहूँ या मर जाऊँ, मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। यही वह मूल भावना है जो एक सृजित प्राणी में होनी चाहिए। और कर्तव्य ऐसी चीज है जो सृजित प्राणी को निभाना चाहिए। किसी भी समय, चाहे कुछ भी हो जाए जब तक मेरे शरीर में साँस है, मुझे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। मैंने वर्षों से परमेश्वर के प्रेम का भरपूर आनंद लिया है, लेकिन मैं हमेशा उसके खिलाफ विद्रोह करती रही और उसे चोट पहुँचाती रही क्योंकि मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया था। मैं परमेश्वर की बेहद ऋणी थी। जब तक मैं जीवित हूँ, मुझे परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए। आने वाले दिनों में मैंने हर दिन इस बारे में सोचा कि परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से कैसे निभाऊँ। मेरी साझेदार बहन सुसमाचार प्रचार में नई थी और उसे बहुत से सिद्धांत नहीं पता थे, इसलिए समस्याएँ सामने आती रहीं। मैं उसकी ऑनलाइन मदद और मार्गदर्शन कर रही थी। मैं अक्सर परमेश्वर के सामने आकर खुद को शांत करती थी, उसके वचन पढ़ती थी और उसकी स्तुति करने के लिए भजन गाती थी। मैं अभी भी खाँसती रहती थी और मुझे बुखार था, लेकिन मैं अब बीमारी से बेबस नहीं थी और मैंने यह सोचना बंद कर दिया कि कहीं मैं मर तो नहीं जाऊँगी। मैं जानती थी कि मेरा जीवन परमेश्वर के हाथों में है और परमेश्वर की संप्रभुता निर्धारित करेगी कि मैं कितने समय तक जीवित रहूँगी। हर दिन जो परमेश्वर मुझे देता है, वह एक ऐसा दिन होता है जब मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने का प्रयास करती हूँ। जब वह दिन आएगा जब परमेश्वर मृत्यु को मुझे ले जाने की अनुमति देगा तो मैं समर्पण करूँगी और कोई शिकायत नहीं करूँगी।

एक शाम को मेरी खाँसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी और मेरा गला कफ से भर गया था। मुझे तेज बुखार था और पूरे शरीर में दर्द हो रहा था। मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, मेरा जी घबराता रहा और सो नहीं पाई। मैंने सोचा, “क्या मैं मरने वाली हूँ? क्या मैं सोने के बाद फिर कभी जाग पाऊँगी?” मरने का ख्याल वाकई परेशान करने वाला था और मैं रोती रही कि मुझे फिर कभी परमेश्वर के वचन पढ़ने का मौका नहीं मिलेगा। मैं उठी, अपना कंप्यूटर चालू किया और परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “हर व्यक्ति का जीवन-काल परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित किया गया है। चिकित्सीय दृष्टिकोण से कोई बीमारी प्राणांतक दिखाई दे सकती है, लेकिन परमेश्वर के नजरिये से अगर तुम्हारा जीवन अभी बाकी है और तुम्हारा समय अभी नहीं आया है, तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते। अगर परमेश्वर ने तुम्हें कोई आदेश दिया है, और तुम्हारा मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है, तो तुम उस बीमारी से भी नहीं मरोगे जो प्राणघातक है—परमेश्वर अभी तुम्हें मरने नहीं देगा। भले ही तुम प्रार्थना न करो, सत्य की तलाश न करो या अपनी बीमारी का इलाज न कराओ—या भले ही तुम अपना इलाज स्थगित कर दो—फिर भी तुम मरोगे नहीं। यह खास तौर से उन लोगों पर लागू होता है जिन्होंने परमेश्वर से एक आदेश प्राप्त किया है : जब तक उनका मिशन पूरा नहीं होता, उन्हें चाहे कोई भी बीमारी हो जाए, वे तुरंत नहीं मरेंगे; वे तब तक जियेँगे जब तक कि उनका मिशन पूरा नहीं हो जाता। क्या तुम्हें यह विश्वास है? ... सच तो यह है कि चाहे तुम्हारी सौदेबाजी अपनी बीमारी ठीक करने और खुद को मरने से बचाने के लिए हो, या इसमें तुम्हारा कोई और इरादा या लक्ष्य हो, परमेश्वर के नजरिये से, अगर तुम अपना कर्तव्य निभा सकते हो और अभी भी काम के हो, अगर परमेश्वर ने तय किया है कि वह तुम्हारा इस्तेमाल करेगा, तो तुम नहीं मरोगे। अगर तुम मरना भी चाहो तो नहीं मर सकते। लेकिन अगर तुम कोई परेशानी खड़ी करते हो, तमाम तरह के बुरे काम कर परमेश्वर के स्वभाव को भड़काते हो तो तुम तुरंत मर जाओगे; तुम्हारा जीवन घट जाएगा। दुनिया को बनाने से पहले ही परमेश्वर ने सभी की जीवन अवधि तय कर दी थी। यदि लोग परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों का पालन करें, तो फिर चाहे बीमारी आए या न आए, उनका स्वास्थ्य अच्छा हो या खराब हो, वे उतने वर्ष तो जियेँगे ही जितने परमेश्वर ने पहले ही तय किए हैं। क्या तुम्हें यह विश्वास है?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं उसका प्रेम और दया महसूस कर सकी। इससे मेरा दिल खुश हो गया। मुझे परमेश्वर के इरादे की थोड़ी बेहतर समझ हासिल हुई। अंत के दिनों में मेरा पैदा होना, परमेश्वर पर विश्वास करना और कर्तव्य निभाना, यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया गया था। चाहे बीमारी हो या नहीं, अगर परमेश्वर ने मेरे दिन पूरे होने का निर्धारण कर दिया है तो मुझे मरना ही होगा। और अगर परमेश्वर ने कुछ और तय किया है तो मैं किसी घातक बीमारी से भी नहीं मरूँगी। मुझे नहीं पता था कि मेरे लिए कौन-सी चीज इंतजार कर रही है, लेकिन मुझे अपना जीवन परमेश्वर के हाथों में सौंप देना चाहिए और उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं का अनुसरण करना चाहिए। यह सोचकर कि मैं किसी भी समय मर सकती हूँ, मैं वाकई फिर से परमेश्वर से दिल से बात करना चाहती थी। मैंने घुटने टेके और परमेश्वर से प्रार्थना की “हे परमेश्वर! मुझे अपनी वाणी सुनने देने और तुम्हारे द्वारा कहे गए वचनों का सिंचन और पोषण देने और मुझे सत्य समझने और ठीक से आचरण करना सीखने की अनुमति देने के लिए के लिए धन्यवाद। मुझे लगता है कि मेरा जीवन व्यर्थ नहीं गया है। यह सब तुम्हारी दया और उद्धार के कारण ही है! बात सिर्फ इतनी है कि मैं बेहद भ्रष्ट हूँ और हमेशा तुम्हारे खिलाफ विद्रोह कर तुम्हें चोट पहुँचाती रही हूँ। मैंने सत्य का ठीक से अनुसरण नहीं किया है या तुम्हारे प्रेम का बदला चुकाने के लिए सच में अपना कर्तव्य नहीं निभाया है। मैंने भी तुम्हें कोई आराम नहीं दिया है। मैं तुम्हारी बहुत ऋणी हूँ। मुझे नहीं पता कि मुझे तुम्हारा प्रेम चुकाने का एक और मौका मिलेगा या नहीं। अगर मैं जीवित रही तो मैं वाकई सत्य का अनुसरण करना चाहूँगी और तुम्हें संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहूँगी...।” उस रात मुझे पता भी नहीं चला कि मैं कब सो गई। जैसे ही मैं अगले दिन उठी, मुझे पूरी तरह से आराम महसूस हुआ, मानो मैं कभी बीमार ही नहीं पड़ी थी। मेरा गला ठीक लग रहा था और सारा कफ निकल गया था। मैंने जल्दी से अपना बुखार मापा और पाया कि बुखार उतर गया है। मैं इससे बहुत प्रभावित हुई और मुझे पता था कि यह परमेश्वर की दया और सुरक्षा है। हालाँकि कोविड होने पर मैंने बहुत विद्रोहीपन और प्रतिरोध दिखाया था, फिर भी परमेश्वर ने मेरी देखभाल और रक्षा की। मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई और परमेश्वर का धन्यवाद और स्तुति की।

दो महीने बीत गए और मुझे बुखार नहीं आया। बीमारी फिर से नहीं हुई और मुझे पता भी नहीं चला कि मैं कब ठीक हो गई। यह सोचकर कि मैं कैसे बच गई जबकि इतने सारे लोग महामारी में मर गए, मुझे पता था कि यह सब परमेश्वर की अद्भुत देखभाल और मेरे लिए उद्धार से हुआ था। कोविड की चपेट में आने से मेरी आस्था और कर्तव्य में छिपे इरादे और अशुद्धियाँ उजागर हो गई थीं, मुझे आशीष के बदले में परमेश्वर के साथ सौदा करने की मेरी नीच मंशा देखने को मिली थी। इसके माध्यम से मुझे अपने बारे में कुछ समझ मिली और मुझे खुद से घृणा होने लगी थी। साथ ही मुझे परमेश्वर के पवित्र, धार्मिक स्वभाव का कुछ वास्तविक अनुभव और समझ मिली थी और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण की भावना मिली थी। जबकि मैं बीमार होने के अनुभव के माध्यम से शोधन और दर्द से गुजरी, मैंने भी बहुत कुछ पाया—ऐसी चीजें जो मैं कम कष्टदायक स्थिति से नहीं पा सकती थी। जब भी मैं इस अनुभव से जो कुछ भी पाया, उसके बारे में सोचती हूँ, मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता और स्तुति से भर जाती हूँ। मैं परमेश्वर को उसके उद्धार के लिए धन्यवाद देती हूँ!

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