27. मुझे देखरेख क्यों स्वीकार नहीं
कलीसिया में नए सदस्यों का सिंचन करते हुए मुझे साल भर से ज्यादा हो चुका है। अपने कर्तव्य में, धीरे-धीरे मैंने कुछ सिद्धांतों पर महारत हासिल की, और नए सदस्यों के सिंचन का मेरा तरीका भी सुधर गया। लगा, इस कर्तव्य को निभाने का मुझे थोड़ा अनुभव है, और बिना मदद के भी मैं नए सदस्यों का अच्छा सिंचन कर सकता हूँ। नए सदस्यों को समस्याएँ और मुश्किलें होने पर, मैं सत्य खोजकर उन्हें सुलझाने में मदद कर सकता, तो मुझे लगा, मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना जान चुका हूँ। मैंने सोचा, मुझे किसी के मार्गदर्शन की जरूरत नहीं थी, दूसरे मेरे कामकाज की देखरेख करें और खोज-खबर लें, यह भी जरूरी नहीं था। इसलिए, मैंने भाई-बहनों की देखरेख और सलाह स्वीकार नहीं की, और जिन नए सदस्यों का सिंचन मैंने किया था, उनकी खास हालत के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं दी। अपना काम बस मैं अपनी ही शर्तों पर करता था।
एक दिन, सुपरवाइजर फियोली ने मुझसे कुछ नए सदस्यों के बारे में पूछा, और कुछ सवाल भी किए। मिसाल के तौर पर, मैं नए सदस्यों को सभाओं के बारे में सूचित कैसे करता था? फलाँ-फलाँ भाई-बहन सभा में क्यों नहीं आए? क्या मैं नए सदस्यों की हालत या उनकी मुश्किलें समझने के लिए उनके साथ अक्सर संगति करता था? ये सवाल सुनकर मेरे मन में प्रतिरोध जागा। मैंने सोचा, "क्या इन्हें लगता है मैं अपना कर्तव्य गैर-जिम्मेदारी से निभा रहा हूँ? क्या ये मुझ पर भरोसा नहीं करतीं?" मैं बहुत ढीठ था, अपना भ्रष्ट स्वभाव दिखाए बिना न रह सका, उनकी अनदेखी करना चाहता था। उन्होंने मुझसे पूछा, क्या नए सदस्य सभाओं में आने में रुचि रखते हैं, तो मैंने बेपरवाही से "हाँ" कहा, और एक भी बात विस्तार से नहीं बताई। उन्होंने नए सदस्यों को सभाओं के बारे में सूचित करने का तरीका पूछा, तो मैं बोला, संदेश लिख भेजता हूँ, लेकिन मैंने सूचित करने के तरीकों, सदस्यों की मुश्किलों आदि की जानकारी नहीं दी। फिर उन्होंने पूछा, नए सदस्यों के साथ मैं सत्य के किन पहलुओं पर संगति करता था, तो मैंने बेसब्री से कहा, मुझे नए सदस्यों के साथ संगति करना आता है, मगर मैंने न संगति का ब्योरा दिया, न उनकी प्रतिक्रिया बताई, और न ही उनके सवाल बताए। वे मेरे जवाब से संतुष्ट नहीं थीं, इस बारे में विस्तार से जानना चाहती थीं कि क्या मैं इन नए सदस्यों को सहारा और मदद दे रहा था। मैंने सोचा, वे मुझे कम आँक रही हैं, मानो मुझे अपना कर्तव्य निभाना न आता हो, इससे मुझे बड़ी बेचैनी हुई। जब उन्हें एहसास हुआ कि मैं बोलते समय नए सदस्यों की भावनाओं का ख्याल नहीं करता था, वे बोलीं, "आपको नए सदस्यों के नजरिए से सोचना चाहिए। अगर आप नए सदस्य हों, तो क्या आप इन बातों से खुश होंगे? क्या आप उन्हें जवाब देना चाहेंगे?" उनकी बातों ने मुझे भड़का दिया। मैंने कहा, मैं समझता हूँ, लेकिन सच में उनकी बात नहीं मानी। मुझे नहीं लगता था, नए सदस्यों से बात करने के मेरे तरीके में कोई समस्या थी। मन-ही-मन मैंने खुद से कहा, "मुझे पता है, इन नए सदस्यों को सभाओं में कैसे लाया जाए, तो मैं अपने ढंग से ही काम करूँगा।" एक और मौके पर उन्होंने जानना चाहा, आम तौर पर मैं नए सदस्यों के साथ संगति कैसे करता हूँ, तो मैंने कहा, संदेश भेजकर। यह कहकर कि फोन कॉल ज्यादा सीधे होते हैं, असली मसले समझना आसान करते हैं और संबंध मजबूत करते हैं, उन्होंने नए सदस्यों को कॉल करने को कहा। लेकिन तब मैंने बात नहीं मानी, सोचा मेरा तरीका बेहतर था। मैं नए सदस्यों को संदेश भेजकर संतुष्ट था, और उनकी बात नहीं सुनना चाहता था। हमारी चर्चाओं में, मैं अब और कुछ बोलना नहीं चाहता था, इसलिए चुप रहा या बड़े संक्षेप में जवाब दिए। मैंने देखा, अगर कोई नए सदस्यों के सिंचन के बारे में मुझसे चर्चा करना चाहता, तो मैं बहुत नकारात्मक और परेशान हो जाता। लगता, मानो वे मुझ पर हँस रहे थे, मुझे नीचा दिखा रहे थे, और बेकार समझते थे, ऐसा जिसे अपना कर्तव्य निभाना नहीं आता या जो भरोसेमंद नहीं था। मेरे ख्याल से मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाता था, नए सदस्यों का सिंचन करना जानता था, खोज-खबर लेने के मेरे अपने तरीके थे, और मुझमें सुपरवाइजर से ज्यादा खूबियां थीं, तो मैं उनकी सलाह नहीं ले सकता था। हामी भरने के बावजूद मैं विरले ही अपने वादे पर अमल करता था, नए सदस्यों के सिंचन और संगति का काम अपनी ही शर्तों पर करता था।
एक सभा के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और आखिरकार खुद की थोड़ी समझ हासिल की। परमेश्वर कहते हैं, "कुछ लोग अपनी काट-छाँट या खुद से निपटा जाना स्वीकार नहीं करते। अपने दिलों में वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरे जो कह रहे हैं वह सत्य के अनुरूप है, लेकिन वे इसे स्वीकार नहीं करते। ये लोग बहुत अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते हैं! और मैं क्यों कहता हूँ कि वे अहंकारी होते हैं? क्योंकि अगर वे अपनी काट-छाँट या खुद से निपटा जाना स्वीकार नहीं करते, तो वे आज्ञापालन नहीं करते—और अगर वे आज्ञापालन नहीं करते, तो क्या वे अहंकारी नहीं हैं? वे सोचते हैं कि उनके कार्य अच्छे हैं, और उन्हें नहीं लगता कि उन्होंने कुछ गलत किया है—जिसका अर्थ है कि वे स्वयं को नहीं जानते; यह अहंकार है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है)। "किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण या प्रतिष्ठित और कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को विशिष्ट समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना, और कभी भी अपनी भूलों एवं असफलताओं का सामना न कर पाना—अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; वह कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देता है, या अपने से बेहतर नहीं होने देता है—ऐसा उसके अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों को कभी खुद से श्रेष्ठ या ताकतवर न होने देना—यह एक अहंकारी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना, और, ऐसा होने पर नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना, तथा परेशान हो जाना—ये सभी चीजें उसके अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा बचाने वाला बना सकता है, दूसरों के मार्गदर्शन को स्वीकार करने, अपनी कमियों का सामना करने, तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में उस व्यक्ति के प्रति घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को विवश महसूस कर सकते हो, कुछ इस तरह कि अब तुम्हारे कर्तव्य निभाना नहीं चाहते और इसे करने में लापरवाह हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें उत्पन्न हो जाती हैं। अगर तुम धीरे-धीरे इन विवरणों की गहराई से पड़ताल कर पाते हो, उन्हें जानने में सफल हो जाते हो और उनकी समझ हासिल कर लेते हो, और अगर फिर तुम धीरे-धीरे इन विचारों को त्यागने में सक्षम हो जाते हो, और इन गलत धारणाओं, दृष्टिकोणों और व्यवहारों को त्याग पाते हो, और इनसे विवश नहीं होते; और यदि अपना कर्तव्य पालन करते समय तुम अपने लिए सही पद प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हो, तथा सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो, एवं उस कर्तव्य का निर्वाह करते हो जो तुम कर सकते हो तथा जो तुम्हें करना चाहिए; तो कुछ समय के बाद, तुम अपने कर्तव्यों का बेहतर ढंग से निर्वाह करने में सक्षम हो जाओगे। यह सत्य की वास्तविकता में प्रवेश है। यदि तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाते हो, तो दूसरों को प्रतीत होगा कि तुममें मानवीय समानता है, और लोग कहेंगे, 'यह व्यक्ति अपने पद के अनुसार आचरण करता है, और वो अपना कर्तव्य बुनियादी तरीके से निभा रहा है। ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाने में स्वाभाविकता पर, जल्दी क्रोध करने पर, या अपने भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव पर भरोसा नहीं करते। वे संयम से कार्य करते हैं, उनके पास एक दिल है जो परमेश्वर को पूजता है, उन्हें सत्य से प्यार है, और उनके व्यवहार और भावों से यह पता चलता है कि उन्होंने अपने सुखों और प्राथमिकताओं का त्याग कर दिया है।' ऐसा आचरण करना कितना अद्भुत है! ऐसे अवसर पर जब दूसरे तुम्हारी कमियों को सामने लाते हैं, तो तुम न केवल उन्हें स्वीकार करने में सक्षम होते हो, बल्कि तुम आशावादी हो तथा अपनी कमियों एवं दोषों का आत्मविश्वास के साथ सामना करते हो। तुम्हारी मनोस्थिति बिल्कुल सामान्य है, एवं अत्याधिकता और जोशीलेपन से मुक्त है। क्या मानवीय समानता का होना यही नहीं होता? केवल ऐसे लोगों में ही अच्छी समझ होती है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। पहले, मैं सोचता, मैं घमंडी नहीं था, मगर परमेश्वर के वचनों के खुलासे से समझ पाया कि मैं बहुत घमंडी था। सुपरवाइजर ने जब मुझे नए सदस्यों के सिंचन के कुछ अच्छे तरीके बताए, तो मैंने माना ही नहीं। जब उन्होंने पूछा, मैं नए सदस्यों का सिंचन कैसे करता हूँ, तो मैंने चुप्पी साध ली या संक्षेप में जवाब दे दिया, क्योंकि नहीं चाहता था मेरी नाक कटे, या दूसरे लोग नए सदस्यों के सिंचन में मेरी कमियाँ देखें। मैं चाहता था कि दूसरे समझें, मेरे साथ सब अच्छा था, मेरे कर्तव्य में कुछ भी गलत नहीं था, और मैं दूसरों की देखरेख या मदद के बिना अपना कर्तव्य निभा सकता था। मैं वाकई बहुत घमंडी था। मुझे यह भी लगता कि मेरे काम की देखरेख करने वाली बहन से ज्यादा खूबियां मुझमें थीं, मैं नए सदस्यों का सिंचन करना जानता था, मेरे अपने तौर-तरीके थे, और वे कारगर थे, तो मैं उनके सुझाव मानने को तैयार नहीं था। मैं दिल की गहराई से मानता था कि उनकी सलाह मानने का अर्थ मेरी क्षमता उनकी क्षमता से कम होना था। यह शर्मिंदगी की बात होती। दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? इसलिए मैं ऊपर से उनके सुझाव मान लेता, मगर विरले ही उन पर अमल करता था। मेरे घमंडी स्वभाव ने मुझे सत्य से बहुत दूर रखा, दूसरों की सलाह मानने से रोक दिया, और मुझे अपनी ही सोच से चिपके रहने दिया। यह परमेश्वर के प्रति विद्रोह था। इसके बाद, मैंने शांत होकर अपनी बहन के सुझाव के बारे में सोचा। मुझे लगा, उनका सुझाव अच्छा और आजमाने लायक था। इसलिए, मैंने नए सदस्यों को फोन किया। मुझे लगा, फोन पर चर्चा कर उनकी समस्याएँ समझना और उनकी फौरन मदद करना आसान था। उनकी सलाह पर अमल करके, जब मैंने देखा कि नए सदस्यों के सिंचन का काम ज्यादा प्रभावी हो गया था, तो मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। इस मामले में, मैंने देखा कि लंबे समय तक अपना कर्तव्य निभाने के बावजूद मुझमें अभी भी बहुत-सी कमियाँ थीं। अपनी बहन की मदद और मार्गदर्शन के बिना, मेरे काम के नतीजों में सुधार नहीं हो पाता। मैंने यह भी समझ लिया कि मैं दूसरों से बेहतर नहीं था, और सिर्फ अपने दम पर अच्छे ढंग से कर्तव्य नहीं निभा सकता था।
एक दिन, सुपरवाइजर ने मुझसे एक नए सदस्य की हालत, और कई दिनों से उसके सभाओं में न आने का कारण जानना चाहा। मेरे बता देने के बाद, उन्होंने कुछ और सवाल भी पूछे, विस्तार से जानना चाहा कि मैं अपना कर्तव्य कैसे निभाता हूँ। मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई, मैं बहुत प्रतिरोधी हो गया। उनके किसी भी सवाल का जवाब नहीं देना चाहता था, क्योंकि अपने काम को लेकर मुझे उनकी देखरेख और पूछताछ मंजूर नहीं थी। मुझे एहसास हुआ कि मेरा भ्रष्ट स्वभाव फिर से सिर उठा रहा था, तो मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, ऐसे माहौल का पालन करना सीखने, अपनी भ्रष्टता को पहचानने और दूसरों की देखरेख और मार्गदर्शन को स्वीकारने का रास्ता दिखाने की विनती की। इसके बाद, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। "मसीह-विरोधी किसी और को भागीदारी, पूछताछ या निरीक्षण करने नहीं देते, और यह कई तरीकों से प्रकट होता है। एक है सीधा और स्पष्ट इनकार। 'जब मैं काम करूँ, तो हस्तक्षेप, सवाल और निगरानी मत करो। मैं जो भी काम करता हूँ, वह मेरी जिम्मेदारी है, मैं जानता हूँ कि उसे कैसे करना है और किसी और को मेरा प्रबंधन करने की जरूरत नहीं है!' यह सीधा इनकार है। एक और अभिव्यक्ति यह कहते हुए ग्रहणशील दिखने की होती है, 'ठीक है, चलो थोड़ी संगति कर लेते हैं और देखते हैं कि काम कैसे किया जाना चाहिए', लेकिन जब दूसरे वास्तव में प्रश्न पूछना शुरू करते हैं और उनके काम के बारे में और जानने की कोशिश करते हैं, या वे कुछ समस्याएँ बताते हुए कुछ सुझाव देते हैं, तो उनका क्या रवैया रहता है? (वे ग्रहणशील नहीं रहते।) यह सही है—वे स्वीकार करने से मना कर देते हैं, दूसरों के सुझाव खारिज करने के कारण और बहाने ढूँढ़ते हैं, गलत को सही और सही को गलत में बदल देते हैं, लेकिन असल में, अपने दिल में वे जानते हैं कि वे तर्क को तोड़-मरोड़ रहे हैं, कि वे खोखली बातें कर रहे हैं, कि यह अटकलबाजी है, कि उनके शब्दों में वह वास्तविकता नहीं है जो दूसरे लोगों की बातों में है। और फिर भी अपनी हैसियत की रक्षा करने के लिए—और यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि वे गलत हैं और दूसरे लोग सही हैं—वे दूसरे लोगों की सही बात गलत में और अपनी गलत बात सही में बदल देते हैं, और जहाँ वे होते हैं, वहाँ सही और सत्य के अनुरूप चीजों को कार्यान्वित न होने देकर अपनी गलत बात कार्यान्वित करते रहते हैं। ... उनका उद्देश्य क्या होता है? यह दूसरे लोगों को हस्तक्षेप, पूछताछ या निरीक्षण करने से रोकने, और भाई-बहनों को यह सोचने पर बाध्य करने के लिए होता है कि उनका वैसा करना, जैसा वे कर रहे हैं, न्यायसंगत है, सही है, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं और कार्य के सिद्धांतों के अनुरूप है, कि अगुआ के रूप में वे सिद्धांत का पालन कर रहे हैं। वास्तव में, कलीसिया में कुछ ही लोग सत्य समझते हैं; निस्संदेह ज्यादातर लोग सत्य समझने में असमर्थ हैं, वे इन मसीह-विरोधियों की असलियत नहीं देख पाते, और स्वाभाविक रूप से उनके झाँसे में आ जाते हैं" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग दो))। "जब शैतान कार्य करता है, तो वह किसी और को हस्तक्षेप नहीं करने देता, वह जो कुछ भी करता है उसमें अपनी ही चलाना चाहता है और हर चीज नियंत्रित करना चाहता है, और कोई भी उसका निरीक्षण या पूछताछ नहीं कर सकता। किसी को हस्तक्षेप या दखलंदाजी करने की अनुमति तो बिलकुल भी नहीं होती। मसीह-विरोधी इसी तरह कार्य करता है; चाहे वह कुछ भी करे, किसी को पूछताछ करने की अनुमति नहीं होती, और चाहे वह पर्दे के पीछे कैसे भी काम करे, किसी को हस्तक्षेप नहीं करने दिया जाता। यह मसीह-विरोधियों का व्यवहार है। वे ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव अत्यंत अहंकारी होता है और उनमें समझदारी की अत्यंत कमी होती है। उनमें आज्ञाकारिता का पूर्ण अभाव होता है, और वे किसी को अपनी निगरानी या अपने कार्य का निरीक्षण नहीं करने देते। ये वास्तव में दानव की हरकतें हैं, जो सामान्य व्यक्ति की हरकतों से बिलकुल अलग होती हैं। जो कोई भी कार्य करता है, उसे दूसरों के सहयोग की आवश्यकता होती है, उसे अन्य लोगों की सहायता, सुझाव और सहयोग की आवश्यकता होती है, और अगर कोई निरीक्षण या निगरानी कर रहा हो, तो भी यह कोई बुरी बात नहीं, यह आवश्यक है। अगर किसी स्थान पर गलतियाँ हो जाती हैं, और निगरानी करने वाले लोगों द्वारा उनका पता लगाकर उन्हें तुरंत ठीक कर दिया जाता है, तो क्या यह एक बड़ी मदद नहीं है? इसलिए, जब बुद्धिमान लोग काम करते हैं, तो वे इसे पसंद करते हैं कि अन्य लोग उनका निरीक्षण और अवलोकन करें और उनसे प्रश्न पूछें। अगर संयोगवश कोई गलती हो ही जाए, और ये लोग बता सकें और गलती तुरंत ठीक की जा सके, तो क्या यह अप्रत्याशित लाभ नहीं है? इस दुनिया में कोई ऐसा नहीं है, जिसे दूसरों की मदद की जरूरत न हो। ऑटिज्म या डिप्रेशन से पीड़ित लोग ही अकेले रहना पसंद करते हैं। जब लोग ऑटिज्म या डिप्रेशन से ग्रस्त हो जाते हैं, तो वे सामान्य नहीं रह जाते। वे अब खुद को नियंत्रित नहीं कर पाते। अगर लोगों का मन और बुद्धि सामान्य है, और वे दूसरों के साथ संवाद नहीं करना चाहते, अगर वे नहीं चाहते कि अन्य लोग उनके द्वारा किए जाने वाले किसी भी काम के बारे में जानें, अगर वे पर्दे के पीछे काम करते हुए उसे गुप्त रूप से, छिपकर, अकेले में करना चाहते हैं, और वे किसी और की कोई बात नहीं सुनते, तो ऐसे लोग मसीह-विरोधी होते हैं, है न? यह एक मसीह-विरोधी है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग दो))। मुझे लगा, ये वचन मेरे लिए परमेश्वर का न्याय थे। एहसास हुआ मैं वैसा ही बर्ताव कर रहा था जैसा परमेश्वर ने खुलासा किया है। मेरे लिए अपने कर्तव्य में, दूसरों की देखरेख और सलाह मानना बहुत मुश्किल था। मुश्किलें झेलते समय भी, मैं उन्हें कभी उजागर नहीं करता था या दूसरों को जानने नहीं देता था, क्योंकि मुझे लगता, यह काम मुझे दिया गया था, तो जिम्मेदार मैं ही था, मेरा ही फैसला आखिरी था, और मैं इसे अपने ही ढंग से कर सकता था। लगा, मुझे अपना कर्तव्य निभाना आता है, मुझे न तो सुपरवाइजर की जरूरत थी, न ही किसी देखरेख करने वाले या सलाह देने वाले की। मैं दूसरों की सलाह को अपनी कमियों की निंदा या अपनी काबिलियत पर सवाल उठाना मानता था, मैं ये सुनना नहीं चाहता था। अब मैं समझ सका कि यह अहंकार और बेवकूफी थी। यह वह समझ नहीं थी, जो सामान्य मानवता के पास होनी चाहिए। अपनी अहंकारी प्रकृति के कारण मैं किसी की बात नहीं मानता था, न ही दूसरों की देखरेख और सलाह मानता था। मैं खुद ही अंतिम फैसला लेना चाहता था और नए सदस्यों का सिंचन मनमाने ढंग से करना चाहता था। पहले, मैं अपने ही तरीके से नए सदस्यों की खोज-खबर लिया करता था, जो कि सिर्फ संदेश भेजना होता था, नए सदस्यों से विरले ही बात करता था। जब थोड़े दिनों तक कुछ नए सदस्य जवाब न देते, तो मैं उन्हें किनारे कर देता, और उन नए सदस्यों के साथ सभा करता, जो मेरे साथ संवाद करना चाहते, नतीजतन, कुछ नए सदस्यों का सिंचन समय से नहीं हो पाया। नए सदस्य बहुत नाजुक होते हैं, कभी भी छोड़ सकते हैं, विश्वास रखना बंद कर सकते हैं, और कुछ तो सभा समूह भी छोड़ सकते हैं। क्या मेरी करनी मसीह-विरोधी जैसी नहीं थी? मसीह-विरोधी दूसरों की देखरेख पसंद नहीं करते, वे कभी भी दूसरों से सलाह नहीं लेते। हर चीज पर अपना काबू चाहते हैं, अपने ही ढंग से या अपनी ही राय के अनुसार काम करना चाहते हैं, किसी की बात नहीं मानते, और अपना काम अच्छे ढंग से करने के लिए दूसरों के साथ सहयोग नहीं करते। मैंने देखा कि मैं मसीह-विरोधी की राह पर चल रहा हूँ, तो मुझे डर लगा। ऐसा ही करता रहा, तो परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा। परमेश्वर जिनसे घृणा करता है, उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं होता, परमेश्वर की नजरों में वे दुश्मन होते हैं। परमेश्वर के वचन से मैंने यह भी जाना कि सबकी अपनी कमियाँ और खामियाँ होती हैं, इसलिए हमें दूसरों की सलाह और मदद चाहिए। हमें अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के लिए लोगों से सहयोग करना चाहिए। मेरे काम की खोज-खबर लेकर और मुझे सुझाव देकर सुपरवाइजर मेरी मदद कर रही थीं। अमल करने पर मैंने उन्हें उपयोगी पाया, मगर मैं उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहता था, इस तरह मैंने कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाया। यह एक गंभीर मामला था।
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। "जब कोई तुम्हारी निगरानी या निरीक्षण करने में थोड़ा समय लगाता है या तुमसे गहन प्रश्न पूछता है, तुम्हारे साथ खुले दिल से बातचीत करने और यह पता लगाने की की कोशिश करता है कि इस दौरान तुम्हारी स्थिति कैसी रही है, यहाँ तक कि कभी-कभी जब उनका रवैया थोड़ा कठोर होता है, और वे तुमसे थोड़ा निपटते हैं और तुम्हारी थोड़ी काट-छाँट करते हैं, और तुम्हें अनुशासित करते और धिक्कारते हैं, तो वे यह सब इसलिए करते हैं क्योंकि उनका परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति एक ईमानदार और जिम्मेदारी भरा रवैया होता है। तुम्हें इसके प्रति नकारात्मक विचार या भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम दूसरों की निगरानी, निरीक्षण और पूछताछ स्वीकार कर सकते हो, तो इसका क्या मतलब है? यह कि अपने दिल में तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो। अगर तुम लोगों के द्वारा अपनी निगरानी, निरीक्षण और पूछताछ स्वीकार नहीं करते—अगर तुम इस सब का विरोध करते हो—तो क्या तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करने में सक्षम हो? परमेश्वर की जाँच लोगों की पूछताछ से ज्यादा विस्तृत, गहन और सटीक होती है; परमेश्वर जो पूछता है, वह इससे अधिक विशिष्ट, कठोर और गहन होता है। इसलिए अगर तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निगरानी की जाना स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हारे ये दावे कि तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर सकते हो, खोखले शब्द नहीं हैं? परमेश्वर की जाँच और परीक्षा स्वीकार करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर के घर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, और भाई-बहनों द्वारा निगरानी स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। "अगर तुम्हारे पास परमेश्वर से डरने वाला दिल है, तो तुम स्वाभाविक रूप से परमेश्वर की जाँच-पड़ताल पाने में सक्षम होगे, पर तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी को स्वीकार करना भी सीखना होगा, जिसके लिए तुममें सहिष्णुता और स्वीकृति होनी जरूरी है। अगर तुम किसी को तुम्हारे काम की निगरानी करते, निरीक्षण करते, या बिना तुम्हारी जानकारी के जाँच करते देखते हो, और अगर तुम गुस्से में आ जाते हो, उस व्यक्ति से दुश्मन की तरह पेश आते हो, उससे घृणा करते हो, और उस पर वार भी कर बैठते हो, उसे विश्वासघाती की तरह देखते हो, उसके वहाँ न रहने की कामना करते हो, तो यह एक समस्या है। क्या यह अत्यंत दुष्टतापूर्ण नहीं है? इसमें और एक राक्षस में क्या फर्क है? क्या यह लोगों से उचित ढंग से पेश आना है? अगर तुम सही रास्ते पर चलते हो और सही काम करते हो, तो तुम्हें लोगों की जाँच से डरने की क्या जरूरत है? तुम्हारे दिल में कोई चोर है। अगर तुम अपने दिल में जानते हो कि कुछ समस्या है, तो तुम्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। इसी में समझदारी है। अगर तुम जानते हो कि तुम्हारे साथ कुछ समस्या है, पर तुम किसी को तुम्हारी निगरानी, तुम्हारे काम के निरीक्षण या तुम्हारी समस्या की छानबीन करने देना नहीं चाहते, तब तुम बहुत ज्यादा अनुचित हो रहे हो, तुम परमेश्वर से विद्रोह और उसका प्रतिरोध कर रहे हो, और इस मामले में, तुम्हारी समस्या और भी गंभीर है। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने भाँप लिया कि तुम एक कुकर्मी या गैर-विश्वासी हो, तो नतीजे और भी बड़ी मुसीबत वाले होंगे। इसलिए जो लोग दूसरों की निगरानी, जाँच और निरीक्षण को स्वीकार कर सकते हैं, वे सबसे समझदार लोग होते हैं, उनमें सहिष्णुता और सामान्य मानवता होती है। जब तुम्हें पता चलता है कि तुम कुछ गलत कर रहे हो, या भ्रष्ट स्वभाव दिखा रहे हो, तो अगर तुम दूसरे लोगों के साथ खुलकर बात करने में सक्षम होते हो, तो इससे तुम्हारे आसपास के लोगों को तुम पर नजर रखने में आसानी होगी। पर्यवेक्षण को स्वीकार करना निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन मुख्य बात है परमेश्वर से प्रार्थना करना, उस पर भरोसा करना और निरंतर आत्मचिंतन करना। खासकर जब तुम गलत मार्ग पर चले पड़े हो, कुछ गलत कर दिया हो या जब तुम तानाशाही तरीके से कोई एकतरफा कार्रवाई करने वाले हो और आस-पास का कोई व्यक्ति इस बात का उल्लेख कर तुम्हें सचेत कर दे, तो तुम्हें इसे स्वीकार कर तुरंत आत्मचिंतन करना चाहिए और अपनी गलती को स्वीकार कर उसे सुधारना चाहिए। इससे तुम मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने से बच जाओगे। अगर कोई इस तरह तुम्हारी मदद कर तुम्हें सचेत कर रहा है, तो क्या अनजाने में ही तुम्हें संरक्षित नहीं किया जा रहा है? किया जा रहा है—यही तुम्हारा संरक्षण है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचन दूसरों की देखरेख के महत्व और लाभों को बहुत स्पष्ट कर देते हैं। पहले, मैं अपनी देखरेख के फायदे वाकई नहीं समझता था, जिस वजह से मैंने अपनी देखरेख करने वालों का प्रतिरोध किया। सोचता था, वे मेरे काम पर नियंत्रण रखते हैं या मुझे हिकारत की नजर से देखते हैं। मेरे ख्याल से, अगर कोई मुझसे काम के बारे में पूछने आता था, तो शायद वह सोचता था कि मैं गैर-जिम्मेदार और काम में नाकाबिल था, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से या दूसरों जैसा नहीं निभा सकता था, इसलिए मैं दूसरों की देखरेख का बहुत प्रतिरोध करता था। लेकिन परमेश्वर के वचन से मैं समझ पाया कि मेरी राय गलत थी, सत्य के अनुरूप नहीं थी। मेरे काम में कुछ कमियाँ थीं, और सुधार के लिए मुझे भाई-बहनों की मदद की जरूरत थी, मगर मैंने देखरेख से इनकार कर दिया। इस तरह, क्या मैं कभी अपने काम की गलतियाँ ठीक कर पाता, या अपना काम बेहतर ढंग से कर पाता? भाई-बहनों का मुझसे मेरे काम के बारे में पूछना बहुत अहम था, क्योंकि वे काम की जिम्मेदारी उठाकर अपना कर्तव्य निभा रहे थे। मुझे चुप्पी साधने और ठुकराने का रवैया नहीं अपनाना चाहिए। मुझे खुलकर अपनी दिक्कतें और अपने काम की असली हालत बयान करनी चाहिए। कलीसिया कार्य के लिए यह बेहतर होगा। देखरेख को स्वीकार कर मैं अपनी खामियाँ देख सकूँगा, सोच-विचार कर सकूँगा कि क्या मैं अपना कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार निभाता हूँ। अब मैं परमेश्वर की इच्छा समझ पाया। दूसरे अक्सर मेरे काम की देखरेख और जाँच किया करते थे, जो मुझे अपनी आकांक्षाओं के अनुसार, नए सदस्यों को गुमराह करने, उन्हें छोड़ देने या तबाह करने से रोक सकता था। यह वाकई मेरे लिए परमेश्वर की सुरक्षा है।
मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा, "क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है। अपनी शक्तियों और फायदों या दोषों के प्रति लोगों का यही रवैया भी होना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य की वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, एक-दूसरे की खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन से, मैं समझ गया कि सबमें अपनी-अपनी खूबियाँ और खामियाँ होती हैं, और इस दुनिया में कोई भी परिपूर्ण नहीं होता। लोग चाहे जितने भी समर्थ क्यों न हों, उनमें कमियाँ होती ही हैं और उन्हें दूसरों की मदद की जरूरत पड़ती है। हम कलीसिया में जो भी कर्तव्य निभाते हों, उसे दूसरों की मदद और सहयोग से अलग नहीं किया जा सकता। शैतान ने हमें इतनी गहराई से भ्रष्ट कर रखा है कि हम हमेशा अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार ही काम करते हैं, इसलिए हमें भाई-बहनों की देखरेख और याद दिलाने की जरूरत होती है, ताकि हम सिद्धांतों से भटके नहीं और कम गलतियाँ करें। जब दूसरे लोग काम में मेरी समस्याएँ समझने आते, तो मुझे इसका इस्तेमाल खुद को सुधारने के मौके की तरह करना चाहिए था, उनकी खूबियों से सीखकर अपनी कमजोरियों की भरपाई करनी चाहिए थी। इससे मुझे और कलीसिया के कार्य को मदद मिलती। मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि मेरे काम की देखरेख करने वाली बहन सहित, किसी से भी मैं जरा भी बेहतर नहीं था। मुझे दूसरों का मार्गदर्शन और सलाह स्वीकारनी चाहिए, अपने भटकावों और गलतियों को ठीक करना चाहिए, और अपनी कमजोरियों का खुलासा करने की हिम्मत कर दूसरों से मदद माँगनी चाहिए। ऐसा ही व्यक्ति सामान्य समझ और मानवता वाला होता है। यह जान लेने के बाद, मैंने अपने गलत नजरिए को छोड़ना शुरू कर दिया। अब मुझे नहीं लगता था कि मैं किसी की देखरेख के बिना नए सदस्यों का सिंचन कर सकता हूँ। इसके बजाय, मुझे लगा मुझमें बहुत-सी कमियाँ थीं और मैं परिपूर्ण नहीं था। इसके बाद, मैंने अपनी बहन की सलाह मानना शुरू कर दिया, जब वे सवाल पूछतीं या नए सदस्यों की हालत के बारे में मेरे विचार जानना चाहतीं, तो मैं खुलकर चर्चा करता और उन्हें विस्तार से बताता। इस तरह, मैं अपने कर्तव्य में ज्यादा प्रभावी बन गया।
एक दिन, बहन ने मुझसे नए सदस्यों की हालत जाननी चाही। मैंने कुछ भी छिपाए बिना उनके सवालों के जवाब दिए, और कुछ नए सदस्यों के नियमित रूप से सभा में न आने के कारणों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने मुझे कुछ अहम बातों की याद दिलाई, मैंने वो लिख लीं, और उन पर अमल किया। मैंने देखा दूसरों की सलाह मानना बहुत अच्छी बात है। हालाँकि कभी-कभी जब वे मेरी कमियाँ बतातीं, तो मैं उन्हें तुरंत नहीं मान पाती थी, मगर समझ जाती कि वे यहाँ मेरी मदद करने आई हैं, तो मुझे नकारात्मक होकर उनका प्रतिरोध नहीं करना चाहिए। मुझे परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करना और सत्य खोजना चाहिए, जो मेरे और कलीसिया के कार्य दोनों के लिए फायदेमंद था। मेरी जिम्मेदारी नए सदस्यों का अच्छे से सिंचन करने की है ताकि वे सच्चे मार्ग में अपनी बुनियाद मजबूत कर सकें, मैं अपना कर्तव्य बढ़िया ढंग से निभाने और दूसरों की देखरेख स्वीकारने को तैयार हूँ।