28. बूढ़े अब भी परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं

लियू एन, चीन

मैंने 62 वर्ष की उम्र में प्रभु यीशु पर विश्वास करना शुरू किया। यह जानकर कि प्रभु अपने अनुयायियों को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश और अनंत जीवन देने का वादा करता है, मुझे ऐसा महसूस हुआ कि इस जीवन में मेरे पास आशा है और ऐसा महान आशीष पाने के विचार से ही मेरे दिल खुश हो गया। मैं हर दिन असीम ऊर्जा के साथ कड़ी मेहनत करने लगा और प्रभु के लिए खुद को खपाने लगा। तीन साल बाद मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने का सौभाग्य मिला। मैं प्रभु की वापसी का स्वागत करने और पूरी तरह से बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने की उम्मीद से उत्साहित था। इसलिए मैं अपनी खोज में और भी ज्यादा मेहनत करने लगा, खुद को और भी ज्यादा त्यागने और खपाने लगा, सक्रियता से सुसमाचार का प्रचार करने और अपना कर्तव्य निभाने लगा और यहाँ तक कि शाम को सुसमाचार का प्रचार करने के लिए बाहर भी जाने लगा। बाद में भाई-बहनों ने मुझे कलीसिया अगुआ और फिर उपदेशक चुन लिया। अपने बुढ़ापे में ऐसे महत्वपूर्ण कर्तव्य करने का मौका पाकर मैं बहुत खुश था। मुझे यह देखकर खासकर सम्मानित महसूस हुआ कि भले ही मैं हमारी सभाओं में सबसे बूढ़ा था, फिर भी मैं सभाओं की मेजबानी और दूसरों की समस्याएँ सुलझाने में मदद कर सकता था। मैंने सोचा कि अगर मैं अपने लक्ष्य के लिए कड़ी मेहनत करूँगा तो मुझे भी युवा लोगों की तरह बचाया जा सकता है, इसलिए मैंने अपना पूरा दिल अपने कर्तव्य में लगा दिया।

पलक झपकते ही सात-आठ साल बीत गए और मेरी सेहत और ऊर्जा पहले जैसी नहीं रही। फिर 73 साल की उम्र में मुझे स्ट्रोक पड़ा, कुछ दिनों तक अस्पताल में रहने पर रोग के लगभग सारे लक्षण गायब हो गए। मुझे लगा कि परमेश्वर ने देखा होगा कि मैं उसके लिए खुद को पूरी तरह से खपाने के लिए तैयार हूँ, इसलिए उसने मुझे आशीष दिया और मेरी रक्षा की। मैं वाकई आभारी था और अपना कर्तव्य निभाता रहा। लेकिन मेरी सेहत को देखते अगुआ ने मेरा कर्तव्य बदलकर मुझे घर पर अन्य भाई-बहनों की मेजबानी करने में लगा दिया। यह जानते हुए कि ऐसे कई कर्तव्य हैं जो मैं अब नहीं कर पाऊँगा और मैं सिर्फ घर पर भाई-बहनों की मेजबानी ही करूँगा, मैं उदास हो गया। मुझे सभी युवा भाई-बहनों से जलन हुई, जिनमें भरपूर उर्जा थी और वे हर तरह के कर्तव्यों में व्यस्त रहते थे। मैंने सोचा, “मैं बूढ़ा हो गया हूँ और मेरा स्वास्थ्य खराब है। मैं अब चाहकर भी भाग-दौड़ नहीं कर सकता और ऐसे कई काम हैं जो मैं अब नहीं कर सकता। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि मैं बेकार हूँ? काश मैं 10-20 साल पीछे जाकर उनकी तरह सभी तरह के अलग-अलग काम कर पाता। तब मुझे आशीष और उद्धार मिलने की संभावनाएँ बहुत ज्यादा होतीं! हालाँकि अभी बूढ़ा होने के नाते मैं युवाओं के साथ अपनी तुलना नहीं कर सकता।” इस विचार ने मुझे निराश कर दिया और इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, मैं हताश हो गया। मैंने यह भी सोचा कि कैसे मुझे स्ट्रोक पड़ा था और यह एक ऐसी बीमारी है जो बार-बार होती है तो अगर मुझे किसी दिन फिर से दौरा पड़ा तो यह मेरा अंत हो सकता है और मैं परमेश्वर की महिमा का दिन नहीं देख पाऊँगा। तो मुझे कैसे बचाया जा सकेगा? तो फिर परमेश्वर में विश्वास करने का क्या मतलब था? ये मेरे लिए उदास, हताश करने वाले विचार थे। कुछ समय के लिए मैं परमेश्वर के वचन भी नहीं पढ़ पाया या भजन तक नहीं सुन पाया। अपने दुख में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! मुझे लगता है कि अब मेरे उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। मैं बहुत नकारात्मक हो गया हूँ और अपने जीवन से पूरी तरह से ऊब चुका हूँ। परमेश्वर, मैं खुद को तुमसे दूर नहीं करना चाहता। मुझे पता है कि मेरी अवस्था ठीक नहीं है, लेकिन मुझे नहीं पता कि इसे कैसे सुधारा जाए। मुझे इस गलत अवस्था से बाहर निकालने में मदद करो।”

इन नकारात्मक विचारों से प्रभावित न होने के लिए मैंने खुद को फिर से परमेश्वर के वचन पढ़ने में लगाने के लिए प्रेरित किया। मैंने एक दिन परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर की इच्छा है कि उसे पूर्ण बनाया जाए, अंततः उसके द्वारा उसे प्राप्त किया जाए, उसके द्वारा उसे पूरी तरह से शुद्ध किया जाए, और वह ऐसा इंसान बने जिससे वह प्रेम करता है। चाहे मैं तुम लोगों को पिछड़ा हुआ कहता हूँ या निम्न क्षमता वाला—यह सब तथ्य है। मेरा ऐसा कहना यह प्रमाणित नहीं करता कि मेरा तुम्हें छोड़ने का इरादा है, कि मैंने तुम लोगों में आशा खो दी है, और यह तो बिल्कुल नहीं कि मैं तुम लोगों को बचाना नहीं चाहता। आज मैं तुम लोगों के उद्धार का कार्य करने के लिए आया हूँ, जिसका तात्पर्य है कि जो कार्य मैं करता हूँ, वह उद्धार के कार्य की निरंतरता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्ण बनाए जाने का एक अवसर है : बशर्ते तुम तैयार हो, बशर्ते तुम खोज करते हो, अंत में तुम इस परिणाम को प्राप्त करने में समर्थ होगे, और तुममें से किसी एक को भी त्यागा नहीं जाएगा। यदि तुम निम्न क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निम्न क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम उच्च क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उच्च क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम अज्ञानी और निरक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निरक्षरता के अनुसार होंगी; यदि तुम साक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस तथ्य के अनुसार होंगी कि तुम साक्षर हो; यदि तुम बुज़ुर्ग हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उम्र के अनुसार होंगी; यदि तुम आतिथ्य प्रदान करने में सक्षम हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम कहते हो कि तुम आतिथ्य प्रदान नहीं कर सकते और केवल कुछ निश्चित कार्य ही कर सकते हो, चाहे वह सुसमाचार फैलाने का कार्य हो या कलीसिया की देखरेख करने का कार्य या अन्य सामान्य मामलों में शामिल होने का कार्य, तो मेरे द्वारा तुम्हारी पूर्णता भी उस कार्य के अनुसार होगी, जो तुम करते हो। वफ़ादार होना, बिल्कुल अंत तक समर्पण करना, और परमेश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम रखने की कोशिश करना—यह तुम्हें अवश्य करना चाहिए, और इन तीन चीज़ों से बेहतर कोई अभ्यास नहीं है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे लिए तुरंत ही चीजें साफ कर दीं। परमेश्वर लोगों के परिणामों का निर्धारण इस आधार पर नहीं करता कि उन्होंने उसके लिए कितना कष्ट सहा है, उनकी योग्यता की सीमा क्या है या उनके कर्तव्यों का दायरा क्या है। जब तक वे वाकई उसके लिए खुद को खपाते हैं, सत्य का अनुसरण करते हैं, उसके प्रति असली समर्पण प्रदर्शित करते हैं, अपने कर्तव्य मानकों के अनुसार निभाते हैं और उसके लिए सच्ची गवाही देते हैं, तब तक वह उन्हें स्वीकारेगा। लेकिन मैं उसके इरादे नहीं समझ पाया था और नहीं जान सका था कि वह किस तरह के लोगों को बचाता है। मैंने हमेशा यही माना कि परमेश्वर के लिए खुद को खपाने, कष्ट सहने और कीमत चुकाने और बहुत काम करने से परमेश्वर मुझे स्वीकार लेगा। लेकिन चूँकि मैं बूढ़ा हो रहा था और युवाओं की तरह कड़ी मेहनत नहीं कर सकता था, मैंने पहले ही अपने उद्धार को खारिज कर दिया था। मैं नकारात्मकता और गलतफहमियों में उलझ गया था; मैं परमेश्वर के खिलाफ बहुत विद्रोही था! असलियत में भले ही मैं बूढ़ा था और युवाओं की तरह कई कर्तव्य नहीं कर सकता था, परमेश्वर ने मुझसे उन जैसी अपेक्षाएँ नहीं की थीं। वह मुझे सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने के अवसरों से वंचित नहीं कर रहा था। मेरा दिमाग और विवेक अभी भी बरकरार थे; मैं अभी भी परमेश्वर के वचन पढ़ सकता था और अपनी क्षमता के अनुसार कर्तव्य कर सकता था। लेकिन परमेश्वर के इरादे की तलाश किए बिना ही मैंने खुद को बूढ़ा और बेकार करार दे दिया था, मानो मैं परमेश्वर के अनुग्रह से बाहर हो गया हूँ। क्या यह परमेश्वर के बारे में पूर्वानुमान लगाना नहीं था? परमेश्वर ने कभी नहीं कहा कि बहुत सारे कर्तव्य करने से व्यक्ति को बचा लिया जाएगा या एक बार जब कोई बूढ़ा हो जाता है तो वह उसे निकाल देगा और उसे फिर कभी नहीं बचाएगा। वह वाकई इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट था कि बूढ़े लोगों को सत्य का अनुसरण कैसे करना चाहिए और अपने कर्तव्य कैसे निभाने चाहिए। जब तक मैं अंत तक वफादार और समर्पित हूँ और मैं परमेश्वर से प्रेम करने का प्रयास कर सकता हूँ, मेरा उद्धार होने की उम्मीद है। परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजें न देखना मेरी बड़ी मूर्खता थी। मैंने अपनी धारणाओं और कल्पनाओं को सत्य मान लिया था और हमेशा परमेश्वर के इरादे को गलत समझा था। इसका एहसास होने पर मुझे अपराध बोध हुआ और मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं अपने गलत विचारों के कारण नकारात्मक और प्रतिरोधी होना बंद कर दूँगा। जब तक मेरे पास एक और दिन अपना कर्तव्य निभाने की क्षमता है, मैं आगे बढ़ता रहूँगा और सत्य का अनुसरण करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करूँगा।” प्रार्थना और परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन ने मुझे कुछ सांत्वना दी—मैं अब इतना परेशान नहीं था। मैंने सोचा, “जब तक मेरा विवेक मेरे बस में है और मैं चल-फिर सकता हूँ, मैं अपने भाई-बहनों के लिए अच्छा मेजबान बनने के लिए परमेश्वर पर भरोसा करूँगा, अपने कर्तव्य बढ़िया से करूँगा और परमेश्वर को अपनी हार्दिक सेवा अर्पित करूँगा।”

लेकिन अभी भी कुछ ऐसा था जो मुझे समझ नहीं आया था। जब मैंने देखा कि मैं युवाओं की तरह सक्षम नहीं हूँ तो मैं इस हद तक नकारात्मक क्यों हो गया था कि मैं परमेश्वर को धोखा देने के बारे में भी सोच रहा था? उसका मूल कारण क्या था? अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभवात्मक ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए मेहनत करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। “मसीह-विरोधी केवल लाभ और आशीष प्राप्त करने के उद्देश्य से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। यदि वे कुछ कष्ट सहते हैं या कुछ कीमत चुकाते हैं, तो वह सब भी परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए होता है। आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की उनकी मंशा और इच्छा बहुत बड़ी होती है, और वे उससे कसकर चिपके रहते हैं। वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए अनेक सत्यों में से किसी को भी स्वीकार नहीं करते और अपने हृदय में हमेशा सोचते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना आशीष प्राप्त करने और एक अच्छी जगह पहुंचना सुनिश्चित करने के लिए है, कि यह सर्वोच्च सिद्धांत है, और इससे बढ़कर कुछ भी नहीं हो सकता। वे सोचते हैं कि लोगों को आशीष प्राप्त करने के अलावा परमेश्वर पर विश्वास नहीं करना चाहिए, और अगर यह सब आशीष के लिए नहीं है, तो परमेश्वर पर विश्वास का कोई अर्थ या महत्व नहीं होगा, कि यह अपना अर्थ और मूल्य खो देगा। क्या ये विचार मसीह-विरोधियों में किसी और ने डाले थे? क्या ये किसी अन्य की शिक्षा या प्रभाव से निकले हैं? नहीं, वे मसीह-विरोधियों के अंतर्निहित प्रकृति सार द्वारा निर्धारित होते हैं, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता। आज देहधारी परमेश्वर के इतने सारे वचन बोलने के बावजूद, मसीह-विरोधी उनमें से किसी को भी स्वीकार नहीं करते, बल्कि उनका विरोध करते हैं और उनकी निंदा करते हैं। सत्य के प्रति उनके विमुख होने और सत्य से घृणा करने की प्रकृति कभी नहीं बदल सकती। अगर वे बदल नहीं सकते, तो यह क्या संकेत करता है? यह संकेत करता है कि उनकी प्रकृति दुष्ट है। यह सत्य का अनुसरण करने या न करने का मुद्दा नहीं है; यह दुष्ट स्वभाव है, यह निर्लज्ज होकर परमेश्वर के विरुद्ध हल्ला मचाना और परमेश्वर को नाराज करना है। यह मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार है; यही उनका असली चेहरा है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग दो))। “मसीह-विरोधी अपने कर्तव्य को एक लेन-देन मानते हैं। वे लेन-देन करने और आशीष पाने के इरादे के साथ अपना कर्तव्य करते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास आशीष पाने की खातिर किया जाना चाहिए, और अपना कर्तव्य करने के जरिये आशीष पाना उचित है। वे अपना कर्तव्य निभाने जैसी सकारात्मक चीज को विकृत करते हैं और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के मूल्य और महत्व को कलंकित करते हैं; साथ ही, वे ऐसा करने की वैधता को भी कलंकित करते हैं; जो कर्तव्य सृजित प्राणियों को स्वाभाविक रूप से निभाना चाहिए, वे उसे एक लेन-देन में बदल देते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। मैंने परमेश्वर के वचनों से देखा कि मसीह-विरोधी सिर्फ इसलिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं ताकि उन्हें आशीष मिल सके; उनकी लेन-देन की मानसिकता कभी नहीं बदलती और चाहे कितनी भी मुश्किल या दुखद परिस्थितियाँ क्यों न आ जाएँ, वे हार नहीं मानते। अगर वे आशीष पाने की सारी उम्मीद खो देते हैं तो ऐसा लगता है कि उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह गँवा दिया है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर पर विश्वास करना निरर्थक है और वे परमेश्वर के खिलाफ लड़ते हैं और उसका प्रतिरोध करते हैं। अपनी तुलना परमेश्वर के वचनों से करने पर मैंने देखा कि मैं बिल्कुल मसीह-विरोधी की तरह काम कर रहा था। जब मैंने प्रभु पर विश्वास किया था तो मैं यह सुनकर बहुत खुश हुआ था कि प्रभु पर मेरा विश्वास मुझे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश दिला सकता है। मुझे लगा था कि इस जीवन में अनुग्रह पाने के लिए, फिर आने वाले संसार में अनंत जीवन पाने के लिए प्रभु के लिए कोई भी कष्ट उठाना सार्थक होगा। आशीष पाना और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना मेरी आस्था का लक्ष्य बन गया था और मैंने सोचा था कि जितना ज्यादा मैं त्याग करूँगा और खुद को खपाऊँगा, भविष्य में मुझे उतना ही ज्यादा आशीष मिलेगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद मुझे और भी ज्यादा लगा कि आशीष पाने का मेरा सपना सच हो जाएगा और मुझे कर्तव्य के प्रति और भी ज्यादा जोश आ गया। भले ही मैं उस समय 66 वर्ष का था, मैं खुद को बिल्कुल भी मैं खुद को बिल्कुल भी बूढ़ा नहीं मानता था। मैंने बस अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत करता था। मैं सभाओं के लिए अपनी साइकिल से हर जगह जाता था और इस बात की भी परवाह नहीं करता था कि मुझे फिर से स्ट्रोक पड़ जाएगा। मैं बस अपना कर्तव्य निभाने की पूरी कोशिश करना चाहता था, अपने माथे के पसीने और पीड़ा को आशीष के बदले पूंजी के रूप में इस्तेमाल करना चाहता था। लेकिन जब मैंने देखा कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ और अब उतने कर्तव्य नहीं निभा सकता, मैं पहले की तरह इधर-उधर नहीं घूम सकता और धीरे-धीरे कुछ भी करने में असमर्थ होता जा रहा हूँ तो मुझे लगा कि आशीष पाने की मेरी उम्मीदें कम होती जा रही हैं। मैं इसे स्वीकारना नहीं चाहता था। भले ही मैंने कुछ नहीं कहा, लेकिन अपने दिल में मैंने परमेश्वर पर दोष मढ़ दिया; मैं परमेश्वर की संप्रभुता नहीं स्वीकारना चाहता था, इसलिए मैं नकारात्मक, प्रतिरोधी और तर्कहीन हो गया। मेरी आस्था का उद्देश्य आशीष पाना था, जो परमेश्वर के साथ लेन-देन करना था। क्या यह परमेश्वर में विश्वास के बारे में मसीह-विरोधी का भ्रामक नजरिया नहीं था? मैंने कर्तव्य करने जैसी सकारात्मक और अद्भुत चीज को तोड़-मरोड़ दिया था। मैं सिर्फ अपना कर्तव्य निभाना और यात्रा करना जानता था ताकि स्वर्ग के राज्य के आशीष के बदले मैं परमेश्वर के साथ लेन-देन कर सकूँ, अपने कर्तव्य को अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करने के लिए एक उपकरण और सौदेबाजी की पूंजी की तरह इस्तेमाल करूँ। मैं वाकई आशीष पाने की अपनी इच्छा से भटक गया था और सिर्फ स्वर्ग के राज्य में जाने के बारे में सोचता था। मुझे सिर्फ इस बात की परवाह थी कि क्या मुझे आशीष मिलेगा और मेरा परिणाम और गंतव्य क्या होगा। मेरे मन में परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने या उसके ईमानदार इरादे समझने के बारे में कोई विचार नहीं था। क्या मुझमें अंतरात्मा नाम की कोई चीज भी थी? परमेश्वर ने मुझे जीवन की साँस और कर्तव्य करने का मौका दिया है। यह मेरे लिए पहले से ही उसका महान अनुग्रह है। लेकिन मैंने फिर भी परमेश्वर से शिकायत की, हमेशा उसके साथ बहस करने की कोशिश की, नकारात्मक और प्रतिरोधी रहा। मैं बहुत विद्रोही था और अगर परमेश्वर मेरे प्राण भी ले लेता तो यह उसकी धार्मिकता होती। इसका एहसास होने पर मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे आशीष के लिए अपने इरादे छोड़ने और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए मार्गदर्शन करने के लिए कहा। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे होश में आने में मदद की। मुझे एहसास हुआ कि जब परमेश्वर हमारा परिणाम और गंतव्य निर्धारित करता है तो इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता है कि हमने उसके लिए कितना त्याग किया है या खुद को कितना खपाया है, हमने कितना काम किया है या कितना कष्ट सहा है। यह इस बात पर आधारित है कि हमने सत्य पाया है या नहीं और क्या हमारे स्वभाव में बदलाव आया है। बहुत सारे कर्तव्य करने का मतलब यह नहीं है कि हमारे पास सत्य है या हमारे स्वभाव में बदलाव आ गया है। चाहे मैं कितने भी कर्तव्य करूँ, मुख्य बात यह है कि क्या मैं सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर हूँ। पहले मैंने बहुत सारे कर्तव्य किए थे और सभी जगहों की यात्रा की थी, लेकिन कभी सत्य की खोज नहीं की थी। मैं एक अच्छे गंतव्य के बदले में अपने सतही प्रयासों का इस्तेमाल करना चाहता था। मैंने परमेश्वर के प्रति अपने भीतर मौजूद लेन-देन वाली, प्रतिकूल मानसिकता नहीं देखी थी। आखिरकार जब आशीष पाने का मेरा सपना टूट गया तो मैंने परमेश्वर से बहस की और उसके खिलाफ हो गया। सच में अगर मैं सिर्फ इधर-उधर भागता और सत्य का अनुसरण किए बिना खुद को खपाता तो मैं और ज्यादा स्वार्थी और अहंकारी बन जाता और कभी भी स्वभावगत बदलाव हासिल नहीं कर पाता। मैं अपने द्वारा किए गए काम के बारे में परमेश्वर से तर्क-वितर्क और बहस करता रहता और ज्यादा से ज्यादा बुरा बनता जाता। यह पौलुस की तरह ही है—उसने बहुत काम किया और उसने महान काम किया, लेकिन उसने वह काम सिर्फ धार्मिकता के मुकुट के बदले में किया। यह हमेशा परमेश्वर के साथ एक लेन-देन था। उसने मृत्यु की कगार पर भी पश्चात्ताप नहीं किया और अंत में परमेश्वर द्वारा उसे दंडित किया गया। दूसरी ओर पतरस ने बहुत काम नहीं किया, लेकिन अपनी आस्था में उसने पूरे दिल से सत्य की खोज की और सभी चीजों में परमेश्वर के इरादे की तलाश की और उसके प्रति समर्पित होने की कोशिश की। उसकी कोई शर्त नहीं थी और उसने इस बात पर विचार नहीं किया कि उसे आशीष मिलेगा या नहीं। अंत में वह परमेश्वर का सर्वोच्च प्रेम हासिल कर मृत्यु को समर्पित हो पाया, परमेश्वर की स्वीकृति पाई और परमेश्वर द्वारा उसे पूर्ण बनाया गया। पौलुस और पतरस दोनों ही विश्वासी थे, लेकिन उनके उद्देश्य और अनुसरण में दृष्टिकोण अलग थे और इसीलिए उनके परिणाम भी अलग थे। इससे हम देख सकते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है और जब हम सत्य का अनुसरण करते हैं और स्वभावगत परिवर्तन लाते हैं, तभी हम परमेश्वर के इरादे के अनुरूप हो सकते हैं। मैं जिसका अनुसरण कर रहा था और जिस रास्ते पर चल रहा था, वह पौलुस की तरह ही बेतुका और गलत था और मेरा परिणाम निश्चित रूप से उसके जैसा ही होता। शुक्र है कि परमेश्वर के वचनों ने मुझे प्रबुद्ध किया और उसका इरादा समझने के लिए मेरा मार्गदर्शन किया और बताया कि मुझे अपनी आस्था के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखना चाहिए। मैंने परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना भी सीखा और एक विवेकशील प्राणी बनना सीखा। यह परमेश्वर का प्रेम है। परमेश्वर का इरादा समझने के बाद मेरी अवस्था में बहुत सुधार हुआ और मैं उसका बहुत आभारी था। इसके बाद जब भाई-बहन सभा करने आते थे तो मैं उनका सत्कार करता था। जब वे नहीं आते थे तो मैं शांति से परमेश्वर के वचन पढ़ता था और अपनी अवस्था के अनुसार सत्य खोजता था।

मैंने एक दिन परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के जन्म से लेकर वर्तमान तक के दशकों के दौरान केवल उसके लिए कीमत ही नहीं चुकाता। परमेश्वर के अनुसार, तुम अनगिनत बार इस दुनिया में आए हो, और अनगिनत बार तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ है। इसका प्रभारी कौन है? परमेश्वर इसका प्रभारी है। तुम्हारे पास इन चीजों को जानने का कोई तरीका नहीं है। हर बार जब तुम इस दुनिया में आते हो, परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से तुम्हारे लिए व्यवस्थाएं करता है : वह व्यवस्था करता है कि तुम कितने साल जियोगे, किस तरह के परिवार में पैदा होगे, कब तुम अपना घर और करियर बनाओगे, और साथ ही, तुम इस दुनिया में क्या करोगे और कैसे अपनी आजीविका चलाओगे। परमेश्वर तुम्हारे लिए आजीविका चलाने के तरीके की व्यवस्था करता है, ताकि तुम इस जीवन में बिना किसी बाधा के अपना मिशन पूरा कर सको। जहाँ तक यह बात है कि तुम अगले जन्म में क्या करोगे, इसकी व्यवस्था और उपाय परमेश्वर इस आधार पर करता है कि तुम्हारे पास क्या होना चाहिए और तुम्हें क्या दिया जाना चाहिए...। परमेश्वर तुम्हारे लिए ऐसी व्यवस्थाएं कितनी ही बार कर चुका है, और कम से कम तुम अंत के दिनों के युग में अपने वर्तमान परिवार में पैदा हुए हो। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए एक ऐसे परिवेश की व्यवस्था की है जिसमें तुम उस पर विश्वास कर सको; उसने तुम्हें अपनी वाणी सुनने और अपने पास वापस आने की अनुमति दी है, ताकि तुम उसका अनुसरण कर सको और उसके घर में कोई कर्तव्य निभा सको। परमेश्वर के ऐसे मार्गदर्शन की बदौलत ही तुम आज तक जीवित रहे। तुम नहीं जानते कि तुम कितनी बार मनुष्यों के बीच पैदा हुए हो, न ही तुम यह जानते हो कि कितनी बार तुम्हारा रूप बदला है, तुम्हारे कितने परिवार हुए, तुम कितने युगों और कितने वंशों को जी चुके हो—लेकिन इन सबके दौरान हर पल परमेश्वर का हाथ तुम्हारी मदद करता रहा है, और वह हमेशा तुम पर निगाह रखता रहा है। एक व्यक्ति के लिए परमेश्वर कितना परिश्रम करता है! कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं साठ साल का हूँ। साठ साल से परमेश्वर मुझ पर निगाह रख रहा है, मेरी रक्षा और मेरा मार्गदर्शन कर रहा है। बूढ़ा होने पर अगर मैं कोई कर्तव्य नहीं निभा पाया और कुछ करने लायक नहीं रहा—क्या परमेश्वर तब भी मेरी देखभाल करेगा?’ क्या यह कहना मूर्खता नहीं है? मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता नहीं है, मनुष्य के लिए उसकी निगरानी और सुरक्षा केवल एक जीवन-काल की बात नहीं है। अगर यह केवल एक जीवन-काल की, एक ही जीवन की बात होती, तो यह प्रदर्शित करना संभव नहीं होता कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और सभी चीजों पर उसकी संप्रभुता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति के लिए जो परिश्रम करता है और जो कीमत चुकाता है, वह केवल इस जीवन में उसके कामों को व्यवस्थित करने के लिए नहीं है, बल्कि उसके अनगिनत जन्मों की व्यवस्था करने के लिए है। परमेश्वर इस दुनिया में पुनर्जन्म लेने वाली प्रत्येक आत्मा के लिए पूरी जिम्मेदारी लेता है। वह अपने जीवन का मूल्य चुकाते हुए, हर व्यक्ति का मार्गदर्शन करते हुए और उसके प्रत्येक जीवन को व्यवस्थित करते हुए बहुत ध्यान से काम करता है। मनुष्य की खातिर परमेश्वर इतना परिश्रम करता है और इतनी कीमत चुकाता है, और वह मनुष्य को ये सभी सत्य और यह जीवन प्रदान करता है। अगर लोग इन अंतिम दिनों में सृजित प्राणियों का कर्तव्य नहीं निभाते और वे सृष्टिकर्ता के पास नहीं लौटते—वे चाहे कितने ही जन्मों और पीढ़ियों से गुजरे हों, अगर अंत में, वे अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाते और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने में विफल रहते हैं—तब क्या परमेश्वर के प्रति उनका कर्ज बहुत बड़ा नहीं हो जाएगा? क्या वे परमेश्वर की चुकाई सभी कीमतों का लाभ पाने के लिए अयोग्य नहीं हो जाएँगे? वे इतने विवेकहीन होंगे कि इंसान कहलाने लायक नहीं रहेंगे, क्योंकि परमेश्वर के प्रति उनका कर्ज बहुत बड़ा हो जाएगा। ... परमेश्वर मनुष्य पर जो अनुग्रह, प्रेम और दया दिखाता है वह केवल दृष्टिकोण भर नहीं है—वे वास्तव में तथ्य भी हैं। वह तथ्य क्या है? वह यह है कि परमेश्वर अपने वचन तुम्हारे अंदर डालता है, तुम्हें प्रबुद्ध करता है, ताकि तुम देख सको कि उसमें क्या मनोहर है, और यह दुनिया क्या है, ताकि तुम्हारा हृदय रोशनी से भर जाए, तुम उसके वचन और सत्य समझ सको। इस तरह, अनजाने ही, तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो। परमेश्वर बहुत वास्तविक तरीके से तुम पर बहुत सारा काम करके तुम्हें सत्य प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। जब तुम सत्य प्राप्त कर लेते हो, जब तुम सबसे कीमती चीज, शाश्वत जीवन प्राप्त कर लेते हो, तब परमेश्वर के इरादे संतुष्ट होते हैं। जब परमेश्वर देखता है कि लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और उसके साथ सहयोग करने के लिए तैयार हैं, तो वह खुश और संतुष्ट होता है। तब उसका एक दृष्टिकोण होता है, और जब उसका वह दृष्टिकोण होता है, तो वह काम करता है, और मनुष्य का अनुमोदन कर उसे आशीष देता है। वह कहता है, ‘मैं तुम्हें इनाम दूँगा, वह आशीष दूंगा जिसके तुम पात्र हो।’ और तब तुम सत्य और जीवन प्राप्त कर लेते हो। जब तुम्हें सृष्टिकर्ता का ज्ञान होता है और उससे प्रशंसा प्राप्त होती है, तब भी क्या तुम अपने दिल में खालीपन महसूस करोगे? तुम नहीं करोगे; तुम संतुष्ट होगे और आनंद की भावना महसूस करोगे। क्या किसी के जीवन का मूल्य होने का यही अर्थ नहीं है? यह सबसे मूल्यवान और सार्थक जीवन है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए कीमत चुकाना बहुत महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचन मेरे लिए अविश्वसनीय रूप से सांत्वना देने वाले और मार्मिक थे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरी उम्र कितनी है या मेरी सेहत कैसी है; जब तक मैं सत्य से प्रेम और उसकी खोज करता हूँ, परमेश्वर मेरा तिरस्कार नहीं करेगा। दुर्भाग्य से मैंने परमेश्वर के इरादे को गलत समझा था। मैं सोचता था कि चूँकि मैं बूढ़ा और बेकार हूँ, इसलिए मैं अब उतने कर्तव्य नहीं कर सकता। मैं सोचता था कि एक दिन मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ जाऊँगा और अचानक मर जाऊँगा और उद्धार की कोई उम्मीद नहीं बचेगी। मुझे लगता था कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है और मैं आगे बढ़ने के लिए प्रयास नहीं करना चाहता था। अपने गलत विचारों से प्रभावित होकर मैं परमेश्वर के इरादे को गलत समझ रहा था। मैं एक कमजोर और नकारात्मक अवस्था में फँस गया था और शैतान मेरे साथ खिलवाड़ कर रहा था। पहले मुझे नहीं पता था कि एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए और उसे संतुष्ट करना चाहिए। उस समझ के बिना मैं सिर्फ अनुग्रह और आशीष पाने के बदले में अपनी आस्था बनाए रखता था—मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी कर रहा था। अब मैं देख सकता था कि उस खोज के साथ, भले ही मैं सौ साल और जीऊँ, इसका कोई अर्थ या मूल्य नहीं होगा। जैसे जब अय्यूब ने उन सभी आपदाओं का सामना किया था तो उसने कभी नहीं सोचा था कि उसने क्या पाया या क्या खोया। जब उसके शरीर पर फोड़े-फुंसियाँ निकलीं और जीवन असहनीय हो गया तो भी उसने कभी परमेश्वर पर दोष नहीं मढ़ा। उसे परमेश्वर में सच्चा विश्वास था, उसने उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण किया और उसके नाम की स्तुति की। उसने शैतान के सामने परमेश्वर के लिए शानदार गवाही दी और आखिरकार उसे परमेश्वर ने आशीष दिया। दूसरी तरफ पतरस था, जिसने हमेशा अपने पूरे जीवन में परमेश्वर को प्रेम करने और संतुष्ट करने का प्रयास किया और अपने वास्तविक जीवन में प्रभु के वचनों का अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित किया। आखिरकार उसे परमेश्वर के लिए सूली पर उल्टा लटका दिया गया और ऐसा करके उसने परमेश्वर के प्रति अपना सर्वोच्च प्रेम और चरम समर्पण दिखाया, एक अर्थपूर्ण जीवन जिया और परमेश्वर की स्वीकृति पाई। अब मैं समझ गया था कि एक विश्वासी के रूप में परमेश्वर के प्रति समर्पित होना और हर चीज में परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास करना, एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाना, अपने कर्तव्य पूरे करने के दौरान सत्य समझना और पाना और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना और उससे प्रेम करना, एक खाली जीवन जीने का तरीका नहीं है, बल्कि एक सार्थक जीवन जीना है। परमेश्वर की स्वीकृति पाने का यही एकमात्र तरीका है। हमेशा परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश करना और स्वर्ग के राज्य के आशीष के बदले में कड़ी मेहनत करना और खुद को खपाना घिनौना व्यवहार है और इसका नतीजा एक ऐसा जीवन है जिसका कोई अर्थ या मूल्य नहीं है। मैं इस बारे में सोचता नहीं रह सकता था कि मुझे भविष्य में आशीष मिलेगा या नहीं। मुझे बस अपने बचे हुए हर दिन में सत्य का अनुसरण करना चाहिए, परमेश्वर पर भरोसा करके अपने कर्तव्य पूरे करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए और स्वभाव में बदलाव लाना चाहिए। भले ही एक दिन मैं गंभीर रूप से बीमार हो जाऊँ और मौत का सामना करूँ और अपना कर्तव्य करने में असमर्थ हो जाऊँ, फिर भी मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहूँगा। अब मुझे इस जीवनकाल में सर्वश्रेष्ठ तरीके से अपना कर्तव्य निभाने और अपनी जिम्मेदारी पूरी करने पर ही ध्यान देना चाहिए। मेरा परिणाम चाहे जो भी हो, चाहे जीवन हो या मृत्यु, यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था पर निर्भर है। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे इस पर विचार नहीं करना चाहिए। जब मैंने इस बारे में इस तरह सोचा तो मुझे बहुत सुकून मिला।

उसके बाद मैंने नियमित रूप से परमेश्वर के वचन पढ़े और हर दिन भजन सुने। जब मुझे एहसास हुआ कि मेरी भ्रष्टता बेनकाब हुई है तो मैंने प्रार्थना की, सत्य की खोज की, अपना शैतानी स्वभाव पहचाना और भाई-बहनों के साथ खोज और खुलकर संगति की। मैंने धीरे-धीरे इन सब से थोड़ा लाभ उठाया। आमतौर पर जब मेरे लिए कोई कर्तव्य होता था तो मैं सक्रियता से शामिल हो जाता था और जितना संभव हो सके अपने आस-पास के लोगों में सुसमाचार का प्रचार करता था। जब मैंने भाई-बहनों को अनुभवात्मक गवाही लेख लिखते देखा तो मैंने भी परमेश्वर की गवाही देने के लिए अपने अनुभव लिखने का अभ्यास किया। यह सब करने से मुझे संतुष्टि और शांति का एहसास हुआ।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का यह भजन सुना : “एक सृजित प्राणी को परमेश्वर के आयोजन की दया पर होना चाहिए।” मैं इससे बहुत प्रभावित हुआ। पतरस के अनुभव का उल्लेख करने वाला दूसरा अंश मेरे लिए विशेष रूप से मार्मिक था। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अतीत में, पतरस को परमेश्वर के लिए क्रूस पर उलटा लटका दिया गया था; परंतु तुम्हें अंत में परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए, और उसके लिए अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर देनी चाहिए। एक सृजित प्राणी परमेश्वर के लिए क्या कर सकता है? इसलिए तुम्हें पहले से ही अपने आपको परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, ताकि वह अपनी इच्छा के अनुसार तुम्हारी योजना बना सके। अगर इससे परमेश्वर खुश और प्रसन्न होता हो, तो उसे अपने साथ जो चाहे करने दो। मनुष्यों को शिकायत के शब्द बोलने का क्या अधिकार है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 41)। मैंने इसे बार-बार सुना और मेरा मन ही नहीं भरा। इसकी हर एक पंक्ति मेरे लिए प्रेरणादायक और मार्मिक थी और आँखों से आँसू बहने लगे। मैं एक सृजित प्राणी था जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया था और इतने बुढ़ापे तक जीवित था, लेकिन फिर भी मुझे परमेश्वर का अनुसरण करने और उसके कार्य का अनुभव करने, अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के लिए गवाही देने का मौका मिला। क्या शानदार आशीष है! अब परमेश्वर के वचन खाने और पीने से मैं अपनी भ्रष्टता समझ गया हूँ और आशीष के लिए अपने स्वार्थी और नीच इरादों को बदल दिया है। यह परमेश्वर का अनुग्रह है! मैं अंत तक परमेश्वर की स्तुति करूँगा, भले ही वह मुझे कुछ भी न दे। मेरा जीवन फिर भी सार्थक होगा! मैं एक ऐसा सृजित प्राणी बनने की कोशिश करूँगा जो परमेश्वर के प्रति विवेकशील और समर्पित हो। चाहे मेरा स्वास्थ्य कैसा भी हो या मेरा परिणाम कुछ भी हो, मैं परमेश्वर को उसकी इच्छानुसार काम करने देने के लिए तैयार हूँ।

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