18. मैं कम आत्मसम्मान से कैसे मुक्त हुआ
चूँकि बचपन में मुझे लोगों से बात करना या उनका अभिवादन करना अच्छा नहीं लगता था, मेरे माता-पिता अक्सर अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से कहते थे, “इस बच्ची में कुछ गड़बड़ है। वह जरूर धीमी होगी।” वयस्क भी ऐसी बातें करते थे, “देखो तुम्हारी बहन कितनी तेज और आकर्षक है, लेकिन तुम, तुम बहुत ही सुस्त हो।” धीरे-धीरे मैं खुद को बेकार और सबसे कमतर मानने लगी। मैं कक्षाओं में भी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाती थी क्योंकि मैं डरती थी कि बेवकूफी भरी बातें कहने पर दूसरे मुझ पर हँसेंगे। मुझे उन लोगों से बहुत ईर्ष्या होती थी जो बातूनी और तेज-तर्रार होते थे और मुझे लगता था कि हर कोई ऐसे लोगों को पसंद करता है।
जब मैं आस्था में जुड़ी तो मैं शुरू में सभाओं में परमेश्वर के वचनों पर संगति करने से बहुत घबराती थी, डरती थी कि मैं ठीक से संगति नहीं कर पाऊँगी और दूसरे लोग मुझ पर हँसेंगे, इसलिए मैं सभाओं में ज्यादा नहीं बोलती थी। लेकिन भाई-बहन अक्सर और अधिक संगति करने के लिए मेरा हौसला बढ़ाते थे और जब वे खुलकर अपने अनुभव और समझ के बारे में संगति करते थे, मैं देखती थी कि कोई भी किसी पर नहीं हँसता था। इससे मुझे कम बेबस महसूस होता था, इसलिए मैंने ज्यादा बात करना शुरू कर दिया। बाद में मुझे एक प्रचारक के रूप में कई कलीसियाओं का प्रभारी चुना गया। यह मेरे लिए वाकई हैरानी की बात थी। मुझे लगा कि मेरे जैसे अस्पष्ट बोलने वाले का प्रचारक बनना परमेश्वर का अनुग्रह था। मुझे यह काम जितना हो सके उतना बढ़िया करना था और परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरना था। एक बार एक अगुआ ने मुझे और दो अन्य प्रचारकों को अपने साथ सभा करने के लिए बुलाया। मैंने देखा कि अन्य प्रचारक परमेश्वर के वचनों की संगति में बहुत प्रबुद्ध हैं और वे बहुत तार्किक ढंग से बोलते हैं। मुझे उनसे बहुत जलन हुई। मैंने सोचा, “उनकी काबिलियत और वाक्पटुता के सामने मेरी तुलना भी नहीं की जा सकती। मैं इतना उदासीन क्यों हूँ? मैं तो ठीक से बोल भी नहीं पाती।” इन विचारों ने मुझे थोड़ा हताश कर दिया। हालाँकि परमेश्वर के वचनों पर विचार करने से मुझे कुछ प्रबुद्धता मिली थी, जब मैंने सोचा कि भाषण देने का मेरा कौशल कितना खराब है तो मुझे डर लगा कि लोग मुझ पर हँसेंगे इसलिए संगति करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। इसके अलावा मुझे काम में कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ा, इसलिए मैं नकारात्मक अवस्था में रहने लगी और मान लिया कि मैं किसी काम की नहीं हूँ और मैं यह कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकती। काम से अच्छे नतीजे भी नहीं मिल रहे थे। कुछ समय बाद मुझे इस कर्तव्य से हटा दिया गया और सिर्फ एक कलीसिया का प्रभारी बना दिया गया।
जब मैंने शुरू में इस कलीसिया की दो बहनों के साथ काम करना शुरू किया तो मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं बहुत बुरा कर रही हूँ। मैं अपने कर्तव्य में काफी सक्रिय थी और पवित्र आत्मा का प्रबोधन और मार्गदर्शन महसूस करने में सक्षम थी। कुछ समय बाद एक बहन ने इस्तीफा देने का फैसला किया क्योंकि वह कोई वास्तविक काम पूरा नहीं कर पाई थी और दूसरी बहन को दूसरे कर्तव्य में स्थानांतरित कर दिया गया क्योंकि उसमें काबिलियत की कमी थी। इसके बाद भाई झांग टोंग और बहन एन किंग को मेरे साथी के रूप में चुना गया। मैंने पाया कि जिस तरह झांग टोंग अपने अनुभवात्मक ज्ञान के बारे में संगति करता था, वह बहुत व्यावहारिक और स्पष्ट होता था और उसमें अच्छी काबिलियत थी। एन किंग भी सभाओं में अपनी संगति से वास्तविक समस्याएँ सुलझाने में सक्षम थी। उनकी खूबियाँ देखकर मुझे बहुत हीन भावना महसूस हुई। बाद में काम पर चर्चाओं के दौरान मैंने पाया कि मैं लगातार बहुत ज्यादा सतर्क हो गई हूँ और वे जो भी कहते, मैं वही मान लेती। कभी-कभी मुझे लगता कि उनके विचार अनुपयुक्त हैं और मैं उन पर ध्यान दिलाना चाहती, लेकिन तभी मुझे अपनी कमजोर काबिलियत और कम समझ का ख्याल आता, इसलिए मैं खुद अपनी राय खारिज कर देती। साथ ही कई मौकों पर वे मेरे विचारों को नहीं स्वीकारते, जिससे मेरी अपर्याप्तता की भावनाएँ और मजबूत हो जाती थीं और मैं खुद को और भी कम व्यक्त कर पाती थी। मैं कुछ महत्वपूर्ण कार्यों में भी निष्क्रिय थी क्योंकि मुझे चिंता थी कि अगर मैंने खराब काम किया तो काम में देरी हो जाएगी। एक बार झांग टोंग ने बहन झांग कैन को सिंचन कार्य की प्रभारी बनाने का प्रस्ताव रखा। मैं झांग कैन को अच्छी तरह से जानती थी। वह हमेशा लापरवाह रहती थी और अपने कर्तव्य में जिम्मेदार नहीं थी और वास्तविक काम न करने के कारण पहले भी उसे बर्खास्त किया जा चुका था। वह अभी भी खुद को नहीं जान पाई थी और वह इतने महत्वपूर्ण काम की जिम्मेदारी लेने के लिए उपयुक्त नहीं थी। शांत स्वर में मैंने अपने विचार सामने रखे। झांग टोंग यह सुनने के बाद झांग कैन से मिलने गया। फिर उसने मुझे बताया कि उसने स्थिति का आकलन किया और पाया कि झांग कैन में अब कुछ आत्म-चिंतन और आत्म-ज्ञान है और यह कि हमें लोगों की क्षमता देखनी चाहिए, न कि सिर्फ उनका अतीत। एन किंग ने उसके इस नजरिए का समर्थन किया। मुझे लगा कि झांग टोंग को अगुआ बने बहुत समय नहीं हुआ है, वह अभी भी कुछ सिद्धांतों को नहीं समझ पाया है और झांग कैन को अच्छी तरह से नहीं जानता है। वह सिर्फ एक मीटिंग के आधार पर उसका आकलन कर रहा है और शायद उसने सही आकलन नहीं किया है। मैंने सुझाव देना चाहा कि वह जाँच करे कि वह अपना कर्तव्य कैसे निभा रही है या उसे अच्छी तरह से जानने वाले अन्य लोगों से बात करने के बाद उसका फिर से मूल्यांकन करे। लेकिन फिर मैंने सोचा, “झांग टोंग में अच्छी काबिलियत है और वह कुछ समस्याएँ सुलझा पाया है। शायद झांग कैन को अपनी संगति के बाद अपनी समस्याओं का एहसास हो गया हो। और एन किंग ने भी अपनी स्वीकृति दे दी है। मुझमें काबिलियत की कमी है और मैं चीजों को साफ नहीं देख पाती; बेहतर होगा कि मैं चुप रहूँ।” इसलिए मैंने आगे और जोर नहीं दिया। बाद में झांग कैन को वास्तविक काम न करने के लिए फिर से बर्खास्त कर दिया गया। यह देखकर कि सिंचन कार्य विलंबित और प्रभावित हो रहा था, मैं बहुत परेशान थी। अगर मैंने शुरुआत में थोड़ा और जोर दिया होता और झांग टोंग के साथ संगति के सिद्धांतों पर ध्यान देती तो हमें इस तरह की समस्या नहीं होती। भले ही मुझे अपराध-बोध हुआ, लेकिन मैंने अपनी समस्या पर आत्म-चिंतन नहीं किया। आखिरकार जब कुछ और चीजें हो गईं, तब जाकर अंततः मैंने आत्म-चिंतन किया।
एक सभा में झांग टोंग ने भाई झेंग यी को सिंचन समूह का अगुआ बनाने की सिफारिश की। मुझे लगा कि भले ही झेंग यी उत्साही है, वह अभी-अभी आस्था में शामिल हुआ था और अभी भी दर्शनों के सत्य के बारे में स्पष्ट नहीं था। मुझे लगा कि पहले उसे विकसित किया जाना चाहिए, क्योंकि समूह अगुआ होना अपने आप में बहुत बड़ी जिम्मेदारी हो सकती है। इसलिए मैंने इस मामले पर अपने विचार रखे, लेकिन मुझे हैरानी हुई कि झांग टोंग ने मुझसे कहा, “तुम इतनी कठोर और अवरोधक क्यों बन रही हो? क्या हम पहले उससे मिलकर उसकी जाँच नहीं कर सकते?” उसकी यह बात सुनकर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई और मैं बहुत परेशान हो गई। मैंने सोचा, “झांग टोंग में अच्छी काबिलियत है और वह काम करना जानता है। मेरी काबिलियत खराब है और मैं लोगों या मामलों की असलियत नहीं समझ पाती। अगर मैं अपनी राय पर जोर डालती रहूँ और वाकई काम बाधित हो जाए तो क्या होगा? यह बेहतर होगा कि मैं जिद करना बंद कर दूँ।” सभा के बाद मैंने झांग टोंग की कही बात के बारे में सोचा और इससे मैं बहुत परेशान हो गई। मुझे लगा कि यह काम करने के लिए मुझमें काबिलियत की कमी है, इसलिए शायद मुझे अपनी सीमाओं को स्वीकारना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके इस्तीफा दे देना चाहिए। इसके बारे में पता चलने पर अगुआ ने मेरी मदद करने के लिए अपने अनुभव का इस्तेमाल किया। अगुआ की संगति से मैंने इस बात पर विचार करना शुरू किया कि मैं क्यों इस्तीफा देना चाहती हूँ और मैं हमेशा इतनी हताश अवस्था में क्यों रहती हूँ। बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “सभी लोगों के भीतर कुछ गलत अवस्थाएँ होती हैं, जैसे नकारात्मकता, कमजोरी, निराशा और भंगुरता; या उनकी कुछ नीचतापूर्ण मंशाएँ होती हैं; या वे लगातार अपने घमंड, स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और निजी हितों से परेशान रहते हैं; या वे स्वयं को कम क्षमता वाला समझते हैं, और कुछ नकारात्मक अवस्थाओं का अनुभव करते हैं। यदि तुम हमेशा इन अवस्थाओं में रहते हो तो तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करना बहुत कठिन होगा। यदि तुम्हारे लिए पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करना कठिन हो जाता है, तो तुम्हारे भीतर सक्रिय तत्व कम होंगे और नकारात्मक तत्व बाहर आकर तुम्हें परेशान करेंगे। इन नकारात्मक और प्रतिकूल अवस्थाओं के दमन के लिए लोग हमेशा अपनी इच्छा पर निर्भर रहते हैं, लेकिन वे इनका कैसे भी दमन क्यों न करें, इनसे छुटकारा नहीं पा सकते। इसका मुख्य कारण यह है कि लोग इन नकारात्मक और प्रतिकूल चीजों को पूरी तरह से समझ नहीं पाते; वे अपने सार को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। इस कारण उनके लिए दैहिक इच्छाओं और शैतान के खिलाफ विद्रोह करना बहुत कठिन हो जाता है। साथ ही, लोग हमेशा इन नकारात्मक, विषादपूर्ण और पतनशील अवस्थाओं में फँस जाते हैं और वे परमेश्वर से प्रार्थना या उसकी सराहना नहीं करते, बल्कि इन्हीं सब से जूझते रहते हैं। परिणामस्वरूप, पवित्र आत्मा उनमें कार्य नहीं करता, और अंततः वे सत्य को समझने में अक्षम रहते हैं, वे जो भी करते हैं उसमें उन्हें रास्ता नहीं मिलता, और वे किसी भी मामले को स्पष्टता से नहीं देख पाते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने से मुझे चीजें स्पष्ट हो गईं। मैं हमेशा नकारात्मक और उदास अवस्था में रहती थी क्योंकि मैं घमंड और स्वार्थी इच्छाओं जैसी चीजों से बँधी हुई थी। अक्सर जब मैं सभाओं में परमेश्वर के वचनों की संगति करती थी तो मैं कुछ प्रबुद्धता हासिल करने में सक्षम हो जाती, लेकिन मैं हमेशा अस्पष्ट रहती और मुझे चीजों को शब्दों में व्यक्त करने में दिक्कत होती। मुझे इतनी चिंता होती थी कि मैं ठीक से संगति नहीं कर पाऊँगी और दूसरे लोग मुझे नीची नजरों से देखेंगे, तो मैं कुछ भी नहीं कह पाती थी, जिससे मुझे जो थोड़ी-बहुत प्रबुद्धता मिलती थी, वह भी चली जाती थी। जब मैंने देखा कि दूसरे प्रचारक कितनी ऊँची काबिलियत वाले और वाक्पटु हैं और मैं खुद को कितना खराब तरीके से व्यक्त करती हूँ तो मुझे लगा कि मेरी काबिलियत बहुत कम है और मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। फिर मैं निराश हो गई और अपने कर्तव्य में ढीली पड़ गई, मुझे कोई नतीजे नहीं मिले और आखिरकार मुझे दूसरे काम में लगा दिया गया। इस बार भी ऐसा ही हुआ। मैंने देखा कि मेरे सहयोगियों में अच्छी काबिलियत है और वे मुझसे बेहतर संगति करते हैं। काम पर चर्चा के दौरान मुझे ठीक से न बोल पाने के कारण अपनी प्रतिष्ठा गँवाने या नीचा दिखाए जाने का बहुत डर रहता था, इसलिए मैं अपनी बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी। कभी-कभी जब मेरे सही विचारों और नजरियों को नहीं अपनाया जाता था तो मैं अपने विचारों के लिए खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी और केवल अपनी प्रतिष्ठा बचाने के बारे में सोचती थी। मैं इन नकारात्मक भावनाओं के बस में थी और यहाँ तक कि अपने कर्तव्य से छुटकारा पाना चाहती थी। मैंने वाकई घमंड और अभिमान को बहुत अधिक महत्व दिया! अगर ऐसे ही चलता रहा तो मैं कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य नहीं पा सकूँगी और मेरे पास सत्य समझने या पाने का कोई तरीका नहीं बचेगा! इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे प्रबुद्ध करने, खुद को जानने और अपनी अवस्था बदलने के लिए मार्गदर्शन करने के लिए कहा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी वाकई प्रतिष्ठा और रुतबे को सँजोते हैं। ये दो चीजें उनके हर काम को प्रेरित करती हैं। यह उनके मसीह-विरोधी सार का नतीजा है। मेरे व्यवहार से भी यही मेल खाता था। बचपन से ही मुझे लगता था कि मैं जो कुछ भी करती हूँ, वह अच्छा नहीं होता। मैं बेबस महसूस करती थी और जो कुछ भी करती थी उसमें अति सतर्क रहती थी। ऐसा मुख्यतः इसलिए था क्योंकि मैं अपनी प्रतिष्ठा बचाना चाहती थी और नहीं चाहती थी कि दूसरे लोग मुझे नीची नजरों से देखें। मैंने अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को इतना क्यों सँजोती थी? इसके मूल कारण शैतानी जहर थे कि “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है” और “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है,” इसीलिए मैं अपने घमंड और अभिमान को इतना महत्व देती थी। मैं बस दूसरों पर अच्छी छाप छोड़ना चाहती थी और मेरा मानना था कि जीवन में अर्थ पाने का यही एकमात्र तरीका है। इसलिए चाहे मैं कहीं भी या किसी के साथ भी रहूँ, अगर मेरी प्रतिष्ठा खोने की संभावना होती तो मैं भाग जाना चुनती, जिससे मेरी प्रतिष्ठा और रुतबा सुरक्षित रहते। झांग टोंग के साथ काम करते समय मैंने देखा कि मेरे विचारों को अस्वीकार किया जा रहा है और मुझे लगा कि मैंने अपना सम्मान गँवा दिया है। मुझे चिंता हुई कि अगर मैं अगुआ बनी रही तो मैं और भी शर्मिंदा हो जाऊँगी, इसलिए मैं चाहती थी कि अगुआ मुझे किसी दूसरे काम में लगा दे। दरअसल गहराई से सोचें तो मेरा अगुआ बन पाना परमेश्वर का अनुग्रह था। मुझे उसके इरादे पर विचार करना चाहिए था, दूसरों की वास्तविक मुश्किलों को सुलझाना चाहिए था और कलीसिया के काम की रक्षा करनी चाहिए थी। लेकिन मैं यह नहीं सोच रही थी कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभाऊँ और सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा कर रही थी। जब मैंने ये चीजें गँवा दीं तो मैं नकारात्मक हो गई और कड़ी मेहनत करनी बंद कर दी। मैं वाकई अंतरात्मा या विवेक रहित थी। बाहरी तौर पर मैं किसी रुतबे के लिए होड़ नहीं कर रही थी या मसीह-विरोधी की तरह कलीसिया के काम में बाधा या व्यवधान नहीं डाल रही थी, लेकिन लोगों को चुनने और उनका उपयोग करने जैसे महत्वपूर्ण मामले में मैंने सिद्धांतों पर टिके रहने की हिम्मत नहीं की और हर समय अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बनाए रखने की कोशिश की। मैंने जो बेनकाब किया वह मसीह-विरोधी का स्वभाव था। मुझे अपनी समस्या की गंभीरता का एहसास हुआ और इसलिए मैंने प्रार्थना और पश्चात्ताप किया।
इसके बाद मैंने एक बहन को अपनी अवस्था के बारे में बताया और उसने मुझे पढ़ने के लिए परमेश्वर के कुछ वचन दिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “लोगों की काबिलियत कैसे मापी जानी चाहिए? इसे इस आधार पर मापा जाना चाहिए कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को किस सीमा तक गहराई से समझते हैं। मापन का यह सबसे सटीक तरीका है। कुछ लोग वाक्-पटु, हाजिर-जवाब और दूसरों को संभालने में विशेष रूप से कुशल होते हैं—लेकिन जब वे धर्मोपदेश सुनते हैं, तो उनकी समझ में कभी भी कुछ नहीं आता, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे उन्हें नहीं समझ पाते हैं। जब वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बताते हैं, तो वे हमेशा वचन और सिद्धांत बताते हैं, और इस तरह खुद के महज नौसिखिया होने का खुलासा करते हैं, और दूसरों को इस बात का आभास कराते हैं कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। ये खराब काबिलियत वाले लोग हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। “क्या तुम लोग कहोगे कि पौलुस में काबिलियत थी? पौलुस की काबिलियत किस श्रेणी की थी? (वह बहुत अच्छी थी।) तुम लोगों ने बहुत सारे उपदेश सुने हैं, लेकिन फिर भी तुम उन्हें नहीं समझते। क्या पौलुस की काबिलियत को बहुत अच्छा माना जा सकता है? (नहीं, वह खराब थी।) पौलुस की क्षमता खराब क्यों थी? (वह खुद को नहीं जानता था और उसमें परमेश्वर के वचनों की समझ नहीं थी।) ऐसा इसलिए था क्योंकि वह सत्य को नहीं समझता था। उसने भी प्रभु यीशु द्वारा दिए गए उपदेश सुने थे, और उस अवधि के दौरान जब उसने काम किया, निश्चित रूप से वहाँ पवित्र आत्मा का कार्य भी था। तो ऐसा कैसे हुआ कि जब उसने वह सब काम किया, उन सभी धर्मपत्रों को लिखा, और वह उन सभी कलीसियाओं में गया, फिर भी सत्य को ज़रा भी नहीं समझ सका केवल धर्म-सिद्धांतों का उपदेश करता रहा। वह कैसी काबिलियत थी। तुच्छ श्रेणी की काबिलियत। इससे भी बड़ी बात यह, पौलुस ने प्रभु यीशु को सताया और उसके शिष्यों को गिरफ्तार किया जिसके बाद प्रभु यीशु ने स्वर्ग से एक तेज प्रकाश के प्रहार से उसे नीचे गिरा दिया। पौलुस ने अपने साथ घटित हुए इस बड़े घटनाक्रम को किस तरह से देखा और कैसे समझा? उसकी समझ का तरीका पतरस से अलग था। उसने सोचा, ‘प्रभु यीशु ने मुझे नीचे गिरा दिया है, मैंने पाप किया है, इसलिए मुझे इसकी भरपाई करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, और एक बार जब मेरे गुण मेरे अवगुणों को संतुलित कर लेंगे, तो मुझे पुरस्कृत किया जाएगा।’ क्या वह खुद को जानता था? वह नहीं जानता था। उसने यह नहीं कहा कि ‘मैं अपने दुर्भावनापूर्ण, मसीह-विरोधी स्वभाव के कारण प्रभु यीशु का विरोध करता था। मैं प्रभु यीशु का विरोध करता था और मुझमें कुछ भी अच्छा नहीं है!’ क्या उसके पास अपने बारे में ऐसा ज्ञान था? (नहीं।) ... उसे जरा भी अफसोस नहीं था और उससे भी कम अपने बारे में ज्ञान था। उसके पास इन दोनों में से कुछ भी नहीं था। यह दिखाता है कि पौलुस की काबिलियत के साथ यह समस्या थी कि उसमें सत्य को समझने की योग्यता नहीं थी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझने में मदद की कि किसी इंसान की काबिलियत को उसकी स्पष्ट वाक्पटुता, गुणों और बुद्धिमत्ता के आधार पर मापना सत्य के अनुरूप नहीं है। पौलुस की तरह ही; वह गुणवान, वाक्पटु था और पूरे यूरोप में सुसमाचार फैलाता था, लेकिन वह सत्य समझ नहीं पाया, खुद को समझना तो दूर की बात है। उसने बहुत बड़ी बुराइयाँ कीं और उसे कभी भी कोई सच्चा आत्म-ज्ञान या पश्चात्ताप नहीं हुआ। इसके बजाय वह बस इनाम पाना चाहता था और बहुत काम करके परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना चाहता था। पौलुस सत्य को समझने में असमर्थ था और वह कम काबिलियत वाला व्यक्ति था। मैंने हमेशा सोचा था कि अगर कोई व्यक्ति अच्छा बोल सकता है और होशियार है तो उसकी काबिलियत अच्छी है, इसलिए मैंने हमेशा खुद को इसी मानक से आंका। जब मैं इस मानक को पूरा नहीं कर पाई तो मुझे लगा कि मेरी काबिलियत में कमी है और मैं अगुआ का काम नहीं कर सकती। फिर जब मैं मुश्किलों में फँसी तो मैंने उन्हें सुलझाने के लिए सत्य की तलाश नहीं की, बल्कि नकारात्मक होकर ढीली पड़ गई और आखिरकार मैं जिन समस्याओं को सुलझा सकती थी, वे भी अनसुलझी रह गईं। मैं इतनी मूर्ख थी कि सत्य नहीं समझ पाई। भले ही मेरी काबिलियत बहुत अच्छी नहीं थी, लेकिन मैं परमेश्वर के वचनों को समझने में सक्षम थी और मुझे उस भ्रष्ट स्वभाव का कुछ ज्ञान था जो मैं बेनकाब कर रही थी। मैं परमेश्वर के वचनों का उपयोग दूसरों के जीवन प्रवेश में आने वाली कठिनाइयों को सुलझाने के लिए भी कर सकती थी, इसलिए ऐसा नहीं था कि मेरी काबिलियत इतनी कम थी कि मैं अपना कर्तव्य न कर पाऊँ। इन बातों का एहसास होने पर मेरी मानसिकता कुछ हद तक बदल गई और मैं अपना कर्तव्य सामान्य रूप से कर पाई।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े जो मेरी अवस्था का बहुत अच्छी तरह से वर्णन करते थे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बचपन में देखने में साधारण थे, ठीक से बात नहीं कर पाते थे, और हाजिर-जवाब नहीं थे, जिससे उनके परिवार और सामाजिक परिवेश के लोगों ने उनके बारे में प्रतिकूल राय बना ली, और ऐसी बातें कहीं : ‘यह बच्चा मंद-बुद्धि, धीमा और बोलचाल में फूहड़ है। दूसरे लोगों के बच्चों को देखो, जो इतना बढ़िया बोलते हैं कि वे लोगों को अपनी कानी उंगली पर घुमा सकते हैं। और यह बच्चा है जो दिन भर यूँ ही मुँह बनाए रहता है। उसे नहीं मालूम कि लोगों से मिलने पर क्या कहना चाहिए, उसे कोई गलत काम कर देने के बाद सफाई देना या खुद को सही ठहराना नहीं आता, और वह लोगों का मन नहीं बहला सकता। यह बच्चा बेवकूफ है।’ माता-पिता, रिश्तेदार और मित्र, सभी यह कहते हैं, और उनके शिक्षक भी यही कहते हैं। यह माहौल ऐसे व्यक्तियों पर एक खास अदृश्य दबाव डालता है। ऐसे माहौल का अनुभव करने के जरिए वे अनजाने ही एक खास किस्म की मानसिकता बना लेते हैं। किस प्रकार की मानसिकता? उन्हें लगता है कि वे देखने में अच्छे नहीं हैं, ज्यादा आकर्षक नहीं हैं, और दूसरे उन्हें देखकर कभी खुश नहीं होते। वे मान लेते हैं कि वे पढ़ाई-लिखाई में अच्छे नहीं हैं, धीमे हैं, और दूसरों के सामने अपना मुँह खोलने में और बोलने में हमेशा शर्मिंदगी महसूस करते हैं। जब लोग उन्हें कुछ देते हैं तो वे धन्यवाद कहने में भी लजाते हैं, मन में सोचते हैं, ‘मैं कभी बोल क्यों नहीं पाता? बाकी लोग इतनी चिकनी-चुपड़ी बातें कैसे कर लेते हैं? मैं निरा बेवकूफ हूँ!’ ... ऐसे माहौल में बड़े होने के बाद, हीनभावना की यह मानसिकता धीरे-धीरे हावी हो जाती है। यह एक प्रकार की स्थाई भावना में बदल जाती है, जो उनके दिलों में उलझकर दिमाग में भर जाती है। तुम भले ही बड़े हो चुके हो, दुनिया में अपना रास्ता बना रहे हो, शादी कर चुके हो, अपना करियर स्थापित कर चुके हो, और तुम्हारा सामाजिक स्तर चाहे जो हो गया हो, बड़े होते समय यह जो हीनभावना तुम्हारे परिवेश में रोप दी गयी थी, उससे मुक्त हो पाना असंभव हो जाता है। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करके कलीसिया में शामिल हो जाने के बाद भी, तुम सोचते रहते हो कि तुम्हारा रंग-रूप मामूली है, तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कमजोर है, तुम ठीक से बात भी नहीं कर पाते, और कुछ भी नहीं कर सकते। तुम सोचते हो, ‘मैं बस उतना ही करूँगा जो मैं कर सकता हूँ। मुझे अगुआ बनने की महत्वाकांक्षा रखने की जरूरत नहीं, मुझे गूढ़ सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं, मैं सबसे मामूली बनकर संतुष्ट हूँ, और दूसरे मुझसे जैसा भी बर्ताव करना चाहें, करें’” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। “जब हीनभावना तुम्हारे दिल में गहरे बिठा दी जाती है, तो इसका न सिर्फ तुम पर गहरा असर होता है, यह लोगों और चीजों पर तुम्हारे विचारों, और तुम्हारे आचरण और कार्यों पर भी हावी हो जाती है। तो वो लोग जिन पर हीनभावना हावी होती है, लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखते हैं? वे दूसरों को खुद से बेहतर मानते हैं, मसीह-विरोधियों को भी खुद से बेहतर समझते हैं। हालाँकि मसीह-विरोधी दुष्ट स्वभाव और बुरी मानवता के होते हैं, फिर भी वे उन्हें अनुकरणीय और सीखने के लिए आदर्श मानते हैं। वे अपने आपसे यह भी कहते हैं, ‘देखो, हालाँकि वे दुष्ट स्वभाव और बुरी मानवता वाले हैं, फिर भी वे गुणवान हैं, कार्य में मुझसे अधिक सक्षम हैं। वे दूसरों के सामने आराम से अपनी क्षमताएँ प्रदर्शित कर सकते हैं, और शरमाए या घबराए बिना इतने सारे लोगों के सामने बोल सकते हैं। उनमें सचमुच हिम्मत है। मैं उनकी बराबरी नहीं कर सकता। मैं बिल्कुल भी बहादुर नहीं हूँ।’ ऐसा किस कारण से हुआ? यह कहना होगा कि इसका एक कारण यह है कि तुम्हारी हीनभावना ने लोगों के सार की तुम्हारी परख, और साथ ही दूसरे लोगों को देखने के तुम्हारे परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण को प्रभावित कर दिया है। क्या बात ऐसी नहीं है? (बिल्कुल है।) तो हीनभावना तुम्हारे आचरण को कैसे प्रभावित करती है? तुम खुद से कहते हो : ‘मैं मूर्ख पैदा हुआ था, बिना गुणों या खूबियों के, मैं हर चीज सीखने में बहुत धीमा हूँ। उस व्यक्ति को देखो : हालाँकि वह कभी-कभी बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा करता है, मनमानी और लापरवाही से कार्य करता है, फिर भी कम-से-कम वह गुणवान और खूबियों वाला है। जहाँ भी जाओ, लोग ऐसे ही लोगों से काम लेना चाहते हैं, और मैं वैसा नहीं हूँ।’ जब कभी कुछ होता है तो तुम पहली चीज यह करते हो कि खुद पर एक फैसला सुनाकर स्वयं को सबसे अलग कर लेते हो। मसला जो भी हो, तुम पीछे हटकर पहल करने से बचते हो, तुम्हें कोई भी जिम्मेदारी लेने से डर लगता है। तुम खुद से कहते हो, ‘मैं मूर्ख पैदा हुआ था। जहाँ भी जाता हूँ, मुझे कोई पसंद नहीं करता। मैं ओखली में सिर नहीं दे सकता, मुझे अपनी मामूली क्षमताएँ नहीं दिखानी चाहिए। अगर कोई मेरी सिफारिश करे, तो उससे साबित होता है कि मैं ठीक हूँ। लेकिन अगर कोई भी मेरी सिफारिश न करे, तो पहल करके कहना कि मैं यह काम हाथ में लेकर उसे अच्छे ढंग से कर सकता हूँ, मेरे बस की बात नहीं है। अगर मैं इस बारे में आश्वस्त नहीं हूँ, तो मैं ऐसा नहीं कह सकता—मैंने गड़बड़ कर दी तो क्या होगा, तब मैं क्या करूँगा? मेरी काट-छाँट हुई तो क्या होगा? मैं बेहद शर्मसार हो जाऊँगा! क्या यह अपमानजनक नहीं होगा? मैं अपने साथ ऐसा नहीं होने दे सकता।’ गौर करो—क्या इसने तुम्हारे आचरण को प्रभावित नहीं किया है? एक हद तक, तुम्हारे आचरण के प्रति तुम्हारे रवैये को तुम्हारी हीनभावना प्रभावित और नियंत्रित करती है। एक हद तक इसे तुम्हारी हीनभावना का परिणाम माना जा सकता है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे लगा कि परमेश्वर वाकई हमें समझता है। उसने जो उजागर किया, वह ठीक वैसा ही है जैसा मैं सोचती हूँ। ऐसा लग रहा था कि प्रतिष्ठा को महत्व देना ही मेरी हताशा का एकमात्र कारण नहीं था; इसकी एक और वजह थी। मेरे आस-पास के लोगों और चीजों के प्रभाव के कारण मुझमें हीन भावनाएँ विकसित हो गई थीं, मैं खुद को सही ढंग से नहीं देख पाती थी और हमेशा मानती थी कि मैं जो कुछ भी करती हूँ, वह अच्छा नहीं है, इसलिए मैं अपने हर काम में अत्यधिक सतर्क, दबी हुई और नियंत्रित थी। मैंने सोचा कि कैसे मुझे बचपन में बोलना पसंद नहीं था और कैसे वयस्क अक्सर मुझे तुच्छ समझते थे और मुझे सुस्त या बेवकूफ कहते थे। लेकिन वास्तव में मेरी अपनी राय थी, भले ही मैंने उस समय उन्हें जाहिर न किया हो; बात सिर्फ इतनी है कि मैं अपनी प्रतिष्ठा गँवाने के डर से नहीं बोलती थी। मैं कक्षाओं में कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं कर पाती थी, इसलिए नहीं कि मुझे समझ नहीं आता था, बल्कि इसलिए कि मुझे लगता था कि मैं स्पष्ट नहीं हूँ, जिससे मुझे बोलने में बहुत डर लगता था। सभाओं में परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मुझे कुछ प्रबुद्धता मिली, लेकिन जब मैंने सोचा कि मुझमें वाक्पटुता की कमी है तो मैंने संगति करने की हिम्मत नहीं की। साथ ही जब मैंने झांग टोंग को लोगों को चुनने और उनका उपयोग करने में सिद्धांतों का पालन नहीं करते देखा तो मैंने उसे इसके बारे में याद दिलाना चाहा, लेकिन जब मैंने सोचा कि उसकी काबिलियत कितनी अच्छी है और मैंने जो कुछ भी किया वह अच्छा नहीं है तो मैंने बस बात मान ली और अपने विचारों को खारिज कर दिया, कोई खोज, चर्चा या आगे की चीजों पर विचार नहीं किया और नतीजे के तौर पर काम में नुकसान हुआ। मैं हीन भावना में जी रही थी और हर चीज के प्रति मेरा रवैया निष्क्रिय और नकारात्मक था। मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को या दूसरों को नहीं आँक रही थी, पर सिर्फ अपने विचारों के अनुसार आकलन कर रही थी। मेरी हीन भावनाएँ इस बात पर हावी हो जाती थीं कि मैं चीजों और लोगों को कैसे देखती हूँ, और वे मेरे निर्णय और मेरे अनुसरण के मार्ग को प्रभावित करती थीं। इन हीन भावनाओं ने मुझे गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाया था। इसके तुरंत बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “तुम्हारी यह भावना सिर्फ नकारात्मक नहीं, और सटीक रूप से कहें तो यह वास्तव में परमेश्वर और सत्य के विरुद्ध है। तुम सोच सकते हो कि यह तुम्हारी सामान्य मानवता के भीतर की एक भावना है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, यह बस भावना की एक मामूली बात नहीं है, बल्कि परमेश्वर के विरोध की पद्धति है। यह नकारात्मक भावनाओं द्वारा चिह्नित पद्धति है जो लोग परमेश्वर, उसके वचनों और सत्य का प्रतिरोध करने में प्रयोग करते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने हीन भावनाओं की गंभीर प्रकृति और उनके कारण होने वाला नुकसान देखा और पाया कि वे किसी व्यक्ति के लिए भ्रष्ट स्वभाव से कम हानिकारक नहीं हैं। इस तरह की हीन भावना के साथ जीना परमेश्वर और सत्य के सीधे विरोध में है और अगर इसका समाधान नहीं करने पर किसी व्यक्ति के उद्धार का अवसर बर्बाद कर देता है। मैं बचपन से ही इन हीन भावनाओं में फँसी हुई थी और हमेशा महसूस करती थी कि मैंने कुछ भी अच्छा काम नहीं किया। जब मैं खासकर अच्छी काबिलियत वाले लोगों के आस-पास होती तो मैं खुद को और भी कमतर समझती थी, मैं दबी हुई और दुखी महसूस करती थी और परमेश्वर को मुझे अच्छी काबिलियत या बुद्धिमत्ता न देने के लिए दोषी ठहराती थी। मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं से असंतुष्ट रहती और उन्हें स्वीकारने से इनकार कर देती जो अनिवार्य रूप से परमेश्वर की अवहेलना थी! अगर मैं इसी तरह चलती रही तो मुझे क्यों निकाला नहीं जाएगा? जब मुझे इन बातों का एहसास हुआ तभी मुझे लगा कि हीन भावना के साथ जीना बहुत खतरनाक है, मैं इस तरह नहीं जी सकती और मुझे इन भावनाओं को छोड़ना होगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “तुम स्वयं का सही आकलन कर स्वयं को कैसे जान सकते हो, और हीनभावना से कैसे दूर हो सकते हो? तुम्हें स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने, अपनी मानवता, योग्यता, प्रतिभा और खूबियों के बारे में जानने के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार बनाना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हें गाना पसंद था और तुम अच्छा गाते थे, मगर कुछ लोग यह कहकर तुम्हारी आलोचना करते और तुम्हें नीचा दिखाते थे कि तुम तान-बधिर हो, और तुम्हारा गायन सुर में नहीं है, इसलिए अब तुम्हें लगने लगा है कि तुम अच्छा नहीं गा सकते और फिर तुम दूसरों के सामने गाने की हिम्मत नहीं करते। उन सांसारिक लोगों, उन भ्रमित लोगों और औसत दर्जे के लोगों ने तुम्हारे बारे में गलत आकलन कर तुम्हारी आलोचना की, इसलिए तुम्हारी मानवता को जो अधिकार मिलने चाहिए थे, उनका हनन किया गया और तुम्हारी प्रतिभा दबा दी गई। नतीजा यह हुआ कि तुम एक भी गाना गाने की हिम्मत नहीं करते, और तुम बस इतने ही बहादुर हो कि किसी के आसपास न होने पर या अकेले होने पर ही खुलकर गा पाते हो। चूँकि तुम साधारण तौर पर बहुत अधिक दबा हुआ महसूस करते हो, इसलिए अकेले न होने पर गाना गाने की हिम्मत नहीं कर पाते; तुम अकेले होने पर ही गाने की हिम्मत कर पाते हो, उस समय का आनंद लेते हो जब तुम खुलकर साफ-साफ गा सकते हो, यह समय कितना अद्भुत और मुक्ति देनेवाला होता है! क्या ऐसा नहीं है? लोगों ने तुम्हें जो हानि पहुँचाई है, उस कारण से तुम नहीं जानते या साफ तौर पर नहीं देख सकते कि तुम वास्तव में क्या कर सकते हो, तुम किस काम में अच्छे हो, और किसमें अच्छे नहीं हो। ऐसी स्थिति में, तुम्हें सही आकलन करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को सही मापना चाहिए। तुमने जो सीखा है और जिसमें तुम्हारी खूबियाँ हैं, उसे तय करना चाहिए, और जाकर वह काम करना चाहिए जो तुम कर सकते हो; वे काम जो तुम नहीं कर सकते, तुम्हारी जो कमियाँ और खामियाँ हैं, उनके बारे में आत्मचिंतन कर उन्हें जानना चाहिए, और सही आकलन कर जानना चाहिए कि तुम्हारी योग्यता क्या है, यह अच्छी है या नहीं। अगर तुम अपनी समस्याओं को नहीं समझ सकते या उनका स्पष्ट ज्ञान नहीं पा सकते, तो उन लोगों से पूछो जिनमें तुम्हारा आकलन करने की समझ है। उनकी बातें सही हों या न हों, उनसे कम-से-कम तुम्हें एक संदर्भ और विचारसूत्र मिल जाएगा जो तुम्हें इस योग्य बनाएगा कि स्वयं की बुनियादी परख या निरूपण कर सको। फिर तुम हीनता जैसी नकारात्मक भावनाओं की अनिवार्य समस्या को सुलझा सकोगे, और धीरे-धीरे उससे उबर सकोगे। अगर कोई ऐसी हीनभावनाओं को पहचान ले, उनके प्रति जागरूक होकर सत्य खोजे, तो वे आसानी से सुलझाई जा सकती हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे इन हीन भावनाओं को दूर करने का एक तरीका मिल गया। मुझे खुद को समझने और मापने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करना था और मैं उन लोगों से भी मेरा मूल्यांकन करने के लिए कह सकती थी जो मुझे अच्छी तरह से जानते थे। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! अब मुझे पता है कि हीन भावना के साथ जीना कितना खतरनाक है। मैं इन भावनाओं को उतार फेंकना चाहती हूँ, इसलिए मेरी मदद करो।” बाद में मैंने अपने सहयोगियों से मेरा मूल्यांकन करने के लिए कहा। उन्होंने कहा, “यह देखते हुए कि तुम परमेश्वर के वचन शुद्धता से समझ सकती हो और तुम अपनी भ्रष्टता और अवस्था के संबंध में परमेश्वर के वचनों की संगति करने में सक्षम हो, और दूसरों के वास्तविक मुद्दे सुलझाने में उनकी मदद कर सकती हो तो तुम उतनी अक्षम नहीं हो जितना तुम कहती हो। भले ही तुम्हारी काबिलियत बहुत अच्छी न हो, जब तक तुम काम में अपना दिल लगाती हो, तब तक तुम वास्तविक काम कर सकती हो।” अपने भाई-बहनों को यह कहते हुए सुनकर मुझे थोड़ा और सहज महसूस हुआ, और मैंने सोचा, “भले ही मैं दूसरों की तरह खुद को अभिव्यक्त करने में उतनी अच्छी नहीं हूँ, लेकिन मेरी संगति में हर कोई मुझे समझ सकता है। मुझे बेबस महसूस नहीं करना चाहिए। मुझे बस उतनी ही संगति करनी चाहिए जितनी मैं कर सकती हूँ। मुझे सिर्फ यह नहीं सोचना चाहिए कि दूसरे लोग मेरी प्रशंसा कैसे करें; मुझे इस बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि समस्याएँ सुलझाने और भाई-बहनों को लाभ पहुँचाने के लिए व्यावहारिक रूप से संगति कैसे की जाए। साथ ही चाहे मेरी काबिलियत में कमी है, अधिक अभ्यास करके मैं अपनी कमियों की भरपाई कर सकती हूँ और अपनी काबिलियत सुधार सकती हूँ। मुझे दूसरों से अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए या नकारात्मक नहीं बनना चाहिए और खुद को कमतर नहीं आंकना चाहिए। मुझे सकारात्मक रवैये के साथ प्रवेश की तलाश करनी चाहिए।” इसका एहसास होने पर मैं खुद के साथ सही व्यवहार करने में सक्षम हो गई और अपने कर्तव्य निभाने में मेरी मानसिकता बहुत बेहतर हो गई।
मुझे हाल ही में फिर से एक प्रचारक के रूप में चुना गया। यह अप्रत्याशित था और मुझे चिंता हुई कि मैं यह काम नहीं कर पाऊँगी। फिर मुझे याद आया कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम्हें स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने, अपनी मानवता, योग्यता, प्रतिभा और खूबियों के बारे में जानने के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार बनाना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। मुझे चीजों को परमेश्वर के वचनों से मापना है। मैंने पहले इस कर्तव्य को ठीक से नहीं किया था, इसका कारण सिर्फ काबिलियत की कमी नहीं थी। ऐसा मुख्य रूप से इसलिए था क्योंकि मैं हीन भावना से ग्रसित थी, दिल से सहयोग नहीं कर रही थी और पवित्र आत्मा का कार्य पाने में असमर्थ थी। मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में सोचते हुए इन हीन भावनाओं के साथ नहीं जी सकती थी। चूँकि मेरे भाई-बहनों ने मुझे चुना है, इसलिए मुझे सहयोग करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए और अगर ऐसी चीजें हैं जो मुझे समझ नहीं आतीं तो मुझे परमेश्वर पर ज्यादा भरोसा करना चाहिए और दूसरों से मदद माँगनी चाहिए। इस मानसिकता के साथ मैं बहुत ज्यादा शांत और मुक्त हो गई। कुछ समय बाद सुसमाचार के काम की प्रभारी एक बहन हमारे काम की जाँच करने आई। मैंने देखा कि वह अपने काम और सत्य की संगति करने में बहुत सक्षम है और उसने हमारे काम में बहुत से विचलन और चूकों की ओर इशारा किया। मुझे डर था कि वह कहेगी कि मैं अक्षम हूँ, लेकिन मुझे जल्दी ही एहसास हो गया कि मैं फिर से अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे पर विचार कर रही हूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर से खुद के खिलाफ विद्रोह करने की प्रार्थना की और इस बहन से और अधिक सीखना और अपनी कमियों को दूर करना चाहा। इसके बाद काम पर चर्चा करते समय मैंने अपने विचार व्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और उसके साथ संवाद करके मैंने अभ्यास के कुछ मार्ग पाए। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से मैं अपनी हीन भावना की सीमाओं से बाहर निकल आई।