19. क्या समझदार होने का मतलब मानवता होना है?
2016 में बहन डिंग रुई और मुझे कई कलीसियाओं के काम की देखरेख करने के लिए भागीदार बनाया गया था। उसके कुछ समय बाद ही एक उच्च अगुआ ने डिंग रुई को एक कलीसिया में रिपोर्ट पत्र की देखरेख करने के लिए भेजा। हालाँकि वह कुछ ही समय में वापस आ गई। मैं सोच रही थी कि वहाँ समस्या जटिल थी। वह इतने कम समय में लौट आई—क्या उसने समस्या का समाधान किया? कोई आश्चर्य नहीं, कुछ ही समय बाद उच्च अगुआ से डिंग रुई के लिए एक पत्र आया और जिसमें कहा गया कि उसने समस्या पूरी तरह नहीं सुलझाई है और उसे सँभालने के लिए किसी और को दोबारा जाना चाहिए। अगुआ ने डिंग रुई से कहा कि वह कुछ वास्तविक आत्म-चिंतन करे और उससे सबक सीखे। डिंग रुई इसे पढ़ने के बाद काफी निराश हो गई और बोली, “मैं अपने कर्तव्य में वास्तविक समस्याएँ नहीं सुलझा सकती और मैंने कलीसिया के काम में देरी की।” मुझे थोड़ा-बहुत पता था कि उस रिपोर्ट पत्र में क्या था और यह काफी जटिल मुद्दा था। इसमें बहुत से लोग शामिल थे और इसमें बहुत सी चीजों पर संगति की जरूरत होती। इसमें शामिल लोगों से व्यक्तिगत रूप से बात की जानी थी, इसलिए इसे जल्दी पूरा नहीं किया जा सकता था। मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या डिंग रुई चीजों को निपटाने के लिए बहुत उत्सुक थी। मैंने सोचा कि उसे यह बताऊँ और उसे आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने में मदद करूँ। लेकिन फिर मैंने सोचा कि वह पहले से ही दुखी है और अगर मैंने उसकी समस्याएँ बताईं तो वह शर्मिंदा हो सकती है और बहुत ज्यादा नकारात्मक हो सकती है। और अगर उसने कहा कि मुझमें संवेदना की कमी है और उसने मुझसे दूरी बना ली और मेरे खिलाफ पक्षपाती हो गई तो क्या होगा? हम नए-नए साथी बने थे, इसलिए अगर हमारे बीच तनाव बढ़ जाता तो साथ रहना मुश्किल हो जाता। ऐसे समय में अगर मैं कुछ सांत्वना देने वाली, उत्साहवर्धक बातें कहती तो उसे लगता कि मैं समझदार हूँ और मेरे साथ रहना आसान है। इसलिए मैंने उसे यह कहकर सांत्वना दी, “हमारे लिए गलतियाँ करना और कभी-कभी अपने काम में असफल होना पूरी तरह से सामान्य है। अपने आप पर बहुत ज्यादा कठोर मत बनो। जब मैं रिपोर्ट पत्र सँभालने को लेकर नई थी तो मुझे तुमसे भी खराब असफलताएँ मिली थीं।” फिर मैंने उसे अपने काम में असफलता के अपने अनुभवों के बारे में बताया। उसके चेहरे से चिंता का भाव तुरंत गायब हो गया और उसने खुशी से कहा, “मुझे चिंता थी कि तुम मेरे बारे में क्या सोचोगी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम इतनी प्यारी इंसान हो।” जब मैंने उसे यह कहते सुना तो मुझे अंदर से बहुत खुशी हुई। मुझे लगा जैसे मुझमें मानवता है और मैं समझदार हूँ। एक और बार डिंग रुई ने मुझे बताया कि कैसे वह और एक बहन साथ मिलकर काम नहीं कर पा रही थीं। वह हमेशा दूसरी बहन की समस्याओं के बारे में बात करती थी और जब वह इस बारे में बात करती थी तो वह बहुत गुस्से में लगती थी। मैंने देखा कि वह चीजों का जरूरत से ज्यादा विश्लेषण कर रही थी और उसमें आत्म-जागरूकता की कमी थी। मुझे याद आया मैंने अगुआ को पहले भी यह कहते हुए सुना था कि उनके बीच आपस में नहीं बनती। दूसरी बहन का स्वभाव घमंडी था लेकिन डिंग रुई को लोगों और चीजों का जरूरत से ज्यादा विश्लेषण करना पसंद था और जब कोई बात सामने आती तो वह उसे परमेश्वर से नहीं स्वीकारती। वह मुँह लटका लेती और जो कोई भी उसके स्वाभिमान को ठेस पहुँचाता, उसे अनदेखा कर देती। वह उनके साथ काम पर चर्चा नहीं करती और इसके जरिए अपना गुस्सा निकालती, जिससे काम में देरी होती। अगुआ उसके साथ संगति करता, लेकिन वह आत्म-चिंतन नहीं करती या अपने बारे में कुछ नहीं सीखती। उस दूसरी बहन की भी कुछ समस्याएँ थीं, लेकिन डिंग रुई की समस्याएँ ज्यादा गंभीर थीं। मैं उसकी समस्याएँ बताना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा, “अगर मैं बिना किसी संकोच के इस बारे में बात करती हूँ, तो क्या वह कहेगी कि मैं उसके साथ गलत व्यवहार कर रही हूँ? तो क्या मैं उसके मन में बनी अपनी अच्छी छवि गँवा नहीं दूँगी?” इसलिए मैंने उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, “तुम्हारी साझेदार बहन को भी कुछ मामलों में कुछ समस्याएँ थीं।”
बाद में डिंग रुई का कर्तव्य बदल दिया गया और उसने अलग काम करना शुरू कर दिया। मुझे नई साथी मिल गई। उसने मुझे देखते ही कहा, “जब मैंने सुना कि मैं तुम्हारे साथ काम करने वाली हूँ तो मुझे बहुत दबाव महसूस हुआ। मैंने सुना है कि तुममें मानवता है और तुम सबके साथ मिलकर अच्छा काम करती हो। अगर हमारी साझेदारी में कुछ गड़बड़ हुई तो मैं पूरी तरह से बेनकाब हो जाऊँगी। इससे मेरी मानवता में निश्चित ही समस्या हो जाएगी।” जब उसने ऐसा कहा तो आत्म-चिंतन करने के बजाय मैंने खुद को शाबाशी दी। मुझे लगा कि मुझमें वाकई मानवता है। और एक बार डिंग रुई की साझेदार बहन ने मुझे देखा और कहा, “मेरी और उसकी अच्छे से नहीं बनती, लेकिन वह हमेशा बताती है कि तुम दोनों में कितनी अच्छी बनी। मुझे लगता है कि मैं वाकई भ्रष्ट हूँ।” मैं सोच रही थी कि डिंग रुई का अभिमान इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता क्योंकि वह बहन डिंग रुई की समस्याओं के बारे में बहुत साफ और सीधी बात करती है। डिंग रुई के साथ बात करते समय मैं उसके मुद्दों के बारे में सहनशील और धैर्यवान रहती थी और उससे बहस नहीं करती थी। मैं उसके साथ काम से जुड़ी किसी भी समस्या पर सक्रियता से चर्चा करती और उसके सुझाव मांगती। इससे किसी भी तरह का संघर्ष नहीं होता था। उसके कुछ समय बाद मैंने अगुआ को यह कहते हुए सुना कि डिंग रुई काफी घमंडी है और सत्य नहीं स्वीकारती—वह कभी दूसरों के साथ मिलकर काम नहीं करती है। उसे इसलिए बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि वह संगति के बाद भी नहीं बदली और अपने कर्तव्य में अप्रभावी रही। अगुआ ने बाद में मेरी समस्याओं को उठाते हुए कहा, “एक अगुआ के रूप में चाहे भाई या बहन की समस्या कितनी भी गंभीर क्यों न हो, अगर तुम कभी उन्हें सामने नहीं लाती या उनकी काट-छाँट और उन्हें उजागर नहीं करती, बल्कि हमेशा अपने रिश्ते पालती-पोसती रहती हो तो तुम्हारा काम गैर-जिम्मेदाराना है! तुम डिंग रुई के साथ भी ऐसी ही थी। उसकी किसी और के साथ नहीं बनी, लेकिन वह तुम्हारे साथ काम करने में खुश रहती है और कहती है कि तुम विचारशील और समझदार हो। तुम्हें इस पर आत्म-चिंतन करना चाहिए!” फिर एक और अगुआ ने कहा, “हाल ही में सभी ने तुम्हारे बारे में सकारात्मक आकलन किया और कहा कि तुम समझदार और खुशमिजाज हो। हर किसी के दिल में तुम्हारे लिए जगह है और वे चीजों में सत्य की तलाश नहीं करते। यही तुम्हारी समस्या है। इस तरह से काम करके तुम परमेश्वर की बड़ाई नहीं कर रही हो और न ही उसकी गवाही दे रही हो।” पहले तो मुझे इसे स्वीकारने में कठिनाई हुई, मैं रोने लगी, मुझे लगा कि मेरे साथ अन्याय हुआ है और मैंने अपने दिल में बहाने बनाए। दूसरों ने मेरे बारे में अच्छी बातें कही थीं इसका मतलब है कि मुझमें मानवता है और मेरे साथ घुलना-मिलना आसान है। वे कैसे कह सकते हैं कि मुझमें कोई समस्या है? फिर मेरी साथी बहन ने भी मुझे आत्म-चिंतन करने की याद दिलाई, इसलिए मैंने आखिरकार शांति से परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे खुद को जानने के लिए प्रबुद्ध करने के लिए कहा।
मैंने बाद में परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, जिनमें कहा गया था : “भाई-बहनों के साथ बातचीत करते समय तुम्हें अपना दिल खोलकर उनके सामने रखना चाहिए और उन पर भरोसा करना चाहिए, ताकि इससे तुम्हें फायदा हो। अपना कर्तव्य निभाते समय तो अपना दिल खोलकर लोगों के सामने रखना और उन पर भरोसा करना और भी महत्वपूर्ण है; तभी तुम साथ मिलकर अच्छी तरह से काम करोगे। ... जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करते हो, तब तुम्हें पहले उन्हें अपने सच्चे दिल और ईमानदारी का एहसास कराना चाहिए। अगर बोलने और इकट्ठे कार्य करने, और दूसरों के साथ संपर्क करने में, किसी के शब्द लापरवाह, आडंबरपूर्ण, मजाकिया, चापलूसी करने वाले, गैर-जिम्मेदाराना और मनगढ़ंत हैं, या उसकी बातें केवल सामने वाले से अपना काम निकालने के लिए हैं, तो उसके शब्द विश्वसनीय नहीं हैं, और वह थोड़ा भी ईमानदार नहीं है। दूसरों के साथ बातचीत करने का उनका यही तरीका होता है, चाहे वे कोई भी हों। ऐसे व्यक्ति का दिल सच्चा नहीं होता। यह व्यक्ति ईमानदार नहीं है। मान लो, कोई नकारात्मक अवस्था में है और वह तुमसे ईमानदारी से कहता है : ‘मुझे बताओ, असल में मैं इतना नकारात्मक क्यों हूँ। मैं बिल्कुल समझ नहीं पाता।’ और मान लो, तुम अपने दिल में उसकी समस्या वास्तव में जानते हो, लेकिन उसे बताते नहीं, बल्कि उससे कहते हो : ‘यह कुछ नहीं है। तुम नकारात्मक नहीं हो रहे हो; मैं भी ऐसा हो जाता हूँ।’ ये शब्द उस व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी सांत्वना हैं, लेकिन तुम्हारा रवैया ईमानदार नहीं है। तुम उसके साथ अनमने हो रहे हो, उसे अधिक सहज और आश्वस्त महसूस कराने के लिए तुमने उसके साथ ईमानदारी से बात करने से परहेज किया है। तुम ईमानदारी से उसकी सहायता नहीं कर रहे और उसकी समस्या स्पष्ट रूप से नहीं रख रहे जिससे वह अपनी नकारात्मकता छोड़ सके। तुमने वह नहीं किया, जो एक ईमानदार व्यक्ति को करना चाहिए। उसे सांत्वना देने के प्रयास में और यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसके साथ तुम्हारा कोई मनमुटाव या झगड़ा न हो, तुम उसके साथ अनमने रहे हो—और यह ईमानदार व्यक्ति होना नहीं है। इसलिए, एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए, इस तरह की स्थिति से सामना होने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उसे वह बताना चाहिए, जो तुमने देखा और पहचाना है : ‘मैं तुम्हें वह बताऊँगा, जो मैंने देखा और अनुभव किया है। तुम निर्णय करना कि मैं जो कह रहा हूँ, वह सही है या गलत। अगर वह गलत है, तो तुम्हें उसे स्वीकारने की जरूरत नहीं है। अगर वह सही है, तो आशा है तुम उसे स्वीकारोगे। अगर मैं कुछ ऐसा कहूँ जिसे सुनना तुम्हारे लिए कठिन हो और तुम्हें उससे चोट पहुँचे, तो मुझे उम्मीद है, तुम उसे परमेश्वर से आया समझकर स्वीकार पाओगे। मेरा इरादा और उद्देश्य तुम्हारी सहायता करना है। मुझे तुम्हारी समस्या स्पष्ट दिखती है : चूँकि तुम्हें लगता है कि तुम्हें अपमानित किया गया है, और कोई तुम्हारे अहं को बढ़ावा नहीं देता, और तुम्हें लगता है कि सभी लोग तुम्हें तुच्छ समझते हैं, कि तुम पर प्रहार किया जा रहा है, और तुम्हारे साथ इतना गलत कभी नहीं हुआ, तो तुम इसे बरदाश्त नहीं कर पाते और नकारात्मक हो जाते हो। तुम्हें क्या लगता है—क्या वास्तव में यही बात है?’ और यह सुनकर वह महसूस करता है कि वास्तव में यही मामला है। तुम्हारे दिल में वास्तव में यही है, लेकिन अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुम यह नहीं कहोगे। तुम कहोगे, ‘मैं भी अक्सर नकारात्मक हो जाता हूँ,’ और जब दूसरा व्यक्ति सुनता है कि सभी लोग नकारात्मक हो जाते हैं, तो उसे लगता है कि उसका नकारात्मक होना सामान्य बात है, और अंत में, वह अपनी नकारात्मकता पीछे नहीं छोड़ता। अगर तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो और ईमानदार रवैये और सच्चे दिल से उसकी सहायता करते हो, तो तुम सत्य समझने और अपनी नकारात्मकता पीछे छोड़ने में उसकी मदद कर सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। “दुनिया में कई तथाकथित ‘अच्छे लोग’ हैं जो उच्च आशय वाली बातें करते हैं—हालाँकि सतह पर, ऐसा लगता है कि उन्होंने कोई बड़ी बुराई नहीं की है, लेकिन वास्तव में वे खास तौर से धोखेबाज और धूर्त होते हैं। मिठास और चालाकी से बोलते हुए वे बहती हवा के साथ चलने में बहुत कुशल होते हैं। वे नकली अच्छे लोग और पाखंडी हैं—वे सिर्फ अच्छे होने का ढोंग करते रहे हैं। जो लोग मध्यम मार्ग पर चलते हैं, वे सबसे कपटी लोग होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करते, मिठबोले और चालाक होते हैं, तमाम परिस्थितियों में साथ देने में अच्छे होते हैं, और कोई भी उनकी कमियाँ नहीं देख सकता। वे जीवित शैतानों की तरह होते हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि अगर मैं दूसरों के साथ बातचीत में सिर्फ साथ देने वाली और खुशामद करने वाली बातें ही कहूँ और जो मुद्दे मुझे दिखते हैं उन्हें न बताऊँ तो यह दरअसल उनकी मदद नहीं होगी और इससे उन्हें कोई फायदा नहीं होगा। परमेश्वर कहता है कि यह बीच के रास्ते पर चलना है, खुशामद करने वाला चालाक इंसान बनना है। यह हवा के बहाव के अनुसार चलना, सभी को खुश करना और किसी को भी नाराज नहीं करना है। यह एक जीवित शैतान होना है। अपने व्यवहार पर आत्म-चिंतन करते हुए मैंने पाया कि मैं बिल्कुल वैसी ही इंसान हूँ जिसे परमेश्वर ने उजागर किया है। जब डिंग रुई ने उस रिपोर्ट पत्र को नहीं सुलझाया और काम फिर से करना पड़ा तो मुझे पता चला कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उसे वापस आने की जल्दी थी। मुझे उसकी समस्या बतानी चाहिए थी और उसे आत्म-चिंतन में मदद करनी चाहिए थी। लेकिन मुझे डर था कि वह कहेगी कि मैं विचारशून्य हूँ और मुझमें मानवता की कमी है। इसलिए मैंने हौसला बढ़ाने वाले कुछ शब्द कहे और उसे सांत्वना देने के लिए अपनी असफलताओं के बारे में भी बात की। मेरे यह सब कहने के बाद वह और परेशान नहीं हुई और उसने अपने भ्रष्ट स्वभाव पर ज्यादा आत्म-चिंतन नहीं किया। दूसरों की मदद करने के लिए व्यक्तिगत अनुभवों को संगति में शामिल करना ठीक है, लेकिन व्यक्ति को मुख्य रूप से अपनी असफलताओं और आत्म-ज्ञान का उपयोग दूसरों को आत्म-चिंतन करने और खुद के बारे में जानने में मार्गदर्शन करने के लिए करना चाहिए। लेकिन मैं अपनी व्यक्तिगत असफलताएँ साझा करके वह हासिल करने का प्रयास नहीं कर रही थी। मेरा मकसद डिंग रुई को दिलासा देना था ताकि उसे लगे कि हर कोई समान रूप से भ्रष्ट है और गलतियाँ पूरी तरह से सामान्य हैं। इसने उसे आराम से खुद को अधिक समायोजित करने का मौका दिया। यह परमेश्वर की गवाही देना नहीं था, बल्कि उसे गुमराह करना था। यह देखते हुए कि डिंग रुई दूसरों के साथ घुल-मिलकर काम नहीं कर पाती और हमेशा लोगों और चीजों का जरूरत से ज्यादा विश्लेषण करती रहती है, मैंने उसे समस्याएँ नहीं बताईं और यहाँ तक कि दूसरी बहन की समस्याओं के बारे में भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई ताकि मैं अपनी प्रतिष्ठा बचा सकूँ। और जब मैंने उसे बदतमीज होते देखा तो मैंने उसे ऐसा करने दिया। नतीजतन उसने अपनी समस्याएँ नहीं देखीं और अपने भ्रष्ट स्वभाव में फँसी रही। क्या इससे उसे नुकसान नहीं पहुँच रहा था?
मैंने बाद में परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसमें कहा गया था : “अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को भी नाराज नकरने का प्रयत्न करना, जहाँ भी जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी मिलो उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करना और सभी से अपने बारे में अच्छी बातें करवाना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? यह परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना है। यह अपने कर्तव्य को और सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को सिद्धांतों के साथ और जिम्मेदारी की भावना से लेना है। सब इसे स्पष्ट ढंग से देख सकते हैं; इसे लेकर सभी अपने हृदय में स्पष्ट हैं। इतना ही नहीं, परमेश्वर लोगों के हृदयों की जाँच-पड़ताल करता है और उनमें से हर एक की स्थिति जानता है; चाहे वे जो भी हों, परमेश्वर को कोई मूर्ख नहीं बना सकता। कुछ लोग हमेशा डींग हाँकते हैं कि वे अच्छी मानवता से युक्त हैं, कि वे कभी दूसरों के बारे में बुरा नहीं बोलते, कभी किसी और के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाते, और वे यह दावा करते हैं कि उन्होंने कभी अन्य लोगों की संपत्ति की लालसा नहीं की। जब हितों को लेकर विवाद होता है, तब वे दूसरों का फायदा उठाने के बजाय नुकसान तक उठाना पसंद करते हैं, और बाकी सभी सोचते हैं कि वे अच्छे लोग हैं। परंतु, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय, वे कुटिल और चालाक होते हैं, हमेशा स्वयं अपने हित में षड़यंत्र करते हैं। वे कभी भी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते, वे कभी उन चीजों को अत्यावश्यक नहीं मानते हैं जिन्हें परमेश्वर अत्यावश्यक मानता है या उस तरह नहीं सोचते हैं जिस तरह परमेश्वर सोचता है, और वे कभी अपने हितों को एक तरफ़ नहीं रख सकते ताकि अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। वे कभी अपने हितों का परित्याग नहीं करते। यहाँ तक कि जब वे दुष्ट लोगों को बुरे कर्म करते हुए देखते हैं, वे उन्हें उजागर नहीं करते; उनके रत्ती भर भी कोई सिद्धांत नहीं हैं। यह किस प्रकार की मानवता है? यह अच्छी मानवता नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। एक वाकई अच्छा व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है और परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है, वह जिम्मेदार होता है और अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी समझता है, वह सिद्धांतों पर चलता है और कलीसिया के काम की रक्षा करता है। वह दूसरों के प्रति भी सिद्धांतवादी होता है। किसी भाई या बहन की समस्याएँ या गलतियाँ देखकर वह उचित संगति और मदद कर सकता है। अगर कोई सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और कलीसिया के काम में गंभीर रूप से बाधा और गड़बड़ी डालता है तो वह उन्हें काट-छाँट कर उजागर कर सकता है, जैसा उसे करना चाहिए और वह भावनाओं से और उन्हें नाराज करने के डर से काम नहीं करता, बल्कि सिद्धांतों को बनाए रख सकता है और कलीसिया के कार्य की रक्षा कर सकता है। वास्तव में मानवता होना यही है। मैं सोचती थी कि किसी की गलतियों के लिए उसकी काट-छाँट न करना, उसकी कमियाँ उजागर न करना या उसे शर्मिंदा न करना एक समझदार व्यक्ति होना है जिसमें मानवता होती है। कई वर्षों तक चाहे मैंने किसी से भी बातचीत की हो, मैंने हमेशा सांत्वना देने वाले और अच्छे शब्द चुने। मैं हमेशा सोचा कि दूसरों को कैसे महसूस कराया जाए कि मैं उचित और समझदार हूँ, उनकी मनःस्थिति को ध्यान में रखते हुए दिल को छूने वाली बातें कही जाएँ। मैं दूसरों के कर्तव्यों में देखी गई समस्याओं को सीधे तौर पर इंगित नहीं करती थी और यहाँ तक कि उन्हें मूर्ख बनाने के लिए खुशनुमा और सांत्वना देने वाली बातें कह देती थी या बहुत नरमी से पेश आती थी। हर कोई मेरी मानवता के लिए और सहज व्यवहार की प्रशंसा करता था। मैं खुद को अच्छी इंसान के रूप में देखती थी और इस पर गर्व करती थी। मैंने परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आकर महसूस किया कि वर्षों से जैसे मैं सोचती रही कि मैं एक अच्छी इंसान हूँ, वे दरअसल सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे थे। मुझे लगता था कि मेरे पास मानवता है—मैं मिलनसार हूँ और किसी को नाराज नहीं करती। सभी के साथ मेरे संबंध अच्छे रहते थे, लेकिन अपने दिल में मैं केवल अपने हितों के बारे में सोचती थी। मैं अपने काम और दूसरों के जीवन प्रवेश के प्रति पूरी तरह से गैरजिम्मेदार थी। मैं दूर-दूर तक अच्छी इंसान नहीं थी। मैं स्वार्थी, नीच, कपटी, लोगों की खुशामद करने वाली एक नकली अच्छी इंसान थी। यह सोचकर कि मैं कैसे अपनी मानवता का बखान करती थी और खुद को अच्छा इंसान मानती थी, मैं वाकई बहुत बेशर्म थी। इसका एहसास होने पर मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, तुम्हारे वचनों ने मुझे दिखाया है कि वास्तव में मानवता क्या है। मैं सत्य का अभ्यास करना चाहती हूँ और मानवता वाली इंसान बनना चाहती हूँ।”
इसके बाद कलीसिया ने मुझे नए विश्वासियों के सिंचन के लिए चेन लिन और ली यू के साथ साझेदार बनाया। जल्द ही मुझे पता चला कि ली यू अपने कर्तव्य में लापरवाह और गैरजिम्मेदार है। वह अक्सर निजी मामलों में व्यस्त रहती और काम में देरी करती। चेन लिन और मैंने उसके साथ संगति की, उससे कहा कि वह चीजों को प्राथमिकता दे ताकि कलीसिया के काम में देरी न हो। मुझे हैरानी हुई कि उसने इसे नहीं स्वीकारा, बल्कि बहाने बनाए और अपना आपा खो दिया। चेन लिन ने परमेश्वर के वचनों को अपनी संगति और उसके मुद्दे के गहन-विश्लेषण में शामिल किया, लेकिन ली यू में कोई आत्म-जागरूकता नहीं थी। उसने कहा कि उसका आध्यात्मिक कद छोटा है और वह सत्य का अभ्यास नहीं कर पाती। उसका ऐसा व्यवहार देखकर मैंने सोचा कि अगर मैं उसकी समस्या का गहन-विश्लेषण करती रही तो वह पक्का कहेगी कि मेरी अपेक्षा ज्यादा है, मेरे पास मानवता नहीं है और मैं उसे बेबस कर रही हूँ। मुझे लगा कि मुझे उसे उजागर नहीं करना चाहिए ताकि हम अच्छे से साथ रह सकें। इसलिए मैंने विनम्रता से उसे आश्वस्त किया, “तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है और इसे हम समझ सकते हैं। बस भविष्य में काम में देरी मत करना।” जब मैंने ऐसा कहा तो ली यू की तनी हुई भौंहें शांत हो गईं और अब वह उतनी परेशान नहीं थी। उसके बाद वह मेरे प्रति वाकई दोस्ताना हो गई। मैं बहुत खुश थी और मुझे लगा कि संगति को लेकर मेरा दृष्टिकोण अच्छा है। भले ही मैंने उसकी समस्या बताई, फिर भी वह मेरे बारे में अच्छा सोचती है। बाद में, ली यू अभी तक अपने कर्तव्य में जिम्मेदार नहीं हुई थी और वह चेन लिन के खिलाफ पक्षपाती भी हो गई, उसने कहा कि वह बहुत अपेक्षा कर रही है। चेन लिन ने मेरी समस्या की ओर इशारा करते हुए कहा, “क्या तुम जानती हो कि उस दिन ली यू के साथ तुम्हारी संगति की प्रकृति क्या थी? हमने उसके साथ संगति की ताकि उसे खुद को जानने, आत्म-चिंतन करने और पश्चात्ताप करने में मदद मिले। लेकिन तुमने जिस तरह निपटाया उससे न सिर्फ उसे आत्म-चिंतन में मदद नहीं मिली, बल्कि उसे यह भी लगा कि तुम समझ रही हो जबकि मैं उससे बहुत ज्यादा अपेक्षा कर रही हूँ। ऐसा करना विघटनकारी, कमजोर करने वाली प्रकृति है और इससे उसे बिल्कुल भी मदद नहीं मिली।” चेन लिन के शब्द मेरे लिए बहुत दुखदायी थे। अपने दर्द में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर! काट-छाँट का सामना करते हुए मुझे इस मुद्दे की गंभीरता का एहसास नहीं हुआ। लेकिन मुझे पता है कि हर दिन मैं जिस चीज का सामना करती हूँ, वह तुम्हारी अनुमति से होता है। मुझे प्रबुद्ध करो और खुद को जानने के लिए मार्गदर्शन करो।”
मैंने उसके बाद परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधी लोगों को नियंत्रित करने के लिए जिस पहली तकनीक का उपयोग करते हैं वह है उनके दिल जीतना। लोगों के दिल जीतने के कितने तरीके हैं? एक तरीका है उनकी थोड़ी-बहुत मदद करके उन्हें फुसलाना। कभी-कभी मसीह-विरोधी लोगों को कुछ अच्छी चीजें देते हैं, कभी-कभी वे उनकी तारीफ करते हैं और कभी-कभी वे उनसे छोटे-छोटे वादे करते हैं। और कभी-कभी, मसीह-विरोधी देखते हैं कि कुछ कर्तव्य लोगों को सुर्खियों में आने में मदद कर सकते हैं या दूसरों को लगता है कि ये कर्तव्य इन्हें करने वाले लोगों को फायदे और सभी से सम्मान दिला सकते हैं और फिर वे ये कर्तव्य उन लोगों को सौंप देते हैं जिन्हें वे जीतना चाहते हैं। ... कुछ लोग बेहद भावुक होते हैं और अपना कर्तव्य करते समय वे हमेशा अपनी भावनाओं के आगे बेबस रहते हैं, और उनका अगुआ कहता है, ‘यह तुम्हारे छोटे आध्यात्मिक कद की वजह से है, कोई बात नहीं।’ कुछ लोग अपने कर्तव्य में आलसी और निष्ठाहीन होते हैं, लेकिन उनका अगुआ उन्हें नहीं डाँटता है, इसके बजाय वह उनसे ऐसी मीठी-मीठी बातें कहता है जिन्हें वे लोग हर मोड़ पर सुनना चाहते हैं, ताकि वह उन्हें खुश कर सके और वे उसे अच्छा कहें, और वह उन्हें दिखा सके कि वह कितना समझदार और प्रेम करने वाला है। वे लोग सोचते हैं, ‘हमारा अगुआ एक प्रेम करने वाली माँ जैसा है। उसके दिल में हमारे लिए वाकई प्रेम की भावना है—वह सच में परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। वह सच में परमेश्वर की तरफ से भेजा गया है!’ इसका अनकहा आशय यह है कि उनका अगुआ परमेश्वर के प्रवक्ता के तौर पर कार्य कर सकता है और वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है। क्या इस अगुआ का यही लक्ष्य है? शायद यह उतना स्पष्ट नहीं है, लेकिन उसका एक लक्ष्य तो स्पष्ट है : वह लोगों से यह कहलवाना चाहता है कि वह एक शानदार अगुआ है, वह दूसरों का ध्यान रखता है, लोगों की कमजोरियों के प्रति हमदर्दी रखता है और उनके दिलों को अच्छी तरह समझता है। जब कोई कलीसियाई अगुआ भाई-बहनों को अनमने ढंग से अपने कर्तव्य करते हुए देखता है, तो हो सकता है कि वह उन्हें नहीं डाँटे, हालाँकि उसे डाँटना चाहिए। स्पष्ट रूप से यह देखने पर भी कि परमेश्वर के घर के हितों को ठेस पहुँच रही है, वह इस बारे में कोई चिंता नहीं करता है और ना ही कोई पूछताछ करता है और वह दूसरों को जरा भी नाराज नहीं करता है। दरअसल, वह लोगों की कमजोरियों के प्रति सचमुच विचारशील नहीं है; बल्कि, उसका इरादा और लक्ष्य लोगों के दिल जीतना है। उसे पूरी तरह से मालूम है कि : ‘जब तक मैं ऐसा करता रहूँगा और किसी को नाराज नहीं करूँगा, तब तक वे यही सोचेंगे कि मैं एक अच्छा अगुआ हूँ। वे मेरे बारे में अच्छी, ऊँची राय रखेंगे। वे मुझे स्वीकार करेंगे और मुझे पसंद करेंगे।’ वह इसकी परवाह नहीं करता है कि परमेश्वर के घर के हितों को कितनी ठेस पहुँच रही है या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को कितने बड़े-बड़े नुकसान हो रहे हैं या उनके कलीसियाई जीवन को कितनी ज्यादा बाधा पहुँच रही है, वह बस अपने शैतानी फलसफे पर कायम रहता है और किसी को नाराज नहीं करता है। उसके दिल में कभी कोई आत्म-निंदा का भाव नहीं होता है। जब वह किसी को गड़बड़ियाँ और विघ्न उत्पन्न करते देखता है, तो ज्यादा से ज्यादा वह उससे इस बारे में कुछ बात कर लेता है, मुद्दे को मामूली बनाकर पेश करता है, और फिर मामले को समाप्त कर देता है। वह सत्य पर संगति नहीं करेगा या उस व्यक्ति को समस्या का सार नहीं बताएगा, उसकी स्थिति का गहन-विश्लेषण तो और भी कम करेगा और परमेश्वर के इरादों के बारे में संगति तो कभी नहीं करेगा। एक झूठा अगुआ लोगों द्वारा बार-बार की जाने वाली गलतियों को या उनके द्वारा अक्सर प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभाव को उजागर या उनका गहन-विश्लेषण कभी नहीं करता है। वह किसी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं करता है, बल्कि हमेशा लोगों के गलत अभ्यासों और भ्रष्टाचार के खुलासों में शामिल रहता है, और भले ही लोग कितने भी निराश या कमजोर क्यों ना हों, वह इस चीज को गंभीरता से नहीं लेता है। वह सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का ही प्रचार करता है और मेल-मिलाप बनाए रखने का प्रयास करते हुए बेपरवाह तरीके से स्थिति से निपटने के लिए प्रोत्साहन के कुछ शब्द बोल देता है। फलस्वरूप, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को यह मालूम नहीं होता है कि उन्हें कैसे आत्म-चिंतन करना है और आत्म-ज्ञान कैसे प्राप्त करना है, वे जो भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं उनका कोई समाधान नहीं निकलता है और वे जीवन प्रवेश के बिना ही शब्दों और धर्म-सिद्धांतों, धारणाओं और कल्पनाओं के बीच जीवन जीते रहते हैं। वे अपने दिलों में भी यह मानते हैं, ‘हमारी कमजोरियों के बारे में हमारे अगुआ को परमेश्वर से भी ज्यादा समझ है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए हमारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। हमें बस अपने अगुआ की अपेक्षाएँ पूरी करने की जरूरत है; अपने अगुआ के प्रति समर्पण करके हम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर रहे हैं। अगर ऐसा कोई दिन आता है जब ऊपरवाला हमारे अगुआ को बर्खास्त कर देता है तो हम अपनी आवाज उठाएँगे; अपने अगुआ को बनाए रखने और उसे बर्खास्त किए जाने से रोकने के लिए हम ऊपरवाले से बातचीत करेंगे और उसे हमारी माँगें मानने के लिए मजबूर करेंगे। इस तरह से हम अपने अगुआ के साथ उचित व्यवहार करेंगे।’ जब लोगों के दिलों में ऐसे विचार होते हैं, जब वे अपने अगुआ के साथ ऐसा रिश्ता बना लेते हैं और उनके दिलों में अपने अगुआ के लिए इस तरह की निर्भरता, ईर्ष्या और आराधना की भावना जन्म ले लेती है, तो ऐसे अगुआ में उनकी आस्था और बढ़ जाती है, और वे हमेशा परमेश्वर के वचनों में सत्य तलाशने के बजाय अगुआ के शब्दों को सुनना चाहते हैं। ऐसे अगुआ ने लोगों के दिलों में परमेश्वर की जगह लगभग ले ली है। अगर कोई अगुआ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ ऐसा रिश्ता बनाए रखने के लिए राजी है, अगर इससे उसे अपने दिल में खुशी का अहसास होता है और वह मानता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए, तो इस अगुआ और पौलुस के बीच कोई फर्क नहीं है, वह पहले से ही एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर अपने कदम रख चुका है और परमेश्वर के चुने हुए लोग पहले से ही इस मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह हो चुके हैं और उनमें सूझ-बूझ का पूरा अभाव है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं)। परमेश्वर मसीह विरोधियों को अविश्वसनीय रूप से घृणित और दुष्ट की तरह उजागर करता है। दूसरों के दिलों में अपनी जगह पक्की करने के लिए वे कभी भी लोगों को नाराज नहीं करते। अगर वे किसी को सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए देखते हैं तो वे समस्या सुलझाने के लिए या उसे उजागर करने और रोकने के लिए सत्य पर संगति नहीं करते। इसके बजाय वे दूसरों का समर्थन पाने के लिए अच्छी बातें कहते हैं, ताकि दूसरे लोग उन्हें पसंद करें सोचें कि वे प्रेमपूर्ण, समझदार और क्षमाशील हैं, जबकि वे परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं को नापसंद करते हैं और उनका प्रतिरोध करते हैं और उनका अभ्यास या उनमें प्रवेश नहीं करते। मसीह-विरोधी दूसरों को खुद से पहले रखते हैं। मैंने इस बात पर आत्म-चिंतन किया कि मेरे कार्यों की प्रकृति बिल्कुल मसीह-विरोधी की तरह कैसे थी। मैंने साफ तौर पर भाई-बहनों के कर्तव्यों में गलतियाँ देखीं, यहाँ तक कि कुछ गलतियाँ गंभीर थीं और काम पर असर डाल रही थीं, इसलिए मुझे उनकी ओर इंगित करना चाहिए था। तब वे समस्या का सार और उसके गंभीर परिणाम देख सकते थे और जल्दी से पश्चात्ताप कर सकते थे। लेकिन मुझे डर था कि लोगों की समस्याओं को उजागर करने से वे नाराज हो जाएँगे, इसलिए मैंने उनका समर्थन पाने के लिए कुछ अच्छी-अच्छी बातें कहकर उनकी देह को खुश किया। ली यू की समस्या उजागर करने और संगति करते समय मैंने ली यू को खुद को जानने के लिए मार्गदर्शन करने के लिए चेन लिन के साथ सहयोग नहीं किया, मुझे डर था कि अगर मैं सख्ती से बोलूँगी तो वह मेरे खिलाफ पक्षपाती हो जाएगी, तो मैंने उसकी भावनाओं के अनुसार काम किया और अच्छी बनी रही। इससे मैं चेन लिन से ज्यादा प्रेमपूर्ण दिखी, जो उसकी कमजोरियों को माफ और सहन कर सकती थी, इससे ली यू अपनी ही समस्याएँ पहचानने में असमर्थ हो गई और चेन लिन के लिए प्रतिरोधी बन गई। डिंग रुई के साथ भी मेरा यही व्यवहार था। मैंने उसकी समस्या देखी, लेकिन संगति और मदद करने, उसे आत्म-चिंतन करने और उसकी समस्या को देखने के लिए मार्गदर्शन करने के बजाय मैंने हमेशा उसे खुश किया। मैं अपने कर्तव्य में इस तरह से परमेश्वर की बड़ाई या गवाही नहीं दे रही थी और मैं अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रही थी। मैं एक अगुआ थी, लेकिन जब मैंने देखा कि भाई-बहन अपने भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर काम करके सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं तो मैंने समस्या सुलझाने के लिए सत्य की संगति नहीं की, बल्कि उनकी देह को खुश किया, उन्हें मूर्ख बनाने के लिए सांत्वना देने वाली कुछ बातें कही। मैंने उन्हें भ्रष्ट स्वभाव में जीने, खुद को समायोजित करने और बचाने में लिप्त किया। मैंने जो किया उसकी प्रकृति दूसरों को सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने से रोकने की थी। वे सत्य नहीं जानते थे या परमेश्वर को नहीं समझते थे और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रतिरोधी थे और उन्हें नापसंद करते थे। लेकिन वे सभी मुझे महान मानते थे, कहते थे कि मैं क्षमाशील और समझदार हूँ और वे मेरे करीब आते जा रहे थे। क्या यह लोगों को गुमराह करने जैसा नहीं था? मैंने देखा कि शैतानी फलसफों के अनुसार जीने और अच्छा इंसान बनकर मैं सिर्फ बुराई ही कर रही थी। ऐसा दिखता था कि मैं दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार कर रही हूँ, लेकिन दरअसल मैं भाई-बहनों को नुकसान पहुँचा रही थी और कलीसिया के काम में देरी कर रही थी। मैं बहुत पाखंडी थी! मैंने धूर्त रणनीति अपनाई ताकि दूसरों से तारीफ और बड़ाई पा सकूँ। मैं मसीह-विरोधी के रास्ते पर थी! इतने वर्षों में मैंने कर्तव्य निभाने के लिए अपना परिवार और नौकरी छोड़ दी थी। मैंने बहुत कुछ सहा था और बहुत काम भी किया था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल पड़ूँगी। मेरे दिल में डर समा गया। मुझे खुद से और भी ज्यादा घिन और घृणा महसूस हुई। आँसू बहाते हुए मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं दूसरों का समर्थन पाने के लिए रुतबे के पीछे पड़ी हूँ और अपने रिश्ते बचा रही हूँ। मेरा यह स्वभाव तुम्हारे लिए बहुत घृणित है और अगर मुझे सजा मिलती है तो यह तुम्हारी धार्मिकता होगी। परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ।”
कुछ समय बाद ली यू अभी भी अपने कर्तव्य निर्वहन में उलझी हुई थी और कुछ भी पूरा नहीं कर पा रही थी और संगति के बाद भी उसमें कोई बदलाव नहीं आया था। हमने अपने अगुआ को उसकी समस्याओं के बारे में बताया। कुछ दिनों बाद अगुआ हमारी सभा में आया और ली यू की समस्याओं पर संगति की ताकि उसकी मदद की जा सके। लेकिन ली यू अभी भी खुद को बिल्कुल नहीं जानती थी। अगुआ ने मुझसे और चेन लिन से हमारी राय बताने के लिए कहा : स्थिति को देखते हुए क्या ली यू को बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए? इस सवाल ने मुझे थोड़ा हैरान कर दिया। मैं सोच रही थी कि ली यू वहीं बैठी है, मैं कुछ कैसे कह सकती हूँ? अगर मैंने सच बोला और उसे बर्खास्त कर दिया गया तो वह मुझसे नफरत कर सकती है। मुझे लगा कि मुझे बोलना नहीं चाहिए। उस पल मुझे अपराध बोध की तीव्र पीड़ा महसूस हुई। मुझे एहसास हुआ कि एक बार फिर मैं दूसरों के दिल में अपनी जगह बचाने के बारे में सोच रही हूँ। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से मौन प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं फिर से शैतानी फलसफों के अनुसार जीने, अपनी छवि बचाने और लोगों की खुशामद करने वाले की तरह सोच रही हूँ। सत्य बोलने और अपने गलत इरादों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।” प्रार्थना करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। परमेश्वर कहता है : “यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है। एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कर्तव्य निभाते समय अनमना रहता है या कलीसिया के काम में गड़बड़ी कर बाधा डालता है, तो तुम सत्य-सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि जब भी कोई समस्या आती है तो हमें परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना चाहिए और कलीसिया के काम को बनाए रखना चाहिए। जब हम दूसरों को सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए, कलीसिया के काम में बाधा डालते हुए देखते हैं तो हम उनकी ढाल नहीं बन सकते, बल्कि हमें सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। यही सच्चे मानव के समान होना है जैसे परमेश्वर हमसे जीने के लिए कहता है। ली यू के व्यवहार के आधार पर वह उस समय यह काम करने के लिए उपयुक्त नहीं थी। मैं उसे नाराज करने से नहीं डर सकती थी, लेकिन मुझे कलीसिया के काम को बनाए रखना था, एक ईमानदार इंसान बनना था और अपनी स्थिति स्पष्ट करनी थी। और इसलिए मैंने अपना नजरिया समझाया। सब कुछ तौलने के बाद अगुआ ने ली यू को बर्खास्त कर दिया।
उसके बाद मुझे बहन वांग जिया के साथ एक कर्तव्य करने के लिए लगाया गया। बातचीत के दौरान मैंने देखा कि कभी-कभी वह व्यक्तिगत मामलों के लिए कलीसिया के काम में देरी करती है। मैंने उसके साथ संगति की कि काम को पहले रखना चाहिए। कुछ समय बाद मैंने हमारी अगुआ को यह कहते हुए सुना कि वह वांग जिया को एक काम सँभालने के लिए तरक्की देने वाली है। मेरा विचार था कि वांग जिया में काबिलियत है और वह सक्षम है, इसलिए उसे काम का प्रभार सौंपना ठीक रहेगा। लेकिन जब उसके निजी मामले काम से टकराते हैं तो कभी-कभी वह अपने कर्तव्य को प्राथमिकता नहीं देती है। अगर उसे उस समस्या के बारे में पता नहीं चलेगा तो क्या उसके प्रभारी होने के कारण काम में देरी होगी? उसकी साथी के रूप में मेरी जिम्मेदारी थी कि मैं संगति करूँ और उसे यह बात बताऊँ। लेकिन जब यह बात मेरी जुबान पर आई तो मैं हिचकिचाने लगी। मैंने पहले भी उसके साथ इस तरह के मुद्दे पर संगति की थी। अगर मैं इसे फिर से उठाती तो क्या वह कहती कि मैं इस मुद्दे के पीछे पड़ गई हूँ और लगातार उसकी खामियाँ उजागर कर रही हूँ? मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से गलत अवस्था में थी, इसलिए मैंने चुपचाप प्रार्थना की। मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया जो मैंने पहले पढ़ा था जिसमें कहा गया था : “परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सच बोलें, वही कहें जो वे सोचते हैं, दूसरों को छलें नहीं, उन्हें गुमराह न करें, उनका मजाक न उड़ाएँ, उन पर व्यंग्य न करें, उनका उपहास न करें, उनकी हँसी न उड़ाएँ, या उन्हें जकड़ें नहीं, या उनकी कमजोरियाँ उजागर न करें, या उन्हें चोट न पहुँचाएँ। क्या ये बोलने के सिद्धांत नहीं हैं? यह कहने का क्या मतलब है कि लोगों की कमजोरियाँ उजागर नहीं की जानी चाहिए? इसका मतलब है दूसरे लोगों पर कीचड़ न उछालना। उनकी आलोचना या निंदा करने के लिए उनकी पिछली गलतियाँ या कमियाँ न पकड़े रहो। तुम्हें कम से कम इतना तो करना ही चाहिए। सक्रिय पहलू से, रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न? ... और संक्षेप में, बोलने के पीछे का सिद्धांत क्या है? वह यह है : वह बोलो जो तुम्हारे दिल में है, और अपने सच्चे अनुभव सुनाओ और बताओ कि तुम वास्तव में क्या सोचते हो। ये शब्द लोगों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हैं, वे लोगों को पोषण प्रदान करते हैं, वे उनकी मदद करते हैं, वे सकारात्मक हैं। वे नकली शब्द कहने से इनकार कर दो, जो लोगों को लाभ नहीं पहुँचाते या उन्हें कुछ नहीं सिखाते; यह उन्हें नुकसान पहुँचने या उन्हें गलती करने, नकारात्मकता में डूबने और नकारात्मक प्रभाव ग्रहण करने से बचाएगा। तुम्हें सकारात्मक बातें कहनी चाहिए। तुम्हें लोगों की यथासंभव मदद करने, उन्हें लाभ पहुँचाने, उन्हें पोषण प्रदान करने, उनमें परमेश्वर में सच्ची आस्था पैदा करने का प्रयास करना चाहिए; और तुम्हें लोगों को मदद लेने देनी चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अपने अनुभवों से और समस्याएँ हल करने के अपने ढंग से बहुत-कुछ हासिल करने देना चाहिए, और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने के मार्ग को समझने में सक्षम होने देना चाहिए, उन्हें जीवन-प्रवेश करने और अपना जीवन विकसित करने देना चाहिए—जो कि तुम्हारे शब्दों में सिद्धांत के होने और उनके लोगों के लिए शिक्षाप्रद होने का परिणाम है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। अपनी बातचीत में मुझे सत्य बताना है ताकि लोग लाभान्वित हो सकें और शिक्षित हो सकें। मैं उन्हें ताना नहीं मार सकती, व्यंग्य नहीं कर सकती या उनका मजाक नहीं उड़ा सकती। मैंने यह भी समझा कि जब परमेश्वर लोगों की कमजोरियाँ उजागर न करने के लिए कहता है, तो इसका मतलब होता है कि उनकी गलतियों या कमियों को पकड़कर उनकी आलोचना और निंदा न की जाए। उनकी समस्याएँ को बताना और उजागर करना है ताकि वे सबक सीख सकें इसका मतलब कमजोरियाँ उजागर करना नहीं है, बल्कि प्यार भरी मदद है। वांग जिया खुद को नहीं जानती थी, और उसकी समस्या को उजागर करना उसे याद दिलाना और उसकी मदद करना था। भले ही उसने इसे तुरंत स्वीकार न किया हो और मेरे बारे में बुरा सोचा हो, मुझे इसे उचित तरीके से सँभालना चाहिए। अगर वह सत्य का अनुसरण करती रही, तो वह बाद में सत्य को खोजेगी, खुद को जानेगी और बदलेगी। इसे समझते हुए मैंने वांग जिया के साथ उसकी समस्या पर संगति की। बाद में वांग जिया ने अपने लिखे एक निबंध में कहा, “अगर जिस बहन के साथ मैं जुड़ी हुई थी, उसने मेरी समस्या को उजागर और उसका गहन-विश्लेषण नहीं किया होता तो मैं आत्म-चिंतन नहीं करती या अपनी समस्या की गंभीरता को नहीं समझ पाती, पश्चात्ताप करना और बदलना तो दूर की बात है।” यह देखकर कि वांग जिया को वह समझ मिल गई थी, मैंने अपने दिल में परमेश्वर को धन्यवाद दिया। यह परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने मुझे अच्छा-इंसान होने का असली चेहरा देखने में मदद की और अनुसरण के बारे में मेरे गलत दृष्टिकोण को बदलने में मदद की। परमेश्वर का उसके उद्धार के लिए धन्यवाद!