8. कलीसियाओं के बँटवारे से सीखे सबक
पिछले साल के शुरू में हमारे नवागंतुकों की कलीसियाएँ बढ़ती जा रही थीं, इसलिए अगुआ ने हमारी जिम्मेदारियाँ फिर से बाँटने का फैसला किया। पहले तो मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब पता चला कि क्या हो रहा है, तो मैंने देखा कि मेरे हिस्से की जिम्मेदारियाँ कुछ ज्यादा ही मुश्किल हैं। अधिकतर सदस्यों की आस्था अभी उतनी मजबूत नहीं हुई थी, और अगुआ और उपयाजक भी अभी नहीं चुने गए थे। लेकिन बहन लियू की कमान वाली कलीसियाएँ मुझसे बेहतर कर रही थीं। उन नए विश्वासियों की पकड़ मजबूत और क्षमता अच्छी थी, उनके अगुआ और उपयाजक भी जिम्मेदार लोग थे। मुझे उससे ईर्ष्या होने लगी। मैं सोचने लगी कि उसे बेहतर कलीसियाएँ क्यों मिलीं, मेरी वाली में तो बहुत समस्याएँ हैं। मुझे तो बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी! अगर मैं चीजों का सही संचालन नहीं कर पाई, तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी? वह यह तो नहीं कहेगी कि मैं अक्षम हूँ, और कोई काम नहीं कर सकती? उसकी नजर में मेरी छवि अच्छी नहीं बनेगी। यह सब सोचकर मुझे बेचैनी होने लगी। फिर जब मैं उन कलीसियाओं की सभाओं में जाती, तो वहाँ हमेशा ढेरों समस्याएँ होतीं, जिनके समाधान में बहुत समय लगता। सभी कलीसियाओं में यही समस्याएँ होती थीं। मैं सो भी नहीं पा रही थी, बस लगातार जूझ रही थी। मैं सोचने लगी कि जो काम करने में बहन लियू को घंटाभर लगता है, मुझे उसी में दो-तीन घंटे लग जाते हैं। मेरी क्षमता और कौशल सीमित थे, जबकि कलीसियाओं में अनेक समस्याएँ थीं। इतना समय और प्रयास लगाकर भी मैं कुछ खास प्रगति नहीं कर पाई, अगर अगुआ ने मेरे और बहन लियू के परिणामों की तुलना की, तो उसे मेरा काम जरूर मामूली लगेगा, और वो सोचेगी कि बहन लियू से मेरा कोई मुकाबला नहीं। उस दौरान मेरी हालत काफी खराब थी, जब भी कोई समस्या आती, मुझे लगता, मेरे साथ गलत हो रहा है। मैं थककर भावनात्मक रूप से टूट गई थी। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं जानती हूँ, तेरी इच्छा से ही यह काम बाँटा गया है, और मुझे तेरी व्यवस्थाओं के आगे झुकना चाहिए, लेकिन मैं अभी भी अनिच्छुक हूँ। मुझे प्रबुद्ध कर, ताकि मैं तेरी इच्छा और अपनी भ्रष्टता समझ सकूँ।"
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े, उनमें से एक जैसे मेरी स्थिति के बारे में ही था। परमेश्वर कहते हैं, "तुम्हारा दायित्व बढ़ाना तुम्हारे लिए चीजों को कठिन बनाना नहीं है, बल्कि वास्तव में यह आवश्यक है : यह तुम्हारा काम है, इसलिए मनचाहा काम चुनने या न कहने या इससे बाहर निकलने का प्रयास न करो। तुम इसे कठिन क्यों समझते हैं? वास्तव में, अगर तुमने थोड़ी अधिक कोशिश की होती, तो तुम इसे पूरा करने में पूरी तरह सक्षम होते। तुम्हारा इसे कठिन मानना, मानो तुम्हारे साथ गलत व्यवहार किया जा रहा हो, मानो तुम्हें जानबूझकर परेशान किया जा रहा हो, भ्रष्ट स्वभाव प्रकटीकरण है, यह अपना काम करने से इनकार करना है, और परमेश्वर से प्राप्त करना नहीं है; यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है। जब तुम मनचाहा काम चुनते हो, जो आरामदेह और आसान होता है, जो तुम्हें अच्छा दिखाता है, तो यह शैतान का भ्रष्ट स्वभाव होता है। अगर तुम स्वीकार करने और समर्पण करने में असमर्थ हो, तो यह साबित करता है कि तुम अभी भी परमेश्वर के प्रति विद्रोही हो, कि तुम पलटवार कर रहे हो, अस्वीकार कर रहे हो, टाल रहे हो—जो कि एक भ्रष्ट स्वभाव है। तो जब तुम्हें पता हो कि यह भ्रष्ट स्वभाव है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? जब तुम्हें लगे कि किसी और को आवंटित कार्य पूरा करने में केवल कुछ शामें लगेंगी, जबकि तुम्हें दिया गया कार्य पूरा करने में तीन दिन और रातें लग सकती हैं, इसके लिए बहुत अधिक विचार और प्रयास की आवश्यकता होगी, बहुत शोध करना होगा, तो यह तुम्हें दुखी कर देता है। क्या तुम्हारा दुखी होना सही है? (नहीं।) निश्चित रूप से नहीं। तो जब तुम्हें लगे कि यह गलत है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? अगर तुम नाराज होते हो और सोचते हो, 'ऐसा इसलिए है, क्योंकि मैं अच्छा हूँ और मेरा आसानी से फायदा उठाया जा सकता है। आसान काम, जिन्हें करते हुए लोग अच्छे दिखते हैं, हमेशा दूसरे लोगों को दे दिए जाते हैं। मैं ही हूँ जिसे मुश्किल, थकाऊ और गंदे काम मिलते हैं। क्या मैं उन्हें करने से मना नहीं कर सकता? क्या उन्हें करने की किसी और की बारी नहीं है? यह उचित नहीं है! क्या परमेश्वर धार्मिक नहीं है? वह ऐसे मामलों में धार्मिक क्यों नहीं है? हमेशा मुझे ही क्यों चुना जाता है? क्या यह अच्छे लोगों को चुनना नहीं है?' अगर तुम ऐसा ही सोचते हो, तो तुम्हारा इस काम को करने का कोई इरादा नहीं है, तुम इससे बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हो, इसलिए तुम्हें इसे करने की कोई प्रेरणा नहीं मिलेगी, और तुम इसे करने में असमर्थ होगे। समस्या कहाँ है? सबसे पहले तो तुम्हारा रवैया ही गलत है। यह गलत रवैया क्या दर्शाता है? तुम्हारा अपने काम के प्रति गलत रवैया रखना; तुम्हें अपने काम के प्रति ऐसा रवैया नहीं रखना चाहिए। तुम किसमें मीनमेख निकाल रहे हो? तुम्हें बिना किसी शिकायत या पसंद के उन चीजों का पालन करना चाहिए और उन्हें स्वीकार करना चाहिए, जो तुमसे अपेक्षित हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने कर्तव्यों में परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे करें')। इसे पढ़कर मैंने अपने पिछले कुछ दिनों के व्यवहार पर विचार किया। जब मैंने देखा कि जिन सदस्यों का दायित्व मुझ पर है, उनकी पकड़ मजबूत नहीं है और उनमें से कई अपना काम नहीं कर पा रहे, तो मेरा काम करने का मन नहीं हुआ। सभी अगुआ और उपयाजक नहीं चुने गए थे, और विभिन्न परियोजनाओं का प्रबंधन कठिन था, इसलिए मुझे बहुत समय और ताकत लगानी थी, फिर भी काम ठीक से न हो पाया, तो मेरी छवि खराब हो जाएगी। मैं पहले से अच्छी चल रही कलीसियाएँ लेना चाहती थी, ताकि काम की चिंता न रहे, और मैं आसानी से परिणाम हासिल कर सकूँ, और लोग मेरे बारे में अच्छा सोचें। मुझे यही लगता रहता कि काम के इस बँटवारे में मेरे साथ अन्याय हुआ, बहन लियू को आसान काम मिला जिससे उसकी छवि अच्छी बनेगी, जबकि मेरे हिस्से में मुश्किल काम आया। मुझे चमकने का मौका नहीं मिलेगा। इसलिए मैं इसकी विरोधी थी और इसे स्वीकारना नहीं चाहती थी। लेकिन परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मेरा इस तरह सोचना उस कर्तव्य को नकारना था, मैं मीन-मेख निकाल रही थी और वैसा काम नहीं करना चाहती थी, जिससे मेरी शान न बढ़े। मैं जरा भी आज्ञाकारी नहीं थी। मैंने हमेशा खुद को अपने काम में कर्तव्यनिष्ठ और जिम्मेदार समझा था, और मुझे इस तरह उजागर होने की उम्मीद नहीं थी। मैंने देखा कि काम को लेकर मेरे इरादे और दृष्टिकोण गलत थे। परमेश्वर को संतुष्ट करने के बजाय मैं लोगों की प्रशंसा और बड़ाई पाना चाहती थी। जब काम को लेकर मेरे इरादे ऐसे थे, तो मैं परमेश्वर की स्वीकृति कैसे पा सकती थी?
मुझे परमेश्वर के कुछ वचन मिले। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "यदि तुम अपने हर काम में परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए समर्पित रहना चाहते हो, तो केवल एक ही कर्तव्य करना काफी नहीं है; तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिये गए हर आदेश को स्वीकार करना चाहिए। चाहे यह तुम्हारी पसंदों के अनुसार हो या न हो, और चाहे यह तुम्हारी रूचियों में से एक हो या न हो, या चाहे यह कुछ ऐसा काम हो जो तुम्हें करना अच्छा नहीं लगता हो या तुमने पहले कभी न किया हो, या कुछ मुश्किल काम हो, तुम्हें इसे फिर भी स्वीकार कर इसके प्रति समर्पित होना होगा। न तुम्हें केवल इसे स्वीकार करना होगा, बल्कि अग्रसक्रिय रूप से अपना सहयोग देना होगा, और इसे सीखना होगा, इसमें प्रवेश पाना होगा। यदि तुम कष्ट उठाते हो, अपमानित होते हो, और खुद को औरों से अलग नहीं दिखाते, तो तुम्हें फिर भी समर्पण के लिए प्रतिबद्ध रहना होगा। तुम्हें इसे अपना व्यक्तिगत कामकाज नहीं बल्कि कर्तव्य मानना चाहिए; कर्तव्य जिसे पूरा करना ही है। लोगों को अपने कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए। जब सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—किसी को कोई कार्य सौंपता है, तब उस समय, वह उस व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है। जिन कार्यों और आदेशों को परमेश्वर तुम्हें देता है—वे तुम्हारे कर्तव्य हैं। जब तुम उन्हें अपने लक्ष्य बनाकर उनके पीछे जाते हो, और जब तुम्हारा दिल वास्तव में परमेश्वर-प्रेमी होता है, तब भी क्या तुम इनकार कर सकोगे? (नहीं।) बात ये नहीं की तुम कर सकते हो या नहीं—तुम्हें इसे इनकार नहीं करना चाहिए। तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए। यही अभ्यास का पथ है। अभ्यास का मार्ग कौन-सा है? (हर कार्य में पूरी तरह से समर्पित होना।) परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए सभी चीजों में समर्पित रहो। यहाँ केन्द्र बिन्दु कहाँ है? यह 'सभी चीजों में' है। 'सभी चीजों' का मतलब वे चीजें नहीं हैं जिन्हें तुम पसंद करते हो या जिन कामों में तुम अच्छे हो, वे वह चीजें तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिनसे तुम वाकिफ हो। कभी-कभी, तुम्हें कोई चीज अच्छे से नहीं आती, कभी-कभी तुम्हें सीखने की आवश्यकता होती है, कभी-कभी तुम्हें कठिनाइयों का सामना करना और कभी-कभी तुम्हें कष्ट उठाना पड़ेगा। लेकिन चाहे वह कोई भी कार्य हो, अगर वह परमेश्वर का आदेश है, तो तुम्हें उसे स्वीकार करना चाहिए, उसे अपना कर्तव्य समझना चाहिए, उसे पूरा करने के लिए समर्पित होना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना चाहिए : यह अभ्यास का मार्ग है। चाहे तुम्हारे साथ कुछ भी हो जाए, तुम्हें हमेशा सत्य की खोज करनी चाहिए, और एक बार जब तुम निश्चित हो जाते हो कि किस तरह का अभ्यास परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तुम्हें उसका अभ्यास करना चाहिए। इस तरह से कार्य करना ही सत्य का अभ्यास करना है, और तभी तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल ईमानदार बनकर ही लोग वास्तव में खुश हो सकते हैं')। इसे पढ़कर मुझे पता चला कि यह सच है। कर्तव्य परमेश्वर से आता है, वह हमारे लिए उसका आदेश और हमारी जिम्मेदारी होती है। वह चाहे मुश्किल हो या उससे हमारी शान न बढ़े, पर उसे स्वीकारना हमारा दायित्व है। यही हमारा रवैया होना चाहिए, परमेश्वर के सामने सृजित प्राणी को यही विवेक रखना चाहिए। मैं वे कलीसियाएँ नहीं चाहती थी, जिनका प्रबंधन कर रही थी, वहाँ रुतबे की मेरी इच्छा पूरी नहीं हो रही थी, लेकिन यह मेरे लिए परमेश्वर का आदेश था। मुझे इसे स्वीकारना चाहिए था, और काम के प्रति गलत नजरिया नहीं रखना चाहिए था मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, मैं उसकी व्यवस्थाओं का पालन करना चाहती थी, मेहनत से काम करके नए विश्वासियों का ठीक से सिंचन करना चाहती थी, ताकि वे सही मार्ग पर कदम जमा सकें। प्रार्थना के बाद काम के प्रति मेरे नजरिये में थोड़ा सुधार आया, अब मैं उतनी परेशान नहीं थी।
कुछ समय बाद और अधिक कलीसियाओं की स्थापना हुई, तो अगुआ ने हमारी जिम्मेदारियों का फिर से बँटवारा कर दिया। मेरे दायरे की कलीसियाओं में से एक जो थोड़ा-बहुत बेहतर कर रही थी, और जो बहन अच्छा सिंचन-कार्य कर रही थी, उन्हीं को दूसरों के प्रबंधन में लगा दिया गया। मैं इस बात से बहुत परेशान और दुखी थी। मुझे लगा, उन्हें मेरी स्थिति अच्छी तरह पता होगी कि मेरे हिस्से की कलीसियाओं में सबसे अधिक समस्याएँ हैं और मैं पहले ही काफी मेहनत कर रही हूँ। अच्छा सिंचन-कार्य करने वाली बहन को मुश्किल से ढूँढ़ा था, उसे ही ले लिया गया, तो मैं अपना काम अच्छे से कैसे कर सकती थी? अगर मैं अच्छे परिणाम पाने के लिए संघर्ष करती रही, तो लोग क्या सोचेंगे? यही न कि मैं अयोग्य हूँ और काम नहीं करा सकती। यह कितने शर्म की बात होगी! फिर मैं सहकर्मियों की बैठकों में क्या मुँह दिखाऊँगी? सोच-सोचकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। मैंने महसूस किया कि मैं फिर से असंतुष्ट और अवज्ञाकारी हो गई हूँ। मैं तुरंत घुटने टेककर प्रार्थना और आत्मचिंतन करने लगी। फिर परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "मसीह-विरोधी व्यक्ति चाहे जो भी कार्य करें, वे कभी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में विचार नहीं करते। वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि कहीं उनके अपने हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, और केवल उन्हीं कामों के बारे में सोचते हैं जो उनके सामने होते हैं। परमेश्वर के घर और कलीसिया के काम ऐसी चीजें हैं जिन्हें वे अपने खाली समय में करते हैं, और उनसे हर काम कह-कहकर करवाना पड़ता है। अपने हितों की रक्षा करना ही उनका असली काम होता है, यही उनका मनपसंद असली धंधा होता है। उनकी नजर में परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश से जुड़ी किसी भी चीज का कोई महत्व नहीं होता। ... वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल यही सोचते रहते हैं कि क्या इससे उनका प्रोफाइल उन्नत होगा; अगर उससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, तो वे यह जानने के लिए अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं कि उस काम को कैसे करना है, कैसे अंजाम देना है; उन्हें केवल एक ही फिक्र रहती है कि क्या इससे वे औरों से अलग नजर आएँगे। वे चाहे कुछ भी करें या सोचें, वे उसमें सिर्फ अपना भला ही देखते हैं। समूह में वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल इसी स्पर्धा में लगे रहते हैं कि कौन बड़ा है या कौन छोटा, कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है, किसकी ज्यादा प्रतिष्ठा है। उन्हें केवल इसी बात की चिंता रहती है कि कितने लोग उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते हैं और उनके अनुयायी कितने हैं। वे कभी सत्य पर संगति या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते, वे कभी इस बारे में बात नहीं करते कि अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांत के अनुसार कैसे काम करें, क्या वे वफादार रहे हैं, क्या उन्होंने अपने दायित्व पूरे किए हैं, कहीं वे भटक तो नहीं गए। वे इस बात पर जरा भी ध्यान नहीं देते कि परमेश्वर का घर क्या कहता है और परमेश्वर की इच्छा क्या है। वे केवल अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और जरूरतें पूरी करने का प्रयास करने के लिए कार्य करते हैं। यह स्वार्थपरता और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न? यह पूरी तरह से उजागर कर देता है कि उनके हृदय किस तरह उनकी महत्वाकांक्षाओं, जरूरतों, और बेहूदा माँगों से भरे होते है; उनका हर काम उनके हृदय के भीतर की महत्वाकांक्षाओं और आवश्यकताओं से नियंत्रित होता है। वे चाहे कोई भी काम करें, उनकी अभिप्रेरणा और शुरुआत अपनी ही महत्वाकांक्षाओं, आवश्यकताओं और बेहूदा माँगों से होती है। यह स्वार्थ और नीचता की विशिष्ट अभिव्यक्ति है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक)')। ये वचन बताते हैं कि मसीह-विरोधी कितने स्वार्थी और नीच होते हैं, कार्य करते हुए उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं और हर काम में वे हमेशा अपना हित देखते हैं। वे चाहे कोई भी काम करें, परमेश्वर की इच्छा का ख्याल नहीं रखते, अपना काम अच्छे से नहीं करते, यह सुनिश्चित नहीं करते कि परमेश्वर के घर का काम प्रभावित न हो। वे कलीसिया की परवाह न कर सिर्फ अपने नाम और रुतबे की सोचते हैं। जहाँ तक मेरे व्यवहार की बात है, अपनी कलीसियाओं की समस्याएँ देखकर मैंने यह नहीं सोचा कि मैं परमेश्वर पर निर्भर रहकर उन्हें बेहतरीन ढंग से कैसे सँभालूँ, मैं डरती रही कि मैं अच्छे से काम नहीं कर पाऊँगी और लोग मुझे हिकारत से देखेंगे, जो बड़ी शर्मिंदगी की बात होगी। मैं काम के बँटवारे से नाखुश थी, उसका विरोध कर रही थी, और काम में भी ढिलाई बरत रही थी। जब मुझे पता चला कि मेरे अधीन काम करने वाली एक सक्षम बहन का तबादला होने वाला है, तो मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि मैं एक अच्छी कर्मी गँवा रही हूँ, जिससे मेरी अपनी उपलब्धियाँ कम हो जाएँगी। तब अगुआ सोचेगी कि मैं अयोग्य हूँ और कलीसिया का कार्य समझ नहीं पाई। मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने काम में सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और हित की सोच रही थी, कि कैसे बिना ज्यादा मेहनत किए अपना काम निकाल लूँ, और कैसे अच्छा प्रदर्शन करके लोगों की प्रशंसा पा लूँ। मैं कलीसिया के काम को उसकी संपूर्णता में नहीं देख रही थी। मैं कितनी स्वार्थी थी, यही तो मसीह-विरोधी स्वभाव है। यह सोचकर मुझे लगा कि मुझे मुश्किल कलीसियाओं का प्रभारी बनाना परमेश्वर की ही इच्छा है। जिन कलीसियाओं में नए विश्वासी अभी अपनी पकड़ नहीं बना पाए, वहाँ मुझे परमेश्वर पर आश्रित रहते हुए और सत्य खोजकर उन मुश्किलों को हल करना होगा होगा। उन्हें सहारा देने के लिए मुझे और कीमत चुकानी होगी, ताकि वे परमेश्वर के कार्य का सत्य जानकर सच्चे मार्ग पर कदम जमा सकें। यह मेरे लिए अच्छा प्रशिक्षण था। काम जितना मुश्किल होता गया, उतना ही मैं सत्य खोजकर हल ढूँढ़ने के लिए परमेश्वर के पास आने को विवश हुई, ताकि इस तरह मैं ज्यादा से ज्यादा सत्य सीख सकूँ। यह मेरे जीवन-प्रवेश के लिए अच्छा था। तब मुझे एहसास हुआ कि उस काम में कोई मेरे लिए मुश्किल हालात पैदा नहीं कर रहा था, बल्कि यह तो परमेश्वर का प्रेम और आशीष था। मुझे उसे स्वीकार कर समर्पित भाव से काम करना था। इस एहसास ने मेरा नजरिया बदल दिया और अब मुझे उतना बुरा नहीं लगा।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मैं अपनी समस्या बेहतर ढंग से समझ पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन सार में, जो लक्ष्य वह हासिल करना चाहता है, वह है अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना है, और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना या उसे संतुष्ट करना नहीं है बल्कि प्रतिष्ठा, लाभ और हैसियत प्राप्त करना है, तो फिर उसका अनुसरण अवैध है। तद्नुसार, जब परमेश्वर के कार्य, कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के कार्य की बात आती है, तो वे बाधा होते हैं या इन चीजों को आगे बढ़ाने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे इन चीजों को आगे नहीं बढ़ाते। जो लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत संपत्ति, प्रतिष्ठा और हैसियत के पीछे भागते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार के अगुआ या कार्यकर्ता अपना कर्तव्य निभा रहे हैं? वे जो भी कार्य करते हैं, वह अनिवार्य रूप से परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित करता है, अस्त-व्यस्त करता है और बिगाड़ता है। और इसलिए, इसके सार से आकलन करने पर, लोगों के हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह चुने हुए लोगों के जीवन में प्रवेश को प्रभावित करता है, यह इस बात को प्रभावित करता है कि चुने हुए लोग परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं, कैसे वे सत्य को समझकर अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागते हैं, यह उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है, और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः परमेश्वर के घर के कार्य के साथ क्या करता है? यह विघटन, रुकावट और हानि है। जब वे इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता? जब परमेश्वर कहता है कि लोग अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को अलग रखें, तो ऐसा नहीं है कि वह लोगों को चुनने के अधिकार से वंचित कर रहा है; बल्कि यह इस कारण से है कि रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे भागते हुए लोग परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाते हैं, वे भाई-बहनों का जीवन में प्रवेश बाधित करते हैं, यहाँ तक कि उनका दूसरों के द्वारा परमेश्वर के वचनों को सामान्य रूप से खाने-पीने और सत्य को समझने और इस प्रकार परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने पर भी प्रभाव पड़ता है। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि जब लोग अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो इस तरह के व्यवहार और कार्यों को परमेश्वर के कार्य की सामान्य प्रगति को हद दर्जे तक नुकसान पहुँचाने और बाधित करने, और लोगों के बीच परमेश्वर की इच्छा को सामान्य रूप से पूरा होने से रोकने के लिए शैतान के साथ सहयोग करने के रूप में वर्णित किया जा सकता है। वे जानबूझकर परमेश्वर का विरोध और उसके निर्णयों पर विवाद खड़ा करते हैं। अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा अपने रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे भागने की यही प्रकृति है। अपने हितों के पीछे भागने वाले लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे शैतान के लक्ष्य हैं—वे ऐसे लक्ष्य हैं, जो दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण हैं। जब लोग इन हितों के पीछे भागते हैं, तो वे अनजाने ही शैतान का औजार बन जाते हैं, वे शैतान के लिए एक वाहक बन जाते हैं, और तो और, वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। परमेश्वर के घर और कलीसिया में वे एक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं; परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति, और सामान्य कलीसियाई जीवन और कलीसिया में भाई-बहनों के सामान्य लक्ष्य पर उनका प्रभाव परेशान करने और बिगाड़ने वाला होता है; उनका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जब कोई सत्य का अनुसरण करता है, तो वह परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील हो पाता है, और परमेश्वर के दायित्व के प्रति सचेत रहता है। जब वह अपने कर्तव्य का पालन करता है, तो हर तरह से परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखता है। वह परमेश्वर को महिमा-मंडित करने और उसकी गवाही देने में सक्षम होता है, वह भाई-बहनों को लाभ पहुँचाता है, उन्हें सहारा देता है और उन्हें पोषण प्रदान करता है, और परमेश्वर महिमा और गवाही प्राप्त करता है जो शैतान को लज्जित करता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप परमेश्वर एक ऐसा प्राणी प्राप्त करता है, जो वास्तव में परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होता है, जो परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम होता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप परमेश्वर की इच्छा का मार्ग भी कार्यान्वित हो जाता है, और परमेश्वर का कार्य भी प्रगति कर पाता है। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसा अनुसरण सकारात्मक है, ईमानदार है, और यह परमेश्वर के घर के कार्य और कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए बहुत ही लाभकारी है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। इससे मुझे अपने स्वार्थ के पीछे भागने की ज्यादा समझ मिली। मैंने महसूस किया कि ऐसा करते समय लोग शैतान की ओर से कार्य करते हैं, वे परमेश्वर के घर का काम रोकने वाले शैतानी औजार बन जाते हैं। पहले मुझे लगता था कि स्पष्ट रूप से बुरे काम करना, कलीसिया के काम और जीवन में बाधा डालना ही शैतान के अनुचर जैसा कार्य करना है। लेकिन फिर मैंने जाना कि अपने कर्तव्य में स्वार्थ के पीछे भागने और परमेश्वर के घर के हितों की अवहेलना करने से कलीसिया के कार्य पर नकारात्मक और बाधक प्रभाव पड़ेगा। मैंने काम के दौरान किए अपने बरताव के बारे में सोचा, और हालाँकि मैं हमेशा काम करती दिखती थी, रात-रात भर मुश्किल काम सँभालकर मेहनत कर सकती थी, और स्पष्ट रूप से कोई बाधा डालने वाला कार्य नहीं करती थी, लेकिन अपने काम में मेरी मंशा सही नहीं थी। वह परमेश्वर की संतुष्टि के लिए नहीं, बल्कि अलग दिखने और लोगों से प्रशंसा पाने के लिए था। जब मुझे काम के बँटवारे का तरीका पसंद नहीं आया, तो मैंने असंतुष्ट होकर काम के प्रति अनिच्छा जताई। मैंने समर्पित होकर ये नहीं सोचा कि इसे अच्छे तरीके से कैसे किया जाए, या तत्काल भाई-बहनों की मदद कैसे की जाए। अनजाने ही, मैंने सिंचन-कार्य में बाधा डाल दी थी। सच तो यह है कि मेरे पास अपने सहकर्मियों से ज्यादा अनुभव था। कुछ बहनें नई होने के कारण कलीसिया के काम से परिचित नहीं थीं, इसलिए उन्हें बेहतर कलीसियाएँ और सिंचनकर्ता सौंपना हमारे काम के लिए अच्छा था। पर मैं स्वार्थी थी, मैं बेहतर कलीसियाएँ और सिंचनकर्ता अपने अधीन रखना चाहती थी। लेकिन जैसा मैं चाहती थी, अगर वैसा हो जाता, और नए सहकर्मियों को समस्याओं वाली कलीसियाएँ मिलतीं, तो काम का नुकसान होता, और वो सफल न रहता, जो परमेश्वर के घर के लिए अच्छा न होता। मेरी कलीसियाओं में ज्यादा समस्याएँ थीं, लेकिन यह मेरे लिए अच्छा प्रशिक्षण था। मैं बस थोड़ा और प्रयास करके उनमें से कुछ काम पूरे कर सकती थी, इससे हमारी पूरी कार्यक्षमता में सुधार हो सकता था। क्या यह सबसे अच्छी व्यवस्था नहीं थी? तब मुझे एहसास हुआ कि कैसे इस काम ने मेरी स्वार्थपूर्ण, गंदी और अनुचित सोच उजागर कर दी। मैंने यह भी जाना कि काम में अपना हित रखने से परमेश्वर के घर के काम को नुकसान हो सकता है। अतीत में मैंने नाम, रुतबे और व्यक्तिगत हितों के पीछे भागकर बहुत अपराध किए थे। अगर इस बार मैं नहीं बदली और अड़ियल बनकर अपने ही हित साधती रही, तो फिर से मैं परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुँचाऊँगी, और उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाने के कारण निकाल दी जाऊँगी। इस भयानक विचार ने मुझे डरा दिया। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर पश्चात्ताप किया। मैंने कहा, "परमेश्वर, काम के दौरान मैंने सिर्फ अपने हितों की रक्षा की है, मैंने कलीसिया के काम या तेरी इच्छा पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस मानवता के साथ मैं कर्तव्य निभाने योग्य नहीं हूँ। परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।"
परमेश्वर के वचनों का अंश पढ़कर मुझे वाकई प्रवेश का मार्ग मिल गया। "अपने कर्तव्य को निभाने वाले उन तमाम लोगों के लिए, चाहे सत्य की उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत इरादों, अभिप्रेरणाओं, प्रतिष्ठा और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य करने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों का, परमेश्वर के हितों का, उसके कार्य का ध्यान रखना चाहिए, और इन विचारों को पहला स्थान देना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपने रुतबे की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे इन चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौता कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम ऐसा कुछ समय के लिए कर लो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना मुश्किल नहीं है। इसके साथ ही, तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, अपनी स्वार्थी इच्छाएँ, व्यक्तिगत अभिलाषाएँ और इरादे त्याग देने चाहिए, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर तथा उसके घर के हितों को सर्वोपरि रखना चाहिए। इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह जीने का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक संकुचित मन वाले या ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को पूरा करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि हर काम में उसके घर को आगे रखना चाहिए, न कि निजी हितों को। प्रतिष्ठा और रुतबा अस्थायी हैं, उन चीजों के पीछे भागना व्यर्थ है। भ्रष्टता में न जीना, सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की इच्छा पूरी करना उसकी स्वीकृति पाने का एकमात्र तरीका है। इस समझ ने मुझे प्रबुद्ध किया। काम का बँटवारा जैसे भी हुआ हो, मैं निजी हितों को, अपने नाम और रुतबे को बचाती नहीं रह सकती थी, बल्कि मुझे आज्ञापालन कर कर्तव्य अच्छे से निभाना था। अगर अच्छे परिणाम न मिले तो भी, मुझे परमेश्वर के सामने रहकर उसकी जाँच स्वीकारने पर ध्यान देना था। चाहे दूसरे मेरे बारे में कुछ भी सोचें, अपना काम पूरे दिल और जिम्मेदारी से करना ही परमेश्वर की इच्छा पूरी करने का तरीका था।
अगले कुछ दिनों तक मैंने अपने हित भुलाकर खुद को काम में झोंक दिया। ऐसा करके मुझे लगा जैसे मैं अपनी भ्रष्टता के नियंत्रण में नहीं रही। कुछ दिन बाद काम पर चर्चा के दौरान एक बहन ने कहा, कि वो अंग्रेजी अच्छी तरह नहीं बोल पाती, और उसे नए विश्वासियों की कलीसिया की जाँच में दुभाषिए की जरूरत है। उसे मुश्किल हो रही थी और वह ठीक से काम नहीं कर पा रही थी। यह सुनकर मुझे लगा कि मेरी अंग्रेजी ठीक है, इसलिए मैं उससे काम बदल सकती हूँ, और उस कलीसिया के काम पर नजर रख सकती हूँ। लेकिन फिर मुझे लगा कि उस कलीसिया में बहुत समस्याएँ हैं, उसका काम सँभालने का मतलब है बहुत मेहनत करना और शायद ज्यादा प्रगति भी न हो पाए। इससे मेरे बारे में लोगों की राय बदल सकती है, इसलिए मैंने वहाँ जाने का इरादा बदल दिया। लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने हितों के बारे में सोच रही हूँ, अपना नाम और रुतबा बचा रही हूँ, इसलिए मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे राह दिखाए ताकि मैं स्वार्थ त्याग सकूँ। प्रार्थना के बाद, मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर मेरी परीक्षा लेकर मुझे सत्य का अभ्यास करने का मौका दे रहा है। मैं भ्रष्टता में लिप्त रहकर पहले की तरह स्वार्थ साधती नहीं रह सकती। इस बदलाव से परमेश्वर के घर के कार्य को लाभ हो, तो मुझे यह करना होगा। इसलिए मैंने अपने सहकर्मियों की जिम्मेदारियों के बारे में सोचा और महसूस किया कि उस बहन से काम बदलना मेरे लिए अच्छा होगा। मैंने अगुआ के सामने अपने विचार रखे, तो वह और सहकर्मी सभी मेरी बात से सहमत हो गए। काम बदलकर मैंने सहज महसूस किया, और मुझे इतना अच्छा लगा कि मैं बता नहीं सकती। लगा, जैसे मैं सत्य का अभ्यास करके एक सच्ची इंसान बन रही हूँ। जैसा कि परमेश्वर कहता है, "तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, अपनी स्वार्थी इच्छाएँ, व्यक्तिगत अभिलाषाएँ और इरादे त्याग देने चाहिए, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर तथा उसके घर के हितों को सर्वोपरि रखना चाहिए। इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह जीने का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक संकुचित मन वाले या ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को पूरा करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')।
तब मैंने उन कलीसियाओं के बारे में नकारात्मक होना बंद कर दिया, जिनकी मैं प्रभारी थी, बल्कि मैंने हर कलीसिया का कार्य सँभालने की पूरी कोशिश की। जब सिंचन-दल के कुछ लोगों ने अपनी समस्याओं को लेकर शिकायत की, तो मैंने उनका गलत नजरिया सुधारने के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति की, और उनकी समस्याएँ सुलझाने के लिए परमेश्वर के सहारे उनके साथ सत्य की खोज की। कुछ नए विश्वासियों को समस्याओं के कारण सभाओं में शामिल न होते देख मैंने उन्हें दोष न देकर भाई-बहनों की मुश्किलें समझने के लिए उनके साथ व्यावहारिक बातचीत की, और परमेश्वर के वचनों पर उनके साथ संगति की। जहाँ तक पर्याप्त अगुआ और उपयाजक न होने की बात है, मैंने प्रतिभाओं को प्रशिक्षित करने पर ज्यादा मेहनत की। मैंने अधिक सक्षम और उपयुक्त भाई-बहनों के साथ कर्तव्य-पालन की महत्ता और सिद्धांतों पर संगति की, और कुछ समय उनके साथ मिलकर काम किया। जब कभी मुझे कलीसियाओं में कोई जटिल काम दिखता और कोई उस पर ध्यान न दे रहा होता, तो मैं खुद उसकी जिम्मेदारी ले लेती। पहले से पता नहीं होता था कि मैं उसे अच्छे से कर सकती हूँ, लेकिन इसमें संदेह नहीं था कि मुझे उन मामलों से किनारा नहीं करना है, मुझे स्वार्थी बनकर अपने काम के छोटे-से दायरे पर नहीं, परमेश्वर की इच्छा पर विचार करना है और कलीसिया का काम बनाए रखना है। कुछ समय बाद मेरे काम में प्रगति होने लगी, मेरे प्रबंधन वाली कलीसियाओं में अगुआ और उपयाजक चुन लिए गए। कुछ कलीसियाओं में तो काम करने वालों की संख्या दोगुनी थी, और कुछ नए विश्वासी तो खुद ही काम कर पा रहे थे। जिन कलीसियाओं का काम पहले अच्छा नहीं था, उनमें भी अब अच्छा काम होने लगा था। मैं उसमें परमेश्वर के कर्म देख पा रही थी। मैंने अनुभव किया कि परमेश्वर को बस लोगों का हृदय और आज्ञाकारिता चाहिए, इसलिए अगर हम उसकी इच्छा पर विचार करके केवल उसके घर के काम के बारे में सोचें, और अपने हित त्याग दें, तो हम परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष पा सकते हैं। ये समझकर परमेश्वर में मेरा विश्वास और भी मजबूत हो गया। परमेश्वर का धन्यवाद!