8. कलीसियाओं के आवंटन से सीखे सबक

रीस, यूएसए

2021 की शुरुआत में कई नई कलीसियाएँ स्थापित की जा रही थीं, इसलिए अगुआ ने सहकर्मियों और मेरे बीच कलीसियाओं का आवंटन करने का फैसला किया। पहले तो मेरी इस बारे में कोई राय नहीं थी, लेकिन जब परिस्थितियों के बारे में और जाना, तो पता चला कि मुझे ज्यादा मुश्किलों से घिरी कलीसियाओं का काम देखना पड़ेगा, जहाँ के सदस्य आस्था में अभी तक जड़ें नहीं जमा पाए थे, और अगुआ और उपयाजक अभी चुने ही जा रहे थे। बहन लिली को जो कलीसियाएँ सौंपी गईं वे मेरी वाली से बेहतर थीं। उनके नए विश्वासियों की क्षमता अच्छी थी, वे सभी अपनी जड़ें जमा चुके थे और उनके अगुआ और उपयाजक भी जिम्मेदार थे। मैं उससे ईर्ष्या किए बिना न रह सकी। मैं सोचने लगी कि उसे बेहतर कलीसियाएँ क्यों मिलीं, जबकि मेरी वाली में तो बहुत समस्याएँ हैं। मुझे तो बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी! अगर मैं चीजों का सही से संचालन नहीं कर पाई, तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वह यह कहेगी कि मुझमें कोई कौशल नहीं है, और कोई काम नहीं कर सकती? यकीनन वो मेरे बारे में अच्छा नहीं सोचेगी। मैं बहुत नाखुश थी। बाद में, जब मैं उन कलीसियाओं की सभाओं में जाती, तो वहाँ ढेरों समस्याएँ होतीं, जिनसे निपटने में बहुत समय लगता। इस कारण मुझे आराम करने का ज्यादा वक्त नहीं मिलता था, मैं अपने कर्तव्य में बस जूझ रही थी। मैं सोचने लगी कि जो काम करने में लिली को घंटाभर लगता है, मुझे उसे करने में दो-तीन घंटे लग जाते हैं। मेरी क्षमता और कौशल पहले ही सीमित थे, ऊपर से इन कलीसियाओं में अनेक समस्याएँ थीं। इतना समय और प्रयास लगाकर भी अगर मैं कुछ खास प्रगति नहीं कर पाई, तो जब अगुआ मेरे और लिली के परिणामों की तुलना करेगी, तो उसे मेरा काम जरूर मामूली लगेगा, और वह सोचेगी कि मैं अच्छा काम नहीं कर रही और लिली से मेरा कोई मुकाबला नहीं। उन दिनों, मेरी हालत काफी खराब थी, जब भी समस्याएँ आतीं, तो मैं परेशान और दुखी हो जाती थी। मैं भावनात्मक और शारीरिक दोनों रूप से थक गई थी। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर सत्य खोजते हुए प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं जानती हूँ, तेरी इच्छा से ही कार्य की जिम्मेदारियों का यह आवंटन हुआ है, और मुझे तेरे आयोजनों के आगे समर्पण करना चाहिए, लेकिन मैं अभी भी विरोधी महसूस कर रही हूँ। मुझे प्रबुद्ध कर, ताकि मैं तेरे इरादे और अपनी भ्रष्टता समझ सकूँ।”

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन देखे : “यदि तुमने बहुत कुछ सीखा है और परमेश्वर द्वारा तुम्हें बहुत कुछ दिया गया है, तो तुम्हारे कंधों पर अधिक भारी बोझ डाला जाना चाहिए—इसलिए नहीं कि तुम्हारा जीवन कठिन बने, बल्कि इसलिए कि यह तुम्हारे लिए बिल्कुल उपयुक्त है। यह तुम्हारा कर्तव्य है, इसलिए अपनी मर्जी से चुनने या ना कहने या इससे अपनी जान छुड़ाने की कोशिश न करो। तुम्हें क्यों लगता है कि यह कठिन है? असल बात तो यह है कि यदि तुम इसे दिल लगा कर करोगे तो तुम आसानी से यह कार्य कर सकते हो। तुम्हारा यह सोचना कि यह कठिन है, कि यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार है और तुम्हें जानबूझकर परेशान किया जा रहा है—यह एक भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा है। यह अपने कर्तव्य को निभाने से इनकार करना है, परमेश्वर से स्वीकार करना नहीं है। यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है। जब तुम अपनी मर्जी से अपने कर्तव्य चुनते हो और जो भी कार्य मामूली और आसान हो केवल उन्हें ही करते हो, केवल वही करते हो जिससे तुम अच्छे दिखो तो यह एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव है। तुम्हारा अपने कर्तव्य स्वीकार न कर पाना या समर्पण न कर पाना यह साबित करता है कि तुम अभी भी परमेश्वर के प्रति विद्रोही हो, कि तुम उसका विरोध कर उसे ठुकरा रहे हो और उससे बच रहे हो। यह एक भ्रष्ट स्वभाव है। जब तुम्हें पता चले कि यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि तुम्हें लगता है कि दूसरों को दिए गए कार्य आसानी से पूरे किए जा सकते हैं जबकि तुम्हें दिए गए कार्य तुम्हें लंबे समय तक व्यस्त रखते हैं और उनके लिए तुम्हें काफी शोध करने की आवश्यकता होती है और तुम इसके कारण दुखी हो, तो क्या तुम्हारा यह दुखी महसूस करना सही है? बिल्कुल नहीं। तो, जब तुम्हें लगे कि यह सही नहीं है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि तुम विरोध करते हो और यह कहते हो कि, ‘जब भी वे लोगों में कार्य बांटते हैं, तो वे मुझे सबसे कठिन, गंदे और कड़ी मेहनत वाले कार्य देते हैं, और दूसरों को ऐसे कार्य देते हैं जो मामूली, आसान और महत्वपूर्ण होते हैं। क्या उन्हें लगता है कि वे मुझे जहाँ चाहे वहाँ धकेल सकते हैं? यह कार्यों को वितरित करने का एक उचित तरीका नहीं है!’—यदि तुम्हारी यही सोच है, तो यह गलत है। चाहे कार्यों के वितरण में कोई भटकाव हो या न हो और चाहे उन्हें उचित रूप से वितरित किया जाए या नहीं, परमेश्वर किस चीज की पड़ताल करता है? वह एक व्यक्ति के दिल की पड़ताल करता है। वह देखता है कि क्या उसके दिल में समर्पण है, क्या वह परमेश्वर के कोई बोझ उठा सकता है और क्या वह परमेश्वर से प्रेम करता है। परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार तुम्हारे यह सारे बहाने अमान्य हैं, तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक के अनुरूप नहीं है और तुममें सत्य वास्तविकता का अभाव है। तुम्हारे अंदर बिल्कुल भी समर्पण नहीं है और जब तुम कोई ऐसा कार्य करते हो जिसमें बहुत मेहनत लगती है या जो तुच्छ होता है तो तुम शिकायत करने लगते हो। आखिर यहाँ समस्या क्या है? सबसे पहले तो तुम्हारी मानसिकता ही गलत है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया गलत है। यदि तुम हमेशा अपने अभिमान और हितों के बारे में सोचते रहते हो और परमेश्वर के इरादों की परवाह नहीं करते और तुम्हारे अंदर बिल्कुल भी समर्पण नहीं है, तो यह वह सही रवैया नहीं है जो तुम्हें अपने कर्तव्य के प्रति रखना चाहिए। यदि तुम ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते और तुम्हारे पास परमेश्वर-प्रेमी दिल होता, तो तुम उन कार्यों को कैसे करते जो तुच्छ, मेहनत वाले या कठिन हैं? तुम्हारी मानसिकता अलग होती : तुम कठिन कार्य करना पसंद करते और अपने कंधे पर भारी बोझ उठाने की कोशिश करते। तुम उन कार्यों को अपने हाथों में ले लेते जिन्हें अन्य लोग करना नहीं चाहते और तुम इन्हें केवल परमेश्वर के प्रेम के लिए और उसे संतुष्ट करने के लिए करते। तुम किसी बिना कोई शिकायत किए खुशी से यह कार्य करते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैंने पिछले कुछ दिनों में अपने बारे में जो उजागर किया, उस पर विचार किया। यह देखकर कि कलीसियाओं के जिन सदस्यों का दायित्व मुझ पर है, उनकी जड़ें मजबूत नहीं हैं, कुछ ही लोग कर्तव्य निर्वहन के लिए तैयार हैं, मैं वास्तव में विरोधी हो गई। सभी पदों के लिए अगुआ और उपयाजक नहीं चुने गए थे, और विभिन्न परियोजनाओं का प्रबंधन कठिन था। उन्हें करने में बहुत समय और ताकत लगती थी, फिर भी काम ठीक से होगा इसकी गारंटी नहीं थी, जिससे मेरी छवि खराब हो जाती। मैं अच्छी चल रही कलीसियाएँ संभालना चाहती थी, जहाँ मुझे चिंता न रहे, और मैं आसानी से परिणाम हासिल कर सकूँ, ताकि लोग मेरे बारे में ऊँचा सोचें। मुझे यही लगता रहता कि काम का आवंटन सही से नहीं हुआ है; लिली को आसान काम मिला जिससे उसकी छवि अच्छी बनेगी, जबकि मुझे कठिन और थकाऊ काम मिले, जहाँ मुझे चमकने का मौका नहीं मिलेगा। मैं इसे लेकर विरोधी थी और समर्पण करना ही नहीं चाहती थी। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने जाना कि मैं तुनकमिजाजी दिखा रही थी, उस कर्तव्य को नकार रही थी जिससे मुझे लाभ नहीं होने वाला था। मैं कर्तव्य ठुकरा रही थी और जरा भी समर्पित नहीं थी। मैंने हमेशा खुद को अपने काम में कर्तव्यनिष्ठ और जिम्मेदार समझा था, और मुझे उम्मीद नहीं थी कि मैं ऐसा रूप दिखाऊँगी। मैंने देखा कि मैं काम में गलत इरादे और दृष्टिकोण ला रही थी। परमेश्वर को समर्पित होने और उसके प्रेम का मूल्य चुकाने के बजाय मैं लोगों की प्रशंसा और बड़ाई पाना चाहती थी। अपने कर्तव्य के प्रति ऐसा नजरिया रखना परमेश्वर के लिए घृणास्पद था।

मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश मिला : “यदि तुम परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए सभी चीजों में अपनी सारी निष्ठा देना चाहते हो, तो तुम इसे केवल एक कर्तव्य निभाकर नहीं कर सकते हो; तुम्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए हर आदेश को स्वीकार करना चाहिए। चाहे वह तुम्हारी पसंद के अनुसार हो और तुम्हारी रुचियों से मेल खाता हो, या कुछ ऐसा हो जो तुम्हें पसंद नहीं है, पहले कभी नहीं किया हो, या कठिन हो, फिर भी तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए। तुम्हें न केवल इसे स्वीकार करना चाहिए, बल्कि तुम्हें सक्रिय रूप से सहयोग भी करना चाहिए, और अनुभव और प्रवेश करते समय इसके बारे में सीखना चाहिए। भले ही तुम्हें कष्ट झेलना पड़े, भले ही तुम थके-माँदे हो, अपमानित हो, या बहिष्कृत कर दिए गए हो, फिर भी तुम्हें अपनी पूरी निष्ठा लगा देनी चाहिए। केवल इस तरह से अभ्यास करके ही तुम सभी चीजों में अपनी पूरी निष्ठा दे पाओगे और परमेश्वर के इरादे पूरे कर पाओगे। तुम्हें इसे अपना व्यक्तिगत कामकाज नहीं, बल्कि कर्तव्य मानना चाहिए जिसे निभाना ही है। लोगों को कर्तव्यों को कैसे समझना चाहिए? उन्हें इसे सृष्टिकर्ता—परमेश्वर—द्वारा किसी व्यक्ति को करने के लिए दी गई चीज समझना चाहिए; लोगों के कर्तव्य ऐसे ही आरंभ होते हैं। परमेश्वर जो आदेश तुम्हें देता है, वह तुम्हारा कर्तव्य होता है, और यह पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है कि तुम परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार अपना कर्तव्य निभाओ। अगर तुम्हें यह स्पष्ट है कि यह कर्तव्य परमेश्वर का आदेश है, कि यह तुम पर परमेश्वर के प्रेम और आशीष की वर्षा है, तो तुम परमेश्वर में रमे हृदय के साथ अपना कर्तव्य स्वीकार कर सकोगे, और तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील रहोगे और तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सभी मुश्किलों से उबरने में सफल रहोगे। जो लोग खुद को सचमुच परमेश्वर के लिए खपाते हैं, वे परमेश्वर के आदेश को कभी नहीं ठुकराते, वे कभी कोई कर्तव्य नहीं ठुकरा सकते। परमेश्वर तुम्हें चाहे जो भी कर्तव्य सौंपे, उसमें चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों, तुम्हें मना करने के बजाय उसे स्वीकार करना चाहिए। यह अभ्यास का रास्ता है, जिसका अर्थ है परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करना और सभी चीजों में अपनी निष्ठा देना। यहाँ केन्द्र बिन्दु कहाँ है? यह ‘सभी चीजों में’ है। ‘सभी चीजों’ का मतलब वे चीजें नहीं हैं जिन्हें तुम पसंद करते हो या जिन कामों में तुम अच्छे हो, वे वह चीजें तो बिल्कुल भी नहीं हैं जिनसे तुम वाकिफ हो। कभी-कभी वे ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम कुशल नहीं हो, ऐसी चीजें होंगी जिन्हें तुम्हें सीखने की जरूरत है, ऐसी चीजें जो कठिन हैं, या ऐसी चीजें होंगी जिनमें तुम्हें कष्ट सहना होगा। लेकिन चाहे कोई भी चीज हो, जब तक परमेश्वर ने यह तुम्हें सौंपी है, तुम्हें उससे यह स्वीकारनी चाहिए; तुम्हें इसे स्वीकार कर पूरी निष्ठा के साथ अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए और परमेश्वर के इरादे पूरे करने चाहिए। यही अभ्यास का मार्ग है। चाहे जो हो जाए, तुम्हें हमेशा सत्य खोजना चाहिए और एक बार जब तुम निश्चित हो जाते हो कि किस प्रकार का अभ्यास परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है तो तुम्हें इसी प्रकार अभ्यास करना चाहिए। केवल ऐसा करके ही तुम सत्य का अभ्यास कर रहे होते हो, और केवल इसी तरह से तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। कर्तव्य हमारे लिए परमेश्वर का आदेश है, और हमारी जिम्मेदारी और दायित्व है। वह चाहे कितना ही मुश्किल हो, उससे हमारी बड़ाई हो या न हो, उसे स्वीकारना हमारा दायित्व है। अपने कर्तव्य के प्रति हमारा रवैया यही होना चाहिए, परमेश्वर के सामने सृजित प्राणी को यही समझ रखनी चाहिए। अभी मैं जिन कलीसियाओं को संभाल रही थी, उन्हें नहीं चाहती थी, वहाँ रुतबे की मेरी इच्छा पूरी नहीं हो रही थी, लेकिन मुझे परमेश्वर का यह आदेश स्वीकारना था और काम के प्रति गलत नजरिया नहीं रखना चाहिए था। तो, मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, मैं उसके आयोजनों का पालन करना चाहती थी, अपने कर्तव्य में भरसक प्रयास करना और नए विश्वासियों का ठीक से सिंचन करना चाहती थी, ताकि सच्चे मार्ग पर स्थापित होने में उनकी मदद कर सकूँ। प्रार्थना के बाद, मुझे शांति का एहसास हुआ और मैं कार्य-आवंटन को लेकर उतनी परेशान नहीं रही।

सुसमाचार के प्रचार और अधिक कलीसियाओं की स्थापना होने पर, अगुआ ने हमारी जिम्मेदारियों का फिर से आवंटन किया। मेरे दायरे की कलीसियाओं में से एक जो दूसरों से थोड़ा-बहुत बेहतर कर रही थी, और एक बहन जो सिंचन-कार्य में अच्छा कर रही थी, उनको दूसरे सहकर्मियों को दे दिया गया। मैं इस बात से बहुत परेशान और नाखुश थी। मुझे लगा, उन्हें मेरी स्थिति अच्छी तरह पता होगी कि मेरे हिस्से की कलीसियाओं में सबसे अधिक समस्याएँ हैं और मैं पहले ही बहुत ज्यादा मेहनत कर रही हूँ। आखिरकार मुझे सिंचन-कार्य अच्छे से करने वाली बहन मिली थी, और अब उसे ही ले लिया गया। मेरे पास दिखाने के लिए कोई काम कैसे हो सकता था? अगर मुझे खराब नतीजे मिलते रहे तो सब लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? यही न कि मैं अयोग्य हूँ और काम नहीं करा सकती। यह कितना बुरा होगा! फिर मैं सहकर्मियों की बैठकों में क्या मुँह दिखाऊँगी? सोच-सोचकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। मैंने महसूस किया कि मैं फिर से काम के पुनः आवंटन को लेकर नाखुश और अवज्ञाकारी हो गई हूँ। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की और आत्मचिंतन करने लगी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधी व्यक्ति चाहे जो भी कार्य करें, वे कभी परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते। वह केवल इस बात पर विचार करता है कि कहीं उसके हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, वह केवल अपने सामने के उस छोटे-से काम के बारे में सोचता है, जिससे उसे फायदा होता है। उसकी नजर में, कलीसिया का प्राथमिक कार्य बस वही है, जिसे वह अपने खाली समय में करता है। वह उसे बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेता। वह केवल तभी हरकत में आता है जब उसे काम करने के लिए कोंचा जाता है, केवल वही करता है जो वह करना पसंद करता है, और केवल वही काम करता है जो उसकी हैसियत और सत्ता बनाए रखने के लिए होता है। उसकी नजर में, परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कोई भी कार्य, सुसमाचार फैलाने का कार्य, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन-प्रवेश महत्वपूर्ण नहीं हैं। ... मसीह-विरोधी चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल यही सोचते हैं कि क्या इससे वे सुर्ख़ियों में आ पाएँगे; अगर उससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, तो वे यह जानने के लिए अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं कि उस काम को कैसे करना है, कैसे अंजाम देना है; उन्हें केवल एक ही फिक्र रहती है कि क्या इससे वे औरों से अलग नजर आएँगे। वे चाहे कुछ भी करें या सोचें, वे केवल अपनी प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से सरोकार रखते हैं। वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल इसी स्पर्धा में लगे रहते हैं कि कौन बड़ा है या कौन छोटा, कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है, किसकी ज्यादा प्रतिष्ठा है। वे केवल इस बात की परवाह करते हैं कि कितने लोग उनकी आराधना और उनका सम्मान करते हैं और उनके अनुयायी कितने हैं। वे कभी सत्य पर संगति या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते। वे कभी विचार नहीं करते कि अपना काम करते समय सिद्धांत के अनुसार चीजें कैसे करें, न ही वे इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे निष्ठावान रहे हैं, क्या उन्होंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दी हैं, क्या उनके काम में कोई विचलन या चूक हुई है या अगर कोई समस्या मौजूद है, तो वे यह तो बिल्कुल नहीं सोचते कि परमेश्वर क्या चाहता है और परमेश्वर के इरादे क्या हैं। वे इन सब चीजों पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं देते। वे केवल प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के लिए, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और जरूरतें पूरी करने का प्रयास करने के लिए कार्य करते हैं। यह स्वार्थ और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न? यह पूरी तरह से उजागर कर देता है कि उनके हृदय किस तरह उनकी महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और बेहूदा माँगों से भरे होते हैं; उनका हर काम उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से नियंत्रित होता है। वे चाहे कोई भी काम करें, उनकी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और बेहूदा माँगें ही उनकी प्रेरणा और स्रोत होता है। यह स्वार्थ और नीचता की विशिष्ट अभिव्यक्ति है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर के वचन बताते हैं कि मसीह-विरोधी कितने स्वार्थी और नीच होते हैं, कर्तव्य करते हुए उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं और उन्हें मुख्य रूप से अपने हितों की रक्षा करने की चिंता रहती है। वे चाहे कोई भी काम करें, वे कभी ध्यान नहीं देते कि परमेश्वर के इरादों का ख्याल कैसे करें, अपना काम अच्छे से कैसे करें, कैसे सुनिश्चित करें कि कलीसिया का काम प्रभावित न हो। वे कलीसिया के हितों की परवाह न कर सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की सोचते हैं। जहाँ तक मैंने जो प्रकट किया उसकी बात है, अपनी देख-रेख में आने वाली कलीसियाओं में कितनी समस्याएँ हैं यह देखने के बाद मैंने सबसे पहले सोचा कि यह कितना बुरा होगा कि जब खराब नतीजे मिलेंगे तो लोग मुझे नीची नजरों से देखेंगे, मैंने यह नहीं सोचा कि मैं परमेश्वर पर निर्भर रहकर उन कलीसियाओं को बेहतर ढंग से कैसे सँभालूँ। मैं काम के पुनः आवंटन का विरोध कर रही थी, उसे लेकर गुस्से में थी, और काम में मैंने ढिलाई भी बरती। जब मुझे पता चला कि मेरे कार्य-क्षेत्र की एक सक्षम बहन का तबादला दूसरी कलीसिया में होने वाला है, तो मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि मेरी एक मजबूत सहयोगी चली जाएगी और नतीजे खराब हो जाएंगे, जिससे अगुआ को लगेगा कि मैं काम के अयोग्य हूँ। मैं बस अपनी प्रतिष्ठा और हितों की रक्षा की सोच रही थी कि कैसे बिना ज्यादा मेहनत किए अपना काम निकाल लूँ, और इसके साथ ही एक अच्छी छवि बनाकर लोगों की प्रशंसा पा लूँ। मैं कलीसिया के काम को उसकी संपूर्णता में नहीं देख रही थी। मैं स्वार्थी और दुष्ट थी, और इस कारण मुझमें एक मसीह-विरोधी का स्वभाव झलका। वास्तव में यह सोचकर मुझे लगा कि मुझे अधिक चुनौतीपूर्ण कलीसियाओं का प्रभारी बनाने के पीछे परमेश्वर का ही इरादा है। ये मुश्किलें—समस्याओं वाली कलीसियाएँ और नए विश्वासी जो अभी अपनी पकड़ नहीं बना पाए थे—इन्हें जरूरत थी कि मैं परमेश्वर पर और आश्रित रहते हुए समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोजूँ। नए सदस्यों को सहारा देने और उनका सिंचन करने के लिए मुझे और कीमत चुकानी होगी, ताकि वे जल्द ही परमेश्वर के कार्य का सत्य जानकर सच्चे मार्ग पर जड़ें जमा सकें। यह मेरे लिए अच्छा अभ्यास था। काम जितना मुश्किल होता गया, उतना ही मैं सत्य खोजकर हल ढूँढ़ने को विवश हुई, इस तरह मैं ज्यादा से ज्यादा सत्य सीख सकती थी। यह मेरे जीवन-प्रवेश के लिए अच्छा था। तब मुझे एहसास हुआ कि इस कर्तव्य के जरिये कोई मेरे लिए मुश्किल हालात पैदा करने की कोशिश नहीं कर रहा था। इसे परमेश्वर की अनुमति प्राप्त थी और यह फायदेमंद था। मुझे उसे स्वीकार कर समर्पण दिखाने की जरूरत थी, इसे पूरे दिल से करना था। इस एहसास ने मेरा नजरिया बदल दिया और अब मुझे चीजों को लेकर उतना बुरा नहीं लग रहा था।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मैं अपनी समस्या बेहतर ढंग से समझ पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन सार में, जो लक्ष्य वह हासिल करना चाहता है, वह है अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना, और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर के प्रति समर्पण करना या उसे संतुष्ट करना नहीं है बल्कि शोहरत, लाभ और रुतबा प्राप्त करना है, तो फिर उसका अनुसरण अवैध है। ऐसा होने पर, जब कलीसिया के कार्य की बात आती है, तो उनके कार्य एक बाधा होते हैं या आगे बढ़ने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे आगे नहीं बढ़ाते। कुछ लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार का व्यक्ति अपना कर्तव्य कर रहा है? वे जो भी कार्य करते हैं, वह अनिवार्य रूप से कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त और खराब करता है। उनके शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह इस बात को प्रभावित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग सामान्य रूप से परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं और सत्य को कैसे समझते हैं, यह उनके जीवन-प्रवेश में बाधा डालता है, उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है, और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः कलीसिया के साथ क्या करता है? यह गड़बड़ी, खराबी और विघटन है। यह लोगों के शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का परिणाम है। जब वे इस तरह से अपना कर्तव्य करते हैं, तो क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता? जब परमेश्वर कहता है कि लोग अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे को अलग रखें, तो ऐसा नहीं है कि वह लोगों को चुनने के अधिकार से वंचित कर रहा है; बल्कि यह इस कारण से है कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हुए लोग कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को अस्त-व्यस्त कर देते हैं, यहाँ तक कि उनका ज्यादा लोगों के द्वारा परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, सत्य को समझने और इस प्रकार परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने पर भी प्रभाव पड़ सकता है। यह एक निर्विवाद तथ्य है। जब लोग अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो यह निश्चित है कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे और ईमानदारी से अपना कर्तव्य नहीं पूरा करेंगे। वे सिर्फ शोहरत, लाभ और रुतबे की खातिर ही बोलेंगे और कार्य करेंगे, और वे जो भी काम करते हैं, वह बिना किसी अपवाद के इन्हीं चीजों के लिए होता है। इस तरह से व्यवहार और कार्य करना, बिना किसी संदेह के, मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना है; यह परमेश्वर के कार्य में विघ्न-बाधा डालना है, और इसके सभी विभिन्न परिणाम राज्य के सुसमाचार के प्रसार और कलीसिया के भीतर परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में बाधा डालना है। इसलिए, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने वालों द्वारा अपनाया जाने वाला मार्ग परमेश्वर के प्रतिरोध का मार्ग है। यह उसका जानबूझकर किया जाने वाला प्रतिरोध है, उसे नकारना है—यह परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके विरोध में खड़े होने में शैतान के साथ सहयोग करना है। यह लोगों की शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने की प्रकृति है। अपने हितों के पीछे भागने वाले लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे शैतान के लक्ष्य हैं—वे ऐसे लक्ष्य हैं, जो दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण हैं। जब लोग शोहरत, लाभ और रुतबे जैसे व्यक्तिगत हितों के पीछे भागते हैं, तो वे अनजाने ही शैतान का औजार बन जाते हैं, वे शैतान के लिए एक साधन बन जाते हैं, और तो और, वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। वे कलीसिया में एक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं; कलीसिया के कार्य के प्रति, और सामान्य कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामान्य लक्ष्य पर उनका प्रभाव बाधा डालने और काम बिगाड़ने वाला होता है; उनका प्रतिकूल और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जब कोई सत्य का अनुसरण करता है, तो वह परमेश्वर के इरादों और उसके दायित्व के प्रति विचारशील हो पाता है। जब वह अपना कर्तव्य करता है, तो हर तरह से कलीसिया के कार्य को बनाए रखता है। वह परमेश्वर को महिमा-मंडित करने और उसकी गवाही देने में सक्षम होता है, वह भाई-बहनों को लाभ पहुँचाता है, उन्हें सहारा देता है और उन्हें पोषण प्रदान करता है, और परमेश्वर महिमा और गवाही प्राप्त करता है जो शैतान को लज्जित करता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप परमेश्वर एक ऐसे सृजित प्राणी को प्राप्त करता है जो वास्तव में परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होता है, जो परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम होता है। उसके अनुसरण के परिणामस्वरूप परमेश्वर की इच्छा भी कार्यान्वित हो जाती है, और परमेश्वर का कार्य भी प्रगति कर पाता है। परमेश्वर की दृष्टि में ऐसा अनुसरण सकारात्मक है, निष्कपट है। ऐसा अनुसरण परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए बहुत फायदेमंद होता है, और साथ ही कलीसिया के कार्य के लिए पूरी तरह से लाभदायक होने के कारण यह चीजें आगे बढ़ाने में मदद करता है, और परमेश्वर इसे स्वीकृति देता है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मुझे अपने स्वार्थ के पीछे भागने की समस्या को अच्छे से समझने में मदद मिली। मैंने महसूस किया कि जब लोग अपने हितों के पीछे भागते हैं तो वे शैतान की ओर से कार्य करते हैं, वे कलीसिया का काम रोकने वाले शैतानी औजार बन जाते हैं। इसके पहले मुझे लगता था कि स्पष्ट रूप से बुरे काम करना, जैसे कि सीधे कलीसिया के काम और जीवन में बाधा डालना ही शैतान के अनुचर जैसा कार्य करना है। लेकिन अब मैंने जाना कि अपने कर्तव्य में स्वार्थ के पीछे भागने और कलीसिया के हितों की उपेक्षा करने से कलीसिया के काम में रुकावट और बाधा आती है, उस पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मैंने काम के दौरान खुद को कैसे उजागर किया, इस बारे में सोचा। भले ही ऐसा लगता था कि मैंने कभी ढिलाई नहीं दिखाई, मैं कष्ट सह सकती थी और हर वक्त काम कर सकती थी, मैं स्पष्ट रूप से बाधा डालने वाला कोई कार्य नहीं करती थी, लेकिन मेरी मंशा सही नहीं थी। मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अच्छा काम नहीं कर रही थी, बल्कि खुद को अलग दिखाने और लोगों से प्रशंसा पाने के लिए कर रही थी। जब मैं अपने आवंटन में मिली कलीसियाओं से खफा थी, तो मैं नकारात्मक होकर ढीली पड़ गई। मैं बस समर्पित होकर ये नहीं सोच पाई कि अपने कर्तव्य को अच्छे तरीके से कैसे किया जाए, या यह कि मैं तत्काल भाई-बहनों की मदद कैसे कर सकती हूँ। अनजाने ही, मैंने सिंचन-कार्य में बाधा डाल दी थी। सच तो यह था कि मेरे पास अपने सहकर्मियों से ज्यादा अनुभव था। कुछ बहनें नई होने के कारण कलीसिया के काम से परिचित नहीं थीं, इसलिए यह कलीसिया के प्रत्येक परिप्रेक्ष्य से सही था कि बेहतर कर रही कलीसियाओं और कर्मियों को उन्हें सौंपा जाए। पर मैं स्वार्थी हो रही थी, मैं बेहतर कलीसियाएँ और कर्मचारी अपने नियंत्रण में रखना चाहती थी। लेकिन जैसा मैं चाहती थी, अगर वैसा हो जाता, और नए सहकर्मियों को समस्याओं वाली कलीसियाओं का आवंटन होता, तो इससे हमारे काम पर असर पड़ता और प्रभाविता कम हो जाती, इससे कलीसिया का नुकसान होता। मेरी कलीसियाओं में ज्यादा समस्याएँ थीं, लेकिन यह असल में मेरे लिए अच्छा प्रशिक्षण था। मैं थोड़ा और प्रयास करके कुछ अच्छा काम करवा सकती थी, इससे हमारी पूरी कार्यक्षमता को लाभ हो सकता था। क्या यह सबसे अच्छी व्यवस्था नहीं थी? इस पर, मुझे एहसास हुआ कि कैसे कलीसियाओं के पुनः आवंटन से मेरी स्वार्थपूर्ण और घिनौनी सोच उजागर हो गई। मैंने यह भी देखा कि अपने कर्तव्य में अपना हित शामिल करने से केवल कलीसिया का काम ही बाधित हो सकता था। मैंने सोचा कैसे मैं अतीत में मैंने प्रतिष्ठा, रुतबे के पीछे भागते और व्यक्तिगत हितों की रक्षा करते हुए अपराध किए थे। अगर मैं नहीं बदली और अड़ियल बनकर अपने ही हित साधती रही, तो मैं जानती थी कि कलीसिया के काम में फिर से बाधा डालूंगी और परमेश्वर द्वारा ठुकरा दी जाऊँगी। इस एहसास ने मुझे डरा दिया। मैंने परमेश्वर से पश्चात्ताप करते हुए प्रार्थना की : “परमेश्वर, काम के दौरान मैंने सिर्फ अपने हितों की रक्षा की है, मैंने कलीसिया के समग्र काम या तेरी इरादों पर कोई ध्यान नहीं दिया। मेरे जैसी मानवता के साथ मैं कर्तव्य निभाने योग्य नहीं हूँ। परमेश्वर, मैं सच में पश्चात्ताप करना चाहती हूँ।”

बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग मिल गया : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्‍हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्‍हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्‍हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्‍यों को दूर रखना चाहिए, तुम्‍हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्‍ट व्‍यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्‍मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्‍ट करने की तुम्‍हारी इच्छा घटती चली जाएगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने से मैंने सीखा कि हर काम में कलीसिया के हित सबसे ऊपर होने चाहिए, न कि निजी लाभ। प्रतिष्ठा और रुतबा अस्थायी हैं, उन चीजों के पीछे भागना व्यर्थ है। भ्रष्ट स्वभाव के साथ न जीना, सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करना ही उसकी स्वीकृति पाने का एकमात्र तरीका है। इस समझ ने मुझे प्रबुद्ध किया। जिम्मेदारियों का आवंटन जैसे भी किया जाए, मैं अपने निजी हितों के बारे में सोचती, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाती नहीं रह सकती थी। मुझे समर्पण कर कर्तव्य अच्छे से निभाना था। मुझे परमेश्वर के सामने रहकर उसकी जाँच स्वीकारने पर ध्यान देना था। चाहे दूसरे मेरे बारे में कुछ भी सोचें, मुझे अपने काम में दिल लगाना और जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप था।

अगले कुछ दिनों में, मैंने अपने हित भुलाकर खुद को काम में झोंक दिया। ऐसा करके मुझे लगा जैसे मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव द्वारा बेबस और प्रभावित नहीं रही। एक दिन, काम पर चर्चा के दौरान एक बहन ने कहा कि वो अंग्रेजी अच्छी तरह नहीं बोल पाती, और उसे अपनी कलीसिया की जाँच में दुभाषिए की जरूरत है, इस कारण उसे मुश्किल हो रही थी और काम पर असर पड़ रहा था। चूँकि मेरी अंग्रेजी ठीक थी, मुझे लगा मैं उससे काम बदल सकती हूँ, और उस कलीसिया के काम का जिम्मा ले सकती हूँ। लेकिन फिर तुरंत ही लगा कि उसकी कलीसिया में बहुत समस्याएँ हैं, उसका काम सँभालने का मतलब है बहुत मेहनत करना और बदले में थोड़ी प्रगति होना। और फिर लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मैंने सोचा, बेहतर होगा कि मैं यह फेरबदल न करूँ। लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से हिसाब-किताब कर रही हूँ, अपने घमंड और रुतबे के बारे में सोच रही हूँ, इसलिए मैंने देह-सुख के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए तैयार होते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की। मैं जानती थी कि मैं पहले की तरह भ्रष्टता में लिप्त रहकर बस अपने हितों की सोचते हुए नहीं जी सकती। अगर इस बदलाव से कलीसिया के कार्य को लाभ हो, तो मुझे यह करना होगा। बाद में, मैंने अपने सहकर्मियों की जिम्मेदारियों के बारे में सोचा और यह निष्कर्ष निकाला कि उस बहन से काम बदलना ही अच्छा होगा। मैंने अगुआ के सामने अपने विचार रखे, कुछ समय तक उस पर विचार कर वह और सहकर्मी सभी मेरी बात से सहमत हो गए। जरूरी बदलाव करके मैंने सहज महसूस किया, और मुझे इतनी खुशी का एहसास हुआ कि मैं बता नहीं सकती। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “तुम्‍हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्‍यों को दूर रखना चाहिए, तुम्‍हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्‍ट व्‍यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्‍मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)

तब मैंने उन कलीसियाओं के बारे में नकारात्मक होना बंद कर दिया, जिनकी मैं प्रभारी थी, और मैंने हर कलीसिया का कार्य सँभालने की पूरी कोशिश की। जब सिंचनकर्मी अपनी समस्याओं को लेकर शिकायत करते, तो मैं उनका गलत नजरिया सुधारने के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति करती, और उनकी मुश्किलें सुलझाने के लिए परमेश्वर के सहारे उनके साथ सत्य की खोज करती। जब मैंने देखा कि नए सदस्यों की बहुत सारी समस्याएँ थीं और कुछ लोग सामान्य रूप से सभाओं में नहीं आ रहे थे, तो मैंने काम के बारे में शिकायत नहीं की, बल्कि भाई-बहनों की मुश्किलें समझने के लिए उनके साथ खुद बातचीत की, और परमेश्वर के वचनों पर उनके साथ संगति करने पर ध्यान दिया। जहाँ तक पर्याप्त अगुआ और उपयाजक न होने की बात है, मैंने प्रतिभाशाली व्यक्तियों को विकसित करने पर ज्यादा मेहनत की। मैंने उन भाई-बहनों के साथ कर्तव्य के निर्वहन की महत्ता और सिद्धांतों पर संगति की जिनमें भूमिकाएँ निभाने की काबिलियत थी और उनके साथ मिलकर काम करने में समय दिया। जब कभी मुझे कलीसियाओं में कुछ ज्यादा ही जटिल कामों की उपेक्षा होते दिखती, तो मैं खुद उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए आगे बढ़ती। उस वक्त मुझे पता नहीं होता था कि मैं उन कामों को अच्छे से कर सकती हूँ या नहीं, लेकिन मुझे यह पता था कि चीजों को उनके हाल पर नहीं छोड़ सकती। स्वार्थी बनकर बस अपने काम के दायरे पर ध्यान देने के बजाय, मुझे परमेश्वर की इच्छा पर विचार करना था और कलीसिया का समग्र काम बनाए रखना था। कुछ समय बाद काम में प्रगति होने लगी, मेरे प्रबंधन वाली सभी कलीसियाओं में अगुआ और उपयाजक चुन लिए गए। कर्तव्य निभाने वालों की संख्या पहले से दोगुनी हो गई थी और कुछ नए विकसित किए गए सदस्य अपने काम खुद देख पा रहे थे। जिन कलीसियाओं का काम पहले अच्छा नहीं था, उनके कार्य के हर पहलू में सुधार दिख रहा था। मैं वास्तव में परमेश्वर को काम करते देख पा रही थी। मैंने सच में अनुभव किया कि परमेश्वर को बस लोगों का हृदय और आज्ञाकारिता चाहिए, इसलिए अगर हम उसके इरादों पर विचार करके केवल कलीसिया के काम के बारे में सोचें, न कि अपने हितों के बारे में, तो हम परमेश्वर का मार्गदर्शन पा सकते हैं। ये समझकर परमेश्वर में मेरा विश्वास और भी मजबूत हो गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर को धन्यवाद!

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