75. अ‍सलियत छुपाने और झूठा स्‍वाँग भरने के नतीजे

लिलीथ, हांडुरास

अक्‍टूबर, 2018 में मैंने अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर के कार्य को स्वीकारा। छह महीने बाद, मैं कलीसिया में सिंचन कार्य की उपयाजिका बनी। शुरू-शुरू में इस काम को करने में मुझे काफी मुश्किलें आईं, लेकिन प्रार्थना और अपने भाई-बहनों की मदद से, धीरे-धीरे मैंने कुछ सिद्धांतों पर अच्‍छी पकड़ बना ली और अपने कर्तव्‍य में कुछ अच्‍छे नतीजे पाने लगी। मैंने अनुभव की गवाहियां लिखने का अभ्‍यास भी किया, मैं अक्‍सर आत्‍मचिंतन करती, और हर दिन काफी संतुष्‍ट महसूस करती।

इसी साल जनवरी में एक दिन मेरी अगुआ ने मुझसे कहा, "तुमने जीवन-प्रवेश में थोड़ी प्रगति की है, इसलिए हमने तुम्‍हें उपदेशक बनाने के लिए चुना है। क्‍या तुम यह काम करना चाहोगी?" मैं यह सुनकर बहुत खुश हो गई, मैंने अपनी सहमति जताते हुए कहा, "मैं पूरी कोशिश करूँगी।" तब उन्‍होंने मुझसे कहा, "तुम्‍हारी लिखी अनुभव की गवाहियां बहुत बढ़िया हैं। केवल वही भाई-बहन जो अपने जीवन-प्रवेश में बोझ उठाते हैं, उपदेशक बन सकते हैं। तभी वे अपने भाई-बहनों की समस्‍याओं और मुश्किलों को सही मायने में सुलझा सकते हैं।" यह सुनकर मुझे गर्व हुआ, खासकर जब मैंने सुना कि मुझे यह कर्तव्‍य इसलिए दिया गया क्‍योंकि मैंने कुछ हद तक जीवन-प्रवेश पा लिया था। मुझे लगा कि मैं इस कर्तव्‍य को अच्‍छी तरह निभा सकती हूँ। उसके बाद, अगुआ ने मुझे कई कलीसियाओं के कामकाज की जिम्‍मेदारी दे दी और मुझे बहुत-से सिद्धांत सिखाए। काम का दायरा पहले से काफी बड़ा था और मुझ पर बहुत सारे कामों की जिम्‍मेदारी थी, इसलिए मैं तनाव में आ गई और मुझे यह सब न संभाल पाने की चिंता भी होने लगी। मैंने देखा कि कुछ भाई-बहन जो मेरे जैसा कर्तव्‍य ही निभाते थे उनके लिए यह काम जाना-पहचाना था, पर मेरे लिए यह कर्तव्‍य नया था और मैं नहीं जानती थी कि इसे कैसे निभाऊँ। मैं अपनी मुश्किलों पर बात करना चाहती थी लेकिन फिर मुझे अपनी अगुआ की तारीफ याद आ गई। अगर उन्‍हें पता चला कि मुझे इन कलीसियाओं का काम समझ में नहीं आया है, तो वे मेरे बारे में क्‍या सोचेंगी? क्‍या उन्‍हें नहीं लगेगा कि वह मेरे बस का नहीं था और मुझे चुनकर उन्‍होंने गलती की थी? और फिर, अब तो मैं एक उपदेशक थी। अगर मेरे लिए काम ही जाना-पहचाना नहीं था तो मैं कलीसिया के अगुआओं की मदद कैसे कर सकती थी? यह सब सोचकर मैंने चुप रहने का फैसला किया। मुझे ईमानदारी से अपनी बात कहने में बहुत संकोच हो रहा था।

एक बार, हमारी वरिष्‍ठ अगुआ ने हमारे काम के बारे में हमारे साथ संगति की, मैंने देखा कि बहन सिल्विया और भाई रिकार्डो फटाफट अगुआ के सवालों के जवाब दे रहे थे, और काम के हर पहलू को भी समझते थे। अगुआ ने मुझसे पूछा, "क्‍या तुम्‍हें कोई समस्‍या है?" मैंने सोचा, "हम सब एक जैसा ही कर्तव्‍य निभाते हैं। अगर मैंने हाँ कहा तो अगुआ मेरे बारे में क्‍या सोचेंगी? क्‍या वे मुझे नाकाबिल मान लेंगी?" तो मैंने झूठ बोल दिया, "बिल्‍कुल नहीं।" बाद में, जब भी अगुआ हमसे मिलतीं, मैं शायद ही कुछ बोलती, और बोलती भी तो पहले यह सोचती कि क्‍या जवाब दूँ ताकि लोगों को पता न चले कि मैं बहुत सी चीजें नहीं जानती, क्‍योंकि मुझे डर था कि वे मुझे नीची नजर से देखेंगे। इस तरह, मैं अपनी असलियत छुपाती रही और झूठा स्‍वाँग भरती रही, मैं बँधन-सा महसूस करने लगी और अपने कर्तव्‍य में नि‍ष्क्रिय होती गई। बल्कि, मैं तो समूह छोड़ना और सभाओं में जाना भी बंद करना चाहती थी। फिर भी, मैं किसी से अपनी हालत पर खुलकर बात नहीं करना चाहती थी। मैं बस लोगों को अपना उजला पक्ष ही दिखाना चाहती थी। एक दिन, मैंने कलीसिया में काम की स्थिति को समझने के लिए, कलीसिया की दो अगुआओं से मिलना तय किया। उनसे मिलने पर, एक अगुआ ने उत्‍साह से भरकर कहा, "बहुत अच्छी बात है कि अब आप हमारा कामकाज संभालेंगी! मुझे आपके साथ सभा में जाना अच्‍छा लगता है और हर बार आपकी संगति सुनकर मैं आपकी सराहना करती हूँ। उम्‍मीद है कि आगे चलकर मैं भी आप जैसी बन सकूँगी।" दूसरी अगुआ ने कहा, "आपके साथ‍ मिलकर अपने कर्तव्‍य निभाना हमें अच्‍छा लगता है। आपकी संगति में हमें हमेशा प्रकाश मिलता है।" तब, मैं उनसे कहना चाहती थी कि मेरे बारे में इतनी ऊँची राय न रखें, क्‍योंकि मुझमें भ्रष्‍टता है, कर्तव्‍य निभाने में मुझे दिक्‍कतें आती हैं और दबाव में होने पर मुझमें नकारात्‍मकता आ जाती है। पर फिर मैंने सोचा, "अगर मैंने इन्‍हें सच बता दिया तो क्‍या आगे चलकर ये मेरे लिए इतनी अच्‍छी राय रखेंगी? कोई सवाल होने पर मुझसे उनके जवाब पूछेंगी?" मेरे अंदर संघर्ष चलता रहा और आखिरकार, मैंने उनसे सच नहीं कहा।

ऐसे ही एक बार, मुझे कलीसिया की कुछ उपयाजकों से मिलना था। उन्‍होंने कहा कि वे कुछ काम नहीं कर पाईं और उन्‍हें दिक्‍कतें आ रही थीं। मैंने उन्‍हें दिलासा देते हुए कहा, "चिंता मत करो, हम सभी को कर्तव्‍य निभाते ज्‍यादा समय नहीं हुआ है। हम काम करते-करते चीजों को समझ भी लेंगे।" यूँ देखा जाए तो मैंने कुछ गलत नहीं कहा था। पर, दरअसल मैं भी उस काम को नहीं कर पाई। मैं चिंतित थी कि कहीं वे मेरा असली आध्‍यात्मिक कद न देख लें, तो ईमानदारी से बात कहने की हिम्‍मत ही नहीं हुई, मैंने बस उनका थोड़ा हौसला बढ़ा दिया, पर उससे उनकी समस्याएँ कतई हल नहीं हुईं। मैं लगातार अपनी असलियत छुपाते हुए स्‍वाँग भर रही थी, इसलिए पवित्र आत्‍मा का मार्गदर्शन महसूस नहीं कर सकी, मैं बहुत कमज़ोर पड़ चुकी थी और हर दिन निढाल होती जा रही थी। मैं अक्‍सर सोचती, "मैं औरों की तरह कलीसिया का काम क्‍यों नहीं कर पाती?" मैं जानती थी कि मुझे अगुआ के साथ अपनी समस्‍या पर बात करनी चाहिए, लेकिन डरती थी कि अगर मैंने ऐसा किया तो वो मेरे बारे में क्‍या सोचेंगी। मैंने सोचा, "मुझे यह कर्तव्‍य सौंपा गया क्‍योंकि अगुआ के मुताबिक मैंने जीवन-प्रवेश पाया था, तो वे यही सोचती होंगी कि मैं बहुत काबिल हूँ, सत्‍य की खोज में रहती हूँ। अगर उन्‍हें पता चला कि मुझे इतना कुछ नहीं आता और मैं कलीसिया का काम नहीं कर सकती, तो उन्‍हें पक्‍का लगेगा कि मुझे उपदेशक के तौर पर चुनना उनकी गलती थी।" यह सोचकर मुझे कुछ कहने में और भी डर लगने लगा। मेरी हालत बद से बदतर होती गई, मैं अंधकार और दुख में रहने लगी। मैंने परमेश्‍वर से प्रार्थना की, "सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर, मैं नहीं जानती कि इस माहौल को कैसे समझूँ। तुम ही मेरी अगुआई और मार्गदर्शन करो।"

एक दिन, एक सभा में, हमारी वरिष्‍ठ अगुआ ने हमसे पूछा कि इस अवधि के दौरान हमारा अनुभव कैसा रहा। दूसरों ने अपने कर्तव्‍य निर्वहन में भ्रष्टता और कमियों पर खुलकर बात की, तब मैं भी अपनी हालत पर बात करने का साहस जुटा पाई। अगुआ ने अपने अनुभव से मेरी मदद करते हुए कहा, "अगुआ और कर्मी के तौर पर, अपना कर्तव्‍य अच्‍छी तरह निभाने के लिए आपको सब कुछ समझने की जरूरत नहीं है। ऐसा सोचना ही गलत है। हम तो बस आम लोग हैं, तो कुछ चीजों को देख-समझ न पाना सामान्‍य-सी बात है। लेकिन अगर हम सर्वज्ञ बनना चाहते हैं और अपनी ही कमियों से ठीक से नहीं निपट पाते, अपनी हैसियत और छवि को बनाए रखने के लिए, झूठा स्‍वाँग भरने और दूसरों को धोखा देने के लिए मुखौटा पहनते हैं, और दूसरों को कभी अपना आध्‍यात्मिक कद नहीं देखने देते, तो ऐसे जीना दर्दनाक है।" फिर, अगुआ ने मुझे परमेश्‍वर के वचनों के दो अंश भेजे। "साधारण और सामान्य इंसान कैसे बनें? जैसा कि परमेश्वर कहता है, उस तरह लोग एक सृजित प्राणी का उचित स्थान कैसे ग्रहण कर सकते हैं—कैसे वे महामानव या कोई महान हस्ती बनने की कोशिश नहीं कर सकते? ... पहली बात, अपनी उपाधि के फेर में मत पड़ो। मत कहो, 'मैं अगुआ हूँ, मैं टीम का मुखिया हूँ, मैं निरीक्षक हूँ, इस काम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता, मुझसे ज्यादा इन कौशलों को कोई नहीं समझता।' अपनी स्व-प्रदत्त उपाधि के फेर में मत पड़ो। जैसे ही तुम ऐसा करते हो, वह तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देगी, और तुम जो कहते और करते हो, वह प्रभावित होगा; तुम्हारी सामान्य सोच और निर्णय भी प्रभावित होंगे। तुम्हें इस हैसियत की बेड़ियों से खुद को आजाद करना होगा; पहले खुद को इस आधिकारिक पद से नीचे ले आओ, जो तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास है, और एक आम इंसान की जगह खड़े हो जाओ; अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारा रवैया सामान्य हो जाएगा। तुम्हें यह भी स्वीकार करना और कहना चाहिए, 'मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मुझे वह भी समझ नहीं आया—मुझे कुछ शोध और अध्ययन करना होगा,' या 'मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं पता कि क्या करना है।' जब तुम वास्तव में जो सोचते हो, उसे कहने और ईमानदारी से बोलने में सक्षम होते हो, तो तुम सामान्य समझ से युक्त हो जाओगे। दूसरों को तुम्हारा वास्तविक स्वरूप पता चल जाएगा, और इस प्रकार वे तुम्हारे बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखेंगे, और तुम्हें कोई दिखावा नहीं करना पड़ेगा, न ही तुम पर कोई बड़ा दबाव होगा, इसलिए तुम लोगों के साथ सामान्य रूप से संवाद कर पाओगे। इस तरह जीना निर्बाध और आसान है; जिसे भी जीवन थका देने वाला लगता है, उसने उसे ऐसा खुद बनाया है। ढोंग या दिखावा मत करो; पहले वह खुलकर बताओ, जो तुम अपने दिल में जो सोच रहे हो, अपने सच्चे विचारों के बारे में खुलकर बात करो, ताकि हर कोई उन्हें जान और उन्हें समझ ले। नतीजतन, तुम्हारी चिंताएँ और तुम्हारे और दूसरों के बीच की बाधाएँ और संदेह समाप्त हो जाएँगे। तुम किसी और चीज से भी बाधित हो। तुम हमेशा खुद को टीम का मुखिया, अगुआ, कार्यकर्ता, या किसी पदवी और हैसियत वाला इंसान मानते हो : अगर तुम कहते हो कि तुम कोई चीज नहीं समझते, या कोई काम नहीं कर सकते, तो क्या तुम खुद को गिरा नहीं रहे रहे? जब तुम अपने दिल की ये बेड़ियाँ हटा देते हो, जब तुम खुद को एक अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सोचना बंद कर देते हो, और जब तुम यह सोचना बंद कर देते हो कि तुम अन्य लोगों से बेहतर हो, और महसूस करते हो कि तुम एक आम इंसान हो जो अन्य सभी के समान है, कि कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें तुम दूसरों से कमतर हो—जब तुम इस रवैये के साथ सत्य और काम से संबंधित मामलों में संगति करते हो, तो प्रभाव अलग होता है, और अनुभूति भी अलग होती है। अगर तुम्हारे दिल में हमेशा शंकाएँ रहती हैं, अगर तुम हमेशा तनावग्रस्त और बाधित महसूस करते हो, और अगर तुम इन चीजों से छुटकारा पाना चाहते हो लेकिन नहीं पा सकते, तो तुम परमेश्वर से गंभीरता से प्रार्थना करके, आत्मचिंतन करके, अपनी कमियाँ देखकर, सत्य की दिशा में प्रयास करके और सत्य को अमल में लाकर ऐसा करने में सफल हो सकते हो। चाहे जो करो, पर किसी विशेष पद से या किसी विशेष पदवी का उपयोग करके बात या काम न करो; पहले यह सब एक तरफ कर दो, और खुद को एक आम इंसान के स्थान पर रखो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है')। "अगर अपने दिल में तुम स्पष्ट हो कि तुम किस तरह के इंसान हो, तुम्हारा सार क्या है, तुम्हारी विफलताएँ और भ्रष्टता के उद्गार क्या हैं, तो तुम्हें अन्य लोगों के साथ खुले तौर पर इसकी संगति करनी चाहिए, ताकि वे देख सकें कि तुम्हारी असली हालत क्या है, तुम्हारे विचार और मत क्या हैं, ताकि वे जान सकें कि तुम्हें ऐसी चीजों के बारे में क्या ज्ञान है। चाहे जो भी करो, ढोंग या दिखावा मत करो, दूसरों से अपनी भ्रष्टता और असफलताएँ मत छिपाओ जिससे कि किसी को उनके बारे में पता न चले; इस तरह के नकली बरताव का मतलब है कि तुम्हारे दिल में अवरोध है, और यह एक भ्रष्ट स्वभाव भी है, यह लोगों को पश्चात्ताप करने और बदलने से रोक सकता है। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, और अपने लिए दूसरों की प्रशंसा, उनके द्वारा तुम पर बरसाई जाने वाली महिमा और उनके द्वारा तुम्हें प्रदान किए जाने मुकुटों जैसी नकली चीजों पर रुककर विचार और विश्लेषण करना चाहिए, और देखना चाहिए कि ये चीजें तुम्हें कितना नुकसान पहुँचाती हैं—और ऐसा करने से तुम्हें अपना माप पता चल जाएगा, तुम आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लोगे, और फिर खुद को महामानव या कोई महान हस्ती नहीं समझोगे। जब तुम्हें इस तरह की आत्म-जागरूकता प्राप्त हो जाती है, तो तुम्हारे लिए दिल से सत्य को स्वीकार करना, परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करना और मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ स्वीकार करना, अपने लिए परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करना, दृढ़ता से एक आम इंसान, एक व्यावहारिक इंसान बनना, अपने—एक सृजित प्राणी और परमेश्वर—सृष्टिकर्ता के बीच सामान्य संबंध स्थापित करना आसान हो जाता है। परमेश्वर लोगों से ठीक यही अपेक्षा करता है, और यह उनके लिए पूरी तरह से प्राप्य है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है')। परमेश्‍वर के वचन पढ़कर मैं अपनी हालत पर आत्‍मचिंतन करने लगी। जब अगुआ ने मुझसे कहा कि जीवन-प्रवेश पाने के कारण मैं एक उपदेशक थी, तो मुझमें घमंड आ गया और मैं संतुष्‍ट होकर बैठ गई। मुझे लगा कि मेरे सत्‍य की खोज करने और कामकाज में समर्थ होने के कारण ही मुझे इतने महत्‍वपूर्ण काम के लिए चुना गया था। लेकिन, जब मैंने वास्‍तव में इस कर्तव्‍य को निभाना शुरू किया तो, पता चला कि मैं कलीसिया का अधिकांश काम समझती ही नहीं थी। जिन सिद्धांतों पर मेरी अगुआ ने संगति की थी, उनमें से कुछ पर मेरी पकड़ नहीं थी, बहुत ज्‍यादा दबाव महसूस करने के कारण मैं अक्‍सर कमजोर और नकारात्‍मक रहती थी। लेकिन मैंने अपनी हालत के बारे में कभी खुलकर बात नहीं की और यह कहकर अपनी अगुआ को धोखा दिया कि मुझे कोई समस्‍या ही नहीं थी, क्‍योंकि मुझे डर था कि वो मुझे अयोग्‍य समझेंगी और नीची नजरों से देखेंगी। जब मैंने पाया कि कलीसिया की अगुआ और उपयाजिकाएँ मेरी तारीफ करती हैं, और यहाँ तक कि मुझे मिसाल के तौर पर देखती हैं, तब यह जानते हुए भी कि मुझे अपनी भ्रष्टता और कमियों पर खुलकर बात करनी चाहिए, और उनसे अपना असली आध्‍यात्मिक कद नहीं छुपाना चाहिए ताकि वे मेरी इतनी प्रशंसा और सम्‍मान न करें, लेकिन इस डर से कि सच जानने पर वे मेरे बारे में ऊंची राय नहीं रखेंगी, मैं चुप रही। जब अगुआओं और उपयाजिकाओं ने मुझसे कुछ सवाल पूछे जिनके जवाब मुझे जाहिर तौर पर नहीं पता थे, तब भी मैंने उनसे खुलकर चर्चा नहीं की। मैंने बिना समझे ही समझने का नाटक किया और उनके सवालों के बेपरवाही से जवाब दिए। मैंने बार-बार झूठा स्‍वाँग भरा और झूठी छवि बनाई, और यह सब सिर्फ इ‍सलिए कि मैं "उपदेशक" के रुतबे पर अटक गई थी। मैंने सोचा कि उपदेशक के तौर पर मेरी समझ और जानकारी दूसरों से ज्‍यादा होनी चाहिए, मुझमें कमियाँ नहीं होनी चाहिए और मुझे नकारात्‍मक या कमजोर नहीं होना चाहिए। मैंने सोचा कि यही एक तरीका था जिससे लोग मेरा सम्‍मान करेंगे और मुझे स्‍वीकार करेंगे। अपनी हैसियत और छवि को बनाए रखने के लिए, मैंने अपनी असलियत को छुपाने के लिए मुखौटा पहन लिया, और दोषरहित होने का झूठा स्‍वाँग भरा। यहाँ त‍क कि प्रताड़ित, कमजोर और नकारात्मक महसूस करने पर भी, "उपदेशक" के रुतबे को बनाए रखने के लिए मैं दूसरों के साथ अपने दिल की बात करने और मदद माँगने के बजाय अकेले में रोया करती थी। इस रुतबे का बोझ मेरे लिए असहनीय हो गया था। जब कलीसिया ने मुझे उपदेशक बनाया तो, वह मुझे अभ्‍यास करने का मौका दे रही थी और अपने कर्तव्‍य में ज्यादा सत्‍य खोजने और उसे समझने का अवसर दे रहा था। लेकिन मैंने सही रास्‍ता नहीं अपनाया। मैंने इस मौके का फायदा शोहरत और किस्‍मत पाने के लिए उठाया। क्‍या यह परमेश्‍वर की इच्‍छा के उलट नहीं था? परमेश्‍वर हमें असाधारण या महान नहीं बनाना चाहता। वह चाहता है कि हम सृजित प्राणियों के तौर पर आम, सामान्‍य इंसान बनकर रहें, व्यावहारिक तरीके से सत्य की खोज करें, अपनी कमियों को ईमानदारी से स्‍वीकार करें, और जो समस्‍याएँ हमारी समझ से परे हैं, उन पर अपने भाई-बहनों से खुलकर बात करें और मदद माँगें। हमें ऐसा तर्कशील होना चाहिए।

बाद में, मैंने कुछ भाई-बहनों की लिखी अनुभव की गवाहियां पढ़ी जिनमें परमेश्वर के वचनों के कुछ ऐसे अंश थे जो मेरी हालत से मेल खाते थे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "चाहे कोई भी संदर्भ हो, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य निभा रहे हों, वे यह छाप छोड़ने की कोशिश करेंगे कि वे कमजोर नहीं हैं, कि वे हमेशा मजबूत, आत्मविश्वास से भरे हुए रहते हैं, कभी नकारात्मक नहीं होते। वे कभी अपना असली आध्यात्मिक कद या परमेश्वर के प्रति अपना असली रवैया प्रकट नहीं करते। वास्तव में, अपने दिल की गहराइयों में क्या वे सचमुच यह मानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है जो वे नहीं कर सकते? क्या वे वाकई मानते हैं कि उनमें कोई कमजोरी, नकारात्मकता या भ्रष्टता नहीं भरी है? बिलकुल नहीं। वे दिखावा करने में अच्छे होते हैं, चीजों को छिपाने में माहिर होते हैं। वे लोगों को अपना मजबूत और सम्मानजनक पक्ष दिखाना पसंद करते हैं; वे नहीं चाहते कि वे उनका वह पक्ष देखें जो कमजोर और सच्चा है। उनका उद्देश्य स्पष्ट होता है : सीधी-सी बात है, वे अपनी साख, इन लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाए रखना चाहते हैं। उन्हें लगता है अगर वे अपनी नकारात्मकता और कमजोरी दूसरों के सामने उजागर करेंगे, अपना विद्रोही और भ्रष्ट पक्ष प्रकट करेंगे, तो यह उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए एक गंभीर क्षति होगी—तो बेकार की परेशानी खड़ी होगी। इसलिए वे अपनी कमजोरी, विद्रोह और नकारात्मकता को सख्ती से अपने तक ही रखना पसंद करते हैं। और अगर ऐसा कभी हो भी जाए जब हर कोई उनके कमजोर और विद्रोही पक्ष को देख ले, जब वे देख लें कि वे भ्रष्ट हैं, और बिलकुल नहीं बदले, तो वे अभी भी उस दिखावे को बरकरार रखेंगे। वे सोचते हैं कि अगर वे अपने भीतर किसी भ्रष्ट स्वभाव का होना स्वीकार करते हैं, एक सामान्य व्यक्ति होना जो छोटा और महत्वहीन है, तो वे लोगों के दिलों में अपना स्थान खो देंगे, सबकी श्रद्धा और आदर खो देंगे, और इस प्रकार पूरी तरह से विफल हो जाएँगे। और इसलिए, कुछ भी हो जाए, वे बस लोगों के सामने नहीं खुलेंगे; कुछ भी हो जाए, वे अपना सामर्थ्य और हैसियत किसी और को नहीं देंगे; इसके बजाय, वे प्रतिस्पर्धा करने का हर संभव प्रयास करते हैं, और कभी हार नहीं मानते" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दस)')। एक और अंश में, परमेश्वर ने रुतबे के पीछे भागने की लोगों की प्रकृति और नतीजों का खुलासा किया था। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "तुम हमेशा महानता, कुलीनता और रुतबा ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और इसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीज़ों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चाताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें तुच्छ समझकर त्याग देगा। सुनिश्चित करो कि तुम ऐसे व्यक्ति न बनो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? आज्ञाकारिता के साथ सत्य को ग्रहण करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हुए व्यावहारिक रहकर, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह निर्वहन करके, सच्चा इंसान बनने का प्रयास करके और मनुष्य की तरह जीवन जी कर। इतना काफी है, परमेश्वर संतुष्ट होगा। लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालें या बेकार के सपने न देखें, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागें या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करें। इसके अलावा, उन्हें ऐसे महान या अलौकिक व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, जो लोगों में श्रेष्ठ हो और दूसरों से अपनी पूजा करवाता हो। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। अगर लोग लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं और पश्चाताप नहीं करते, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : त्याग दिया जाना" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैंने जाना कि मसीह-विरोधी पाखंडी होते हैं। दूसरों के दिलों में जगह बनाने के लिए, वे हमेशा खुद को आकर्षक रूप में पेश करते हैं, वे कभी सच नहीं बोलते, कभी किसी को अपना असली चेहरा या कमजोर पक्ष नहीं देखने देते, सच को समझने और दोषरहित होने का स्वाँग भरते हैं ताकि दूसरों से तारीफ और प्रशंसा पा सकें, सब उनके अनुयायी बन जाएँ और उनकी स्‍तुति करें। वे खास तौर पर घमंडी और दुष्ट प्रकृति के होते हैं। अपने बर्ताव पर आत्मचिंतन करने पर मैंने पाया कि मैं भी मसीह-विरोधी जैसी ही थी। कलीसिया ने मुझे उपदेशक बनाया, लेकिन मैंने उसे परमेश्वर के आदेश के तौर पर नहीं लिया यह भी नहीं सोचा कि व्यावहारिक तरीके से, अपने कर्तव्य को ठीक से निभाते हुए ईमानदार और सच्चा कैसे बनाजा सकता है। बल्कि, मैंने तो हमेशा सर्वज्ञ होने का नाटक किया। मैं चाहती थी कि लोग मेरे बारे में ऊंचा सोचें, मुझे बहुत काबिल और हर मुश्किल चुटकियों में हल करने वाली समझें, ताकि उनके दिलों में मेरे लिए जगह रहे और वे मुझे घेरकर मेरी आराधना करते रहें। मैं अभिमानी और विवेकहीन थी। क्‍या मैं पद के लिए परमेश्‍वर से प्रतिस्‍पर्धा नहीं कर रही थी? मेरा कहा और किया, सब कुछ परमेश्‍वर के विरुद्ध था। खासकर जब मैंने परमेश्‍वर के ये वचन पढ़े, "अगर लोग लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं और पश्चाताप नहीं करते, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : त्याग दिया जाना।" मैं जानती थी कि यह मेरे लिए परमेश्‍वर की चेतावनी थी। अगर मैं शोहरत और हैसियत पाने के रास्‍ते पर चलती रही तो वह मुझे पक्‍का ठुकरा देगा, और आखिरकार मुझे निकाल दिया जाएगा। मैंने परमेश्‍वर से प्रार्थना की और कहा कि मैं पश्‍चाताप करना चाहती हूँ, बचाए जाने का मौका नहीं गँवाना चाहती, एक पवित्र और ईमानदार व्‍यक्ति बनना चाहती हूँ।

अगले दिन, मेरी वरिष्‍ठ अगुआ ने मुझसे सभा का एक दस्‍तावेज तैयार करने को कहा। उन्‍होंने सभा में संगति की कुछ बातों के बारे में बताया और फिर पूछा कि क्‍या मैं उनकी बात समझी। दरअसल, उस समय मुझे बहुत साफ समझ नहीं थी, लेकिन इस डर से कि कहीं वे मुझे नाकाबिल और सभा का दस्‍तावेज तक तैयार न कर पाने लायक न कह दें, मैंने झूठ बोला कि मुझे सब समझ आ गया। लेकिन, जब मैंने वास्‍तव में काम शुरू किया तो समझ ही नहीं आया कि उसे कैसे करूँ। मैं बहुत घबरा गई, मेरे पसीने छूटने लगे और समझ ही नहीं आया कि करूँ तो क्‍या करूँ, इसलिए मैंने परमेश्‍वर से प्रार्थना की, "सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर, मुझे शैतान ने बहुत गहराई तक भ्रष्‍ट कर दिया है। शोहरत और हैसियत ने अब तक मेरे पैरों में बेड़ियाँ डाल रखी हैं। मैं अपनी दैहिक इच्छाओं का त्याग करके ईमानदार नहीं बन सकती। विनती है कि अभ्‍यास का मार्ग खोजने में मेरी अगुआई और मार्गदर्शन करो।"

परमेश्‍वर के वचनों में मैंने पढ़ा, "कुछ लोगों को कलीसिया द्वारा बढ़ावा दिया जाता है और उनका विकास किया जाता है, और यह एक अच्छी चीज है, यह प्रशिक्षित होने का एक अच्छा मौका है। यह कहा जा सकता है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा ऊँचा उठाया और अनुगृहीत किया गया है। तो फिर, उन्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? पहला सिद्धांत है सत्य को समझना, जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। अगर उन्हें सत्य की समझ न हो, तो उन्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और अगर वे खोजने के बाद भी नहीं समझते, तो वे संगति और खोज करने के लिए किसी ऐसे इंसान की तलाश कर सकते हैं, जो सत्य समझता है, इससे समस्या का समाधान अधिक तेजी से और समय पर होगा। अगर तुम केवल परमेश्वर के वचनों को अकेले पढ़ने और उन वचनों पर विचार करने में अधिक समय व्यतीत करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, ताकि तुम सत्य की समझ प्राप्त कर समस्या हल कर सको, तो यह बहुत धीमा है; जैसी कि कहावत है, 'दूर रखा पानी तत्काल प्यास नहीं बुझाएगा।' अगर सत्य की बात आने पर तुम शीघ्र प्रगति करना चाहते हो, तो तुम्हें दूसरों के साथ सामंजस्य में काम करना, अधिक प्रश्न पूछना और अधिक तलाश करना सीखना होगा। तभी तुम्हारा जीवन तेजी से आगे बढ़ेगा, और तुम समस्याएँ समय पर, बिना किसी देरी के हल कर पाओगे। चूँकि तुम्हें अभी-अभी पदोन्नत किया गया है और तुम अभी भी परिवीक्षा पर हो, और वास्तव में सत्य को नहीं समझते या तुममें सत्य की वास्तविकता नहीं है—चूँकि तुम्हारे पास अभी भी इस कद की कमी है—तो यह मत सोचो कि तुम्हारी पदोन्नति का अर्थ है कि तुममें सत्य की वास्तविकता है; यह बात नहीं है। तुम्हें पदोन्नति और पोषण के लिए केवल इसलिए चुना गया है, क्योंकि तुममें कार्य के प्रति दायित्व की भावना और अगुआ होने की क्षमता है। तुममें यह भावना होनी चाहिए। अगर पदोन्नत और उपयोग किए जाने के बाद तुम अगुआ या कार्यकर्ता के पद पर बैठ जाते हो और मानते हो कि तुममें सत्य की वास्तविकता है और तुम सत्य का अनुसरण करने वाले इंसान हो—और अगर, चाहे भाई-बहनों को कोई भी समस्या हो, तुम दिखावा करते हो कि तुम उसे समझते हो, और कि तुम आध्यात्मिक हो—तो यह बेवकूफी है, और यह पाखंडी फरीसियों जैसा ही है। तुम्हें सच्चाई के साथ बोलना और कार्य करना चाहिए। जब तुम्हें समझ न आए, तो तुम दूसरों से पूछ सकते हो या उच्च से उत्तर माँग सकते हो और उसके साथ संगति कर सकते हो—इसमें से कुछ भी शर्मनाक नहीं है। अगर तुम नहीं पूछोगे, तो भी उच्च को तुम्हारे वास्तविक कद का पता चल ही जाएगा, और और वह जान ही जाएगा कि तुममें सत्य की वास्तविकता नदारद है। खोज और संगति ही वे चीजें हैं, जो तुम्हें करनी चाहिए; यही वह भाव है जो सामान्य मानवता में पाया जाना चाहिए, और यही वह सिद्धांत है जिसका पालन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है" (नकली अगुआओं की पहचान करना (5))। परमेश्वर के वचन पढ़ने पर मुझे समझ आया कि कलीसिया ने उपदेशक के तौर पर मुझे तरक्की दी, ताकि मुझे अभ्यास का मौका मिले, और मैं काम करने का तरीका सीख सकूँ। इसका मतलब यह नहीं था कि मैं दूसरों से बेहतर, ऊँची या सर्वज्ञ थी। मैंने यह कर्तव्‍य निभाना कुछ समय पहले ही शुरू किया था, और ऐसे बहुत-से काम थे जो मेरे बस का नहीं था और बहुत-से सिद्धांत थे जो मैं नहीं समझ सकी थी। यह बिल्कुल साधारण-सी बात थी। फिर, मैं अनुभव की गवाहियां लिख सकती थी तो इसका मतलब सिर्फ इतना था कि मुझे परमेश्‍वर के वचनों का सतही अनुभव और समझ थी, यह नहीं कि मैं सत्‍य को समझती थी या मुझमें सत्‍य की वास्‍तविकता थी। मैं कुछ समय से परमेश्‍वर में विश्‍वास जरूर करती हूँ, लेकिन अभी तक सत्‍य को नहीं समझती और मेरा भ्रष्‍ट स्‍वभाव नहीं बदला है, तो मुझे अपनी कमियों और खामियों पर ठीक से काम करना चाहिए, और चीजें समझ न आने पर अपने भाई-बहनों के साथ संगति करनी चाहिए। इसमें शर्म की कोई बात नहीं। शर्म की बात तो यह है कि समझ न आने पर भी मैंने समझने का नाटक किया, जिसकी वजह से बहुत-सी समस्‍याएँ समय पर नहीं सुलझ पाईं और कलीसिया के काम में देरी हुई, मैंने भी बार-बार सत्‍य की खोज का अवसर खोया, नकारात्‍मक और कमजोर बनी रही। मैं बहुत मूर्ख थी! इस तरह मैं आगे नहीं बढ़ सकती थी। मुझे अपने इरादे ठीक रखने थे, अपने भाई-बहनों के साथ खुलकर बात, संगति और खोज करते हुए अपना कर्तव्‍य ठीक से निभाना था।

इसके बाद, मैंने अगुआ से सभा के दस्‍तावेज तैयार करने से जुड़े कुछ सवाल किए, और उन्‍होंने पूरे धैर्य से मेरे साथ संगति की। मुझे रास्‍ता मिल गया था और जल्‍द ही दस्‍तावेज भी तैयार हो गया। सभा भी बहुत प्रभावशाली रही, और मैंने भी चैन की सांस ली। अपना कर्तव्‍य निभाते हुए अब भी मेरे सामने बहुत-सी मुश्किलें और दिक्‍कतें आती हैं, लेकिन मैंने परमेश्‍वर से प्रार्थना करके उस पर भरोसा रखना सीख लिया है, अब मैं अक्‍सर अपने भाई-बहनों की मदद भी लेती हूँ। सभाओं में भी मैं भाई-बहनों के साथ अपने बारे में खुलकर बात करती हूँ, उनसे अपनी भ्रष्टता और कमियाँ नहीं छुपाती। ऐसा करके, मैं सुरक्षा और सुकून महसूस करती हूँ। परमेश्‍वर का धन्यवाद!

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