65. कर्तव्य आशीषों की सौदेबाजी नहीं होता

क्षीयोचें, चीन

बीमारी मुझे हमेशा आसानी से पकड़ लेती है। 11 वर्ष की उम्र में, मुझे अप्लास्टिक एनीमिया हो गया था—यानी शरीर में रक्त कोशिकाएं कम बनने की बीमारी, तो मेरी रोग-प्रतिरोध प्रणाली बहुत कमजोर है, मेरा शरीर कमजोर है, मेरे हाथ-पैर कमजोर हैं, कुछ कदम चलकर ही थक जाता हूँ। हालत गंभीर होने पर मुझे बिस्तर पर रहना पड़ता है। डॉक्टर कहता है कि हालत गंभीर होने पर, कमजोर रोग-प्रतिरोध क्षमता के कारण मुझे संक्रमण हो सकता है, जिससे तेज बुखार चढ़ सकता है, और जख्मी होने पर खून बहना बंद नहीं होता, जिससे जीवन को खतरा हो सकता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद मेरी हालत सुधरी, और मैंने कलीसिया में कर्तव्य भी निभाया। कई साल बीत गए और मुझे अपनी बीमारी का कोई लक्षण पता नहीं चला। मैंने समझा यह परमेश्वर का आशीष है, और मैंने उसका बहुत आभार माना।

बाद में, मैंने परमेश्वर के घर के लिए वीडियो निर्माण शुरू किया। जब मैंने सोचा कि ये फिल्में और वीडियो किस तरह परमेश्वर के कार्य की गवाही देते हैं, तो मुझे लगा यह काम करना खासतौर पर अर्थपूर्ण है। तभी, मैंने सोचा अगर मैंने परमेश्वर के लिए खपने में कड़ी मेहनत की, और परमेश्वर की गवाही देने वाले बढ़िया वीडियो बनाए, तो इन अहम नेक कामों में मेरा भी हिस्सा होगा, इससे न सिर्फ मुझे परमेश्वर की रक्षा और आशीष मिलेंगे, परमेश्वर मुझे यकीनन बचाएगा और मैं महाविपत्ति में बचा रहूँगा। इन सबके बारे में सोचकर, मैं अपने व्यावसायिक कौशल और सिद्धांतों पर और ज्यादा मेहनत करने लगा, और परमेश्वर की गवाही देनेवाली और चीजें तैयार करने की कोशिश करने लगा। हर बार जब तैयार वीडियो बाहर आता, और मैं वह क्लिप देखता जिसमें मैंने मदद की थी, तो मेरा दिल खुशी से बल्लियों उछलता, अपना कर्तव्य निभाने का जोश दोगुना हो जाता। और बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए, मैं आगे बढ़कर जानकारी ढूँढ़ता, उससे जुड़े कौशल सीखता, और भाई-बहनों से चर्चा करता। कभी-कभार चर्चाएँ सुबह तीन बजे तक चलतीं, और पहले ही कमजोर होने से देर तक जागने से मेरा शरीर थककर चूर हो जाता। लेकिन फिर सोचता, इतने वर्षों से मेरे शरीर को कोई तकलीफ नहीं हुई थी, और अध्ययन के लिए देर रात तक जागना अपना कर्तव्य बेहतर निभाने के लिए था। अपने कर्तव्य में मेरी उत्पादकता भी अच्छी थी, इसलिए मुझे यकीन था कि परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा। अगर मैंने अपना कर्तव्य निभाया, ज्यादा हासिल किया और योगदान किया, तो मुझे उद्धार की बड़ी आशा होगी। अगर अभी मुझे ज्यादा कष्ट सहने भी पड़े, तो भी वह इस लायक है।

एक दिन मेरे पर्यवेक्षक ने मुझसे कहा, "भाई, हम जानते हैं आपकी शारीरिक हालत अच्छी नहीं है। अभी हमारा काम का बोझ भारी है, हमें फिक्र है कि अगर आप यूँ ही काम करते रहे, तो कहीं आपकी हालत पहले जैसी न हो जाए। आप जाँच के लिए अस्पताल क्यों नहीं जाते? अगर सब सामान्य हो, तो आप यहाँ अपना कर्तव्य निभाते रह सकते हैं। अगर आपकी सेहत ज्यादा अच्छी न हो, तो आप चंगे होने के लिए घर जा सकते हैं, और इलाज के दौरान, आपसे जो हो सके, वह काम करते रहें।" लेकिन तब मैं समर्पण नहीं कर सका, अपने दिल को शांत नहीं रख पाया। मुझे लगा, "यह हमारे कर्तव्य का अहम समय है, अच्छे कर्म जमा करने के लिए मेरे भाई-बहन सक्रियता से अपने कर्तव्य निभा रहे हैं। अगर इस वक्त मेरे शरीर के साथ कुछ ठीक न रहा, तो मैं इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में अच्छे काम जमा नहीं कर सकूँगा, और मुझे अच्छे कार्य और परिणाम नहीं मिल पाएंगे। परमेश्वर का कार्य पूरा होने पर, मैं परमेश्वर को क्या दूँगा? अंत में परमेश्वर मुझे त्याग तो नहीं देगा और मैं विपदा में तो नहीं डूब जाऊंगा?" मैंने यह भी सोचा कि पिछले कुछ वर्षों में मैंने कुछ चीजें तैयार की थीं, तो अगर मैं बीमारी के कारण चंगा होने घर गया, और इस कर्तव्य में नहीं बना रहा, तो क्या पिछले कुछ वर्षों में मेरी चुकाई हुई कीमत जब्त नहीं हो जाएगी? मैंने देखा मेरे सहभागी भाई-बहनों की सेहत अच्छी थी, उन्हें ऐसी कोई फिक्र नहीं थी, और वे शांत मन से अपना कर्तव्य निभा पा रहे थे, लेकिन मैं सब-कुछ खोने को था। मैंने जितना सोचा, उतना ही निराश महसूस किया। भविष्य धुंधला लगा, और अपने कर्तव्य में मेरी रुचि खत्म हो गई। बाद में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! मैं बहुत दुखी और निराश हूँ, मुझे बहुत-सी शिकायतें और गलतफहमियाँ हैं। मैं इस हालत से उबर नहीं पा रहा हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो, ताकि मैं तुम्हारी इच्छा और अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझ सकूँ, और तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकूँ।"

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, "इन दिनों, अधिकांश लोग इस तरह की स्थिति में हैं : 'आशीष प्राप्त करने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाना होगा और परमेश्वर के लिए कीमत चुकानी होगी। आशीष पाने के लिए मुझे परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग देना चाहिए; मुझे उसके द्वारा सौंपा गया काम पूरा करना चाहिए, और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए।' इस पर आशीष प्राप्त करने का इरादा हावी है, जो अपने आपको पूरी तरह से परमेश्वर से पुरस्कार पाने और मुकुट हासिल करने के उद्देश्य से खपाने का उदाहरण है। ऐसे लोगों के दिल में सत्य नहीं होता, और निश्चित रूप से उनकी समझ केवल सिद्धांत के कुछ शब्दों से युक्त होती है, जिसका वे जहाँ भी जाते हैं, वहीं दिखावा करते हैं। उनका रास्ता पौलुस का रास्ता है। ऐसे लोगों का विश्वास निरंतर कठिन परिश्रम का कार्य है, और गहराई में उन्हें लगता है कि वे जितना अधिक करेंगे, परमेश्वर के प्रति उनकी निष्ठा उतनी ही अधिक सिद्ध होगी; वे जितना अधिक करेंगे, वह उनसे उतना ही अधिक संतुष्ट होगा; और जितना अधिक वे करेंगे, वे परमेश्वर के सामने मुकुट पाने के लिए उतने ही अधिक योग्य साबित होंगे, और उन्हें मिलने वाले आशीष उतने ही बड़े होंगे। वे सोचते हैं कि यदि वे पीड़ा सह सकें, उपदेश दे सकें और मसीह के लिए मर सकें, यदि वे अपने जीवन का त्याग कर सकें, और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कर्तव्य पूरे कर सकें, तो वे वो होंगे जिन्हें सबसे बड़े आशीष मिलते हैं, और उन्हें मुकुट प्राप्त होने निश्चित हैं। पौलुस ने भी यही कल्पना की थी और यही चाहा था; वह भी इसी मार्ग पर चला था, और ऐसे ही विचार लेकर उसने परमेश्वर की सेवा करने का काम किया था। क्या इन विचारों और इरादों की उत्पत्ति शैतानी प्रकृति से नहीं होती? यह सांसारिक मनुष्यों की तरह है, जो मानते हैं कि पृथ्वी पर रहते हुए उन्हें ज्ञान की खोज करनी चाहिए, और उसे प्राप्त करने के बाद ही वे भीड़ से अलग दिखायी दे सकते हैं, पदाधिकारी बनकर हैसियत प्राप्त कर सकते हैं; वे सोचते हैं कि जब उनके पास हैसियत हो जाएगी, तो वे अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर सकते हैं और अपने घर और व्यवसाय को समृद्धि के एक निश्चित स्तर पर ले जा सकते हैं। क्या सभी अविश्वासी इसी मार्ग पर नहीं चलते? जिन लोगों पर इस शैतानी प्रकृति का वर्चस्व है, वे अपने विश्वास में केवल पौलुस की तरह हो सकते हैं। वे सोचते हैं : 'मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर सब-कुछ छोड़ देना चाहिए; मुझे उसके समक्ष वफ़ादार होना चाहिए, और अंतत: मुझे बड़े पुरस्कार और शानदार मुकुट मिलेंगे।' यह वही रवैया है, जो उन सांसारिक लोगों का होता है, जो सांसारिक चीज़ें पाने की कोशिश करते हैं; वे बिलकुल भी अलग नहीं हैं, और उसी प्रकृति के अधीन हैं। जब लोगों की शैतानी प्रकृति इस प्रकार की होगी, तो दुनिया में वे ज्ञान, शिक्षा, हैसियत प्राप्त करने और भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करेंगे; यदि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे बड़े मुकुट और बड़े आशीष प्राप्त करने की कोशिश करेंगे। यदि परमेश्वर में विश्वास करते हुए लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो उनका इस मार्ग पर चलना निश्चित है; यह एक अडिग तथ्य है, यह एक प्राकृतिक नियम है। सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग जो मार्ग अपनाते हैं, वह पतरस के मार्ग से एकदम विपरीत होता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत का सटीक खुलासा किया। मैं सोचता था, राज्य का सुसमाचार फैलाने के कार्य में अपना योगदान करने के लिए मुश्किलें सहने और अपने कर्तव्य में बढ़िया वीडियो बनाने के लिए कीमत चुकाने से, यह सुनिश्चित होगा कि परमेश्वर मेरी सराहना कर मुझे आशीष दे, और अंत में, परमेश्वर मुझे पुरस्कृत कर बचाए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए, मैं बहुत-से कष्टों की शिकायत किए बिना सारी रात जागता रहता था, लेकिन शारीरिक कारणों से शायद काम न कर सकने की हालत में, मैंने देखा कि आशीष पाने की मेरी इच्छा चकनाचूर हो गई, सो अपना कर्तव्य निभाने की मेरी इच्छा ख़त्म हो गई, और मैं बिल्कुल खपना नहीं चाहता था। मैंने देखा कि मैंने परमेश्वर पर अपनी आस्था में हमेशा लेनदेन की कोशिश की। मैंने महत्वपूर्ण भूमिकाओं और निर्माण कार्यों में लगाए जाने का अनुसरण, परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष माँगने के साधन के रूप में किया। मैं हमेशा कहता था कि मैं कष्ट सहने और खपने के लिए तैयार हूँ, लेकिन यह सिर्फ आशीष पाने के प्रयोजन से था। मैं परमेश्वर से छल कर रहा था, परमेश्वर का इस्तेमाल कर रहा था। मेरे इरादे घिनौने थे! इस बारे में सोचकर, मुझे एहसास हुआ कि मैं अब इस माहौल का प्रतिरोध नहीं कर सकता। मुझे समर्पण करना होगा, सत्य खोजना होगा, और परमेश्वर में अपनी आस्था की अशुद्धियों और भ्रष्ट स्वभावों को ठीक करना होगा।

इसके बाद, मैं जाँच के लिए अस्पताल गया। खून के अनेक संकेतक सामान्य लोगों से कम स्तर पर थे, और मेरी प्लेटलेट संख्या सामान्य से बहुत कम थी। डॉक्टर ने कहा, अगर मैंने सही देखभाल न की, तो आसानी से खून का भारी रिसाव हो सकता है। मेरे पर्यवेक्षक और भाई-बहनों ने सुझाया कि मैं कुछ समय के लिए घर जाऊँ, और चंगा हो जाने के बाद, अपना कर्तव्य निभाऊं। इसके बाद, मैं इलाज पूरा करने के लिए घर गया, और थोड़े-थोड़े दिनों में जाँच के लिए जाता रहा। कुछ महीने बीत गए, लेकिन मेरी सेहत नहीं सुधरी, तो मैं थोड़ा बेचैन हो गया, और पारंपरिक चीनी दवा के एक बुजुर्ग चिकित्सक के पास दवा लेने गया। बुजुर्ग चिकित्सक ने कहा, "तुम धीरे-धीरे ठीक होगे। तुम्हारी हालत गंभीर है, और बेहतर होने में तुम्हें बहुत समय लगेगा।" चिकित्सक की बात सुनकर मुझे बड़ी निराशा हुई। मैंने सोचा था, घर जाकर चंगा हो जाने के बाद, हालत सुधरने पर मैं वीडियो कार्य में लौट सकूँगा। लेकिन साल भर से इलाज चलने पर भी मैं ठीक क्यों नहीं हो रहा था? उस वर्ष, परमेश्वर के घर में बहुत-सी फिल्में बनीं, वीडियो बने, लेकिन शारीरिक कारणों से मैं इस वीडियो-निर्माण में भाग नहीं ले सका। मुझे डर था कि भविष्य में मैं यह कर्तव्य फिर से नहीं निभा पाऊँगा। पर्याप्त नेक कर्मों के बिना भी, क्या परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर मैं बचाया जा सकूँगा? मैंने जितना सोचा, उतना ही निराश महसूस किया। घर जाते समय मैंने हवा में उड़ते पत्ते देखे, और मुझे लगा, इन झड़े हुए पत्तों की तरह मेरे लिए भी अब कोई उम्मीद नहीं बची। मैंने बेहद बेसहारा और तनहा महसूस किया, और मैं शिकायत किए बिना नहीं रह सका। जब मेरे दूसरे सब भाई-बहन स्वस्थ थे, तो मुझे यह बीमारी क्यों लगी? अगर मैंने अपना कर्तव्य यूँ ही निभाया हो, और गड़बड़ी कर रोड़े अटकाए हों, या प्रभावी न होने से अपना कर्तव्य न निभा सका होऊं, तो मैं प्रायश्चित और बदलाव कर चीजों को ठीक कर सकता हूँ। लेकिन कमजोर सेहत एक पैदाइशी हालत है, ऐसी नहीं, जिसे मैं कड़ी मेहनत करके बदल सकूँ। यह सोचने पर, मुझे लगा परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया था, जिससे मैंने खासकर दुखी और असंतुष्ट महसूस किया। घर पहुँचकर, मैं पिचकी हुई गेंद की तरह पड़ा रहा, किसी भी चीज ने मेरा मनोबल नहीं बढ़ाया। मैंने सोचा, "मेरी बीमारी ऐसी ही है। ऐसी कोई चीज नहीं है, जो इसे बदल सके। अगर मैं महत्वपूर्ण कार्य में भाग न ले सका, तो बचाए जाने की उम्मीद कहाँ है?" मैंने खुद के बारे में पूरी तरह सोचना छोड़ दिया। हर दिन, दुनियावी फिल्में और टीवी देखकर और लोगों से ऑनलाइन चैटिंग कर समय बिताने लगा। परमेश्वर के साथ मेरा रिश्ता दूर का हो गया, मेरी आत्मा और काली और खाली हो गई। एक दिन, मुझे एकाएक एहसास हुआ, "क्या मेरी हालत एक अविश्वासी जैसी नहीं है? यह परमेश्वर के विश्वासी जैसी कहाँ है? मैं एक गैर-विश्वासी के सिवाय कुछ नहीं! अगर मैं इतना गिरा रहा, तो और ज्यादा खराब हो जाऊंगा, और आखिरकार परमेश्वर मुझे त्याग देगा।" यह सोचकर, मुझे थोड़ा डर लगा। मैं जान गया, मैं ऐसे नहीं रह सकता। मुझे अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए आत्मचिंतन कर सत्य खोजना चाहिए।

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "जब लोग सत्य स्वीकार नहीं करते तो इससे बड़ा विद्रोह कोई नहीं हो सकता। उनके लिए इससे ज्यादा खतरनाक भी कुछ नहीं होता। यदि ऐसे लोग कभी भी सत्य स्वीकार नहीं करते, तो समझो वे गैर-विश्वासी हैं—और एक बार जब ऐसे लोगों की आशीष पाने की आशा टूट जाती है, तो वे भटककर परमेश्वर से दूर चले जाते हैं। इसका क्या कारण है? (वे जिस चीज का अनुसरण करते हैं वह है आशीष और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद।) वे परमेश्वर में तो विश्वास रखते हैं लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते; उनके लिए, उद्धार मात्र एक आभूषण है, कर्णप्रिय शब्द-मात्र है। वे मन ही मन चाहते हैं कि उन्हें पुरस्कृत किया जाए, मुकुट पहनाया जाए, लाभ मिलें, वे इस जीवन में सौ गुना प्राप्त करना चाहते हैं और आने वाले युग में अनंत जीवन प्राप्त करना चाहते हैं। यदि उन्हें ये चीजें प्राप्त नहीं होतीं, तो वे विश्वास करना बंद कर देते हैं, उनका असली चेहरा उजागर हो जाता है और वे परमेश्वर से भटक जाते हैं। दिल से उन्हें परमेश्वर के कार्य पर, परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों पर विश्वास नहीं होता। उद्धार पाना उनका लक्ष्य नहीं होता, परमेश्वर के प्राणी के रूप में कर्तव्य निभाना दूर की बात है; बल्कि ऐसे लोग पौलुस से भिन्न नहीं होते : उनकी चाहत होती है कि वे महान आशीष प्राप्त करें, उनके पास विशाल सत्ता हो, बड़ा मुकुट हो, परमेश्वर के बराबर उनका पद हो—ये उनकी महत्वाकांक्षाएं और इच्छाएं होती हैं। तो, जब भी परमेश्वर के घर से कुछ लाभ प्राप्त किया जा सकता हो, तो वे उस दौड़ में शामिल होकर 'वरिष्ठता' की बातें करना शुरू कर देते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं, 'मैं इसका हकदार हूँ, मुझे मेरा हिस्सा मिलना चाहिए, मुझे इसके लिए लड़ना चाहिए।' यह सोचकर उनके दिल को सुकून मिलता है। वे खुद को परमेश्वर के घर में ऊँचे पायदान पर रखते हैं और इसलिए इस तरह के लाभों को अपना हक मानते हैं। ... यह स्पष्ट है कि वे जिन चीजों के पीछे भाग रहे होते हैं, उन्होंने उनके दिल पर कब्जा कर लिया है, और यह भी स्पष्ट है कि वे सामान्यत: जिन चीजों के पीछे भाग रहे होते हैं, उनका सत्य से कोई मेल नहीं होता। वे चाहे कितना भी काम करें, उनका मकसद और इरादे पौलुस जैसे ही होते हैं : वे मुकुट पाना चाहते हैं, अपने मकसद और इरादों को कसकर पकड़े रहते हैं और उन्हें कभी छोड़ते नहीं। उनके साथ जिस भी तरह से सत्य पर संगति की जाए, चाहे जैसे उनसे निपटा और उनकी काट-छाँट की जाए, उन्हें चाहे जैसे उजागर और विश्लेषित किया जाए, वे आशीष पाने की अपनी मंशाएँ छोड़ने को हठपूर्वक नकार देते हैं। और जब वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाते हैं, आशीष पाने की अपनी आशाओं को बिखरते हुए देखते हैं, तो वे नकारात्मक होकर बदतर हो जाते हैं और अपना कर्तव्य छोड़कर भाग खड़े होते हैं। वे वास्तव में राज्य का सुसमाचार फैलाने का कार्य नहीं करते, न ही उन्होंने अच्छी सेवा की होती है, जिससे साफ जाहिर होता है कि उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था की कमी है, वे सच्ची आज्ञाकारिता से वंचित हैं, उनमें वास्तविक अनुभव या गवाही नहीं हैं, वे भेड़ की खाल में भेड़िये हैं; अंतत: इस प्रकार कट्टर गैर-विश्वासी पूरी तरह बेनकाब हो जाते हैं और बहिष्कृत कर दिए जाते हैं, आखिरकार परमेश्वर में उनकी आस्था का अंत हो जाता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग पाँच)')। परमेश्वर के वचन ने मेरे भीतर के घिनौने इरादों का पूरी तरह से खुलासा कर दिया। हालाँकि मैं चंगा होने के लिए घर जाने को राजी था, पर अपने दिल में, मुझे उम्मीद थी कि जल्द ठीक होकर वीडियो तैयार करने लगूँगा। जब बार-बार इलाज के बावजूद मुझे वांछित परिणाम नहीं मिले, तो मुझे लगा अब एक अहम कर्तव्य निभाने की कोई उम्मीद नहीं बची, आशीष पाने की मेरी आकांक्षा तबाह हो चुकी थी, और परमेश्वर में विश्वास रखने की कोई प्रेरणा नहीं बची थी। मैंने खोया हुआ, असंतुलित महसूस किया, और सोचा परमेश्वर मेरे साथ अन्यायी था, तो अनुशासन छोड़ मैं देह-सुख में डूब गया। अब मैं परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ना चाहता था, न परमेश्वर से प्रार्थना करना चाहता था। मैंने दुनियावी रंग-ढंग के पीछे भागकर परमेश्वर से असंतोष भी जताया। मैंने सिर्फ आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखा था, अपना कर्तव्य निभाया था। जब मुझे आशीष नहीं मिले, तो मैं परमेश्वर का वैरी हो गया। मैंने सिर्फ शैतान का दुष्ट स्वभाव दिखाया, मुझमें जरा भी जमीर नहीं था, समझ नहीं थी। इससे साबित हुआ कि मेरी पिछली खपाई झूठी थी, परमेश्वर को छलने के लिए थी। परमेश्वर में आस्था के इतने वर्षों में, परमेश्वर ने मुझे बहुत सत्य दिए, ढेर सारा अनुग्रह दिया। परमेश्वर की रक्षा के बिना, मैं बहुत पहले ही मर गया होता, पर मैंने परमेश्वर को न धन्यवाद दिया, न कीमत चुकाई, बल्कि शिकायत की कि परमेश्वर ने मुझसे अन्याय किया, मुझे अच्छा शरीर नहीं दिया। मैं पूरी तरह से अविवेकी था, मुझमें मानवता थी ही नहीं!

इस बारे में सोचकर मुझे पछतावा हुआ, खुद से घृणा हुई। मैं आशीष पाने की अपनी मंशाएँ सच में हल करना चाहता था, परमेश्वर की अवज्ञा छोड़ना चाहता था, इसलिए मैंने खोजने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, और फिर परमेश्वर के वचन का यह अंश पढ़ा। "चूँकि आशीष प्राप्त करने का अनुसरण करना लोगों के लिए उचित लक्ष्य नहीं है, तो फिर उचित लक्ष्य क्या है? सत्य का अनुसरण, स्वभाव में बदलावों का अनुसरण, और परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करने में सक्षम होना : ये वे लक्ष्य हैं, जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो, काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने के कारण तुम धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल लेते हो, और आज्ञापालन में असमर्थ हो जाते हो। तुम आज्ञापालन क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि तुम्हें लगता है कि तुम्हारी मंजिल या आशीष पाने के तुम्हारे सपने को चुनौती दी गई है। तुम नकारात्मक और परेशान हो जाते हो, और अपने कर्तव्य-पालन से छुटकारा पाने का प्रयास करते हो। इसका क्या कारण है? तुम्हारे अनुसरण में कोई समस्या है। तो इसे कैसे हल किया जाना चाहिए? यह अनिवार्य है कि तुम ये गलत विचार तुरंत त्याग दो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने के लिए तुरंत सत्य की खोज करो। तुम्हें खुद से कहना चाहिए, 'मुझे छोड़कर नहीं जाना चाहिए, मुझे अभी भी परमेश्वर के प्राणी का कर्तव्य निभाना चाहिए और आशीष पाने की अपनी इच्छा एक तरफ रख देनी चाहिए।' जब तुम आशीष पाने की इच्छा छोड़ देते हो, तो तुम्हारे कंधों से एक भार उतर जाता है। और क्या तुम अभी भी नकारात्मक हो पाते हो? हालाँकि अभी भी ऐसे अवसर आते हैं जब तुम नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुम इसे खुद पर काबू नहीं पाने देते, और अपने दिल में प्रार्थना करते और लड़ते रहते हो, और आशीष पाने और मंजिल हासिल करने के अनुसरण के लक्ष्य को बदलकर सत्य के अनुसरण को लक्ष्य बनाते हो, और मन ही मन सोचते हो, 'सत्य का अनुसरण परमेश्वर के प्राणी का कर्तव्य है। आज कुछ सत्यों को समझना—इससे बड़ी कोई फसल नहीं है, यह सबसे बड़ा आशीष है। भले ही परमेश्वर मुझे न चाहे, और मेरी कोई अच्छी मंजिल न हो, और आशीष पाने की मेरी आशा चकनाचूर हो गई है, फिर भी मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगा, मैं इसके लिए बाध्य हूँ। कोई भी वजह मेरे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करेगी, वह मेरे द्वारा परमेश्वर के आदेश की पूर्ति को प्रभावित नहीं करेगी; मैं इसी सिद्धांत के अनुसार आचरण करता हूँ।' और इसमें, क्या तुमने देह की बेड़ियाँ पार नहीं कर लीं?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य के अनुसरण में ही होता है जीवन-प्रवेश')। तब, परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ सका कि आशीष पाने की मेरी आकांक्षा नष्ट हो जाने पर मैंने शिकायत क्यों की थी, क्यों निराश हुआ था, खुद पर काबू क्यों खो बैठा था। समस्या की जड़ था अनुसरण के बारे में मेरा गलत नजरिया। मैं आशीषों और एक अच्छी मंजिल का अनुसरण कर रहा था, इसलिए मैं हमेशा अपने भविष्य और भाग्य से लाचार था। जैसे ही आशीषों की मेरी आकांक्षा नष्ट हुई, मैं आगे बढ़ने में बेहद निष्क्रिय हो गया। आशीषों की मेरी आकांक्षा बहुत प्रबल थी। मैं एक सृजित प्राणी हूँ। चाहे मुझे आशीष और अच्छी मंजिल मिलें या न मिलें, मुझे हर हाल में अपना कर्तव्य निभाना है। यदि मुझे आशीष न भी मिलें, तो भी मैं अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाऊँगा, तो कम-से-कम मुझे कोई पछतावा नहीं होगा। यह सोचकर, मेरा दिल उजला हो गया। मुझे परमेश्वर के वचन में बताए मार्ग पर चलने का अभ्यास करना था, आशीषों की अपनी आकांक्षा छोड़, अनुसरण के अपने गलत नजरिए को बदलना था, और पूरी लगन से अपना कर्तव्य निभाना था। साथ ही, किसी दिन मेरी हालत बिगड़ भी जाए, तो मैं परमेश्वर को दोष नहीं दे सकता था। एक सृजित प्राणी में यह समझ होनी चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं दूसरे कर्तव्य न निभा सकूं, तो मैं घर पर लेख लिखने का अभ्यास कर सकता हूँ, अपने खुद के अनुभवों और ज्ञान पर लिख सकता हूँ, और बैठकों में भाई-बहनों के साथ साझा कर सकता हूँ। इस तरह, मैं परमेश्वर की गवाही भी दे सकूँगा और अपना कर्तव्य भी निभा सकूंगा। इस प्रकार अभ्यास करके, मुझे बड़ी राहत मिली, और मैं अपने भाग्य और भविष्य से उतना लाचार नहीं था।

एक साल बाद, मैं दवा लेने अस्पताल गया, तो डॉक्टर ने कहा, "आपकी बीमारी ठीक हो चुकी है। अब आपको दवा लेने की जरूरत नहीं है। आपको बस अपने शरीर पर थोड़ा ज्यादा ध्यान देना होगा, खुद को थकाए बिना काम करें।" डॉक्टर की यह बात सुनकर मुझे जोश आ गया, मैं परमेश्वर का धन्यवाद किए बिना नहीं रह सका। मुझे बदलने और शुद्ध करने के लिए, परमेश्वर ने मुझे अनुभव देने की खातिर इतने सारे लोगों और चीजों की व्यवस्था की थी। इस बारे में सोचकर, मैंने परमेश्वर के उद्धार के लिए और ज्यादा अयोग्य महसूस किया। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो')। बिल्कुल। लोगों के पास सत्य है या नहीं, यह देखकर ही परमेश्वर उनका परिणाम तय करता है, और जो लोग अंत में सत्य हासिल नहीं करते, वे बचाए नहीं जा सकते। अगर मैं सत्य या स्वभाव में बदलाव का अनुसरण न करूँ, तो मैं चाहे जितना भी खपूं या योगदान करूँ, अंत में अगर मेरे भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध नहीं हुए, तो मुझे बचाया नहीं जा सकेगा। इसके बावजूद मैं कड़ी मेहनत के जरिए अभी भी परमेश्वर से छल करना चाहता था कि वह मुझे आशीष दे। क्या यह बकवास नहीं है? यह मेरे खयाली पुलाव के सिवाय कुछ नहीं था। इस बार, बाहर से लगा था कि मैंने बीमारी के कारण अपना कर्तव्य निभाने का मौका गँवा दिया था, लेकिन बीमारी के जरिए, मेरे गलत नजरिए और भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा हो गया था, जिससे मैं समय रहते चीजें बदल सका और सत्य के अनुसरण पर ध्यान लगा सका। यह मेरे लिए परमेश्वर की बहुत बड़ी रक्षा थी। इस बारे में सोचकर, मुझे बहुत ज्यादा पछतावा हुआ और मैंने ऋणी महसूस किया, इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं अनुसरण के बारे में अपने भ्रांतिपूर्ण नजरिए को उलटना चाहता हूँ। मैं अब आशीषों और पुरस्कारों के पीछे नहीं भागना चाहता। भविष्य में चाहे जो काम करूँ, मैं सत्य और स्वभाव में बदलाव का अनुसरण करना चाहता हूँ, और तुम्हें संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाना चाहता हूँ।"

फिर, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े, और अपना कर्तव्य निभाने के तरीके को लेकर मेरे दिल में थोड़ा उजाला हो गया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "अपने कर्तव्य को पर्याप्त रूप से निभाने के लिए, चाहे तुमने कितने ही वर्ष परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुमने अपने कर्तव्य के निर्वहन में कितना ही काम किया हो और चाहे तुमने परमेश्वर के घर में कितना ही योगदान दिया हो, तुम अपने कार्य में कितने अनुभवी हो। परमेश्वर मुख्यत: यह देखता है उस व्यक्ति ने किस मार्ग का अनुसरण किया है। दूसरे शब्दों में, वह किसी भी व्यक्ति के कार्यों के पीछे सत्य, सिद्धांतों, दिशा और मूल के प्रति उसका रवैया देखता है। परमेश्वर इन बातों पर ध्यान देता है; यही बातें तुम्हारे मार्ग का निर्धारण करती हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?')। "मनुष्य सोचता है कि उन सभी को जो परमेश्वर के लिए कोई न कोई योगदान देते हैं पुरस्कार मिलना चाहिए, और योगदान जितना अधिक होता है, उतना ही अधिक यह मान लिया जाता है कि उन्हें परमेश्वर की कृपा प्राप्त होनी चाहिए। मनुष्य के दृष्टिकोण का सार लेन-देन से संबंधित है, और वह परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की सक्रिय रूप से खोज नहीं करता है। परमेश्वर के लिए, लोग परमेश्वर के प्रति सच्चे प्रेम की और परमेश्वर के प्रति संपूर्ण आज्ञाकारिता की जितनी अधिक खोज करते हैं, जिसका अर्थ परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने की खोज करना भी है, उतनी ही अधिक वे परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाते हैं। परमेश्वर का दृष्टिकोण यह माँग करना है कि मनुष्य अपना मूल कर्तव्य और हैसियत पुनः प्राप्त करे। मनुष्य परमेश्वर का सृजित प्राणी है और इसलिए मनुष्य को परमेश्वर से कोई भी माँग करके अपनी सीमा नहीं लाँघनी चाहिए, और परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से अधिक कुछ नहीं करना चाहिए। पतरस और पौलुस की मंज़िलों को, उनके योगदान के आकार के अनुसार नहीं, बल्कि इस बात के अनुसार आँका गया था कि परमेश्वर के सृजित प्राणियों के रूप में वे अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकते थे या नहीं; उनकी मंजिलें उससे निर्धारित हुई थीं जिसकी उन्होंने शुरुआत से खोज की थी, इसके अनुसार नहीं कि उन्होंने कितना कार्य किया था, या अन्य लोगों का आँकलन क्या था। और इसलिए, परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य सक्रिय रूप से निभाना ही सफलता का पथ है; परमेश्वर के प्रति सच्चे प्रेम के पथ की खोज करना ही सबसे सही पथ है; अपने पुराने स्वभाव में बदलावों की खोज करना, और परमेश्वर के प्रति शुद्ध प्रेम की खोज करना ही सफलता का पथ है। सफलता का ऐसा ही पथ मूल कर्तव्य की पुनः प्राप्ति का और साथ ही परमेश्वर के सृजित प्राणी के मूल प्रकटन का पथ भी है। यह पुनः प्राप्ति का पथ है, और यह आरंभ से अंत तक परमेश्वर के समस्त कार्य का लक्ष्य भी है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है')। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ सका कि परमेश्वर के घर में, कर्तव्यों में, कुछ भी ऊँचा या नीचा नहीं होता। लोगों का बचाया जाना इसके भरोसे नहीं है कि वे क्या कर्तव्य निभाते हैं, उनका काम कितना बड़ा है, या वे क्या हासिल करते हैं। अगर आप सत्य का अनुसरण कर, सक्रियता से एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाएंगे, और अपने स्वभाव में बदलाव हासिल करेंगे, तो आप सत्य पाकर परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकेंगे। अपने कर्तव्य में प्रभावी होने और परमेश्वर के घर में योगदान करने का अनुसरण करना, अपने आप में गलत नहीं है। जब तक आपका इरादा परमेश्वर की गवाही देना है, और आप सत्य खोज सकें और अपना कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार निभा सकें, तो आप परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं। कर्तव्य निभाना लाभ का साधन नहीं है, न ही यह पुरस्कारों के लिए सौदेबाजी है, यह एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी है। मुझे आशीष मिलें या नहीं, मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा। इसके बाद, परमेश्वर के घर ने मेरी शारीरिक हालत के आधार पर मेरे लिए एक सही कर्तव्य की व्यवस्था की।

अब मैं अपने भविष्य और भाग्य से कम लाचार हूँ, मैं कोई भी कर्तव्य निभाऊँ, जानता हूँ कि सत्य हासिल करना ही सबसे अहम बात है। भविष्य में मेरा अंत अच्छा हो या न हो, अगर मैं अपने कर्तव्य में अपनी जिम्मेदारियां निभा सका, तो मुझे आराम और सुकून मिलेगा। परमेश्वर का धन्यवाद!

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