61. खुशामदी इंसान होने के नतीजे

बाई हुआ, चीन

मैंने 2018 में कलीसिया अगुआ का कार्यभार संभाला। मैं जानता था कि अगुआ होने की सबसे अहम जिम्मेदारियों में से एक है सत्य पर संगति करना और दूसरों के जीवन प्रवेश से जुड़ी समस्याओं को हल करना। इस तरह हमारा कलीसिया जीवन बहुत अच्छा होगा। मगर मैं बेहद खुशामदी इंसान था और लोगों को नाराज़ करने से डरता था, इसलिए मैं हमेशा उदार और विनम्र सलाह देने का तरीका अपनाता। उस दौरान, मैंने देखा कि सिंचन कार्य के उपयाजक, भाई लियु अपने काम की कोई ज़िम्मेदारी नहीं उठाते। नए विश्वासियों को कोई समस्या होने पर, वे संगति करके उनकी मदद करने के लिए आगे नहीं आते हैं, जिससे कुछ लोग निराश और ढीले हो गए हैं। मुझे पता था कि यह समस्या कितनी गंभीर है, मुझे उनके साथ संगति करके विश्लेषण करना चाहिए कि कैसे वे लापरवाह होकर परमेश्वर को धोखा दे रहे हैं। अगर उन्होंने पश्चाताप करके अपना रवैया नहीं बदला, तो यकीनन इससे परमेश्वर को घृणा होगी। मगर जब मैंने एक सभा में उन्हें देखा, तो बचकर निकल जाना ही ठीक समझा। वो मुझे काफी संवेदनशील दिखे। अगर मैंने इन समस्याओं की ओर उनका ध्यान दिलाया और उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाया, तो वे मेरे बारे में बिल्कुल भी अच्छा नहीं सोचेंगे। अगर उन्होंने इसे मानने से इनकार कर दिया और गुस्सा हो गए, तो इससे न केवल मुझे शर्मिंदगी होगी, बल्कि उसके बाद मिल-जुलकर काम करना भी मुश्किल हो जाएगा। फिर अगर लोग यह मानने लगें कि अगुआ बनते ही मैं लोगों को फटकारने लगा हूँ, तो वे एक इंसान के नाते मेरे बारे में क्या सोचेंगे? इसलिए मैंने अपना इरादा छोड़ दिया और इसकी चर्चा नहीं की। मैंने समस्या पर गोल-मोल बातें करके, उन्हें बस यह सलाह दे दी, "हमें अपने कर्तव्य में दिल लगाना होगा, ज़िम्मेदारी उठानी होगी ..." जिसके चलते, भाई लियु ने कर्तव्य के प्रति अपने लापरवाह रवैये के सार को नहीं जाना और वही बर्ताव रखा। यह देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा। कलीसिया अगुआ के तौर पर, मैंने एक भाई को अपने कर्तव्य में लापरवाही करते देखा, कलीसिया के काम पर इसका असर पड़ते देखा, मगर सत्य की मदद से इस समस्या को हल नहीं किया। यह व्यावहारिक काम करना कैसे हुआ? यह तो कर्तव्य में लापरवाही हुई। मैंने इस बारे में जितना सोचा, उतना ही मुझे बुरा लगा, मगर फिर भी मैं उनसे कुछ बोल या कह नहीं पाया। मुझे चिंता थी कि अगर मैंने कड़ाई से बात की, तो उन्हें लगेगा कि मुझमें दया नहीं है और अगर वे छोड़कर चले गए, तो भाई-बहन यह सोच सकते हैं कि मैंने उन्हें नीचे गिरा दिया। इससे हमारी इज़्ज़त और मेरी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचेगा। थोड़ा विचार करने के बाद, मैंने इस मामले को टाल दिया। चूंकि मैंने पहले ही भाई लियु से बात कर ली थी, आगे मैं उन्हें इस पर विचार करने के लिए कहूंगा। मैंने उनकी समस्या को उजागर करके उसका विश्लेषण कभी नहीं किया। हूँ। एक बार और मैंने देखा कि मेरे साथ काम करने वाले दो अन्य भाई चीज़ों के बारे में अलग नज़रिया रखने के कारण हमेशा एक दूसरे से लड़ते रहते थे। उनमें से कोई भी मूल बात पर ध्यान नहीं देता था और उनकी चर्चाएं कभी काम की नहीं होती थीं। कभी-कभी बहस करने के बाद, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव पर अटक जाते थे। जिससे कलीसिया के काम में रुकावट आती थी। मैंने देखा यह समस्या कितनी गंभीर थी, मैंने सोचा कि मुझे उनके अहंकार और सत्य का अभ्यास करने में उनकी विफलता की प्रकृति और परिणाम को साझा करने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। मगर फिर उन्हें देखते ही मैंने टालमटोल करने की कोशिश की। मैंने सोचा कि वे दोनों काफी समय से अगुआ हैं, तो क्या उन्हें यह बात समझ नहीं आएगी? मैं सत्य ज़्यादा नहीं समझता था, तो क्या वे मेरी बात सुनेंगे? और मेरे साथ उनका बर्ताव भी बहुत अच्छा था, अगर मैंने उनकी समस्या की प्रकृति और परिणामों पर संगति की तो वे सोच सकते हैं कि मैं बस उन दोनों में कमी ढूंढने की कोशिश कर रहा हूँ और मुझमें इंसानियत नहीं है। फिर उनके साथ मिल-जुलकर काम करना मुश्किल हो जाएगा। इस पर थोड़ा विचार करने के बाद, मैंने इसे भूल जाना ही बेहतर समझा। हालांकि, वे हमेशा परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते थे, तो वे इस बारे में थोड़ा ज़रूर सोचेंगे। इसलिए, मैंने उनकी समस्याओं को उजागर किये बिना, थोड़ी सलाह दे दी और उनसे शांत रहने के लिए कहा।

एक दिन, एक बहन ने मुझे देखकर कहा, "हमारा कलीसिया जीवन बहुत अच्छा नहीं चल रहा है। आप लोग व्यावहारिक समस्याओं को हल नहीं कर रहे हैं।" उन्होंने कहा, "ऐसा करने से आप झूठे अगुआ नहीं बन जाएंगे?" यह सुनकर बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। मुझे मालूम था, कलीसिया में कई समस्याएं हैं। इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा। मैं अगुआ की भूमिका नहीं निभा रहा था। क्या यह झूठा अगुआ होना नहीं है? मैं जानता था, अगर मैं सत्य का अभ्यास करने में विफल रहा, तो परमेश्वर को घृणा होगी और वह मुझे त्याग देगा। इस संभावना ने मुझे बहुत डरा दिया और मैंने यह प्रार्थना की: "प्रिय परमेश्वर, मुझे अगुआ की भूमिका देकर ऊँचा उठाया गया है। मैंने भाइयों को उनके भ्रष्ट स्वभाव में जीते देखा है। इसका हमारे कलीसिया जीवन और इसके काम के कुछ हिस्सों पर असर पड़ा है, मगर मैंने समस्या को हल करने के लिए सत्य का अभ्यास नहीं किया। प्रिय परमेश्वर, मेरी मदद करो, ताकि मैं खुद को जानकर सत्य का अभ्यास कर सकूँ।"

प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "सत्य का अभ्यास करना खोखले शब्द बोलना और निर्धारित वाक्यांशों का पाठ करना नहीं है। बल्कि, इसका अर्थ यह है कि जीवन में तुम्हारा सामना चाहे किसी भी चीज से हो, यदि इसमें इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण, परमेश्वर में विश्वास के मामले, सत्य के सिद्धांत या वह रवैया जिससे कोई अपना कर्तव्य निभाता है, शामिल हैं, तो सभी को अपना विकल्प चुनना होगा—सभी के पास अभ्यास का कोई मार्ग होना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि तुम्हें किसी को ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए, बल्कि शांति बनाए रखनी चाहिए और किसी को भी शर्मिंदा करने से बचना चाहिए, ताकि भविष्य में, हर कोई साथ मिलकर चल सके, फिर इसी दृष्टिकोण के दायरे में, जब तुम किसी को कुछ बुरा करते हुए देखो, गलती करते हुए देखो या कोई ऐसा कार्य करते हुए देखो जो सिद्धांतों के विरुद्ध हो, तो तुम उस व्यक्ति का सामना करने के बजाय, उस चीज को सही करने का दायित्व अपने ऊपर ले लोगे। अपने दृष्टिकोण से सीमित होकर, तुम किसी को ठेस नहीं पहुँचाना चाहते। तुम किसी की भी उपस्थिति में क्यों न हो, उस व्यक्ति के चेहरे को याद करके, भावनाओं और रिश्तों या बरसों के मेलमिलाप से विकसित हुए जज्बात के संकोच में आकर, तुम हमेशा उस व्यक्ति की गरिमा की रक्षा के लिए अच्छी-अच्छी बातें कहोगे। जहाँ तुम्हें कुछ चीजें असंतोषजनक लगती हैं, वहाँ तुम केवल अपना गुस्सा उनकी पीठ पीछे निकालते हो और उनकी इज्जत को ठेस पहुँचाने के बजाय तुम निजी तौर पर अभिकथन करते हो। ऐसे आचरण के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या ऐसा व्यक्ति जी-हुजूरी करने वाला अस्थिर इंसान नहीं है? (है।) यह सिद्धांतों का उल्लंघन करता है; क्या इस तरह से कार्य करना नीचता नहीं है? ऐसा करने वाले न तो अच्छे लोग होते हैं और न ही नेक होते हैं। तुमने चाहे कितने भी कष्ट सहे हों, कोई भी कीमत चुकाई हो, यदि तुम्हारा आचरण सिद्धांतों से रहित है, तो तुम असफल हो गए हो और परमेश्वर के सामने तुम्हें कोई स्वीकृति नहीं मिलेगी, न तो परमेश्वर तुम्हें याद करेगा और न ही वह तुमसे प्रसन्न होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने के लिए कम से कम, एक जमीर का होना आवश्यक है')। खुशामदी लोगों को उजागर करने वाले, परमेश्वर के इन वचनों ने मुझे बहुत बेचैन कर दिया। मैं कलीसिया की समस्याओं को देखकर भी उन्हें हल नहीं कर पा रहा था, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि कोई मेरे बारे में बुरा सोचे। मैं अपनी छवि और रुतबे को बचाने की कोशिश कर रहा था। मैंने देखा कि परमेश्वर मेरे जैसे लोगों से नफ़रत करता है, जो सिद्धांत के अनुसार काम नहीं करते या सत्य का अभ्यास नहीं करते। ऐसे लोग स्वार्थी और कपटी होते हैं। मैंने अपने बर्ताव के बारे में सोचा। मैंने देखा, भाई लियु हमेशा अपने काम में लापरवाही करते हैं जिससे हमारा सिंचन का काम रुक जाता है, मुझे उनके बर्ताव को उजागर करके इसका विश्लेषण करना चाहिए था। मगर उनके साथ कड़ाई से पेश आने और लोगों के मन में बनी अपनी छवि खराब होने के डर से, और यह सोचकर कि कहीं वे ऐसा न कहने लगें, अगुआ बनने के बाद मैं भाषण झाड़ रहा हूँ और लोगों में खोट निकाल रहा हूँ, मैंने कभी उनकी समस्या की प्रकृति का विश्लेषण नहीं किया। मैंने बस संक्षेप में कुछ बातें कह दी, जिनसे समस्या हल नहीं हुई। मैंने उन दोनों भाइयों को कभी मिल-जुलकर काम करते नहीं देखा, जिससे कलीसिया के काम पर भी असर पड़ा, फिर भी मैंने समस्या को हल करके या इसका विश्लेषण करके उनकी मदद नहीं की। जिसके चलते कलीसिया के काम के साथ-साथ भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में भी रुकावट आई। मैं इन शैतानी नियमों के अनुसार जी रहा था, जैसे कि "सामंजस्य एक निधि है", "एक और मित्र का अर्थ है एक और मार्ग" और "अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।" अपनी इज़्ज़त और रुतबे को बचाने के साथ-साथ सबकी नज़रों में अच्छा बने रहने की चाह में, सारी बातें साफ-साफ होने पर भी मैंने कुछ नहीं कहा। इससे न केवल अन्य सदस्यों को बल्कि कलीसिया को भी नुकसान पहुँचा। मैंने देखा कि मुझमें विवेक और समझ की कमी है, परमेश्वर के प्रति ज़रा सा भी समर्पण नहीं है। इसे अच्छा इंसान होना कैसे कहा जाएगा? यह तो स्वार्थी और नीच इंसान होना है, जिसमें ज़रा सी भी इंसानियत नहीं है। मैं हर किसी के साथ घुल-मिलकर रहता था। सभी लोग कहते थे कि मैं एक नेक इंसान हूँ और मेरी छवि भी अच्छी थी, मगर मैं उस कर्तव्य को पूरा नहीं कर रहा था जो परमेश्वर ने मुझे सौंपा था। परमेश्वर की नज़रों में, मैं विश्वास और भरोसे के लायक इंसान नहीं था। मैं कई तरह के अपराध कर रहा था, परमेश्वर को नाराज़ करके उनकी घृणा का पात्र बन रहा था। इसका एहसास होने पर, मैंने फौरन परमेश्वर के सामने पश्चाताप किया, मैं जानता था कि ऐसे नहीं चल सकता, मुझे अपनी इस समस्या को हल करने के लिए सत्य की खोज करनी होगी।

उसके बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "लाभ और प्रतिष्ठा के पीछे भागने की लोगों की विभिन्न प्रकृतियों को देखते हुए, लोग चाहे कितने ही सहज रूप से लाभ और प्रतिष्ठा के पीछे भागें, और लाभ और प्रतिष्ठा के पीछे भागने की यह प्रवृत्ति मनुष्य को कितनी ही वैध लगे, और चाहे वे कितनी ही बड़ी कीमत चुकाएँ, अंतिम परिणाम परमेश्वर के कार्य को नष्ट करना, बाधित करना और बिगाड़ना ही होता है। उनका कर्तव्य-पालन न केवल परमेश्वर के घर के काम को बाधित करता है, बल्कि वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को भी बरबाद कर देता है। इस तरह के काम की प्रकृति क्या होती है? वह है विघटन, रुकावट और हानि। क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता? जब परमेश्वर कहता है कि लोग अपने हितों को अलग रखें, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह लोगों को स्वाधीनता के अधिकार से वंचित कर रहा है और नहीं चाहता कि वे परमेश्वर के हितों में हिस्सा बटाएँ; बल्कि यह इस कारण से है कि लोग अपना हित-साधन करते हुए परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाते हैं, वे भाई-बहनों के सामान्य प्रवेश को बाधित करते हैं, यहाँ तक कि लोगों को एक सामान्य कलीसियाई जीवन और सामान्य आध्यात्मिक जीवन जीने से भी रोकते हैं। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि, जब लोग अपना नाम, धन-दौलत और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो इस तरह के व्यवहार को परमेश्वर के कार्य की सामान्य प्रगति को हद दर्जे तक नुकसान पहुँचाने और बाधित करने, और लोगों के बीच परमेश्वर की इच्छा को सामान्य रूप से पूरा होने से रोकने के लिए शैतान के साथ सहयोग करने के रूप में वर्णित किया जा सकता है। लोगों के अपने हित-साधन की प्रकृति यही है। अर्थात्, अपने हितों के पीछे भागने वाले लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे शैतान के लक्ष्य हैं—वे ऐसे लक्ष्य हैं, जो दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण हैं। जब लोग इन हितों के पीछे भागते हैं, तो वे अनजाने ही शैतान का औजार बन जाते हैं, वे शैतान के लिए एक वाहक बन जाते हैं, और तो और, वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। परमेश्वर के घर और कलीसिया में वे एक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं; परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति, और सामान्य कलीसियाई जीवन और कलीसिया में भाई-बहनों के सामान्य लक्ष्य पर उनका प्रभाव परेशान करने और बिगाड़ने वाला होता है; उनका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। मुझे इस अंश में अपने काम की बात दिखी। ऐसे खुशामदी लोग जो सत्य का अभ्यास नहीं करते, जो सिर्फ अपने हितों की रक्षा करते हैं, वे परमेश्वर के कार्य में रुकावट डालकर उसे नुकसान पहुंचाते हैं, इस तरह वे शैतान के चाकर बन जाते हैं। अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया और पहले की तरह काम करता रहा, तो मुझे बचाया नहीं जा सकेगा, परमेश्वर मुझे अस्वीकार करके त्याग देगा। परमेश्वर ने मुझे ऊँचा उठाकर अगुआ बनाया, ताकि मैं सत्य पर संगति करना सीख सकूँ, भाई-बहनों के जीवन प्रवेश की समस्याओं को हल कर सकूँ और कलीसिया जीवन की देखभाल कर सकूँ। मगर इसके बजाय लोगों की समस्याओं को देखकर, मैंने परमेश्वर का पक्ष नहीं लिया और उनके बर्ताव को उजागर करके उनका विश्लेषण करने की कोशिश नहीं की। मैं शैतान के मददगार के रूप में काम करते हुए, एक खुशामदी इंसान बनकर, अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को बचाने में लगा रहा। इसका भाई-बहनों के कलीसिया जीवन के साथ-साथ उनके जीवन प्रवेश पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा। मुझे खेद के साथ एहसास हुआ कि मैं शैतान की भूमिका निभाते हुए, परमेश्वर की नफ़रत मोल ले रहा था। उस दौरान अपने बर्ताव के बारे में सोचने पर, मैंने देखा कि मैं पूरी तरह से अपने भ्रष्ट स्वभाव के काबू में हूँ, मुझमें सत्य का अभ्यास करने और धार्मिकता को कायम रखने की हिम्मत नहीं थी। मैं शैतान का प्यादा, एक कमज़ोर और अक्षम इंसान बन गया था। मैं बेहद घृणित और दयनीय हालत में जी रहा था। मैं जानता था कि अगर मैंने सत्य का अभ्यास करके इच्छाएँ नहीं त्यागीं, तो परमेश्वर मुझे जीने के लायक नहीं समझेगा। इस तरह, मुझे दंडित करके शाप दिया जाएगा। इन एहसासों पर मुझे यकीन नहीं हो रहा था, मगर मैं जानता था कि परमेश्वर मेरे उद्धार के लिए ही इस पर रोशनी डाल रहा था। उसके वचनों के न्याय और प्रकाशन के बिना, मैं अपनी भ्रष्टता कभी नहीं देख पाता, न ही खुशामदी इंसान होने और सत्य का अभ्यास न करने का प्रभाव जान पाता। मैं परमेश्वर का आभारी था कि उसने इन चीज़ों की व्यवस्था की ताकि मैं सबक सीख सकूँ। अब मैं "सबका चहेता" बनने और परमेश्वर का विरोध करने की भ्रष्टता छोड़ने को तैयार था।

फिर मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े, जिनसे मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। परमेश्वर के वचन कहते है, "मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अत: उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'तीन चेतावनियाँ')। "अगर तुम्हारे पास एक 'नेक व्यक्ति' होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तो तुम हमेशा ऐसे मामलों में पिछड़ जाओगे और विफल हो जाओगे। तो इन परिस्थितियों में तुम्हें क्या करना चाहिये? इस तरह की चीज़ों से सामना होने पर, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये। उससे मांगो कि वो तुम्हें शक्ति दे, और तुम्हें सिद्धांत का पालन करने में समर्थ करे, वो करो जो तुम्हें करना चाहिये, चीज़ों को सिद्धांत के अनुसार नियंत्रित करो, अपनी बात पर मजबूती से खड़े रहो, और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने हितों को, अपनी प्रतिष्ठा और एक 'नेक व्यक्ति' होने के दृष्टिकोण को छोड़ने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, संपूर्ण हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिये, तो तुमने शैतान को हरा दिया है, और तुमने सत्य के इस पहलू को हासिल कर लिया है। लेकिन यदि तुम लोगों के साथ अपने ही दृष्टिकोण और संबंध बनाए रखने पर जोर देते हो, तो अंत में तुम इन चीजों पर कभी काबू नहीं पा सकोगे। क्या तुम अन्य चीजों पर काबू पा सकोगे? तुममें अभी भी शक्ति और आत्मविश्वास की कमी होगी। तुम इस तरह सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते, और यदि तुम सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम बचाए नहीं जा सकते। उद्धार के लिए सत्य को प्राप्त करना एक आवश्यक शर्त है। तो फिर, व्यक्ति सत्य को कैसे प्राप्त करता है? जब तुम सत्य के किसी पहलू का अभ्यास और उसमें प्रवेश करते हो, और वह तुम्हारे जीवन का मूल बन जाता है, और तुम उसके अनुसार जीते हो, तो तुम सत्य के उस पहलू को प्राप्त कर सकते हो और उद्धार के उस भाग को हासिल कर सकते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'स्वयं को जानकर ही तुम सत्‍य की खोज कर सकते हो')। इसे पढ़कर, मैंने जाना कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है। वे अपने रिश्ते बचाने और छवि निखारने की परवाह नहीं करते, उनके दिलों में परमेश्वर के लिए जगह होती है। वे सभी चीज़ों में सिद्धांत कायम रखते हैं, उनमें न्याय की समझ होती है और वे परमेश्वर के प्रति वफ़ादार होते हैं। मगर मैं स्वार्थी और कपटी इंसान था, अपने आपसी संबंधों और दूसरों के मन में बनी अपनी छवि की बहुत अधिक परवाह करता था। जब ऐसी चीज़ें घटित हुईं जहां कलीसिया के काम की रक्षा करने और सत्य का अभ्यास करने की ज़रूरत थी, मैंने सिद्धांतों के अनुसार चलने के बजाय शैतान का साथ दिया। मैंने परमेश्वर से विद्रोह और उसका प्रतिरोध किया,जिससे उसके दिल को ठेस पहुँची। उसके बाद, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे गुहार लगाई कि उस तरह के विचारों और नज़रिये से मुझे दूर रखे, ताकि मैं दूसरों की परवाह किये बिना सिद्धांतों पर कायम रह सकूँ। यही परमेश्वर के साथ खड़े होने और कलीसिया के कार्य को कायम रखने का एकमात्र तरीका है। दरअसल, सत्य बोलने और किसी की समस्या की ओर उसका ध्यान दिलाने से कोई बुरा नहीं मानता है। ऐसा करना भाई, बहन या कलीसिया का कार्य, सभी के लिए काफी फ़ायदेमंद होता है। अगर हम किसी को भ्रष्टता प्रकट करते देखकर भी उसकी प्रकृति और परिणाम की ओर उसका ध्यान नहीं दिलाते हैं, तो उसे कभी एहसास नहीं होगा उसकी समस्या असल में कितनी गंभीर है। इससे उनके जीवन प्रवेश में रुकावट के साथ-साथ कलीसिया के काम पर भी बुरा असर पड़ेगा, यह परमेश्वर के साथ बेईमानी है क्योंकि हम भी भ्रष्टता में जीते हैं। मैं हमेशा अपनी इज़्ज़त और रुतबे पर ध्यान दिया करता था, परमेश्वर को सबसे आगे न रखकर यही सोचता रहता था कि दूसरे क्या सोचेंगे। मैं यह नहीं सोचता था कि सत्य के अनुरूप कैसे चलूँ या परमेश्वर की जांच-पड़ताल का सामना कैसे करूं। मैं अपनी भ्रष्टता से बंधा था—मैं कितना बड़ा बेवकूफ था। मैं अपनी भ्रष्टता को हावी नहीं होने दे सकता था, मैंने शैतान का कमज़ोर मसखरा बनने से इनकार कर दिया। मुझे धार्मिकता की समझ रखने वाला एक ईमानदार इंसान बनना था। इसे समझने के बाद, मैंने सत्य का अभ्यास करने और दैहिक इच्छाओं का त्याग करने का संकल्प लिया, दोनों भाइयों से बात करके उनके अहंकार और निरंतर मतभेद के सार का खुलासा करने और यह समझाने का फैसला किया कि कैसे इससे कलीसिया के काम में रुकावट आई है और इसे नुकसान पहुंचा है, जो सबसे ज़रूरी बात है।

अगले दिन जब मैंने उन्हें देखा और बात करने की कोशिश की, तो मुझे थोड़ी चिंता होने लगी। "अगर उन्होंने इसे नहीं माना और मुझ पर भड़क गए तो क्या होगा? फिर क्या मुँह दिखाऊँगा?" मुझे एहसास हुआ कि मेरा भ्रष्ट स्वभाव मुझे आगे बढ़ने से रोक रहा है, इसलिए मैंने परमेश्वर से सत्य का अभ्यास करने में मेरी मदद करने की विनती की। फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों पर विचार किया : "मेरी गवाहियों और हितों की रक्षा नहीं कर पाना विश्वासघात है। दिल में मुझसे दूर होते हुए भी झूठमूठ मुस्कुराना विश्वासघात है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1)')। तब जाकर मुझे समझ आया कि अगर मैं सत्य का अभ्यास या कलीसिया के काम की रक्षा न करके एक खुशामदी इंसान बना रहा, तो यह परमेश्वर से धोखा होगा। मैं जानता था कि मुझे अपने रिश्तों की परवाह छोड़नी होगी, जब मैंने उनकी समस्या के बारे में बोलने का फैसला कर लिया, तो अब चाहे वे जो भी सोचें, मुझे परमेश्वर का सामना करना होगा, सत्य का अभ्यास करके शैतान को शर्मिंदा करना होगा! और फिर, मैं उनके अहंकार और असहयोगी बर्ताव के साथ-साथ इन सभी चीज़ों के सार और परिणामों को उजागर कर पाया। मैंने परमेश्वर के वचन भी खोजे और उन्हें पढ़कर सुनाया। मुझे हैरानी हुई कि इसे सुनने के बाद उन्होंने परमेश्वर के वचनों की रोशनी में आत्मचिंतन किया और पश्चाताप करके खुद को बदलने के लिए तैयार हो गये। मैं यह देखकर बहुत खुश था कि उन्होंने खुद को जाना, मगर मुझमें अपराध-बोध भी था। अगर मैंने पहले सत्य का अभ्यास किया होता, तो वे अपनी समस्या की गंभीरता को समझकर चीज़ें जल्दी ठीक कर पाते। वे भ्रष्टता में जीते नहीं रहते,शैतान के हाथों का खिलौना बनकर नुकसान नहीं उठाते और परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं बनते। मैं दूसरों की गलतियों पर उनका ध्यान दिलाने से डरता था, सोचता था कहीं वे नाराज़ होकर मुझे नापसंद न करने लगें। मगर असल में, यह सब मेरे मन का वहम था। अगर कोई सत्य को स्वीकार कर सकता है, तो उसमें वैर-भाव पैदा नहीं होगा, वह इसे सही तरीके से समझकर सबक सीख पाएगा। यह सोच दूसरों के साथ ही हमारे लिये भी अच्छी है।

उसके बाद मुझमें सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान बनने का आत्मविश्वास और बढ़ गया। अब रुतबे और इज़्ज़त को बचाने की सोच मेरा रास्ता नहीं रोक पाती। अब मैं भाई-बहनों की समस्याओं को देखते ही फौरन संगति साझा करके उनकी मदद करने और समस्या का विश्लेषण करने के लिए तैयार रहता हूँ। हमारा कलीसिया जीवन भी बेहतर हुआ है। इन अनुभवों से, मैंने परमेश्वर के प्रेम और उद्धार को महसूस किया है। परमेश्वर ने मुझे शुद्ध करके बदलने के लिये ही इन पलों की व्यवस्था की थी, ताकि मैं अपने स्वार्थ से मुक्त हो सकूँ। मैंने महसूस किया कि सत्य का अभ्यास करने से सुकून और मन को शांति मिलती है, यह हमेशा पीछे मुड़कर देखने और हर पल अपराध बोध के साथ जीने से कहीं बेहतर है। यही इंसान की तरह जीने का सही तरीका है! मुझे यह भी एहसास हुआ कि केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। हम जो भी हैं और जो भी करते हैं, उसके लिए ये वचन हमें राह दिखा सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के आधार पर एक ईमानदार इंसान की जिंदगी जीना, नेक इंसान बनने का एकमात्र रास्ता है।

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