59. अपने कर्तव्य में सही दृष्टिकोण का महत्व

एला, फ़िलीपीन्स

अक्तूबर 2020 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। मैं सभाओं में सक्रिय रूप से भाग लेती और परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ पर संगति करती, और दो महीने बाद मैं एक सभा-समूह की अगुआ बन गई। मुझे याद है कि जब मैंने पहली बार सभा का संचालन किया था, तो मैं रोमांचित भी थी और घबराई हुई भी। मैं अपना कर्तव्य निभाने को लेकर जोश में थी, लेकिन घबराई इसलिए थी क्योंकि मुझे चिंता थी कि अगर मैंने सभा का संचालन अच्छी तरह नहीं किया, तो भाई-बहन मुझे नीची निगाह से देखेंगे। मैंने सोचा कि हमारी कलीसिया अगुआ सभाओं का संचालन बहुत अच्छी तरह करती है, अगर मैं उस तरह कर पाई, तो यकीनन मैं सभा अच्छी तरह संचालित कर पाऊंगी। तब कलीसिया अगुआ मेरी प्रशंसा करेंगी और भाई-बहन मेरा सम्मान करेंगे। इसलिए मैंने हमारी कलीसिया अगुआ की नकल कर सभा का संचालन किया। जब मैंने भाई-बहनों से सवाल पूछे, तो उन्होंने मुझसे सवाल-जवाब किये, और जब मैंने संगति की, तो उन्होंने “आमीन” कहकर सहमति जताई। सभा के बाद, कलीसिया अगुआ ने कहा कि मैंने सभा का संचालन अच्छी तरह किया। अगुआ की प्रशंसा सुनकर मुझे बहुत खुशी और गर्व हुआ। जल्दी ही, मुझे सिंचन-उपयाजक चुन लिया गया। मैं बहुत रोमांचित हुई, और सोचा कि मुझे इस पद के लिए इसलिए चुना गया क्योंकि मुझमें अच्छी काबिलियत है। पहले मुझे नहीं पता था कि यह काम कैसे करना है, लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि भाई-बहन मुझसे निराश हों। इसलिए, हर सभा में मैंने उन अहम बातों को खोजने पर ध्यान दिया, जिनकी परमेश्वर के वचनों में चर्चा हुई है। इस तरह मेरी संगति स्पष्ट होगी और उसमें मुख्य बिंदु शामिल होंगे, और भाई-बहन सोचेंगे कि मुझमें अच्छी समझ है, और वे सब मेरी प्रशंसा करेंगे। लेकिन अपनी संगति के बाद जब मैंने दूसरों की संगति सुनी, तो देखा कि मैंने जो कुछ भी बताया था वह उतना स्पष्ट नहीं था। मैं बहुत चिंतित हुई, और सोचा, “कोई भी यह नहीं सोचेगा कि मेरी संगति अच्छी है, और सभी का ध्यान उन दूसरे भाई-बहनों पर रहेगा जो मुझसे बेहतर संगति करते हैं।” मुझे डर लगा कि भाई-बहन मेरा सम्मान नहीं करेंगे, तो मैंने हमेशा बेहतर संगति करने की कोशिश की। लेकिन मैं खुद को इतनी शांत नहीं कर पाई कि परमेश्वर के वचनों पर चिंतन कर पाती। मैं जितनी अच्छी तरह संगति करना चाहती, वह उतनी ही खराब हो जाती। मैंने विचार किया, “भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? कलीसिया अगुआ मुझसे निराश तो नहीं हो जाएंगी? मेरी संगति दूसरों की संगति की तरह स्पष्ट क्यों नहीं होती? वे इतनी अच्छी संगति कैसे करते हैं, और मैं क्यों नहीं कर पाती?” मैं हार मानने को तैयार नहीं थी और मैंने सोचा कि मुझे उनसे ज्यादा कड़ी मेहनत कर उनसे आगे निकलना चाहिए।

कुछ महीने बाद, कलीसिया के काम की जरूरतों के कारण, मुझे सुसमाचार का प्रचार करने के लिए भेजा गया। वहाँ पहुँचकर मैंने पूछा कि समूह अगुआ कौन हैं और कलीसिया अगुआ कौन हैं। मैंने सोचा, अगर मैंने भरसक कोशिश की, तो मैं कलीसिया अगुआ की स्वीकृति पाकर शायद समूह-अगुआ बनाई जा सकूँ। इस तरह, भाई-बहन मेरा सम्मान करेंगे। सुसमाचार का प्रचार करते हुए जब मुझे कोई चीज समझ न आती या कोई काम नहीं कर पाती, तो मैं अक्सर प्रार्थना करती और परमेश्वर पर निर्भर रहती। कुछ समय बाद, मुझे अपने कर्तव्य निर्वहन में कुछ अच्छे नतीजे मिले, जिससे मुझे बहुत खुशी हुई। पर मुझे अपराध-बोध भी हुआ, क्योंकि मुझे पता था कि मेरा नजरिया गलत है। मैं सिर्फ इसलिए कड़ी मेहनत कर रही थी क्योंकि मैं दूसरों से सम्मान पाना चाहती थी, इसलिए नहीं कि मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहती थी। परमेश्वर मेरे मन को परख रहा था, और वह पक्के तौर पर मेरे अनुसरण से घृणा करता होगा। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की; मैं अपने गलत इरादे के विरुद्ध विद्रोह करने को तैयार थी। प्रार्थना करने के बाद मुझे थोड़ा बेहतर लगा। लेकिन मैं अभी भी अक्सर ऐसा करने की कोशिश करती थी, ताकि लोग मेरा सम्मान करें। जब मैं दूसरों को कर्तव्य में अच्छे नतीजे पाते देखती, तो उनसे आगे निकलना चाहती। मैं जानती थी कि इस तरह सोचना गलत है, लेकिन मैं खुद पर काबू नहीं पा सकी। मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए खुद को शांत नहीं कर पाई। मेरी हालत बद से बदतर होती गई और मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में बेअसर हो गई। इसलिए, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, और उससे खुद को जानने में मेरी मदद और मार्गदर्शन करने के लिए कहा।

एक दिन, मैंने एक अनुभवात्मक गवाही वीडियो में परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा, जिससे मुझे अपने बारे में थोड़ा ज्ञान मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधी आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य अनिच्छा से करते हैं। वे यह भी पूछते हैं कि क्या वे कर्तव्य करके खुद को प्रदर्शित करने और सम्मान पाने में सक्षम होंगे, और अगर वे इस कर्तव्य को करते हैं, तो क्या ऊपरवाले या परमेश्वर को इसका पता चलेगा। कर्तव्य करते समय वे इन्हीं सब चीजों पर विचार करते हैं। पहली चीज जो वे निश्चित कर लेना चाहते हैं, यह होती है कि कर्तव्य करने से उन्हें क्या-क्या लाभ मिल सकते हैं और क्या उन्हें आशीष मिल सकते हैं। यह उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है। वे इस बारे में कभी नहीं सोचते कि कैसे परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखा जाए और कैसे परमेश्वर के प्रेम को चुकाया जाए, सुसमाचार का प्रचार कर परमेश्वर की गवाही कैसे दी जाए ताकि लोग परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करें और उन्हें खुशी मिले; वे कभी सत्य समझने या अपने भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने का तरीका जानने और मानव के समान जीने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं करते। वे इन चीजों पर कभी विचार नहीं करते। वे केवल इस बारे में सोचते हैं कि उन्हें आशीष और लाभ मिल सकते हैं या नहीं, अपने पैर कैसे जमाएँ, रुतबा कैसे हासिल करें, कैसे लोगों से सम्मान पाया जाए, और कलीसिया में और भीड़ में कैसे सबसे अलग दिखा जाए और सर्वश्रेष्ठ बना जाए। वे साधारण अनुयायी बनने के इच्छुक बिल्कुल भी नहीं होते। वे कलीसिया में हमेशा अग्रणी होना चाहते हैं, अपनी चलाना चाहते हैं, अगुआ बनना चाहते हैं, और चाहते हैं कि सभी उनकी बात सुनें। तभी वे संतुष्ट हो सकते हैं। तुम लोग देख सकते हो कि मसीह-विरोधियों के दिल इन्हीं बातों से भरे होते हैं। क्या वे वास्तव में परमेश्वर के लिए खपते हैं? क्या वे वास्तव में सृजित प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य करते हैं? (नहीं।) तो फिर वे क्या करना चाहते हैं? (सत्ता पाना चाहते हैं।) सही कहा। वे कहते हैं, ‘जहाँ तक मेरी बात है, लौकिक दुनिया में मैं बाकी सभी से आगे निकलना चाहता हूँ। मुझे हर समूह में प्रथम होना है। मैं दूसरे स्थान पर रहने से इनकार करता हूँ, और मैं कभी भी पिछलग्गू नहीं बनूँगा। मैं अगुआ बनना चाहता हूँ और लोगों के जिस भी समूह में मैं रहूँ, उसमें अपनी चलाना चाहता हूँ। अगर आखिरी फैसला मेरा नहीं होगा, तो मैं तुम लोगों को मनाने का हर संभव तरीका आजमाऊँगा और पूरी कोशिश करूँगा कि तुम सब मेरा सम्मान करो और मुझे अगुआ चुनो। जब मेरे पास रुतबा होगा, तो मेरा निर्णय अंतिम होगा, सभी को मेरी बात सुननी होगी। तुम्हें मेरे तरीके से काम करना होगा और मेरे नियंत्रण में रहना होगा।’ मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य करें, वे खुद को ऊँचे स्थान पर यानी प्रमुखता के स्थान पर रखने की कोशिश करेंगे। वे एक साधारण अनुयायी के रूप में अपने स्थान से कभी संतुष्ट नहीं हो सकते। और उन्हें सबसे अधिक जूनून किस चीज का होता है? लोगों के सामने खड़े होकर उन्हें आदेश देने, उन्हें डाँटने, और लोगों से अपनी बात मनवाने का जूनून। वे इस बारे में सोचते तक नहीं कि अपना कर्तव्य ठीक तरह कैसे करें—इसे करते हुए सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य सिद्धांतों को खोजना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे विशिष्ट दिखने के तरीके खोजने के लिए दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं, ताकि अगुआ उनके बारे में अच्छा सोचें और उन्हें आगे बढ़ाएँ, ताकि वे खुद अगुआ या कार्यकर्ता बन सकें, और दूसरे लोगों की अगुआई कर सकें। वे सारा दिन यही सोचते और इसी की उम्मीद करते रहते हैं। मसीह-विरोधी नहीं चाहते कि दूसरे उनकी अगुआई करें, न ही वे सामान्य अनुयायी बनना चाहते हैं, चुपचाप और बिना किसी तमाशे के अपने कर्तव्य करते रहना तो दूर की बात है। उनका कर्तव्य जो भी हो, यदि वे महत्वपूर्ण स्थान पर और आकर्षण का केंद्र नहीं हो सकते, यदि वे दूसरों से ऊपर नहीं हो सकते, और दूसरे लोगों की अगुआई नहीं कर सकते, तो उन्हें अपना कर्तव्य करना उबाऊ लगने लगता है, और वे नकारात्मक हो जाते हैं और ढीले पड़ जाते हैं। दूसरों से प्रशंसा और आराधना पाए बिना उनके लिए अपना काम और भी कम दिलचस्प हो जाता है, और उनमें अपना कर्तव्य करने की इच्छा और भी कम हो जाती है। लेकिन अगर अपना कर्तव्य करते हुए वे महत्वपूर्ण स्थान पर और आकर्षण का केंद्र हो सकते हों और अपनी बात मनवा सकते हों, तो वे अपनी स्थिति को मजबूत महसूस करते हैं और कैसी भी कठिनाइयाँ झेल सकते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन में हमेशा उनके व्यक्तिगत इरादे होते हैं, और वे हमेशा दूसरों को पराजित करने और अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने की अपनी जरूरत पूरी करने के एक साधन के रूप में खुद को दूसरों से अलग दिखाना चाहते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैंने तुरंत अपने किए पर विचार किया। मुझे लगा, जैसे मेरे सभी विचार और कर्म उजागर हो गए हों। परमेश्वर के वचनों ने खुलासा किया कि मसीह-विरोधी कभी नहीं सोचते कि सत्य का अनुसरण कैसे करें या अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभाएँ। इसके बजाय, वे ऊंचा रुतबा पाने की कोशिश करते हैं और दूसरों की अगुआई करना करना चाहते हैं। वे दूसरों को खुद से ऊपर उठने नहीं देते, और वे परमेश्वर का विरोध करने के मार्ग पर चलते हैं। मैंने अपने उन सभी व्यवहारों के बारे में सोचा, जो मसीह-विरोधियों के समान थे : अपना कर्तव्य निभाना शुरू करते ही मैं चाहने लगी थी कि दूसरे सभी मेरी इज्जत करें। सभाओं का संचालन करने में मैंने कलीसिया अगुआ की नकल की। सभाओं के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों पर भरसक चिंतन किया, इस उम्मीद में कि स्पष्ट और व्यवस्थित तरीके से संगति कर सकूँ। मेरा इरादा सभाओं से अच्छे नतीजे हासिल करने का नहीं, बल्कि सभी को यह दिखाने का था कि मैं अच्छे और स्पष्ट तरीके से संगति करती हूँ। इसका मकसद भाई-बहनों की प्रशंसा पाना था। सुसमाचार का प्रचार करने जाने के बाद, मैंने यह नहीं सोचा कि परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य कैसे पूरा करूँ। इसके बजाय, मैंने पहले यह पूछा कि समूह अगुआ और कलीसिया अगुआ कौन हैं, इस उम्मीद से कि मेरे प्रयासों से मुझे समूह-अगुआ चुन लिया जाएगा। मैंने भाई-बहनों के सामने दिखावा करने की पूरी कोशिश की, और उनसे खुद की तुलना की। जब मैंने दूसरों को अपना कर्तव्य निभाकर अच्छे नतीजे पाते देखा, तो मुझे ईर्ष्या हुई, मैं हमेशा उनसे आगे निकलकर सबसे अच्छी बनना चाहती थी। मैंने जो कुछ भी किया, इज्जत और हैसियत पाने की खातिर किया, और यह सब अपनी प्रतिस्पर्धी इच्छा को संतुष्ट करने के प्रयासों के सिवा कुछ नहीं था। मेरे अनुसरण से परमेश्वर को घृणा कैसे नहीं होती? कोई भी कर्तव्य परमेश्वर का आदेश होता है, और यह ऐसा दायित्व और जिम्मेदारी है जो हमें पूरी करनी चाहिए, लेकिन मैंने इसे अपनी आजीविका की तरह लिया। मैंने अपने कर्तव्य का इस्तेमाल हैसियत पाने और लोगों से अपना सम्मान करवाने के लिए किया। अपने कर्तव्य निर्वहन में ऐसी गलत मंशा रखना परमेश्वर के इरादे के अनुरूप कैसे हो सकता है? इतनी भ्रष्ट होने पर मुझे खुद से नफरत हुई। मैं अब इस तरह नहीं जीना चाहती थी। मैं जल्द से जल्द बदलना चाहती थी।

कुछ दिनों बाद सुसमाचार फैलाने के लिए मेरा तबादला दूसरे समूह में कर दिया गया। पहले तो मैं केवल सुसमाचार-कार्य करने और अच्छी तरह कर्तव्य निभाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहती थी। मैंने देखा कि वहाँ भाई-बहन अपने कर्तव्य बहुत अच्छी तरह निभा रहे थे। सुसमाचार का प्रचार करते समय वे परमेश्वर के कार्य के सत्य पर बहुत स्पष्ट संगति करते थे, और सुसमाचार सुनने वाले कई सदस्य सत्य खोजने और उसकी जाँच करने के लिए तैयार हो जाते। जब मैंने सोचा कि कैसे मेरा प्रचार बेअसर और सत्य पर मेरी संगति अस्पष्ट रहती थी, तो मुझे लगा मैं बहुत निराशाजनक हूँ। उस वक्त मेरा अहंकार धीरे-धीरे कम हो गया। अब मेरी खुद को बहुत बड़ी समझने की हिम्मत नहीं हुई, और मैंने दूसरों से अपना सम्मान करवाना नहीं चाहा। पहले तो मुझे लगा कि मैंने कुछ बदलाव हासिल कर लिया है, लेकिन जब मैंने भाई-बहनों को अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाने पर प्रशंसा पाते देखा, तो मैं परदे के पीछे रहना नहीं चाहती थी। सुसमाचार का प्रचार करते वक्त मैंने व्यग्रतापूर्वक लोगों को प्रवचन सुनने के लिए आमंत्रित किया, पर यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि वे वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं या नहीं, सुसमाचार सुनने की अपेक्षाएँ पूरी करते हैं या नहीं। नतीजतन, मैं कुछ छद्म-विश्वासियों को प्रवचन सुनने के लिए आमंत्रित कर बैठी, और जल्दी ही वे सभा समूह छोड़कर चले गये। मैं बहुत दुखी हुई, और सोचा, “ऐसा क्यों हुआ? मैंने अपना कर्तव्य बेअसर तरीके से निभाया। भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे यह तो नहीं सोचेंगे कि मैं उनसे बदतर हूँ?” उन दिनों मैं बहुत नकारात्मक रहती थी और सभाओं के दौरान रोना चाहती थी, लेकिन परमेश्वर के वचनों का एक अंश मुझे हमेशा याद आता : “क्या तुम्हारे लक्ष्य और इरादे मुझे ध्यान में रखकर बनाए गए हैं? क्या तुम्हारे शब्द और कार्य मेरी उपस्थिति में कहे और किए गए हैं? मैं तुम्हारी सभी सोच और विचारों की जाँच करता हूँ। क्या तुम दोषी महसूस नहीं करते?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे याद दिलाया कि मुझे अधिक चिंतन और जाँच करनी चाहिए कि अपने कर्तव्य निर्वहन में मेरे इरादे गलत तो नहीं थे। चिंतन करने से मुझे एहसास हुआ कि मेरी पुरानी समस्या लौट आई है : मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर लोगों का ध्यान खींचना और अधिक सम्मान पाना चाहती हूँ। यह एहसास होने पर मैं बहुत व्याकुल हो उठी। रुतबे की मेरी इच्छा इतनी प्रबल और मेरी भ्रष्टता इतनी गहरी क्यों है? इससे भी बदतर यह कि मुझे इसका एहसास तक नहीं था। मुझे यह भी नहीं पता था कि मेरी हालत ठीक नहीं है।

एक बार, जब मैं एक बहन के साथ अपनी हालत पर चर्चा कर रही थी, तो उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा। उसे पढ़ने के बाद अंततः मुझे कुछ आत्मज्ञान मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जाकर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है कि लोग उन्हें सुनें, उनकी आराधना करें और उनके चारों ओर घूमें। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के दिलों में उनकी एक जगह हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें। उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिलों में एक जगह रखना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं आत्मचिंतन करने लगी। परमेश्वर कहता है, पौलुस को लोगों से अपनी आराधना करवाना और अपने चक्कर लगवाना पसंद था, उसे दूसरों के मन में अपनी हैसियत बनाये रखना पसंद था, उसकी बनाई छवि को जब दूसरे अहमियत देते, तो वह इसकी सराहना करता था। मैं भी चाहती थी कि भाई-बहन मेरा सम्मान करें। सभाओं में मैं दूसरों से बेहतर संगति करना चाहती थी। अपने कर्तव्य निर्वहन में, दूसरों को काम में बेहतर नतीजे हासिल करते देखकर मेरी प्रतिस्पर्धी प्रकृति उभर आती। मैं उनसे बेहतर करना और आगे निकल जाना चाहती थी। मैं जो कुछ भी कहती और करती, वह महत्वाकांक्षा और इच्छा से भरा होता था, और मेरा स्वभाव बहुत अहंकारी था। मेरा इरादा और व्यवहार पौलुस के समान ही था। पौलुस की प्रकृति घमंडी और अहंकारी थी। उसने परमेश्वर की आराधना नहीं की, दिखावा किया और हर जगह अपनी गवाही दी, उसने दूसरों से अपना सम्मान और आराधना करवाने की कोशिश की, और वह लोगों के मन में अपनी जगह बनाना चाहता था। मैं भी वैसी ही थी। मैंने जो भी कर्तव्य निभाया, जो कुछ भी किया, सब शोहरत और रुतबे के लिए था, परमेश्वर को संतुष्ट करने के इरादे से अपना कर्तव्य निभाने के लिए नहीं। अपने अनुसरण में, मैं परमेश्वर का विरोध कर रही थी और उससे निंदित होने लायक थी। इसकी वजह यह है कि रुतबे के पीछे भागने का उद्देश्य केवल प्रतिष्ठा या पदवी हासिल करना नहीं होता; उसका उद्देश्य लोगों के मन में जगह बनाना, दूसरों से अपनी आराधना करवाना होता है। जैसा कि परमेश्वर कहता है : “यह शैतान की विशेष छवि है।” यह वाकई बहुत भयानक है! दूसरों से सराहना पाने के लिए, मैंने अपने कर्तव्य निर्वहन में झटपट सफलता पाने की कोशिश की और सिद्धांतों के बिना सुसमाचार का प्रचार किया, जिससे कुछ छद्म-विश्वासी सभा समूह में आ गए और सुसमाचार-कर्मियों का समय और ऊर्जा बरबाद की। अगर फिर वे लोग कलीसिया में प्रवेश कर जाते, तो हालात बदतर हो सकते थे, और वे कलीसिया का कार्य बाधित कर सकते थे। इस समस्या का सार बेहद गंभीर था! अगर मैंने पश्चाताप कर खुद को नहीं बदला, तो परमेश्वर यकीनन मुझसे घृणा करेगा, इसलिए मैं अब रुतबे के पीछे भागना और दूसरों की सराहना पाना नहीं चाहती थी।

अगली सभाओं में, मैंने भाई-बहनों की संगति ध्यान से सुनी और देखा कि सभी अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभा रहे हैं। एक बहन थी, जिसके अनुभव ने खास तौर पर मेरे दिल को छू लिया। उसने संगति करते हुए कहा कि कैसे उसने अपने कर्तव्य निर्वहन में कठिनाइयों को दूर करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा किया और कैसे उसने सुसमाचार का प्रचार किया। यह सुनकर मैंने खुद से पूछा, “क्या मैं अपने कर्तव्य को गंभीरता से लेती हूँ? क्या मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास कर रही हूँ? अन्य सभी के पास विभिन्न परिवेशों में सत्य का अभ्यास करने का वास्तविक अनुभव और गवाही है। मेरे पास ये क्यों नहीं हैं? मेरा इरादा अपना कर्तव्य ठीक से निभाने का क्यों नहीं है?” मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ। मैंने अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक नहीं निभाया। ठीक से काम करने के बजाय मैंने दिलोजान से लोगों की प्रशंसा पाने की कोशिश की। मैं वाकई कोई भी कर्तव्य सौंपे जाने लायक नहीं हूँ। उस दौरान मैंने गंभीरता से आत्मचिंतन किया, और मुझे पतरस का अनुभव याद आया। पतरस ने कभी दिखावा नहीं किया, न ही दूसरों की सराहना पाने की कोशिश की। उसने हर चीज में सत्य की खोज करने, अपनी भ्रष्टता पर मनन कर उसे समझने, और अपना जीवन-स्वभाव बदलने की कोशिश पर ध्यान केंद्रित किया। वह परमेश्वर में विश्वास के एक सफल मार्ग पर चला। मैं भी स्वभाव में बदलाव लाना चाहती थी, इसलिए मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना कर खुद को जानने में राह दिखाने की विनती करती। जब भी मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में लोगों से सराहना करवाना चाहती, मैं सजगता से अपनी गलत मंशा के विरुद्ध विद्रोह कर देती। मैं जल्द से जल्द अपने भ्रष्ट स्वभाव से बचकर अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहती थी।

एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अभ्यास का एक मार्ग पाया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर परमेश्वर ने तुम्हें मूर्ख बनाया है, तो तुम्हारी मूर्खता अर्थवान है; अगर उसने तुम्हें तेज दिमाग का बनाया है, तो तुम्हारे में तेज होना अर्थवान है। परमेश्वर तुम्हें जो भी प्रतिभा दे, तुम्हारे जो भी ताकत हो, चाहे तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कितनी भी ऊँची हो, उन सभी का परमेश्वर के लिए एक उद्देश्य है। ये सब बातें परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं। अपने जीवन में तुम जो भूमिका और कर्तव्य निभाते हो—उन्‍हें परमेश्वर ने बहुत पहले ही नियत कर दिया था। कुछ लोग देखते हैं कि दूसरों के पास ऐसी क्षमताएँ हैं जो उनके पास नहीं हैं और असंतुष्ट रहते हैं। वे अधिक सीखकर, अधिक देखकर, और अधिक मेहनती होकर चीजों को बदलना चाहते हैं। लेकिन उनकी मेहनत जो कुछ हासिल कर सकती है, उसकी एक सीमा है, और वे प्रतिभा और विशेषज्ञता वाले लोगों से आगे नहीं निकल सकते। तुम चाहे जितना भी लड़ो, वह व्‍यर्थ है। परमेश्वर ने तय किया हुआ है कि तुम क्या होगे, और उसे बदलने के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। तुम जिस भी चीज में अच्छे हो, तुम्हें उसी में प्रयास करना चाहिए। तुम जिस भी कर्तव्य के उपयुक्त हो, तुम्‍हें उसी कर्तव्य को करना चाहिए। अपने कौशल से बाहर के क्षेत्रों में खुद को विवश करने का प्रयास न करो और दूसरों से ईर्ष्या मत करो। सबका अपना कार्य है। हमेशा दूसरे लोगों का स्थान लेने या आत्म-प्रदर्शन करने की इच्छा रखते हुए यह मत सोचो कि तुम सब-कुछ अच्छी तरह कर सकते हो, या तुम दूसरों से अधिक परिपूर्ण या बेहतर हो। यह भ्रष्ट स्वभाव है। ऐसे लोग भी हैं जो सोचते हैं कि वे कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते, और उनके पास बिल्कुल भी कौशल नहीं है। अगर ऐसी बात है तो तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो शालीनता से सुने और समर्पण करे। तुम जो कर सकते हो, उसे अच्छे से, अपनी पूरी ताकत से करो। इतना पर्याप्त है। परमेश्वर संतुष्ट होगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुई। मैं समझ गई कि मैं इसलिए इतनी थकी और इतनी पीड़ा से गुजरी, क्योंकि मैंने अपनी ऊर्जा अपने कर्तव्य निर्वहन में नहीं लगाई। बल्कि मैंने अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल शोहरत और हैसियत पाने के लिए किया। किसी की काबिलियत अधिक है या कम, उसकी प्रतिभाएं और खूबियां कैसी होंगी, वे कौन सा काम कर सकते हैं, सभी परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित हैं। परमेश्वर यही चाहता है कि हम अपनी योग्यताकी सीमाओं में रहकर सबसे अच्छा कार्य करें। वह हमसे भीड़ से अलग दिखने और दूसरों से श्रेष्ठ बनने की कोशिश करने के लिए नहीं कहता। मेरे पैदा होने से पहले ही परमेश्वर ने मेरे लिए सब-कुछ व्यवस्थित कर दिया था। परमेश्वर ने मेरी काबिलियत, प्रतिभाएं और खूबियां, वे कर्तव्य जिनके निर्वहन के लिए मैं उपयुक्त रहूँगी, और बाकी सब-कुछ पहले ही तय कर दिया था। मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना था, अपनी जगह बनाए रखनी थी, अपनी क्षमताओं का इस्तेमाल व्यावहारिक तरीके से करना था, अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना था। ध्यान से सोचने पर मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास कोई विशेष कौशल नहीं है, इसलिए मुझे सिर्फ परमेश्वर के वचन सुनने की जरूरत है : “तुम्हें एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो शालीनता से सुने और समर्पण करे। तुम जो कर सकते हो, उसे अच्छे से, अपनी पूरी ताकत से करो। इतना पर्याप्त है। परमेश्वर संतुष्ट होगा।” मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने और ईमानदारी से अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार थी।

मैंने एक बहन को अपना कर्तव्य बखूबी निभाते देखा। मैं बहुत ईर्ष्या और जलन हुई। मैंने सोचा, “वह यह सब कैसे करती है?” मुझमें फिर उससे आगे निकलने की ललक उठी, लेकिन मैं जान गई कि मैं अपनी भ्रष्टता उजागर कर रही हूँ, तो मैंने अपनी इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की। प्रार्थना करने के बाद मैंने सोचा, “हम सबके पास करके को अलग-अलग काम हैं, वैसे ही जैसे मशीन के अलग-अलग पुर्जे होते हैं, और हर पुर्जे का एक अलग काम होता है। उस बहन की अपनी खूबियाँ हैं और वह अपने कर्तव्य निर्वहन में अच्छे नतीजे हासिल करती है। यह एक अच्छी बात है। मुझे उससे अपनी तुलना करने के बजाय उससे सीखना चाहिए।” इसके बाद, जब भी उस बहन ने कर्तव्य निभाने के अपने मार्ग और उपलब्धियों के बारे में संगति की, मैंने ध्यान से सुना और नोट्स लिए। मैं सुसमाचार-कार्य में अनुभव के लिए दूसरे भाई-बहनों की मदद भी लेती। सभाओं के दौरान, मैं खुद को शांत रखती और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करती, उसके वचनों के बारे में अपनी समझ पर संगति करती, और अब दूसरों की सराहना पाने का प्रयास न करती। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया, तो शोहरत और रुतबे की मेरी इच्छा धीरे-धीरे कम हो गई। मुझे पहले की तरह ईर्ष्या महसूस नहीं हुई, मैंने कहीं अधिक राहत और आजादी महसूस की।

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