32. सत्य के प्रति सच्चे रहो, स्नेह के लिए नहीं

जियामिंग, चीन

जुलाई 2017 में एक दिन मुझे अपने कलीसिया अगुआ से एक पत्र मिला जिसमें कहा गया था कि कलीसिया छद्म-विश्वासियों की छंटनी कर रही है और मुझे मेरे भाई के व्यवहार का मूल्यांकन लिखना है। मुझे हैरानी हुई और थोड़ी घबराहट भी हुई। क्या कलीसिया मेरे भाई को निकालने वाली है? वरना वे मुझसे उसके व्यवहार के बारे में क्यों लिखवाते? मुझे पता था कि वह अपने खाली समय में परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ता है या सभाओं में शामिल नहीं होता है, बल्कि हमेशा अपने दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करता है, सांसारिक रुझानों का अनुसरण करता है और आस्था के मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता है। उसने मुझसे यहाँ तक कहा था कि मैं भी आस्था पर इतना ध्यान न दूँ, बल्कि उसकी तरह और ज्यादा दुनिया देखूँ। मैंने उसके साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति करने की कोशिश की, लेकिन वह सुनने को तैयार नहीं था और यहाँ तक कि नाराज होकर बोला, “बस, बहुत हो गया! मुझे यह सब मत बताओ। मुझे परवाह नहीं है!” फिर वह बस सोने चला गया। भाई-बहनों ने कई बार उसके साथ संगति करने की पेशकश की, उसे परमेश्वर के वचन पढ़ने और सभाओं में जाने की सलाह दी, लेकिन वह नहीं माना। उसने कहा कि परमेश्वर में विश्वास करना बहुत प्रतिबंधात्मक है, उसे हमेशा सभाओं में भाग लेने के लिए समय निकालना पड़ता है और वह कलीसिया में शामिल भी नहीं होना चाहता था—उसने सिर्फ हमारी माँ को खुश करने के लिए ऐसा किया था। वह हमेशा से ऐसा ही था। इससे पता लगता है कि वह वाकई छद्म-विश्वासी है और अगर उसे कलीसिया से निकाला जाता है तो यह सिद्धांतों के अनुरूप होगा। लेकिन हम हमेशा से करीब रहे हैं। जब हम छोटे थे तो वह हमेशा मेरे लिए कुछ अच्छा खाने के लिए बचाकर रखता था और लोग जो भी पैसे उसे देते थे, उसका आधा हिस्सा वह मुझे दे देता था। एक बार एक शिक्षक ने मुझे स्कूल के बाद वहीं रुके रहने की सजा दी और मेरा भाई इतना परेशान हो गया कि वह रोने लगा। हमारे गाँव में ज्यादातर भाइयों में हमारे जितना लगाव नहीं था। यह सब सोचकर मैं उसकी समस्याओं के बारे में लिखने की हिम्मत नहीं कर पाया; मैं हमारे रिश्ते को तोड़ना नहीं चाहता था। अगर मैं उसके व्यवहार के बारे में ईमानदारी दिखाऊँ और कलीसिया उसे निकाल दे तो उसके पास उद्धार पाने का कोई मौका नहीं बचेगा ना? क्या यह मेरी क्रूरता और हृदयहीनता नहीं होगी? मैंने उसके बारे में क्या लिखा है, यह उसे पता चल गया और उसने मुझसे फिर कभी बात नहीं की तो? मैंने कुछ सकारात्मक लिखने का फैसला किया, कहा कि वह कभी-कभी परमेश्वर के वचन पढ़ता है और भले ही वह सभाओं में नहीं जाता, फिर भी अपने दिल में परमेश्वर पर विश्वास करता है। इससे उसे कुछ छूट मिल जाएगी। जब अगुआ इसे पढ़ेगी तो शायद वह उसके साथ और संगति करेगी और शायद उसे निकाला नहीं जाएगा। दूसरी तरफ अगर मैं उसके व्यवहार के बारे में ईमानदार नहीं रहता हूँ तो यह झूठ बोलना और सच छिपाना होगा। इससे हमारे भाई-बहन गुमराह होंगे और कलीसिया का काम बाधित होगा। एक तरफ कलीसिया का काम था और दूसरी तरफ मेरा भाई। समझ नहीं पा रहा था कि किसे चुनूँ। मैं वाकई परेशान था और शांत होकर अपना कर्तव्य नहीं निभा पा रहा था। कागज पर कलम चलाने और उसके व्यवहार के बारे में लिखने के विचार से मेरा दिमाग खाली हो गया था; मुझे समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ से शुरू करूँ। जितना मैंने इसके बारे में सोचा, मैं उतना ही मैं खो गया, इसलिए मैंने शांति से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अपने भाई के मूल्यांकन में निष्पक्ष रहना चाहता हूँ, लेकिन मैं स्नेह से बेबस हूँ, इसलिए मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो कि मेरा नजरिया स्नेह के वश में न रहे, बल्कि तुम्हारे वचन का अनुसरण करे।”

प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “जो अपने सर्वथा अविश्वासी बच्चों और रिश्तेदारों को खींचकर कलीसिया में लाते हैं, वे बेहद स्वार्थी हैं और सिर्फ़ अपनी दयालुता का प्रदर्शन कर रहे हैं। ये लोग इसकी परवाह किए बिना कि उनका विश्वास है भी या नहीं और यह परमेश्वर का इरादा है या नहीं, केवल प्रेमपूर्ण बने रहने पर ध्यान देते हैं। कुछ लोग अपनी पत्नी को परमेश्वर के सामने लाते हैं या अपने माता-पिता को परमेश्वर के सामने खींचकर लाते हैं और इसकी परवाह किए बिना कि क्या पवित्र आत्मा सहमत है या उनमें कार्य कर रहा है, वे आँखें बंद कर परमेश्वर के लिए ‘प्रतिभाशाली लोगों को अपनाते रहते हैं’। इन गैर-विश्वासियों के प्रति दयालुता दिखाने से आखिर क्या लाभ मिल सकता है? यहाँ तक कि अगर वे जिनमें पवित्र आत्मा उपस्थित नहीं है, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए संघर्ष भी करते हैं, तब भी उन्हें बचाया नहीं जा सकता। जो लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, उनके लिए वास्तव में इसे प्राप्त करना उतना आसान नहीं है। जो लोग पवित्र आत्मा के कार्य और परीक्षणों से नहीं गुज़रे हैं और देहधारी परमेश्वर के द्वारा पूर्ण नहीं बनाए गए हैं, वे पूर्ण बनाए जाने में सर्वथा असमर्थ हैं। इसलिए जिस क्षण से वे नाममात्र के लिए परमेश्वर का अनुसरण आरंभ करते हैं, उन लोगों में पवित्र आत्मा मौजूद नहीं होता। उनकी स्थिति और वास्तविक अवस्थाओं के प्रकाश में, उन्हें पूर्ण बनाया ही नहीं जा सकता। इसलिए, पवित्र आत्मा उन पर अधिक ऊर्जा व्यय न करने का निर्णय लेता है, न ही वह उन्हें किसी प्रकार का प्रबोधन प्रदान करता है, न उनका मार्गदर्शन करता है; वह उन्हें केवल साथ चलने की अनुमति देता है और अंततः उनके परिणाम प्रकट करेगा—यही पर्याप्त है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे समझ आया कि अपने भाई के बारे में अच्छी बातें कहना उसे कलीसिया में बनाए रखना और उद्धार का मौका देना मेरी अपनी इच्छा थी। परमेश्वर के वचन हमें बहुत स्पष्टता से बताते हैं कि जो लोग असलियत में परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, लेकिन सिर्फ नाम के लिए उस पर विश्वास करते हैं, उन्हें बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर सिर्फ उन लोगों को बचाता है जो सत्य से प्रेम करते हैं और उसे स्वीकारते हैं। सिर्फ ऐसा ही व्यक्ति पवित्र आत्मा की उपस्थिति और कार्य पा सकता है, सत्य समझ और हासिल कर सकता है और अंततः परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है और आपदाओं से बच सकता है। सार यह है कि छद्म-विश्वासी सत्य से विमुख होते हैं। वे कभी भी सत्य स्वीकार नहीं सकते और चाहे वे कितने भी समय तक विश्वास करें, उनका नजरिया, जीवन के प्रति रवैया और मूल्य कभी नहीं बदलते। वे बिल्कुल अविश्वासियों की तरह होते हैं। परमेश्वर उन्हें नहीं स्वीकारता और वे कभी भी पवित्र आत्मा का प्रबोधन या मार्गदर्शन नहीं पाएँगे। वे अंत तक अनुसरण कर सकते हैं, लेकिन वे अपना जीवन स्वभाव कभी नहीं बदलेंगे—उन्हें बचाया नहीं जा सकता। जहाँ तक मेरे भाई के व्यवहार की बात है, उसे सत्य से प्रेम नहीं था, वह इससे विमुख था। उसने अपने मूल्यों को एक छद्म-विश्वासी की तरह सांसारिक सुखों में रखा, न कि परमेश्वर के वचन पढ़ने या सभाओं में जाने में और अपना कर्तव्य निभाने में तो कतई नहीं। वह अक्सर यह भी कहता था, “परमेश्वर में विश्वास करना व्यर्थ है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम विश्वास करते हो या नहीं।” वह किसी की संगति नहीं सुनता था और बहुत ज्यादा संगति उसे परेशान करती थी। मेरे भाई के पूरे व्यवहार को देखें तो वह छद्म-विश्वासी है और परमेश्वर उसे बिल्कुल भी नहीं स्वीकारेगा। वह कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य नहीं पाएगा या सत्य नहीं समझेगा। चाहे मैं उसे कलीसिया में रखने के लिए उसके बारे में कितना भी अच्छा लिखूं, उसे कभी बचाया नहीं जाएगा। चूँकि इस बिंदु पर मैंने पहले ही तय कर लिया था कि वह छद्म-विश्वासी है, अगर मैं स्नेह में फंस गया और उसे कलीसिया में बनाए रखने के लिए उसका बचाव किया तो क्या मैं सिद्धांतों का साफ उल्लंघन नहीं करूँगा? अगर मैंने तथ्यों के आधार पर अपने भाई का निष्पक्ष और सटीक मूल्यांकन नहीं लिखा, लेकिन इसके बजाय अपने भाई-बहनों को गुमराह किया ताकि किसी ऐसे व्यक्ति को कलीसिया में रखा जाए जिसे शुद्ध करना चाहिए तो क्या इससे कलीसिया का काम बाधित नहीं होगा? यह समझते हुए कि इसके नतीजे कितने गंभीर होंगे, मैं जान गया कि मुझे अपना स्नेह त्यागना होगा, सिद्धांतों का पालन करना होगा और कलीसिया को अपने भाई के बारे में सटीक जानकारी देनी होगी—सिर्फ यही परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होगा। यह समझकर मैंने अपने भाई का मूल्यांकन लिखा और उसे अगुआ को सौंप दिया, मुझे एहसास हुआ कि मैंने आखिरकार सही काम किया है। आखिरकार सिद्धांतों के अनुसार कलीसिया ने उसे बाहर निकाल दिया और मैं उस नतीजे को शांति से स्वीकार पाया। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के कारण मैंने अपने स्नेह के अनुसार कार्य नहीं किया और अपने भाई का बचाव नहीं किया, बल्कि निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीके से उसका मूल्यांकन किया। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी था।

फिर जुलाई 2021 में कलीसिया अगुआ ने मुझे मेरी माँ का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा। मैंने सोचा कि कैसे वह हाल ही में सिद्धांतों के अनुसार सुसमाचार साझा नहीं कर रही थी, जिसके कारण कुछ भाई-बहनों को लगभग गिरफ्तार ही कर लिया गया। जब दूसरों ने उसकी समस्या बताई तो उसने इसे भी नहीं स्वीकारा, बल्कि इस बात पर अंतहीन बहस की कि दरअसल हुआ क्या था। उसके बाद भाई-बहनों ने उसका कोई भी मुद्दा उठाने की हिम्मत नहीं की। दरअसल यह पहली या दूसरी बार नहीं था जब मेरी माँ ने परेशानी खड़ी की थी। एक बार एक सभा के दौरान एक अगुआ ने मेरी माँ के बजाय एक अन्य बहन को परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए कहा। मेरी माँ ने कहना शुरू कर दिया कि अगुआ उसे दबा रहा है और वह झूठा अगुआ है। एक बहन ने देखा कि वह कितनी ऊँची आवाज में बोल रही है और उसे अपनी आवाज धीमी रखने और माहौल के प्रति सचेत रहने को कहा। मेरी माँ ने बहन पर सिर्फ उसमें कमियाँ निकालने की कोशिश करने का आरोप लगाया और उसे अगली बार वापस न आने को कहा। वह हर छोटी-छोटी बात पर झगड़ती रहती थी और सभाओं में उपद्रव मचाती थी। वह कलीसियाई जीवन में व्यवधान बन गई थी। भाई-बहनों ने उसके साथ संगति की और कई बार उसकी काट-छाँट की, इस उम्मीद में कि वह आत्म-चिंतन और पश्चात्ताप करेगी, लेकिन उसने इसे नहीं स्वीकारा। उसने तथ्यों को भी तोड़-मरोड़ कर पेश किया, कहा कि उसने बस एक छोटी-सी बात गलत बात कही है और लोग इसे बहुत बड़ा मुद्दा बना रहे हैं। उसने सत्य नहीं स्वीकारा। सिद्धांतों के अनुसार ऐसे व्यवहार वाले व्यक्ति को आत्म-चिंतन के लिए अलग-थलग कर देना चाहिए ताकि वह भाई-बहनों की सभाओं में व्यवधान न डाले और उन्हें प्रभावित न करे। मुझे पता था कि मुझे कलीसिया के लिए उसके व्यवहार के बारे में जल्द से जल्द सटीकता से लिखना चाहिए, लेकिन फिर मैंने सोचा कि उसे अपनी प्रतिष्ठा खोने से कितनी नफरत है और उसका गुस्सा कितना विस्फोटक है। उसकी आदत थी आलोचना करने वाले किसी भी व्यक्ति की अनदेखा करना। अगर उसे पता लगेगा कि मैंने उसके मुद्दों के बारे में लिखा है तो क्या वह इसे बर्दाश्त कर पाएगी? क्या यह उसके लिए अपमानजनक नहीं होगा अगर उसे पता चले कि मैंने उसके बारे में ये बातें कही हैं? क्या वह नकारात्मक हो जाएगी और अपनी आस्था छोड़ देगी? जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही अधिक परेशान होता गया और सोचता रहा कि वह पहले मुझे कितना प्यार करती थी और कैसे मेरा ख्याल रखती थी। एक बार बचपन में जब मुझे आधी रात को तेज बुखार आया था तो वह मुझे अपनी पीठ पर लादकर पड़ोस के गाँव में डॉक्टर के पास ले गई थी। मेरा बुखार इतना तेज था कि डॉक्टर भी मुझे देखकर डर गया था, इसलिए उसी रात मेरी माँ मुझे और भी दूर शहर के अस्पताल ले गई। उसने हमेशा मेरे जीवन में हर चीज में मेरी मदद की, हर छोटी-छोटी बात का ध्यान रखा। उसने मुझे जन्म दिया और मेरा पालन-पोषण किया, मेरे साथ सुसमाचार साझा किया, मुझे परमेश्वर के सामने लाई और मेरे कर्तव्य में मेरा साथ दिया। वह मेरे लिए बहुत अच्छी थी—अगर मैं उसे उजागर करूँगा तो क्या यह निष्ठुरता नहीं होगी? क्या यह उसके लिए दुखदायी नहीं होगा? अगर दूसरों को पता चला कि मैंने खुद कलीसियाई जीवन में उसके व्यवधान को उजागर किया है तो क्या वे मेरी अपनी ही माँ के प्रति बहुत निर्दयी और कठोर होने के लिए मेरी आलोचना करेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं एक कृतघ्न और घटिया बेटा हूँ? मुझे पता था कि मेरी माँ सत्य नहीं स्वीकारती है, लेकिन वह मेरी बहुत परवाह करती थी। आखिरकार वह मेरी अपनी माँ है। इसलिए भले ही अगुआ मुझ पर मूल्यांकन लिखने के लिए दबाव डालता रहा, मैं इसे टालता रहा। पहले हम विश्वासियों का परिवार थे। हम भजन गाते थे और साथ में प्रार्थना करते थे, परमेश्वर के वचन पढ़ते थे और अपनी भावनाओं के बारे में बात करते थे। यह बहुत खुशी का समय था और कभी-कभी वे यादें मेरे दिमाग में उभर आती हैं। लेकिन अब मेरे भाई को निकाल दिया गया था और आत्म-चिंतन करने के लिए मेरी माँ को शायद अलग-थलग कर दिया जाएगा। मैं दुखी था और नहीं जानता था कि ऐसी स्थिति का सामना कैसे करूँ। मैं अपना कर्तव्य निभाने के मूड में नहीं था और मुझे इस बोझ का एहसास नहीं था कि मुझे अपने भाई-बहनों की समस्याओं में मदद करने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। मैं यंत्रवत ढंग से सभाओं में भाग लेता था, खोया रहता था और किसी भी विषय पर संगति नहीं कर पाता था। मैं भ्रम में दिन काट रहा था, कष्ट सह रहा था। मुझे पता था कि मेरी अवस्था ठीक नहीं है। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, उससे मुझे नकारात्मकता से बाहर निकालने के लिए मार्गदर्शन करने के लिए कहा ताकि मैं स्नेह से बेबस न हो जाऊँ।

बाद में मैंने परमेश्वर का वचन पढ़े : “कौन से मसले भावनाओं से संबंधित हैं? पहला यह है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन कैसे करते हो और उनके कार्यकलापों को कैसे देखते हो। यहाँ ‘उनके कार्यकलापों’ में कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालना, पीठ पीछे लोगों की आलोचना करना, छद्म-विश्वासियों जैसी कुछ कार्य-पद्यतियाँ अपनाना, इत्यादि स्वाभाविक रूप से शामिल हैं। क्या तुम इन चीजों को निष्पक्ष रूप से देख सकते हो? जब तुम्हारे लिए अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन लिखना आवश्यक हो तो क्या तुम अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर वस्तुपरक और निष्पक्ष रूप से ऐसा कर सकते हो? इसका संबंध इस बात से है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों के प्रति कैसा रवैया रखते हो। इसके अलावा, क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जिनके साथ तुम्हारी निभती है या जिन्होंने तुम्हारी पहले कभी मदद की है? क्या तुम उनके कार्यकलापों और आचरण को वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और सटीक तरीके से देख पाते हो? अगर वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा करते हैं और बाधा डालते हैं तो क्या तुम इसके बारे में पता चलने के बाद तुरंत रिपोर्ट कर पाओगे या उन्हें उजागर कर सकोगे?(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। “उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे रिश्तेदार या माता-पिता परमेश्वर के विश्वासी हैं और उन्हें बुरे कर्म करने, रुकावटें पैदा करने या सत्य को जरा भी न स्वीकारने के कारण निकाल दिया जाता है। लेकिन तुम्हें उनकी पहचान नहीं है, तुम नहीं जानते कि उन्हें क्यों निकाला गया है, तुम बेहद परेशान हो जाते हो और हमेशा यह शिकायत करते हो कि परमेश्वर के घर में प्रेम नहीं है और यह लोगों के प्रति निष्पक्ष नहीं है। ऐसे में तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करके सत्य खोजना चाहिए, फिर परमेश्वर के वचनों के आधार पर यह मूल्यांकन करना चाहिए कि ये रिश्तेदार किस तरह के लोग हैं। अगर तुम वाकई सत्य को समझते हो, तो तुम उन्हें सटीक रूप से परिभाषित कर लोगे और देखोगे कि परमेश्वर जो भी करता है वह सही होता है, और वह धार्मिक परमेश्वर है। फिर तुम्हें कोई शिकायत नहीं रहेगी, तुम परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सकोगे, और अपने रिश्तेदारों या माता-पिता का बचाव करने की कोशिश नहीं करोगे। यहाँ मुख्य बात अपनी रिश्तेदारी खत्म करना नहीं है, बल्कि सिर्फ यह परिभाषित करना है कि वे किस तरह के लोग हैं, और तुम्हें इस तरह का बनाना है कि तुम उनके प्रति विवेकवान हो जाओ, और जान सको कि उन्हें क्यों निकाला गया है। अगर ये चीजें तुम्हारे दिल में बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं, और तुम्हारे दृष्टिकोण सही और सत्य के अनुरूप होते हैं, तो तुम परमेश्वर की तरफ खड़े होने में सक्षम होगे, और इस मामले में तुम्हारे दृष्टिकोण पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों से मेल खाएंगे। अगर तुम सत्य को स्वीकारने में सक्षम नहीं हो या लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं देखते हो, और लोगों को देखने में अभी भी दैहिक संबंधों और परिप्रेक्ष्यों को अहमियत देते हो, तो तुम इस दैहिक संबंध के बंधन से कभी नहीं निकल पाओगे, और अभी भी इन लोगों को अपने रिश्तेदार मानोगे—यहाँ तक कि उन्हें कलीसिया के अपने भाई-बहनों से भी अधिक करीब मानोगे, ऐसे में इस मामले में परमेश्वर के वचनों और अपने परिवार के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण में विरोधाभास होगा—यहाँ तक कि टकराव भी होगा, और ऐसी परिस्थिति में तुम्हारे लिए परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना नामुमकिन हो जाएगा और तुम्हारे मन में उसके प्रति धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा हो जाएँगी। इस प्रकार, अगर लोगों को परमेश्वर के साथ सुसंगत होना है, तो सबसे पहले मामलों को लेकर उनके दृष्टिकोण परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होने चाहिए; उन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर लोगों और चीजों को देखने में सक्षम होना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को सत्य मानना चाहिए, और मनुष्य की पारंपरिक धारणाओं को दरकिनार करने में सक्षम होना चाहिए। तुम चाहे किसी भी व्यक्ति या मामले का सामना करो, तुम अपने दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य परमेश्वर के समान बनाए रखने में सक्षम होगे, और तुम्हारे दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य सत्य के साथ समन्वय में होंगे। इस तरह, तुम्हारे दृष्टिकोण और लोगों के प्रति तुम्हारा रवैया, परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं होगा, तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर पाओगे और परमेश्वर के साथ सुसंगत होगे। ऐसे लोग संभवतः कभी भी परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर सकते; यही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर पाना चाहता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पौलुस के प्रकृति सार को कैसे पहचानें)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि हम भावनात्मक नजरिए से चीजों या लोगों का आकलन नहीं कर सकते। किसी का प्रकृति सार और यह पहचानने के लिए कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है हमें परमेश्वर के वचनों के सत्य का पालन करना चाहिए। किसी का मूल्यांकन करने का यह उचित तरीका है, जिससे सुनिश्चित होता है कि हम स्नेह के शिकार नहीं होंगे। मैं हमेशा अपनी माँ की स्थिति का भावनात्मक नजरिए से विश्लेषण करता था, सोचता था कि उसने मुझे कैसे जन्म दिया और वह मुझसे कैसे प्यार करती थी और मेरा ख्याल रखती थी। इससे मेरे लिए कलम उठाना और सच्चा मूल्यांकन लिखना बहुत मुश्किल हो गया। लेकिन परमेश्वर कहता है कि हमें लोगों के प्रकृति सार के आधार पर उन्हें पहचानने की जरूरत है; उनके प्रकृति सार को पहचानना खुद को स्नेह से मुक्त करने और उनके साथ निष्पक्ष और सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने का एकमात्र तरीका है। मेरी माँ दरअसल किस तरह की इंसान है? अपने दैनिक जीवन में वह उत्साही थी और दूसरों का ख्याल रखती थी, लेकिन इसका मतलब सिर्फ इतना था कि वह सहृदय है। वह मेरा बहुत ख्याल रखती थी, लेकिन इसका मतलब सिर्फ इतना थी कि उसने माँ की जिम्मेदारी निभाई है। लेकिन प्रकृति से वह घमंडी थी और सत्य नहीं स्वीकारती थी। वह उन सभी लोगों के प्रति आलोचनात्मक और प्रतिरोधी हो जाती थी जो उसकी समस्याएँ बताते थे या उसकी काट-छाँट करते थे और इसे लेकर मुंह फुला लेती थी। जब हालात खराब होते तो वह दूसरों के साथ झगड़ती और उन्हें बेहद परेशान कर देती, जिससे दूसरे बेबस हो जाते। अपने व्यवहार के आधार पर अगर वह भाई-बहनों के साथ सभा करती रही तो वह पक्का कलीसियाई जीवन बाधित करेगी और दूसरों का जीवन प्रवेश रोक देगी। अगर सिद्धांतों के अनुसार उसे आत्म-चिंतन के लिए अलग-थलग किया जाता है तो हर कोई एक बार फिर ठीक से सभा कर पाएगा और यह व्यवस्था उसके लिए एक चेतावनी होगी। अगर वह वाकई आत्म-चिंतन करती है और खुद को जानती है तो यह उसके जीवन के लिए फायदेमंद होगा। लेकिन अगर वह इसका विरोध करती है और इसे अस्वीकारती है या यहाँ तक कि अपनी आस्था छोड़ देती है तो उसे उजागर करके निकाल दिया जाएगा। तब मैं उसका प्रकृति सार और स्पष्टता से देख पाऊँगा वह खरपतवार है या गेहूँ, यह एक ही नजर में साफ हो जाएगा और मेरे लिए उसे कलीसिया में रखने का प्रयास करने का कोई कारण नहीं बचेगा। उस समय मुझे परमेश्वर का इरादा समझ आ गया। परमेश्वर ने यह स्थिति इस उम्मीद से बनाई थी कि मैं पहचानूँ और उसके वचनों के अनुसार लोगों का प्रकृति सार देखना सीखूँ ताकि मैं अपने कार्यों में स्नेह को अलग रख सकूँ और लोगों के साथ सिद्धांत के अनुसार व्यवहार कर सकूँ।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “परमेश्वर पर विश्वास न रखने वाले प्रतिरोधियों के सिवाय भला शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनसे अंतःकरण और प्रेम से पेश आते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि लोग इस बिंदु तक आ गए हैं और अच्छाई-बुराई में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर के इरादों को खोजने की कोई इच्छा किए बिना या परमेश्वर के इरादों को अपने इरादे मानने में असमर्थ रहते हुए आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं तो उनका अंत और भी अधिक खराब होगा। जो भी व्यक्ति देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंतःकरण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें न्यायबोध की कमी नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम विद्रोही नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंतःकरण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सटीक अवस्था उजागर कर दी। मैं जानता था कि मेरी माँ इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करती है, लेकिन वह सत्य नहीं स्वीकारती और जब दूसरों ने उसकी समस्याओं में उसकी मदद करने, उसकी काट-छाँट करने की कोशिश की तो वह इसे परमेश्वर से स्वीकार नहीं पाई। वह हमेशा हर छोटी-छोटी बातों पर बहस करती रहती थी और कलीसियाई जीवन को बाधित करती थी, शैतान के अनुचर की तरह काम करती थी। लेकिन मैंने आगे बढ़कर उसे उजागर नहीं किया, मैं बस चीजों को छिपाता रहा और उसे बचाता रहा। मुझे लगता था कि उसे उजागर नहीं करना या सच्चा मूल्यांकन नहीं लिखना ही कर्तव्यनिष्ठ काम था। दरअसल मैं शैतान के लिए प्रेम और जमीर दिखा रहा था, मैं कलीसिया के काम या इस बारे में नहीं सोच रहा था कि क्या मेरे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को नुकसान हो सकता है। मैं शैतान की तरफदारी कर रहा था और शैतान के लिए बोल रहा था। क्या इसे परमेश्वर ने “जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध करना” नहीं कहा? मेरा प्रेम सिद्धांतहीन था और मुझे सही-गलत का फर्क नहीं पता था—यह भ्रमित प्रेम था। मैं अपनी माँ को बचा रहा था, उसे कलीसियाई जीवन में बाधा डालने दे रहा था। मैंने उसकी बुराई में साथ दिया। ऐसे व्यवहार करके क्या मैं अपने साथ दूसरों को भी चोट नहीं पहुँचा रहा था? मैं स्नेह से अंधा और शक्तिहीन हो गया था। अगुआ ने मुझे कई बार मेरी माँ का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा, लेकिन मैं इसे टालता रहा और कलीसिया के काम में देरी करता रहा। इसका एहसास होने पर मेरा दिल अपराध-बोध से भर गया। मैं नहीं जानता था कि इस स्थिति का सामना होने पर मैं स्नेह से बेबस क्यों हो गया। असली समस्या क्या थी? मैं प्रार्थना और तलाश करने के लिए परमेश्वर के सामने आया और उससे मेरी समस्याओं को समझने के लिए मार्गदर्शन करने के लिए कहा।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे अपने बारे में और अधिक जानने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... अगर कोई व्यक्ति ऐसा है, जो परमेश्वर को नकारता और उसका विरोध करता है, जो परमेश्वर द्वारा शापित है, लेकिन वह तुम्हारी माता या पिता या कोई संबंधी है, और जहाँ तक तुम जानते हो वह कोई दुष्ट व्यक्ति प्रतीत नहीं होता है और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो संभवतः तुम उस व्यक्ति से घृणा न कर पाओ, यहाँ तक कि उसके निकट संपर्क में बने रहो, तुम्हारे संबंध अपरिवर्तित रहें। यह सुनना कि परमेश्वर ऐसे लोगों से नफरत करता है, तुम्हें परेशान करेगा, और तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाओगे और उन लोगों को निर्ममता से नकार नहीं पाओगे। तुम हमेशा भावनाओं से बेबस रहते हो, और तुम उन्हें पूरी तरह छोड़ नहीं सकते। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम्हारी भावनाएँ बहुत तीव्र हैं और ये तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं। वह व्यक्ति तुम्हारे लिए अच्छा है, इसलिए तुम उससे नफरत नहीं कर पाते। तुम उससे तभी नफरत कर पाते हो, जब उसने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। क्या यह नफरत सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगी? साथ ही, तुम परंपरागत धारणाओं से भी बँधे हो, तुम सोचते हो कि वे माता-पिता या रिश्तेदार हैं, इसलिए अगर तुम उनसे नफरत करोगे, तो समाज तुम्हारा तिरस्कार करेगा और जनमत तुम्हें धिक्कारेगा, कपूत, अंतरात्मा से विहीन, यहाँ तक कि अमानुष कहकर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसके लिए दैवीय निंदा और दंड भुगतना होगा। भले ही तुम उनसे नफरत करना चाहो, लेकिन तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें ऐसा नहीं करने देगी। तुम्हारी अंतरात्मा इस तरह काम क्यों करती है? इसका कारण यह है कि अपनी पारिवारिक विरासत, माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा और परंपरागत संस्कृति की समझ के जरिए तुम्हारे मन में बचपन से ही सोचने का एक ढर्रा बैठा दिया गया है। सोचने का यह ढर्रा तुम्हारे मन में बहुत गहरे पैठा हुआ है, और इसके कारण तुम गलती से यह विश्वास करते हो कि संतानोचित निष्ठा पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है, और अपने पुरखों से विरासत में मिली हर चीज हमेशा अच्छी होती है। पहले तुमने इसे सीखा और फिर यह तुम पर हावी हो जाता है, तुम्हारी आस्था में और सत्य स्वीकारने में आड़े आकर व्यवधान डालता है, और तुम्हें इस लायक नहीं छोड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में ला सको, तुम उससे प्रेम कर सको जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा कर सको जिससे परमेश्वर घृणा करता है। तुम दिल से जानते हो कि तुम्हें अपना जीवन परमेश्वर से मिला, अपने माता-पिता से नहीं, और तुम यह भी जानते हो कि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर पर विश्वास करना तो दूर उसका विरोध भी करते हैं, कि परमेश्वर उनसे घृणा करता है और तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर उसका साथ देना चाहिए, लेकिन तुम चाहो भी तो उनसे घृणा करने का साहस नहीं कर पाते। तुम इस कठिन स्थिति से निकलकर अपने में सुधार नहीं ला पाते, उनके लिए अपनी भावनाएँ नहीं दबा पाते और सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते। इसके मूल में क्या है? शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, और तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं छोड़ता; तुम शैतान की इन चीजों के वश में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं रहे। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, इनके कारण तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने लगते हो, और तुममें इतनी शक्ति नहीं रहती कि अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंक सको। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने को महत्वपूर्ण नहीं समझते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं लोगों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के आरोप-प्रत्यारोप झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो, और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उन्हें परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि वह चाहता है कि हम उससे प्रेम करें जिससे वह प्रेम करता है और उससे घृणा करें जिससे वह घृणा करता है। प्रभु यीशु ने भी एक बार कहा था : “कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई? ... जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है(मत्ती 12:48, 50)। परमेश्वर उन लोगों से प्रेम करता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं और उसे स्वीकार पाते हैं। सिर्फ इसी तरह के लोगों को मुझे भाई-बहन कहना चाहिए; सिर्फ इसी तरह के लोगों से मुझे प्रेम करना चाहिए और प्रेम से मदद करनी चाहिए। जो लोग सत्य से विमुख हैं और कभी उसका अभ्यास नहीं करते वे सभी छद्म-विश्वासी हैं, भाई-बहन नहीं। भले ही वे हमारे माता-पिता या रिश्तेदार हों, हमें उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार पहचानना और उजागर करना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित नहीं होना चाहिए या भविष्य में उनका ख्याल नहीं रखना चाहिए, लेकिन इसका मतलब है कि हमें उनके प्रकृति सार के अनुसार उनसे तर्कसंगत और निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए। फिर भी “खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं” और “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” मैं इन्हीं शैतानी जहरों में डूबा हुआ था। मैं लोगों के साथ अपने व्यवहार में सिद्धांतबद्ध नहीं था और मैंने हमेशा स्नेह के आधार पर अपने परिवार का बचाव और तरफदारी की। जब मैं अपने भाई का मूल्यांकन लिख रहा था तो मुझे पता था कि वह पहले ही उजागर कर चुका है कि वह छद्म-विश्वासी है और उसे कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए, लेकिन मैं अपने स्नेह में फंसकर सत्य नहीं लिखना चाहता था। मैं तथ्यों को छिपाना चाहता था और अपने भाई-बहनों को धोखा देना चाहता था। जब अगुआ ने मुझे मेरी माँ का मूल्यांकन लिखने के लिए कहा तो मुझे पता था कि वह कलीसियाई जीवन में बाधा डाल रही है और मुझे एक सटीक, वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन लिखना चाहिए ताकि अगुआ को उसे उजागर और प्रतिबंधित करने में मदद मिले। लेकिन मैंने उसे अपनी माँ की तरह देखा और सोचा कि वह मेरे लिए कितनी अच्छी है, मुझे डर था कि अगर मैंने उसके व्यवहार के बारे में ईमानदारी से लिखा तो मैं हमेशा अपराध-बोध में रहूँगा और इसके साथ नहीं जी पाऊँगा। मुझे यह भी डर था कि दूसरे लोग मुझे निर्दयी और कठोर समझेंगे। संदेह और आशंका से भरकर मैं इसे टालता रहा। मैंने देखा कि ये शैतानी जहर मेरे दिल में गहराई तक समा चुके थे और मुझे मेरे स्नेह से जकड़ रहे थे। उन्होंने मुझे दूसरों के साथ अपने व्यवहार में सिद्धांतहीन बना दिया और मुझे कलीसिया का काम कायम रखने से रोक दिया। मैं शैतान के पक्ष में खड़ा था, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर रहा था और उसका प्रतिरोध कर रहा था। सच तो यह था कि मेरी माँ और भाई दोनों ही छद्म-विश्वासी थे और उनके व्यवहार को उजागर करना ही उचित था। यह कलीसिया के काम की रक्षा करना और परमेश्वर की अपेक्षाओं का पालन करना था। यह उससे प्रेम करना था जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करना था जिससे परमेश्वर घृणा करता है और यह सत्य का अभ्यास करने की गवाही थी। लेकिन मैंने सत्य का अभ्यास करने और शैतान को उजागर करने को नकारात्मक माना; मैंने इसे निष्ठुर, कर्तव्यनिष्ठता से रहित और विश्वासघात समझा। मैं कितना भ्रमित था! मैं काले को सफेद और अच्छे को बुरा समझने की गलती कर रहा था। मैं अपने स्नेह से बंध गया था और इसके कारण नकारात्मकता में डूब गया था, मेरे पास अपना कर्तव्य निभाने की कोई प्रेरणा नहीं थी। परमेश्वर के समय पर दिए गए प्रबोधन और मार्गदर्शन के बिना मेरे स्नेह ने मुझे खत्म कर दिया होता। अपने स्नेह में फंसे रहने से लगभग मेरा अंत हो जाता। मैं वाकई आग से खेल रहा था।

बाद में मैंने और आत्मचिंतन किया, मुझे एहसास हुआ कि मेरी माँ के बारे में लिखने में मेरी अनिच्छा एक और गलतफहमी से उपजी थी—जैसे उसे उजागर करना मेरी हृदयहीनता होगी क्योंकि उसने मुझे बहुत दयालुता से पाला था। मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा, जिसने मेरा नजरिया बदल दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “परमेश्वर ने इस संसार की रचना की और इसमें एक जीवित प्राणी, मनुष्य को लेकर आया, जिसे उसने जीवन प्रदान किया। इसके बाद, मनुष्य के माता-पिता और परिजन हुए, और वह अकेला नहीं रहा। जब से मनुष्य ने पहली बार इस भौतिक दुनिया पर नजरें डालीं, तब से वह परमेश्वर के विधान के भीतर विद्यमान रहने के लिए नियत था। परमेश्वर की दी हुई जीवन की साँस हर एक प्राणी को उसके वयस्कता में विकसित होने में सहयोग देती है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को भी महसूस नहीं होता कि मनुष्य परमेश्वर की देखरेख में बड़ा हो रहा है, बल्कि वे यह मानते हैं कि मनुष्य अपने माता-पिता की प्रेमपूर्ण देखभाल में बड़ा हो रहा है, और यह उसकी अपनी जीवन-प्रवृत्ति है, जो उसके बढ़ने की प्रक्रिया को निर्देशित करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता कि उसे जीवन किसने प्रदान किया है या यह कहाँ से आया है, और यह तो वह बिल्कुल भी नहीं जानता कि जीवन की प्रवृत्ति किस तरह से चमत्कार करती है। वह केवल इतना ही जानता है कि भोजन ही वह आधार है जिस पर उसका जीवन चलता रहता है, अध्यवसाय ही उसके अस्तित्व का स्रोत है, और उसके मन का विश्वास वह पूँजी है जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है। परमेश्वर के अनुग्रह और भरण-पोषण से मनुष्य पूरी तरह से बेखबर है, और इस तरह वह परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया जीवन गँवा देता है...। जिस मानवजाति की परमेश्वर दिन-रात परवाह करता है, उसका एक भी व्यक्ति परमेश्वर की आराधना करने की पहल नहीं करता। परमेश्वर ही अपनी बनाई योजना के अनुसार, मनुष्य पर कार्य करता रहता है, जिससे वह कोई अपेक्षाएँ नहीं करता। वह इस आशा में ऐसा करता है कि एक दिन मनुष्य अपने सपने से जागेगा और अचानक जीवन के मूल्य और अर्थ को समझेगा, परमेश्वर ने उसे जो कुछ दिया है, उसके लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत और परमेश्वर की उस उत्सुक व्यग्रता को समझेगा, जिसके साथ परमेश्वर मनुष्य के वापस अपनी ओर मुड़ने की प्रतीक्षा करता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि बाहर से ऐसा लगता है कि मेरी माँ ने मुझे जन्म दिया, मुझे पाला और उसी ने जीवनभर मेरी देखभाल की। लेकिन मानव जीवन का स्रोत परमेश्वर है और मैंने जो कुछ भी आनन्द लिया, वह सब परमेश्वर ने दिया है। परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया और मेरे लिए मेरे परिवार और घर की व्यवस्था की। यह भी परमेश्वर की ही व्यवस्था थी कि मुझे उसकी वाणी सुनने और उसके सामने आने की अनुमति मिली। मुझे परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिए और मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करने और उसके प्रेम का बदला चुकाने के लिए मेरे सामने आने वाली सभी चीजों में सत्य का अभ्यास करना चाहिए। मुझे अपने परिवार की तरफदारी करके शैतान के लिए काम नहीं करना चाहिए, जिससे कलीसिया का काम बाधित हो। यह एहसास मेरे लिए एक चेतावनी है। मुझे पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आना था और मैं अपने स्नेह का अनुसरण नहीं कर सकता था। उसके बाद मैंने कलीसिया के जीवन में अपनी माँ के विघ्नकारी व्यवहार को सटीक रूप से उजागर किया।

एक महीने बाद मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। मुझे पता चला कि कलीसिया के कुछ सदस्यों ने अभी भी मेरी माँ के व्यवहार को पूरी तरह से नहीं समझा है। मैंने सोचा “मुझे उनसे इस बारे में बात करनी चाहिए कि मेरी माँ किस तरह कलीसियाई जीवन बाधित करती रही है, ताकि वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार उसे पहचानें और उससे व्यवहार करना सीखें।” लेकिन जैसे ही मैं ऐसा करने लगा, मैं दुविधा में पड़ गया। अगर संगति और गहन-विश्लेषण के दौरान भाई-बहन मेरी माँ के व्यवहार पहचान गए तो क्या वे उसे त्याग देंगे? क्या इससे मेरी माँ परेशान हो जाएगी? मुझे लगा कि मेरी कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं होगी। मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से स्नेह से बेबस हो रहा था और मुझे परमेश्वर के वचन याद आए जो मैंने पहले पढ़े थे—कि मुझे उससे प्रेम करना चाहिए जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करनी चाहिए जिससे वह घृणा करता है। मेरी माँ ने कलीसियाई जीवन में समस्याएँ पैदा कीं और यह ऐसी चीज है जिससे परमेश्वर घृणा करता है। मैं स्नेह के कारण उसे बचाता नहीं रह सकता। सत्य सिद्धांतों के अनुसार स्थिति उजागर करना और उसका गहन-विश्लेषण करना मेरी जिम्मेदारी थी ताकि भाई-बहन विवेकशील हो सकें। इसलिए मैंने इस बारे में संगति और गहन-विश्लेषण किया कि कैसे मेरी माँ ने कलीसियाई जीवन बाधित किया था और इससे दूसरों को कुछ समझ और सबक मिले। अधिकांश लोग इस बात पर सहमत हुए कि उसे आत्म-चिंतन के लिए अलग-थलग कर देना चाहिए। इसे अभ्यास में लाने के बाद मुझे आराम और शांति महसूस हुई। मैं अपने दिल की गहराई से परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ कि उसके वचनों के मार्गदर्शन और प्रबोधन ने मुझे सत्य समझने, अभ्यास के सिद्धांत खोजने और समझने में मदद की कि मुझे अपने परिवार के सदस्यों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। इसके बिना मैं अभी भी स्नेह से बेबस होता और परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले काम करता। इन अनुभवों ने मुझे दिखाया है कि लोगों के साथ व्यवहार करने और कलीसिया के भीतर स्थितियों संभालने में सब कुछ सत्य सिद्धांतों के अनुसार किया जाना चाहिए। सिर्फ यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। स्वतंत्र महसूस करने और आंतरिक शांति की भावना पाने का यही एकमात्र तरीका है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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