18. जब मेरे माता-पिता को कलीसिया से निकाल दिया गया

अक्टूबर 2018 में एक दिन, एक सुपरवाइजर ने मुझे बताया, "तुम्हारे माता-पिता को कलीसिया से निकाल दिया गया है। मैंने सुना है ऐसा कलीसिया के काम में बाधा डालने के कारण किया गया।" यह खबर सुन कर मैं सन्न रह गयी। मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। मेरे माता-पिता ने कुछ बाधा डालने वाले काम किए थे, इसके बारे में मुझे पहले से पता था, लेकिन मुझे लगा कि वह इतना बुरा नहीं था कि उन्हें निकाल दिया जाता। उस समय मैं मन ही मन बहुत व्याकुल होकर वहीं बैठी रही। पहले, मेरी बड़ी बहन एक मसीह-विरोधी की साथी थी और किसी भी संगति की परवाह किए बिना पश्चात्ताप करने से इनकार कर देती थी, आख़िरकार उसे कलीसिया से निकाल दिया गया। अब मेरे माता-पिता को भी कलीसिया से निकाला जा रहा था, अब हमारे पूरे परिवार में मैं अकेली विश्वासी बची थी। उस समय, मैं बहुत अकेली महसूस कर रही थी। हमारे पूरे परिवार को आस्था रखते हुए करीब दो दशक हो चुके थे, हम पूरे समय सीसीपी के दमन को सहते रहे। मेरे पिता को दो बार सुसमाचार साझा करने के कारण गिरफ्तार किया गया था, उन्हें पाँच साल जेल में बिताने पड़े थे। मेरी माँ, बहन और मैं पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए बेघर होकर, जगह-जगह भटकते रहे, उन वर्षों में हर तरह के उतार-चढ़ाव आए, अब परमेश्वर का काम ख़त्म होने को है। उन्हें कलीसिया से कैसे निकाला जा सकता है? उन वर्षों में उनका समय बेहद कठिन गुजरा था। उन्होंने बहुत कष्ट सहे—क्या सचमुच यह सब कुछ व्यर्थ था? यह सोचते ही, मैं अपने आप को रोने से नहीं रोक पाई और मैं मन ही मन परमेश्वर के साथ तर्क करने लगी: हो सकता है कि मेरे माता-पिता का अधिक योगदान न रहा हो, लेकिन उन्हें काफी झेलना पड़ा। उनके तमाम वर्षों के त्याग को ध्यान में रखते हुए, क्या उन्हें पश्चात्ताप का एक और मौका नहीं मिल सकता था? वे सिर्फ सेवाकर्मियों की तरह भी परमेश्वर के घर में रह सकते थे! जितना अधिक मैंने इस तरह सोचा, उतना ही दर्दनाक और अंधकारमय महसूस किया, मेरे पास अपने कर्तव्य के लिए भी ताकत नहीं बची। जिस बहन के साथ मेरी जोड़ी बनी थी, उसने मुझे सचेत किया: "ऐसे हालात में तुम्हें इसे परमेश्वर की इच्छा मानकर स्वीकारना होगा-तुम शिकायत नहीं कर सकती। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह धार्मिकता है।" मैं उस समय तर्क को तो समझ गई थी, लेकिन मैं अपनी सोच को बदल नहीं सकी।

अपने माता-पिता के निकाले जाने के कई हफ्ते बाद मैंने इस मामले से जुड़े कागजात पढ़े। मेरे पिता बहुत घमंडी थे। जब वह सामान्य मामले निपटाते थे, तो हमेशा अपने तरीके से चलते थे, सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं निभाते थे। वे भाई-बहनों के सुझावों को नहीं मानते थे जिससे भेंटों को भारी नुकसान हुआ। अपनी सुरक्षा के जोखिम के बारे में जानकर भी वे परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें बांटते रहते थे। उन्होंने भाई-बहनों की एक नहीं सुनी, बस अपने रास्ते चलते गये, इसलिए वे गिरफ्तार किये गये और पुस्तकें बांटने के लिए जेल की सजा पाई, और परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें पुलिस ने जब्त कर लीं। यह कलीसिया के हितों के लिए बड़ा झटका था। फिर, जब मेरी बहन को निकाला गया था, तो मेरे पिता ने चीजों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया था, यह कहकर कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अगुआ के पास इसका आधार था। उन्होंने अगुआ द्वारा उजागर की गई भ्रष्टता को लेकर भी काफी बखेड़ा खड़ा कर दिया था और आलोचना करके उसे हटवाने की धमकी दी थी। भाई-बहनों के सामने मेरे पिता खुद को महान साबित कर खुद की गवाही देने की कोशिश करते थे, नतीजतन लोग उनका सम्मान करते और उनकी प्रशंसा करते थे। जब वे इस तरह की बातें करते थे, तो कुछ दूसरे लोग भी गुमराह होकर उनके पक्ष में खड़े हो जाते और अगुआ के प्रति पक्षपातपूर्ण हो जाते थे, इससे कलीसिया का काम आगे नहीं बढ़ पता था। मेरे पिता का व्यवहार कलीसिया के काम में गंभीर रुकावट डाल रहा था, मगर उन्हें अपने किए हुए सारे बुरे कर्मों के लिए कोई अफसोस या पश्चात्ताप नहीं था। आखिर उन्हें एक कुकर्मी बताकर कलीसिया से हटा दिया गया। मेरी माँ को इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि वह मेरी बड़ी बहन को निकाले जाने को लेकर बखेड़ा खड़ा करती रहती थी। वह भाई-बहनों के बीच अगुआ की शिकायतें किया करती थी, वह तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करती थी, हमेशा निकाले गये लोगों की सभाओं में इस मामले पर बहस करती थी, कहती थी कि अगुआ ने उनके साथ गलत किया, इससे कलीसिया के जीवन में बहुत बड़ी बाधा पड़ी। कई बार दूसरों की संगति सुनकर भी वह पश्चात्ताप नहीं करती थी, आखिर उसे एक कुकर्मी माना गया और कलीसिया से निकाल दिया गया। अपने माँ-बाप के सारे बुरे कर्मों को देखकर, मैं समझ गई कि सिद्धांतों के आधार पर उन्हें हटाना ही चाहिए था, मगर जो कुछ वास्तव में हो रहा था उसे देखकर मैं समझ नहीं पाती थी कि इसे कैसे ठीक करूँ। मुझे बहुत पीड़ा हो रही थी। उनको हटाए जाने से जुड़े कागजात को पढ़ी, तो लगा कि मुझे लकवा मार गया है और मैं कमजोर हो गई हूँ, मैं रोती जा रही थी। मैंने परमेश्वर के साथ भी तर्क करना शुरू कर दिया: "परमेश्वर, तुम इंसानों से प्रेम करते हो। मेरे माता-पिता 20-30 वर्षों से विश्वासी हैं और उन्होंने बहुत कुछ सहा है। क्या तुम उनके किसी भी योगदान पर ध्यान नहीं दोगे?" मैं नकारात्मकता और गलतफहमियों में जी रही थी। मुझे लगा-जैसे मेरे पूरे परिवार को निकाल बाहर किये जाने के बाद, मैं अकेली इस रास्ते पर विश्वासी बनकर कैसे टिकी रह सकती थी? और इसीलिए, पूरे दो साल मैं इस उलझन में डूबी रही, मैं अपने काम में कुछ भी हासिल नहीं कर पा रही थी तो मुझे बर्खास्त कर दिया गया। उस समय, मैं गंभीर भावनात्मक पीड़ा सह रही थी, रोते हुए बार-बार प्रार्थना करती थी, "हे परमेश्वर! मेरे मन में तुम्हारे बारे में धारणाएं और गलतफहमियां भरी हैं जिसकी वजह मेरे माता-पिता को कलीसिया से हटाया जाना है। मैं जानती हूं कि यह एक खतरनाक स्थिति है, लेकिन मुझमें इसे ठीक करने की ताकत नहीं है। परमेश्वर, कृपया मुझे रास्ता दिखाओ और मुझे बचा लो।"

फिर एक दिन अपनी भक्ति में-मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "यह जानकर कि परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है, लोग परमेश्वर को प्रेम के प्रतीक के रूप में परिभाषित करते हैं : उन्हें लगता है, चाहे लोग कुछ भी करें, कैसे भी पेश आएँ, चाहे परमेश्वर से कैसा ही व्यवहार करें, चाहे वे कितने ही अवज्ञाकारी क्यों न हो जाएँ, किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि परमेश्वर में प्रेम है, परमेश्वर का प्रेम असीमित और अथाह है। परमेश्वर में प्रेम है, इसलिए वह लोगों के साथ सहिष्णु हो सकता है; परमेश्वर में प्रेम है, इसलिए वह लोगों के प्रति करुणाशील हो सकता है, उनकी अपरिपक्वता के प्रति करुणाशील हो सकता है, उनकी अज्ञानता के प्रति करुणाशील हो सकता है, और उनकी अवज्ञा के प्रति करुणाशील हो सकता है। क्या वास्तव में ऐसा ही है? कुछ लोग एक बार या कुछ बार परमेश्वर के धैर्य का अनुभव कर लेने पर, वे इन अनुभवों को परमेश्वर के बारे में अपनी समझ की एक पूँजी मानने लगते हैं, यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर उनके प्रति हमेशा धैर्यवान और दयालु रहेगा, और फिर जीवन भर परमेश्वर के धैर्य को एक ऐसे मानक के रूप में मानते हैं जिससे परमेश्वर उनके साथ बर्ताव करता है। ऐसे भी लोग हैं जो, एक बार परमेश्वर की सहिष्णुता का अनुभव कर लेने पर, हमेशा के लिए परमेश्वर को सहिष्णु के रूप में परिभाषित करते हैं, उनकी नज़र में यह सहिष्णुता अनिश्चित है, बिना किसी शर्त के है, यहाँ तक कि पूरी तरह से असैद्धांतिक है। क्या ऐसा विश्वास सही है?" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। "परमेश्वर हर एक व्यक्ति के प्रति अपने व्यवहार में धार्मिक है, और वह मनुष्य को जीतने और उसके उद्धार के कार्य के प्रति अपने दृष्टिकोण में ईमानदार है। यह उसका प्रबंधन है। वह हर एक व्यक्ति से गंभीरतापूर्वक व्यवहार करता है, पालतू जानवर के समान नहीं कि उसके साथ खेले। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम बहुत लाड़-प्यार या बिगाड़ने वाला प्रेम नहीं है, न ही मनुष्य के प्रति उसकी करुणा और सहिष्णुता आसक्तिपूर्ण या बेपरवाह है। इसके विपरीत, मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सँजोने, दया करने और जीवन का सम्मान करने के लिए है; उसकी करुणा और सहिष्णुता बताती हैं कि मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, और यही वे चीज़ें हैं जो मनुष्य के जीने के लिए ज़रूरी हैं। परमेश्वर जीवित है, वास्तव में उसका अस्तित्व है; मनुष्य के प्रति उसकी प्रवृत्ति सैद्धांतिक है, कट्टर नियमों का समूह नहीं है, और यह बदल सकती है। मनुष्य के लिए उसके इरादे, परिस्थितियों और प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति के साथ धीरे-धीरे परिवर्तित एवं रूपांतरित हो रहे हैं। इसलिए तुम्हें पूरी स्पष्टता के साथ जान लेना चाहिए कि परमेश्वर का सार अपरिवर्तनीय है, उसका स्वभाव अलग-अलग समय और संदर्भों के अनुसार प्रकट होता है। शायद तुम्हें यह कोई गंभीर मुद्दा न लगे, और तुम्हारी व्यक्तिगत अवधारणा हो कि परमेश्वर को कैसे कार्य करना चाहिए। परंतु कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि तुम्हारे दृष्टिकोण से बिल्कुल विपरीत नज़रिया सही हो, और अपनी अवधारणाओं से परमेश्वर को आंकने के पहले ही तुमने उसे क्रोधित कर दिया हो। क्योंकि परमेश्वर उस तरह कार्य नहीं करता जैसा तुम सोचते हो, और न ही वह उस मसले को उस नज़र से देखेगा जैसा तुम सोचते हो कि वो देखेगा" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैं समझ गयी कि परमेश्वर प्रेमपूर्ण है, परन्तु मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सैद्धांतिक है। यह आम लोगों के प्रेम की तरह अंधा,-और सिद्धांतहीन नहीं है। परमेश्वर एक धार्मिक परमेश्वर है, और प्रत्येक व्यक्ति के कर्मों पर उसका अपना नजरिया है। परमेश्वर उनसे प्रेम और दया रखता है जो सत्य से प्रेम रखते हैं, फिर भी अपराध करते रहते हैं। मगर वे दुष्ट लोग जो सत्य से ऊब चुके हैं और इससे घृणा करते हैं, जो परमेश्वर के काम में बाधा डालते हैं, परमेश्वर उनकी निंदा कर उन्हें त्याग देता है। परमेश्वर प्यारा है, इसका मतलब यह नहीं है कि वह कुकर्मियों के प्रति करुणा और सहनशीलता दिखाये, और उन्हें परमेश्वर के घर के काम को बाधित करने दे। मुझे परमेश्वर का सार समझ में नहीं आया और मैं अपनी धारणाओं से परमेश्वर को सीमाओं में बांध रही थी। मुझे लगा कि परमेश्वर इंसानों से प्यार करता है, अगर हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, उसका अनुसरण करते हैं और उसके लिए त्याग करते हैं, तो हम चाहे कितनी भी बुराई करें, वह हमें पश्चात्ताप करने का मौका देता रहेगा। इसलिए जब मेरे माता-पिता को निकाल दिया गया, तो मैं इसे स्वीकार नहीं सकी, मैं परमेश्वर के साथ तर्क करते हुए उसका विरोध कर रही थी। मेरे माता-पिता को कलीसिया से निकाले जाने से पहले, परमेश्वर के घर ने उन्हें बहुत मौके दिए, लेकिन वे इस मुकाम तक इसलिए पहुंचे क्योंकि उन्होंने कभी पश्चात्ताप नहीं किया। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। अगर लोग अपने अपराधों और भ्रष्टता के प्रदर्शन पर पश्चात्ताप करने को तैयार होते हैं, तो परमेश्वर बेहद दयालु और सहनशील बन जाता है। लेकिन मेरे माता-पिता जैसे लोग, जिन्होंने सच्चा पश्चात्ताप किए बिना इतनी अधिक बुराई की है, और अपने बुरे कर्मों को बढ़ा भी दिया है, वास्तव में मसीह-विरोधी, बुरे लोग हैं, परमेश्वर ऐसे लोगों पर दया और सहनशीलता दिखाना जारी नहीं रख सकता। वह विशेष रूप से उनके साथ केवल इसलिए नरमी नहीं बरत सकता क्योंकि वे लंबे समय से विश्वासी हैं और उन्होंने बहुत कुछ सहा है।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "लोग कहते हैं कि परमेश्वर एक धार्मिक परमेश्वर है, और अगर मनुष्य अंत तक उसका अनुसरण करता रहे, तो वह निश्चित रूप से मनुष्य के प्रति निष्पक्ष होगा, क्योंकि वह परम धार्मिक है। यदि मनुष्य अंत तक उसका अनुसरण करता रहे, तो क्या वह मनुष्य को दरकिनार कर सकता है? मैं सभी लोगों के प्रति निष्पक्ष हूँ, और अपने धार्मिक स्वभाव से सभी का न्याय करता हूँ, फिर भी मैं जो अपेक्षाएं इंसान से करता हूँ उसके लिए कुछ यथोचित स्थितियाँ होती हैं, और मैं जो अपेक्षा करता हूँ उसे सभी के लिए पूरा करना जरूरी है, चाहे वे कोई भी हों। मैं इसकी परवाह नहीं करता कि तुम्हारी योग्यता कितनी है और कब से है; मैं सिर्फ इसकी परवाह करता हूँ कि तुम मेरे मार्ग पर चल रहे हो या नहीं, सत्य के लिए तुममें प्रेम और प्यास है या नहीं। यदि तुममें सत्य की कमी है, और इसकी बजाय तुम मेरे नाम को लज्जित कर रहे हो, और मेरे मार्ग के अनुसार क्रिया-कलाप नहीं कर रहे हो, और किसी बात की परवाह या चिंता किए बगैर सिर्फ अनुसरण मात्र कर रहे हो, तो मैं उस समय तुम पर प्रहार करूंगा और तुम्हारी दुष्टता के लिए तुम्हें दंड दूँगा, तब फिर तुम्हारे पास कहने के लिए क्या होगा? तब क्या तुम यह कह पाओगे कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? आज, यदि तुम मेरे द्वारा बोले गए वचनों का पालन करते हो, तो तुम एक ऐसे इंसान हो जिसे मैं स्वीकार करता हूँ। तुम कहते हो कि तुमने परमेश्वर का अनुसरण करते हुए हमेशा दुख उठाया है, तुमने हर परिस्थिति में उसका अनुसरण किया है, और तुमने उसके साथ अच्छा-बुरा समय बिताया है, लेकिन तुमने परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों को नहीं जिया है; तुम हर दिन सिर्फ परमेश्वर के लिए भाग-दौड़ करना और उसके लिए स्वयं को खपाना चाहते हो, तुमने कभी भी एक अर्थपूर्ण जीवन बिताने के बारे में नहीं सोचा है। तुम यह भी कहते हो, 'खैर, मैं यह तो मानता ही हूँ कि परमेश्वर धार्मिक है। मैंने उसके लिए दुख उठाया है, मैंने उसके लिए भाग-दौड़ की है, और उसके लिए अपने आपको समर्पित किया है, और इसके लिए कोई मान्यता प्राप्त किए बिना मैंने कड़ी मेहनत की है; वह निश्चित ही मुझे याद रखेगा।' यह सच है कि परमेश्वर धार्मिक है, फिर भी इस धार्मिकता पर किसी अशुद्धता का दाग नहीं है: इसमें कोई मानवीय इच्छा नहीं है, और इस पर शरीर या मानवीय सौदेबाजी का कोई धब्बा नहीं है। जो लोग विद्रोही हैं और विरोध में खड़े हैं, वे सब जो उसके मार्ग के अनुरूप नहीं हैं, उन्हें दंडित किया जाएगा; न तो किसी को क्षमा किया जाएगा, न ही किसी को बख्शा जाएगा!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। मैंने परमेश्वर के वचनों से सीखा कि परमेश्वर की धार्मिकता वैसी नहीं है जैसा मैंने सोचा था, कि हम जितना खुद को खपाते हैं उतना ही हमें वापस मिलता है। परमेश्वर को उन लोगों का पक्ष लेने की आवश्यकता नहीं है जो उछल-कूद करते हैं, खुद को खपाते, मेहनत करते और कष्ट सहते हैं। परमेश्वर नहीं मानता है कि "सभी तरह की कड़ी मेहनत सम्मान के लायक होती है।" परमेश्वर किसी इंसान के परिणाम इस आधार पर तय नहीं करता कि उसकी पीड़ा और वरिष्ठता कितनी अधिक है, और वह उनके सतही त्यागों की सीमा को नहीं देखता। मुख्य बात यह है कि क्या वे सत्य का अनुसरण करते हैं, उसे अमल में लाते हैं, और क्या उनका जीवन स्वभाव बदल गया है। यदि उन्होंने कभी परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं किया है, तो चाहे वे कितने भी अनुभवी हों या उन्होंने कितना भी कष्ट सहा हो, वे कभी भी परमेश्वर से तारीफ नहीं पाएंगे। उन्होंने जो बुराई की है, उसके लिए उन्हें परमेश्वर उचित रूप से दंड देगा। मैं लेन-देन की मानसिकता से परमेश्वर की धार्मिकता को माप रही थी। मैंने सोचा था कि मेरे माता-पिता ने अपने वर्षों के विश्वास के दौरान त्याग किए हैं और काफी कष्ट सहे हैं, फिर चाहे उन्होंने कितनी भी बुराई की हो, परमेश्वर को उन्हें निकालने के बजाय पश्चात्ताप के और मौके देने चाहिए, उन्हें निकाला जाना उचित नहीं था। मैं वास्तव में सही-गलत का भेद नहीं समझ सकी। मैंने पौलुस के बारे में सोचा, वह पूरे यूरोप में घूम-घूमकर प्रभु के सुसमाचार को फैलाता रहा। वह कई बार गिरफ्तार हुआ और उसने काफी कष्ट सहे, लेकिन अपने काम में वह लगातार खुद को ऊँचा उठाता रहा और खुद की गवाही देता रहा। आखिरकार उसने कहा कि वह मसीह के रूप में जिया है, और मरना लाभकारी होगा, इसका नतीजा यह हुआ कि लोग वास्तव में दो हजार वर्षों से उसका अनुकरण करते आ रहे हैं। वह लोगों के दिलों में प्रभु यीशु से भी ऊँचा स्थान रखता है। इस प्रकार उसने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और परमेश्वर ने उसे दंड दिया। मैंने इससे देखा कि परमेश्वर लोगों के बाहरी प्रयासों की सीमा को नहीं देखता है, वह उन सबको दंड देता है जो बुराई करते हैं और बिना पश्चात्ताप किये अपने कर्मों के हिसाब से परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हैं। उदाहरण के लिए, मेरे माता-पिता ने बहुत प्रयास किया और खुद को बहुत खपाया, परन्तु उन्होंने जो कुछ भी किया वह कलीसिया के काम में बाधक था, और सामान्य कलीसिया जीवन को नष्ट कर दिया, उन्होंने भाई-बहनों के जीवन और कलीसिया के हितों को नुकसान पहुंचाया। उन्हें कलीसिया से हटाना परमेश्वर की धार्मिकता थी। मैं परमेश्वर की धार्मिकता को नहीं समझ पायी, लेकिन लेन-देन की मानसिकता से चिपकी रही कि कड़ी मेहनत को सम्मान मिलेगा, मैंने परमेश्वर के साथ तर्क किया और बखेड़ा खड़ा किया, एक निराश स्थिति में रहकर लंबे समय तक परमेश्वर के खिलाफ जाती रही। मैं कितनी विद्रोही थी! इसे महसूस करते हुए, मैं कांप गई, मुझे बहुत खेद हुआ और मैंने रोते हुए प्रार्थना की, "परमेश्वर! मैंने इतने वर्षों से बिना तुमको पूरा जाने तुम पर विश्वास किया है। मैंने तुम्हारे प्रेम और धार्मिकता को अपनी ही धारणाओं और कल्पनाओं से मापा है, हमेशा तुम्हारे खिलाफ जाती रही, तुम्हारे साथ तर्क और छल करती रही। हे परमेश्वर, अब मैं देख सकती हूँ कि मेरे माता-पिता का हटाया जाना तुम्हारी धार्मिकता थी।" उस प्रार्थना के बाद मैंने बहुत अधिक सुकून महसूस किया।

बाद में, मैंने विचार किया कि मैं अपने माता-पिता को कलीसिया से निकाल दिए जाने से काफी परेशान हो गई थी क्योंकि उनके लिए मेरी भावनाएँ बहुत मजबूत थीं। इसीलिए उन्हें हटाए जाने की खबर को पचाने के लिए मुझे जद्दोजहद करनी पड़ी। तब मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए: "परमेश्वर ने इस संसार की रचना की और इसमें एक जीवित प्राणी, मनुष्य को लेकर आया, जिसे उसने जीवन प्रदान किया। इसके बाद, मनुष्य के माता-पिता और परिजन हुए, और वह अकेला नहीं रहा। जब से मनुष्य ने पहली बार इस भौतिक दुनिया पर नजरें डालीं, तब से वह परमेश्वर के विधान के भीतर विद्यमान रहने के लिए नियत था। परमेश्वर की दी हुई जीवन की साँस हर एक प्राणी को उसके वयस्कता में विकसित होने में सहयोग देती है। इस प्रक्रिया के दौरान किसी को भी महसूस नहीं होता कि मनुष्य परमेश्वर की देखरेख में बड़ा हो रहा है, बल्कि वे यह मानते हैं कि मनुष्य अपने माता-पिता की प्रेमपूर्ण देखभाल में बड़ा हो रहा है, और यह उसकी अपनी जीवन-प्रवृत्ति है, जो उसके बढ़ने की प्रक्रिया को निर्देशित करती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता कि उसे जीवन किसने प्रदान किया है या यह कहाँ से आया है, और यह तो वह बिलकुल भी नहीं जानता कि जीवन की प्रवृत्ति किस तरह से चमत्कार करती है। वह केवल इतना ही जानता है कि भोजन ही वह आधार है जिस पर उसका जीवन चलता रहता है, अध्यवसाय ही उसके अस्तित्व का स्रोत है, और उसके मन का विश्वास वह पूँजी है जिस पर उसका अस्तित्व निर्भर करता है। परमेश्वर के अनुग्रह और भरण-पोषण से मनुष्य पूरी तरह से बेखबर है, और इस तरह वह परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया जीवन गँवा देता है...। जिस मानवजाति की परमेश्वर दिन-रात परवाह करता है, उसका एक भी व्यक्ति परमेश्वर की आराधना करने की पहल नहीं करता। परमेश्वर ही अपनी बनाई योजना के अनुसार, मनुष्य पर कार्य करता रहता है, जिससे वह कोई अपेक्षाएँ नहीं करता। वह इस आशा में ऐसा करता है कि एक दिन मनुष्य अपने सपने से जागेगा और अचानक जीवन के मूल्य और अर्थ को समझेगा, परमेश्वर ने उसे जो कुछ दिया है, उसके लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत और परमेश्वर की उस उत्सुक व्यग्रता को समझेगा, जिसके साथ परमेश्वर मनुष्य के वापस अपनी ओर मुड़ने की प्रतीक्षा करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। "किसी भी अविश्वासी को इसमें यह आस्था नहीं होती कि ईश्वर है, या उसने आकाश और पृथ्वी और सभी चीजें बनाई हैं, या मनुष्य को ईश्वर ने बनाया है। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो कहते हैं, 'मनुष्य को जीवन उसके माता-पिता ने दिया है, और उसे उनका सम्मान करना चाहिए।' ऐसा विचार या दृष्टिकोण कहाँ से आता है? क्या यह शैतान से नहीं आता? सदियों से चली आ रही परंपरागत संस्कृति ने मनुष्य को इस तरह से शिक्षित और भ्रमित किया है कि वे परमेश्वर की सृष्टि और संप्रभुता को नकारते हैं। शैतान के धोखे और नियंत्रण के बिना लोग परमेश्वर के कार्य की जाँच करेंगे और उसके वचन पढेंगे, और जान लेंगे कि वे परमेश्वर द्वारा बनाए गए हैं, कि उनका जीवन परमेश्वर द्वारा दिया गया है; वे जान लेंगे कि उनके पास जो कुछ भी है वह सब परमेश्वर ने दिया है, और परमेश्वर ही है जिसका उन्हें धन्यवाद करना चाहिए। कोई व्यक्ति अगर हमारे लिए कुछ अच्छा करता है, तो हमें उसे परमेश्वर की व्यवस्था की देन मानना चाहिए। विशेष रूप से, हमारे माता-पिता ने हमें जन्म दिया और बड़ा किया; यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किया गया है। परमेश्वर सब पर शासन करता है; मनुष्य सेवा का साधन मात्र है। अगर व्यक्ति खुद को परमेश्वर के लिए खपाने हेतु अपने माता-पिता या अपने पति (या पत्नी) और बच्चों को अलग कर सकता है, तो वह व्यक्ति मजबूत होगा और परमेश्वर के सामने उसमें धार्मिकता की बड़ी भावना होगी" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से एहसास हुआ कि परमेश्वर मानव जीवन का स्रोत है, और हमारे पास जो कुछ भी है वह हमें परमेश्वर ने ही दिया है। हम केवल परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा की वजह से ही वहां तक पहुंचे हैं जहां हम आज हैं। हर इंसान जो हमारे प्रति दयालु या सहायक रहा है, हमें उसे परमेश्वर की ओर से आया हुआ समझना चाहिए। मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं चल रही थी, बस यही सोच रही थी कि मेरे माता-पिता मेरे लिए कितने अच्छे थे। मैंने यह नहीं देखा कि मेरे माता-पिता ने जो कुछ किया, उसके पीछे कैसे परमेश्वर के नियम और उसकी व्यवस्थाएँ थीं, यह परमेश्वर की देखभाल, सुरक्षा और मार्गदर्शन ही था जो मुझे यहाँ तक लेकर आया है। मैंने परमेश्वर को उसकी देखभाल,-और सुरक्षा के लिए उसका धन्यवाद नहीं किया या उसके प्रेम का मूल्य नहीं चुकाया, बल्कि मैंने विरोध किया और परमेश्वर को धोखा दिया क्योंकि मैं अपने माता-पिता के लिए अपनी भावनाओं को अलग नहीं कर सकी, यहाँ तक कि मैं अपनी आस्था के मार्ग पर आगे बढ़ती नहीं रह पाई। जितना अधिक मैंने इस पर सोचा उतना ही मुझे लगा कि मुझे कोई समझ नहीं है, और मैं परमेश्वर की कितनी बड़ी ऋणी हूँ।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं, क्या ये वे नहीं, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते और परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनके प्रति साफ़ अंत:करण और प्रेम रखते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि आज कल भी लोग अच्छे और बुरे में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर की इच्छा जानने का कोई इरादा न रखते हुए या परमेश्वर की इच्छाओं को अपनी इच्छा की तरह मानने में असमर्थ रहते हुए, आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं, तो उनके अंत और भी अधिक ख़राब होंगे। यदि कोई देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, तो वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंत:करण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें धार्मिकता की समझ का अभाव नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम अवज्ञाकारी नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंत:करण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी असली हालत को उजागर कर दिया। परमेश्वर चाहता है कि हम उससे प्रेम करें जिससे वह प्रेम करता है, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करें। जो सत्य से घृणा करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं वे निश्चय ही दुष्ट लोग हैं, उनसे परमेश्वर घृणा करता है, इसलिए हमें भी उनसे घृणा करना चाहिए। मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपने माता-पिता के सार को नहीं समझ रही थी। चाहे उन्होंने कलीसिया के काम को कितना भी नुकसान पहुंचाया हो, मैं उनके पक्ष में खड़ी हुई, परमेश्वर के साथ तर्क कर रही थी और उसका विरोध कर रही थी। मैंने अपने कर्तव्य के लिए भी हिम्मत खो दी थी। तभी मैं समझ पाई परमेश्वर ने क्यों कहा, "भावना परमेश्वर का शत्रु है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 28)। मैं कुकर्मियों के प्रति स्नेही और दयालु थी, क्योंकि मैं भावना के बंधन में फंसी हुई थी, यह आशा कर रही थी कि परमेश्वर उन्हें पश्चात्ताप का एक और मौका देगा, उन्हें कलीसिया में रहने देगा। मैं बहुत बड़ी मूर्ख थी! दुष्ट लोग चाहे जो कुछ भी करें, वे वास्तव में कभी पश्चात्ताप नहीं करेंगे। यह उनके सार से पता चलता है। उन्हें कलीसिया में छोड़ना उन्हें बुराई करना जारी रखने और कलीसिया के काम में बाधा डालने की इजाजत देना था। यह दुष्टों के पक्ष में खड़ा होना और परमेश्वर के खिलाफ जाना होगा!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसने मुझे थोड़ी रौशनी दिखाई। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "एक दिन, जब तुम थोड़ा-बहुत सत्य समझ लोगे, तो तुम यह नहीं सोचोगे कि तुम्हारी माँ सबसे अच्छी इंसान है, या तुम्हारे माता-पिता सबसे अच्छे लोग हैं। तुम महसूस करोगे कि वे भी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-जैसे हैं। उन्हें सिर्फ तुम्हारे साथ उनका शारीरिक रक्त-संबंध अलग करता है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो वे भी अविश्वासियों के ही समान हैं। तब तुम उन्हें परिवार के किसी सदस्य के नजरिये से नहीं, या अपने रक्त-संबंध के नजरिये से नहीं, बल्कि सत्य के दृष्टिकोण से देखोगे। तुम्हें किन मुख्य पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर में विश्वास के बारे में उनके विचार, दुनिया पर उनके विचार, मामले सँभालने के बारे में उनके विचार, और सबसे महत्वपूर्ण बात, परमेश्वर के प्रति उनका दृष्टिकोण देखना चाहिए। अगर तुम ये पहलू सही ढंग से देखते हो, तो तुम स्पष्ट रूप से देख पाओगे कि वे अच्छे लोग हैं या बुरे। अगर किसी दिन तुम स्पष्ट रूप से देख पाओ कि वे तुम्हारे जैसे ही हैं, कि वे भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग हैं, और इससे भी बढ़कर, वे दयालु लोग नहीं हैं जो तुमसे वास्तविक प्रेम करते हैं, जैसा कि तुम उन्हें समझते हो, और यह कि वे जीवन में तुम्हें सत्य की ओर या सही रास्ते पर ले जाने में एकदम असमर्थ हैं, और अगर तुम स्पष्ट रूप से देख पाओ कि जो कुछ उन्होंने तुम्हारे लिए किया है, वह तुम्हारे लिए बहुत लाभदायक नहीं है, और यह कि जीवन में सही रास्ता अपनाने में तुम्हारे लिए इसके कोई मायने नहीं हैं, और अगर तुम यह भी पाते हो कि उनके कई अभ्यास और मत सत्य के विपरीत हैं, कि वे दैहिक हैं, और इससे तुम्हें उनसे घृणा होती है, और तुम उनके प्रति विरक्ति और तिरस्कार महसूस करते हो, तो इन बातों के मद्देनजर, तुम उनके साथ सही ढंग से व्यवहार कर पाओगे, तब तुम उनकी कमी महसूस नहीं करोगे, उनके बारे में चिंता नहीं करोगे और उनसे अलग होने में कोई परेशानी महसूस नहीं करोगे। उन्होंने माता-पिता के रूप में अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है, और अब तुम उन्हें अपने सबसे करीबी लोग नहीं समझोगे और न ही उन्हें अपना आदर्श मानोगे। बल्कि, तुम उन्हें साधारण इंसान समझकर भावनाओं के बंधन से पूरी तरह से मुक्त हो जाओगे और अपनी भावनाओं और पारिवारिक स्नेह से उबर जाओगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल अपना भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है)। इसे पढ़कर मैं अंदर तक हिल गई। चूँकि अपने माता-पिता के लिए मेरी भावनाएँ बहुत मजबूत थीं, मैंने केवल यह देखा कि वे मेरे लिए कितने अच्छे थे, सत्य और परमेश्वर के प्रति उनके नजरिये को नही देखा। मैं स्पष्ट रूप से उनका सार नहीं देख सकी कि वे किस रास्ते पर चल रहे थे। इसीलिए मेरा दृष्टिकोण उनके हटाये जाने के मामले में ठीक नहीं था, मैं भावनाओं में फंसी हुई थी, परमेश्वर के साथ तर्क करती थी, करीब दो साल तक कुंठित और विरोधी बनी रही। मेरा जीवन बुरी तरह से बर्बाद हो गया था, और मैंने अपराध किए थे। यह परमेश्वर के वचनों का सिंचन और पोषण ही था जिसने धीरे-धीरे मेरे कठोर, विद्रोही हृदय को जगाया और परमेश्वर के बारे में मेरी धारणाओं और गलतफहमियों को मिटा दिया। अब मैं पहले से बहुत ज्यादा आजाद महसूस कर रही हूं और मेरे पास अपने कर्तव्य के लिए ऊर्जा है। मेरे उद्धार के लिए परमेश्वर का धन्यवाद।

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