17. हीनभावना के पीछे क्या छिपा है?

हेलुन, चीन

जब मैंने पहली बार एक अगुआ के तौर पर काम करना शुरू किया तो मुझे बहन चेन शियाओ के साथ जोड़ा गया। जब मैंने देखा कि चेन शियाओ काबिल है और अपने काम में साहसी और दृढ़ भी है, जबकि मैं खुद को ठीक से व्यक्त भी नहीं कर पाती थी और दब्बू किस्म की थी और अपने काम के लिए आवश्यक कौशल की भी बेहद कम समझ थी, तो मैं हीनभावना की शिकार हो गई और लगा कि मैं अगुआ बनने योग्य नहीं हूँ। मैं देखती कि चेन शियाओ बड़ी कुशलता से संगति करती है और हर तरह के मुद्दे संभालती है, जबकि मैं गुमसुम-सी एक तरफ बैठी रहती। इससे मुझे और भी यकीन हो गया कि मुझमें अगुआ वाली बात नहीं है और मेरा मन और भी खिन्न होता चला गया। महीनों तक मेरी यही दशा रही। मैंने कलीसिया अगुआ के तौर पर सेवाकार्य करती रही और मुझे ली शू नामक एक नया साथी दिया गया। जब मैंने देखा कि ली शू बहुत सुंदर, परिष्कृत, काबिल और अनुभवी है और एक सफल और पेशेवर महिला बॉस वाला प्रभाव छोड़ती है, जबकि मेरे अंदर न तो बोलने का आत्मविश्वास था और न ही दृढ़-संकल्प। अक्सर अनजान लोगों के सामने या उन स्थितियों में जहाँ कोई बड़ा समूह हो, मैं बेचैन और अलग-थलग-सी रहती थी, मेरे अंदर एक अगुआ की थोड़ी-सी भी झलक नहीं थी, मैं निरुत्साहित महसूस करती। ली शू जब भी किसी सभा से लौटती, तो खुलकर चर्चा करती कि कैसे उसने भाई-बहनों से उनकी वर्तमान स्थिति के बारे में पूछा और उनके मुद्दों को हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करके संगति की। वह यह भी बताती कि भाई-बहनों में उसके लिए कितना सम्मान है। यह सब बताते हुए उसका चेहरा खुशी से चमक उठता था। हालाँकि अपनी बातों से ली शू थोड़ी आत्म-प्रशंसा करने वाली लगती थी, फिर भी मुझे लगा कि कभी-कभार उजागर होने वाली उसकी भ्रष्टता कोई बड़ी समस्या नहीं है, क्योंकि वह काबिल है, काम करने की क्षमता रखती है और समस्याओं को हल करने में सक्षम है। मैं उसके सामने कुछ भी नहीं हूँ, मुझमें उसकी जैसी दृढ़ता की कमी है। उसके बाद जब भी मुझे कोई समस्या आती, मैं अपने आप में सिमटकर रह जाती, खुद को अयोग्य समझती और संगति करने की हिम्मत न जुटा पाती। धीरे-धीरे मेरी स्थिति और खराब होती गई, मुझे यकीन हो गया कि मुझमें योग्यता की कमी है, सत्य वास्तविकता नहीं है और मैं अगुआ बनने योग्य नहीं हूँ। मेरे अंदर पूरी तरह से मायूसी की भावनाएँ घर कर गई थीं और मैं बस अनमने ढंग से काम करती। चूँकि मैं लगातार सत्य खोजने में विफल रही थी और खुद को नकारात्मकता के गड्ढे से निकाल नहीं पाई थी, इसलिए मुझे जल्दी ही बर्खास्त कर दिया गया। एक साल बाद भाई-बहनों ने एक बार फिर मुझे अगुआ के रूप में सेवा करने के लिए चुना। मुझे बहन वू फैन के साथ जोड़ा गया। मैंने जल्दी ही इस बात पर गौर किया कि वह बहुत काबिल है और काम करने की अच्छी क्षमता रखती है। जब भी हम साथ काम करते, तो ज्यादातर वही मार्गदर्शक की भूमिका में होती। खासकर एक बार जब हमने एक सभा की सह-मेजबानी की, तो वू फैन ने ही अधिकांश संगति की और भाई-बहनों ने भी उत्साहपूर्वक अपनी-अपनी संगति साझा की। मैं संगति करना तो चाहती थी, लेकिन मुझे चिंता इस बात की थी कि मैं प्रभावी ढंग से संगति नहीं कर पाऊँगी, इसलिए शर्मिंदगी से बचने के लिए मैंने कुछ नहीं कहा। सभा के बाद मैं काफी निराश थी। मैंने सोचा कि मैं अभी भी अगुआ बनने योग्य नहीं हूँ। मैं बस एक मजदूर की तरह सामान्य मामलों से जुड़ा कोई काम करना चाहती थी और अब आगे अगुआ नहीं बनी रहना चाहती थी।

एक दिन मैंने अपनी स्थिति कुछ बहनों को बताई, एक बहन ने मुझे चेताया कि अगर मैंने अपनी स्थिति को तुरंत नहीं सुधारा तो यह मेरे लिए काफी खतरनाक होगा। मुझे कुछ समय आत्मचिंतन में बिताने की जरूरत है। तब जाकर मेरे अंदर थोड़ी आत्म-जागरूकता आई : “मैं इतनी अवसाद में क्यों हूँ? मुझमें सुधार के लिए प्रयास करने का जरा-सा भी दृढ़ संकल्प क्यों नहीं है?” अगले कुछ दिनों तक मैं लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करती रही कि वह मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं अपनी स्थिति को समझकर अवसाद से बाहर निकल सकूँ। फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बचपन में देखने में साधारण थे, ठीक से बात नहीं कर पाते थे, और हाजिर-जवाब नहीं थे, जिससे उनके परिवार और सामाजिक परिवेश के लोगों ने उनके बारे में प्रतिकूल राय बना ली, और ऐसी बातें कहीं : ‘यह बच्चा मंद-बुद्धि, धीमा और बोलचाल में फूहड़ है। दूसरे लोगों के बच्चों को देखो, जो इतना बढ़िया बोलते हैं कि वे लोगों को अपनी कानी उंगली पर घुमा सकते हैं। और यह बच्चा है जो दिन भर यूँ ही मुँह बनाए रहता है। उसे नहीं मालूम कि लोगों से मिलने पर क्या कहना चाहिए, उसे कोई गलत काम कर देने के बाद सफाई देना या खुद को सही ठहराना नहीं आता, और वह लोगों का मन नहीं बहला सकता। यह बच्चा बेवकूफ है।’ माता-पिता, रिश्तेदार और मित्र, सभी यह कहते हैं, और उनके शिक्षक भी यही कहते हैं। यह माहौल ऐसे व्यक्तियों पर एक खास अदृश्य दबाव डालता है। ऐसे माहौल का अनुभव करने के जरिए वे अनजाने ही एक खास किस्म की मानसिकता बना लेते हैं। किस प्रकार की मानसिकता? उन्हें लगता है कि वे देखने में अच्छे नहीं हैं, ज्यादा आकर्षक नहीं हैं, और दूसरे उन्हें देखकर कभी खुश नहीं होते। वे मान लेते हैं कि वे पढ़ाई-लिखाई में अच्छे नहीं हैं, धीमे हैं, और दूसरों के सामने अपना मुँह खोलने में और बोलने में हमेशा शर्मिंदगी महसूस करते हैं। जब लोग उन्हें कुछ देते हैं तो वे धन्यवाद कहने में भी लजाते हैं, मन में सोचते हैं, ‘मैं कभी बोल क्यों नहीं पाता? बाकी लोग इतनी चिकनी-चुपड़ी बातें कैसे कर लेते हैं? मैं निरा बेवकूफ हूँ!’ अवचेतन रूप से वे सोचते हैं कि वे बेकार हैं, फिर भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होते कि वे इतने बेकार हैं, इतने बेवकूफ हैं। मन-ही-मन वे खुद से हमेशा पूछते हैं, ‘क्या मैं इतना बेवकूफ हूँ? क्या मैं सचमुच इतना अप्रिय हूँ?’ उनके माता-पिता उन्हें पसंद नहीं करते, न ही उनके भाई-बहन, न शिक्षक और सहपाठी। और कभी-कभी उनके परिवारजन, उनके रिश्तेदार और मित्र उनके बारे में कहते हैं, ‘वह नाटा है, उसकी आँखें और नाक छोटी हैं, ऐसे रंग-रूप के साथ बड़ा होकर वह सफल नहीं हो पाएगा।’ इसलिए जब वे आईना देखते हैं, तो देखते हैं कि उनकी आँखें सचमुच छोटी हैं। ऐसी स्थिति में, उनके दिल की गहराइयों में पैठा प्रतिरोध, असंतोष, अनिच्छा और अस्वीकृति धीरे-धीरे उनकी अपनी कमियों, खामियों, और समस्याओं को स्वीकार कर मान लेने में बदल जाती है। हालाँकि वे इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेते हैं, मगर उनके दिलों की गहराइयों में एक स्थाई भावना सिर उठा लेती है। इस भावना को क्या कहा जाता है? यह है हीनभावना। जो लोग हीन महसूस करते हैं, वे नहीं जानते कि उनकी खूबियाँ क्या हैं। वे बस यही सोचते हैं कि उन्हें कोई पसंद नहीं कर सकता, वे हमेशा बेवकूफ महसूस करते हैं, और नहीं जानते कि चीजों के साथ कैसे निपटें। संक्षेप में, उन्हें लगता है कि वे कुछ भी नहीं कर सकते, वे आकर्षक नहीं हैं, चतुर नहीं हैं, और उनकी प्रतिक्रियाएँ धीमी हैं। वे दूसरों के मुकाबले साधारण हैं, और पढ़ाई-लिखाई में अच्छे अंक नहीं ला पाते। ऐसे माहौल में बड़े होने के बाद, हीनभावना की यह मानसिकता धीरे-धीरे हावी हो जाती है। यह एक प्रकार की स्थाई भावना में बदल जाती है, जो उनके दिलों में उलझकर दिमाग में भर जाती है। तुम भले ही बड़े हो चुके हो, दुनिया में अपना रास्ता बना रहे हो, शादी कर चुके हो, अपना करियर स्थापित कर चुके हो, और तुम्हारा सामाजिक स्तर चाहे जो हो गया हो, बड़े होते समय यह जो हीनभावना तुम्हारे परिवेश में रोप दी गयी थी, उससे मुक्त हो पाना असंभव हो जाता है। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करके कलीसिया में शामिल हो जाने के बाद भी, तुम सोचते रहते हो कि तुम्हारा रंग-रूप मामूली है, तुम्हारी बौद्धिक क्षमता कमजोर है, तुम ठीक से बात भी नहीं कर पाते, और कुछ भी नहीं कर सकते। तुम सोचते हो, ‘मैं बस उतना ही करूँगा जो मैं कर सकता हूँ। मुझे अगुआ बनने की महत्वाकांक्षा रखने की जरूरत नहीं, मुझे गूढ़ सत्य का अनुसरण करने की जरूरत नहीं, मैं सबसे मामूली बनकर संतुष्ट हूँ, और दूसरे मुझसे जैसा भी बर्ताव करना चाहें, करें।’ जब मसीह-विरोधी और नकली अगुआ प्रकट होते हैं, तो तुम्हें नहीं लगता कि तुम उनमें भेद करने और उन्हें उजागर करने में सक्षम हो, तुम ऐसा करने के लिए नहीं बने हो। तुम्हें लगता है कि अगर तुम खुद एक नकली अगुआ या मसीह-विरोधी नहीं हो, तो काफी है, तुम गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा नहीं करते, तो ठीक है, और अगर तुम अपनी सोच पर टिके रहते हो, तो ठीक है। तुम अपने दिल की गहराइयों में महसूस करते हो कि तुम उतने अच्छे नहीं हो और दूसरे लोगों जितने बढ़िया नहीं हो, दूसरे लोग उद्धार के पात्र हैं, पर तुम ज्यादा-से-ज्यादा एक सेवाकर्मी ही हो, इसलिए तुम्हें लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने योग्य नहीं हो। तुम चाहे जितना भी सत्य समझने में सक्षम हो, पर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ने पहले से तुम्हारी जिस प्रकार की क्षमता और रंग-रूप का निर्धारण किया है, उसके अनुसार तो शायद उसने तुम्हें सिर्फ एक सेवाकर्मी बनाना तय कर रखा है, और सत्य का अनुसरण करने, अगुआ बनने और किसी जिम्मेदार ओहदे पर बैठने, या बचाए जाने के साथ तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है; इसके बजाय, तुम सबसे तुच्छ व्यक्ति बनने को तैयार हो(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं हीनभावना से ग्रस्त हूँ। बचपन से ही मुझे लगता था कि मैं दिखने में औसत हूँ, मैं बोल नहीं पाती, दब्बू किस्म की हूँ, अक्सर उदास रहती हूँ, बहुत संकोची हूँ और हीनभावना से बुरी तरह ग्रस्त हूँ। बाहरी दुनिया में अपने करियर के दौरान भी मेरी यही समस्या थी—मेरे सहकर्मी बातचीत में कुशल थे, चापलूसी करने में माहिर थे, कर्मचारियों के प्रबंधन में दृढ़ थे और कुछ तो अपने वरिष्ठों की नजर में सम्मान के पात्र भी थे। इसके विपरीत, मैं बोल नहीं पाती थी, अलग-अलग विभागों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने में असमर्थ थी, अपने काम में आत्मविश्वास और दृढ़ता की कमी थी और जब उत्पादन लाइन पर समस्याएँ आतीं, दूसरे लोग तो अपने संपर्कों के जरिए कुशल बातचीत से समस्या हल कर लेते, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाती—मैं खुद को ठीक से व्यक्त ही नहीं कर पाती थी, नतीजतन, समस्या वहीं की वहीं रहती और मैं बाथरूम में बंद होकर रोती रहती। आस्था में आने के बाद, मुझे उन भाई-बहनों से ईर्ष्या होती जो मुझसे ज्यादा शिक्षित और काबिल थे, अपने काम में दृढ़ और साहसी थे। मुझे लगा कि मैं उनके बराबर नहीं हूँ और खुद को काफी विवश महसूस करती। नतीजतन, मैं अक्सर नकारात्मक, अलग-थलग, टालमटोल करने वाली और हीनभावना से ग्रस्त रहती। चेन शियाओ और ली शू के साथ मेरी भागीदारी में भी यही हाल था—चूँकि वे अच्छा बोलती थीं, उनमें अच्छी काबिलियत और कार्य क्षमता भी थी, मैं खुद को उनसे कमतर महसूस करती थी। मुझे तो यह कोई मुद्दा भी नहीं लगा था जब मैंने देखा कि ली शू खुद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है, इसे अपने काम में दृढ़ता का संकेत मान रही है। मैं हीनभावना की शिकार हो गई और मेरी स्थिति लगातार गिरती चली गई, मैं अपना काम ठीक से नहीं कर पा रही थी और अंततः मुझे बर्खास्त कर दिया गया। इसके बावजूद कि मुझे एक बार फिर से मेरे भाई-बहनों ने अगुआ के रूप में चुना था, मेरे अंदर हीनभावना घर कर गई थी और मुझे लगता था कि मेरे अंदर काबिलियत की कमी है और मैं कोई काम अच्छे से नहीं कर सकती, मैं श्रमिक बनकर रह जाऊँगी और मेरा उद्धार नहीं हो पाएगा। मुझे एहसास हुआ कि मैं बुरी तरह जकड़ी हुई हूँ और हीनभावना की शिकार हूँ। मैंने विचार किया कि कैसे परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने के लिए देहधारण किया और सभी तरह के कष्ट सहे, निरंतर सत्य व्यक्त किया और मानवजाति का सिंचन और पोषण किया ताकि अधिक से अधिक लोग उसका अनुग्रह पाकर उद्धार प्राप्त कर सकें और विपत्तियों से बच सकें। अगर लोग इस अवसर से चूक गए, तो उन्हें आने वाली विपत्तियों और अनंत दंड का भागी बनना पड़ेगा। मुझे परमेश्वर के इरादों की समझ नहीं थी, मैं नकारात्मकता और गलतफहमी में फँसी हुई थी और मान चुकी थी कि मैं उद्धार प्राप्त नहीं कर पाऊँगी। मैं सत्य के लिए न तो प्रयास करना चाहती थी और न ही उसका अनुसरण—मैं बहुत विद्रोही थी, मेरे कार्य परमेश्वर को आहत करने वाले थे। इन सब बातों का एहसास होने पर, मुझे काफी ग्लानि हुई और मैंने खुद को परमेश्वर का ऋणी महसूस किया—मैं निराशा में डूबी नहीं रह सकती थी, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! मैं तेरे आगे प्रायश्चित करने को तैयार हूँ। मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं हीनता की इन नकारात्मक भावनाओं से बाहर निकल सकूँ।”

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “अंत में, एक ऐसी बात है जो मैं तुम सबको बताना चाहता हूँ : एक मामूली-सी भावना या एक सरल, तुच्छ भावना को अपने शेष जीवन को उलझाने मत दो, जिससे वह तुम्हारी उद्धार-प्राप्ति को प्रभावित कर दे, उद्धार की तुम्हारी आशा को नष्ट कर दे, समझे? (बिल्कुल।) तुम्हारी यह भावना सिर्फ नकारात्मक नहीं, और सटीक रूप से कहें तो यह वास्तव में परमेश्वर और सत्य के विरुद्ध है। तुम सोच सकते हो कि यह तुम्हारी सामान्य मानवता के भीतर की एक भावना है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, यह बस भावना की एक मामूली बात नहीं है, बल्कि परमेश्वर के विरोध की पद्धति है। यह नकारात्मक भावनाओं द्वारा चिह्नित पद्धति है जो लोग परमेश्वर, उसके वचनों और सत्य का प्रतिरोध करने में प्रयोग करते हैं। इसलिए, यह मानकर कि तुम सत्य का अनुसरण करना चाहते हो, मुझे आशा है कि तुम बारीकी से आत्मा-परीक्षण करोगे और देखोगे कि क्या तुम इन नकारात्मक भावनाओं को पाले हुए हो, और जिद्दी होकर बेवकूफी से परमेश्वर का प्रतिरोध कर उसके साथ होड़ लगा रहे हो। यदि परीक्षा के जरिये तुमने उत्तर पा लिया है, यदि तुम्हें आभास हो गया है और तुम एक स्पष्ट जागरूकता पा चुके हो, तो सबसे पहले मैं तुमसे आग्रह करूँगा कि इन भावनाओं को जाने दो। इन्हें संजोकर मत रखो, या इन्हें मत पालो, क्योंकि ये तुम्हें नष्ट कर देंगे, तुम्हारी मंजिल बरबाद कर देंगे, और सत्य के अनुसरण और उद्धार प्राप्त करने की तुम्हारी आशा को खत्म कर देंगे(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। इस अंश ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। पहले मुझे कभी नहीं लगा था कि नकारात्मक भावनाएँ एक गंभीर समस्या हैं। परमेश्वर के गहन विश्लेषण को पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि नकारात्मक भावना की स्थिति में रहने का सार परमेश्वर और सत्य के विरुद्ध है। यदि मैंने इस समस्या को हल नहीं किया तो मैं उद्धार प्राप्त करने का हर मौका गँवा बैठूँगी। मैंने विचार किया कि मैं कितने बरस तक हीनभावना की शिकार रही : जैसे ही मुझे कोई अपने से अधिक प्रतिभाशाली, मुझसे अधिक काबिल और काम करने में अधिक योग्य भाई-बहन मिलता, मैं हीनभावना की शिकार होकर निराशा में डूब जाती, अपनी स्थिति की वास्तविकता का विरोध कर असंतुष्ट हो जाती, मैं अपनी स्थिति का सामना करने और उसे स्वीकारने को तैयार नहीं थी और कमजोर महसूस करती। मैं यह सोचने की जहमत नहीं उठाती कि मैं दूसरों की ताकत से कैसे सीख सकती हूँ या अपना काम अच्छे से करने के लिए उनके साथ कैसे भागीदारी कर सकती हूँ, बल्कि अपनी योग्यता, हुनर और दृढ़ता की कमी के लिए मैं परमेश्वर को दोषी ठहराती। हमेशा नकारात्मकता की स्थिति में रहती, मन ही मन परमेश्वर का विरोध करती और कभी-कभी तो मेरा काम करने का भी मन नहीं होता था। मैं इन वर्षों में अपनी आस्था में हीनभावना से जकड़ी हुई थी और अक्सर निराशा और निष्क्रियता के दौर में चली जाती थी। मुझमें सत्य का अनुसरण करने की इच्छाशक्ति की कमी थी और मैं बस कुछ प्रयास करने और निष्क्रिय रूप से अनुसरण करने में ही संतुष्ट थी। नतीजत, इस तथ्य के बावजूद कि मैंने हमेशा परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अपने कर्तव्यों का पालन किया था और मुझे अभ्यास करने के कई अवसर मिले थे, जीवन में मेरी प्रगति बहुत कम थी—मैं पहले की तरह ही दयनीय और दरिद्र थी। परमेश्वर का कार्य लगभग समाप्त हो चुका था और मैंने सत्य प्राप्त करने के अनगिनत अवसर गँवा दिए थे, मैंने जीवन में अपना बहुत नुकसान किया था। अगर मैंने अपनी स्थिति को नहीं बदला तो फिर मेरे उद्धार पाने का कोई अवसर नहीं बचेगा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और समझने का प्रयास किया कि मेरी हीनभावना के पीछे कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं।

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “सत्य की खोज करने के बजाय, अधिकतर लोगों के अपने तुच्छ एजेंडे होते हैं। अपने हित, इज्जत और दूसरे लोगों के मन में जो स्थान या प्रतिष्ठा वे रखते हैं, उनके लिए बहुत महत्व रखते हैं। वे केवल इन्हीं चीजों को सँजोते हैं। वे इन चीजों पर मजबूत पकड़ बनाए रखते हैं और इन्हें ही बस अपना जीवन मानते हैं। और परमेश्वर उन्हें कैसे देखता या उनसे कैसे पेश आता है, इसका महत्व उनके लिए गौण होता है; फिलहाल वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं; फिलहाल वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे समूह के मुखिया हैं, क्या दूसरे लोग उनकी प्रशंसा करते हैं और क्या उनकी बात में वजन है। उनकी पहली चिंता उस पद पर कब्जा जमाना है। जब वे किसी समूह में होते हैं, तो प्रायः सभी लोग इसी प्रकार की प्रतिष्ठा, इसी प्रकार के अवसर तलाशते हैं। अगर वे अत्यधिक प्रतिभाशाली होते हैं, तब तो शीर्षस्थ होना चाहते ही हैं, लेकिन अगर वे औसत क्षमता के भी होते हैं, तो भी वे समूह में उच्च पद पर कब्जा रखना चाहते हैं; और अगर वे औसत क्षमता और योग्यताओं के होने के कारण समूह में निम्न पद धारण करते हैं, तो भी वे यह चाहते हैं कि दूसरे उनका सम्मान करें, वे नहीं चाहते कि दूसरे उन्हें नीची निगाह से देखें। इन लोगों की इज्जत और गरिमा ही होती है, जहाँ वे सीमा-रेखा खींचते हैं : उन्हें इन चीजों को कसकर पकड़ना होता है। भले ही उनमें कोई सत्यनिष्ठा न हो, और न ही परमेश्वर की स्वीकृति या अनुमोदन हो, मगर वे उस आदर, हैसियत और सम्मान को बिल्कुल नहीं खो सकते जिसके लिए उन्होंने दूसरों के बीच कोशिश की है—जो शैतान का स्वभाव है। मगर लोग इसके प्रति जागरूक नहीं होते। उनका विश्वास है कि उन्हें इस इज्जत की रद्दी से अंत तक चिपके रहना चाहिए। वे नहीं जानते कि ये बेकार और सतही चीजें पूरी तरह से त्यागकर और एक तरफ रखकर ही वे असली इंसान बन पाएंगे। यदि कोई व्यक्ति जीवन समझकर इन त्यागे जाने योग्य चीजों को बचाता है तो उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे नहीं जानते कि दाँव पर क्या लगा है। इसीलिए, जब वे कार्य करते हैं तो हमेशा कुछ छिपा लेते हैं, वे हमेशा अपनी इज्जत और हैसियत बचाने की कोशिश करते हैं, वे इन्हें पहले रखते हैं, वे केवल अपने झूठे बचाव के लिए, अपने उद्देश्यों के लिए बोलते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, अपने लिए करते हैं। वे हर चमकने वाली चीज के पीछे भागते हैं, जिससे सभी को पता चल जाता है कि वे उसका हिस्सा थे। इसका वास्तव में उनसे कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन वे कभी पृष्ठभूमि में नहीं रहना चाहते, वे हमेशा अन्य लोगों द्वारा नीची निगाह से देखे जाने से डरते हैं, वे हमेशा दूसरे लोगों द्वारा यह कहे जाने से डरते हैं कि वे कुछ नहीं हैं, कि वे कुछ भी करने में असमर्थ हैं, कि उनके पास कोई कौशल नहीं है। क्या यह सब उनके शैतानी स्वभावों द्वारा निर्देशित नहीं है? जब तुम इज्जत और हैसियत जैसी चीजें छोड़ने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम अपने भीतर अधिक निश्चिंत और अधिक मुक्त हो पाते हो; तुम ईमानदार होने की राह पर कदम रख देते हो। लेकिन कई लोगों के लिए इसे हासिल करना आसान नहीं होता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि मैं हीनभावना की शिकार इसलिए नहीं हूँ कि मुझमें काबिलियत की कमी है या मैं खुद को ठीक से व्यक्त नहीं कर पाती या मैं औसत शक्ल-सूरत की हूँ, बल्कि इसलिए हूँ क्योंकि शैतान ने मेरे दिमाग में अनुसरण संबंधी कुछ दोषपूर्ण विचार भर दिए हैं। मैं प्रतिष्ठा और रुतबे को बहुत अधिक महत्व दे रही थी। मैं अनजाने में इस तरह के शैतानी जहर से प्रभावित थी, “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है,” “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है,” और “एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।” मेरे लिए प्रतिष्ठा, रुतबे और दूसरों से सम्मान पाने से ज्यादा महत्वपूर्ण और कुछ नहीं था; मुझे लगता था कि इन चीजों को हासिल करके ही मैं एक सार्थक, मूल्यवान जीवन जी पाऊँगी। अपने सांसारिक करियर में, मैं हमेशा उन सहकर्मियों से ईर्ष्या करती थी जो चतुर और तेज थे, अच्छा बोलते थे, लोगों के साथ व्यवहार में कुशल थे और अपने वरिष्ठों से स्वीकृति और प्रशंसा प्राप्त करते थे। मैं भी अपने सहकर्मियों की तरह अपने वरिष्ठों से सराहना चाहती थी। लेकिन मैं खुद को हीन महसूस करती थी क्योंकि मैं औसत शक्त-सूरत की थी, खुद को ठीक से व्यक्त नहीं कर पाती थी और संबंध बनाने में अच्छी नहीं थी। जब मेरे सामने कोई समस्या आती, तो मैं अपने सहकर्मियों को बताने के बजाय, खुद को बाथरूम में बंद करके रोना पसंद करती थी। मुझे चिंता रहती कि अगर किसी को मेरी समस्या का पता चला, तो वह मुझे गिरी हुई नजरों से देखेगा और मेरे बारे में अच्छी राय नहीं बनाएगा—उस दौरान मैंने वाकई बहुत दुख झेले। परमेश्वर में आस्था रखकर भी मैं गैर-विश्वासियों की तरह जी रही थी, मुझे लगता था कि अगुआ या पर्यवेक्षक के तौर पर काम करते हुए एक अगुआ का रौब रखना चाहिए, दृढ़ता से बोलना चाहिए, एक आकर्षक व्यक्ति होना चाहिए, व्यवस्था करने में सक्षम होना चाहिए और अच्छी कार्य क्षमता होनी चाहिए और इस तरह वह जहाँ भी जाएगा उसकी इज्जत होगी, वह अपनी पहचान बना सकेगा और सम्मान का पात्र होगा। जब मैंने देखा कि मेरे साथ भागीदारी करने वाले भाई-बहन मुझसे ज्यादा सक्षम हैं, दृढ़-विश्वास के साथ बोलते हैं और उनमें अच्छी कार्य-क्षमता है, तो मुझे बस यही लगता कि मैं हर दृष्टि से निराशाजनक हूँ। चूँकि मैं लोगों की नजर में उठ नहीं पाई, मुझे बहुत सम्मान भी नहीं मिला, प्रतिष्ठा और रुतबा पाने की मेरी इच्छा भी पूरी नहीं हुई, इसलिए मैं अब अगुआ के तौर पर सेवाकार्य नहीं करना चाहती थी और बस उस माहौल से दूर जाकर लोगों के किसी अलग समूह में शामिल हो जाना चाहती थी। इस तरह मैं अपनी कमजोरियों और नाकाबिलियत को उजागर होने से बचा पाऊँगी और मेरे साथी मुझे हेय दृष्टि से नहीं देखेंगे। इन सब पर विचार करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि शैतान का जहर मेरे मन में अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है—मैं रुतबे के पीछे भागी, लोगों से सम्मान और प्रशंसा चाही, मैंने इन्हें चीजों को सकारात्मक समझा था। लेकिन जब मेरी निजी इच्छाएँ पूरी नहीं हुईं, तो अपने काम से मेरा मन ऊब गया, मैं नकारात्मक और विरोधी बन गई, मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं हो पाई। मुझे एहसास हुआ कि मैं शैतान के हाथों बुरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी हूँ, प्रतिष्ठा और रुतबा पाने की मेरी इच्छा बहुत प्रबल है—अगर मेरा रवैया यही रहा तो परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगेगा और मुझे समाप्त कर देगा। अब गलत रास्ते पर चलने की मेरी इच्छा नहीं थी और मैं परमेश्वर के आगे प्रायश्चित करने को तैयार थी, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार व्यावहारिक रूप से अपना कर्तव्य निभाने और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार थी।

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला : “जब हीनभावना तुम्हारे दिल में गहरे बिठा दी जाती है, तो इसका न सिर्फ तुम पर गहरा असर होता है, यह लोगों और चीजों पर तुम्हारे विचारों, और तुम्हारे आचरण और कार्यों पर भी हावी हो जाती है। तो वो लोग जिन पर हीनभावना हावी होती है, लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखते हैं? वे दूसरों को खुद से बेहतर मानते हैं, मसीह-विरोधियों को भी खुद से बेहतर समझते हैं। हालाँकि मसीह-विरोधी दुष्ट स्वभाव और बुरी मानवता के होते हैं, फिर भी वे उन्हें अनुकरणीय और सीखने के लिए आदर्श मानते हैं। वे अपने आपसे यह भी कहते हैं, ‘देखो, हालाँकि वे दुष्ट स्वभाव और बुरी मानवता वाले हैं, फिर भी वे गुणवान हैं, कार्य में मुझसे अधिक सक्षम हैं। वे दूसरों के सामने आराम से अपनी क्षमताएँ प्रदर्शित कर सकते हैं, और शरमाए या घबराए बिना इतने सारे लोगों के सामने बोल सकते हैं। उनमें सचमुच हिम्मत है। मैं उनकी बराबरी नहीं कर सकता। मैं बिल्कुल भी बहादुर नहीं हूँ।’ ऐसा किस कारण से हुआ? यह कहना होगा कि इसका एक कारण यह है कि तुम्हारी हीनभावना ने लोगों के सार की तुम्हारी परख, और साथ ही दूसरे लोगों को देखने के तुम्हारे परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण को प्रभावित कर दिया है। क्या बात ऐसी नहीं है? (बिल्कुल है।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, मुझे एहसास हुआ कि हीनभावना इस बात पर असर डाल सकती है कि हम लोगों और चीजों को किस तरह देखते हैं। मैंने इस बात पर विचार किया कि जब मैं हीनभावना से ग्रस्त थी, तो मैंने केवल लोगों की बाहर से दिखने वाली प्रतिभाओं, योग्यताओं, दृढ़ता से बोलने के गुण और कार्यक्षमता पर ही ध्यान दिया। ये गुण वे मानक थे जिनके जरिए मैं लोगों की योग्यता का आकलन करती थी, लेकिन मैं उनकी मानवता, सार और वे जिन मार्गों पर चल रहे हैं, उनकी महत्ता को समझने में नाकाम रही। मैं जब ली शू के साथ मिलकर काम कर रही थी, तो मैंने केवल यह देखा कि वह कैसे अपने आपको व्यक्त करती है, दृढ़ता से बोलती और काम करती है, लेकिन मैंने उसके व्यवहार को समझने की महत्ता पर ध्यान नहीं दिया। मुझे यह भी लगा कि उसके पास ऐसी पूंजी है जो मेरे पास नहीं है, इसलिए उसके लिए अपने आपको बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना एक सामान्य बात है। मैं भयंकर उलझन में थी!

फिर मैंने अपने आपसे ही सवाल करना शुरू किया कि क्या लोगों की काबिलियत को उनकी वाक्पटुता, हुनर, बोलचाल में दृढ़ता और कार्यक्षमता के आधार पर मापने का तरीका एकदम सटीक है? फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “हम लोगों की काबिलियत कैसे मापते हैं? यह काम करने का उचित तरीका सत्य के प्रति उनके रवैए को देखना और यह जानना है कि वे सत्य को अच्छी तरह से समझ सकते हैं या नहीं। कुछ लोग कुछ विशेषज्ञताएँ बहुत तेजी से हासिल कर सकते हैं, लेकिन जब वे सत्य को सुनते हैं, तो भ्रमित हो जाते हैं और उनका ध्यान भटक जाता है। अपने मन में वे उलझे हुए होते हैं, वे जो कुछ भी सुनते हैं वह उनके अंदर नहीं जाता, न ही वे जो सुन रहे हैं उसे समझ पाते हैं—यही खराब काबिलियत होती है। कुछ लोगों को जब आप बताते हैं कि उनकी काबिलियत खराब है, तो वे सहमत नहीं होते हैं। वे सोचते हैं कि ऊँची शिक्षा प्राप्त और जानकार होने का मतलब है कि वे अच्छी काबिलियत वाले हैं। क्या अच्छी शिक्षा ऊँचे दर्जे की काबिलियत दर्शाती है? ऐसा नहीं है। लोगों की काबिलियत कैसे मापी जानी चाहिए? इसे इस आधार पर मापा जाना चाहिए कि वे परमेश्वर के वचनों और सत्य को किस सीमा तक गहराई से समझते हैं। मापन का यह सबसे सटीक तरीका है। कुछ लोग वाक्-पटु, हाजिर-जवाब और दूसरों को संभालने में विशेष रूप से कुशल होते हैं—लेकिन जब वे धर्मोपदेश सुनते हैं, तो उनकी समझ में कभी भी कुछ नहीं आता, और जब वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, तो वे उन्हें नहीं समझ पाते हैं। जब वे अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बताते हैं, तो वे हमेशा वचन और सिद्धांत बताते हैं, और इस तरह खुद के महज नौसिखिया होने का खुलासा करते हैं, और दूसरों को इस बात का आभास कराते हैं कि उनमें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। ये खराब काबिलियत वाले लोग हैं। तो, क्या ऐसे लोग परमेश्वर के घर के काम करने में सक्षम हैं? (नहीं।) क्यों? (उनके पास सत्य सिद्धांत नहीं होते।) सही है, यह कुछ ऐसी बात है जिसे तुम लोगों को अब तक समझ जाना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्‍य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्‍य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने जाना कि किसी व्यक्ति की योग्यता को इस आधार पर नहीं मापा जाना चाहिए कि वह कितना शिक्षित है, उसमें बाहरी तौर पर कौन-से हुनर हैं, वह कितना हाजिर-जवाब है या कितना वाक्पटु है, बल्कि आधार यह होना चाहिए कि क्या उसे परमेश्वर के वचनों की सटीक समझ है, क्या वह परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता को समझ पाता है—यानी क्या वह परमेश्वर के वचनों के जरिए उसके इरादों को समझता है और क्या वह परमेश्वर के वचनों के जरिए अपने भ्रष्ट स्वभाव और सार को जान पाता है। मैंने सोचा कि ली शू में हुनर तो था, वह वाक्पटु भी थी और दृढ़ता से काम भी करती थी, लेकिन फिर भी वह अपने बारे में सच्ची समझ या परमेश्वर के वचनों की किसी अनुभवात्मक गवाही पर चर्चा नहीं कर पाती थी। भाई-बहनों ने कई अवसरों पर उसे उसके आत्म-प्रशंसापूर्ण व्यवहार के बारे में चेताया था, उसने इस बात को माना भी, लेकिन उसने कभी इस तरह के व्यवहार की प्रकृति और इसके गंभीर परिणामों को नहीं समझा। अपने काम के दौरान वह लगातार खुद को बड़ा दिखाती, यहाँ तक कि खुद को ऊँचा उठाते समय दूसरों को नीचा दिखाती और बर्खास्त होने के बाद भी उसने न तो कभी आत्म-चिंतन किया और न ही कभी अपनी इस समस्या के बारे में कोई जानकारी हासिल की। इससे मैंने समझा कि ली शू में कुछ खास हुनर तो थे लेकिन उसमें बहुत काबिलियत नहीं थी। मैंने विचार किया कि किस तरह परमेश्वर ने पौलुस के व्यक्तित्व का गहन विश्लेषण किया—पौलुस प्रतिभाशाली था, उसने अनेक पत्र लिखे और बहुत से लोगों तक सुसमाचार पहुँचाया, लेकिन वह सत्य नहीं समझ पाया था और अंततः अपनी शैतानी, परमेश्वर-विरोधी प्रकृति को पहचानने में असमर्थ रहा। इस तरह पौलुस को काबिलियत रखने वाला इंसान नहीं माना जा सकता था। इसका एहसास होने पर मुझे थोड़ी और स्पष्टता मिली। मैंने देखा कि मुझे सत्य की समझ नहीं है, मुझे हमेशा लगता था कि शिक्षित, वाक्पटु और दृढ़ होने का मतलब काबिल होना है और इन गुणों का न होना नाकाबिलियत की निशानी है। नतीजा यह हुआ कि मैं खुद को एक ऐसी नाकाबिल इंसान मानती रही जो अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवाकार्य करने योग्य नहीं है। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि किसी की काबिलियत मापने के लिए मुख्यत : यह देखना चाहिए कि उस इंसान को परमेश्वर के वचनों की कितनी अच्छी समझ है, क्या वह सत्य समझ सकता है और क्या सिद्धांत के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकता है। लोगों और चीजों को समझने का सबसे सटीक तरीका उन्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना है।

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों के दो और अंश मिले। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “तो फिर तुम स्वयं का सही आकलन कर स्वयं को कैसे जान सकते हो, और हीनभावना से कैसे दूर हो सकते हो? तुम्हें स्वयं के बारे में ज्ञान प्राप्त करने, अपनी मानवता, योग्यता, प्रतिभा और खूबियों के बारे में जानने के लिए परमेश्वर के वचनों को आधार बनाना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हें गाना पसंद था और तुम अच्छा गाते थे, मगर कुछ लोग यह कहकर तुम्हारी आलोचना करते और तुम्हें नीचा दिखाते थे कि तुम तान-बधिर हो, और तुम्हारा गायन सुर में नहीं है, इसलिए अब तुम्हें लगने लगा है कि तुम अच्छा नहीं गा सकते और फिर तुम दूसरों के सामने गाने की हिम्मत नहीं करते। उन सांसारिक लोगों, उन भ्रमित लोगों और औसत दर्जे के लोगों ने तुम्हारे बारे में गलत आकलन कर तुम्हारी आलोचना की, इसलिए तुम्हारी मानवता को जो अधिकार मिलने चाहिए थे, उनका हनन किया गया और तुम्हारी प्रतिभा दबा दी गई। नतीजा यह हुआ कि तुम एक भी गाना गाने की हिम्मत नहीं करते, और तुम बस इतने ही बहादुर हो कि किसी के आसपास न होने पर या अकेले होने पर ही खुलकर गा पाते हो। चूँकि तुम साधारण तौर पर बहुत अधिक दबा हुआ महसूस करते हो, इसलिए अकेले न होने पर गाना गाने की हिम्मत नहीं कर पाते; तुम अकेले होने पर ही गाने की हिम्मत कर पाते हो, उस समय का आनंद लेते हो जब तुम खुलकर साफ-साफ गा सकते हो, यह समय कितना अद्भुत और मुक्ति देनेवाला होता है! क्या ऐसा नहीं है? लोगों ने तुम्हें जो हानि पहुँचाई है, उस कारण से तुम नहीं जानते या साफ तौर पर नहीं देख सकते कि तुम वास्तव में क्या कर सकते हो, तुम किस काम में अच्छे हो, और किसमें अच्छे नहीं हो। ऐसी स्थिति में, तुम्हें सही आकलन करना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को सही मापना चाहिए। तुमने जो सीखा है और जिसमें तुम्हारी खूबियाँ हैं, उसे तय करना चाहिए, और जाकर वह काम करना चाहिए जो तुम कर सकते हो; वे काम जो तुम नहीं कर सकते, तुम्हारी जो कमियाँ और खामियाँ हैं, उनके बारे में आत्मचिंतन कर उन्हें जानना चाहिए, और सही आकलन कर जानना चाहिए कि तुम्हारी योग्यता क्या है, यह अच्छी है या नहीं। अगर तुम अपनी समस्याओं को नहीं समझ सकते या उनका स्पष्ट ज्ञान नहीं पा सकते, तो उन लोगों से पूछो जिनमें तुम्हारा आकलन करने की समझ है। उनकी बातें सही हों या न हों, उनसे कम-से-कम तुम्हें एक संदर्भ और विचारसूत्र मिल जाएगा जो तुम्हें इस योग्य बनाएगा कि स्वयं की बुनियादी परख या निरूपण कर सको। फिर तुम हीनता जैसी नकारात्मक भावनाओं की अनिवार्य समस्या को सुलझा सकोगे, और धीरे-धीरे उससे उबर सकोगे। अगर कोई ऐसी हीनभावनाओं को पहचान ले, उनके प्रति जागरूक होकर सत्य खोजे, तो वे आसानी से सुलझाई जा सकती हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। “परमेश्वर यह नहीं देखना चाहता है कि तुम सत्य का अनुसरण करना छोड़ दो, और न ही वह ऐसे किसी व्यक्ति का रवैया देखना चाहता है जिसने खुद से उम्मीद छोड़ दी हो। वह देखना चाहता है कि एक बार ये सभी सच्चे तथ्य समझ लेने के बाद, तुम स्पष्ट रूप से पहचान कर कि परमेश्वर धार्मिक है, आगे बढ़ो और अधिक दृढ़ता, साहस और आश्वस्त ढंग से सत्य का अनुसरण करो। जब तुम मार्ग के अंतिम सिरे पर आ जाओगे, तो अगर तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए तय मानक तक पहुँच जाओ, और तुम उद्धार के मार्ग पर हो, तो परमेश्वर तुम्हें नहीं छोड़ेगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (2))। परमेश्वर के वचनों में मुझे अपनी हीनभावनाओं को दूर करने का मार्ग मिला। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार चीजों को देखना था, अपनी ताकत और कमजोरियों की सही समझ हासिल करनी थी, जो मैं करने में सक्षम हूँ उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना था, सही तरीके से काम करना था और जिसे मैं समझ न पाऊँ या पूरा न कर पाऊँ, उसे हल करने के लिए सत्य खोजना था। मैंने उस समय को याद किया जब मैंने पहली बार एक अगुआ और पर्यवेक्षक के रूप में कार्य करना शुरू किया था : पहले मैं सतत सहयोग पाकर थोड़ा वास्तविक काम कर पाई, लेकिन बाद में मुझे बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि मैं नकारात्मक थी, ढिलाई बरतती थी और भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थी जिसके कारण मैं अपने काम में अच्छे परिणाम हासिल नहीं कर पाई थी। मेरी नाकाबिलियत ही एकमात्र वजह नहीं थी जिसके कारण मुझे बर्खास्त किया गया था। दरअसल, सभी भाई-बहनों ने कहा कि मेरी काबिलियत औसत है, खराब नहीं है। अगर मैं बाकी भाई-बहनों के साथ मिलकर मेहनत से काम करूँ, तो मैं थोड़ा-बहुत काम कर सकती हूँ। इन बातों का एहसास होने पर मुझे अपने बारे में एक सही दृष्टिकोण मिला—मुझमें ज्यादा काबिलियत नहीं थी और न ही मैं कुछ मुद्दों के संबंध में सिद्धांतों को ठीक से समझ पाती थी, लेकिन मैं अपनी कमियों को पूरा करने के लिए भाई-बहनों से मदद ले सकती थी और अपनी योग्यता को बेहतर बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर सकती थी। इस तरह मैं कुछ तो प्रगति कर पाती। इन बातों का एहसास होने पर मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया और मैं काफी सहज महसूस करने लगी। अब मैं हीनभावना से ग्रस्त नहीं होना चाहती थी, अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देने को तैयार थी।

एक बार मैंने शियाओये नाम की एक बहन के साथ एक छोटे समूह की सभा में भाग लिया, वह बहन पाठ्य कार्य पर्यवेक्षक के रूप में कार्य करती थी। शियाओये परमेश्वर के वचनों पर अपनी संगति के जरिए उसके इरादों को जाहिर कर पाती थी और अपने अनुभव से सबक को अपनी संगति में एकीकृत करती थी, जो उपस्थित लोगों के लिए काफी शिक्षाप्रद था। भाई-बहनों ने उसकी संगति पर सहमति जताते हुए नोट्स लिए। यह देखकर एक बार फिर मुझमें हीनभावना घर करने लगी, मुझे लगा कि शियाओये मुझसे ज्यादा काबिल है और एक अगुआ के तौर पर काम करने के ज्यादा योग्य है। जैसे ही मुझमें यह हीनभावना पैदा हुई, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “तुमने जो सीखा है और जिसमें तुम्हारी खूबियाँ हैं, उसे तय करना चाहिए, और जाकर वह काम करना चाहिए जो तुम कर सकते हो; वे काम जो तुम नहीं कर सकते, तुम्हारी जो कमियाँ और खामियाँ हैं, उनके बारे में आत्मचिंतन कर उन्हें जानना चाहिए, और सही आकलन कर जानना चाहिए कि तुम्हारी योग्यता क्या है, यह अच्छी है या नहीं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (1))। वास्तव में, हर किसी के अंदर अलग काबिलियत और अलग ताकत होती है—यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था का परिणाम है। मुझमें चाहे जैसी काबिलियत हो, मुझे हमेशा अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए। मुझमें ज्यादा काबिलियत नहीं थी और न ही मैं दूसरों की तरह बोलने में कुशल थी, लेकिन अगर मुझमें परमेश्वर के वचनों की थोड़ी-बहुत समझ और अनुभव है, तो अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए मुझे अपने इरादे सही रखते हुए अपनी समझ पर संगति करनी चाहिए। यही मुझे करना चाहिए। इस बात का एहसास होने पर मुझे काफी अच्छा लगा। उसके बाद मैं हीनभावना से ग्रस्त नहीं हुई। मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने को तैयार थी, जिन बातों की भी मुझे समझ थी, उन पर संगति कर अपनी जिम्मेदारी निभाने को तैयार थी। इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ और ज्ञान पर संगति की। यह देखकर कि मेरी संगति भाई-बहनों के लिए कितनी लाभदायक और मददगार है, मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिया! यह सब परमेश्वर के वचनों के ज्ञान और मार्गदर्शन के कारण हुआ है कि मैंने प्रगति की है और इतना कुछ हासिल किया है।

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