64. ईमानदार इंसान बनकर मुझे क्या मिला
एक बैठक में, एक अगुआ ने मुझसे पूछा कि उस कलीसिया में नए सदस्यों का सिंचन कैसे हो रहा है, जिसका मैं प्रभारी था। मैं अवाक रह गया। मैंने कुछ दिनों से इसकी खोज-खबर नहीं ली थी और मुझे विशेष बातों की जानकारी नहीं थी। मुझे क्या कहना चाहिए? यदि मैं कहूँ, मुझे नहीं पता, तो अगुआ और अन्य सहकर्मी निश्चित ही कहेंगे कि मैं व्यावहारिक कार्य नहीं कर रहा था, और यह शर्मनाक होगा। मुझे लगा कि मैं वही साझा करता हूँ जो मुझे पहले से पता था और फिर देखता हूँ कि उसके बाद क्या किया जा सकता है। तो मैंने जवाब दिया, “उस पूरे काम की व्यवस्था कर दी गई है, और हमने टीम में कुछ सदस्यों को जोड़ा है।” अगुआ ने तुरंत कहा, “तुम सवाल का जवाब नहीं दे रहे, गोलमोल बात कर रहे हो। यह तो कपट है। नहीं जानते, तो बस उतना कहो और जितनी जल्दी हो सके इसकी खोज-खबर लो। घुमा-फिराकर बात क्यों कर रहे हो? यह सही नहीं है। गलती तो गलती ही होती है, और तुममें उसे मानने का साहस होना चाहिए!” मुझे बेचैनी और चिंता हुई, और मेरा चेहरा तमतमाने लगा। जिसका मुझे डर था, वही हो गया था। मुझे लगा कि मेरी सारी इज्जत खत्म हो गई, सभी को मेरी चाल पता चल गई। मुझे पता था कि अगुआ ने जो कहा वह सही था, पर मैं उसे मन से नहीं मान सका था। लगा कि उसे इस पर इतना बोलने की जरूरत नहीं थी। क्या यह अच्छा नहीं होता कि मैं उसे जल्द से जल्द ठीक कर देता? इस धरती पर उसे सबके सामने मेरी काट-छाँट करने की क्या जरूरत थी? मैं सचमुच परेशान था, तो मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की, “परमेश्वर, आज जो कुछ हुआ उसे लेकर मेरे मन में भारी प्रतिरोध है और मैं समर्पण नहीं कर सका। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो ताकि मैं खुद को जानकर सबक सीख सकूँ।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “आओ, पहले देखें कि यहोवा परमेश्वर ने शैतान से किस प्रकार के प्रश्न पूछे। ‘तू कहाँ से आता है?’ क्या यह एक सीधा प्रश्न नहीं है? क्या इसमें कोई छिपा हुआ अर्थ है? नहीं; यह केवल एक सीधा प्रश्न है। यदि मुझे तुम लोगों से पूछना होता : ‘तुम कहाँ से आए हो?’ तब तुम लोग किस प्रकार उत्तर देते? क्या इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है? क्या तुम लोग यह कहते : ‘इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ’? (नहीं।) तुम लोग इस प्रकार उत्तर न देते। तो फिर शैतान को इस तरीके से उत्तर देते देख तुम लोगों को कैसा लगता है? (हमें लगता है कि शैतान बेतुका है, लेकिन धूर्त भी है।) क्या तुम लोग बता सकते हो कि मुझे कैसा लग रहा है? हर बार जब मैं शैतान के इन शब्दों को देखता हूँ, तो मुझे घृणा महसूस होती है, क्योंकि वह बोलता तो है, पर उसके शब्दों में कोई सार नहीं होता। क्या शैतान ने परमेश्वर के प्रश्न का उत्तर दिया? नहीं, शैतान ने जो शब्द कहे, वे कोई उत्तर नहीं थे, उनसे कुछ हासिल नहीं हुआ। वे परमेश्वर के प्रश्न के उत्तर नहीं थे। ‘पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ।’ तुम इन शब्दों से क्या समझते हो? आखिर शैतान कहाँ से आया था? क्या तुम लोगों को इस प्रश्न का कोई उत्तर मिला? (नहीं।) यह शैतान की धूर्त योजनाओं की ‘प्रतिभा’ है—किसी को पता न लगने देना कि वह वास्तव में क्या कह रहा है। ये शब्द सुनकर भी तुम लोग यह नहीं जान सकते कि उसने क्या कहा है, हालाँकि उसने उत्तर देना समाप्त कर लिया है। फिर भी वह मानता है कि उसने उत्तम तरीके से उत्तर दिया है। तो तुम कैसा महसूस करते हो? घृणा महसूस करते हो ना? (हाँ।) अब तुमने इन शब्दों की प्रतिक्रिया में घृणा महसूस करना शुरू कर दिया है। शैतान के शब्दों की एक निश्चित विशेषता है : शैतान जो कुछ कहता है, वह तुम्हें अपना सिर खुजलाता छोड़ देता है, और तुम उसके शब्दों के स्रोत को समझने में असमर्थ रहते हो। कभी-कभी शैतान के इरादे होते हैं और वह जानबूझकर बोलता है, और कभी-कभी वह अपनी प्रकृति से नियंत्रित होता है, जिससे ऐसे शब्द अनायास ही निकल जाते हैं, और सीधे शैतान के मुँह से निकलते हैं। शैतान ऐसे शब्दों को तौलने में लंबा समय नहीं लगाता; बल्कि वे बिना सोचे-समझे व्यक्त किए जाते हैं। जब परमेश्वर ने पूछा कि वह कहाँ से आया है, तो शैतान ने कुछ अस्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया। तुम बिलकुल उलझन में पड़ जाते हो, और नहीं जान पाते कि आखिर वह कहाँ से आया है। क्या तुम लोगों के बीच में कोई ऐसा है, जो इस प्रकार से बोलता है? यह बोलने का कैसा तरीका है? (यह अस्पष्ट है और निश्चित उत्तर नहीं देता।) बोलने के इस तरीके का वर्णन करने के लिए हमें किस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए? यह ध्यान भटकाने वाला और गुमराह करने वाला है। मान लो, कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि दूसरे यह जानें कि उसने कल क्या किया था। तुम उससे पूछते हो : ‘मैंने तुम्हें कल देखा था। तुम कहाँ जा रहे थे?’ वह तुम्हें सीधे यह नहीं बताता कि वह कहाँ गया था। इसके बजाय वह कहता है : ‘कल क्या दिन था। बहुत थकाने वाला दिन था!’ क्या उसने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया? दिया, लेकिन वह उत्तर नहीं दिया, जो तुम चाहते थे। यह मनुष्य के बोलने की चालाकी की ‘प्रतिभा’ है। तुम कभी पता नहीं लगा सकते कि उसका क्या मतलब है, न तुम उसके शब्दों के पीछे के स्रोत या इरादे को ही समझ सकते हो। तुम नहीं जानते कि वह क्या टालने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि उसके हृदय में उसकी अपनी कहानी है—वह कपटी है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IV)। मैंने देखा, परमेश्वर के वचन यह खुलासा करते हैं कि शैतान की कथनी और करनी के पीछे उसकी मंशाएं और चालें छिपी होती हैं। अपने शर्मनाक इरादे छिपाने के लिए, वह असल में गोल-मोल ढंग से बोलता है ताकि लोग उसका मतलब न जान सकें। यह वास्तव में धूर्त और कपटी है। शैतान परमेश्वर के प्रश्नों के उत्तर अस्पष्ट, भ्रामक प्रतिक्रियाओं से देता है। परमेश्वर को इससे घृणा है। जहां तक मेरी बात है, मुझे साफ तौर पर पता नहीं था कि नए सदस्यों का सिंचन कैसा चल रहा था, लेकिन मैं सच्चा नहीं था। मैंने अगुआ को भ्रमित करने के लिए उल्टा जवाब दिया। मैंने अगुआ को सत्य देखने का मौका दिए बिना प्रश्न का उत्तर दिया। अपनी इज्जत और हैसियत बचाने के लिए, ताकि अगुआ को पता न चले कि मैं व्यावहारिक कार्य नहीं कर रहा था और वहाँ भाई-बहन मुझे नीची नजर से न देखें, मैंने तथ्यों को धुंधला करने, उन्हें गुमराह करने और धोखा देने के लिए बेशर्मी से कुछ कहा। मैं शैतानी स्वभाव दिखा रहा था! इस बारे में मुड़कर सोचता हूँ, तो मैं आम तौर पर भाई-बहनों के साथ ऐसा ही था। जैसे कभी-कभी कुछ लोग मुझसे कुछ कौशल-आधारित प्रश्न पूछते, पर मुझे वास्तव में इन चीजों की सही समझ नहीं होती, और मुझे डर था कि सच बताने पर वे मुझे नीची नजर से देखेंगे, तो मैंने ऐसी बातें कहीं, “यदि यह समस्या हल नहीं होती, तो यह केवल तुम्हारे कौशल के स्तर का मुद्दा नहीं है, ठीक? क्या यह इसलिए नहीं कि तुम अपने कर्तव्य में लापरवाह रहे हो? या तुम सीखने और संवाद करने में असफल हो?” ऊपरी तौर पर लगता था मानो मैं प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ, लेकिन मेरे मन को पता था कि ऐसे जवाब से मुद्दे का समाधान नहीं होता। मैंने सोचा कि जब मैं बदले में ऐसे सवाल पूछूँगा, तो वह वे आत्मचिंतन करेंगे और मुझसे सवाल पूछना भी बंद कर देंगे। इस तरह, मेरी कमियाँ उजागर नहीं होंगी। मैं अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत की रक्षा के लिए हमेशा मक्कारी और धोखेबाजी करता था। मैं छवि खराब होने के मुकाबले झूठ बोलकर खुश था। इसने मेरी मक्कार, धूर्त प्रकृति का पूरी तरह खुलासा कर दिया, जो सत्य से तंग आ गया था। मुझे लगता था कि झूठ बोलना और धोखेबाजी चतुराई है, पर असल में यह मूर्खता है! भले ही मैं सबको धोखा दूँ और गुमराह करूँ, वो मुझे इज्जत से देखें और सोचें कि मैं कार्य करा सकता हूँ और अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकता हूँ, परमेश्वर इसे स्वीकार नहीं करेगा—वह मुझसे घृणा करेगा। फिर इन लोगों की स्वीकृति में क्या बड़ी बात थी? उस पल मैं खाली हाथ और दयनीय महसूस कर रहा था। मैं सुबह से रात तक व्यस्त रहता था, पर एक भी ईमानदार बात नहीं कह पाया। मेरा कपटी स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला था, और मेरे पास कोई सत्य वास्तविकता नहीं थी। उस दिन अगुआ का मुझे इतनी कठोरता से उजागर करना और काट-छाँट करना मेरे लिए एक चेतावनी थी। मुझे पता था, मैं उस रास्ते पर नहीं बढ़ सकता, पर मुझे परमेश्वर के समक्ष पश्चात्ताप करना था, ईमानदार बनना था, और उस वास्तविकता को जीना था।
इसके बाद मैंने विचार किया कि मुझमें और कौन से बेईमान व्यवहार अभी भी मौजूद थे। मैं जानता था कि मुझे आत्मनिरीक्षण करके उन्हें बदलना होगा। आत्मचिंतन के जरिए मैंने महसूस किया कि कार्य के हाल के मेरे सारांश में भी कुछ कपटी हिस्से शामिल थे। मैंने उस कार्य की जानकारी विस्तार से दर्ज की थी जो ज्यादा अच्छे से, ज्यादा पूर्ण रूप से किया गया था। लेकिन जो कार्य मोटे तौर पर और अक्षमता से किया था, उस बारे में मैंने सामान्य शब्दों में लिखा था या इस बारे में नहीं लिखा था कि यह किस तरह से आगे बढ़ रहा था। मुझे याद है कि एक प्रोजेक्ट के अच्छे परिणाम नहीं मिल रहे थे, और जब कार्य का सारांश लिखने का समय आया, तो मैं यह सोचने लगा कि अगर मैंने सच लिख दिया तो हर कोई मेरे बारे में क्या सोचेगा। क्या वे कहेंगे कि मैं उस छोटे से प्रोजेक्ट को भी ठीक से नहीं पूरा कर सका, और मैं अक्षम था? मैंने नफे-नुकसान को तोला, और उस प्रोजेक्ट की प्रगति के बारे में न लिखने का फैसला किया ताकि किसी को पता न चले, और उन्हें लगे कि मैं बहुत व्यस्त था और शायद भूल गया था। मैं साजिश रच रहा था, बार-बार धूर्तता और धोखेबाजी कर रहा था। मैं बहुत कपटी था। वर्षों की अपनी आस्था के दौरान, हालाँकि मैंने बहुत सारे कर्तव्य निभाए थे, कुछ परेशानी झेली थी और कीमत भी चुकाई थी, मगर मैं सत्य का अभ्यास करने के प्रयास नहीं कर रहा था। मैं सिर्फ यही सोच रहा था कि अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत कैसे बचाऊँ, इसलिए मैं अभी भी ईमानदार इंसान की तरह न तो बोल रहा था, न काम कर रहा था। मुझमें सरल और सच्चा होने का साहस नहीं था—यह दयनीय था! कभी-कभी मैं खुद से पूछता : परमेश्वर ने हमसे बहुत कुछ बोला है, और मैंने उसके काफी वचन पढ़े हैं, लेकिन क्या मैं उनमें से किसी की वास्तविकता को जी रहा हूँ? मैं सही तरीके से काम का सारांश भी नहीं लिख सकता था। इस तरह से मुझे आखिर में क्या मिलेगा? मुझे लगा कि मैं खतरे के कगार पर हूँ। पश्चात्ताप किए बिना और स्वभाव में बदलाव के बिना, परमेश्वर मुझे किसी भी समय त्याग देगा। मैंने मन में प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं बहुत अधिक भ्रष्ट हूँ। मैं अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए निरंतर झूठ बोल रहा हूँ और धोखा दे रहा हूँ। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो ताकि मैं सच में खुद को जान सकूँ।”
मैंने उसके बाद परमेश्वर के और वचन पढ़े, जो कहते हैं : “अगर तुम लोग अगुआ या कार्यकर्ता हो, तो क्या तुम परमेश्वर के घर द्वारा अपने काम पर सवाल उठाए जाने या उसका निरीक्षण किए जाने से डरते हो? क्या तुम डरते हो कि परमेश्वर का घर तुम लोगों के काम में खामियों और गलतियों का पता लगाएगा और तुम लोगों की काट-छाँट करेगा? क्या तुम डरते हो कि जब ऊपर वाले को तुम लोगों की वास्तविक क्षमता और आध्यात्मिक कद का पता चलेगा, तो वह तुम लोगों को अलग तरह से देखेगा और तुम्हें प्रोन्नति के लायक नहीं समझेगा? अगर तुममें यह डर है, तो यह साबित करता है कि तुम्हारी प्रेरणाएँ कलीसिया के काम के लिए नहीं हैं, तुम हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए काम कर रहे हो, जिससे साबित होता है कि तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है। अगर तुममें मसीह-विरोधी का स्वभाव है, तो तुम्हारे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने और मसीह-विरोधियों द्वारा गढ़ी गई तमाम बुराइयाँ करने की संभावना है। अगर, तुम्हारे दिल में, परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे काम की निगरानी करने का डर नहीं है, और तुम बिना कुछ छिपाए ऊपर वाले के सवालों और पूछताछ के वास्तविक उत्तर देने में सक्षम हो, और जितना तुम जानते हो उतना कह सकते हो, तो फिर चाहे तुम जो कहते हो वह सही हो या गलत, चाहे तुम जितनी भी भ्रष्टता प्रकट करो—भले ही तुम एक मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट करो—तुम्हें बिल्कुल भी एक मसीह-विरोधी के रूप में परिभाषित नहीं किया जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या तुम मसीह-विरोधी का अपना स्वभाव पहचानने में सक्षम हो, और क्या तुम यह समस्या हल करने के लिए सत्य खोजने में सक्षम हो। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य स्वीकारता है, तो तुम्हारा मसीह-विरोधी स्वभाव ठीक किया जा सकता है। अगर तुम अच्छी तरह से जानते हो कि तुममें एक मसीह-विरोधी स्वभाव है और फिर भी उसे हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, अगर तुम सामने आने वाली समस्याओं को छिपाने या उनके बारे में झूठ बोलने की कोशिश करते हो और जिम्मेदारी दुसरों पर डालते हो, और अगर तुम काट-छाँट किए जाने पर सत्य नहीं स्वीकारते, तो यह एक गंभीर समस्या है, और तुम मसीह-विरोधी से अलग नहीं हो। यह जानते हुए भी कि तुम्हारा स्वभाव मसीह-विरोधी है, तुम उसका सामना करने की हिम्मत क्यों नहीं करते? तुम उसे स्पष्ट देखकर क्यों नहीं कह पाते, ‘अगर ऊपर वाला मेरे काम के बारे में पूछताछ करता है, तो मैं वह सब बताऊँगा जो मैं जानता हूँ, और भले ही मेरे द्वारा किए गए बुरे काम प्रकाश में आ जाएँ, और पता चलने पर ऊपर वाला अब मेरा उपयोग न करे, और मेरी हैसियत खो जाए, मैं फिर भी स्पष्ट रूप से वही कहूँगा जो मुझे कहना है’? परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारे काम का निरीक्षण और उसके बारे में पूछताछ किए जाने का तुम्हारा डर यह साबित करता है कि तुम सत्य से ज्यादा अपनी हैसियत से प्यार करते हो। क्या यह मसीह-विरोधी स्वभाव नहीं है? हैसियत को सबसे अधिक सँजोना मसीह-विरोधी का स्वभाव है। तुम हैसियत को इतना क्यों सँजोते हो? हैसियत के क्या फायदे हैं? अगर हैसियत तुम्हारे लिए आपदा, कठिनाइयाँ, शर्मिंदगी और दर्द लेकर आए, तो क्या तुम उसे फिर भी सँजोकर रखोगे? (नहीं।) हैसियत होने के बहुत सारे फायदे हैं, जैसे दूसरों की ईर्ष्या, सम्मान, ऊँची राय और चापलूसी, और साथ ही उनकी प्रशंसा और श्रद्धा मिलना। श्रेष्ठता और विशेषाधिकार की भावना भी होती है, जो तुम्हें गरिमा और खुद के योग्य होने का एहसास कराती है। इसके अलावा, तुम उन चीजों का भी आनंद ले सकते हो, जिनका दूसरे लोग आनंद नहीं लेते, जैसे कि हैसियत और विशेष व्यवहार के जाल। ये वे चीजें हैं, जिनके बारे में तुम सोचने की भी हिम्मत नहीं करते, लेकिन जिनकी तुमने अपने सपनों में लालसा की है। क्या तुम इन चीजों को सँजोते हो? अगर हैसियत केवल खोखली है, जिसका कोई वास्तविक महत्व नहीं है, और उसका बचाव करने से कोई वास्तविक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, तो क्या उसे सँजोना मूर्खता नहीं है? अगर तुम देह के हितों और भोगों जैसी चीजें छोड़ पाओ, तो प्रसिद्धि और हैसियत तुम्हारे पैरों की बेड़ियाँ नहीं बनेंगी। तो, हैसियत सँजोने और उसके पीछे दौड़ने से संबंधित मुद्दे हल करने से पहले क्या हल किया जाना चाहिए? पहले, बुराई और छल करने, छिपाने और ढकने, और साथ ही हैसियत के जाल का आनंद लेने के लिए परमेश्वर के घर द्वारा निरीक्षण, सवाल-जवाब और जाँच-पड़ताल से मना करने की समस्या की प्रकृति समझो। क्या यह परमेश्वर का घोर प्रतिरोध और विरोध तो नहीं? अगर तुम हैसियत के जाल के लालच की प्रकृति और नतीजे समझ पाओ, तो हैसियत के पीछे दौड़ने की समस्या हल हो जाएगी। और हैसियत के जाल के लालच के सार की असलियत देख पाने की क्षमता के बिना यह समस्या कभी हल नहीं होगी” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। इन वचनों ने मुझे एहसास कराया कि मैं खुद को झूठ बोलने और धोखा देने से नहीं रोक सकता क्योंकि मैं अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत को बहुत अधिक संजोता था। अपने नाम और पद की रक्षा के लिए, और ताकि अगुआ को काम की खोज-खबर लेने को लेकर मेरी नाकामियों की सच्चाई न दिखाई दे, मैंने साजिश रचने, चालें चलने और अगुआ को अपनी बातों से गुमराह करने की कोशिश की। कार्य के सारांश में मैंने अपनी कमियां छिपाईं, केवल अच्छी बातें लिखीं, बुरी बातें नहीं लिखीं, ताकि दूसरे सोचें कि मैं ऐसा अगुआ था जिसने व्यावहारिक कार्य किया था। मुझे डर था कि जब वे मेरा असली चेहरा देखेंगे तो मेरी इज्जत नहीं करेंगे, और तब मुझे उस हैसियत से मिलने वाली बड़ाई के एहसास का मजा नहीं मिलेगा। जब मैंने परमेश्वर के वचनों में देखा : “हैसियत को सबसे अधिक सँजोना मसीह-विरोधी का स्वभाव है,” आखिर मुझे एहसास हुआ कि यह कितना गंभीर मुद्दा था। मुझे वो मसीह-विरोधी याद आए जिन्हें निकाला गया है। वे हमेशा अपने कर्तव्य में नाम और हैसियत के पीछे भागते थे, चालें चलते थे और पर्दे के पीछे धोखेबाज थे। यह कलीसिया के काम को गंभीरता से बाधित करता है, इसलिए उन्हें बेनकाब कर निकाल दिया गया। झूठे अगुआ भी हैं जो हैसियत का लाभ उठाते हैं। वे हमेशा कर्तव्य में धूर्त होते हैं और जब वे वास्तविक कार्य नहीं करते तो सत्य को छिपाते हैं, जिससे कलीसिया का काम रुक जाता है। मुझे एक बहन की याद आई जो सुसमाचार कार्य की प्रभारी थी। वह उस समय अन्य काम भी संभाल रही थी, मगर वह दोनों ही जिम्मेदारियों में मक्कार और धोखेबाज थी। सुसमाचार कार्य में, उसने कहा कि वह दूसरे काम में व्यस्त थी, और दूसरे काम में दावा किया कि वह सुसमाचार कार्य में जुटी थी। वास्तव में वह दोनों जगह अपना काम नहीं कर रही थी, और अंत में उसे उजागर करके निकाल दिया गया। दूसरों की नाकामियों से मिली सीख मेरे लिए चेतावनी थी। अपने नाम और हैसियत के लिए खेल खेलना और धोखेबाजी करना बस खुद से और दूसरों से चालबाजी करना और मूर्ख बनना था। परमेश्वर सब कुछ देखता है, वह ईमानदारों को पसंद करता है। केवल ईमानदार लोगों की ही परमेश्वर के घर में मजबूत जगह होती है, और कपटी लोगों को देर-सवेर बेनकाब कर त्याग दिया जाएगा। अपनी आस्था में मैं ईमानदार इंसान बनने की कोशिश नहीं कर रहा था, मैं झूठा दिखावा कर अपनी गलत छवि पेश कर रहा था, हालाँकि मैंने कुछ लोगों को बेवकूफ बनाया, मैं परमेश्वर की जांच से बच नहीं सकता था। अंत में परमेश्वर ने मुझे बेनकाब कर त्याग देगा। तब मुझे ईमानदार होने का महत्व पता चला और जाना कि परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार ईमानदार बनना और सभी चीजों में उसकी जांच को स्वीकारना ही उसकी स्वीकृति पाने का एकमात्र तरीका है। कैसे कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर कोई हमेशा वही कहता है जो वास्तव में उसके दिल में होता है, अगर वह ईमानदारी से बात करता है, अगर वह सरलता से बोलता है, अगर वह ईमानदार है, और अपने कर्तव्य का पालन करते हुए बिल्कुल भी लापरवाह या असावधान नहीं होता, और अगर वह उस सत्य का अभ्यास कर सकता है जिसे वह समझता है, तो इस व्यक्ति के पास सत्य प्राप्त करने की आशा है। अगर व्यक्ति हमेशा अपने आपको ढक लेता है और अपने दिल की बात छिपा लेता है ताकि कोई उसे स्पष्ट रूप से न देख सके, अगर वह दूसरों को धोखा देने के लिए झूठी छवि बनाता है, तो वह गंभीर खतरे में है, वह बहुत परेशानी में है, उसके लिए सत्य प्राप्त करना बहुत मुश्किल होगा। तुम व्यक्ति के दैनिक जीवन और उसकी बातों और कामों से देख सकते हो कि उसकी संभावनाएँ क्या हैं। अगर यह व्यक्ति हमेशा दिखावा करता है, खुद को दूसरों से बेहतर दिखाता है, तो यह कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सत्य को स्वीकार करता है, और उसे देर-सवेर उजागर कर बाहर कर दिया जाएगा। ... जो लोग कभी अपने दिलों को नहीं खोलते, जो हमेशा चीजों को छिपाने और परदा डालने की कोशिश करते हैं, जो यह बहाना बनाते हैं कि वे आदरणीय हैं, जो चाहते हैं कि लोग उनके बारे में अच्छी राय रखें, जो दूसरों को अपनी पूरी थाह नहीं लेने देते, और जो चाहते हैं कि लोग उनकी प्रशंसा करें—क्या वे लोग मूर्ख नहीं हैं? ऐसे लोग सबसे बड़े मूर्ख होते हैं! इसका कारण यह है कि लोगों की सच्चाई देर-सबेर सामने आ ही जाती है। इस तरह के आचरण से वे किस मार्ग पर चलते हैं? यह तो फरीसियों का मार्ग है। ये पाखंडी खतरे में हैं या नहीं? ये वे लोग हैं, जिनसे परमेश्वर सबसे अधिक घृणा करता है, तो तुम्हें क्या लगता है, वे खतरे में हैं या नहीं? वे सब जो फरीसी हैं, विनाश के मार्ग पर चलते हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। हमेशा छिपाना और पर्दा डालना, हमेशा दिखावा करना गलत रास्ता है, और अगर आप न माने तो अंत में नष्ट कर दिए जाएंगे। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और संकल्प लिया, मैं स्वभाव में बदलाव के प्रयास शुरू करने और ईमानदार इंसान बनने के लिए तैयार हूँ।
मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तू जो कुछ भी करता है, हर कार्य, हर इरादा, और हर प्रतिक्रिया, अवश्य ही परमेश्वर के सम्मुख लाई जानी चाहिए। यहाँ तक कि, तेरे रोजाना का आध्यात्मिक जीवन भी—तेरी प्रार्थनाएँ, परमेश्वर के साथ तेरा सामीप्य, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का तेरा ढंग, भाई-बहनों के साथ तेरी सहभागिता, और कलीसिया के भीतर तेरा जीवन—और साझेदारी में तेरी सेवा परमेश्वर के सम्मुख उसके द्वारा छानबीन के लिए लाई जा सकती है। यह ऐसा अभ्यास है, जो तुझे जीवन में विकास हासिल करने में मदद करेगा। परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करने की प्रक्रिया शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। जितना तू परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करता है, उतना ही तू शुद्ध होता जाता है और उतना ही तू परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होता है, जिससे तू व्यभिचार की ओर आकर्षित नहीं होगा और तेरा हृदय उसकी उपस्थिति में रहेगा; जितना तू उसकी छानबीन को ग्रहण करता है, शैतान उतना ही लज्जित होता है और उतना अधिक तू देहसुख को त्यागने में सक्षम होता है। इसलिए, परमेश्वर की छानबीन को ग्रहण करना अभ्यास का वो मार्ग है जिसका सभी को अनुसरण करना चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाता है, जो उसकी इच्छा के अनुरूप हैं)। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार कर मुझे अभ्यास का मार्ग मिला : जो परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकारना है। अगर हम परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकारते हैं तो हमारी धूर्त और कपटी मंशाओं और विचारों में आसानी से सुधार हो सकता है; और तभी हमारे हृदय अधिक से अधिक शुद्ध और ईमानदार बन पाएंगे; तभी हम आसानी से सत्य का अभ्यास कर पाएंगे और अच्छे से अपने कर्तव्य निभा पाएंगे। परमेश्वर की इच्छा समझने के बाद, मैंने अपने दिल को परमेश्वर के सामने खोलने का अभ्यास किया, अब मैं ढोंग रचने या दिखावा करने की कोशिश नहीं कर रहा था, और सभी चीजों में परमेश्वर की जांच को स्वीकार रहा था। इसके बाद, मैं जब भी कार्य का सारांश लिखता तो खुद को चेतावनी देता कि मैं ईमानदार रहूँ और परमेश्वर की जांच स्वीकार करूँ और उस काम का सही तरीके से वर्णन करूँ जो मैंने ठीक से नहीं किया था। जब अगुआ मेरे काम के बारे में पूछेगी, तो मैं सचेतन होकर सच बोलने का अभ्यास करूंगा। जब दूसरे मुझसे सवाल पूछते तो जो बात मुझे पता नहीं होती उसको लेकर सच बोलता था। अगर पता होती तो कह देता कि जानता हूँ, नहीं तो कह देता कि मुझे पता नहीं। इसे अभ्यास में लाने के बाद, मुझे कहीं अधिक सुकून मिला। मैंने अनुभव किया कि परमेश्वर की जांच को सचेतन होकर स्वीकारना सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने और भ्रष्टता दूर करने का मार्ग है। काट-छाँट के बिना, मैंने अपने भ्रष्ट स्वभाव की गंभीरता से जांच न की होती, और सच में वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए सत्य का अनुसरण न किया होता। फिर, चाहे मैंने जितने वर्षों तक आस्था रखी, मैंने जितने ही कर्तव्य किए या कष्ट सहे, मेरा भ्रष्ट स्वभाव कभी न बदलता। अगर मैं अंत तक अपनी आस्था पर कायम रहता, तब भी बचाए जाने लायक न होता, और परमेश्वर मुझे हर हाल में त्याग ही देता।
उस समय काट-छाँट से मैंने ईमानदार होने का महत्व जाना, अपने मक्कार और कपटी शैतानी स्वभाव की कुछ समझ पाई। वही परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था।