15. जॉय की कहानी
पहले, मैं हमेशा लोगों से भावना के अनुसार पेश आती थी। अगर लोग मुझसे अच्छा बर्ताव करते, मैं भी उनके साथ अच्छा बर्ताव करती थी। मुझे लोगों की कोई पहचान नहीं थी, और मेरे पास सिद्धांत भी नहीं थे। फिर मैंने कुछ ऐसा अनुभव किया जिससे मुझे यह समझ आया कि जिन सिद्धांतों के अनुसार मैं लोगों से पेश आती और दूसरों को देखती थी वे गलत थे।
फरवरी 2021 में, मेरी अच्छी दोस्त एमा ने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की एक सभा में बुलाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन पढ़कर और संगति सुनकर, मुझे यकीन हो गया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही प्रभु यीशु का दूसरा आगमन है, और मैंने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य खुशी से स्वीकार लिया। कुछ महीनों बाद, मुझे कलीसिया की सिंचन उपयाजिका चुन लिया गया।
एक दिन, मैंने देखा कि सभा समूह में एमा अचानक परमेश्वर पर सवाल खड़े करने और कलीसिया पर हमले करने वाली अफवाहें और झूठ फैलाने लगी, और साथ ही अगुआओं और उपयाजकों के बारे में पूर्वाग्रह भरी बातें बोलने लगी। उसकी बातों में असंतोष और व्यंग्य था। एमा ने यह भी कहा कि ये विचार उसके अपने मत नहीं बल्कि दूसरों के हैं, और वह चाहती थी कि अगुआ इन सवालों के जवाब देने के लिए एक सभा रखें। एमा के भेजे झूठ और अफवाहों के बारे में पढ़कर मुझे बहुत हैरानी हुई। साथ ही, मुझे चिंता भी हो रही थी, क्योंकि उस सभा समूह में मौजूद सभी लोग ऐसे भाई-बहन थे जिन्होंने हाल ही में अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य स्वीकारा था। समूह में इस तरह के संदेश भेजने से अशांति फैलना पक्का था, और जिनकी नींव मजबूत नहीं थी और जिनमें समझ नहीं थी, वे लड़खड़ा सकते थे। मुझे बहुत बेचैनी हुई और मेरे पास एमा की हरकतों का कोई जवाब नहीं था। अगर उसे वाकई अपने सवालों के जवाब चाहिए थे, तो वह उन्हें सीधा अगुआ को भेज सकती थी। वह नए विश्वासियों के बीच ऐसी बातें क्यों फैला रही थी? जल्दी ही, वही हुआ जिसका मुझे डर था, एमा जो अफवाहें फैला रही थी उनकी वजह से कलीसिया में असमंजस और विघ्न-बाधा की स्थिति पैदा हो गई, जिसका कुछ भाई-बहनों पर बुरा असर पड़ा, वे अगुआओं और उपयाजकों के खिलाफ पूर्वाग्रही हो गए और उनके विरोधी बन गए। समूह की एक अगुआ ने मुझसे पूछा, “एमा ने जो बातें कहीं, क्या वे सच हैं?” यह स्थिति देखकर, मैं और ज्यादा व्यथित हो गई। तो मैं एमा से यह पूछने के लिए भागी कि ये अफवाहें कहाँ से आ रही हैं। एमा ने मुझे बताया, “ये सवाल मैंने नहीं उठाए। मैं बस चाहती हूँ कि इन सवालों के जवाब देने के लिए अगुआ एक बैठक आयोजित करें।” मैंने दोबारा उससे पूछा कि ये अफवाह उसे किसने भेजे, मगर एमा ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने इस मामले की रिपोर्ट अगुआ को कर दी, अगुआ भी जानना चाहती थी कि ये सवाल किसने उठाए, ताकि जल्द-से-जल्द समस्या को जड़ से खत्म किया जा सके। मगर एमा ने उसे कुछ भी नहीं बताया। बाद में, छानबीन करने पर पता चला कि ये सवाल किसी अन्य भाई-बहन ने नहीं उठाए थे, और एमा के मन में ही परमेश्वर के कार्य को लेकर धारणाएँ थीं। उसने इंटरनेट से कुछ अफवाहें इकठ्ठा की और उन्हें सवालों का रूप दे दिया, मगर उसने इसे मानने से इनकार किया। मामले का सच जानकर, अगुआ ने फौरन एक सभा आयोजित की, और एमा के हर अफवाह और झूठ का जवाब देने के लिए संगति की, जिससे भाई-बहन एमा की बातों को समझ पाए। हालाँकि, एमा न तो अपनी करनी के बारे में कुछ जानती थी और न ही उसने पश्चात्ताप किया।
इस वाकये के बाद, अगुआ ने मुझसे पूछा, “अगर एमा गलत इंसान निकली तो तुम क्या करोगी? क्या तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार उसके साथ व्यवहार कर पाओगी?” अगुआ के इन सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। बाद में, अगुआ ने मेरे साथ परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से घृणा और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा, ‘कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?’ ‘क्योंकि जो कोई मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और मेरी बहिन, और मेरी माता है।’ ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : ‘उससे प्रेम करो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करो, जिससे परमेश्वर घृणा करता है।’ ये वचन बिलकुल सीधे हैं, फिर भी लोग अकसर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे परमेश्वर की इच्छा थोड़ी बेहतर समझ आई। वह चाहता है हम लोगों से सिद्धांतों के अनुसार पेश आएँ, और हमें उससे प्रेम करना चाहिए, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करनी चाहिए, जिससे परमेश्वर घृणा करता है। सिद्धांत की किसी भी बात में, और चाहे इंसान कोई भी हो, हमें परमेश्वर के इन वचनों के अनुसार व्यवहार करना चाहिए, “उससे प्रेम करो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करो, जिससे परमेश्वर घृणा करता है।” एमा जानबूझकर ये अफवाहें और झूठ फैला रही थी, जिससे लोगों के मन में परमेश्वर को लेकर धारणाएँ और गलतफहमियाँ पैदा हुईं, और उसके कार्य को लेकर असमंजस हुआ। इससे कलीसिया का जीवन अशांत हो गया, जिसकी प्रकृति बुरी है। परमेश्वर को कुकर्मियों से नफरत है। लोगों को परमेश्वर के साथ खड़े होकर कुकर्मियों को ठुकराना और उनके बुरे कर्मों को रोकना चाहिए, ताकि जब दूसरे लोग सामान्य सभाएँ करें और परमेश्वर के वचन पढ़ें तो उसमें कोई रुकावट न आये। यह बात समझ आने पर, मैंने अगुआ से कहा, “भले ही मेरे लिए यह तथ्य स्वीकारना मुश्किल है कि एमा ने दुष्टता की, पर सच तो यही है। मैं उसको मुझे रोकने या बेबस करने नहीं दूँगी, मैं परमेश्वर के सिद्धांतों के अनुसार ही उससे पेश आऊँगी। अगर कलीसिया उसे अलग करने का फैसला करती है, तो मैं उसके प्रति अपनी भावनाओं को आड़े नहीं आने दूँगी, और परमेश्वर को दोष नहीं दूंगी।” अगुआ ने मुझसे कहा, “इस तरह की स्थिति में, भाई-बहनों को लगातार एमा के बहकावे में आने से बचाने के लिए, कलीसिया ने एमा को अलग-थलग करने का फैसला किया है, ताकि वह आत्म-चिंतन कर सके।” भले ही मैं एमा की हालत को लेकर परेशान थी, मगर मैं जानती थी कि एमा ने शैतान की सेवक के रूप में काम किया था, वह कलीसियाई जीवन में विघ्न-बाधा डाल रही थी, और अगुआ की व्यवस्था भाई-बहनों को अफवाहों और झूठ के बहकावे में आने या परेशान होने से बचाने के लिए थी, तो मैंने और कुछ नहीं कहा। कुछ ही दिनों में, एमा मेरे पास आई और उसने चिंता जताई कि उसे सभा समूह से हटा दिया जाएगा। मैंने उससे कहा, “तुमने गलत किया है। अगर तुम वाकई इन समस्याओं को हल करना चाहती हो, तो उनके बारे में अगुआ को बता सकती हो और अगुआ उन्हें हल करने में तुम्हारी मदद कर सकता है, बजाय इसके कि तुम भाई-बहनों के बीच ये अफवाहें और झूठ फैलाओ और उन्हें परेशान करो।” मैं चाहती थी कि एमा पश्चात्ताप करे, मगर उसने मुझे कोई जवाब नहीं दिया। उसने बस यही कहा कि वह समूह से हटाई जाना नहीं चाहती है, और यह कि अगर उसे हटा दिया गया, तो वह नकली जानकारी और नकली पते वाला एक नकली अकाउंट बनाकर फिर से सच्चे मार्ग की छानबीन करने वाले व्यक्ति के रूप में कलीसिया में प्रवेश करेगी, जिसका मतलब है कि उसे किसी दूसरी कलीसिया में भेजने की व्यवस्था की जाएगी। एमा की बातें सुनकर, मुझे बहुत हैरानी हुई। एमा बिल्कुल भी पश्चात्ताप नहीं करना चाहती थी। वह कलीसिया में बाधा डालने और नुकसान पहुंचाने के लिए नकली अकाउंट तक बनाना चाहती थी। क्या वह सिर्फ शैतान की सेवक नहीं थी? एमा की करनी से यह भी पता चला कि वह ईमानदार इंसान नहीं है। वह भाई-बहनों और कलीसिया को धोखा देना चाहती थी। तब, मैंने सिंचन उपयाजिका की जिम्मेदारी के बारे में सोचा : “किसी समस्या का पता लगने पर, उन्हें तुरंत सत्य की तलाश करके इसका समाधान करना चाहिए; बड़ी समस्याओं को कलीसिया के अगुवाओं के साथ सहभागिता करके हल किया जाना चाहिए। सच्चे तथ्यों का कोई छिपाव नहीं होना चाहिए” (कार्य व्यवस्था)। मुझे लगा कि सिंचन उपयाजिका होने के नाते, मुझे सत्य सिद्धांतों पर चलकर अपने भाई-बहनों को परेशान और गुमराह होने से बचाना चाहिए। तो, मैंने अगुआ को इसके बारे में बता दिया और हमारी बातचीत के स्क्रीनशॉट भी उसे भेज दिए। मगर फिर मैंने सोचा कि कैसे एमा ने ही सबसे पहले मुझसे सुसमाचार साझा किया था और कैसे हम दोनों में दोस्ती थी, और इसी वजह से मैंने अगुआ से पूछा कि क्या यह मुमकिन है कि एमा को उसके समूह में रहने दिया जाए। इससे, वह दूसरी कलीसियाओं को परेशान करने के लिए नकली अकाउंट नहीं बनाएगी। अगुआ ने मुझसे कहा, “अगर वह बुरे काम न करे या परेशानियां खड़ी न करे, तो उसे रहने दिया जा सकता है। मगर अभी, उसे अपने बुरे कर्मों और अपनी खड़ी की गई विघ्न-बाधाओं की कोई समझ नहीं है। वह अब भी जालसाजी करना, धोखा देना, और चोरी-छिपे दूसरी कलीसिया में घुसना चाहती है। इससे पता चलता है कि उसने पश्चात्ताप नहीं किया है! अगर उसमें वाकई एक कुकर्मी का सार है, तो वह न कभी पश्चात्ताप करेगी, न ही बदलेगी, और कुकर्म करना भी नहीं छोड़ेगी।” अगुआ की बातें मेरे लिए चेतावनी थी, और तब मुझे एहसास हुआ कि मैं भावनाओं में बहकर एमा को कलीसिया में रहने देना चाहती थी। एमा को खुद का कोई ज्ञान नहीं था। कहना न होगा कि वह फिर से कुकर्म करके कलीसिया में बाधा डाल सकती है। एमा की ओर से मेरी सिफारिश में सिद्धांत का नामोनिशान तक नहीं था।
बाद में, अगुआ की छानबीन में पता चला कि जब एमा के मन में धारणाएँ होती थीं, वह उन्हें हल करने के लिए सत्य नहीं खोजती थी। बल्कि, हालात का फायदा उठाते हुए परमेश्वर पर हमले करती थी, तथ्यों को गलत तरीके से पेश करती थी, अफवाह और झूठ फैलाती, और भाई-बहनों को गुमराह करती थी, ताकि वे भी परमेश्वर के कार्य को लेकर धारणाएँ रखें। वह सभाओं में अक्सर कहती कि अगुआ और समूह के मुखिया अपना काम ठीक से नहीं कर रहे हैं, जिससे उनके कर्तव्यों के प्रदर्शन की सकारात्मकता डगमगा गई है, वे नकारात्मक हो गए हैं, और इसका असर उनके कर्तव्यों के नतीजों पर भी पड़ा है। एमा के बर्ताव से कलीसिया में गंभीर रुकावटें आईं, पर उसने पश्चात्ताप नहीं किया, वह वाकई एक कुकर्मी थी। अंत में, कलीसिया ने लोगों को हटाने के सिद्धांतों के अनुसार एमा को निलंबित कर दिया, और मैंने एमा को बचाने की कोशिश नहीं की। मगर इसके बाद जो हुआ उससे मुझे बहुत पीड़ा हुई।
एक सुबह एमा ने मुझे संदेश भेजकर पूछा कि मैं उसके साथ ऐसा क्यों कर रही हूँ, और उसने कहा कि मैंने उसका भरोसा तोड़ दिया है, और मैंने हालात बहुत भयावह बना दिए हैं। बाद में मुझे एहसास हुआ कि उसके गुस्से का कारण नकली अकाउंट की बात को उछालना था। मैंने अगुआ को जो स्क्रीनशॉट भेजे थे उसकी सामग्री हमारी स्थानीय भाषा में लिखी गई थी जिसे अगुआ समझ नहीं पाई, तो उसने दूसरी बहन को उसका अनुवाद करने के लिए कहा। हालाँकि, वह बहन एमा की दोस्तों में से एक निकली और उसने इसके बारे उसे सब कुछ बता दिया। इसी वजह से एमा इसके बारे में सवाल पूछते हुए मुझे संदेश भेज रही थी। उस दिन सुबह को मैं बहुत ज्यादा रोई। मुझे लगा कि एमा के साथ मेरी दोस्ती खत्म होने वाली है। मैं एमा के साथ बिताए पलों को याद करने लगी। मुझे कोई परेशानी होने पर, एमा उसे हल करने में मेरी मदद करती थी, हम अक्सर एक-दूसरे से अपने विचार साझा करते थे...। मगर अब, मुझे नहीं पता था कि एमा को कैसे मुँह दिखाएँ। मैं अपने मन को शांत नहीं कर पाई। मैं सभाओं की मेजबानी करने में भी ध्यान नहीं दे पा रही थी। मैं खुद को दोष देती रही, “क्या मैंने वाकई सब कुछ खत्म कर दिया है? शायद उसे नकली अकाउंट बनाने और कलीसिया में बाधा डालने से रोकने का कोई बेहतर तरीका हो।” मुझे अपने फैसले पर संदेह होने लगा कि वह सही है या गलत। मैं बहुत परेशान थी। मैं तो अपना अकाउंट बंद करके, अपने भाई-बहनों को छोड़कर, इन सबसे दूर चली जाना चाहती थी, मगर मैं जानती थी कि मैं यूं ही अपने कर्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ सकती, मुझे समस्याओं से दूर भागने के बजाय सक्रिय होकर उनका हल खोजना चाहिए। तो, मैंने अगुआ को अपनी हालत के बारे में बताया। अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश भेजा : “तुम्हें सकारात्मकता की ओर से प्रवेश करना चाहिए; तुम्हें सक्रिय रहना चाहिए, निष्क्रिय नहीं। तुम्हें किसी भी स्थिति में किसी भी व्यक्ति या वस्तु से विचलित नहीं होना चाहिए, और किसी के भी शब्दों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। तुम्हारा स्वभाव स्थिर होना चाहिए; लोग चाहे कुछ भी कहें, तुम्हें फौरन उसी पर अमल करना चाहिए जिसे तुम सत्य के रूप में जानते हो। तुम्हारे भीतर मेरे वचन सदैव कार्यरत रहने चाहिए, फिर चाहे तुम्हारे सामने कोई भी हो; तुम्हें मेरे लिए अपनी गवाही में दृढ़ और मेरे दायित्वों के प्रति विचारशील रहना चाहिए। तुम्हें बिना अपने विचारों के, लोगों से आँख मूँदकर सहमत नहीं होना चाहिए; बल्कि तुम में खड़े होकर उन चीजों का विरोध करने का साहस होना चाहिए, जो सत्य के अनुरूप न हों। अगर तुम स्पष्ट रूप से जानते हो कि कुछ गलत है, फिर भी तुममें उसे उजागर करने का साहस न हो, तो तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति नहीं हो। तुम कुछ कहना चाहते हो, लेकिन तुरंत कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पाते, तुम बातों को गोल-गोल घुमाते रहते हो और फिर विषय को बदल देते हो; तुम्हारे अंदर का शैतान तुम्हें रोक रहा है, जिससे तुम जो बोलते हो उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और तुम अंत तक टिके रहने में असमर्थ हो जाते हो। तुम्हारे दिल में अभी भी डर बैठा हुआ है और क्या इसकी वजह यह नहीं है कि तुम्हारा दिल अब भी शैतान के विचारों से भरा हुआ है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 12)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद अगुआ ने मेरे साथ संगति की, “परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। अगर तुम्हें कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों को नुकसान पहुंचाने वाली चीज़ का, या शैतान द्वारा खड़ी की गई विघ्न-बाधा का पता चले तो तुममें उसके खिलाफ खड़े होने और उसे उजागर करके रोकने का साहस होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी चाहिए। ऐसा करने वाला इंसान ही सत्य का अभ्यास करता है। अगर हमें किसी गलत बात का पता चलता है, फिर भी हम अपनी भावनाओं के आगे बेबस रहते हैं, दूसरों के साथ अपने रिश्ते टूटने से डरते हैं, सत्य सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाते, तो हम शैतान की तरफ हैं, यह परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध है! तुम्हें अपनी दोस्त के झूठ फैलाने का पता चला, तो तुमने उसे उजागर किया और रोका, भाई-बहनों को नुकसान नहीं पहुँचने दिया। तुम्हारा फैसला सही था, और इसमें दोषी या दुखी महसूस करने की कोई जरूरत नहीं है।” परमेश्वर के वचन पढ़ने और बहन की संगति सुनने के बाद, मैंने देखा कि मेरा आध्यात्मिक कद अब भी बहुत छोटा है, और मुझमें विवेक की कमी है। मैंने साफ तौर पर सिद्धांतों के अनुसार काम तो किया, मगर जब एमा ने शिकायत की और आरोप लगाए, तो मैं डगमगा गई, और मुझे संदेह होने लगा कि मैंने ही कुछ गलत किया है। अब मैं जान गई हूँ कि मेरा फैसला और अभ्यास सही था। जब भी कलीसिया के कार्य और मेरे भाई-बहनों के जीवन की बात हो, मुझे सिद्धांतों पर चलकर अडिग रुख अपनाना होगा। मुझे भावनाओं के आगे बेबस हुए बिना सही-गलत में फर्क करना सीखना होगा।
परमेश्वर की इच्छा को समझकर, मैंने खुद को शांत किया और अपने कर्तव्य पर ध्यान देने लगी। मगर बात यहीं खत्म नहीं होती। एमा ने अचानक मुझे एक और मैसेज भेजा, जिसमें लिखा था, “मुझे समूह से हटा दिया गया है। अब तो खुश हो? यह सब तुम्हारी मेहरबानी है। बहुत-बहुत शुक्रिया!” उसकी बातों में उपहास और व्यंग्य था। कुछ समय तक मुझे समझ ही नहीं आया कि एमा से क्या कहूँ। मैं जानती थी कि उस पल से हमारी दोस्ती खत्म हो चुकी थी, मुझे बहुत दुख हुआ। हमारा रिश्ता कितना अच्छा था, और उसी ने मेरे साथ सुसमाचार साझा किया था। मगर अब, मैंने अगुआ को उसकी समस्या की रिपोर्ट कर दी। क्या मैंने उसे धोखा नहीं दिया? वह मेरे बारे में क्या सोचेगी? अब मैं क्या करूँ? क्या मुझे उससे माफ़ी मांगनी चाहिए? क्या मैंने उसका भरोसा तोड़ा है? क्या मैं हमारी दोस्ती को संजोने में नाकाम रही? मैंने जो किया, क्या वह वाकई सही था? अपनी उलझन और पीड़ा में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “ऐसा व्यवहार जो पूरी तरह से मेरी आज्ञा का पालन नहीं कर सकता है, विश्वासघात है। ऐसा व्यवहार जो मेरे प्रति निष्ठावान नहीं हो सकता है विश्वासघात है। मेरे साथ धोखा करना और मेरे साथ छल करने के लिए झूठ का उपयोग करना, विश्वासघात है। धारणाओं से भरा होना और हर जगह उन्हें फैलाना विश्वासघात है। मेरी गवाहियों और हितों की रक्षा नहीं कर पाना विश्वासघात है। दिल में मुझसे दूर होते हुए भी झूठमूठ मुस्कुराना विश्वासघात है। ये सभी विश्वासघात के काम हैं जिन्हें करने में तुम लोग हमेशा सक्षम रहे हो, और ये तुम लोगों के बीच आम बात है। तुम लोगों में से शायद कोई भी इसे समस्या न माने, लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता हूँ। मैं अपने साथ किसी व्यक्ति के विश्वासघात को एक तुच्छ बात नहीं मान सकता हूँ, और निश्चय ही, मैं इसे अनदेखा नहीं कर सकता हूँ” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे प्रबोधन मिला। मैं हमेशा यही सोचती थी कि मैंने ही अपनी दोस्त को धोखा दिया। मैंने यह क्यों नहीं सोचा कि मेरे मत और बर्ताव सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, या क्या मैंने परमेश्वर को धोखा दिया? मुझे सिर्फ अपनी दोस्त की भावनाओं की चिंता करके परमेश्वर के रवैये को अनदेखा नहीं करना चाहिए। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं : “मेरी गवाहियों और हितों की रक्षा नहीं कर पाना विश्वासघात है।” एमा ने परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाएँ फैलाईं, भाई-बहनों को धोखा दिया, और कलीसियाई जीवन में बाधा पहुँचाई। वह तो नकली अकाउंट बनाकर दूसरों को भी धोखा देना चाहती थी। ये सभी शैतान के काम हैं जो कलीसिया के कार्य को तहस-नहस कर देते हैं। अगर मैं एमा के साथ खड़ी रहकर सत्य का अभ्यास नहीं करती, तो यह शैतान के साथ खड़े रहकर परमेश्वर को धोखा देना होता! मैंने परमेश्वर के इन वचनों को भी याद किया : “चाहे कुछ भी हो जाए, मेरे प्रति निष्ठावान रहो, और बहादुरी से आगे बढ़ो; मैं तुम्हारी शक्ति की चट्टान हूँ, इसलिए मुझ पर भरोसा रखो!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 10)। मुझे ईमानदारी से परमेश्वर से प्रार्थना करके उस पर भरोसा रखना चाहिए। मुझे यह विश्वास रखना चाहिए कि परमेश्वर सही-गलत को समझने और लोगों को पहचानने में मेरा मार्गदर्शन करेगा, और इस मामले में मुझे अपने सिद्धांतों और स्थिति को खोने नहीं देगा।
बाद में, मैंने सोचा, “जब मुझे पता चला कि एमा कुछ गलत कर रही थी, तो मैंने अगुआ से उसकी रिपोर्ट कर दी। यह साफ तौर पर कलीसिया के कार्य की रक्षा के लिए था। फिर मैं एमा के लिए हमेशा दुखी क्यों महसूस करती हूँ?” बाद में, परमेश्वर के वचनों ने ही मेरे सवाल का जवाब दे दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर परमेश्वर के साथ तुम्हारा सामान्य संबंध नहीं है, तो चाहे तुम दूसरों के साथ संबंध बनाए रखने के लिए कुछ भी कर लो, चाहे तुम जितनी भी मेहनत कर लो या जितनी भी ऊर्जा लगा दो, वह सब इंसानी जीवन-दर्शन से संबंधित ही होगा। तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार सामान्य पारस्परिक संबंध स्थापित करने के बजाय लोगों के बीच अपनी स्थिति सुरक्षित कर रहे होगे और इंसानी दृष्टिकोणों और इंसानी फलसफों के जरिये उनकी प्रशंसा प्राप्त कर रहे होगे। अगर तुम लोगों के साथ अपने संबंधों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और उसके बजाय परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध बनाए रखते हो, अगर तुम अपना हृदय परमेश्वर को देने और उसकी आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार हो, तो तुम्हारे पारस्परिक संबंध स्वाभाविक रूप से सामान्य हो जाएँगे। ... सामान्य पारस्परिक संबंध अपना हृदय परमेश्वर की ओर मोड़ने की नींव पर स्थापित होते हैं, इंसानी प्रयासों के जरिये नहीं। अगर व्यक्ति के हृदय से परमेश्वर अनुपस्थित है, तो अन्य लोगों के साथ उसके संबंध केवल दैहिक हैं। वे सामान्य नहीं हैं, वे कामुक आसक्तियाँ हैं, परमेश्वर उनसे घृणा करता है और उन्हें नापसंद करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है)। “तुम जो कुछ भी करते या कहते हो, उसमें अपने हृदय को सही बनाने और अपने कार्यों में नेक होने में सक्षम बनो, और अपनी भावनाओं से संचालित मत होओ, न अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करो। ये वे सिद्धांत हैं, जिनके अनुसार परमेश्वर के विश्वासियों को आचरण करना चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि मुझे दूसरों के साथ अपने रिश्तों को बचाने की बहुत परवाह थी, मैंने परमेश्वर के साथ अपने सामान्य रिश्ते को अनदेखा किया और दैहिक भावनाओं में जीती रही। सच तो यह है कि दूसरों के साथ रिश्ते सिर्फ अपने निजी हितों, छवि, और रुतबे की खातिर बनाए रखे जाते हैं। ये सभी चीजें देह से आती हैं। ये भावनाओं और निजी इरादों से कलंकित होते हैं, और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप भी नहीं होते। मुझे समझ आ गया कि मैं एमा के मामले में झूल रही थी, एक जगह टिक नहीं पा रही थी, क्योंकि मैं अपनी भावनाओं के आगे बेबस थी, जो मुझे सही फैसला लेने से रोक रही थीं। मैं सिर्फ अपनी दोस्ती, अपनी छवि और लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाए रखने के बारे में सोचती थी, नतीजतन मैं भावनाओं में उलझ गई। इसलिए मैं लोगों से सत्य सिद्धांतों के अनुसार बर्ताव नहीं कर पाई, कलीसिया के हितों के बारे में तो बिल्कुल नहीं सोच पाई। मैं तो अपना कर्तव्य तक छोड़ना चाहती थी, भाई-बहनों से दूरी बनाकर परमेश्वर को धोखा देना चाहती थी। तब जाकर मुझे समझ आया कि भावनाएँ स्वार्थी होती हैं। शैतान भावनाओं के जरिए लोगों पर काबू करके उन्हें सत्य और परमेश्वर को धोखा देने पर मजबूर करता है। मुझे यह भी समझ आया कि वास्तव में, जब एमा ने मेरे साथ सुसमाचार साझा करके मुझे सभा में बुलाया था, तो ये परमेश्वर की संप्रभु व्यवस्थाएँ थीं। मुझे परमेश्वर का आभारी होना चाहिए, एमा का नहीं। यह सब समझ आने पर, मुझे काफी सुकून मिला और मेरी पीड़ा भी बहुत कम हो गई।
बाद में, एक सभा में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा, जिससे मैं एमा के प्रकृति-सार को साफ तौर पर देख पाई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “भाइयों-बहनों में से जो लोग हमेशा अपनी नकारात्मकता का गुबार निकालते रहते हैं, वे शैतान के अनुचर हैं और वे कलीसिया को परेशान करते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य ही एक दिन निकाल और हटा दिया जाना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अगर लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल न हो, परमेश्वर की आज्ञा मानने वाला दिल न हो, तो ऐसे लोग न सिर्फ परमेश्वर के लिए कोई कार्य कर पाने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने वाले और उसकी उपेक्षा करने वाले लोग बन जाएंगे। परमेश्वर में विश्वास करना किन्तु उसकी आज्ञा का पालन न करना या उसका भय न मानना और उसका प्रतिरोध करना, किसी भी विश्वासी के लिए सबसे बड़ा कलंक है। यदि विश्वासी अपनी वाणी और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं। जो लोग कलीसिया के भीतर विषैली, दुर्भावनापूर्ण बातों का गुबार निकालते हैं, भाई-बहनों के बीच अफवाहें व अशांति फैलाते हैं और गुटबाजी करते हैं, तो ऐसे सभी लोगों को कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए था। अब चूँकि यह परमेश्वर के कार्य का एक भिन्न युग है, इसलिए ऐसे लोग नियंत्रित हैं, क्योंकि उन्हें निश्चित रूप से बाहर निकाला जाना है। शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली पैशाचिक शैतान हैं। उनके आचरण से परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी और विघ्न पैदा होता है; इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में विघ्न पड़ता है और कलीसिया के सामान्य कार्यकलापों को क्षति पहुंचती है। आज नहीं तो कल, भेड़ की खाल में छिपे इन भेड़ियों का सफाया किया जाना चाहिए, और शैतान के इन अनुचरों के प्रति एक सख्त और अस्वीकृति का रवैया अपनाया जाना चाहिए। केवल ऐसा करना ही परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना है; और जो ऐसा करने में विफल हैं वे शैतान के साथ कीचड़ में लोट रहे हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। यह अंश लोगों के लिए परमेश्वर की चेतावनी है। मैं समझती हूँ कि जो लोग सत्य का अभ्यास नहीं करते, अफवाहें फैलाते और कलह के बीज बोते हैं, वे परमेश्वर का विरोध करने और उसे ठुकराने वाले लोग हैं। ये परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं, शैतान के सेवक और कुकर्मी हैं। उनके सभी काम परमेश्वर के विरुद्ध होते हैं, और कलीसिया के नियमों के अनुसार, ऐसे लोगों को निकाल दिया जाना चाहिए। परमेश्वर का धन्यवाद! अब मेरा दिल रोशन हो गया है, मुझमें विवेक है। एमा के बर्ताव से मुझे यकीन हो गया है कि वह कुकर्मी है। मुझे यह भी याद आया कि “दूसरों के साथ उनके सार के अनुसार व्यवहार करने के सिद्धांत” में कहा गया है : “(4) यदि किसी की भी सारभूत रूप से एक दुष्ट व्यक्ति, एक दुष्ट आत्मा, एक मसीह-विरोधी, या एक गैर-विश्वासी व्यक्ति होने की पुष्टि की जाती है, तो उस व्यक्ति को कलीसिया द्वारा बनाये गए नियमानुसार हटा देना या निष्कासित किया जाना चाहिए; (5) धोखेबाज लोग जो अक्सर गलत विचारों को प्रकट करते हैं, जो अक्सर परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखते हैं और उसके खिलाफ रक्षात्मक होते हैं, गैर-विश्वासियों में गिने जाते हैं। उन्हें हटा देना या निष्कासित किया जाना चाहिए” (सत्य का अभ्यास करने के 170 सिद्धांत, 132. दूसरों के साथ उनके सार के अनुसार व्यवहार करने के सिद्धांत)। सिद्धांतों के अनुसार, कुकर्मियों को कलीसिया से निकाल देना चाहिए ताकि वे कलीसिया में परेशानियां खड़ी न कर पाएँ, और जब दूसरे लोग सभा करें या अपने कर्तव्य निभाएँ तो उन्हें कोई परेशानी न हो। मैंने यह भी समझा कि परमेश्वर कुकर्मियों को कलीसिया में परेशानियां खड़ी करने देता है ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य समझ पाएँ, लोगों को पहचानना सीखें, और उनके साथ परमेश्वर के वचन के अनुसार पेश आएँ। साथ ही, इससे हम अपना असली आध्यात्मिक कद जानकर, सत्य का अभ्यास करना और कलीसिया के हितों की रक्षा करना सीख पाते हैं। इन बातों का एहसास होने पर, मैंने परमेश्वर का आभार माना। परमेश्वर के संरक्षण और उसके वचनों के मार्गदर्शन के बिना मैं अब भी भावनाओं के आगे बेबस में रहती, एमा के बहकावे में आकर एक कुकर्मी के लिए आवाज उठाती। यह बहुत खतरनाक चीज है! इन बातों का एहसास होने पर मुझे इस मामले से कोई परेशानी नहीं रही, और मैंने काफी सुकून महसूस किया।
इसके बाद, एमा ने कई बार मुझसे संपर्क किया, मगर अब मैं उससे प्रभावित या परेशान नहीं होती थी। इस अनुभव से गुजरने के बाद, मैंने परमेश्वर का भरपूर आभार माना। उसने ही कुछ सत्य समझने, अच्छे-बुरे का फर्क करने, और भावना के बंधनों से मुक्त होने में मेरा मार्गदर्शन किया। सत्य लोगों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। सत्य के आधार पर लोगों और चीजों को देखकर ही हम शैतान के हाथों गुमराह और इस्तेमाल हुए बिना सिद्धांत के अनुसार काम कर सकते हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!