सत्य का अनुसरण कैसे करें (18)

कुछ दिनों पहले, एक गंभीर घटना घटी जहाँ मसीह-विरोधी सुसमाचार फैलाने के कार्य में बाधा डाल रहे थे। क्या तुम लोगों को इसकी जानकारी है? (हाँ।) इस घटना के बाद, परमेश्वर के घर के सुसमाचार कार्य की पुनर्व्यवस्था शुरू हुई, और कुछ लोगों के काम में बदलाव या उनका तबादला किया जाने लगा, और कार्य से संबंधित कुछ मामलों में भी बदलाव किया गया, है न? (हाँ।) इस तरह की बड़ी घटना परमेश्वर के घर में घटी और तुम लोगों के आस-पास मसीह-विरोधी उभर आए—क्या तुम लोग ऐसी महत्वपूर्ण घटना का सामना करके कुछ सबक सीख पाए हो? क्या तुम लोगों ने सत्य खोजा है? क्या तुमने कुछ समस्याओं का सार देखकर, इतनी बड़ी घटना से कुछ सबक लेने में सक्षम हुए हो? जब कुछ घटित होता है, तो क्या ऐसा नहीं है कि ज्यादातर लोग उस घटना के सार को गहराई से समझे बिना, और यह सीखे बिना ही कि लोगों और चीजों को कैसे देखें, सत्य के अनुरूप आचरण व कार्य कैसे करें, बस बाहरी तौर पर उससे कुछ सबक ले लेते और कुछ सिद्धांतों को समझ लेते हैं? कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सिर्फ अपने दिमाग के हिसाब से सोचते और जोड़-तोड़ करते हैं, चाहे उनके साथ कुछ भी हो जाए। उनमें सत्य सिद्धांतों के साथ-साथ समझदारी और बुद्धि की भी कमी होती है। वे बस कुछ सबकों का सार निकालकर संकल्प लेते हैं : “जब भविष्य में ये चीजें दोबारा होंगी, तो मुझे सावधान रहना होगा और उन चीजों पर भी ध्यान देना होगा जो मैं नहीं कह सकता, जो चीजें मैं नहीं कर सकता, मुझे किस तरह के लोगों से सावधान रहना चाहिए और किस तरह के लोगों के करीब रहना है।” क्या इसे सबक सीखने और अनुभव हासिल करने में गिना जा सकता है? (नहीं।) तो, जब इस तरह की चीजें घटती हैं, फिर चाहे वे बड़ी घटनाएँ हों या छोटी, लोगों को उन्हें कैसे अनुभव करना चाहिए, उसके प्रति क्या रवैया अपनाना चाहिए, और कैसे उनमें गहराई से प्रवेश करना चाहिए, ताकि वे सबक सीख सकें, कुछ सत्यों को समझ सकें और इन परिवेशों का सामना करते हुए अपना आध्यात्मिक कद बढ़ा सकें? ज्यादातर लोग इन बातों पर विचार नहीं करते, है न? (हाँ।) अगर वे इन बातों पर विचार नहीं करते हैं, तो क्या वे सत्य खोजने वालों में से हैं? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? (नहीं।) क्या तुम लोगों को लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वालों में से हो? किन चीजों के आधार पर तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो? और किन चीजों के आधार पर तुम्हें कभी-कभी लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो? जब तुम अपने कर्तव्य में थोड़ा कष्ट सहते और थोड़ी कीमत चुकाते हो, और कभी-कभी अपने काम के प्रति थोड़े ज्यादा गंभीर होते हो, या कुछ पैसों का योगदान देते हो, या खुद को परमेश्वर के लिए खपाने की खातिर अपने परिवार को त्याग देते हो, अपनी नौकरी से इस्तीफा देते हो, अपनी पढ़ाई छोड़ देते हो, और अपनी शादी का परित्याग कर देते हो, या सांसारिक रुझानों के साथ चलने से बचते हो, या बुरे लोगों से दूर रहते हो, वगैरह—जब तुम लोग ये चीजें कर पाते हो, तब क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति और एक सच्चे विश्वासी हो? तुम सबको ऐसा ही लगता है न? (हाँ।) अब ये बताओ, तुम लोगों को ऐसा किस आधार पर लगता है? क्या यह परमेश्वर के वचनों और सत्य पर आधारित है? (नहीं।) यह खयाली पुलाव है; तुम लोग अपना फैसला खुद सुना रहे हो। जब तुम कभी-कभी कुछ नियमों का पालन करते और कायदे-कानून मानते हुए काम करते हो, और तुममें अच्छी मानवता की कुछ अभिव्यक्तियाँ होती हैं, जब तुम धैर्यवान और सहनशील होने में सक्षम होते हो, जब तुम बाहरी तौर पर विनम्र, सरल, सहज होते हो, और अहंकारी नहीं होते, और जब तुम परमेश्वर के घर के कार्य में थोड़ा जिम्मेदारी से भरा संकल्प या मानसिकता रखने में सक्षम होते हो, तो तुम्हें लगता है कि तुमने वाकई सत्य का अनुसरण किया है और तुम वाकई सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो। तो, क्या ये अभिव्यक्तियाँ सत्य का अनुसरण कहलाती हैं? (नहीं।) सटीकता से कहें, तो ये बाहरी बर्ताव, व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ सत्य का अनुसरण नहीं हैं। तो, लोग हमेशा यह क्यों सोचते हैं कि ये अभिव्यक्तियाँ सत्य का अनुसरण हैं? वे हमेशा ऐसा क्यों सोचते हैं कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं? (लोगों की धारणा में यही सोच होती है कि अगर वे थोड़ी कोशिश करते और खुद को थोड़ा खपाते हैं, तो ये सत्य का अनुसरण करने की अभिव्यक्तियाँ हैं। इसलिए, जब वे अपने कर्तव्यों में थोड़ी सी कीमत चुकाते या थोड़ा कष्ट सहते हैं, तो उन्हें लगता है कि वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं, मगर उन्होंने पहले कभी यह नहीं खोजा कि इस मामले के बारे में परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, या परमेश्वर यह कैसे आँकता है कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण कर रहा है या नहीं। इस वजह से, वे खुद को महान मानते हुए, हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं में ही जीते हैं।) लोग अपनी धारणाओं को कभी नहीं त्यागते, और जब यह निर्धारित करने का महत्वपूर्ण मामला आता है कि क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं, तो वे हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ-साथ अपने खयाली पुलाव पर निर्भर रहते हैं। वे ऐसा बर्ताव क्यों करते हैं? क्या ऐसा इसलिए नहीं है कि जब वे इस तरह से सोचते और कार्य करते हैं, तो वे सहज महसूस करते हैं, यह मानते हैं कि सत्य का अनुसरण करने के लिए उन्हें कोई कीमत चुकाने की जरूरत नहीं है, और वे अभी भी लाभ और आशीष पा सकते हैं? एक और कारण यह है कि लोगों के तथाकथित अच्छे व्यवहार, जैसे कि उनका त्याग, उनकी पीड़ा, उनका कीमत चुकाना वगैरह, ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें वे हासिल और पूरा कर सकते हैं, है न? (हाँ।) लोगों के लिए अपने परिवारों और नौकरियों को त्यागना आसान है, पर उनके लिए वास्तव में सत्य का अनुसरण करना, सत्य का अभ्यास करना, या सत्य सिद्धांतों के आधार पर कार्य करना आसान नहीं है, और उनके लिए इन चीजों को हासिल करना भी आसान नहीं है। भले ही तुम थोड़ा-सा सत्य समझते हो, तुम्हारे लिए अपने विचारों, धारणाओं या भ्रष्ट स्वभावों के खिलाफ विद्रोह करना, और सत्य सिद्धांतों पर टिके रहना बहुत कठिन होगा। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो परमेश्वर में तुमने जितने सालों तक विश्वास किया, उनमें तुम सत्य के विभिन्न पहलुओं के संबंध में अब तक कोई प्रगति करते प्रतीत क्यों नहीं होते? भले ही तुमने कोई कीमत चुकाई हो, या भले ही तुमने कुछ भी छोड़ा या त्यागा हो, अंततः इससे जो परिणाम तुम्हें मिले हैं, क्या वो सत्य का अनुसरण और अभ्यास करके मिले परिणाम हैं? चाहे तुमने कितनी भी कीमत चुकाई हो, कितना भी कष्ट सहा हो या कितनी भी दैहिक चीजों को त्यागा हो, इन सबसे तुमने अंत में क्या पाया है? क्या तुमने सत्य प्राप्त किया है? क्या तुमने सत्य के संबंध में कुछ हासिल किया है? क्या तुमने अपने जीवन प्रवेश में प्रगति की है? क्या तुमने अपने भ्रष्ट स्वभावों को बदला है? क्या तुममें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है? हम परमेश्वर के प्रति समर्पण जैसे गहरे पाठ या अभ्यास के बारे में बात नहीं करेंगे, इसके बजाय हम बस सबसे सरल चीज के बारे में बात करेंगे। तुमने सब कुछ त्याग दिया है, इतने सालों तक कष्ट सहे हैं और कीमतें चुकाई हैं—क्या तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर सकते हो? खासकर जब मसीह-विरोधी और बुरे लोग कलीसिया के कार्य में बाधा डालने के लिए बुरे काम करते हैं, तो क्या तुम उन बुरे लोगों के हितों को बनाए रखते हुए और खुद की रक्षा करते हुए अपनी आँखें मूंद लेते हो, या फिर तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े रहकर उसके घर के हितों को बनाए रखते हो? क्या तुमने सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास किया है? अगर तुमने ऐसा नहीं किया है, तो तुम्हारी पीड़ा और तुमने जो कीमतें चुकाई हैं वो पौलुस की पीड़ा और कीमतों से अलग नहीं हैं। वे बस आशीष पाने की खातिर किए गए हैं, और वे सभी निरर्थक हैं। ये वैसे ही हैं जैसा कि पौलुस ने अपनी लड़ाइयाँ लड़ने और अपने हिस्से के कार्यों को पूरा करने, और अंत में आशीष और पुरस्कार पाने के बारे में कहा था—इसमें कोई अंतर नहीं है। तुम पौलुस के मार्ग पर चल रहे हो; तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे। तुम सोचते हो कि तुम्हारे त्याग, खुद को खपाना, कष्ट उठाना और तुम्हारे द्वारा चुकाई गई कीमतें सत्य का अभ्यास हैं, तो इन वर्षों में तुमने कितने सत्य समझे हैं? तुम्हारे पास कितनी सत्य वास्तविकताएँ हैं? तुमने कितने मामलों में परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा की है? तुम कितने मामलों में सत्य और परमेश्वर के पक्ष में खड़े रहे हो? अपने कितने क्रियाकलापों में तुमने इसलिए बुरा काम करने या अपनी मनमर्जी करने से परहेज किया है क्योंकि तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? लोगों को ये सारी चीजें समझनी और इनकी जाँच करनी चाहिए। अगर वे इन चीजों की जाँच नहीं करते, तो जितने समय तक वे परमेश्वर में विश्वास करते रहेंगे, और विशेष रूप से, जितने समय तक वे कर्तव्य निभाते रहेंगे, उतना ही ज्यादा उन्हें यह लगेगा कि उन्होंने एक सराहनीय योगदान दिया है, और उन्हें निश्चित रूप से बचाया जाएगा, और यह भी लगेगा कि वे परमेश्वर के हैं। अगर एक दिन उन्हें बर्खास्त कर दिया जाए, उजागर करके निकाल दिया जाए, तो वे कहेंगे : “भले ही मैंने कोई सराहनीय सेवा नहीं की है, पर मैंने कम से कम कड़ी मेहनत की है, और अगर मैंने कड़ी मेहनत नहीं भी की है, तो भी कम से कम खुद को बहुत थकाया है। इतने सालों तक मेरे कष्ट सहने और कीमत चुकाने के आधार पर, परमेश्वर के घर को मुझे बर्खास्त नहीं करना चाहिए या मेरे साथ इस तरह का बर्ताव नहीं करना चाहिए। परमेश्वर के घर के लिए काम करने के बाद उसे मुझे यूँ ही बाहर नहीं निकाल फेंकना चाहिए!” अगर तुम सचमुच सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो तुम्हें ये बातें नहीं कहनी चाहिए। अगर तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो तुमने कितनी बार परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं को पूरी तरह से और सटीकता से लागू किया है? तुमने उनमें से कितनी चीजों को लागू किया है? तुमने कितने कार्यों की खोज-खबर ली है? उनमें से कितने कार्यों की जाँच की है? तुम्हारी जिम्मेदारियों और कर्तव्य के दायरे में, और तुम्हारी काबिलियत, समझने की क्षमता और सत्य की समझ से जो हासिल किया जा सकता है, उसकी सीमा में, तुमने किस हद तक भरसक कोशिश की है? तुमने कौन-से कर्तव्य अच्छे से निभाए हैं? तुमने कितने अच्छे कर्म तैयार किए हैं? ये इस बात का परीक्षण करने के मानक हैं कि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है या नहीं। अगर तुमने इन सभी चीजों में गड़बड़ की है, और कोई परिणाम हासिल नहीं किया है, तो इससे साबित होता है कि तुम इतने सालों से बस आशीष पाने की आशा में पीड़ा सहते और कीमत चुकाते रहे हो, और तुम सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते हो; तुमने जो कुछ भी किया है वह सब खुद के लिए, रुतबा और आशीष पाने के लिए किया है, और यह परमेश्वर के मार्ग पर चलना नहीं है। तो, तुमने आज तक क्या कुछ किया है? क्या इस तरह के लोगों का अंतिम परिणाम पौलुस जैसा ही नहीं होता? (होता है।) ये सभी लोग पौलुस के मार्ग पर चल रहे हैं, तो स्वाभाविक रूप से, उनका परिणाम पौलुस जैसा ही होगा। सिर्फ इसलिए कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, और तुमने अपनी नौकरी और परिवार को या कुछ मामलों में अपने छोटे बच्चों को भी त्याग दिया है, इस वजह से यह मत सोचो कि तुमने कोई सराहनीय योगदान दिया है। तुमने कोई सराहनीय योगदान नहीं दिया है, तुम बस एक सृजित प्राणी हो, तुम जो कुछ भी करते हो वह सब सिर्फ तुम्हारे खुद के लिए है, और वह है जो तुम्हें करना चाहिए। अगर यह सब आशीष पाने के लिए नहीं होता, तो क्या तुम कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होते? क्या तुम अपने परिवार को त्यागने और अपनी नौकरी छोड़ने में सक्षम होते? अपने परिवार को त्यागने, अपनी नौकरी छोड़ने, पीड़ा सहने और कीमतें चुकाने को सत्य का अनुसरण करने और खुद को परमेश्वर के लिए खपाने के बराबर मत समझो। यह बस खुद को बेवकूफ बनाना है।

जो लोग सत्य को और अपने साथ हुई काट-छाँट को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं, तो जब भी परमेश्वर के घर में कोई बड़ी सफाई होती है, तब उन्हें एक-एक करके उजागर किया और बाहर निकाल दिया जाता है। जिन लोगों की समस्याएँ बहुत ज्यादा गंभीर नहीं होती हैं, उन्हें निगरानी में रहने की अनुमति दी जाती है, और उजागर किए जाने के बाद उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका दिया जाता है। जहाँ तक दूसरों की बात है, जिनकी समस्याएँ बहुत गंभीर हैं, बार-बार आलोचना होने के बावजूद उनमें सुधार नहीं हो पाता, वे बार-बार वही काम करते और वही गलतियाँ दोहराते हैं, वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालते, गड़बड़ करते, और इसे नष्ट करते हैं, तो आखिर में उन्हें सिद्धांतों के अनुसार हटाकर निकाल दिया जाता है, और दूसरा मौका नहीं दिया जाता। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे उनके लिए बुरा लगता है कि उन्हें दूसरा मौका नहीं दिया जाता है।” क्या उन्हें पर्याप्त मौके नहीं दिए जाते हैं? वे परमेश्वर के वचन सुनने, उसके वचनों की ताड़ना और न्याय को स्वीकारने या उसके शुद्धिकरण और उद्धार को पाने के लिए उसमें विश्वास नहीं करते हैं, बल्कि वे बस अपने काम से मतलब रखते हैं। जब वे कलीसिया का काम करना या विभिन्न कर्तव्यों का निर्वहन करना शुरू करते हैं, तो वे सभी प्रकार के गलत कामों में शामिल होना, बाधा डालना और गड़बड़ करना शुरू कर देते हैं, जिससे कलीसिया के कार्य के साथ-साथ परमेश्वर के घर के हितों को भी गंभीर नुकसान होता है। उन्हें बार-बार मौके देने और धीरे-धीरे विभिन्न कर्तव्य निर्वहन समूहों से निकालने के बाद, परमेश्वर का घर उन्हें सुसमाचार टीम में अपना कर्तव्य निभाने का मौका देता है, मगर वहाँ पहुँचने के बाद, वे अपने कर्तव्य निर्वहन में कड़ी मेहनत नहीं करते हैं, और वे अभी भी बिना पश्चात्ताप किए या बिना बदले विभिन्न प्रकार के गलत कामों में लगे रहते हैं। परमेश्वर का घर चाहे सत्य पर कैसे भी संगति करे, चाहे कोई भी कार्य व्यवस्था बनाए, और भले ही वह इन लोगों को मौके और चेतावनी देता हो, और यहाँ तक कि उनकी काट-छाँट भी करता हो, मगर इनका कोई फायदा नहीं होता है। वे बेहद सुन्न ही नहीं, बल्कि बहुत अड़ियल हैं। बेशक, यह अड़ियलपन उनके भ्रष्ट स्वभावों के परिप्रेक्ष्य से उपजता है। अपने सार में, वे लोग नहीं, शैतान हैं। कलीसिया में प्रवेश करते समय, शैतान के रूप में कार्य करने के अलावा, वे परमेश्वर के घर के कार्य और कलीसिया के कार्य के फायदे के लिए कुछ भी नहीं करते। वे बस बुरे काम करते हैं; वे केवल कलीसिया के कार्य में बाधा डालते और गड़बड़ करते हैं। सुसमाचार का प्रचार करते हुए बस कुछ लोगों को प्राप्त करने के बाद ही, उन्हें लगता है कि उनके पास पूँजी है और उन्होंने एक सराहनीय योगदान दिया है, और वे अपनी उपलब्धियों के भरोसे आराम करने लगते हैं, सोचते हैं कि वे परमेश्वर के घर पर राजा की तरह राज कर सकते हैं, कार्य के किसी भी पहलू को लेकर आदेश दे सकते और फैसले ले सकते हैं, और लोगों को उनका अभ्यास करने और उन्हें लागू करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऊपरवाला सत्य पर कैसे संगति करता है या कार्य की व्यवस्था कैसे करता है, ये लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। तुम्हारे सामने तो वे बहुत चिकनी-चुपड़ी बातें कहेंगे : “परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाएँ अच्छी हैं, वे बिल्कुल वैसी ही हैं जैसी हमें जरूरत है, उन्होंने सही समय पर चीजों को ठीक कर दिया, नहीं तो हमें पता ही नहीं चलता कि हम कितना भटक गए थे।” तुम्हारे सामने से हटते ही, वे बदल जाते हैं और अपने विचार फैलाने लगते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोग सचमुच मनुष्य हैं? (नहीं।) अगर वे मनुष्य नहीं हैं, तो क्या हैं? सतही तौर पर, उन पर मनुष्य की चमड़ी की एक परत होती है, मगर सार में, वे मानवीय चीजें नहीं करते—वे दानव हैं! कलीसिया में उनकी भूमिका विशेष रूप से परमेश्वर के घर के विभिन्न कार्यों में बाधा डालने की है। वे जो भी कार्य कर रहे होते हैं उसमें बाधा डालते हैं, और उन्होंने कभी सत्य या सिद्धांतों को नहीं खोजा है, कार्य व्यवस्थाओं पर ध्यान नहीं दिया या उनके अनुसार कार्य नहीं किया है। जैसे ही उन्हें थोड़ी ताकत मिल जाती है, वे इसका दिखावा करते और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने अपना रौब जमाते हैं। उन सभी के चेहरे दानवों के हैं, और उनमें मनुष्य जैसा कुछ भी नहीं है। उन्होंने कभी भी परमेश्वर के घर के हितों को बरकरार नहीं रखा है, वे बस अपने हितों और रुतबे की रक्षा करते हैं। चाहे वे किसी भी स्तर के अगुआ के रूप में काम करते हों, या किसी भी कार्य की निगरानी करते हों, जैसे ही उन्हें कार्य सौंपा जाता है, यह उनका कार्य हो जाता है, इसमें आखिरी फैसला उनका ही होता है, और दूसरों के लिए इसकी जाँच करने, निगरानी करने या इसकी खोज-खबर लेने के बारे में न सोचना ही बेहतर है, और इसमें दखल देने की बात तो उन्हें बिल्कुल नहीं सोचनी चाहिए। क्या ये पक्के मसीह-विरोधी नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) और ये लोग फिर भी आशीष पाना चाहते हैं! ऐसे लोगों के लिए मेरे पास दो शब्द हैं : विवेकहीन और कभी न सुधर सकने वाले। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते वे कभी भी लड़खड़ा सकते हैं, और वे ज्यादा दूर तक नहीं जा सकेंगे। अतीत में, मैं अक्सर तुम लोगों से कहता था : “अगर तुम अंतिम समय तक श्रम कर सकते हो, और एक वफादार श्रमिक बन सकते हो, तो यह भी काफी अच्छा है।” कुछ लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और उसका अनुसरण नहीं करना चाहते हैं। इसके बारे में क्या किया जाना चाहिए? उन्हें श्रमिक बनना चाहिए। अगर तुम श्रम करने में कड़ी मेहनत कर सकते हो, और कोई बाधा नहीं डालते या गड़बड़ी नहीं करते, या कोई ऐसा बुरा काम नहीं करते जिससे तुम्हें बाहर निकालना पड़े, और तुम यह गारंटी दे सकते हो कि तुम कोई बुरा काम नहीं करोगे, और अंतिम समय तक श्रम करते रहोगे, तभी तुम जीवित रह पाओगे। भले ही तुम बहुत सारी आशीष नहीं पा सकोगे, पर कम से कम तुमने परमेश्वर के कार्य की अवधि के दौरान श्रम किया होगा, तुम एक वफादार श्रमिक होगे, और अंत में, परमेश्वर तुम्हारे साथ कुछ भी गलत नहीं करेगा। मगर अभी, कुछ श्रमिक ऐसे हैं जो वास्तव में अंत तक श्रम नहीं कर सकते। ऐसा क्यों है? क्योंकि उनमें मनुष्य की आत्माएँ नहीं हैं। हम यह जाँच नहीं करेंगे कि उनके भीतर किस प्रकार की आत्मा रहती है, पर कम से कम, शुरू से अंत तक उनके व्यवहार को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उनका सार एक दानव का सार है, किसी मनुष्य का नहीं। वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, और वे इसका अनुसरण करने से भी बहुत दूर हैं।

दस साल पहले, जब सत्य के हरेक पहलू पर विस्तार से संगति नहीं की गई थी, तब लोगों को यह नहीं पता था कि सत्य का अनुसरण करने या सत्य सिद्धांतों के आधार पर चीजों को संभालने का क्या मतलब है। कुछ लोग अपनी इच्छा, कल्पना और धारणाओं के आधार पर कार्य करते या नियमों का पालन करते थे। तब उन्हें माफ किया जा सकता था, क्योंकि उन्हें समझ नहीं थी। मगर आज, 10 साल बाद, भले ही सत्य के विभिन्न पहलुओं पर हमारी संगति अभी तक पूरी नहीं हुई है, मगर कम से कम, लोगों के काम करने और कर्तव्य निभाने से संबंधित विभिन्न मूलभूत सत्य, सिद्धांतों के संदर्भ में स्पष्ट रूप से समझा दिए गए हैं। जिन लोगों के पास दिल और आत्मा है, जो सत्य से प्यार करते हैं और उसका अनुसरण कर सकते हैं, वे चाहे वे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, उन्हें अपनी अंतरात्मा और विवेक पर भरोसा करके कुछ सत्य सिद्धांतों का अभ्यास करने में सक्षम होना चाहिए। लोग ऊँचे और गहरे सत्य तक पहुँचने में चूक जाते और असफल हो जाते हैं, और वे कुछ समस्याओं के सार या सत्य से संबंधित सार को नहीं देख पाते, पर उन्हें उन सत्यों पर अमल करने में सक्षम होना चाहिए जिन तक वे पहुँच सकते हैं, और जिन्हें स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है। कम से कम, उन्हें परमेश्वर के घर द्वारा स्पष्ट रूप से निर्धारित की गई कार्य व्यवस्थाओं को बनाए रखने, लागू करने और बाँटने में सक्षम होना चाहिए। हालाँकि, जो दानव के हैं वे यह काम भी नहीं सकते। वे ऐसे लोग हैं जो अंतिम समय तक भी श्रम नहीं कर सकते। जब लोग अंत तक श्रम भी नहीं कर सकते, तो इसका मतलब है कि उन्हें सफर के बीच में ही गाड़ी से निकाल फेंका जाएगा। उन्हें गाड़ी से क्यों फेंका जाएगा? अगर वे गाड़ी में चुपचाप बैठे होते, सो रहे होते, शांत रहते या अपना मनोरंजन भी कर रहे होते, पर वे सबको परेशान या पूरी ट्रेन के आगे बढ़ने की दिशा में कोई परेशानी नहीं खड़ी करते, तो किसका दिल इतना कठोर होता जो उन्हें गाड़ी से निकाल फेंकता? किसी का नहीं। अगर वे वाकई श्रम कर सकते तो परमेश्वर भी उन्हें गाड़ी से नहीं निकाल फेंकता। मगर अब श्रम के लिए इन लोगों का इस्तेमाल करने से तो फायदे से ज्यादा नुकसान ही हो जाएगा। इन लोगों की गड़बड़ी के कारण परमेश्वर के घर के कार्य के विभिन्न पहलुओं को बहुत बड़ा नुकसान हुआ है। वे बहुत अधिक चिंता का कारण हैं! वे सत्य नहीं समझते, चाहे उस पर कैसे भी संगति की जाए, और बाद में, वे अभी भी बुरे काम करते हैं। वास्तव में इन लोगों से बातचीत करने का मतलब है कभी न खत्म होने वाली वार्ता में संलग्न होना और कभी न खत्म होने वाला गुस्सा महसूस करना। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन लोगों ने बहुत ज्यादा बुरे काम किए हैं, और परमेश्वर के घर के सुसमाचार फैलाने के कार्य को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाया है। वे जो थोड़ा-सा कर्तव्य निभाते हैं, उसमें भी बस बाधा डालते और गड़बड़ी करते हैं, और वे परमेश्वर के घर के कार्य को जो नुकसान पहुँचाते है उसे ठीक नहीं किया जा सकता। ये लोग हर तरह के बुरे काम करते हैं। कलीसिया के सामान्य सदस्यों के बीच, वे अपनी मनमर्जी करते हैं, चढ़ावे की बर्बादी करते हैं, सुसमाचार फैलाने के दौरान प्राप्त हुए लोगों की संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, और दूसरों का गलत तरीके से इस्तेमाल करते हैं। वे खास तौर पर कुछ दुष्ट लोगों, भ्रमित लोगों और उन लोगों का उपयोग करते हैं जो बेकाबू होकर बुरे काम करते हैं। वे किसी के सुझावों को नहीं सुनते हैं, और जो कोई भी अपनी राय व्यक्त करता है उसे दबाते और दंडित करते हैं। उनके कार्यक्षेत्र में, परमेश्वर के वचनों, अपेक्षाओं और कार्य व्यवस्थाओं को लागू नहीं किया जाता, बल्कि उन्हें अलग रख दिया जाता है। ये लोग स्थानीय गुंडे और निरंकुश बन जाते हैं; वे अत्याचारी बन जाते हैं। मुझे बताओ, क्या ऐसे लोगों को रखा जा सकता है? (नहीं।) अभी, कुछ लोगों को बर्खास्त कर दिया गया है, और बर्खास्त किए जाने के बाद यह दिखाने के लिए कि वे कितने कुलीन, कितने समर्पित और सत्य का अनुसरण करने वाले लोग हैं, वे “परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने” की बात करते हैं। ऐसा कहने से उनका मतलब यह है कि परमेश्वर का घर जो कुछ भी करता है उसके बारे में उन्हें कोई शिकायत नहीं है, और वे इसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हैं। वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हैं—तो फिर उन्होंने इतने बुरे कर्म क्यों किए, जिसके कारण कलीसिया को उन्हें बर्खास्त करना पड़ा? वे यह बात क्यों नहीं समझते? उन्होंने इसका हिसाब क्यों नहीं दिया? जब वे काम कर रहे थे तब उन्होंने परमेश्वर के घर के कार्य में कई प्रकार की दिक्कतें खड़ी की और नुकसान किए—क्या उन्हें इस मामले में खुलकर बताना और खुद को सामने रखना नहीं चाहिए? अगर वे इसका जिक्र ही न करें तो क्या मामला खत्म हो जाता है? वे कहते हैं कि वे परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहते हैं, दिखाना चाहते हैं कि वे कितने उत्कृष्ट और महान हैं—यह पूरी तरह से दिखावा और चालबाजी है! अगर वे परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना सीख रहे हैं, तो उन्होंने परमेश्वर के घर की पिछली कार्य व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण क्यों नहीं किया? उन्होंने उन्हें लागू क्यों नहीं किया? तब वे क्या कर रहे थे? वे वास्तव में किसकी आज्ञा मानते हैं? वे इसका हिसाब क्यों नहीं देते? उनका मालिक कौन है? क्या उन्होंने परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कार्य के हरेक पहलू को पूरा किया? क्या उन्होंने परिणाम हासिल किए हैं? क्या उनके काम सावधानीपूर्वक जाँच की कसौटी पर टिके रह सकते हैं? वे बेकाबू होकर बुरे कर्म करने से परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले नुकसान की भरपाई कैसे करेंगे? क्या इस मामले पर कुछ टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए? क्या उनके इतना कहने से काम हो जाएगा कि वे परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करेंगे? बताओ मुझे, क्या ऐसे लोगों में मानवता होती है? (नहीं।) उनमें मानवता, विवेक, और अंतरात्मा नहीं है, और उन्हें शर्म भी नहीं आती! उन्हें यह एहसास तक नहीं है कि उन्होंने कितने बुरे कर्म किए हैं, और परमेश्वर के घर को कितना बड़ा नुकसान पहुँचाया है। बिना किसी पछतावे के, बिना किसी आभार की भावना के या बिना इस बात को स्वीकार किए कि उन्होंने बहुत सारी बाधाएँ और गड़बड़ी पैदा की है। अगर तुम उन्हें जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करोगे, तो वे कहेंगे, “अकेले मैंने ही तो ऐसा नहीं किया है”—उनके पास अपने बहाने होते हैं। उनके कहने का मतलब यह है कि अगर हर कोई अपराधी है तो दंड नहीं दिया जा सकता, और क्योंकि सभी ने बुरा कर्म किया है, तो उन्हें व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए। यह गलत है। उन्हें उस बुरे कर्म का हिसाब देना होगा जो उन्होंने किया है—हरेक व्यक्ति को अपने बुरे कर्म का हिसाब देना होगा। उन्हें परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर अपनी समस्याओं का सही ढंग से समाधान करना चाहिए। अगर उनमें यह रवैया है, तो उन्हें एक और मौका मिल सकता है और वे बने रह सकते हैं, मगर वे हमेशा बुरे कर्म नहीं कर सकते! अगर उनकी अंतरात्मा में इसका कोई बोध नहीं है, अगर वे यह महसूस नहीं कर पाते कि वे किसी तरह से परमेश्वर के आभारी हैं, और वे बिल्कुल भी पश्चात्ताप नहीं करते, तो मानवीय परिप्रेक्ष्य से उन्हें एक मौका दिया जा सकता है, अपने कर्तव्य निभाते रहने की अनुमति दी जा सकती है, और उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा, मगर परमेश्वर इसे कैसे देखता है? अगर लोग उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराएँगे, तो क्या परमेश्वर भी उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराएगा? (नहीं।) परमेश्वर सभी लोगों और चीजों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर तुम्हारे साथ समझौता करके तुम्हारे लिए चीजें सरल नहीं बनाएगा, वह तुम्हारी तरह खुशामदी नहीं होगा। परमेश्वर के पास सिद्धांत हैं, उसका धार्मिक स्वभाव है। अगर तुम परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करते हो, तो कलीसिया और परमेश्वर के घर को तुम्हारे साथ प्रशासनिक आदेशों के सिद्धांतों और शर्तों के अनुसार निपटना होगा। जहाँ तक तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को नाराज करने के परिणामों की बात है, वास्तव में, तुम्हारा दिल जानता है कि परमेश्वर तुम्हें कैसे देखता है या तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करता है। अगर तुम सचमुच परमेश्वर को परमेश्वर मानते हो, तो तुम्हें उसके सामने आकर अपने पापों को कबूल करना चाहिए और पश्चात्ताप करना चाहिए। अगर तुम्हारा यह रवैया नहीं है, तो तुम एक छद्म-विश्वासी हो, दानव हो, परमेश्वर के दुश्मन हो, और तुम्हें शाप मिलना चाहिए! तो फिर तुम्हारा उपदेश सुनने का क्या फायदा? तुम्हें बाहर निकल जाना चाहिए; तुम उपदेश सुनने के लायक नहीं हो! सत्य सामान्य भ्रष्ट मनुष्यों के सुनने के लिए बोले जाते हैं; हालाँकि ऐसे लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, पर उनमें दृढ-संकल्प और सत्य को स्वीकारने की इच्छा होती है, जब भी उनके साथ कुछ होता है तो वे आत्म-चिंतन कर सकते हैं, और जब वे कुछ गलत करते हैं तो वे उसे कबूल कर सकते हैं और पश्चात्ताप करके खुद को बदल सकते हैं। ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है, और उन्हीं के लिए सत्य बोले जाते हैं। जिन लोगों में पश्चात्ताप करने का रवैया नहीं होता, उन पर चाहे कोई भी मुसीबत आए, वे सामान्य भ्रष्ट मनुष्य नहीं हैं, वे पूरी तरह से कुछ और ही हैं; उनका सार दानव का है, मनुष्य का नहीं। भले ही वे सत्य का अनुसरण न करें, सामान्य भ्रष्ट मनुष्य आम तौर पर अपनी अंतरात्मा, अपनी सामान्य मानवता की थोड़ी सी शर्मिंदगी और अपने थोड़े से विवेक के आधार पर बुरे काम से परहेज कर सकते हैं, और उनका जानबूझकर बाधा डालने या गड़बड़ी पैदा करने का कोई इरादा नहीं होता है। सामान्य परिस्थितियों में, ऐसे लोग अंत तक श्रम कर सकते हैं, अनुसरण कर सकते हैं, और जीवित रहने में सक्षम हो सकते हैं। हालाँकि, इस प्रकार के लोग भी हैं, जिनके पास अंतरात्मा या विवेक नहीं है, जिनके पास सम्मान या शर्म की कोई भी भावना नहीं है, जिनके पास पछतावा करने वाला दिल नहीं है, चाहे वे कितने भी बुरे कर्म करें, और जो बेशर्मी से परमेश्वर के घर में छिपकर अभी भी आशीष पाने की आशा कर रहे हैं, और पश्चात्ताप करना नहीं जानते। जब कोई कहता है, “तुमने ऐसा करके बाधा और गड़बड़ी पैदा की है,” तो वे कहते हैं, “ऐसा है क्या? तो मुझसे गलती हो गई, अगली बार मैं बेहतर करूँगा” वह दूसरा व्यक्ति जवाब देता है, “तो तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों को पहचानना होगा,” और वह कहता है, “किन भ्रष्ट स्वभावों को पहचाना होगा? मैं तो बस अनजान था और बेवकूफी कर रहा था। अगली बार से बेहतर करूँगा।” उनमें गहरी समझ की कमी है, और वे बस अपनी बातों से लोगों को बरगलाते हैं। क्या ऐसी प्रवृत्ति वाले लोग पश्चात्ताप कर सकते हैं? उन्हें तो शर्म भी नहीं आती—वे इंसान नहीं हैं! कुछ लोग कहते हैं : “अगर वे इंसान नहीं हैं, तो क्या वे जानवर हैं?” वे जानवर हैं, पर वे कुत्तों से भी बदतर हैं। जरा सोचो इस बारे में, जब कोई कुत्ता कुछ बुरा करता है या खराब बर्ताव करता है, और तुम उसे एक बार डांटोगे, तो उसे तत्काल बुरा लगेगा, और वह तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता रहेगा, जिसका मतलब है : “मुझसे नफरत मत करना, मैं फिर ऐसा कभी नहीं करूँगा।” जब ऐसा कुछ दोबारा होता है, तो कुत्ता जानबूझकर तुम्हारी ओर ऐसे देखेगा जैसे कह रहा हो : “चिंता मत करो, मैं दोबारा ऐसा नहीं करूँगा।” इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कुत्ता पीटे जाने से डरता है या अपने मालिक को जीतने की कोशिश कर रहा है, तुम चाहे इसे कैसे भी देखो, जब उसे पता चलता है कि उसके मालिक को कोई बात पसंद नहीं है या उसने किसी बात के लिए मना कियाहै, तो कुत्ता ऐसा नहीं करेगा। वह खुद को काबू में रख पाता है; उसमें शर्म की भावना है। जानवरों में भी शर्म की भावना होती है, पर इन लोगों में नहीं। तो, क्या वे अभी भी मनुष्य कहलाएँगे? वे तो जानवरों से भी तुच्छ हैं, इसलिए वे अमानवीय और निर्जीव चीजें हैं, वे पक्के दानव हैं। चाहे वे कितने भी बुरे कर्म करें, वे कभी भी आत्मचिंतन नहीं करते या यह कबूल नहीं करते कि उन्होंने कितनी बुराई की है, और वे निश्चित रूप से पश्चात्ताप करना नहीं जानते। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अपने भाई-बहनों का सामना करने में शर्म आती है क्योंकि उन्होंने थोड़ी सी बुराई की थी, और अगर भाई-बहनें उन्हें किसी चुनाव के दौरान चुनते हैं, तो वे कहेंगे : “मैं यह कर्तव्य नहीं निभाऊँगा, मैं इसके काबिल नहीं हूँ। अतीत में, मैंने कुछ बेवकूफियाँ की थीं जिससे कलीसिया के कार्य को थोड़ा नुकसान हुआ था। मैं इस पद के लायक नहीं हूँ।” इस तरह के लोगों में शर्म की भावना होती है, और उनमें अंतरात्मा और विवेक होता है। मगर उन दुष्ट लोगों में शर्मिंदगी की भावना नहीं होती। अगर तुम उनसे अगुआ बनने के लिए कहोगे, तो वे तुरंत खड़े होकर कहेंगे : “देखा! इसके बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? परमेश्वर का घर मेरे बिना नहीं चल सकता। मैं एक बड़ा खिलाड़ी हूँ, मैं बहुत सक्षम हूँ!” मुझे बताओ, क्या इन लोगों को शर्मिंदा महसूस कराना कठिन नहीं है? यह कितना कठिन है? यह चीन के शनहाई दर्रे की दीवारों को लांघने से भी ज्यादा कठिन है—वे बेशर्म हैं! चाहे वे कितनी भी बुराई करें, फिर भी वे बेशर्मी से कलीसिया में अपने दिन बिताते हैं। वे भाई-बहनों के साथ बातचीत में कभी भी विनम्र नहीं रहते हैं, वे अभी भी पहले जैसे ही हैं, और कभी-कभी अपनी “महान उपलब्धियों” के बारे में, अपने पिछले त्यागों के बारे में, खुद को खपाने, कष्ट सहने और कीमतें चुकाने के बारे में, और अपने अतीत की “महिमा और महानता” के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बातें करते हैं। जैसे ही उन्हें मौका मिलता है, वे तुरंत अपने बारे में इतराने और डींगें हाँकने लगते हैं, अपनी पूँजी के बारे में बात करते और अपनी योग्यताओं का दिखावा करते हैं, और फिर भी वे कभी इस बारे में बात नहीं करते कि उन्होंने कितने बुरे कर्म किए हैं, परमेश्वर की कितनी भेंटों को बर्बाद किया है या परमेश्वर के घर के कार्य को कितने नुकसान पहुँचाए हैं। जब वे अकेले में परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं तब भी अपने पापों को कबूल नहीं करते, और उन्होंने जो गलतियाँ की हैं या परमेश्वर के घर को जो भी नुकसान पहुँचाया है, उसके लिए कभी आँसू नहीं बहाते। वे इतने अड़ियल और बेशर्म हैं। क्या वे एकदम विवेकहीन और कभी न सुधरने वाले लोग नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) वे कभी न सुधरने वाले हैं, और उन्हें बचाया नहीं जा सकता। तुम चाहे उन्हें कैसे भी मौके दे दो, यह किसी ईंट की दीवार से बात करने जैसा या फूँककर पहाड़ उड़ाने की कोशिश करना है, या दानवों और शैतान को परमेश्वर की भक्ति करने के लिए कहने जैसा है। तो, जब इन लोगों की बात आती है, आखिर में परमेश्वर के घर का रवैया उन्हें त्याग देने का होता है। अगर वे कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं, तो वे निभा सकते हैं, परमेश्वर का घर उन्हें थोड़े-बहुत मौके देगा। अगर वे कर्तव्य नहीं निभाना चाहते और कहते हैं : “मैं काम करने, पैसे कमाने और अपने दिन गुजारने जा रहा हूँ; मैं अपना ही कारोबार संभालूँगा,” तो वे ऐसा कर सकते हैं, परमेश्वर के घर का दरवाजा खुला है, वे जल्द-से-जल्द निकल सकते हैं! मैं उनके चेहरे दोबारा नहीं देखना चाहता, वे बहुत घृणित हैं! वे दिखावा क्यों कर रहे हैं? उन्होंने जो थोड़ा-सा कष्ट सहा है, जो थोड़ी-सी कीमतें चुकाई हैं, उनके थोड़े-से त्याग और खुद को खपाना, वे बस पूर्वशर्ते थीं जो उन्होंने इसलिए तैयार की थीं ताकि वे बुरे कर्म कर सकें। अगर वे परमेश्वर के घर में बने रहते हैं, तो वे इसके लिए किस तरह की सेवा कर सकते हैं? वे परमेश्वर के घर के कार्य का क्या हित कर सकते हैं? क्या तुम्हें जरा भी अंदाजा है कि छह महीने के अंतराल में एक दुष्ट व्यक्ति, एक मसीह-विरोधी द्वारा किए गए बुरे कर्म और बुरी चीजें कलीसिया के कार्य में कितनी बाधाएँ और गड़बड़ी पैदा कर सकती हैं? मुझे बताओ, इसकी भरपाई के लिए कितने भाई-बहनों को काम करना पड़ेगा? थोड़ी-सी सेवा के लिए उस दुष्ट व्यक्ति, उस मसीह-विरोधी का इस्तेमाल करना क्या मुसीबत मोल लेने जैसा नहीं है? (बिल्कुल है।) हम उन नुकसानों की भयावहता के बारे में बात नहीं करेंगे जो मिलकर बुरी चीजें करने वाले मसीह-विरोधियों के एक गिरोह द्वारा हो सकता है, मगर एक मसीह-विरोधी द्वारा बोले गए एक झूठ और दानवी बयान से, या एक मसीह विरोधी द्वारा जारी किए गए एक बेतुके आदेश से कलीसिया के कार्य का कितना नुकसान हो सकता है? मुझे बताओ, इसकी भरपाई के लिए कितने लोगों को काम करना होगा और कितने समय तक काम करना होगा? इस नुकसान की जिम्मेदारी कौन लेगा? कोई नहीं ले सकता! क्या इस नुकसान की भरपाई की जा सकती है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं : “अगर हमें मदद के लिए कुछ और लोग मिल जाएँ, और भाई-बहनें थोड़ा और कष्ट सहें, तो हम इसकी भरपाई कर सकते हैं।” भले ही तुम इसमें से कुछ नुकसान की भरपाई कर पाओ, मगर परमेश्वर के घर को कितने लोगों और कितने संसाधनों का इस्तेमाल करना होगा? खास तौर पर, जितना समय गँवाया गया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनके जीवन में प्रवेश के संदर्भ में जो नुकसान उठाना पड़ा, उसकी भरपाई कौन कर सकता है? कोई नहीं कर सकता। इसलिए, मसीह-विरोधियों द्वारा किए गए गलत कामों को माफ नहीं किया जा सकता! कुछ लोग कहते हैं : “मसीह-विरोधियों ने कहा, ‘हम पैसों के नुकसान की भरपाई करेंगे’।” बेशक उन्हें इसकी भरपाई करनी होगी! “मसीह-विरोधियों ने कहा, ‘जिन लोगों को हमने खोया है उनकी भरपाई के लिए हम और लोगों को लाएँगे।’” उन्हें इतना तो करना ही चाहिए। उन्होंने जो बुरे कर्म किए हैं उनकी भरपाई तो करनी ही चाहिए! मगर जो समय बर्बाद हुआ उसकी भरपाई कौन करेगा? क्या वे इसकी भरपाई कर सकते हैं? इसकी भरपाई करना असंभव है। तो, इन लोगों द्वारा किए गए गलत काम सबसे जघन्य पाप हैं! उन्हें माफ नहीं किया जा सकता। मुझे बताओ, क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, ऐसा ही है।)

जब कुछ लोग यह देखते हैं कि परमेश्वर का घर मसीह-विरोधियों के साथ बहुत सख्ती से पेश आता है—उन्हें कोई मौका दिए बिना सीधे बाहर कर देता है—तो इस बारे में उनके मन में कुछ ऐसे विचार आते हैं : “क्या परमेश्वर के घर ने नहीं कहा था कि वह लोगों को मौके देता है? जब किसी व्यक्ति से छोटी-सी गलती हो जाती है, तब क्या परमेश्वर का घर उसे ठुकरा देता है? क्या वह उसे मौका नहीं देता? उसे एक मौका तो देना ही चाहिए, परमेश्वर का घर बहुत निष्ठुर है!” मुझे बताओ, उन लोगों को कितने मौके दिए गए? उन्होंने कितने उपदेश सुने? क्या उन्हें बहुत कम मौके दिए गए? काम करते समय, क्या वे यह नहीं जानते कि वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं? क्या वे नहीं जानते कि वे सुसमाचार फैला रहे और परमेश्वर के घर का काम कर रहे हैं? क्या उन्हें ये बातें नहीं पता? वे कोई व्यवसाय, कंपनी या कोई फैक्ट्री चला रहे हैं क्या? क्या वे खुद का उद्यम संभालने में लगे हैं? परमेश्वर के घर ने इन लोगों को कितने मौके दिए? उनमें से हरेक व्यक्ति को अच्छे-खासे मौके मिले हैं। जिन लोगों को विभिन्न समूहों से निकालकर सुसमाचार टीम में डाला गया था, क्या उनमें से किसी को भी सिर्फ कुछ दिनों के लिए सुसमाचार टीम में रखने के बाद बर्खास्त कर दिया गया? किसी को भी बर्खास्त नहीं किया गया था, उन्हें तभी बर्खास्त किया गया, जब उनके द्वारा किए गए कुकर्म बेहद घिनौने थे। उनमें से हरेक को पर्याप्त मौके दिए गए, बात बस इतनी है कि वे उन्हें संजोना या पश्चात्ताप करना नहीं जानते। वे हमेशा पौलुस के रास्ते पर चलते हुए अपनी मनमानी करते हैं। उनकी बातें तो बड़ी चिकनी-चुपड़ी और स्पष्ट होती हैं, पर वे मनुष्यों जैसा व्यवहार नहीं करते। क्या ऐसे लोगों को अब भी मौका दिया जाना चाहिए? (नहीं।) जब उन्हें मौका दिया गया, तो उनके साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार किया गया, पर वे मनुष्य नहीं हैं। वे मनुष्यों वाले काम नहीं करते, तो माफ करना, परमेश्वर के घर का दरवाजा खुला ही है—वे कभी भी यहाँ से दफा हो सकते हैं। परमेश्वर का घर अब उनका उपयोग नहीं करेगा। परमेश्वर का घर लोगों का उपयोग करने के मामले में स्वतंत्र है, उसके पास यह अधिकार है। अगर परमेश्वर का घर उनका उपयोग न करे, तो क्या यह ठीक रहेगा? अगर वे विश्वास करना चाहते हैं, तो वे परमेश्वर के घर के बाहर जाकर ऐसा कर सकते हैं। चाहे जो भी हो, परमेश्वर का घर उनका उपयोग नहीं करेगा—वह ऐसा नहीं कर सकता, उनके कारण बहुत चिंता करनी पड़ती है! उन्होंने परमेश्वर के घर का बहुत नुकसान किया है, और कोई भी इसकी भरपाई नहीं कर सकता—उनकी ऐसी औकात ही नहीं है! ऐसा नहीं है कि वे बदकिस्मत हैं, ऐसा भी नहीं है कि परमेश्वर के घर ने उन्हें मौका नहीं दिया, परमेश्वर का घर निष्ठुर भी नहीं है, और उसने उन लोगों पर बहुत सख्ती भी नहीं दिखाई है, और यकीनन ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है कि उनका काम खत्म हो जाने के बाद परमेश्वर का घर उनसे पीछा छुड़ा रहा है। बात ऐसी है कि इन लोगों ने हद पार कर दी, उन्हें अब और बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, और उन्होंने जो कुछ भी किया था उनका हिसाब तक नहीं दे पाए। हरेक कार्य के लिए, परमेश्वर के घर ने कार्य सिद्धांत बनाए हैं, और ऊपरवाले ने व्यक्तिगत रूप से मार्गदर्शन दिया है, जाँच-पड़ताल करके सुधार किया है। यह सिर्फ परमेश्वर के घर और ऊपरवाले द्वारा कुछ सभाएँ आयोजित करने या कुछ शब्द कहने की बात नहीं है; उन्होंने ईमानदारी से लोगों को उपदेश देते हुए अनेक शब्द कहे और कई सभाएँ आयोजित की हैं, और अंत में उन्हें बदले में धोखा मिला, जिससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी हुई और बाधा आई, और सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया। बताओ, कौन अब भी उन लोगों को मौका देने को तैयार होगा? कौन उन्हें काम पर रखे रहने को तैयार होगा? वे बेकाबू होकर कुकर्म कर सकते हैं, मगर यकीनन वे परमेश्वर के घर को सिद्धांतों के अनुसार उनसे निपटने से तो नहीं रोकेंगे? उनसे इस तरह से निपटने को निष्ठुर होना नहीं कहना चाहिए, बल्कि इसे सिद्धांतों को कायम रखना कहना चाहिए। प्रेम उन लोगों को दिया जाता है जिनसे प्रेम किया जा सकता है, उन अज्ञानी लोगों को दिया जाता है जिन्हें क्षमा किया जा सकता है; यह दुष्ट लोगों, दानवों या उन लोगों को नहीं दिया जाता है जो जानबूझकर बाधाएँ और गड़बड़ी पैदा करते हैं, यह मसीह-विरोधियों को नहीं दिया जाता। मसीह-विरोधी सिर्फ धिक्कारे जाने लायक हैं! वे सिर्फ धिक्कारे जाने लायक क्यों हैं? क्योंकि वे चाहे कितने भी कुकर्म करें, वे पश्चात्ताप नहीं करते, अपने पाप कबूल नहीं करते, या खुद में बदलाव नहीं लाते, और अंत तक परमेश्वर से होड़ करते हैं। वे परमेश्वर के सामने आकर कहते हैं, “मैं मरते दम तक गिरूँगा नहीं। मैं अडिग हूँ। तुम्हारे सामने आऊँगा, तो घुटने नहीं टेकूँगा या झुकूँगा नहीं। मैं हार नहीं मानूँगा!” ये कैसा व्यवहार है? यहाँ तक कि मरते-मरते भी वे यही कहेंगे, “मैं अपनी आखिरी साँस तक परमेश्वर के घर का प्रतिरोध करता रहूँगा। मैं अपने पाप कबूल नहीं करूँगा—मैंने कुछ भी गलत नहीं किया है!” ठीक है, अगर उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है, तो वे जा सकते हैं। परमेश्वर का घर उनका उपयोग नहीं करेगा। अगर परमेश्वर का घर उनका उपयोग न करे, तो क्या यह ठीक रहेगा? इसमें कोई दिक्कत नहीं है! कुछ लोग कहते हैं, “अगर परमेश्वर का घर मेरा उपयोग नहीं करेगा, तो वह और किसी का उपयोग नहीं कर सकता।” इन लोगों को जरा नजर घुमाकर देखना चाहिए कि क्या सचमुच ऐसा कोई नहीं है—क्या परमेश्वर के घर का कोई भी कार्य लोगों पर निर्भर करता है? पवित्र आत्मा के कार्य के बिना और परमेश्वर की सुरक्षा के बिना, कौन वहाँ तक पहुँच सकता था जहाँ वे आज हैं? कौन-सा कार्य आज तक कायम रह पाता? क्या इन लोगों को लगता है कि वे लौकिक संसार में हैं? अगर लौकिक संसार में प्रतिभाशाली या हुनरमंद व्यक्तियों की टीम किसी समूह की सुरक्षा न करे, तो वह अपनी कोई भी परियोजना पूरी नहीं कर पाएगा। परमेश्वर के घर का कार्य अलग है। परमेश्वर के घर के कार्य की सुरक्षा, अगुआई और मार्गदर्शन परमेश्वर ही करता है। यह मत सोचना कि परमेश्वर के घर का कार्य किसी व्यक्ति के सहयोग पर निर्भर करता है। ऐसा नहीं है, और यह एक छद्म-विश्वासी का दृष्टिकोण है। क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर के घर के लिए मसीह-विरोधियों और छद्म-विश्वासियों जैसे बुरे लोगों को त्याग देना सही है? (बिल्कुल।) यह सही क्यों है? क्योंकि किसी कार्य में उन लोगों का उपयोग करने से होने वाला नुकसान बहुत बड़ा होता है, ये लोगों की मेहनत और वित्तीय संसाधन, दोनों की बहुत बर्बादी करते हैं, और उनके पास बिल्कुल भी कोई सिद्धांत नहीं होता। वे परमेश्वर के वचन नहीं सुनते, पूरी तरह से अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के आधार पर कार्य करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों या उसके घर की कार्य व्यवस्थाओं का बिल्कुल भी सम्मान नहीं करते, मगर जब कोई मसीह-विरोधी कुछ कहता है, तो वे इसे बहुत सम्मान देते हैं, और उसके अनुसार अभ्यास करते हैं। मैंने सुना है कि एक बेवकूफ हुआ करता था जो यूरोप में रहकर एशिया से जुड़े काम करता था। परमेश्वर के घर ने कहा कि वह उसे यूरोप में सुसमाचार फैलाने का काम दे देगा, ताकि उसे समय अंतराल के चक्कर में न उलझना पड़े, मगर वह राजी नहीं हुआ, और वह यूरोप में कार्य करने के लिए तैयार नहीं हुया, जबकि परमेश्वर के घर ने खुद इसकी व्यवस्था की थी, उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि जिस मसीह-विरोधी को वह पूजता था वह एशिया में था, और वह अपने स्वामी से दूर जाने को तैयार नहीं था। क्या वह मूर्ख नहीं है? (बिल्कुल है।) अब बताओ, क्या वह अपना कर्तव्य निभाने के लायक है? क्या हम उसे रखना चाहेंगे? परमेश्वर के घर द्वारा की गई कार्य व्यवस्थाएँ उचित थीं। अगर तुम यूरोप में हो, तो तुम्हें वे काम करने चाहिए जो यूरोप में है, न कि एशिया में। तुम जिस भी महाद्वीप में हो, तुम्हें उसी जगह से जुड़े कार्य करना चाहिए, और इस तरह तुम्हें समय अंतराल के चक्कर में भी नहीं उलझना पड़ेगा—कितनी अच्छी बात है! और फिर भी, वह व्यक्ति राजी नहीं हुआ। परमेश्वर के घर की बातों का उस पर कोई असर नहीं हुआ; परमेश्वर का घर उसे तबादले के लिए नहीं मना सका, वह चाहता था कि उसका स्वामी फैसला करे। अगर उसका स्वामी कहता, “जाओ, यूरोप में कार्य करो,” तो वह उन्हीं कार्यों को करता। अगर उसका मालिक कहता, “तुम फिर से यूरोप में कार्य नहीं कर सकते, मुझे यहाँ काम के लिए तुम्हारी जरूरत है,” तो वह कहता, “तो मैं वापस नहीं जा सकता।” उसने किसकी सेवा की? (अपने स्वामी की।) उसने अपने स्वामी यानी एक मसीह-विरोधी की सेवा की। तो क्या उसे भी अपने स्वामी के साथ निकाल नहीं देना चाहिए? क्या उसे बाहर नहीं निकाल देना चाहिए? (बिल्कुल।) मैं ऐसे लोगों पर इतना गुस्सा क्यों करता हूँ? क्योंकि वे बहुत कुकर्म करते हैं; यह सुनकर कोई भी गुस्सा हो जाएगा। ये लोग अपनी खुली आँखों से परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश करते हैं—यह बहुत दुर्भावनापूर्ण है! यह बताओ, मुझे ऐसे लोगों पर इतना गुस्सा क्यों आता है? (उनका कहना है कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पर वास्तव में, वे सिर्फ अपने स्वामियों की सुनते हैं। वे वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण और उसके प्रति समर्पण नहीं करते।) वे पूरी तरह से दानवों और शैतानों के अनुसरण को समर्पित हो चुके हैं। उनका यह कहना कि वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, महज दिखावा है। वे परमेश्वर का अनुसरण करने और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की आड़ में शैतान का अनुसरण और शैतान की सेवा करते हैं, और इसके बावजूद अंत में, परमेश्वर से पुरस्कार और आशीष पाना चाहते हैं। क्या यह सरासर बेशर्मी नहीं है? क्या वे एकदम विवेकहीन और कभी न सुधरने वाले लोग नहीं है? (बिल्कुल।) बताओ, क्या परमेश्वर का घर ऐसे लोगों को काम पर रखे रहेगा? (नहीं।) तो फिर उनसे निपटने का उचित तरीका क्या है? (उन्हें उनके स्वामियों के साथ बाहर निकाल देना चाहिए।) वे अपने स्वामियों का अनुसरण करना पसंद करते हैं, और मरते दम तक अपने स्वामियों के लिए काम करने को दृढ़ता से संकल्पित हैं; वे अपने कर्तव्य निभाते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, वे परमेश्वर के सामने रहते हुए अपने कर्तव्य नहीं निभाते, वे मसीह-विरोधियों के गिरोह के भीतर अपने स्वामियों की सेवा कर रहे हैं—यही उनके कार्य का सार है। इसलिए, चाहे वे जो भी करें, उसे सराहा नहीं जाएगा। ऐसे लोगों को निकाल बाहर करना चाहिए, वे सेवा करने के लायक भी नहीं हैं! तो, क्या तुम लोगों को लगता है कि उनके जैसे लोग सिर्फ इसलिए ऐसे हो जाते हैं क्योंकि उनका सामना बुरे लोगों से होता है या क्योंकि वे इस तरह का काम करते हैं? क्या वे अपने परिवेश से प्रभावित होते हैं, या दुष्ट लोग उन्हें गुमराह करते हैं? (ऐसा कुछ भी नहीं है।) तो फिर वे ऐसे क्यों हैं? (वे अपने प्रकृति सार में ऐसे ही लोग हैं।) इनका प्रकृति सार इनके मसीह-विरोधी स्वामियों जैसा ही है। वे एक ही तरह के लोग हैं। उनके शौक, विचार और दृष्टिकोण के साथ-साथ काम करने के साधन और तरीके भी एक समान हैं; उनकी भाषा और अनुसरण का मार्ग एक ही है, और परमेश्वर को धोखा देने और उसके घर के कार्य में बाधा डालने की उनकी इच्छाएँ, मंशाएँ और अभ्यास के तरीके सब एक जैसे ही हैं। जरा सोचो, परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं को लेकर उनका रवैया एक जैसा है, जो अपने वरिष्ठों से झूठ बोलना और अपने नीचे काम करने वालों से चीजें छिपाना है। उनके पास अपने से वरिष्ठों के लिए नीतियाँ हैं, तो अपने से नीचे के लोगों के लिए रणनीतियाँ हैं। अपने से वरिष्ठों के सामने, वे बाहर से बड़े आज्ञाकारी बनते हैं, और अपने से नीचे वाले लोगों के सामने बेकाबू होकर कुकर्म करते हैं। उन दोनों के रास्ते और तरीके एक जैसे हैं। जब ऊपरवाला उनकी काट-छाँट करता है, तो वे कहते हैं, “मुझसे गलती हो गई, मैं गलत था, मैं बुरा हूँ, मैं विद्रोही हूँ, मैं एक दानव हूँ!” और पीठ फेरते ही वे कहते हैं : “चलो ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं को लागू नहीं करते हैं!” इसके बाद वे अपनी मनमर्जी से काम करते हैं। सुसमाचार का प्रचार करते समय वे पूरी तरह से लापरवाह होते हैं, आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते हैं, और परमेश्वर के घर को धोखा देते हैं। ये इन मसीह-विरोधियों के गिरोहों के तरीके हैं। वे कार्य व्यवस्थाओं के प्रति हमेशा अपनी रणनीतियों और तरीकों से पेश आते हैं—क्या उनके दानवी चेहरे उजागर नहीं हो गए हैं? क्या वे इंसान हैं? नहीं, वे इंसान नहीं हैं, वे दानव हैं! हम दानवों से बातचीत नहीं करते, तो आओ उन्हें जल्दी से यहाँ से बाहर निकाल फेकें। मैं उनके दानवी चेहरे नहीं देखना चाहता; उन्हें दफा हो जाना चाहिए! जो लोग श्रम करना चाहते हैं उन्हें समूह “ब” में भेजा जा सकता है, जो लोग श्रम नहीं करना चाहते उन्हें निलंबित किया जा सकता है। क्या ऐसा करना सही है? (बिल्कुल।) ऐसा करना सबसे सही है! उन सबका सार एक जैसा है, तो जब वे एक साथ बातें और काम करते हैं, वे बहुत सहजता से ऐसा करते हैं, और जब वे एक साथ काम करते हैं तो उनके बीच बहुत सामंजस्य और समझ बहुत अच्छी होती है। जैसे ही ये स्वामी अपना मुँह खोलते हैं, चाहे वे कैसी भी शैतानी बातें कहें, उनके अनुयायी तुरंत उन्हें दोहराएँगे, और पूरे दिल से, ये अनुयायी गर्वित भी महसूस करेंगे, सोचेंगे, “तुमने सही कहा, चलो ऐसा ही करते हैं! ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं में नुक्ताचीनी बहुत है, हम उस तरह से काम नहीं कर सकते।” ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाएँ चाहे कितनी भी अच्छी तरह या विशेष रूप से बताई गई हों, ये लोग उन्हें लागू नहीं करेंगे, और दानव और शैतान की कही बातें चाहे कितनी भी विकृत या बेतुकी क्यों न हों, वे उन्हें ध्यान से सुनेंगे। इस तरह वे किसकी सेवा कर रहे हैं? क्या ऐसे लोग अंत तक परमेश्वर के घर में श्रम कर सकते हैं? (नहीं।) वे अंत तक श्रम नहीं कर सकते। चाहे परमेश्वर किसी व्यक्ति के प्रति धैर्य दिखा रहा हो, या दानव के क्रियाकलापों के प्रति, उसकी हमेशा एक सीमा होती है। वह जितना हो सके उतना लोगों के प्रति सहिष्णुता दिखाता है, मगर जब पानी सिर से ऊपर निकल जाएगा, तब वह उन लोगों को उजागर करेगा जिन्हें उजागर किया जाना चाहिए, और जिन्हें निकाला जाना चाहिए उन्हें निकाल देगा। जब यह समय आएगा, तब उन लोगों का सफर खत्म हो चुका होगा। बात बस इतनी नहीं है कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते या उससे प्रेम नहीं करते, बात यह है कि उनका प्रकृति सार सत्य का विरोधी है। जरा सोचो, जब भी तुम सकारात्मक चीजों, स्पष्ट समझ या सत्य के अनुरूप सिद्धांतों के बारे में बात करते हो, तो वे ध्यान नहीं देते हैं। तुम्हारे शब्द जितने स्पष्ट होंगे, उन्हें उतना ही बुरा लगेगा। जैसे ही तुम सत्य सिद्धांतों के बारे में बात करना शुरू करते हो, वे शांत नहीं बैठ पाते, और चर्चा का विषय बदलने और ध्यान भटकाने के लिए बहाने बनाने के तरीके ढूँढ़ते हैं, या बस पानी पीने चले जाते हैं। जैसे ही तुम सत्य पर संगति करते हो या खुद को जानने के बारे में बात करते हो, तो उन्हें घृणा महसूस होती है, और वे सुनना नहीं चाहते। अगर उन्हें बाथरूम नहीं जाना हो, तो उन्हें भूख-प्यास लगने लगती है, या नींद आती है, या उन्हें कोई फोन कॉल लेना पड़ता या कोई काम निपटाना होता है। उनके पास हमेशा कोई न कोई बहाना होता है, और वे शांत नहीं बैठ पाते। अगर तुम उनके तरीके इस्तेमाल करके उनके बयानों और दृष्टिकोणों के बारे में बात करो, जिनके कारण खास तौर पर बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा होती हैं, तो वे जोश से भर जाएँगे, और लगातार बोलते रहेंगे। अगर तुम दोनों की भाषा एक नहीं होगी, तो वे तुम्हारे प्रति घृणा महसूस करेंगे और तुमसे दूरी बनाए रखेंगे। ये पक्के दानव हैं! ऐसे कुछ लोग हैं जो अब तक, इस प्रकार के दानव को अच्छे से समझ नहीं पाए हैं, और सोचते हैं कि ये लोग बस सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। वे इतने नादान कैसे हो सकते हैं? वे ऐसी बेवकूफी वाली बातें कैसे कह सकते हैं? क्या ये लोग महज सत्य का अनुसरण नहीं करते? नहीं, वे बुरे दानव हैं, और वे सत्य से एकदम विमुख हो चुके हैं। वे लोग सभाओं में काफी अच्छा व्यवहार करते हैं, मगर यह सब धोखा है। वास्तव में, क्या वे वाकई उन बातों को सुनते हैं जिन पर संगति की जाती है या परमेश्वर के उन वचनों को सुनते हैं जो सभाओं में पढ़े जाते हैं? हकीकत में वे कितने वचन सुनते हैं? कितने वचनों को स्वीकारते हैं? कितनों के प्रति समर्पण कर सकते हैं? वे सबसे सरल और सबसे आम तौर पर बोले जाने वाले धर्म-सिद्धांतों के बारे में भी बात नहीं कर सकते। जब ऐसे लोगों की बात आती है, तो चाहे वे कितने भी समय तक, या किसी भी स्तर के अगुआ या सुपरवाइजर के रूप में काम करें, वे उपदेश देने, या अपने अनुभवों के बारे में बात करने में असमर्थ होते हैं। अगर कोई कहता है, “किसी विषय पर अपना ज्ञान हमारे साथ बाँटो। यह जरूरी नहीं कि तुम्हारे पास इसका अनुभव हो, बस तुम्हारे पास इसके बारे में जो भी ज्ञान और समझ है, उसके बारे में बोलो,” तो वे अपना मुँह नहीं खोल पाएँगे, ऐसा लगेगा मानो उनके मुँह में दही जम गया हो, और वे थोड़े-बहुत धर्म-सिद्धांतों के बारे में भी बात नहीं कर पाएँगे। अगर वे इनके बारे में जबरन कुछ शब्द बोल भी लेते हैं, तो वे सुनने में बड़े अटपटे और अजीब लगेंगे। कुछ भाई-बहन कहते हैं : “ऐसा क्यों है कि जब कुछ अगुआ उपदेश दे रहे होते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे शिक्षक बच्चों को कोई पाठ पढ़कर सुना रहा हो? यह इतना अटपटा और अजीब क्यों लगता है?” इसे उपदेश नहीं दे पाना कहते हैं। और वे उपदेश क्यों नहीं दे पाते? क्योंकि उनके पास सत्य वास्तविकता का आभाव है। उनके पास सत्य वास्तविकता का अभाव क्यों है? क्योंकि वे सत्य नहीं स्वीकारते, उनके दिल इससे विमुख हो चुके हैं, और वे सत्य के हर सिद्धांत या कथन का प्रतिरोध करते हैं। अगर उन्हें प्रतिरोधी कहा जाता है, तो हो सकता है कि तुम इसे बाहर से नहीं देख सको, तो तुम यह कैसे पहचानोगे कि वे प्रतिरोधी हैं? परमेश्वर का घर चाहे सत्य पर कैसे भी संगति करे, वे दिल से इसे नकार देंगे और ठुकरा देंगे, साथ ही इससे बेहद घृणा भी करेंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अन्य लोग सत्य के बारे में अपने ज्ञान पर किस तरह से संगति करते हैं, वे यही सोचेंगे, “तुम इस पर विश्वास कर सकते हो, पर मैं नहीं करता।” वे कैसे परखते हैं कि कोई बात सत्य है या नहीं? अगर कोई बात उन्हें अच्छी और सही लगती है, वे उसे सत्य मानेंगे। अगर उन्हें कोई बात पसंद नहीं आती, तो चाहे वह कितनी ही सही क्यों न हो, वे उसे सत्य नहीं मानेंगे। इसलिए, जब हम इस मामले की जड़ को देखते हैं, तो पता चलता है कि अपने दिल की गहराई में, वे सत्य के प्रतिरोधी हैं, वे सत्य से विमुख हो चुके हैं, और सत्य से नफरत करते हैं। उनके दिलों में सत्य के लिए कोई जगह नहीं है—वे इससे नफरत करते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग इसे समझ न सकें, और कहें, “मैंने आम तौर पर उन्हें ऐसा कुछ भी कहते नहीं देखा जिससे परमेश्वर का अपमान होता हो, सत्य की निंदा होती हो, या सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करता हो।” फिर, एक तथ्य है जो वे देख सकते हैं : परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं द्वारा निर्धारित हरेक विशिष्ट जानकारी आवश्यक है, और इसे परमेश्वर के कार्य के हितों, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन की प्रगति, कलीसियाई जीवन की सामान्य व्यवस्था, और सुसमाचार कार्य के सामान्य विस्तार की रक्षा करने के लिए प्रस्तुत किया गया है। हरेक समय अवधि में कार्य व्यवस्थाओं का मकसद, और कार्य के हरेक पहलू का विशिष्ट इस्तेमाल, संगठन और संशोधन, परमेश्वर के घर के कार्य के सामान्य विकास की रक्षा करना है, और इससे भी बढ़कर, सत्य सिद्धांतों को समझने और उनमें प्रवेश करने में भाई-बहनों की मदद करना है। अधिक सटीक रूप से कहें, तो यह कहा जा सकता है कि ये चीजें भाई-बहनों को परमेश्वर के पास लाती हैं और सत्य वास्तविकताओं में प्रवेश करने में उनकी मदद करती हैं, ये चीजें हरेक व्यक्ति का हाथ पकड़कर उन्हें सिखाते हुए, उनका सहयोग करते हुए, और उनकी आपूर्ति करते हुए आगे लाती हैं। जब कार्य व्यवस्थाओं को लागू करने की बात आती है, तो चाहे सभाओं के दौरान इस विषय पर विशिष्ट संगति की जा रही हो, या इसे मौखिक रूप से फैलाया जा रहा हो, इसका मकसद परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने और वास्तविक जीवन प्रवेश प्राप्त करने में सक्षम बनाना है, और यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए हमेशा फायदेमंद रहता है। ऐसी एक भी व्यवस्था नहीं है जो परमेश्वर के घर के कार्य या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश के लिए हानिकारक हो, और किसी भी व्यवस्था से बाधाएँ नहीं पैदा होतीं या विनाश नहीं होता है। और फिर भी, मसीह-विरोधी कभी भी इन कार्य व्यवस्थाओं का सम्मान नहीं करते या उन्हें लागू नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे यह सोचकर उनसे नफरत करते हैं कि वे बहुत सरल और साधारण हैं, वे उतने प्रभावशाली नहीं हैं जितना कि उनका काम करने का तरीका है, और इससे काम करते समय उनकी प्रतिष्ठा, रुतबे और इज्जत को ज्यादा फायदा नहीं होगा। इस वजह से, वे कार्य व्यवस्थाओं पर कभी ध्यान नहीं देते या उन्हें स्वीकार नहीं करते, उन्हें लागू करना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे मनमाने ढंग से काम करते हैं। इसके आधार पर, मुझे बताओ, क्या मसीह-विरोधी महज सत्य का अनुसरण नहीं करते? इससे, तुम साफ तौर पर देख सकते हो कि वे सत्य से नफरत करते हैं। अगर यह कहा जाए कि वे सत्य से नफरत करते हैं, तो तुम इसे समझ नहीं पाओगे, पर यह देखकर कि वे मसीह-विरोधी कार्य व्यवस्थाओं को लागू करने को लेकर कैसा रवैया रखते हैं, तुम इस बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में सक्षम होगे। यह बहुत स्पष्ट है कि जब कार्य व्यवस्थाओं के प्रति झूठे अगुआओं और कर्मियों के रवैये की बात आती है, तो वे ज्यादातर जैसे-तैसे काम करते हैं, और बस एक बार कार्य व्यवस्थाओं के बारे में बात करके अपना काम खत्म समझ लेते हैं। वे बाद में काम की खोज-खबर नहीं लेते या उस पर नजर नहीं रखते हैं, या किसी विशिष्ट काम को सही ढंग से नहीं करते। ये झूठे अगुआ हैं। झूठे अगुआ, कम से कम, फिर भी कार्य व्यवस्थाओं को लागू कर सकते हैं, जैसे-तैसे काम करके उन्हें बनाए रख सकते हैं। मगर मसीह-विरोधी तो कार्य व्यवस्थाओं को बनाए भी नहीं रख सकते, वे उन्हें स्वीकारने या लागू करने से सीधे इनकार कर देते हैं, और मनमाने ढंग से चीजें करते हैं। वे किस बारे में सोचते हैं? बस अपने रुतबे, शोहरत, और प्रतिष्ठा के बारे में। वे सोचते हैं कि क्या ऊपरवाला उनकी सराहना करता है, कितने भाई-बहन उनका समर्थन करते हैं, कितने लोगों के दिलों में उनकी जगह है, वे कितने लोगों के दिलों पर राज करते हैं, कितनों को काबू में रखते हैं, और कितने लोग उनकी मुट्ठी में हैं। उन्हें बस उन चीजों की परवाह है। वे कभी भी इस बात पर विचार नहीं करते कि भाई-बहनों का सिंचन या आपूर्ति कैसे की जाए जिससे कि वे सच्चे मार्ग पर एक बुनियाद स्थापित का सकें, और वे यकीनन इस बात पर तो बिल्कुल भी विचार नहीं करते कि भाई-बहनों का जीवन प्रवेश कैसा चल रहा है, भाई-बहन अपने कर्तव्य कैसे निभा रहे हैं, चाहे यह सुसमाचार फैलाना होया कोई और कर्तव्य, या क्या वे सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, और उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की कि भाई-बहनों को परमेश्वर के सामने कैसे लाया जाए। उन्हें उन चीजों की परवाह नहीं है। क्या ये सभी तथ्य तुम लोगों के सामने नहीं हैं? क्या ये लक्षण तुम लोग अक्सर मसीह-विरोधियों में नहीं देखते? क्या ये तथ्य इस बात का पर्याप्त सबूत नहीं हैं कि ये लोग सत्य से नफरत करते हैं? (बिल्कुल हैं।) एक मसीह-विरोधी को, हर वक्त, सिर्फ रुतबे, शोहरत और प्रतिष्ठा की ही परवाह होती है। मान लो कि तुमने एक मसीह-विरोधी को कलीसियाई जीवन का प्रभारी बनाया, ताकि भाई-बहन उचित कलीसियाई जीवन जी सकें, और कलीसियाई जीवन जीने के दौरान सत्य को समझने और उसकी नींव रखने, परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने, परमेश्वर के समक्ष आने, और आजादी से जीने की क्षमता, और अपने कर्तव्य निभाने की आस्था हासिल करने में उनकी मदद की जा सके। इस तरह, परमेश्वर के घर के सुसमाचार फैलाने के कार्य के लिए कुछ अतिरिक्त लोग होंगे, और ज्यादा प्रतिभाशाली सुसमाचार कर्मियों की लगातार आपूर्ति की जा सकेगी, ताकि वे सुसमाचार फैलाने के अपने कर्तव्य निभा सकें। क्या एक मसीह-विरोधी ऐसा ही सोचेगा? वह इस तरह से बिल्कुल नहीं सोचेगा। वह कहेगा : “कलीसियाई जीवन से क्या फर्क पड़ता है? अगर सभी लोग तहेदिल से कलीसियाई जीवन जिएँगे, और परमेश्वर के वचन पढ़ेंगे, और अगर वे सभी सत्य समझने लगेंगे, तो मेरे आदेश कौन सुनेगा? मेरी परवाह कौन करेगा? मेरी ओर कौन ध्यान देगा? मैं हर किसी को हर समय कलीसियाई जीवन पर ध्यान देने या इसके प्रति आसक्त होने नहीं दे सकता। अगर हर कोई हमेशा परमेश्वर के वचन पढ़ेगा, और हर कोई परमेश्वर के पास आ जाएगा, तो मेरे आस-पास कौन रहेगा?” क्या यह एक मसीह-विरोधी का रवैया नहीं है? (बिल्कुल है।) वे सोचते हैं कि अगर वे सत्य और जीवन प्राप्त करने में भाई-बहनों की मदद करेंगे, तो यह प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबा पाने की उनकी चाहत के लिए हानिकारक होगा। वे मन-ही-मन सोचते हैं : “अगर मैं अपना सारा समय भाई-बहनों के लिए काम करने में लगा दूँ, तो क्या मेरे पास प्रतिष्ठा, लाभ और रुतबा हासिल करने के लिए समय बचेगा? अगर सभी भाई-बहन परमेश्वर के नाम का गुणगान और उसका अनुसरण करने लगें, तो मेरी आज्ञा मानने वाला कोई नहीं होगा। यह मेरे लिए बहुत अजीब होगा!” यह एक मसीह-विरोधी का चेहरा है। मसीह-विरोधी सिर्फ सत्य का अनुसरण करने में ही असफल नहीं होते; वे सत्य से बेहद विमुख हो चुके होते हैं। अपनी व्यक्तिगत चेतना में, वे यह नहीं कहते : “मैं सत्य से नफरत करता हूँ, मैं परमेश्वर से नफरत करता हूँ, और मैं उन सभी कार्य व्यवस्थाओं, बयानों और अभ्यासों से नफरत करता हूँ जिनसे भाई-बहनों को लाभ होता है।” वे ऐसा नहीं कहेंगे। वे परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं का विरोध करने के लिए बस कुछ रवैये और व्यवहार अपनाते हैं। तो, इन रवैयों और व्यवहारों का सार चीजों को मनमाने ढंग से करना, और दूसरे लोगों को उन पर ध्यान देने और उनका आज्ञापालन करने के लिए मजबूर करना है। यही वजह है कि परमेश्वर का घर चाहे कुछ भी करे, वे उसका सम्मान नहीं करेंगे। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) हमने इससे पहले मसीह-विरोधियों के इन लक्षणों पर बहुत बार संगति की है। तुम लोगों का आध्यात्मिक कद छोटा है, और सत्य के बारे में तुम्हारी समझ उथली है; मसीह-विरोधियों ने तुम लोगों की आँखों के सामने बहुत सारे बुरे काम किए हैं, और फिर भी तुम इसे पहचानने में असफल रहे हो। तुम लोग मूर्ख और दयनीय हो, तुम सुन्न और मंदबुद्धि, कंगाल और अंधे हो। ये तुम लोगों की वास्तविक अभिव्यक्तियाँ और वास्तविक आध्यात्मिक कद है। मसीह-विरोधी बहुत दिक्कतें खड़ी करते हैं, और परमेश्वर के घर के कार्य को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाते हैं, और फिर भी लोग कहते हैं कि सेवा प्रदान करने में उनका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उनका उपयोग करने से फायदे से ज्यादा नुकसान ही हुआ है, और फिर भी तुम लोग उन्हें बर्खास्त करना या उनसे निपटना नहीं जानते—तुम लोगों के इस आध्यात्मिक कद और इन विचारों को बदलने में कितने साल लगेंगे? कुछ लोग हमेशा शेखी बघारते हैं, “मैं सत्य का अनुसरण करने वाला व्यक्ति हूँ,” मगर मसीह-विरोधियों से सामना होने पर वे उन्हें पहचान नहीं पाते, और यहाँ तक कि उन मसीह-विरोधियों का अनुसरण भी कर सकते हैं—सत्य के अनुसरण की उनकी अभिव्यक्तियाँ कहाँ हैं? उन्होंने इतने सारे उपदेश सुने हैं, मगर फिर भी उन्हें सही-गलत की पहचान नहीं है। अच्छा, तो मैं इस विषय पर अपनी संगति यहीं समाप्त करूँगा, इसके बाद हम अपने मुख्य विषय पर बात करेंगे।

हमारी पिछली सभा में, हमने “अपने परिवार से मिलने वाले बोझ त्याग देना” के विषय में माँ-बाप की अपेक्षाओं से संबंधित बातों पर संगति की थी। हमने इससे जुड़े प्रासंगिक सिद्धांतों और प्रमुख विषयों पर अपनी संगति पूरी कर ली है। इसके बाद, हम अपने परिवार से मिलने वाले बोझ त्याग देने के दूसरे पहलू—अपने बच्चों से अपेक्षाएँ त्यागने के बारे में संगति करेंगे। इस बार हम भूमिकाएँ बदल देंगे। वह विषय-वस्तु जो माँ-बाप की अपेक्षाओं के प्रति रुख से जुड़ी है, उसके संबंध में ये कुछ ऐसी चीजें हैं जो लोगों को एक बच्चे के परिप्रेक्ष्य से करनी चाहिए। जब यह बात आती है कि बच्चों को अपने माँ-बाप की उनसे जुड़ी विभिन्न अपेक्षाओं के प्रति, और माँ-बाप उनके प्रति कैसा रुख अपनाते हैं, इसके प्रति किस प्रकार का रुख रखना चाहिए और उनसे कैसे निपटना चाहिए और उन्हें किन सिद्धांतों पर अमल करना चाहिए, तो यह एक बच्चे के दृष्टिकोण से माँ-बाप से आने वाली विभिन्न समस्याओं को लेकर सही रुख रखने के बारे में है। आज हम “अपने बच्चों से अपेक्षाएँ त्यागना” के विषय पर संगति करेंगे, जो उन विभिन्न समस्याओं से निपटने के बारे में है जो एक माँ-बाप के दृष्टिकोण से लोगों को अपने बच्चों के संबंध में होती हैं। इसमें ऐसे सबक शामिल हैं जिन्हें सीखा जाना चाहिए और ऐसे सिद्धांत हैं जिनका पालन किया जाना चाहिए। एक बच्चे के रूप में, सबसे अहम बात यह है कि तुम्हें अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं का सामना कैसे करना चाहिए, इन अपेक्षाओं के प्रति कैसा रवैया अपनाना चाहिए, साथ ही किस मार्ग पर चलना चाहिए, और इस परिस्थिति में तुम्हारे पास अभ्यास के कौन-से सिद्धांत होने चाहिए। स्वाभाविक रूप से, सभी को माँ-बाप बनने का मौका मिलता है, या शायद वे पहले से ही माँ-बाप होंगे; इसका संबंध उन अपेक्षाओं और रवैयों से है जो लोग अपने बच्चों के प्रति रखते हैं। चाहे तुम माँ-बाप हो या संतान, तुम्हारे पास एक-दूसरे की अपेक्षाओं से निपटने के लिए अलग-अलग सिद्धांत होने चाहिए। जब अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने की बात आती है, तो बच्चों के पास ऐसे सिद्धांत होते हैं जिनका पालन उन्हें जरूर करना चाहिए, और स्वाभाविक रूप से, माँ-बाप के पास भी सत्य सिद्धांत होते हैं जिनका पालन उन्हें अपने बच्चों की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए करना चाहिए। तो पहले जरा सोचो, अभी तुम लोग कौन-से ऐसे सिद्धांत देख सकते हो या उनके बारे में सोच सकते हो जिनका पालन माँ-बाप को अपने बच्चों के साथ व्यवहार में करना चाहिए? अगर हम सिद्धांतों के बारे में बात करें, तो यह विषय शायद तुम लोगों से बहुत संबंधित न हो, और यह बहुत ज्यादा व्यापक और गहरा हो, तो इसके बजाय आओ इस बारे में चर्चा करें कि अगर तुम माँ-बाप होते तो अपने बच्चों से क्या अपेक्षाएँ रखते। (परमेश्वर, अगर किसी दिन मेरे बच्चे हों, तो सबसे पहले मैं यह आशा करूँगा कि मेरे बच्चे तंदुरुस्त हों, और स्वास्थ्य के साथ ही बड़े हो सकें। इसके अलावा, मैं आशा करूँगा कि उनके अपने सपने हों, और वे जीवन में अपने सपनों को पूरा करने के बारे में महत्वाकांक्षी हों, और उनके अच्छे भविष्य की संभावना हो। ये दो मुख्य चीजें हैं जिनकी मैं आशा करूँगा।) क्या तुम आशा करोगे कि तुम्हारे बच्चे ऊँचे पद के अधिकारी या बहुत अमीर बनें? (मैं उन चीजों की भी आशा करूँगा। मैं आशा करूँगा कि वे, कम से कम, संसार में आगे निकल सकें, दूसरों से बेहतर बन सकें, और लोग उनका सम्मान करें।) माँ-बाप अपने बच्चों के लिए सबसे पहले यह चाहते हैं कि वे शारीरिक रूप से स्वस्थ हों, अपने करियर में सफल हों, संसार में आगे बढ़ें और उनके जीवन में सब कुछ अच्छा हो। क्या माँ-बाप की अपनी बच्चों से कोई और अपेक्षाएँ होती हैं? जिनके बच्चे हैं, बताओ। (मैं आशा करती हूँ कि मेरे बच्चे स्वस्थ हों, उनके जीवन में चीजें सुचारू रूप से चलें, और उनका जीवन शांतिपूर्ण और सुरक्षित हो। मैं आशा करती हूँ कि वे अपने परिवार के साथ सामंजस्य बनाकर रहें, और वे बड़ों का सम्मान और छोटों की देखभाल कर सकें।) और कुछ? (अगर मैं किसी दिन बाप बनूँ, तो उन अपेक्षाओं के अलावा, जिनके बारे में अभी बात की गई है, मैं यह भी आशा करूँगा कि मेरे बच्चे आज्ञाकारी और समझदार हों, मेरे प्रति संतानोचित दायित्व निभाएँ, और बुढ़ापे में मेरा ध्यान रखने के लिए मैं उन पर भरोसा कर सकूँ।) यह अपेक्षा काफी महत्वपूर्ण है। माँ-बाप का इस उम्मीद में रहना कि उनके बच्चे संतानोचित दायित्व निभाएँगे, यह अपेक्षाकृत एक पारंपरिक अपेक्षा है जो लोगों की धारणाओं और अवचेतन में होती है। यह काफी हद तक प्रतिनिधिक मामला है।

अपने बच्चों से अपेक्षाएँ त्यागना, अपने परिवार से मिलने वाले बोझ त्यागने का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। सभी माँ-बाप अपने बच्चों से कुछ अपेक्षाएँ रखते हैं। चाहे वे बड़ी हों या छोटी, उनके वर्तमान से संबंधित हों या भविष्य से, ये अपेक्षाएँ एक रवैया हैं जो माँ-बाप का अपने बच्चों के आचरण, उनके क्रियाकलापों, जीवन या उनके बच्चे उनसे कैसे पेश आते हैं, के प्रति होता है। वे एक तरह की विशिष्ट शर्त भी हैं। ये विशिष्ट शर्तें, उनके बच्चों के परिप्रेक्ष्य से, ऐसी चीजें हैं जो उन्हें पूरी करनी चाहिए, क्योंकि पारंपरिक धारणाओं के आधार पर, बच्चे अपने माँ-बाप के आदेशों के खिलाफ नहीं जा सकते—अगर वे ऐसा करते हैं तो वे संतानोचित दायित्व नहीं निभाते। इस वजह से, बहुत-से लोग इस मामले को लेकर बहुत बड़ा और भारी बोझ उठाते हैं। तो, क्या लोगों को यह नहीं समझना चाहिए कि माँ-बाप अपने बच्चों से जो विशिष्ट अपेक्षाएँ रखते हैं, वे उचित हैं या नहीं, और उनके माँ-बाप को ये अपेक्षाएँ रखनी भी चाहिए या नहीं, साथ ही इनमें से कौन-सी अपेक्षाएँ उचित हैं, कौन-सी अनुचित हैं, कौन-सी जायज हैं और कौन-सी बाध्यकारी और नाजायज हैं? इसके अलावा, माँ-बाप की अपेक्षाओं के प्रति क्या रुख रखना चाहिए, उन्हें कैसे स्वीकारना या ठुकराना है, और इन अपेक्षाओं को देखने और इनके प्रति रुख अपनाते समय क्या रवैया और परिप्रेक्ष्य होना चाहिए, जब इनकी बात आती है, तो कुछ ऐसे सत्य सिद्धांत हैं जिन्हें लोगों को समझना और पालन करना चाहिए। जब इन चीजों का समाधान नहीं होता, तो माँ-बाप अक्सर इस तरह का बोझ उठाते हुए चलते हैं, यह सोचकर कि अपने बच्चों और संतानों के लिए अपेक्षाएँ रखना उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और स्वाभाविक रूप से, वे ऐसी चीजें हैं जो उनके पास होनी ही चाहिए। वे सोचते हैं कि अगर वे अपने बच्चों से कोई अपेक्षाएँ न रखें, तो यह उनकी संतानों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों या दायित्वों को पूरा न करने के समान होगा, और माँ-बाप को जो करना चाहिए वह न करने के बराबर होगा। वे सोचते हैं कि इससे वे बुरे माँ-बाप बन जाएँगे, ऐसे माँ-बाप जो अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाते हैं। इसलिए, जब अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं की बात आती है, तो लोग अनजाने में ही अपने बच्चों के लिए विभिन्न अपेक्षाएँ निर्धारित कर लेते हैं। अलग-अलग समय और परिस्थितियों में विभिन्न बच्चों के लिए उनकी अलग-अलग अपेक्षाएँ होती हैं। क्योंकि जब बात अपने बच्चों की आती है तो माँ-बाप इस तरह का दृष्टिकोण रखते और बोझ उठाते हैं, इसलिए माँ-बाप इन अलिखित नियमों के अनुसार वे काम करते हैं जो उन्हें करने चाहिए, फिर चाहे वे सही हों या गलत। माँ-बाप इन दृष्टिकोणों को एक प्रकार का दायित्व और एक प्रकार की जिम्मेदारी मानते हुए अपने बच्चों से माँग करते हैं, और साथ ही, इन्हें अपने बच्चों पर थोपते हैं, और इन्हें हासिल करने को उन्हें मजबूर करते हैं। हम अपनी संगति में इस मामले को कई चरणों में विभाजित करेंगे; इस तरह यह और स्पष्ट हो जाएगा।

बच्चों के बालिग होने से पहले ही, माँ-बाप उनके सामने विभिन्न शर्तें रख देते हैं। बेशक, इन विभिन्न शर्तों में, वे उन पर विभिन्न प्रकार की अपेक्षाएँ भी जोड़ देते हैं। तो, जहाँ माँ-बाप अपने बच्चों से विभिन्न अपेक्षाएँ रखते हैं, वहीं वे व्यक्तिगत रूप से इन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए विभिन्न कीमतें भी चुकाते हैं और विभिन्न प्रकार के रुख अपनाते हैं। इसलिए, बच्चों के बालिग होने से पहले, माँ-बाप उन्हें कई तरीकों से शिक्षित करते हैं, और उनके सामने विभिन्न शर्तें रखते हैं। उदाहरण के लिए, बहुत छोटी-सी उम्र से ही, वे अपने बच्चों से कहते हैं : “तुम्हें अच्छे से पढ़ना होगा और अधिक पढ़ना होगा। अपनी पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन करके ही तुम बाकी सबसे बेहतर बन सकते हो, और फिर कोई तुम्हें नीची नजरों से नहीं देखेगा।” ऐसे माँ-बाप भी हैं जो अपने बच्चों को सिखाते हैं कि बड़े होने पर उन्हें उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखानी होगी; वे इस हद तक चले जाते हैं कि बच्चे के सिर्फ दो या तीन साल के होते ही वे उनसे हमेशा पूछते लगते हैं : “बड़े होकर अपने पापा का ख्याल रखोगे न?” और उनके बच्चे कहते हैं : “हाँ।” वे पूछते हैं : “क्या तुम अपनी माँ की देखभाल करोगे?” “हाँ।” “तुम्हें अपने पापा से ज्यादा प्यार है या फिर अपनी माँ से?” “अपने पापा से।” “नहीं, तुम्हें पहले यह कहना है कि तुम अपनी माँ से ज्यादा प्यार करते हो, फिर कहना कि तुम अपने पापा से भी प्यार करते हो।” बच्चे ये बातें अपने माँ-बाप से सीखते हैं। माँ-बाप से शिक्षा चाहे बातों से मिले या उदाहरण से, उनका बच्चों के बाल-मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बेशक, इससे उन्हें एक बुनियादी समझ भी मिलती है, जो उन्हें सिखाती है कि उनके माँ-बाप वे लोग हैं जो उन्हें संसार में सबसे ज्यादा लाड़-प्यार करते हैं, और वे ही वे लोग हैं जिनके प्रति उन्हें सबसे ज्यादा आज्ञाकारिता और संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखानी चाहिए। स्वाभाविक रूप से, यह विचार कि “क्योंकि मेरे माँ-बाप संसार में मेरे सबसे करीबी लोग हैं, मुझे हमेशा उनकी बात माननी चाहिए” उनके बाल-मन में बिठा दिया जाता है। साथ ही, उनके बाल-मन में एक और विचार उठता है, जो यह है कि क्योंकि उनके माँ-बाप उनके सबसे करीबी लोग हैं, तो वे जो कुछ भी करेंगे वह यह पक्का करने के लिए होगा कि उनके बच्चे बेहतर जीवन जी सकें। इस वजह से, वे सोचते हैं कि उन्हें अपने माँ-बाप के कार्यकलापों को बिना शर्त स्वीकारना चाहिए; चाहे वे कैसा भी तरीका अपनाएँ, चाहे वे मानवीय हों या अमानवीय, उनका मानना है कि उन्हें स्वीकारना ही चाहिए। जिस उम्र में वे अभी सही-गलत के बीच फर्क करने की क्षमता नहीं रखते, तब उनके माँ-बाप की शिक्षा, शब्दों या उदाहरण के जरिये उनके भीतर इस तरह के विचार पैदा करती है। ऐसे विचार के निर्देशन में, माँ-बाप अपने बच्चों के लिए सबसे अच्छे की चाह रखने की आड़ में उनसे तमाम काम करवा सकते हैं। भले ही उनमें से कुछ चीजें मानवता या उनके बच्चों की प्रतिभा, काबिलियत या प्राथमिकताओं के अनुरूप न हों, इन परिस्थितियों में, जहाँ बच्चों को अपने हिसाब से या आजादी से काम करने का कोई अधिकार नहीं है, न ही उनके पास अपने माँ-बाप की तथाकथित अपेक्षाओं और माँगों के संबंध में कोई विकल्प होता है, न विरोध करने की क्षमता होती है। उनके पास अपने माँ-बाप की हर बात मानने, उन्हें अपनी मनमानी करने देने, खुद को उनके हवाले कर देने, और अपने माँ-बाप द्वारा किसी भी मार्ग पर चलाए जाने के सिवा और कोई चारा नहीं होता। इसलिए, अपने बच्चों के बालिग होने से पहले, माँ-बाप जो कुछ भी करते हैं, चाहे अनजाने में किया हो या अच्छे इरादों से, उन बातों का बच्चों के आचरण और कार्यकलापों पर थोड़ा सा सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ेगा। यानी, उनका हरेक कार्य उनके बच्चों के भीतर विभिन्न विचार और दृष्टिकोण पैदा करेगा, और ये विचार और दृष्टिकोण उनके बच्चों के अवचेतन में गहराई तक दबे हो सकते हैं; इस तरह, बालिग होने के बाद भी ये विचार और दृष्टिकोण, लोगों और चीजों के प्रति उनके दृष्टिकोण, उनके आचरण और कार्यकलाप, और उनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्ग को भी गहराई से प्रभावित करते रहते हैं।

बालिग होने से पहले, बच्चों के पास अपने जीवन परिवेश, विरासत या उस शिक्षा का विरोध करने का कोई जरिया नहीं होता जो उनके माँ-बाप उन्हें देते हैं, क्योंकि वे अभी बालिग नहीं हुए हैं और अभी तक चीजों को बहुत अच्छी तरह से नहीं समझते हैं। जब मैं किसी बच्चे के बालिग होने से पहले के समय की बात करता हूँ, तो मेरा मतलब उस समय से है जब बच्चा अपने आप सही-गलत के बीच फर्क नहीं कर सकता। इन परिस्थितियों में, बच्चे खुद को केवल अपने माँ-बाप के रहमो-करम पर छोड़ सकते हैं। इसका सटीक कारण यह है कि बच्चों के बालिग होने से पहले माँ-बाप ही उनके लिए सारे फैसले लेते हैं, और माँ-बाप, इस बुरे काल के दौरान, अपने बच्चों को कुछ चीजें करने को प्रेरित करने के लिए, सामाजिक प्रवृत्तियों पर आधारित शिक्षा, विचारों और दृष्टिकोण के अनुरूप तरीकों को अपनाते हैं। उदाहरण के लिए, अभी समाज में प्रतिस्पर्धा बहुत भयंकर है। माँ-बाप विभिन्न सामाजिक प्रवृत्तियों के माहौल और मतों से प्रभावित होते हैं, इसलिए वे इस संदेश को स्वीकारते हैं कि प्रतिस्पर्धा भयंकर है, और तुरंत यह विचार अपने बच्चों में भी डाल देते हैं। वे जो स्वीकारते हैं वह यह है कि समाज में प्रतिस्पर्धा की घटना और प्रवृत्ति बहुत भयंकर है, और जो महसूस करते हैं वह एक प्रकार का दबाव है। जब वे यह दबाव महसूस करते हैं, तो तुरंत अपने बच्चों के बारे में सोचते और कहते हैं : “आजकल समाज में प्रतिस्पर्धा बहुत भयंकर है, जब हम छोटे थे तब ऐसा नहीं था। अगर हमारे बच्चे हमारी तरह ही पढ़ें, काम करें, और समाज और विभिन्न लोगों और चीजों के प्रति वही रुख अपनाएँ जैसे हमने रखे थे, तो उन्हें जल्दी ही समाज से निकाल दिया जाएगा। तो, हमें उनके छोटे होने का फायदा उठाकर अभी से उन पर काम शुरू करना होगा—हम अपने बच्चों को शुरुआत में ही हारने नहीं दे सकते।” आजकल समाज में भयंकर प्रतिस्पर्धा है, और सभी लोग अपने बच्चों से बहुत उम्मीदें लगाए बैठे हैं, तो वे समाज से स्वीकार किए गए इस तरह के दबाव को फौरन अपने बच्चों पर थोप देते हैं। अब, क्या उनके बच्चों को इसकी भनक है? क्योंकि वे अभी बालिग नहीं हुए हैं, तो उन्हें इसकी जरा भी भनक नहीं है। वे नहीं जानते कि माँ-बाप द्वारा डाला गया यह दबाव सही है या गलत, या उन्हें इसे ठुकरा देना चाहिए या स्वीकार लेना चाहिए। जब माँ-बाप अपने बच्चों को ऐसा व्यवहार करते देखते हैं, तो वे उन्हें डाँटते हैं : “तुम इतने मूर्ख कैसे हो सकते हो? इस वक्त समाज में प्रतिस्पर्धा इतनी भयंकर है, और फिर भी तुम्हें कुछ पल्ले नहीं पड़ता। जल्दी किंडरगार्टन जाओ!” बच्चे किस उम्र में किंडरगार्टन जाना शुरू करते हैं? कुछ तीन या चार साल की उम्र में शुरू करते हैं। ऐसा क्यों? इस वक्त समाज में एक मुहावरा काफी चल रहा है : तुम अपने बच्चों को शुरुआत में ही हारने नहीं दे सकते, शिक्षा बहुत कम उम्र से शुरू होनी चाहिए। देखा, बहुत छोटे बच्चे पीड़ित होते हैं, और तीन या चार साल की उम्र में किंडरगार्टन जाना शुरू कर देते हैं। और लोग कैसा किंडरगार्टन चुनते हैं? सामान्य किंडरगार्टन में, शिक्षक अक्सर बच्चों के साथ “बाज और मुर्गी” जैसे खेल खेलते हैं, तो माँ-बाप सोचते हैं कि वे ऐसा किंडरगार्टन नहीं चुन सकते। उनका मानना है कि उन्हें एक हाई-फाई, दुभाषिया किंडरगार्टन चुनना होगा। और, उनके लिए, बस एक भाषा सीखना काफी नहीं है। जिस उम्र में बच्चे अपनी मातृभाषा तक अच्छे से नहीं बोल पाते, तब ही उन्हें दूसरी भाषा सीखनी पड़ती है। क्या यह बच्चों का जीवन मुश्किल बनाना नहीं है? मगर माँ-बाप क्या कहते हैं? “हम अपने बच्चे को शुरुआत में हीहारने नहीं दे सकते। आजकल एक साल तक के बच्चों को भी घर पर दाई माँ पढ़ाती है। बच्चों के माँ-बाप अपनी मातृभाषा बोलते हैं, और दाई माँ दूसरी भाषा बोलती है, बच्चों को अंग्रेजी, स्पेनिश या पुर्तगाली सिखाती है। हमारा बच्चा चार साल का हो चुका है, वह पहले ही थोड़ा बड़ा हो चुका है। अगर हमने उसे अभी से पढ़ाना शुरू नहीं किया तो बहुत देर हो जाएगी। हमें जल्द-से-जल्द उसकी पढ़ाई शुरू करनी होगी, और एक ऐसा किंडरगार्टन ढूँढ़ना होगा जो दो भाषाओं में पढ़ाता हो, जहाँ शिक्षकों के पास बैचलर और मास्टर की डिग्री हो।” लोग कहते हैं : “ऐसे स्कूल बहुत महंगे होते हैं।” वे जवाब देते हैं : “कोई बात नहीं। हमारा घर बड़ा है; हम एक छोटे घर में जा सकते हैं। हम अपना तीन-बेडरूम वाला घर बेच कर दो-बेडरूम वाला घर ले लेंगे। हम उस पैसे को बचाकर उसका इस्तेमाल अपने बच्चे को हाई-फाई किंडरगार्टन भेजने के लिए करेंगे।” एक अच्छा किंडरगार्टन चुन लेना ही काफी नहीं है, वे सोचते हैं कि उन्हें अपने बच्चों को खाली समय में गणित के ओलंपियाड की पढ़ाई में मदद करने के लिए शिक्षक रखने होंगे। भले ही उनके बच्चों को इसके लिए पढ़ना बिल्कुल नापसंद हो, फिर भी उन्हें यह करना पड़ता है, और अगर वे इसे नहीं पढ़ पाते तो उन्हें डांस सीखना होगा। अगर वे डांस में अच्छे नहीं हैं, तो गाना सीखेंगे। अगर वे गाने में अच्छे नहीं हैं, और उनके माँ-बाप देखते हैं कि उनके पास एक अच्छा डील-डौल और लंबे हाथ-पैर हैं, तो वे सोचेंगे कि शायद वे एक मॉडल बन सकते हैं। फिर वे उन्हें मॉडलिंग सीखने के लिए आर्ट स्कूल भेजेंगे। इस तरह, बच्चों को चार या पाँच साल की उम्र में बोर्डिंग स्कूलों में भेजना शुरू हो जाता है, और उनके परिवारों के घर तीन-बेडरूम से दो-बेडरूम वाले घरों में, दो-बेडरूम वाले घरों से एक-बेडरूम वाले घरों में, और एक-बेडरूम वाले घर से किराये के मकान में बदल जाते हैं। उनके बच्चे स्कूल के बाहर जो ट्यूशन लेते हैं, उनकी संख्या बढ़ती जाती है, और उनके घर छोटे होते जाते हैं। कुछ माँ-बाप ऐसे भी हैं जो अपने पूरे परिवार को दक्षिण से उत्तर, और उत्तर से दक्षिण करते रहते हैं, ताकि उनके बच्चे बढ़िया स्कूलों में पढ़ सकें, और अंत में, उन्हें नहीं पता होता कि जाना कहाँ है, उनके बच्चे नहीं जानते कि उनका अपना शहर कहाँ है, सब गड़बड़ हो जाता है। माँ-बाप अपने बच्चों के भविष्य की खातिर उनके बालिग होने से पहले कई कीमतें चुकाते हैं, ताकि उनके बच्चे शुरुआत में ही हार न जाएँ, वे तेजी से बढ़ती प्रतिस्पर्धा वाले इस समाज के अनुकूल बन सकें, और बाद में एक अच्छी नौकरी पा सकें, जहाँ से उन्हें लगातार पगार मिलती रहे। कुछ माँ-बाप बहुत सक्षम होते हैं, बड़े कारोबार चलाते हैं या ऊँचे पदाधिकारी होते हैं, और वे अपने बच्चों में भारी-भरकम पैसा लगाते हैं। कुछ माँ-बाप इतने सक्षम नहीं होते, पर दूसरों की तरह ही, वे अपने बच्चों को विभिन्न भाषाएँ और संगीत सीखने के लिए हाई-फाई स्कूलों, स्कूल के बाद वाले क्लास, डांस क्लास, आर्ट क्लास वगैरह में भेजना चाहते हैं, जिससे उनके बच्चों पर बहुत दबाव बनता है और उन्हें कष्ट सहना पड़ता है। उनके बच्चे सोचते हैं : “मुझे थोड़ा खेलने की अनुमति कब मिलेगी? मैं कब बड़ा होकर बड़ों की तरह अपने फैसले खुद ले पाऊँगा? कब मुझे बड़ों की तरह स्कूल नहीं जाना पड़ेगा? मैं कब थोड़ा टीवी देख पाऊँगा, दिमाग को शांत कर पाऊँगा, और अपने माँ-बाप की देखरेख के बिना, अकेले कहीं घूमने जा सकूँगा?” मगर उनके माँ-बाप अक्सर कहते हैं : “अगर तुम पढ़ाई नहीं करोगे तो तुम्हें भविष्य में अपना पेट भरने के लिए भीख माँगनी होगी। देखो तुममें कितनी थोड़ी प्रतिभा है! अभी तुम्हारे खेलने-कूदने का समय नहीं है, तुम बड़े होकर खेल सकते हो! पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब; अगर तुम बाद में खेलते हो, तो तुम और भी ज्यादा मस्ती कर सकते हो, पूरी दुनिया घूम सकते हो। क्या तुमने संसार के उन सभी अमीर लोगों को नहीं देखा है—क्या वे बचपन में खेलते थे? वे बस पढ़ाई करते थे।” उनके माँ-बाप उनसे सिर्फ झूठ बोलते हैं। क्या उनके माँ-बाप ने अपनी आँखों से देखा कि वे अमीर लोग सिर्फ पढ़ते थे, कभी खेलते नहीं थे? क्या यह बात उनके पल्ले पड़ती है? दुनिया के कुछ अमीर और धनी लोग कभी यूनिवर्सिटी नहीं गए—यह सच है। कभी-कभी जब माँ-बाप बोलते हैं, तो वे बस अपने बच्चों को बरगला रहे होते हैं। अपने बच्चों के बालिग होने से पहले, माँ-बाप उनके भविष्य को बेहतर ढंग से नियंत्रित करने, अपने बच्चों को काबू में रखने और उनसे बात मनवाने के लिए हर तरह के झूठ बोलते हैं। बेशक, वे सभी तरह के कष्ट भी सहते हैं और इसके लिए सभी प्रकार की कीमतें चुकाते हैं। यह “माँ-बाप का तथाकथित सराहनीय प्रेम” है।

अपने बच्चों से अपनी अपेक्षाएँ पूरी करवाने के लिए, माँ-बाप उनसे कई उम्मीदें लगा बैठते हैं। इस तरह, वे न सिर्फ अपने बच्चों को अपनी बातों से शिक्षित करते, मार्गदर्शन देते और प्रभावित करते हैं, बल्कि उन्हें नियंत्रित करने, उनसे अपनी बात मनवाने के लिए ठोस कदम भी उठाते हैं जिससे कि उनके बच्चे उनके द्वारा निर्धारित पथ और उनके द्वारा स्थापित निर्देशन के अनुसार काम करें और जिएँ। चाहे उनके बच्चे ऐसा करने को तैयार हों या नहीं, आखिर में माँ-बाप बस एक ही बात कहते हैं : “अगर तुम मेरी बात नहीं सुनोगे, तो बाद में पछताओगे! अगर तुम मेरी बात न मानकर अभी अपनी पढ़ाई को गंभीरता से नहीं लेते हो और एक दिन तुम्हें पछतावा होता है, तो मेरे पास मत आना, यह मत कहना कि मैंने तुम्हें सावधान नहीं किया था!” एक बार, हम किसी काम से एक इमारत में गए, और देखा कि कुछ मूवर्स कुछ सामान सीढ़ियों से ऊपर ले जाने के लिए बहुत मेहनत कर रहे थे। उनका सामना एक माँ से हुआ जो अपने बेटे को सीढ़ियों से नीचे ले जा रही थी। अगर कोई सामान्य व्यक्ति यह नजारा देखता, तो कहता : “वहाँ से लोग सामान ले जा रहे हैं, उनके रास्ते से हट जाते हैं।” नीचे जाने वाले लोगों को बिना किसी चीज से टकराए या मूवर्स को परेशान किए बिना, रास्ते से जल्दी हटना पड़ता। मगर जब उस माँ ने यह नजारा देखा, तो वह मौके का फायदा उठाते हुए परिस्थिति के हिसाब से ज्ञान देने लगी। मुझे अब तब साफ-साफ याद है कि उसने क्या कहा था। क्या कहा था? उसने कहा : “देखो ये लोग जो सामान ले जा रहे हैं कितना भारी है, और यह काम कितना थकाऊ है। जब वे बच्चे थे तो उन्होंने अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया, और अब अच्छी नौकरी नहीं मिल रही है, तो उन्हें सामान उठाने का कड़ी मेहनत वाला काम करना पड़ता है। देख रहे हो न?” बेटे को शायद यह बात थोड़ी-बहुत समझ आई, और लगा कि उसकी माँ ने जो कुछ कहा वह सही था। उसकी आँखों में भय, आतंक और विश्वास की एक सच्ची अभिव्यक्ति दिखाई दी, और उसने फिर से मूवर्स की ओर देखते हुए अपना सिर हिलाया। माँ ने इस मौके का फायदा उठाया और अपने बेटे को भाषण देते हुए कहा : “देख रहे हो? अगर तुम छोटी उम्र में अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दोगे, तो बड़े होने के बाद, तुम्हें अपना पेट पालने के लिए सामान उठाने जैसा कड़ी मेहनत वाला काम करना होगा।” क्या ये बातें सही थीं? (नहीं।) वे किस लिहाज से गलत थीं? यह माँ अपने बेटे को भाषण देने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी—तुम्हें क्या लगता है, यह सुनने के बाद उसके बेटे की मानसिकता क्या रही होगी? क्या वह यह सब समझने में सक्षम था कि ये बातें सही थीं या गलत? (नहीं।) तो, उसने क्या सोचा होगा? (“अगर मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दूँगा, तो मुझे भविष्य में इसी तरह बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।”) उसने सोचा होगा : “अरे नहीं, जिन लोगों को वाकई कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, उन्होंने पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया होगा। मुझे अपनी माँ की बात मानकर पढ़ाई में अच्छा करना होगा। मेरी माँ ने सही कहा, जो कोई भी पढ़ाई नहीं करता उसे बहुत मेहनत करनी पड़ती है।” अपनी माँ से मिले विचार उसके दिल में जीवन भर की सच्चाई बन जाते हैं। अब बताओ, क्या यह माँ बेवकूफ नहीं है? (बिल्कुल है।) वह बेवकूफ कैसे है? अगर वह इस मामले का उपयोग अपने बेटे को पढ़ाई के लिए मजबूर करने के लिए करती है, तो क्या उसका बेटा सचमुच कुछ हासिल करेगा? क्या इससे यह गारंटी मिलेगी कि उसे भविष्य में कड़ी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी या पसीना नहीं बहाना पड़ेगा? क्या उसका इस मामले, इस वाकये का इस्तेमाल अपने बेटे को डराने के लिए करना अच्छी बात है? (यह बुरी बात है।) इसकी काली छाया उसके बेटे पर आजीवन बनी रहेगी। यह अच्छी बात नहीं है। बड़े होने पर इस बच्चे में थोड़ी-सी समझ आ भी जाए, तब भी इस विचार को हटाना मुश्किल होगा जो उसकी माँ ने उसके दिल और उसके अवचेतन में डाला है। कुछ हद तक, यह उसके विचारों को गुमराह करेगा और बाँध देगा, और चीजों पर उसके विचारों को एकतरफा बना देगा। अपने बच्चों के बालिग होने से पहले माँ-बाप की ज्यादातर अपेक्षाएँ यही होती हैं कि वे खूब पढ़ाई करें, कड़ी मेहनत कर सकें, मेहनती बनें और उनकी अपेक्षाओं से कहीं कम न रहें। इसलिए, अपने बच्चों के बालिग होने से पहले, चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े, माँ-बाप उनके लिए सब कुछ करते हैं, वे अपनी जवानी, साल और वक्त के साथ ही अपने स्वास्थ्य और अपने सामान्य जीवन को भी त्याग देते हैं, और कुछ माँ-बाप तो अपने बच्चों को शिक्षित करने और स्कूल जाने के दौरान उनकी पढ़ाई में मदद करने के लिए, अपनी नौकरियाँ, अपनी पुरानी आकांक्षाएँ या अपनी आस्था तक त्याग देते हैं। कलीसिया में, ऐसे कई लोग हैं जो अपना सारा समय अपने बच्चों के साथ बिताते हैं, उन्हें शिक्षित करते हैं, ताकि उनके बच्चे उनकी छाया में बड़े हों, वे अपने करियर में सफल हों और भविष्य में स्थायी नौकरियाँ पा सकें, और ताकि उनके बच्चों के काम में चीजें सुचारु रूप से चलती रहें। ये माँ-बाप सभाओं में नहीं जाते या कर्तव्य नहीं निभाते। उनके दिलों में अपनी आस्था को लेकर कुछ मांगें होती हैं, और उनमें थोड़ा संकल्प और महत्वाकांक्षा होती है, मगर क्योंकि वे अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं को नहीं त्याग सकते, इसलिए वे सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों और अपनी आस्था से जुड़े अनुसरणों को त्यागकर, अपने बच्चों के बालिग होने से पहले की इस अवधि में उनके साथ रहना चुनते हैं। ये सबसे दुखद बात है। कुछ माँ-बाप अपने बच्चों को अभिनेता, कलाकार, लेखक या वैज्ञानिक बनाने के लिए प्रशिक्षित करने और उन्हें अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम बनाने के लिए कई कीमतें चुकाते हैं। वे अपनी नौकरियाँ छोड़ देते हैं, अपना करियर छोड़ देते हैं, और इतना ही नहीं, अपने बच्चों का साथ देने के लिए वे अपने सपनों और खुशियों को भी त्याग देते हैं। ऐसे माँ-बाप भी हैं जो अपने बच्चों के लिए अपना वैवाहिक जीवन त्याग देते हैं। तलाक लेने के बाद, वे अपने बच्चों को अकेले पालने-पोसने और प्रशिक्षित करने का बोझ उठाते हैं, अपना सारा जीवन अपने बच्चों की खातिर दांव पर लगा देते हैं, और अपने बच्चों का भविष्य बनाने में उसे समर्पित कर देते हैं, सिर्फ इसलिए ताकि वे अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं को पूरा कर सकें। कुछ माँ-बाप ऐसे भी होते हैं जो ऐसी कई चीजें करते हैं जो उन्हें नहीं करनी चाहिए, जो कई अनावश्यक कीमतें चुकाते हैं, अपने बच्चों के बालिग होने से पहले अपना समय, शारीरिक स्वास्थ्य और अनुसरणों को त्याग देते हैं, ताकि उनके बच्चे भविष्य में आगे बढ़कर संसार और समाज में अपनी पहचान बना सकें। एक ओर, माँ-बाप के लिए, ये कुछ अनावश्यक त्याग हैं। वहीं दूसरी ओर, ऐसे रुख अपनाने से बच्चों के बालिग होने से पहले उन पर भारी दबाव और बोझ पड़ता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके माँ-बाप ने बहुत सारी कीमतें चुकाई हैं, क्योंकि चाहे पैसे की बात हो, या समय या ऊर्जा की, उनके माँ-बाप ने बहुत ज्यादा खर्च किया है। लेकिन, इन बच्चों के बालिग होने से पहले और जब उनमें अभी भी सही-गलत को समझने की क्षमता नहीं होती है, उनके पास कोई विकल्प नहीं होता; वे अपने माँ-बाप को इस तरह का व्यवहार करने से नहीं रोक सकते हैं। भले ही उनके मन की गहराई में कुछ विचार हों, फिर भी वे अपने माँ-बाप के क्रियाकलापों के अनुसार ही चलते हैं। इन परिस्थितियों में, अतिसूक्ष्म रूप से बच्चे यह सोचने लगते हैं कि उनके माँ-बाप ने उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाई है कि वे इस जीवन में अपने माँ-बाप का ऋण चुकाने या उनके योगदान की भरपाई करने में सक्षम नहीं होंगे। इस वजह से, जब उनके माँ-बाप उन्हें प्रशिक्षित कर रहे होते हैं और उनका साथ दे रहे होते हैं, तो वे सोचते हैं कि अपने माँ-बाप का ऋण चुकाने के लिए वे बस इतना ही कर सकते हैं कि उन्हें खुश रखें, उन्हें संतुष्ट करने के लिए बड़ी उपलब्धि हासिल करें, और उन्हें निराश न करें। जहाँ तक माँ-बाप की बात है, इस दौरान अपने बच्चों के बालिग होने से पहले, इन कीमतों को चुकाने के बाद, जैसे-जैसे अपने बच्चों के लिए उनकी अपेक्षाएँ बढ़ती जाती हैं, उनकी मानसिकता धीरे-धीरे उनके बच्चों के सामने अपनी माँग रखने में बदल जाती है। यानी, माँ-बाप द्वारा इन तथाकथित कीमतों को चुकाने और खुद को खपाने के बाद, वे अपने बच्चों से यह माँग करते हैं कि उन्हें सफल होना ही पड़ेगा, और उनका ऋण चुकाने के लिए बड़ी उपलब्धियाँ हासिल करनी ही होंगी। इसलिए, चाहे हम इसे माँ-बाप के परिप्रेक्ष्य से देख रहे हों या एक बच्चे के परिप्रेक्ष्य से, “किसी के लिए खुद को खपाने” और “अपनी खातिर किसी और के खपने” के इस संबंध में, माँ-बाप की अपने बच्चों से की गई अपेक्षाएँ निरंतर बढ़ती जाती हैं। यह कहना सही होगा कि “उनकी अपेक्षाएँ बढ़ती ही जाती हैं।” दरअसल, माँ-बाप को अपने दिल की गहराई में यही लगता है कि जितना ज्यादा वे खुद को खपाते और त्याग करते हैं, उतना ही उनके बच्चों को कामयाब होकर उनका ऋण चुकाना चाहिए, और साथ ही, उनके बच्चे उनके उतने ही ऋणी हैं। माँ-बाप जितना ज्यादा खुद को खपाते, और जितनी ज्यादा आशाएँ रखते हैं, उनकी अपेक्षाएँ उतनी ही बड़ी हो जाती हैं, और अपने बच्चों द्वारा उनका ऋण चुकाने को लेकर उनकी अपेक्षाएँ उतनी ही बढ़ जाती हैं। माँ-बाप अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उनसे जो अपेक्षाएँ रखते हैं, “उन्हें बहुत सी चीजें सीखनी होंगी, वे शुरुआत में ही हार नहीं सकते” से लेकर “बड़े होने के बाद, उन्हें संसार में आगे बढ़ना होगा, और समाज में अपनी पहचान बनानी होगी,” तक, यह सब धीरे-धीरे एक तरह की माँग बन जाती है जो वे अपने बच्चों से करते हैं। वह माँग है : बड़े होकर समाज में अपनी पहचान बनाने के बाद, तुम अपनी जड़ों को मत भूलना, अपने माँ-बाप को मत भूलना, तुम्हें सबसे पहले अपने माँ-बाप का ऋण चुकाना होगा, तुम्हें उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखानी होगी, और एक अच्छा जीवन जीने में उनकी मदद करनी होगी, क्योंकि वे इस संसार में तुम्हारे हितकारी हैं, उन्होंने ही तुम्हें प्रशिक्षित किया है; आज समाज में तुम्हारी जो पहचान है, साथ ही वह सब कुछ जिसका तुम आनंद लेते हो, और वह सब जो तुम्हारे पास है, तुम्हारे माँ-बाप के कठिन प्रयासों का फल है, तो तुम्हें अपना बाकी जीवन उनका ऋण चुकाने, उनके योगदान की भरपाई करने और उनके साथ अच्छा व्यवहार करने में बिताना चाहिए। अपने बच्चों के बालिग होने से पहले माँ-बाप की उनसे जो अपेक्षाएँ होती हैं—कि उनके बच्चे समाज में अपनी पहचान बनाएँगे और संसार में आगे बढ़ेंगे—धीरे-धीरे माँ-बाप की एक बहुत ही सामान्य अपेक्षा से एक प्रकार की माँग और आग्रह में बदल जाती है जो माँ-बाप अपने बच्चों से करते हैं। मान लो कि बालिग होने से पहले की अवधि में, उनके बच्चों को अच्छे ग्रेड नहीं मिलते; मान लो कि वे विद्रोह करते हैं, पढ़ाई नहीं करना चाहते या अपने माँ-बाप की आज्ञा मानना नहीं चाहते, और वे उनकी अवहेलना करते हैं। उनके माँ-बाप कहेंगे : “तुम्हें मेरा जीवन आसान लगता है क्या? तुम्हें क्या लगता है मैं यह सब किसके लिए कर रहा हूँ? मैं यह तुम्हारी भलाई के लिए कर रहा हूँ, है न? मैं जो कुछ भी करता हूँ वह तुम्हारे लिए है, और तुम इसकी सराहना नहीं करते। तुम निहायत ही बेवकूफ हो क्या?” वे अपने बच्चों को डराने और उन्हें बंधक बनाने के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल करेंगे। क्या इस तरह का रुख अपनाना सही है? (नहीं।) यह सही नहीं है। माँ-बाप का यह “शरीफ” रूप उनका सबसे घृणित रूप भी है। इन बातों में गलत क्या है? (माँ-बाप का अपने बच्चों से अपेक्षाएँ रखना और अपने बच्चों को प्रशिक्षित करना एकतरफा प्रयास है। वे अपने बच्चों को फलाँ-फलाँ चीजें पढ़ने के लिए मजबूर करते हुए उन पर दबाव डालते हैं, ताकि उनका भविष्य अच्छा हो, वे अपने माँ-बाप का सिर ऊँचा करें, और भविष्य में उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाएँ। वास्तव में, माँ-बाप जो कुछ भी करते हैं वह अपने लिए ही करते हैं।) अगर हम इस तथ्य को अलग रख दें कि माँ-बाप खुदगर्ज और स्वार्थी हैं, और सिर्फ उन विचारों के बारे में बात करें जिन्हें वे अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उनके मन में डालते हैं, उन पर जो दबाव बनाते हैं, अपने बच्चों से यह उम्मीद करते हैं कि वे फला-फलाँ विषय पढ़ें, बड़े होने के बाद फलाँ-फलाँ क्षेत्र में करियर बनाएँ, और अमुक-अमुक कामयाबी हासिल करें—इन रूखों की प्रकृति क्या है? फिलहाल, हम यह आकलन नहीं करेंगे कि माँ-बाप ये चीजें क्यों कर रहे हैं, या ये रुख उचित हैं या नहीं। हम पहले इन रूखों की प्रकृति पर संगति करके उनका गहन-विश्लेषण करेंगे, और उनके सार के हमारे गहन-विश्लेषण के आधार पर अभ्यास का अधिक सटीक मार्ग खोजेंगे। अगर हम संगति करके उस परिप्रेक्ष्य से सत्य के इस पहलू को समझें, तो यह सटीक होगा।

पहली बात, माँ-बाप अपने बच्चों के संबंध में जो शर्तें रखते हैं और जिस तरह का रुख अपनाते हैं, वे सही हैं या गलत? (वे गलत हैं।) आखिर जब बात माँ-बाप के अपने बच्चों के प्रति ऐसे रुख अपनाने की आती है, तो इसमें समस्या की जड़ कहाँ है? क्या यह माँ-बाप की अपने बच्चों से की गई अपेक्षाएँ नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) माँ-बाप की व्यक्तिपरक चेतना के भीतर, वे अपने बच्चों के भविष्य के लिए कई चीजों की परिकल्पना करते हैं, उनके लिए योजना बनाते हैं और उन्हें निर्धारित करते हैं, और इसलिए, उनकी ऐसी अपेक्षाएँ होती हैं। इन अपेक्षाओं के दबाव में, माँ-बाप अपने बच्चों से उम्मीद करते हैं कि वे विभिन्न प्रकार के कौशल सीखें, थिएटर और डांस या आर्ट वगैरह की पढ़ाई करें। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे प्रतिभाशाली व्यक्ति बनें, और वे दूसरों से वरिष्ठ बनें, न कि मातहत। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे ऊँचे पदाधिकारी बनें, कोई मामूली सैनिक नहीं; उनकी उम्मीद है कि उनके बच्चे प्रबंधक, सीईओ और अधिकारी बनें, दुनिया की सबसे बड़ी 500 कंपनियों में से किसी के लिए काम करें। ये सभी माँ-बाप के व्यक्तिपरक विचार हैं। अब क्या बच्चों को बालिग होने से पहले अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं के बारे में थोड़ा भी अंदाजा होता है? (नहीं।) उन्हें इन चीजों का बिल्कुल भी कोई अंदाजा नहीं होता, वे उन्हें नहीं समझते हैं। फिर छोटे बच्चे क्या समझते हैं? उन्हें बस पढ़ना सीखने के लिए स्कूल जाना, कड़ी मेहनत से पढ़ाई करना और अच्छे, शिष्ट व्यवहार वाले बच्चे बनना समझ आता है। ये अपने आप में बहुत अच्छी बात है। निर्धारित टाइम-टेबल के हिसाब से क्लास लेने के लिए स्कूल जाना और अपना होमवर्क पूरा करने के लिए घर आना—बच्चे बस यही चीजें समझते हैं, बाकी सिर्फ खेलना, खाना, कल्पनाएँ करना, सपने देखना वगैरह हैं। बालिग होने से पहले, बच्चों को अपने जीवन के मार्ग में आने वाली अज्ञात चीजों के बारे में कोई अंदाजा नहीं होता, और वे उनके बारे में कुछ सोचते भी नहीं हैं। इन बच्चों के बालिग होने के बाद के समय के लिए जिन चीजों की कल्पना की जाती या जिन्हें निर्धारित किया जाता है वे सब उनके माँ-बाप से आते हैं। इसलिए, माँ-बाप की अपने बच्चों से जो गलत अपेक्षाएँ होती हैं, उनका उनके बच्चों से कोई लेना-देना नहीं होता है। बच्चों को बस अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं का सार समझने की आवश्यकता है। माँ-बाप की ये अपेक्षाएँ किस चीज पर आधारित हैं? वे कहाँ से आती हैं? वे समाज और संसार से आती हैं। माँ-बाप की इन सभी अपेक्षाओं का उद्देश्य बच्चों को इस संसार और समाज के अनुकूल होने में सक्षम बनाना है, ताकि वे संसार या समाज द्वारा निकाले जाने से बच सकें और समाज में अपना पैर जमाते हुए एक सुरक्षित नौकरी, एक स्थिर परिवार और एक स्थिर भविष्य पा सकें; इसलिए, माँ-बाप अपने बच्चों से विभिन्न व्यक्तिपरक अपेक्षाएँ रखते हैं। उदाहरण के लिए, अभी कंप्यूटर इंजीनियर बनना काफी फैशन में है। कुछ लोग कहते हैं : “मेरा बच्चा भविष्य में कंप्यूटर इंजीनियर बनेगा। कंप्यूटर इंजीनियरिंग करके और पूरे दिन कंप्यूटर लेकर घूमते हुए, इस क्षेत्र में वे बहुत सारे पैसे कमा सकते हैं। इससे मेरा भी नाम रौशन होगा!” इन परिस्थितियों में, जहाँ बच्चों को किसी भी चीज का कोई अंदाजा नहीं होता, उनके माँ-बाप उनका भविष्य तय कर देते हैं। क्या यह गलत नहीं है? (गलत है।) उनके माँ-बाप अपने बच्चों पर पूरी तरह से एक बड़े और समझदार व्यक्ति के नजरिये से चीजों को देखने के साथ-साथ संसार के मामलों में किसी बालिग व्यक्ति के विचारों, परिप्रेक्ष्यों और प्राथमिकताओं के आधार पर उम्मीदें लगा रहे हैं। क्या यह व्यक्तिपरक सोच नहीं है? (बिल्कुल है।) शिष्ट शब्दों में कहें, तो इसे व्यक्तिपरक कहना सही होगा, पर यह वाकई में क्या है? इस व्यक्तिपरकता की दूसरी व्याख्या क्या है? क्या यह स्वार्थ नहीं है? क्या यह जबरदस्ती नहीं है? (बिल्कुल है।) तुम्हें अमुक-अमुक नौकरी और अमुक-अमुक करियर पसंद है, तुम्हें अपनी पहचान बनाना, आलीशान जीवन जीना, एक अधिकारी के रूप में काम करना या समाज में अमीर आदमी बनना पसंद है, तो तुम अपने बच्चों से भी ये चीजें कराते हो, उन्हें भी ऐसे व्यक्ति बनाते हो, और इसी मार्ग पर चलाते हो—पर क्या वे भविष्य में उस माहौल में रहना और उस काम में शामिल होना पसंद करेंगे? क्या वे इसके लिए उपयुक्त हैं? उनकी नियति क्या हैं? उनको लेकर परमेश्वर की व्यवस्थाएँ और फैसले क्या हैं? क्या तुम्हें ये बातें पता हैं? कुछ लोग कहते हैं : “मुझे उन चीजों की परवाह नहीं है, मायने रखती हैं वे चीजें जो मुझे, उनके माँ-बाप होने के नाते पसंद हैं। मैं अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर उनसे उम्मीदें लगाऊँगा।” क्या यह बहुत स्वार्थी बनना नहीं है? (बिल्कुल है।) यह बहुत स्वार्थी बनना है! शिष्ट भाषा में कहें, तो यह बहुत ही व्यक्तिपरक है, इसे सभी फैसले खुद लेना कहेंगे, पर वास्तव में यह है क्या? यह बहुत स्वार्थी होना है! ये माँ-बाप अपने बच्चों की काबिलियत या प्रतिभाओं पर विचार नहीं करते, वे उन व्यवस्थाओं की परवाह नहीं करते जो परमेश्वर ने हरेक व्यक्ति के भाग्य और जीवन के लिए बनाई हैं। वे इन चीजों पर विचार नहीं करते हैं, वे बस अपनी मनमर्जी से अपनी प्राथमिकताओं, इरादों और योजनाओं को अपने बच्चों पर थोपते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे अपने बच्चों से ये चीजें करवानी ही होंगी। वे उन चीजों समझने के लिए अभी बहुत छोटे हैं, और जब तक वे उन्हें समझेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।” क्या ऐसा ही है? (नहीं।) अगर सचमुच बहुत देर हो जाती है, तो यह उनका भाग्य है, यह उनके माँ-बाप की जिम्मेदारी नहीं है। अगर तुम अपना ज्ञान अपने बच्चों पर थोपोगे, तो क्या वे उन्हें सिर्फ इसलिए जल्दी समझ लेंगे क्योंकि तुम उन्हें समझते हो? (नहीं।) माँ-बाप अपने बच्चों को कैसे शिक्षित करते हैं और वे बच्चे कब यह समझने लगते हैं कि उन्हें जीवन में किस प्रकार का मार्ग चुनना है, किस प्रकार का करियर चुनना है और उनका जीवन कैसा होगा, इन चीजों के बीच कोई संबंध नहीं है। उनके अपने मार्ग, अपनी रफ्तार और अपने नियम हैं। जरा सोचो इस बारे में, जब बच्चे छोटे होते हैं, तो चाहे उनके माँ-बाप उन्हें कैसे भी शिक्षित करें, समाज के बारे में उनका ज्ञान बिल्कुल कोरा होता है। जब उनकी मानवता परिपक्व होगी, तो वे खुद ही समाज की प्रतिस्पर्धा, जटिलता, अंधेरे के साथ-साथ समाज की विभिन्न अनुचित चीजों को महसूस करेंगे। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो माँ-बाप अपने बच्चों को छोटी उम्र से सिखा सकें। भले ही माँ-बाप अपने बच्चों को छोटी उम्र से सिखाएँ कि, “लोगों के साथ बातचीत करते समय तुम्हें उन्हें सब कुछ नहीं बताना चाहिए,” वे इसे सिर्फ एक तरह का धर्म-सिद्धांत मानकर चलेंगे। जब वे वास्तव में अपने माँ-बाप की सलाह के आधार पर कार्य करने में सक्षम होंगे, तभी वे वास्तव में इसे समझेंगे। जब वे अपने माँ-बाप की सलाह को नहीं समझते, तो चाहे उनके माँ-बाप उन्हें कितना भी सिखाने की कोशिश कर लें, यह उनके लिए बस एक प्रकार का धर्म-सिद्धांत ही होगा। इसलिए, माँ-बाप का यह विचार है कि “दुनिया बहुत प्रतिस्पर्धी है, और लोग बहुत दबाव में जीते हैं; अगर मैंने अपने बच्चों को छोटी-सी उम्र से सिखाना शुरू नहीं किया, तो उन्हें भविष्य में कष्ट और पीड़ा सहनी पड़ेगी,” क्या यह तर्कसंगत है? (नहीं।) तुम अपने बच्चों पर शुरू से ही यह दबाव बना रहे हो ताकि उन्हें भविष्य में कम कष्ट सहना पड़े, और ऐसा करने में उन्हें उसी उम्र से उस दबाव को सहना होगा जहाँ उन्हें अभी कुछ समझ भी नहीं आता—ऐसा करके, क्या तुम बच्चों को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो? क्या तुम सचमुच उनके भले के लिए ऐसा कर रहे हो? उनका इन बातों को न समझना ही बेहतर है, इस तरह वे कुछ बरस सहज, सुखी, शुद्ध और सरल ढंग से जी सकेंगे। अगर वे उन चीजों को जल्दी समझ लें, तो क्या यह एक वरदान होगा या दुर्भाग्य? (यह दुर्भाग्य होगा।) हाँ, यह दुर्भाग्य ही होगा।

लोगों को किस उम्र में क्या करना चाहिए, यह उनकी उम्र और मानवता की परिपक्वता पर निर्भर करता है, न कि उनके माँ-बाप से मिली शिक्षा पर। बालिग होने से पहले, बच्चों को बस खेलना, कुछ साधारण ज्ञान हासिल करना और थोड़ी बुनियादी स्कूली शिक्षा लेनी चाहिए और अलग-अलग चीजें सीखनी चाहिए; उन्हें यह सीखना चाहिए कि दूसरे बच्चों के साथ कैसे बातचीत करें और बड़ों के साथ कैसे पेश आएँ, और अपने आस-पास की उन चीजों से कैसे निपटें जो उनके पल्ले नहीं पड़ती हैं। बालिग होने से पहले लोगों को बच्चों वाली चीजें ही करनी चाहिए। उन्हें ऐसा कोई भी दबाव, खेल के नियम या जटिल चीजें नहीं झेलनी चाहिए जो बड़ों को झेलने पड़ते हैं। ऐसी चीजें उन लोगों को मनोवैज्ञानिक नुकसान पहुँचाती हैं जो अभी बालिग नहीं हुए हैं, और ये चीजें वरदान नहीं हैं। जितनी जल्दी बच्चे इन बड़े लोगों वाले मामलों के बारे में सीखेंगे, उनके बाल-मन को उतना ही बड़ा झटका लगेगा। ये चीजें बड़े होने के बाद लोगों के जीवन या अस्तित्व में बिल्कुल भी मदद नहीं करेंगी; इसके उलट, क्योंकि वे इन चीजों के बारे में बहुत जल्दी जान लेते हैं या उनका सामना कर लेते हैं, तो ये चीजें उन पर एक तरह का बोझ या उनके बाल-मन पर एक अदृश्य छाया बन जाती हैं, इस हद तक कि ये उन्हें जीवन भर परेशान कर सकती हैं। जरा सोचो इस बारे में, जब लोग बहुत छोटे होते हैं, अगर वे किसी भयानक चीज के बारे में सुन लें, कुछ ऐसा जिसे वे स्वीकार नहीं कर सकते, बड़े लोगों वाली ऐसी बात जिसके बारे में वे कभी कल्पना तक नहीं कर सकते या समझ ही नहीं सकते, तो वह दृश्य या वह मुद्दा, या यहाँ तक कि इसमें शामिल लोग, चीजें और बातें, सभी जीवन भर उनका पीछा करती रहेंगी। इससे उन पर एक प्रकार की छाया पड़ेगी, जिससे उनके व्यक्तित्व और जीवन में उनके आचरण के तरीकों पर प्रभाव पड़ेगा। उदाहरण के लिए, छह या सात साल की उम्र में बच्चे थोड़े शरारती होते हैं। मान लो कि किसी बच्चे को कक्षा के दौरान अपने सहपाठी से गप्पें लड़ाने के लिए अपने शिक्षक से डांट पड़ती है, और शिक्षक उसे बस कक्षा में गप्पे लड़ाने के लिए ही नहीं डांटता, बल्कि उस पर व्यक्तिगत रूप से हमला करते हुए उसे नेवले जैसी शक्ल या चूहे जैसी आँखें होने का उलाहना भी देता है, उसे यह कहकर भी डांटता है : “तुम्हारा तो कुछ भी नहीं हो सकता। तुम अपनी जिंदगी में कभी कामयाब नहीं हो पाओगे! अगर तुम मेहनत से पढ़ाई नहीं करोगे, तो बस एक मजदूर बनकर रह जाओगे। भविष्य में तुम्हें अपना पेट पालने के लिए भीख माँगनी पड़ेगी! तुम तो दिखते भी चोर जैसे हो; तुम्हारे लक्षण ही चोर जैसे हैं!” भले ही बच्चा इन बातों को नहीं समझता, और नहीं जानता है कि उसके शिक्षक ने ऐसी बातें क्यों कहीं, या ये बातें सच हैं भी या नहीं, व्यक्तिगत हमले की ये बातें उसके दिल में एक तरह की अदृश्य, बुरी ताकत बन जाएगी, जो उसके आत्मसम्मान को भेदकर उसे ठेस पहुँचाएगी। “तुम्हारा चेहरा नेवले जैसा है, आँखें चूहे जैसी हैं, और सिर छोटा-सा है!”—व्यक्तिगत हमले के तौर पर कही गई उसके शिक्षक की ये बातें जीवन भर उसे याद रहेंगी। जब वह अपना करियर चुनेगा, अपने वरिष्ठों और सहकर्मियों का सामना करेगा, और भाई-बहनों का सामना करेगा, तो उसके शिक्षक द्वारा बोले गए व्यक्तिगत हमले के ये शब्द समय-समय पर उसे याद आएँगे, जो उसकी भावनाओं और उसके जीवन को प्रभावित करेंगे। बेशक, तुम्हारे माँ-बाप की तुमसे की गई कुछ गलत अपेक्षाएँ, और कुछ भावनाएँ, संदेश, शब्द, विचार, दृष्टिकोण वगैरह, जो उन्होंने तुम पर थोपे हैं, उनकी भी छाया तुम्हारे बाल-मन पर पड़ी हुई है। तुम्हारे माँ-बाप की व्यक्तिपरक चेतना के परिप्रेक्ष्य से कहें, तो उनके कोई बुरे इरादे नहीं हैं, पर उनकी अज्ञानता के कारण, क्योंकि वे भ्रष्ट इंसान हैं, और उनके पास तुम्हारे साथ व्यवहार करने के लिए ऐसे उचित तरीके नहीं हैं जो सिद्धांतों के अनुरूप हों, तो उनके पास तुम्हारे साथ व्यवहार करने के लिए सिर्फ संसार की प्रवृत्तियों के अनुसार चलने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता, और इसका अंतिम परिणाम यह होता है कि उनके कारण तुम्हारे मन में कई नकारात्मक संदेश और भावनाएँ आती हैं। ऐसी परिस्थितियों में जहाँ तुममें विवेक की कमी दिखती है, तुम्हारे माँ-बाप जो कुछ भी कहते हैं, और वे सभी गलत विचार जो उन्होंने तुम्हें सिखाए और तुममें डाले हैं, वे तुम पर हावी हो जाते हैं क्योंकि तुम सबसे पहले उनके संपर्क में आते हो। वे तुम्हारे आजीवन प्रयास और संघर्ष का लक्ष्य बन जाते हैं। भले ही तुम्हारे बालिग होने से पहले तुम्हारे माँ-बाप तुमसे जो विभिन्न अपेक्षाएँ रखते हैं, वे तुम्हारे बाल-मन के लिए एक प्रकार का झटका और आघात देते हैं, फिर भी उनकी इच्छा को समझते हुए, दयालुता के उनके विभिन्न कार्यों को स्वीकार करते हुए और उनके लिए धन्यवाद करते हुए तुम अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं, और साथ ही उन कीमतों के दबाव में रहते हो जो उन्होंने तुम्हारे लिए चुकाई हैं। उनके द्वारा चुकाई जाने वाली विभिन्न कीमतों और उनके द्वारा तुम्हारे लिए किए गए विभिन्न त्यागों को स्वीकारने के बाद, तुम खुद को अपने माँ-बाप का ऋणी मानते हो और अपने दिल की गहराई में उनका सामना करने में शर्मिंदगी महसूस करते हो, और तुम सोचते हो कि बड़े होने के बाद तुम्हें उनका ऋण चुकाना होगा। किस बात का ऋण चुकाना होगा? तुमसे की गई उनकी अनुचित अपेक्षाओं का ऋण चुकाना होगा? उस तबाही का ऋण चुकाना होगा जो तुम्हारे बालिग होने से पहले उन्होंने तुम्हारे जीवन में मचाई? क्या यह सही-गलत के बीच भ्रमित होना नहीं है? दरअसल, मामले की जड़ और सार से इस बारे में बात करें तो तुम्हारे माँ-बाप की तुमसे की गई अपेक्षाएँ सिर्फ व्यक्तिपरक हैं, वे बस उनकी अपनी सोच है। वे बिल्कुल भी ऐसी चीजें नहीं हैं जो एक बच्चे के पास होनी चाहिए, जिसका उसे अभ्यास करना या जिसे उसे जीना चाहिए, और न ही वे ऐसी चीजें हैं जिनकी बच्चे को जरूरत है। दुनिया की प्रवृत्तियों के अनुसार चलने के लिए, दुनिया के अनुकूल ढलने के लिए, दुनिया की प्रगति के साथ चलने के लिए, तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें मजबूर करते हैं कि तुम उनका अनुसरण करो, वे तुम्हें अपनी ही तरह इस दबाव को सहने के लिए मजबूर करते हैं, और चाहते हैं कि तुम इन बुरी प्रवृत्तियों को स्वीकार कर इनका अनुसरण करो। इसलिए, अपने माँ-बाप की प्रबल अपेक्षाओं के तहत, कई बच्चे विभिन्न कौशल, विभिन्न पाठ्यक्रम और विभिन्न प्रकार के ज्ञान सीखने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। वे अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने की कोशिश करने से, उनकी अपेक्षाओं के पीछे के इरादों को सक्रियता से पूरा करने की कोशिश पर आ जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो बालिग होने से पहले, लोग निष्क्रिय रूप से अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं को स्वीकार लेते हैं, और धीरे-धीरे बड़े होने के बाद, वे सक्रियता से अपने माँ-बाप की व्यक्तिपरक चेतना की अपेक्षाओं को स्वीकारते हुए, समाज से आने वाले इस प्रकार के दबाव और इस धोखे, नियंत्रण, और बंधन को स्वेच्छा से स्वीकार लेते हैं। कुल मिलाकर, वे धीरे-धीरे इसमें निष्क्रिय से सक्रिय भागीदार बन जाते हैं। इस तरह, उनके माँ-बाप को संतुष्टि मिलती है। बच्चों को भी आंतरिक शांति महसूस होती है कि उन्होंने अपने माँ-बाप को निराश नहीं किया है, आखिरकार अपने माँ-बाप को वह सब दिया है जो वे चाहते थे, और वे बड़े हो गए हैं—वे बड़े होकर सिर्फ बालिग ही नहीं हुए हैं, बल्कि अपने माँ-बाप की नजरों में प्रतिभाशाली व्यक्ति बन गए हैं, और उनकी उम्मीदों पर खरा उतर रहे हैं। भले ही ये लोग बालिग होने के बाद अपने माँ-बाप की नजरों में प्रतिभाशाली व्यक्ति बनने में सफल होते हैं, और सतही तौर पर ऐसा लगता है कि उनके माँ-बाप द्वारा चुकाई गई कीमतों का ऋण उतार दिया गया है, और उनके माँ-बाप की उनसे जो अपेक्षाएँ थीं वे मिट्टी में नहीं मिली हैं, इसकी हकीकत क्या है? ये बच्चे अपने माँ-बाप की कठपुतलियाँ बनने में कामयाब हुए हैं, वे अपने माँ-बाप का बहुत बड़ा ऋण उतारने में सफल हुए हैं, वे अपना बाकी जीवन अपने माँ-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने, अपने माँ-बाप के लिए दिखावा करने के लिए लगाने में सफल हुए हैं, वे अपने माँ-बाप की इज्जत और प्रतिष्ठा बढ़ाने, और उन्हें संतुष्ट करने में कामयाब हुए हैं, और उनका गौरव और खुशी बन गए हैं। उनके माँ-बाप जहाँ भी जाते हैं, अपने बच्चों की बात करते हैं : “मेरी बेटी फलाँ कंपनी की मैनेजर है।” “मेरी बेटी अमुक मशहूर ब्रांड की डिजाइनर है।” “मेरी बेटी इस विदेशी भाषा में इतनी अच्छी है, वह इसे धाराप्रवाह बोल सकती हैं, वह अमुक-अमुक भाषा की अनुवादक है।” “मेरी बेटी कंप्यूटर इंजीनियर है।” ये बच्चे अपने माँ-बाप को गौरव और खुशी देने, और उनकी छाया बनने में सफल हुए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे अपने बच्चों को शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए भी उन्हीं तरीकों का उपयोग करेंगे। वे सोचते हैं कि उनके माँ-बाप उन्हें प्रशिक्षित करने में सफल हुए हैं, तो वे अपने माँ-बाप की तरह ही अपने बच्चों को प्रशिक्षित करेंगे। इस तरह, उनके बच्चों को भी उनसे उसी दुख, दुखद पीड़ा और तबाही झेलनी पड़ेगी, जो उन्हें अपने माँ-बाप के कारण झेलनी पड़ी थी।

माँ-बाप अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उनसे की गई अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जो कुछ भी करते हैं वह अंतरात्मा, विवेक, और प्राकृतिक नियमों के विपरीत होता है। इतना ही नहीं, यह परमेश्वर के विधान और संप्रभुता के भी विपरीत होता है। भले ही बच्चों में सही-गलत के बीच अंतर करने या स्वतंत्र रूप से सोचने की क्षमता नहीं होती है, फिर भी उनका भाग्य परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन होता है, वे उनके माँ-बाप के अधीन नहीं होते। इसलिए, अपनी चेतना में अपने बच्चों से अपेक्षाएँ रखने के अलावा, मूर्ख माँ-बाप अपने व्यवहार के संदर्भ में ज्यादा काम भी करते हैं, त्याग करते हैं और ज्यादा कीमतें चुकाते हैं, वे अपने बच्चों के लिए वह सब कुछ करते हैं जो वे चाहते हैं और जो वे करने को तैयार हैं, भले ही यह पैसा, समय, ऊर्जा, या अन्य चीजें खर्च करना ही क्यों न हो। हालाँकि माँ-बाप ये सभी काम अपनी इच्छा से करते हैं, पर ये चीजें अमानवीय हैं, और ये ऐसी जिम्मेदारियाँ नहीं हैं जो माँ-बाप को पूरी करनी चाहिए; वे पहले ही अपनी क्षमताओं और अपनी उचित जिम्मेदारियों के दायरे को पार कर चुके हैं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि माँ-बाप अपने बच्चों के बालिग होने से पहले ही उनके भविष्य की योजना बनाने और उन्हें काबू करने की कोशिश शुरू कर देते हैं, और अपने बच्चों का भविष्य तय करने का भी प्रयास करते हैं। क्या यह मूर्खता नहीं है? (बिल्कुल है।) उदाहरण के लिए, मान लो कि परमेश्वर ने तय किया है कि कोई आदमी एक साधारण श्रमिक होगा, और इस जीवन में, वह बस अपना पेट भरने और तन ढंकने के लिए थोड़ी-बहुत मजदूरी कमा पाएगा, पर उसके माँ-बाप उस पर एक बड़ी हस्ती, धनी व्यक्ति, और उच्च अधिकारी बनने का दबाव डालते हैं, उसके बालिग होने से पहले उसके भविष्य के लिए योजना बनाने और चीजें व्यवस्थित करने लगते हैं, कई तरह की तथाकथित कीमतें चुकाते हैं, उसके जीवन और भविष्य को काबू करने की कोशिश करते हैं। क्या यह बेवकूफी नहीं है? (बिल्कुल है।) भले ही उनके बच्चे को काफी बढ़िया ग्रेड मिलते हों, वह यूनिवर्सिटी जाता हो, बालिग होने के बाद कई प्रकार के विभिन्न कौशल सीखता हो, और उसके पास कुछ कौशल हों, जब वह आखिर में काम की तलाश में निकलता है, तो चाहे वह कितनी भी तलाश करे, बस एक मामूली श्रमिक बनकर रह जाता है। ज्यादा से ज्यादा, सौभाग्य से वह फोरमैन बन जाता है, जो अपने आप में अच्छा है। आखिर में, उसे बस सामान्य वेतन ही मिलता है, और वह कभी किसी उच्च अधिकारी या अमीर व्यक्ति जितना वेतन नहीं कमा पाता है, जैसा कि उसके माँ-बाप ने उम्मीद की थी। उसके माँ-बाप हमेशा चाहते थे कि वह संसार में आगे बढ़े, खूब सारा पैसा कमाए, उच्च अधिकारी बने, ताकि उसकी कामयाबी का उन्हें भी फायदा हो। भले ही उसने स्कूल में इतना अच्छा प्रदर्शन किया और इतना आज्ञाकारी था, भले ही उन्होंने उसके लिए इतनी कीमतें चुकाई, और भले ही वह बड़ा होने के बाद यूनिवर्सिटी भी गया, मगर उन्होंने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि इस जीवन में उसके भाग्य में बस एक साधारण श्रमिक बनना लिखा होगा। अगर वे इसका अनुमान लगा पाते, तो उस समय खुद को इतना कष्ट नहीं देते। मगर क्या माँ-बाप खुद को कष्ट देने से बच सकते हैं? (नहीं।) माँ-बाप अपने घर, अपनी जमीन, अपनी पारिवारिक संपत्ति तक बेच देते हैं, और कुछ तो अपना गुर्दा भी बेच देते हैं ताकि उनके बच्चे जानी-मानी यूनिवर्सिटी में जा सकें। जब बच्चा इस बात से सहमत नहीं होता, तो माँ कहती है : “मेरे पास दो गुर्दे हैं। अगर एक चला भी गया, तो दूसरा मेरे पास ही रहेगा। मैं बूढ़ी हो गई हूँ, मुझे बस एक ही गुर्दे की जरूरत है।” यह सुनकर उसके बच्चे को कैसा महसूस होता है? “भले ही इसका मतलब यह हो कि मैं यूनिवर्सिटी नहीं जाऊँगा, मैं आपको अपना गुर्दा बेचने नहीं दे सकता।” तब माँ कहती है : “तुम नहीं जाओगे? तुम बात नहीं मानते और एक संतान का धर्म नहीं निभाते हो! मैं अपना गुर्दा क्यों बेच रही हूँ? क्या यह इसलिए नहीं है ताकि तुम भविष्य में सफल हो सको?” यह सुनकर बच्चा द्रवित हो जाता है और सोचता है, “माँ अपना गुर्दा तक बेच सकती है। मैं उसे निराश नहीं करूँगा।” अंत में, माँ वाकई ऐसा करती है—वह अपने बच्चे का भविष्य बनाने के लिए अपना एक गुर्दा बेच देती है—और अंत में, उसका बच्चा बस एक श्रमिक बनकर रह जाता है, सफल नहीं होता। तो, माँ ने एक गुर्दा बेच दिया, और बदले में उसे क्या मिला, बस एक श्रमिक—क्या यह सही है? (नहीं।) अंत में, माँ यह देखकर कहती है : “तुम्हारे भाग्य में बस श्रमिक बनना ही लिखा है। अगर मुझे यह पहले पता होता, तो मैं तुम्हें यूनिवर्सिटी भेजने के लिए अपना गुर्दा नहीं बेचती। तुम वैसे ही श्रमिक बन सकते थे, है न? तुम्हारे यूनिवर्सिटी जाने का क्या फायदा हुआ?” अब बहुत देर हो चुकी है! तब उससे किसने कहा था कि वह ऐसा बेवकूफी भरा कदम उठाए? किसने उसके दिमाग में यह बात डाली थी कि उसका बच्चा उच्च अधिकारी बनकर ढेर सारा पैसा कमाएगा? वह लालच में अंधी हो गई थी, वह इसी लायक थी! उसने अपने बच्चे के लिए इतनी सारी कीमतें चुकाईं, पर क्या उसके बच्चे पर उसका कोई ऋण है? नहीं, उसने ये कीमतें अपनी मर्जी से चुकाईं, और उसे वही मिला जिसकी वह हकदार थी! अगर वह अपने दोनों गुर्दे बेच देती, तो भी यह उसकी अपनी मर्जी होती। अपने बच्चों को जानी-मानी यूनिवर्सिटी में भेजने के लिए, कुछ लोग अपना कॉर्निया बेचते हैं, कुछ लोग अपना खून बेचते हैं, कुछ लोग अपना सब कुछ त्याग देते हैं और अपनी पारिवारिक संपत्ति तक बेच देते हैं, पर क्या यह सब इस लायक है? यह ऐसा है मानो जैसे वे सोचते हैं कि थोड़ा-सा खून या कोई अंग बेचने से किसी व्यक्ति का भविष्य तय हो सकता है और उसकी किस्मत बदल सकती है। ऐसा है क्या? (नहीं।) लोग बहुत मूर्ख हैं! वे जल्दी लाभ कमाना चाहते हैं, वे प्रतिष्ठा और लाभ की चाह में अंधे हो गए हैं। वे हमेशा सोचते हैं, “खैर, मेरी जिंदगी ऐसी ही है,” तो वे अपनी उम्मीदें अपने बच्चों पर थोप देते हैं। क्या इसका मतलब है कि उनके बच्चों का भाग्य निश्चित रूप से उनसे बेहतर होगा? उनके बच्चे संसार में आगे बढ़ सकेंगे? दूसरों से अलग होंगे? लोग इतने बेवकूफ कैसे हो सकते हैं? क्या उन्हें ऐसा लगता है कि अपने बच्चों से बहुत ज्यादा उम्मीदें लगा लेने से, उनके बच्चे बेशक दूसरों से बेहतर होंगे और उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे? लोगों का भाग्य उनके माँ-बाप तय नहीं करते, यह परमेश्वर तय करता है। बेशक, कोई भी माँ-बाप अपने बच्चों को भिखारी बनते नहीं देखना चाहता। मगर फिर भी, उन्हें इस बात पर जोर देने की जरूरत नहीं है कि उनके बच्चे संसार में आगे बढ़कर उच्च अधिकारी या समाज के उच्च वर्ग में प्रमुख व्यक्ति बनें। समाज के उच्च वर्ग में होने में क्या अच्छा है? संसार में ऊपर उठने में क्या अच्छा है? ये चीजें दलदल हैं, ये अच्छी चीजें नहीं हैं। क्या कोई सेलिब्रिटी, कोई महान हस्ती, महामानव, या ऊँचे पद और रुतबे वाला व्यक्ति बनना अच्छी बात है? एक सामान्य व्यक्ति का जीवन सबसे आरामदायक होता है। थोड़ा गरीब, कठिन, थका देने वाला जीवन, थोड़े खराब भोजन और कपड़ों के साथ जीने में क्या हर्ज है? कम से कम, एक बात तो तय है, क्योंकि तुम समाज के उच्च वर्ग के सामाजिक प्रवृत्तियों के बीच नहीं रहते, तो तुम कम से कम, पाप और परमेश्वर का विरोध करने वाली चीजें कम करोगे। एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर, तुम्हें इतने बड़े या बार-बार के प्रलोभन का सामना नहीं करना पड़ेगा। भले ही तुम्हारा जीवन थोड़ा कठिन होगा, पर कम से कम तुम्हारी आत्मा थकेगी नहीं। जरा सोचो इस बारे में, एक श्रमिक होने के नाते, तुम्हें बस दिन में तीन बार भोजन करने की चिंता होगी। अगर तुम कोई अधिकारी हो तो तुम्हारी चिंताएँ अलग होती हैं। तुम्हें लड़ना होता है, और यह पता नहीं होता कि कब तुम्हारा पद सुरक्षित नहीं रहेगा। और यह इसका अंत नहीं होगा, जिन लोगों को तुमने नाराज किया है वे तुमसे बदला लेने की कोशिश करेंगे, और तुम्हें सजा देंगे। मशहूर हस्तियों, महान लोगों और अमीर लोगों के लिए जीवन बहुत थकाऊ होता है। अमीर लोगों को हमेशा यह डर लगा रहता है कि वे भविष्य में इतने अमीर नहीं रहेंगे, और अगर ऐसा हुआ तो वे ऐसे जी नहीं पाएँगे। मशहूर हस्तियों को हमेशा चिंता रहती है कि उनका प्रभामंडल गायब हो जाएगा, और वे हमेशा अपने प्रभामंडल की रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें डर है कि इस युग और प्रवृत्तियों के द्वारा उन्हें निकाल दिया जाएगा। उनका जीवन बहुत थकाऊ होता है! माँ-बाप कभी भी इन चीजों को नहीं देखते, और हमेशा अपने बच्चों को इस संघर्ष के केंद्र में धकेल देना चाहते हैं, उन्हें इन शेरों की गुफाओं और दलदल में भेज देना चाहते हैं। क्या माँ-बाप के इरादे वाकई नेक हैं? अगर मैं कहूँ कि उनके इरादे नेक नहीं हैं, तो तुम लोग इसे सुनने को तैयार नहीं होगे। अगर मैं कहूँ कि तुम्हारे माँ-बाप की अपेक्षाएँ तुम लोगों पर कई तरह से नकारात्मक प्रभाव डालती हैं, तो क्या तुम इसे स्वीकारोगे? (हाँ।) वे तुम्हें बहुत गहरा नुकसान पहुँचाते हैं, है न? तुममें से कुछ लोग इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं, तुम कहते हो : “मेरे माँ-बाप मेरा भला चाहते हैं।” तुम कहते हो कि तुम्हारे माँ-बाप सिर्फ तुम्हारा भला चाहते हैं—तो, यह भलाई है कहाँ? तुम्हारे माँ-बाप सिर्फ तुम्हारा भला चाहते हैं, पर उन्होंने तुम्हें कितनी सकारात्मक बातें समझने में सक्षम बनाया है? तुम्हारे माँ-बाप सिर्फ तुम्हारा भला चाहते हैं, पर उन्होंने तुम्हारे कितने गलत और अवांछित विचारों और दृष्टिकोणों को ठीक किया है? (एक भी नहीं।) तो, क्या अब तुम इन चीजों की असलियत समझ सकते हो? तुम महसूस कर सकते हो कि माँ-बाप की अपेक्षाएँ अयथार्थवादी हैं, है न?

माँ-बाप की अपने बच्चों से की जाने वाली अपेक्षाओं के सार का विश्लेषण करके हम देख सकते हैं कि ये अपेक्षाएँ स्वार्थी हैं, ये मानवता के विरुद्ध हैं, और इसके अलावा इनका माँ-बाप की जिम्मेदारियों से कोई लेना-देना नहीं है। जब माँ-बाप अपने बच्चों पर अपनी विभिन्न अपेक्षाएँ और आवश्यकताएँ थोपते हैं, तो वे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रहे होते। तो फिर, उनकी “जिम्मेदारियाँ” क्या हैं? सबसे बुनियादी जिम्मेदारियाँ जो माँ-बाप को निभानी चाहिए, वे हैं अपने बच्चों को बोलना सिखाना, उन्हें दयालु बनने और बुरे इंसान न बनने की सीख देना, और सकारात्मक दिशा में उनका मार्गदर्शन करना। ये उनकी सबसे बुनियादी जिम्मेदारियाँ हैं। इसके अलावा, उन्हें किसी भी प्रकार का ज्ञान, प्रतिभाएँ वगैरह सीखने में अपने बच्चों की मदद करनी चाहिए, जो उनकी उम्र के हिसाब से, वे कितना संभाल सकते हैं, और उनकी काबिलियत और रुचियों के आधार पर उनके लिए उपयुक्त हों। थोड़े बेहतर माँ-बाप अपने बच्चों को यह समझने में मदद करेंगे कि लोग परमेश्वर द्वारा बनाए गए हैं और परमेश्वर इस ब्रह्मांड में मौजूद है; वे अपने बच्चों को प्रार्थना करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगे, उन्हें बाइबल की कुछ कहानियाँ सुनाएँगे, और आशा करेंगे कि बड़े होने के बाद वे सांसारिक रुझानों के पीछे भागने, विभिन्न जटिल पारस्परिक संबंधों में फँसने और इस संसार और समाज के विभिन्न चलनों के पीछे चलकर तबाह होने के बजाय परमेश्वर का अनुसरण करेंगे और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाएँगे। माँ-बाप को जो जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए उनका उनकी अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। माँ-बाप होने के नाते उन्हें जो जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, वे हैं अपने बच्चों के बालिग होने से पहले सकारात्मक मार्गदर्शन और उचित सहायता प्रदान करना, साथ ही इस सांसारिक जीवन में भोजन, कपड़े, मकान के संबंध में या जब भी वे बीमार पड़ें तब उनकी देखभाल करना। अगर उनके बच्चे बीमार पड़ जाते हैं, तो माँ-बाप को उनकी हर बीमारी का इलाज कराना चाहिए; उन्हें अपने बच्चों को नजरंदाज नहीं करना चाहिए या उनसे यह नहीं कहना चाहिए, “स्कूल जाते रहो, पढ़ते रहो—तुम अपनी क्लास में पिछड़ नहीं सकते। अगर तुम बहुत पीछे रह गए तो कभी दूसरों के बराबर नहीं हो पाओगे।” जब बच्चों को आराम की जरूरत हो, तो माँ-बाप को उन्हें आराम करने देना चाहिए; जब बच्चे बीमार हों, तो माँ-बाप को स्वस्थ होने में उनकी मदद करनी चाहिए। ये माँ-बाप की जिम्मेदारियाँ हैं। एक ओर, उन्हें अपने बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए; तो दूसरी ओर, उन्हें अपने बच्चों को उनके मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में सहायता और शिक्षा देनी चाहिए। ये वो जिम्मेदारियाँ हैं जो माँ-बाप को अपने बच्चों पर कोई अवास्तविक अपेक्षाएँ या आवश्यकताएँ थोपने के बजाय पूरी करनी चाहिए। जब बात अपने बच्चों की मानसिक जरूरतों और उन चीजों की आए जिनकी उनके बच्चों को भौतिक जीवन में जरूरत होती है, तो माँ-बाप को अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी ही चाहिए। माँ-बाप को अपने बच्चों को सर्दियों में ठिठुरने नहीं देना चाहिए, उन्हें अपने बच्चों को जीवन का कुछ सामान्य ज्ञान सिखाना चाहिए, जैसे कि किन परिस्थितियों में उन्हें सर्दी लग जाएगी, उन्हें गर्म भोजन खाना चाहिए, ठंडा भोजन खाने से उनके पेट में दर्द होगा, और ठंडे मौसम में उन्हें लापरवाही से खुद को हवा नहीं लगने देना चाहिए या शुष्क स्थानों पर कपड़े नहीं उतारने चाहिए, इससे उन्हें अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना सीखने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, जब उनके बच्चों के युवा मन में उनके भविष्य के बारे में कुछ बचकाने, अपरिपक्व विचार या कुछ अतिवादी विचार उठते हैं, तो माँ-बाप को इसका पता चलते ही उन्हें जबरन दबाने के बजाय तुरंत सही मार्गदर्शन देना चाहिए; उन्हें अपने बच्चों को अपने विचार व्यक्त करने के लिए प्रेरित करना चाहिए, ताकि समस्या का वास्तविक समाधान हो सके। इसे कहते हैं अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना। एक तरह से, माँ-बाप की जिम्मेदारियों को पूरा करने का मतलब है अपने बच्चों की देखभाल करना, वहीं दूसरी तरह से, इसका मतलब है अपने बच्चों को निर्देशित करना और सुधारना, और उन्हें सही विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में मार्गदर्शन देना। माँ-बाप को जो जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, उनका वास्तव में अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। तुम यह आशा कर सकते हो कि तुम्हारे बच्चे बड़े होने के बाद शारीरिक रूप से स्वस्थ होंगे और उनमें मानवता, जमीर और विवेक होगा, या फिर यह कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाएँगे, मगर तुम्हें यह आशा नहीं करनी चाहिए कि तुम्हारे बच्चे बड़े होकर अमुक-अमुक हस्ती या महान व्यक्ति बनें, और तुम्हें उन्हें बार-बार यह बात तो बिल्कुल नहीं कहनी चाहिए : “देखो, वो बगल वाली शाओमिंग कितनी आज्ञाकारी है!” तुम्हारे बच्चे तुम्हारे हैं—जो जिम्मेदारी तुम्हें निभानी चाहिए वह यह नहीं है कि तुम अपने बच्चों को बताओ कि उनकी पड़ोसन शाओमिंग कितनी महान है, या उसे अपनी पड़ोसन शाओमिंग से सीखना चाहिए। किसी भी माँ-बाप को ऐसा नहीं करना चाहिए। हर व्यक्ति अपने में अलग होता है। लोग अपने विचारों, दृष्टिकोणों, रुचियों, शौक, काबिलियत, व्यक्तित्व और इस मामले में में भिन्न होते हैं कि उनकी मानवता का सार अच्छा है या बुरा। कुछ लोगों पैदाइशी बातूनी होते हैं, जबकि दूसरे स्वाभाविक रूप से अंतर्मुखी होते हैं, और अगर वे एक भी शब्द कहे बिना पूरा दिन बिता दें तो भी वे परेशान नहीं होंगे। इसलिए, अगर माँ-बाप अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना चाहते हैं, तो उन्हें अपने बच्चों के व्यक्तित्व, स्वभाव, रुचियों, काबिलियत और उनकी मानवता की जरूरतों को समझने की कोशिश करनी चाहिए न कि उन्हें संसार, प्रतिष्ठा और फायदे के पीछे भागने की अपनी बालिग इच्छाओं को अपने बच्चों के लिए अपेक्षाओं में तब्दील करना चाहिए और उन्हें प्रतिष्ठा, फायदे और संसार की समाज से आने वाली इन चीजों को अपने बच्चों पर नहीं थोपना चाहिए। माँ-बाप इन चीजों को “अपने बच्चों से की जाने वाली अपेक्षाएँ” जैसे मधुर नाम से बुलाते हैं, मगर वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। यह स्पष्ट है कि वे अपने बच्चों को आग के कुंड में धकेलकर दानवों के हाथों में सौंप देना चाहते हैं। अगर तुम सचमुच एक यथेष्ट माँ-बाप हो, तो तुम्हें अपने बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के संबंध में अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए, न कि उनके बालिग होने से पहले उन पर अपनी इच्छा थोपनी चाहिए, न ही उनके बाल-मन को उन चीजों को सहने के लिए मजबूर करना चाहिए जो उन्हें नहीं सहनी चाहिए। अगर तुम वास्तव में उनसे प्यार करते और उन्हें संजोते हो और तुम वास्तव में उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना चाहते हो, तो तुम्हें उनके भौतिक शरीर का ख्याल रखना चाहिए और पक्का करना चाहिए कि वे शारीरिक रूप से स्वस्थ हैं। बेशक, कुछ बच्चे पैदा ही कमजोर और खराब स्वास्थ्य के साथ होते हैं। अगर उनके माँ-बाप वास्तव में ऐसी स्थिति में हैं कि उन्हें कुछ और पोषक चीजें दे सकें, या किसी पारंपरिक चीनी चिकित्सक या पोषाहार विशेषज्ञ से पूछताछ कर सकें, तो वे ऐसा कर सकते हैं और इन बच्चों के प्रति थोड़ी अधिक परवाह दिखा सकते हैं। इसके अलावा, अपने बच्चों के बालिग होने से पहले हरेक उम्र में, शैशवावस्था और बचपन से लेकर किशोरावस्था तक, माँ-बाप को अपने बच्चों के व्यक्तित्व और रुचियों में होने वाले बदलावों और उनकी मानवता की खोज के संबंध में उनकी जरूरतों पर थोड़ा ज्यादा ध्यान देना चाहिए, उनके बारे में थोड़ा ज्यादा सोचना चाहिए। जब उनके मनोवैज्ञानिक बदलावों और गलतफहमियों, और उनकी मानवता की जरूरतों से संबंधित कुछ अज्ञात चीजों की बात आती है, तो माँ-बाप को उन्हें कुछ सकारात्मक और मानवीय मार्गदर्शन, सहायता और पोषण देना चाहिए और इसमें उस व्यावहारिक अंतर्दृष्टि, अनुभव और सबक का उपयोग करना चाहिए जो उन्होंने खुद इन सब से गुजरते वक्त पाई थी। माँ-बाप को अपने बच्चों की मदद करनी चाहिए कि वे हर उम्र में सहजता से बड़े हों, और घुमावदार या गलत मोड़ लेने या चरम सीमा तक जाने से बचें। जब उनके युवा, भ्रमित मन को चोट पहुँचती है या कोई झटका लगता है, तो उन्हें तुरंत उपचार के साथ-साथ अपने माँ-बाप से फिक्र, स्नेह, देखभाल और मार्गदर्शन मिलना चाहिए। ये वो जिम्मेदारियाँ हैं जो माँ-बाप को निभानी चाहिए। जहाँ तक बच्चों की अपने भविष्य को लेकर योजनाओं की बात है, चाहे वे शिक्षक, कलाकार या अधिकारी वगैरह बनना चाहें, अगर उनकी योजनाएँ उचित हैं, तो माँ-बाप उन्हें प्रोत्साहित कर सकते हैं, और अपनी परिस्थितियों, शिक्षा, काबिलियत, मानवता, पारिवारिक परिस्थितियों वगैरह के हिसाब से उनकी थोड़ी मदद और सहयोग कर सकते हैं। लेकिन, माँ-बाप को अपनी क्षमताओं के दायरे से आगे बढ़कर अपनी गाड़ी, अपना घर, अपना गुर्दा या अपना खून नहीं बेचना चाहिए। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है, है न? (बिल्कुल।) माँ-बाप को अपने बच्चों की उतनी ही मदद करनी चाहिए जितनी वो कर सकते हैं। अगर उनके बच्चे कहते हैं, “मैं कॉलेज जाना चाहता हूँ,” तो माँ-बाप कह सकते हैं, “अगर तुम कॉलेज जाना चाहते हो, तो मैं तुम्हारा सहयोग करूँगा, और मैं तुम्हारा विरोध नहीं करूँगा, मगर हमारे परिवार की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अब से, मुझे तुम्हारी एक साल की कॉलेज ट्यूशन फीस भरने के लिए हर दिन कुछ पैसे बचाने होंगे। अगर, समय आने पर, मैंने पर्याप्त पैसे बचा लिए, तो तुम कॉलेज जा सकते हो। अगर मैंने पर्याप्त पैसे नहीं बचाए, तो तुम्हें अपना रास्ता खुद बनाना पड़ेगा।” माँ-बाप को अपने बच्चों के साथ इस तरह के समझौते पर पहुँचना चाहिए, जहाँ दोनों ही सहमत हों, और फिर अपने बच्चों के भविष्य के संबंध में उनकी जरूरतों की समस्या का समाधान करना चाहिए। बेशक, अगर माँ-बाप अपने बच्चों के भविष्य की उनकी योजनाओं और इरादों को साकार नहीं कर पाते हैं, तो उन्हें यह सोचकर दोषी महसूस करने की जरूरत नहीं है : “मैंने अपने बच्चों को निराश किया है, मैं सक्षम नहीं हूँ, और इसके कारण मेरे बच्चों को कष्ट सहना पड़ा है। दूसरों के बच्चे अच्छा खाते हैं, मशहूर ब्रांड की चीजें पहनते हैं, और कॉलेज में गाड़ियों में घूमते हैं, और जब वे घर जाते हैं, तो हवाई जहाज से यात्रा करते हैं। मेरे बच्चों को ट्रेन में सख्त सीटों पर बैठकर यात्रा करनी पड़ती है—मेरे पास उन्हें स्लीपर कार में भेजने के भी पैसे नहीं हैं। मैंने अपने बच्चों को निराश किया है!” उन्हें दोषी महसूस करने की जरूरत नहीं है, ये उनकी परिस्थितियाँ हैं, और अगर वे एक गुर्दा बेच भी दें, तो भी वे उन्हें ये चीजें नहीं दे सकेंगे, इसलिए उन्हें अपने भाग्य को स्वीकार लेना चाहिए। परमेश्वर ने उनके लिए इस तरह का माहौल आयोजित किया है, तो इन माँ-बाप को अपने बच्चों के प्रति किसी भी तरह से ऐसा कहकर दोषी महसूस करने की जरूरत नहीं है : “मैंने तुम्हें निराश किया है। अगर तुम भविष्य में हमारे प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा न रखो, तो मैं शिकायत नहीं करूँगा। हम अक्षम हैं, और हमने तुम्हें रहने के लिए अच्छा माहौल नहीं दिया है।” उन्हें यह कहने की कोई जरूरत नहीं है। माँ-बाप को बस अपनी जिम्मेदारियों को स्वच्छ अंतरात्मा के साथ पूरा करना है, उनसे जो बन पाए वो करना है और अपने बच्चों को शरीर और मन दोनों से स्वस्थ रहने में सक्षम बनाना है। इतना ही काफी है। यहाँ “स्वास्थ्य” का मतलब बस इतना है कि माँ-बाप यह पक्का करने के लिए अपनी भरसक कोशिश करें कि उनके बच्चों में सकारात्मक विचार हों, साथ ही उनके दैनिक जीवन और अस्तित्व के प्रति सक्रिय, ऊर्ध्वगामी और आशावादी विचार और रवैया हो। जब कोई चीज बच्चों को परेशान करती है, तो उन्हें नखरे नहीं दिखाने चाहिए, आत्महत्या की कोशिश नहीं करनी चाहिए, अपने माँ-बाप के लिए परेशानी का कारण नहीं बनना चाहिए, या अपने माँ-बाप को पैसे कमाने में सक्षम न होने के कारण नकारा होने की बात कहकर ताने नहीं देने चाहिए, जैसे कि : “दूसरे लोगों के माँ-बाप को देखो। वे अच्छी गाड़ियाँ चलाते हैं, हवेली में रहते हैं, वे लक्जरी क्रूज शिप पर जाते हैं, और घूमने के लिए यूरोप जाते हैं। और हमें देखो, हम कभी अपने गाँव से भी बाहर नहीं निकले या कभी तेज-रफ्तार ट्रेन तक नहीं ली है!” अगर वे इस तरह नखरे दिखाते भी हैं, तो तुम्हें कैसे प्रतिक्रिया देनी चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए : “तुमने सही कहा, हम इतने ही नालायक हैं। तुम्हारा जन्म इस परिवार में हुआ, तो तुम्हें अपने भाग्य को स्वीकारना चाहिए। अगर तुम सक्षम हो, तो भविष्य में खुद पैसे कमा सकते हो। हमारे प्रति कठोर मत बनो, और यह माँग मत करो कि हम तुम्हारे लिए कुछ करें। हमने तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पहले ही पूरी कर दी हैं, और हम पर तुम्हारा कुछ भी कर्ज नहीं है। भविष्य में एक दिन, तुम भी माँ-बाप बनोगे, और तुम्हें भी यही करना होगा।” जब उनके अपने बच्चे होंगे, तो वे सीखेंगे कि माँ-बाप के लिए अपना और अपने परिवार के सभी लोगों, युवा और वृद्ध दोनों का भरण-पोषण करने के लिए पैसे कमाना इतना आसान नहीं है। संक्षेप में, तुम्हें उन्हें आचरण के कुछ सिद्धांत सिखाने चाहिए। अगर तुम्हारे बच्चे इसे स्वीकार सकते हैं, तो तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने और उद्धार पाने के लिए सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलने के साथ-साथ परमेश्वर से समझे कुछ सही विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में उनके साथ संगति करनी चाहिए। अगर तुम्हारे बच्चे परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने और तुम्हारे साथ परमेश्वर में विश्वास करने को तैयार हैं, तो यह और भी बेहतर है। अगर तुम्हारे बच्चों की इस प्रकार की जरूरत नहीं है, तो तुम्हारे लिए उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना ही पर्याप्त है; तुम्हें उन्हें प्रवचन देने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से संबंधित कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बात करते रहने या उन्हें सामने रखने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। भले ही तुम्हारे बच्चे विश्वास न करें, जब तक वे तुम्हारा सहयोग करते हैं, तब तक तुम लोग अच्छे दोस्त बने रह सकते हो, और किसी भी चीज के बारे में साथ मिलकर बात और चर्चा कर सकते हो। तुम्हें दुश्मन नहीं बनना चाहिए या उनके प्रति आक्रोश नहीं दिखाना चाहिए। आखिर तुम लोगों के बीच खून का रिश्ता है। अगर तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने, तुम्हारे प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाने और तुम्हारी आज्ञा मानने को तैयार हैं, तो तुम उनके साथ अपने पारिवारिक संबंध बनाए रख सकते हो, और उनके साथ सामान्य रूप से बातचीत कर सकते हो। तुम्हें अपने बच्चों को इसलिए लगातार कोसने या डांटने की जरूरत नहीं है क्योंकि आस्था के संबंध में उनकी राय और विचार तुमसे अलग हैं। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें गुस्सा होने, या यह सोचने की जरूरत नहीं है कि तुम्हारे बच्चों का परमेश्वर में विश्वास न करना बहुत बड़ी बात है, मानो कि तुमने अपना जीवन और आत्मा खो दी है। यह इतनी भी गंभीर बात नहीं है। अगर वे विश्वास नहीं करते, तो स्वाभाविक रूप से उनके अपने मार्ग हैं, जिन पर चलने का उन्होंने फैसला किया है। तुम्हारे पास भी एक मार्ग है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए और एक कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना चाहिए, और इन चीजों का तुम्हारे बच्चों से कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम्हारे बच्चे विश्वास नहीं करते, तो तुम्हें उनपर दबाव बनाने की जरूरत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि सही समय नहीं आया हो या परमेश्वर ने उन्हें चुना ही न हो। अगर परमेश्वर ने उन्हें चुना ही नहीं है, और तुम उनपर विश्वास करने के लिए दबाव डालने पर जोर देते हो, तो तुम अज्ञानी और विद्रोही हो। बेशक, अगर परमेश्वर ने उन्हें चुना है, मगर सही समय नहीं आया है, और तुम चाहते हो कि वे अभी से विश्वास करें, तो यह बहुत जल्दबाजी होगी। अगर परमेश्वर कार्य करना चाहता है, तो कोई भी व्यक्ति उसकी संप्रभुता से भाग नहीं सकता। अगर परमेश्वर ने व्यवस्था की है कि तुम्हारे बच्चे विश्वास करेंगे, तो वह इसे एक वचन या एक विचार में हासिल कर सकता है। अगर परमेश्वर ने इसकी व्यवस्था नहीं की है, तो वे प्रेरित नहीं होंगे, और अगर वे प्रेरित नहीं हुए, तो तुम चाहे कितनी भी बातें कर लो, उसका कोई फायदा नहीं होगा। अगर तुम्हारे बच्चे विश्वास नहीं करते, तो तुम उनके ऋणी नहीं हो; अगर तुम्हारे बच्चे विश्वास करते हैं, तो इसका श्रेय तुम्हें नहीं जाता है। ऐसा ही है न? (बिल्कुल।) इससे फर्क नहीं पड़ता कि आस्था के संबंध में तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के लक्ष्य एक समान हैं या या इस संबंध में तुम्हारा नजरिया एक जैसा है या नहीं, तुम्हें बस हर हाल में उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी है। अगर तुमने इन जिम्मेदारियों को पूरा किया है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि तुमने उनपर दया दिखाई है, और अगर तुम्हारे बच्चे विश्वास नहीं करते, तो इसका मतलब यह नहीं है कि तुम उनके ऋणी हो, क्योंकि तुमने अपनी सभी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, तो बात खत्म हुई। तुम दोनों का रिश्ता वैसे का वैसा ही रहता है, और तुम अपने बच्चों के साथ पहले की तरह बातचीत करना जारी रख सकते हो। जब तुम्हारे बच्चों का मुश्किलों से सामना हो, तो तुम्हें जितना हो सके उनकी मदद करनी चाहिए। अगर तुम अपने बच्चों की मदद करने की स्थिति में हो, तो तुम्हें उनकी मदद करनी चाहिए; अगर तुम मनोवैज्ञानिक या मानसिक स्तर पर अपने बच्चों के विचारों और दृष्टिकोणों को ठीक कर सकते हो, और उन्हें कुछ हद तक मार्गदर्शन और सहायता दे सकते हो, जिससे वे अपनी दुविधाओं से उबर सकें, तो यह काफी अच्छा है। कुलमिलाकर, माँ-बाप को अपने बच्चों के बालिग होने से पहले माँ-बाप की जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए, यह जानना चाहिए कि उनके बच्चे क्या करना चाहते हैं, और उनके बच्चों की रुचियाँ और आकांक्षाएँ क्या हैं। अगर उनके बच्चे लोगों को मारना चाहते हैं, चीजों को आग लगाना चाहते हैं और अपराध करना चाहते हैं, तो उनके माँ-बाप को उन्हें गंभीरता से अनुशासित करना चाहिए या उन्हें दंडित भी करना चाहिए। लेकिन अगर वे आज्ञाकारी बच्चे हैं, किसी भी दूसरे सामान्य बच्चे से अलग नहीं हैं, स्कूल में अच्छे से रहते हैं, अपने माँ-बाप की बात मानते हैं, तो उनके माँ-बाप को बस उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने की जरूरत है। अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के अलावा, उनकी तथाकथित अपेक्षाएँ, आवश्यकताएँ और उनके भविष्य के बारे में सोचना, सब सतही चीजें हैं। मैंने यह क्यों कहा कि वे सतही चीजें हैं? हरेक व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर निर्धारित करता है, उनके माँ-बाप इसे तय नहीं कर सकते। माँ-बाप की अपने बच्चों से जो भी अपेक्षाएँ होती हैं, यह नामुमकिन है कि भविष्य में वे सभी पूरी हो जाएँगी। ये अपेक्षाएँ उनके बच्चों का भविष्य या उनका जीवन निर्धारित नहीं कर सकतीं। माँ-बाप की अपने बच्चों से चाहे कितनी भी बड़ी अपेक्षाएँ हों या उन अपेक्षाओं के लिए वे कितने भी बड़े त्याग करते हों या कीमतें चुकाते हों, यह सब बेकार है; ये चीजें उनके बच्चों के भविष्य या जीवन को प्रभावित नहीं कर सकतीं। इसलिए, माँ-बाप को मूर्खतापूर्ण चीजें नहीं करनी चाहिए। उन्हें अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उनके लिए अनावश्यक त्याग नहीं करना चाहिए, और स्वाभाविक रूप से उन्हें इस बारे में इतना तनाव भी महसूस नहीं करना चाहिए। बच्चों का पालन-पोषण करना माँ-बाप के लिए सीखने के साथ-साथ विभिन्न परिवेशों से गुजरकर विभिन्न प्रकार के अनुभव पाने और फिर धीरे-धीरे अपने बच्चों को उनसे लाभ प्राप्त करने में सक्षम बनाने के बारे में है। माँ-बाप को बस इतना ही करना है। जहाँ तक बच्चों के भविष्य और भावी जीवन पथ की बात है, इन चीजों का उनके माँ-बाप की अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। कहने का मतलब है कि तुम्हारे माँ-बाप की अपेक्षाएँ तुम्हारा भविष्य तय नहीं कर सकतीं। ऐसा नहीं है कि अगर तुम्हारे माँ-बाप को तुमसे बहुत अपेक्षाएँ हैं, या तुमसे बड़ी अपेक्षाएँ रखने का मतलब यह है कि तुम समृद्ध होकर अच्छी तरह से जीवन जी पाओगे, और ऐसा भी नहीं है कि अगर तुम्हारे माँ-बाप को तुमसे कोई अपेक्षाएँ नहीं हैं तो तुम भिखारी बन जाओगे। इन चीजों के बीच कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। अब बताओ, क्या ये विषय जिन पर मैंने संगति की है, समझने में आसान हैं? क्या लोगों के लिए इन चीजों को हासिल करना आसान है? क्या वे कठिन हैं? माँ-बाप को बस अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं और उनका पालन-पोषण करके उन्हें बालिग करना है। उन्हें अपने बच्चों को प्रतिभाशाली व्यक्तियों के रूप में विकसित करने की जरूरत नहीं है। क्या यह हासिल करना आसान है? (बिल्कुल है।) ऐसा करना आसान है—तुम्हें अपने बच्चों के भविष्य या जीवन के लिए कोई जिम्मेदारी उठाने, या उनके लिए कोई योजना बनाने की जरूरत नहीं है, या यह अनुमान लगाने की जरूरत नहीं है कि वे किस तरह के लोग बनेंगे, भविष्य में उनका जीवन कैसा होगा, बाद में वे किस सामाजिक वर्ग में पाए जाएँगे, भविष्य में इस दुनिया में उनका जीवन स्तर कैसा होगा, या लोगों के बीच उनका रुतबा कैसा होगा। तुम्हें इन चीजों का अनुमान लगाने या इन्हें नियंत्रित करने की जरूरत नहीं है; तुम्हें बस माँ-बाप होने के नाते अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं। यह इतना आसान है। जब तुम्हारे बच्चे स्कूल जाने के लायक हो जाएँ, तो तुम्हें एक स्कूल ढूँढकर वहाँ उनका दाखिला करा देना चाहिए, जरूरत पड़ने पर उनकी ट्यूशन फीस भरनी चाहिए, और स्कूल में उनकी जो भी जरूरत हो, उसके लिए पैसे चुकाने चाहिए। इन जिम्मेदारियों को पूरा करना ही काफी है। जब बात उनके साल भर के खाने-पीने और पहनने की आए, तो तुम्हें बस परिस्थितियों के आधार पर उनके शारीरिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना होगा। उनके बालिग होने से पहले की अवधि के दौरान, जब वे समझ नहीं पाते कि अपने शरीर की देखभाल कैसे करनी है, किसी पुरानी बीमारी को उनके भीतर बने मत रहने दो। उनकी खामियों और बुरी आदतों को तुरंत सुधारो, जीवन की अच्छी आदतें विकसित करने में उनकी मदद करो, और फिर उन्हें सलाह और मार्गदर्शन देकर यह पक्का करो कि वे अति न करने लग जाएँ। अगर उन्हें संसार की कुछ बुरी चीजें पसंद हैं, पर तुम देख सकते हो कि वे अच्छे बच्चे हैं, और वे बस संसार की बुरी प्रवृत्तियों से प्रभावित हैं, तो तुरंत उन्हें सुधारना चाहिए, और फिर उनकी खामियों और बुरी आदतों को ठीक करने में उनकी मदद करनी चाहिए। ये वे जिम्मेदारियाँ हैं जो माँ-बाप को निभानी चाहिए और वे कार्य हैं जो उन्हें करने चाहिए। माँ-बाप को अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उन्हें सामाजिक रुझानों की ओर नहीं धकेलना चाहिए, और उन्हें अपने बच्चों को समय से पहले विभिन्न प्रकार के दबाव झेलने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए, जिन्हें सिर्फ बड़ों को झेलने की जरूरत होती है, जब वे खुद बालिग नहीं हुए होते हैं। माँ-बाप को ये चीजें नहीं करनी चाहिए। इन चीजों को हासिल करना बहुत आसान है, लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं। क्योंकि वे लोग सांसारिक प्रतिष्ठा और लाभ, या संसार की बुरी प्रवृत्तियों के पीछे भागना नहीं छोड़ सकते, और संसार द्वारा निकाले जाने से डरते हैं, तो वे अपने बच्चों के बालिग होने से पहले ही उन्हें बहुत जल्दी समाज में शामिल करके तेजी से मानसिक स्तर पर समाज के अनुकूल बना लेते हैं। अगर बच्चों के माँ-बाप ऐसे हैं, तो यह उनका दुर्भाग्य है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके माँ-बाप किन तरीकों या बहानों से उन्हें प्यार करते हैं, संजोते हैं और उनके लिए कीमतें चुकाते हैं, ऐसे परिवारों के बच्चों के लिए वे अनिवार्य रूप से अच्छी चीजें नहीं हैं—यह भी कहा जा सकता है कि वे एक प्रकार की आपदाएँ हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि अपनी अपेक्षाओं की आड़ में, माँ-बाप अपने बच्चों के बाल-मन को तहस-नहस कर देते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो उन माँ-बाप की अपेक्षाएँ, वास्तव में, उनके बच्चों के स्वस्थ मन और शरीर को लेकर नहीं हैं, वे बस ऐसी अपेक्षाएँ हैं कि उनके बच्चे समाज में खुद को स्थापित करने में सक्षम होंगे, और समाज द्वारा निकाले जाने से बच जाएँगे। उनकी अपेक्षाओं का उद्देश्य है कि उनके बच्चे अच्छा जीवन जिएँ या अन्य लोगों से श्रेष्ठ बनें, भिखारी बनने से बचें, अन्य लोगों द्वारा भेदभाव करने या धौंस जमाए जाने से बचें, और लोगों की बुरी प्रवृत्तियों और बुरे समूहों में शामिल होने से बचें। क्या ये अच्छी बातें हैं? (नहीं।) इसलिए, तुम लोगों को इस प्रकार की अभिभावकीय अपेक्षाओं को दिल पर लेने की जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारे माँ-बाप ने कभी तुमसे इस प्रकार की अपेक्षाएँ रखी थीं, या अगर उन्होंने तुमसे अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए कई कीमतें चुकाई थीं, इसलिए तुम उनके प्रति ऋणी महसूस करते हो, और अपना सारा जीवन उनके द्वारा चुकाई कीमतों की भरपाई करने में बिताना चाहते हो—अगर तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार और इच्छा है, तो तुम्हें आज ही इसे त्याग देना चाहिए। तुम उनके ऋणी नहीं हो, बल्कि यह तुम्हारे माँ-बाप हैं जिन्होंने तुम्हें तबाह और पंगु बना दिया है। वे न सिर्फ माँ-बाप के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में विफल रहे हैं, बल्कि इसके विपरीत, उन्होंने तुम्हें नुकसान पहुँचाया है, तुम्हारे बाल-मन पर विभिन्न चोटें पहुँचाई हैं, और विभिन्न प्रकार की नकारात्मक यादें और छापें छोड़ी हैं। संक्षेप में, ऐसे माँ-बाप अच्छे माँ-बाप नहीं होते। अगर, तुम्हारे बालिग होने से पहले, जिस तरह से उन्होंने तुम्हें शिक्षित किया, प्रभावित किया और तुमसे बात की, उसमें अगर वे हमेशा इस उम्मीद में थे कि तुम कड़ी मेहनत से पढ़ाई करोगे, कामयाब होगे, और अंत में बस एक मजदूर बनकर नहीं रहोगे, तुम्हें भविष्य में निश्चित रूप से अच्छे अवसर मिलेंगे, तुम उनका गौरव और खुशी बनोगे, और उनका मान-सम्मान बढ़ाकर उनका नाम रोशन करोगे, तो आज से ही, तुम्हें उनकी तथाकथित दयालुता से मुक्त हो जाना चाहिए, और अब तुम्हें उन्हें दिल से लगाने की जरूरत नहीं है। सही कहा न मैंने? (बिल्कुल।) ये वे अपेक्षाएँ हैं जो माँ-बाप अपने बच्चों के बालिग होने से पहले उनसे लगाए रखते हैं।

माँ-बाप की अपने बच्चों के प्रति अपेक्षाओं की प्रकृति उनके बच्चों के बालिग होने के बाद भी वैसी ही रहती है। हालाँकि उनके बालिग बच्चे स्वतंत्र रूप से सोच सकते हैं, और एक बालिग व्यक्ति के दर्जे और परिप्रेक्ष्य से उनके साथ बातचीत करने, बोलने और चीजों पर चर्चा करने में सक्षम हो सकते हैं, फिर भी माँ-बाप एक अभिभावक के परिप्रेक्ष्य से अपने बच्चों से वही अपेक्षाएँ करते रहते हैं। उनकी अपेक्षाएँ एक नाबालिग बच्चे के प्रति अपेक्षाओं से बदलकर एक बालिग व्यक्ति के प्रति अपेक्षाओं में तब्दील हो जाती हैं। हालाँकि बालिगों के लिए माँ-बाप की अपेक्षाएँ उन बच्चों से की गई अपेक्षाओं से भिन्न होती हैं जो अभी बालिग नहीं हुए हैं, मगर समाज और संसार के सामान्य, भ्रष्ट लोगों और सदस्यों के रूप में, माँ-बाप अभी भी अपने बच्चों के लिए उसी प्रकार की अपेक्षाएँ रखते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि काम पर उनके बच्चों के लिए सब कुछ सहजता से चलेगा, उनकी शादियाँ खुशहाल होंगी और उनके परिवार आदर्श होंगे, उनकी पगार बढ़ती रहेगी और तरक्की मिलेगी, उन्हें अपने बॉस से मान्यता मिलेगी और उनकी नौकरियों में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होगी और सब कुछ बढ़िया चलेगा। इन अपेक्षाओं का क्या फायदा? (वे सब बेकार हैं।) वे बेकार हैं, अनावश्यक हैं। माँ-बाप सोचते हैं कि उन्होंने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है तो वे तुम्हारा मन पढ़ सकते हैं, और इसलिए वे मानते हैं कि भले ही तुम अब बालिग हो गए हो, मगर तुम्हारे मन में जो कुछ भी चल रहा है, तुम्हें जो चाहिए, तुम्हारा व्यक्तित्व कैसा है, ये सब वे जानते हैं। और भले ही तुम अब एक स्वतंत्र बालिग व्यक्ति हो, और अपना भरण-पोषण करने के लिए पैसे कमा सकते हो, मगर उन्हें लगता है कि वे अभी भी तुम्हें नियंत्रित कर सकते हैं, और तुम्हारे मामलों में उनके पास अभी भी कुछ बोलने, शामिल होने, फैसला लेने, टांग अड़ाने, या यहाँ तक कि अपनी मर्जी चलाने का अधिकार है। यानी, उन्हें लगता है कि तुम्हारे फैसले वो ले सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब शादी की बात आती है, अगर तुम किसी को डेट कर रहे हो, तो तुम्हारे माँ-बाप तुरंत कहेंगे : “यह अच्छा नहीं है, वह तुम्हारे जितनी पढ़ी-लिखी नहीं है, इतनी अच्छी नहीं दिखती, और उसका परिवार भी गाँव में रहता है। उससे शादी करने के बाद, गाँव से भर-भरके उसके रिश्तेदार आएँगे, उन्हें बाथरूम का इस्तेमाल करना तक नहीं आता होगा, और वे सब कुछ गंदा कर देंगे। वह यकीनन तुम्हारे लिए अच्छा जीवन नहीं होगा। यह अच्छा नहीं है, मैं तुम्हें उससे शादी करने की इजाजत नहीं दूँगा!” क्या यह टांग अड़ाना नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या यह अनावश्यक और घिनौना नहीं है? (यह अनावश्यक है।) बेटे-बेटियों को अभी भी अपना जीवनसाथी खोजते समय माँ-बाप की सहमति लेनी पड़ती है। नतीजतन, अभी भी कुछ बच्चे ऐसे हैं जो अपने माँ-बाप को यह बताते ही नहीं कि उन्हें अपना जीवनसाथी मिल गया है, ताकि वे इसमें टांग न अड़ाएँ। जब उनके माँ-बाप पूछते हैं, “क्या तुम्हारा कोई साथी है?” वे बस यही कहते हैं, “नहीं, अभी बहुत जल्दी है, मैं अभी जवान हूँ, जल्दबाजी वाली कोई बात नहीं है,” पर असल में वे दो या तीन साल से एक साथ रह रहे हैं, उन्होंने बस अपने माँ-बाप को अभी तक बताया नहीं है। और वे अपने माँ-बाप को इस बारे में क्यों नहीं बताते? क्योंकि उनके माँ-बाप हर चीज में टांग अड़ाना चाहते हैं; वे बहुत मीन-मेख निकालते हैं, इसलिए वे उन्हें अपने साथी के बारे में नहीं बताते। जब वे शादी करने को तैयार होते हैं, तो वे अपने साथी को सीधे अपने माँ-बाप के घर लाकर पूछते हैं, “मैं कल शादी करने जा रहा हूँ। क्या आप अपनी सहमति देते हैं? चाहे आप लोग अपनी सहमति दें या नहीं, मैं कल ही शादी कर रहा हूँ। अगर आप अपनी सहमति नहीं देंगे, तब भी हम अपना परिवार शुरू करेंगे।” ये माँ-बाप अपने बच्चों के जीवन में बहुत हस्तक्षेप करते हैं, यहाँ तक कि उनकी शादियों में भी टांग अड़ाते हैं। अगर उनके बच्चों को जो साथी मिलते हैं वे वैसे नहीं हैं जिनकी उन्होंने उम्मीद की थी, अगर उन दोनों की नहीं बनती है या अगर वे उन्हें पसंद नहीं करते, तो वे उन्हें तोड़ने की कोशिश करेंगे। अगर उनके बच्चे इस बात से सहमत नहीं होते, तो वे रोएँगे, हंगामा खड़ा करेंगे, और आत्महत्या कर लेने की धमकी देंगे, उनके बच्चे इस हद तक चले जाएँगे कि उन्हें पता ही नहीं होगा कि वे रोएँ या हँसें—उन्हें नहीं पता होगा कि ऐसे में क्या किया जाए। कुछ बेटे-बेटियाँ ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि उनकी उम्र हो चुकी है और अब वे शादी नहीं करना चाहते, तो उनके माँ-बाप उनसे कहते हैं : “यह क्या बात हुई। मैंने कितनी उम्मीदें लगा रखी थीं कि तुम बड़े होगे और शादी करके बच्चे पैदा करोगे। मैंने तुम्हें बड़े होते देखा है, और अब मैं तुम्हारी शादी और बच्चों को देखना चाहता हूँ। तब जाकर मैं शांति से मर सकूँगा। अगर तुम शादी नहीं करोगे, तो मेरी यह इच्छा अधूरी रह जाएगी। मैं मर नहीं पाऊँगा, और अगर मरूँगा भी तो मुझे शांति नहीं मिलेगी। तुम्हें शादी करनी होगी, जल्दी से एक साथी ढूँढ लो। कोई स्थायी साथी न भी मिला तो कोई बात नहीं, मैं उनसे मिल लूँगा।” क्या यह टांग अड़ाना नहीं है? (बिल्कुल है।) जब उनके बालिग बच्चों की शादी के लिए साथी चुनने की बात आए, तो माँ-बाप उन्हें उपयुक्त सलाह दे सकते हैं, अपने बच्चों को हिदायत दे सकते हैं, या एक साथी खोजने में उनकी मदद कर सकते हैं, मगर उन्हें इस मामले में टांग नहीं अड़ानी चाहिए, उन्हें यह फैसला लेने में अपने बच्चों की मदद नहीं करनी चाहिए। उनके बच्चों की अपनी भावनाएँ होती हैं कि क्या वे अपने साथी को पसंद करते हैं, क्या वे एक-दूसरे के साथ अच्छे से निभा पाते हैं, क्या उनकी रुचियाँ समान हैं, और क्या वे भविष्य में एक साथ खुश रहेंगे। जरूरी नहीं कि माँ-बाप ये बातें जानते हों, और अगर वे जानते भी हैं, तो वे सिर्फ सुझाव दे सकते हैं, उन्हें इसमें खुले तौर पर बाधा नहीं डालनी चाहिए या ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कुछ माँ-बाप ऐसे भी हैं जो कहते हैं : “जब मेरे बेटे या बेटी को कोई साथी मिले, तो वे मेरे परिवार के बराबर सामाजिक दर्जे वाले होने चाहिए। अगर ऐसा नहीं है, और मेरे बेटे या बेटी को लेकर उनकी कुछ और ही मंशाएँ हैं, तो मैं उनकी शादी नहीं होने दूँगा, मुझे उनकी योजनाओं में बाधा डालनी होगी। अगर वे मेरे घर में घुसना चाहते हैं, तो मैं उन्हें आने नहीं दूँगा!” क्या यह अपेक्षा उचित है? क्या यह तर्कसंगत है? (यह तर्कसंगत नहीं है।) यह उनके बच्चों के जीवन का एक महत्वपूर्ण मामला है, माँ-बाप का इसमें टांग अड़ाना तर्कसंगत नहीं है। मगर इन माँ-बाप के परिप्रेक्ष्य से, उनके बच्चों के जीवन के महत्वपूर्ण मामलों में हस्तक्षेप करने का और भी कुछ कारण है। अगर उनके बच्चों को बात करने के लिए दोस्त के रूप में कोई लड़का या लड़की मिल जाती है, तो वे हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन अगर बात शादी जैसे महत्वपूर्ण मामले से जुड़ी है, तो वे सोचेंगे कि उन्हें हस्तक्षेप करना ही चाहिए। ऐसे माँ-बाप भी हैं जो अपने बच्चों की जासूसी करने की भरसक कोशिश करते हैं, यह देखते हैं कि उनके फोन और कंप्यूटर पर कितने लड़के-लड़कियों के नंबर और जानकारी मौजूद हैं, वे अपने बच्चों के जीवन में इतना अधिक हस्तक्षेप और इतनी जासूसी करते हैं कि बच्चों के पास कोई उपाय ही नहीं बचता, जहाँ उन्हें लड़ना या बहस न करनी पड़े, वे इस बाधा से बचकर नहीं निकल सकते। क्या यह माँ-बाप के लिए अपने बच्चों से पेश आने का उचित तरीका है? (नहीं।) अगर माँ-बाप अपने बच्चों को इतना मजबूर कर दें कि वे उनसे तंग आ जाएँ, तो इसे मुसीबत खड़ी करना कहा जाएगा, है न? माँ-बाप को अपने बालिग बच्चों के लिए अभी भी माँ-बाप के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को निभाना चाहिए, उनके भविष्य के जीवन पथ में उनकी मदद करनी चाहिए, और उन्हें कुछ उचित और मूल्यवान सलाह, हिदायत और चेतावनी देनी चाहिए, ताकि वे काम पर या विभिन्न प्रकार के लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आते समय धोखा खाने, और घुमावदार रास्ता चुनने, अनावश्यक समस्या का सामना करने या यहाँ तक कि मुकदमेबाजी से बच सकें। माँ-बाप को एक अनुभवी व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से देखते हुए, अपने बच्चों को कुछ उपयोगी और मूल्यवान सलाह और संदर्भ बिंदु देना चाहिए। जहाँ तक यह बात है कि उनके बच्चे उनकी बात सुनते हैं या नहीं, यह उनका अपना मामला है। माँ-बाप को बस अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। माँ-बाप का इस पर कोई प्रभाव नहीं होता कि उनके बच्चे कितना कष्ट सहेंगे, वे कितना दर्द सहेंगे या कितनी आशीषों का आनंद लेंगे। अगर उनके बच्चों के लिए इस जीवन में कुछ कष्ट सहना लिखा है, और वे उन्हें पहले से ही वे चीजें सिखा चुके हैं जो उन्हें सिखाई जानी चाहिए, मगर जब उनके साथ कुछ घटित होता है, तब भी वे अपनी मनमानी करते हैं, तो उन्हें यह कष्ट सहना ही होगा, यही उनकी नियति है, और उन्हें खुद को दोष देने की जरूरत नहीं है, सही है न? (बिल्कुल।) कुछ मामलों में, लोगों की शादियाँ अच्छी नहीं चलतीं, उनके अपने जीवनसाथी के साथ अच्छे संबंध नहीं रहते, और वे तलाक लेने का फैसला करते हैं, और तलाक लेने के बाद, इस बात पर विवाद होते हैं कि उनके बच्चों का पालन-पोषण कौन करेगा। ऐसे लोगों के माँ-बाप ने उम्मीद की थी कि उनकी नौकरियों में सब कुछ अच्छा होगा, उनकी शादियाँ खुशहाल, आनंदमय होंगी और कोई दरार या समस्याएँ सामने नहीं आएँगी, मगर फिर आखिर में, जैसा वे चाहते थे वैसा कुछ नहीं हुआ। नतीजतन, ये माँ-बाप अपने बच्चों के बारे में चिंता करते हैं, रोते हैं, अपने पड़ोसियों से इस बारे में शिकायत करते हैं, और अपने बेटों या बेटियों को उनके बच्चों का संरक्षण दिलाने की लड़ाई लड़ने के लिए वकील ढूँढने में मदद करते हैं। कुछ माँ-बाप ऐसे भी हैं जो देखते हैं कि उनकी बेटियों के साथ अन्याय हुआ है, और वे उनकी ओर से लड़ने के लिए खड़े हो जाते हैं, उनके पतियों के घर जाकर चिल्लाते हैं, “तुमने मेरी बेटी के साथ ऐसा अन्याय क्यों किया? मैं इस अपमान को नहीं भूलूँगा!” यहाँ तक कि वे अपनी बेटियों की ओर से गुस्सा निकालने के लिए अपने दूर के परिवार वालों को भी अपने साथ लाते हैं, और मार-पीट की नौबत तक आ जाती है। नतीजतन, बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा हो जाता है। अगर पूरा परिवार हंगामा करने नहीं आया होता, और पति-पत्नी के बीच का तनाव धीरे-धीरे कम हो जाता, तो मामला शांत होने के बाद शायद उनका तलाक नहीं होता। मगर, क्योंकि इन माँ-बाप ने बखेड़ा खड़ा किया, तो यह बहुत बड़ी बात बन गई; उनकी टूटी हुई शादी ठीक नहीं हो सकी और रिश्ते में दरार आ गई। अंत में, उन्होंने इतना हंगामा किया कि उनके बच्चों की शादियाँ सहज रूप से नहीं चल सकीं और इन माँ-बाप को इसकी चिंता भी करनी पड़ी। जरा बताओ, क्या यह मुसीबत मोल लेना जरूरी था? उन चीजों में घुसने से उन्हें क्या फायदा हुआ? चाहे उनके बच्चों की शादी की बात हो या उनके काम की, सभी माँ-बाप सोचते हैं कि उन पर एक बड़ी जिम्मेदारी है : “मुझे इसमें शामिल होना ही होगा, मुझे इस मामले पर बारीकी से नजर रखने और ध्यान देने की जरूरत है।” वे देखते हैं कि उनके बच्चों की शादियाँ खुशहाल हैं या नहीं, उनके प्यार में कोई समस्या तो नहीं है, और क्या उनके बेटों या दामादों का कोई प्रेम प्रसंग तो नहीं चल रहा है। कुछ माँ-बाप अपने बच्चों की शादी या विभिन्न अन्य चीजों से जुड़ी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं में हस्तक्षेप करते हैं, उनकी आलोचना करते हैं या यहाँ तक कि उनके संबंध में साजिशें रचते हैं, और इससे उनके बच्चों के जीवन और कामकाज के सामान्य अनुक्रम पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। क्या ऐसे माँ-बाप घिनौने नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) यहाँ तक कि कुछ माँ-बाप ऐसे भी हैं जो अपने बच्चों की जीवनशैली और जीवन की आदतों में दखल देते हैं, और जब उनके पास करने के लिए कुछ नहीं होता है, तो वे अपने बच्चों के घर यह देखने के लिए जाते हैं कि उनकी बहुएँ कैसी हैं, कहीं वे चुपके से अपने परिवार वालों को उपहार या पैसे तो नहीं भेज रहीं हैं, या किसी गैर मर्द के साथ उसके नाजायज संबंध तो नहीं हैं। उनके बच्चों को ये हरकतें बहुत बुरी और बेहद घिनौनी लगती हैं। अगर माँ-बाप ऐसा करते रहेंगे, तो उनके बच्चों को यह घिनौना और बुरा लगेगा, इसलिए यह बहुत स्पष्ट है कि ये हरकतें बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं हैं। बेशक, अगर हम दूसरे परिप्रेक्ष्य से देखें, तो ये हरकतें अनैतिक और मानवीयता से रहित भी हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि माँ-बाप की अपने बच्चों से किस प्रकार की अपेक्षाएँ हैं, उनके बालिग हो जाने के बाद माँ-बाप को उनके जीवन या कार्यक्षेत्र या उनके परिवारों में दखल नहीं देना चाहिए, और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं में टांग अड़ाने या उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। कुछ माँ-बाप ऐसे भी हैं जिन्हें पैसों से बहुत प्यार होता है, और वे अपने बच्चों से कहते हैं : “जल्दी-जल्दी ज्यादा पैसा कमाने के लिए, तुम्हें अपना कारोबार बढ़ाना होगा। फलाने बच्चे को देखो, उसने अपना कारोबार कितना बढ़ा लिया—उसने अपनी छोटी-सी दुकान को बड़ा किया, और फिर उस बड़ी दुकान को फ्रेंचाइजी में बदल दिया, और अब उनके माँ-बाप को उनके साथ अच्छा खाना-पीना मिलता है। तुम्हें ज्यादा पैसे कमाने होंगे। ज्यादा पैसे कमाओ और कई दुकानें खोलो, फिर तुम्हारा नाम होगा और हम एक साथ इसके मजे लेंगे।” अपने बच्चों की कठिनाइयों या इच्छाओं की परवाह किए बिना, वे बस अपनी प्राथमिकताओं और स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं; वे सांसारिक सुखों का आनंद लेने के इरादे से ढेर सारा पैसा कमाने के लिए बस अपने बच्चों का इस्तेमाल करना चाहते हैं। माँ-बाप को ये सभी चीजें नहीं करनी चाहिए। ये चीजें अनैतिक और मानवीयता से रहित हैं और ऐसे माँ-बाप अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे हैं। माँ-बाप का अपने बालिग बच्चों के प्रति यह रवैया नहीं होना चाहिए। बल्कि, ये माँ-बाप अपने बड़े होने का फायदा उठा रहे हैं, अपने बच्चों के प्रति जिम्मेदारी दिखाने की आड़ में, अपने बालिग बच्चों के जीवन, कामकाज, शादी वगैरह के मामले में टांग अड़ा रहे हैं। किसी व्यक्ति के बालिग बच्चे चाहे कितने भी सक्षम हों, चाहे उनकी काबिलियत कैसी भी हो, समाज में उनका रुतबा कैसा भी हो या वे कितने पैसे कमा सकते हैं, यह नियति परमेश्वर ने उनके लिए निर्धारित की है—यह परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। माँ-बाप को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए कि उनके बच्चे किस प्रकार का जीवन जी रहे हैं, बस अगर वे सही रास्ते पर नहीं चल रहे हों, या वे कानून तोड़ रहे हों, तो ऐसी स्थिति में माँ-बाप को उन्हें सख्ती से अनुशासित करना चाहिए। मगर, सामान्य परिस्थितियों में, जहाँ इन बालिग बच्चों की मनोदशा सही है, और उनमें स्वतंत्र रूप से जीने और जीवित रहने की क्षमता है, उनके माँ-बाप को पीछे हट जाना चाहिए, क्योंकि उनके बच्चे अब बालिग हो चुके हैं। अगर उनके बच्चे अभी-अभी बालिग हुए हैं, और सिर्फ 20 या 21 वर्ष के हैं, और वे अभी भी समाज की विभिन्न जटिल परिस्थितियों के बारे में और जीवन में आचरण करने के तरीके नहीं जानते, और अगर उन्हें लोगों से मेलजोल करना नहीं आता, उनके जीवित रहने का कौशल अच्छा नहीं है, तो इन माँ-बाप को उन्हें कुछ उपयुक्त सहायता देनी चाहिए, जिससे वे धीरे-धीरे उस स्तर तक पहुँच सकें जहाँ वे स्वतंत्र रूप से जी सकते हैं। इसे कहते हैं अपनी जिम्मेदारी निभाना। मगर जैसे ही वे अपने बच्चों को सही रास्ते पर ला दें, और उनके बच्चे स्वतंत्र रूप से जीने में सक्षम हो जाएँ, इन माँ-बाप को पीछे हट जाना चाहिए। उन्हें अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए मानो कि वे अभी तक बालिग नहीं हुए हैं, या मानो कि वे मानसिक रूप से कमजोर हैं। उन्हें अपने बच्चों से कोई अयथार्थवादी अपेक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए, या उनसे कोई अपेक्षा रखने की आड़ में उनके निजी जीवन या उनके कामकाज, परिवार, शादी, लोगों और घटनाओं के संबंध में उनके रवैये, दृष्टिकोण और क्रियाकलापों में टांग नहीं अड़ानी चाहिए। अगर वे इनमें से कोई भी काम करते हैं, तो वे अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रहे हैं।

जब बेटे-बेटियाँ स्वतंत्र रूप से जीवन जीने में सक्षम हो जाएँ, तो माँ-बाप को उनके काम, जीवन और परिवारों को लेकर बस थोड़ी चिंता और उनकी आवश्यक देखरेख ही करनी चाहिए, या उन परिस्थितियों में उन्हें थोड़ी उपयुक्त सहायता देनी चाहिए जहाँ बच्चे अपनी क्षमताओं का इस्तेमाल करके किसी चीज को हासिल करने या उसकी देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे बेटे या बेटी का एक बच्चा है और वे दोनों काम में बहुत व्यस्त रहते हैं। बच्चा अभी बहुत छोटा है, और कभी-कभी उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होता। इन परिस्थितियों में, तुम उनके बच्चे की देखभाल करने में अपने बच्चों की मदद कर सकते हो। यह माँ-बाप की जिम्मेदारी है, क्योंकि आखिरकार वे तुम्हारा ही अंश और खून हैं, और कोई अनजान बच्चे की देखभाल करे इससे तो बेहतर है कि तुम ही उनकी देखभाल करो। अगर तुम्हारा बच्चा अपने बच्चे की देखभाल के लिए तुम पर भरोसा करता है, तो तुम्हें यह जिम्मेदारी निभानी चाहिए। अगर वह बच्चे को तुम्हें सौंपने में सहज महसूस नहीं करता और नहीं चाहता कि तुम उसकी देखभाल करो, या अगर वह तुम्हें उसकी देखभाल इसलिए नहीं करने दे रहा क्योंकि वह तुमसे प्यार करता है, तुम्हारा ख्याल रख रहा है, और उसे डर है कि तुम शारीरिक रूप से बच्चे की देखभाल करने के लिए पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो, तो तुम्हें इसमें खोट नहीं खोजनी चाहिए। कुछ बेटे-बेटियाँ ऐसे भी हैं जो अपने माँ-बाप पर भरोसा ही नहीं करते, वे सोचते हैं कि उनके माँ-बाप में बच्चे की देखभाल करने की क्षमता नहीं है, उन्हें बस छोटे बच्चों को बिगाड़ना आता है, उन्हें शिक्षित करना नहीं, और जब बात उनके खान-पान की आती है तो वे सावधानी नहीं बरतते। अगर तुम्हारा बेटा या बेटी तुम पर भरोसा नहीं करते, और नहीं चाहते कि तुम उनके बच्चे की देखभाल करो, तो यह और भी अच्छा है, तो तुम्हारे पास कुछ और खाली समय बचेगा। इसे आपसी सहमति कहा जाता है : न तो माँ-बाप और न ही बच्चा एक-दूसरे के जीवन में टांग अड़ाते हैं, और साथ ही एक-दूसरे की परवाह भी करते हैं। जब बच्चों को सहायता, परवरिश और देखभाल की जरूरत हो, तो माँ-बाप को बस भावनात्मक स्तर पर या अन्य मामलों में उनकी उचित और आवश्यक चिंता, परवाह और आर्थिक सहायता करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी माँ-बाप ने कुछ बचत की है, या उनकी नौकरी अच्छी चल रही है और उनके पास पैसे कमाने का एक जरिया है। जब उनके बच्चों को कुछ पैसों की जरूरत पड़े, तो वे परिस्थिति के हिसाब से उनकी थोड़ी मदद कर सकते हैं। अगर वे ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं, तो उनके लिए यह जरूरी नहीं कि वे अपनी सारी संपत्ति बेच डालें या अपने बच्चों की मदद के लिए किसी साहूकार से पैसे उधार लें। उन्हें पारिवारिक संरचना के तहत बस उतनी ही जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए जितनी कि वे कर पाने में सक्षम हों। उन्हें अपनी सारी संपत्ति बेचने, या अपना गुर्दा या खून बेचने, या अपने बच्चों की मदद के लिए आखरी साँस तक काम करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारा जीवन तुम्हारा अपना है, यह परमेश्वर ने तुम्हें दिया है, और तुम्हारे अपने मकसद हैं। तुम्हारे पास यह जीवन इसलिए है ताकि तुम उन सभी मकसदों को पूरा कर सको। तुम्हारे बच्चों का जीवन भी इसलिए है ताकि वे अपने जीवन पथ के अंत तक पहुँच सकें और जीवन में अपने मकसद को पूरा कर सकें, इसलिए नहीं कि वे तुम्हारे प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाएँ। तो, चाहे उनके बच्चे बालिग हों या नहीं, माँ-बाप का जीवन सिर्फ और सिर्फ माँ-बाप का ही होता है, यह उनके बच्चों का नहीं होता। जाहिर है कि माँ-बाप अपने बच्चों के लिए मुफ्त की आया या गुलाम नहीं हैं। माँ-बाप की अपने बच्चों से चाहे जो भी अपेक्षाएँ हों, उनके लिए यह आवश्यक नहीं कि वे अपने बच्चों को मनमाने ढंग से उन्हें आदेश देने दें और बदले में मुआवजा भी न पाएँ, न ही यह जरूरी है कि वे अपने बच्चों के नौकर, आया या गुलाम बन जाएँ। तुम्हारे मन में अपने बच्चों के लिए चाहे जैसी भी भावनाएँ हों, तुम अभी भी एक स्वतंत्र व्यक्ति हो। तुम्हें उनके बालिग जीवन की जिम्मेदारी नहीं उठानी चाहिए मानो कि सिर्फ इसलिए ऐसा करना बिल्कुल सही है क्योंकि वे तुम्हारे बच्चे हैं। ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं है। वे बालिग हैं; तुम उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने की अपनी जिम्मेदारी पहले ही पूरी कर चुके हो। जहाँ तक बात है कि वे भविष्य में अच्छा जीवन जिएँगे या बुरा, वे अमीर होंगे या गरीब, और खुशहाल जीवन जिएँगे या दुखी रहेंगे, यह उनका अपना मामला है। इन बातों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। माँ-बाप होने के नाते, तुम्हारे ऊपर उन चीजों को बदलने का कोई दायित्व नहीं है। अगर उनका जीवन दुखी है, तो तुम यह कहने के लिए बाध्य नहीं हो : “तुम दुखी हो—मगर मैं सब कुछ ठीक कर दूँगा, मैं अपनी सारी संपत्ति बेच दूँगा, मैं तुम्हें खुश रखने के लिए अपने जीवन की सारी ऊर्जा लगा दूँगा।” ऐसा करना जरूरी नहीं है। तुम्हें बस अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं, इससे ज्यादा और कुछ नहीं करना। अगर तुम उनकी मदद करना चाहते हो, तो उनसे पूछ सकते हो कि वे दुखी क्यों हैं, और सैद्धांतिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर समस्या को समझने में उनकी सहायता कर सकते हो। अगर वे तुम्हारी मदद स्वीकारते हैं, तो यह और भी बढ़िया बात है। अगर वे ऐसा नहीं करते, तो तुम्हें बस एक माँ-बाप के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत है, और कुछ नहीं करना। अगर तुम्हारे बच्चे कष्ट उठाना चाहते हैं, तो यह उनका अपना मामला है। तुम्हें इसके बारे में चिंता करने या परेशान होने, या अपनी भूख और नींद मारकर बैठने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा करना अति हो जाएगा। यह अति क्यों होगा? क्योंकि वे अब बालिग हैं। उन्हें अपने जीवन में आने वाली हर समस्या से खुद ही निपटना सीखना चाहिए। अगर तुम्हें उनकी चिंता सताती है, तो यह सिर्फ तुम्हारा स्नेह है; अगर तुम्हें उनकी चिंता नहीं होती, तो इसका यह मतलब नहीं कि तुम निष्ठुर हो, या तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाई हैं। वे बालिग हैं, और बालिग लोगों को बालिगों वाली समस्याओं का सामना करना चाहिए और उन सभी चीजों से निपटना चाहिए जिनसे बालिग लोग निपटते हैं। उन्हें हर चीज के लिए अपने माँ-बाप पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। बेशक, माँ-बाप को इस बात की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेनी चाहिए कि उनके बच्चों के बालिग होने के बाद उनकी नौकरी, उनके करियर, परिवार या शादी में सब कुछ ठीक रहेगा या नहीं। तुम इन चीजों के बारे में चिंता कर सकते हो, और उनके बारे में पूछताछ कर सकते हो, पर तुम्हें उनका पूरा जिम्मा लेने, अपने बच्चों को अपने साथ बाँधकर रखने, जहाँ भी जाओ उन्हें अपने साथ लेकर जाने, जहाँ भी जाओ वहाँ उन पर नजर रखने, और उनके बारे में यह सोचते रहने की जरूरत नहीं है : “क्या उन्होंने आज ठीक से खाना खाया होगा? क्या वे खुश हैं? क्या उनका काम अच्छा चल रहा है? क्या उनका बॉस उनकी सराहना करता है? क्या उनका जीवनसाथी उनसे प्यार करता है? क्या उनके बच्चे आज्ञाकारी हैं? क्या उनके बच्चों को अच्छे ग्रेड मिलते हैं?” इन चीजों का तुमसे क्या लेना-देना है? तुम्हारे बच्चे अपनी समस्याएँ खुद हल कर सकते हैं, तुम्हें इसमें शामिल होने की कोई जरूरत नहीं है। मैंने यह क्यों पूछा कि इन चीजों का तुमसे क्या लेना-देना है? क्योंकि इससे मेरा अभिप्राय यह है कि इनका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुमने अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, तुमने उन्हें पाल-पोसकर बालिग बना दिया है, तो तुम्हें अब पीछे हट जाना चाहिए। ऐसा करने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे पास करने के लिए कुछ नहीं होगा। अभी भी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए। जब उन मकसदों की बात आती है जिन्हें तुमसे इस जीवन में पूरा करना चाहिए, तो अपने बच्चों को पाल-पोसकर बालिग बनाने के अलावा, तुम्हारे पास पूरे करने के लिए और भी कई मकसद हैं। अपने बच्चों के माँ-बाप होने के अलावा, तुम एक सृजित प्राणी भी हो। तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए, और उससे मिला अपना कर्तव्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हारा कर्तव्य क्या है? क्या तुमने इसे पूरा कर लिया है? क्या तुमने खुद को इसके प्रति समर्पित कर दिया है? क्या तुम उद्धार के मार्ग पर चल पड़े हो? तुम्हें पहले इन चीजों के बारे में सोचना चाहिए। जहाँ तक बात है कि तुम्हारे बच्चे बालिग होने के बाद कहाँ जाएँगे, उनका जीवन कैसा होगा, उनकी परिस्थितियाँ कैसी होंगी, वे खुशहाल और प्रसन्न महसूस करेंगे या नहीं, इन बातों से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है। तुम्हारे बच्चे बाहर से और मानसिक रूप से पहले से ही स्वतंत्र हैं। तुम्हें उन्हें स्वतंत्र होने देना चाहिए, उन्हें जाने देना चाहिए, और उन्हें काबू में करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। चाहे चीजों के बाहरी पक्ष के संदर्भ में, या स्नेह या खून के रिश्ते के संदर्भ में, तुम पहले ही अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर चुके हो, और अब तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के बीच कोई रिश्ता नहीं है। उनके मकसदों और तुम्हारे मकसदों के बीच कोई संबंध नहीं है, और वे जिस जीवन पथ पर चलते हैं उसके और तुम्हारी अपेक्षाओं के बीच कोई संबंध नहीं है। उनसे तुम्हारी अपेक्षाएँ और उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारियाँ खत्म हो गई हैं। स्वाभाविक रूप से, तुम्हें उनसे अपेक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए। वे वे हैं, और तुम तुम हो। अगर तुम्हारे बच्चों की शादी नहीं होती, तो अपने-अपने भाग्य और मकसद के संदर्भ में, तुम दोनों ही पूरी तरह से दो अलग और स्वतंत्र व्यक्ति हो। अगर वे शादी करके परिवार शुरू करते भी हैं, तो तुम्हारे परिवारों का उनके परिवारों से कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे बच्चों की अपनी जीने की आदतें हैं और अपनी जीवनशैली है, उनके जीवन की गुणवत्ता के संबंध में उनकी अपनी जरूरतें हैं, और तुम्हारी अपनी जीने की आदतें हैं, और तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता के संबंध में तुम्हारी अपनी जरूरतें हैं। जीवन में तुम्हारा अपना मार्ग है और जीवन में उनके अपने मार्ग हैं। तुम्हारे अपने मकसद हैं, और उनके अपने। बेशक, तुम्हारी अपनी आस्था है, और उनकी अपनी। अगर उनकी आस्था धन, प्रतिष्ठा और लाभ में निहित है, तो तुम पूरी तरह से अलग लोग हो। अगर उनकी आस्था तुम्हारे जैसी ही है, अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं और उद्धार के मार्ग पर चलते हैं, तो भी तुम स्वाभाविक रूप से अभी भी पूरी तरह से अलग व्यक्ति हो। तुम तुम हो, और वे वे हैं। जब उन मार्गों की बात आती है जिन पर वे चलते हैं, तुम्हें उनमें अपनी टांग नहीं अड़ानी चाहिए। तुम उन्हें सहारा दे सकते हो, उनकी मदद कर सकते हो और उनके लिए प्रावधान कर सकते हो, तुम उन्हें याद दिला सकते हो और प्रोत्साहित कर सकते हो, पर तुम्हें उनके मामलों में हस्तक्षेप करने या शामिल होने की जरूरत नहीं है। कोई भी यह निर्धारित नहीं कर सकता कि दूसरा व्यक्ति किस प्रकार के मार्ग पर चलेगा, वह किस प्रकार का व्यक्ति बनकर जिएगा, या वह किस प्रकार की चीजों का अनुसरण करेगा। जरा सोचो इस बारे में, मैं किस आधार पर यहाँ बैठकर तुम लोगों से बातचीत कर रहा हूँ और इन सभी चीजों के बारे में तुमसे बात कर रहा हूँ? सुनने की तुम लोगों की इच्छा के आधार पर। मैं इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि तुम लोग मेरे सच्चे उपदेशों को सुनने के इच्छुक हो। अगर तुम सभी यह नहीं सुनना चाहते हो या छोड़कर चले जाते हो, तो मैं अब और नहीं बोलूँगा। मैं कितने शब्द बोलता हूँ यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम उन्हें सुनने के इच्छुक हो या नहीं और क्या तुम ऐसा करने के लिए अपना समय और ऊर्जा खर्च करने को तैयार हो। अगर तुमने कहा, “मुझे तुम्हारी बात समझ नहीं आ रही है, तो क्या तुम थोड़ा विस्तार से चीजों को समझा सकते हो?” फिर मैं और ज्यादा विस्तार से समझाने की अपनी पूरी कोशिश करूँगा, ताकि तुम मेरे वचनों को समझकर उनमें प्रवेश कर सको। जब मैं तुम लोगों को सही रास्ते पर ले आऊँगा, तुम्हें परमेश्वर और सत्य के समक्ष ले आऊँगा, और सत्य को समझने और परमेश्वर के मार्ग पर चलने में तुम्हें सक्षम बना दूँगा, तब मेरा काम पूरा हो जाएगा। लेकिन, जब यह बात आती है कि क्या तुम परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद उनका अभ्यास करने के इच्छुक होगे, या तुम किस प्रकार के मार्ग पर चलोगे, किस किस्म का जीवन चुनोगे, तुम किसका अनुसरण करोगे, इन चीजों से मेरा कोई सरोकार नहीं है। अगर तुमने कहा, “मेरे पास सत्य के उस पहलू के संबंध में एक सवाल है, मैं इसके बारे में खोजना चाहता हूँ,” तो मैं धैर्य से तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा। लेकिन अगर तुम कभी सत्य खोजना ही नहीं चाहते, तो क्या मैं इसके लिए तुम्हारी काट-छाँट करूंगा? मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तुम्हें सत्य खोजने के लिए बाध्य नहीं करूँगा, या तुम्हारा उपहास या मजाक नहीं उड़ाऊँगा, और मैं यकीनन तुम्हारे प्रति उदासीन रवैया नहीं रखूँगा। मैं तुमसे पहले जैसा ही व्यवहार करूँगा। अगर तुम अपने कर्तव्य में गलती करते हो या जानबूझकर बाधा या गड़बड़ी पैदा करते हो, तो तुमसे निपटने के लिए मेरे पास अपने सिद्धांत और अपने तरीके हैं। हालाँकि, तुम कह सकते हो : “मुझे तुम्हारी ये बातें नहीं सुननी, और न ही मैं तुम्हारे इन विचारों को स्वीकारूँगा। मैं हमेशा की तरह अपना कर्तव्य निभाता रहूँगा।” तब तुम सिद्धांतों या प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं करोगे। अगर तुमने प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन किया, तो मैं तुमसे निपटूंगा। लेकिन अगर तुम प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं करते, और कलीसियाई जीवन जीते हुए उचित व्यवहार कर सकते हो, तो भले ही तुम सत्य का अनुसरण न करो, मैं तुम्हारे काम में दखल नहीं दूँगा। जब बात तुम्हारे निजी जीवन की आती है, तुम क्या खाना-पहनना चाहते हो या तुम किन लोगों से मिलते हो, मैं तुम्हारे मामलों में टांग नहीं अड़ाऊँगा। इन मामलों में तुम्हें पूरी आजादी होगी। ऐसा क्यों? मैं इन मामलों के संबंध में सभी सिद्धांतों और अन्य चीजों के बारे में तुम्हें साफ तौर पर बता चुका हूँ। बाकी सब तुम्हारी अपनी पसंद पर निर्भर करता है। तुम किस मार्ग पर चलना चुनते हो, वह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो, यह स्पष्ट है। अगर तुम सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तो तुम्हें सत्य से प्रेम करने के लिए कौन बाध्य कर सकता है? आखिर में, हरेक व्यक्ति उस मार्ग की जिम्मेदारी खुद लेगा जिस पर वह चलेगा, और जो परिणाम उसे मिलेंगे। मुझे इसकी जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो यह तुम्हारी मर्जी है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो यह भी तुम्हारी अपनी मर्जी है—कोई भी तुम्हें रोक नहीं रहा है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो कोई भी तुम्हें प्रोत्साहित नहीं करेगा और तुम्हें कोई खास अनुग्रह या सांसारिक आशीष नहीं दी जाएगी। मैं बस अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहा हूँ और उन्हें पूरा कर रहा हूँ, तुम लोगों को वे सभी सत्य बता रहा हूँ जिन्हें तुम्हें समझना और जिनमें तुम्हें उनमें प्रवेश करना चाहिए। जहाँ तक बात है कि तुम निजी तौर पर अपना जीवन कैसे जीते हो, मैंने कभी इस बारे में पूछताछ नहीं की, या इसमें ताक-झांक नहीं की। मैं यही रवैया अपनाता हूँ। माँ-बाप को भी अपने बच्चों के प्रति ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए। बालिगों में सही-गलत को पहचानने की क्षमता होती है। अब वे सही चुनेंगे या गलत, काला चुनेंगे या सफेद, सकारात्मक चीजें चुनेंगे या नकारात्मक, यह उनका अपना मामला है—यह उनकी आंतरिक जरूरतों पर निर्भर करता है। अगर किसी व्यक्ति का सार बुरा है, तो वह सकारात्मक चीजें नहीं चुनेगा। अगर कोई व्यक्ति अच्छा बनने की कोशिश करता है, और उसमें मानवता, अंतरात्मा की जागरूकता और शर्म की भावना है, तो वह सकारात्मक चीजों को चुनेगा; भले ही वह ऐसा करने में थोड़ा धीमा हो, धीरे-धीरे वह सही मार्ग पर आ ही जाएगा। यह अपरिहार्य है। इसलिए, माँ-बाप को अपने बच्चों के प्रति इसी तरह का रवैया रखना चाहिए और अपने बच्चों के चुनावों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कुछ माँ-बाप की अपने बच्चों से इस प्रकार की अपेक्षाएँ होती हैं : “हमारे बच्चों को सही रास्ते पर चलना चाहिए, उन्हें परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए, धर्मनिरपेक्ष संसार को त्याग देना चाहिए और अपनी नौकरी छोड़ देनी चाहिए। नहीं तो, जब हम राज्य में प्रवेश करेंगे, तो वे प्रवेश नहीं कर सकेंगे और हम उनसे अलग हो जाएँगे। कितना अद्भुत होगा अगर हमारा पूरा परिवार एक साथ राज्य में प्रवेश कर सके! हम स्वर्ग में भी एक साथ हो सकते हैं, जैसे हम यहाँ पृथ्वी पर हैं। राज्य में, हमें एक-दूसरे को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए, हमें युगों-युगों तक साथ रहना चाहिए!” फिर, पता चलता है कि उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, बल्कि सांसारिक चीजों का अनुसरण करते हैं, बहुत सारा पैसा कमाना और बहुत अमीर बनना चाहते हैं; वे वही पहनते हैं जो फैशन में है, वे वही करते हैं और उसी बारे में बात करते हैं जो प्रचलन में है, और अपने माँ-बाप की इच्छाओं को पूरा नहीं करते। नतीजतन, ये माँ-बाप परेशान हो जाते हैं, प्रार्थना करते और व्रत रखते हैं, हफ्ते भर का, दस दिन या पंद्रह दिनों का व्रत करते हैं, और इस मामले में अपने बच्चों की खातिर काफी प्रयास करते हैं। अक्सर भूखे रहने से उनका सिर घूमता है, और वे अक्सर रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। मगर, वे चाहे कैसे भी प्रार्थना करें या कितना भी प्रयास करें, उनके बच्चों को कोई फर्क नहीं पड़ता, उनकी आँखें नहीं खुलती हैं। जितना ज्यादा उनके बच्चे विश्वास करने से इनकार करते हैं, उतना ही ज्यादा ये माँ-बाप सोचते हैं : “अरे नहीं, मैं अपने बच्चों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा, मैंने उन्हें निराश किया है। मैं उन तक सुसमाचार फैलाने में सक्षम नहीं रहा, और मैं उन्हें अपने साथ उद्धार के मार्ग पर भी नहीं ला पाया। बेवकूफ कहीं के—यह उद्धार का मार्ग है!” वे बेवकूफ नहीं हैं; उन्हें बस इसकी जरूरत नहीं है। ये माँ-बाप ही बेवकूफ हैं जो अपने बच्चों को इस रास्ते पर धकेलने की कोशिश कर रहे हैं, है न? अगर उनके बच्चों को यह जरूरत होती, तो क्या इन माँ-बाप को इन चीजों के बारे में बात करने की जरूरत पड़ती? उनके बच्चे खुद-ब-खुद विश्वास करने लगते। ये माँ-बाप हमेशा सोचते हैं : “मैंने अपने बच्चों को निराश किया है। मैंने उन्हें छोटी उम्र से ही कॉलेज जाने के लिए प्रोत्साहित किया और जब से वे कॉलेज गए, तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे सांसारिक चीजों के पीछे भागना बंद ही नहीं करते, और जब भी वापस आते हैं, तो सिर्फ काम करने, पैसा कमाने, किसको तरक्की मिली और किसने नई गाड़ी खरीदी, किसने किसी अमीर व्यक्ति से शादी की, कौन आगे की पढ़ाई करने या एक्सचेंज स्टूडेंट बनकर यूरोप गया, यही बातें करते हैं और बताते हैं कि दूसरों का जीवन कितना अच्छा चल रहा है। जब भी वे घर आते हैं, तो उन्हीं चीजों के बारे में बात करते हैं, और मैं उन्हें सुनना नहीं चाहता, मगर मेरे पास कोई और चारा भी नहीं है। मैं उन्हें परमेश्वर में विश्वास दिलाने के लिए चाहे कुछ भी कहूँ, वे फिर भी नहीं सुनेंगे।” नतीजतन, उनके और उनके बच्चों के बीच दरार पड़ जाती है। जब भी वे अपने बच्चों को देखते हैं, तो उनका चेहरा काला पड़ जाता है; जब भी वे अपने बच्चों से बात करते हैं तो उनके हाव-भाव उदास हो जाते हैं। कुछ बच्चे नहीं जानते कि उन्हें क्या करना चाहिए, और सोचते हैं : “मुझे नहीं पता मेरे माँ-बाप को क्या दिक्कत है। अगर मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करता, तो नहीं करता। वे हमेशा मेरे साथ ऐसा रवैया क्यों रखते हैं? मैंने सोचा था कि कोई व्यक्ति परमेश्वर में जितना ज्यादा विश्वास करेगा, वह उतना ही बेहतर इंसान बनेगा। परमेश्वर के विश्वासियों को अपने परिवारों के प्रति इतना कम स्नेह कैसे हो सकता है?” ये माँ-बाप अपने बच्चों को लेकर इतना अधिक परेशान रहते हैं कि उनकी नसें फटने लगती हैं, और वे कहते हैं : “वे मेरे बच्चे नहीं हैं! मैं उनके साथ संबंध तोड़ रहा हूँ, मैं उन्हें अस्वीकार कर रहा हूँ!” वे ऐसा कहते हैं, मगर वास्तव में ऐसा महसूस नहीं करते। क्या ऐसे माँ-बाप बेवकूफ नहीं होते? (बिल्कुल।) वे हमेशा हर चीज पर काबू पाना और कब्जा करना चाहते हैं, हमेशा अपने बच्चों के भविष्य, उनकी आस्था और उन रास्तों को काबू में करना चाहते हैं जिन पर वे चलते हैं। कितनी बड़ी बेवकूफी है! यह सही नहीं है। खास तौर से, कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो सांसारिक चीजों के पीछे भागते हैं, उन्हें तरक्की देकर प्रबंधकीय पदों पर बिठाया जाता है और वे बहुत सारा पैसा कमाते हैं। वे उपहार के तौर पर अपने माँ-बाप के लिए ढेर सारा जिनसेंग, सोने की बालियाँ और सोने के हार घर लाते हैं, और उनके माँ-बाप कहते हैं : “मुझे ये चीजें नहीं चाहिए, मैं बस आशा करता हूँ कि तुम लोग स्वस्थ रहो, और मेरे साथ परमेश्वर में विश्वास करो। परमेश्वर में विश्वास करना बहुत कितनी शानदार चीज है!” और उनके बच्चे कहते हैं : “अब फिर से शुरू मत होना। मुझे तरक्की मिली है, और आपने मुझे बधाई देने के लिए कुछ भी नहीं किया। जब दूसरों के माँ-बाप को पता लगता है कि उनके बच्चों को तरक्की मिली है, तो वे शैंपेन की बोतलें खोलते हैं, डिनर पर बाहर जाते हैं, मगर मैं जब आपके लिए हार और कान की बालियाँ खरीदता हूँ, तो आप खुश नहीं होते। कैसे निराश किया है मैंने आपको? आप लोग सिर्फ इसलिए नाराज हो क्योंकि मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करता।” क्या इन माँ-बाप का इस तरह नाराज होना सही है? लोगों के अलग-अलग लक्ष्य होते हैं, वे अलग-अलग रास्तों पर चलते हैं और वे इन रास्तों को खुद चुनते हैं। माँ-बाप को इस मामले पर सही ढंग से विचार करना चाहिए। अगर तुम्हारे बच्चे परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, तो तुम्हें यह माँग नहीं करनी चाहिए कि वे परमेश्वर में विश्वास करें—जबरदस्ती करने से कुछ हासिल नहीं होगा। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करना चाहते, और वे उस तरह के व्यक्ति नहीं हैं, तो जितना ज्यादा तुम इसका जिक्र करोगे, उतना ही वे तुम्हें परेशान करेंगे, और तुम भी उन्हें परेशान करोगे—तुम दोनों को झुंझलाहट महसूस होगी। मगर तुम दोनों का नाराज होना महत्वपूर्ण नहीं है—सबसे महत्वपूर्ण यह है कि परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा, और वह कहेगा कि तुम्हारा स्नेह ज्यादा ही मजबूत है। क्योंकि तुम इतनी बड़ी कीमत सिर्फ इसलिए चुकाने में सक्षम हो क्योंकि तुम्हारे बच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, और तुम उनके सांसारिक चीजों के पीछे भागने से इतने परेशान हो, अगर परमेश्वर ने किसी दिन उन्हें तुमसे छीन लिया, तब तुम क्या करोगे? क्या तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत करोगे? अगर, तुम्हारे दिल में, तुम्हारे बच्चे ही तुम्हारा सब कुछ हैं, अगर वे तुम्हारा भविष्य, तुम्हारी आशा और तुम्हारा जीवन हैं, तो क्या तुम अभी भी ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर में विश्वास करता है? क्या परमेश्वर तुम्हारे इस तरह के व्यवहार से घृणा नहीं करेगा? तुम जिस तरह से व्यवहार कर रहे हो वह बहुत अज्ञानतापूर्ण है, सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, और परमेश्वर इससे संतुष्ट नहीं होगा। इसलिए, अगर तुम समझदार हो, तो ऐसी चीजें नहीं करोगे। अगर तुम्हारे बच्चे विश्वास नहीं करते हैं, तो तुम्हें इसे जाने देना चाहिए। तुमने वे सभी तर्क दे दिए हैं जो तुम्हें देने चाहिए, और वह सब कह दिया है जो तुम्हें कहना चाहिए था, इसलिए उन्हें अपना फैसला खुद करने दो। अपने बच्चों के साथ तुम्हारा जो रिश्ता पहले था, उसे बरकरार रखो। अगर वे तुम्हारे प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाना चाहते हैं, अगर वे तुम्हें संजोना और तुम्हारी देखभाल करना चाहते हैं, तो तुम्हें इसे ठुकराने की जरूरत नहीं है। अगर वे तुम्हें यूरोप की यात्रा पर लेकर जाना चाहते हैं, मगर इससे तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में बाधा आती है और तुम जाना नहीं चाहते, तो मत जाओ। लेकिन अगर तुम जाना चाहते हो और तुम्हारे पास समय है, तो जरूर जाओ। अपने अनुभव का दायरा बढ़ाने में कुछ भी गलत नहीं है। इससे तुम्हारे हाथ गंदे नहीं होंगे, और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करेगा। अगर तुम्हारे बच्चे तुम्हारे लिए कुछ अच्छी चीजें, कुछ अच्छा भोजन या कपड़े खरीदते हैं, और तुम सोचते हो कि एक संत के लिए उन्हें पहनना या उपयोग करना सही है, तो उन्हें परमेश्वर का अनुग्रह मानकर उनका आनंद लो। अगर तुम उन चीजों से घृणा करते हो, अगर तुम उनका आनंद नहीं लेते, अगर तुम यह मानते हो कि वे मुसीबत पैदा करने वाली और घृणित चीजें हैं, और अगर तुम उनका आनंद नहीं लेना चाहते, तो उन्हें यह कहते हुए ठुकरा सकते हो : “मैं बस तुम लोगों को देखकर ही खुश हूँ, तुम्हें मेरे लिए उपहार लाने या मुझ पर पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं है, मुझे उन चीजों का कोई शौक नहीं मैं बस यही चाहता हूँ कि तुम लोग सुरक्षित और खुश रहो।” क्या यह अद्भुत नहीं है? अगर तुम ये चीजें कहते हो, और अपने दिल में इन बातों पर विश्वास करते हो, अगर तुम्हें वाकई कोई जरूरत नहीं कि तुम्हारे बच्चे तुम्हें कोई भौतिक सुख-सुविधा दें, या तुम्हें उनकी रोशनी में चमकने के लिए उनकी मदद की आकांक्षा नहीं, तो तुम्हारे बच्चे तुम्हारी बहुत बड़ाई ही करेंगे, है न? जहाँ तक उनके कामकाज या जीवन में आने वाली किसी भी परेशानी का सवाल है, तो जब भी संभव हो उनकी मदद करने की पूरी कोशिश करना। अगर उनकी मदद करने से तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन पर असर पड़ेगा, तो तुम इनकार कर सकते हो—यह तुम्हारा अधिकार है। क्योंकि अब तुम पर उनका कुछ भी कर्ज नहीं है, क्योंकि अब तुम्हारी उनके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है, और अब वे स्वतंत्र बालिग बन गए हैं, वे अपना जीवन खुद संभाल सकते हैं। तुम्हें बिना शर्त या हर समय उनकी सेवा करने की जरूरत नहीं है। अगर वे तुमसे मदद माँगते हैं, और तुम उनकी मदद नहीं करना चाहते, या अगर ऐसा करने से तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में बाधा आएगी, तो तुम इनकार कर सकते हो। यह तुम्हारा अधिकार है। भले ही तुम्हारा उनसे खून का रिश्ता है, और तुम उनके माँ-बाप हो, यह सिर्फ औपचारिकता, खून और स्नेह का रिश्ता है—तुम्हारी जिम्मेदारियों के संदर्भ में, तुम पहले ही उनके साथ अपने सबंध से मुक्त हो चुके हो। तो, अगर माँ-बाप बुद्धिमान हैं, तो बच्चों के बालिग हो जाने के बाद उनकी उनसे कोई अपेक्षाएँ, आवश्यकताएँ या मानक नहीं होंगे, और उन्हें यह अपेक्षा नहीं होगी कि उनके बच्चे एक निश्चित तरीके से कार्य करें या वे एक माँ-बाप के परिप्रेक्ष्य या स्थिति से कुछ चीजें करें, क्योंकि अब उनके बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो चुके हैं। अगर तुम्हारे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तो इसका मतलब है कि तुमने उनके प्रति अपनी सभी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं। फिर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परिस्थितियाँ सही होने पर तुम अपने बच्चों के लिए क्या करते हो, चाहे तुम उनकी चिंता या परवाह करते हो, यह स्नेह मात्र है, और यह अनावश्यक है। या अगर तुम्हारे बच्चे तुमसे कुछ करने के लिए कहते हैं, तो यह भी अनावश्यक है, तुम यह सब करने के लिए बाध्य नहीं हो। तुम्हें यह समझना चाहिए। क्या ये बातें स्पष्ट हैं? (बिल्कुल।)

मान लो कि तुममें से कोई कहता है : “मैं अपने बच्चों को कभी छोड़ नहीं सकता। वे जन्म से ही कमजोर, और स्वाभाविक रूप से कायर और डरपोक हैं। उनकी काबिलियत भी इतनी अच्छी नहीं है और दूसरे लोग हर वक्त उन पर धौंस जमाते रहते हैं। मैं उन्हें नहीं छोड़ सकता।” तुम्हारा अपने बच्चों को छोड़ने में सक्षम नहीं होने का मतलब यह नहीं है कि तुमने उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने का काम पूरा नहीं किया है, यह सिर्फ तुम्हारी भावनाओं का प्रभाव है। तुम कह सकते हो : “मैं हमेशा परेशान और सोचता रहता हूँ कि क्या मेरे बच्चे अच्छे से खाना खा रहे हैं, या क्या उन्हें पेट की कोई समस्या तो नहीं है। अगर वे समय पर खाना न खाएँ और लंबे समय तक बाहर का खाना मँगाते रहें, तो क्या उन्हें पेट की समस्याएँ हो जाएँगी? क्या उन्हें किसी प्रकार की बीमारी हो जाएगी? और अगर वे बीमार पड़े, तो क्या उनकी देखभाल करने वाला, उनके प्रति प्यार दिखाने वाला कोई होगा? क्या उनके जीवनसाथी उनकी चिंता और देखभाल करते हैं?” तुम्हारी चिंताएँ सिर्फ तुम्हारी भावनाओं और अपने बच्चों के साथ तुम्हारे खून के रिश्ते से उत्पन्न होती हैं, मगर ये तुम्हारी जिम्मेदारियाँ नहीं हैं। परमेश्वर ने माँ-बाप को जो जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं, वे बच्चों के बालिग होने से पहले उनके पालन-पोषण और देखभाल करने की जिम्मेदारियाँ ही हैं। अपने बच्चों के बालिग हो जाने के बाद, माँ-बाप की उनके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं रहती। यह उन जिम्मेदारियों के मद्देनजर है जो माँ-बाप को परमेश्वर के विधान के परिप्रेक्ष्य से पूरे करने चाहिए। बात समझ आई? (हाँ।) तुम्हारी भावनाएँ चाहे कितनी भी मजबूत हों, या जब माँ-बाप के रूप में तुम्हारे सहज-बोध की बात आती है, तो यह तुम्हारा अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना नहीं, बल्कि सिर्फ तुम्हारी भावनाओं का प्रभाव है। तुम्हारी भावनाओं के प्रभाव मानवता के विवेक से, या उन सिद्धांतों से उत्पन्न नहीं होते हैं जो परमेश्वर ने मनुष्य को सिखाए हैं, या मनुष्य द्वारा सत्य के प्रति समर्पण करने से उत्पन्न नहीं होते, और वे निश्चित रूप से मनुष्य की जिम्मेदारियों से तो उत्पन्न नहीं होते, बल्कि, वे मनुष्य की भावनाओं से उत्पन्न होते हैं—वे भावनाएँ कहलाती हैं। इसमें बस थोड़ा सा माँ-बाप का प्यार और अपनेपन का मिश्रण होता है। क्योंकि वे तुम्हारे बच्चे हैं, तुम लगातार उनकी चिंता करते हो, सोचते हो कि कहीं वे कष्ट तो नहीं सह रहे, और कहीं वे धमकाए तो नहीं जा रहे। तुम सोचते हो कि क्या उनका कामकाज सही चल रहा है, और क्या वे समय पर खाना खा रहे हैं। तुम सोचते हो कि कहीं उन्हें कोई बीमारी तो नहीं हो गई, और क्या बीमार पड़ने पर वे अपने इलाज का खर्चा उठा पाएँगे। तुम अक्सर इन चीजों के बारे में सोचते हो, और इनका माँ-बाप के रूप में तुम्हारी जिम्मेदारियों से कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम इन चिंताओं को त्याग नहीं सकते, तो यही कहा जा सकता है कि तुम अपनी भावनाओं के बीच जी रहे हो, और खुद को उनसे मुक्त करने में असमर्थ हो। तुम परमेश्वर द्वारा दी गई माँ-बाप की जिम्मेदारियों की परिभाषा के अनुसार जीने के बजाय, बस अपनी भावनाओं में जीते हो, अपनी भावनाओं के अनुसार अपने बच्चों से पेश आते हो। तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार नहीं जी रहे हो, बल्कि सिर्फ अपनी भावनाओं के अनुसार इन सभी चीजों को महसूस करते, देखते और संभालते हो। इसका मतलब यह है कि तुम परमेश्वर के मार्ग पर नहीं चल रहे हो। यह स्पष्ट है। माँ-बाप के रूप में तुम्हारी जिम्मेदारियाँ—जैसा कि परमेश्वर ने तुम्हें सिखाया है—उसी पल समाप्त हो गईं जब तुम्हारे बच्चे बालिग हो गए। क्या अभ्यास का वह तरीका जो परमेश्वर ने तुम्हें सिखाया है, आसान और सरल नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हो, तो निरर्थक चीजों में समय बर्बाद नहीं करोगे, अपने बच्चों को एक हद तक आजादी दोगे, उन्हें विकसित होने का मौका दोगे, और उनके लिए कोई अतिरिक्त कठिनाई या बाधा नहीं बनोगे, या उन पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं डालोगे। और, क्योंकि वे बालिग हैं, तो ऐसा करने से वे एक बालिग व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य के साथ, चीजों को संभालने और देखने के लिए एक बालिग व्यक्ति के स्वतंत्र तौर-तरीकों के साथ, और संसार के प्रति एक वयस्क व्यक्ति के स्वतंत्र दृष्टिकोण के साथ, इस संसार का, अपने जीवन का, और अपने दैनिक जीवन और अस्तित्व में आने वाली विभिन्न समस्याओं का सामना कर सकेंगे। ये तुम्हारे बच्चों की स्वतंत्रता और अधिकार हैं, और इससे भी बढ़कर, ये वे चीजें हैं जो उन्हें बालिगों के रूप में करनी चाहिए, और इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम हमेशा इन चीजों में शामिल रहना चाहते हो, तो यह काफी घृणात्मक है। अगर तुम हमेशा जानबूझकर खुद को इन चीजों में शामिल करना और उनमें अपनी टांग अड़ाना चाहते हो, तो तुम बाधा और विनाश का कारण बनोगे, और आखिर में, न सिर्फ चीजें तुम्हारी इच्छाओं के विपरीत होंगी, बल्कि इससे भी बढ़कर, तुम्हारे कारण तुम्हारे बच्चे भी तुमसे विमुख हो जाएँगे, और तुम्हारा जीवन भी बहुत थकाऊ हो जाएगा। आखिर में, तुम्हारी शिकायतें खत्म नहीं होंगी, और तुम शिकायत करोगे कि तुम्हारे बच्चे संतानोचित नहीं हैं, आज्ञाकारी नहीं है, और तुम्हारे प्रति विचारशील नहीं हैं; तुम शिकायत करोगे कि वे एहसान फरामोश, कृतघ्न और बेपरवाह हैं। कुछ बेरुखे और तर्कहीन माँ-बाप ऐसे भी होते हैं जो रोएँगे, हंगामा करेंगे और आत्महत्या करने की धमकी देंगे, और हर तरह की चालें चलेंगे। यह तो और भी ज्यादा घिनौना है, है न? (बिल्कुल।) अगर तुम बुद्धिमान हो, तो चीजों को स्वाभाविक तरीके से चलने दोगे, अपना जीवन आराम से जियोगे और सिर्फ माँ-बाप होने की अपनी जिम्मेदारियाँ निभाओगे। अगर तुम कहते हो कि तुम अपने बच्चों की देखभाल करना चाहते हो और उनके प्रति स्नेह की खातिर उनकी थोड़ी चिंता करना चाहते हो, तो उनके प्रति जरूरी चिंता दिखाना उचित है। मैं यह नहीं कह रहा कि जैसे ही बच्चे बालिग हो जाएँ और माँ-बाप अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लें, तो माँ-बाप को अपने बच्चों से नाता तोड़ लेना चाहिए। माँ-बाप को अपने बालिग बच्चों की पूरी तरह से उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, उन्हें अकेले जीने के लिए नहीं कहना चाहिए, या चाहे वे कितनी भी बड़ी कठिनाइयों का सामना करें उन्हें अनदेखा नहीं करना चाहिए—भले ही वे कठिनाइयाँ उनके बच्चों को मौत के कगार पर ले जाएँ—या जब उनके बच्चों को माँ-बाप के सहारे की जरूरत पड़े तो उनकी ओर हाथ बढ़ाने से इनकार नहीं करना चाहिए। यह भी गलत है—यह अति है। जब तुम्हारे बच्चे तुम पर भरोसा करके तुम्हें कुछ बताना चाहें, तो तुम्हें उनकी बात सुननी चाहिए, और सुनने के बाद, तुम्हें उनसे पूछना चाहिए कि वे क्या सोच रहे हैं और क्या करने का इरादा रखते हैं। तुम भी अपने सुझाव दे सकते हो। अगर उनके अपने विचार और योजनाएँ हैं, और वे तुम्हारे सुझावों को स्वीकार नहीं करते, तो बस इतना कहो : “ठीक है। अब जब तुमने पहले ही अपना मन बना लिया है, तो भविष्य में इसके जो भी परिणाम होंगे, उन्हें अकेले तुम्हें ही झेलना होगा। यह तुम्हारा जीवन है। तुम्हें खुद चल कर अपना जीवन पथ पूरा करना होगा। कोई और तुम्हारे जीवन की जिम्मेदारी नहीं ले सकता। अगर तुमने अपना मन बना लिया है, तो मैं तुम्हारा समर्थन करूँगा। अगर तुम्हें पैसों की जरूरत होगी, तो मैं तुम्हें कुछ पैसे दे सकता हूँ। अगर तुम्हें मेरी मदद चाहिए, तो मैं अपनी क्षमताओं के दायरे में रहकर तुम्हारी मदद कर सकता हूँ। आखिर तुम मेरे बच्चे हो, तो और कुछ कहने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर तुम कहते हो कि तुम्हें मेरी मदद या मेरे पैसों की जरूरत नहीं है, और बस इतना चाहते हो कि मैं तुम्हारी बात सुनूँ, तो यह और भी आसान है।” तब तुम अपनी बात कह चुके होगे, और वे भी अपनी बात कह चुके होंगे; उनकी सारी शिकायतें मन से निकल चुकी होंगी, उनका सारा गुस्सा बाहर आ चुका होगा। वे अपने आँसू पोंछेंगे, जाकर वही करेंगे जो उन्हें करना चाहिए, और तुम माँ-बाप के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लोगे। यह सब स्नेह की खातिर किया जाता है; इसे स्नेह कहते हैं। और ऐसा क्यों है? क्योंकि, माँ-बाप होने के नाते, अपने बच्चों के प्रति तुम्हारे कोई दुर्भावनापूर्ण इरादे नहीं हैं। तुम उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाओगे, उनके खिलाफ साजिश नहीं रचोगे, या उनका मजाक नहीं उड़ाओगे, और न ही उनके कमजोर और अक्षम होने के लिए तुम उनकी खिल्ली उड़ाओगे। तुम्हारे बच्चे बिना किसी रोक-टोक के तुम्हारे सामने रो सकते हैं, गुस्सा निकाल सकते हैं और शिकायत कर सकते हैं, मानो कि वे छोटे बच्चे हों; वे बिगड़ैल, रुष्ट या मनमाने हो सकते हैं। लेकिन, जब वे भावनाओं की भड़ास निकाल चुके होते हैं और वे रुष्ट होना और मनमानी करना बंद कर देते हैं, तब उन्हें वह करना ही होगा जो उन्हें करना चाहिए, और जो कुछ भी उनके सामने है उसे संभालना होगा। अगर वे तुम्हारे कुछ भी किए बिना या तुम्हारी मदद के बिना ही ऐसा कर सकते हैं, तो यह काफी अच्छा है, और तब तुम्हारे पास थोड़ा और खाली समय होगा, है न? और क्योंकि तुम्हारे बच्चों ने ये बातें कह दी हैं, तो तुममें थोड़ी आत्म-जागरूकता होनी चाहिए। तुम्हारे बच्चे बड़े हो गए हैं, वे स्वतंत्र हैं। वे बस उस मसले के बारे में तुमसे बात करना चाहते थे, उन्होंने तुमसे कोई मदद नहीं माँगी थी। अगर तुममें समझ नहीं है, तो तुम सोच सकते हो : “यह एक महत्वपूर्ण मसला है। तुम्हारा मुझे इसके बारे में बताना यह दर्शाता है कि तुम मेरा सम्मान करते हो, तो क्या मुझे तुम्हें इसके बारे में कुछ सलाह नहीं देनी चाहिए? क्या मुझे फैसला लेने में तुम्हारी मदद नहीं करनी चाहिए?” इसे कहते हैं अपनी क्षमताओं को जरूरत से ज्यादा आंकना। तुम्हारे बच्चे बस उस मसले के बारे में तुमसे बात कर रहे थे, पर तुम तो खुद को ही एक महत्वपूर्ण व्यक्ति मानकर बैठ गए। यह उचित नहीं है। तुम्हारे बच्चों ने तुम्हें उस मसले के बारे में बताया क्योंकि तुम उनके माँ-बाप हो, और वे तुम्हारा सम्मान और तुम पर भरोसा करते हैं। वास्तव में, कुछ समय से इसके बारे में उनके अपने विचार रहे हैं, पर अब तुम इसमें अपनी टांग अड़ाना चाहते हो। यह उचित नहीं है। तुम्हारे बच्चे तुम पर भरोसा करते हैं, और तुम्हें उस भरोसे के लायक होना चाहिए। तुम्हें उनके फैसले का सम्मान करना चाहिए और उनके मसले में शामिल नहीं होना चाहिए या उसमें अपनी टांग नहीं अड़ानी चाहिए। अगर वे चाहते हैं कि तुम इसमें शामिल हो, तो तुम ऐसा कर सकते हो। और मान लो कि शामिल होने के बाद तुम्हें एहसास होता है : “अरे, यह तो बड़ी मुसीबत का काम है! इसका असर मेरे कर्तव्य निर्वहन पर पड़ेगा। मैं वाकई इसमें शामिल नहीं हो सकता; परमेश्वर का विश्वासी होने के नाते, मैं ये चीजें नहीं कर सकता।” फिर तुम्हें जल्दी ही इस मसले से अलग हो जाना चाहिए। मान लो कि वे अभी भी चाहते हैं कि तुम इस मामले में हाथ डालो, और तुम सोचते हो : “मैं हाथ नहीं डालूँगा। तुम्हें इससे खुद निपटना चाहिए। यह मेरा बड़प्पन था जो मैंने तुम्हारी यह शिकायत और पूरी बकवास सुनी। मैंने माँ-बाप वाली अपनी जिम्मेदारियाँ पहले ही पूरी कर ली हैं। मैं इस मामले में बिल्कुल भी हाथ नहीं डाल सकता। वह अग्निकुंड है, और मैं उसमें कूदने वाला नहीं हूँ। अगर तुम चाहो, तो जाकर खुद उसमें कूद सकते हो।” क्या यह उचित नहीं है? इसे एक रुख अपनाना कहते हैं। तुम्हें सिद्धांतों या अपने रुख को कभी नहीं त्यागना चाहिए। ये वे चीजें हैं जो माँ-बाप को करनी चाहिए। समझ आया तुम्हें? क्या इन चीजों को पूरा करना आसान है? (हाँ।) वास्तव में, उन्हें पूरा करना आसान है, लेकिन अगर तुम हमेशा अपनी भावनाओं के अनुसार कार्य करते हो, और हमेशा अपनी भावनाओं में उलझे रहते हो, तो तुम्हारे लिए उन चीजों को पूरा करना बहुत मुश्किल होगा। तुम्हें लगेगा कि ऐसा करना बहुत हृदय विदारक है, तुम इस मसले को नजरंदाज नहीं कर सकते, और न ही यह बोझ उठा सकते हो, न आगे जा सकते हो न पीछे। इसे और क्या कह सकते हैं? “फँस जाना।” तुम वहीं फँस जाओगे। तुम परमेश्वर के वचन सुनना और सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, पर अपनी भावनाओं को नहीं त्याग सकते; तुम अपने बच्चों से बहुत प्यार करते हो, पर सोचते हो कि ऐसा करना सही नहीं है, यह परमेश्वर की शिक्षाओं और उसके वचनों के विरुद्ध है—तो तुम मुसीबत में हो। तुम्हें फैसला करना होगा। तुम या तो अपने बच्चों से की गई अपेक्षाओं को त्याग सकते हो और अब अपने बच्चों को संभालने की कोशिश करना बंद कर सकते हो, उन्हें आजाद पंछी की तरह उड़ने दे सकते हो, क्योंकि वे अब स्वतंत्र बालिग इंसान हैं, या फिर तुम उनके पीछे चल सकते हो। तुम्हें दोनों में से एक विकल्प चुनना होगा। अगर तुम परमेश्वर के मार्ग पर चलकर उसके वचन सुनना चुनते हो, और अपने बच्चों के प्रति अपनी चिंताओं और भावनाओं को त्याग देते हो, तो तुम्हें वही करना चाहिए जो एक माँ-बाप को करना चाहिए; तुम्हें अपने रुख और अपने सिद्धांतों के प्रति दृढ़ रहना चाहिए, और उन चीजों को करने से बचना चाहिए जो परमेश्वर को घृणित और घिनौने लगते हैं। क्या तुम ऐसा कर सकते हो? (बिल्कुल।) वास्तव में, ये चीजें करना आसान है। जैसे ही तुम अपने भीतर मौजूद स्नेह के अंश को त्याग दोगे, तुम इन चीजों को हासिल कर सकते हो। सबसे सरल तरीका यह है कि तुम अपने बच्चों के जीवन में शामिल मत हो और उन्हें जो मन करता है वो सब करने दो। अगर वे तुमसे अपनी कठिनाइयों के बारे में बात करना चाहते हैं, तो उनकी बात सुनो। तुम्हारे लिए बस यह जानना पर्याप्त है कि चीजें कैसी चल रही हैं। उनकी बात खत्म होने के बाद, उनसे कहो : “मैं सुन रहा हूँ। क्या तुम मुझसे कुछ और भी कहना चाहते हो? अगर तुम कुछ खाना चाहते हो, तो मैं तुम्हें बनाकर खिला दूँगा। अगर तुम ऐसा नहीं चाहते, तो घर जा सकते हो। अगर तुम्हें पैसे चाहिए, तो मैं तुम्हें कुछ दे सकता हूँ। अगर तुम्हें मदद चाहिए, तो मुझसे जो बन पड़ेगा मैं वो करूँगा। अगर मैं तुम्हारी मदद न कर पाऊँ, तो तुम्हें खुद ही समाधान ढूँढना होगा।” अगर वे इस बात पर अड़े रहें कि तुम उनकी मदद करो, तो तुम कह सकते हो : “हमने तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पहले ही पूरी कर दी हैं। हमारे पास बस यही क्षमताएँ हैं, तुम देख सकते हो कि हम तुम्हारे जितने कुशल नहीं हैं। अगर तुम संसार में सफलता पाना चाहते हो, तो यह तुम्हारा अपना मामला है, हमें इसमें शामिल करने की कोशिश मत करो। हम पहले ही काफी बूढ़े हो चुके हैं, और वह समय हमारे लिए बीत चुका है। माँ-बाप होने के नाते हमारी जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हें बड़ा करके बालिग बनाना था। जहाँ तक यह बात है कि तुम कौन-सा मार्ग अपनाते हो, खुद को कैसे कष्ट देते हो, तो हमें उन मामलों में शामिल मत करो। हम तुम्हारे साथ खुद को कष्ट नहीं देंगे। हम तुम्हारे संबंध में अपना मकसद पहले ही पूरा कर चुके हैं। हमारे अपने मसले हैं, अपने जीने के तरीके हैं और अपने मकसद हैं। हमारा मकसद तुम्हारे लिए चीजें करना नहीं है, और अपने मकसद पूरे करने के लिए हमें तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है। हम अपने मकसद खुद ही पूरे करेंगे। हमसे अपने दैनिक जीवन या अपने अस्तित्व में शामिल होने के लिए मत कहो। उनका हमसे कोई लेना-देना नहीं है।” अपनी बात स्पष्ट रूप से सामने रखो, और मसला वहीं खत्म हो जाएगा; फिर तुम जरूरत के मुतबिक उनसे संपर्क कर सकते हो, बात कर सकते हो और मिल-जुल सकते हो। यह इतना सरल है! इस तरह से पेश आने के क्या फायदे हैं? (यह जीवन को बहुत सरल बना देता है।) कम से कम, तुमने देह से जुड़े, पारिवारिक प्रेम के मसले को उचित और सही तरीके से संभाल लिया होगा। तुम्हारा मानसिक और आध्यात्मिक संसार सहज हो जाएगा, तुम कोई निरर्थक त्याग नहीं करोगे, या कोई अतिरिक्त कीमत नहीं चुकाओगे; तुम परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के बीच समर्पण करोगे, और उसे ये सभी चीजें संभालने दोगे। तुम उन सभी जिम्मेदारियों को पूरा कर रहे होगे जो लोगों को पूरा करना चाहिए, और तुम ऐसा कोई भी काम नहीं करोगे जो लोगों को नहीं करना चाहिए। तुम उन चीजों में शामिल होने के लिए हाथ नहीं बढ़ाओगे जो लोगों को नहीं करनी चाहिए, और तुम उसी तरह जियोगे जैसे परमेश्वर तुमसे जीने को कहता है। जिस तरह परमेश्वर लोगों को जीने के लिए कहता है वह सबसे अच्छा मार्ग है, यह उन्हें बहुत आरामदायक, खुशहाल, आनंदमय और शांतिपूर्ण जीवन जीने में सक्षम बना सकता है। लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस तरह जीने से न सिर्फ तुम्हारे पास अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से करने और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण दिखाने के लिए ज्यादा खाली समय और ऊर्जा बचेगी, बल्कि तुम्हारे पास सत्य खोजने के लिए भी अधिक ऊर्जा और समय होगा। इसके विपरीत, अगर तुम्हारी ऊर्जा और समय तुम्हारी भावनाओं, तुम्हारे शरीर, तुम्हारे बच्चों और तुम्हारे परिवार के प्रति तुम्हारे प्यार में लगा रहता है, तो तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने के लिए कोई अतिरिक्त ऊर्जा नहीं होगी। क्या यह सच नहीं है? (सच है।)

जब लोग संसार में करियर बनाते हैं, तो सिर्फ सांसारिक प्रवृत्तियों, प्रतिष्ठा और लाभ, और शारीरिक आनंद जैसी चीजों के बारे में सोचते हैं। इसका निहितार्थ क्या है? इसका मतलब यह है कि तुम्हारी ऊर्जा, समय और युवावस्था, सभी इन चीजों में व्याप्त और इस्तेमाल हो जाती हैं। क्या वे सार्थक हैं? आखिर में तुम्हें उनसे क्या हासिल होगा? भले ही तुम्हें प्रतिष्ठा और लाभ मिल जाए, फिर भी यह खोखला ही रहेगा। अगर तुमने अपनी जीवनशैली बदल ली, तब क्या होगा? अगर तुम्हारा समय, ऊर्जा और दिमाग सिर्फ सत्य और सिद्धांतों पर केंद्रित रहता है, और अगर तुम सिर्फ सकारात्मक चीजों के बारे में सोचते हो, जैसे कि अपना कर्तव्य अच्छे से कैसे निभाएँ और परमेश्वर के समक्ष कैसे आएँ, और अगर तुम इन सकारात्मक चीजों पर अपनी ऊर्जा और समय खर्च करते हो, फिर तुम्हें अलग परिणाम हासिल होगा। तुम्हें जो हासिल होगा वह सबसे मूलभूत लाभ होगा। तुम्हें पता चल जाएगा कि कैसे जीना है, कैसा आचरण करना है, हर तरह के व्यक्ति, घटना और चीज का सामना कैसे करना है। एक बार जब तुम जान जाओगे कि हर प्रकार के व्यक्ति, घटना और चीज का सामना कैसे करना है, तो यह काफी हद तक तुम्हें स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम बनाएगा। जब तुम स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में सक्षम हो जाओगे, तो तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम उस प्रकार के व्यक्ति बन जाओगे जिसे परमेश्वर स्वीकार और प्यार करता है। इस बारे में सोचो, क्या यह अच्छी बात नहीं है? शायद तुम अभी तक यह नहीं जानते, मगर अपना जीवन जीने, और परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों को स्वीकारने की प्रक्रिया में, तुम अनजाने में ही परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना, लोगों और चीजों को देखना, आचरण करना और कार्य करना सीख जाओगे। इसका मतलब यह है कि तुम अनजाने में ही परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करोगे, उसकी अपेक्षाओं के प्रति समर्पित होगे और उन्हें संतुष्ट करोगे। तब तुम उस तरह के व्यक्ति बन चुके होगे जिसे परमेश्वर स्वीकारता है, जिस पर वह भरोसा करता है और जिससे प्यार करता है, और तुम्हें इसकी भनक भी नहीं लगेगी। क्या यह बढ़िया नहीं है? (बिल्कुल है।) इसलिए, अगर तुम सत्य का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए अपनी ऊर्जा और समय खर्च करते हो, तो अंत में तुम्हें जो हासिल होगा वे सबसे मूल्यवान चीजें होंगी। इसके विपरीत, अगर तुम हमेशा अपनी भावनाओं, शरीर, अपने बच्चों, अपने कामकाज, प्रतिष्ठा और लाभ के लिए जीते हो, अगर तुम हमेशा इन चीजों में उलझे रहते हो, तब अंत में तुम्हें क्या हासिल होगा? बस एक शून्य। तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा, और तुम परमेश्वर से दूर बहुत दूर भटक जाओगे, और आखिर में परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से ठुकरा दिए जाओगे। तब, तुम्हारा जीवन समाप्त हो जाएगा, और तुम उद्धार पाने का मौका गँवा दोगे। इसलिए, माँ-बाप को अपने बालिग बच्चों के संबंध में अपनी सभी भावनात्मक चिंताओं, लगावों और जुड़ावों को त्याग देना चाहिए, भले ही उनकी उनसे कुछ भी अपेक्षाएँ हों। उन्हें माँ-बाप के दर्जे या पद से भावनात्मक स्तर पर अपने बच्चों से कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम ऐसा कर सकते हो, तो यह बहुत बढ़िया है! कम से कम, तुमने अपनी अभिभावकीय जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली होंगी, और तुम परमेश्वर की नजर में एक उपयुक्त व्यक्ति होगे—जो कि एक माँ या बाप भी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम इसे किस मानवीय परिप्रेक्ष्य से देखते हो, लोगों को क्या करना चाहिए और उन्हें कौन-सा परिप्रेक्ष्य और रुख अपनाना चाहिए, इसके लिए सिद्धांत हैं, और इन चीजों के संबंध में परमेश्वर के अपने मानक हैं, है न? (बिल्कुल।) आओ अब माँ-बाप की अपने बच्चों से जो अपेक्षाएँ होती हैं और बच्चों के बालिग होने पर उन्हें किन सिद्धांतों पर अमल करना चाहिए, इस विषय पर अपनी संगति यहीं खत्म करते हैं। अलविदा!

21 मई 2023

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