सत्य का अनुसरण कैसे करें (17)

अपनी पिछली सभा में हमने उन बोझों को जाने देने पर संगति की थी जो व्यक्ति के परिवार से आते हैं। इसमें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने देने के विषय पर गौर किया गया था। ये अपेक्षाएँ प्रत्येक व्यक्ति पर एक प्रकार का अदृश्य दबाव डालती हैं, है कि नहीं? (हाँ।) ये ऐसे बोझ हैं जो अपने परिवार से आते हैं। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने देने का अर्थ यह है कि तुम अपने जीवन, अस्तित्व और अपने चलने के पथ से वे दबाव और बोझ त्याग दो जो तुम्हारे माँ-बाप डालते हैं। यानी जब तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ जीवन में तुम्हारे चुने हुए पथ, कर्तव्य निर्वहन, सही मार्ग पर यात्रा, और तुम्हारी स्वतंत्रता, अधिकारों और सूझ-बूझ को प्रभावित करने लगें तो उनकी अपेक्षाएँ तुम्हारे ऊपर एक प्रकार का दबाव और बोझ डालने लगती हैं। ये ऐसे बोझ हैं जो लोगों को अपने जीवन, अस्तित्व और परमेश्वर में आस्था के दौरान उतार फेंकने चाहिए। क्या यह वही विषयवस्तु नहीं है जिस पर हम पहले संगति कर चुके हैं? (वही है।) किसी व्यक्ति के माता-पिता की अपेक्षाएँ स्वाभाविक रूप से बहुत-सी चीजों को लेकर होती हैं, जैसे कि पढ़ाई, कामकाज, शादी, परिवार, और उसका करियर, संभावनाएँ, भविष्य, वगैरह भी। माता-पिता के नजरिये से देखें तो वे अपने बच्चे से जो भी अपेक्षा रखते हैं, वह तार्किक, न्यायसंगत और वाजिब होती है। कोई माँ-बाप ऐसा नहीं होगा जो अपने बच्चे के लिए अपेक्षाएँ न रखता हो। उनकी अपेक्षाएँ कम या ज्यादा हो सकती हैं, छोटी या बड़ी हो सकती हैं, या किसी खास वक्त पर वे अपने बच्चे से कुछ अलग अपेक्षाएँ रख सकते हैं। वे आशा करते हैं कि उनके बच्चे को अच्छे नंबर मिलेंगे, उसकी नौकरी अच्छी चलेगी, उसकी आमदनी अच्छी होगी, और शादी की बात चलने पर उसके लिए सब-कुछ आसान और खुशहाल होगा। माता-पिता की अपने बच्चे के परिवार, करियर, संभावनाओं, वगैरह को लेकर भी कुछ अलग अपेक्षाएँ होती हैं। माता-पिता के नजरिये से ये तमाम अपेक्षाएँ बहुत न्यायसंगत हैं, लेकिन बच्चे के नजरिये से ये तमाम अपेक्षाएँ सही विकल्प चुनने में काफी हद तक बाधा डालती हैं, और एक सामान्य व्यक्ति के रूप में उनकी आजादी, अधिकारों और हितों में भी दखल देती हैं। साथ ही, ये अपेक्षाएँ उनकी काबिलियत के सामान्य इस्तेमाल में भी दखल देती हैं। कुल मिला कर हम इसे चाहे जिस नजरिये से देखें, चाहे यह माता-पिता का नजरिया हो या उनके बच्चे का, अगर माता-पिता की अपेक्षाएँ सामान्य मानवता वाले व्यक्ति की बर्दाश्त के बाहर हो जाएँ, अगर वे सामान्य मानवता वाले व्यक्ति के सहजज्ञान से हासिल होने वाली चीजों के दायरे से बाहर निकल जाएँ, या वे उन मानव अधिकारों के पार हो जाएँ जो सामान्य मानवता वाले व्यक्ति के पास होने चाहिए, या परमेश्वर द्वारा लोगों को दिए गए कर्तव्यों और दायित्वों को पार कर जाएँ, आदि-आदि, तो ये अपेक्षाएँ अनुचित और अविवेकपूर्ण हैं। बेशक, यह भी कहा जा सकता है कि माता-पिता को ये अपेक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए और ये अपेक्षाएँ होनी ही नहीं चाहिए। इस आधार पर, बच्चों को माता-पिता की इन अपेक्षाओं को त्याग देना चाहिए। यानी, माता-पिता जब माता-पिता का नजरिया या दर्जा अपना लेते हैं, तो उन्हें लगता है कि उन्हें यह अपेक्षा रखने का हक है कि उनका बच्चा फलाँ-फलाँ चीजें करे, एक खास रास्ते पर चले, कोई खास तरह का जीवन, सीखने का माहौल, या नौकरी, शादी, परिवार, वगैरह चुने। लेकिन, सामान्य इंसानों के तौर पर, माता-पिता को माता-पिता का नजरिया या दर्जा नहीं अपनाना चाहिए, उन्हें अपने बच्चों से संतानोचित दायित्वों या इंसानी काबिलियत के दायरे से बाहर की चीजें करने की अपेक्षा रखने के लिए माता-पिता के रूप में अपनी पहचान का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। उन्हें अपने बच्चे के विविध चीजें चुनने में भी दखल नहीं देना चाहिए, और अपनी अपेक्षाएँ, अपनी पसंद-नापसंद, अपनी कमियाँ और असंतोष या अपनी कोई भी रुचि उन पर थोपनी नहीं चाहिए। ये ऐसी चीजें हैं जो माता-पिता को नहीं करनी चाहिए। जब माता-पिता ऐसी अपेक्षाएँ रखते हैं जो उन्हें नहीं रखनी चाहिए, तो उनके बच्चे को इन अपेक्षाओं से जरूर उचित ढंग से पेश आना चाहिए। इससे भी ज्यादा अहम यह है कि बच्चे को इन अपेक्षाओं की प्रकृति समझने में समर्थ होना चाहिए। अगर तुम स्पष्ट देख सकते हो कि तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ तुम्हें अपने मानव अधिकारों से वंचित कर रही हैं और ये सकारात्मक चीजें और सही मार्ग चुनने में तुम्हारे लिए एक तरह की रुकावट या बाधा डाल रही हैं, तो तुम्हें इन अपेक्षाओं की अनदेखी कर इन्हें त्याग देना चाहिए। तुम्हें यह इसलिए करना चाहिए क्योंकि यह तुम्हारा हक है, यह वह हक है जो परमेश्वर ने प्रत्येक सृजित इंसान को दिया है, और तुम्हारे माता-पिता को यह नहीं सोचना चाहिए कि वे तुम्हारे जीवन पथ और मानव अधिकारों में दखल देने के हकदार सिर्फ इसलिए बन गए हैं कि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया है और वे तुम्हारे माता-पिता हैं। इसलिए प्रत्येक सृजित प्राणी को माता-पिता की किसी भी अनुचित, अनुपयुक्त या अविवेकपूर्ण अपेक्षा को “ना” कहने का हक है। तुम अपने माता-पिता की किसी भी अपेक्षा का बोझ उठाने से साफ मना कर सकते हो। अपने माता-पिता की किसी भी अपेक्षा को स्वीकारने या उसका बोझ उठाने से मना करना ही उनकी अनुचित अपेक्षाएँ त्यागने के अभ्यास का तरीका है।

जब माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने देने की बात हो तो लोगों को कौन-से सत्य समझने चाहिए? यानी क्या तुम जानते हो कि माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागना कौन-से सत्यों पर आधारित है, या इसमें कौन-से सत्य सिद्धांतों का पालन होता है। अगर तुम मानते हो कि तुम्हारे माता-पिता दुनिया में तुम्हारे सबसे नजदीकी लोग हैं, वे तुम्हारे सर्वेसर्वा और तुम्हारे अगुआ हैं, उन्होंने ही तुम्हें जन्म दिया और पाल-पोसा है, तुम्हें खाना, कपड़े, घर और आने-जाने का साधन दिया है और तुम्हें बड़ा किया है, वही तुम्हारे हितैषी हैं, तो क्या तुम्हारे लिए उनकी अपेक्षाओं को त्यागना आसान होगा? (नहीं।) अगर तुम इन चीजों पर यकीन करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं से एक दैहिक नजरिये से पेश आओगे, और तुम्हारे लिए उनकी किसी भी अनुपयुक्त और अविवेकपूर्ण अपेक्षा को त्यागना मुश्किल होगा। तुम उनकी अपेक्षाओं से बँध और दब जाओगे। भले ही तुम मन-ही-मन असंतुष्ट और अनिच्छुक रहो, फिर भी तुम्हारे पास इन अपेक्षाओं से मुक्त होने की ताकत नहीं होगी, और तुम्हारे पास उन्हें स्वाभाविक रूप से होने देने के सिवाय कोई विकल्प नहीं रह जाएगा। तुम्हें उन्हें स्वाभाविक रूप से क्यों होने देना पड़ेगा? क्योंकि अगर तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागना पड़े और उनकी किसी भी अपेक्षा को नजरअंदाज करना या ठुकराना पड़े, तो तुम्हें लगेगा कि तुम संतानोचित बच्चे नहीं हो, तुम कृतघ्न हो, तुम अपने माता-पिता को निराश कर रहे हो और तुम नेक इंसान नहीं हो। अगर तुम दैहिक नजरिया अपनाओगे, तो अपने माता-पिता का कर्ज चुकाने और यह सुनिश्चित करने कि माता-पिता द्वारा तुम्हारी खातिर उठाई गई तकलीफें व्यर्थ नहीं हुईं, तुम अपने जमीर का इस्तेमाल करने की भरसक कोशिश करोगे और उनकी अपेक्षाएँ साकार भी करना चाहोगे। तुम उनका कहा हर काम पूरा करने, उन्हें निराश न करने और उनके साथ सही व्यवहार करने की पुरजोर कोशिश करोगे, और तुम यह फैसला लोगे कि बुढ़ापे में उनकी देखभाल करोगे, यह सुनिश्चित करोगे कि उनके आखिरी साल राजी-खुशी से गुजरें, और तुम थोड़ा और आगे की बातें ध्यान में रखकर उनकी अंत्येष्टि का काम संभालने और उन्हें संतुष्ट करने के साथ ही संतानोचित बच्चा होने की अपनी आकांक्षा पूरी करने के बारे में सोचोगे। इस संसार में जीते वक्त लोग तरह-तरह के जनमत, सामाजिक परिवेश के साथ ही समाज में लोकप्रिय अलग-अलग सोच और विचारों से प्रभावित होते हैं। अगर लोग सत्य को नहीं समझते, तो वे इन चीजों को सिर्फ दैहिक भावनाओं के दृष्टिकोण से देख और सँभाल सकते हैं। इस दौरान तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे माता-पिता ऐसी बहुत-सी चीजें करते हैं जो किसी माता या पिता को नहीं करनी चाहिए और इस हद तक करते हैं कि तुम्हें अपने दिल की गहराई में अपने माता-पिता के कुछ क्रियाकलापों, व्यवहार के साथ ही उनकी मानवता, चरित्र और काम करने के तौर-तरीकों के प्रति अवहेलना और विरक्ति भी महसूस होगी, फिर भी तुम उन्हें सम्मान देने और संतुष्ट करने के लिए संतानोचित बच्चे बने रहना चाहोगे, और किसी भी तरह से उनकी अनदेखी करने की हिम्मत नहीं करोगे। तुम एक ओर समाज के लांछन से बचने के लिए तो दूसरी ओर अपने जमीर की जरूरतें पूरी करने के लिए ऐसा करोगे। तुम्हारे भीतर यह सोच मानवजाति और समाज ने बिठा दी थी, इसलिए तुम्हारे लिए अपने माता-पिता की अपेक्षाओं और उनके साथ अपने रिश्ते को तार्किक ढंग से सँभालना बहुत मुश्किल होगा। तुम उनसे एक संतानोचित बच्चे के तौर पर पेश आने, अपने माता-पिता के किसी भी क्रियाकलाप का विरोध न करने के लिए मजबूर हो जाओगे; तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं होगा, तुम सिर्फ यही कर पाओगे, और इस तरह तुम्हारे लिए अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्याग देना और भी कठिन हो जाएगा। अगर तुम अपने दिल में सचमुच उन्हें त्याग देते हो, तो भी तुम्हें एक और बोझ या दबाव सहना होगा, जो कि अपने परिवार, पूरे कुनबे और समाज से भर्त्सना पाना है। तुम्हें अपने दिल की गहराई से उठने वाली ऐसी भर्त्सना, निंदा, श्राप और घृणा भी बर्दाश्त करनी होगी जिनमें कहा जाता है कि तुम फालतू हो, संतानोचित बच्चे नहीं हो, कृतघ्न हो, या ऐसी बातें भी जो सांसारिक समाज में लोग कहते हैं, जैसे कि, “तुम एहसान-फरामोश हो, अवज्ञाकारी हो, तुम्हारी माँ ने तुम्हें सही ढंग से बड़ा नहीं किया”—दूसरे शब्दों में, तमाम अप्रिय बातें सुननी पड़ेंगी। अगर तुम सत्य को नहीं समझते, तो ऐसी दुविधा में फँस जाओगे। यानी, जब तुम अपने दिल की गहराई में अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को तार्किक ढंग से त्याग देते हो, या जब तुम उन्हें अनिच्छा से त्याग देते हो, तो तुम्हारे दिल में एक और किस्म का बोझ या दबाव पैदा हो जाएगा; यह दबाव समाज से और तुम्हारे जमीर के प्रभाव से आता है। तो तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को कैसे त्याग सकते हो? इस समस्या को सुलझाने का एक रास्ता है। यह मुश्किल नहीं है—लोगों को सत्य के लिए मेहनत करने और सत्य खोजने और समझने के लिए परमेश्वर के समक्ष आने की जरूरत है, तब समस्या सुलझ जाएगी। तो अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने देते समय तुम्हें सत्य का कौन-सा पहलू समझने की जरूरत है ताकि तुम जनमत की भर्त्सना या अपने दिल की गहराई में अपने जमीर की निंदा, या अपने माता-पिता के मुँह से निंदा और गालियाँ सुनने का बोझ उठाने से न डरो? (यह कि हम परमेश्वर के समक्ष सिर्फ सृजित प्राणी हैं। इस संसार में, हमें सिर्फ अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभानी चाहिए, इससे भी अहम हमें अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा कर अपने दायित्व पूरे करने चाहिए। अगर हम यह बात समझ सकें, तो भविष्य में अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने देते समय शायद हम न तो अपने माता-पिता से बहुत ज्यादा प्रभावित होंगे, न ही जनमत की निंदा से।) इस बारे में और कौन बोलेगा? (पिछली बार, परमेश्वर ने इस बारे में संगति की थी कि जब हम अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ देते हैं, तो यह किस तरह से एक संदर्भ में वस्तुपरक हालात के कारण होता है—हमें अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने माता-पिता को छोड़ना पड़ता है, इसलिए हम उनकी देखभाल नहीं कर सकते—ऐसा नहीं है कि हम अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेने के कारण उन्हें छोड़ रहे हैं। एक और संदर्भ में, हम अपने घर इसलिए छोड़ देते हैं क्योंकि परमेश्वर ने हमें अपने कर्तव्य निभाने के लिए बुलाया है, लिहाजा हम अपने माता-पिता के साथ नहीं रह सकते, फिर भी हम उनकी फिक्र करते हैं—यह इस बात से अलग है कि हम उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते और हम संतानोचित नहीं हैं।) ये दो कारण ऐसे सत्य और तथ्य हैं, जो लोगों को समझने चाहिए। अगर लोग ये चीजें समझ लेते हैं, तो अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्यागते समय, वे अपने दिल की गहराई में थोड़ी शांति और सुकून महसूस करेंगे, लेकिन क्या इससे समस्या जड़ से खत्म हो सकेगी? अगर भारी-भरकम बाहरी हालात का असर न होता, तो क्या तुम्हारे भाग्य को तुम्हारे माता-पिता के भाग्य से जोड़ा जाता? अगर तुम परमेश्वर में विश्वास न रखते और सामान्य ढंग से काम करके अपने दिन गुजारते, तो क्या तुम यकीनन अपने माता-पिता के साथ रह रहे होते? क्या तुम यकीनन एक संतानोचित बच्चे रह पाए होते? क्या तुम यकीनन उनके करीब रहकर उनकी दयालुता का कर्ज चुका पाए होते? (ऐसा जरूरी नहीं है।) क्या ऐसा कोई व्यक्ति है जो अपनी पूरी जिंदगी सिर्फ अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए कार्य करता है? (नहीं।) ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है। इसलिए, तुम्हें यह बात जान लेनी चाहिए और एक दूसरे नजरिये से इसके सार की असलियत जाननी चाहिए। यह वह गहरा सत्य है जो तुम्हें इस मामले में समझ लेना चाहिए। यह तथ्य भी है, और उससे भी बढ़ कर यह इन चीजों का सार है। वे कौन-से सत्य हैं, जो तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने देने के तहत समझने चाहिए? एक संदर्भ में, तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं; दूसरे संदर्भ में, तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं। क्या यह सत्य नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुम ये दो सत्य समझ लेते हो, तो क्या तुम्हारे लिए अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को त्याग देना ज्यादा आसान नहीं हो जाएगा? (जरूर हो जाएगा।)

सबसे पहले हम सत्य के इस पहलू के बारे में चर्चा करेंगे : “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं।” तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—इसका अर्थ क्या है? क्या इसका संदर्भ उस दयालुता से नहीं है जो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे प्रति दिखाई? (हाँ।) तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करके तुम पर दया दिखाई, इसलिए उनसे अपना रिश्ता त्याग देना तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल है। तुम सोचते हो कि तुम्हें उनका कर्ज चुकाना ही है, वरना तुम संतानोचित बच्चे नहीं रहोगे; तुम मानते हो कि तुम्हें उनके प्रति संतानोचित निष्ठा दिखानी चाहिए, तुम्हें उनकी हर बात माननी चाहिए, तुम्हें उनकी हर कामना और माँग पूरी करनी चाहिए, और यही नहीं, तुम्हें उन्हें निराश नहीं करना चाहिए—तुम मानते हो कि यही उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना है। बेशक, कुछ लोगों के पास अच्छी नौकरियाँ होती हैं, वे अच्छा वेतन पाते हैं, और अपने माता-पिता को थोड़े भौतिक सुख और बढ़िया सांसारिक जीवन देते हैं, अपने माता-पिता को अपनी छत्रछाया में आराम करने देते हैं और उन्हें बेहतर जीवन जीने योग्य बनाते हैं। मिसाल के तौर पर, मान लो कि तुम अपने माता-पिता के लिए घर और कार खरीदते हो, उन्हें हर तरह का लजीज खाना खिलाने के लिए भव्य रेस्तरांओं में ले जाते हो, उन्हें पर्यटक स्थलों की सैर पर ले जाते हो, और आलीशान होटलों में ठहराते हो, ताकि वे खुश रहें और इन चीजों का मजा लें। तुम ये तमाम चीजें अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए करते हो, उन्हें यह महसूस कराने के लिए करते हो कि तुम्हें प्यार करने और पाल-पोस कर बड़ा करने के लिए उन्हें कुछ तो प्रतिफल मिला है, और तुमने उन्हें निराश नहीं किया है। एक लिहाज से तुम ऐसा अपने माता-पिता को दिखाने के लिए करते हो तो दूसरे लिहाज से तुम अपने आसपास के लोगों और समाज को दिखाने के लिए ऐसा करते हो, और साथ ही अपने जमीर की जरूरतें पूरी करने की भरसक कोशिश करते हो। तुम इसे चाहे जिस भी दृष्टि से देखो, चाहे तुम जिस भी चीज को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहे हो, किसी भी स्थिति में ये तमाम कार्य काफी हद तक अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए हैं, और इन कार्यों का सार उस दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए है जो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके दिखाई। तो तुम्हारे मन में अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने का विचार क्यों आया है? इस वजह से कि तुम मानते हो कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया और उनके लिए तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना आसान नहीं था; इस प्रकार तुम्हारे माता-पिता अनजाने में ही तुम्हारे लेनदार बन जाते हैं। तुम सोचते हो कि तुम अपने माता-पिता के ऋणी हो, और तुम्हें उनका कर्ज चुकाना ही चाहिए। तुम मानते हो कि उनका कर्ज उतारकर ही तुममें मानवता होगी, तुम सच में एक संतानोचित बच्चे होगे, और उनका कर्ज उतारना वह नैतिक मानक है जो एक व्यक्ति में होना चाहिए। तो सार रूप में, ये विचार, सोच और क्रियाकलाप तुम्हारे यह मानने के कारण पैदा होते हैं कि तुम अपने माता-पिता के ऋणी हो और तुम्हें उनका कर्ज चुकाना ही चाहिए; काफी हद तक तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार हैं, यानी तुम मानते हो कि उन्होंने तुम पर जो दयालुता दिखाई, उसका ऋण तुम पर है। अब चूँकि तुम उनका कर्ज उतारने और उनकी भरपाई करने की काबिलियत रखते हो, इसलिए तुम ऐसा करते हो—अपनी क्षमता के अनुसार तुम उनकी भरपाई करने के लिए पैसा और स्नेह लगाते हो। तो क्या ऐसा करना सच्ची मानवता का प्रदर्शन है? क्या यह अभ्यास का सच्चा सिद्धांत है? (नहीं है।) मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं? चूँकि यह सत्य है कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं,” इसलिए अगर तुम उन्हें अपना हितैषी और लेनदार मानते हो, और तुम जो भी करते हो वह उनकी दयालुता के लिए उनकी भरपाई करना है, तो क्या यह विचार और सोच सही है? (नहीं।) क्या यह “नहीं” बड़ी अनिच्छा से नहीं कहा गया? इनमें से कौन-सा कथन सही है : “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” या “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए”? (“तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” ही सत्य है।) चूँकि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” ही सत्य है, तो फिर क्या “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए” सत्य है? (नहीं।) क्या इस कथन से इसका टकराव नहीं है : “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं”? (जरूर है।) यह महत्वपूर्ण नहीं है कि इनमें से किस कथन से तुम्हारा जमीर निंदित महसूस करता है—तो फिर महत्वपूर्ण क्या है? महत्वपूर्ण यह है कि इनमें से कौन-सा कथन सत्य है। तुम्हें उसी कथन को स्वीकार करना चाहिए जो सत्य है, भले ही इससे तुम्हारा जमीर बेचैन और आरोपी महसूस करे, क्योंकि यही सत्य है। “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए,” भले ही यह कथन मानवता के इंसानी नैतिक मानक और मनुष्य के जमीर की जागरूकता के अनुरूप है, फिर भी यह सत्य नहीं है। भले ही इस कथन से तुम्हारे जमीर को संतुष्टि मिलती हो, आराम पहुँचता हो, फिर भी तुम्हें इसे त्याग देना चाहिए। सत्य को स्वीकार करने के मामले में तुम्हें यह रवैया अपनाना चाहिए। तो “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” या “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए”, इन दोनों में से कौन-सा कथन ज्यादा सहज लगता है, मानवता और तुम्हारे जमीर की भावना के समान और मनुष्यता के नैतिक मानकों के अनुरूप लगता है? (दूसरा कथन।) दूसरा कथन ही क्यों? क्योंकि यह मनुष्य की भावनात्मक जरूरतें पूरी कर उन्हें संतुष्ट करता है। लेकिन यह सत्य नहीं है, और परमेश्वर इससे घृणा करता है। तो क्या यह कथन “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” लोगों को असहज कर देता है? (बिल्कुल।) यह कथन सुनने के बाद, लोगों को क्या महसूस होता है, क्या आभास होता है? (कि इसमें जमीर की थोड़ी-सी कमी है।) उन्हें लगता है कि इसमें थोड़ी-सी मानवीय भावना नहीं हैं, है कि नहीं? (बिल्कुल।) कुछ लोग कहते हैं, “अगर किसी व्यक्ति में मानवीय भावनाएँ न हों, तो क्या वह मनुष्य है?”—अगर लोगों में मानवीय भावनाएँ न हों, तो क्या वे मनुष्य हैं? “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” कथन यूँ लगता है मानो इसमें मानवीय भावना न हो, लेकिन यह एक तथ्य है। अगर तुम अपने माता-पिता से अपने रिश्ते को तार्किक ढंग से देखोगे, तो पाओगे कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” कथन ने साफ तौर पर प्रत्येक व्यक्ति के अपने माता-पिता के साथ रिश्ते को स्पष्ट रूप से बिल्कुल मूल से समझाया है, और लोगों के आपसी रिश्तों के मूल और सार को स्पष्ट किया है। भले ही इससे तुम्हारा जमीर हिलता हो और तुम्हारी भावनात्मक जरूरतें पूरी न होती हों, फिर भी यह एक तथ्य है, एक सत्य है। यह सत्य तुम्हें इस योग्य बना सकता है कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करने में जो दयालुता दिखाई, उससे तुम तार्किक और सही ढंग से पेश आओ। यह तुम्हें इस योग्य भी बना सकता है कि तुम अपने माता-पिता की किसी भी अपेक्षा से तार्किक और सही ढंग से पेश आओ। स्वाभाविक रूप से, यह इस बात में और भी सक्षम है कि तुम्हें माता-पिता से अपने रिश्ते को तार्किक और सही नजरिये से देखने योग्य बनाए। अगर तुम अपने माता-पिता के साथ अपने रिश्ते को इस नजरिये से देख सको, तो तुम इसे तार्किक ढंग से संभाल सकोगे। कुछ लोग कहते हैं : “इन सत्यों को बहुत अच्छे ढंग से पेश किया गया है, और ये बड़े जोशीले लगते हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि इन्हें सुनकर लोगों को लगता है कि इन्हें हासिल करना थोड़ा असंभव है? खास तौर से ‘तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं’—ऐसा क्यों है कि इस सत्य को सुनने के बाद लोगों को लगता है कि माता-पिता के साथ उनके रिश्ते में दूरी और परायापन बढ़ गया है? उन्हें क्यों लगता है कि उनमें और उनके माता-पिता में कोई स्नेह नहीं है?” क्या सत्य जान-बूझ कर लोगों को एक-दूसरे से दूर करने की कोशिश कर रहा है? क्या सत्य जान-बूझ कर लोगों और उनके माता-पिता के बीच रिश्ते-नाते तोड़ने की कोशिश कर रहा है? (नहीं।) तो इस सत्य को समझने से कौन-से नतीजे पाए जा सकते हैं? (इस सत्य को समझने से हम इस योग्य बन सकते हैं कि अपने माता-पिता से अपने रिश्ते का असली रूप देख सकें—यह सत्य हमें इस मामले की सच्ची प्रकृति बताता है।) सही है, यह तुम्हें इस योग्य बनाता है कि इस मामले की सच्ची प्रकृति को देख सको, इन चीजों से तार्किक ढंग से पेश आकर संभाल सको, और अपने स्नेहबंधनों या आपसी दैहिक रिश्तों में जीते न रहो, सही है?

आओ, चर्चा करें कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” की व्याख्या कैसे की जाए। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—क्या यह तथ्य नहीं है? (जरूर है।) चूँकि यह एक तथ्य है, इसलिए हमारे लिए इसमें निहित मुद्दों को स्पष्ट समझना उचित है। आओ तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हें जन्म देने के मामले पर गौर करें। यह किसने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें : तुमने या तुम्हारे माता-पिता ने? किसने किसे चुना? अगर इस पर तुम परमेश्वर के दृष्टिकोण से गौर करो, तो जवाब है : तुममें से किसी ने भी नहीं। न तुमने और न ही तुम्हारे माता-पिता ने चुना कि वे तुम्हें जन्म दें। अगर तुम इस मामले की जड़ पर गौर करो, तो यह परमेश्वर द्वारा नियत था। इस विषय को फिलहाल हम अलग रख देंगे, क्योंकि लोगों के लिए यह मामला समझना आसान है। अपने नजरिये से, तुम निश्चेष्टा से, इस मामले में बिना किसी विकल्प के, अपने माता-पिता के यहाँ पैदा हुए। माता-पिता के नजरिये से, उन्होंने तुम्हें अपनी स्वतंत्र इच्छा से जन्म दिया, है ना? दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के विधान को अलग रखकर तुम्हें जन्म देने के मामले को देखें, तो ये तुम्हारे माता-पिता ही थे जिनके पास संपूर्ण शक्ति थी। उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है और उन्होंने ही तमाम फैसले लिए। उनके लिए तुमने नहीं चुना कि वे तुम्हें जन्म दें, तुमने निश्चेष्टा से उनके यहाँ जन्म लिया, और इस मामले में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। तो चूँकि तुम्हारे माता-पिता के पास संपूर्ण शक्ति थी और उन्होंने चुना कि तुम्हें जन्म देना है, तो यह उनका दायित्व और जिम्मेदारी है कि वे तुम्हें पालें-पोसें, बड़ा करें, शिक्षा दें, खाना, कपड़े और पैसे दें—यह उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है, और यह उन्हें करना ही चाहिए। वे जब तुम्हें बड़ा कर रहे थे, तब तुम हमेशा निश्चेष्ट थे, तुम्हारे पास चुनने का हक नहीं था—तुम्हें उनके हाथों ही बड़ा होना था। चूँकि तुम छोटे थे, तुम्हारे पास खुद को पाल-पोस कर बड़ा करने की क्षमता नहीं थी, तुम्हारे पास निश्चेष्टा से अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। तुम उसी तरह बड़े हुए जैसे तुम्हारे माता-पिता ने चुना, अगर उन्होंने तुम्हें बढ़िया चीजें खाने-पीने को दीं, तो तुमने बढ़िया खाना खाया-पिया। अगर तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जीने का ऐसा माहौल दिया जहाँ तुम्हें भूसा और जंगली पौधे खाकर जिंदा रहना पड़ता, तो तुम भूसे और जंगली पौधों पर जिंदा रहते। किसी भी स्थिति में, अपने पालन-पोषण के समय तुम निश्चेष्ट थे, और तुम्हारे माता-पिता अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे। यह वैसी ही बात है जैसे कि तुम्हारे माता-पिता किसी फूल की देखभाल कर रहे हों। चूँकि वे फूल की देखभाल की चाह रखते हैं, इसलिए उन्हें उसे खाद देना चाहिए, सींचना चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे धूप मिले। तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इस आधार पर, जो कुछ भी तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए किया, क्या उसे दयालुता कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता, सही है? (सही है।) तुम्हारे माता-पिता का तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को दयालुता नहीं माना जा सकता, तो अगर वे किसी फूल या पौधे के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं, उसे सींच कर उसे खाद देते हैं, तो क्या उसे दयालुता कहेंगे? (नहीं।) यह दयालुता से कोसों दूर की बात है। फूल और पौधे बाहर बेहतर ढंग से बढ़ते हैं—अगर उन्हें जमीन में लगाया जाए, उन्हें हवा, धूप और बारिश का पानी मिले, तो वे पनपते हैं। वे घर के अंदर गमलों में बाहर जैसे अच्छे ढंग से नहीं पनपते, लेकिन वे जहाँ भी हों, जीवित रहते हैं, है ना? वे चाहे जहाँ भी हों, इसे परमेश्वर ने नियत किया है। तुम एक जीवित व्यक्ति हो, और परमेश्वर प्रत्येक जीवन की जिम्मेदारी लेता है, उसे इस योग्य बनाता है कि वह जीवित रहे और उस विधि का पालन करे जिसका सभी सृजित प्राणी पालन करते हैं। लेकिन एक इंसान के रूप में, तुम उस माहौल में जीते हो, जिसमें तुम्हारे माता-पिता तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, इसलिए तुम्हें उस माहौल में बड़ा होना और टिके रहना पड़ता है। उस माहौल में तुम काफी हद तक परमेश्वर द्वारा नियत होने के कारण जी रहे हो; कुछ हद तक इसका कारण अपने माता-पिता के हाथों पालन-पोषण है, है ना? किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। अगर इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसका तुम्हें मजा लेना चाहिए? (जरूर है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दया प्राप्त नहीं कर रहे हो। किसी भी जीवित प्राणी के लिए बच्चों को जन्म देकर उनकी देखभाल करना, प्रजनन करना और अगली पीढ़ी को बड़ा करना एक किस्म की जिम्मेदारी है। मिसाल के तौर पर पक्षी, गायें, भेड़ें और यहाँ तक कि बाघिनें भी बच्चे जनने के बाद अपनी संतान की देखभाल करती हैं। ऐसा कोई भी जीवित प्राणी नहीं है जो अपनी संतान को पाल-पोस कर बड़ा न करता हो। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ये ज्यादा नहीं हैं। जीवित प्राणियों के अस्तित्व में यह एक कुदरती घटना है, जीवित प्राणियों का यह सहजज्ञान है, और इसे दयालुता का लक्षण नहीं माना जा सकता। वे बस उस विधि का पालन कर रहे हैं जो सृष्टिकर्ता ने जानवरों और मानवजाति के लिए स्थापित की है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता का तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी प्रकार की दयालुता नहीं है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। वे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। वे तुम पर चाहे जितनी भी मेहनत करें, जितना भी पैसा लगाएँ, उन्हें तुमसे इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए, क्योंकि माता-पिता के रूप में यह उनकी जिम्मेदारी है। चूँकि यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है, इसलिए इसे मुफ्त होना चाहिए, और उन्हें इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपना रिश्ता निभाना चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता का ख्याल रखते हो, उनका कर्ज चुकाते हो और इस विचार से उनके साथ अपना रिश्ता निभाते हो, तो यह अमानुषी है। साथ ही, हो सकता है इससे तुम अपनी दैहिक भावनाओं से नियंत्रित होकर उनसे बँध जाओ और फिर तुम्हारे लिए इन उलझनों से उबरना इस हद तक मुश्किल हो जाएगा कि शायद तुम अपनी राह से भटक जाओ। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, इसलिए उनकी तमाम अपेक्षाएँ साकार करना तुम्हारा दायित्व नहीं है। उनकी अपेक्षाओं की कीमत चुकाना तुम्हारा दायित्व नहीं है। यानी उनकी अपनी अपेक्षाएँ हो सकती हैं। तुम्हारे अपने विकल्प हैं, तुम्हारा अपना जीवन पथ है और अपनी नियति है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए नियत किए हैं जिनसे तुम्हारे माता-पिता का कोई लेना-देना नहीं है। लिहाजा, जब तुम्हारे माता-पिता में से कोई एक कहता है : “तुम संतानोचित बच्चे नहीं हो। तुम इतने वर्षों से मुझे देखने नहीं आए, मुझे फोन किए तुम्हें जाने कितने दिन हो गए। मैं बीमार हूँ और मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। मैंने तुम्हें बेकार में ही पाल-पोस कर बड़ा किया। तुम सचमुच लापरवाह और अहसान-फरामोश संतान हो!” अगर तुम इस सत्य को नहीं समझते कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, तो ये बातें सुनना उतना ही पीड़ादायक होगा जितना दिल में छुरा भोंकने पर होता है, और तुम्हारा जमीर निंदित महसूस करेगा। इनमें से प्रत्येक शब्द तुम्हारे दिल में बैठ जाएगा और इसके कारण तुम्हें अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्म आएगी, तुम उनका ऋणी महसूस करोगे और उनके प्रति अपराधबोध से ग्रस्त हो जाओगे। जब माता या पिता कहते हैं कि तुम अहसान-फरामोश हो, तो तुम्हें सच में लगेगा : “वे बिल्कुल सही हैं। उन्होंने मुझे इस उम्र तक बड़ा किया, और उन्हें मेरी छत्रछाया में जरा भी आराम नहीं मिला। अब वे बीमार हैं, उन्हें उम्मीद थी कि मैं उनके सिरहाने बैठकर उनकी सेवा करूँगा और उनका साथ दूँगा। उन्हें जरूरत थी कि मैं उनकी दयालुता का कर्ज चुकाऊँ, और मैं वहाँ नहीं था। मैं सच में लापरवाह अकृतज्ञ हूँ!” तुम खुद को लापरवाह अकृतज्ञ का दर्जा दे दोगे—क्या यह वाजिब है? क्या तुम एक लापरवाह अकृतज्ञ हो? अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़कर नहीं गए होते और अपने माता-पिता के साथ ही रह रहे होते, तो क्या तुम उन्हें बीमार पड़ने से रोक सकते थे? (नहीं।) क्या यह तुम्हारे वश में है कि तुम्हारे माता-पिता जीवित रहें या मर जाएँ? क्या उनका अमीर या गरीब होना तुम्हारे वश में है? (नहीं।) तुम्हारे माता-पिता को जो भी रोग हो, वह इस वजह से नहीं है कि वे तुम्हें बड़ा करने में बहुत थक गए, या उन्हें तुम्हारी याद आई; वे खास तौर से कोई भी बड़ा, गंभीर और संभवतः जानलेवा रोग तुम्हारे कारण नहीं पकड़ेंगे। यह उनका भाग्य है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम चाहे जितने भी संतानोचित क्यों न हो, ज्यादा-से-ज्यादा तुम उनकी दैहिक पीड़ा और बोझों को कुछ हद तक कम कर सकते हो, लेकिन वे कब बीमार पड़ेंगे, उन्हें कौन-सी बीमारी होगी, उनकी मृत्यु कब और कहाँ होगी—क्या इन चीजों का तुमसे कोई लेना-देना है? नहीं, नहीं है। अगर तुम संतानोचित हो, अगर तुम लापरवाह अकृतज्ञ नहीं हो, पूरा दिन उनके साथ बिताते हो, उनकी देखभाल करते हो, तो क्या वे बीमार नहीं पड़ेंगे? अगर उन्हें बीमार पड़ना ही है, तो क्या वे कैसे भी बीमार नहीं पड़ेंगे? अगर उन्हें मरना ही है, तो क्या वे कैसे भी नहीं मर जाएँगे? क्या यह सही नहीं है? अगर पहले तुम्हारे माता-पिता ने कहा होता कि तुम लापरवाह अहसान-फरामोश हो, तुममें कोई जमीर नहीं है, और तुम एक नाशुक्रे बच्चे हो, तो क्या तुम परेशान होते? (हाँ।) और अब? (अब मैं परेशान नहीं होऊँगा।) तो यह समस्या कैसे दूर हुई? (क्योंकि परमेश्वर ने संगति की कि हमारे माता-पिता बीमार हों या न हों, वे जीवित रहें या न रहें, यह तय करने में हमारा कोई हाथ नहीं है, यह सब परमेश्वर द्वारा नियत है। अगर हम उनके साथ रहें, तो भी हम कुछ नहीं कर सकते, तो अगर वे कहें कि हम लापरवाह अहसान-फरामोश हैं, तो इसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है।) चाहे तुम्हारे माता-पिता तुम्हें एक लापरवाह अहसान-फरामोश कहें या न कहें, कम-से-कम तुम सृष्टिकर्ता के समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहे हो। अगर तुम परमेश्वर की नजरों में लापरवाह अहसान-फरामोश नहीं हो, तो यही काफी है। लोग क्या कहते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे बारे में क्या कहते हैं, वह अनिवार्य रूप से सही नहीं है, और उनका कहा उपयोगी नहीं है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को अपना आधार बनाना चाहिए। अगर परमेश्वर कहता है कि तुम एक सक्षम सृजित प्राणी हो, फिर अगर लोग तुम्हें लापरवाह अहसान-फरामोश कहें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, वे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। बस इतना ही है कि लोग इन अपमानों से तब आहत होंगे जब उनके जमीर पर इनका असर होगा, या अगर वे सत्य को नहीं समझते, उनका आध्यात्मिक कद छोटा हो, वे थोड़ी बुरी मनःस्थिति में और थोड़ा अवसादग्रस्त हों, लेकिन जब वे परमेश्वर के समक्ष लौट आएँगे तो यह सब दूर हो जाएगा, और फिर उनके लिए इससे कोई समस्या नहीं होगी। क्या अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने का मामला हल नहीं हो गया है? क्या तुम यह मामला समझ गए हो? (हाँ।) वह कौन-सा तथ्य है जो लोगों को यहाँ समझना चाहिए? तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना तुम्हारे माता-पिता की जिम्मेदारी है। उन्होंने तुम्हें जन्म देने का फैसला किया, इसलिए तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करने की जिम्मेदारी उनकी है। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके वे अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरे कर रहे हैं। तुम उनके बिल्कुल ऋणी नहीं हो, इसलिए तुम्हें उनकी भरपाई करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें उनकी भरपाई करने की जरूरत नहीं है—यह स्पष्ट दर्शाता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं, और तुम्हें उनकी दयालुता के एवज में उनके लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारे हालात तुम्हें उनके प्रति अपनी थोड़ी जिम्मेदारी पूरी करने की इजाजत देते हैं, तो जरूर करो। अगर तुम्हारा माहौल और तुम्हारे वस्तुपरक हालात तुम्हें उनके प्रति अपना दायित्व पूरा नहीं करने देते, तो तुम्हें उस बारे में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें नहीं सोचना चाहिए कि तुम उनके ऋणी हो, क्योंकि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। अगर तुम अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाते हो या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हो तो कोई बात नहीं, तुम सिर्फ संतान का नजरिया अपनाकर उन लोगों के प्रति अपनी थोड़ी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हो, जिन्होंने तुम्हें जन्म देकर बड़ा किया। लेकिन तुम ऐसा यकीनन उनकी भरपाई करने के लिए या इस नजरिये से नहीं कर सकते कि “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे हितैषी हैं और तुम्हें उनकी भरपाई करनी चाहिए, तुम्हें उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहिए।”

अविश्वासियों की दुनिया में एक कहावत है : “कौए अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाते हैं, और मेमने अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकते हैं।” एक कहावत यह भी है : “जो व्यक्ति संतानोचित नहीं है, वह किसी पशु से बदतर है।” ये कहावतें कितनी शानदार लगती हैं! असल में, पहली कहावत में जिन घटनाओं का जिक्र है, कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना, वे सचमुच होती हैं, वे तथ्य हैं। लेकिन वे सिर्फ पशुओं की दुनिया की घटनाएँ हैं। वह महज एक किस्म की विधि है जो परमेश्वर ने विविध जीवित प्राणियों के लिए स्थापित की है, जिसका इंसानों सहित सभी जीवित प्राणी पालन करते हैं। हर प्रकार के जीवित प्राणी इस विधि का पालन करते हैं, यह तथ्य और आगे यह दर्शाता है कि सभी जीवित प्राणियों का सृजन परमेश्वर ने किया है। कोई भी जीवित प्राणी न तो इस विधि को तोड़ सकता है, न इसके पार जा सकता है। शेर और बाघ जैसे अपेक्षाकृत खूंख्वार मांसभक्षी भी अपनी संतान को पालते हैं और वयस्क होने से पहले उन्हें नहीं काटते। यह पशुओं का सहजज्ञान है। वे जिस भी प्रजाति के हों, खूंख्वार हों या दयालु और भद्र, सभी पशुओं में यह सहजज्ञान होता है। इंसानों सहित सभी प्रकार के प्राणी इस सहजज्ञान और इस विधि का पालन करके ही अपनी संख्या बढ़ा और जीवित रह सकते हैं। अगर वे इस विधि का पालन न करें, या उनमें यह विधि और यह सहजज्ञान न हो, तो वे अपनी संख्या बढ़ाकर जीवित नहीं रह पाएँगे। यह जैविक कड़ी नहीं रहेगी, और यह संसार भी नहीं रहेगा। क्या यह सच नहीं है? (है।) कौओं का अपनी माँओं को खाना दे कर उनका कर्ज चुकाना, और मेमनों का अपनी माँओं से दूध पाने के लिए घुटने टेकना ठीक यही दर्शाता है कि पशु जगत इस विधि का पालन करता है। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों में यह सहजज्ञान होता है। संतान पैदा होने के बाद प्रजाति के नर या मादा उसकी तब तक देखभाल और पालन-पोषण करते हैं, जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती। सभी प्रकार के जीवित प्राणी शुद्ध अंतःकरण और कर्तव्यनिष्ठा से अगली पीढ़ी को पाल-पोस कर बड़ा करके अपनी संतान के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर पाते हैं। इंसानों के साथ तो ऐसा और अधिक होना चाहिए। इंसानों को मानवजाति उच्च प्राणी कहती है—अगर इंसान इस विधि का पालन न कर सकें, तो वे पशुओं से बदतर हैं, है कि नहीं? इसलिए तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बड़ा करते समय चाहे जितना भी पालन-पोषण किया हो, तुम्हारे प्रति चाहे जितनी भी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों, वे बस वही कर रहे थे जो उन्हें एक सृजित मनुष्य की क्षमताओं के दायरे में करना ही चाहिए—यह उनका सहजज्ञान था। जरा पक्षियों को देखो, प्रजनन मौसम से एक महीने से भी पहले से वे अपने घोंसले बनाने के लिए लगातार सुरक्षित स्थान ढूँढ़ते रहते हैं। नर और मादा पक्षी बारी-बारी से बाहर जाते हैं और तरह-तरह के पौधे, पंख और डालियाँ लेकर अपेक्षाकृत घने वृक्षों में घोंसले बनाना शुरू कर देते हैं। अलग-अलग पक्षियों के तमाम छोटे-छोटे घोंसले बेहद मजबूत और पेचदार होते हैं। अपनी संतान की खातिर, पक्षी घोंसले और आश्रय बनाने में कड़ी मेहनत लगाते हैं। घोंसले बना लेने के बाद जब अंडे सेने का समय आता है, तो हर घोंसले में हमेशा एक पक्षी होता है; नर और मादा पक्षी रोज चौबीसों घंटे बारी-बारी से पारी देते हैं, और वे इस पर बड़ा ध्यान देते हैं—उनमें से एक के लौट आते ही दूसरा तुरंत वहाँ जाने के लिए उड़ जाता है। जल्दी ही कुछ चूजे पैदा होकर अंडे के खोल में चोंच मारकर अपने सिर बाहर निकालते हैं, और तुम उनके वृक्षों में उनका चहचहाना सुन सकते हो। वयस्क पक्षी उड़ कर आते-जाते रहते हैं, बड़ी सावधानी दिखाते हुए वे अपने चूजों को कभी कीड़े-मकोड़े तो कभी कुछ और खिलाने आते हैं। दो-चार महीने बाद कुछ चूजे थोड़ा बड़े हो जाते हैं, और फिर वे अपने घोंसले के मुहाने पर खड़े होकर पंख फड़फड़ा सकते हैं; उनके माता-पिता आते-जाते रहते हैं, बारी-बारी से अपने चूजों को खिलाते-पिलाते हैं, उनकी रक्षा करते हैं। एक वर्ष, मैंने आकाश में मुँह में एक चूजा पकड़े एक कौआ देखा। वह चूजा बुरी तरह चीख रहा था, एक तरह से मदद की पुकार लगा रहा था। कौआ मुँह में चूजा लिए हुए आगे-आगे उड़ रहा था और एक जोड़ी वयस्क पक्षी उसका पीछा कर रहे थे। ये दोनों पक्षी भी बुरी तरह चीख रहे थे, और अंत में कौआ उड़कर बड़ी दूर चला गया। उस चूजे के माता-पिता कौए तक पहुँच सके हों या नहीं, वह चूजा तो वैसे भी मर ही गया होगा। वे दो वयस्क पक्षी जो पीछे उड़ रहे थे, वे इतना ज्यादा रो रहे थे, चीख-पुकार मचा रहे थे कि जमीन पर लोग चौंक गए—तुम्हें क्या लगता है कि उन पक्षियों की चीख-पुकार कितनी दर्दनाक रही होगी? दरअसल, निश्चित ही उनका सिर्फ एक ही चूजा नहीं रहा होगा। उनके घोंसले में तीन-चार चूजे जरूर रहे होंगे, मगर जब कौआ एक चूजे को पकड़कर उड़ गया, तो वे रोते-चिल्लाते उसका पीछा करने लगे। प्राणी और जैव जगत ऐसा ही है—जीवित प्राणी अपनी संतान को इसी तरह थके बिना पाल-पोस पाते हैं। पक्षी वापस उड़कर हर वर्ष नए घोंसले बनाते हैं, हर साल वे वही चीजें करते हैं; अंडे सेकर चूजे पैदा करते हैं, उन्हें खिलाते-पिलाते हैं और उड़ना सिखाते हैं। नन्हे पक्षी उड़ने का अभ्यास करते वक्त ज्यादा ऊँचे नहीं उड़ते और कभी-कभार जमीन पर गिर जाते हैं। हमने कुछ बार उन्हें बचाया भी है और उन्हें उनके घोंसलों में रखने के लिए दौड़ पड़े हैं। उनके माता-पिता उन्हें हर दिन सिखाते हैं, और किसी-न-किसी दिन ये तमाम चूजे अपने घोंसले छोड़कर दूर उड़ जाएँगे, और खाली घोंसले पीछे छोड़ देंगे। अगले साल, घोंसले बनाने के लिए पक्षियों के नए जोड़े आते हैं, अपने अंडे सेते हैं और चूजों को पाल-पोस कर बड़ा करते हैं। सभी प्रकार के जीवित प्राणियों और पशुओं में ये सहजज्ञान और विधियाँ होती हैं, और वे उनका बढ़िया पालन कर उन्हें पूर्णता तक कार्यान्वित करते हैं। यह ऐसी चीज है जिसे कोई भी व्यक्ति नष्ट नहीं कर सकता। कुछ विशेष पशु भी होते हैं, जैसे कि बाघ और सिंह। वयस्क हो जाने पर ये पशु अपने माता-पिता को छोड़ देते हैं, और उनमें से कुछ नर तो प्रतिद्वंद्वी भी बन जाते हैं, और जैसी जरूरत हो, वैसे काटते और लड़ते-झगड़ते हैं। यह सामान्य है, यह एक विधि है। वे बहुत स्नेही नहीं होते, वे लोगों की तरह यह कहकर अपनी भावनाओं में नहीं जीते, “मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना है, मुझे उनकी भरपाई करनी है—मुझे अपने माता-पिता का आज्ञापालन करना है। अगर मैंने उन्हें संतानोचित प्रेम नहीं दिखाया, तो दूसरे लोग मेरी निंदा करेंगे, मुझे बुरा समझेंगे, और पीठ पीछे मेरी आलोचना करेंगे। मैं इसे नहीं सह सकता!” पशु जगत में ऐसी बातें नहीं कही जातीं। लोग ऐसी बातें क्यों करते हैं? इस वजह से कि समाज में और लोगों के समुदायों में तरह-तरह के गलत विचार और सहमतियाँ हैं। लोगों के प्रभावित हो जाने, बिगड़ जाने और इन चीजों से सड़-गल जाने के बाद उनके भीतर माता-पिता और बच्चे के रिश्ते की व्याख्या करने और उससे निपटने के अलग-अलग तरीके पैदा होते हैं, और आखिरकार वे अपने माता-पिता से लेनदारों जैसा बर्ताव करते हैं—ऐसे लेनदार जिनका कर्ज वे पूरी जिंदगी नहीं चुका सकेंगे। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने माता-पिता के निधन के बाद पूरी जिंदगी अपराधी महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि वे अपने माता-पिता की दयालुता के लायक नहीं थे, क्योंकि उन्होंने वह काम किया जिससे उनके माता-पिता खुश नहीं हुए या वे उस राह पर नहीं चले जो उनके माता-पिता चाहते थे। मुझे बताओ, क्या यह ज्यादती नहीं है? लोग अपनी भावनाओं के बीच जीते हैं, तो इन भावनाओं से उपजनेवाले तरह-तरह के विचारों से ही वे अतिक्रमित और परेशान हो सकते हैं। लोग एक ऐसे माहौल में जीते हैं जो भ्रष्ट मानवजाति की विचारधारा से रंगा होता है, तो वे तरह-तरह के गलत विचारों से अतिक्रमित और परेशान होते हैं, जिससे उनकी जिंदगी दूसरे जीवित प्राणियों से ज्यादा थकाऊ और कम सरल होती है। लेकिन फिलहाल, चूँकि परमेश्वर कार्यरत है, और चूँकि वह इन तमाम तथ्यों की सच्ची प्रकृति बताने और उन्हें सत्य समझने योग्य बनाने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है, इसलिए सत्य को समझ लेने के बाद ये गलत विचार और सोच तुम पर बोझ नहीं बनेंगे और फिर वे वह मार्गदर्शक भी नहीं बनेंगे जो तुम्हें बताए कि अपने माता-पिता से तुम्हें अपना रिश्ता कैसे निभाना चाहिए। तब तुम्हारा जीवन ज्यादा सुकून-भरा रहेगा। सुकून-भरा जीवन जीने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों का ज्ञान नहीं होगा—तुम अब भी ये चीजें जान सकोगे। यह बस इस पर निर्भर करता है कि तुम अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों से पेश आने के लिए कौन-सा नजरिया और तरीके चुनते हो। एक रास्ता भावनाओं की राह पकड़ना है और इन चीजों से भावनात्मक उपायों और शैतान द्वारा मनुष्य को दिखाए गए तरीकों, विचारों और सोच के साथ निपटना है। दूसरा रास्ता इन चीजों से परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सिखाए वचनों के आधार पर निपटना है। जब लोग ये मामले शैतान के गलत विचारों और सोच के अनुसार सँभालते हैं, तो वे बस अपनी भावनाओं की उलझनों में ही जी सकते हैं, और कभी भी सही-गलत में फर्क नहीं कर सकते। इन हालात में उनके पास जाल में फँसकर जीने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता, वे हमेशा ऐसे मामलों में उलझे रहते हैं जैसे कि “तुम सही हो, मैं गलत। तुमने मुझे ज्यादा दिया है, मैंने तुम्हें कम दिया। तुम कृतघ्न हो। तुमने मेरे लिए बहुत ज्यादा किया है।” नतीजतन, कभी भी कोई ऐसा वक्त नहीं होता जब वे स्पष्ट बातें करते हों। लेकिन, लोगों के सत्य समझने के बाद, और जब वे गलत विचारों, सोच और भावनाओं से बच निकलते हैं, तो ये मामले उनके लिए सरल हो जाते हैं। अगर तुम उन सत्य सिद्धांतों, विचारों और सोच का पालन करते हो जो सही हैं और परमेश्वर से आए हैं, तो तुम्हारा जीवन बहुत सुकून-भरा हो जाएगा। अब अपने माता-पिता से अपने रिश्तों को सँभालने में न जनमत रुकावट बनेगा, न तुम्हारे जमीर की जागरूकता, और न ही तुम्हारी भावनाओं का बोझ; इसके विपरीत, ये चीजें तुम्हें इस योग्य बना देंगी कि तुम इस रिश्ते का सही और तार्किक ढंग से सामना कर सको। अगर तुम परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो, तो भले ही लोग पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना करें, तुम अपने दिल की गहराई में शांति और सुकून ही महसूस करोगे, और तुम पर उसका कोई असर नहीं होगा। कम-से-कम तुम खुद को एक लापरवाह अहसान-फरामोश होने पर नहीं धिक्कारोगे, या अपने दिल की गहराई में अब अपने जमीर का आरोप महसूस नहीं करोगे। यह इसलिए कि तुम यह जान लोगे कि तुम्हारे सारे कार्य परमेश्वर द्वारा तुम्हें सिखाए गए तरीकों के अनुसार किए जाते हैं, तुम परमेश्वर के वचनों को सुनते और उनका पालन करते हो, और उसके मार्ग का अनुसरण करते हो। परमेश्वर के वचनों को सुनना और उसके मार्ग का अनुसरण करना ही जमीर की वह समझ है जो लोगों में सबसे ज्यादा होनी चाहिए। ये चीजें कर सकने पर ही तुम एक सच्चे व्यक्ति बन पाओगे। अगर तुमने ये चीजें संपन्न नहीं की हैं, तो तुम एक लापरवाह अहसान-फरामोश हो। क्या बात यही नहीं है? (यही है।) क्या तुम अब इस मामले को स्पष्ट देख पा रहे हो? इसे स्पष्ट देखना इसका एक पहलू है; दूसरा पहलू यह है कि क्या लोग धीरे-धीरे इस मामले को समझ रहे हैं और सत्य पर अमल कर रहे हैं। इस मामले को स्पष्ट देखने के लिए लोगों को कुछ समय तक चीजों का अनुभव करना चाहिए। अगर लोग इस तथ्य और सार को स्पष्ट देखना चाहें, और उस मुकाम पर पहुँचना चाहें जहाँ वे मामलों को सिद्धांतों के साथ सँभालें, तो यह थोड़े समय में नहीं किया जा सकता, क्योंकि लोगों को पहले तरह-तरह के गलत विचारों और सोच के प्रभाव को त्यागना पड़ता है। एक और ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्हें अपने ही जमीर और भावनाओं के बंधनों और प्रभावों को दूर करने में समर्थ होना चाहिए; खास तौर पर उन्हें अपनी ही भावनाओं की बाधा को पार करना चाहिए। मान लो कि तुम सैद्धांतिक तौर पर मानते हो कि परमेश्वर का वचन ही सत्य है और यही सही है, और सिद्धांत रूप में जानते हो कि शैतान जो त्रुटिपूर्ण विचार और सोच लोगों के मन में बिठाता है वे गलत हैं, लेकिन तुम अपनी भावनाओं की बाधा से उबर ही नहीं पाते, और तुम्हें यह सोचकर अपने माता-पिता के लिए दुख होता है कि उन्होंने तुम पर बहुत अधिक दयालुता दिखाई है, तुम्हारे लिए खुद को बहुत खपाया, थकाया और कष्ट सहे, तुम्हारे लिए किए गए उनके हर काम, उनकी हर बात और उनके द्वारा चुकाई गई हर कीमत की परछाइयाँ तुम्हारे मन में अभी भी तरोताजा हैं। इनमें से हर बाधा तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण मोड़ होगी और उनके पार जाना आसान नहीं होगा। असल में, पार करने की सबसे मुश्किल बाधा तुम खुद होगे। अगर तुम एक-के-बाद-एक सभी बाधाएँ पार कर सको, तो तुम अपने दिल से अपने माता-पिता के प्रति अपनी भावनाओं को पूरी तरह से जाने दे सकोगे। मैं इस विषय पर इसलिए संगति नहीं कर रहा हूँ कि तुम अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करो, और निश्चित रूप से इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि तुम अपने और अपने माता-पिता के बीच सीमारेखा खींच लो—हम कोई आंदोलन शुरू नहीं कर रहे हैं, कोई सीमारेखा खींचने की जरूरत नहीं है। मैं इस पर सिर्फ इसलिए संगति कर रहा हूँ ताकि तुम्हें इन मामलों की सही समझ मिल सके, और सही विचार और सोच स्वीकारने में तुम्हें मदद मिल सके। साथ ही मैं इस पर इसलिए भी संगति कर रहा हूँ ताकि जब ये चीजें तुम्हारे सामने आएँ, तो तुम इनसे परेशान न हो जाओ या तुम्हारे हाथ-पाँव बँध न जाएँ, और इससे भी ज्यादा जरूरी बात यह है कि जब इन चीजों से तुम्हारा सामना हो, तो वे एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन को प्रभावित न करें। इस तरह, मेरी संगति अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगी। बेशक, क्या दैहिक जीवन जीने वाले लोग उस मुकाम पर पहुँच सकेंगे जहाँ वे अपने मन में इनमें से कोई भी चीज दबा कर न रखें, और उनके और माता-पिता के बीच कोई भावनात्मक उलझनें न हों? यह असंभव होगा। इस संसार में, माता-पिता के अलावा लोगों के अपने बच्चे भी होते हैं—लोगों के ये सबसे करीबी दो दैहिक रिश्ते हैं। माता-पिता और बच्चे के रिश्ते को पूरी तरह से तोड़ देना असंभव है। मैं तुम्हें उस औपचारिकता से गुजारने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ कि तुम अपने माता-पिता से अपना रिश्ता तोड़ लो, और फिर कभी उनसे न मिलो। मैं उनके साथ तुम्हारे रिश्ते को सही ढंग से सँभालने में तुम्हारी मदद करने की कोशिश कर रहा हूँ। ये चीजें मुश्किल हैं, है कि नहीं? जैसे-जैसे सत्य की तुम्हारी समझ गहरी होती है, और जैसे-जैसे तुम्हारी उम्र बढ़ती है, इन चीजों की मुश्किल धीरे-धीरे घटेगी और कम हो जाएगी। जब लोग बीस की उम्र में होते हैं, तो उनके मन में 30-40 के होने के मुकाबले अपने माता-पिता के प्रति एक अलग किस्म का लगाव होता है। उनके 50 के हो जाने के बाद यह लगाव और भी कम हो जाता है, और 60-70 के हो जाने पर तो इसकी बात करना भी जरूरी नहीं है। तब तक यह लगाव और भी हल्का हो जाता है—यह उम्रदराज होने के साथ बदलता जाता है।

“तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं,” यह सत्य ही अभ्यास का सही सिद्धांत है जिसे लोगों को अपने माता-पिता से पेश आते वक्त समझना चाहिए। अभ्यास का दूसरा सिद्धांत कौन-सा है? (तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं।) क्या “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं” की तुलना में “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं” समझने और जाने देने में ज्यादा आसान नहीं है? ऊपरी तौर पर यूँ लगता है कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे दैहिक जीवन को जन्म दिया और तुम्हारे माता-पिता ने ही तुम्हें जीवन दिया। लेकिन अगर इसे हम परमेश्वर के नजरिये और इस मामले की जड़ से देखें, तो तुम्हें यह दैहिक जीवन माता-पिता ने नहीं दिया, क्योंकि लोग जीवन का सृजन नहीं कर सकते। सरल शब्दों में कहें, तो कोई भी इंसान मनुष्य की साँस का सृजन नहीं कर सकता। जिस कारण से प्रत्येक व्यक्ति की देह एक व्यक्ति बन पाती है वह है उसकी साँस। मनुष्य का जीवन इस साँस में है, और यह एक जीवित व्यक्ति का चिह्न है। लोगों में यह साँस और जीवन होता है, और इन चीजों का स्रोत और उद्गम उनके माता-पिता नहीं हैं। बात बस इतनी है कि लोगों का निर्माण उनके माता-पिता द्वारा उन्हें जन्म देने के जरिए हुआ—मूल में, यह परमेश्वर ही है जो लोगों को ये चीजें देता है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं, तुम्हारे जीवन का विधाता परमेश्वर है। परमेश्वर ने मानवजाति को रचा, उसी ने मानवजाति के जीवन का सृजन किया, और उसी ने मानवजाति को जीवन की साँस दी, जोकि मनुष्य के जीवन का उद्गम है। इसलिए, क्या “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं” पंक्ति समझने में आसान नहीं है? तुम्हारी साँस तुम्हारे माता-पिता ने नहीं दी, न यह साँस उनके कारण जारी है। परमेश्वर तुम्हारे जीवन के प्रत्येक दिन की देखभाल करता है और उस पर राज करता है। तुम्हारे माता-पिता फैसला नहीं कर सकते कि तुम्हारा प्रत्येक दिन कैसा बीतता है, हर दिन खुशहाल और आसान है या नहीं, तुम हर दिन किससे मिलते हो, या हर दिन कैसे माहौल में जीते हो। बात बस इतनी है कि परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता के जरिए तुम्हारी देखभाल करता है—तुम्हारे माता-पिता बस वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर ने तुम्हारी देखभाल के लिए भेजा। जब पैदा होने पर तुम्हें जीवन देने वाले तुम्हारे माता-पिता नहीं थे, तो जिस जीवन के कारण तुम अब तक जीवित हो, वो क्या तुम्हारे माता-पिता ने दिया है? ऐसा नहीं है। तुम्हारे जीवन का उद्गम अभी भी परमेश्वर ही है, तुम्हारे माता-पिता नहीं। मान लो कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, लेकिन जब तुम साल भर के या पाँच साल के हो, तो परमेश्वर तुम्हारा जीवन छीन लेने का फैसला कर ले। क्या तुम्हारे माता-पिता इस बारे में कुछ भी कर सकते हैं? तुम्हारे माता-पिता क्या करेंगे? वे तुम्हारा जीवन कैसे बचाएंगे? वे तुम्हें अस्पताल भेजेंगे और डॉक्टरों को सौंपेंगे, जो तुम्हारी बीमारी का इलाज कर तुम्हें बचाने की कोशिश करेंगे। यह तुम्हारे माता-पिता की जिम्मेदारी है। लेकिन अगर परमेश्वर कहे कि इस जीवन और इस व्यक्ति को जीवित नहीं रहना चाहिए, और इसे किसी और परिवार में पुनर्जन्म लेना चाहिए, तो तुम्हारे माता-पिता के पास तुम्हारा जीवन बचाने की कोई ताकत या उपाय नहीं होगा। वे सिर्फ तुम्हारे छोटे-से जीवन को इस संसार से जाते हुए देख सकेंगे। जब किसी जीवन का अंत हो जाता है तो वे शक्तिहीन हो जाते हैं—वे सिर्फ माता-पिता के तौर पर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकते हैं, तुम्हें डॉक्टरों को सौंप सकते हैं जो तुम्हारा इलाज कर तुम्हारा जीवन बचाने के कोशिश करेंगे, लेकिन तुम्हारे माता-पिता यह फैसला नहीं कर सकते कि तुम्हारा जीवन जारी रहेगा या नहीं। अगर परमेश्वर कहे कि तुम जीते रह सकते हो, तो तुम्हारे जीवन का अस्तित्व रहेगा। अगर परमेश्वर कहे कि तुम्हारा जीवन अस्तित्व में नहीं होना चाहिए, तो तुम्हारे जीवन का अंत हो जाएगा। क्या तुम्हारे माता-पिता इस बारे में कुछ भी कर सकते हैं? वे सिर्फ खुद को तुम्हारे भाग्य पर छोड़ सकते हैं। सीधे शब्दों में कहें, तो वे बस साधारण सृजित प्राणी हैं। बात बस इतनी है कि तुम्हारे नजरिये से उनकी एक खास पहचान है—उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया, वे तुम्हारे मुखिया हैं, तुम्हारे माता-पिता हैं। लेकिन परमेश्वर के नजरिये से वे बस साधारण इंसान हैं, वे बस भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, और उनके बारे में कुछ भी विशेष नहीं है। वे अपने जीवन के ही विधाता नहीं हैं, तो वे तुम्हारे जीवन के विधाता कैसे बन सकते हैं? भले ही उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, फिर भी वे नहीं जानते कि तुम्हारा जीवन कहाँ से आया, वे फैसला नहीं कर सकते थे कि किस वक्त, किस घड़ी और किस जगह तुम्हारा जीवन आएगा या तुम्हारा जीवन कैसा होगा। वे इनमें से कोई भी बात नहीं जानते। इन बातों के लिए वे बस निश्चेष्ट होकर परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करते हैं। चाहे इस बारे में वे खुश हों या न हों, चाहे वे इस पर यकीन करें या न करें, ये तमाम चीजें परमेश्वर के हाथों आयोजित और घटित होती हैं। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन के विधाता नहीं हैं—क्या यह मामला समझने में आसान नहीं है? (आसान है।) तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारी देह को जन्म दिया, लेकिन उन्होंने तुम्हारी देह के जीवन को जन्म नहीं दिया। यह एक तथ्य है। क्या तुम्हारे माता-पिता का वश ऐसे मामलों पर भी चल सकता है कि तुम्हारी कद-काठी कैसी होगी, तुम्हारे बाल किस रंग के या कितने घने होंगे, तुम्हारी अभिरुचियाँ क्या होंगी, वगैरह-वगैरह? (नहीं।) तुम्हारे माता-पिता यह तय नहीं कर सकते कि तुम्हारी त्वचा अच्छी होगी या बुरी, या तुम्हारे चेहरे का रूप-रंग कैसा होगा। कुछ माता-पिता मोटे होते हैं, लेकिन वे ऐसे बच्चों को जन्म देते हैं जो छोटी आँख-नाक वाले, दुबले-पतले और नाटे होते हैं। उन्हें देख कर लोग सोचते हैं, “ये बच्चे किसके जैसे दिखते हैं? ये यकीनन अपने माता-पिता जैसे नहीं दिखते।” माता-पिता यह भी तय नहीं कर सकते कि उनके बच्चे कैसे दिखेंगे, कर सकते हैं क्या? कुछ माता-पिता हट्टे-कट्टे होते हैं, और वे बहुत दुबले-पतले और कमजोर बच्चों को जन्म देते हैं; कुछ माता-पिता बहुत दुबले-पतले और कमजोर होते हैं, और वे हट्टे-कट्टे बच्चों को जन्म देते हैं, जो सांड़ों जैसे मजबूत होते हैं। कुछ माता-पिता चूहों जैसे दब्बू होते हैं, और वे ऐसे बच्चों को जन्म देते हैं जो बेहद साहसी होते हैं। कुछ माता-पिता सावधान और सतर्क रहते हैं, और वे ऐसे बच्चों को जन्म देते हैं जो बहुत महत्वाकांक्षी होते हैं, और अंत में उनमें से कुछ सम्राट बन जाते हैं, कुछ राष्ट्राध्यक्ष और कुछ दूसरे चोर-डकैतों के दबंग डॉन। कुछ माता-पिता किसान होते हैं, लेकिन उनके बच्चे उच्च अधिकारी बन जाते हैं। कुछ माता-पिता धोखेबाज होते हैं, लेकिन वे ऐसे बच्चों को जन्म देते हैं जो बड़े तमीजदार और भोले होते हैं। कुछ माता-पिता गैर-विश्वासी होते हैं, या हो सकता है कि वे मूर्तियों और दानवों की आराधना करते हों, पर वे ऐसे बच्चे पैदा करते हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखना चाहते हैं, जो परमेश्वर में अपनी आस्था के बिना जीवित ही नहीं रह सकते। कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बताते हैं, “मैं तुम्हें यूनिवर्सिटी भेजने वाला हूँ,” और उनके बच्चे कहते हैं, “नहीं, मैं एक सृजित प्राणी हूँ, मुझे अपना कर्तव्य निभाना चाहिए!” फिर माता-पिता अपने बच्चे को बताते हैं : “तुम छोटे हो, तुम्हें कर्तव्य निभाने की जरूरत नहीं। हम इसलिए अपने कुछ कर्तव्य निभाते हैं क्योंकि हम बड़े हो गए हैं, हमारी कोई संभावनाएँ नहीं हैं; हम भविष्य में अपने परिवार के लिए कुछ आशीष अर्जित कर लेंगे, इसलिए तुम्हें यह करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें मेहनत से पढ़ाई करनी है, और यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट होने के बाद तुम्हें जाकर कोई उच्च अधिकारी बनना होगा, ताकि मैं तुम्हारी छत्रछाया में थोड़ा आराम कर सकूँ।” उनके बच्चों का जवाब होता है : “नहीं। मैं एक सृजित प्राणी हूँ, अपना कर्तव्य निभाना सबसे अहम चीज है।” बेशक, कुछ ऐसे माता-पिता हैं जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, और अपने परिवारों को त्याग देते हैं, अपनी नौकरियाँ छोड़ देते हैं, लेकिन उनके बच्चे कभी परमेश्वर में विश्वास नहीं रखना चाहते। उनके बच्चे अविश्वासी होते हैं, और तुम उन बच्चों और उनके माता-पिता को चाहे जिस भी तरह से देखो, वे एक परिवार के समान नहीं लगते। हालाँकि देखने में, जीने की आदतों में और अपने चरित्र के कुछ पहलुओं में भी वे एक परिवार जैसे लग सकते हैं, लेकिन अपनी रुचियों-अभिरुचियों, अनुसरणों और चलने के पथों में वे पूरी तरह से अलग हैं। वे बिल्कुल दो अलग किस्म के लोग हैं जो दो अलग रास्तों पर चलते हैं। तो लोगों के जीवन में अंतर होते हैं और इन्हें उनके माता-पिता तय नहीं करते। माता-पिता यह तय नहीं कर सकते कि उनके बच्चों का जीवन कैसा होगा, या उनके बच्चे कैसे माहौल में पैदा होंगे। तुम्हारे माता-पिता न तुम्हारे जीवन के विधाता हैं न ही तुम्हारे भाग्य विधाता। लोगों को उनका जीवन उनके माता-पिता द्वारा नहीं दिया जाता—किसी व्यक्ति का भाग्य उसके जीवन से ज्यादा बड़ा मामला है या छोटा? लोगों के लिए ये दोनों ही मामले बड़े हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि ये वो चीजें नहीं हैं जो लोग अपने सहजज्ञान, काबिलियत या क्षमता का इस्तेमाल करके समझ, हासिल या नियंत्रित कर सकते हैं। लोगों के भाग्य और जीवन पथ का फैसला परमेश्वर ही करता है, वही उस पर राज करता है। कोई भी इंसान इन दोनों मामलों में से किसी एक को नहीं चुन सकता। तुम किस परिवार में जन्म लोगे, या इस जीवन में तुम्हारे माता-पिता कौन होंगे, इसे न तुम चुनते हो, न तुम्हारे माता-पिता। तुम्हें जन्म देने में तुम्हारे माता-पिता भी निश्चेष्ट थे। तो तुम्हारे माता-पिता यह तय नहीं कर सकते कि तुम्हारा भाग्य पथ कैसा होगा, क्या तुम अपने जीवन में बहुत धनी और अमीर होगे, गरीब और निचले दर्जे के होगे, या सिर्फ एक औसत इंसान होगे; वे फैसला नहीं कर सकते कि तुम इस जीवन में कहाँ जाओगे, कहाँ जीवन-यापन करोगे या तुम्हारी शादी कैसी होगी, तुम्हारे बच्चे कैसे होंगे या तुम किस प्रकार के भौतिक माहौल में जियोगे, वगैरह-वगैरह। कुछ ऐसे लोग हैं जिनके परिवार बच्चे को जन्म देने से पहले बहुत संपन्न थे, उनके पास भरपूर कपड़े और खाना था, जरूरत से ज्यादा पैसा था, लेकिन बच्चे ने बड़े होने के बाद परिवार की दौलत उड़ा दी और उन माता-पिता ने चाहे जितना भी धन कमाया हो, वे उस दोनों हाथों से धन उड़ाने वाले बच्चे की फिजूलखर्ची की भरपाई नहीं कर सके। ऐसे भी कुछ लोग हैं जो गरीब थे, लेकिन बच्चे को जन्म देने के कुछ साल बाद उनके पारिवारिक व्यापार पनपने लगे, उनका जीवन सुधर गया, चीजें आसान होती गईं और उनका परिवेश भी और बेहतर होता गया। देखा, ये तमाम चीजें ऐसी हैं जिनकी इन माता-पिता ने उम्मीद नहीं की थी, है कि नहीं? माता-पिता अपने बच्चों के भाग्य का फैसला नहीं कर सकते, और स्वाभाविक रूप से उनका अपने बच्चों के भाग्य से कुछ लेना-देना भी नहीं होता। तुम किस तरह के मार्ग पर चलते हो, कहाँ जाते हो, और इस जीवन में तुम कैसे लोगों से मिलते हो, कितनी विपत्तियों का सामना करते हो, तुम्हारे हिस्से कितनी बड़ी चीजें और कितनी दौलत आती है—इन तमाम चीजों का तुम्हारे माता-पिता से या उनकी अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है। सभी माता-पिता कामना करते हैं कि उनका बच्चा तरक्की करे, लेकिन क्या यह कामना पूरी होती है? जरूरी नहीं। कुछ बच्चे जरूर तरक्की करते हैं, जैसा कि उनके माता-पिता चाहते थे, और वे उच्च अधिकारी बन जाते हैं, अमीर हो जाते हैं और बढ़िया जीवन जीते हैं, लेकिन उनके माता-पिता इस अच्छी दौलत का आनंद लिए बिना या इस छत्रछाया में आराम किए बिना कुछ ही वर्षों में बीमार पड़कर मर जाते हैं। क्या किसी व्यक्ति के भाग्य का अपने माता-पिता के भाग्य से कोई सरोकार होता है? नहीं। ऐसा नहीं है कि तुम अपने माता-पिता की हर कोई अपेक्षा पूरी कर सकते हो। किसी व्यक्ति के भाग्य का उसके माता-पिता के भाग्य से कोई सरोकार नहीं होता और किसी व्यक्ति के माता-पिता उसका भाग्य तय नहीं कर सकते। भले ही तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया और तुम्हारी सँभावनाओं, तुम्हारे आदर्शों और भविष्य के तुम्हारे भाग्य की बुनियाद डालने के लिए बहुत-से काम किए, मगर वे यह तय नहीं कर सकते कि तुम्हारा भाग्य या भविष्य में तुम्हारा जीवन पथ कैसा होगा—इन चीजों का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भाग्य विधाता नहीं हैं, और वे तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं बदल सकते। अगर तुम्हारे भाग्य में धनी होना लिखा है, तो तुम्हारे माता-पिता कितने ही गरीब या नाकाबिल क्यों न हों, तुम वह दौलत हासिल कर लोगे जो तुम्हारे नसीब में है। अगर तुम्हारी नियति में गरीब, साधारण या निचले दर्जे का इंसान होना लिखा है, तो तुम्हारे माता-पिता चाहे जितने भी काबिल क्यों न हों, वे तुम्हारी सहायता नहीं कर सकेंगे। अगर तुम्हें परमेश्वर ने चुना है और तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो, यानी परमेश्वर ने तुम्हें पूर्व-नियत किया है, तो तुम्हारे माता-पिता चाहे जितने शक्तिशाली या काबिल क्यों न हों, वे चाहकर भी परमेश्वर में तुम्हारी आस्था में रुकावट पैदा नहीं कर सकते। चूँकि तुम परमेश्वर के घर के सदस्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक बनने के लिए नियत हो, इसलिए तुम इससे बच नहीं सकते। किसी व्यक्ति का भाग्य सिर्फ परमेश्वर की संप्रभुता और उसके विधान से जुड़ा होता है; इसका उसके माता-पिता की कामनाओं और अपेक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। स्वाभाविक रूप से, इसका व्यक्ति की रुचियों, अभिरुचियों, चरित्र, आकांक्षाओं, काबिलियत या क्षमताओं से भी कोई लेना-देना नहीं होता। इसलिए, “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं,” इस सत्य के आधार पर तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को किस दृष्टि से देखना चाहिए? क्या तुम्हें उन्हें पूरी तरह से स्वीकार कर लेना चाहिए, उनकी अनदेखी करनी चाहिए या उनसे तार्किक ढंग से पेश आना चाहिए? तुम्हारे जीवन या तुम्हारे भाग्य के मामले में तुम्हारे माता-पिता बस सामान्य लोग हैं, वे जो चाहे अपेक्षा कर सकते हैं, जो चाहे कह सकते हैं। वे जो चाहें उन्हें कहने दो, तुम बस अपना काम करो। उनके साथ बहस करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि चीजें सचमुच जैसी हैं वैसी ही रहेंगी। यह बहस में से पैदा नहीं होतीं और मनुष्य की इच्छा के आधार पर नहीं खिसकतीं। अपने माता-पिता का भाग्य तय करना तो दूर रहा, तुम अपना भाग्य भी तय नहीं कर सकते! क्या बात ऐसी नहीं है? (जरूर है।) हालाँकि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे बड़े हैं, फिर भी उनका तुम्हारे भाग्य से कोई संबंध या जुड़ाव नहीं है। तुम्हारे माता-पिता को सिर्फ इस कारण तुम्हारा भाग्य लिखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वे तुमसे कई साल बड़े हैं, एक पीढ़ी बड़े हैं। यह अतार्किक है, घिनौना है। इसलिए जब भी तुम्हारे माता-पिता जीवन में तुम्हारे पथ के बारे में कुछ कहना चाहें, या तुमसे अपनी अपेक्षाएँ बताएँ, तो तुम्हें उस बात से शांति से और तार्किक ढंग से पेश आना चाहिए, क्योंकि वे तुम्हारे भाग्य विधाता नहीं हैं। उनसे कहो : “मेरा भाग्य परमेश्वर के हाथों में है—कोई भी व्यक्ति इसे नहीं बदल सकता।” कोई भी इंसान अपने भाग्य को या किसी दूसरे व्यक्ति के भाग्य को काबू में नहीं कर सकता, और तुम्हारे माता-पिता के पास भी ऐसा करने की योग्यता नहीं है। माता-पिता को छोड़ दो, तुम्हारे पूर्वजों के पास भी ऐसा करने की योग्यता नहीं है। वह अकेला कौन है जिसके पास यह योग्यता है? (केवल परमेश्वर।) एकमात्र परमेश्वर ही लोगों के भाग्य पर राज करने की योग्यता रखता है।

कुछ लोग सैद्धांतिक तौर पर मानते हैं कि : “मेरे माता-पिता मेरे भाग्य में दखल नहीं दे सकते। हालाँकि उन्होंने मुझे जन्म दिया, फिर भी मुझे मेरा जीवन उन्होंने नहीं दिया, यह मुझे परमेश्वर ने दिया। मेरा सब-कुछ मुझे परमेश्वर ने दिया है। परमेश्वर ने मुझे बस उनके जरिए पाल-पोस कर बड़ा किया, और मुझे अब तक जीने योग्य बनाया। असलियत में यह परमेश्वर ही था जिसने मुझे पाल-पोस कर बड़ा किया।” वे ये बातें अच्छी तरह और बहुत स्पष्ट रूप से कहते हैं, लेकिन कुछ खास हालात में लोग अपने स्नेह पर विजय नहीं पा सकते, या इस वक्तव्य को नहीं मान सकते : “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं।” कुछ खास हालात में लोगों पर उनकी भावनाएँ हावी हो जाती हैं, वे कुछ प्रलोभनों में फँस जाते हैं या कमजोर पड़ जाते हैं। परमेश्वर के कुछ विश्वासी लोग सरकार और धार्मिक संसार से उत्पीड़न और तिरस्कार सहते हैं, उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया जाता है, फिर भी वे ठान लेते हैं कि भले ही उन्हें कैसी भी यातना सहनी पड़े, वे कभी यहूदा नहीं बनेंगे और अपने भाई-बहनों को कभी धोखा नहीं देंगे, या कलीसिया की किसी भी जानकारी का खुलासा नहीं करेंगे—वे यहूदा बनने के बजाय मर जाना पसंद करेंगे। इस वजह से उन्हें इस हद तक सता कर यातना दी जाती है कि वे इंसानों के समान नहीं लगते, उनकी आँखें इतनी ज्यादा सूज जाती हैं कि वे दरारें बन जाती हैं और वे साफ नहीं देख सकते, उनके कान बहरे हो जाते हैं, दाँत टूट जाते हैं, मुँह के कोनों के फट जाने से खून रिसता है, उनकी टाँगें ठीक काम नहीं करतीं, पूरा शरीर सूज जाता है, छिल जाता है। लेकिन उन्हें जैसे भी सताया जाए, वे विश्वासघात नहीं करते—वे यहूदा न बनने और परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में दृढ़ रहने की ठान लेते हैं। अब तक, वे बहुत मजबूत दिखाई देते हैं, गवाही युक्त लगते हैं, है कि नहीं? वे यातना और संत्रास से गुजरे, मगर यहूदा नहीं बने, और उन्हें इस तरह कई दिन और कई रात यातना दी गई। जब दानव ऐसे किसी इंसान को देखता है, तो सोचता है : “यह व्यक्ति सचमुच सशक्त है, उसे बड़ी गहराई से जहर दिया गया है। उसे सचमुच परमेश्वर जैसा बना दिया गया है। वह बहुत छोटा है, मगर इस हाल तक सताए जाने के बाद भी उसने एक भी वचन नहीं तोड़ा है। मैं इस बारे में क्या करूँ? लगता है यह व्यक्ति एक महत्वपूर्ण हस्ती है, कलीसिया के बारे में बहुत-कुछ जानता होगा। अगर मैं इसके मुँह से कुछ सूचना निकलवा सकूँ, तो हम बहुत-से लोगों को गिरफ्तार कर ढेरों पैसा बना सकेंगे!” फिर दानव कुछ सोच-विचार करने लगता है : “मैं उसका मुँह कैसे खोलूँ, उससे कुछ लोगों के बारे में थोड़ी जानकारी और सूचना कैसे उगलवाऊँ? सभी शक्तिशाली लोगों की एक कमजोर नब्ज होती है—कुंग फू का अभ्यास करने वालों की ही तरह। कोई कुंग फू में चाहे जितना भी माहिर क्यों न हो, आखिर उसकी भी एक कमजोर नब्ज होती है। हर इंसान की एक कमजोर नब्ज होती है, तो चलो खास उस पर हमला बोलें। इसकी कमजोर नब्ज क्या है? मैंने सुना है कि यह अपने माता-पिता का अकेला बच्चा है, और बचपन से ही उसके माता-पिता ने उसे बहुत लाड़-प्यार देकर बिगाड़ दिया है। मैंने सुना है कि वे इसकी सचमुच परवाह करते हैं, इससे बेहद प्यार करते हैं, और यह उनके प्रति बहुत संतानोचित है। अगर मैं इसके माता-पिता को यहाँ ले आऊँ और उनसे इस पर कुछ मनोवैज्ञानिक प्रभाव डलवाऊँ, तो शायद उनकी बातें कुछ काम कर जाएँ।” फिर दानव उसके माता-पिता को ले आता है। अंदाजा लगाओ कि माता-पिता को देखते ही उसे क्या होता है। उनसे मिलने से पहले उसने सोचा : “हे परमेश्वर, मैंने अपनी गवाही में दृढ़ रहने की ठानी है। मैं बिल्कुल यहूदा नहीं बनूँगा!” लेकिन माता-पिता को देखते ही उसका दिल टूटने की कगार पर पहुँच जाता है। सबसे पहले वह ऐसा महसूस करता है, “मैंने अपने माता-पिता को निराश किया, मुझे इस हाल में देख कर उन्हें जरूर बहुत पीड़ा हुई होगी,” और फिर वह रो पड़ता है। वह अब भी मन-ही-मन में अड़ा रहता है : “मैं यहूदा नहीं बनूँगा, मुझे परमेश्वर की अपनी गवाही में दृढ़ रहना होगा। मैंने गलत पथ नहीं पकड़ा है, मैं जीवन में सही पथ पर चल रहा हूँ। मुझे शैतान को अपमानित कर परमेश्वर की गवाही देनी होगी!” अपने दिल में वह दृढ़ है, और इस पर बार-बार जोर देता है, लेकिन भावनात्मक रूप से वह इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता और एक ही पल में उसका दिल टूटने को हो जाता है। तुम्हारे ख्याल से उसके माता-पिता को यह देख कर कैसा लगा होगा कि उनके बच्चे को इस हद तक सताया गया है? मैं उसके पिता की बात नहीं करूँगा, लेकिन उसकी माँ का दिल तो टूट जाता है। जब वह देखती है कि उसके बच्चे को इस हद तक सताया गया है कि अब वह इंसान जैसा ही नहीं लगता, तो उसे बड़ी वेदना, बेचैनी और पीड़ा होती है, और उसकी ओर चलते-चलते वह काँपने लगती है। ऐसे समय में तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी? तुम देखने की हिम्मत नहीं करोगे, करोगे क्या? देखो, तुमने कुछ भी नहीं कहा, तुम्हारे माता-पिता ने कुछ नहीं कहा, लेकिन तुम टूट चुके होगे, अपनी भावनाओं को जीत नहीं पाए होगे। तुम मन-ही-मन सोचोगे : “मेरे माता-पिता की उम्र हो चली है, उनकी सेहत ठीक नहीं है और वे दिन गुजारने के लिए एक-दूसरे के भरोसे रहते हैं। उन्होंने मुझ जैसे बच्चे को जन्म दिया, और अब तक मैंने उनकी कोई भी अपेक्षा पूरी नहीं की, और अब मैं उनके लिए इतनी मुसीबत लाया हूँ, मैंने उन्हें इतना ज्यादा शर्मिंदा किया कि उन्हें यहाँ आकर मुझे पीड़ा की इस हालत में देखना पड़ा।” अनजाने ही तुम अपने दिल की गहराई में महसूस करोगे कि तुम एक संतानोचित बच्चे नहीं हो, और तुमने अपने माता-पिता का दिल दुखा कर उन्हें निराश किया है, उन्हें चिंता दी है और निराश किया है। तुम और तुम्हारे माता-पिता दोनों ही अलग-अलग कारणों से बहुत अधिक वेदना अनुभव करोगे। तुम्हारे माता-पिता के लिए यह इसलिए होगा क्योंकि उन्हें तुम्हारे लिए बुरा लगा और वे तुम्हें इस तरह कष्ट सहते हुए नहीं देख पाए। तुम्हारे लिए यह इसलिए होगा क्योंकि तुमने अपने माता-पिता को बहुत ज्यादा दुखी और संतप्त देखा, और तुम उन्हें अपने बारे में दुखी और चिंतित नहीं देख पा रहे थे। क्या ये दोनों ही बातें भावनाओं का प्रभाव नहीं हैं? अभी तक इन सबको सामान्य माना जा सकता है, और इससे तुम्हारी गवाही में दृढ़ रहने पर अब तक प्रभाव नहीं पड़ा होगा। मान लो कि तब तुम्हारे माता-पिता कहते : “तू पहले कितना तंदुरुस्त और तगड़ा था, और अब पीट-पीट कर तेरी यह हालत कर दी गई है। बचपन से ही हमने तुझे अपनी आँखों का तारा माना। हमने तुझ पर कभी हाथ नहीं उठाया। तूने अपने साथ ऐसा कैसे होने दिया? हमने तुझे कभी पीटना नहीं चाहा; तुझे हमेशा संजोया और प्यार किया—‘तेरे पिघल जाने के डर से हमने तुझे अपने मुँह में झूला नहीं झुलाया, तू टूट जाएगा इस डर से हमने तुझे अपनी हथेलियों में नहीं पकड़ा।’ हम तुझे इतना संजोते हैं, मगर यह काफी नहीं है। तू हमारा ख्याल न रखे तो कोई बात नहीं, लेकिन अब तू कोई भी जानकारी सौंपने से मना कर रहा है, और परमेश्वर में विश्वास रखने और उसकी गवाही देने की चाह के कारण तू इतनी पीड़ा सह रहा है, और इस हाल तक सताए जाने के बावजूद मान नहीं रहा है। तू इतना जिद्दी कैसे बन सकता है? तू परमेश्वर में विश्वास रखने पर इतना क्यों अड़ा हुआ है? ‘तुझे तेरा शरीर तेरे माता-पिता ने दिया था।’ क्या अपने साथ ऐसा होने दे कर तू हमारे साथ ठीक कर रहा है? अगर तुझे सचमुच कुछ हो गया, तो तुझे कैसे लगता है कि हम दोनों जिंदा रह पाएँगे? हम अपेक्षा नहीं करते कि हमारे बूढ़े हो जाने पर तू हमारी देखभाल करे या हमारी अंत्येष्टि की व्यवस्था करे, हम बस इतना चाहते हैं कि तू ठीक रहे। हमारा सब-कुछ तू ही है, अगर तू ठीक नहीं रहा, अगर तू चला गया, तो हम अपनी बाकी जिंदगी कैसे गुजारेंगे? तेरे सिवाय हमारा कौन है? हमारी और क्या उम्मीदें हैं?” इस कथनी का प्रत्येक शब्द तुम्हें वहीं चोट पहुँचाएगा जहाँ सचमुच दर्द होता है, तुम्हारी भावनात्मक जरूरतें पूरी करता है और साथ ही तुम्हारी भावनाओं और जमीर को प्रेरित करता है। अपने माता-पिता के यह कहने से पहले तुमने अपने दिल की गहराई में दृढ़ विश्वास और दृष्टिकोण बनाए रखा था, लेकिन उनसे भर्त्सना सुनकर क्या तुम्हारे दिल की रक्षा पंक्ति ध्वस्त नहीं हो जाएगी? “‘तुम्हें तुम्हारा शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था।’ तूने अच्छी नौकरी छोड़ दी, अपनी बढ़िया संभावनाओं का परित्याग कर दिया और शानदार जीवन छोड़ दिया। तू परमेश्वर में विश्वास रखने पर अड़ा हुआ है, और तूने खुद को इस तरह बरबाद होने दिया है—क्या तू हमारे साथ सही कर रहा है?” ये बातें सुनने के बाद क्या कोई भी इंसान रोए बिना रह सकेगा? ये बातें सुनने के बाद क्या कोई इंसान खुद को धिक्कारे बिना रह सकेगा? क्या वह इस अहसास से बच सकेगा कि उसने अपने माता-पिता को निराश किया है? क्या किसी को यह आभास हो पाया कि शैतान उन्हें ललचा रहा था? क्या कोई व्यक्ति इससे महज भावनात्मक रूप से प्रभावित होकर भी तार्किक ढंग से पेश आ सकता है? क्या कोई ये बातें सुनने के बाद इस वक्तव्य में अपना विश्वास बनाए रख सकता है, “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या भाग्य के विधाता नहीं हैं, और वे तुम्हारे लेनदार नहीं हैं”? क्या कोई भावनात्मक रूप से कमजोर महसूस करने के बावजूद अपने कर्तव्य और दायित्व और उस गवाही का परित्याग करने से खुद को रोक सकता है, जिसे एक सृजित प्राणी को दृढ़ता से सँभाले रहना चाहिए? इनमें से कौन-सी चीज तुम लोग संपन्न कर सकते हो? अगर अपनी भावनाओं के संदर्भ में, तुम अपने माता-पिता को लेकर थोड़े परेशान थे, थोड़े आँसू बहा रहे थे और उनके लिए बुरा महसूस कर रहे थे, मगर तब भी परमेश्वर के वचन में तुम्हारी आस्था बरकरार थी, और तुम उस गवाही को संभाले हुए थे जिस पर तुम्हें दृढ़ रहना चाहिए, उस कर्तव्य को संभाले हुए थे, जिसका निर्वाह तुम्हें करना चाहिए, उस गवाही, जिम्मेदारी और कर्तव्य को तुमने नहीं खोया था जो सृष्टि प्रभु के समक्ष एक सृजित प्राणी का होता है, तो तुम दृढ़ बने रहोगे। लेकिन अगर, जब तुमने अपनी माँ को रोते हुए तुम्हारी भर्त्सना करते देखा तो तुम अपनी भावनाओं में डूब गए, सोचने लगे कि तुम संतानोचित नहीं थे, कि तुमने गलत विकल्प चुना था, पछता रहे थे और चलते रहने के अनिच्छुक थे, सृजित प्राणी को जो गवाही रखनी चाहिए उसका और जो कर्तव्य, जिम्मेदारी और दायित्व एक सृजित प्राणी को पूरा करना चाहिए और अपने माता-पिता की ओर लौट आने, उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहते हो और उन्हें अब तुम्हारी खातिर कष्ट न सहने, चिंता न करने देना चाहते हो, तो तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होगी, और तुम परमेश्वर का अनुसरण करने योग्य नहीं रहोगे। परमेश्वर ने अपना अनुसरण करने वालों से क्या कहा था? (क्या उसने नहीं कहा था : “यदि कोई मेरे पास आए, और अपने पिता और माता और पत्नी और बच्‍चों और भाइयों और बहिनों वरन् अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता” (लूका 14:26)? यह पँक्ति बाइबल में है।) अगर अपने माता-पिता के लिए तुम्हारा प्यार परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम से अधिक है, तो तुम परमेश्वर का अनुसरण करने योग्य नहीं हो, तुम उसके अनुयायियों में शामिल नहीं हो। अगर तुम उसके अनुयायियों में से एक नहीं हो, तो कहा जा सकता है कि तुम विजयी नहीं हो और परमेश्वर को तुम्हारी जरूरत नहीं है। इस परीक्षण के जरिये तुम उजागर हो गए हो, तुम अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रहे। तुमने शैतान की यातना के आगे घुटने नहीं टेके, लेकिन अपने माता-पिता की भर्त्सना की कुछ बातें तुम्हें झुका देने के लिए काफी थीं। तुम कायर हो और तुमने परमेश्वर को धोखा दिया है। तुम परमेश्वर के अनुसरण करने के योग्य नहीं हो, उसके अनुयायी नहीं हो। माता-पिता अक्सर कहते हैं : “मैं तुमसे और कुछ नहीं माँगूंगा, मैं तुमसे बहुत दौलतमंद होने को नहीं कहूँगा, मैं बस यही उम्मीद करता हूँ कि तुम इस जीवन में स्वस्थ और सुरक्षित रहो। तुम्हें खुश देखना ही काफी है।” तो जब तुम्हें यातना दी जाएगी, तो तुम्हें लगेगा कि तुमने अपने माता-पिता को निराश कर दिया है : “मेरे माता-पिता ज्यादा कुछ नहीं माँगते, फिर भी मैं उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा।” क्या यह विचार सही है? क्या तुमने उनकी इच्छा पूरी नहीं की? (नहीं।) क्या यह तुम्हारी गलती है कि शैतान ने तुम्हें सताया? क्या यह तुम्हारी गलती है कि तुम्हें बुरी तरह से पीटा गया, यातना दी गई और बर्बरता से सताया गया? (नहीं।) शैतान ने ही तुम्हें सताया, तुमने खुद को बरबाद नहीं किया। तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, और तुम एक सच्चा इंसान बन रहे हो। तुम्हारे चयन और तुम्हारे सभी कार्य परमेश्वर की गवाही दे रहे थे, और तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहे थे। ये वे चयन हैं जो प्रत्येक सृजित प्राणी को करने ही चाहिए, और यही वह पथ है जिस पर प्रत्येक सृजित प्राणी को चलना ही चाहिए। यह सही मार्ग है; यह खुद को बरबाद करना नहीं है। हालांकि तुम्हारी देह को यातना दी गई है, और उसने क्रूर और अमानवीय बर्ताव सहा है, यह सब एक न्यायोचित कारण के लिए है। यह गलत पथ पर चलना नहीं है, यह खुद को बरबाद करना नहीं है। तुम्हारी देह का कष्ट सहना, उसे यातना दिया जाना और इस हद तक सताया जाना कि तुम अब मनुष्य के समान नहीं दिखते, तुम्हारे माता-पिता को निराश करना नहीं है। जरूरी नहीं है कि तुम उन्हें कोई स्पष्टीकरण दो। यह तुम्हारी इच्छा है। तुम जीवन के सही पथ पर हो, बात बस इतनी है कि वे समझ नहीं रहे हैं। वे बस माता-पिता के नजरिये से देख रहे हैं, अपनी भावनाओं की खातिर हमेशा तुम्हारी रक्षा करना चाहते हैं, वे नहीं चाहते कि तुम शारीरिक पीड़ा सहो। तुम्हारी रक्षा करने की उनकी इच्छा से क्या पूरा होगा? क्या वे तुम्हारे बदले गवाही दे सकते हैं? क्या वे तुम्हारे बदले एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा सकते हैं? क्या वे तुम्हारे बदले परमेश्वर के मार्ग पर चल सकते हैं? (नहीं।) तुमने सही चयन किया और तुम्हें उस पर टिके रहना चाहिए। तुम्हें उनकी बातों के फेर में पड़ कर गुमराह नहीं होना चाहिए। तुम खुद को बरबाद नहीं कर रहे हो; तुम सही मार्ग पर चल रहे हो। अपनी लगन और अपने सभी कार्यों में तुम सत्य पर कायम हो, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित हो, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे रहे हो, परमेश्वर के नाम का यशगान कर रहे हो। तुमने महज अपनी देह के बर्बर उत्पीड़न का कष्ट सहा है, बस। यह ऐसा कष्ट है जो लोगों को सहना चाहिए; यह वह चीज है जो लोगों को सृष्टि प्रभु को अर्पित करनी चाहिए, यह वह कीमत है जो उन्हें चुकानी चाहिए। तुम्हारा जीवन तुम्हारे माता-पिता से नहीं आया, और तुम्हारे माता-पिता को यह फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं है कि तुम किस पथ पर चलोगे। उन्हें यह फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं है कि तुम अपने शरीर से कैसे पेश आते हो, या अपनी गवाही में दृढ़ रहने के लिए तुम क्या कीमत चुकाते हो। वे बस अपनी दैहिक भावनाओं की जरूरतों और इसे दैहिक भावनाओं के नजरिये से देखने के कारण नहीं चाहते कि तुम शारीरिक कष्ट सहो, बस इतनी सी बात है। लेकिन एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारी देह चाहे जितनी पीड़ा सहे, यह ऐसी चीज है जो तुम्हें सहनी ही चाहिए। उद्धार प्राप्त करने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के लिए लोगों को अनगिनत मूल्य चुकाने चाहिए। यह मनुष्य का दायित्व और जिम्मेदारी है, और यह वह चीज है, जो एक सृजित प्राणी को सृष्टि प्रभु को समर्पित करनी ही चाहिए। चूँकि लोगों का जीवन परमेश्वर से आता है, और उनके शरीर भी परमेश्वर से आते हैं, इसलिए यह वह पीड़ा है जो लोगों को सहनी चाहिए। इसलिए उस पीड़ा के संदर्भ में जो लोगों को सहनी चाहिए, तुम्हारा शरीर चाहे जैसी भी पीड़ा सहे, तुम्हें अपने माता-पिता को कुछ भी समझाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे माता-पिता कहते हैं, “तुम्हें तुम्हारा शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था,” मगर क्या हुआ? भले ही लोगों को उनके माता-पिता जन्म देकर और पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, मगर ऐसा नहीं है कि उनके पास सब-कुछ उनके माता-पिता का दिया हुआ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि चलने के पथ और चुकाई गई कीमत के संदर्भ में लोगों को अपने माता-पिता के दबाव और लाचारी के अधीन होना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं है कि लोगों को सत्य के पथ पर चलने का अनुसरण करने के लिए या सृष्टि प्रभु के समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए अपने माता-पिता की अनुमति लेनी ही चाहिए। इसलिए, तुम्हें अपने माता-पिता को स्पष्टीकरण देने की जरूरत नहीं है। जिसे स्पष्टीकरण देना चाहिए वह परमेश्वर है। चाहे तुम पीड़ा सहो या न सहो, तुम्हें सभी चीजें परमेश्वर को सौंप देनी चाहिए। इसके अलावा, अगर तुम सही मार्ग का अनुसरण कर रहे हो, तो परमेश्वर तुम्हारे द्वारा दी गई सभी कीमतें स्वीकार कर उन्हें याद रखेगा। चूँकि परमेश्वर उन्हें याद रखेगा और मान्यता देगा, इसलिए वे कीमतें चुकाने योग्य ही थीं। तुम्हारी देह को थोड़ी शारीरिक पीड़ा होगी, लेकिन ये कीमतें तुम्हें इस योग्य बनाएँगी कि अंत में तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहो, परमेश्वर की स्वीकृति पाओ और उद्धार प्राप्त करो, और परमेश्वर इन्हें याद रखेगा। इसके बदले में कोई और चीज नहीं दी जा सकती। तुम्हारे माता-पिता की तथाकथित अपेक्षाएँ या आलोचना के बोल, तुम्हें जो कर्तव्य निभाना चाहिए उसके मुकाबले तुच्छ हैं और जिक्र करने लायक नहीं हैं, क्योंकि तुम्हारी सही हुई पीड़ा अत्यंत मूल्यवान और सार्थक है! एक सृजित प्राणी के नजरिये से, यह जीवन की सबसे सार्थक और मूल्यवान चीज है। इसलिए, लोगों को कमजोर और हताश नहीं होना चाहिए, या अपने माता-पिता की बातों की वजह से प्रलोभन में नहीं पड़ना चाहिए, और यकीनन उन्हें पछतावा और अपराध बोध नहीं होना चाहिए या यह नहीं लगना चाहिए कि उन्होंने अपने माता-पिता को उनकी बातों के कारण निराश कर दिया है। लोगों को अपनी सही हुई पीड़ा से सम्मानित महसूस कर यह कहना चाहिए : “परमेश्वर ने मुझे चुना और मेरी देह को इस योग्य बनाया कि यह कीमत चुकाऊँ, और शैतान द्वारा हिंसात्मक तरीके से सताया जाऊँ, ताकि मुझे परमेश्वर की गवाही देने का अवसर मिल सके।” तुम्हारे लिए यह सम्मान की बात है कि परमेश्वर ने तुम्हें उसके तमाम चुने हुए लोगों के बीच में से चुना। तुम्हें इस बारे में दुखी नहीं होना चाहिए। अगर तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहते हो, और शैतान का अपमान करते हो, तो एक सृजित प्राणी के लिए यह जीवन का सबसे बड़ा सम्मान है। क्रूरता से सताए जाने के बाद तुम्हारा शरीर चाहे जैसे रोग या तदनंतर प्रभावों का कष्ट सहे, या तुम्हें इस हालत में देख कर तुम्हारे परिवार और माता-पिता को चाहे जितना कष्ट हो, तुम्हें शर्मिंदा या परेशान नहीं होना चाहिए, या यह नहीं सोचना चाहिए कि तुमने इस वजह से अपने माता-पिता को निराश कर दिया है, क्योंकि तुमने जो कुछ भी किया है वह एक न्यायोचित कार्य के लिए कीमत चुकाना है और यह एक नेक कर्म है। कोई भी व्यक्ति तुम्हारे नेक कर्मों की आलोचना करने की योग्यता नहीं रखता, किसी भी व्यक्ति में तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास रखने, परमेश्वर का अनुसरण करने और अपना कर्तव्य निभाने के बारे में गैर-जिम्मेदार, आलोचनात्मक टिप्पणियाँ या फैसले करने की योग्यता नहीं है। केवल सृष्टि प्रभु ही तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे द्वारा चुकाई गई कीमत और तुम्हारे चयनों को परखने और आलोचना करने की योग्यता रखता है। दूसरा कोई ऐसा फैसला करने की योग्यता नहीं रखता—तुम्हारे माता-पिता सहित कोई भी तुम्हारी आलोचना करने की योग्यता नहीं रखता। अगर वे तुम्हारे सबसे करीबी लोग हैं, तो उन्हें तुम्हें समझना चाहिए, तुम्हें बढ़ावा और ढाढ़स देना चाहिए। उन्हें तुम्हारा यह साथ देना चाहिए कि तुम गवाही में लगन से जुटे रहो, दृढ़ रहो, और शैतान के आगे झुकने या समर्पण से बचे रहो। उन्हें तुम्हारे लिए गर्व और खुशी होनी चाहिए। चूँकि तुम अब तक डटे रहे हो, और शैतान के आगे नहीं झुके हो ताकि तुम अपनी गवाही में अडिग रहे सको, इसलिए उन्हें तुम्हारा हौसला बढ़ाना चाहिए। उन्हें तुम्हें रोकना नहीं चाहिए, तुम्हारी भर्त्सना तो बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। अगर तुमने कुछ बुरा किया हो, तो उन्हें तुम्हारी आलोचना करने का हक होगा, अगर तुमने गलत राह पकड़ी, परमेश्वर का अपमान किया, सकारात्मक चीजों और सत्य के साथ विश्वासघात किया, तो उन्हें तुम्हारी आलोचना करने का हक होगा। लेकिन चूँकि तुम्हारे सभी कार्य सकारात्मक थे, और परमेश्वर उन्हें स्वीकार कर उन्हें याद रखता है, इसलिए अगर वे तुम्हारी आलोचना करते हैं तो इसकी वजह सिर्फ यह है कि वे अच्छे-बुरे के बीच फर्क नहीं कर पाते। गलत यही लोग हैं। तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास रखने, सही पथ पर चलने और एक नेक इंसान बनने को लेकर वे परेशान हैं—ऐसा क्यों है कि शैतान तुम्हें सताता है तो वे उसकी आलोचना नहीं करते? वे अपनी भावनाओं के कारण तुम्हारी आलोचना करते हैं—तुमने क्या गलत किया? क्या तुमने बस खुद को यहूदा बनने से नहीं रोका? तुम यहूदा नहीं बने, तुमने शैतान के साथ सहयोग या समझौता करने से मना किया, और तुमने अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़े रहने के प्रयास में यह यातना और अमानवीय बर्ताव सहा—इसमें गलत क्या है? तुमने कुछ भी गलत नहीं किया। परमेश्वर के नजरिये से, वह तुम्हारे लिए खुश होता है, उसे तुम पर गर्व होता है। फिर भी तुम्हारे माता-पिता तुम्हारी वजह से शर्मिंदा महसूस करते हैं, और तुम्हारे नेक कर्मों की आलोचना करते हैं—क्या यह अच्छे को बुरा समझना नहीं है? क्या ये अच्छे माता-पिता हैं? वे शैतान, बुरे लोगों और दानवों की आलोचना क्यों नहीं करते जो तुम्हें सताते हैं? तुम्हें अपने माता-पिता से कोई ढाढ़स, हौसला या समर्थन तो नहीं मिला, उलटे वे तुम्हारी आलोचना कर तुम्हें डाँटते-डपटते हैं, जबकि शैतान चाहे जो करे उसकी निंदा नहीं करते, उसे श्राप नहीं देते। वे उसे अपने मुँह से एक भी गाली सुनाने या उसकी भर्त्सना करने की हिम्मत नहीं करते। वे नहीं कहते : “तुम किसी नेक इंसान को सताकर उसकी ऐसी दुर्गति कैसे कर सकते हो? उसने परमेश्वर में विश्वास रखने और सही मार्ग पर चलने के सिवाय और क्या किया, सही है न? उसने कोई चीज नहीं चुराई, किसी को लूटा नहीं, कोई कानून नहीं तोड़ा, तुम लोगों ने फिर उसे इस तरह क्यों सताया? तुम सबको ऐसे लोगों को प्रोत्साहन देना चाहिए। अगर समाज में सभी लोग परमेश्वर में विश्वास रखें और सही मार्ग पर चलें, तो इस समाज को कानूनों की जरूरत नहीं पड़ेगी, अपराध होंगे ही नहीं।” वे उसकी इस तरह आलोचना क्यों नहीं करते? वे तुम्हें सताने वाले शैतानों और दानवों की आलोचना करने की हिम्मत क्यों नहीं करते? सही मार्ग पर चलने के लिए वे तुम्हारी भर्त्सना करते हैं, लेकिन बुरे लोगों के दुष्कर्म करने पर वे बस मौन स्वीकृति देते हैं। ऐसे माता-पिता के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या तुम्हें उनके लिए दुखी होना चाहिए? क्या तुम्हें अपनी संतानोचित निष्ठा दिखानी चाहिए? (नहीं।) क्या तुम्हें उनसे दिल से प्रेम करना चाहिए? क्या वे तुम्हारी संतानोचित निष्ठा के योग्य हैं? (नहीं।) वे नहीं हैं। वे सही-गलत या अच्छे-बुरे में फर्क नहीं कर सकते। वे असमंजस में पड़े लोगों का जोड़ा हैं। भावनाओं के अलावा वे कुछ भी नहीं समझते। वे नहीं समझते कि न्याय क्या है, या सही मार्ग पर चलने का अर्थ क्या है, वे नहीं जानते कि नकारात्मक चीजें क्या हैं, या दुष्ट ताकतें क्या हैं, वे सिर्फ अपनी देह और अपनी भावनाओं को बचाए रखना जानते हैं। दैहिक संबंधों के इस सबसे सतही स्तर के अलावा, उनके दिलों में सिर्फ यह विचार है : “अगर मेरे बच्चे सुरक्षित और ठीक हैं, तो मैं खुश और आभारी हूँ।” वे बस इतना ही सोचते हैं। जीवन में सही मार्ग, न्यायोचित कारणों या व्यक्ति को अपने जीवन में जो सबसे मूल्यवान और सार्थक चीज करनी चाहिए, उसकी बात आने पर, वे इनमें से कोई भी चीज नहीं समझते। वे ये चीजें नहीं समझते और वे सही मार्ग पर चलने को लेकर तुम्हें डाँटते-डपटते हैं—वे सचमुच बेहद असमंजस में हैं। ऐसे माता-पिता के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या वे बूढ़े दानवों का जोड़ा नहीं हैं? तुम्हें अपने मन में चिंतन करना चाहिए : “अरे, दो बूढ़े दानवो!—अब तक मैंने बहुत पिटाई सही है, बहुत यातना सही है, इन दिनों मैं दिन-रात परमेश्वर से प्रार्थना करता रहा हूँ, और वह मेरी देखभाल कर मुझे सलामत रखता रहा है, इसीलिए मैं अब तक जीवित रह पाया हूँ। मैं बड़ी मुश्किल से अपनी गवाही में दृढ़ रहा हूँ, और तुम लोगों ने चंद शब्दों में इसे पूरी तरह से नकार दिया है। क्या मेरा सही मार्ग पर चलना गलत है? क्या मेरा एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना गलत है? यकीनन यहूदा न बन कर मैंने गलत नहीं किया है? हे दो बूढ़े दानवो! ‘तुम्हें तुम्हारा शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था’—मेरे पास जो भी है वह परमेश्वर से आया, क्या यह सब आप लोगों ने मुझे दिया? बस इतना ही है कि परमेश्वर ने नियत किया कि आप लोग मुझे जन्म देंगे, पालेंगे-पोसेंगे और अपने हाथों से बड़ा करेंगे। आप लोग बस अपनी भावनात्मक जरूरतें पूरी करने के लिए मेरे बारे में दुखी, पीड़ित और परेशान हैं। तुम्हें डर है कि अगर मैं मर गया, तो बूढ़े हो जाने पर तुम्हारी देखभाल या अंत्येष्टि करने वाला कोई नहीं होगा। तुम्हें डर है कि जग-हँसाई होगी और लोग सोचेंगे कि मैंने तुम लोगों को शर्मिंदा कर दिया है।” अगर कोई अपराध करने, कुछ चुराने या किसी को लूटने, धोखा देने या कोई घोटाला करने के कारण तुम जेल चले गए, तो वे तुम्हारे लिए शायद यह कह कर लड़ें : “मेरा बच्चा नेक है, उसने कुछ भी बुरा नहीं किया है। उसकी प्रकृति बुरी नहीं है, वह अच्छा और दयालु है। बात बस इतनी है कि इस दुनिया के बुरे चलनों ने उस पर गलत असर डाला है। उम्मीद करता हूँ कि सरकार उससे नरमी से पेश आएगी।” वे तुम्हारे लिए लड़ेंगे, लेकिन चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास के पथ पर चल रहे हो, सही मार्ग पर चल रहे हो, इसलिए वे अपने दिल की गहराई से तुमसे घृणा करते हैं। वे तुमसे किस प्रकार घृणा करते हैं? “देखो तुमने अपना क्या हाल बना लिया है। क्या तुम हमारे साथ सही कर रहे हो?” तुम्हें अपने दिल में सोचना चाहिए : “उनका यह कहने का क्या अर्थ है : ‘देखो तुमने अपना क्या हाल बना लिया है’? मैं तो बस जीवन के सही मार्ग पर चल रहा हूँ—इसे सच्चा व्यक्ति होना कहा जाता है! इसे नेक कर्म और गवाही रखना कहा जाता है; यह शक्ति है। ऐसे लोगों के पास ही सच में जमीर और समझ होती है, वे कायर, निकम्मे या यहूदा नहीं होते। मैंने अपना क्या हाल बना लिया है? यह सच्ची मानवता है! न सिर्फ तुम लोग मेरे लिए खुश नहीं हो, मेरी भर्त्सना भी कर रहे हो—तुम लोग कैसे माता-पिता हो? तुम लोग माता-पिता होने योग्य नहीं हो, तुम्हें धिक्कार है!” अगर तुम यूँ सोचते हो, तो क्या अपने माता-पिता की यह बात सुनकर तुम अभी भी रोओगे : “तुम्हें तुम्हारा शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था, तुम खुद को इस तरह बरबाद कैसे कर सकते हो”? (नहीं।) यह बात सुनकर तुम क्या सोचोगे? “कैसी घोर वाहियात बात है। यह सचमुच बूढ़े बेवकूफों का जोड़ा है! ‘तुम्हें तुम्हारा शरीर तुम्हारे माता-पिता ने दिया था।’—तुम यह भी नहीं जानते कि तुम्हें यह शरीर किसने दिया, और मेरी भर्त्सना करने के लिए ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हो, तुम सचमुच कितने ज्यादा पसोपेश में हो! यह स्पष्ट है कि दानव और शैतान ही मुझे सता रहे हैं। तुम अच्छे को बुरा कैसे समझ सकते हो और उनकी आलोचना के बजाय मेरी आलोचना कैसे कर सकते हैं? क्या मैंने कानून तोड़ा? क्या मैंने कुछ चुराया या किसी को लूटा, क्या मैंने किसी को धोखा दिया, या किसी के साथ घोटाला किया? मैंने कौन-से कानून तोड़े? मैंने कोई भी कानून नहीं तोड़ा, मैं सही मार्ग पर चलता हूँ, इसलिए शैतान ने सता-सता कर मेरा यह हाल बना दिया है। मैंने अब तक परमेश्वर के एक भी वचन के साथ धोखा नहीं किया, मैं यहूदा नहीं बना—और ऐसा कौन है जिसमें ऐसी शक्ति है? तुम मेरी प्रशंसा नहीं करते, मुझे बढ़ावा नहीं देते, बस मेरी भर्त्सना करते हो। तुम दानव हो!” अगर तुम यूँ सोचते हो, तो तुम रोओगे नहीं या कमजोर नहीं पड़ोगे, है कि नहीं? तुम्हारे माता-पिता सही और गलत में भेद नहीं कर सकते, वे अच्छे को बुरा मान लेते हैं, क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, और वे सत्य को नहीं समझते। तुम सत्य को समझते हो, इसलिए तुम्हें उनकी इन दानवी बातों और भ्रांतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें सत्य को कायम रखना चाहिए। इस प्रकार, तुम सचमुच अपनी गवाही में दृढ़ बने रहोगे। क्या बात ऐसी नहीं है? (जरूर है।)

मुझे बताओ, क्या अपनी गवाही में दृढ़ रहना आसान है? सबसे पहले, तुम्हें अपनी भावनाओं से मुक्त होना चाहिए, दूसरे, तुम्हें सत्य को समझना चाहिए। तभी तुम कोई कमजोरी महसूस नहीं करोगे, अपनी गवाही में दृढ़ रह सकोगे, और इस तरह के खास हालात में परमेश्वर को मान्य और स्वीकार्य होगे; तभी परमेश्वर तुम्हें एक विजेता और अपना अनुयायी मानेगा; जब तुम प्रबल हो जाओगे, अपने माता-पिता को निराश न करने के बजाय परमेश्वर को निराश नहीं करोगे, तब तुम अपने माता-पिता की तमाम अपेक्षाओं को जाने दे पाओगे, सही है न? तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ महत्वपूर्ण नहीं हैं, वे कोई मायने नहीं रखतीं; परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरना और परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में दृढ़ रहना सबसे महत्वपूर्ण हैं, एक सृजित प्राणी में ऐसा ही रवैया और अनुसरण होने चाहिए। क्या मामला यह नहीं है? (जरूर है।) जब तुम कमजोर महसूस करो, अपनी राह भूल जाओ, खास तौर से सही मार्ग पर चलते समय जब शैतान तुम्हें घेर कर सताए, या सांसारिक दुनिया के लोग भर्त्सना कर तुम्हारा मजाक उड़ाएँ और तुम्हें ठुकरा दें, तो तुम्हारे आसपास के लोग—रिश्तेदार, दोस्त और परिचित—सोचने लगेंगे कि तुमने कोई शर्मिंदगी भरा काम किया है, फिर कोई भी तुम्हें नहीं समझेगा, बढ़ावा नहीं देगा, समर्थन या दिलासा नहीं देगा। तुम्हारी मदद करना, तुम्हें रास्ता दिखाना या अभ्यास का मार्ग दिखाना तो दूर की बात है। इसमें तुम्हारे माता-पिता भी शामिल हैं। चूँकि तुम उनके साथ नहीं हो, उन्हें संतानोचित निष्ठा नहीं दिखा रहे हो, या चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य निभाने के कारण अच्छे ढंग से जीने में उनकी मदद नहीं कर रहे हो, या उनकी दयालुता की कीमत नहीं चुका रहे हो, इसलिए वे तुम्हें नहीं समझेंगे। उनका नजरिया सांसारिक दुनिया के लोगों जैसा ही होगा—वे सोचेंगे कि तुमने उन्हें शर्मिंदा किया है, तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करने के बदले में उन्हें कुछ भी नहीं मिला है, उन्हें तुमसे कोई लाभ नहीं मिला, तुमने उनकी अपेक्षाएँ पूरी नहीं की हैं, तुमने उन्हें निराश किया है, और तुम लापरवाह अहसान फरामोश हो। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें नहीं समझेंगे, वे तुम्हें कोई सकारात्मक मार्गदर्शन नहीं दे पाएँगे, तुम्हारे रिश्तेदारों और दोस्तों की तो बात करना ही बेकार है। जब तुम सही मार्ग पर चलते हो, तो केवल परमेश्वर ही अनथक रूप से तुम्हें बढ़ावा, सहायता, आराम और पोषण देता है। जब तुम्हें जेल में यातना देकर सताया जा रहा होता है, तब सिर्फ परमेश्वर के वचन और उसने तुम्हें जो आस्था दी है वे हर पल, हर घड़ी, हर दिन तुम्हारा पोषण करते हैं। इसलिए, घोर पिटाई सहते समय भी तुम परमेश्वर के वचनों और उससे मिली आस्था के कारण ही उसके लिए अपनी गवाही में दृढ़ रहना चाहोगे, यहूदा बनने से बचे रहकर परमेश्वर के नाम को गौरवान्वित और शैतान को अपमानित करना चाहोगे। तुम एक लिहाज से अपने संकल्प के कारण, और एक दूसरे और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण एक दूसरे लिहाज से परमेश्वर के मार्गदर्शन, देखरेख और अगुआई के कारण ये चीजें कर पाओगे। जबकि इस समय जब तुम्हें मदद और दिलासा की सबसे ज्यादा जरूरत है, तुम्हारे माता-पिता सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, और कहते हैं कि तुम अहसान फरामोश हो, इस जीवन में वे तुम पर कभी भरोसा नहीं कर सकते, और उन्होंने तुम्हें बेकार ही पाल-पोस कर बड़ा किया। वे अब भी नहीं भूलते कि उन्होंने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा किया, उनकी कामना थी कि अच्छा जीवन जीने में तुम उनकी मदद करो, अपने पूर्वजों को गौरवान्वित करो, और उन्हें इस योग्य बनाओ कि वे अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के सामने गर्व से सिर ऊँचा करें और तुम्हारे लिए गर्व महसूस करें। जो माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, वे तुम्हारे विश्वास रखने के कारण कभी भी सम्मानित और सौभाग्यशाली महसूस नहीं करते। इसके विपरीत, परमेश्वर में विश्वास रखने और अपने कर्तव्य निर्वहन में व्यस्त रहने के कारण तुम उनसे मिलने या उनकी देखभाल करने के लिए समय नहीं निकाल पाते, इसके लिए वे तुम्हें अक्सर धिक्कारते हैं। वे तुम्हें न सिर्फ धिक्कारते हैं, अक्सर तुम्हें “अहसान फरामोश” और एक “नाशुक्रा बच्चा” कह कर डाँटते भी हैं। क्या तुम्हें नहीं लगता कि इन तोहमतों के साथ सही मार्ग पर चलना तुम्हारे लिए कठिन है? क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारे साथ गलत हुआ है? क्या इन चीजों का अनुभव करते समय तुम्हें अपने माता-पिता के समर्थन, प्रोत्साहन और समझ की जरूरत नहीं होती? क्या तुम्हें अक्सर नहीं लगता कि तुमने अपने माता-पिता को निराश किया है? नतीजतन, कुछ लोगों के मन में कुछ मूर्खतापूर्ण विचार भी आते हैं : “इस जीवन में अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना या उनके साथ जीना मेरे भाग्य में नहीं है। तो फिर मैं अपने अगले जन्म में उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाऊँगा!” क्या यह विचार मूर्खतापूर्ण नहीं है? (बिल्कुल।) तुम्हारे मन में ये विचार नहीं होने चाहिए; तुम्हें इन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए। तुम सही मार्ग पर चलते हो, तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने और परमेश्वर का उद्धार स्वीकारने के लिए सृष्टि प्रभु के समक्ष आना चुना है। इस संसार में यही एकमात्र सही मार्ग है। तुमने सही विकल्प चुना है। तुम्हारे माता-पिता सहित विश्वास न रखने वाले लोग तुम्हें चाहे जितना भी गलत समझें या तुमसे चाहे जितने निराश हों, इससे परमेश्वर में विश्वास के पथ पर चलने के तुम्हारे फैसले पर या कर्तव्य निभाने के संकल्प पर असर नहीं पड़ना चाहिए, न ही इससे परमेश्वर में तुम्हारी आस्था प्रभावित होनी चाहिए। तुम्हें डटे रहना होगा, क्योंकि तुम सही मार्ग पर चल रहे हो। यही नहीं, तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने देना चाहिए। तुम्हारे सही मार्ग पर चलते समय वे तुम्हारे लिए बोझ नहीं बनने चाहिए। तुम सही मार्ग का अनुसरण कर रहे हो, तुमने जीवन में सबसे सही विकल्प चुना है; अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हारा साथ नहीं देते, हमेशा अहसान फरामोश होने के लिए तुम्हें डाँटते हैं तो यह और भी जरूरी है कि तुम उन्हें पहचानो, भावनात्मक स्तर पर उनके लिए आसक्ति छोड़ दो, और उनके कारण लाचार मत बनो। अगर वे तुम्हें समर्थन, बढ़ावा या दिलासा नहीं देते, तो तुम ठीक रहोगे—इन चीजों के रहते या न रहते हुए तुम न कुछ खोओगे, न पाओगे। तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं। परमेश्वर तुम्हें प्रोत्साहन और पोषण दे रहा है, तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है। तुम अकेले नहीं हो। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के बिना भी तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य उसी तरह निभा सकते हो, और इस आधार पर तुम अब भी एक नेक इंसान रहोगे। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने देने का यह अर्थ नहीं है कि तुमने अपना सदाचार और नैतिकता खो दी है, और इसका यकीनन यह अर्थ नहीं है कि तुमने अपनी मानवता, नैतिकता और न्याय को त्याग दिया है। अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरे न उतरने का कारण यह है कि तुमने सकारात्मक चीजें चुनी हैं और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य चुना है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, यह सबसे सही मार्ग है। तुम्हें डटे रहना होगा, अपने विश्वास में दृढ़ रहना होगा। संभव है कि परमेश्वर में विश्वास रखने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के कारण तुम अपने माता-पिता का समर्थन न जुटा पाओ और निश्चित रूप से उनका आशीष न पा सको, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह महत्वपूर्ण नहीं है, तुमने कुछ भी नहीं खोया है। सबसे अहम चीज यह है कि जब तुमने परमेश्वर में विश्वास रखने के पथ पर चलने और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने को चुना, तो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए अपेक्षाएँ और बड़ी ऊँची उम्मीदें रखना शुरू कर दिया। इस दुनिया में रहते हुए अगर लोग अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से दूर हो जाएँ, तो भी वे अच्छे से जी सकते हैं। बेशक, वे अपने माता-पिता से दूर जाकर भी सामान्य ढंग से जी सकते हैं। सिर्फ परमेश्वर के मार्गदर्शन और आशीषों से भटकने पर ही वे अंधकार में डूब जाते हैं। लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके मार्गदर्शन की तुलना में माता-पिता की अपेक्षाएँ बिल्कुल तुच्छ हैं, और जिक्र करने लायक नहीं हैं। तुम्हारे माता-पिता तुमसे जैसा भी व्यक्ति बनने की अपेक्षा रखते हों, या भावनात्मक स्तर पर वे तुमसे जैसा भी जीवन जीने की अपेक्षा रखते हों, वे तुम्हें सही मार्ग या उद्धार का रास्ता नहीं दिखा रहे हैं। इसलिए, तुम्हें अपना दृष्टिकोण पलटकर अपने दिल की गहराई और भावनात्मक स्तर से अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने देना चाहिए। चूँकि तुमने एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निर्वाह को चुना है, इसलिए तुम्हें इस किस्म का बोझ नहीं उठाते रहना चाहिए, या अपने माता-पिता के प्रति जरा भी अपराध बोध से ग्रस्त नहीं रहना चाहिए। तुमने कुछ भी ऐसा नहीं किया जो किसी को भी निराश करे। तुमने परमेश्वर का अनुसरण और उसका उद्धार स्वीकार करना चुना। यह अपने माता-पिता को निराश करना नहीं है, बल्कि इसके विपरीत, तुम्हारे माता-पिता को गर्व और सम्मानित महसूस करना चाहिए कि तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना और सृष्टिकर्ता का उद्धार स्वीकारना चुना है। अगर वे ऐसा नहीं कर सकते, तो वे नेक लोग नहीं हैं। वे तुम्हारे आदर के योग्य नहीं हैं, तुम्हारी संतानोचित निष्ठा के और भी कम योग्य हैं, और बेशक, वे तुम्हारी चिंता के और भी कम योग्य हैं। क्या यही मामला नहीं है? (बिल्कुल है।)

इस दुनिया में, किस प्रकार के लोग आदर के सबसे अधिक योग्य हैं? क्या वे नहीं जो सही मार्ग पर चलते हैं? यहाँ “सही मार्ग” का अर्थ क्या है? क्या इसका अर्थ सत्य का अनुसरण करना और परमेश्वर का उद्धार स्वीकारना नहीं है? क्या सही मार्ग पर चलने वाले, वे लोग नहीं हैं जो परमेश्वर का अनुसरण कर उसकी आज्ञा मानते हैं? (वही हैं।) अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो, या ऐसा बनने का प्रयास करते हो, और तुम्हारे माता-पिता तुम्हें न समझें, और हमेशा तुम्हें कोसें भी—यदि तुम्हारे कमजोर, अवसाद-ग्रस्त और खोये हुए होने पर, वे न सिर्फ तुम्हारा साथ न दें, दिलासा देकर बढ़ावा न दें, अक्सर माँग करें कि तुम वापस आकर उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाओ, ढेर सारा पैसा कमा कर उनकी देखभाल करो, उन्हें निराश न करो, उन्हें अपनी छत्रछाया में आराम करने और तुम्हारे साथ बढ़िया जीवन जीने योग्य बनाओ—क्या ऐसे माता-पिता को त्याग नहीं देना चाहिए? (बिल्कुल।) क्या ऐसे माता-पिता तुम्हारे आदर के योग्य हैं? क्या वे तुम्हारी संतानोचित निष्ठा के योग्य हैं? क्या वे इस योग्य हैं कि तुम उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाओ? (नहीं।) क्यों नहीं? इसलिए कि वे सकारात्मक चीजों से ऊब चुके हैं, क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) ऐसा इसलिए है क्योंकि वे परमेश्वर से घृणा करते हैं, क्या यह एक तथ्य नहीं है? (बिल्कुल है।) यह इसलिए है क्योंकि वे तुम्हारे सही मार्ग पर चलने से घृणा करते हैं, क्या यह एक तथ्य नहीं है? वे ऐसे लोगों से घृणा करते हैं, जो न्यायोचित प्रयोजनों में लगे रहते हैं; वे तुमसे घृणा कर तुम्हें नीची नजर से देखते हैं क्योंकि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और अपना कर्तव्य निभाते हो। ये कैसे माता-पिता हैं? क्या वे घिनौने और दुष्ट माता-पिता नहीं हैं? क्या वे स्वार्थी माता-पिता नहीं हैं? क्या वे बुरे माता-पिता नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) परमेश्वर में तुम्हारी आस्था में बड़े लाल अजगर ने तुम्हारा पीछा कर तुम्हें तलाशा है, तुम घर लौटने में असमर्थ, भगोड़े रहे हो, और कुछ लोगों को तो विदेश भी जाना पड़ा है। तुम्हारे रिश्तेदार, दोस्त और सहपाठी, सभी कहते हैं कि तुम भगोड़े हो गए हो, और इन बाहरी अफवाहों और गप्पबाजी के कारण तुम्हारे माता-पिता सोचते हैं कि तुमने उन्हें अनुचित रूप से कष्ट सहने और शर्मिंदा होने को मजबूर किया है। न सिर्फ वे तुम्हें नहीं समझते, तुम्हारा साथ नहीं देते, या तुमसे सहानुभूति नहीं रखते, न सिर्फ वे इन अफवाहें फैलाने वालों, तुमसे घृणा कर तुमसे भेदभाव करने वालों की भर्त्सना नहीं करते, वे भी तुमसे घृणा करते हैं, वे तुम्हारे बारे में वही बातें कहते हैं जो परमेश्वर में विश्वास न रखने वाले और सत्ताधारी कहते हैं। तुम ऐसे माता-पिता के बारे में क्या सोचते हो? क्या वे अच्छे हैं? (नहीं।) तो क्या तुम लोगों को अब भी यही लगता है कि तुम उनके ऋणी हो? (नहीं।) अगर कभी-कभी तुम लोग अपने परिवार को फोन करते हो, तो वे सोचेंगे कि यह किसी भगोड़े से फोन आने जैसा है। उन्हें लगेगा कि यह बहुत बड़ा अपमान है, और तुम शिकार किए जा रहे चूहे की तरह घर लौटने की हिम्मत नहीं करते। उन्हें लगेगा कि तुम्हारे माँ-बाप होना उनके लिए शर्मिंदगी की बात है। क्या ऐसे माता-पिता आदर के योग्य हैं? (नहीं।) वे आदर के योग्य नहीं हैं। तो तुमसे उनकी अपेक्षाओं की प्रकृति क्या है? क्या ये तुम लोगों के मन में रखने लायक हैं? तुमसे उनकी अपेक्षाओं का मुख्य लक्ष्य क्या है? क्या वे सचमुच चाहते हैं कि तुम सही मार्ग पर चलो और आखिरकार उद्धार प्राप्त करो? वे उम्मीद करते हैं कि तुम समाज के चलनों का अनुसरण करोगे और दुनिया में तरक्की करोगे, उनका सम्मान बढ़ाओगे, उन्हें प्रतिष्ठा से दुनिया का सामना करने दोगे और उन्हें गर्व और आनंद से भर दोगे। और कुछ? वे तुम्हारे साथ तुम्हारी छत्रछाया में आराम करने योग्य बनना चाहते हैं, अच्छा खाना-पीना चाहते हैं, बढ़िया कपड़े पहनना चाहते हैं, और सोने-चाँदी के आभूषणों से ढंके रहना चाहते हैं। वे विलासितापूर्ण जहाजों में दुनिया के हर देश की सैर करना चाहते हैं। अगर तुम दुनिया में ऊँची जगह पहुँच जाते, शोहरत और दौलत पा लेते, और उन्हें अपने साथ अपनी छत्रछाया में आराम करने योग्य बना देते, तो वे जहाँ भी जाते यह कह कर तुम्हारा नाम बताते : “मेरी बेटी और बेटा फलाँ-फलाँ हैं।” क्या वे अभी तुम्हारे नाम का जिक्र करते हैं? (नहीं।) तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, लेकिन वे तुम्हारा नाम नहीं लेते। वे सोचते हैं तुम गरीब और बेसहारा हो, शर्मिंदगी हो, और तुम्हारा जिक्र करना उन्हें शर्मसार करने के बराबर है, तो वे तुम्हारी बात नहीं करते। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं का उद्देश्य क्या है? यह तुम्हारे साथ तुम्हारी छत्रछाया में आराम करना है, यह शुद्ध रूप से सिर्फ तुम्हारे भले के लिए नहीं है। वे तभी खुश होंगे जब वे तुम्हारी छत्रछाया में आराम कर सकेंगे। अब तुम सृष्टि प्रभु के समक्ष लौट आए हो, परमेश्वर, उसके उद्धार और उसके वचनों को स्वीकार चुके हो, अब तुमने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य हाथ में लिया है, जीवन में सही मार्ग पर चल पड़े हो, उन्हें तुमसे कोई लाभ या फायदा नहीं हो रहा है, और उन्हें लगता है कि तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके वे हार गए हैं। मानो कोई सौदा कर रहे हों, और उन्हें नुकसान हो गया हो। नतीजतन वे पछतावे से भर उठते हैं। कुछ माता-पिता अक्सर कहते हैं : “तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी कुत्ते को पाल-पोस कर बड़ा करने से भी बदतर है। जब तुम किसी कुत्ते को पाल-पोस कर बड़ा करते हो, तो वह बड़ी यारी दिखाता है, अपने मालिक को देखकर दुम हिलाता है। तुम्हें बड़ा करके मैं क्या अपेक्षा रख सकता हूँ? तुम पूरा दिन परमेश्वर में विश्वास रखने में और अपना कर्तव्य निभाने में बिता देते हो, तुम व्यापार नहीं करते, काम पर नहीं जाते, तुम कोई सुरक्षित आजीविका भी नहीं चाहते, और अंत में हमारे तमाम पड़ोसी तुम पर हँसने लगे हैं। मुझे तुमसे क्या हासिल हुआ है? मुझे तुमसे एक भी अच्छी चीज नहीं मिली है, तुम्हारी छत्रछाया में मुझे जरा भी आराम नहीं मिला।” अगर तुम सांसारिक दुनिया के बुरे चलनों की पीछे चले होते, और तुमने वहाँ सफल होने का प्रयास किया होता, तो तुम्हारे माता-पिता शायद तुम्हारे कष्ट सहने, बीमार होने या दुखी होने पर तुम्हारा साथ देते, तुम्हें बढ़ावा और दिलासा देते। फिर भी वे इस तथ्य से खुश या प्रफुल्लित नहीं हैं कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, और तुम्हारे पास बचाए जाने का अवसर है। इसके विपरीत, वे तुमसे घृणा कर तुम्हें कोसते हैं। अपने सार के आधार पर, ये माता-पिता तुम्हारे शत्रु हैं, कट्टर दुश्मन हैं, वे तुम्हारे जैसे लोग नहीं हैं, वे तुम्हारे मार्ग पर नहीं चल रहे हैं। भले ही तुम सब ऊपर से एक परिवार की तरह दिखाई देते हो, मगर तुम्हारे सार, तुम्हारे अनुसरणों, तुम्हारी पसंद, तुम्हारे चलने के मार्गों, और सकारात्मक चीजों, परमेश्वर और सत्य को देखने के तुम्हारे रवैयों के आधार पर, वे तुम्हारे जैसे लोग नहीं हैं। इसलिए तुम चाहे जितना भी कहो, “मुझे उद्धार की आशा है, मैं जीवन में सही मार्ग पर चल पड़ा हूँ,” उनका दिल नहीं पसीजेगा, वे तुम्हारे लिए खुश और प्रफुल्लित नहीं होंगे। इसके बजाय वे शर्मिंदा महसूस करेंगे। भावनात्मक स्तर पर ये माता-पिता तुम्हारा परिवार हैं, लेकिन तुम्हारे प्रकृति सार के आधार पर वे तुम्हारा परिवार नहीं, तुम्हारे शत्रु हैं। सोचो भला, अगर बच्चे उपहार और पैसे लेकर घर आएँ, अपने माता-पिता को इस योग्य बनाएँ कि वे बढ़िया खाना खाएँ और शानदार जगहों में रहें, तो उनके माता-पिता खुशी से फूले नहीं समाएँगे, वे इतने खुश होंगे कि वे समझ ही नहीं पाएँगे कि क्या बोलें। वे मन-ही-मन कहते रहेंगे : “मेरा बेटा बहुत महान है, मेरी बेटी बहुत महान है। मैंने उन्हें यूँ ही पला-पोसा और प्यार नहीं किया। वे समझदार हैं, हमारे प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाना जानते हैं, और उनके दिलों में हमारे लिए जगह है। वे अच्छे बच्चे हैं।” मान लो कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य निभाने के कारण कुछ भी खरीदे बिना खाली हाथ घर जाते हो। मान लो कि तुम अपने माता-पिता के साथ सत्य पर संगति करते हो, परमेश्वर के वचन के बारे में बात करते हो, और कहते हो कि तुमने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू किया है। तुम्हारे माता-पिता तुरंत सोचेंगे : “तू किस बारे में बोले जा रहा है? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। मैंने तुझे इतने वर्ष पाल-पोस कर बड़ा किया, और तूने मेरी एक भी अपेक्षा पूरी नहीं की। आखिरकार तू हमसे मिलने वापस आया है, कम-से-कम हमारे लिए एक जोड़ी मोजे या कुछ फल ही ले आता। तू कुछ भी नहीं लाया, हाथ हिलाते हुए चला आया।” तुम्हारे माता-पिता ऐसा नहीं कहेंगे : “तेरे मुँह से यह सुनकर मैं कह सकता हूँ कि तू बहुत बदल गया है। पहले तू युवा और घमंडी था, मगर अब तू सचमुच बदल गया है। मैं कह सकता हूँ कि जो तमाम बातें तू बोल रहा है वे उचित हैं। तूने तरक्की की है। तुझमें संभावना है, मुझे तेरे लिए उम्मीद है—तू परमेश्वर का अनुसरण कर उद्धार प्राप्त करने के लिए सही मार्ग पर चल पा रहा है। तू एक अच्छा बच्चा है। तू वहाँ तकलीफ में है, मुझे तेरे लिए कुछ लजीज खाना बनाना चाहिए। हम कुछ मुर्गियाँ पालते हैं, और आम तौर पर उन्हें मारना नहीं चाहते, इसके बजाय हम उनके अंडों का इंतजार करते हैं। लेकिन अब तू घर आया है, तो मैं एक मुर्गी मारकर तेरे लिए थोड़ा चिकन सूप बना देती हूँ। तूने यह मार्ग चुन कर सही किया, तू उद्धार प्राप्त कर सकेगा। मैं तेरे लिए बहुत खुश हूँ! इतने साल तेरी बहुत याद आती रही है। हम संपर्क में नहीं थे, पर तू अब हमसे मिलने लौट आया है, इससे मुझे बहुत सुकून मिला है। तू बड़ा हो गया है। तू अब पहले से ज्यादा सयाना और समझदार हो गया है। तेरे बोल और काम सब उचित हैं।” अपने बच्चे को सही मार्ग पर चलते और सही विचार और सोच अपनाते देख माता-पिता भी लाभ पा सकते हैं और अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं। चूँकि उनका बच्चा एक कर्तव्य निभा पा रहा है, सत्य का अनुसरण कर पा रहा है, इसलिए उसके माता-पिता को उसका साथ देना चाहिए। अगर भविष्य में, उनका बच्चा उद्धार प्राप्त कर राज्य में प्रवेश कर ले और उनके शैतानी, भ्रष्ट स्वभावों से उसे हानि न पहुँचे, तो यह अद्भुत चीज होगी। भले ही ये माता-पिता बूढ़े हो चुके हैं, वे सत्य को समझने में सुस्त हैं और ये बातें ज्यादा समझ नहीं पाते, उन्हें लगता है : “मेरा बच्चा सही मार्ग पर चल सकेगा, बहुत बड़ी बात है। वह अच्छा बच्चा है। कोई भी ऊँचा सरकारी ओहदा और कितनी भी दौलत इतनी मूल्यवान नहीं है!” मुझे बताओ, क्या ये अच्छे माता-पिता हैं? (बिल्कुल।) क्या ये आदर के योग्य हैं? (हाँ।) वे तुम्हारा आदर पाने के योग्य हैं। तो तुम्हें उनका किस तरह से आदर करना चाहिए? तुम्हें अपने दिल से उनके लिए प्रार्थना करनी चाहिए। अगर वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि उनका मार्गदर्शन कर उन्हें सही-सलामत रखे, ताकि वे परीक्षणों और प्रलोभनों के दौरान अपनी गवाही में दृढ़ रह सकें। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो भी तुम्हें उनके फैसले का आदर करना चाहिए, और आशा करनी चाहिए कि उनका जीवन टिकाऊ होगा, वे कोई भी बुरा काम नहीं करेंगे, और कम दुष्कर्म करेंगे, तभी वे मृत्यु के बाद कम-से-कम दंड पाएँगे; इसके अलावा, तुम्हें उनके साथ कुछ सकारात्मक चीजों, विचारों और सोच के बारे में संगति करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। इसे आदर कहा जाता है, और इसे सर्वोत्तम संतानोचित निष्ठा और अपनी जिम्मेदारियों का सर्वोत्तम निर्वाह भी कहा जा सकता है। क्या तुम यह कर सकते हो? (बिल्कुल।) आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर उन्हें प्रोत्साहन और समर्थन दो। शारीरिक स्तर पर, जब तुम घर पर उनके साथ हो, तो कुछ काम पूरे करने में उनकी भरसक मदद करो और उन चीजों पर संगति करो जो तुम समझते हो और जिन्हें तुम्हारे माता-पिता समझ सकें। जीवन को आराम से जीने, ज्यादा न थकने, पैसों और दूसरी तमाम चीजों के बारे में हो-हल्ला न मचा कर उन्हें अपने ढंग से होने देने में उनकी मदद करो। इसे आदर कहा जाता है। अपने माता-पिता के साथ नेक, भले लोगों जैसा बर्ताव करो, उनके प्रति अपनी थोड़ी जिम्मेदारियाँ पूरी करो, उन्हें थोड़ी संतानोचित निष्ठा दिखाओ और उनके प्रति अपने थोड़े दायित्व निभाओ। इसे आदर कहा जाता है। सिर्फ वही माता-पिता जो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था को इस तरह समझकर उसका समर्थन करते हैं, वही आदर के योग्य हैं। उनके अलावा कोई भी माता-पिता आदर के योग्य नहीं हैं। तुम्हें पैसे कमाने में लगाने के अलावा, वे चाहते हैं कि तुम दुनिया में तरक्की करो, नाम कमाओ और अमुक-अमुक काम करो। ये वे माता-पिता हैं जो अपने उचित मामलों पर ध्यान नहीं देते, और वे आदर के योग्य नहीं हैं।

अब तुम सब लोग माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने देने के बारे में समझते हो और अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को जाने दे पा रहे हो। दूसरी ऐसी कौन-सी चीजें हैं जिन्हें जाने देने में तुम असमर्थ हो? जब तुम्हारे माता-पिता के जीवन या फिर माता-पिता की ही बात हो तो तुम किन चीजों की परवाह सबसे ज्यादा करते हो? यानी, ऐसी कौन-सी चीजें हैं जिन्हें जाने देना तुम्हारे लिए भावनात्मक तौर पर सबसे कठिन है? “तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं; तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे जीवन या तुम्हारे भाग्य के विधाता नहीं हैं”—क्या हमने बुनियादी तौर पर इस विषय पर संगति समाप्त नहीं कर दी है? क्या तुम इसे समझ गए हो? (हाँ।) तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं—यानी तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचते रहना चाहिए कि सिर्फ इसलिए कि उन्होंने इतने वर्ष खप कर तुम्हें पाला-पोसा और बड़ा किया, तुम्हें उनका कर्ज चुकाना ही चाहिए। अगर तुम उनका कर्ज नहीं चुका पाते, अगर तुम्हारे पास उनका कर्ज चुकाने का मौका या सही हालात नहीं हैं, तो तुम हमेशा दुखी और अपराधी महसूस करते रहोगे, इस हद तक कि जब भी तुम किसी को अपने माता-पिता की देखभाल करते या संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए कुछ करते हुए देखोगे, तुम दुखी और अपराधी महसूस करने लगोगे। परमेश्वर ने यह नियत किया था कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारा पालन-पोषण करेंगे, तुम्हें वयस्क होने योग्य बनाएँगे, इसलिए नहीं कि तुम उनका कर्ज चुकाते हुए जीवन गुजार दो। इस जीवन में निभाने के लिए तुम्हारे पास अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं, एक पथ है जिस पर तुम्हें चलना है, और तुम्हारा अपना जीवन है। इस जीवन में तुम्हें अपनी सारी ताकत अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने में नहीं लगा देनी चाहिए। यह बस ऐसी चीज है जो तुम्हारे जीवन और जीवन पथ में तुम्हारे साथ रहती है। मानवता और भावनात्मक रिश्तों के संदर्भ में यह ऐसी चीज है जिससे बचा नहीं जा सकता। लेकिन तुम्हारा और तुम्हारे माता-पिता का कैसा रिश्ता नियत है, क्या तुम लोग बाकी जीवन साथ गुजारोगे या अलग हो जाओगे, और भाग्य की डोर से जुड़े नहीं रहोगे, यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं पर निर्भर करता है। अगर परमेश्वर ने यह आयोजन और व्यवस्था की है कि तुम इस जीवन में अपने माता-पिता से अलग जगह पर रहोगे, उनसे बहुत दूर रहोगे और अक्सर साथ नहीं रह पाओगे, तो उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना तुम्हारी बस एक आकांक्षा ही है। अगर परमेश्वर ने व्यवस्था की है कि तुम इस जीवन में अपने माता-पिता के बहुत पास रहोगे, उनके साथ रह सकोगे, तो उनके प्रति अपनी थोड़ी-सी जिम्मेदारियाँ निभाना और संतानोचित निष्ठा दिखाना ऐसी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी चाहिए—इस बारे में आलोचना करने लायक कुछ नहीं है। लेकिन अगर तुम अपने माता-पिता से अलग किसी और जगह हो, तुम्हारे पास उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाने का मौका या सही हालात नहीं हैं, तो तुम्हें इस पर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है। संतानोचित निष्ठा न दिखा पाने के कारण तुम्हें अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्मिंदा नहीं होना चाहिए, बात बस इतनी है कि तुम्हारे हालात इसकी अनुमति नहीं देते। एक बच्चे के तौर पर तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें इस जीवन में करनी हैं, ये सब ऐसी चीजें हैं जो एक सृजित प्राणी को करनी ही चाहिए, जो तुम्हें सृष्टि प्रभु ने सौंपी हैं, और इनका तुम्हारे माता-पिता को दयालुता का कर्ज चुकाने के साथ कोई लेना-देना नहीं है। अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना, उनकी दयालुता का बदला चुकाना—इन चीजों का तुम्हारे जीवन के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि तुम्हारे लिए अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना, उनका कर्ज चुकाना या उनके प्रति अपनी कोई भी जिम्मेदारी पूरी करना जरूरी नहीं है। दो टूक शब्दों में कहें, तो तुम्हारे हालात इजाजत दें, तो तुम यह थोड़ा-बहुत कर सकते हो और अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकते हो; जब हालात इजाजत न दें, तो तुम्हें ऐसा करने पर अड़ना नहीं चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने की जिम्मेदारी पूरी न कर सको, तो यह कोई भयानक बात नहीं है, बस यह तुम्हारे जमीर, मानवीय नैतिकता और मानवीय धारणाओं के थोड़ा खिलाफ है। मगर कम-से-कम यह सत्य के विपरीत नहीं है, और परमेश्वर इसे लेकर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो इसे लेकर तुम्हारे जमीर को फटकार महसूस नहीं होगी। अब चूँकि तुमने सत्य के इस पहलू को समझ लिया है, तो क्या तुम्हारा दिल स्थिर महसूस नहीं कर रहा है? (कर रहा है।) कुछ लोग कहते हैं : “भले ही परमेश्वर मेरी निंदा नहीं करेगा, मगर मेरा जमीर इससे उबर नहीं पा रहा है, मैं डाँवाडोल महसूस कर रहा हूँ।” अगर तुम्हारी स्थिति ऐसी है, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और तुमने इस मामले की गहराई या उसके सार को नहीं समझा है। तुम मनुष्य की नियति को नहीं समझते, परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं समझते और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाएँ स्वीकारने को तैयार नहीं हो। तुम सदा मानवीय इच्छा और अपनी भावनाएँ लिए रहते हो, यही चीजें तुम्हें प्रेरित करती और तुम पर हावी रहती हैं; ये तुम्हारा जीवन बन गई हैं। अगर तुम मानवीय इच्छा और अपनी भावनाएँ चुनते हो, तो तुमने सत्य को नहीं चुना है, तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो, उसके लिए समर्पित नहीं हो। अगर तुम मानवीय इच्छा और अपनी भावनाएँ चुनते हो, तो तुम सत्य को धोखा दे रहे हो। तुम्हारे हालात और माहौल स्पष्ट रूप से तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने की अनुमति नहीं देते, मगर तुम हमेशा सोचते हो : “मैं अपने माता-पिता का ऋणी हूँ। मैंने उन्हें संतानोचित निष्ठा नहीं दिखाई है। उन्होंने मुझे कई सालों से नहीं देखा है। उन्होंने मुझे बेकार ही पाल-पोस कर बड़ा किया।” तुम इन चीजों को अपने दिल की गहराई से कभी भी जाने नहीं दे सकते। इससे एक बात साबित होती है : तुम सत्य को नहीं स्वीकारते। सिद्धांत के संदर्भ में, तुम मानते हो कि परमेश्वर के वचन सही हैं, लेकिन तुम उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करते या अपने कार्य सिद्धांतों के तौर पर नहीं लेते। इसलिए कम-से-कम अपने माता-पिता से बर्ताव के मामले में तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो। ऐसा इसलिए कि इस मामले में, तुम सत्य के आधार पर कार्य नहीं करते, परमेश्वर के वचनों के आधार पर अभ्यास नहीं करते, बल्कि सिर्फ अपनी भावनात्मक और जमीर की जरूरतें संतुष्ट करते हो, अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना चाहते हो और उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहते हो। भले ही इस फैसले के लिए परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करता, यह तुम्हारा फैसला है, मगर अंत में खास तौर से जीवन के संदर्भ में जिसकी हार होगी, वह तुम हो। तुम हमेशा इस मामले से बंधे हुए हो, हमेशा सोचते हो कि तुम इतने शर्मिंदा हो कि अपने माता-पिता को मुँह नहीं दिखा सकते, तुमने उनकी दयालुता का कर्ज नहीं चुकाया है। एक दिन जब परमेश्वर देखेगा कि अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाने की तुम्हारी आकांक्षा बहुत तीव्र है, तो वह तुम्हारे लिए तुरंत ऐसा माहौल आयोजित कर देगा, और फिर तुम सीधे घर जा सकोगे। क्या तुम नहीं सोचते कि तुम्हारे माता-पिता सभी चीजों से ऊपर हैं, सत्य से भी ऊपर हैं? उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाने और अपने जमीर और भावनाओं की जरूरतें संतुष्ट करने के लिए तुम परमेश्वर को खोना, सत्य का परित्याग करना और उद्धार प्राप्त करने के अवसर का परित्याग करना पसंद करोगे। चलो, ठीक है, यह तुम्हारा फैसला है। परमेश्वर इसे लेकर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक माहौल आयोजित करेगा, तुम्हें अपनी सूची से निकाल देगा और तुमसे उम्मीद छोड़ देगा। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए घर जाने का फैसला करते हो, अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्य से दूर भाग रहे हो, तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए आदेश और उसकी अपेक्षाओं को छोड़ रहे हो, तुम वह कर्तव्य छोड़ रहे हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है और कर्तव्य निभाने के अपने अवसर का परित्याग कर रहे हो। अगर तुम अपने माता-पिता से फिर से मिलने, अपने जमीर की जरूरतें और अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए घर चले जाते हो, तो ठीक है, तुम घर जाने का फैसला कर सकते हो। अगर तुम सचमुच अपने माता-पिता को भूल नहीं सकते, तो तुम अपना हाथ उठाकर यह कहने की पहल कर सकते हो : “मुझे अपने माता-पिता की बहुत याद आती है। मेरा जमीर रोज फटकार सहता है। मैं अपनी भावनाओं को संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूँ, मेरे दिल में पीड़ा होती है। मैं अपने माता-पिता के लिए तरस रहा हूँ, और उन्हीं के बारे में सोचता रहता हूँ। अगर मैं इस जीवन में माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए वापस नहीं गया, तो मुझे एक और अवसर मिलने से रहा, मुझे कहीं बाद में पछताना न पड़े।” फिर तुम घर जा सकते हो। अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लिए स्वर्ग और पृथ्वी हैं, अगर वे तुम्हारे लिए तुम्हारे जीवन से भी बढ़कर हैं, अगर वे तुम्हारे सब-कुछ हैं, तो फिर तुम उन्हें न भूलने का फैसला कर सकते हो। तुम्हें कोई भी मजबूर नहीं करेगा। तुम उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाने, उनके साथ रहने, उन्हें बढ़िया जीवन जीने योग्य बनाने और उनकी दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए घर जाने का फैसला सकते हो। लेकिन तुम्हें इस बारे में बहुत सोच-विचार करने की जरूरत है। अगर आज तुम यह विकल्प चुनते हो, और अंत में उद्धार प्राप्त करने का मौका गँवा देते हो, तो यह नतीजा सिर्फ तुम्हें भुगतना होगा। तुम्हारे बदले कोई दूसरा व्यक्ति इस तरह का नतीजा नहीं भुगत सकेगा, तुम्हें यह खुद ही भुगतना पड़ेगा। समझ रहे हो? (हाँ।) अगर तुम कर्तव्य निभाने और उद्धार पाने का अवसर सिर्फ इसलिए छोड़ दो कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार बन सकें और तुम उनका कर्ज चुका सको, तो यह तुम्हारा फैसला है। कोई भी तुम्हें मजबूर नहीं कर रहा है। मान लो कलीसिया से कोई यह कह कर निवेदन करता है, “घर से दूर रहना बहुत मुश्किल है। मुझे अपने माता-पिता की याद बहुत सताती है। मैं उन्हें अपने दिल से जाने नहीं दे पा रहा हूँ। मैं अक्सर उनके सपने देखता हूँ। मेरे दिलो-दिमाग में सिर्फ उनकी झलक कौंधती रहती है, और उन्होंने मेरे लिए जो कुछ भी किया उसे लेकर मैं और ज्यादा अपराध बोध से ग्रस्त हो जाता हूँ। अब चूँकि वे बूढ़े हो रहे हैं, इसलिए मुझे अब और ज्यादा लगने लगा है कि माता-पिता के लिए बच्चे को पाल-पोस कर बड़ा करना बहुत मुश्किल होता है, मुझे उनका कर्ज चुकाना चाहिए, उन्हें थोड़ी खुशी देनी चाहिए और बाकी जीवन उनके पास रह कर उन्हें सुख देना चाहिए। मैं बचाए जाने का अपना मौका छोड़ देना चाहूँगा ताकि घर जाकर उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखा सकूँ।” उस स्थिति में वे यह कहकर एक आवेदन दे सकते हैं, “मैं सूचित कर रहा हूँ! मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाने के लिए घर जाना चाहता हूँ। मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता।” तब कलीसिया को उसे स्वीकृत करना होगा, और फिर किसी को उन पर काम करने या उनसे संगति करने की जरूरत नहीं होगी। उनसे कुछ भी और कहना बेवकूफी होगी। जब लोग बिल्कुल कुछ भी नहीं समझते, तो तुम उनसे थोड़ा ज्यादा बता सकते हो और सत्य पर स्पष्टता आने तक संगति कर सकते हो। अगर तुमने उस पर स्पष्ट संगति नहीं की है, और नतीजतन उन्होंने गलत चयन किया है, तो उसके लिए तुम जिम्मेदार हो। लेकिन अगर वे सिद्धांत के संदर्भ में सब-कुछ समझते हैं, तो फिर किसी को उन पर काम करने की जरूरत नहीं है। जैसे कि कुछ लोग कहते हैं : “मैं सब-कुछ समझता हूँ, तुम्हें मुझे कुछ भी बताने की जरूरत नहीं।” बहुत बढ़िया, तुम्हें इन चिकने घड़ों को कुछ भी समझाने की जरूरत नहीं, तुम इन पर समय जाया न कर अपनी मुसीबत घटा सकते हो। तुम्हें ऐसे लोगों को तुरंत घर जाने देना चाहिए। अव्वल तो उन्हें रोको मत; दूसरे, उनका समर्थन करो; तीसरे, उन्हें यह कह कर थोड़ा ढाढ़स और हौसला दो, “घर जाओ और अपने माता-पिता को थोड़ी संतानोचित निष्ठा दिखाओ। उन्हें नाराज या परेशान मत करो। अगर तुम संतानोचित निष्ठा दिखाकर उनका कर्ज चुकाना चाहते हो, तो तुम्हें संतानोचित बच्चा होना चाहिए। लेकिन अंत में जब उद्धार प्राप्त न कर सको तो पछतावे में मत डूबना। तुम्हारी यात्रा शुभ हो, मुझे आशा है कि सब-कुछ ठीक होगा!” ठीक है? (बिल्कुल।) अगर कोई अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखने के लिए घर जाना चाहता है, तो अच्छी बात है, उन्हें यह विचार अपने भीतर जबरन दबाए नहीं रखना चाहिए। कर्तव्य अपनी इच्छा से निभाया जाता है, कोई भी जोर नहीं दे सकता कि तुम यह करो। कर्तव्य न निभाने के लिए कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। अगर तुम कर्तव्य निभाओगे तो क्या अवश्य उद्धार प्राप्त कर लोगे? यह जरूरी नहीं है। यह कर्तव्य निर्वहन के प्रति बस तुम्हारे रवैये का सवाल है। फिर कर्तव्य निर्वहन न करने पर क्या तुम नष्ट हो जाओगे? ऐसा किसी ने नहीं कहा। किसी भी स्थिति में तुम्हारी उद्धार की आशा शायद खत्म हो चुकी होगी। कुछ लोग कहते हैं : “माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाना अच्छी बात है या बुरी?” मुझे नहीं पता। अगर तुम अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखना चाहते हो, तो जरूर दिखाओ। हम इसका आकलन नहीं करेंगे, ऐसा करना निरर्थक होगा। यह मानवता और भावनाओं का मामला है। यह तुम्हारे अस्तित्व के तरीके को चुनने का सवाल है। इसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। जो भी घर जाकर अपने माता-पिता को संतानोचित निष्ठा दिखाना चाहता है, वह आजादी से ऐसा कर सकता है। परमेश्वर का घर उनसे रुकने के लिए जोर नहीं देगा, और परमेश्वर का घर दखलंदाजी भी नहीं करेगा। कलीसिया अगुआ और उनके आसपास के लोगों को उन्हें घर जाने से रोकना नहीं चाहिए। उन्हें ऐसे व्यक्तियों पर काम नहीं करना चाहिए, न ही उनके साथ सत्य पर संगति करनी चाहिए। अगर तुम घर जाना चाहते हो, तो जरूर जाओ। सभी लोग तुम्हें विदाई देते हुए तुम्हारे साथ कुछ पकवान खाएँगे और तुम्हारी सुरक्षित यात्रा की कामना करेंगे।

माता-पिता अपने बच्चों से जो सबसे बड़ी अपेक्षाएँ रखते हैं, उनमें एक ओर यह आशा है कि उनके बच्चे बढ़िया जीवन जिएँगे तो दूसरी ओर यह आशा है कि बच्चे उनके साथ रह कर बुढ़ापे में उनकी देखभाल करेंगे। मिसाल के तौर पर, अगर माँ या पिता बीमार हो जाएँ या उनके जीवन में कुछ मुश्किलें आएँ, तो उन्हें उम्मीद होती है कि उनके बच्चे उनकी चिंताएँ और मुश्किलें दूर करने में उनकी मदद करेंगे और बोझ बाँटेंगे। वे आशा करते हैं कि यह दुनिया छोड़ते वक्त उनके बच्चे उनके साथ होंगे, ताकि वे उन्हें आखिरी बार दोबारा देख सकें। आम तौर पर, माता-पिता की ये दो सबसे बड़ी अपेक्षाएँ होती हैं, और इन्हें जाने देना कठिन है। अगर किसी व्यक्ति के माता-पिता बीमार हो जाएँ, या उनके सामने मुश्किलें आएँ, और उस तक उनकी खबर न पहुँचे, तो संभव है कि ये चीजें उसके दखल दिए बिना ही ठीक हो जाएँ। लेकिन अगर उसे इन चीजों का पता चल जाए, तो उसके लिए इससे उबरना बहुत कठिन होता है, खास तौर से जब उसके माता-पिता बुरी तरह और गंभीर रूप से बीमार हों। ऐसे वक्त उन्हें भुला देना और भी कठिन होता है। जब अपने दिल की गहराई में तुम्हें लगे कि तुम्हारे माता-पिता अभी भी उसी शारीरिक अवस्था, जीने और काम करने की स्थिति में हैं जैसे कि वे 10-20 साल पहले थे, वे अपनी देखभाल कर सकते हैं, सामान्य ढंग से जी सकते हैं, अभी भी स्वस्थ, युवा और हट्टे-कट्टे हैं, और तुम्हें ऐसा लगे कि उन्हें तुम्हारी जरूरत नहीं है, तब तुम्हारे दिल में इतनी गहरी चिंता नहीं रहेगी। लेकिन यह पता चलने पर कि तुम्हारे माता-पिता बूढ़े और कमजोर हो चुके हैं, उन्हें देखभाल करने और साथ देने वाले लोगों की जरूरत है, और तुम किसी और जगह हो, तो शायद तुम परेशान हो जाओ, और तुम्हें इससे धक्का लगे। कुछ लोग तो अपने कर्तव्य छोड़ देते हैं और माता-पिता से मिलने घर जाना चाहते हैं। कुछ भावुक लोग यह कह कर और भी ज्यादा तर्कहीन विकल्प चुनते हैं : “मेरे बस में होता तो मैं अपने माता-पिता को अपने जीवन के दस वर्ष दे देता।” कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने माता-पिता को आशीष दिलाने की ठाने रहते हैं। वे अपने माता-पिता के लिए हर तरह के स्वास्थ्य उत्पाद और पूरक पोषक तत्व खरीदते हैं, और जब उन्हें पता चलता है कि उनके माता-पिता गंभीर रूप से बीमार हैं, तो वे अपनी भावनाओं के भँवर में फँसे बिना नहीं रह पाते और माता-पिता के पास भागने को उतावले हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैं अपने माता-पिता की यह बीमारी लेने को भी तैयार हो जाऊँगा,” यह बिना सोचे कि उन्हें कौन-सा कर्तव्य निभाना चाहिए, और वे परमेश्वर के आदेश की उपेक्षा करते हैं। इसलिए इन हालात में बहुत संभव है कि लोग कमजोर पड़ कर प्रलोभन में फँस जाएँ। क्या तुम लोग यह खबर सुनकर रो पड़ोगे कि तुम्हारे माता-पिता बहुत गंभीर रूप से बीमार हैं? खास तौर पर कुछ लोगों को घर से चिट्ठियाँ मिलती हैं कि डॉक्टर ने जवाब दे दिया है। “जवाब दे देने” का क्या अर्थ है? इस वाक्यांश की व्याख्या करना आसान है। इसका अर्थ है कि उनके माता-पिता कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। ऐसे वक्त तुम सोचोगे : “मेरे माता-पिता की उम्र अभी 50 पार ही है। ऐसा नहीं होना चाहिए। उन्हें कौन-सी बीमारी हो गई है?” और जब जवाब मिले कि कैंसर है, तो तुम तुरंत सोचने लगते हो : “उन्हें यह कैसे हो गया? मैं इतने वर्षों से दूर रहा, उन्हें मेरी याद आती थी, उनका जीवन बहुत कठिन था—क्या इसी वजह से उन्हें यह बीमारी हुई?” फिर तुम फौरन सारा दोष खुद पर डाल लोगे : “मेरे माता-पिता का जीवन बहुत कठिन है, और मैं उनका बोझ बाँटने में मदद नहीं कर रहा था। उन्हें मेरी याद आती थी, वे मेरी चिंता करते थे, और मैं उनके साथ नहीं रहा। मैंने उन्हें निराश किया और मैंने उन्हें सारा समय मुझे याद करने का दर्द दिया। मेरे माता-पिता ने मुझे पाल-पोस कर बड़ा करने में बहुत समय खपाया, आखिर किस लिए? मैंने उन्हें बस कष्ट ही दिए हैं!” इस बारे में तुम जितना ज्यादा सोचोगे, उतना ही यकीन करोगे कि तुमने उन्हें निराश किया, तुम उनके ऋणी थे। फिर तुम सोचोगे : “नहीं, यह सही नहीं है। मैं परमेश्वर में विश्वास रख रहा हूँ, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहा हूँ और परमेश्वर का आदेश पूरा कर रहा हूँ। मैंने किसी को भी निराश नहीं किया है।” लेकिन फिर सोचते हो : “मेरे माता-पिता बहुत बूढ़े हैं, और उनकी देखभाल के लिए कोई भी बच्चा उनके साथ नहीं है। तो फिर उनके मुझे पाल-पोस कर बड़ा करने का क्या तुक था?” तुम आगे-पीछे डगमगाते रहोगे, किसी भी तरह से सोचो, इस भावना से पार नहीं पा सकोगे। तुम सिर्फ रोओगे नहीं, बल्कि अपने माता-पिता के लिए भावनाओं की उलझनों में गहरे फँस जाओगे। क्या इन हालात में आसक्ति छोड़ना आसान है? तुम कहोगे : “मेरे माता-पिता ने मुझे जन्म दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया। उन्होंने मुझसे बहुत बड़ा अमीर बन जाने की अपेक्षा नहीं की थी, और मुझसे कभी कुछ ज्यादा माँगा भी नहीं। उन्हें बस आशा थी कि उनके बीमार पड़ने पर और जरूरत होने पर मैं उनके साथ रहूँगा और उनकी पीड़ा घटाऊँगा। मैंने यह भी नहीं किया!” अपने माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार होने की खबर सुनने से लेकर उनकी मृत्यु के दिन तक तुम रोते रहोगे। ऐसी स्थिति का सामना होने पर क्या तुम लोग दुखी हो जाओगे? क्या तुम रोओगे? क्या तुम आँसू बहाओगे? (बिल्कुल।) उस पल, क्या तुम्हारा संकल्प और आकांक्षा डगमगा जाएगी? क्या तुम हड़बड़ी और लापरवाही से अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए लौट जाने को तत्पर हो जाओगे? क्या तुम भीतर गहराई से सोचोगे कि तुम एक बेपरवाह अहसान-फरामोश थे, और तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें बेकार ही पाल-पोस कर बड़ा किया? क्या तुम्हें अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्म आएगी? तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोस कर जो दयालुता दिखाई और तुम्हारे साथ जो अच्छा व्यवहार किया, क्या तुम उसे याद करते रहोगे? (बिल्कुल।) क्या तुम अपना कर्तव्य छोड़ दोगे? क्या तुम अपने दोस्तों या भाई-बहनों से अपने माता-पिता की ताजातरीन खबर पाने की भरसक कोशिश करोगे? सभी लोगों में ऐसी अभिव्यक्तियाँ होंगी, है कि नहीं? तो क्या इस मामले को सुलझाना आसान है? तुम्हें ऐसे मामलों को कैसे समझना चाहिए? तुम्हें अपने माता-पिता की बीमारी या उन पर किसी बड़ी विपत्ति के मामले को किस दृष्टि से देखना चाहिए? अगर तुम इसकी असलियत समझ सके, तो अनासक्त हो सकोगे। अगर नहीं तो तुम अनासक्त नहीं हो पाओगे। तुम हमेशा सोचते हो कि तुम्हारे माता-पिता ने जो सब-कुछ सहा, जिसका सामना किया, उसका संबंध तुमसे है, और तुम्हें ये बोझ बाँटने चाहिए; तुम हमेशा खुद को दोष देते हो, हमेशा सोचते हो कि इन चीजों का तुम्हीं से कुछ लेना-देना है, हमेशा इनसे जुड़ जाना चाहते हो। क्या यह विचार सही है? (नहीं।) क्यों? तुम्हें इन चीजों को किस दृष्टि से देखना चाहिए? कौन-सी अभिव्यक्तियाँ सामान्य हैं? कौन-सी अभिव्यक्तियाँ असामान्य और तर्कहीन हैं, और सत्य के अनुरूप नहीं हैं? हम पहले सामान्य अभिव्यक्तियों की बात करेंगे। सभी लोगों को उनके माता-पिता जन्म देते हैं; उनकी अपनी देह और भावनाएँ होती हैं। भावनाएँ मानवीयता का अंश हैं और कोई भी उनसे बच नहीं सकता। भावनाएँ हर व्यक्ति में होती हैं—लोगों की बात क्या, छोटे-छोटे जानवरों में भी होती हैं। लेकिन कुछ लोगों की भावनाएँ थोड़ी तीव्र होती हैं तो कुछ लोगों की थोड़ी कमजोर। हालात चाहे जो हों, ये सभी लोगों में होती हैं। ये चाहे लोगों की भावनाओं, मानवता या तार्किकता से आएँ, सभी लोग अपने माता-पिता के बीमार होने, किसी बड़ी विपत्ति का सामना करने या कोई कष्ट झेलने की खबर सुनकर परेशान हो जाते हैं। सभी लोग परेशान हो जाते हैं। परेशान होना सामान्य बात है, यह एक मानवीय प्रवृत्ति है, जो लोगों की मानवता और भावनाओं में होती है। इसका लोगों में अभिव्यक्त होना अत्यंत सामान्य बात है। उनके माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार होने, या किसी बड़ी विपत्ति का सामना करने पर लोगों के लिए सामान्य है कि वे दुखी हो जाएँ, रोएँ, दबा हुआ महसूस करें, और समस्याएँ दूर करने और अपने माता-पिता का बोझ हल्का करने के तरीके सोचें। कुछ लोगों का शरीर भी इससे प्रभावित होगा—वे खा नहीं पाएँगे, उनके सीने में जकड़न महसूस होगी और वे पूरा दिन अवसाद में रहेंगे। ये तमाम चीजें भावनाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं और ये सब अत्यंत सामान्य हैं। लोगों को इन सामान्य अभिव्यक्तियों के लिए तुम्हारी आलोचना नहीं करनी चाहिए; तुम्हें इन अभिव्यक्तियों से बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, और निश्चित रूप से किसी से इनकी आलोचना स्वीकार नहीं करनी चाहिए। अगर तुममें ये अभिव्यक्तियाँ हैं, तो इससे साबित होता है कि अपने माता-पिता के लिए तुम्हारी भावनाएँ सच्ची हैं, और तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसका जमीर जाग्रत है, और तुम एक सामान्य, साधारण मनुष्य हो। किसी को भावुकता के इन प्रदर्शनों के लिए या तुम्हारी इन भावनात्मक जरूरतों को लेकर तुम्हारी आलोचना नहीं करनी चाहिए। ये सभी अभिव्यक्तियाँ तार्किकता और जमीर के दायरे में आती हैं। तो ऐसी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ हैं जो सामान्य नहीं हैं? असामान्य अभिव्यक्तियाँ वे हैं जो तार्किकता से परे होती हैं। वे तब होती हैं जब लोग अपने साथ ये चीजें घटते ही आवेग में आ जाते हैं, और तुरंत सब-कुछ छोड़ कर अपने माता-पिता के पास लौट जाना चाहते हैं, जो सारा दोष खुद पर डाल लेने, और पहले अपनाए आदर्शों, आकांक्षाओं, संकल्प और परमेश्वर के समक्ष ली गई शपथों का भी परित्याग कर देने की जल्दी कर बैठते हैं। ये अभिव्यक्तियाँ असामान्य हैं, और तार्किकता से परे हैं, ये अत्यधिक आवेगशील हैं! जब लोग एक पथ चुनते हैं, तो ऐसा नहीं है कि वे गर्ममिजाजी के आवेग में दोष-रहित और सही पथ चुन सकते हैं। तुम्हारा कर्तव्य निभाने के पथ पर चलने को चुनना और एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने का चयन करना कोई सरल बात नहीं है, और यह ऐसी चीज है जिसका स्थान कुछ और नहीं ले सकता। यह निश्चित रूप से ऐसा चयन नहीं है जो गर्ममिजाजी के आवेग में किया जा सकता हो। इसके अलावा, यही सही पथ है—तुम्हें अपने जीवन में सही पथ पर चलने का फैसला आसपास के माहौल, लोगों, घटनाओं और चीजों के कारण बदल नहीं देना चाहिए। तुममें यह तार्किकता होनी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण चीज है एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना और इस पर किसी चीज का असर नहीं पड़ना चाहिए, फिर वो चाहे तुम्हारे माता-पिता हों या किसी भी तरह का बड़ा बदलाव। यह इस मामले का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि तुम्हारे माता-पिता को कब-कैसे कोई बीमारी लग जाएगी और उसके क्या नतीजे होंगे, क्या ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम तय कर सकते हो? तुम कह सकते हो : “शायद ऐसा इसलिए हुआ कि मैं एक संतानोचित बच्चा नहीं था। अगर मैंने ये वर्ष मेहनत से पैसे कमाने और काम करने में लगाए होते और मैं आर्थिक दृष्टि से मालदार होता, तो उन्होंने इस बीमारी का इलाज पहले करवा लिया होता, और यह इतनी नहीं बिगड़ती। यह मेरे संतानोचित न होने के कारण हुआ।” क्या यह सोच सही है? (नहीं।) अगर किसी व्यक्ति के पास पैसा है, तो क्या उसका जरूर यह अर्थ है कि वे अच्छी सेहत खरीद सकेंगे और बीमार होने से बच सकेंगे? (नहीं।) क्या इस संसार के अमीर कभी बीमार नहीं पड़ते? जैसे ही किसी व्यक्ति को लगता है कि वह बीमार पड़ रहा है, तब से बीमार होने तक और आखिरकार मर जाने तक, ये सब परमेश्वर द्वारा पूर्व-नियत है। इसे कोई व्यक्ति कैसे तय कर सकता है? पैसा होना न होना इसे कैसे नियत कर सकता है? किसी का परिवेश इसे कैसे नियत कर सकता है? ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं से नियत होते हैं। इसलिए, तुम्हें अपने माता-पिता के गंभीर रूप से बीमार पड़ने या किसी बड़ी विपत्ति में फँसने का बहुत ज्यादा विश्लेषण या जाँच-पड़ताल नहीं करनी चाहिए, और निश्चित रूप से बहुत-सी ऊर्जा इसमें नहीं लगानी चाहिए—ऐसा करने का कोई लाभ नहीं होगा। लोगों का जन्म लेना, बूढ़े होना, बीमार पड़ना, मर जाना और जीवन में तरह-तरह की छोटी-बड़ी चीजों का सामना करना बड़ी सामान्य घटनाएँ हैं। अगर तुम वयस्क हो, तो तुम्हें सयाने तरीके से सोचना चाहिए, और इस मामले को शांत और सही ढंग से देखना चाहिए : “मेरे माता-पिता बीमार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें मेरी बहुत याद आती थी, क्या यह संभव है? वे यकीनन मुझे याद करते थे—कोई व्यक्ति अपने बच्चे को कैसे याद नहीं करेगा? मुझे भी उनकी बहुत याद आई, तो फिर मैं बीमार क्यों नहीं पड़ा?” क्या कोई व्यक्ति अपने बच्चों की याद आने के कारण बीमार पड़ जाता है? बात ऐसी नहीं है। तो जब तुम्हारे माता-पिता का ऐसे अहम मामलों से सामना होता है, तो क्या हो रहा होता है? बस यही कहा जा सकता है कि परमेश्वर ने उनके जीवन में ऐसा मामला आयोजित किया। यह परमेश्वर के हाथ से आयोजित हुआ—तुम वस्तुपरक कारणों और प्रयोजनों पर ध्यान नहीं लगा सकते—इस उम्र के होने पर तुम्हारे माता-पिता को इस मामले का सामना करना ही था, इस रोग से बीमार पड़ना ही था। तुम्हारे वहाँ होने पर क्या वे इससे बच जाते? अगर परमेश्वर ने उनके भाग्य के अंश के रूप में उनके बीमार पड़ने की व्यवस्था न की होती, तो तुम्हारे उनके साथ न होने पर भी कुछ न हुआ होता। अगर उनके लिए अपने जीवन में इस किस्म की महाविपत्ति का सामना करना नियत था, तो उनके साथ होकर भी तुम क्या प्रभाव डाल सकते थे? वे तब भी इससे बच नहीं सकते थे, सही है न? (सही है।) उन लोगों के बारे में सोचो जो परमेश्वर में यकीन नहीं करते—क्या उनके परिवार के सभी सदस्य साल-दर-साल साथ नहीं रहते? जब उन माता-पिता का महाविपत्ति से सामना होता है, तो उनके विस्तृत परिवार के सदस्य और बच्चे सब उनके साथ होते हैं, है कि नहीं? जब माता-पिता बीमार पड़ते हैं या जब उनकी बीमारियाँ बदतर हो जाती हैं, तो क्या इसका कारण यह है कि उनके बच्चों ने उन्हें छोड़ दिया? बात यह नहीं है, ऐसा होना ही था। बात बस इतनी है कि चूँकि बच्चे के तौर पर तुम्हारा अपने माता-पिता के साथ खून का रिश्ता है, इसलिए उनके बीमार होने की बात सुनकर तुम परेशान हो जाते हो, जबकि दूसरे लोगों को कुछ महसूस नहीं होता। यह बहुत सामान्य है। लेकिन, तुम्हारे माता-पिता के ऐसी महाविपत्ति का सामना करने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करने की जरूरत है, या यह चिंतन करने की जरूरत है कि इससे कैसे मुक्त हों या इसे कैसे दूर करें। तुम्हारे माता-पिता वयस्क हैं; उन्होंने समाज में इसका कई बार सामना किया है। अगर परमेश्वर उन्हें इससे मुक्त करने के माहौल की व्यवस्था करता है, तो देर-सबेर यह पूरी तरह से गायब हो जाएगी। अगर यह मामला उनके जीवन में एक रोड़ा है और उन्हें इसका अनुभव होना ही है, तो यह परमेश्वर पर निर्भर है कि उन्हें कब तक इसका अनुभव करना होगा। इसका उन्हें अनुभव करना ही है, और वे इससे बच नहीं सकते। अगर तुम अकेले ही इस मामले को सुलझाना चाहते हो, इसके स्रोत, कारणों और नतीजों का विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना चाहते हो, तो यह एक मूर्खतापूर्ण विचार है। इसका कोई लाभ नहीं, और यह बेकार है। तुम्हें इस तरह कार्य नहीं करना चाहिए, विश्लेषण, जाँच-पड़ताल और मदद के लिए अपने सहपाठियों और दोस्तों से संपर्क नहीं करना चाहिए, बढ़िया डॉक्टरों से संपर्क करने और उनके लिए सर्वोत्तम अस्पताल शय्या की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए—तुम्हें ये सब करने में अपना दिमाग नहीं कुरेदना चाहिए। अगर तुम्हारे पास सच में कुछ ज्यादा ऊर्जा है, तो तुम्हें अभी जो कर्तव्य निभाना है उसे बढ़िया ढंग से करना चाहिए। तुम्हारे माता-पिता का अपना अलग भाग्य है। कोई भी उस उम्र से बच नहीं सकता जब उसे मरना है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भाग्य के विधाता नहीं हैं, और उसी तरह से तुम अपने माता-पिता के भाग्य के विधाता नहीं हो। अगर उन्हें कुछ होना है, तो तुम उस बारे में क्या कर सकते हो? व्याकुल होकर और समाधान खोजकर तुम कौन-सा प्रभाव हासिल कर सकते हो? इससे कुछ भी हासिल नहीं हो सकता; यह परमेश्वर की इच्छा पर निर्भर करता है। अगर परमेश्वर उन्हें दूर ले जाना चाहता है, और तुम्हें अपना कर्तव्य अबाधित रूप से निभाने देना चाहता है, तो क्या तुम इसमें दखलंदाजी कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर से शर्तों पर चर्चा कर सकते हो? तुम्हें इस वक्त क्या करना चाहिए? अपना दिमाग कुरेद कर समाधान पाना, जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करना, खुद को दोष देना और अपने माता-पिता को मुँह दिखाने में शर्मिंदा महसूस करना—क्या ये विचार और कार्य किसी व्यक्ति को करने चाहिए? ये तमाम अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण के अभाव की हैं; ये अतार्किक, बुद्धिहीन और परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं। लोगों में ये अभिव्यक्तियाँ नहीं होनी चाहिए। क्या तुम समझे? (बिल्कुल।)

कुछ लोग कहते हैं : “मैं जानता हूँ कि मुझे अपने माता-पिता के बीमार होने या किसी बड़े दुर्भाग्य का सामना करने के मामले का विश्लेषण या जाँच-पड़ताल नहीं करनी चाहिए, ऐसा करना निरर्थक है, और मुझे इसे सत्य सिद्धांतों पर आधारित नजरिये से देखना चाहिए, लेकिन मैं खुद को इसका विश्लेषण या जाँच-पड़ताल करने से रोक नहीं सकता।” तो चलो संयम की समस्या को दूर करें, ताकि तुम्हें अब खुद को रोकने की जरूरत न पड़े। इसे कैसे हासिल किया जा सकता है? इस जीवन में सेहतमंद लोग 50 या 60 के होने के बाद बुढ़ापे के लक्षण महसूस करने लगते हैं—उनकी मांसपेशियाँ और हड्डियाँ घिसने लगती हैं, उनकी ताकत चली जाती है, वे न अच्छी तरह सो सकते हैं न ज्यादा खा सकते हैं, और उनमें काम करने, पढ़ने या किसी भी तरह की नौकरी करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा नहीं होती। उनके भीतर तरह-तरह की बीमारियाँ सिर उठाने लगती हैं, जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह, दिल की बीमारी, दिल और दिमाग को खून पहुँचाने वाली नसों की बीमारियाँ, वगैरह-वगैरह। जो लोग थोड़े सेहतमंद होते हैं, वे बुढ़ापे के इन लक्षणों के बावजूद जरूरी काम कर लेते हैं और ये लक्षण उनके सामान्य जीवन जीने और कामकाज को प्रभावित नहीं करते। यह बहुत अच्छी बात है। ये लक्षण कम सेहतमंद लोगों के सामान्य ढंग से जीने और काम करने को जरूर प्रभावित करते हैं, उन्हें कभी-कभी डॉक्टर से मिलने अस्पताल जाना पड़ता है। इनमें से कुछ लोग सर्दी-जुकाम या सिरदर्द के शिकार हो जाते हैं; दूसरे कुछ लोगों को पेट की तकलीफ या दस्त होता है, और दस्त होने पर हर बार उन्हें दो-दिन बिस्तर पर आराम करना पड़ता है। कुछ लोगों को उच्च रक्तचाप होता है और उन्हें इतना चक्कर आता है कि वे चल नहीं पाते, कार नहीं चला सकते या घर से दूर नहीं जा सकते। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो मूत्र पर नियंत्रण नहीं कर पाते, उन्हें बाहर जाने में बड़ी असुविधा होती है, इसलिए वे विरले ही अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ यात्रा पर निकलते हैं। कुछ दूसरे लोग हैं जिन्हें खाने से एलर्जी हो जाती है। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो ठीक से सो नहीं पाते, शोर-भरी जगहों में उन्हें नींद नहीं आती; किसी दूसरी जगह जाते ही उनके लिए सोना और भी कठिन हो जाता है। इन सभी चीजों का लोगों के जीवन और काम पर बड़ा गंभीर असर होता है। ऐसे भी कुछ लोग होते हैं, जो लगातार तीन-चार घंटे से ज्यादा काम नहीं कर पाते। और फिर कुछ मामले इनसे भी गंभीर होते हैं, जिनमें लोग 50-60 की उम्र में कोई जानलेवा रोग पकड़ लेते हैं, जैसे कैंसर, मधुमेह, रूमेटिक हृदय रोग, स्मृतिभ्रंश या पार्किन्सन रोग, वगैरह। चाहे ये बीमारियाँ उनके खान-पान से हुई हों, या प्रदूषित पर्यावरण, हवा या पानी से, मनुष्य के शरीर का विधान यह है कि महिलाएँ जब 45 की और पुरुष 50 के होते हैं तो उनके शरीर का उत्तरोत्तर क्षय होने लगता है। हर दिन वे कहते हैं कि उनके शरीर के इस हिस्से में तकलीफ है, या उस हिस्से में पीड़ा है, और वे जाँच के लिए डॉक्टर के पास जाते हैं, और पता चलता है कि यह जानलेवा कैंसर है। आखिरकार, डॉक्टर कहता है : “घर जाओ, इसका इलाज नहीं हो सकता।” सभी लोगों को ये शारीरिक बीमारियाँ होंगी। आज इन्हें हुई है, कल तुम्हें और हमें हो सकती है। उम्र और क्रम के अनुसार सभी लोग पैदा होंगे, बूढ़े होंगे, बीमार पड़ेंगे और मर जाएँगे—जवानी से वे बुढ़ापे में प्रवेश करते हैं, बुढ़ापे में उन्हें बीमारी होती है, और बीमारी से उनकी मृत्यु हो जाती है—यही विधान है। बस इतना ही है कि जब तुम अपने माता-पिता के बीमार पड़ने की खबर सुनते हो, तो उनके सबसे करीबी और सबसे फिक्रमंद होने और उनके हाथों पले-बड़े होने के कारण तुम अपनी भावनाओं की इस बाधा से उबर नहीं पाओगे, और सोचोगे : “जब दूसरे लोगों के माता-पिता की मृत्यु होती है तो मुझे कुछ महसूस नहीं होता, लेकिन मेरे माता-पिता बीमार नहीं हो सकते, क्योंकि इससे मैं दुखी हो जाता हूँ। मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता, मेरा दिल दुखता है, मैं अपनी भावनाओं से उबर नहीं सकता!” सिर्फ इसलिए कि वे तुम्हारे माता-पिता हैं, तुम सोचते हो कि उन्हें बूढ़ा नहीं होना चाहिए, बीमार नहीं पड़ना चाहिए और निश्चित रूप से उनकी मृत्यु नहीं होनी चाहिए—क्या इसके कोई मायने हैं? इसके कोई मायने नहीं हैं और यह सत्य नहीं है। तुम्हें समझ आया? (हाँ।) हर व्यक्ति को अपने माता-पिता के बूढ़े होने, बीमार पड़ने और कुछ गंभीर मामलों में कुछ लोगों के माता-पिता के लकवे से बिस्तर पकड़ लेने और कुछ के जड़ अवस्था में पड़ जाने का सामना करना पड़ेगा। कुछ लोगों के माता-पिता को उच्च रक्तचाप, आंशिक लकवा, स्ट्रोक या कोई गंभीर बीमारी भी हो जाती हैं और वे मर जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने माता-पिता के बूढ़े होने, बीमार पड़ने और फिर मर जाने का स्वयं गवाह होता है या इस बारे में सुनता है। बस इतना ही है कि कुछ लोग यह खबर कुछ जल्दी सुन लेते हैं जब उनके माता-पिता 50 की उम्र में होते हैं; कुछ लोग तब सुनते हैं जब उनके माता-पिता 60 के होते हैं; और दूसरे कुछ लोग तभी सुनते हैं जब उनके माता-पिता 80, 90 या 100 वर्ष के हो जाते हैं। लेकिन तुम यह खबर चाहे जब सुनो, एक पुत्र या पुत्री के रूप में किसी-न-किसी दिन, देर-सबेर, तुम इस तथ्य को स्वीकार करोगे। अगर तुम वयस्क हो, तो तुम्हें सयाने ढंग से सोचना चाहिए, तुम्हें लोगों के जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मरने को लेकर सही रवैया अपनाना चाहिए, आवेगशील नहीं होना चाहिए; ऐसा नहीं होना चाहिए कि अपने माता-पिता के बीमार होने की खबर सुनकर या अस्पताल से उनके गंभीर रूप से बीमार होने की सूचना मिलने पर तुम्हें उसे बर्दाश्त न कर सको। जन्म लेना, बूढ़ा होना, बीमार पड़ना और मर जाना ऐसी चीजें हैं जिन्हें हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही चाहिए, फिर तुम किस आधार पर इसे बर्दाश्त करने में असमर्थ हो? यह वह विधान है जो परमेश्वर ने मनुष्य के जन्म-मरण के लिए नियत कर रखा है, फिर तुम इसका उल्लंघन क्यों करना चाहते हो? तुम इसे स्वीकार क्यों नहीं करते? तुम्हारा इरादा क्या है? तुम अपने माता-पिता को मरने नहीं देना चाहते, तुम उन्हें जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मर जाने के परमेश्वर द्वारा स्थापित विधान के अनुसार जीने नहीं देना चाहते, तुम उन्हें बीमार पड़ने और मर जाने से रोक देना चाहते हो—यह उन्हें क्या बना देगा? क्या यह उन्हें कृत्रिम मनुष्य नहीं बना देगा? क्या वे तब भी मनुष्य रहेंगे? इसलिए तुम्हें इस तथ्य को स्वीकार करना ही चाहिए। यह खबर सुनने से पहले कि तुम्हारे माता-पिता बूढ़े हो रहे हैं, बीमार पड़ गए हैं और मर चुके हैं, तुम्हें मन-ही-मन में खुद को इसके लिए तैयार कर लेना चाहिए। देर-सबेर प्रत्येक व्यक्ति बूढ़ा होगा, कमजोर पड़ेगा और मर जाएगा। चूँकि तुम्हारे माता-पिता सामान्य लोग हैं, वे इस बाधा का अनुभव क्यों नहीं कर सकते? उन्हें इस बाधा का अनुभव करना चाहिए और तुम्हें इसे सही नजरिये से देखना चाहिए। क्या यह मामला सुलझ गया है? क्या अब तुम ऐसी चीजों से तार्किक ढंग से निपट सकोगे? (हाँ।) फिर जब तुम्हारे माता-पिता गंभीर रूप से बीमार पड़ जाएँ, या भविष्य में उन पर कोई बड़ा दुर्भाग्य टूट पड़े, तो तुम उसे किस नजरिये से देखोगे? इसकी अनदेखी करना भी गलत है और लोग कहेंगे : “तुम साँप हो या बिच्छू? तुम इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हो?” तुम एक सामान्य व्यक्ति हो, इसलिए तुममें कोई हलचल तो होनी चाहिए। तुम्हें सोचना चाहिए : “मेरे माता-पिता का जीवन बहुत कठिन था, उन्हें छोटी उम्र में ही यह बीमारी हो गई। उन्हें कोई आशीष नहीं मिला, और वे परमेश्वर में अपने विश्वास में एकाग्रचित्त नहीं रहे। उनका जीवन ऐसा ही था। उन्होंने कुछ भी नहीं समझा, उन्होंने सही पथ पर चलकर सत्य का अनुसरण नहीं किया। उन्होंने बस यूँ ही अपने दिन गुजार दिए। उनमें और जानवरों में कोई फर्क नहीं है—उनमें और बूढ़ी गायों या बूढ़े घोड़ों में कोई फर्क नहीं है। अब जबकि वे गंभीर रूप से बीमार हैं, उन्हें खुद ही अपना बचाव करना होगा, मगर आशा करता हूँ कि परमेश्वर उनकी तकलीफ थोड़ी कम कर सकेगा।” अपने दिल से उनके लिए प्रार्थना करो, यह काफी है। कोई भी व्यक्ति क्या कर सकता है? अगर तुम अपने माता-पिता के साथ नहीं हो, तो तुम कुछ नहीं कर सकते; तुम उनके सिरहाने रह भी लो, तो भी क्या कर सकते हो? कितने सारे लोगों ने अपने माता-पिता को यौवन से बुढ़ापे में जाते, बुढ़ापे में तरह-तरह की बीमारियाँ पकड़ने, तरह-तरह की बीमारियाँ पकड़ने से उनके इलाज के नाकामयाब होने, उनके मृत घोषित किए जाने और मुर्दाघर में डाले जाने को खुद देखा है? ऐसे लोगों की कमी नहीं है। ये सभी बच्चे अपने माता-पिता के साथ रहते हैं, मगर वे क्या कर सकते हैं? वे कुछ नहीं कर सकते; सिर्फ देख सकते हैं। इस प्रक्रिया को फिलहाल न देखने से तुम्हारी तकलीफ थोड़ी कम हो जाएगी; इसे न देखना ही बेहतर है, तुम्हारे लिए इसे होते हुए देखना अच्छी बात नहीं होगी। क्या ऐसी स्थिति नहीं है? (जरूर है।) इस मामले में एक ओर तुम्हें यह असलियत जाननी चाहिए कि लोगों का जन्म लेना, बूढ़ा होना, बीमार पड़ना और मर जाना परमेश्वर का स्थापित विधान है; दूसरी ओर, तुम्हें लोगों के भाग्य और उनकी उन जिम्मेदारियों को देखना चाहिए जो उन्हें पूरी करनी ही हैं, तुम्हें तर्कहीन होकर आवेगपूर्ण या मूर्खतापूर्ण हरकतें नहीं करनी चाहिए। तुम्हें ऐसी हरकतें क्यों नहीं करनी चाहिए? क्योंकि तुम इन्हें करोगे, तो भी इनका कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि इससे तुम्हारी मूर्खता का खुलासा होगा। इससे भी अधिक गंभीर रूप से, मूर्खतापूर्ण कार्य करते समय तुम परमेश्वर की अवज्ञा करते हो, और वह इसे पसंद नहीं करता, इससे घृणा करता है। ये सभी सत्य तुम्हारे मन में स्पष्ट हैं और तुम इन्हें सिद्धांत के अर्थ में समझते हो, फिर भी तुम अपने ही पथ से चिपके रहते हो, और अड़ियल होकर कुछ चीजें जान-बूझ कर करते हो, इसलिए परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करता, वह तुमसे घृणा करता है। उसे तुम्हारी किस बात से घृणा है? उसे तुम्हारी मूर्खता और अवज्ञा से घृणा है। तुम सोचते हो कि तुममें थोड़ी मानवीय भावना है, लेकिन परमेश्वर कहता है कि तुम जिद्दी और मूर्ख हो—तुम जिद्दी, मूर्ख, नासमझ और दुराग्रही हो, और तुम न तो सत्य को स्वीकार करते हो, न ही परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होते हो। परमेश्वर ने तुम्हें इस मामले में निहित सार, स्रोत और अभ्यास के विशिष्ट सिद्धांतों के बारे में स्पष्ट रूप से बताया है, लेकिन तुम अभी भी ये चीजें सँभालने के लिए अपनी भावनाओं का इस्तेमाल करना चाहते हो, इसलिए परमेश्वर तुम्हें पसंद नहीं करता। आखिरकार, अगर परमेश्वर तुम्हारे माता-पिता की बीमारी उनसे दूर नहीं करता, तो अगर उनकी होनी यही है तो वे गंभीर रूप से बीमार होकर मर जाएँगे। इस तथ्य को कोई व्यक्ति नहीं बदल सकता। अगर तुम इसे बदलना चाहते हो, तो इससे बस यही साबित होता है कि तुम परमेश्वर की संप्रभुता को बदलने के लिए अपने ही हाथ और तरीके इस्तेमाल करना चाहते हो। यह सबसे बड़ी अवज्ञा है, और तुम परमेश्वर का विरोध कर रहे हो। अगर तुम परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहते, तो अपने माता-पिता की आपबीती सुनकर तुम्हें शांत रहना चाहिए, एक ऐसी जगह तलाशनी चाहिए जहाँ तुम अकेले रो सको, सोच सको, प्रार्थना कर सको और अपने आसपास के भाई-बहनों से अपनी तड़प व्यक्त कर सको। तुम्हें बस इतना ही करना है। तुम्हें किसी चीज को बदलने के बारे में नहीं सोचना चाहिए और तुम्हें निश्चित रूप से मूर्खतापूर्ण हरकतें नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए यह विनती मत करो कि वह तुम्हारे माता-पिता की बीमारी दूर कर दे और उन्हें कुछ वर्ष और जी लेने दे, या तुम्हारे अपने जीवन से दो वर्ष लेकर उन्हें दे दे, वो भी सिर्फ इसलिए कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, या इस आधार पर कि तुमने अपना कर्तव्य निभाने के लिए इतने वर्षों से अपने परिवार को त्याग दिया या अपने करियर का परित्याग कर दिया। ऐसे काम मत करो। परमेश्वर ऐसी प्रार्थनाएँ नहीं सुनेगा, वह ऐसे विचारों और प्रार्थनाओं से घृणा करता है। परमेश्वर को परेशान या नाराज मत करो। परमेश्वर उन लोगों से बहुत खीझ जाता है जो किसी के भाग्य के साथ छेड़छाड़ करना चाहते हैं, किसी व्यक्ति के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य को बदलना चाहते हैं, या ऐसे कुछ तथ्य बदल देना चाहते हैं जो परमेश्वर द्वारा बहुत पहले से स्थापित हैं, या लोगों के भाग्य पथ बदल देना चाहते हैं। परमेश्वर इससे सबसे अधिक घृणा करता है।

अपने माता-पिता के बीमार होने को लेकर लोगों का जो रवैया, विचार और समझ होनी चाहिए, उस पर मैंने अपनी संगति समाप्त कर दी है। इसी तरह माता-पिता के निधन को लेकर भी लोगों को एक सही और तार्किक रवैया अपनाना चाहिए। कुछ लोग अपने माता-पिता से कई वर्षों से दूर रहे हैं, वे अपने माता-पिता के सिरहाने या उनके साथ नहीं रहे हैं, और जब उन्हें एकाएक अपने माता-पिता की मृत्यु का पता चलता है, तो उन्हें गहरा झटका लगता है और यह सब बिल्कुल अचानक हुआ-सा लगता है। चूँकि ये लोग अपने माता-पिता के पास नहीं हैं या बरसों से उनके साथ नहीं रहे, इसलिए उनके विचारों और धारणाओं में हमेशा एक किस्म की गलतफहमी होती है। कैसी गलतफहमी? जब तुमने अपने माता-पिता को छोड़ा था, तब वे जीवित और ठीक थे। इतने वर्षों से उनसे अलग रहने के बाद भी तुम्हारे मन में अपने माता-पिता की उम्र वही होती है, वे उसी शारीरिक और जीने की अवस्था में होते हैं, जो तुम्हें याद है। इससे बड़ी गड़बड़ हो जाती है। फिर तुम मान लेते हो कि तुम्हारे माता-पिता कभी बूढ़े नहीं होंगे, वे कई-कई जन्मदिन मनाने के लिए जीते रहेंगे। यानी जैसे ही उनके चेहरे तुम्हारे दिल में बस जाते हैं, जैसे ही उनका जीवन, उनकी बातें और उनका आचरण तुम्हारे मन और याददाश्त में अपनी छाप और छवि बना लेते हैं, तो तुम सोचने लगते हो कि तुम्हारे माता-पिता सदा वैसे ही रहेंगे, बदलेंगे नहीं, बूढ़े नहीं होंगे और यकीनन नहीं मरेंगे। यहाँ “नहीं मरेंगे” का क्या अर्थ है? इसका एक अर्थ है कि उनके भौतिक शरीर गायब नहीं होंगे। इसका दूसरा अर्थ है कि उनके चेहरे, तुम्हारे लिए उनकी भावनाएँ इत्यादि गायब नहीं होंगी। यह एक गलतफहमी है, और इससे तुम्हें बहुत कष्ट होगा। इसलिए तुम्हारे माता-पिता किसी भी उम्र के हों, उनकी मृत्यु बुढ़ापे से हो, बीमारी से हो या किसी दुर्घटना से, इससे तुम्हें झटका लगेगा और यह तुम्हें एकाएक हुआ-सा लगेगा। चूँकि तुम्हारे मन में तुम्हारे माता-पिता अभी भी जीवित और भले-चंगे हैं, और फिर वे अचानक गुजर चुके हैं, इसलिए तुम सोचोगे : “वे कैसे गुजर सकते हैं? जीवित लोग अचानक धूल-मिट्टी में कैसे बदल सकते हैं? मेरा दिल हमेशा कहता है कि मेरे माता-पिता अभी जीवित हैं, मेरी माँ अभी भी रसोई में खाना पका रही है, बहुत व्यस्त है और मेरे पिता हर दिन बाहर काम कर रहे हैं, सिर्फ शाम को घर आते हैं।” उनके जीवन के इन दृश्यों ने तुम्हारे मन पर कुछ छाप छोड़ दी है। इसलिए अपनी भावनाओं के कारण तुम्हारी चेतना में ऐसा कुछ होता है जो नहीं होना चाहिए, जो एक विश्वास है कि तुम्हारे दिल में तुम्हारे माता-पिता हमेशा जीवित रहेंगे। इस तरह तुम मानते हो कि उन्हें मरना नहीं चाहिए, और उनकी मृत्यु किन्हीं भी हालात में हुई हो, तुम्हें लगेगा कि यह तुम्हारे लिए एक गहरा झटका है, और तुम इसे स्वीकार नहीं कर पाओगे। तुम्हें इस तथ्य से उबरने में समय लगेगा, है कि नहीं? अपने माता-पिता का बीमार होना तुम्हारे लिए पहले से ही एक गहरा झटका है, तो उनका निधन उससे भी बड़ा झटका होगा। तो फिर निधन होने से पहले तुम्हें उस अप्रत्याशित झटके का समाधान कैसे करना चाहिए, ताकि यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन या चलने के पथ में रुकावट न डाले? सबसे पहले आओ देखें वास्तव में मृत्यु का अर्थ क्या है और गुजर जाना क्या होता है—क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई व्यक्ति इस दुनिया को छोड़ रहा है? (हाँ।) इसका अर्थ है कि शारीरिक मौजूदगी वाला किसी व्यक्ति का जीवन मनुष्य द्वारा देखे जा सकने वाले भौतिक संसार से हटा दिया जाता है और फिर वह गायब हो जाता है। वह व्यक्ति फिर किसी और दुनिया में, किसी और रूप में जीने के लिए चला जाता है। तुम्हारे माता-पिता के जीवन के प्रस्थान का अर्थ है कि इस संसार में उनसे तुम्हारा रिश्ता भंग, गायब और खत्म हो चुका है। वे किसी और दुनिया में किसी और रूप में जी रहे हैं। उस दूसरी दुनिया में उनका जीवन किस तरह चलेगा, क्या वे इस दुनिया में लौटकर आएँगे, तुमसे फिर मिलेंगे या तुम्हारे साथ उनका कोई शारीरिक संबंध होगा या वे तुमसे किसी भावनात्मक जाल में उलझेंगे, यह परमेश्वर द्वारा नियत है, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। कुल मिलाकर, उनके निधन का अर्थ है कि इस दुनिया में उनके उद्देश्य पूरे हो चुके हैं, और उनके पीछे एक पूर्ण विराम लग चुका है। इस जीवन और संसार में उनका उद्देश्य समाप्त हो चुका है, इसलिए उनके साथ तुम्हारा रिश्ता भी खत्म हो चुका है। क्या भविष्य में उनका पुनर्जन्म होगा, उन्हें कोई दंड भरना होगा या प्रतिबंध झेलने होंगे, या इस दुनिया में कोई चीज सँभालनी होगी या व्यवस्था करनी होगी, क्या इसका तुमसे कोई लेना-देना है? क्या तुम यह तय कर सकते हो? इसका तुमसे कोई सरोकार नहीं है, तुम यह तय नहीं कर सकते, और तुम इसकी कोई खबर भी नहीं पा सकोगे। तब इस जीवन में उनसे तुम्हारा रिश्ता खत्म हो चुका है। यानी जिस भाग्य ने तुम्हें 10, 20, 30 या 40 साल तक बाँधे रखा, वह तब खत्म हो गया। इसके बाद वे अलग हैं और तुम अलग, और तुम लोगों के बीच कोई भी रिश्ता नहीं रहता। भले ही तुम सब परमेश्वर में विश्वास रखते हो, फिर भी उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया, और तुमने अपना; जब वे और तुम एक ही स्थान के परिवेश में नहीं जीते तो तुम लोगों के बीच कोई रिश्ता नहीं रह जाता। उन्होंने बस परमेश्वर से मिले उद्देश्य पहले ही पूरे कर लिए हैं। इसलिए जहाँ तक यह बात है कि उन्होंने तुम्हारे प्रति जिम्मेदारियाँ निभाईं, तो ये उसी दिन खत्म हो जाती हैं जब तुम उनसे स्वतंत्र होकर रहने लगते हो—तब अपने माता-पिता से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं रहता है। अगर आज उनकी मृत्यु हो जाए, तो तुम बस भावनात्मक स्तर पर कोई चीज याद करोगे, और तुम्हारी लालसा के दो प्रियजन कम हो जाएँगे। तुम उन्हें फिर कभी नहीं देखोगे, फिर कभी उनकी कोई खबर नहीं सुन पाओगे। बाद में उनके साथ जो भी हो, उनका भविष्य जैसा भी हो, उसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं होता, उनके साथ तुम्हारा कोई रक्त संबंध नहीं रहता, और तुम अब उसी प्रकार के प्राणी भी नहीं रह पाते। ऐसा ही होता है। तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु बस वह आखिरी खबर होगी जो तुम इस संसार में उनके बारे में सुनोगे और वह अंतिम बाधा होगी जो तुम उनके जन्म लेने, बूढ़े होने, बीमार पड़ने और मर जाने के अनुभवों के बारे में सुनोगे या देखोगे, बस और कुछ नहीं। उनकी मृत्यु तुमसे कुछ लेकर नहीं जाएगी न तुम्हें कुछ देगी, वे बस गुजर चुके होंगे, मनुष्यों के रूप में उनकी यात्रा समाप्त हो चुकी होगी। इसलिए उनकी मृत्यु की बात हो, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी मृत्यु दुर्घटना से हुई, सामान्य रूप से हुई, या बीमारी वगैरह से, किसी भी स्थिति में, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के बिना कोई भी व्यक्ति या ताकत उनका जीवन नहीं ले सकती। उनकी मृत्यु का अर्थ बस उनके शारीरिक जीवन का अंत है। अगर तुम्हें उनकी याद आए, तुम उनके लिए तरसते हो, या अपनी भावनाओं के चलते खुद से शर्मिंदा होते हो, तो तुम्हें इनमें से कुछ भी महसूस नहीं करना चाहिए, और इन्हें अनुभव करना जरूरी नहीं है। वे इस संसार से जा चुके हैं, इसलिए उन्हें याद करना अनावश्यक है, है कि नहीं? अगर तुम सोचते हो : “क्या मेरे माता-पिता इन तमाम वर्षों में मुझे याद करते रहे होंगे? इतने वर्षों तक संतानोचित निष्ठा दिखाते हुए मेरा उनके पास न रहना उनके लिए कितना कष्टप्रद रहा होगा? इन सभी वर्षों में मेरी हमेशा यह कामना रही कि मैं उनके साथ कुछ दिन बिता पाता, मुझे बिल्कुल आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी उनका निधन हो जाएगा। मुझे दुख और अपराध-बोध होता है।” तुम्हारा इस तरह सोचना जरूरी नहीं है, उनकी मृत्यु का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। उनका तुमसे कोई लेना-देना क्यों नहीं है? क्योंकि भले ही तुम उन्हें संतानोचित निष्ठा दिखाते या उनके साथ रहते, यह वह दायित्व या कार्य नहीं है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। परमेश्वर ने यह नियत किया है कि तुम्हारे माता-पिता को तुमसे कितना सौभाग्य और कितना कष्ट मिलेगा—इसका तुम्हारे साथ बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। वे इस कारण से ज्यादा लंबे समय तक नहीं जिएँगे कि तुम उनके साथ हो, और इस वजह से कम समय तक नहीं जिएँगे कि तुम उनसे बहुत दूर हो और उनके साथ अक्सर नहीं रह पाए हो। परमेश्वर ने नियत किया है कि उनका जीवन कितना लंबा होगा, और इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, अगर तुम यह खबर सुनते हो कि तुम्हारे माता-पिता की मृत्यु तुम्हारे जीवनकाल में हो गई है, तो तुम्हें अपराध-बोध पालने की जरूरत नहीं है। तुम्हें इस मामले को सही दृष्टि से देखकर स्वीकार करना चाहिए। अगर तुम उनके गंभीर रूप से बीमार होने पर पहले ही बहुत आँसू बहा चुके हो, तो तुम्हें उनके निधन पर खुश और आजाद महसूस करना चाहिए; उन्हें विदा करने के बाद तुम्हें रोने की जरूरत नहीं है। तुमने उनके बच्चे के रूप में पहले ही अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली होंगी, तुमने उनके लिए प्रार्थना की होगी, उनके लिए दुखी हुए होगे, अनगिनत आँसू बहाए होंगे और बेशक तुमने उनकी बीमारी के इलाज के हर संभव समाधान सोचे होंगे, और उनकी पीड़ा कम करने की भरसक कोशिश की होगी। तुमने उनके बच्चे के रूप में वह सब पहले ही कर लिया होगा जो तुम कर सकते हो। उनकी मृत्यु हो जाने पर तुम सिर्फ यह कह सकते हो : “आप लोगों का जीवन बहुत कठिन था। आपके बच्चे के रूप में मैं आपकी आत्मा की शांति की आशा करता हूँ। अगर आपने इस जीवन में परमेश्वर के अपमान के बहुत-से काम किए हों, तो आपको अगले संसार में दंड भुगतना होगा। अगर दंड भुगतने के बाद परमेश्वर आपको इस संसार में पुनर्जन्म लेने का अवसर देता है, तो आशा करता हूँ कि आप बढ़िया आचरण करने और सही पथ पर चलने का भरसक प्रयास करेंगे। परमेश्वर का अपमान करने के और कोई काम न करें, और प्रयास करें कि अगले जीवन में आपको कोई दंड न मिले।” बस इतना ही। क्या यह बात ठीक से कही गई है? तुम बस इतना ही कर सकते हो; चाहे यह तुम्हारे माता-पिता के लिए हो या किसी प्रियजन के लिए, तुम बस इतना ही कर सकते हो। बेशक, जब तुम्हारे माता-पिता आखिरकार गुजर जाएँ, तब अगर तुम उनके साथ नहीं रह सके, या उन्हें आखिरी बार थोड़ी दिलासा नहीं दे सके, तो तुम्हारा दुखी होना जरूरी नहीं है। ऐसा इसलिए कि हर व्यक्ति इस दुनिया से वास्तव में अकेला ही जाता है। भले ही उनके बच्चे उनके साथ हों, मगर किसी मृत्यु के फरिश्ते के उन्हें लेने आने पर सिर्फ वे ही उसे देख पाएँगे। उनके जाते समय कोई भी व्यक्ति उनके साथ नहीं जाएगा, न उनके बच्चे उनके साथ जा सकते हैं, न ही जीवनसाथी। जब लोग संसार छोड़कर जाते हैं, तब वे हमेशा अकेले ही होते हैं। अपने आखिरी पल में, हर व्यक्ति को इस स्थिति, इस प्रक्रिया और इस परिवेश का सामना करने की जरूरत पड़ती है। इसलिए अगर तुम उनके पास हो, और वे तुम्हें ही देख रहे हों, फिर भी इसका कोई लाभ नहीं। जब उन्हें छोड़कर जाना होगा, तब अगर वे तुम्हारा नाम पुकारना चाहें तो भी वे नहीं पुकार पाएँगे और तुम उनकी आवाज नहीं सुन पाओगे; अगर वे हाथ बढ़ाकर तुम्हें पकड़ना चाहें तो उनमें ताकत नहीं होगी और तुम इसे महसूस नहीं कर पाओगे। वे अकेले ही होंगे। ऐसा इसलिए कि हर व्यक्ति इस संसार में अकेले ही आता है और आखिरकार उसे अकेले ही जाना पड़ता है। यह परमेश्वर द्वारा नियत है। ऐसी चीजों का अस्तित्व लोगों को यह और भी स्पष्ट रूप से देखने योग्य बनाता है कि उनका जीवन और भाग्य, उनका जन्म लेना, बूढ़ा होना, बीमार पड़ना और मर जाना सब परमेश्वर के हाथ में है, और हर व्यक्ति का जीवन स्वतंत्र है। हालाँकि सभी लोगों के माता-पिता, भाई-बहन और प्रियजन होते हैं, मगर परमेश्वर के दृष्टिकोण और जीवन के नजरिये से, प्रत्येक व्यक्ति का जीवन स्वतंत्र है, लोगों के जीवन समूहबद्ध नहीं हैं और किसी भी जीवन का साथी नहीं है। सृजित मनुष्य के दृष्टिकोण से प्रत्येक जीवन स्वतंत्र है, लेकिन परमेश्वर के दृष्टिकोण से उसके द्वारा सृजित कोई भी जीवन अकेला नहीं है, क्योंकि परमेश्वर प्रत्येक के साथ है और सबको आगे खींच रहा है। बात बस इतनी है कि जब तुम इस संसार में हो, तो तुम अपने माता-पिता के यहाँ जन्म लेते हो, और तुम सोचते हो कि तुम्हारे माता-पिता ही तुम्हारे सबसे ज्यादा करीब हैं, लेकिन असल में जब तुम्हारे माता-पिता यह संसार छोड़कर जाएँगे, तब तुम्हें एहसास होगा कि वे तुम्हारे सबसे करीबी नहीं हैं। जब उनके जीवन का अंत होगा, तब भी तुम जीवित रहोगे, उनके जीवन का अंत होने से तुम्हारा जीवन नहीं छिन जाएगा, और इससे तुम्हारे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम इतने वर्षों से उनसे दूर रहे हो और अभी भी तुम अच्छा जीवन जी रहे हो। ऐसा क्यों है? क्योंकि परमेश्वर तुम्हारी देखभाल कर रहा है, तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहा है; तुम उनकी संप्रभुता के अधीन जी रहे हो। जब तुम्हारे माता-पिता इस संसार से जा चुके होंगे, तो तुम और अधिक जान लोगे कि तुम्हारे माता-पिता के तुम्हारे साथ रहे बिना, तुम्हारी देखभाल किए बिना, तुम्हारा ख्याल रखे बिना या पाले-पोसे बिना, इन वर्षों में तुम बड़े हुए, वयस्क हुए, अधेड़ हुए, बूढ़े हुए, और परमेश्वर के मार्गदर्शन के अधीन तुमने अपने जीवन में बहुत-कुछ समझा है, और तुम्हारी आगे की दिशा और राह और ज्यादा स्पष्ट हो गई हैं। इसलिए लोग अपने माता-पिता को छोड़ पाते हैं। उनके माता-पिता का अस्तित्व सिर्फ उनके बचपन में आवश्यक है, लेकिन बड़े हो जाने के बाद माता-पिता का अस्तित्व महज एक औपचारिकता है। उनके माता-पिता बस उनके भावनात्मक पोषण और सहारा हैं, और वे जरूरी नहीं हैं। बेशक, जब तुम्हारे माता-पिता इस संसार को छोड़ जाते हैं, तो ये चीजें तुम्हारे मन में और ज्यादा स्पष्ट हो जाएँगी, और तुम्हें और अधिक लगेगा कि लोगों का जीवन परमेश्वर से आता है, और लोग परमेश्वर का सहारा लिए बिना, परमेश्वर के उनका मानसिक और आध्यात्मिक पोषण बने बिना, और उनके जीवन का पोषण बने बिना वे जी नहीं सकते। जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें छोड़ देते हैं, तो तुम बस उन्हें भावनात्मक स्तर पर याद करोगे, लेकिन साथ ही तुम भावनात्मक रूप से या दूसरे पहलुओं में आजाद हो जाओगे। तुम्हें क्यों स्वतंत्र कर दिया जाएगा? जब तुम्हारे माता-पिता आसपास होते हैं, तो वे तुम्हारे लिए चिंता और बोझ दोनों होते हैं। वे ऐसे लोग होते हैं जिनसे तुम दुराग्रही हो सकते हो, और वे तुम्हें ऐसा महसूस करवा सकते हैं मानो तुम अपनी भावनाओं से मुक्त नहीं हो सकते। तुम्हारे माता-पिता का निधन हो जाने पर ये तमाम चीजें सुलझ जाएँगी। जिन्हें तुम अपना सबसे करीबी समझते थे वे जा चुके होंगे, तुम्हें उनकी चिंता नहीं करनी पड़ेगी या उनके लिए तरसना नहीं पड़ेगा। जब तुम अपने माता-पिता पर निर्भरता के रिश्ते से छूट जाओगे, जब वे इस संसार से चले जाएँगे, जब तुम अपने दिल की गहराई में महसूस करो कि तुम्हारे माता-पिता जा चुके हैं, और तुम्हें लगे कि तुम पहले ही अपने माता-पिता के रक्त संबंधों से परे जा चुके हो, तब तुम सचमुच सयाने और स्वतंत्र हो जाओगे। इस बारे में सोचो : लोग चाहे जितने भी बड़े क्यों न हो जाएँ, अगर उनके माता-पिता अब भी उनके आसपास हैं, तो उन्हें जब भी कोई समस्या होगी, वे सोचेंगे : “मैं अपनी माँ से पूछ लेता हूँ, अपने पिता से पूछ लेता हूँ।” उनके लिए हमेशा एक भावनात्मक पोषण रहता है। जब लोगों के पास भावनात्मक पोषण होता है तो उन्हें लगता है कि इस संसार में उनका अस्तित्व गर्मजोशी और खुशी से ओतप्रोत है। जब तुम वह गर्मजोशी और खुशी की वह भावना खो देते हो, अगर तुम्हें यह नहीं लगता कि तुम अकेले हो या तुमने खुशी और गर्मजोशी गँवा दी है, तब तुम सयाने हो, और अपने विचारों और भावनाओं के संदर्भ में सचमुच स्वतंत्र हो। तुममें से ज्यादातर लोगों ने शायद अब तक इन चीजों का अनुभव नहीं किया है। जब करोगे तो समझ जाओगे। इस बारे में सोचो : लोगों की उम्र चाहे जितनी भी क्यों न हो, वे चाहे 40 के हों या 50-60 के, अपने माता-पिता के गुजर जाने पर वे एकाएक बहुत सयाने हो जाते हैं। मानो पल भर में वे मासूम बच्चे से समझदार वयस्क बन गए हों। रातोरात वे चीजों को समझने लगते हैं, स्वतंत्र रहना सीख लेते हैं। इसलिए हर व्यक्ति के लिए उनके माता-पिता की मृत्यु एक बहुत बड़ी ठोकर होती है। अगर तुम अपने माता-पिता के साथ अपने रिश्ते को सही दृष्टि से देख कर संभाल सको, और साथ ही अपने माता-पिता की विविध अपेक्षाओं को सही नजरिये से देख और सँभाल कर जाने दे सको, या भावनात्मक और नैतिक स्तर पर अपने माता-पिता के प्रति निभाई जाने वाली अपनी जिम्मेदारियों को सही दृष्टि से देख कर संभाल सको, तो तुम सचमुच सयाने हो चुके होगे, और कम-से-कम तुम परमेश्वर के समक्ष वयस्क बन जाओगे। इस तरह वयस्क बनना आसान नहीं है, तुम्हें अपनी दैहिक भावनाओं को लेकर थोड़ी पीड़ा सहनी होगी, खास तौर से तुम्हें थोड़ी भावनात्मक तबाही और यंत्रणा सहने के साथ ही चीजें ठीक से न होने, अपनी आशा के अनुरूप न होने और अभागे होने की पीड़ा, वगैरह भी सहनी पड़ेगी। इस सारी पीड़ा का अनुभव कर लेने के बाद तुम्हें इन तमाम मामलों में थोड़ी अंतर्दृष्टि मिलेगी। अगर इन मामलों के सत्यों के बारे में हमने जो संगति की है उनसे जोड़ कर तुम इन्हें देखोगे, तो तुम्हें लोगों के परमेश्वर द्वारा नियत जीवन और भाग्य और साथ ही लोगों के बीच के स्नेह की बहुत बढ़िया तरीके से थोड़ी और अंतर्दृष्टि प्राप्त होगी। इन चीजों की अंतर्दृष्टि पा लेने के बाद तुम्हारे लिए इन्हें जाने देना आसान हो जाएगा। इन्हें जाने दे सकने और इन्हें सही ढंग से सँभाल सकने के बाद तुम उन्हें सही दृष्टि से देख सकोगे। तुम उन्हें मानवीय सिद्धांतों या इंसानी जमीर के मानकों के आधार पर नहीं देखोगे; तुम उन्हें उस दृष्टि से देखोगे जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर को समर्पित हो सकते हो। अगर तुम परमेश्वर और उसके आयोजनों के प्रति समर्पित हो सकते हो, तो यह एक अच्छी निशानी और अच्छा शगुन है। इससे क्या संकेत मिलता है? यही कि तुम्हारे उद्धार की आशा है। इसलिए, जब अपने माता-पिता की अपेक्षाओं की बात हो तो चाहे तुम युवा, अधेड़, उम्रदराज या बूढ़े हो, और भले ही तुमने इसका अनुभव न किया हो, इसे फिलहाल अनुभव कर रहे हो, या पहले ही इसका अनुभव कर चुके हो, तुम्हें महज अपनी भावनाओं को जाने देना या अपने माता-पिता से नाता तोड़कर उनसे कटना नहीं है, बल्कि सत्य के लिए प्रयास करना और सत्य के इन पहलुओं को समझने की कोशिश करना है। यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है। जब तुम इन अलग-अलग पेचीदा रिश्तों को समझ लोगे, तो तुम उनसे आजाद हो सकोगे और ये तुम्हें बेबस नहीं करेंगे। जब तुम उनके कारण बेबस नहीं होगे, तब तुम्हारे लिए परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना बहुत आसान हो जाएगा, और ऐसा करने में तुम्हारे सामने कम रुकावटें और छोटी-मोटी बाधाएँ ही आएंगी। तब तुम्हारे परमेश्वर की अवज्ञा करने की कम संभावना होगी, है कि नहीं?

क्या अब तुम माता-पिता से जुड़े इन सभी बड़े मामलों को गहराई से समझ कर सुलझाने में समर्थ हो? अपने खाली समय में सत्य पर चिंतन करो। अगर आगे चल कर, या जिन चीजों का फिलहाल तुम अनुभव कर रहे हो, उन मामलों को तुम सत्य से जोड़ सको, और सत्य के आधार पर इन समस्याओं को दूर कर सको, तो तुम्हारी मुसीबत कम होगी, तुम्हारे सामने कम मुश्किलें आएंगी और तुम बहुत सुकून-भरा और उल्लासपूर्ण जीवन जियोगे। अगर तुम इन चीजों को सत्य के आधार पर नहीं देखते, तो तुम्हारे सामने बहुत-सी मुसीबतें आएंगी और तुम्हारा जीवन बहुत दुखदायी होगा। यह है उसका नतीजा। आज मैं माता-पिता की अपेक्षाओं के विषय पर संगति यहीं समाप्त करता हूँ। फिर मिलेंगे!

29 अप्रैल, 2023

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