सत्य का अनुसरण कैसे करें (19)

तुम सब जो भजन सुनते हो, क्या उन्हें तुम अपनी दशाओं और अनुभवों से जोड़ते हो? क्या तुम उन कुछ शब्दों और विषयवस्तु को सुन कर उन पर चिंतन करते हो, जो तुम्हारे अनुभवों और समझ से संबंधित हैं, या जिन्हें तुम हासिल कर सकते हो? (हे परमेश्वर, कभी-कभी कुछ चीजों का अनुभव करते समय मैं सुने हुए भजनों को अपनी हालत से जोड़ता हूँ, और कभी-कभी मैं बिना मन लगाए सुनता हूँ।) ज्यादातर समय तुम सिर्फ बेमन से सुनते हो, है कि नहीं? अगर भजन सुनते वक्त 95 प्रतिशत समय तुम बिना मन लगाए सुनते हो, तो क्या इस तरह सुनने का कोई महत्त्व है? भजन सुनने का प्रयोजन क्या है? कम-से-कम इससे लोगों को शांति मिलती है, विविध पेचीदा मामलों और विचारों से वे अपने दिल को बाहर निकाल पाते हैं, परमेश्वर के समक्ष शांतचित्त हो पाते हैं, और परमेश्वर के वचनों के समक्ष आकर उसके प्रत्येक वाक्य और पैराग्राफ को ध्यान से सुनकर उस पर चिंतन कर पाते हैं। क्या तुम लोग अभी कामों में इतने ज्यादा व्यस्त हो कि तुम्हारे पास सुनने और चिंतन करने का वक्त नहीं है, या तुम परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करना, सत्य पर चिंतन करना और परमेश्वर के समक्ष शांत-चित्त होना जानते ही नहीं? तुम हर दिन बस व्यस्तता से अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहते हो; भले ही यह कठिन और थकाऊ हो, फिर भी तुम मानते हो कि तुम्हारा हर दिन संपूर्ण है, और तुम्हें नहीं लगता कि तुम खाली या आध्यात्मिक दृष्टि से बेसहारा हो। तुम्हें लगता है कि तुम्हारा दिन बेकार नहीं हुआ; उसका मूल्य है। हर दिन निरुद्देश्य जीने को यूँ ही समय बेकार करना कहा जाता है। ठीक है न? (हाँ।) मुझे बताओ, अगर चीजें यूँ ही चलती रहीं, तो अगले तीन, पाँच, आठ या दस साल में क्या तुम्हारे पास दिखाने को कुछ भी सार्थक रहेगा? (नहीं।) अगर तुम्हारे साथ परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित कोई विशेष घटना न हो, या तुम किन्हीं खास हालात का सामना न करो, अगर तुम लोगों को सभाएँ और संगतियाँ देने और विविध लोगों, घटनाओं और चीजों के सार का विश्लेषण करने, तुम्हारा हाथ थाम कर तुम सबको शिक्षा देने के लिए ऊपरवाले से तुम्हें कोई निजी मार्गदर्शन और अगुआई न मिले, तो तुम लोग हर दिन ढेर सारा वक्त वास्तव में व्यर्थ कर रहे हो, तुम्हारी प्रगति धीमी है, और तुम जीवन प्रवेश में सचमुच कुछ भी हासिल नहीं कर रहे हो। इसलिए जब भी कुछ होता है, तो पहचानने-समझने की तुम्हारी क्षमता नहीं बढ़ती, सत्य के तुम्हारे अनभव और समझ में तरक्की नहीं होती, और तुम परमेश्वर में अपनी आस्था और उसके प्रति समर्पण का अनुभव कर उसमें तरक्की करने में भी विफल हो जाते हो। जब अगली बार किसी चीज से तुम्हारा सामना होता है, तब भी तुम नहीं जानते कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार उसे कैसे संभालें। अपने कर्तव्य निभाने और विविध चीजों का अनुभव करने की प्रक्रिया में, तुम अब भी सक्रियता से सिद्धांत नहीं खोज सकते और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं कर सकते। यह समय गँवाना है। समय गँवाने के अंतिम नतीजे क्या होते हैं? तुम्हारा समय और ऊर्जा बेकार हो जाते हैं, और तुम्हारी मेहनतकश कोशिशों की लागत बेकार हो जाती है। इतने वर्ष तुम जिस पथ पर चले हो, उसे पौलुस का पथ मना जाता है। अगर तुम अनेक वर्षों तक एक अगुआ या कार्यकर्ता रहे हो, मगर तुम्हारा जीवन प्रवेश उथला है, तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, और तुम कोई भी सत्य सिद्धांत नहीं समझते, तो तुम उस भूमिका के लिए पूरी तरह उपयुक्त नहीं हो, और स्वतंत्र रूप से कोई कार्य करने में असमर्थ हो। अगुआ और कार्यकर्ता अपनी भूमिकाओं के लिए अनुपयुक्त हैं, और आम भाई-बहन स्वतंत्र रूप से कलीसियाई जीवन नहीं जी सकते, परमेश्वर के वचनों को स्वतंत्र रूप से खा-पी नहीं सकते, वे नहीं जानते कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव कैसे करें और उन्हें जीवन प्रवेश प्राप्त नहीं है। अगर कोई भी उनका निरीक्षण या मार्गदर्शन न करे, तो वे भटक सकते हैं; अगर अगुआओं और कार्यकर्ताओं का उनके कामकाज में निरीक्षण और निर्देशन न हो, तो वे भटक सकते हैं, एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर सकते हैं, और मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए जा सकते हैं, और अनजाने ही मसीह-विरोधियों का अनुसरण भी कर सकते हैं और इसके बावजूद यह सोच सकते हैं कि वे परमेश्वर के लिए खुद को खपा रहे हैं। क्या यह दयनीय नहीं है? (जरूर है।) तुम लोगों की मौजूदा हालत ठीक ऐसी ही है : बुरी और दयनीय दोनों। हालात का सामना होने पर तुम बेसहारा हो जाते हो, और तुम्हारे सामने कोई रास्ता नहीं रहता। वास्तविक समस्याओं और कामकाज की वास्तविक विषयवस्तु के आने पर तुम नहीं जानते कि काम कैसे करें या क्या करें; सब-कुछ उलझा हुआ होता है, और तुम्हें कुछ पता नहीं होता कि इन्हें कैसे सुलझाएँ। तुम हर दिन इतना व्यस्त रह कर बहुत खुश हो, शारीरिक रूप से तुम थके हुए हो, मानसिक दृष्टि से तुम पर बहुत दबाव है, मगर तुम्हारे कामकाज के नतीजे उतने अच्छे नहीं हैं। प्रत्येक सत्य के सिद्धांत और अभ्यास के पथों की जानकारी परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के जरिये तुम्हें स्पष्ट रूप से दे दी गई है, लेकिन तुम्हारे कार्य का कोई पथ नहीं है, तुम सिद्धांतों का पता नहीं लगा सकते, हालात का सामना होने पर तुम उलझ जाते हो, काम कैसे करें नहीं जानते और तुम्हारा सारा कामकाज गड़बड़ा जाता है। क्या यह दयनीय स्थिति नहीं है? (बिल्कुल।) यह सचमुच दयनीय स्थिति है।

कुछ लोग कहते हैं, “मैंने दस साल से भी ज्यादा से परमेश्वर में विश्वास रखा है; मैं एक मंझा हुआ विश्वासी हूँ।” कुछ कहते हैं, “मैंने बीस साल से परमेश्वर में विश्वास रखा है।” दूसरे कहते हैं, “बीस साल का विश्वास क्या है? मैंने तीस साल से भी ज्यादा से परमेश्वर में विश्वास रखा है।” तुम लोगों ने अनेक वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, और तुममें से कुछ लोगों ने अनेक वर्षों तक अगुआओं या कार्यकर्ताओं के तौर पर भी सेवा की है, और तुम्हें काफी अनुभव है। लेकिन तुम्हारा जीवन प्रवेश कैसा चल रहा है? तुम सत्य सिद्धांतों को कितनी अच्छी तरह समझ सकते हो? तुमने अनेक वर्षों से अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा की है, और अपने कामकाज में थोड़ा अनुभव प्राप्त किया है, लेकिन तरह-तरह के कार्यों, लोगों और चीजों से सामना होने पर, क्या तुम सत्य सिद्धांतों को अपने अभ्यास का आधार बनाओगे? क्या तुम परमेश्वर का नाम कायम रखोगे? क्या तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करोगे? क्या तुम परमेश्वर के कार्य की सुरक्षा करोगे? क्या तुम अपनी गवाही में दृढ़ रहोगे? मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों द्वारा कलीसिया कार्य में पैदा की गई बाधाओं और गड़बड़ियों का सामना होने पर, क्या तुममें उनसे लड़ने का आत्मविश्वास और शक्ति होगी? क्या तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा कर सकोगे, परमेश्वर के घर का कार्य बनाए रख सकोगे, परमेश्वर के घर के हितों का बचाव कर उसका नाम कलंकित होने से बचा सकोगे? क्या तुम यह कर सकते हो? मैं जो देख रहा हूँ उससे लगता है कि तुम नहीं कर सकते, न ही तुम लोगों ने यह किया है। हर दिन तुम बहुत व्यस्त रहते हो—तुम किस काम में व्यस्त रहे हो? इतने वर्ष तुमने अपने परिवार और करियर की कुर्बानी दी, कष्ट सहे, कीमत चुकाई, कड़ी मेहनत की, लेकिन तुमने बहुत कम हासिल किया। कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने ऐसी ही घटनाओं, लोगों और हालात का कई-कई बार सामना किया है, फिर भी वे वही गलतियाँ करते रहते हैं, और उनके फेर में उनसे वही अपराध होते रहते हैं। क्या यह उनके जीवन में विकास की कमी नहीं दर्शाता? क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने सत्य प्राप्त नहीं किया है? (हाँ।) क्या यह नहीं दिखाता कि वे अभी भी शैतान की काली ताकत से नियंत्रित हैं और उन्होंने उद्धार प्राप्त नहीं किया है? (हाँ।) जब कलीसिया में तुम्हारे आसपास अलग-अलग वक्त तरह-तरह की घटनाएँ होती हैं, सामने आती हैं, तो तुममें कुछ भी करने की शक्ति नहीं होती। खास तौर पर कलीसिया के कार्य में मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों द्वारा पैदा की जा रही बाधाओं और गड़बड़ियों का सामना होने पर तुम लोग नहीं जानते कि इन्हें कैसे संभालें। तुम चीजों को होने देते हो, या ज्यादा-से-ज्यादा नाराज होकर गड़बड़ी पैदा करने वालों की काट-छाँट करते हो, लेकिन समस्या अनसुलझी रह जाती है, और तुम्हारे पास कोई वैकल्पिक उपाय नहीं होता। कुछ लोग यह भी सोचते हैं, “मैंने इस काम को पूरी लगन से किया, पूरी शक्ति लगा दी—क्या परमेश्वर ने नहीं कहा कि हमें ये दोनों चीजें देनी हैं? मैंने अपना सब-कुछ दिया है; अगर अभी भी कोई नतीजे नहीं मिले, तो यह मेरी गलती नहीं है। लोग बस बेहद खराब हैं : जब तुम उनके साथ सत्य पर संगति करते हो, तब भी वे नहीं सुनते।” तुम कहते हो कि तुमने अपनी पूरी शक्ति लगा दी, लगन से काम किया, लेकिन कामकाज में कोई परिणाम नहीं मिले। तुमने कलीसिया के कार्य को बनाए नहीं रखा या परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं की, और तुमने बुरे लोगों को कलीसिया को काबू में कर लेने दिया। तुमने शैतान को बेलगाम घूम कर परमेश्वर का नाम शर्मसार करने दिया, और तुम किनारे खड़े देखते रहे, कुछ नहीं कर पाए, अधिकार होने पर भी किसी भी चीज को संभालने में नाकाबिल रहे। तुम परमेश्वर की अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रह सके, फिर भी तुम सोचते हो कि तुमने सत्य को समझ लिया, और तुमने पूरी शक्ति और लगन से काम किया। क्या एक अच्छा चरवाहा होने का यही अर्थ है? (नहीं, यह नहीं है।) जब तरह-तरह के बुरे लोग और छद्म-विश्वासी बाहर आकर दानवों और शैतानों के रूप में तरह-तरह की भूमिकाएँ निभाने लगते हैं, कार्य व्यवस्थाओं के विरुद्ध जाकर कुछ बिल्कुल अलग ही करने लगते हैं, झूठ बोलकर परमेश्वर के घर को धोखा देते हैं; जब वे परमेश्वर के कार्य को बाधित कर उसमें गड़बड़ करते हैं, ऐसे काम करते हैं जिनसे परमेश्वर का नाम शर्मसार होता है और परमेश्वर का घर और कलीसिया कलंकित होते हैं, तो इसे देख कर तुम क्रोधित होने के सिवाय कुछ भी नहीं करते, फिर भी तुम न्याय बनाए रखने के लिए खड़े नहीं हो सकते, बुरे लोगों को उजागर कर, कलीसिया के कार्य को बनाए नहीं रख सकते, इन बुरे लोगों को संबोधित कर उन्हें संभालने और उन्हें कलीसिया कार्य को बाधित करने और परमेश्वर के घर और कलीसिया को कलंकित करने से रोक नहीं सकते। ये चीजें न करके तुम गवाही देने में विफल रहे हो। कुछ लोग कहते हैं, “मैं ये चीजें करने की हिम्मत नहीं करता, डरता हूँ कि अगर मैं बहुत सारे लोगों को संभालूँगा तो शायद वे मुझसे क्रोधित हो जाएँ, और अगर वे सब मुझे दंड देने और कार्यालय से निकाल देने के लिए मेरे खिलाफ एक हो जाएँ, तो मैं क्या करूँगा?” मुझे बताओ, क्या वे कायर और दब्बू हैं, क्या उनके पास सत्य नहीं है, और वे लोगों में फर्क नहीं कर सकते या शैतान की बाधा को नहीं समझ सकते, या वे अपने कर्तव्य निर्वहन में निष्ठाहीन हैं, सिर्फ खुद को बचाने की कोशिश कर रहे हैं? यहाँ असली मसला क्या है? क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा है? अगर तुम स्वभाव से ही दब्बू, नाजुक, कायर और डरपोक हो; फिर भी परमेश्वर में इतने वर्ष विश्वास रखने के बाद, कुछ तथ्यों की समझ के आधार पर तुम परमेश्वर में सच्ची आस्था का विकास कर लेते हो, तो क्या तुम अपनी कुछ इंसानी कमजोरियों, दब्बूपन और कोमलता को जीत नहीं सकते, और अब बुरे लोगों से डरे बिना नहीं रह सकते? (बिल्कुल रह सकते हैं।) तो फिर बुरे लोगों को संभालने और उन्हें संबोधित करने की तुम्हारी नाकाबिलियत की जड़ क्या है? क्या ऐसा है कि तुम्हारी मानवता सहज ही कायर, दब्बू और डरपोक है? यह न तो मूल कारण है, न ही समस्या का सार। समस्या का सार यह है कि लोग परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं हैं; वे खुद की रक्षा करते हैं, अपनी निजी सुरक्षा, शोहरत, हैसियत और निकासी के मार्ग की रक्षा करते हैं। उनकी निष्ठाहीनता इस बात में अभिव्यक्त होती है कि वे हमेशा खुद की रक्षा कैसे करते हैं, किसी भी चीज से सामना होने पर, वे कैसे कछुए की तरह अपने कवच में घुस जाते हैं, और अपना सिर तब तक बाहर नहीं निकलते जब तक वह चीज गुजर न जाए। उनका चाहे जिस भी चीज से सामना हो, वे हमेशा बेहद सावधानी बरतते हैं, उनमें बहुत व्याकुलता, चिंता और आशंका होती है, और वे कलीसिया कार्य के बचाव में खड़े होने में असमर्थ होते हैं। यहाँ समस्या क्या है? क्या यह आस्था का अभाव नहीं है? परमेश्वर में तुम्हारी आस्था सच्ची है ही नहीं, तुम नहीं मानते कि परमेश्वर की संप्रभुता सभी चीजों पर है, नहीं मानते कि तुम्हारा जीवन और सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है। तुम परमेश्वर की इस बात पर विश्वास नहीं करते, “परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान तुम्हारे शरीर का एक रोआँ भी हिला नहीं सकता।” तुम अपनी ही आँखों पर भरोसा कर तथ्य परखते हो, हमेशा अपनी रक्षा करते हुए अपने ही आकलन के आधार पर चीजों को परखते हो। तुम नहीं मानते कि व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है; तुम शैतान से डरते हो, बुरी ताकतों और बुरे लोगों से डरते हो। क्या यह परमेश्वर में सच्ची आस्था का अभाव नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर में सच्ची आस्था क्यों नहीं है? क्या इसलिए कि लोगों के अनुभव बहुत उथले हैं, और वे इन चीजों को गहराई से नहीं समझ सकते, या फिर इसलिए कि वे बहुत कम सत्य समझते हैं? कारण क्या है? क्या इसका लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से कुछ लेना-देना है? क्या ऐसा इसलिए है कि लोग बहुत कपटी हैं? (बिल्कुल।) वे चाहे जितनी भी चीजों का अनुभव कर लें, उनके सामने कितने भी तथ्य रख दिए जाएँ, वे नहीं मानते कि यह परमेश्वर का कार्य है, या व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। यह एक पहलू है। एक और घातक मुद्दा यह है कि लोग खुद की बहुत ज्यादा परवाह करते हैं। वे परमेश्वर, उसके कार्य, परमेश्वर के घर के हितों, उसके नाम या महिमामंडन के लिए कोई कीमत नहीं चुकाना चाहते, कोई त्याग नहीं करना चाहते। वे ऐसा कुछ भी करने को तैयार नहीं हैं जिसमें जरा भी खतरा हो। लोग खुद की बहुत ज्यादा परवाह करते हैं! मृत्यु, अपमान, बुरे लोगों के जाल में फँसने और किसी भी प्रकार की दुविधा में पड़ने के अपने डर के कारण लोग अपनी देह को संरक्षित रखने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं, किसी भी खतरनाक स्थिति में प्रवेश न करने की कोशिश करते हैं। एक ओर, यह व्यवहार दिखाता है कि लोग बहुत ज्यादा कपटी हैं, जबकि दूसरी ओर यह उनका आत्म-संरक्षण और स्वार्थ दर्शाता है। तुम स्वयं को परमेश्वर को सौंपने को तैयार नहीं हो, और जब तुम परमेश्वर के लिए खपने को तैयार होने की बात कहते हो, तो यह एक आकांक्षा से अधिक कुछ नहीं है। जब वास्तव में आगे आकर परमेश्वर की गवाही देने, शैतान से लड़ने, और खतरे, मृत्यु और तरह-तरह की मुश्किलों और कठिनाइयों का सामना करने का समय आता है, तो तुम तैयार नहीं होते। तुम्हारी छोटी-सी आकांक्षा भुरभुरा जाती है, तुम पहले अपनी रक्षा करने की भरसक कोशिश करते हो, और बाद में कुछ ऐसे सतही कार्य कर देते हो जो तुम्हें करने होते हैं, ऐसा कार्य जो सबको दिखाई देता है। इंसान का दिमाग मशीन की अपेक्षा अधिक चुस्त-दुरुस्त होता है : वे जानते हैं कि खुद को कैसे ढालें, वे जानते हैं कि हालात का सामना होने पर कौन-से कर्म उनके अपने हितों में योगदान करते हैं और कौन-से नहीं, और वे शीघ्रता से अपने पास का हर तरीका इस्तेमाल कर लेते हैं। नतीजतन जब भी तुम कुछ चीजों का सामना करते हो, तो परमेश्वर में तुम्हारा थोड़ा-सा भरोसा दृढ़ नहीं रह पाता। तुम परमेश्वर के साथ कपटपूर्ण बर्ताव करते हो, उसके खिलाफ चालें चलते हो, तिकड़में लगाते हो, और यह परमेश्वर में तुम्हारी सच्ची आस्था का अभाव दर्शाता है। तुम सोचते हो कि परमेश्वर विश्वास योग्य नहीं है, शायद वह तुम्हारी रक्षा न कर पाए या तुम्हारी सुरक्षा सुनश्चित न कर पाए, और संभव है वह तुम्हें मर जाने दे। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर भरोसेमंद नहीं है, और तुम सिर्फ खुद पर भरोसा करके ही सुनिश्चित हो सकते हो। अंत में क्या होता है? तुम्हारा चाहे जैसे भी हालात या मामलों से सामना हो, तुम इन्हीं तरीकों, चालों और रणनीतियों के नजरिये से उन्हें देखते हो, और तुम परमेश्वर की अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रह पाते। हालात चाहे जो हों, तुम एक योग्यताप्राप्त अगुआ या कार्यकर्ता बनने में असमर्थ हो, चरवाहे के गुण या कर्म दर्शाने में असमर्थ हो, और संपूर्ण निष्ठा प्रदर्शित करने में असमर्थ हो, और इस तरह तुम अपनी गवाही गंवा देते हो। तुम्हारा चाहे जितने भी मामलों से सामना हो, तुम वफादारी और अपनी जिम्मेदारी कार्यान्वित करने के लिए परमेश्वर में अपनी आस्था पर भरोसा नहीं कर पाते। नतीजतन, अंतिम परिणाम यह होता है कि तुम कुछ भी हासिल नहीं करते। परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित हर हालत में, और जब भी तुम शैतान से लड़ते हो, तुम्हारा चयन हमेशा पीछे हट कर भाग जाने का रहा है। तुम परमेश्वर द्वारा निर्दिष्ट या तुम्हारे अनुभव करने के लिए नियत किए गए पथ पर नहीं चले हो। इसलिए, इस युद्ध के बीच तुम उस सत्य, समझ और अनुभव से चूक जाते हो, जो तुम्हें हासिल करना चाहिए था। हर बार जब तुम खुद को परमेश्वर द्वारा आयोजित हालात में पाते हो, तो तुम उनमें से उसी तरह गुजरते हो, और उन्हें उसी तरह समाप्त करते हो। अंत में, जो धर्म-सिद्धांत और सबक तुम सीख पाते हो, वे वही होते हैं। तुम्हारे पास कोई असली समझ नहीं होती, तुमने बस थोड़े-से अनुभव और सबक आत्मसात कर लिए हैं, जैसे कि : “मुझे भविष्य में यह नहीं करना चाहिए। जब मेरा ऐसी स्थितियों से सामना हो तो मुझे इस बारे में सावधान रहना चाहिए, मुझे खुद को यह याद दिलाना चाहिए, मुझे वैसे व्यक्ति से सावधान रहना चाहिए, उससे बचना चाहिए, और वैसे व्यक्ति से सुरक्षित रहना चाहिए।” बस इतना ही। वह क्या है जो तुमने हासिल किया है? क्या यह चतुराई और अंतर्दृष्टि है, या अनुभव और सबक? अगर तुम जो हासिल करो उसका सत्य से कोई लेना-देना न हो, तो तुमने कुछ भी हासिल नहीं किया, ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम्हें हासिल करना चाहिए था। इस तरह परमेश्वर द्वारा आयोजित हालात में तुमने उसे निराश किया है; तुमने वह प्राप्त नहीं किया जिसका उसने तुम्हारे लिए इरादा किया था, तो तुमने यकीनन परमेश्वर को निराश किया है। परमेश्वर द्वारा आयोजित इस हालत या परीक्षण में, तुमने वह सत्य हासिल नहीं किया जो वह चाहता था कि तुम प्राप्त करो। परमेश्वर का भय मानने वाला तुम्हारा दिल विकसित नहीं हुआ है, जो सत्य तुम्हें समझने चाहिए वे अस्पष्ट ही हैं, जिन क्षेत्रों में तुम्हें अपने बारे में समझ होनी चाहिए, उस समझ का अभी भी अभाव है, जो सबक तुम्हें सीखने चाहिए वे अभी तुमने नहीं सीखे हैं, और जिन सत्य सिद्धांतों का तुम्हें अनुसरण करना चाहिए वे तुम्हें नहीं मिल पाए हैं। साथ-ही-साथ परमेश्वर में तुम्हारी आस्था भी नहीं बढ़ी है; यह वहीं है जहाँ यह पहले-पहल शुरू हुई थी। तुम एक ही स्थान पर कदम ताल कर रहे हो, तो फिर बढ़ा क्या है? शायद अब तुम कुछ धर्म-सिद्धांत समझते हो जिन्हें तुम पहले नहीं जानते थे, या तुमने किसी व्यक्ति के बदसूरत भाग को देख लिया है, जिसे तुमने पहले नहीं समझा था। लेकिन सत्य से जुड़ा सबसे छोटा अंश अभी भी तुम्हारी दृष्टि, समझ, पहचान और अनुभव से परे है। अपना कामकाज या कर्तव्य-निर्वहन जारी रखते हुए भी तुम उन सिद्धांतों को नहीं समझते या जानते जिनका तुम्हें अनुसरण करना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए बहुत निराशाजनक है। इस स्थिति विशेष में, तुमने परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा तक नहीं बढ़ाई है न ही तुम्हारी आस्था बढ़ी है, जो सहज ही तुम्हारे भीतर बढ़नी चाहिए। तुमने दोनों में से किसी एक को भी हासिल नहीं किया है, जो बिल्कुल दयनीय है! कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम दावा करते हो कि मैंने कुछ भी हासिल नहीं किया, मगर यह सही नहीं है। कम-से-कम मैंने आत्मज्ञान और अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों का ज्ञान अर्जित किया है। मुझे मानवता और खुद की समझ पहले से बेहतर है।” क्या इन चीजों की समझ को सच्ची प्रगति माना जा सकता है? भले ही तुम परमेश्वर में विश्वास न रखो, चालीस-पचास वर्ष के हो जाने पर तुम इन चीजों से कमोबेश परिचित हो ही जाओगे। थोड़ी काबिलियत या औसत काबिलियत वाले लोग यह हासिल कर सकते हैं; वे खुद को, अपनी मानवता के लाभ और हानियों, खूबियों और कमजोरियों को समझ सकते हैं, और साथ ही यह कि वे किसमें अच्छे हैं और किसमें नहीं। चालीस-पचास की उम्र में पहुँचते तक उन्हें उन तरह-तरह के लोगों की मानवता की कमोबेश समझ हो जानी चाहिए, जिनसे वे अक्सर मिलते-जुलते हैं। उन्हें जान लेना चाहिए कि किस प्रकार के लोग मेल-जोल के उपयुक्त हैं और किस प्रकार के नहीं, किस प्रकार के लोगों के साथ जुड़ा जा सकता है और किनके साथ नहीं, किन लोगों से उन्हें दूरी बनाए रखनी चाहिए, और वे किनके करीब हो सकते हैं—वे कमोबेश ये तमाम चीजें समझने में समर्थ हो जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति उलझा रहता है, कमजोर काबिलियत का है, बेवकूफ है, या मानसिक रूप से अपंग है, तब उसे यह समझ नहीं होती। अगर तुमने अनेक वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, बहुत सत्य सुने हैं, बहुत-से अलग-अलग हालात का अनुभव किया है, और तुम्हारी एकमात्र प्राप्ति लोगों की मानवता के क्षेत्र की है, लोगों को पहचानने या कुछ सरल मामलों को समझने की है, तो क्या इसे एक सच्ची प्राप्ति माना जा सकता है? (नहीं, नहीं माना जा सकता।) तो सच्ची प्राप्ति क्या है? यह तुम्हारे आध्यात्मिक कद से संबंधित है। अगर तुम कुछ हासिल करते हो, तो तरक्की करते हो, और तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ता है; अगर तुम सच में कुछ भी हासिल नहीं करते, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद नहीं बढ़ता। तो इस प्राप्ति का संदर्भ किससे है? कम-से-कम यह सत्य से तो संबंधित है ही; खास तौर से, सत्य सिद्धांतों से। जब तुम समझते हो, अनुसरण कर सकते हो, और विविध मामलों और लोगों को संभालते समय जिन सत्य सिद्धांतों का अभ्यास करना चाहिए उनका अभ्यास कर सकते हो, और ये तुम्हारे अपने आचरण के सिद्धांत और मानक बन जाते हों, तब यह सच्ची प्राप्ति है। जब ये सत्य सिद्धांत तुम्हारे अपने आचरण के लिए अनुसरण के सिद्धांत और कसौटियाँ बन जाएँ, तो ये तुम्हारे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। जब सत्य का यह पहलू तुममें गढ़ जाता है, तो यह तुम्हारा जीवन बन जाता है, और तभी तुम्हारे जीवन का विकास होता है। अगर ऐसे मामलों से जुड़े सत्य सिद्धांत तुम अब भी नहीं समझ पाए हो, और उनका सामना होने पर तुम अब भी उन्हें संभालना नहीं जानते, तो तुमने इस बारे में सत्य प्राप्त नहीं किया है। साफ तौर पर, सत्य का यह पहलू तुम्हारा जीवन नहीं है, और तुम्हारा जीवन विकसित नहीं हुआ है। बोलने में कुशल होना बेकार है—वैसे भी ये बस धर्म-सिद्धांत ही हैं। क्या तुम इसे माप सकते हो? (हाँ, मैं माप सकता हूँ।) क्या तुमने इस दौरान तरक्की की है? (नहीं, नहीं की है।) तुमने कुछ अनुभवों का सारांश प्रस्तुत करने के लिए महज अपनी इंसानी इच्छा और विवेक का इस्तेमाल किया है, जैसे कि यह कहना, “इस बार मैंने सीखा कि किस प्रकार की चीजें मैं नहीं कहूंगा या करूँगा, कौन-सी चीजें मैं कम या ज्यादा करूँगा, और ऐसा क्या है जो मैं निश्चित रूप से नहीं करूँगा।” क्या यह तुम्हारे जीवन के विकास का लक्षण है? (नहीं, यह नहीं है।) यह इस बात का लक्षण है कि तुममें आध्यात्मिक समझ का गंभीर अभाव है। तुम सिर्फ नियमों, वचनों और नारों का सारांश बना सकते हो, जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। क्या यही वह चीज नहीं है जो तुम सब कर रहे हो? (हाँ।) हर बार किसी चीज का अनुभव होने पर, प्रत्येक महत्वपूर्ण घटना के बाद, तुम खुद को यह कह कर फटकारते हो, “ओह, भविष्य में मुझे यह फलाँ-फलाँ ढंग से करना चाहिए।” लेकिन अगली बार जब वैसी ही घटना होती है, तो भी तुम्हें नाकामयाबी मिलती है, और तुम यह कह कर हताश हो जाते हो, “मैं ऐसा क्यों हूँ?” यह सोच कर कि तुम अपनी ही अपेक्षाएँ पूरी करने में नाकामयाब रहे, तुम खुद से नाराज हो जाते हो। क्या यह किसी काम का है? ऐसा नहीं है कि तुम अपनी अपेक्षाएँ पूरी करने में नाकामयाब रहे, या तुम मूर्ख हो, या परमेश्वर ने जो हालात आयोजित किए वे गलत थे, और यकीनन ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों से अन्यायपूर्ण तरीके से पेश आ रहा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, उसे खोज नहीं रहे हो, तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार कर्म नहीं कर रहे हो, और तुम परमेश्वर के वचन नहीं सुन रहे हो। तुम इसमें हमेशा इंसानी इच्छा को ला रहे हो; तुम स्वयं अपने स्वामी हो, और परमेश्वर के वचनों को नियंत्रण नहीं लेने देते। परमेश्वर के वचनों के बजाय तुम दूसरों की बातें सुनोगे। क्या बात ऐसी नहीं है? (हाँ, जरूर है।) क्या तुम सोचते हो कि सिर्फ एक घटना या किसी खास हालत से कुछ अनुभव और सबक इकट्ठा करके तुमने प्रगति कर ली है? अगर तुमने सच में प्रगति की है, तो अगली बार जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेगा, तो तुम परमेश्वर के नाम का बचाव कर पाओगे, परमेश्वर के घर के हितों और कार्य की रक्षा कर पाओगे, सुनिश्चित करोगे कि सारा काम सुचारु रूप से चले, और इसमें कोई बाधा या रुकावट न आए। तुम सुनिश्चित करोगे कि परमेश्वर का नाम शुद्ध और निष्कलंक रहे, भाई-बहनों के जीवन के विकास में कोई हानि न हो, और परमेश्वर के चढ़ावे सुरक्षित रहें। इसका अर्थ है कि तुमने प्रगति की है, तुम काम के लायक हो, और तुम्हें जीवन प्रवेश प्राप्त है। फिलहाल, तुम लोग अब भी वहाँ नहीं पहुँच पाए हो; हालाँकि तुम्हारे दिमाग छोटे हैं, मगर उनमें बहुत-सी चीजें भरी हुई हैं और तुम सरल नहीं हो। हालाँकि तुममें परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की ईमानदारी, और उसके लिए सभी चीजों को जाने देने और उनका परित्याग करने की आकांक्षा हो सकती है, फिर भी मामलों का सामना होने पर तुम अपनी विविध तृष्णाओं, इरादों और योजनाओं के खिलाफ विद्रोह नहीं कर पाते। परमेश्वर के घर और परमेश्वर के कार्य के सामने तरह-तरह की जितनी ज्यादा मुश्किलें आती हैं, तुम उतना ही पीछे खिसकते हो, तुम उतना ही ज्यादा अदृश्य हो जाते हो, और तुम्हारे आगे आ कर उस काम का प्रभार लेने, परमेश्वर के घर के हितों और परमेश्वर के कार्य को सुरक्षित रखने को तैयार होने की संभावना उतनी ही कम हो जाती है। तो परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की तुम्हारी ईमानदारी का क्या हुआ? ऐसा क्यों है कि यह थोड़ी-सी ईमानदारी इतनी नाजुक और असुरक्षित है? परमेश्वर के लिए सब-कुछ अर्पित कर देने और सबका परित्याग कर देने की तुम्हारी छोटी-सी इच्छाशक्ति का क्या हुआ? इसमें दृढ़ता क्यों नहीं है? किस वजह से यह इतनी असुरक्षित है? इससे किस बात की पुष्टि होती है? इससे पुष्ट होता है कि तुममें असली आध्यात्मिक कद नहीं है, तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत ही तुच्छ है, और कोई छोटा-सा दानव तुम्हें उलझा सकता है : छोटी-सी रुकावट आते ही तुम इस छोटे दानव का अनुसरण करने के लिए मुड़ जाओगे। भले ही तुम्हारे पास थोड़ा आध्यात्मिक कद हो, यह तुम्हारे निजी हितों से असंबद्ध सतही मामलों के तुम्हारे अनुभव तक ही सीमित है, तुम अभी भी परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा बड़ी मुश्किल से ही कर पाते हो, और थोड़े-से छोटे-छोटे काम कर पाते हो जो तुम्हें लगता है कि तुम कर पाओगे और जो तुम्हारी काबिलियत के दायरे में हैं। जब अपनी गवाही में सचमुच दृढ़ रहने की बात आती है, जब कलीसिया में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी होती है और बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों की गड़बड़ियों से सामना होता है, तब तुम कहाँ रहते हो? तुम क्या कर रहे होते हो? क्या सोच रहे होते हो? यह समस्या को स्पष्ट रूप से दर्शाता है, है कि नहीं? अगर अपना कर्तव्य निभाते समय कोई मसीह-विरोधी अपने ऊपर और नीचे के लोगों को धोखा दे, बेहद लापरवाही से काम करे, कलीसिया कार्य को बाधित कर उसमें गड़बड़ करे, चढ़ावे लुटाए, भाई-बहनों से अपना अनुसरण करवाने के लिए उन्हें गुमराह करें, और तुम न सिर्फ उसे पहचान नहीं पाते, उसकी कोशिशों को रोक नहीं पाते, या उसकी शिकायत नहीं करते, बल्कि तुम मसीह-विरोधी के साथ होकर उसे वे नतीजे हासिल करने में मदद करते हो जो वह ये तमाम काम करके पाना चाहता है, तो मुझे बताओ, परमेश्वर के लिए खुद को सच में खपाने के तुम्हारे छोटे-से संकल्प पर क्या असर होता है? क्या यह तुम्हारा सच्चा आध्यात्मिक कद नहीं है? जब मसीह-विरोधी, बुरे लोग, और तरह-तरह के छद्म-विश्वासी परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ कर उसे नष्ट करते हैं, खास तौर से जब वे कलीसिया को कलंकित करते हैं, परमेश्वर के नाम का निरादर करते हैं, तो तुम क्या करते हो? क्या तुम परमेश्वर के घर के कार्य के बचाव में बोलने के लिए खड़े हुए हो? क्या तुम उनकी कोशिशों को रोकने या उन्हें प्रतिबंधित करने के लिए खड़े हुए हो? न सिर्फ तुमने खड़े हो कर उन्हें रोका नहीं है, बल्कि बुराई करने में मसीह-विरोधियों का साथ दिया है, उनकी मदद की है, उन्हें बढ़ावा दिया है, और तुमने उनके साधन और गुर्गे के रूप में कार्य किया है। इसके अलावा, जब कोई मसीह-विरोधियों की किसी समस्या की सूचना देने के लिए पत्र लिखता है, तो तुम पत्र को बक्से में डाल देते हो, और उस मामले से न निपटने का फैसला करते हो। तो इस अहम घड़ी में, क्या परमेश्वर के लिए सच्चाई से खपने और सभी चीजों का परित्याग करने के तुम्हारे संकल्प और आकांक्षा का जरा भी प्रभाव पड़ा? अगर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यह तथाकथित आकांक्षा और संकल्प तुम्हारा सच्चा आध्यात्मिक कद नहीं हैं, ये वे नहीं हैं जो तुमने इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने से प्राप्त किए हैं। ये सत्य का स्थान नहीं ले सकते; ये न सत्य हैं और न ही जीवन प्रवेश। ये जीवन प्राप्त व्यक्ति का द्योतक नहीं हैं, ये महज खयाली पुलाव हैं, वह लालसा और ललक है जो लोगों में सुंदर चीजों के प्रति होती है—इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, तुम लोगों को जागना चाहिए, और अपना आध्यात्मिक कद स्पष्ट रूप से देखना चाहिए। मत सोचो कि थोड़ी काबिलियत होने, और शिक्षा, करियर, परिवार, विवाह और दैहिक संभावनाओं जैसी बहुत-सी चीजों का परित्याग कर देने के कारण तुम्हारा आध्यात्मिक कद किसी तरह से महान है। कुछ लोग परमेश्वर में अपनी आरंभिक आस्था की नींव डालने के समय से ही अगुआ या कार्यकर्ता भी रह चुके हैं। इस दौरान उन्होंने कुछ अनुभव और सबक इकठ्ठा किए हैं, और वे कुछ बातों और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार कर सकते हैं। इस वजह से, उन्हें लगता है कि उनका आध्यात्मिक कद दूसरों से बड़ा है, उन्हें जीवन प्रवेश प्राप्त है, वे परमेश्वर के घर के भीतर के खंभे और स्तंभ हैं, जिन्हें परमेश्वर पूर्ण कर रहा है। यह सही नहीं है। खुद को अच्छा मत समझो—तुम लोग अभी भी उससे बहुत दूर हो! तुम मसीह-विरोधियों को पहचान भी नहीं पाते; तुम लोगों का कोई वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं है। हालाँकि तुम अनेक वर्षों से अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में सेवा करते रहे हो, फिर भी ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहाँ तुम उपयुक्त हो सकते हो, तुम ज्यादा असल कार्य नहीं कर सकते हो, और अनिच्छा से ही तुम्हें काम में इस्तेमाल किया जा सकता है। तुम बहुत प्रतिभाशाली नहीं हो। अगर तुम लोगों में से किसी में कड़ी मेहनत करने और कष्ट सहने की भावना हो, तो ज्यादा-से-ज्यादा तुम वजन ढोने वाले खच्चर हो। तुम लोग उपयुक्त नहीं हो। कुछ लोग अगुआ या कार्यकर्ता सिर्फ इसलिए बन जाते हैं क्योंकि वे उत्साही हैं, उनकी शैक्षणिक बुनियाद है और उनमें थोड़ी काबिलियत है। इसके अलावा, कुछ कलीसियाओं को प्रभारी बनने के लिए आदर्श व्यक्ति नहीं मिल पाता, इसलिए इन लोगों को नियम के अपवाद के रूप में पदोन्नत कर दिया जाता है, और ये प्रशिक्षणार्थी बन जाते हैं। तरह-तरह के लोगों को उजागर करने की प्रक्रिया में, इनमें से कुछ को धीरे-धीरे बदला गया है, हटा दिया गया है। हालाँकि कुछ लोग जो अब भी अनुसरण में हैं, वे अभी बचे हुए हैं, पर अब भी किसी चीज की पहचान नहीं कर पाते। वे बस इसलिए बने हुए हैं क्योंकि उन्होंने कुछ बुरा नहीं किया है। इसके अलावा, पूरी तरह से ऊपरवाले से मिली कार्य व्यवस्थाओं, और साथ ही सीधे मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण, पूछताछ, जाँच, निरीक्षण और काट-छाँट की वजह से ही वे कुछ कार्य कर पाते हैं—इसका यह अर्थ नहीं है कि वे उपयुक्त व्यक्ति हैं। ऐसा इसलिए है कि तुम लोग अक्सर दूसरों की आराधना करते हो, उनका अनुसरण करते हो, भटक जाते हो, गलत काम करते हो, और कुछ अपधर्मों और भ्रांतियों से उलझन के भँवर में पड़ जाते हो, अपनी दिशा का भान खो देते हो, और आखिर में यह भी जान नहीं पाते कि आखिर तुम सचमुच किसमें विश्वास रखते हो। यही है तुम्हारा वास्तविक आध्यात्मिक कद। अगर मैं कहूँ कि तुम्हें जीवन प्रवेश बिल्कुल भी प्राप्त नहीं है, तो यह तुम्हारे साथ अन्याय होगा। मैं बस इतना कह सकता हूँ कि तुम लोगों के अनुभवों का दायरा बहुत सीमित है। तुम्हें काट-छाँट और गंभीर रूप से अनुशासित किए जाने के बाद ही प्रवेश मिल पाता है, लेकिन महत्वपूर्ण सिद्धांतों के विषय पर, खास तौर पर मसीह-विरोधियों और नकली अगुआओं द्वारा गुमराह किए जाने और बाधित किए जाने पर तुम लोगों के पास दिखाने के लिए अपना कुछ नहीं होता, और तुम्हारे पास गवाही होती ही नहीं। जीवन अनुभवों और जीवन प्रवेश के संदर्भ में तुम्हारे अनुभव बहुत उथले हैं, और तुम्हें परमेश्वर की सच्ची समझ नहीं है। इसे लेकर तुम्हारे पास दिखाने को अब भी कुछ नहीं है। जब कलीसिया के वास्तविक कार्य की बात आती है तो तुम लोग नहीं जानते कि सत्य पर संगति कैसे करें, और समस्याएँ कैसे सुलझाएँ; यहाँ तुम्हारे पास दिखाने को कुछ भी नहीं होता। इन पहलुओं में, तुम लोगों के पास खुद के लिए दिखाने को कुछ भी नहीं होता। इसलिए तुम लोग अगुआ और कार्यकर्ता की भूमिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं हो। लेकिन, साधारण विश्वासियों के रूप में, तुममें से ज्यादातर लोगों को थोड़ा-सा जीवन प्रवेश प्राप्त है, हालाँकि यह बहुत कम है, और सत्य वास्तविकता के लिए काफी नहीं है। तुम परीक्षाएँ झेल सकते हो या नहीं इसका निरीक्षण अभी बाकी है। सिर्फ बड़े परीक्षणों, अहम प्रलोभनों या परमेश्वर से गंभीर और सीधी ताड़ना और न्याय के सचमुच आने पर ही वे परख सकते हैं कि तुममें सच्चा आध्यात्मिक कद और सत्य वास्तविकता है या नहीं, तुम अपनी गवाही में दृढ़ रह सकते हो या नहीं, परीक्षा पत्र में तुम्हारे उत्तर क्या होंगे, और क्या तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा कर पाते हो—तभी तुम्हारा सच्चे आध्यात्मिक कद का खुलासा होगा। अभी के लिए यह कहना कि तुममें आध्यात्मिक कद है, अभी भी समयपूर्व है। अगुआ और कार्यकर्ता की भूमिका की बात करें तो तुममें कोई असल आध्यात्मिक कद नहीं है। मामलों का सामना होने पर तुम उलझन में पड़ जाते हो, और बुरे लोगों या मसीह-विरोधियों की बाधाओं से आमना-सामना होने पर तुम हार जाते हो। तुम कोई भी महत्वपूर्ण कार्य स्वतंत्र रूप से पूरा नहीं कर सकते; तुम्हें काम पूरा करने हेतु हमेशा निगरानी करने, मार्गदर्शन और सहयोग देने के लिए किसी की जरूरत होती है। दूसरे शब्दों में, तुम नाव नहीं खे सकते। तुम मुख्य भूमिका निभाओ या सहायक भूमिका, तुम लोग अपने दम पर इसकी जिम्मेदारी नहीं ले सकते, या कोई कार्य स्वतंत्र रूप से पूरा नहीं कर सकते; ऊपरवाला निगरानी न करे और चिंता न जताए तो तुम लोग कोई भी काम अच्छे ढंग से करने में बेहद असमर्थ हो। अगर अंत में, तुम्हारे कार्य की समीक्षा दर्शाती है कि कि तुम लोगों ने सभी पहलुओं में अच्छा किया है, तुमने अपने कार्य के हर भाग में अपना दिल लगाया है, तुमने सब-कुछ अच्छे ढंग से किया है, और उचित ढंग से और सत्य सिद्धांतों के अनुसार संभाला है, तुमने सत्य की स्पष्ट समझ और सत्य सिद्धांतों को खोजने के आधार पर कार्य किया है, ताकि तुम मसलों को सुलझा कर अपना कार्य अच्छे ढंग से कर सको, तो तुम उपयुक्त हो। लेकिन अब तक तुमने जो कुछ भी अनुभव किया है, उस आधार पर परखा जाए तो तुम उपयुक्त नहीं हो। तुम्हारी उपयुक्तता के साथ अहम मसला यह है कि तुम्हें सौंपे गए कार्य तुम स्वतंत्र रूप से पूरे नहीं कर सकते—यह एक पहलू है। एक और बात यह है कि अगर ऊपरवाला निगरानी न करे, तो तुम लोग लोगों को भटका सकते हो या उनसे सही पथ छुड़वा सकते हो। तुम उन्हें परमेश्वर के समक्ष नहीं ला सकते, या कलीसिया के भाई-बहनों को सत्य वास्तविकता में या परमेश्वर में आस्था के सही पथ पर नहीं ला सकते, ताकि परमेश्वर के सभी चुने हुए लोग अपना कर्तव्य निभा सकें। तुम इनमें से कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। अगर ऐसी कोई समयावधि हो जिसमें ऊपरवाला पूछताछ न करे, तो तुम जिस काम के लिए जिम्मेदार हो, उसके दायरे में हमेशा अनेक भटकाव और कमियाँ होती हैं, साथ ही हर प्रकार की छोटी-बड़ी समस्याएँ होती हैं; और अगर ऊपरवाला इसे न सुधारे, निगरानी न करे या व्यक्तिगत रूप से इन्हें न संभाले, तो कौन जाने ये भटकाव कितने बड़े होंगे या कब रुकेंगे। यही तुम लोगों का असली आध्यात्मिक कद है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुम लोग बहुत अनुपयुक्त हो। क्या तुम सब यह सुनना चाहते हो? क्या इसे सुन कर तुम नकारात्मक महसूस नहीं करते? (हे परमेश्वर, हम दिल से बहुत परेशान महसूस कर रहे हैं, लेकिन परमेश्वर जिस बारे में संगति कर रहा है वह सचमुच एक तथ्य है। हममें जरा भी आध्यात्मिक कद या सत्य वास्तविकता नहीं है। जब मसीह-विरोधी प्रकट होंगे, तो हम उन्हें पहचान नहीं पाएँगे।) मुझे तुम लोगों का ध्यान इनकी ओर खींचना है; वरना तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे साथ हमेशा गलत होता है, बुरा बर्ताव होता है। तुम लोग सत्य नहीं समझते; तुम लोग सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलना जानते हो। अब तुम सभाओं में धर्म-सिद्धांत की बात करने के लिए कोई आलेख भी तैयार नहीं करते, तुम्हें अब मंच का भय भी नहीं है, और तुम सोचते हो कि तुममें आध्यात्मिक कद है। अगर तुममें आध्यात्मिक कद है, तो फिर तुम उपयुक्त क्यों नहीं हो? तुम सत्य पर संगति क्यों नहीं कर पाते, मसलों का समाधान क्यों नहीं कर पाते? तुम सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलना जानते हो, ताकि भाई-बहन तुम्हें स्वीकार सकें। इससे परमेश्वर संतुष्ट नहीं होता, और यह तुम्हें उपयुक्त नहीं बना देता। इन शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलने की तुम्हारी काबिलियत किन्हीं वास्तविक समस्याओं को हल नहीं कर सकती। परमेश्वर तुम्हें उजागर करने वाली किसी एक छोटी-सी हालत की व्यवस्था करता है, और यह स्पष्ट हो जाता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद कितना छोटा है, तुम सत्य बिल्कुल नहीं समझते हो, और तुम किसी चीज की असलियत नहीं समझ सकते; यह उजागर कर देता है कि तुम कमजोर, दयनीय, अंधे और अज्ञानी हो। क्या बात यह नहीं है? (हाँ।) अगर तुम ये चीजें स्वीकार कर सकते हो, तो अच्छा है; नहीं कर सकते तो अपना समय लो और उन पर विचार करो। मेरी बात पर विचार करो : क्या इसका कोई अर्थ है, क्या यह वास्तविकता पर आधारित है? क्या यह तुम सब पर लागू होता है? भले ही यह तुम पर लागू हो, फिर भी नकारात्मक मत बनो। नकारात्मक होने से तुम्हारी समस्याएँ हल नहीं होंगी। परमेश्वर के विश्वासी के रूप में अगर तुम अपना कर्तव्य निभाना चाहते हो, और एक अगुआ या कार्यकर्ता बनना चाहते हो, तो अवरोध और विफलताओं का सामना होने पर तुम छोड़ नहीं सकते। तुम्हें उठकर आगे बढ़ते रहना होगा। जिन क्षेत्रों में तुममें कमी या खामी है, या जिसमें तुम्हें गंभीर समस्याएँ हैं, उनमें सत्य के पहलुओं से तुम्हें खुद को लैस करने पर ध्यान देना चाहिए। नकारात्मक होनेया जड़ हो जाने से तुम कुछ सुलझा नहीं सकते। मामलों का सामना होने पर शब्दों और धर्म-सिद्धांतों और तरह-तरह के वस्तुनिष्ठ तर्कों की बात करना छोड़ दो—इनसे कोई लाभ नहीं होगा। जब परमेश्वर तुम्हारा परीक्षण ले, और तुम कहो, “उस वक्त मेरी तबीयत ज्यादा अच्छी नहीं थी, मैं छोटा था, और मेरा माहौल बहुत शांतिपूर्ण नहीं था,” तो क्या वह यह सुनेगा? परमेश्वर पूछेगा, “जब तुम्हारे साथ सत्य पर संगति की गई थी तब क्या तुमने उसे सुना था?” अगर तुम कहोगे, “हाँ, मैंने सुना तो था,” तो वह पूछेगा, “जो कार्य व्यवस्थाएँ बताई गई थीं, क्या वे तुम्हारे पास हैं?” फिर तुम कहोगे, “हाँ, मेरे पास हैं,” तो वह आगे पूछेगा : “तो फिर तुमने उनका अनुसरण क्यों नहीं किया? तुम इतनी बुरी तरह विफल क्यों हुए? तुम अपनी गवाही में दृढ़ क्यों नहीं रह सके?” तुम्हारे किसी भी वस्तुनिष्ठ कारण में दम नहीं है। परमेश्वर को तुम्हारे बहानों या तर्क में रुचि नहीं है। वह नहीं देखता कि तुम कितने धर्म-सिद्धांतों की बात कर पाते हो या तुम अपना बचाव करने में कितने मंझे हुए हो। परमेश्वर को जो चाहिए वह है तुम्हारा सच्चा आध्यात्मिक कद और वह चाहता है कि तुम्हारा जीवन विकसित हो। तुम चाहे जब और जिस स्तर के अगुआ बन जाओ, तुम्हारी हैसियत चाहे जितनी ऊँची हो, कभी मत भूलो कि परमेश्वर के समक्ष तुम कौन और क्या हो। तुम चाहे जितना भी धर्म-सिद्धांत बोल पाओ, धर्म-सिद्धांत बोलने में चाहे तुम जितने भी अभ्यस्त हो, तुमने जो भी किया हो, परमेश्वर के घर में जो भी योगदान दिया है, इनमें से कुछ भी नहीं दर्शाता कि तुम्हारे पास वास्तविक आध्यात्मिक कद है, न ही ये जीवन प्राप्ति के लक्षण हैं। जब तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हो, सत्य सिद्धांतों को समझ लेते हो, और मामलों का सामना होने पर अपनी गवाही में दृढ़ रहते हो, स्वतंत्र रूप से अपने कार्य पूरे कर पाते हो और काम के लायक हो, तभी तुम्हारे पास वास्तविक आध्यात्मिक कद होगा। ठीक है, आओ इस चर्चा को यहीं समाप्त करें और अपनी संगति के मुख्य विषय की ओर बढ़ें।

पिछली सभा में हमने अपनी संगति कहाँ छोड़ी थी? (पिछली सभा में परमेश्वर ने “परिवार से मिलने वाले बोझ त्याग देने” के बारे में संगति की थी। इसका एक अंश संतान से रखी जाने वाली अपेक्षाओं को जाने देना है। परमेश्वर ने यह हमें दो चरणों में समझाया : एक बच्चों के कम-उम्र होने पर उनसे माता-पिता के व्यवहार को लेकर था, और दूसरा बच्चों के वयस्क हो जाने पर वे जैसा व्यवहार करते हैं उसे लेकर। उनके बच्चों की उम्र चाहे जो हो, वे वयस्क हों या नहीं, असलियत में, माता-पिता का व्यवहार और कार्यकलाप परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के विरुद्ध होते हैं। वे हमेशा अपने बच्चों की नियति पर नियंत्रण कर उनके जीवन में दखल देना चाहते हैं, लेकिन बच्चे जो पथ चुनते हैं और जिन चीजों का अनुसरण करते हैं, उन्हें माता-पिता नियत नहीं कर सकते। लोगों की नियति ऐसी चीज नहीं है जिसे माता-पिता नियंत्रित कर सकें। परमेश्वर ने मामलों को देखने का सही नजरिया भी बताया : बच्चे के जीवन का कोई भी चरण हो, उनके माता-पिता के लिए अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर देना ही काफी है, और बाकी सब परमेश्वर की संप्रभुता, व्यवस्थाओं और पूर्वनियति के प्रति समर्पण से जुड़ा है।) पिछली बार, हमने इस तथ्य पर संगति की कि लोगों को संतान से अभिभावकीय अपेक्षाओं को जाने देना चाहिए। बेशक, ये अपेक्षाएँ इंसानी इच्छा और विचार-प्रक्रिया से प्रेरित होती हैं, और वे इस तथ्य के अनुकूल नहीं होतीं कि परमेश्वर मानव नियति की व्यवस्था करता है। ये अपेक्षाएँ इंसानी जिम्मेदारियों का हिस्सा नहीं हैं; ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को जाने देना चाहिए। अपने बच्चों से माता-पिता की अपेक्षाएँ चाहे जितनी भी बड़ी क्यों न हों, और माता-पिता अपने बच्चों से अपनी अपेक्षाओं को चाहे जितना भी सही और उचित मानते हों, अगर ये अपेक्षाएँ इस सत्य के विरुद्ध हों कि मानव नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता है, तो ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोगों को जाने देना चाहिए। कहा जा सकता है कि यह एक नकारात्मक चीज भी है; यह न उचित है न सकारात्मक। यह माता-पिता की जिम्मेदारियों के विरुद्ध और उन जिम्मेदारियों के दायरे से बाहर है, और ये अपेक्षाएँ और माँगें अवास्तविक हैं, जो मनुष्यता के विपरीत हैं। पिछली बार, हमने कुछ असामान्य कर्मों और आचरण और साथ ही कुछ चरम बर्ताव पर भी संगति की थी, जो माता-पिता अपने नाबालिग बच्चों के साथ करते हैं, जिससे उनके बच्चों पर तरह-तरह के नकारात्मक प्रभाव और दबाव पड़ते हैं, और छोटे बच्चों की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक खुशहाली बरबाद हो जाती है। ये चीजें संकेत देती हैं कि उनके माता-पिता की करनी अनुपयुक्त और अनुचित है। ये ऐसे विचार और कर्म हैं जिन्हें सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को जाने देना चाहिए, क्योंकि मनुष्यता के नजरिये से यह किसी बच्चे की शारीरिक और मानसिक खुशहाली को बरबाद कर देने का एक क्रूर और अमानवीय तरीका है। इसलिए, माता-पिता को अपने नाबालिग बच्चों के प्रति बस अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए, बच्चों के भविष्य और नियति की योजना बना कर उसे नियंत्रित, आयोजित या नियत नहीं करना चाहिए। क्या पिछली बार हमने माता-पिता द्वारा अपने नाबालिग बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने के बारे में दो मुख्य पहलू नहीं उठाए थे? (हाँ, हमने उठाए थे।) अगर ये दो पहलू कार्यान्वित कर दिए जाएँ, तो तुमने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है। अगर ये कार्यान्वित न किए जाएँ, तो भले ही तुम अपने बच्चों को पाल-पोसकर कोई कलाकार या प्रतिभाशाली व्यक्ति बना दो, फिर भी तुम्हारी जिम्मेदारी पूरी नहीं हुई होगी। भले ही माता-पिता अपने बच्चों पर कितनी भी मेहनत क्यों न करें, चाहे इसका अर्थ चिंता से बाल सफेद करना हो, बीमार पड़ने तक थक जाना हो; चाहे वे कितनी भी बड़ी कीमत क्यों न चुकाएँ, कितनी भी लगन से क्यों न करें, कितना भी खर्च क्यों न करें, इनमें से कुछ भी जिम्मेदारियाँ पूरी करना नहीं माना जा सकता। तो मेरी इस बात का क्या अर्थ है कि माता-पिता को अपने छोटे बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए? दो मुख्य पहलू क्या हैं? किसे याद हैं? (पिछली बार, परमेश्वर ने दो जिम्मेदारियों के बारे में संगति की थी। एक है बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य की देखभाल करना, और दूसरा है उन्हें मार्गदर्शन देना, शिक्षित करना और उनके मानसिक स्वास्थ्य बनाए रखने में मदद करना।) यह बहुत सरल है। वास्तविकता में, किसी बच्चे के शारीरिक स्वास्थ्य की देखभाल आसान है; बस उन्हें ढेर सारे चोट-खरोंच न लगने दो, उन्हें गलत चीजें न खाने दो, ऐसा कुछ मत करो जिससे उनकी बढ़त पर नकारात्मक असर पड़े, और जितना संभव हो सके, माता-पिता सुनिश्चित करें कि बच्चे भरपेट खाना खाएँ, अच्छा खाएँ, सेहतमंद तरीके से खाएँ, जितना जरूरी हो उतना आराम करें, बीमारियों से मुक्त रहें या कभी-कभी ही बीमार पड़ें, और उनके बीमार पड़ने पर समय रहते उनका इलाज करवाएँ। क्या ज्यादातर माता-पिता इन कसौटियों पर खरे उतरते हैं? (हाँ।) यह ऐसी चीज है जो लोग हासिल कर सकते हैं; परमेश्वर लोगों को जो कार्य देता है, वे आसान हैं। चूँकि जानवर भी ये मानक हासिल कर सकते हैं, तो अगर लोग इन्हें हासिल न कर पाएँ, तो क्या वे जानवरों से बदतर नहीं हैं? (हाँ, जरूर हैं।) अगर जानवर भी ये चीजें हासिल कर सकते हैं, मगर इंसान नहीं कर सकते, तो वे सचमुच दयनीय हैं। अपने बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति माता-पिता की यही जिम्मेदारी है। अगर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की बात करें, तो यह भी एक ऐसी जिम्मेदारी है जो माता-पिता को अपने छोटे बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करते समय पूरी करनी चाहिए। जब उनके बच्चे शारीरिक रूप से स्वस्थ हों, तो माता-पिता को उनके मानसिक और वैचारिक स्वास्थ्य को भी बढ़ावा देना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे समस्याओं के बारे में उन विधियों और दिशाओं में सोचें जो सकारात्मक, सक्रिय और आशावादी हों, ताकि वे बेहतर जीवन जी सकें, और उग्रवादी, विकृतियों की ओर प्रवृत्त या शत्रुतापूर्ण न हों। इनके अलावा और क्या? उन्हें बड़े हो कर सामान्य, स्वस्थ और सुखी बनने में सक्षम होना चाहिए। मिसाल के तौर पर, जब बच्चे अपने माता-पिता की बातें समझने लगें और उनके साथ सरल और सामान्य बातचीत कर सकें, जब वे नई चीजों में रुचि दिखाने लगें, तो माता-पिता उन्हें बाइबल की कहानियाँ बता सकते हैं या उनका मार्गदर्शन करने के लिए निज-आचरण के बारे में सरल कहानियाँ सुना सकते हैं। इस तरह बच्चे समझ सकते हैं कि अपने आचरण का क्या अर्थ है, और अच्छा बच्चा और अच्छा व्यक्ति होने के लिए क्या करना चाहिए। यह बच्चों के लिए मानसिक मार्गदर्शन का एक रूप है। माता-पिता को उन्हें सिर्फ यह नहीं बताना चाहिए कि उन्हें बड़े होने पर ढेरों पैसा कमाना चाहिए या उच्च अधिकारी बनना चाहिए जिससे उन्हें असीम धन-संपत्ति मिले, और वे कष्ट सहने या कड़ी शारीरिक मेहनत करने से बच सकें, उन्हें वह ताकत और प्रतिष्ठा मिले जिससे वे दूसरों पर हुक्म चला सकें। उन्हें अपने बच्चों के मन में ऐसी नकारात्मक चीजें नहीं बिठानी चाहिए, बल्कि उनके साथ सकारात्मक चीजें साझा करनी चाहिए। या उन्हें अपने बच्चों को ऐसी कहानियाँ सुनानी चाहिए जो उम्र के मुताबिक और सकारात्मक शैक्षणिक संदेश वाली हों। मिसाल के तौर पर, उन्हें यह सिखाना कि वे झूठ न बोलें और ऐसे बच्चे न बनें जो झूठ बोलते हों, उन्हें यह समझाना कि झूठ बोलने के नतीजे खुद सहने होते हैं, उन्हें झूठ बोलने को ले कर अपना खुद का रवैया स्पष्ट करना चाहिए, और इस बात पर जोर देना चाहिए कि झूठ बोलने वाले बच्चे बुरे होते हैं, और लोग ऐसे बच्चों को पसंद नहीं करते। कम-से-कम उन्हें अपने बच्चों को यह जानने देना चाहिए कि उन्हें ईमानदार होना चाहिए। इसके अलावा, माता-पिता को अपने बच्चों को अतिवादी या उग्रवादी विचार विकसित करने से रोकना चाहिए। इसे कैसे रोका जा सकता है? माता-पिता को अपने बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि वे दूसरों के प्रति सहिष्णु होना, सब्र रखना, क्षमा करना, कोई घटना होने पर हठी या स्वार्थी न होना और दूसरों के साथ मेलजोल में दयालु और सद्भावनापूर्ण होना सीखें; अगर नुकसान पहुँचाने की कोशिश करने वाले बुरे या खराब लोगों से उनका सामना हो, तो टकराव और हिंसा के साथ उस स्थिति से निपटने के बजाय मामले से दूर जाना सीखना चाहिए। माता-पिता को अपने छोटे बच्चों के मन में हिंसक प्रवृत्ति के बीज या विचार नहीं बोने चाहिए। उन्हें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि हिंसा ऐसी चीज नहीं है जिसे माता-पिता ठीक मानते हैं, और हिंसा की प्रवृत्ति वाले बच्चे अच्छे बच्चे नहीं होते। अगर लोगों में हिंसक प्रवृत्तियाँ होती हैं, तो वे अंत में अपराध करने की ओर मुड़ सकते हैं, और फिर सामाजिक प्रतिरोध और कानून के अनुसार दंड से उनका सामना हो सकता है। हिंसक प्रवृत्तियों वाले लोग अच्छे नहीं हैं, वे ऐसे लोग नहीं हैं जिन्हें अच्छा माना जाता है। दूसरी ओर माता-पिता को अपने बच्चों को आत्मनिर्भर होना सिखाना चाहिए। बच्चों को आशा नहीं करनी चाहिए कि उन्हें खाना और कपड़े बस यूँ ही मिल जाएँगे; वे जब भी काम करने में सक्षम हो जाएँ या काम करना जान जाएँ तो उन्हें लगातार आलस की मानसिकता छोड़कर खुद काम करना सीखना चाहिए। माता-पिता को विविध विधियों से अपने बच्चों का मार्गदर्शन करना चाहिए ताकि वे ये सकारात्मक और सही मामले समझ सकें। बेशक, जब माता-पिता नकारात्मक चीजें होते या उत्पन्न होते देखें, तो उन्हें अपने बच्चों को सीधे सूचित करना चाहिए कि ऐसा व्यवहार अच्छा नहीं है, अच्छे बच्चे ऐसे काम नहीं करते, वे खुद भी ऐसा व्यवहार पसंद नहीं करते, और ऐसा करने वाले बच्चों को भविष्य में कानूनी दंड, जुर्माना और प्रतिकार मिल सकते हैं। संक्षेप में कहें, तो माता-पिता को अपने बच्चों को आचरण और कार्य करने के सरलतम और सबसे बुनियादी सिद्धांत बताने चाहिए। कम-से-कम बालिग होने से पहले ही बच्चों को समझ-बूझ को अमल में लाना, अच्छे-बुरे में फर्क करना सीख लेना चाहिए और जान लेना चाहिए कि अच्छे बनाम बुरे इंसान को कौन-से कार्यकलाप परिभाषित करते हैं, कौन-से कार्यकलाप अच्छे व्यक्ति का आचरण प्रदर्शित करते हैं, और कौन-से कार्यकलाप बुरे माने जाते हैं और बुरे व्यक्ति का आचरण प्रदर्शित करते हैं। ये सबसे बुनियादी चीजें हैं जो उन्हें सिखाई जानी चाहिए। इसके अलावा, बच्चों को समझना चाहिए कि कुछ व्यवहारों से दूसरे लोग घृणा करते हैं, जैसे कि चोरी करना या अनुमति लिए बिना किसी की चीजें ले लेना, उनकी मंजूरी के बिना उनकी चीजें इस्तेमाल करना, गप्पें फैलाना, और लोगों के बीच फूट के बीज बोना। ये और ऐसे कार्यकलाप एक बुरे व्यक्ति के आचरण का संकेत देते हैं, ये नकारात्मक हैं, और परमेश्वर को अच्छे नहीं लगते। जब बच्चे थोड़े बड़े हो जाएँ, तो उन्हें अपने किसी भी काम में हठी न होना, तेजी से दिलचस्पी न खोना या आवेगपूर्ण या लापरवाह न होना सिखाना चाहिए। उन्हें सोचना चाहिए कि वे जो कुछ भी करेंगे उसका नतीजा क्या होगा, और अगर वे जान जाएँ कि शायद ये नतीजे प्रतिकूल या विपत्तिकारक होंगे, तो उन्हें अपना हाथ रोक लेना चाहिए, फायदों और आकांक्षाओं को खुद पर हावी नहीं होने देना चाहिए। माता-पिता को अपने बच्चों को बुरे लोगों की ठेठ बातों और कार्यकलापों के बारे में भी शिक्षित करना चाहिए, बुरे लोगों की बुनियादी समझ देनी चाहिए और बुरे लोगों को मापने के मानक बताने चाहिए। उन्हें सीखना चाहिए कि अजनबियों या उनके वायदों पर बड़ी आसानी से भरोसा न करें, और बिना सावधानी के अजनबियों से चीजें स्वीकार न करें। उन्हें ये सभी बातें सिखानी चाहिए, क्योंकि संसार और समाज बुरा है और फंदों से भरा हुआ है। बच्चों को किसी पर भी आसानी से भरोसा नहीं कर लेना चाहिए; उन्हें सिखाना चाहिए कि वे बुरे और खराब लोगों को समझें-बूझें, बुरे लोगों से सावधान रहें और उनसे दूरी बनाकर रखें, ताकि वे फँसने या धोखा खाने से बच सकें। इन बुनियादी सबकों के बारे में माता-पिता को अपने बच्चों का उनके प्रारंभिक वर्षों में एक सकारात्मक नजरिये से मार्गदर्शन और निर्देशन करना चाहिए। एक ओर, उन्हें यह सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए कि उनके बच्चे उनकी परवरिश के दौरान स्वस्थ और सशक्त विकसित हों, और दूसरी ओर, उन्हें अपने बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास को बढ़ावा देना चाहिए। एक स्वस्थ मन के क्या लक्षण हैं? व्यक्ति का जीवन के प्रति सही नजरिया रखना और सही पथ पर चल पाना इसके लक्षण हैं। ऐसे लोग भले ही परमेश्वर में विश्वास न रखें, फिर भी वे अपने प्रारंभिक वर्षों में बुरी प्रवृत्तियों का अनुसरण करने से बचे रहते हैं। अगर माता-पिता अपने बच्चों में कोई भटकाव देखें, तो उन्हें फौरन उनके बर्ताव को देखना और सुधारना चाहिए, अपने बच्चों को सही रास्ता दिखाना चाहिए। मिसाल के तौर पर, अगर उनके बच्चों का अपने बचपन में बुरी प्रवृत्तियों या कुछ कुतर्कों, कुविचारों और नजरियों के कारण होने वाली चीजों से सामना हो जाए, तो जिन चीजों की उन्हें समझ-बूझ नहीं है, वहाँ वे उनका अनुकरण या नकल कर सकते हैं। माता-पिता को चाहिए कि इन मसलों का जल्द पता लगाएँ और तुरंत सुधार और सही मार्गदर्शन करें। यह भी उनकी जिम्मेदारी है। संक्षेप में कहें, तो लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि उनके बच्चों को अपने विचारों, आचरण, दूसरों से बर्ताव, और विविध लोगों, घटनाओं और चीजों के बोध के लिए बुनियादी, सकारात्मक और सही दिशा मिले, ताकि वे कपटी दिशा के बजाय रचनात्मक दिशा में विकसित हो सकें। मिसाल के तौर पर, गैर-विश्वासी अक्सर कहते हैं, “जीवन और मृत्यु पूर्व-नियत हैं; संपत्ति और सम्मान का फैसला स्वर्ग करता है।” किसी व्यक्ति को जीवन में जितनी मात्रा में कष्ट और आनंद का अनुभव होना चाहिए वह परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है, और यह मात्रा इंसानों द्वारा बदली नहीं जा सकती। एक ओर, माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों को इन वस्तुपरक तथ्यों की जानकारी दें, और दूसरी ओर उन्हें सिखाएँ कि जीवन सिर्फ शारीरिक जरूरतों के बारे में नहीं है, और यह निश्चित रूप से सुख के बारे में नहीं है। लोगों के करने के लिए खाने, पीने और मनोरंजन तलाशने से ज्यादा जरूरी कुछ चीजें हैं; उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखना चाहिए, सत्य का अनुसरण करना चाहिए और परमेश्वर से उद्धार प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। अगर लोग सिर्फ सुख, खाने, पीने और देह की मौज-मस्ती खोजने के लिए जिएँ, तो फिर वे चलती-फिरती लाश की तरह हैं, उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं है। वे कोई सकारात्मक या सार्थक मूल्य नहीं रचते, और वे जीने या इंसान होने के लायक भी नहीं हैं। भले ही कोई बच्चा परमेश्वर में विश्वास न रखे, फिर भी उसे कम-से-कम एक अच्छा व्यक्ति बनने दो, कोई ऐसा जो अपना उचित कर्तव्य निभाए। बेशक, अगर वह परमेश्वर द्वारा चुना गया है, और बड़ा हो कर कलीसियाई जीवन में भाग लेना चाहता है, अपना कर्तव्य निभाना चाहता है, तो यह और भी अच्छी बात है। अगर उनके बच्चे इस तरह के हैं, तो माता-पिता को अपने कम-उम्र बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और ज्यादा उन सिद्धांतों के आधार पर पूरी करनी चाहिए जिनके द्वारा परमेश्वर ने लोगों को आगाह किया है। अगर तुम नहीं जानते कि क्या तुम्हारे बच्चे परमेश्वर में विश्वास रखेंगे और वे परमेश्वर द्वारा चुने जाएँगे या नहीं, कम-से-कम तुम्हें अपने बच्चों के प्रारंभिक वर्षों में उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। भले ही तुम ये चीजें न जानो या इन्हें समझने में असमर्थ हो, फिर भी तुम्हें ये जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। तुम्हें जो दायित्व और जिम्मेदारियाँ पूरी करनी हैं, उन्हें तुम्हें जहाँ तक संभव हो वहाँ तक कार्यान्वित करना चाहिए, जो सकारात्मक विचार और चीजें तुम पहले से ही जानते हो उन्हें अपने बच्चों के साथ साझा करना चाहिए। कम-से-कम इतना तो सुनिश्चित करो ही कि उनका आध्यात्मिक विकास एक रचनात्मक दिशा में हो, और उनका मन स्वच्छ और स्वस्थ हो। तुम अपनी अपेक्षाओं, विकास या दमन के तहत उन्हें छोटी उम्र से ही हर प्रकार के कौशल और ज्ञान का अध्ययन करने पर मजबूर मत करो। और भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि कुछ माता-पिता उनके बच्चों के विविध प्रतिभा कार्यक्रमों, शैक्षणिक और एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में भाग लेते समय उनके साथ जाते हैं, तरह-तरह की सामाजिक प्रवृत्तियों के पीछे भागते हैं, संवाददाता सम्मेलनों, अनुबंधों, और अध्ययन सत्रों में जाते हैं, और हर तरह के प्रतियोगिता और स्वीकरण भाषणों, वगैरह में पहुँच जाते हैं। कम-से-कम माता-पिता के तौर पर ये चीजें खुद करके उन्हें अपने बच्चों को अपने पदचिह्नों पर नहीं चलने देना चाहिए। अगर माता-पिता अपने बच्चों को ऐसी गतिविधियों में साथ लाते हैं, तो एक ओर यह स्पष्ट है कि उन्होंने माता-पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं की हैं। दूसरी ओर, वे अपने बच्चों को खुले तौर पर एक ऐसे रास्ते पर ले जा रहे हैं जहाँ से वे लौट नहीं सकते, वे उनके रचनात्मक मानसिक विकास में रुकावट पैदा कर रहे हैं। ऐसे माता-पिता अपने बच्चों को किधर ले जा रहे हैं? वे उन्हें बुरी प्रवृत्तियों की ओर ले जा रहे हैं यह ऐसी चीज है जो माता-पिता को नहीं करनी चाहिए। इसके अलावा, अपने बच्चों के भविष्य के पथ और जिस करियर को वे अपनाएँगे, उसे लेकर माता-पिता को उनके मन में ऐसी चीजें नहीं बिठानी चाहिए जैसे, “उसे देखो, वह एक पियानोवादक है, उसने चार-पाँच वर्ष की उम्र में पियानो बजाना शुरू कर दिया। वह खेल-कूद में नहीं लगा, उसके कोई दोस्त या खिलौने नहीं थे, वह हर दिन पियानो का अभ्यास करता था। उसके माता-पिता पियानो कक्षाओं में उसके साथ जाते थे, विविध शिक्षकों से परामर्श करते थे, और उन्हें पियानो प्रतियोगिताओं में डालते थे। देखो अब वह कितना प्रसिद्ध है, अच्छा खाता-पीता है, सजता-सँवरता है, जहाँ भी जाता है प्रभामंडल और सम्मान से घिरा रहता है।” क्या ऐसी शिक्षा से बच्चे के मानस का स्वस्थ विकास होता है? (नहीं, नहीं होता।) तो फिर यह कैसी शिक्षा है? यह दानव की शिक्षा है। इस प्रकार की शिक्षा किसी भी किशोर मन के लिए हानिकारक है। यह उनमें शोहरत की आकांक्षा, तरह-तरह के प्रभामंडल, सम्मान, पद और आनंद-उल्लास की लालसा को बढ़ावा देती है। इसके कारण वे छोटी उम्र से ही इन चीजों की लालसा रखते और उनके पीछे भागते हैं, यह उन्हें व्याकुलता, तीव्र आशंका और चिंता में झोंक देती है, और इसे पाने के लिए हर तरह की कीमत चुकाने का कारण बनती है, अपना होमवर्क करने और विभिन्न कौशल सीखने के लिए सुबह जल्दी उठने और देर रात तक काम करने को मजबूर करती है, जिससे वे बचपन के वर्ष गँवा देते हैं, और इन चीजों के लिए उन बेशकीमती वर्षों का सौदा कर देते हैं। बुरी प्रवृत्तियों द्वारा आगे बढ़ाई गई चीजों की बात करें, तो कम-उम्र बच्चों में उनका प्रतिरोध करने या उन्हें समझने-बूझने की क्षमता नहीं होती। इसलिए अपने कम-उम्र बच्चों के संरक्षक के रूप में संसार के बुरे चलनों और तमाम नकारात्मक चीजों से आने वाले विविध नजरियों को समझने-बूझने और उनका विरोध करने में उनकी मदद करके माता-पिता को यह जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। उन्हें सकारात्मक मार्गदर्शन और शिक्षा देनी चाहिए। बेशक, सब की अपनी आकांक्षाएं होती हैं, यहाँ तक कि अगर कुछ छोटे बच्चों के माता-पिता कुछ उद्यमों से उन्हें रोकने की कोशिश भी करें, तो भी वे इनकी आकांक्षा रख सकते हैं। वे जो चाहते हैं, उसकी कामना करने दो; माता-पिता को अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। माता-पिता के रूप में, अपने बच्चे के विचारों को नियमित करने और उन्हें एक सकारात्मक और रचनात्मक दिशा में ले जाने का दायित्व और जिम्मेदारी तुम्हारी है। क्या वे तुम्हारी बात सुनेंगे या बड़े हो कर तुम्हारी शिक्षाओं पर अमल करेंगे, यह उनकी निजी पसंद है जिसमें तुम दखल नहीं दे सकते या जिसे तुम नियंत्रित नहीं कर सकते। संक्षेप में कहें, तो बच्चों के प्रारंभिक वर्षों के दौरान, उनके मन में विविध स्वस्थ, उचित और सकारात्मक विचार और नजरिये और साथ ही जीवन लक्ष्य बिठाना माता-पिता की जिम्मेदारी और दायित्व होता है। यह माता-पिता की जिम्मेदारी है।

कुछ माता-पिता कहते हैं, “मैं यह भी नहीं जानता कि अपने बच्चों को कैसे पढ़ाऊँ। बचपन से ही मैं नासमझ रहा हूँ, सही-गलत में फर्क किए बिना जो माता-पिता ने कहा वही करता रहा हूँ। मैं अभी भी नहीं जानता कि बच्चों को कैसे पढ़ाऊँ।” न जानने को ले कर चिंता मत करो; यह अनिवार्य रूप से बुरी चीज नहीं है। उससे भी बदतर तब है जब तुम उसे जान कर भी उस पर अमल नहीं करते, अभी भी अपने बच्चों को उत्कृष्ट बनने की ही शिक्षा देते हो, और कहते हो, “मैं अब अच्छा नहीं रहा, लेकिन चाहता हूँ कि मेरे बच्चे मुझसे आगे बढ़ जाएँ। युवा पीढ़ी अपने बड़े-बूढ़ों की रोशनी में दमकती है, और उसे उनसे आगे बढ़ना चाहिए। मैं फिलहाल एक अनुभाग प्रमुख के तौर पर कार्यरत हूँ; इसलिए मेरे बच्चे को महापौर, राज्यपाल या और भी ऊँचे सरकारी स्तर तक पहुँचना चाहिए, या राष्ट्रपति बनना चाहिए।” ऐसे लोगों से और कुछ कहने की जरूरत नहीं है। हम ऐसे लोगों के साथ मेलजोल नहीं रखते। हम माता-पिता की जिस जिम्मेदारी की बात कर रहे हैं, वह सकारात्मक, सक्रिय और सत्य से संबंधित है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, अगर वे अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करना चाहते हैं, मगर अनिश्चित हैं कि वह जिम्मेदारी कैसे निभाएँ, तो वे शुरुआत से सीखना शुरू करें—यह आसान है। वयस्कों को पढ़ाना आसान नहीं होता, मगर बच्चों को पढ़ाना आसान होता है, है कि नहीं? सीखने और पढ़ाने का काम साथ-साथ करो, वह पढ़ाओ जो तुमने अभी-अभी सीखा है। क्या यह आसान नहीं है? अपने बच्चों को शिक्षा देना आसान है। अपने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित जिम्मेदारी पूरी करना इससे भी बेहतर है। भले ही तुम इसे बढ़िया ढंग से न कर सको, यह उन्हें बिल्कुल भी शिक्षा न देने से बेहतर है। बच्चे छोटे और नादान हैं; अगर तुम उन्हें टेलीविजन और विविध स्रोतों से जानकारी पाने दोगे, उनकी पसंद का उद्यम करने दो, और शिक्षा और विनियमन के बिना जैसा चाहें वैसे उन्हें सोचने और करने दो, तो तुमने माता-पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की है। तुम अपने कर्तव्य में नाकामयाब रहे हो, और तुमने अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा नहीं किया है। अगर माता-पिता को अपने बच्चों के प्रति जिम्मेदारी पूरी करनी है, तो वे निष्क्रिय नहीं हो सकते, बल्कि उन्हें सक्रियता से ऐसे कुछ ज्ञान और सीख का अध्ययन करना चाहिए जो उनके बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का पोषण कर सके, या शुरू से शुरू कर सत्य से संबंधित कुछ बुनियादी सिद्धांत सीखने चाहिए। माता-पिता को ये तमाम चीजें करनी चाहिए : इसे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना कहा जाता है। बेशक, तुम्हारा सीखना बेकार नहीं होगा। सीखने और अपने बच्चों को शिक्षित करने की प्रक्रिया में, तुम भी कुछ हासिल करोगे। इसलिए कि एक रचनात्मक दिशा में अपने बच्चों को अपना मानसिक स्वास्थ्य विकसित करने की शिक्षा देते समय, एक वयस्क के रूप में तुम अनिवार्य रूप से कुछ सकारात्मक विचारों के संपर्क में आओगे और उन्हें सीखोगे। जब तुम अपने आचरण और कार्य के लिए इन सकारात्मक विचारों या सिद्धांतों और मानदंडों पर सूक्ष्मता और गंभीरता से दृष्टि डालोगे, तो तुम अनजाने ही कुछ हासिल करोगे—यह बेकार नहीं जाएगा। अपने ही बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करना कोई ऐसी चीज नहीं है जो तुम दूसरों की खातिर करते हो; तुम्हें इसलिए करना चाहिए क्योंकि उनके साथ तुम्हारा रिश्ता भावनात्मक और रक्त दोनों का है। यह करने के बाद भी अगर तुम्हारे बच्चे कोई ऐसा कार्य या व्यवहार करें जो तुम्हारी अपेक्षाओं पर खरा न उतरे, तो भी कम-से-कम तुमने कुछ तो हासिल किया ही है। तुम जानते हो कि अपने बच्चों को शिक्षा देने और उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का क्या अर्थ होता है। तुम पहले ही अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके हो। जहाँ तक इसकी बात है कि तुम्हारे बच्चे अनुसरण के लिए कौन-सा पथ चुनते हैं, वे किस प्रकार का आचरण करना चुनते हैं, और जीवन में कैसी नियति उनकी प्रतीक्षा में है, तो ये अब तुम्हारी चिंताएँ नहीं हैं। उनके वयस्क हो जाने पर तुम सिर्फ किनारे खड़े होकर उनके जीवन और नियति के पन्ने खुलते हुए देख सकते हो। तब उसमें सहभागी होने का तुम्हारा कोई दायित्व या जिम्मेदारी नहीं रह जाती। अगर तुमने उनके बचपन में समय से मार्गदर्शन और शिक्षा नहीं दी, कुछ मामलों में उनके लिए सीमाएँ नहीं खींचीं, तो उनके वयस्क होकर ऐसी अप्रत्याशित बातें कहने या करने या ऐसे विचार और व्यवहार प्रदर्शित करने पर, जिनकी तुम्हें उम्मीद नहीं थी, तो तुम्हें पछतावा हो सकता है। मिसाल के तौर पर, जब वे छोटे थे, तो तुमने यह कहकर उन्हें निरंतर शिक्षित किया, “मेहनत से पढ़ो, कॉलेज जाओ, स्नातकोत्तर पढ़ाई की कोशिश करो, या पीएचडी करो, अच्छी नौकरी ढूँढ़ो, शादी के लिए अच्छा रिश्ता ढूँढ़ो और घर बसाओ, और फिर जीवन अच्छा रहेगा।” तुम्हारे शिक्षण, प्रोत्साहन और तरह-तरह के दबाव के जरिये तुमने जो रास्ता बनाया उन्होंने उसे जिया और उस पर चलते रहे, उन्होंने तुम्हारी अपेक्षा के अनुसार चीजें हासिल कीं, ठीक वैसे ही जैसा तुम चाहते थे, और अब वे वापस जाने में असमर्थ हैं। अगर अपनी आस्था के कारण कुछ खास सत्यों और परमेश्वर के इरादों को समझ लेने के बाद, और सही विचार और नजरिये प्राप्त कर लेने के बाद, अब तुम उन्हें उन चीजों का अनुसरण न करने की बात बताने की कोशिश करोगे, तो वे जवाब में कह सकते हैं, “क्या मैं ठीक वही नहीं कर रहा हूँ जो अपने चाहा था? क्या आपने मुझे बचपन में ये बातें नहीं सिखाई थीं? क्या आपने मुझसे यह माँग नहीं की थी? अब आप मुझे क्यों रोक रहे हैं? मैं जो कर रहा हूँ क्या वह गलत है? मैंने ये चीजें हासिल की हैं और मैं अब उनके मजे ले रहा हूँ; आपको खुश और संतुष्ट होना चाहिए, मुझ पर गर्व होना चाहिए, होना चाहिए न?” यह सुनकर तुम्हें कैसा लगेगा? तुम्हें खुश होना चाहिए या रोना चाहिए? क्या तुम्हें पछतावा नहीं होगा? (बिल्कुल।) अब तुम उन्हें वापस नहीं जीत सकते। अगर तुमने उन्हें उनके बचपन में ऐसी शिक्षा नहीं दी होती, अगर तुमने बिना किसी दबाव के उन्हें खुशहाल बचपन दिया होता, बाकी लोगों से बढ़कर रहना, ऊँचे पद पर आसीन होना, ढेरों पैसा बनाना, या शोहरत, लाभ और हैसियत के पीछे भागना नहीं सिखाया होता, अगर तुमने उन्हें बस अच्छा, साधारण इंसान रहने दिया होता, यह माँग किए बिना कि वे ढेरों पैसा कमाएं, मजे लूटें, या तुम्हें इतना सारा लौटाएँ, महज इतना चाहा होता कि वे स्वस्थ और खुश रहें, सरल और प्रसन्न मन इंसान बनें, तो शायद परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद तुम्हारे मन में जो विचार और नजरिये हैं, उनमें से कुछ को स्वीकार करने को वे तैयार हो जाते। तब शायद उनका जीवन खुशहाल होता, जीवन और समाज का उन पर कम दबाव होता। हालाँकि उन्होंने शोहरत और लाभ हासिल नहीं किए, कम-से-कम उनके दिल खुश, सुकून-भरे और शांत होते। लेकिन उनके विकासशील वर्षों में तुम्हारे निरंतर उकसाने और आग्रह के कारण, तुम्हारे दबाव से, उन्होंने ज्ञान, धन, शोहरत और लाभ का अनवरत अनुसरण किया। अंत में, उन्होंने शोहरत, लाभ और हैसियत हासिल की, उनका जीवन सुधर गया, उन्होंने ज्यादा मजे किए, और ज्यादा पैसा कमाया, लेकिन उनका जीवन थकाऊ है। जब भी तुम उन्हें देखते हो, उनके चेहरे पर थकान दिखाई देती है। तुम्हारे पास वापस घर लौटने पर ही वे अपना मुखौटा उतारने और यह मानने की हिम्मत करते हैं कि वे थके हुए हैं और आराम करना चाहते हैं। लेकिन बाहर कदम रखते ही वे वैसे नहीं रहते—वे फिर से मुखौटा लगा लेते हैं। तुम उनकी थकी हुई और दयनीय अभिव्यक्ति देख कर उनके लिए बुरा महसूस करते हो, लेकिन तुम्हारे पास वह सामर्थ्य नहीं है कि उन्हें पीछे लौटा सको। वे अब लौट नहीं सकते। ऐसा कैसे हुआ? क्या इसका तुम्हारी परवरिश से संबंध नहीं है? (हाँ है।) इनमें से कोई भी चीज उन्हें सहज ही मालूम नहीं थी या उन्होंने बचपन से उसके लिए प्रयास नहीं किया था; इसका तुम्हारी परवरिश से पक्का रिश्ता है। उनका चेहरा देखकर, उनके जीवन को इस हाल में देखकर क्या तुम परेशान नहीं होते? (हाँ।) लेकिन तुम सामर्थ्यहीन हो; बस पछतावा और दुख बाकी रह गया है। तुम्हें लग सकता है कि शैतान तुम्हारे बच्चे को पूरी तरह से दूर ले गया है, वह वापस नहीं लौट सकता, और तुममें उसे बचाने की सामर्थ्य नहीं है। यह इसलिए हुआ क्योंकि तुमने माता-पिता के तौर पर अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की। तुम्हीं ने उसे नुकसान पहुँचाया, उसे अपनी त्रुटिपूर्ण विचारधारा की शिक्षा और मार्गदर्शन से भटका दिया। वह कभी वापस लौटकर नहीं आ सकता, और अंत में तुम्हें सिर्फ पछतावा ही होता है। तुम बेसहारा देखते रहते हो जबकि तुम्हारा बच्चा कष्ट सहता रहता है, इस बुरे समाज से भ्रष्ट होकर, जीवन के दबावों के बोझ से दबा रहता है, और तुम्हारे पास उसे बचाने का कोई उपाय नहीं होता। तुम बस इतना कह पाते हो, “अक्सर घर आया करो, तुम्हारे लिए कुछ स्वादिष्ट बनाएंगे।” भोजन कौन-सी समस्या सुलझा सकता है? यह कुछ भी नहीं सुलझा सकता। उसके विचार पहले ही परिपक्व हो कर आकार ले चुके हैं, और वह हासिल की हुई शोहरत और हैसियत को जाने देने को तैयार नहीं है। वह बस आगे बढ़ सकता है, और कभी वापस मुड़ नहीं सकता। माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को उनके प्रारंभिक वर्षों में गलत मार्गदर्शन देने और उनमें गलत विचार बिठाने के ये हानिकारक परिणाम होते हैं। इसलिए इन वर्षों में, माता-पिता को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, अपने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का मार्गदर्शन करना चाहिए, और उनके विचारों और कार्यों को रचनात्मक दिशा में आगे बढ़ाना चाहिए। यह एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है। तुम कह सकते हो, “मैं बच्चों को शिक्षित करने के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता,” मगर क्या तुम अपनी जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सकते? अगर तुम सच में इस संसार और समाज को समझते हो, अगर तुम सचमुच समझते हो कि शोहरत और लाभ क्या हैं, अगर तुम सांसारिक शोहरत और लाभ का सचमुच परित्याग कर सकते हो, तो तुम्हें अपने बच्चों की रक्षा करनी चाहिए, और उन्हें उनके प्रारंभिक वर्षों में, समाज से इन गलत विचारों को तेजी से स्वीकार नहीं करने देना चाहिए। मिसाल के तौर पर, माध्यमिक शाला में प्रवेश करने पर, कुछ बच्चों का ध्यान ऐसी चीजों पर चला जाता है कि किसी खास बड़े उद्योगपति के पास कितने अरब डॉलर की संपत्ति है, उस इलाके के सबसे धनी व्यक्ति के पास कौन-सी आलीशान गाड़ियाँ हैं, एक दूसरा व्यक्ति किस पद पर है, उसके पास कितना धन है, उसके घर पर कितनी गाड़ियाँ खड़ी हैं, और वे कैसी चीजों का मजा लेते हैं। वे सोच में पड़ जाते हैं : “मैं अभी माध्यमिक शाला में हूँ। मुझे कॉलेज के बाद अच्छी नौकरी नहीं मिली तो क्या होगा? नौकरी के बिना अगर मैं एक आलीशान घर और आलीशान गाड़ी नहीं ले सका, तो क्या करूँगा? बिना धन-दौलत के मैं असाधारण कैसे बनूँगा?” वे चिंता करने लगते हैं और समाज के उन लोगों से ईर्ष्या करने लगते हैं जिनके पास प्रतिष्ठा है और जिनका जीवन विलासितापूर्ण और भव्य है। जब बच्चे इन चीजों के बारे में जागरूक हो जाते हैं, तो वे समाज से विविध जानकारी, आयोजनों और घटनाओं की सूचनाएं लेने लगते हैं, और अपने किशोर मन में वे दबाव और व्याकुलता महसूस करने लगते हैं, और अपने भविष्य की चिंता करने और उसकी योजना बनाने में जुट जाते हैं। ऐसी स्थिति में क्या माता-पिता को अपनी जिम्मेदारी पूरी कर उन्हें आराम और मार्गदर्शन नहीं देना चाहिए, उन्हें यह समझने में मदद नहीं करनी चाहिए कि इन मामलों को उचित ढंग से कैसे देखें और सँभालें? उन्हें सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके बच्चे कम उम्र में इन चीजों के फेर में न पड़ें, ताकि वे उनके बारे में सही नजरिया बना सकें। मुझे बताओ, माता-पिता को अपने बच्चों से इन मामलों पर कैसे बात करनी चाहिए? आजकल, क्या बहुत छोटी उम्र में ही बच्चों पर समाज के विविध पहलुओं का असर नहीं पड़ रहा है? (हाँ।) क्या आजकल बच्चे गायकों, फिल्मी सितारों, नामी खिलाड़ियों और साथ ही इंटरनेट सेलेब्रिटियों, उद्योगपतियों, दौलतमंद लोगों और अरबपतियों के बारे में बहुत-कुछ नहीं जानते—वे कितना पैसा कमाते हैं, क्या पहनते हैं, कैसे मजे लेते हैं, कितनी आलीशान गाड़ियाँ उनके पास हैं, वगैरह-वगैरह? (बिल्कुल।) इसलिए इस पेचीदा समाज में माता-पिता को अपनी अभिभावकीय जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, अपने बच्चों को बचाना चाहिए, और उन्हें एक स्वस्थ दिमाग देना चाहिए। जब बच्चे इन चीजों से अवगत हो जाएँ, या वे कोई हानिकारक जानकारी सुनें या पाएँ, तो माता-पिता को उन्हें सही विचारों और नजरियों का विकास करना सिखाना चाहिए ताकि वे समय रहते इन चीजों से पीछे हट सकें। कम-से-कम माता-पिता को उन्हें एक सरल धर्म-सिद्धांत सिखाना चाहिए : “तुम अभी छोटे हो, और तुम्हारी उम्र में, तुम्हारी जिम्मेदारी अच्छी तरह पढ़ाई करने और वह सीखने की है, जो तुम्हें सीखने की जरूरत है। तुम्हें दूसरी चीजों के बारे में सोचने की जरूरत नहीं है; तुम कितना कमाओगे या तुम क्या खरीदोगे, इनकी अभी तुम्हें परवाह करने की जरूरत नहीं है—ये तुम्हारे बड़े होने के बाद की बातें हैं। अभी के लिए तुम अपना स्कूल का काम करने, अपने शिक्षक द्वारा दिए गए काम को पूरा करने, और अपने जीवन की चीजों का प्रबंध करने पर ध्यान दो। तुम्हें किसी और चीज के बारे में बहुत ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है। समाज में प्रवेश करने और उनके साथ संपर्क में आने के बाद अगर इन पर विचार करोगे तो भी देर नहीं हुई होगी। फिलहाल समाज में होने वाली चीजें व्यस्कों की बातें हैं। तुम अभी वयस्क नहीं हो, इसलिए ये वे चीजें नहीं है जिनके बारे में तुम्हें सोचना चाहिए या जिनमें तुम्हें भाग लेना चाहिए। अभी तुम अपना स्कूल का कार्य अच्छे ढंग से करने पर ध्यान दो, और हमारी बात सुनो। हम वयस्क हैं, तुमसे ज्यादा जानते हैं, इसलिए तुम्हें हम जो भी बताएँ उसे सुनना चाहिए। अगर तुम समाज में इन चीजों के बारे में जानोगे और उनका अनुसरण कर उनकी नकल करोगे, तो यह तुम्हारी पढ़ाई और स्कूल के कार्य के लिए लाभकारी नहीं होगा—इससे तुम्हारे सीखने पर असर पड़ेगा। बाद में तुम कैसे व्यक्ति बनोगे या कैसा करियर पकड़ोगे : ये चीजें बाद में सोचने की हैं। फिलहाल तुम्हारा काम अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना है। अगर तुम अपनी पढ़ाई में उत्कृष्ट नहीं होगे, तो तुम अपनी शिक्षा में सफल नहीं हो पाओगे, और तुम एक अच्छा बच्चा नहीं बनोगे। दूसरी चीजों के बारे में मत सोचो; ये तुम्हारे काम की नहीं हैं। जब तुम बड़े हो जाओगे, तब तुम ये चीजें समझ जाओगे।” क्या यह सबसे बुनियादी धर्म-सिद्धांत नहीं है जो लोगों को समझना चाहिए? (हाँ।) बच्चों को यह जानने दो : “फिलहाल तुम्हारा काम पढ़ाई करना है, खाना, पीना और मजे करना नहीं। अगर तुम पढ़ाई नहीं करोगे, तो तुम अपना वक्त बरबाद करोगे, और अपनी शिक्षा की अनदेखी करोगे। समाज में खाने, पीने, मनोरंजन और दूसरे छिटपुट मामलों से जुड़ी सभी चीजें बड़ों के लिए हैं। जो अभी वयस्क नहीं हैं उन्हें उन गतिविधियों में शामिल नहीं होना चाहिए।” क्या ये बातें हजम करना बच्चों के लिए आसान है? (हाँ।) तुम उन्हें इन मामलों के बारे में जानने या उनके बारे में ईर्ष्यालु होने के अधिकार से वंचित नहीं कर रहे हो। साथ ही, तुम यह संकेत दे रहे हो कि उन्हें क्या करना चाहिए। क्या बच्चों को इस तरह शिक्षित करना अच्छा है? (हाँ।) क्या यह कार्य का आसान तरीका है? (हाँ।) माता-पिता को ऐसा करना सीखना चाहिए और जितना हो सके उन्हें अध्ययन करना चाहिए कि अपने कम-उम्र बच्चों को कैसे शिक्षित करें और देखें कि वे अपनी क्षमता, स्थितियों और काबिलयत के आधार पर उनकी देखभाल कैसे कर सकते हैं; उन्हें उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, और यह सब अपनी पूरी काबिलियत से करना चाहिए। इसके लिए कोई सख्त या दृढ़ मानक नहीं हैं; ये हर व्यक्ति के लिए अलग होते हैं। प्रत्येक परिवार के हालात अलग होते हैं, और सबकी काबिलियत अलग होती है। इसलिए, अपने बच्चों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी के विषय में, प्रत्येक व्यक्ति के तरीके अलग होते हैं। तुम्हें वही करना चाहिए जो असरदार ढंग से काम करे, जिससे वांछित परिणाम मिलें। तुम्हें अपने बच्चों के व्यक्तित्वों, उम्र और लिंग के अनुसार खुद को ढालना चाहिए : कुछ को थोड़ी ज्यादा सख्ती की जरूरत हो सकती है, जबकि दूसरों को थोड़ी नरमी की। कुछ को ज्यादा जोर लगाने पर लाभ होता है, जबकि दूसरे सुकून भरे माहौल में पनप सकते हैं। माता-पिता को अपने बच्चों के निजी हालात के आधार पर अपने तरीके ढालने पड़ते हैं। जो भी हो, अंतिम लक्ष्य उनका मानसिक स्वास्थ्य सुनिश्चित करना है, उन्हें अपने विचारों और कामों के लिए अपने मानदंडों दोनों में रचनात्मक दिशा में राह दिखाना है। ऐसा कुछ भी मत थोपो जो मनुष्यता के विरुद्ध हो, जो प्राकृतिक विकास के विधानों के विरुद्ध हो, या उससे अधिक हो जो वे अपनी इस उम्र के दायरे में या अपनी काबिलियत की सीमा में हासिल कर सकते हों। जब माता-पिता ये सब कर सकें तो वे अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके होंगे। क्या यह हासिल करना मुश्किल है? यह कोई पेचीदा मामला नहीं है।

अपनी संतान से माता-पिता की अपेक्षाओं के दो पहलू हैं : एक पहलू बच्चों के प्रारंभिक वर्षों के दौरान माता-पिता की अपेक्षाओं से संबंधित है और दूसरा बच्चों के बड़े हो जाने के बाद की अपेक्षाओं से। पिछली बार, हमारी संगति में बच्चों के बड़े हो जाने के बाद की अपेक्षाओं की संक्षेप में बात हुई थी। हमने किस बारे में संगति की थी? (परमेश्वर, पिछली बार हमने माता-पिता की इस आशा के बारे में संगति की थी कि उनके वयस्क बच्चों के कार्यस्थल का माहौल सुगम हो, उनका विवाह खुशहाल और तृप्तिपूर्ण हो, और उनका करियर कामयाब हो।) मोटे तौर पर हमने इसी बारे में संगति की थी। जब माता-पिता अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा कर देते हैं, तो बच्चे वयस्क होकर कामकाज, करियर, शादी, परिवार और स्वतंत्र रूप से जीवनयापन करने और यहाँ तक कि अपनी संतान को पालने-पोसने से जुड़े हालात का सामना करते हैं। वे अपने माता-पिता को छोड़ कर स्वतंत्र हो जाते हैं, जीवन में आई हर समस्या का अपने दम पर सामना करते हैं। चूँकि अब बच्चे बड़े हो गए हैं, इसलिए माता-पिता को अपने बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य की देखभाल की जिम्मेदारी नहीं उठानी होती, या उनके जीवन, कामकाज, शादी, परिवार वगैरह में सीधे तौर पर नहीं जुड़ना पड़ता। बेशक, भावनात्मक और पारिवारिक बंधनों के कारण माता-पिता सतही परवाह कर सकते हैं, कभी-कभी परामर्श दे सकते हैं, अनुभवी व्यक्ति की भूमिका में कुछ सुझाव या सहायता दे सकते हैं, या अस्थायी तौर पर जरूरत के हिसाब से देखभाल कर सकते हैं। संक्षेप में कहें, तो बच्चों के बड़े हो जाने के बाद, माता-पिता बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ लगभग पूरी कर चुके होते हैं। इसलिए, कम-से-कम मेरे नजरिये से, माता-पिता अपने वयस्क बच्चों से जो अपेक्षाएँ रखते हैं, वे गैर-जरूरी हैं। वे गैर-जरूरी क्यों हैं? क्योंकि माता-पिता अपने बच्चों से जो भी बनने की अपेक्षा रखते हों, वे उनसे जैसी भी शादी, परिवार, कामकाज या करियर की उम्मीद करते हों, वे अमीर होंगे या गरीब या जो भी माता-पिता की अपेक्षाएँ हों, ये अपेक्षाओं से ज्यादा कुछ नहीं हैं, और वयस्कों के रूप में, उनके बच्चों का जीवन आखिरकार उनके अपने हाथों में होता है। बेशक, बुनियादी तौर पर कहें, तो उनके बेटे या बेटी के पूरे जीवन की नियति और वे अमीर होंगे या गरीब, सब परमेश्वर द्वारा नियत होता है। इन मामलों पर नजर रखने की माता-पिता की कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं है, न ही उन्हें इसमें दखल देने का कोई अधिकार है। इसलिए, माता-पिता की अपेक्षाएँ एक तरह से उनके वात्सल्य से उपजी शुभकामनाएँ हैं। कोई माता-पिता नहीं चाहते कि उनका बच्चा गरीब, अविवाहित, तलाकशुदा हो, उसका परिवार ठीक न चले, या उसे कामकाज में तकलीफ हो। उनमें से कोई भी अपने बच्चे के लिए ऐसी चीज की उम्मीद नहीं करता; वे अपने बच्चों के लिए बेशक सबसे बढ़िया की आशा करते हैं। लेकिन अगर माता-पिता की अपेक्षाएँ उनके बच्चों के जीवन की वास्तविकता से मेल न खाएँ, या अगर वह वास्तविकता उनकी अपेक्षाओं के विपरीत हो, तो उन्हें इसे किस दृष्टि से देखना चाहिए? यही वह विषय है जिस पर हमें संगति करने की जरूरत है। माता-पिता के रूप में, जब वयस्क बच्चों के प्रति अपनाए जाने वाले उनके रवैये की बात आती है, तो उनके बच्चे चाहे जैसे भी जीवनयापन करें, उनकी नियति या जीवन चाहे जैसा भी हो, वे बस मौन आशीष दे कर उनके लिए अच्छी उम्मीद रखकर बस इसे होने दे सकते हैं। कोई भी माता-पिता इसमें से कुछ भी बदल नहीं सकते, न ही उसे नियंत्रित कर सकते हैं। हालाँकि तुमने अपने बच्चों को जन्म दिया है, उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है, फिर भी जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं, माता-पिता अपने बच्चों की नियति के विधाता नहीं हैं। माता-पिता अपने बच्चों के भौतिक शरीर को दुनिया में लाते हैं और उन्हें बड़े होने तक पलते-पोसते हैं, लेकिन उनके बच्चों की नियति कैसी होगी, यह ऐसी चीज नहीं है जो माता-पिता दे सकते हैं या चुन सकते हैं, और माता-पिता यकीनन इसका फैसला नहीं करते। तुम अपने बच्चों की खुशहाली की कामना करते हो, लेकिन क्या यह गारंटी देती है कि वे खुशहाल होंगे? तुम कामना नहीं करते कि वे दुर्भाग्य, बदकिस्मती, और तरह-तरह की अभागी घटनाओं का सामना करें, लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि वे इससे बच पाएँगे? तुम्हारे बच्चे चाहे जिसका भी सामना करें, इनमें से कुछ भी इंसानी इच्छा के अधीन नहीं है, न ही इनमें से कुछ भी तुम्हारी जरूरतों या अपेक्षाओं से नियत होता है। तो यह तुम्हें क्या बताता है? चूँकि बच्चे बड़े हो गए हैं, खुद अपनी देखभाल करने, चीजों के बारे में स्वतंत्र सोच और नजरिया रखने, आचरण के सिद्धांतों, जीवन के प्रति दृष्टिकोण रखने में सक्षम हैं, और अब वे अपने माता-पिता से प्रभावित, संचालित, प्रतिबंधित या प्रबंधित नहीं होते, इसलिए वे सचमुच वयस्क हो गए हैं। इसका क्या अर्थ है कि वे वयस्क हो गए हैं? इसका अर्थ है कि उनके माता-पिता को चाहिए कि वे जाने दें। लिखित भाषा में, इसे “त्यागना” कहा जाता है, यानी बच्चों को जीवन में स्वतंत्र रूप से खोजबीन कर अपना पथ स्वयं लेने देना। इसे हम बोलचाल की भाषा में क्या कहते हैं? “किनारे हो जाना।” दूसरे शब्दों में माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों को आदेश देना बंद कर देना चाहिए, ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, “तुम्हें यह नौकरी तलाशनी चाहिए, तुम्हें इस उद्योग में काम करना चाहिए। वह काम मत करो, उसमें बहुत जोखिम है!” क्या माता-पिता का अपने वयस्क बच्चों को आदेश देना उपयुक्त है? (नहीं, उपयुक्त नहीं है।) वे हमेशा अपने वयस्क बच्चों के जीवन, कामकाज, शादी और परिवार पर अपना नियंत्रण और अपनी नजर रखना चाहते हैं, और अगर किसी चीज के बारे में न जानें या उसे नियंत्रित न कर पाएँ तो व्याकुल, चिंतित, भयभीत और फिक्रमंद हो जाते हैं, कहते हैं, “अगर मेरा बेटा उस मामले पर सावधानी से विचार न करे तो क्या होगा? कहीं वह कानूनी मुसीबत में फँस गया तो? मेरे पास मुकदमा लड़ने के पैसे नहीं हैं! अगर उस पर मुकदमा चल गया और पैसा न हो, तो कहीं उसे जेल न हो जाए? अगर वह जेल चला गया तो क्या बुरे लोग उसे झूठे आरोप में फँसाकर उसे आठ-दस साल की सजा करा देंगे? उसकी पत्नी उसे छोड़ गई तो? फिर बच्चों की देखभाल कौन करेगा?” वे इस बारे में जितना ज्यादा सोचते हैं, उन्हें उतनी ही अधिक बातों की चिंता होती है। “मेरी बेटी की नौकरी ठीक नहीं चल रही है : लोग उससे हमेशा बुरा बर्ताव करते हैं, उसका बॉस भी उसके साथ अच्छा नहीं है। क्या हम कुछ कर सकते हैं? क्या हम उसके लिए दूसरी नौकरी तलाशें? क्या हमें कुछ प्रभावी लोगों से थोड़ा दबाव डलवाना चाहिए, कोई जुगाड़ लगाना चाहिए, थोड़े पैसे खर्चकर उसे किसी सरकारी विभाग में काम दिलवा देना चाहिए जहाँ एक सरकारी कर्मचारी के रूप में हर दिन उसका काम हल्का ही हो? भले ही वेतन ज्यादा न हो, कम-से-कम उससे बुरा बर्ताव तो नहीं किया जाएगा। हमने बचपन में उस पर हाथ नहीं उठाया, एक राजकुमारी की तरह उसे लाड़-दुलार दिया; अब दूसरे लोग उसे परेशान कर रहे हैं। हम क्या करें?” वे इस हद तक चिंता करते हैं कि न खा पाते हैं, न सो पाते हैं, और व्याकुलता से उनके मुँह में छाले पड़ जाते हैं। जब भी उनके बच्चों का किसी चीज से सामना होता है, वे व्याकुल होकर बात को दिल पर ले लेते हैं। वे हर चीज से जुड़ना चाहते हैं, हर हालत में साथ खड़े होना चाहते हैं। जब भी उनके बच्चे बीमार पड़ते हैं, या उनका किसी मुश्किल से सामना होता है, उन्हें बेहद तकलीफ होती है और वे बहुत दुखी हो जाते हैं, कहते हैं, “मैं बस तुम्हें खुशहाल देखना चाहता हूँ। तुम भले-चंगे क्यों नहीं हो? मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा हर काम सुचारु रूप से चले, चाहता हूँ कि हर चीज उसी तरह हो, जैसा तुम चाहो, जैसे इसके होने की योजना बनाओ। मैं चाहता हूँ कि तुम कामयाबी के मजे लो, बदकिस्मती तुम्हें न घेरे, तुम धोखा न खाओ, किसी मामले में न फँसो या कानूनी मुसीबत में न पड़ो!” कुछ बच्चे घर गिरवी रखकर ऋण लेते हैं, और यह ऋण चालीस-पचास साल तक भी चल सकता है। उनके माता-पिता चिंता करने लगते हैं, “ये तमाम ऋण कब चुकता होंगे? क्या यह गिरवी गुलाम होने जैसा नहीं है? हमारी पीढ़ी को घर खरीदने के लिए ऋण लेने की जरूरत नहीं थी। हम कंपनी के दिए अपार्टमेंट्स में रहते थे, हर महीने थोड़ा-सा किराया दे देते थे। हमारी जीवन स्थिति बड़ी आरामदेह लगती होती थी। आजकल इन युवा लोगों का सचमुच मुश्किल वक्त है; सच में उनके लिए आसान नहीं है। उन्हें ऋण लेना पड़ता है, और भले ही वे अच्छा जीवन जीते हों, उन्हें हर दिन कड़ी मेहनत करनी पड़ती है—वे पूरी तरह से थक जाते हैं! वे अक्सर ओवरटाइम करते हुए देर तक जागते हैं, उनके खाने-पीने और सोने का वक्त अनियमित होता है, और वे हमेशा बाहर का खाना खाते हैं। उनका पेट भी खराब हो जाता है, और उनकी सेहत भी। मुझे उनके लिए खाना बनाना पड़ता है, उनके घर की सफाई करनी पड़ती है। उनके पास वक्त न होने के कारण मुझे उनका घर ठीक-ठाक करना पड़ता है—उनका जीवन अस्त-व्यस्त है। मैं अब बूढ़ी हड्डियों वाली उम्र-दराज महिला हूँ, और मैं ज्यादा कुछ नहीं कर सकती, इसलिए मैं बस उनकी नौकरानी बन जाऊँगी। अगर वे एक असली नौकरानी रखेंगे तो उन्हें पैसे खर्च करने पड़ेंगे, और हो सकता है वह भरोसेमंद न हो। इसलिए मैं उनकी मुफ्त की नौकरानी बन जाऊँगी।” तो वह उनकी नौकरानी बन जाती है, हर दिन अपने बच्चों का घर साफ करती है, चीजें सजाती-सँवारती है, खाने के वक्त खाना पकाती है, साग-सब्जियाँ और अनाज खरीदती है, और ढेरों जिम्मेदारियाँ उठाती है। वह माँ न रहकर एक नौकरानी, एक बाई बन जाती है। जब बच्चे घर आएँ और अच्छे मूड में न हो, तो उनके हाव-भाव देखकर तब तक सावधानी से बोलना पड़ता है जब तक उसके बच्चे दोबारा खुश न हो जाएँ, और तभी वह खुश हो सकती है। बच्चे खुश हों तो वह खुश होती है, बच्चे चिंतित हों तो वह चिंतित होती है। क्या यह जीने का कोई अच्छा तरीका है? यह अपना अस्तित्व खो देने से बिल्कुल भी अलग नहीं है।

क्या माता-पिता के लिए अपने बच्चों की नियति की कीमत चुकाना संभव है? शोहरत, लाभ और सांसारिक सुखों के पीछे भागने के लिए बच्चे अपने रास्ते में आने वाली हर मुश्किल का सामना करने को तैयार होते हैं। इसके अलावा, वयस्कों के रूप में, क्या जीवित रहने के लिए जरूरी कैसी भी मुश्किल सहना उनके लिए ठीक है? वे जितने मजे लेते हैं उतने ही कष्ट सहने के लिए भी उन्हें तैयार रहना चाहिए—यह स्वाभाविक है। उनके माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर ली हैं, फिर उनके बच्चे चाहे जो भी मजे लेना चाहें, उन्हें उसकी कीमत नहीं चुकानी चाहिए। माता-पिता अपने बच्चों के लिए जितना भी अच्छा जीवन चाहते हों, अगर उनके बच्चे अच्छी चीजों के मजे लेना चाहते हैं, तो उसके लिए तमाम दबाव और कष्ट उन्हें खुद झेलने चाहिए न कि उनके माता-पिता को। इसलिए, अगर माता-पिता हमेशा अपने बच्चों के लिए सब-कुछ करना चाहते हैं और उनकी मुश्किलों की कीमत चुकाना चाहते हैं, स्वेच्छा से उनके गुलाम बनना चाहते हैं, तो क्या यह बहुत ज्यादा नहीं है? यह गैर-जरूरी है, क्योंकि यह माता-पिता से जो करने की अपेक्षा होनी चाहिए उससे बहुत ज्यादा है। एक और बड़ा कारण यह है कि तुम अपने बच्चों के लिए जो भी और जितना भी करना चाहो, उनकी नियति नहीं बदल सकते या उनके कष्ट दूर नहीं कर सकते। समाज में आगे बढ़ने की कोशिश करने वाला हर इंसान, चाहे वह शोहरत और लाभ के पीछे भागता हो, या जीवन का सही पथ पकड़ता हो, एक वयस्क के रूप में उसे अपनी आकांक्षाओं और आदर्शों की जिम्मेदारी खुद उठानी चाहिए, अपने कामों की कीमत खुद चुकानी चाहिए। ऐसे लोगों के लिए किसी को कोई जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए; उन्हें जन्म दे कर पाल-पोस कर बड़ा करने वाले माता-पिता जोकि उनके सबसे करीबी हैं, वे भी उनके कामों की कीमत चुकाने या उनकी तकलीफें साझा करने को बाध्य नहीं हैं। इस मामले में माता-पिता बिल्कुल अलग नहीं हैं, क्योंकि वे कुछ भी नहीं बदल सकते। इसलिए तुम अपने बच्चों के लिए जो भी करते हो, वह बेकार है। चूँकि यह बेकार है इसलिए तुम्हें ये सारे काम छोड़ देने चाहिए। भले ही माता-पिता बूढ़े हों, अपने बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर चुके हों, भले ही माता-पिता का किया हर काम उनके बच्चों की नजरों में तुच्छ हो, फिर भी उन्हें अपनी प्रतिष्ठा, अपने अनुसरण और पूरा करने के लिए अपना उद्देश्य रखना चाहिए। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और सत्य और उद्धार का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के रूप में, तुम्हारे जीवन में जो ऊर्जा और समय शेष है, उसे तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन और परमेश्वर ने तुम्हें जो कुछ भी सौंपा है, उसे निभाने में खर्च करना चाहिए; तुम्हें अपने बच्चों पर कोई समय नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारा जीवन तुम्हारे बच्चों का नहीं है, और यह उनके जीवन या जीवित रहने और उनसे अपनी अपेक्षाओं को संतुष्ट करने में नहीं लगाना चाहिए। इसके बजाय, इसे तुम्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कर्तव्य और कार्य को समर्पित करना चाहिए, और साथ ही एक सृजित प्राणी के रूप में अपना उद्देश्य पूरा करने में लगाना चाहिए। इसी में तुम्हारे जीवन का मूल्य और अर्थ निहित है। अगर तुम अपनी प्रतिष्ठा खोने, अपने बच्चों का गुलाम बनने, उनकी फिक्र करने, और उनसे अपनी अपेक्षाएँ संतुष्ट करने हेतु उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हो, तो ये सब निरर्थक हैं, मूल्यहीन हैं, और इन्हें याद नहीं रखा जाएगा। अगर तुम ऐसा ही करते रहोगे और इन विचारों और कर्मों को जाने नहीं दोगे, तो इसका बस एक ही अर्थ हो सकता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, तुम एक योग्य सृजित प्राणी नहीं हो, और तुम अत्यंत विद्रोहपूर्ण हो। तुम परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए जीवन या समय को नहीं संजोते हो। अगर तुम्हारा जीवन और समय सिर्फ तुम्हारी देह और वात्सल्य पर खर्च होते हैं, परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए कर्तव्य पर नहीं, तो तुम्हारा जीवन गैर-जरूरी है, मूल्यहीन है। तुम जीने के योग्य नहीं हो, तुम उस जीवन और हर उस चीज का आनंद लेने के योग्य नहीं हो जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। परमेश्वर ने तुम्हें बच्चे सिर्फ इसलिए दिए कि तुम उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने की प्रक्रिया का आनंद ले सको, इससे माता-पिता के रूप में जीवन अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर सको, मानव जीवन में कुछ विशेष और असाधारण अनुभव पा सको और फिर अपनी संतानों को फलने-फूलने दे सको...। बेशक, यह माता-पिता के रूप में एक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी पूरी करने के लिए भी है। यह वह जिम्मेदारी है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए माता-पिता के रूप में अगली पीढ़ी के प्रति पूरी करने और साथ ही माता-पिता के रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिए नियत की है। एक ओर, यह बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने की असाधारण प्रक्रिया से गुजरना है, और दूसरी ओर, यह अगली पीढ़ियों की वंशवृद्धि में भूमिका निभाना है। एक बार यह दायित्व पूरा हो जाए और तुम्हारे बच्चे बड़े हो जाएँ, तो वे बेहद कामयाब हो जाएँ या साधारण और सरल व्यक्ति रह जाएँ, इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि उनकी नियति तुम नियत नहीं करते, न ही तुम चुनाव कर सकते हो, और यकीनन तुमने उन्हें यह नहीं दिया है—यह परमेश्वर द्वारा नियत है। चूँकि यह परमेश्वर द्वारा नियत है, इसलिए तुम्हें इसमें दखल नहीं देना चाहिए या उनके जीवन या जीवित रहने में अपनी टांग नहीं अड़ानी चाहिए। उनकी आदतें, दैनिक कामकाज, जीवन के प्रति उनका रवैया, जीवित रहने की उनकी रणनीतियाँ, जीवन के प्रति उनका परिप्रेक्ष्य, संसार के प्रति उनका रवैया—इन सबका चयन उन्हें खुद करना है, और ये तुम्हारी चिंता का विषय नहीं हैं। उन्हें सुधारना तुम्हारा दायित्व नहीं है, न ही तुम हर दिन उनकी खुशी सुनिश्चित करने हेतु उनके स्थान पर कोई कष्ट सहने को बाध्य हो। ये तमाम चीजें गैर-जरूरी हैं। हर इंसान की नियति परमेश्वर द्वारा नियत है; इसलिए वे जीवन में कितने आशीष या कष्ट अनुभव करेंगे, उनका परिवार, शादी और बच्चे कैसे होंगे, वे समाज में कैसे अनुभवों से गुजरेंगे, जीवन में वे कैसी घटनाओं का अनुभव करेंगे, वे खुद ये चीजें पहले से भाँप नहीं सकते, न बदल सकते हैं, और इन्हें बदलने की क्षमता माता-पिता में तो और भी कम होती है। इसलिए, अगर बच्चे किसी मुश्किल का सामना करें, तो माता-पिता को सक्षम होने पर सकारात्मक और सक्रिय रूप से मदद करनी चाहिए। अगर नहीं, तो माता-पिता के लिए यह श्रेष्ठ है कि वे आराम करें और इन मामलों को एक सृजित प्राणी के नजरिये से देखें, अपने बच्चों से भी समान रूप से सृजित प्राणियों जैसा बर्ताव करें। जो कष्ट तुम सहते हो, उन्हें भी वे कष्ट सहने चाहिए; जो जीवन तुम जीते हो, वह उन्हें भी जीना चाहिए; अपने छोटे बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने की जिस प्रक्रिया से तुम गुजरे हो, वे भी उससे गुजरेंगे; समाज और लोगों के बीच जो तोड़-मरोड़, जालसाजी और धोखा तुमने अनुभव किए हैं, जो भावनात्मक उलझनें और आपसी मतभेद और ऐसी ही चीजें जिनका तुमने अनुभव किया है, वे भी उनका अनुभव करेंगे। तुम्हारी तरह वे सब भी भ्रष्ट मनुष्य हैं, सभी बुराई की धारा में बह जाते हैं, शैतान द्वारा भ्रष्ट हैं; तुम इससे बच नहीं सकते, न ही वे बच सकते हैं। इसलिए सभी कष्टों से बचे रहने और संसार के समस्त आशीषों का आनंद लेने में उनकी मदद करने की इच्छा रखना एक नासमझी भरा भ्रम और मूर्खतापूर्ण विचार है। गरुड़ के पंख चाहे जितने भी विशाल क्यों न हों, वे नन्हे गरुड़ की जीवन भर रक्षा नहीं कर सकते। नन्हा गरुड़ आखिर उस मुकाम पर जरूर पहुँचेगा जब उसे बड़े होकर अकेले उड़ना होगा। जब नन्हा गरुड़ अकेले उड़ने का फैसला करता है, तो कोई नहीं जानता कि उसका आसमान किस ओर फैला हुआ है या वह अपनी उड़ान के लिए कौन-सी जगह चुनेगा। इसलिए, बच्चों के बड़े हो जाने के बाद माता-पिता के लिए सबसे तर्कपूर्ण रवैया जाने देने का है, उन्हें जीवन को खुद अनुभव करने देने का है, उन्हें स्वतंत्र रूप से जीने देने का है, और जीवन की विविध चुनौतियों का स्वतंत्र रूप से सामना कर उनसे निपटने और उन्हें सुलझाने देने का है। अगर वे तुमसे मदद माँगें, और तुम ऐसा करने में सक्षम और सही हालात में हो, तो बेशक तुम मदद कर सकते हो, और जरूरी सहायता दे सकते हो। लेकिन शर्त यह है कि तुम चाहे जो मदद करो, पैसे देकर या मनोवैज्ञानिक ढंग से, यह सिर्फ अस्थायी हो सकती है, और कोई ठोस चीज बदल नहीं सकती। उन्हें जीवन में अपना रास्ता खुद बनाना है, और उनके किसी मामले या नतीजे की जिम्मेदारी लेने को तुम बिल्कुल बाध्य नहीं हो। यही वह रवैया है जो माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों के प्रति रखना चाहिए।

माता-पिता को अपने वयस्क बच्चों के प्रति जो रवैया अपनाना चाहिए, वह समझ लेने के बाद, क्या उन्हें अपने वयस्क बच्चों से अपनी अपेक्षाओं को भी जाने देना चाहिए? कुछ अनाड़ी माता-पिता जीवन या नियति को समझ नहीं पाते, परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचानते, और अपने बच्चों के विषय में अज्ञानता के काम करते हैं। मिसाल के तौर पर, बच्चों के अपने पैरों पर खड़े हो जाने के बाद, उनका सामना कुछ खास हालात, मुश्किलों या बड़ी घटनाओं से हो सकता है, कुछ बच्चे बीमार पड़ जाते हैं, कुछ कानूनी मुकदमों में फँस जाते हैं, कुछ का तलाक हो जाता है, कुछ धोखे या जालसाजी का शिकार हो जाते हैं, कुछ अगवा हो जाते हैं, उन्हें हानि होती है, उनकी जबरदस्त पिटाई होती है या वे मृत्यु के कगार पर होते हैं। कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो नशेड़ी बन जाते हैं, वगैरह-वगैरह। इन खास और अहम हालात में माता-पिता को क्या करना चाहिए? ज्यादातर माता-पिता की ठेठ प्रतिक्रिया क्या होती है? क्या वे वही करते हैं, जो माता-पिता की पहचान वाले सृजित प्राणियों को करना चाहिए? माता-पिता विरले ही ऐसी खबर सुन कर वैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं जैसी वे किसी अजनबी के साथ ऐसा होने पर दिखाएँगे। ज्यादातर माता-पिता रात-रात भर जागे रहते हैं जब तक उनके बाल सफेद न हो जाएँ, रात-ब-रात उन्हें नींद नहीं आती, दिन भर उन्हें भूख नहीं लगती, वे दिमाग के घोड़े दौड़ाते रहते हैं, और कुछ तो तब तक फूट-फूट कर रोते हैं जब तक उनकी आँखें लाल न हो जाएँ और आँसू सूख न जाएँ। वे दिल से परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, विनती करते हैं कि परमेश्वर उनकी आस्था को ध्यान में रखकर उनके बच्चों की रक्षा करे, उन पर दया करे, उन्हें आशीष दे, कृपा करे और उनका जीवन बख्श दे। ऐसी हालत में, माता-पिता के रूप में अपने बच्चों के प्रति उनकी तमाम इंसानी कमजोरियाँ, अतिसंवेदनशीलताएँ और भावनाएँ उजागर हो जाती हैं। इसके अलावा और क्या प्रकट होता है? परमेश्वर के विरुद्ध उनकी विद्रोहशीलता। वे परमेश्वर से विनती कर उससे प्रार्थना करते हैं, उससे अपने बच्चों को विपत्ति से दूर रखने की विनती करते हैं। कोई विपत्ति आ जाए, तो भी वे प्रार्थना करते हैं कि उनके बच्चे न मरें, खतरे से बच जाएँ, उन्हें बुरे लोग नुकसान न पहुँचाएँ, उनकी बीमारियाँ ज्यादा गंभीर न हों, वे ठीक होने लगें, वगैरह-वगैरह। वे सच में किस लिए प्रार्थना कर रहे हैं? (हे परमेश्वर, इन प्रार्थनाओं से वे परमेश्वर के समक्ष शिकायती भावना रखते हुए माँगें रख रहे हैं।) एक ओर, वे अपने बच्चों की दुर्दशा से बेहद असंतुष्ट हैं, शिकायत कर रहे हैं कि परमेश्वर को उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहिए था। उनका असंतोष शिकायत में मिश्रित है, और वे परमेश्वर को अपना मन बदलने, ऐसा न करने और उनके बच्चों को खतरे से बाहर निकालने, उन्हें सुरक्षित रखने, उनकी बीमारी ठीक करने, उन्हें कानूनी मुकदमों से बचाने, कोई विपत्ति आने पर उससे उन्हें बचाने, वगैरह के लिए कह रहे हैं—संक्षेप में, हर चीज को सुचारु रूप से होने देने का आग्रह कर रहे हैं। इस तरह प्रार्थना करके एक ओर वे परमेश्वर से शिकायत कर रहे हैं, और दूसरी ओर वे उससे माँगें कर रहे हैं। क्या यह विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति नहीं है? (जरूर है।) निहितार्थ में वे कह रहे हैं कि परमेश्वर जो कर रहा है वह सही या अच्छा नहीं है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। चूँकि वे उनके बच्चे हैं और वे स्वयं विश्वासी हैं, इसलिए वे सोचते हैं कि परमेश्वर को उनके बच्चों के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहिए। उनके बच्चे दूसरों से अलग हैं; परमेश्वर को आशीष देते समय उन्हें प्राथमिकता देनी चाहिए। चूँकि वे परमेश्वर में आस्था रखते हैं, इसलिए उसे उनके बच्चों को आशीष देने चाहिए, और अगर वह न दे तो वे संतप्त हो जाते हैं, रोते हैं, गुस्सा दिखाते हैं, और फिर परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहते। अगर उनका बच्चा मर जाए तो उन्हें लगता है कि अब वे भी नहीं जी सकते। क्या उनके मन में यही भावना है? (हाँ।) क्या यह परमेश्वर के विरुद्ध एक प्रकार का विरोध नहीं है? (जरूर है।) यह परमेश्वर के विरुद्ध विरोध करना है। यह वैसा ही जैसा कुत्तों का खाने के वक्त खाना खिलाने की माँग करना और जरा भी देर होने पर चिड़चिड़ापन दिखाना। वे मुँह से कटोरा पकड़ कर दीवार पर दे मारते हैं—क्या यह अविवेकी नहीं है? (बिल्कुल।) कभी-कभी अगर तुम उन्हें कुछ दिन लगातार माँस खाने को दो, मगर कभी किसी दिन माँस न दो, तो कुत्ते अपने पाशविक आवेश में फर्श पर खाना बिखेर सकते हैं, या फिर कटोरे को मुँह से पकड़ कर जमीन पर मार सकते हैं, तुम्हें यह बताते हैं कि वे माँस चाहते हैं, वे मानते हैं कि उन्हें माँस मिलना चाहिए, और माँस न देना उन्हें नामंजूर है। लोग भी इतने ही अविवेकी हो सकते हैं। जब उनके बच्चे बाधाओं का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर से शिकायत करते हैं, उससे माँग करते हैं और उसके विरुद्ध विरोध करते हैं। क्या यह कमोबेश पशुओं का व्यवहार नहीं है? (बिल्कुल।) पशु सत्य को या लोगों के तथाकथित सिद्धांतों और मानवीय भावनाओं को नहीं समझते। जब वे गुस्सा दिखाएँ या नाटक करें, तो कुछ हद तक समझ आता है। लेकिन जब लोग परमेश्वर के विरुद्ध इस तरह विरोध करते हैं, तो क्या वे उचित हैं? क्या उन्हें क्षमा किया जा सकता है? अगर पशु ऐसा व्यवहार करें, तो लोग कह सकते हैं, “इस छोटे नवाब की तो नाक पर गुस्सा रहता है। इसे तो विरोध करना भी आता है; बड़ा चालाक है। मुझे लगता है कि इसे कम नहीं आँकना चाहिए।” उन्हें यह दिलचस्प लगता है, और वे सोचते हैं कि यह पशु सीधा-सादा तो है ही नहीं। इसलिए जब कोई पशु चिड़चिड़ापन दिखाता है, तो लोग उसका मान करते हैं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के विरुद्ध विरोध करे, तो क्या परमेश्वर को उन्हें वैसा ही मान देकर कहना चाहिए, “यह व्यक्ति ऐसी माँगें करता है; यह सीधा-सादा तो है ही नहीं!” क्या परमेश्वर तुम्हें ऐसा ऊँचा मान देगा? (नहीं।) तो परमेश्वर इस व्यवहार को कैसे परिभाषित करता है? क्या यह विद्रोह नहीं है? (जरूर है।) क्या परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोग नहीं जानते कि यह व्यवहार गलत है? क्या “प्रभु में एक व्यक्ति का विश्वास पूरे परिवार के लिए आशीष लाता है” वाला युग बहुत समय पहले ही गुजर नहीं गया? (हाँ, गुजर गया है।) तो फिर लोग अभी भी क्यों इस तरह उपवास और प्रार्थना करते हैं, परमेश्वर से अपने बच्चों की रक्षा कर उन्हें आशीष देने की बेशर्मी से विनती करते हैं? वे अभी भी यह कहकर परमेश्वर के विरुद्ध विरोध और संघर्ष करने की हिम्मत क्यों करते हैं, “अगर तुम ऐसा नहीं करोगे, तो मैं प्रार्थना करता रहूँगा; मैं उपवास रखूँगा!” उपवास रखने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है भूख हड़ताल पर जाना, जो एक दूसरे अर्थ में बेशर्मी से काम करना और नखरे दिखना है। जब लोग दूसरों के प्रति बेशर्मी से कुछ करते हैं, तो वे जमीन पर पैर पटकते हुए कह सकते हैं, “अरे, मेरा बच्चा गुजर गया; मैं अब जिंदा नहीं रहना चाहता, मैं जी नहीं सकता!” परमेश्वर के समक्ष होने पर वे ऐसा नहीं करते; वे बड़े कायदे से बोलते हैं, कहते हैं, “हे परमेश्वर, मैं तुमसे अपने बच्चे की रक्षा करने और उसकी बीमारी ठीक करने की भीख माँगता हूँ। हे परमेश्वर, तुम लोगों को बचाने वाले महान चिकित्सक हो—तुम सब-कुछ कर सकते हो। मैं तुमसे उसकी निगरानी और रक्षा करने की विनती करता हूँ। तुम्हारा आत्मा हर जगह है, तुम धार्मिक हो, तुम वह परमेश्वर हो जो लोगों पर कृपा करता है। तुम उनकी देखभाल करते हो, उन्हें सँजोते हो।” इसके क्या मायने हैं? उनकी कोई भी बात गलत नहीं है, बस यह ऐसी बातें कहने का सही समय नहीं है। निहितार्थ यह है कि अगर परमेश्वर तुम्हारे बच्चे को बचा कर उसकी रक्षा नहीं करता, अगर वह तुम्हारी कामनाएँ पूरी नहीं करता, तो वह प्रेमपूर्ण परमेश्वर नहीं है, वह प्रेम से रिक्त है, वह कृपालु परमेश्वर नहीं है, और वह परमेश्वर नहीं है। क्या मामला यह नहीं है? क्या यह बेशर्मी दिखाना नहीं है? (बिल्कुल।) क्या बेशर्मी दिखाने वाले लोग परमेश्वर को महान मानकर उसका सम्मान करते हैं? क्या उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है? (नहीं।) बेशर्मी दिखाने वाले लोग बदमाशों जैसे होते हैं—उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता। वे परमेश्वर के विरुद्ध संघर्ष और विरोध करने की हिम्मत करते हैं, और अनुचित ढंग से कर्म भी करते हैं। क्या यह मृत्यु को तलाशने के समान ही नहीं है? (हाँ।) तुम्हारे बच्चे इतने खास क्यों हैं? जब परमेश्वर किसी और के भाग्य को आयोजित या शासित करता है, तो जब तक इसका तुमसे लेना-देना न हो, तुम्हें यह ठीक लगता है। लेकिन तुम सोचते हो कि उसे तुम्हारे बच्चों के भाग्य पर शासन करने में समर्थ नहीं होना चाहिए। परमेश्वर की नजरों में, पूरी मानवजाति परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, और कोई भी परमेश्वर के हाथों स्थापित संप्रभुता और व्यवस्था से बच नहीं सकता। तुम्हारे बच्चे इसका अपवाद क्यों हों? परमेश्वर की संप्रभुता उसके द्वारा नियत और नियोजित है। क्या तुम्हारा उसे बदलने की चाह रखना ठीक है? (नहीं, ठीक नहीं है।) यह ठीक नहीं है। इसलिए, लोगों को मूर्खतापूर्ण या अनुचित चीजें नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर जो भी करता है वह पिछले जन्मों के कारणों और प्रभावों पर आधारित होता है—इसका तुमसे क्या लेना-देना है? अगर तुम परमेश्वर की संप्रभुता का प्रतिरोध करते हो, तो तुम मृत्यु को तलाश रहे हो। अगर तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे बच्चे इन चीजों का अनुभव करें, तो इसका स्रोत न्याय, कृपा या दयालुता नहीं बल्कि स्नेह है—यह महज तुम्हारे स्नेह के प्रभाव के कारण है। भावना स्वार्थ की प्रवक्ता है। तुममें जो भावना है, वह प्रदर्शन करने योग्य नहीं है; तुम इसे खुद के सामने भी उचित नहीं ठहरा सकते, फिर भी तुम परमेश्वर को ब्लैकमेल करने के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहते हो। कुछ लोग यह भी कहते हैं, “मेरा बच्चा बीमार है, अगर वह मर गया तो मैं जिंदा नहीं रहूँगा!” क्या तुममें मर जाने का साहस है? फिर मरने की कोशिश करो! क्या ऐसे लोगों की आस्था सच्ची है? अगर तुम्हारा बच्चा मर गया तो क्या तुम सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखना बंद कर दोगे? उनकी मृत्यु संभवतः क्या बदलाव ला सकती है? अगर तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो न परमेश्वर की पहचान बदलेगी न ही उसकी हैसियत। परमेश्वर अब भी परमेश्वर है। वह परमेश्वर इसलिए नहीं है कि तुम उसमें विश्वास रखते हो, न ही वह तुम्हारे अविश्वास के कारण परमेश्वर नहीं रहता। भले ही संपूर्ण मानवजाति उसमें विश्वास न रखे फिर भी परमेश्वर की पहचान और सार अपरिवर्तित रहेगा। उसकी हैसियत अपरिवर्तित रहेगी। वह सदैव वही एकमात्र परमेश्वर रहेगा जो पूरी मानवजाति और ब्रह्मांड संसार का संप्रभु है। इसका इस बात से लेना-देना नहीं है कि तुम उसमें विश्वास रखते हो या नहीं। अगर तुम विश्वास रखते हो, तो तुम्हारा पक्ष लिया जाएगा। अगर तुम विश्वास नहीं रखते, तो तुम्हें उद्धार का अवसर नहीं मिलेगा और तुम उसे प्राप्त नहीं करोगे। तुम अपने बच्चों से प्रेम कर उनकी रक्षा करते हो, तुममें अपने बच्चों के प्रति स्नेह है, तुम उन्हें त्याग नहीं सकते, और इसलिए तुम परमेश्वर को कुछ भी नहीं करने देते। क्या इसका कोई अर्थ है? क्या यह सत्य, नैतिकता या मानवता के अनुरूप है? यह किसी भी चीज के अनुरूप नहीं है, नैतिकता भी नहीं, क्या यह सही नहीं है? तुम अपने बच्चों को नहीं सँजोते, तुम उन्हें बचा रहे हो—तुम अपने स्नेह के प्रभाव के अधीन हो। तुम यह भी कहते हो कि अगर तुम्हारा बच्चा मर गया, तो तुम जिंदा नहीं रहोगे। चूँकि तुम अपने खुद के जीवन के प्रति इतने गैर-जिम्मेदार हो, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिया गया जीवन सँजोते नहीं हो, तो अगर तुम अपने बच्चों के लिए ही जीना चाहते हो, तो जाओ उन्हीं के साथ जाकर मर जाओ। उन्हें जो भी बीमारी हो, तुम भी तुरंत उसी बीमारी से संक्रमित हो जाओ और साथ-साथ मर जाओ; या आत्महत्या करने के लिए बस एक रस्सा तलाश लो, क्या यह आसान नहीं होगा? जब तुम मर जाओगे, तो क्या तुम और तुम्हारे बच्चे एक जैसे ही रहोगे? क्या तब भी तुम लोगों का वही शारीरिक रिश्ता होगा? क्या तुम लोगों में तब भी एक-दूसरे के लिए स्नेह होगा? जब तुम दूसरे संसार में लौट जाओगे, तो बदल जाओगे। क्या ऐसा ही नहीं होगा? (बिल्कुल।) जब लोग अपनी आँखों से चीजें देखकर उन्हें परखते हैं कि वे अच्छी हैं या बुरी, या उनकी प्रकृति क्या है, तो वे किस पर भरोसा करते हैं? वे अपने विचारों पर भरोसा करते हैं। सिर्फ चीजों को अपनी आँखों से देखकर वे भौतिक संसार के पार नहीं देख सकते; वे आध्यात्मिक क्षेत्र के भीतर नहीं देख सकते। लोग अपने मन में क्या सोचेंगे? “इस संसार में जिन लोगों ने मुझे जन्म दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया, वे मेरे सबसे निकटतम और सबसे प्रिय हैं। मैं भी मुझे जन्म देने वाले और पाल-पोस कर बड़ा करने वाले लोगों से प्रेम करता हूँ। जो भी समय हो, मेरा बच्चा हमेशा मेरे सबसे करीब है, और मैं अपने बच्चे को सबसे ज्यादा सँजोता हूँ।” यह उनके मानसिक परिदृश्य और क्षितिज की सीमा है; उनका मानसिक परिदृश्य इतना ही “विस्तृत” है। ऐसा कहना मूर्खता है या नहीं? (यह मूर्खता है।) क्या यह बचकाना नहीं है? (यह बचकाना है।) बहुत बचकाना है! तुम्हारे बच्चे सिर्फ इस जीवन में तुमसे रक्त से जुड़े हुए हैं; उनके पिछले जीवन का क्या, तब वे तुमसे किस तरह से संबंधित थे? अपनी मृत्यु के बाद वे कहाँ जाएँगे? मरते ही, उनका शरीर आखिरी साँस लेता है, उनकी आत्मा दूर चली जाती है, और वे तुमसे पूरी तरह से विदा हो जाते हैं। वे अब तुम्हें नहीं पहचानेंगे, एक पल के लिए भी नहीं रुकेंगे, बस एक दूसरे संसार में लौट जाएँगे। उनके दूसरे संसार लौट जाने पर तुम रोते हो, उन्हें याद करते हो, और यह कहकर बेहद दुखी और संतप्त महसूस करते हो, “आह, मेरा बच्चा चला गया, मैं अब उसे कभी नहीं देख पाऊँगा!” क्या मृत व्यक्ति में कोई चेतना होती है? उन्हें तुम्हारे बारे में कोई जागरूकता नहीं होती, वे तुम्हें जरा भी याद नहीं करते। अपना शरीर छोड़ते ही वे तुरंत तीसरा पक्ष बन जाते हैं, फिर उनका तुमसे कोई रिश्ता नहीं होता। वे तुम्हें किस दृष्टि से देखते हैं? वे कहते हैं, “वह बूढ़ी महिला, वह बूढ़ा आदमी—वे किसके लिए रो रहे हैं? ओह, वे तो एक शरीर के लिए रो रहे हैं। मुझे लगता है मैं अभी-अभी उस शरीर से अलग हुआ हूँ : मैं अब उतना भारी नहीं हूँ, अब मुझे बीमारी का दर्द नहीं है—मैं आजाद हूँ।” वे बस यही महसूस करते हैं। मरने और अपना शरीर छोड़ देने के बाद उनका अस्तित्व एक दूसरे संसार में जारी रहता है, वे एक दूसरे रूप में प्रकट होते हैं, और अब उनका तुम्हारे साथ कोई रिश्ता नहीं होता। तुम यहाँ उनके लिए रोते और तरसते हो, उनकी खातिर कष्ट सहते हो, मगर उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता, वे कुछ भी नहीं जानते। कई साल बाद, हो सकता है भाग्य या संयोग से वे तुम्हारे सहकर्मी या सह-देशवासी बन जाएँ, या तुमसे कहीं बहुत दूर रहें। एक ही संसार में रह कर भी तुम दो अलग लोग होगे जिनका आपस में कोई संबंध नहीं है। भले ही कुछ लोग किन्हीं खास हालात या कही गई किसी खास बात से यह जान लें कि पिछले जीवन में वे अमुक लोग थे, फिर भी जब वे तुम्हें देखते हैं, तो वे कुछ भी महसूस नहीं करते और उन्हें देख कर तुम्हें भी कुछ महसूस नहीं होता। भले ही पिछले जन्म में वह तुम्हारा बच्चा रहा हो, तुम अब उसके लिए कुछ महसूस नहीं करते—तुम बस अपने मृत बच्चे के बारे में ही सोचते हो। वह भी तुम्हारे लिए कुछ महसूस नहीं करता : उसके अपने माता-पिता हैं, उसका अपना परिवार है, उसका वंशनाम भी अलग है—उसका तुमसे कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन तुम अब भी वहीं हो, उसे याद करते हो—तुम क्या याद कर रहे हो? तुम सिर्फ एक भौतिक शरीर और उस नाम को याद कर रहे हो, जिसका कभी तुमसे रक्त संबंध था; यह बस एक छवि है, एक प्रतिच्छाया है जो तुम्हारे विचारों या मन में बसी हुई है—इसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है। वह पुनर्जन्म ले चुका है, एक मनुष्य या किसी दूसरे जीवित प्राणी के रूप में बदल चुका है—उसका तुमसे कोई रिश्ता नहीं है। इसलिए, जब कुछ माता-पिता कहते हैं, “अगर मेरा बच्चा मर गया, तो मैं भी जिंदा नहीं रहूँगा!”—यह निरी अज्ञानता है! उसके जीवन काल का अंत हो चुका है, मगर तुम्हें जीवित क्यों नहीं रहना चाहिए? तुम इतनी गैर-जिम्मेदारी से कैसे बोलते हो? उसके जीवनकाल का अंत हो गया है, परमेश्वर ने उसकी डोर काट दी है, और उसे कोई दूसरा कर्म करना है—इसका तुमसे क्या लेना-देना है? अगर तुम्हारे लिए कोई दूसरा कर्म नियत है तो परमेश्वर तुम्हारी भी डोर काट देगा; लेकिन अभी तुम्हारे लिए नियत नहीं हुआ है, इसलिए तुम्हें जीते रहना होगा। अगर परमेश्वर तुम्हें जीवित रखना चाहता है तो तुम मर नहीं सकते। चाहे यह व्यक्ति के जीवन में उसके माता-पिता, बच्चों या रक्त द्वारा संबंधित किसी अन्य रिश्तेदार या लोगों से संबंधित हो, स्नेह के विषय में लोगों को ऐसा दृष्टिकोण और समझ रखनी चाहिए : रक्त द्वारा संबंधित लोगों के बीच जो स्नेह होता है, उसके विषय में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेना काफी है। जिम्मेदारियाँ पूरी करने के अलावा लोगों का कुछ भी बदलने का दायित्व नहीं होता, न ही उनमें यह काबिलियत होती है। इसलिए, माता-पिता का यह कहना गैर-जिम्मेदारी है, “अगर हमारे बच्चे गुजर जाएँ, अगर बतौर माता-पिता हमें अपने बच्चों के शवों को दफनाना पड़े, तो हम जिंदा नहीं रहेंगे।” अगर बच्चों के शवों को सचमुच माता-पिता दफनाएँ, तो बस यही कहा जा सकता है कि इस संसार में उनका समय बस इतना ही था, उन्हें जाना ही था। लेकिन उनके माता-पिता अभी यहीं हैं, इसलिए उन्हें अच्छे ढंग से जीते रहना चाहिए। बेशक अपनी मानवता के अनुसार लोगों का अपने बच्चों के बारे में सोचना सामान्य है, लेकिन उन्हें अपने मृत बच्चों को याद करके अपना शेष समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। यह बेवकूफी है। इसलिए इस मामले से निपटते समय, एक ओर लोगों को अपने जीवन की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, और दूसरी ओर उन्हें पारिवारिक रिश्तों को पूरी तरह से समझना चाहिए। लोगों के बीच सचमुच में जो रिश्ता होता है, वह देह और रक्त के बंधनों पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह रिश्ता परमेश्वर द्वारा रचे गए दो जीवित प्राणियों के बीच होता है। इस प्रकार के रिश्ते में देह और रक्त के बंधन नहीं होते; यह केवल दो स्वतंत्र सृजित प्राणियों के बीच होता है। अगर तुम इस बारे में इस दृष्टि से सोचो, तो बतौर माता-पिता जब तुम्हारे बच्चे दुर्भाग्यवश बीमार पड़ जाएँ या उनका जीवन खतरे में हो, तो तुम्हें ये मामले सही ढंग से झेलने चाहिए। अपने बच्चों के दुर्भाग्य या गुजर जाने के कारण तुम्हें अपना शेष समय, जिस पथ पर तुम्हें चलना चाहिए, और जो जिम्मेदारियाँ और दायित्व तुम्हें पूरे करने हैं, उन्हें छोड़ना नहीं चाहिए—तुम्हें यह मामला सही ढंग से झेलना चाहिए। अगर तुम्हारे विचार और नजरिये सही हैं और तुम इन चीजों की असलियत समझ सकते हो, तो तुम मायूसी, वेदना और लालसा पर जल्द काबू पा सकते हो। लेकिन अगर तुम इसकी असलियत नहीं समझ सके तो क्या होगा? तो हो सकता है यह जीवन भर, मृत्यु के दिन तक तुम्हें परेशान करता रहे। लेकिन अगर तुम इस हालत की असलियत समझ सकते हो, तो तुम्हारे जीवन का यह दौर सीमित रहेगा। यह सदा नहीं चलेगा, न ही यह तुम्हारे जीवन के अगले हिस्से में तुम्हारे साथ रहेगा। अगर तुम इसकी असलियत समझ लेते हो, तो इसका एक अंश जाने दे सकते हो, जोकि तुम्हारे लिए अच्छी बात है। लेकिन अगर तुम अपने बच्चों के साथ के पारिवारिक बंधनों की असलियत नहीं समझ सकते, तो तुम जाने नहीं दे सकोगे, और यह तुम्हारे लिए एक क्रूर बात होगी। अपने बच्चों के गुजर जाने पर कोई भी माता-पिता भावुक हुए बिना नहीं रहते। जब किसी माता-पिता को अपने बच्चों के शवों को दफनाने का अनुभव करना पड़ता है या जब वे अपने बच्चों को किसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में देखते हैं, तो वे अपना बाकी जीवन पीड़ा में फँसकर उनके बारे में सोचते और चिंता करते हुए बिताते हैं। कोई भी इससे बच नहीं सकता : यह आत्मा पर एक दाग है, एक अमिट निशान है। शारीरिक जीवन जीते हुए लोगों के लिए इस भावनात्मक लगाव को जाने देना आसान नहीं है, इसलिए वे इसका दुख झेलते हैं। लेकिन, अगर तुम अपने बच्चों के साथ इस भावनात्मक लगाव की असलियत समझ सको, तो इसकी तीव्रता कम हो जाएगी। बेशक, तुम्हारा दुख काफी कम हो जाएगा; बिल्कुल कष्ट न हो, यह तो नामुमकिन है, लेकिन तुम्हारा कष्ट बहुत कम हो जाएगा। अगर तुम इसकी असलियत नहीं समझ सके, तो यह बात तुम्हें क्रूर लगेगी। अगर समझ सके, तो यह एक विशेष अनुभव होगा जिससे गंभीर भावनात्मक पीड़ा पहुँची, और तुम्हें जीवन, पारिवारिक बंधनों और मनुष्यता की गहरी समालोचना और समझ मिलेगी, और तुम्हारे जीवन अनुभव का संवर्धन होगा। बेशक, यह एक ऐसा संवर्धन है जिसे कोई नहीं पाना चाहता या जिसका सामना कोई नहीं करना चाहता। कोई भी इसका सामना नहीं करना चाहता, लेकिन अगर यह मामला सामने आ जाए, तो तुम्हें इससे सही ढंग से निपटना होगा। खुद को क्रूरता से बचाने के लिए, तुम्हें पहले माने हुए पारंपरिक, सड़े-गले, गलत विचारों और नजरियों को जाने देना चाहिए। तुम्हें अपने भावनात्मक और रक्त बंधनों का सही ढंग से सामना करना चाहिए, और अपने बच्चों के गुजर जाने को सही दृष्टि से देखना चाहिए। इसे सच में समझ लेने के बाद, तुम इसे पूरी तरह से जाने दे पाओगे, और तब यह मामला तुम्हें परेशान नहीं करेगा। मेरी बात समझ रहे हो, है न? (हाँ, मैं समझ रहा हूँ।)

कुछ लोग कहते हैं, “बच्चे परमेश्वर द्वारा माता-पिता को दी हुई पूँजी हैं, इसलिए वे माता-पिता की निजी संपत्ति स्वरूप हैं।” क्या यह वक्तव्य सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) यह सुन कर कुछ माता-पिता कहते हैं, “यह सही वक्तव्य है। हमारे बच्चों को छोड़कर कुछ भी हमारा नहीं, वे हमारा अपना खून और शरीर हैं। वही हमें सबसे प्रिय हैं।” क्या यह वक्तव्य सही है? (नहीं।) इसमें गलत क्या है? तुम सब अपना तर्क दो। क्या बच्चों से अपनी निजी संपत्ति की तरह पेश आना उपयुक्त है? (नहीं, यह उपयुक्त नहीं है।) यह क्यों उपयुक्त नहीं है? (क्योंकि निजी संपत्ति व्यक्ति की अपनी होती है, दूसरों की नहीं। लेकिन बच्चों और माता-पिता के बीच का रिश्ता देह के नाते से बढ़कर कुछ नहीं है। मानव जीवन परमेश्वर से आता है, यह परमेश्वर द्वारा दी हुई साँस है। अगर कोई यह मानता है कि अपने बच्चों को जीवन उसने दिया है, तो उसका परिप्रेक्ष्य और सोच सही नहीं है, और वह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था में भी बिल्कुल विश्वास नहीं रखता।) क्या ऐसा नहीं है? देह के नाते को छोड़ दें, तो परमेश्वर की नजरों में बच्चों और माता-पिता दोनों का जीवन स्वतंत्र है। वे एक दूसरे के नहीं हैं, न ही उनका कोई अधिक्रमिक रिश्ता है। बेशक, उनके बीच यकीनन स्वामित्व होने या स्वामित्व में होने का रिश्ता नहीं है। उनका जीवन परमेश्वर से आता है, और उनकी नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता है। बात बस इतनी है कि बच्चे अपने माता-पिता से जन्म लेते हैं, माता-पिता अपने बच्चों से बड़े होते हैं, और बच्चे माता-पिता से छोटे होते हैं; फिर भी इस रिश्ते, इस सतही घटना के आधार पर, लोग मानते हैं कि बच्चे माता-पिता का सामान हैं, उनकी निजी संपत्ति हैं। यह मामले को उसकी जड़ से देखना नहीं है, बल्कि सिर्फ सतही तौर पर, देह और वात्सल्य के स्तर पर इस पर गौर करना है। इसलिए, इस तरह विचार करना ही अपने आप में गलत है, और यह एक गलत परिप्रेक्ष्य है। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल है।) चूँकि बच्चे माता-पिता का सामान या निजी संपत्ति नहीं बल्कि स्वतंत्र लोग हैं, तो बच्चों के बड़े होने के बाद माता-पिता अपने बच्चों से चाहे जो भी अपेक्षाएँ रखें, ये अपेक्षाएँ उनके मन के विचारों के रूप में ही रहनी चाहिए—उन्हें वास्तविकता में तब्दील नहीं किया जा सकता। स्वाभाविक रूप से भले ही माता-पिता अपने वयस्क बच्चों से अपेक्षा रखें, पर उन्हें उनको साकार करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, न ही उन्हें अपने वायदों की भरपाई करने के लिए इनका इस्तेमाल करना चाहिए, न ही उनके लिए कोई त्याग या कीमत चुकानी चाहिए। तो माता-पिता को क्या करना चाहिए? जब उनके वयस्क बच्चे स्वतंत्र जीवनयापन करने और जीवित रहने की क्षमता प्राप्त कर लें, तो उन्हें जाने देना चाहिए। जाने देना ही उन्हें सम्मान देने और उनकी जिम्मेदारी लेने का एकमात्र सच्चा मार्ग है। माता-पिता का हमेशा अपने बच्चों पर हावी होना, उन पर नियंत्रण रखना, या उनके जीवन और जीवित रहने में दखल देना और भाग लेना अज्ञानतापूर्ण और मूर्खतापूर्ण व्यवहार है, और यह काम करने का बचकाना तरीका है। माता-पिता अपने बच्चों से चाहे जितनी भी ऊँची अपेक्षाएँ क्यों न रखें, वे कुछ भी नहीं बदल सकते और शायद उनकी अपेक्षाएँ साकार हों ही नहीं। इसलिए अगर माता-पिता ज्ञानी हों, तो उन्हें इन यथार्थवादी या अयथार्थवादी अपेक्षाओं को जाने देना चाहिए, अपने बच्चों के साथ अपने रिश्ते को सँभालने के लिए और अपने वयस्क बच्चों के साथ हुए प्रत्येक कार्य या घटना को देखने के लिए सही परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यही सिद्धांत है। क्या यह उपयुक्त है? (हाँ, यह उपयुक्त है।) अगर तुम इसे पूरा कर सकते हो, तो साबित होता है कि तुम इन सत्यों को स्वीकार करते हो। अगर नहीं कर सकते, और मनमानी करने पर जोर देते हो, सोचते हो कि पारिवारिक स्नेह दुनिया की सबसे महान, सबसे अहम और सबसे महत्वपूर्ण चीज है, मानो तुम अपने बच्चों के भाग्य की निगरानी कर सकते हो और उनकी नियति अपने हाथों में ले सकते हो, तो आगे बढ़ो और कोशिश करो—देखो आखिरी नतीजा क्या होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि इससे अंत में दुखदाई हार ही होगी, कोई अच्छा नतीजा नहीं मिलेगा।

वयस्क बच्चों से ऐसी अपेक्षाएँ रखने के अलावा, माता-पिता अपने बच्चों से एक ऐसी अपेक्षा रखते हैं जोकि दुनिया भर के माता-पिताओं में एक-जैसी है, और वह यह उम्मीद है कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखेंगे और अपने माता-पिता से अच्छी तरह पेश आएँगे। बेशक, कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक समूहों और प्रांतों में बच्चों से और ज्यादा खास अपेक्षाएँ रखी जाती हैं। मिसाल के तौर पर, बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखने के अलावा, अपने माता-पिता की अंतिम समय तक देखभाल कर उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था भी करनी होती है, वयस्क होने के बाद अपने माता-पिता के साथ रहना पड़ता है, और उनके जीवनयापन की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। अपनी संतान के प्रति माता-पिता की अपेक्षाओं का यह अंतिम पहलू है जिस पर अब हम चर्चा करेंगे—यह माँग करना कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें, और बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें। क्या सभी माता-पिता बच्चों को जन्म देने के पीछे यही मूल मंशा नहीं रखते और साथ ही अपने बच्चों से यही बुनियादी अपेक्षा नहीं रखते? (हाँ, जरूर।) जब बच्चे छोटे होते हैं और चीजें नहीं समझते, तभी माता-पिता उनसे पूछते हैं : “जब तुम बड़े होकर पैसे कमाओगे, तो तुम किस पर खर्च करोगे? क्या मम्मी-डैडी पर खर्च करोगे?” “हाँ।” “क्या डैडी के माता-पिता पर खर्च करोगे?” “हाँ।” “क्या तुम मम्मी के माता-पिता पर खर्च करोगे?” “हाँ।” कोई बच्चा कुल कितना कमा सकता है? उसे अपने माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी और अपने दूर के रिश्तेदारों को भी सहारा देना है। मुझे बताओ, क्या किसी बच्चे पर यह भारी बोझ नहीं है, क्या वह दुर्भाग्यशाली नहीं है? (हाँ।) हालाँकि वे बच्चों की ही तरह मासूम और नादान ढंग से बोलते हैं और नहीं जानते कि वे वास्तव में क्या बोल रहे हैं, यह एक विशेष वास्तविकता दिखाता है कि माता-पिता अपने बच्चों को एक प्रयोजन से पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, और वह प्रयोजन न तो शुद्ध है और न ही सरल। जब उनके बच्चे बहुत छोट होते हैं, तभी माता-पिता माँगें तय करना शुरू कर देते हैं, और हमेशा यह पूछकर उनकी परीक्षा लेते रहते हैं, “जब तुम बड़े हो जाओगे, तो क्या मम्मी-डैडी को सहारा दोगे?” “हाँ।” “क्या तुम डैडी के माता-पिता को सहारा दोगे?” “हाँ।” “क्या तुम मम्मी के माता-पिता को सहारा दोगे?” “हाँ।” “तुम्हें सबसे ज्यादा कौन पसंद है?” “मुझे मम्मी सबसे ज्यादा पसंद है।” फिर डैड को जलन होती है, “डैडी का क्या?” “मुझे डैडी सबसे ज्यादा पसंद हैं।” तो मम्मी को जलन होती है, “तुम सचमुच किसे सबसे ज्यादा पसंद करते हो?” “मम्मी और डैडी।” तब दोनों माता-पिता संतुष्ट हो जाते हैं। वे प्रयत्न करते हैं कि उनके बच्चे बोलना सीखते ही संतानोचित निष्ठा रखने लगें, और उम्मीद करते हैं कि बड़े होकर वे उनसे अच्छी तरह पेश आएँगे। हालाँकि ये बच्चे खुद को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाते, और ज्यादा कुछ समझ नहीं पाते, फिर भी माता-पिता अपने बच्चों के जवाबों में एक वायदा सुनना चाहते हैं। साथ-ही-साथ वे अपने बच्चों में अपना भविष्य भी देखना चाहते हैं, और उम्मीद करते हैं कि जिन बच्चों को वे पाल-पोस कर बड़ा कर रहे हैं वे कृतघ्न नहीं होंगे, बल्कि संतानोचित धर्मनिष्ठ बच्चे बनेंगे जो उनकी जिम्मेदारी उठाएंगे, और उससे भी ज्यादा जिन पर वे भरोसा कर सकेंगे और जो बुढ़ापे में उन्हें सहारा देंगे। हालाँकि वे ये सवाल अपने बच्चों से बचपन से ही पूछते रहे हैं, पर ये सवाल सरल नहीं हैं। ये इन माता-पिता के दिलों की गहराई से निकली संपूर्ण अपेक्षाएँ और आशाएँ हैं, अत्यंत वास्तविक अपेक्षाएँ और अत्यंत वास्तविक आशाएँ। तो जैसे ही उनके बच्चे चीजों की समझ हासिल करने लगते हैं, माता-पिता को आशा होने लगती है कि उनके बीमार होने पर बच्चे चिंता दिखाएँगे, उनके सिरहाने बैठेंगे और उनकी देखभाल करेंगे, भले ही यह उन्हें पीने के लिए पानी देना ही क्यों न हो। हालाँकि बच्चे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते, पैसों की या ज्यादा व्यावहारिक मदद नहीं कर सकते, फिर भी उन्हें इतनी संतानोचित निष्ठा का प्रदर्शन करना चाहिए। माता-पिता बच्चों के छोटे होने पर भी यह संतानोचित निष्ठा देखना चाहते हैं, और समय-समय पर इसकी पुष्टि करना चाहते हैं। मिसाल के तौर पर, जब माता-पिता की तबीयत ठीक न हो या वे काम से थक गए हों, तो वे यह देखना चाहते हैं कि क्या उनके बच्चे उनके लिए चाय-कॉफी लाना, जूते लाना, उनके कपड़े धोना, या उनके लिए सरल-सा खाना बनाना या अंडा चावल बनाना जानते हैं, या क्या वे अपने माता-पिता से पूछते हैं, “क्या आप थक गए हैं? अगर हाँ, तो मैं आपके खाने के लिए कुछ बना देता हूँ।” कुछ माता-पिता छुट्टियों के दौरान बाहर चले जाते हैं और जान-बूझ कर खाने के वक्त खाना बनाने के लिए घर नहीं पहुँचते, बस यह देखने के लिए कि क्या उनके बच्चे बड़े और समझदार हो गए हैं, क्या वे उनके लिए खाना बनाना जानते हैं, क्या वे संतानोचित निष्ठा का पालन करना और विचारशील होना जानते हैं, क्या वे उनकी मुश्किलें बाँट सकते हैं या फिर वे बेदर्द कृतघ्न हैं, क्या उन्होंने उन्हें बेकार ही बड़ा किया। बच्चों के बड़े होते समय और वयस्क अवस्था में भी उनके माता-पिता निरंतर उनकी परीक्षा लेते हुए इस मामले में ताक-झाँक करते रहते हैं, और साथ-ही-साथ वे अपने बच्चों से निरंतर माँगें करते रहते हैं, “तुझे ऐसा बेदर्द कृतघ्न नहीं होना चाहिए। हम, तेरे माता-पिता ने, तुझे पाल-पोस कर बड़ा क्यों किया? इसलिए कि हमारे बूढ़े हो जाने पर तू हमारी देखभाल करेगा। क्या हमने तुझे बेकार ही बड़ा किया? तुझे हमारी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तुझे बड़ा करना हमारे लिए आसान नहीं था। यह कड़ी मेहनत का काम था। तुझे विचारशील होकर ये चीजें जाननी चाहिए।” खास तौर से तथाकथित विद्रोहपूर्ण दौर में, यानी किशोरावस्था से वयस्क अवस्था में आते समय कुछ बच्चे ज्यादा समझदार या विवेकशील नहीं होते और अक्सर अपने माता-पिता की उपेक्षा करते हैं, मुसीबत पैदा करते हैं। उनके माता-पिता रोते हैं, तमाशा करते हैं, और यह कहकर उनका सिर खाते हैं, “तू नहीं जानता, तेरे बचपन में तेरी देखभाल करने के लिए हमने कितने कष्ट सहे! हमें उम्मीद नहीं थी कि तू यूँ बड़ा होगा, बिल्कुल भी संतानोचित निष्ठा नहीं है, घरेलू रोजमर्रा के कामों या हमारी मुश्किलों का बोझ बाँटने के बारे में तू बिल्कुल अनजान है। तू नहीं जानता हमारे लिए यह सब कितना मुश्किल है। तू संतानोचित निष्ठा नहीं रखता, उपेक्षापूर्ण है, अच्छा इंसान नहीं है!” अवज्ञाकारी होने या पढ़ाई या दैनिक जीवन में उग्र व्यवहार दिखाने के लिए अपने बच्चों पर नाराज होने के अलावा, माता-पिता के गुस्से का एक और कारण यह है कि वे अपने बच्चों में अपना भविष्य नहीं देख सकते, या वे देखते हैं कि उनके बच्चे भविष्य में संतानोचित निष्ठा नहीं दिखाएँगे, वे विचारशील नहीं हैं, न ही अपने माता-पिता के लिए दुखी होते हैं, वे अपने माता-पिता को अपने दिलों में नहीं बसाते, या और सटीक ढंग से कहें तो वे जाकर माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाना नहीं जानते। तो माता-पिता की दृष्टि से ऐसे बच्चों से कोई उम्मीद नहीं रखी जा सकती : वे कृतघ्न या उपेक्षापूर्ण हो सकते हैं, और उनके माता-पिता अत्यंत दुखी हो जाते हैं, उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने बच्चों की खातिर जो निवेश या खर्च किए वह बेकार था, उन्होंने बुरा सौदा किया, वह इस लायक नहीं था, वे पछताते हैं, दुखी होते हैं, संतप्त और व्यथित होते हैं। लेकिन वे किया हुआ खर्च वापस नहीं पा सकते, और जितना वे वापस नहीं ले पाते उन्हें उतना ही पछतावा होता है, वे उतना ही यह कहकर माँगना चाहते हैं कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा दिखाएँ, “क्या तू थोड़ी संतानोचित निष्ठा नहीं दिखा सकता? क्या तू थोड़ा समझदार नहीं हो सकता? क्या तेरे बड़े होने पर हम तुझ पर भरोसा कर पाएँगे?” मिसाल के तौर पर, मान लो कि माता-पिता को पैसों की जरूरत हो, और बिन माँगे ही बच्चे उनके लिए पैसे ला कर दे दें। मान लो कि माता-पिता मटन या कुछ लजीज और पोषक खाना चाहते हों, और वे इस बारे में कुछ न बोलें, फिर भी उनके बच्चे उनके लिए वैसा ही खाना घर ले आएँ। ये बच्चे अपने माता-पिता के प्रति खास तौर पर विचारशील हैं—वे काम में चाहे जितने भी व्यस्त हों, या उनका पारिवारिक बोझ जितना भी ज्यादा हो—वे हमेशा अपने माता-पिता का ख्याल रखते हैं। फिर उनके माता-पिता सोचेंगे, “आह, हम अपने बच्चों पर भरोसा कर सकते हैं, वे आखिरकार बड़े हो गए हैं, उन्हें पाल-पोस कर बड़ा करने में खर्च की गई पूरी ऊर्जा इस लायक थी, उन पर किया गया खर्च इस योग्य था, हमें अपने निवेश का प्रतिलाभ मिला है।” लेकिन अगर बच्चे माता-पिता की अपेक्षा से थोड़ा भी कम करते हैं, तो वे इस आधार पर उन्हें आँकने लगेंगे कि उनमें कितनी संतानोचित निष्ठा है, वे तय कर देते हैं कि उनमें संतानोचित निष्ठा नहीं है, वे अविश्वसनीय हैं, कृतघ्न हैं और उन्होंने उन्हें बेकार में ही पाल-पोस कर बड़ा किया।

कुछ ऐसे भी माता-पिता हैं जो कभी-कभी काम में या कुछ छिटपुट चीजों में व्यस्त रहते हैं, और थोड़ा देर से घर आने पर वे देखते हैं कि उनके बच्चों ने रात का खाना बना लिया है और उनके लिए कुछ भी नहीं बचाया है। ये युवा अब तक उस उम्र के नहीं हुए हैं, वे शायद इस बारे में नहीं सोचते या यह करने की उन्हें आदत नहीं है, या हो सकता है कुछ लोगों में बस उस मानवता की कमी हो, और वे दूसरों के प्रति विचारशीलता या परवाह न दिखा पाते हों। हो सकता है वे अपने माता-पिता से प्रभावित हुए हों, या उनकी मानवता सहज ही स्वार्थी हो, इसलिए वे अपने लिए ही खाना बना कर खा लेते हैं, अपने माता-पिता के लिए नहीं रखते या खाना थोड़ा ज्यादा नहीं बनाते। जब माता-पिता घर आकर यह देखते हैं, तो उन्हें गहरा आघात लगता है, वे परेशान हो जाते हैं। वे किस बात को लेकर परेशान हैं? वे सोचते हैं कि उनके बच्चों में न तो संतानोचित निष्ठा है, न ही वे समझदार हैं। खास तौर से एकल माताएँ : जब वे अपने बच्चों को ऐसा बर्ताव करते हुए देखती हैं तो और ज्यादा परेशान हो जाती हैं। वे रोने-चिल्लाने लगती हैं, “तू सोचती है तुझे इतने साल पाल-पोस कर बड़ा करना मेरे लिए आसान था? इतने साल तुझे बड़ा करते हुए मैं तेरी माँ और पिता दोनों थी। मैं कड़ी मेहनत करती हूँ, और जब घर आती हूँ तो तू मेरे लिए खाना तक नहीं बनाती। एक कटोरा दलिया भी होता, गर्म न भी हो, फिर भी यह तेरे प्यार का अच्छा प्रदर्शन रहा होता। तू इस उम्र में भी यह कैसे नहीं समझती?” बच्चे नहीं समझते और उपयुक्त कार्य नहीं करते, लेकिन अगर तुम उनसे यह अपेक्षा न रखते तो क्या इतने नाराज होते? क्या इस मामले को इतनी गंभीरता से लेते? क्या इसे संतानोचित निष्ठा के एक मानदंड के रूप में लेते? अगर वे तुम्हारे लिए खाना न बनाएँ, तो तुम अभी भी अपने लिए बना सकते हो। अगर वे न होते, तो क्या तुम जीते नहीं रहते? अगर वे तुम्हारे प्रति संतानोचित निष्ठा नहीं रखते, तो क्या तुम्हें उन्हें जन्म नहीं देना चाहिए था? अगर वे सचमुच जीवन भर कभी भी तुम्हें सँजोना और तुम्हारी देखभाल करना न सीख पाएँ, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस मामले से सही ढंग से पेश आना चाहिए या इसे लेकर नाराज, परेशान और पछतावा करते रहना चाहिए, उनसे हमेशा भिड़े रहना चाहिए? क्या करना सही है? (मामले को सही दृष्टि से देखना।) कुल मिलाकर तुम अब भी नहीं जानते कि क्या करना है। अंत में, तुम बस लोगों से कहते हो, “बच्चे मत जनो। तुम जिस भी बच्चे को जन्म दोगे, पछताओगे। बच्चे पैदा करने या उन्हें पाल-पोस कर बड़ा करने में कुछ अच्छा नहीं होता। वे हमेशा बड़े होकर बेदिल कृतघ्न हो जाते हैं! बेहतर है खुद के साथ अच्छे हों, किसी से भी कोई उम्मीद न रखें। कोई भी भरोसेमंद नहीं है! सभी कहते हैं कि बच्चों पर भरोसा किया जा सकता है, लेकिन तुम किस पर भरोसा कर सकते हो? बात तो यह है कि वे तुम्हारे भरोसे रह सकते हैं। तुम सौ अलग-अलग तरीकों से उनसे लाड़-प्यार करते हो, लेकिन बदले में वे सोचते हैं कि तुम्हारे साथ थोड़ा-सा अच्छा व्यवहार करना ही बहुत बड़ी दयालुता है, और यह तुम्हारे साथ उचित व्यवहार करना माना जा सकता है।” क्या यह वक्तव्य गलत है? क्या यह समाज में मौजूद एक प्रकार की राय है, एक प्रकार का विचार या नजरिया है? (हाँ, जरूर है।) “सभी लोग कहते हैं कि बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने से तुम्हें बुढ़ापे में सहारा मिलता है। उनसे अपने लिए एक बार का खाना बनवाना भी आसान नहीं है, बुढ़ापे में सहारा मिलना तो दूर की बात है। उस पर भरोसा मत करो!” यह कैसा वक्तव्य है? क्या यह बस कुढ़ते हुए बहुत बड़बड़ाना नहीं है? (हाँ, जरूर है।) इस बड़बड़ का स्रोत क्या है? क्या यह नहीं कि माता-पिता की अपने बच्चों से अपेक्षाएँ बहुत ऊँची होती हैं? उन्होंने उनके लिए मानक और अपेक्षाएँ बना रखी हैं, वे माँग करते हैं कि वे संतानोचित निष्ठा रखें, विचारशील हों, जब वे बड़े हो जाएँ तो उनकी हर बात मानें, और वह सब करें जो संतानोचित निष्ठा रखने के लिए करना चाहिए और वह करें जो एक बच्चे को करना चाहिए। एक बार तुम ये माँगें और मानक तय कर दो, तो तुम्हारे बच्चे कुछ भी करें उनके लिए इन्हें पूरा करना असंभव होगा, और तुम बड़बड़ाते ही रहोगे और ढेरों शिकायतें लिए बैठे रहोगे। तुम्हारे बच्चे चाहे जो भी करें, तुम उन्हें जन्म देने पर पछताओगे, तुम्हें लगेगा कि फायदे के मुकाबले नुकसान ज्यादा हैं, और तुम्हारे निवेश पर कोई प्रतिलाभ नहीं है। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल।) क्या यह इसलिए नहीं है कि बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने का तुम्हारा लक्ष्य ही गलत है? (हाँ।) ऐसे नतीजे लाना सही है या गलत? (यह गलत है।) ऐसे नतीजे लाना गलत है, और स्पष्ट रूप से बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने का तुम्हारा शुरुआती लक्ष्य भी गलत था। बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करना अपने आप में इंसानों की एक जिम्मेदारी और दायित्व है। मूल रूप से यह मानवीय सहजज्ञान था, और बाद में यह एक दायित्व और जिम्मेदारी बन गया। बच्चों का अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखना या बुढापे में अपने माता-पिता को सहारा देना जरूरी नहीं है, और ऐसा नहीं है कि लोगों को वैसे ही बच्चे पैदा करने चाहिए जो संतानोचित निष्ठा रखते हों। इस लक्ष्य का उद्गम ही अशुद्ध है, इसलिए इसके कारण आखिरकार लोग ऐसे गलत विचार और नजरिये व्यक्त करते हैं : “हे परमेश्वर, कुछ भी करो मगर बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा मत करो।” चूँकि लक्ष्य अशुद्ध है, उसके परिणामस्वरूप आने वाले विचार और नजरिये भी गलत होते हैं। इसलिए क्या उन्हें सुधार कर जाने नहीं देना चाहिए? (बिल्कुल।) किसी को उसे कैसे जाने देना और सुधारना चाहिए? किस प्रकार का लक्ष्य शुद्ध होता है? कैसा विचार और नजरिया सही होता है? दूसरे शब्दों में, बच्चों से अपने रिश्ते को किस तरह सँभालना सही है? सबसे पहले बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने का चुनाव तुम्हारा है, तुमने स्वेच्छा से उन्हें जन्म दिया, और जन्म लेने में वे निष्क्रिय थे। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए संतान को जन्म देने के कार्य और जिम्मेदारी के अलावा, और परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने के अलावा, जो लोग माता-पिता हैं उनका व्यक्तिपरक कारण और आरंभ बिंदु यह है कि वे अपने बच्चों को जन्म देने के इच्छुक थे। अगर तुम बच्चे जनने के इच्छुक हो, तो तुम्हें उन्हें पाल-पोसकर और पोषण देकर बड़ा करना चाहिए, उन्हें स्वतंत्र बनने देना चाहिए। तुम बच्चे जनने के इच्छुक हो, और पहले ही उनको पाल-पोसकर बड़ा करने के द्वारा बहुत हासिल कर चुके हो—तुम्हें बहुत लाभ मिल चुका है। सबसे पहले तुमने अपने बच्चों के साथ जीते हुए बड़े उल्लासपूर्ण समय का आनंद लिया है, तुमने उनको पाल-पोसकर बड़ा करने की प्रक्रिया का भी आनंद लिया है। हालाँकि इस प्रक्रिया के अपने उतार-चढ़ाव थे, फिर भी ज्यादा कर के इसमें तुम्हें अपने बच्चों का साथ देने और उनके साथ जाने की भरपूर खुशी मिली है, जो कि मनुष्य होने की एक जरूरी प्रक्रिया है। तुमने इन चीजों का मजा लिया है, और तुम अपने बच्चों से पहले ही बहुत-कुछ हासिल कर चुके हो, क्या यह सही नहीं है? बच्चे अपने माता-पिता के लिए सुख और साहचर्य लेकर आते हैं, और वे माता-पिता ही हैं जो कीमत चुकाकर और अपने समय और ऊर्जा का निवेश कर इन नन्हे शिशुओं को धीरे-धीरे वयस्क होते देखने का मौका पाते हैं। बिल्कुल कुछ भी न जानने वाले नादान नन्हे शिशुओं के रूप में शुरू होकर, उनके बच्चे धीरे-धीरे बोलना सीखते हैं, शब्दों को साथ जोड़ने की काबिलियत हासिल कर लेते हैं, विविध ज्ञान पाकर उनमें भेद करना, माता-पिता से बातचीत और संवाद करना और मामलों को बराबरी के नजरिये से देखना सीख लेते हैं। माता-पिता इस प्रकार की प्रक्रिया से गुजरते हैं। उनकी इस प्रक्रिया का स्थान कोई भी दूसरी घटना या भूमिका नहीं ले सकती। माता-पिता पहले ही अपने बच्चों से इन चीजों का आनंद ले चुके हैं, इन्हें पा चुके हैं, जोकि उनके लिए एक बहुत बड़ी सांत्वना और पुरस्कार है। दरअसल, सिर्फ बच्चों को जन्म देने और उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने के कार्य से ही तुम पहले ही उनसे बहुत-कुछ हासिल कर चुके हो। तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति संतानोचित निष्ठा का पालन करेंगे या नहीं, क्या अपनी मृत्यु से पहले तुम उन पर भरोसा कर सकोगे, और तुम उनसे क्या प्राप्त कर सकोगे, ये चीजें इस बात पर निर्भर करती हैं कि क्या तुम लोगों का साथ रहना नियत है, और यह परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करता है। दूसरी ओर, तुम्हारे बच्चे कैसे माहौल में जीते हैं, उनके जीवनयापन की दशा कैसी है, क्या वे इस स्थिति में हैं कि तुम्हारी देखभाल कर सकें, क्या उनकी वित्तीय स्थिति ठीक है, क्या उनके पास तुम्हें भौतिक आनंद और सहायता देने के लिए अतिरिक्त धन है, ये भी परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करते हैं। इसके अलावा, माता-पिता के तौर पर व्यक्तिपरक ढंग से, क्या तुम्हारे भाग्य में है कि तुम अपने बच्चों द्वारा दी जाने वाली भौतिक वस्तुओं, धन या भावनात्मक आराम का आनंद लो, यह भी परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करता है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) ये वे चीजें नहीं हैं जिनकी इंसान माँग कर सकते हैं। देखो, कुछ बच्चे माता-पिता को पसंद नहीं होते, और माता-पिता उनके साथ रहने को तैयार नहीं होते, लेकिन परमेश्वर ने उनका अपने माता-पिता के साथ रहना नियत किया है, इसलिए वे ज्यादा दूर यात्रा नहीं कर सकते या अपने माता-पिता को नहीं छोड़ सकते। वे जीवन भर अपने माता-पिता के साथ ही फँसे रहते हैं—तुम कोशिश करके भी उन्हें दूर नहीं भगा सकते। दूसरी ओर, कुछ बच्चों के माता-पिता उनके साथ रहने के बहुत इच्छुक होते हैं; वे अलग नहीं किए जा सकते, हमेशा एक-दूसरे को याद करते हैं, लेकिन विविध कारणों से वे माता-पिता के शहर या उनके देश में नहीं रह पाते। उनके लिए एक-दूसरे को देखना और आपस में बात करना मुश्किल होता है; हालाँकि संचार के तरीके बहुत विकसित हो चुके हैं, और वीडियो संवाद भी संभव है, फिर भी यह दिन-रात साथ रहने से अलग है। चाहे जिस कारण से उनके बच्चे विदेश जाते हैं, शादी के बाद किसी दूसरी जगह काम करते या जीवनयापन करते हैं, वगैरह, इससे उनके और उनके माता-पिता के बीच एक बहुत बड़ा फासला आ जाता है। एक बार भी मिलना आसान नहीं होता और फोन या वीडियो कॉल करना समय पर निर्भर करता है। समय के अंतर या दूसरी असुविधाओं के कारण वे अपने माता-पिता से अक्सर संवाद नहीं कर पाते। ये बड़े पहलू किससे संबंधित हैं? क्या ये सब परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने से संबद्ध नहीं हैं? (हाँ।) यह ऐसी चीज नहीं है जिसका फैसला माता-पिता या बच्चे की व्यक्तिपरक इच्छाओं से किया जा सकता है; सबसे बढ़कर यह परमेश्वर द्वारा नियत किए जाने पर निर्भर करता है। दूसरी ओर, माता-पिता को चिंता होती है कि क्या वे भविष्य में अपने बच्चों पर भरोसा कर सकेंगे। तुम उनपर किसलिए भरोसा करना चाहते हो? चाय लाने और पानी देने के लिए? यह कैसी निर्भरता है? क्या तुम खुद यह नहीं कर सकते? अगर तुम स्वस्थ हो और चल-फिरकर अपनी देखभाल कर सकते हो, अपने तमाम काम खुद कर सकते हो, तो क्या यह बढ़िया नहीं है? तुम्हें अपनी सेवा के लिए दूसरों के भरोसे रहने की जरूरत क्यों है? क्या अपने बच्चों की देखभाल और साथ का आनंद लेना, और खाने की मेज और दूसरी जगहों पर उनका तुम्हारी सेवा करना सचमुच में खुशी की बात है? जरूरी नहीं। अगर तुम चल-फिर नहीं सकते, और उन्हें सचमुच खाने की मेज और अन्य जगहों पर तुम्हारी सेवा करनी पड़ रही है, तो क्या यह तुम्हारे लिए खुशी की बात है? अगर तुम्हें विकल्प दिया जाए, तो तुम क्या चुनोगे, यह कि तुम स्वस्थ रहो और तुम्हें अपने बच्चों की देखभाल की जरूरत न पड़े, या यह कि तुम लकवे से बिस्तर पर पड़े रहो और तुम्हारे बच्चे तुम्हारे सिरहाने रहें? तुम किसे चुनोगे? (स्वस्थ होना।) स्वस्थ रहना बहुत-बहुत बेहतर है। चाहे तुम 80, 90 या 100 साल तक भी जियो, तुम खुद अपनी देखभाल कर सकते हो। यह जीवन की अच्छी गुणवत्ता है। भले ही तुम बूढ़े हो जाओ, तुम्हारा दिमाग उतना न चले, तुम्हारी याददाश्त कमजोर हो जाए, कम खाने लगो, काम धीरे-धीरे करो, अच्छे ढंग से न कर पाओ, और बाहर जाना उतना सुविधाजनक न हो, फिर भी यह बड़ी बात है कि तुम अपनी बुनियादी जरूरतों का खुद ख्याल रख पाते हो। कभी-कभी हेलो कहने के लिए अपने बच्चों से फोन आना या छुट्टियों के दौरान उनका घर आकर तुम्हारे साथ रहना काफी है। उनसे ज्यादा माँगने की क्या जरूरत है? तुम हमेशा अपने बच्चों के भरोसे रहते हो; क्या तुम तभी खुश होगे जब वे तुम्हारे गुलाम बन जाएँगे? क्या तुम्हारा इस तरह सोचना स्वार्थ नहीं है? तुम हमेशा माँग करते हो कि तुम्हारे बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें और तुम उन पर भरोसा कर सको—भरोसा करने के लिए क्या है? क्या तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भरोसे थे? अगर तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे भरोसे थे ही नहीं, तो तुम क्यों सोचते हो कि तुम्हें अपने बच्चों के भरोसे रहना चाहिए? क्या यह बेतुका नहीं है? (बिल्कुल।)

बच्चे अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, इस अपेक्षा के मामले में माता-पिता को एक ओर यह जानना चाहिए कि सब-कुछ परमेश्वर द्वारा आयोजित होता है और यह परमेश्वर के विधान पर निर्भर करता है। दूसरी ओर, लोगों को विवेकी होना चाहिए और बच्चों को जन्म दे कर माता-पिता को जीवन में सहज ही कुछ विशेष अनुभव होता है। उन्होंने अपने बच्चों से पहले ही बहुत-कुछ पा लिया है, और परवरिश करने का सुख-दुख समझ लिया है। यह प्रक्रिया उनके जीवन का समृद्ध अनुभव है, और बेशक यह एक यादगार अनुभव भी है। यह उनकी मानवता में मौजूद कमियों और अज्ञान की भरपाई करता है। बतौर माता-पिता अपने बच्चों के पालन-पोषण से उन्हें जो प्राप्त होना चाहिए वे पहले ही प्राप्त कर चुके हैं। अगर वे इससे संतुष्ट न हों और माँग करें कि उनके बच्चे सहायकों या गुलामों की तरह उनकी सेवा करें, और अपेक्षा करें कि उनके पालन-पोषण के एवज में बच्चे उनके प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, उनका अंतिम संस्कार करें, उन्हें ताबूत में रखें, घर में उनके शव को सड़ने से बचाएँ, उनके मरने पर उनके लिए जोरों से रोएँ, तीन साल तक उनके लिए शोक मनाएँ, आदि, उनके बच्चे इस तरह उनका कर्ज चुकाएँ, तो यह अनुचित और अमानवीय हो जाता है। देखो, लोगों को उनके माता-पिता से पेश आने का तरीका सिखाने के संदर्भ में परमेश्वर बस इतनी अपेक्षा रखता है कि वे अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, और बिल्कुल अपेक्षा नहीं रखता कि मृत्यु होने तक वे माता-पिता को सहारा दें। परमेश्वर लोगों को यह जिम्मेदारी और दायित्व नहीं देता—उसने कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा। परमेश्वर केवल बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखने का परामर्श देता है। माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखना एक विशाल दायरे वाला सामान्य वक्तव्य है। आज अगर हम इस बारे में विशिष्ट अर्थ में बात करें तो इसका अर्थ है अपनी काबिलियत और हालात के अंदर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करना—यह काफी है। इतनी सरल बात है, बच्चों से बस यही एकमात्र अपेक्षा है। तो माता-पिता को यह बात कैसे समझनी चाहिए? परमेश्वर यह माँग नहीं करता कि “बच्चों को माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करनी चाहिए, और उन्हें विदा करना चाहिए।” इसलिए, जो माता-पिता हैं उन्हें अपना स्वार्थ छोड़ देना चाहिए और अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि उनके बच्चों की हर बात सिर्फ इसलिए उनसे जुड़ी होगी क्योंकि उन्होंने उन्हें जन्म दिया। अगर बच्चे अपने माता-पिता के आसपास नहीं मंडराते और उन्हें अपने जीवन का केंद्र नहीं मानते, तो माता-पिता के लिए यह ठीक नहीं कि वे उन्हें निरंतर डाँटते रहें, उनके जमीर को परेशान करें, और ऐसी बातें कहें, “तू कृतघ्न है, तुझमें संतानोचित निष्ठा नहीं है, बात नहीं मानता, और इतने समय तक तेरी परवरिश करके भी मैं तुझ पर भरोसा नहीं कर सकता,” हमेशा अपने बच्चों को इस तरह डाँटते रहना और उन पर बोझ डालना ठीक नहीं है। यह माँग करना कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें और उनके साथ रहें, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, फिर मृत्यु होने पर दफनाएं, और जहाँ भी जाएँ हमेशा उनके बारे में सोचते रहें, सहज रूप से यह काम करने का गलत रास्ता है, एक अमानवीय सोच और विचार है। शायद ऐसी सोच कमोबेश अलग-अलग देशों या अलग-अलग विशिष्ट सांस्कृतिक समूहों में हो, लेकिन पारंपरिक चीनी संस्कृति पर गौर करें तो चीनी लोग खास तौर से संतानोचित निष्ठा पर जोर देते हैं। प्राचीन काल से वर्तमान तक, लोगों की मानवता के हिस्से और किसी के अच्छे-बुरे होने की माप के मानक के रूप में इस पर हमेशा चर्चा होती रही है। बेशक, समाज में, एक सामान्य प्रथा और लोकमत भी है कि अगर बच्चे संतानोचित निष्ठा नहीं रखते, तो उनके माता-पिता भी शर्मिंदा महसूस करेंगे, और बच्चे अपने नाम पर यह कलंक सह नहीं पाएँगे। विविध कारकों के प्रभाव में माता-पिता भी इस पारंपरिक सोच से गहराई से विषाक्त हो जाते हैं, और बिना सोचे-जाने माँग करते हैं कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें। बच्चों के पालन-पोषण का क्या तुक है? यह तुम्हारे अपने प्रयोजनों के लिए नहीं है, बल्कि एक जिम्मेदारी और दायित्व है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। एक पहलू यह है कि बच्चों का पालन-पोषण करना मानवीय सहज ज्ञान से संबंधित है, जबकि दूसरा यह है कि यह इंसानी जिम्मेदारी का अंश है। तुम सहज ज्ञान और जिम्मेदारी के कारण बच्चों को जन्म देते हो, इस खातिर नहीं कि तुम अपने बुढ़ापे की तैयारी करो और बुढ़ापे में तुम्हारी देखभाल हो। क्या यह दृष्टिकोण सही नहीं है? (बिल्कुल।) क्या जिन लोगों के बच्चे नहीं हैं, वे बूढ़े होने से बच सकते हैं? क्या बूढ़े होने का अर्थ अनिवार्य रूप से दुखी होना है? जरूरी नहीं है, है ना? जिन लोगों के बच्चे नहीं हैं वे भी बुढ़ापे तक जी सकते हैं, कुछ तो स्वस्थ भी रहते हैं, अपने बुढ़ापे का आनंद लेते हैं, और शांति से कब्र में चले जाते हैं। क्या बच्चों वाले लोग निश्चित रूप से अपने बुढ़ापे में खुश और सेहतमंद रहने का आनंद लेते हैं? (जरूरी नहीं।) इसलिए, उम्र-दराज माता-पिता की सेहत, खुशी और जीवन स्थिति, साथ ही उनके भौतिक जीवन की गुणवत्ता का उनके बच्चों के उनके प्रति संतानोचित निष्ठा रखने से बहुत कम ही लेना-देना होता है, और दोनों के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता। तुम्हारी जीने की स्थिति, जीवन की गुणवत्ता, और बुढ़ापे में शारीरिक दशा का संबंध उससे होता है, जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए नियत किया है, और जो जीने का माहौल व्यवस्थित किया है, इनका तुम्हारे बच्चों के संतानोचित निष्ठा रखने से कोई सीधा संबंध नहीं होता। तुम्हारे बुढ़ापे में तुम्हारी जीने की हालत की जिम्मेदारी उठाने को तुम्हारे बच्चे बाध्य नहीं हैं। क्या यह सही नहीं है? (बिल्कुल।) इसलिए, अपने माता-पिता के प्रति बच्चों का रवैया चाहे जैसा हो, चाहे वे उनकी देखभाल करना चाहें, या उसे ठीक से न करें, या उनकी बिल्कुल ही देखभाल न करना चाहें, यह बच्चों के तौर पर उनका अपना रवैया है। चलो, अभी के लिए बच्चों के नजरिये से बोलना छोड़कर सिर्फ माता-पिता के नजरिये से बोलें। माता-पिता को यह माँग नहीं करनी चाहिए कि उनके बच्चे संतानोचित निष्ठा रखें, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, और अपने माता-पिता की उम्र-दराज जिंदगी का बोझ उठाएँ—इसकी कोई जरूरत नहीं है। एक ओर यह वह रवैया है जो माता-पिता को अपने बच्चों के प्रति रखना चाहिए, और दूसरी ओर, यह वह आत्म-सम्मान है जो माता-पिता में होना चाहिए। बेशक, एक और भी महत्वपूर्ण पहलू है : यह वह सिद्धांत है जिसका सृजित प्राणियों के रूप में माता-पिता को अपने बच्चों से पेश आते समय पालन करना चाहिए। अगर तुम्हारे बच्चे चौकस हों, संतानोचित निष्ठा रखते हों, और तुम्हारी देखभाल करने को तैयार हों, तो तुम्हें उन्हें मना करने की जरूरत नहीं है; अगर वे अनिच्छुक हों, तो तुम्हें दिन भर रोते-सुबकते नहीं रहना चाहिए, दिल से परेशान और असंतुष्ट महसूस नहीं करना चाहिए, या अपने बच्चों के खिलाफ दुर्भावना नहीं रखनी चाहिए। तुम्हें अपने जीवन और जीवित रहने की जिम्मेदारी और बोझ खुद उठाना चाहिए, और इसे दूसरों, खास तौर से अपने बच्चों पर नहीं डालना चाहिए। तुम्हें अपने बच्चों के साथ या सहायता के बगैर खुद सक्रियता और सही ढंग से अपने जीवन का सामना करना चाहिए, और अपने बच्चों से दूर होने पर भी तुम्हें जीवन में आई तमाम चीजों का अपने आप सामना करना चाहिए। बेशक, अगर तुम्हें अपने बच्चों से अनिवार्य मदद की जरूरत हो, तो तुम उनसे इसका आग्रह कर सकते हो, लेकिन यह इस विचार पर आधारित नहीं होना चाहिए कि तुम्हारे बच्चों को तुम्हारे प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए या तुम्हें उनके भरोसे रहना चाहिए। इसके बजाय, दोनों को अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने के नजरिये से एक-दूसरे के लिए काम सँभालने चाहिए, ताकि माता-पिता और बच्चे के बीच के रिश्ते को तर्कपूर्ण ढंग से संभाल सकें। बेशक, अगर दोनों पक्ष तर्कपूर्ण हों, एक-दूसरे को स्थान दें, एक-दूसरे का सम्मान करें, तो अंत में वे यकीनन बेहतर ढंग से सद्भावना के साथ मिल-जुलकर रह सकेंगे, इस पारिवारिक स्नेह को सँजो सकेंगे, एक-दूसरे के लिए अपनी परवाह, चिंता और प्रेम को सँजो सकेंगे। बेशक, आपसी सम्मान और समझ के आधार पर ये काम करना ज्यादा मानवीय और उचित है। क्या बात ऐसी नहीं है? (हाँ, है।) जब बच्चे अपनी जिम्मेदारियों को सही दृष्टि से देख सकें और पूरा कर सकें, और बतौर उनके माता-पिता तुम अपने बच्चों से कोई बहुत ज्यादा या असंगत माँगें नहीं करते, तो तुम पाओगे कि उनका किया हुआ हर काम बहुत स्वाभाविक और सामान्य है, और तुम सोचोगे कि यह बहुत बढ़िया है। तुम पहले की तरह उनके साथ आलोचनात्मक दृष्टि से पेश नहीं आओगे, उनके हर काम को अप्रिय, गलत या परवरिश का कर्ज चुकाने के लिए नाकाफी नहीं मानोगे। इसके विपरीत तुम हर चीज का सही रवैये के साथ सामना करोगे, अपने बच्चों से तुम्हें मिले साथ और उनकी संतानोचित निष्ठा के लिए परमेश्वर का आभार मानोगे, और सोचोगे कि तुम्हारे बच्चे बहुत अच्छे हैं, मानवीय हैं। अगर तुम्हें बच्चों का साथ और संतानोचित निष्ठा न भी मिले, तो तुम परमेश्वर को दोष नहीं दोगे, न ही उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने पर पछताओगे, उनसे घृणा करना तो दूर की बात है। संक्षेप में कहें, तो माता-पिता के लिए यह सर्वोपरि है कि उनके प्रति उनके बच्चों का रवैया चाहे जैसा भी हो उसका वे सही ढंग से सामना करें। इसका सही ढंग से सामना करने का अर्थ है कि वे उनसे अत्यधिक माँगें न करें, उनके प्रति अतिरेकी व्यवहार न करें, और उनके हर काम की अमानवीय या नकारात्मक आलोचना कर उसके बारे में राय न बनाएँ। इस प्रकार, तुम आत्मसम्मान के साथ जीना शुरू कर दोगे। बतौर माता-पिता अपनी क्षमता, हालात और निस्संदेह परमेश्वर के विधान के अनुसार, तुम्हें परमेश्वर द्वारा दी गई हर चीज का आनंद लेना चाहिए, और अगर वह तुम्हें कुछ न दे, तो भी तुम्हें परमेश्वर का धन्यवाद कर उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्हें यह कहकर दूसरों से अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए, “अमुक व्यक्ति के परिवार को देखो, उनका बच्चा संतानोचित निष्ठा रखता है, हमेशा अपने माता-पिता को गाड़ी में घुमाता है, और दक्षिणी प्रांतों में छुट्टियों पर ले जाता है। वे जब भी लौट कर आते हैं, ढेरों छोटे-बड़े बैग लाते हैं। वह बच्चा संतान होने का फर्ज निभाता है! उनके बच्चे को देखो, उस पर वे भरोसा कर सकते हैं। बुढ़ापे में देखभाल करने के लिए तुम्हें उस जैसे बेटे की परवरिश करनी चाहिए। अब हमारे बेटे को देखो : वह खाली हाथ घर आता है, हमारे लिए कभी कुछ नहीं खरीदता; न सिर्फ वह खाली हाथ होता है, बल्कि घर भी कभी-कभी ही आता है। अगर मैं उसे न बुलाऊँ, तो वह घर आता ही नहीं। लेकिन एक बार घर लौट आए तो उसे बस खाना-पीना ही चाहिए, वह कोई काम भी नहीं करना चाहता।” चूँकि बात ऐसी है इसलिए उसे घर वापस मत बुलाओ। अगर तुम उसे घर वापस बुलाते हो, तो क्या तुम दुखी होना नहीं चाह रहे हो? तुम जानते हो कि वह घर आएगा तो बस मुफ्त की रोटी तोड़ेगा, तो फिर उसे क्यों बुलाना? अगर ऐसा करने के पीछे तुम्हारी कोई मंशा न हो, क्या फिर भी तुम उसे घर बुलाओगे? क्या यह इसलिए नहीं कि तुम खुद को गिरा रहे हो और स्वार्थी हो रहे हो? तुम हमेशा उस पर भरोसा करना चाहते हो, इस उम्मीद से कि उसे पाल-पोसकर बड़ा करना बेकार नहीं था, यह उम्मीद करना कि तुमने खुद जिसे पाला-पोसा वह शायद बेदर्द कृतघ्न न हो। तुम हमेशा यह साबित करना चाहते हो कि तुमने जिसकी परवरिश की वह बेदर्द कृतघ्न नहीं है, तुम्हारा बच्चा संतानोचित निष्ठा रखता है। यह साबित करने का क्या लाभ? क्या तुम अपना जीवन अच्छे ढंग से नहीं जी सकते? क्या तुम बच्चों के बिना नहीं जी सकते? (हाँ।) तुम जी सकते हो। ऐसे बहुत-से उदाहरण हैं, हैं कि नहीं?

कुछ लोग यह कहकर एक सड़ी हुई और पुरानी धारणा से चिपके रहते हैं, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या लोग इसलिए बच्चे जनते हैं कि वे उनके प्रति संतानोचित निष्ठा रखें, न ही इससे कि जब वे जीवित हों तो उनके बच्चे उनके प्रति संतानोचित निष्ठा रखते हैं या नहीं, लेकिन उनके मर जाने पर, उनके बच्चों को उनकी ताबूत को कंधा देना ही चाहिए। अगर उनके बच्चे उनके साथ न हों, तो उनके मरने की किसी को खबर नहीं होगी और उनका शव उनके घर में सड़ता रहेगा।” अगर कोई न जान सके तो क्या? जब तुम मर जाते हो तो मृत हो, अब किसी भी चीज के बारे में सचेत नहीं हो। तुम्हारे शरीर के मर जाने पर तुम्हारी आत्मा तुरंत उसे छोड़ देती है। मृत्यु के बाद शरीर चाहे जहाँ भी हो, या जैसा भी दिखे, वह तो मृत ही रहेगा ना? भले ही इसे शानदार अंत्येष्टि के लिए ताबूत में ले जाया जाए और जमीन में दफन कर दिया जाए, फिर भी शव तो सड़ेगा ही, है कि नहीं? लोग सोचते हैं, “तुम्हें ताबूत में रखने के लिए बच्चों का तुम्हारे साथ होना, उनका तुम्हें दफनाने वाले कपड़े पहनाना, मेकअप करना और शानदार अंत्येष्टि की व्यवस्था करना एक बड़ी अच्छी बात है। अगर तुम मर जाओ और कोई तुम्हारी अंत्येष्टि या अंतिम विदाई की व्यवस्था न करे, तो यूँ लगेगा मानो तुम्हारे संपूर्ण जीवन का उचित समापन नहीं हुआ।” क्या यह विचार सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) आजकल, युवा लोग इन चीजों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते, लेकिन अभी भी दूर-दराज की जगहों में ऐसे लोग हैं और थोड़ी-सी अंतर्दृष्टि वाले कुछ बूढ़े लोग हैं जिनके दिलों में यह सोच और नजरिया बैठा हुआ है कि बच्चों को अपने माता-पिता की बुढ़ापे में देखभाल करनी चाहिए और उन्हें विदा करना चाहिए। तुम सत्य के बारे में चाहे जैसे संगति करो, वे इसे स्वीकार नहीं करते—इसका अंतिम नतीजा क्या होता है? नतीजा यह होता है कि वे बहुत कष्ट सहते हैं। यह गाँठ उनके भीतर बहुत समय से दबी हुई है, और उनमें इसका जहर फैल जाएगा। इसे खोद कर बाहर निकाल देने पर उनमें इसका जहर नहीं रहेगा और उनका जीवन आजाद हो जाएगा। कोई भी गलत कर्म गलत विचारों के कारण होता है। अगर उन्हें अपने घर में मर जाने और सड़ जाने का डर है, तो वे हमेशा सोचते रहेंगे, “मुझे एक बेटे को पाल-पोसकर बड़ा करना है। उसके बड़े हो जाने पर मैं उसे ज्यादा दूर नहीं जाने दे सकता। मेरी मृत्यु के समय अगर वह मेरे पास न रहा तो क्या होगा? बुढ़ापे में मेरी देखभाल करने वाला या मुझे विदा करने वाला कोई न हुआ तो यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा पछतावा होगा! अगर मेरे लिए यह करने वाला कोई मेरे पास हुआ, तो मेरा जीवन बेकार नहीं हुआ होगा। यह एक पूर्ण जीवन होगा। कुछ भी हो जाए मैं अपने पड़ोसियों द्वारा उपहास का विषय नहीं बन सकता।” क्या यह एक सड़ी हुई विचारधारा नहीं है? (हाँ, जरूर है।) यह संकीर्ण और अधम सोच है, जो भौतिक शरीर को बहुत ज्यादा महत्त्व देती है! असल में, भौतिक शरीर बेकार होता है : जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु का अनुभव करने के बाद कुछ नहीं बचता। अगर लोगों ने जीवित रहते हुए सत्य प्राप्त कर लिया हो, तभी बचाए जाने पर वे सदा-सर्वदा जीवित रहेंगे। अगर तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया है, तो तुम्हारे शरीर के मर जाने और नष्ट हो जाने के बाद कुछ भी नहीं बचेगा; तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति चाहे जितने भी संतानोचित निष्ठा रखते हों, तुम इसका आनंद नहीं ले पाओगे। जब कोई व्यक्ति मर जाता है और उसके बच्चे उसके शव को ताबूत में रख कर दफना देते हैं, तो क्या वह बूढ़ा शव कुछ महसूस कर सकेगा? क्या वह कोई चीज समझ सकेगा? (नहीं, बिल्कुल नहीं।) उसमें लेश मात्र भी अनुभूति नहीं होती। लेकिन जीवन में, लोग इस मामले को बहुत महत्त्व देते हैं, अपने बच्चों से बहुत-सी माँगें करते हैं कि क्या वे उन्हें विदा कर सकेंगे—जोकि मूर्खता है, है कि नहीं? (हाँ, जरूर है।) कुछ बच्चे अपने माता-पिता से कहते हैं, “हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। जब तक आप लोग जीवित हैं, हम आपके प्रति संतानोचित निष्ठा रखेंगे, आपकी देखभाल करेंगे, आपकी सेवा करेंगे। लेकिन आपकी मृत्यु होने पर हम आपकी अंत्येष्टि की व्यवस्था नहीं करेंगे।” यह सुनकर माता-पिता नाराज हो जाते हैं। वे तुम्हारी और किसी बात पर नाराज नहीं होते, मगर जैसे ही तुम इसका जिक्र करते हो, वे यह कहकर फट पड़ते हैं, “तूने क्या कहा? नालायक, मैं तेरी टांगें तोड़ दूँगा! मैं तुझे पैदा ही न करता तो अच्छा रहता—मैं तुझे मार डालूँगा!” तुम्हारी और कोई बात उन्हें परेशान नहीं करती, सिर्फ यही करती है। उनके जीवन काल में उनके बच्चों के पास उनसे बढ़िया ढंग से पेश आने के कई मौके थे, लेकिन वे अड़े रहे कि वे अपने माता-पिता को अंतिम विदाई दें। फिर चूँकि उनके बच्चे परमेश्वर में विश्वास रखने लगे, इसलिए उन्होंने उनसे कहा, “आपकी मृत्यु होने पर हम आपका कोई संस्कार नहीं करेंगे : हम आपका दाह संस्कार कर देंगे और अस्थि-कलश रखने के लिए कोई जगह ढूँढ़ लेंगे। जब तक आप जीवित हैं तब तक हम आपको हमारे साथ होने के आशीष का आनंद लेने देंगे, हम आपको खाना-कपड़ा मुहैया करेंगे, आपके साथ कुछ गलत नहीं होने देंगे।” क्या यह यथार्थवादी नहीं है? माता-पिता जवाब देते हैं, “इन सबका कोई लाभ नहीं। मैं चाहता हूँ कि मेरे मरने के बाद तू मेरी अंत्येष्टि की व्यवस्था करे। अगर तू मेरे बुढ़ापे में मेरी देखभाल कर मुझे अंतिम विदाई नहीं देगा, तो मैं इस बात को कभी नहीं छोडूँगा!” जब कोई व्यक्ति इतना मूर्ख हो, तो वह ऐसा सरल तर्क नहीं समझ सकता, और तुम उन्हें चाहे जैसे भी समझाओ, वे समझ ही नहीं सकेंगे—वे एक पशु की तरह हैं। इसलिए, अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो बतौर माता-पिता सबसे पहले तुम्हें उन पारंपरिक, सड़े-गले, अधम विचारों और नजरियों को त्यागना होगा जो इससे जुड़े हैं कि तुम्हारे बच्चे संतानोचित धर्मनिष्ठ हैं या नहीं, बुढ़ापे में तुम्हारी देखभाल करेंगे या नहीं, और दफना कर तुम्हें अंतिम विदाई देंगे या नहीं और तुम्हें इस मामले को सही दृष्टि से देखना होगा। अगर तुम्हारे बच्चे तुम्हारे प्रति सचमुच संतानोचित हैं, तो इसे उचित ढंग से स्वीकार करो। लेकिन अगर तुम्हारे बच्चों के हालात ठीक न हों, उनमें तुम्हारे प्रति संतानोचित निष्ठा रखने और तुम्हारे बुढ़ापे में तुम्हारे सिरहाने बैठकर देखभाल करने या तुम्हें अंतिम विदाई देने की ऊर्जा या इच्छा न हो, तो तुम्हें इसकी माँग करने की या दुखी होने की जरूरत नहीं है। सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है। जन्म का अपना समय होता है, मृत्यु का अपना स्थान होता है, और लोग कहाँ जन्म लेंगे और कहाँ उनकी मृत्यु होगी, यह परमेश्वर द्वारा नियत है। भले ही तुम्हारे बच्चे यह कहकर कुछ वादे करें, “आपके मरने पर, मैं निश्चित रूप से आपके साथ रहूँगा; आपको कभी निराश नहीं करूँगा,” परमेश्वर ने ऐसे हालात आयोजित नहीं किए हैं। जब तुम मरने की कगार पर पहुँचोगे, तो हो सकता है तुम्हारे बच्चे तुम्हारे साथ न हों, वे कितनी भी कोशिश कर लें समय रहते पहुँच न पाएँ—आखिरी बार शायद वे तुम्हें न देख पाएँ। तुम्हारे आखिरी साँस लेने के बाद शायद चार-पाँच दिन हो जाएँ और तुम्हारा शव लगभग नष्ट हो जाए, तभी वे लौट कर आएँ। क्या उनके वादे किसी काम के हैं? वे अपने जीवन के भी विधाता नहीं हो सकते। मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ, मगर तुम इसे मानते ही नहीं। तुम अड़े रहते हो कि वे वादा करें। क्या उनके वादे किसी काम के हैं? तुम भ्रमों से संतुष्ट हो रहे हो, और सोचते हो कि तुम्हारे बच्चे अपने वादे के पक्के होंगे। क्या तुम सचमुच सोचते हो कि वे पक्के हो सकेंगे? नहीं हो सकेंगे। हर दिन वे कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे, उनके भविष्य में क्या होना है—ये चीजें वे खुद भी नहीं जानते। उनके वादे वास्तव में तुम्हें धोखा देने का काम कर रहे हैं, तुम्हें सुरक्षा की झूठी भावना दे रहे हैं, और तुम उन पर यकीन करते हो। तुम अभी भी यह नहीं समझ सकते कि किसी व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है।

माता-पिता और उनके बच्चों के भाग्य में कितना साथ रहना नियत है, और माता-पिता अपने बच्चों से कितना कुछ पा सकते हैं—गैर-विश्वासी इसे “सहायता पाना” या “सहायता न पाना” कहते हैं। हम इसका अर्थ नहीं जानते। आखिरकार, क्या कोई अपने बच्चों पर भरोसा कर सकता है, यह सरल शब्दों में कहें तो, परमेश्वर द्वारा नियत और विधित होता है। ऐसा नहीं है कि सब-कुछ तुम्हारी कामना के अनुसार होता है। बेशक, सभी चाहते हैं कि चीजें अच्छे ढंग से हों, और वे अपने बच्चों से लाभ पाएँ। लेकिन तुमने कभी यह क्यों नहीं सोचा कि यह तुम्हारे भाग्य में है या नहीं या तुम्हारी नियति में लिखा हुआ है या नहीं? तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के बीच का बंधन कितना लंबा चलेगा, जीवन में तुम जो भी काम करते हो क्या उसका तुम्हारे बच्चों से संबंध होगा, क्या परमेश्वर ने तुम्हारे बच्चों के लिए यह व्यवस्था की है कि वे तुम्हारे जीवन की अहम घटनाओं में सहभागी बनें, और क्या तुम्हारे जीवन में कोई बड़ी घटना होने पर इससे जुड़े लोगों में तुम्हारे बच्चे होंगे—ये सब परमेश्वर के विधान पर निर्भर करते हैं। अगर परमेश्वर के विधान में यह न हो, तो अपने बच्चों को पाल-पोसकर वयस्क बनाने के बाद भले ही तुम उन्हें घर से बाहर न खदेड़ो, समय आने पर वे खुद ही छोड़कर चले जाएँगे। यह ऐसी चीज है जो लोगों को समझनी चाहिए। अगर तुम यह बात नहीं समझते, तो हमेशा निजी आकांक्षाएँ और माँगें पकड़े रहोगे, और अपने शारीरिक आनंद की खातिर विविध नियम स्थापित कर विविध विचारधाराएँ स्वीकार करोगे। अंत में क्या होगा? जब तुम्हारी मृत्यु होगी तो पता चल जाएगा। तुमने अपने जीवनकाल में बहुत-सी मूर्खतापूर्ण चीजें की हैं, बहुत-सी अवास्तविक चीजों के बारे में सोचा है जो तथ्यों या परमेश्वर के विधान के अनुरूप नहीं हैं। अपनी मृत्युशय्या पर इन सबका एहसास करोगे तो क्या बहुत देर नहीं हो चुकी होगी? क्या स्थिति ऐसी नहीं है? (बिल्कुल।) जब तक तुम जीवित हो और तुम्हारा दिमाग संभ्रमित नहीं है, जब तक तुम कुछ खास सकारात्मक चीजों को समझाने में समर्थ हो, और शीघ्रता से उन्हें स्वीकार कर पाते हो, तब तक इसका फायदा उठाओ। उन्हें स्वीकार करने का अर्थ यह नहीं है कि तुम उन्हें विचारधारा के सिद्धांत या नारे में बदल दो, बल्कि यह है कि तुम ये चीजें करने की कोशिश करो और उनका अभ्यास करो। धीरे-धीरे अपने खुद के विचारों और स्वार्थी आकांक्षाओं को जाने दो, यह मत सोचो कि बतौर माता-पिता तुम जो भी करते हो वह सही और स्वीकार्य है, या तुम्हारे बच्चों को इसे स्वीकार करना ही चाहिए। इस प्रकार का तर्क संसार में कहीं भी मौजूद नहीं है। माता-पिता इंसान हैं—क्या उनके बच्चे नहीं हैं? बच्चे तुम्हारे अनुषंगी या गुलाम नहीं हैं; वे स्वतंत्र सृजित प्राणी हैं—वे संतानोचित हैं या नहीं इसका तुमसे क्या लेना-देना है? इसलिए, तुम लोग चाहे जैसे भी माता-पिता हो, तुम्हारे बच्चे जितने भी बड़े हों, या क्या वे तुम्हारे प्रति संतानोचित होने या स्वतंत्र रूप से जीने की उम्र के हो चुके हैं, बतौर माता-पिता तुम्हें ये विचार अपनाने चाहिए और अपने बच्चों से पेश आने को लेकर सही विचार और नजरिये स्थापित करने चाहिए। तुम्हें अति नहीं करनी चाहिए, न ही तुम्हें हर चीज को उन गलत, पतित या पुराने अप्रचलित विचारों और नजरियों से मापना चाहिए। वे विचार और नजरिये शायद मानवीय धारणाओं, मानवीय रुचियों और इंसानों की शारीरिक और भावनात्मक जरूरतों के अनुरूप हों, मगर वे सत्य नहीं हैं। तुम इन्हें उचित मानो या अनुचित, ये चीजें अंत में तुम्हारे लिए बस तरह-तरह की तकलीफें और बोझ ही ला सकती हैं, तुम्हें तरह-तरह की दुविधाओं में फँसा सकती हैं, और तुम्हें अपने बच्चों के सामने गर्ममिजाजी दिखाने पर मजबूर कर सकती हैं। तुम अपना तर्क बताओगे और वे अपना, और अंत में तुम दोनों एक-दूसरे से घृणा करोगे, एक-दूसरे को दोष दोगे। परिवार अब परिवार जैसा नहीं रह जाएगा : तुम एक-दूसरे के विरुद्ध होकर दुश्मन बन जाओगे। अगर सभी लोग सत्य, सही विचार और नजरिये स्वीकार कर लें, तो इन मामलों का सामना करना आसान हो जाएगा, और उनसे उपजने वाले विरोधाभास और विवाद दूर हो जाएँगे। लेकिन अगर वे पारंपरिक धारणाओं पर अड़े रहे, तो न सिर्फ समस्याएँ हल नहीं होंगी, बल्कि उनके विरोधाभास गहरा जाएँगे। पारंपरिक संस्कृति अपने-आप में मामलों के आकलन का मानदंड नहीं है। इसका मानवता से संबंध है, और लोगों के स्नेह, स्वार्थी आकांक्षाओं और गर्ममिजाजी जैसी दैहिक चीजें इसमें मिश्रित होती हैं। बेशक, एक और भी चीज है जो पारंपरिक संस्कृति के लिए सबसे अनिवार्य है और वह है दोगलापन। लोग अपने बच्चों के संतानोचित होने का प्रयोग यह साबित करने के लिए करते हैं कि उन्होंने उन्हें अच्छी शिक्षा दी और उनके बच्चों में मानवता है, इसी तरह बच्चे माता-पिता के प्रति संतानोचित होकर यह साबित करते हैं कि वे कृतघ्न नहीं बल्कि विनम्र, सादे भद्रपुरुष और महिलाएँ हैं, और इस तरह वे समाज में विविध प्रजातियों और समूहों में पाँव जमाकर इसे जीवित रहने का साधन बना लेते हैं। यह सहज रूप से पारंपरिक संस्कृति का सबसे पाखंडी और अनिवार्य पहलू है, और यह मामलों के आकलन का कोई मानदंड नहीं है। इसलिए माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों से रखी जाने वाली इन अपेक्षाओं को जाने दें और अपने बच्चों से पेश आने और अपने प्रति अपने बच्चों के रवैये को देखने के लिए सही विचारों और नजरियों का प्रयोग करें। अगर तुम्हारे पास सत्य नहीं है और तुम उसे नहीं समझते, तो कम-से-कम इसे मनुष्य होने के नजरिये से देखना चाहिए। इसे मनुष्य होने के नजरिये से कैसे देखा जाए? इस समाज में विविध समूहों, नौकरी के पदों और सामाजिक वर्गों में जीने वाले बच्चों का जीवन आसान नहीं होता। उन्हें अलग-अलग माहौल में चीजों का सामना कर उनसे निपटना पड़ता है। परमेश्वर द्वारा स्थापित उनका अपना जीवन और नियति होती है। जीवित रहने के उनके अपने तरीके भी होते हैं। बेशक, आधुनिक समाज में, किसी स्वतंत्र व्यक्ति पर पड़ने वाले दबाव भी बहुत भारी होते हैं। वे जीवित रहने, उच्च अधिकारियों और मातहतों के बीच रिश्तों, और बच्चों से जुड़ी समस्याएँ आदि झेलते हैं—इन सबका दबाव बहुत भारी होता है। सच कहें तो किसी के लिए भी आसान नहीं होता। खास तौर से आजकल के अराजक, तेज-गति माहौल में जहाँ हर कहीं स्पर्धा और खूनी संघर्ष का दौर है, किसी का भी जीवन आसान नहीं है—सभी का जीना दूभर है। मैं इस बारे में नहीं बोलूँगा कि यह सब कैसे हुआ। ऐसे माहौल में रहते हुए अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास न रखे और अपना कर्तव्य न निभाए तो उसके लिए कोई रास्ता नहीं रह जाता। उसका एकमात्र पथ संसार का अनुसरण करना है, खुद को जीवित रखना है, निरंतर इस संसार के अनुसार ढलना है, और प्रत्येक दिन गुजारने के लिए हर कीमत पर अपने भविष्य और जीवित रहने के लिए लड़ना है। असल में उनका हर दिन दुखदाई होता है, और वे हर दिन संघर्ष करते हैं। इसलिए, अगर माता-पिता अतिरिक्त माँगें करें कि उनके बच्चों को अमुक-अमुक काम करें, तो बेशक यह जले पर नमक छिड़कना होगा, उनके तन-मन को त्रस्त कर उन्हें सताना होगा। माता-पिता का अपना सामाजिक वर्ग, जीवनशैली और जीने का माहौल होता है, और बच्चों का भी अपना जीने का माहौल, स्थान और अपनी जीने की पृष्ठभूमि होती है। अगर माता-पिता बहुत ज्यादा दखल दें या अपने बच्चों से अत्यधिक माँगें करें, अपने बच्चों के लिए उन्होंने जो भी प्रयास किए उनका कर्ज चुकाने के लिए बच्चों को अमुक-अमुक काम करने को कहें; अगर तुम इसे इस नजरिये से देखो तो अत्यंत अमानवीय है, है कि नहीं? उनके बच्चे चाहे जैसे भी जिएँ या जीवित रहें या समाज में वे जिन भी मुश्किलों का सामना करें, उनके लिए कुछ भी करने की कोई जिम्मेदारी या दायित्व माता-पिता का नहीं होता। इसके अलावा, माता-पिता को अपने बच्चों के पेचीदा जीवन या जीने के मुश्किल हालात में और मुसीबतें या बोझ भी नहीं लादने चाहिए। यही वह है जो माता-पिता को करना चाहिए। अपने बच्चों से बहुत ज्यादा की माँग न करें, उन पर ज्यादा दोष न लगाएँ। तुम्हें उनके साथ निष्पक्ष और बराबरी से पेश आना चाहिए, उनकी स्थिति पर समवेदना से विचार करना चाहिए। बेशक, माता-पिता को अपना जीवन भी सँभालना चाहिए। बच्चे ऐसे माता-पिता का आदर करेंगे, और वे सम्मान के योग्य होंगे। बतौर माता-पिता अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखकर अपना कर्तव्य निभाते हो, तो परमेश्वर के घर में चाहे जो भी कर्तव्य निभाओ, तुम्हारे पास ऐसी माँगें करने के लिए वक्त नहीं होगा कि तुम्हारे बच्चे संतानोचित हों, और तुम बुढ़ापे में सहारे के लिए उन पर भरोसा नहीं रखोगे। अगर अभी भी ऐसे लोग हैं, तो वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं और वे यकीनन सत्य का अनुसरण करने वालों में नहीं हैं। वे सब बस भ्रमित लोग और छद्म-विश्वासी हैं। क्या बात ऐसी नहीं है? (हाँ, है।) अगर माता-पिता व्यस्त हैं, अगर उन्हें कर्तव्य निभाने हैं, और वे काम में व्यस्त हैं, तो उन्हें निश्चित रूप से यह बात नहीं उठानी चाहिए कि उनके बच्चे संतानोचित हैं या नहीं। अगर माता-पिता हमेशा यह कहकर यह विषय उठाते हैं, “मेरे बच्चे संतानोचित नहीं हैं : मैं उन पर भरोसा नहीं कर सकता, और वे बुढ़ापे में मेरा सहारा नहीं बन पाएँगे,” तो फिर वे बस अकर्मण्य और आलसी हैं, बेवजह मुसीबत तलाश रहे हैं। क्या स्थिति ऐसी नहीं है? ऐसे माता-पिता से सामना हो तो तुम्हें क्या करना चाहिए? उन्हें सबक सिखाओ। तुम्हें यह कैसे करना चाहिए? बस यह कहो, “क्या आप अपने दम पर जीने में असमर्थ हैं? क्या आप ऐसे मुकाम पर हैं कि आप खा-पी नहीं सकते? क्या आप ऐसे मुकाम पर आ चुके हैं कि जीवित नहीं रह सकते? अगर आप जी सकते हैं तो जिएँ; नहीं तो मर जाएँ!” क्या तुम ऐसा कुछ कहने की हिम्मत कर सकते हो? मुझे बताओ, क्या ऐसा कहना अमानवीय है? (मैं यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकता।) तुम यह कहने में असमर्थ हो, है कि नहीं? तुम ऐसा कहना बर्दाश्त नहीं कर सकते। (सही है।) जब तुम लोग थोड़े बड़े हो जाओगे, तब तुम कह सकोगे। अगर तुम्हारे माता-पिता ने बहुत-से गुस्सा दिलाने वाले काम किए हों, तब तुम यह कह सकोगे। वे तुम्हारे साथ सचमुच अच्छे थे, उन्होंने कभी तुम्हारा दिल नहीं दुखाया; अगर वे तुम्हारा दिल दुखाएँगे तो तुम यह कह पाओगे। क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल।) अगर वे हमेशा यह कहकर माँग करते हैं कि तुम घर आ जाओ, “ए कृतघ्न बेटे, घर आओ, मेरे लिए पैसे लाओ!” और हर दिन तुम्हें डांटें और श्राप दें, तो तुम ऐसा कह सकोगे। तुम कहोगे, “आप जी सकते हैं तो जिएँ; नहीं तो मर जाएँ! क्या आप बच्चों के बिना नहीं जी सकते? उन बेऔलाद उम्र-दराज लोगों को देखिए, क्या वे खुशहाल जिंदगी नहीं जी रहे हैं, वे काफी खुश नहीं हैं? वे हर दिन अपने जीवन की देखभाल करते हैं, अगर थोड़ा खाली वक्त हो, तो सैर करते हैं, अपने शरीर की कसरत करते हैं। हर दिन उनका जीवन बहुत संतृप्त दिखाई देता है। खुद को देखिए—आपको किसी चीज की कमी नहीं है, फिर आप क्यों नहीं जी सकते? आप खुद को गिरा रहे हैं, आप मर जाने योग्य हैं! क्या हमें आपके प्रति संतानोचित होना चाहिए? हम आपके गुलाम नहीं हैं, न ही आपकी निजी संपत्ति हैं। आपको खुद अपने पथ पर चलना चाहिए, हम यह जिम्मेदारी उठाने को बाध्य नहीं हैं। हमने आपको खाने, पहनने और इस्तेमाल करने के लिए काफी कुछ दिया है। आप बेकार की गड़बड़ क्यों कर रहे हैं? अगर आप गड़बड़ करते रहे, तो हम आपको किसी नर्सिंग होम में भेज देंगे!” ऐसे माता-पिता से यूँ ही निपटना चाहिए, है कि नहीं? तुम उन्हें बिगाड़ नहीं सकते। अगर उनके बच्चे उनकी देखभाल करने के लिए उनके पास न हों, तो वे दिन भर रोते-सुबकते रहते हैं, मानो आसमान गिर रहा हो, और वे जिंदा नहीं रह सकते। अगर वे जिंदा नहीं रह सकते, तो उन्हें मरने दो, उन्हें खुद देखने दो—लेकिन वे मरेंगे नहीं, वे अपने जीवन को काफी सँजोते हैं। जीवन जीने का उनका फलसफा यह है कि वे बेहतर, आजाद और अपनी इच्छा से जीने के लिए दूसरों पर निर्भर रहें। उन्हें अपने बच्चों की तकलीफों पर अपनी खुशी और उल्लास की इमारत बनानी है। क्या ऐसे माता-पिता को मर नहीं जाना चाहिए? (बिल्कुल।) अगर उनके बच्चे हर दिन उनके साथ रहकर उनकी सेवा करें, तो वे खुश, प्रफुल्लित और गर्वीला महसूस करते हैं, जबकि उनके बच्चों को कष्ट सहकर इसका बोझ उठाना पड़ता है। क्या ऐसे माता-पिता को मर नहीं जाना चाहिए? (हाँ।)

चलो, माता-पिता की अपने बच्चों से अपेक्षाओं के अंतिम विषय से जुड़ी अपनी संगति आज यहीं समाप्त करते हैं। बच्चे संतानोचित, भरोसेमंद और बुढ़ापे में उनकी देखभाल कर उन्हें अंतिम विदाई देने वाले हैं या नहीं, इस बारे में माता-पिता के नजरिये को लेकर बात स्पष्ट कर दी गई है या नहीं? (बिल्कुल कर दी गई है।) बतौर माता-पिता तुम्हें अपने बच्चों से ऐसी माँगें नहीं करनी चाहिए, ऐसे विचार और नजरिये नहीं रखने चाहिए, या ऐसी उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। तुम्हारे बच्चों पर तुम्हारा कोई कर्ज नहीं है। उनका पालन-पोषण कर उन्हें बड़ा करना तुम्हारी जिम्मेदारी है; तुम यह अच्छे ढंग से करते हो या नहीं, यह एक अलग बात है। उन पर तुम्हारा कोई कर्ज नहीं है : वे तुम्हारे साथ अच्छे हैं और शुद्ध रूप से एक जिम्मेदारी पूरी करने के लिए तुम्हारी देखभाल करते हैं, कोई कर्ज चुकाने के लिए नहीं, क्योंकि उन पर तुम्हारा कोई कर्ज नहीं है। इसलिए, वे इस बात के लिए बाध्य नहीं है कि वे तुम्हारे प्रति संतानोचित हों, या ऐसे बन जाएँ कि तुम उन पर निर्भर हो सको या भरोसा कर सको। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) वे तुम्हारी देखभाल करते हैं, वे ऐसे हैं जिन पर तुम भरोसा कर सकते हो, और वे तुम्हें खर्च करने के लिए थोड़े पैसे देते हैं—यह बच्चों के रूप में बस उनकी जिम्मेदारी है, यह संतानोचित होना नहीं है। हमने पहले उस रूपक का जिक्र किया था जिसमें कौए अपने माता-पिता को खाना खिलाते हैं और मेमने दूध चूसने के लिए घुटनों पर बैठते हैं। पशु भी यह सिद्धांत समझते हैं और इसे कार्यान्वित कर सकते हैं, बेशक इंसानों को भी करना चाहिए! सभी जीवित चीजों में इंसान सबसे उन्नत प्राणी हैं, जिन्हें परमेश्वर ने विचारों, मानवता और भावनाओं के साथ रचा है। बतौर इंसान, वे इसे बिना सिखाए ही समझते हैं। बच्चे संतानोचित हो सकते हैं या नहीं, यह मोटे तौर पर इस पर निर्भर करता है कि क्या परमेश्वर ने तुम दोनों के बीच एक नियति का विधान किया है, क्या तुम दोनों के बीच एक पूरक और आपसी सहायता का रिश्ता होगा और क्या तुम यह आशीष पा सकोगे; बारीकी से देखें तो यह इस पर निर्भर करता है कि क्या तुम्हारे बच्चों में मानवता है। अगर उनमें सचमुच में जमीर और विवेक है, तो तुम्हें उन्हें शिक्षित करने की जरूरत नहीं है—वे बचपन से ही यह समझ लेंगे। अगर वे बचपन से ही ये सब समझ लें, तो क्या तुम्हें नहीं लगता कि बड़े होने पर वे इसे और ज्यादा समझ लेंगे? क्या ऐसी बात नहीं है? (बिल्कुल।) छोटी उम्र से ही वे ऐसे सिद्धांत समझ लेते हैं जैसे कि “माता-पिता पर खर्च करने के लिए पैसे कमाना वह काम है जो अच्छे बच्चे करते हैं,” तो क्या वे इस बात को बड़े होने पर और ज्यादा नहीं समझेंगे? क्या अभी भी उन्हें शिक्षित करने की जरूरत है? क्या माता-पिता को उन्हें अभी भी ऐसी विचारधारा वाले सबक सिखाने होंगे? कोई जरूरत नहीं है। इसलिए, माता-पिता का अपने बच्चों से यह माँग करना एक मूर्खतापूर्ण काम है कि उनके बच्चे संतानोचित हों, बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें, और फिर उनकी अंतिम विदाई करें। क्या जिन बच्चों को तुम जन्म देते हो, वे इंसान नहीं हैं? क्या वे पेड़ या प्लास्टिक के फूल हैं? क्या वे सचमुच नहीं समझते, क्या तुम्हें उन्हें शिक्षित करने की जरूरत है? कुत्ते भी यह समझते हैं। देखो, जब दो छोटे-छोटे कुत्ते अपनी माँ के साथ हों और दूसरे कुत्ते उनकी माँ की ओर दौड़ना और भौंकना शुरू कर दें, तो वे इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे : वे बाड़ के पीछे से अपनी माँ की रक्षा करते हैं, और दूसरे कुत्तों को उनकी माँ पर भौंकने नहीं देते। कुत्ते भी यह समझते हैं, बेशक इंसान को तो समझना ही चाहिए! उन्हें सिखाने की कोई जरूरत नहीं है : जिम्मेदारियाँ पूरी करना ऐसी बात है जो इंसान कर सकते हैं, और माता-पिता को अपने बच्चों के मन में ऐसे विचार बिठाने की जरूरत नहीं है—वे खुद-ब-खुद यह कर लेंगे। अगर उनमें मानवता नहीं है, तो हालात सही होने पर भी वे यह नहीं करेंगे; अगर उनमें मानवता है और हालात सही हैं, तो वे स्वाभाविक रूप से यह करेंगे। इसलिए, बच्चे संतानोचित हैं या नहीं, इसे लेकर माता-पिता को अपने बच्चों से माँग करने, उन्हें प्रेरित करने या दोष देने की जरूरत नहीं है। ये सब बेकार हैं। अगर तुम अपने बच्चों की संतानोचित धर्मनिष्ठा का आनंद ले सकते हो, तो इसे एक आशीष माना जाता है। अगर तुम इसका आनंद नहीं ले सकते, तो इसे तुम्हारा नुकसान नहीं माना जाएगा। सब कुछ परमेश्वर द्वारा नियत है, है कि नहीं? ठीक है, चलो आज के लिए हम अपनी संगति यहीं समाप्त करें। अलविदा!

27 मई 2023

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