सत्य का अनुसरण कैसे करें (20)
हम जिन विविध विषयों पर संगति कर रहे हैं, उनमें दैनिक जीवन के व्यावहारिक मामले शामिल हैं। यह विषयवस्तु सुनने के बाद, क्या तुम लोगों को ऐसा नहीं लगता कि सत्य खोखला नहीं है, यह कोई नारा, किसी प्रकार का सिद्धांत या खासकर, किसी प्रकार का ज्ञान नहीं है? सत्य का संबंध किससे है? (इसका संबंध हमारे वास्तविक जीवन से है।) सत्य का संबंध वास्तविक जीवन से है, वास्तविक जीवन में घटित होने वाली विभिन्न घटनाओं से है। यह मानव जीवन के सभी पहलुओं को छूता है, दैनिक जीवन में लोगों के समक्ष आने वाले विभिन्न मुद्दों को छूता है, और विशेष रूप से यह लोगों द्वारा अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्यों और उनके द्वारा अपनाए जाने वाले मार्गों से संबंधित है। इनमें से कोई भी सत्य खोखला नहीं है और निश्चित रूप से यह अनावश्यक तो नहीं ही है; लोगों के पास इन सभी का होना अनिवार्य है। दैनिक जीवन में, जब कुछ व्यावहारिक मुद्दों की बात आती है, तो यदि तुम इन्हें, जिन सत्य सिद्धांतों के बारे में हम संगति करते हैं, उनके आधार पर देख सकते हो, इनका हल निकाल सकते हो और इन्हें संभाल सकते हो, तो तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहे हो। यदि अपने दैनिक जीवन में, तुम सत्य से जुड़े इन मुद्दों के प्रति अपने मूल विचारों और दृष्टिकोणों पर कायम रहते हो और बदलते नहीं हो, यदि तुम इन मुद्दों को अपने मानवीय दृष्टिकोण से देखते हो, और तुम्हारे इन चीजों को देखने के तरीके के सिद्धांत और उसके आधार का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, तो स्पष्ट रूप से तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहा है, न ही तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम सत्य के किस पहलू पर संगति कर रहे हैं, इसमें शामिल सभी विषय विभिन्न मामलों में लोगों के गलत विचारों, दृष्टिकोणों, धारणाओं और कल्पनाओं को सुधारने और उन्हें पलट देने से संबंधित हैं, ताकि उनके पास दैनिक जीवन में सामने आने वाले विभिन्न मामलों पर सही विचार और दृष्टिकोण हो सकें, और वे वास्तविक जीवन में घटित होने वाली इन चीजों को सही दृष्टिकोणों और नजरियों से देख सकें, फिर उन्हें हल करने और उनसे निपटने के लिए सत्य को अपने मानदंड के रूप में उपयोग कर सकें। उपदेश सुनने का संबंध सिद्धांत या ज्ञान से सुसज्जित होने से नहीं है, अपनी सोच का दायरा बढ़ाने या अंतर्दृष्टि प्राप्त करने से नहीं है—इसका संबंध सत्य समझने से है। सत्य समझने का उद्देश्य अपने विचारों या आत्मा को समृद्ध करना, या अपनी मानवता को समृद्ध करना नहीं है, बल्कि लोगों को इस योग्य बनाना है कि वे परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलते हुए वास्तविक जीवन से कट न जाएँ, और वे दैनिक जीवन में विभिन्न चीजों का सामना करते हुए हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपना आधार और सत्य को अपना मानदंड रखते हुए लोगों और चीजों को देखें, आचरण और कार्य करें। यदि तुम कई वर्षों से उपदेश सुनते रहे हो और तुमने ज्ञान और सिद्धांत के क्षेत्र में प्रगति की है, तुम आध्यात्मिक रूप से समृद्ध महसूस करते हो और तुम्हारे विचार और भी उच्च हो गए हैं, लेकिन जब तुम दैनिक जीवन में अनेक चीजों का सामना करते हो, तो अब तक भी तुम इन मुद्दों को सही परिप्रेक्ष्य से नहीं देख पाते, न ही तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने, लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने में डटे रह पाते हो तो स्पष्ट रूप से, तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, न ही एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर रहा है। और भी गंभीर बात यह है कि तुम अभी तक सत्य और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने या परमेश्वर का भय मानने के बिंदु तक नहीं पहुँचे हो। निश्चित रूप से, इस बात की अत्यंत स्पष्टता से पुष्टि की जा सकती है कि तुमने उद्धार के मार्ग पर चलना शुरू नहीं किया है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।)
तुम लोगों के वास्तविक आध्यात्मिक कद और मौजूदा परिस्थितियों के आधार पर तुम्हें क्या लगता है, किन पहलुओं में तुमने सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लिया है? तुम्हें किन पहलुओं में उद्धार की आशा है? तुम्हें किन क्षेत्रों में अब भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना है लेकिन उद्धार के मानक से बहुत पीछे हो? क्या तुम इसे माप सकते हो? (ऐसी परिस्थितियों में, जबकि मसीह-विरोधी और दुष्ट लोग कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हैं, मुझमें न्याय की समझ और परमेश्वर के प्रति सच्ची वफादारी की कमी है। मैं खड़े होकर परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने में असमर्थ हूँ, और इन महत्वपूर्ण मामलों में मेरे पास कोई गवाही नहीं है। इस संबंध में, मैं स्पष्ट रूप से उद्धार के मानक से बहुत पीछे हूँ।) यह एक वास्तविक समस्या है। चलो, सभी इस पर आगे चर्चा करते हैं। मसीह-विरोधियों को समझने और अस्वीकार करने के मुद्दों से जुड़े अपने आध्यात्मिक कद को पहचानने के अलावा, अन्य मामलों में, तुमने अपने दैनिक जीवन में किन चीजों का सामना किया है जिनसे तुम्हें लगा कि तुमने वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, कि तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास नहीं कर सकते और सिद्धांत समझने के बावजूद तुम्हारे पास सत्य संबंधी स्पष्टता और एक स्पष्ट मार्ग का अभाव है, और तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के इरादों के साथ कैसे तालमेल बिठाना है, या सिद्धांतों का पालन कैसे करना है? (इतने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद मैंने सोचा कि मैं अपने परिवार तथा करिअर को त्याग सकता हूँ, और अपने माता-पिता और रिश्तेदारों के प्रति अपनी भावनाओं को कुछ हद तक छोड़ सकता हूँ। लेकिन, कभी-कभार मेरा सामना कुछ ऐसी वास्तविक जीवन परिस्थितियों से हुआ है, जिनसे मुझे एहसास हुआ कि मेरे अंदर अभी भी भावनाएँ हैं, और मैं अपने माता-पिता की देखभाल करने और अपने संतानोचित कर्तव्य निभाने के लिए उनके पास रहना चाहता हूँ। अगर मैं ऐसा नहीं कर पाता तो मुझे लगता है कि मैं उनका ऋणी हूँ। हम पर माता-पिता का कोई ऋण नहीं है, इस बारे में परमेश्वर की हाल की संगति सुनकर मुझे एहसास हुआ कि मैं सत्य के इस पहलू को नहीं समझता, और मैंने सत्य या परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं किया है।) और कौन इस बातचीत को आगे बढ़ाना चाहेगा? क्या तुम लोग अपने दैनिक जीवन में कठिनाइयों का सामना नहीं करते? या क्या तुम लोग शून्य में रहते हो और कभी किसी समस्या का सामना नहीं करते? क्या तुम लोग अपने कर्तव्य निभाते समय कठिनाइयों का सामना करते हो? क्या तुम लोग कभी अनमने होते हो? (हाँ।) क्या तुम कभी शारीरिक सुख और आराम में लिप्त रहते हो? क्या तुम प्रसिद्धि और रुतबे के लिए काम करते हो? क्या तुम अपनी भविष्य की संभावनाओं और राहों के बारे में अक्सर चिंतित रहते हो? (हाँ।) तो इन परिस्थितियों का सामना करने पर तुम उनसे कैसे निपटते हो? क्या तुम उन्हें हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने में समर्थ हो? जब तुम्हें पदोन्नत किया जाता है तो तुम कोई गड़बड़ हो जाने पर एक वैकल्पिक योजना तैयार रखते हो, और अपने पद से हटा दिए जाने पर अपनी संभावनाओं और गंतव्य के बारे में चिंता करते हो, परमेश्वर को गलत समझते हो और उसे दोष देते हो, या अपनी योग्यताओं का दिखावा करते हो—क्या तुम्हें ये समस्याएँ हैं? (हाँ।) ऐसी परिस्थितियों के सामने आने पर तुम उन्हें कैसे संभालते और हल करते हो? क्या तुम अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के अनुरूप चलते हो या फिर सत्य सिद्धांतों को कायम रख पाते हो, दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर पाते हो, और सत्य का अभ्यास करने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव से विद्रोह कर पाते हो? (परमेश्वर, मैं जब भी इन परिस्थितियों का सामना करता हूँ तो सैद्धांतिक रूप से समझता हूँ कि मुझे अपनी देह की प्राथमिकताओं या अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य नहीं करना चाहिए। कभी-कभी मेरी अंतरात्मा बेचैन होकर धिक्कार महसूस करती है, और मैं अपने व्यवहार में कुछ बदलाव करता हूँ। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं है कि इन मामलों पर मेरा दृष्टिकोण बदल गया है, या मैं सत्य का अभ्यास करने में समर्थ हूँ। कभी-कभी, यदि मेरी स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ अपेक्षाकृत प्रबल होती हैं, और मुझे लगता है कि यह कठिनाई बहुत बड़ी है, तो भले ही मुझमें ऊर्जा का विस्फोट हो, फिर भी मैं इसका अभ्यास नहीं कर पाता। उस समय, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव का अनुसरण करता हूँ, और अच्छा व्यवहार तो बाहरी तौर पर भी नहीं बचता।) यह कैसी परिस्थिति है? क्या तुम अंततः सत्य का अभ्यास करते हो और अपनी गवाही पर दृढ़ रहते हो, या असफल रहते हो? (मैं असफल रहता हूँ।) क्या तुम बाद में चिंतन करते हो और पछतावा महसूस करते हो? क्या दोबारा ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करने पर तुम सुधार कर सकते हो? (असफल होने के बाद, मुझे अपनी अंतरात्मा में थोड़ी बेचैनी महसूस होती है, और जब मैं परमेश्वर के वचनों को खाता-पीता हूँ तो मैं उनके खुद से जोड़कर देख पाता हूँ, लेकिन अगली बार इन परिस्थितियों का सामना करने पर वही भ्रष्ट स्वभाव फिर से खुद को प्रकट करता है। इस पहलू में प्रगति अपेक्षाकृत कम है।) क्या अधिकतर लोग स्वयं को इस स्थिति में नहीं पाते हैं? तुम लोग इस मामले को कैसे देखते हो? जब भी लोग ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो जिस तरह से वे उन्हें संभालते हैं, इसके अलावा कि उनके विवेक के प्रभाव के कारण उनके व्यवहार में सुधार होता है, या उनका व्यवहार उस समय की स्थितियों और अवस्थाओं के अनुसार और उनकी अलग-अलग मनोदशाओं के अनुसार कभी-कभी अपेक्षाकृत अच्छा और कभी-कभी अपेक्षाकृत निम्नकोटि का होता है—इनके अलावा, उनके अभ्यास का सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। इसमें समस्या क्या है? क्या यह व्यक्ति के आध्यात्मिक कद का प्रतिनिधित्व करता है? यह कैसा आध्यात्मिक कद है? क्या यह छोटा आध्यात्मिक कद है, या यह उनकी मानवता की कोई कमजोरी, कमी है या सत्य का अभ्यास न करने का प्रकटन है? यह क्या है? (छोटा आध्यात्मिक कद।) जब किसी का आध्यात्मिक कद छोटा होता है, तो वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, और चूँकि वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, इसलिए उसका आध्यात्मिक कद छोटा होता है। यह कितना छोटा है? इसका मतलब है कि तुमने अभी तक इस मामले में सत्य प्राप्त नहीं किया है। इसका क्या अर्थ है कि तुमने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है? इसका मतलब है कि परमेश्वर के वचन अभी तक तुम्हारा जीवन नहीं बने हैं; परमेश्वर के वचन अभी तक तुम्हारे लिए एक प्रकार का पाठ, सिद्धांत, या तर्क हैं। वे अभी तक तुममें गढ़े नहीं गए हैं या तुम्हारा जीवन नहीं बन पाए हैं। परिणामस्वरूप, तुम्हें समझ में आने वाले ये तथाकथित सत्य केवल एक प्रकार का सिद्धांत या नारा हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि तुम इस सिद्धांत को अपनी वास्तविकता में नहीं बदल सकते। जब तुम दैनिक जीवन में विभिन्न चीजों का सामना करते हो, तो उन्हें सत्य के अनुसार नहीं संभालते; तुम अब भी उन्हें शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार और अंतरात्मा के प्रभाव में संभालते हो। तो जाहिर है, कम-से-कम, इस मामले में तुम्हारे पास सत्य नहीं है, और तुमने जीवन प्राप्त नहीं किया है। जीवन प्राप्त न करने का अर्थ है जीवन न होना; जीवन न होने का अर्थ यह है कि इस मामले में, तुम्हें बिल्कुल भी बचाया नहीं गया है, और तुम अब भी शैतान की शक्ति के अधीन जी रहे हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अंतरात्मा के प्रभाव में जो किया जाता है वह अच्छा व्यवहार है या किसी प्रकार का प्रकटीकरण, यह जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करता; यह महज सामान्य मानवता का प्रकटीकरण है। यदि इस प्रकटीकरण पर अंतरात्मा का प्रभाव है, तो अधिक-से-अधिक यह एक प्रकार का अच्छा व्यवहार है। यदि अंतरात्मा नहीं, बल्कि व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव मुख्य कारक है, तो इस व्यवहार को अच्छा व्यवहार नहीं माना जा सकता; यह भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा है। तो, तुम लोगों ने किन मामलों में पहले से ही सत्य को वास्तविकता बना लिया है, और जीवन प्राप्त कर लिया है? किन मामलों में तुमने अभी तक सत्य को प्राप्त नहीं किया है और उसे अपना जीवन नहीं बनाया है, और अभी तक सत्य को अपनी वास्तविकता नहीं बनाया है? दूसरे शब्दों में, तुम किन मामलों में परमेश्वर के वचनों को जी रहे हो और उन्हें अपना मानदंड मान रहे हो, और किन मामलों में तुमने अभी भी ऐसा नहीं किया है? हिसाब लगाओ कि ऐसे कितने मामले हैं। यदि तुमने उन सभी का हिसाब लगा लिया है, फिर भी दुर्भाग्यवश ऐसा एक भी मामला नहीं है जिसमें तुमने परमेश्वर के वचनों के आधार पर कार्य किया हो या जीवन जिया हो, बल्कि तुमने अपने क्रोध, अपनी धारणाओं, प्राथमिकताओं या दैहिक इच्छाओं या भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य किया है, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? परिणाम तो बुरा होगा, है न? (हाँ।) तुम लोगों ने कई वर्षों से लेकर आज तक उपदेश सुने हैं, अपने परिवार को त्यागा है, अपना करिअर छोड़ा है, कष्ट सहे हैं और कीमत चुकाई है। यदि यह परिणाम है, तो क्या यह खुश होने और जश्न मनाने की बात है या दुखी और चिंतित होने की बात है? (दुखी और चिंतित होने की।) जो व्यक्ति सत्य को वास्तविकता नहीं बनाता, जो परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन नहीं बनाता, वह किस प्रकार का व्यक्ति है? क्या यह वह व्यक्ति नहीं है जो शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के पूर्ण नियंत्रण में रहता है, जो उद्धार की आशा देखने में असमर्थ है? (हाँ।) क्या आम तौर पर परमेश्वर के वचनों को पढ़ते और खुद को जाँचते समय तुम लोगों ने कभी इन प्रश्नों के बारे में सोचा है? अधिकतर लोगों ने नहीं सोचा है, सही है न? अधिकतर लोग बस यह सोचते हैं, “मैंने सत्रह वर्ष की उम्र में परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था और अब मैं सैंतालीस का हूँ। मैंने इतने वर्ष परमेश्वर में विश्वास किया है और कई बार मुझे पकड़ने की कोशिश की गई है लेकिन परमेश्वर ने मुझे सुरक्षित रखा है और बच निकलने में मेरी मदद की है। मैं गुफाओं और घास की झोपड़ियों में रहा हूँ, कितने ही दिन-रात बिना कुछ खाए गुजारे हैं और घंटों बिना सोए बिताए हैं। मैंने केवल अपना कर्तव्य निभाने, अपना काम करने और स्वयं को सौंपे गए कार्य को पूरा करने के लिए बहुत कष्ट सहे हैं और मैं मीलों चला हूँ। मेरा उद्धार होने की आशा बहुत अधिक है, मैंने पहले ही उद्धार के मार्ग पर चलना शुरू कर दिया है। मैं बहुत भाग्यशाली हुँ! सच में, परमेश्वर को धन्यवाद। यह उसका अनुग्रह है! मैं लौकिक दुनिया की नजरों में बेकार था, कोई भी मुझे ज्यादा महत्व नहीं देता था, और मैंने खुद को कभी विशेष नहीं माना था, लेकिन परमेश्वर के ऊपर उठाने के कारण, क्योंकि उसने मुझे—जरूरतमंद को—गोबर के ढेर से बाहर निकाला, मैं उद्धार के मार्ग पर आ गया, जिससे मुझे उसके घर में अपना कर्तव्य निभाने का सम्मान मिला। उसने मुझे ऊँचा उठाया और वह मुझसे प्रेम करता है! अब मैं इतना अधिक सत्य को समझता हूँ और मैंने इतने अधिक वर्षों तक काम किया है। भविष्य में मेरा इनाम मिलना निश्चित बात है। उसे कौन छीन सकता है?” यदि अपना निरीक्षण करते समय तुम केवल इन्हीं चीजों के बारे में सोच सके हो, तो क्या यह परेशानी वाली बात नहीं होगी? (हाँ।) मुझे बताओ, तुम लोगों ने इतने वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास किया है, तुमने इतने कष्ट सहे हैं, इतनी दूर तक यात्रा की है, और इतना काम किया है। इतना विश्वास करने के बावजूद अब कुछ लोगों को समूह “ब” में क्यों भेज दिया गया है? अनेक अगुआओं और कार्यकर्ताओं को अब भेंट फिर से क्यों चुकानी पड़ती है और कर्ज का बोझ क्यों उठाना पड़ता है? क्या चल रहा है? क्या उन्हें पहले ही बचाया नहीं जा चुका है? क्या उनके पास पहले से ही सत्य नहीं है और क्या उन्होंने जीवन प्राप्त नहीं किया है? कुछ लोग स्वयं को परमेश्वर के घर के स्तंभ और आधारशिला मानते थे, यहाँ की दुर्लभ प्रतिभाएँ मानते थे। अब हालात कैसे हैं? यदि इतने वर्षों की पीड़ा और कीमत चुकाने के परिणामस्वरूप उन्हें जीवन और सत्य वास्तविकता प्राप्त होती, उनमें परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण होता, परमेश्वर के प्रति सच्चा भय होता और वे निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य निभाते तो क्या इन लोगों को बरखास्त कर दिया गया होता या समूह “ब” में भेजा गया होता? क्या उन पर कर्ज का बोझ डाला गया होता या उन्हें बड़ा दोष दिया गया होता? क्या ये समस्याएँ हुई होतीं? यह काफी शर्मनाक है, है ना? (हाँ।) क्या तुमने कभी सोचा है कि मामला क्या है? कोई व्यक्ति कितना कष्ट सह सकता है या परमेश्वर में अपने विश्वास के लिए कितनी कीमत चुकाता है, यह उद्धार या सत्य वास्तविकता में प्रवेश का चिह्न नहीं है, न ही यह इस बात का चिह्न है कि उसके पास जीवन है। तो फिर, जीवन और सत्य वास्तविकता होने का चिह्न क्या है? मोटे तौर पर, वह यह है कि क्या कोई व्यक्ति सत्य का अभ्यास कर सकता है और सिद्धांतों के अनुसार मामलों को संभाल सकता है; विशेष रूप से यह कि क्या कोई व्यक्ति सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देखता है, तदनुसार आचरण और कार्य करता है, क्या वह सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है। यदि अपने कर्तव्य निभाते हुए तुम स्वयं पर विजय प्राप्त कर सकते हो, कष्ट सह सकते हो, और अपने हर काम में कीमत चुका सकते हो, लेकिन दुर्भाग्य से सबसे महत्वपूर्ण बिंदु को प्राप्त करने में असमर्थ हो, अर्थात् सत्य सिद्धांतों को कायम नहीं रख पाते; तुम चाहे कुछ भी करो, यदि तुम हमेशा अपने हितों के बारे में सोचते हो, हमेशा अपने लिए बच निकलने का रास्ता तलाशते हो, हमेशा खुद को सुरक्षित रखना चाहते हो; और यदि तुम कभी भी सत्य सिद्धांतों पर कायम नहीं रहते, और परमेश्वर के वचन तुम्हारे लिए महज सिद्धांत हैं, तो इस बारे में बात भी मत करो कि तुम मूल्यवान हो या नहीं, या तुम्हारे जीवन का कोई मूल्य है या नहीं; सबसे बुनियादी बात यह कि तुम्हारे पास जीवन नहीं है। जीवन विहीन व्यक्ति सबसे अधिक दयनीय होता है। परमेश्वर में विश्वास करना और फिर भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश न करना, जीवन प्राप्त न करना, ऐसा व्यक्ति सबसे दयनीय होता है और यह सबसे शोचनीय बात है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) मैं यह नहीं कहता कि तुम लोग हर चीज में सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम रहो, लेकिन कम-से-कम, अपने महत्वपूर्ण कर्तव्यों के पालन में और सिद्धांतों से संबंधित अपने दैनिक जीवन के महत्वपूर्ण मामलों में, तुम्हें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होना चाहिए। स्वयं में उद्धार की आशा देखने के लिए तुम्हें कम-से-कम इस मानक को हासिल करना होगा। लेकिन जहाँ तक अभी की बात है, तुम लोग सबसे बुनियादी अपेक्षा भी पूरी नहीं कर पाए हो, तुमने इसका कोई भाग हासिल नहीं किया है। यह अत्यंत शोचनीय एवं गहन चिंता का विषय है।
परमेश्वर में विश्वास के पहले तीन वर्षों में, लोग खुश और आनंदित रहते हैं। वे प्रतिदिन आशीर्वाद प्राप्त करने और एक शानदार गंतव्य पाने के बारे में सोचते हैं। वे मानते हैं कि बाहरी अच्छे व्यवहार, जैसे परमेश्वर के लिए कष्ट सहना, दौड़-भाग करना और दूसरों की और भी ज्यादा मदद करना, और ज्यादा अच्छे काम करना और भेंटस्वरूप अधिक धन देना, ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर के विश्वासियों को करनी चाहिए। तीन से पाँच वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, हालाँकि वे कुछ सिद्धांत समझ जाते हैं, लेकिन फिर भी लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर में विश्वास करते हैं। इसके बजाय कि वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार जिएँ, या परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन और वह मानदंड बनाएँ जिससे वे लोगों और चीजों को देखते हैं तथा आचरण और कार्य करते हैं, वे तो अच्छे व्यवहार, अपनी अंतरात्मा और अच्छी मानवता के अनुसार जीते हैं। ऐसे लोग किस रास्ते पर चल रहे हैं? क्या यह वह मार्ग नहीं है जिसका पौलुस ने अनुसरण किया था? (वही है।) वर्तमान में, क्या तुम लोग स्वयं को इस अवस्था में नहीं पाते? यदि तुम अधिकांश समय स्वयं को इसी अवस्था में पाते हो तो क्या इतने उपदेश सुनना उपयोगी है? चाहे तुम किसी भी प्रकार के उपदेश सुनते हो, तुम सत्य को समझने, या अपने दैनिक जीवन में सत्य सिद्धांतों के आधार पर लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने के लिए नहीं सुन रहे हो, बल्कि तुम उन्हें अपने आध्यात्मिक जगत और मानवीय अनुभवों को समृद्ध करने के लिए सुन रहे हो। ऐसी स्थिति में, तुम्हें उन्हें सुनने की कोई जरूरत नहीं है, है क्या? कुछ लोग कहते हैं, “उपदेश नहीं सुनने से काम नहीं चलेगा। यदि मैं उपदेश नहीं सुनता, तो परमेश्वर में मेरा विश्वास उत्साहपूर्ण नहीं रहता, और जब अपना कर्तव्य निभाने की बात आती है तो मुझमें उत्साह या प्रेरणा नहीं होती। समय-समय पर उपदेश सुनते रहने से, मेरे विश्वास में थोड़ा उत्साह आता है, मैं थोड़ा अधिक परिपूर्ण और समृद्ध महसूस करता हूँ, और फिर जब मैं अपने कर्तव्य में किसी कठिनाई या नकारात्मकता का सामना करता हूँ, तो मेरे पास कुछ प्रेरणा होती है और अधिकतर मैं नकारात्मक नहीं होता।” क्या उपदेश इसी प्रभाव को प्राप्त करने के लिए सुने जाते हैं? अधिकतर लोग जिन्होंने वर्षों से उपदेश सुने हैं, वे कलीसिया नहीं छोड़ते, फिर चाहे कैसे भी उनकी काट-छाँट की जाए, कैसे भी उन्हें अनुशासित किया जाए या ताड़ना दी जाए। इस प्रभाव की प्राप्ति का उपदेश सुनने के साथ एक संबंध है, लेकिन मैं केवल यह नहीं देखना चाहता कि प्रत्येक उपदेश सुनने के बाद तुम्हारे हृदय की बुझती आग फिर से प्रज्वलित हो जाए। यह बस इस बारे में नहीं है। खाली उत्साह व्यर्थ है। उत्साह का प्रयोग बुरे कार्य करने अथवा सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। उत्साह का काम है तुम्हें एक लक्ष्य और दिशा के साथ सत्य का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करना—तुम्हें सत्य सिद्धांतों के संबंध में प्रयास करना चाहिए और उनका अभ्यास करना चाहिए। तो क्या उपदेश सुनने से यह प्रभाव प्राप्त हो सकता है? प्रत्येक उपदेश के बाद, ऐसा लगता है जैसे तुम्हारे हृदय में कोई अग्नि प्रज्वलित हो गई हो, तुम्हें बिजली का झटका दिया गया हो या तुममें प्राण फूँक दिए गए हों। तुम फिर से उत्साह से परिपूर्ण महसूस करते हो, तुम जानते हो कि अब तुम्हें किस क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहिए, तुम बिल्कुल भी सुस्ताते नहीं या नकारात्मक नहीं होते और बमुश्किल ही कमजोर महसूस करते हो। हालाँकि, ये प्रकटन उद्धार प्राप्त करने की शर्तें नहीं हैं। उद्धार प्राप्त करने की कई शर्तें हैं : सबसे पहले, तुममें परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और उपदेश सुनने की इच्छा होनी चाहिए; दूसरी बात, और यह सबसे महत्वपूर्ण शर्त भी है, चाहे तुम्हारा अपने दैनिक जीवन में किसी भी छोटे या बड़े मामले से सामना हो, खासकर अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के घर के प्रमुख कार्य से संबंधित मामलों में, अपने ही विचारों के आधार पर कार्य करने, अपनी इच्छानुसार कार्य करने या मनमाना और लापरवाह होने के बजाय तुम्हें सत्य सिद्धांतों को खोजने में सक्षम होना चाहिए। सत्य के बारे में तुम लोगों के साथ अथक रूप से संगति करने और इस तरह के विभिन्न मामलों के सिद्धांतों को समझाने के पीछे मेरा उद्देश्य तुमसे असंभव काम करवाना या तुम्हें तुम्हारी क्षमताओं से अधिक काम करने को मजबूर करना नहीं है, और यह केवल तुम लोगों को उत्साही बनाना भी नहीं है। बल्कि, यह तुम लोगों को परमेश्वर के इरादे अधिक सटीक रूप से समझाने, विभिन्न चीजों को करने के सिद्धांतों और आधार को समझाने और यह समझाने के लिए है कि लोगों को परमेश्वर के इरादे पूरे करने के लिए कैसे कार्य करना चाहिए, यह समझाने के लिए है कि विभिन्न मामलों का सामना होने पर अपने भ्रष्ट स्वभावों, विचारों और दृष्टिकोण तथा ज्ञान के आधार पर कार्य नहीं करना चाहिए, बल्कि इन चीजों की जगह सत्य सिद्धांतों से काम लेना चाहिए। यह परमेश्वर द्वारा लोगों को बचाने के प्रमुख तरीकों में से एक है। ऐसा इसलिए है कि तुम अपने सामने आने वाली हर चीज में परमेश्वर के वचनों को अपने आधार और सिद्धांतों के रूप में रख सको ताकि हर मामले में उसके वचनों का शासन हो। दूसरे शब्दों में, ऐसा इसलिए है कि तुम हर मामले में मानवीय बुद्धि और प्राथमिकताओं पर भरोसा करने या मानवीय पसंद, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार उन्हें समझने के बजाय, परमेश्वर के वचनों के आधार पर उन्हें संभालने और हल करने में सक्षम हो। सत्य के बारे में इस भाँति उपदेश देकर और संगति करके लोगों में परमेश्वर के वचनों और सत्य को गढ़ दिया जाता है जिससे उन्हें ऐसा जीवन मिल जाता है जिसमें सत्य उनकी वास्तविकता होता है। यह उद्धार का लक्षण है। चाहे तुम्हें किसी भी चीज का सामना करना पड़े, तुम्हें सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के वचनों के संबंध में अधिक प्रयास करना चाहिए। ऐसा ही व्यक्ति उद्धार का अनुसरण करता है और बुद्धिमान होता है। जो लोग हमेशा बाहरी व्यवहारों, औपचारिकताओं, सिद्धांतों और नारों के संबंध में प्रयास करते हैं, वे मूर्ख होते हैं। वे उद्धार का अनुसरण करने वाले लोग नहीं होते। तुम लोगों ने पहले कभी इस तरह की चीजों पर विचार नहीं किया है, या शायद ही कभी विचार किया हो, इसलिए जब सत्य सिद्धांतों का अभ्यास करने के इन मामलों की बात आती है, तो तुम लोगों का दिमाग मूल रूप से खाली होता है। तुम लोग नहीं सोचते कि यह मामला महत्वपूर्ण है, इसलिए तुम जब भी सत्य सिद्धांतों से संबंधित स्थितियों का सामना करते हो, खासकर जब यह कुछ प्रमुख स्थितियों की बात आती है, जब तुम्हारा सामना कलीसिया के काम में बाधा डाल रहे मसीह-विरोधियों या बुरे लोगों से होता है तो तुम लोग हमेशा बहुत निष्क्रिय रहते हो। तुम नहीं जानते कि इन मामलों को कैसे संभालना है और इन्हें अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों और भावनाओं के आधार पर समझते हो। तुम कलीसिया के काम की रक्षा में खड़े होने में असमर्थ हो, और अंततः, हमेशा असफल रहते हो, और लापरवाही और जल्दबाजी में मामले को रफा-दफा कर देते हो। यदि इन मामलों में कोई जाँच नहीं की जाती है, तो तुम जैसे-तैसे अपना काम करते रहोगे। यदि यह पता लगाने के लिए जाँच की जाती है कि कौन जिम्मेदार है तो तुम्हें अपने पद से हटाया जा सकता है या किसी अलग कर्तव्य में लगाया जा सकता है; या इससे भी बदतर, तुम्हें समूह “ब” में भेजा जा सकता है, या कुछ लोगों को बाहर भी किया जा सकता है। क्या तुम लोग ऐसे परिणाम चाहते हो? (नहीं।) यदि किसी दिन वास्तव में तुम्हें अपने पद से हटा दिया जाता है या अपना कर्तव्य निभाने से रोक दिया जाता है, या अधिक गंभीर स्थिति में यदि तुम्हें किसी साधारण कलीसिया या समूह “ब” में भेज दिया जाता है, तो क्या तुम लोग आत्मचिंतन करोगे? “क्या मैंने परमेश्वर में इसलिए विश्वास किया था कि मैं यहाँ पहुँच जाऊँ? क्या मैंने समूह ‘ब’ में डाले जाने या बाहर निकाल दिए जाने के लिए अपनी नौकरी, अपनी संभावनाएँ, अपना परिवार और इतना सब कुछ त्यागा था? क्या मैंने परमेश्वर का विरोध करने के लिए उस पर विश्वास किया था? निश्चित रूप से परमेश्वर में मेरी आस्था का यह उद्देश्य तो नहीं होना चाहिए? तो फिर मैं परमेश्वर में विश्वास किस लिए कर रहा हूँ? क्या मुझे इस पर विचार नहीं करना चाहिए? परमेश्वर पर विश्वास करने की बात अलग रखते हुए अभी के लिए बस उसके इरादे पूरे करने के लिए कम-से-कम मुझे जीवन प्राप्त करना चाहिए और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए। कम से कम, मुझे यह समझने में सक्षम होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों और सत्य का कौन-सा पहलू मेरा जीवन बन गया है। मुझे जीने के लिए, शैतान और स्वयं अपने भ्रष्ट स्वभावों पर विजय पाने के लिए सत्य पर निर्भर होने में समर्थ होना चाहिए और मुझे अपनी देह की इच्छाओं से विद्रोह करने और धारणाओं को त्यागने में सक्षम होना चाहिए। जब मुझ पर विपत्ति आए तो मुझे सत्य सिद्धांतों को कायम रखना चाहिए। मुझे अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार कार्य नहीं करना चाहिए। मुझे बिना किसी समस्या या बाधा के, परमेश्वर के वचनों के अनुसार स्वाभाविक और सुचारू रूप से कार्य करने में समर्थ होना चाहिए। मुझे गहराई से महसूस करना चाहिए कि परमेश्वर के वचन और सत्य पहले से ही मुझमें गढ़ दिए गए हैं, मेरा जीवन बन गए हैं, और मेरी मानवता का हिस्सा बन गए हैं। यह एक आनंददायक और उत्सव मनाने लायक बात है।” क्या तुम लोग आम तौर पर ऐसा महसूस करते हो? परमेश्वर में अपने विश्वास के दौरान वर्षों तक तुमने जिन कष्टों को सहा है और जिन कीमतों को चुकाया है, जब तुम उनका जायजा लोगे तो अपने दिल में अद्भुत महसूस करोगे, तुम्हें महसूस होगा कि तुम्हारे उद्धार की आशा है, और तुमने सत्य समझने और स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाने की मिठास का स्वाद चख लिया है। क्या तुम लोगों ने ऐसी चीजों को महसूस या अनुभव किया है? यदि नहीं किया है, तो तुम लोगों को क्या करना चाहिए? (सत्य का अभी से गंभीरता से अनुसरण करना शुरू करना चाहिए।) अभी से गंभीरता से इसका अनुसरण करना शुरू करो—लेकिन तुम्हें इसका अनुसरण कैसे करना चाहिए? तुम्हें उन मामलों पर विचार करने की जरूरत है जिनमें तुम अक्सर परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते हो। परमेश्वर ने तुम्हें सबक सिखाने के लिए बार-बार तुम्हारे लिए परिस्थितियाँ तैयार की हैं, ताकि इन मामलों के माध्यम से तुम बदल सको, उसके वचन तुममें कार्यरत हों, और तुम सत्य वास्तविकता के किसी पहलू में प्रवेश कर सको, उन मामलों में तुम शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीना बंद करके परमेश्वर के शब्दों के अनुसार जिओ, और उसके वचन तुममें गढ़ दिए जाएँ और वे तुम्हारा जीवन बन जाएँ। लेकिन तुम अक्सर इन मामलों में परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हो, न तो उसके प्रति समर्पण करते हो और न ही सत्य स्वीकार करते हो, न ही उसके वचनों को ऐसे सिद्धांतों के रूप में लेते हो जिनका तुम्हें पालन करना चाहिए, और न ही उसके वचनों को जीते हो। इससे परमेश्वर को ठेस पहुँचती है और तुम बार-बार उद्धार का अवसर खो देते हो। तो तुम्हें स्वयं को कैसे बदलना चाहिए? आज से ही, ऐसे मामलों में जिनकी तुम आत्मचिंतन के जरिये पहचान कर सकते हो और स्पष्ट रूप से समझ सकते हो, तुम्हें परमेश्वर के आयोजन के प्रति समर्पण करना चाहिए, उसके वचनों को सत्य वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना चाहिए, उसके वचनों को जीवन के रूप में स्वीकार करना चाहिए, और अपने जीने के तरीके को बदलना चाहिए। इस तरह की स्थितियों का सामना करने पर तुम्हें अपनी देह की इच्छाओं और प्राथमिकताओं से विद्रोह करना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। क्या यह अभ्यास का मार्ग नहीं है? (हाँ है।) यदि तुम केवल भविष्य में ईमानदारी से प्रयास करने का इरादा रखते हो, लेकिन अभ्यास के एक विशिष्ट मार्ग का अभाव है, तो यह किसी काम का नहीं है। यदि तुम्हारे पास अभ्यास का यह विशिष्ट मार्ग है और तुम अपनी देह की इच्छाओं से विद्रोह कर इस तरह से नई शुरुआत करने को तैयार हो, तो तुम्हारे लिए अभी भी आशा बनी हुई है। यदि तुम इस तरह से अभ्यास करने को तैयार नहीं हो और इसके बजाय पुराने विचारों से चिपके हुए उन्हीं पुराने रास्तों पर टिके रहते हो, और अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते रहते हो तो हमारे पास कहने के लिए और कुछ नहीं है। यदि तुम केवल मजदूर बनकर ही संतुष्ट हो, तो कहने को और बचा ही क्या है? उद्धार के मामले का तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, और तुम्हारी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है, इसलिए चर्चा करने के लिए और कुछ नहीं है। यदि तुम वास्तव में सत्य और उद्धार का अनुसरण करने के इच्छुक हो, तो पहला कदम अपने भ्रष्ट स्वभावों, अपने विभिन्न भ्रामक विचारों, धारणाओं और कार्यों से अलग होने से शुरुआत करना है। उन वातावरणों को स्वीकार करो जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए दैनिक जीवन में व्यवस्थित किए हैं, उसकी जाँच, परीक्षण, ताड़ना और न्याय को अपनाओ, जब खुद पर संकट आता है तो सत्य सिद्धांतों के अनुसार धीरे-धीरे अभ्यास करने का प्रयास करो और परमेश्वर के वचनों को उन सिद्धांतों और मानदंडों में बदल दो जिनसे तुम अपने दैनिक जीवन तथा अपने जीवन में आचरण और कार्य करते हो। यही वह चीज है जो सत्य का अनुसरण करने वाले में प्रकट होनी चाहिए, और यही वह चीज है जो उद्धार का अनुसरण करने वाले व्यक्ति में प्रकट होनी चाहिए। यह आसान लगता है, ये चरण सरल हैं और इनकी कोई लंबी व्याख्या नहीं है, लेकिन इसे अभ्यास में लाना इतना आसान नहीं है। ऐसा इसलिए है कि लोगों के भीतर बहुत सारी भ्रष्ट चीजें हैं : उनकी क्षुद्रता, छोटे-छोटे षड्यंत्र, स्वार्थ और नीचता, उनके भ्रष्ट स्वभाव और सभी प्रकार की चालें। इस सबसे बढ़कर, कुछ लोगों के पास ज्ञान होता है, उन्होंने सांसारिक आचरण के लिए कुछ फलसफे और समाज में जोड़-तोड़ की तरकीबें सीखी होती हैं, और उनमें उनकी मानवता के संदर्भ में कुछ कमियाँ और खामियाँ होती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग पेटू और आलसी, कुछ वाचाल तो कुछ गंभीर रूप से कुटिल प्रकृति वाले होते हैं, वहीं कुछ लोग घमंडी या अपने कार्यों में उतावले और आवेगी होते हैं साथ ही उनमें अन्य अनेक दोष होते हैं। ऐसी कई कमियाँ और समस्याएँ हैं जिन्हें लोगों को उनकी मानवता के संबंध में दूर करने की आवश्यकता है। हालाँकि, यदि तुम उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, यदि तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करना चाहते हो, और सत्य तथा जीवन प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ना चाहिए, उसके वचनों का अभ्यास करने और उनके प्रति समर्पित होने में समर्थ होना चाहिए और सत्य का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों को कायम रखने से शुरुआत करनी चाहिए। ये केवल कुछ सरल वाक्य हैं, फिर भी लोग नहीं जानते कि इनका अभ्यास या अनुभव कैसे किया जाए। तुम्हारी क्षमता या शिक्षा जो भी हो, और तुम्हारी उम्र कितनी भी हो या विश्वास करते कितने भी वर्ष बीते हों, चाहे जो हो, यदि तुम सही लक्ष्यों और दिशा के साथ सत्य का अभ्यास करने के सही रास्ते पर हो, और यदि तुम जिसका अनुसरण करते हो वह सब सत्य का अभ्यास करने के लिए है, तो अंततः तुम जो हासिल करोगे वह निस्संदेह सत्य वास्तविकता होगी और परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन बन जाएँगे। पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करो, फिर धीरे-धीरे इस मार्ग के अनुसार अभ्यास करो और अंततः तुम्हें कुछ-न-कुछ अवश्य प्राप्त होगा। क्या तुम्हें इस पर विश्वास है? (हाँ।)
इस चरण में हम जिस विषय पर संगति कर रहे हैं, वह है लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं का त्याग करना। अपनी पिछली सभा में, हमने परिवार से जुड़े कुछ बोझों का त्याग करने के बारे में संगति की थी। परिवार से जुड़े बोझों के विषय के अंतर्गत, हमने पहले माता-पिता की अपेक्षाओं के बारे में संगति की और फिर उन अपेक्षाओं के बारे में संगति की जो माता-पिता की अपनी संतान को लेकर होती है। ये सभी ऐसी चीजें हैं जिनका लोगों को सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में त्याग कर देना चाहिए, क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं का त्याग करने के संबंध में हमने कुल चार चीजों को सूचीबद्ध किया है। पहली चीज है, रुचियाँ और शौक, दूसरी है शादी और तीसरी है परिवार—इन तीनों के बारे में हम पहले ही संगति कर चुके हैं। अंतिम बची हुई चीज क्या है? (करिअर।) चौथी चीज करिअर है; हमें इस विषय पर संगति करनी चाहिए। क्या तुम लोगों में से किसी ने पहले इस विषय पर विचार किया है? यदि तुमने ऐसा किया है, तो पहले तुम इसके बारे में बात कर सकते हो। (मैं सोचता था कि किसी का करिअर में सफल या असफल होना एक व्यक्ति के रूप में उसकी सफलता या असफलता को दर्शाता है। मैं सोचता था कि अगर अपने करिअर को लेकर किसी व्यक्ति में समर्पण की कमी है या वह अपना करिअर खराब कर लेता है, तो यह दर्शाता है कि वह एक व्यक्ति के रूप में असफल हो गया है।) अब, जब बात करिअर का त्याग करने की आती है, तो क्या छोड़ा जाना चाहिए? (लोगों को अपने करिअर से संबंधित महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को छोड़ देना चाहिए।) यह इसे देखने का एक तरीका है। जब बात लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं का त्याग करने के विषय के अंतर्गत “करिअर” की हो तो तुम लोग किन चीजों को छोड़ने के बारे में सोचते हो? क्या तुम्हें सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया में करिअर के कारण आने वाली विभिन्न समस्याओं का समाधान नहीं करना चाहिए? (पहले, जब मैं धर्मनिरपेक्ष दुनिया में था, तो मैं मानता था कि मेरा अपने करिअर में सफल होना जरूरी है, मेरे लिए अपनी पहचान बनाना जरूरी है। परिणामस्वरूप, खुद को अलग दिखाने की इच्छा में, मैं बेताबी से अपने करिअर के पीछे भागता रहा। परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद, मैं परमेश्वर के घर में अलग दिखने की चाह रखने लगा, मैं चाहता था कि दूसरे लोग मेरी ओर आदर की दृष्टि से देखें। यह मुद्दा मेरे जीवन प्रवेश में एक काफी बड़ी बाधा बन गया।) तुम लोग समझते हो करिअर मूलतः एक व्यक्तिगत लक्ष्य है; यह उस मार्ग को भी स्पर्श करता है जिस पर व्यक्ति चलता है। इसलिए, लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं का त्याग करने के विषय के तहत “करिअर” पर हमारी संगति में, मैं अभी ऐसी किसी भी विषयवस्तु का उल्लेख नहीं करूँगा जो लोगों के लक्ष्यों को स्पर्श करती हो। हम मुख्य रूप से “करिअर” के शाब्दिक अर्थ के बारे में बात करेंगे। “करिअर” का तात्पर्य क्या है? यह वह कार्य या श्रम है जिसमें लोग इस दुनिया में रहते हुए अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए संलग्न होते हैं। यह विषय जिस पर हम संगति करना चाहते हैं, लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं का त्याग करने के विषय के अंतर्गत “करिअर” के दायरे में आता है। यह परमेश्वर में विश्वास करते और सत्य का अनुसरण करते हुए, अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए नौकरी करने और समाज में एक व्यवसाय चुनने के दायरे और सिद्धांत से संबंधित है। स्वाभाविक रूप से, यह कमोबेश लोगों के लक्ष्यों से संबंधित विषयवस्तु के कुछ हिस्से की तथा जिस कार्य में एक विश्वासी संलग्न होता है, उससे संबंधित परमेश्वर की अपेक्षाओं की बात करेगा। इसे उन विचारों और दृष्टिकोणों से संबंधित भी कहा जा सकता है जो एक विश्वासी को दुनिया की विभिन्न नौकरियों और करिअर के प्रति रखने चाहिए। करिअर को स्पर्श करने वाले विषय काफी व्यापक हैं; हम उन्हें श्रेणीबद्ध करेंगे, ऐसा करने से लोगों को यह समझने में मदद मिलेगी कि विश्वासी और सत्य का अनुसरण करने वाले जिन करिअर में संलग्न होते हैं, उनके संबंध में परमेश्वर के क्या मानक और अपेक्षाएँ हैं, साथ ही, परमेश्वर विश्वासियों और सत्य का अनुसरण करने वालों से किन विचारों और दृष्टिकोणों को रखने की अपेक्षा रखता है जब वे किसी पेश में संलग्न होते हैं या उस पर विचार करते हैं। इससे लोग अपनी धारणाओं और अभिलाषाओं में मौजूद करिअर संबंधी लक्ष्यों तथा लालसाओं को त्याग सकेंगे। साथ ही, यह लोगों के उन गलत दृष्टिकोणों को भी सुधारेगा जो वे संसार में अपने पेशे या अपने उस करिअर के प्रति रखते हैं जिसके लिए वे प्रयासरत हैं। जिन करिअर का लोगों को त्याग कर देना चाहिए, उसकी विषयवस्तु को हम चार मुख्य बातों में विभाजित करेंगे : जिस पहली चीज के बारे में लोगों को समझने की आवश्यकता है, वह है दान-पुण्य न करना; दूसरी चीज है, भोजन और वस्त्रों से संतुष्ट रहो; तीसरी चीज विभिन्न सामाजिक ताकतों से दूर रहना है; चौथी चीज राजनीति से दूर रहना है। हम इन चार चीजों की विषयवस्तु के आधार पर करिअर का त्याग करने से संबंधित मुद्दों पर संगति करेंगे। जरा सोचो, क्या इन चार विषयों की विषयवस्तु की उससे कोई प्रासंगिकता है जिसके बारे में तुम संगति करते रहे हो? (नहीं है।) तुम लोग किस बारे में संगति करते रहे हो? (व्यक्तिगत लक्ष्यों के बारे में।) तुम लोग जिस बारे में संगति करते रहे हो, उसमें सत्य सिद्धांत शामिल नहीं हैं, वह बस कुछ छोटे, व्यक्तिगत लक्ष्यों से संबंधित है। जिन चार बिंदुओं पर हम संगति कर रहे हैं, उनमें करिअर विषय के अंतर्गत विभिन्न सिद्धांत शामिल हैं। यदि लोग इन विभिन्न सिद्धांतों को समझ जाएँ, तो उनके लिए सत्य का अनुसरण करने की प्रक्रिया के दौरान करिअर के संबंध में वह सब छोड़ना आसान होगा जो उन्हें छोड़ना चाहिए। उनके लिए इन चीजों को छोड़ना आसान होगा क्योंकि वे सत्य के इन पहलुओं को समझते हैं। लेकिन, यदि तुम इन सत्यों को नहीं समझते, तो तुम्हारे लिए इन चीजों का त्याग करना बहुत कठिन होगा। आओ, एक-एक करके करिअर का त्याग करने के इन चार सिद्धांतों पर संगति करें।
सबसे पहले, दान-पुण्य न करना। दान-पुण्य न करने का क्या अर्थ है? शब्दों का शाब्दिक अर्थ समझना आसान है। तुम सभी की कमोबेश दान के विषय पर कुछ-न-कुछ अवधारणा है, है न? उदाहरण के लिए, अनाथालय, आश्रय स्थल और समाज में इस तरह के अन्य दानार्थ संगठन—ये सभी दान कार्य से संबंधित संगठन और अभिधान हैं। इसलिए, जब लोगों के करिअर की बात आती है, तो परमेश्वर की पहली अपेक्षा यह है कि वे दान-पुण्य न करें। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि लोगों को दान-पुण्य संबंधी चीजें नहीं करनी चाहिए या दान-पुण्य से संबंधित किसी भी उद्योग में संलग्न नहीं होना चाहिए। क्या यह समझना आसान नहीं है? एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो परमेश्वर में विश्वास करता है, जिसका एक भौतिक शरीर है, जिसका एक परिवार और एक जीवन है, और जिसे अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पैसों की आवश्यकता है, तुम्हारे लिए किसी पेशे में संलग्न होना आवश्यक है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस प्रकार के पेशे में संलग्न होते हो, लोगों से परमेश्वर की पहली अपेक्षा दान-पुण्य न करना है। तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने के कारण या अपने भौतिक जीवन के निर्वहन के लिए दान-पुण्य नहीं करना चाहिए। वह कार्य ऐसा पेशा नहीं है जिसमें तुम्हें संलग्न होना चाहिए। यह परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया पेशा नहीं है, और यह निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया कर्तव्य नहीं है। दान-पुण्य जैसी चीजों का परमेश्वर में विश्वास करने वालों या सत्य का अनुसरण करने वालों से संबंध नहीं है। कहा सकता है कि यदि तुम दान-पुण्य करते हो तो परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। भले ही तुम संतुष्टि के साथ इसे अच्छी तरह से करते हो, और तुम्हें समाज और यहाँ तक कि भाई-बहन भी मान्यता दे देते हैं, परमेश्वर इसे मान्यता नहीं देगा, न ही इसे याद रखेगा। परमेश्वर तुम्हें याद नहीं रखेगा या अंततः आशीष नहीं देगा, या अपवादस्वरूप तुम्हें उद्धार प्राप्त करने नहीं देगा या वह तुम्हें इसलिए एक अद्भुत गंतव्य नहीं देगा क्योंकि तुम कभी दान-पुण्य करते थे, तुम कभी एक महान परोपकारी थे, तुमने अनेक लोगों की मदद की थी, अनेक अच्छे काम किए थे, अनेक लोगों को लाभ पहुँचाया था, या कई लोगों की जान भी बचाई थी। अर्थात् दान-पुण्य करना उद्धार की आवश्यक शर्त नहीं है। तो फिर दान के मामलों में क्या शामिल है? वास्तव में, किसी न किसी हद तक, हर किसी के मन में कुछेक ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें निश्चित रूप से एक प्रकार का दान-पुण्य का कार्य माना जा सकता है। उदाहरण के लिए, आवारा कुत्तों को पालना। चूँकि कुछ देशों में पालतू पशुओं पर सख्त नियंत्रण नहीं है, या खराब आर्थिक स्थितियों के कारण, तुम्हें अक्सर सड़कों पर या कुछ क्षेत्रों में आवारा कुत्ते दिखाई देते हैं। “आवारा कुत्तों” से क्या तात्पर्य है? इसका मतलब है कि कुछ लोग अपने कुत्तों को पालने में सक्षम नहीं होते या पालना नहीं चाहते, इसलिए वे उन्हें छोड़ देते हैं, या हो सकता है कि किसी कारण से कुत्ते खो गए, और अब वे सड़कों पर भटक रहे हैं। संभवतः तुम सोचने लगो, “मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझे इन पशुओं को अपनाना चाहिए, क्योंकि अच्छे काम करना परमेश्वर का इरादा है, इससे परमेश्वर के नाम की महिमा बढ़ती है, और यह एक जिम्मेदारी है जिसे परमेश्वर में विश्वास करने वालों को उठाना चाहिए। यह एक दायित्व है जिससे बचा नहीं जा सकता।” इसलिए, जब तुम आवारा कुत्ते-बिल्लियों को देखते हो तो उन्हें घर ले जाकर पालते हो, मितव्ययिता से रहते हो ताकि उनके लिए भोजन खरीद सको। कुछ लोग इसमें अपना वेतन और रोजमर्रा के खर्च भी लगा देते हैं, और अंततः ज्यादा-से-ज्यादा कुत्ते-बिल्लियों को अपनाते हैं, और इनके लिए उन्हें घर तक किराए पर लेना पड़ता है। ऐसा करने पर, धीरे-धीरे उनके अपने जीवनयापन के लिए धन कम पड़ता जाता है, और अब उनके वेतन से इसकी पूर्ति नहीं हो पाती, इसलिए उनके पास पैसे उधार लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। लेकिन भले ही चीजें कितनी भी कठिन क्यों न हो जाएँ, उन्हें लगता है कि यह एक दायित्व है जिससे वे बच नहीं सकते, एक जिम्मेदारी है जिसे वे छोड़ नहीं सकते, और उन्हें इसे एक अच्छा काम मानते हुए करना चाहिए। उन्हें लगता है कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं और सिद्धांतों को कायम रख रहे हैं। वे दान-पुण्य के काम में संलग्न होने हेतु इन आवारा कुत्ते-बिल्लियों को पालने में बड़ी मात्रा में पैसा, ऊर्जा और समय खर्च करते हैं, और मन-ही-मन बहुत सुकून और परिपूर्ण महसूस करते हैं, वे खुद को लेकर वास्तव में अच्छा महसूस करते हैं और कुछ लोग तो यहाँ तक सोचते हैं, “यह परमेश्वर का महिमामंडन है, मैं उन प्राणियों को अपना रहा हूँ जिन्हें परमेश्वर ने बनाया है—यह अत्यंत नेक कर्म है, और परमेश्वर निश्चित रूप से इसे याद रखेगा।” क्या ये विचार सही हैं? (ये सही नहीं हैं।) परमेश्वर ने तुम्हें यह कार्य नहीं सौंपा है। न तो यह तुम्हारा दायित्व है और न ही जिम्मेदारी। यदि तुम्हें आवारा कुत्ते या बिल्लियाँ मिलती हैं और वे तुम्हें अच्छे लगने लगते हैं, तो एक या दो को पालना ठीक है। लेकिन, यदि तुम आवारा पशु पालने को दान-पुण्य के कार्य के रूप में देखते हो, यह मानते हुए कि दान-पुण्य एक ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर में विश्वास करने वाले को करना चाहिए, तो तुम बहुत बड़ी गलती कर रहे हो। यह एक विकृत समझ-बूझ है।
ऐसे लोग भी हैं जो जीवित रहने की अपनी क्षमता पर भरोसा रखते हुए, अपने थोड़े-बहुत अतिरिक्त धन का उपयोग अपने आस-पास के गरीबों को राहत देने के लिए करते हैं। वे उन्हें वस्त्र, भोजन, रोजमर्रा के काम की चीजें और यहाँ तक कि पैसे भी देते हैं, यह मानते हुए कि यह एक प्रकार का दायित्व है जिसे उन्हें पूरा करना चाहिए। यहाँ तक कि हो सकता है कि वे कुछ गरीब लोगों को भी अपने घर ले आएँ, उनके साथ सुसमाचार साझा करें, और खर्च करने के लिए उन्हें पैसे देने की पेशकश करें। ये गरीब लोग परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए मान जाते हैं, और बाद में, वे उन्हें भोजन और आश्रय प्रदान करते हैं, यह सोचकर कि वे अपना कर्तव्य और दायित्व पूरा कर रहे हैं। ऐसे लोग भी हैं जो देखते हैं कि समाज में कुछ अनाथ बच्चों को अभी तक गोद नहीं लिया गया है। उनके पास खर्च करने के लिए थोड़ा अतिरिक्त पैसा होता है, इसलिए वे जाकर इन अनाथों की मदद करते हैं, कल्याण गृह और अनाथालय स्थापित करते हैं, और अनाथों को गोद लेते हैं। उन्हें गोद लेने के बाद, वे उनके भोजन, आश्रय और शिक्षा की व्यवस्था करते हैं और यहाँ तक कि वयस्क होने तक उनका पालन-पोषण करते हैं। वे न केवल ऐसा करना जारी रखते हैं, बल्कि इसे अगली पीढ़ी तक भी पहुँचाते हैं। उनका मानना है कि यह एक अत्यंत अच्छा और आशीष योग्य कार्य है, और यह परमेश्वर के स्मरण के योग्य कार्य है। सुसमाचार फैलाने की अवधि के दौरान भी, कुछ लोग गरीब क्षेत्रों से सुसमाचार के संभावित प्राप्तकर्ताओं को देखते हैं जिनके पास धार्मिक विश्वास है और वे उनकी मदद करने और उन्हें भिक्षा देने के लिए बाध्य महसूस करते हैं। लेकिन सुसमाचार फैलाना, मात्र सुसमाचार फैलाना है, यह दान-पुण्य का कार्य या सहायता प्रदान करना नहीं है। सुसमाचार साझा करने का उद्देश्य उन लोगों को, जो परमेश्वर के वचनों को समझ सकते हैं और सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, अर्थात् परमेश्वर की भेड़ों को, उसके घर में, उसकी उपस्थिति में लाना है, ताकि उन्हें उद्धार का अवसर मिल सके। इसका संबंध गरीबों की सहायता करने से नहीं है जिससे उन्हें खाने और पहनने के लिए कुछ मिल सके, और वे एक सामान्य व्यक्ति जैसा जीवन जी सकें और भूखे न मरें। इसलिए, किसी भी दृष्टिकोण से और किसी भी तरह से, चाहे वह पालतू पशुओं या जानवरों को सहायता देना हो, या गरीबों या ऐसे लोगों की सहायता करना हो जो अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते, दान-पुण्य करना वह नहीं है जिसकी अपेक्षा परमेश्वर किसी व्यक्ति से उसके कर्तव्य, जिम्मेदारी या दायित्व के भाग के रूप में अपेक्षा करता है। इसका परमेश्वर के विश्वासियों और सत्य का अभ्यास करने वालों से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी के पास दयालु हृदय है और वह ऐसा करना चाहता है, या कभी उसकी मुलाकात ऐसे विशेष लोगों से होती है जिन्हें सहायता की आवश्यकता हो, तो सक्षम होने पर वह ऐसा कर सकता है। लेकिन, तुम्हें इसे परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए कार्य के रूप में नहीं देखना चाहिए। यदि तुम सक्षम हो और तुम्हारी परिस्थिति सही है, तो तुम किसी अवसर पर मदद कर सकते हो, लेकिन यह केवल तुम्हारा प्रतिनिधित्व करता है, परमेश्वर के घर का नहीं, और निश्चित रूप से उसकी अपेक्षाओं का तो कतई नहीं। निःसंदेह, ऐसा करने का अर्थ यह नहीं है कि तुमने परमेश्वर के इरादे पूरे कर दिए हैं और इसका अर्थ निश्चित रूप से यह भी नहीं है कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो। यह बस तुम्हारा व्यक्तिगत आचरण दर्शाता है। यदि तुम ऐसा कभी-कभार करते हो, तो परमेश्वर तुम्हें इसके लिए दोषी नहीं ठहराएगा, लेकिन वह इसका स्मरण भी नहीं करेगा—बस इतनी सी बात है। यदि तुम इसे किसी करिअर में बदलते हो, नर्सिंग होम, कल्याण गृह, अनाथालय, पशु आश्रय खोलते हो, या आपदा के समय भी आगे बढ़कर आपदाग्रस्त लोगों या ऐसे क्षेत्रों को दान-पुण्य करने के लिए कलीसिया में भाई-बहनों से या समुदाय से धन जुटाते हो, तो तुम्हें क्या लगता है कि तुम कितना अच्छा कर रहे हो? इसके अलावा, जब कुछ स्थानों पर भूकंप, बाढ़, या अन्य प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाएँ आती हैं, तो कुछ लोग भाई-बहनों से दान माँगने के लिए कलीसिया जाते हैं। इससे भी बदतर, कुछ लोग इन आपदाग्रस्त लोगों और स्थानों की सहायता के लिए चढ़ावों का उपयोग भी करते हैं। उन्हें लगता है कि यह प्रत्येक विश्वासी का दायित्व है, और एक सामाजिक सामुदायिक संगठन के रूप में कलीसिया को इसे पूरा करना चाहिए। वे इसे एक न्यायसंगत अभियान मानते हैं, न केवल भाई-बहनों से योगदान की माँग करते हैं बल्कि कलीसिया से इन आपदाग्रस्त क्षेत्रों की सहायता के लिए चढ़ावे का कुछ अंश देने का भी आग्रह करते हैं। तुम्हारा इस बारे में क्या विचार है? (यह बुरा है।) क्या यह केवल बुरा है? इस मामले की प्रकृति पर चर्चा करो। (चढ़ावा सुसमाचार फैलाने के लिए, सुसमाचार के कार्य का विस्तार करने के लिए होता है। वह आपदा राहत या गरीबों की सहायता के लिए नहीं होता।) (आपदा राहत का सत्य से कोई संबंध नहीं है; ऐसा करने का मतलब यह नहीं है कि सत्य का अभ्यास किया जा रहा है, और यह निश्चित रूप से स्वभाव में बदलाव की गवाही नहीं देता।) कुछ लोगों का मानना है कि चूँकि सभी लोग एक ही ग्रह पर रहते हैं, पृथ्वी के सभी निवासी एक बड़ा परिवार हैं और जब एक पक्ष मुसीबत में होता है, तो दूसरों को मदद के लिए एकजुट होना चाहिए। वे सोचते हैं कि उन्हें पूरी मदद करनी चाहिए ताकि आपदा क्षेत्र के लोग अपने साथी मनुष्यों की गर्मजोशी महसूस कर सकें और कलीसिया की गर्मजोशी और सहायता का अनुभव कर सकें। वे इसे एक अत्यंत अच्छा कार्य, एक ऐसा कार्य जो परमेश्वर का सम्मान करता है, और परमेश्वर की गवाही देने का एक अद्भुत अवसर है। जब कुछ लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे कर्तव्य निभाते समय सिद्धांतों पर कायम रहें और अपने अभ्यासों को परमेश्वर के वचनों और कार्य व्यवस्थाओं के अनुरूप करें, तो वे उत्साहहीन और प्रेरणाहीन महसूस करते हैं। वे इन बातों पर अपने हृदय में विचार नहीं करते। लेकिन जहाँ तक गरीब या पिछड़े देशों के लोगों को सहायता प्रदान करने के लिए चढ़ावे समर्पित करने, उनके कर्तव्य निर्वहन के लिए उपकरण खरीदने और उन्हें पर्याप्त भोजन और कपड़ों का जीवन जीने में मदद करने की बात है, तो वे काम पर लगने के लिए विशेष रूप से उत्साही और उत्सुक हो जाते हैं, और अधिक-से-अधिक करना चाहते हैं। वे इतने उत्साही क्यों हैं? क्योंकि वे महान परोपकारी बनना चाहते हैं। जैसे ही किसी महान परोपकारी का उल्लेख होता है, वे विशेष रूप से महान महसूस करने लगते हैं। वे इन गरीब लोगों के जीवन की बेहतरी के लिए प्रयास करने में विशेष रूप से सम्मानित महसूस करते हैं और अपने तेज और अपनी गर्मजोशी का उपयोग करते हैं। वे इसके बारे में बेहद उत्साहित महसूस करते हैं, और परिणामस्वरूप कुछ लोग विशेष रूप से इन गतिविधियों में शामिल होने के इच्छुक होते हैं। लेकिन इन चीजों को करने की इस उल्लेखनीय तत्परता के पीछे क्या उद्देश्य है? क्या यह सचमुच परमेश्वर का सम्मान करने के लिए है? क्या परमेश्वर को इस प्रकार के सम्मान की आवश्यकता है? क्या परमेश्वर को इस प्रकार की गवाही की आवश्यकता है? क्या ऐसा हो सकता है कि अगर तुम पैसे या सहायता नहीं दोगे तो परमेश्वर के नाम का अपमान होगा? क्या परमेश्वर अपनी महिमा खो देगा? क्या यह संभव है कि जब तुम ऐसा करोगे तो परमेश्वर महिमामंडित होगा? क्या वह संतुष्ट होगा? क्या यही मामला है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) तो फिर बात क्या है? ये लोग ऐसा करने के इतने इच्छुक क्यों हैं? क्या इनका इरादा अपने अहंकार को संतुष्ट करना है? (हाँ।) उनका इरादा उन लोगों से सराहना पाना है जिनकी इन्होंने मदद की है, अपनी उदारता, विशाल हृदयता और धन के लिए प्रशंसा पाना है। कुछ लोगों में हमेशा वीरतापूर्ण भावना होती है : वे उद्धारकर्ता बनना चाहते हैं। तुम स्वयं को क्यों नहीं बचाते? क्या तुम जानते हो कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो? यदि तुममें दूसरों को बचाने की क्षमता है, तो तुम स्वयं को क्यों नहीं बचा सकते? यदि तुम इतने उदार हो, तो खुद को बेचकर उन लोगों की मदद के लिए पैसे क्यों नहीं देते? चढ़ावों का उपयोग क्यों करते हो? यदि तुममें यह क्षमता है तो तुम्हें खाना-पीना बंद कर देना चाहिए, या दिन में केवल एक बार खाना चाहिए, और इस तरह जो पैसा तुम बचाते हो उसका उपयोग उन लोगों की मदद करने के लिए करना चाहिए ताकि वे अच्छा खा सकें और गर्म कपड़े पहन सकें। तुम परमेश्वर के चढ़ावों का दुरुपयोग क्यों करते हो? क्या यह परमेश्वर के घर की कीमत पर उदार होना नहीं है? (हाँ।) परमेश्वर के घर की कीमत पर उदार होना, दूसरों से “महान परोपकारी” की उपाधि पाना, दूसरों की जरूरत बनने की अपनी अहंकारी इच्छा को संतुष्ट करना—क्या यह बेशर्मी नहीं है? (हाँ।) चूँकि यह बेशर्मी का काम है, तो ऐसा काम किया जाना चाहिए या नहीं? (ऐसा नहीं किया जाना चाहिए।) परमेश्वर के घर द्वारा सुसमाचार के विस्तार की प्रकृति दान-पुण्य करना नहीं है; इसकी प्रकृति उन भेड़ों को तलाश करना है जो परमेश्वर के वचनों को समझ सकें, इन लोगों को परमेश्वर की उपस्थिति में वापस लाना, उनसे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करवाना और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करवाना है। मानव जाति को बचाने के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना में सहयोग करना यह होता है, न कि दान-पुण्य करना या सहायता प्रदान करना या जहाँ गरीबी हो वहाँ सुसमाचार का प्रचार करना। यह सुसमाचार फैलाने की आड़ में दान-पुण्य का कार्य करना है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ये लोग भरपेट भोजन करें और अच्छा कपड़ा पहनें, आधुनिक तकनीक का उपयोग करें और आधुनिक जीवन का आनंद लें—क्या ये कार्य लोगों को बचा सकते हैं? ऐसे कार्य सुसमाचार फैलाने और लोगों को बचाने के उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकते। सुसमाचार फैलाना दान-पुण्य करना नहीं है; इसका संबंध दिलों को जीतने, लोगों को परमेश्वर के सामने लाने, उन्हें सत्य और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने में सक्षम बनाने से है—राहत प्रदान करने से नहीं। कलीसिया में काम की जरूरतों के कारण, कुछ व्यक्ति अपने कर्तव्यों पर पूर्णकालिक रूप से ध्यान केंद्रित करने के लिए अपना काम और परिवार छोड़ देते हैं, और परमेश्वर का घर उन्हें जीवन-यापन के लिए खर्च प्रदान करता है। लेकिन यह कोई राहत नहीं है, न ही यह दान-पुण्य के कार्य में संलग्न होना है। जब परमेश्वर का घर सुसमाचार फैलाता है और कलीसिया की स्थापना करता है, तो वह कल्याणकारी संस्थाएँ या आश्रय स्थल स्थापित नहीं करता। यह इन लाभों या निधियों का उपयोग करके लोगों को खरीदने या मुफ्त खाने-पिलाने के लिए उन्हें परमेश्वर के घर में लाना नहीं है। परमेश्वर का घर परजीवियों या भिखारियों की मदद नहीं करता है, न ही यह आवारा या अनाथ लोगों को जगह देता है, न ही यह उन लोगों को राहत प्रदान करता है जिनके पास खाने के लिए कुछ नहीं है। यदि किसी व्यक्ति के पास खाने के लिए पैसे नहीं हैं तो इसका कारण उसका आलसी या अक्षम होना है। यह खुद उसकी गलती है और इसका हमारे सुसमाचार फैलाने से कोई लेना-देना नहीं है। हम लोगों को जीतने के लिए, ऐसे लोगों को जीतने के लिए सुसमाचार फैलाते हैं जो परमेश्वर के वचन समझ सकते हैं और सत्य स्वीकार कर सकते हैं, न कि यह देखने के लिए कि कौन गरीब है, कौन दयनीय है, कौन उत्पीड़ित है, या किसका कोई नहीं है ताकि हम उन्हें अंदर ले लें या उनकी मदद करें। सुसमाचार फैलाने के अपने सिद्धांत और मानक हैं, और सुसमाचार के संभावित प्राप्तकर्ताओं के लिए भी मानक और अपेक्षाएँ हैं। इसका संबंध भिखारियों को खोजने से नहीं है। इसलिए, यदि तुम सुसमाचार फैलाने को एक दानार्थ प्रयास मानते हो, तो तुम गलत हो। या यदि तुम मानते हो कि सुसमाचार फैलाने का कर्तव्य निभाते समय और इस कार्य में संलग्न होते समय तुम दान-पुण्य कर रहे हो, तो यह और भी गलत है। यह दिशा और आरंभिक बिंदु, दोनों ही अंतर्निहित रूप से गलत हैं। यदि कोई ऐसा दृष्टिकोण रखता है या अपने कार्यों में ऐसी दिशा लागू करता है, तो उसे तुरंत सुधार करते हुए अपना दृष्टिकोण बदल लेना चाहिए। परमेश्वर गरीबों या समाज के निम्नतम स्तर के उत्पीड़ितों पर कभी दया नहीं करता। परमेश्वर के पास किसके लिए करुणा है? कम-से-कम, उसे एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो परमेश्वर में विश्वास करता हो, जो सत्य स्वीकार कर सके। यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, और उसका विरोध और निंदा करते हो, तो क्या परमेश्वर के पास तुम्हारे लिए करुणा होगी? यह असंभव है। इसलिए, लोगों को गलती से यह नहीं सोचना चाहिए, “परमेश्वर एक दयालु परमेश्वर है। वह ऐसे लोगों पर दया करता जो उत्पीड़ित और अलोकप्रिय हैं, जिन्हें नीचा दिखाया जाता है, जो हाशिये पर हैं और जिनका समाज में कोई न होता। परमेश्वर उन सब पर दया करता है और उन्हें अपने घर में प्रवेश करने देता है।” यह गलत है! यह तुम्हारी धारणा और कल्पना है। परमेश्वर ने कभी भी इस तरह की चीजें न तो कही हैं, न ही की हैं। यह केवल तुम्हारी अपनी आशाओं पर आधारित सोच है, मनुष्य की दयालुता के संबंध में तुम्हारे विचार हैं जिनका सत्य से कोई संबंध नहीं है। उन लोगों को देखो जिन्हें परमेश्वर चुनकर अपने घर में लाया है। उनका सामाजिक वर्ग जो भी हो, क्या परमेश्वर को किसी के लिए इसलिए दया या खेद महसूस हुआ कि उसके पास खाने के लिए कुछ नहीं था, और वह उसे अपने घर ले आया? एक भी नहीं। इसके विपरीत, वे लोग जिन्हें परमेश्वर ने चुना था, चाहे उनका सामाजिक वर्ग कुछ भी हो—भले ही वे किसान हों—ऐसा कभी न हुआ कि उनके पास खाने को नहीं था, और उनमें कोई भिखारी भी नहीं है। यह परमेश्वर के आशीष का प्रमाण है। यदि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है, और तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो, तो वह तुम्हें इतना निराश्रित नहीं होने देगा कि तुम खाना भी न खा सको, या ऐसी स्थिति में नहीं पहुँचाएगा जहाँ तुम्हें माँगकर खाना पड़े। इसके बजाय, परमेश्वर तुम्हें प्रचुर मात्रा में वस्त्र और भोजन प्रदान करेगा। परमेश्वर में विश्वास करने वाले कुछ लोग हमेशा कुछ गलत धारणाएँ मन में रखते हैं। वे क्या सोचते हैं? “परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकतर लोग समाज के सबसे निचले स्तर से आते हैं, और कुछ भिखारी भी हो सकते हैं।” क्या बात ऐसी है? (नहीं, ऐसी बात नहीं है।) यहाँ तक कि कुछ लोग अफवाहें भी फैला रहे हैं कि मैं भिखारी हुआ करता था। मैंने कहा, “तो फिर, क्या मैंने कभी टाट ओढ़ा या लाठी रखी? यदि तुम कहते हो कि मैं एक भिखारी था, तो मुझे इसके बारे में कैसे पता नहीं चला?” मेरे बारे में बात हो रही है और मैं ही नहीं जानता; यह पूरी तरह से बेतुकी बात है! जब परमेश्वर ने कहा, “लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं; परन्तु मनुष्य के पुत्र के लिये सिर धरने की भी जगह नहीं है।” इसका मतलब क्या है? क्या परमेश्वर कह रहा है कि वह भिखारी बन गया? क्या वह कह रहा है कि वह निराश्रित था और खाना खाने के भी पैसे नहीं थे? (नहीं, वह ऐसा नहीं कह रहा।) वह ऐसा नहीं कह रहा। तो फिर इस कथन का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि संसार और मानवजाति ने परमेश्वर को त्याग दिया था; यह दर्शाता है कि परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी, और परमेश्वर मानवजाति को बचाने के लिए आया, फिर भी उसने उसे स्वीकार नहीं किया। कोई भी परमेश्वर का स्वागत करने के लिए तैयार नहीं था। यह कथन भ्रष्ट मानवजाति के कुरूप पक्ष को दिखाता है और उस पीड़ा को दर्शाता है जो देहधारी परमेश्वर ने मानव जगत में भोगी थी। परमेश्वर के यह कहने पर कुछ लोग सोचते हैं, “परमेश्वर को भिखारी पसंद हैं, और हम भिखारियों से कहीं बेहतर हैं, इसलिए परमेश्वर की नजरों में हमारी स्थिति अधिक ऊँची है।” नतीजतन, वे भिखारियों की मदद करना चाहते हैं। यह पूरी तरह से मनुष्यों को हुई गलतफहमी है, इसका संबंध लोगों के भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों से है। इसका परमेश्वर के सार, उसके स्वभाव, या उसकी करुणा और प्रेम से बिल्कुल कोई संबंध नहीं है।
कुछ लोग कहते हैं, “तुम लोगों के लक्ष्यों, आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देने के विषय के अंतर्गत ‘करिअर’ छोड़ने की बात करते हो और लोगों से दान-पुण्य न करने को कहते हो। लेकिन तुम हमेशा पशुओं के साथ अच्छा व्यवहार करने और उन्हें नुकसान न पहुँचाने पर जोर क्यों देते हो? इसका क्या अर्थ है? कुत्तों और बिल्लियों को परमेश्वर के घर में भी रखा जाता है, और लोगों को उन्हें नुकसान पहुँचाने की अनुमति नहीं है।” मुझे बताओ, क्या इसमें और दान-पुण्य करने में कोई अंतर है? क्या ये एक ही चीज हैं? (नहीं, ये एक ही चीज नहीं हैं।) यहाँ क्या हो रहा है? (विभिन्न प्रकार के पशुओं को नुकसान न पहुँचाना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है।) यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। तो फिर सामान्य मानवता का अभ्यास और प्रकटीकरण क्या होना चाहिए? (चूँकि कोई उन्हें पालना चुनता है, तो उसे अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।) अपनी जिम्मेदारी निभाना—क्या इससे अधिक विशिष्ट कुछ है? (उसे उनकी देखभाल करनी होगी।) यह एक विशिष्ट कार्य है। किन सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए? इसमें सत्य शामिल है। मैं समझाता हूँ, और तुम लोग सुनो और देखो कि क्या इसमें सत्य शामिल है। परमेश्वर द्वारा बनाए गए प्राणियों की देखभाल करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। अधिक ठोस रूप में, इसका अर्थ है, उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाना और उनकी अच्छी देखभाल करना। चूँकि उन्हें पालने का चुनाव तुम्हारा है, तो तुम्हें ही जिम्मेदारी निभानी होगी। पालतू पशु मनुष्यों द्वारा पाले और देखभाल किए जाने के लिए बने हैं। वे उन जंगली जानवरों से भिन्न हैं जिनकी देखभाल के लिए तुम्हारी आवश्यकता नहीं होती। जंगली जानवरों के प्रति जो सबसे बड़ा सम्मान और देखभाल तुम प्रदर्शित कर सकते हो, वह जानबूझकर उनके आवास को नष्ट करने से बचना और उनका शिकार न करना या उन्हें न मारना है। जहाँ तक घरेलू मुर्गी, पशुधन या पालतू पशुओं का सवाल है, जिन्हें लोग अपने घरों में रख सकते हैं, चूँकि तुम उन्हें पालना चुनते हो तो तुम्हें अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। यानी, तुम्हारी परिस्थितियों के आधार पर, यदि तुम्हारे पास समय है तो कुछ समय के लिए उनके साथ रहो, और यदि तुम व्यस्त हो तो बस यह सुनिश्चित करो कि उन्हें खाना मिले और वे आराम से रहें। संक्षेप में, तुम्हें उन्हें संजोना चाहिए। उन्हें संजोने का क्या मतलब है? परमेश्वर द्वारा बनाए गए जीवन का सम्मान करो और उसके द्वारा बनाए गए प्राणियों की देखभाल करो। उन्हें संजो लो, उनकी देखभाल करो : यह दान-पुण्य का कार्य नहीं है, यह उनके साथ उचित व्यवहार करना है। क्या यह एक सिद्धांत है? (हाँ।) यह दान-पुण्य करना नहीं है। दान-पुण्य का क्या तात्पर्य है? यह कोई जिम्मेदारी निभाना या जीवन को संजोना नहीं है। यह अपनी क्षमता और ऊर्जा के दायरे से परे जाना और इस चीज को करिअर बनाना है। इसका पालतू पशुओं को पालने से कोई लेना-देना नहीं है। अगर कोई अपने पालतू जानवरों को बुनियादी प्यार नहीं दे सकता या जिम्मेदारी नहीं निभा सकता, तो वह किस तरह का व्यक्ति है? क्या उसमें मानवता है? (उसमें मानवता नहीं है।) कम-से-कम, उस व्यक्ति में मानवता का अभाव तो है ही। वास्तव में, कुत्ते और बिल्लियाँ लोगों से बहुत अधिक माँगें नहीं करते हैं। भले ही तुम उनसे कितना भी गहरा प्यार करते हो या उन्हें पसंद या नापसंद करते हो, कम-से-कम, तुम्हें उनकी देखभाल करने के लिए जिम्मेदार होना चाहिए, तुम्हें उन्हें समय पर खाना खिलाना चाहिए और उनके साथ दुर्व्यवहार करने से बचना चाहिए—यही काफी है। अपनी आर्थिक स्थिति के आधार पर, तुम जो भी खिला सकते हो, जैसे भी रख सकते हो, तुम्हें उन्हें प्रदान करना चाहिए। बस इतना ही। उनके जीवन के लिए बहुत अधिक की जरूरत नहीं होती। तुम्हें बस उनके साथ दुर्व्यवहार करने से बचना चाहिए। यदि लोग इतना-सा भी प्रेम नहीं जुटा पाते, तो यह दर्शाता है कि उनमें मानवता की कितनी कमी है। दुर्व्यवहार से क्या तात्पर्य है? बिना किसी कारण के उन्हें मारना और लताड़ना, खाने का समय होने पर उन्हें खाना न देना, जब उन्हें टहलने की जरूरत हो तो उन्हें टहलाने न ले जाना और जब वे बीमार हों तो उनकी देखभाल न करना। जब तुम दुखी या खराब मूड में होते हो तो उन्हें लताड़कर और मारकर अपना गुस्सा उन पर निकालते हो। तुम उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते हो। यह दुर्व्यवहार है। यदि तुम दुर्व्यवहार से बचते हो और बस अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकते हो तो यही काफी है। यदि तुममें अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए इतनी-सी भी दया नहीं है, तो तुम्हें पालतू पशु नहीं रखना चाहिए। तुम्हें उसे आजाद कर देना चाहिए, किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढना चाहिए जो उसे पसंद करता हो और उसे ही उसकी देखभाल करने देनी चाहिए, उसे जीने का मौका दो। कुत्ते पालने वाले कुछ लोग उनके साथ दुर्व्यवहार करने से भी बाज नहीं आते। वे कुत्तों को अपनी कुंठाओं को बाहर निकालने के एकमात्र उद्देश्य से पालते हैं, जब वे बुरे मूड में होते हैं या अच्छा महसूस नहीं कर रहे होते और उन्हें भड़ास निकालने की जरूरत होती है, तो वे इन कुत्तों पर भड़ास निकालते हैं। उनमें किसी अन्य व्यक्ति को लताड़ने या मारने की हिम्मत नहीं होती, वे उन परिणामों और जिम्मेदारियों से डरते हैं जो उन्हें वहन करनी पड़ेंगी। उनके घर में एक पालतू पशु होता है, एक कुत्ता होता है और इसलिए वे अपनी भड़ास उस कुत्ते पर निकालते हैं, क्योंकि आखिर वह समझता नहीं है और विरोध करने की हिम्मत नहीं करता। ऐसे लोगों में मानवता नहीं होती है। ऐसे भी लोग हैं जो कुत्ते-बिल्लियाँ पालते हैं लेकिन अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा पाते। यदि तुम्हें पसंद नहीं है, तो पालतू पशु मत रखो। लेकिन यदि तुम उसे रखना चुनते हो तो तुम्हें अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। उसकी अपनी जिंदगी और भावनात्मक जरूरतें होती हैं। प्यास लगने पर उसे पानी और भूख लगने पर खाने की जरूरत होती है। उसे लोगों के करीब रहने और उनसे सांत्वना पाने की जरूरत भी होती है। यदि तुम्हारा मूड खराब है और तुम कहते हो, “मेरे पास तुम्हारे लिए समय नहीं है, जाओ यहाँ से!”—यह किसी पालतू पशु के साथ अच्छा व्यवहार नहीं है। क्या इसमें कोई जमीर या विवेक है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “तुम्हें अपने कुत्ते-बिल्ली को आखिरी बार नहलाए कितना समय हो गया है? वे बहुत गंदे हैं!” “उफ्फ, उन्हें नहलाऊँ? मुझे तो यह भी नहीं पता कि मुझे कौन नहलाएगा। मुझे आखिरी बार नहाए कई दिन हो गए हैं, किसी को कोई परवाह नहीं है!” क्या यह मानवीय है, या यह किसी मानवीय संवेदना को दर्शाता है? (नहीं।) भले ही वे अच्छे मूड में हों या नहीं, जब कोई कुत्ता या बिल्ली उनके पास आता है, उनसे स्नेह जताता है, तो वे उसे लात मारकर कहते हैं, “चल भाग, गंदे जानवर! कर्ज वसूलने वाले की तरह, जब भी तुम आसपास होते हो तो परेशानी ही होती है। तुम्हें बस कुछ खाने-पीने को चाहिए। मैं तुम्हारे साथ खेलने के मूड में बिल्कुल नहीं हूँ!” यदि तुममें थोड़ी-सी भी करुणा नहीं है, तो तुम्हें कोई पालतू पशु नहीं रखना चाहिए। तुम्हें उसे तुरंत आजाद कर देना चाहिए। वह कुत्ता या बिल्ली तुम्हारे कारण कष्ट भोग रहा है! तुम बहुत स्वार्थी हो और पालतू पशु रखने के लायक नहीं हो। जब भी तुम कोई बिल्ली या कुत्ता पालते हो तो उसका खाना-पीना तुम्हारी देखभाल पर निर्भर करता है। तुम्हें इस सिद्धांत को समझना चाहिए। तुम पशुओं से मुकाबला क्यों कर रहे हो? तुम कहते हो, “मुझे नहलाने वाला कोई नहीं है, मुझे कौन नहलाएगा?” तुम्हें कौन नहलाएगा? तुम एक इंसान हो। तुम्हें स्वयं नहाना चाहिए। तुम अपना ख्याल रख सकते हो, लेकिन कुत्ते-बिल्लियों को तुम्हारी देखभाल की जरूरत है क्योंकि तुम उन्हें पाल रहे हो और चूँकि तुम उन्हें पाल रहे हो, इसलिए उनकी देखभाल करना तुम्हारा दायित्व है। यदि तुम इस दायित्व को भी पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उन्हें रखने के लायक नहीं हो। उनसे मुकाबला करने की क्या जरूरत है? तुम यहाँ तक कहते हो, “मैं तुम्हारा ख्याल रखता हूँ, लेकिन मेरा ख्याल कौन रख रहा है? जब तुम उदास होते हो तो सांत्वना के लिए मेरे पास आते हो। जब मैं उदास महसूस करता हूँ तो मुझे कौन सांत्वना देता है?” क्या तुम एक मनुष्य नहीं हो? मनुष्यों को आत्म-नियमन और आत्म-समायोजन करना चाहिए। कुत्ते और बिल्लियाँ बहुत सरल होते हैं : वे आत्म-नियमन नहीं कर सकते, इसलिए उन्हें सांत्वना के लिए मनुष्यों की आवश्यकता होती है। पशुओं के साथ व्यवहार करने और दान-पुण्य करने के बीच यही अंतर है। पशुओं के साथ व्यवहार करने का सिद्धांत क्या है? जीवन को संजो लो, उसका सम्मान करो और उनके साथ दुर्व्यवहार मत करो। परमेश्वर द्वारा सृजित सभी चीजों के साथ अपने व्यवहार में, उनके प्राकृतिक नियमों का पालन करो, परमेश्वर द्वारा सृजित विभिन्न प्राणियों के साथ, उसके द्वारा निर्धारित व्यवस्थाओं के अनुसार सही व्यवहार करो, सभी प्रकार के प्राणियों के साथ उचित संबंध बनाकर रखो, और उनके आवासों को नष्ट या बर्बाद मत करो। ये जीवन का सम्मान करने और उसे संजोने के सिद्धांत हैं। हालाँकि, जीवन का सम्मान करने और उसे संजोने के सिद्धांतों का संबंध दान करने से नहीं है। यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित सार्वभौमिक व्यवस्थाओं में से एक सिद्धांत है जिसका पालन प्रत्येक सृजित प्राणी को करना चाहिए। लेकिन इस सिद्धांत का पालन करना और दान-पुण्य करना एक बात नहीं है।
लेकिन कुछ लोग पूछते हैं, “परमेश्वर हमें करिअर के तौर पर दान-पुण्य क्यों नहीं करने देता? यदि वह हमें दान-पुण्य नहीं करने देता तो समाज में जिन लोगों या जीवों को मदद की आवश्यकता है, उनके बारे में क्या किया जाना चाहिए? उनकी मदद कौन करेगा?” उनकी मदद कौन करेगा, क्या इसका तुमसे कोई लेना-देना है? (इसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है।) क्या तुम मानवजाति का हिस्सा नहीं हो? क्या इसका तुमसे कोई लेना-देना है? (नहीं, यह मनुष्यों का लक्ष्य नहीं है।) बिल्कुल सही, यह तुम्हारा लक्ष्य नहीं है, न ही परमेश्वर ने तुम्हें यह लक्ष्य सौंपा है। तुम्हारा लक्ष्य क्या है? एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करना, परमेश्वर के वचन सुनना, परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करना, उद्धार प्राप्त करने के लिए सत्य को स्वीकार करना, वही करना जो परमेश्वर तुम्हें करने के लिए कहे, और उन चीजों से दूर रहना जिन्हें करने के लिए परमेश्वर तुम्हें मना करे। दान-पुण्य से संबंधित मामलों को कौन संभालेगा? उन्हें कौन संभालेगा, यह तुम्हारी चिंता का विषय नहीं है। जो भी हो, तुम्हें उन्हें संभालने या उनके बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। दान-पुण्य के मामलों को सरकार संभालती है या विभिन्न सामुदायिक संगठन, यह हमारी चिंता का विषय नहीं है। संक्षेप में, परमेश्वर में विश्वास करने वाले और सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को परमेश्वर के मार्ग और उसकी इच्छा के अनुसरण को अपना मानदंड, अभ्यास का लक्ष्य और दिशा बनाना चाहिए। लोगों को यह चीज समझनी चाहिए, और यह एक शाश्वत सत्य है जो कभी नहीं बदलेगा। निःसंदेह, कभी-कभी दूसरों की सहायता के लिए कुछ करना करिअर नहीं होता; यह कभी-कभार किया जाने वाला काम है, और इससे परमेश्वर तुमसे नाराज नहीं होता। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या परमेश्वर ऐसी चीजों को अपनी स्मृति में नहीं संजोता?” परमेश्वर उन्हें अपनी स्मृति में नहीं संजोता। यदि तुमने कभी किसी भिखारी को या किसी ऐसे व्यक्ति को पैसे दे दिए जिसके पास घर जाने के लिए पैसे नहीं थे, या किसी बेघर व्यक्ति की मदद कर दी; यदि तुमने कभी ऐसा कुछ कर दिया या अपने जीवनकाल में कुछेक बार ऐसा किया, तो परमेश्वर की नजर में, क्या वह ऐसी चीजों को अपनी स्मृति में संजोएगा? नहीं, परमेश्वर उनका स्मरण नहीं करता। तो फिर वह इन कार्यों का मूल्यांकन कैसे करता है? न तो परमेश्वर उन्हें स्मृति में संजोता है और न ही उनकी निंदा करता है—वह उनका मूल्यांकन नहीं करता। क्यों? उनका सत्य का अनुसरण करने से कोई लेना-देना नहीं है। ये व्यक्तिगत कार्य हैं जिनका परमेश्वर के मार्ग पर चलने या उसकी इच्छा पूरी करने से कोई लेना-देना नहीं है। यदि तुम व्यक्तिगत रूप से उन्हें करने के इच्छुक हो, यदि तुम सद्भावना के क्षणिक उद्गार या अपनी अंतरात्मा की अल्पकालिक प्रेरणा से कुछ अच्छा करते हो, या उत्साह के किसी क्षण या आवेग में कुछ अच्छा करते हो, भले ही बाद में तुम पछताओ या न पछताओ, चाहे तुम्हें पुरस्कार मिले या न मिले, इसका परमेश्वर के मार्ग पर चलने या उसकी इच्छा पूरी करने से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर इसे अपनी स्मृति में नहीं संजोता, न ही वह इसके लिए तुम्हें दोषी ठहराता है। परमेश्वर इसे अपनी स्मृति में नहीं संजोता, इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर तुम्हारे उद्धार के दौरान तुम्हें अपनी ताड़ना और न्याय से इसलिए छूट नहीं देगा कि तुमने कभी यह काम किया था, न ही वह किसी अपवादस्वरूप तुम्हें इसलिए बचने की अनुमति देगा कि तुमने कुछ अच्छे या दानार्थ कार्य किए हैं। इसका क्या मतलब है कि परमेश्वर इसके लिए तुम्हारी निंदा नहीं करता? इसका मतलब यह है कि तुम्हारे द्वारा किए गए इन अच्छे कामों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, ये केवल तुम्हारे अच्छे व्यवहार को दर्शाते हैं, ये परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों के खिलाफ नहीं जाते, न ही ये किसी के हितों का उल्लंघन करते हैं। निःसंदेह, ये परमेश्वर के नाम को भी अपमानित नहीं करते, उसके नाम को महिमामंडित तो बिल्कुल नहीं करते। ये परमेश्वर की अपेक्षाओं का उल्लंघन नहीं करते हैं, न ही इनमें परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध जाना शामिल है, और निश्चित रूप से इनमें परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह शामिल नहीं है। नतीजतन, परमेश्वर इनके लिए तुम्हारी निंदा नहीं करेगा, ये केवल व्यक्तिगत स्तर पर एक प्रकार अच्छे कार्य को दर्शाते हैं। हालाँकि, ऐसे अच्छे कार्यों को दुनिया से प्रशंसा और समाज से मान्यता मिल सकती है, लेकिन परमेश्वर की नजर में इनका सत्य से कोई संबंध नहीं है। परमेश्वर इन्हें स्मृति में नहीं संजोता, न ही वह इनके लिए किसी की निंदा करता है, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर के सामने इन कार्यों का अधिक महत्व नहीं है। लेकिन, एक संभावना है, वह यह है कि यदि तुम किसी को बचाते हो और उसे वित्तीय सहायता या किसी प्रकार की भौतिक सहायता प्रदान करते हो, या फिर उसे भावात्मक सहायता भी प्रदान करते हो, और उस बुरे व्यक्ति को अपने प्रयासों में सफल होने में सक्षम बनाते हो, जिससे वह और अपराध कर पाता है और समाज तथा मानवता के लिए खतरा बनता है, जिसके परिणामस्वरूप कुछ नुकसान होते हैं, तो यह पूरी तरह से अलग मामला होगा। एक सामान्य दानार्थ कार्य के मामले में, परमेश्वर का दृष्टिकोण यह है कि वह न तो इसे स्मृति में संजोता है और न ही इसकी निंदा करता है। लेकिन वह न तो इसे स्मृति में संजोता है और न ही इसकी निंदा करता है, इस तथ्य का अर्थ यह नहीं है कि परमेश्वर दान-पुण्य करने के लिए तुम्हारा समर्थन करता है या तुम्हें प्रोत्साहित करता है। फिर भी, यह आशा की जाती है कि तुम अपनी ऊर्जा, समय और धन का निवेश उन मामलों में नहीं करोगे जिनका उद्धार या सत्य के अभ्यास और अपना कर्तव्य निभाने से कोई संबंध नहीं है क्योंकि तुम्हारे पास करने के लिए और भी महत्वपूर्ण काम हैं। तुम्हारा समय, ऊर्जा और जीवन दान-पुण्य के कार्य के लिए नहीं हैं, न ही वे दान-पुण्य के करिअर के माध्यम से तुम्हारे व्यक्तिगत चरित्र और करिश्मे को प्रदर्शित करने के लिए हैं। विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो अधिक गरीब लोगों के लिए बुनियादी जरूरतें प्रदान करने या उन्हें उनके आदर्शों को साकार करने में मदद करने के उद्देश्य से कारखाने खोलते हैं, स्कूलों का प्रबंधन करते हैं, या व्यवसाय चलाते हैं, वे गरीबों की सहायता के लिए ये काम करते हैं। यदि तुम इन तरीकों से गरीबों की सहायता करना चुनते हो तो निःसंदेह इसमें तुम्हारा काफी समय और ऊर्जा खर्च होगी। तुम अपने जीवन में इस उद्देश्य पर समय और ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर दोगे, और परिणामस्वरूप तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने के लिए बहुत कम समय होगा; शायद तुम्हारे पास सत्य का अनुसरण करने का समय हो ही न, और निश्चित रूप से तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने का अवसर भी नहीं मिलेगा। इसके बजाय, तुम अपनी ऊर्जा लोगों, घटनाओं और सत्य या कलीसिया के काम से असंबंधित चीजों पर बर्बाद कर दोगे। यह मूर्खतापूर्ण व्यवहार है। इस मूर्खतापूर्ण व्यवहार के कारण कुछ लोग हमेशा अपने अच्छे इरादों और कुछ सीमित क्षमताओं के माध्यम से इंसान का भाग्य और दुनिया बदलना चाहते हैं। वे अपने प्रयासों और सद्भावना के माध्यम से इंसान के भाग्य को बदलना चाहते हैं। यह एक मूर्खतापूर्ण प्रयास है। चूँकि यह एक मूर्खतापूर्ण प्रयास है, इसलिए ऐसा मत करो। निःसंदेह, ऐसा न करने का आधार यह है कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है, यह कि तुम सत्य और उद्धार का अनुसरण करना चाहते हो। यदि तुम कहते हो, “मेरी उद्धार में कोई दिलचस्पी नहीं है, और सत्य का अनुसरण करना मेरे लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं है,” तो तुम जैसा चाहो, वैसा कर सकते हो। दान-पुण्य की बात करें तो यदि वही तुम्हारा आदर्श और लक्ष्य है, यदि तुम मानते हो कि ऐसा करने से तुम्हारी कीमत पता चलती है, दान-पुण्य ही एकमात्र ऐसी चीज है जो तुम्हारे जीवन का मोल व्यक्त कर सकती है, तो निश्चित रूप से आगे बढ़ो। तुम अपने हर कौशल और क्षमता का उपयोग कर सकते हो, तुम्हें कोई नहीं रोक रहा। हम यहाँ धर्मार्थ कार्यों में शामिल न होने के जिस आधार पर संगति कर रहे हैं, वह यह है कि चूँकि तुम सत्य और उद्धार का अनुसरण करना चाहते हो, इसलिए तुम्हें दान-पुण्य करने के आदर्श और इच्छा को छोड़ देना चाहिए। अपने जीवन के आदर्श और इच्छा के रूप में इसका अनुसरण मत करो। इस मामले में व्यक्तिगत स्तर पर शामिल मत हो, और परमेश्वर का घर भी इसमें शामिल नहीं होगा। निःसंदेह, परमेश्वर के घर में एक स्थिति है, वह है, कुछ गरीब भाई-बहनों के घरेलू जीवन की परवाह करना। इसका भी एक आधार है। मुझे लगता है कि तुम सभी इस आधार से अवगत हो : यह आधार दान-पुण्य करना नहीं है, यह भाई-बहनों के जीवन के संदर्भ में परमेश्वर के घर की आंतरिक कार्य व्यवस्था है। इसका दान-पुण्य करने से कोई संबंध नहीं है। दान-पुण्य न करने के अलावा परमेश्वर के घर की समाज की किसी भी दानार्थ गतिविधि में कोई भागीदारी नहीं होती; उदाहरण के लिए, परमेश्वर का घर स्कूल नहीं बनाता, कारखाने नहीं खोलता या व्यवसाय नहीं चलाता। यदि कोई कलीसिया के कार्य के सामान्य संचालन के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के नाम पर कारखाने खोलता है, स्कूल बनाता है, व्यवसाय चलाता है, या किसी व्यावसायिक गतिविधि में भाग लेता है, तो यह सब परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों के खिलाफ है और इस पर अंकुश लगा दिया जाना चाहिए। तो, परमेश्वर के घर के कार्य के संचालन का वित्तीय स्रोत क्या है? क्या तुम लोग जानते हो? सामान्य कार्य संचालन के लिए वित्त भाई-बहनों के दान से, चढ़ावे से आता है। इसका क्या तात्पर्य है? भाई-बहनों द्वारा दान किया गया धन, परमेश्वर को अर्पित किया गया धन चढ़ावा है, और चढ़ावे का क्या उपयोग है? इसका उपयोग कलीसिया के सामान्य कार्य संचालन को सुरक्षित करना है। निश्चित रूप से, इस सामान्य संचालन से जुड़े विभिन्न खर्च हैं, और इन खर्चों को सिद्धांतों के अनुसार प्रबंधित किया जाना चाहिए और इन सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। नतीजतन, जब कलीसिया के काम में वित्तीय मुद्दे शामिल होते हैं, और कुछ अगुआ और कार्यकर्ता चढ़ावों को बरबाद करके उनकी काफी हानि कर देते हैं, तो परमेश्वर का घर उन पर कठोर दंड लगाएगा। कठोर दंड क्यों मिलेगा? चढ़ावों को बरबाद करने वाला कोई भी व्यक्ति क्यों बचकर नहीं निकल सकता? (क्योंकि परमेश्वर का चढ़ावा भाई-बहनों द्वारा परमेश्वर को अर्पित किया जाता है, और केवल परमेश्वर ही उसका आनंद ले सकता है। दूसरी तरह से, ये चढ़ावे परमेश्वर के घर के कार्य के उचित संचालन को बनाए रखने के लिए होते हैं। यदि अगुआ या कार्यकर्ता उन्हें बरबाद कर देते हैं, तो इससे सीधे तौर पर परमेश्वर के घर का कार्य प्रभावित होगा और नुकसान उठाना पड़ेगा। इससे परमेश्वर के घर के कार्य में गड़बड़ी होती है और बाधा पड़ती है, इसलिए परमेश्वर के घर को इसके लिए कठोर दंड देना चाहिए।) मुझे बताओ, क्या परमेश्वर के घर को कठोर दंड देना चाहिए? (हाँ।) उसे ऐसा क्यों करना चाहिए? उसे कठोर दंड क्यों देना चाहिए? (चढ़ावों को बरबाद करना मसीह-विरोधियों का व्यवहार है। चढ़ावे के प्रति किसी व्यक्ति का रवैया परमेश्वर के प्रति उसके दृष्टिकोण को दर्शाता है। यदि यह व्यक्ति चढ़ावा बरबाद कर सकता है, तो यह दिखाता है कि उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल नहीं है।) तुमने इसके केवल एक पहलू पर ही चर्चा की है; इसमें और भी महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं जिन पर हमें संगति करनी चाहिए।
मुझे बताओ, जो लोग चढ़ावे को बरबाद करते हैं, उन्हें कड़ी सज़ा क्यों मिलनी चाहिए? हम अब इस पर संगति करेंगे। सबसे पहले, आओ बात करते हैं कि परमेश्वर का चढ़ावा कैसे आता है। सभी भाई-बहन जानते हैं कि परमेश्वर का चढ़ावा उसके चुने हुए लोगों द्वारा परमेश्वर को दिया जाता है। बाइबल के नियमों के अनुसार, लोगों को अपनी कमाई का दसवाँ हिस्सा देना चाहिए, बेशक आजकल बहुत से लोग दसवें हिस्से से भी अधिक दान करते हैं, और कुछ धनी व्यक्ति तो दसवें हिस्से से कहीं अधिक दान करते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ गरीब भाई-बहन जो दसवाँ हिस्सा देते हैं, उनका पैसा कहाँ से आता है? ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मितव्ययी रूप से जीवन यापन करके बचत करते हैं। जैसे गाँवों और ग्रामीण इलाकों में, कुछ लोग अनाज बेचकर, कुछ अंडे बेचकर तो कुछ बकरी और मुर्गियाँ बेचकर अपनी कमाई का दसवाँ हिस्सा देते हैं। बहुत से लोग दसवाँ हिस्सा या उससे अधिक देने के लिए मितव्ययिता से जीवन जीते हैं—चढ़ावे का पैसा यहीं से आता है। अधिकतर लोग जानते हैं कि यह पैसा कमाना कठिन है। तो भाई-बहन दान क्यों करते हैं? क्या ऐसा परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित है? क्या ऐसा है कि दान के बिना उद्धार असंभव है? क्या यह बाइबल के नियमों का अनुपालन करना है? या क्या यह ये सोचकर परमेश्वर के घर की उसके काम में मदद करना है कि परमेश्वर के घर का काम महत्वपूर्ण है और वित्तपोषण के बिना इसे नहीं किया जा सकता है, और इसलिए उन्हें और अधिक देना चाहिए? क्या यही उनका एकमात्र कारण है? (नहीं।) तो फिर, भाई-बहन दान क्यों करते हैं? क्या इसकी वजह यह है कि वे भोले हैं? या उनके पास अतिरिक्त पैसे हैं? क्या वे अतिरिक्त पैसे दान कर रहे हैं, या वह पैसे दे रहे हैं जो वे खर्च नहीं कर पाए हैं? यह दान किसे दिया जा रहा है? (परमेश्वर को।) लोग दान क्यों करते हैं? बाकी कारणों को भूल जाओ, बहुत से लोगों द्वारा दान देने का सबसे बुनियादी कारण यह है कि वे परमेश्वर के कार्य को मानते हैं। परमेश्वर लोगों को स्वतंत्र रूप से जीवन और सत्य प्रदान करने और उन्हें राह दिखाने के लिए बोलता और कार्य करता है। इसलिए, लोगों को अपनी कमाई का दसवाँ हिस्सा देना चाहिए। यह चढ़ावा होता है। संपूर्ण इतिहास में, परमेश्वर ने लोगों को भोजन, पानी और जीवन यापन के लिए आवश्यक चीजों का आशीष दिया है, और उसने उनके लिए सब कुछ बनाया है। जब लोग इस सब का आनंद लेने में सक्षम होते हैं, तो उन्हें परमेश्वर द्वारा प्रदान की गई चीजों का दसवाँ हिस्सा वेदी पर अर्पित करना चाहिए, जो उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है जो मनुष्य परमेश्वर को लौटाता है और परमेश्वर को अपनी फसल का आनंद प्रदान करता है। यह स्नेह का प्रतीक है जिसे सृजित प्राणी के तौर पर लोगों को धारण और अर्पित करना चाहिए। इस पहलू के अलावा एक और पहलू भी है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर का कार्य बहुत महान है, मैं अकेले बहुत कुछ नहीं कर सकता, इसलिए मैं अपने हिस्से को चढ़ावे के रूप में दे दूँगा।” इस तरह, वे परमेश्वर के घर के काम के लिए अपना समर्थन प्रदर्शित करते हैं, और समर्थक के रूप में कार्य करते हैं। दान का स्रोत या राशि चाहे जो भी हो, ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जिन्होंने मितव्ययी जीवनयापन के माध्यम से पैसे बचाए हैं। संक्षेप में, यदि परमेश्वर और उसका कार्य नहीं होता, यदि केवल कलीसिया और ये मानव संगठन और संघ होते, तो लोगों के दान का कोई मूल्य या महत्व नहीं होता, क्योंकि परमेश्वर का कार्य और उसके वचनों के बिना वे किसी काम के नहीं होते। लेकिन परमेश्वर के बोलने और कार्य करने के कारण, मानवजाति को बचाने के लिए उसके कार्य के आगे बढ़ने के कारण, ये दान और चढ़ावे विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाते हैं। उनके विशेष रूप से महत्वपूर्ण होने का कारण यह है कि इस दान राशि का उपयोग कलीसिया के कार्य के लिए किया जाता है, और गलत इरादों वाले लोगों को इसका गबन, इसे छीनना, इसका दुरुपयोग या इसे बरबाद नहीं करना चाहिए। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) चूँकि यह बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए पाई-पाई का उपयोग प्रमुख क्षेत्रों में किया जाना चाहिए; कुछ भी बरबाद या गैर-जिम्मेदाराना तरीके से खर्च नहीं किया जाना चाहिए। नतीजतन, जो लोग दान और चढ़ावों को बरबाद करते हैं, उनका दुरुपयोग करते हैं, उन्हें छीन लेते हैं या गबन करते हैं, हमें उनसे विशेष रूप से निपटना चाहिए और उन्हें गंभीर रूप से दंडित करना चाहिए। चूँकि यह दान और भेंटें परमेश्वर के कार्य के लिए महत्वपूर्ण हैं, और भाई-बहनों द्वारा इस धन और इन चढ़ावों को देने के पीछे के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, इस दान को सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आवंटित किया जाना चाहिए। पाई-पाई का उपयोग सिद्धांतों के साथ किया जाना चाहिए और उससे परिणाम प्राप्त होने चाहिए; इसे बरबाद नहीं किया जाना चाहिए, और निश्चित रूप से बुरे व्यक्तियों को इसे छीनने नहीं देना चाहिए। यह एक पहलू है। इसके अलावा, चाहे दान बड़ा हो या छोटा, यह भाई-बहनों के दान से ही आता है। इस धन का स्रोत कलीसिया द्वारा व्यावसायिक गतिविधियों में संलग्न होना, व्यवसाय खोलना या समाज से लाभ कमाने के लिए कारखाने चलाना नहीं है। यह किसी चीज का उत्पादन करके उससे अर्जित लाभांश से नहीं आता है, यह कलीसिया के लाभांश या आय से नहीं आता है, बल्कि लोगों के दान से आता है। सरल शब्दों में, दान वह होता है जो परमेश्वर को भाई-बहन अर्पित करते हैं; परमेश्वर को अर्पित धन परमेश्वर का होना चाहिए। परमेश्वर का धन किस काम के लिए उपयोग किया जाता है? कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर का धन और चढ़ावे परमेश्वर के आनंद के लिए उपयोग किए जाते हैं।” क्या यह सब परमेश्वर के आनंद के लिए है? परमेश्वर इनमें से कितने का आनंद ले सकता है? यह काफी सीमित है, है न? उस दौरान जबकि परमेश्वर देहधारी होता है, उसका भोजन, वस्त्र, आश्रय, और जरूरतें, साथ ही उसका तीन समय का भोजन, औसत होते हैं, और वह सीमित आनंद लेता है। निःसंदेह, यह बिल्कुल सामान्य है। भाई-बहनों के दान और चढ़ावों का मुख्य उपयोग कलीसिया के सामान्य कार्य संचालन को बनाए रखना है, न कि कुछ लोगों की खर्च करने की इच्छा को पूरा करना। चढ़ावा लोगों के खर्च करने के लिए नहीं होता, न ही वह लोगों द्वारा उपयोग के लिए होता है। ऐसा नहीं है कि जो कोई भी वित्त का प्रबंधन करता है, उसे इस धन का उपयोग करने के संबंध में प्राथमिकता दी जाती है, या जो भी अगुआ होता है, उसके पास धन आवंटित करने का विशेष अधिकार होता है। भले ही कोई भी व्यक्ति दान का उपयोग करता हो, उसका उपयोग परमेश्वर के घर द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार किया जाना चाहिए। यही सिद्धांत है। तो, इस सिद्धांत का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति की प्रकृति क्या होती है? क्या उसने प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं किया है? (हाँ।) ऐसा क्यों कहा जाता है कि उसने प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन किया है? जो चढ़ावे लोग परमेश्वर को अर्पित करते हैं, वे परमेश्वर के आनंद के लिए होते हैं। तो परमेश्वर उनका उपयोग कैसे करता है? परमेश्वर उनका उपयोग कलीसिया के कार्य के लिए, सामान्य कार्य संचालन के लिए करता है। यही वह सिद्धांत है जिसके द्वारा परमेश्वर चढ़ावों का उपयोग करता है। लेकिन, मसीह-विरोधी और बुरे लोग इस तरह से चढ़ावों का उपयोग नहीं करते हैं। वे चढ़ावों का उपयोग करने के लिए इस सिद्धांत का खुले तौर पर उल्लंघन करते हुए, उसे लुटा देते हैं, बरबाद कर देते हैं या लापरवाही से दान कर देते हैं। क्या यह प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं है? क्या परमेश्वर ने तुम्हें उन्हें इस तरह से काम में लेने की अनुमति दी? क्या उसने तुम्हें उनका इस तरह से उपयोग करने का अधिकार दिया है? क्या उसने तुम्हें उनका इस तरह से उपयोग करने के लिए कहा था? उसने ऐसा नहीं कहा, है न? तो फिर तुम इस तरह से, इतनी लापरवाही से और बरबाद करने के ढंग से उनका उपयोग क्यों कर रहे हो? यह सिद्धांत का उल्लंघन है! यह कोई सामान्य सिद्धांत नहीं है; इसका संबंध प्रशासनिक आदेशों से है। चूँकि ये चढ़ावे व्यवसाय या वाणिज्यिक गतिविधियों द्वारा अर्जित नहीं किए जाते, बल्कि ये भाई-बहनों द्वारा परमेश्वर को अर्पित किया जाने वाला दान है, इसलिए हर खर्च को बारीकी से नियंत्रित और सख्ती से प्रबंधित करने की आवश्यकता होती है। कोई फिजूलखर्ची या बरबादी नहीं होनी चाहिए। किसी भी राशि की बरबादी या फिजूलखर्ची से न केवल परमेश्वर के घर के कार्य में उल्लेखनीय हानि होती है, बल्कि इससे परमेश्वर के घर का काफी वित्तीय नुकसान भी होता है। चढ़ावों को बरबाद करना केवल चढ़ावों को बरबाद करना नहीं है; यह भाई-बहनों द्वारा दान किए जाते समय व्यक्त किए गए प्रेम के प्रति जिम्मेदार न होने को भी दर्शाता है। इसलिए, जो लोग चढ़ावा बरबाद करते हैं, उन्हें कठोर दंड दिया जाना चाहिए। कम गंभीर अपराध करने वाले लोगों को चेतावनी दो और साथ ही क्षतिपूर्ति की माँग करो। अधिक गंभीर अपराध वालों के संबंध में, क्षतिपूर्ति के अलावा, उन्हें हटाना या निष्कासित करना आवश्यक है। चढ़ावों की फिजूलखर्ची करने वालों को कठोर दंड दिए जाने का एक और मूल कारण है। कलीसिया किसी भी सामाजिक संगठन से अलग है। यह किसी भी देश और किसी भी सामाजिक परिवेश से अलग-थलग है, जिसे दुनिया और मानवता द्वारा त्याग दिया गया है। कलीसिया न केवल किसी भी देश से समर्थन या सुरक्षा प्राप्त करने में असमर्थ है, बल्कि उसे राज्य से भी कोई समर्थन या कल्याण प्राप्त नहीं हो सकता। ज्यादा-से-ज्यादा, पश्चिमी देशों में कलीसिया के पंजीकरण और स्थापना के बाद, कलीसिया को दिए जाने वाले दान पर व्यक्तिगत कर नहीं लगाया जाता, या दान की गई सामग्री का उपयोग कर में थोड़ी कटौती प्राप्त करने के लिए किया जा सकता है। इसके अलावा, कलीसिया किसी भी देश से या किसी भी सामाजिक व्यवस्था के तहत कोई कल्याण या सहायता प्राप्त नहीं कर सकती है। यदि कलीसिया की मंडली छोटी हो जाती है और इसका संचालन नहीं हो पाता, तो राज्य उसकी सहायता के लिए नहीं आएगा। इसके बजाय, वह इसे अपने आप खत्म होने देगा क्योंकि कलीसिया से कोई आय नहीं होती और वह राज्य को कर नहीं दे सकती। इसलिए, कलीसिया का अस्तित्व है या नहीं, राज्य को इससे कोई मतलब नहीं होता। किसी भी सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत कलीसिया स्वयं को अपना अस्तित्व बनाए रखने की ऐसी ही अवस्था में पाती है। मुझे बताओ, क्या यह आसान है? (यह आसान नहीं है।) वास्तव में, यह में आसान नहीं है। कलीसिया को समाज और मानवता द्वारा अस्वीकार कर दिया गया है, उसे किसी भी सामाजिक व्यवस्था से कोई मान्यता या सहानुभूति नहीं मिलती, समर्थन तो दूर की बात है। कलीसिया खुद को बनाए रखने की ऐसी परिस्थितियों के बीच अस्तित्व में रहती है। यदि अभी भी कोई चढ़ावों की फिजूलखर्ची कर रहा है, हृदयहीन हो रहा है, नाली में पैसा बहा रहा है, कोई जिम्मेदारी नहीं ले रहा है, बिना पलक झपकाए, किसी भी प्रकार की भर्त्सना महसूस किए बिना पलभर में 100,000 रुपए उड़ा रहा है, 1,000,000 रुपए ऐसे खर्च कर रहा है जैसे कि यह सिर्फ एक संख्या हो, तो क्या तुम्हें लगता है कि ऐसे व्यक्ति में मानवता है? क्या ऐसे लोग शाप पाने के योग्य नहीं हैं? (हाँ, वे हैं।) जो लोग चढ़ावों की फिजूलखर्ची करते हैं, उन्हें बरबाद करते हैं, या जो उनके प्रति बुरे इरादे रखते हैं, उनका गबन करना चाहते हैं या, उन्हें गबन करने की हिम्मत नहीं कर पाते तो उन्हें बरबाद कर देते हैं, उन लोगों के लिए ऊपर सूचीबद्ध विभिन्न परिस्थितियों का सारांश यह है : सभी को कठोर दंड दिया जाना चाहिए, उनके प्रति कोई नरमी नहीं दिखाई जानी चाहिए। मुझे बताओ, क्या यह सही रवैया है? (हाँ।) तो फिर, यदि भविष्य में तुम लोगों को चढ़ावों के उपयोग का अधिकार प्राप्त करने का अवसर मिले, तो तुम कैसा व्यवहार करोगे? यदि तुम स्वयं को नियंत्रित नहीं कर सकते, यदि तुम चढ़ावों को बरबाद कर देते हो, तो जब कलीसिया द्वारा तुम लोगों गंभीर रूप से दंडित करने का समय आएगा, तो क्या तुम्हें कोई शिकायत होगी? (नहीं।) यह अच्छा है कि तुम्हें कोई शिकायत नहीं होगी। जो दंड मिलेगा तुम उसी के हकदार होगे!
क्या तुम लोग चढ़ावा बरबाद करने वालों से घृणा नहीं करते? क्या वे तुम्हें क्रोध नहीं दिलाते? क्या तुम उन पर निगरानी रखने या उन्हें रोकने में सक्षम हो? इससे चीजें एक पायदान ऊपर चली जाती हैं—यह तुम्हारे परीक्षण का समय है। यदि तुम्हारे आस-पास कोई ऐसा व्यक्ति है जो चढ़ावा बरबाद करता है, और एक ऐसी मशीन पर 20,000 रुपए खर्च करने पर जोर देता है जिसे 2,000 रुपए में खरीदा जा सकता है—जो सबसे अच्छी, शीर्षस्थ कोटि की, सबसे आधुनिक और सबसे आकर्षक मशीन खरीदना चाहता है, जो सबसे महंगी मशीन पर पैसा खर्च करना चाहता है, सिर्फ इसलिए कि पैसा परमेश्वर के घर का है, खुद उसकी जेब से नहीं जा रहा—तो क्या तुम उसे रोकने में सक्षम हो? यदि तुम उसे रोक नहीं भी सकते, तो क्या तुम उसे चेतावनी दे सकते हो? क्या तुम उच्च अधिकारियों को उसके बारे में बता सकते हो? यदि तुम चढ़ावों के प्रबंधन के प्रभारी हो, तो क्या तुम इस स्थिति में हस्ताक्षर करने से इनकार कर सकते हो? यदि तुम लोग इसमें से कुछ भी नहीं कर सकते, तो तुम्हें भी कठोर दंड दिया जाना चाहिए। तुम लोग भी चढ़ावा बरबाद कर रहे हो; तुम उस दुष्ट व्यक्ति के साथ मिले हुए हो, तुम उसके साथी हो, और तुम दोनों को कठोर दंड दिया जाना चाहिए। जो व्यक्ति चढ़ावों की बरबादी कर सकता है और उनके प्रति गैर-जिम्मेदार हो सकता है, उसका परमेश्वर के प्रति कैसा रवैया होगा? क्या उसके हृदय में परमेश्वर है? (नहीं।) मेरी राय में, इस तरह के लोगों का परमेश्वर के प्रति वही रवैया होता है जो शैतान का होता है। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर से, उसके नाम से, उसके चढ़ावों से या उसकी गवाही से संबंधित कोई भी चीज—इनमें से किसी का भी मुझसे कोई सरोकार नहीं है। जो लोग चढ़ावा बरबाद करते हैं, उनका मुझसे क्या लेना-देना?” ये कैसे लोग हैं? कुछ अगुआ और निरीक्षक ऐसे होते हैं जो हर चीज पर हस्ताक्षर कर देते हैं, चाहे कलीसिया कुछ भी खरीदने के लिए आवेदन क्यों न करे। वे कभी भी आवेदनों पर सवाल नहीं उठाते या उनकी बारीकी से जाँच नहीं करते, या समस्याओं के लिहाज से उनकी जाँच नहीं करते; सामान खरीदने का हर आवेदन, चाहे सामान महंगा हो या सस्ता, व्यावहारिक हो या अव्यावहारिक, आवश्यक हो या अनावश्यक—हर आवेदन उनके हस्ताक्षर से अनुमोदित हो जाता है। तुम्हारा क्या मानना है? क्या यह सिर्फ एक हस्ताक्षर है? मेरे विचार में, यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया है। परमेश्वर के चढ़ावों के प्रति तुम्हारा जो रवैया होता है वही रवैया उसके प्रति भी होता है। तुम्हारे द्वारा हर बार कलम चलाना, हर बार अपना नाम लिखना, परमेश्वर की निंदा और अनादर करने के तुम्हारे पाप का प्रमाण है। इस प्रकार परमेश्वर की निंदा और अनादर करने वालों को कठोर दंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? उन्हें कठोर दंड मिलना ही चाहिए! परमेश्वर तुम्हें सत्य, जीवन, और वह सब कुछ प्रदान करता है जो तुम्हारे पास है, लेकिन तुम्हारा उससे और उसकी चीजों से पेश आने का रवैया ऐसा है—आखिर चीज क्या हो तुम? रसीद पर तुम्हारा हरेक हस्ताक्षर परमेश्वर की निंदा के तुम्हारे पाप और उसके प्रति तुम्हारे अपमानजनक रवैये का प्रमाण है; यह सबसे निर्णायक प्रमाण है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन-सी सामग्री खरीदी जा रही है, कितनी राशि है, तुम अनुमोदन फॉर्म की जाँच भी नहीं करते, और बस हस्ताक्षर करने के लिए अपनी कलम चला देते हो। तुम 100,000 या 200,000 रुपए की खरीदारी पर मनमाने ढंग से हस्ताक्षर करने के लिए तैयार रहते हो। तुम्हें किसी दिन अपने हस्ताक्षर की कीमत चुकानी पड़ेगी—जो भी हस्ताक्षर करता है वही जिम्मेदार होता है! चूँकि तुम इस तरह से व्यवहार करते हो, आवेदनों की समीक्षा किए बिना यूँ ही हस्ताक्षर कर सकते हो, और मनमाने ढंग से चढ़ावा बरबाद कर सकते हो, तो जिम्मेदारी भी तुम्हें ही उठानी चाहिए और अपने कार्यों की कीमत चुकानी चाहिए। यदि तुम परिणाम भुगतने से नहीं डरते, तो आगे बढ़ो, हस्ताक्षर करो। तुम्हारा हस्ताक्षर परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया दर्शाता है। यदि तुम परमेश्वर के प्रति भी इस तरह का व्यवहार कर सकते हो, उसके साथ खुले और निर्लज्ज तरीके से ऐसा व्यवहार कर सकते हो, तो तुम क्या उम्मीद करते हो, परमेश्वर तुमसे कैसा व्यवहार करे? वह पहले ही तुम्हारे प्रति काफी धैर्यवान रहा है, उसने तुम्हें सांसें और तुम्हें अब तक जीवित रहने की अनुमति दी है। परमेश्वर के साथ उसी रवैये से, वैसा ही व्यवहार करते रहने के बजाय, तुम्हें उसके प्रति अपना अपराध स्वीकार करना और पश्चाताप करना चाहिए, तथा अपने रवैये को बदलना चाहिए। आँख मूँद कर परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा मत करते रहो। यदि तुम परमेश्वर के साथ उसी रवैये से और वैसा ही व्यवहार करना जारी रखते हो, तो तुम जानते ही हो कि परिणाम क्या होंगे। यदि तुम परमेश्वर की क्षमा प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो तुम्हारा विश्वास व्यर्थ हो जाएगा। तब तुम्हारा विश्वास क्या काम आएगा? तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन खुद में उसके विश्वास और उसके आदेश को लुटा देते हो। मुझे बताओ, तुम चीज क्या हो? कुछ लोग परमेश्वर के घर में अगुआओं या निरीक्षकों के रूप में कार्य करते हैं। उन्होंने कई वर्षों तक अपने कर्तव्यों का पालन किया है, और यह कहा जा सकता है कि मैंने कई वर्षों तक उनके साथ बातचीत की है। अंततः, मैं उनके बारे में इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ : ये लोग कुत्तों से भी बदतर हैं। उनकी हरकतें न सिर्फ दिल तोड़ने वाली हैं, बल्कि इससे भी ज्यादा घृणित हैं। मुझे कुत्ते पालना और उनके साथ बातचीत करना पसंद है। पिछले कुछ वर्षों में मैंने जिन कुत्तों को पाला है, वे सभी बहुत अच्छे हैं। जो कुत्ते मुझे पसंद हैं वे आम तौर पर जानबूझकर लोगों को नाराज नहीं करते। यदि तुम किसी कुत्ते पर थोड़ी-सी भी दया दिखाते हो, तो वह इसका दस गुना बदला चुकाएगा। जब तक तुम वास्तव में उसके प्रति बने अच्छे रहते हो, अगर तुम आँगन में अखबार या जूतों का एक जोड़ा भी रख दो, तो वह उनके बगल में पड़ा रहेगा और तुम्हारे लिए उनकी रक्षा करेगा। कभी-कभी, यदि तुम कोई ऐसी चीज फेंक देते हो जिसे तुम और रखना नहीं चाहते तो कुत्ता सोचेगा कि वह खो गई है और तुम्हारे लिए उसकी रक्षा करेगा, उस चीज को छोड़कर नहीं जाएगा। कुछ समय बाद, मैंने जो समझा, उसका सार निकालते हुए कहा, “लोग कुत्तों से भी बदतर हैं!” कुत्ते घरों की रक्षा करते हैं—वे अपनी क्षमताओं और कौशल का उपयोग, अपनी जान की बाजी लगाकर, तुम्हारे घर की रक्षा करने के लिए करते हैं। लोगों के पास तो दिल भी नहीं होता, जान की बाजी लगाकर चीजों की रक्षा करना तो दूर की बात है। वे कलीसिया के काम की सुरक्षा के लिए एक शब्द भी नहीं कहेंगे। वे किसी रक्षक कुत्ते से भी बदतर हैं! मैंने लोगों और कुत्तों के बीच यही अंतर पाया है। चढ़ावा बरबाद करने वाले रक्षक कुत्तों से भी बदतर हैं। क्या तुम सहमत हो कि उन्हें कठोर दंड दिया जाना चाहिए? (हाँ।) परमेश्वर लोगों पर भरोसा करता है, और उन्हें काम और कर्तव्य सौंपता है। यह परमेश्वर का उन्हें ऊँचा उठाना और उनके बारे में अच्छा सोचना है। ऐसा नहीं है कि वे वह कार्य करने लायक हैं, या वे क्षमतावान और मानवता से पूर्ण हैं, या वे उस कार्य के लिए योग्य हैं। और फिर भी, लोग उन पर किए गए उपकार को पहचानने में विफल रहते हैं, वे हमेशा सोचते हैं कि वे कलीसिया का काम करने में सक्षम हैं, कि उन्होंने इसे अपनी कड़ी मेहनत से और खुद को खपाकर अर्जित किया है। उनके पास जो कुछ भी है, वह उन्हें परमेश्वर द्वारा दिया गया है। उन्होंने क्या कमाया है? क्या यह सब उनकी उपलब्धियों के बल पर है? परमेश्वर लोगों को ऊँचा उठाता है ताकि वे अपने कर्तव्य निभा सकें, लेकिन वे खुद पर दिखाए गए उपकार को पहचानने में, या यह समझने में असफल रहते हैं कि उनके लिए क्या अच्छा है। वे उसके भरोसे और उत्कर्ष पर खरे नहीं उतरते। वे परमेश्वर के भरोसे और उसके उत्कर्ष को गँवा देते हैं। ऐसे मामलों में मुझे खेद है, लेकिन उन्हें कठोर दंड मिलना चाहिए। परमेश्वर लोगों को अवसर देता है, लेकिन लोग नहीं जानते कि उनके लिए क्या अच्छा है, वे उन अवसरों को संजोना नहीं जानते जो परमेश्वर उन्हें देता है। वह उन्हें एक मौका देता है, लेकिन उन्हें वह नहीं चाहिए। वे सोचते हैं कि परमेश्वर से काम निकलवाना आसान है, वह क्षमाशील है, वह न तो देखेगा और न ही जान सकेगा कि क्या हो रहा है। नतीजतन, वे बेईमानी से चढ़ावा बरबाद करने का साहस करते हैं, परमेश्वर के भरोसे को धोखा देते हैं, यहाँ तक कि उनमें सबसे बुनियादी मानवीय चरित्र और विवेक का भी अभाव होता है। वे अब भी किसलिए विश्वास कर रहे हैं? उन्हें विश्वास करने की जहमत नहीं उठानी चाहिए, उन्हें बस जाकर शैतान की पूजा करनी चाहिए। परमेश्वर को उनकी आराधना की आवश्यकता नहीं है। वे इस योग्य नहीं हैं!
क्या हमने करिअर का त्याग कर देना—दान-पुण्य न करने के पहले विषय पर कमोबेश पर्याप्त संगति नहीं कर ली है? क्या तुम लोग इस विषय में निहित सत्य सिद्धांतों को समझ गए हो? इसमें कौन-से सिद्धांत हैं? (इसमें ये सिद्धांत हैं कि दान-पुण्य करना परमेश्वर द्वारा मनुष्यों को दिया गया लक्ष्य नहीं है। इसका सत्य के अभ्यास या उद्धार के अनुसरण से कोई संबंध नहीं है। जब कोई व्यक्ति कुछ अच्छे कार्य करता है, तो वे केवल उसके व्यक्तिगत व्यवहार का प्रतिबिंब होते हैं।) दान-पुण्य करने का संबंध सत्य के अनुसरण से नहीं है। यह गलती से भी मत मान लेना कि दान कार्य करके तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, या एक ऐसे व्यक्ति हो जिसने उद्धार प्राप्त कर लिया है। यह एक बहुत बड़ी गलतफहमी है। सत्य के अभ्यास में दान करना शामिल नहीं है, न ही दान-पुण्य करना शामिल है। परमेश्वर में विश्वास करने का लक्ष्य उद्धार प्राप्त करना है। परमेश्वर में विश्वास करने का संबंध पुण्य संचित करने या अच्छे कार्य करने से नहीं है, इसका संबंध अच्छे कर्म या परोपकार करने से मिलने वाले आनंद से भी नहीं है, न ही इसका संबंध दान-पुण्य करने से है। परमेश्वर में विश्वास का दान-पुण्य करने से कोई संबंध नहीं है; इसका संबंध सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने से है। इसलिए, लोगों के ये विचार कि परमेश्वर में विश्वास करने का संबंध दान-पुण्य करने या दान-पुण्य के कार्य में संलग्न होने से है, या उनका यह सोचना कि दान-पुण्य करना परमेश्वर में विश्वास करने और उसे संतुष्ट करने के बराबर है, सभी भयानक रूप से गलत हैं। तुम जिस भी दान-पुण्य के कार्य में शामिल होते हो, और दान-पुण्य संबंधी जो भी चीजें करते हो, वे केवल व्यक्तिगत रूप से तुम्हारा प्रतिनिधित्व करती हैं। चाहे वे कभी-कभार की जाने वाली चीजें हों या यह तुम्हारा करिअर हो, ये चीजें केवल तुम्हारे अच्छे व्यवहार को दर्शाती हैं। इस व्यवहार का किसी धर्म, सामाजिक व्यवहार या नैतिक मानदंडों से संबंध हो सकता है, लेकिन इसका परमेश्वर में विश्वास करने और सत्य का अनुसरण करने, या परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने से कोई संबंध नहीं है, और इसका उसकी अपेक्षाओं से बिल्कुल भी लेना-देना नहीं है। लेकिन फिर, किसी को दान-पुण्य क्यों नहीं करना चाहिए? परमेश्वर वह परमेश्वर है जो लोगों पर दया करता है, जिसमें दया और प्रेम है। उसे मानवता पर दया आती है, तो फिर परमेश्वर लोगों के दानार्थ किए गए कार्यों को अपनी स्मृति में क्यों नहीं संजोता? दान-पुण्य करने से परमेश्वर की स्मृति में स्थान क्यों नहीं मिलता? क्या यह समस्या नहीं है? क्या यह माँग करना कि लोग दान-पुण्य न करें, एक संकेत है कि परमेश्वर मानवता से प्रेम नहीं करता है? क्या यह मानवता के प्रति परमेश्वर की दया के विरोध में नहीं है? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि परमेश्वर की करुणा और प्रेम के सिद्धांत हैं, और उसकी करुणा और प्रेम विशिष्ट व्यक्तियों के प्रति निर्देशित है। इन्हें वह उन लोगों को प्रदान करता है जो सत्य को स्वीकार करते हैं, सत्य का अभ्यास करते हैं और वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं। जहाँ तक उन छद्म-विश्वासियों की बात है जो सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते, वे उन लोगों में से नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर बचाना चाहता है।) परमेश्वर की करुणा और प्रेम के सिद्धांत हैं, और उसकी करुणा और प्रेम विशिष्ट व्यक्तियों के प्रति निर्देशित है। और बताओ, और क्या है? क्या दान-पुण्य करने और परमेश्वर में विश्वास करने के बीच कोई संबंध है? (नहीं।) तो, क्या दान-पुण्य करने और परमेश्वर में विश्वास करने के बीच टकराव है? किसी भी प्रकार के दान-पुण्य के कार्य में भाग लेते समय, क्या लोगों को समय, ऊर्जा और यहाँ तक कि धन भी निवेश करने की आवश्यकता नहीं होती? जब तुम दान-पुण्य करते हो, तो कार्य पर विचार किए या ध्यान दिए बिना केवल बड़ी-बड़ी बातें नहीं करते रह सकते। यदि तुम वास्तव में इसे एक पेशे के रूप में लेते हो, तो तुम्हें निश्चित रूप से इसमें समय, ऊर्जा और यहाँ तक कि काफी धनराशि निवेश करने की आवश्यकता होगी। एक बार जब समय, ऊर्जा और पैसा निवेश कर देने पर क्या तुम उस दान-पुण्य के कार्य से बंध नहीं जाओगे और नियंत्रित नहीं होने लगोगे? क्या उसके बाद भी तुममें सत्य का अनुसरण करने की ऊर्जा बचेगी? क्या उसके बाद भी तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा बची रहेगी? (नहीं।) जब तुम जीवन में किसी भी करिअर को अपनाते हो, चाहे वह करिअर कोई भी क्यों न हो, यदि तुम इसे पूर्णकालिक रूप से करते हो, तो तुम अनिवार्य रूप से अपने जीवन भर की ऊर्जा और अपने पूरे जीवन का निवेश और बलिदान करोगे। इसकी कीमत तुम्हारा घर, तुम्हारी भावनाएँ, तुम्हारा शारीरिक सुख और तुम्हारा समय होगा। इसी तरह, यदि तुम दान-पुण्य को वास्तव में एक पेशे के रूप में लेते हो और उसी हिसाब से इसे करते हो, तो तुम्हारा सारा समय और ऊर्जा इसी में खप जाएगी। एक व्यक्ति के पास सीमित मात्रा में ऊर्जा होती है। यदि तुम दान-पुण्य के कार्य से नियंत्रित होते हो, और दान-पुण्य के कार्य और परमेश्वर में अपने विश्वास, दोनों पर समान और संतुलित तरीके से विचार करना चाहते हो, और इसके अलावा, दोनों चीजों को अच्छी तरह से करना चाहते हो, तो यह कोई आसान कार्य नहीं होगा। यदि तुम एक ही समय में इन दोनों चीजों को संतुलित करना चाहते हो, लेकिन ऐसा करने में सक्षम नहीं हो, तो तुम्हें कोई एक विकल्प चुनना होगा। यदि तुम्हें यह चुनना है कि किसे रखना है और किसे त्यागना है, तो तुम यह कैसे तय करोगे? क्या तुम्हें सबसे सार्थक और मूल्यवान प्रयास को नहीं चुनना चाहिए? फिर यदि परमेश्वर में विश्वास करना और दान-पुण्य करना, दोनों एक ही समय में तुम्हारे जीवन में आते हैं, तो तुम्हें कौन-सा विकल्प चुनना चाहिए? (मुझे परमेश्वर में विश्वास करना चुनना चाहिए।) क्या अधिकतर लोग परमेश्वर में विश्वास करना नहीं चुनते हैं? यह देखते हुए कि तुम सभी ने यह चुनाव किया है, क्या यह सामान्य नहीं है कि परमेश्वर लोगों को दान-पुण्य नहीं करने देता? (हाँ।) दान-पुण्य करने से कई जीवित प्राणियों की मदद हुई है और कई लोगों को जीविका मिली है, लेकिन अंततः इससे तुम्हें क्या लाभ होगा? तुम्हारा घमंड संतुष्ट होगा। क्या इससे सचमुच कुछ हासिल हो रहा है, और क्या यह वही है जो तुम्हें हासिल होना चाहिए? तुम्हारा आदर्श साकार हो चुका होगा, तुम्हारा मोल प्रदर्शित हो चुका होगा, बस इतना ही—लेकिन क्या यही वह मार्ग है जिस पर जीवन में तुम्हें चलना चाहिए? (नहीं।) अंततः तुम्हें इससे क्या हासिल होगा? (शून्यता।) तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा। तुम्हारा घमंड अस्थायी रूप से संतुष्ट हो जाएगा, तुम्हें दूसरों से थोड़ी प्रशंसा मिलेगी, या समाज में पदक और सम्मान मिलेगा, लेकिन बस इतना ही, पर तुम्हारी सारी ऊर्जा और समय खर्च हो जाएगा। तुम्हें क्या हासिल हुआ होगा? सम्मान, प्रतिष्ठा और प्रशंसा—ये सभी खोखली चीजें हैं। हालाँकि, जिन सत्यों को लोगों को समझना चाहिए और जिन जीवन पथों को उन्हें इस जीवन में अपनाना चाहिए, उन्हें केवल दान-पुण्य करने से समझा या प्राप्त नहीं किया जा सकता। परमेश्वर पर विश्वास करना अलग बात है। यदि तुम ईमानदारी से स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाते हो और सत्य का अनुसरण करते हो, तो तुम्हारे समय और ऊर्जा के निवेश से अच्छे और सकारात्मक परिणाम मिलेंगे। यदि तुम उन चीजों को जानते और समझते हो जिन्हें लोगों को सबसे अधिक समझना चाहिए—लोगों को कैसे रहना चाहिए, उन्हें परमेश्वर की पूजा कैसे करनी चाहिए, वे विभिन्न मामलों को कैसे देखते हैं, कार्य करते समय उनका दृष्टिकोण और रुख क्या होना चाहिए, आचरण का सबसे सही तरीका क्या है और किस प्रकार से आचरण किया जाए कि सृष्टिकर्ता उसे अपनी स्मृति में संजो ले, ऐसा आचरण जिसका अर्थ हो कि व्यक्ति उचित मार्ग पर चल रहा है—तो यही उचित मार्ग है और यही वास्तव में कुछ हासिल करना है। अपने जीवन में, तुमने बहुत कुछ हासिल किया होगा जो अविश्वासी नहीं सीख सकते, ऐसी चीजें जो मानवता वाले किसी व्यक्ति के पास होनी चाहिए। ये चीजें परमेश्वर से, सत्य से आती हैं, और ये तुम्हारा जीवन बन चुकी होंगी। इससे, तुम एक ऐसे व्यक्ति में बदल जाओगे जो सत्य को अपना जीवन मानता है; तुम्हारा जीवन अब खाली नहीं रहेगा, और तुम अब भ्रमित नहीं रहोगे या डगमगाओगे नहीं। क्या ये उच्चतर और अधिक मूल्यवान लाभ नहीं हैं? क्या ये तुम्हारे घमंड को क्षण भर के लिए संतुष्ट करने वाले कुछ दानार्थ कार्य करने से अधिक मूल्यवान नहीं हैं? (हाँ।) ये लाभ जिनमें सत्य और वह रास्ता शामिल है जिस पर लोगों को चलना चाहिए, तुम्हें एक नया जीवन प्रदान करेंगे। मानव जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी तुलना इस नए जीवन से की जा सके, और कोई भी चीज इसकी जगह नहीं ले सकती। निस्संदेह, यह नया जीवन अमूल्य और शाश्वत है। यह कुछ ऐसा है जिसे तुम अपना समय, ऊर्जा और युवावस्था समर्पित करने के बाद, एक निश्चित कीमत चुकाने और कुछ बलिदान देने के बाद प्राप्त करते हो। क्या यह इसके योग्य नहीं है? यह निश्चित रूप से इसके योग्य है। लेकिन दान-पुण्य करने पर तुम्हें क्या लाभ होगा? तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा। वे सम्मान और पदक कोई लाभ नहीं हैं। दूसरों की स्वीकृति और पुष्टि, अन्य लोगों का यह कहना कि तुम एक अच्छे व्यक्ति या महान परोपकारी हो—क्या इन्हें लाभ माना जा सकता है? (नहीं।) ये सभी अस्थायी चीजें हैं, और जल्द ही समय के साथ धूमिल हो जाएँगी। जब तुम इन चीजों को और पकड़े नहीं रख पाओगे, जब इन्हें और महसूस नहीं कर पाओगे, तब तुम पछतावे से भरकर कहोगे, “मैंने अपने जीवन में क्या किया है? मैंने कुछ कुत्ते-बिल्लियों की देखभाल की है, कुछ अनाथ बच्चों को गोद लिया है, कुछ गरीब लोगों की अच्छा जीवन जीने, अच्छा खाना खाने और अच्छे कपड़े पहनने में मदद की है, लेकिन खुद मेरा क्या? मैं किसके लिए जिया हूँ? क्या यह संभव है कि मैं केवल उनके लिए जिया? क्या यही मेरा लक्ष्य है? क्या स्वर्ग ने मुझे यही जिम्मेदारी सौंपी थी? क्या यही वह दायित्व है जो स्वर्ग ने मुझे दिया था? निश्चित रूप से, नहीं। फिर, व्यक्ति जीवन किसके लिए जीता है? लोग कहाँ से आते हैं और भविष्य में कहाँ जाते हैं? मैं इन सबसे बुनियादी मुद्दों को नहीं समझता।” और इसलिए, जब तुम इस स्तर पर पहुँच जाओगे, तो तुम्हें महसूस होगा कि ये सम्मान कोई लाभ नहीं हैं, और ये सिर्फ बाहरी चीजें हैं। इसका कारण यह है कि यदि तुम दान-पुण्य में शामिल नहीं होते तो भी तुम वैसे ही व्यक्ति होते, जैसा कि उस दिन दान-पुण्य करने और उन सभी प्रशंसाओं और सम्मानों को प्राप्त करने के बाद हो—दोनों ही मामले में, तुम्हारा आंतरिक जीवन नहीं बदला होगा। तुम जिन चीजों को नहीं समझते हो, वे तब भी तुम्हारे लिए अज्ञात ही होंगी, तुम अब भी हैरान होगे और उलझन में रहोगे। और उस समय, तुम न केवल अधिक उलझे हुए और भ्रमित होगे, बल्कि और भी अधिक बेचैनी महसूस करोगे। इस बिंदु पर, पछतावे के लिए बहुत देर हो चुकी होगी। तुम्हारा जीवन बीत चुका होगा, तुम्हारा सबसे अच्छा समय चला गया होगा, और तुम गलत रास्ता चुन चुके होगे। इसलिए, इससे पहले कि तुम दान-पुण्य करने का निर्णय लो, या जब तुमने दान-पुण्य का कार्य शुरू ही किया हो, तब यदि तुम सत्य का अनुसरण करना और उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें ऐसे विचारों को त्याग देना चाहिए। निश्चित रूप से, तुम्हें इस कार्य से संबंधित सभी गतिविधियों को भी त्याग देना चाहिए और अपने आप को पूरे दिल से परमेश्वर में विश्वास और उद्धार के अनुसरण के मार्ग पर झोंक देना चाहिए। अंत में, भले ही तुमने जो प्राप्त किया या पाया, वह उतना अधिक या फिर मूर्त नहीं है जितना कि तुमने शुरू में कल्पना की थी, पर कम-से-कम, तुम्हें पछतावा तो नहीं होगा। तुम कितना भी कम क्यों न हासिल करो, फिर भी यह उन लोगों से अधिक होगा जिन्होंने अपना पूरा जीवन प्रभु में विश्वास करते हुए धर्म में बिताया है। यह एक तथ्य है। इसलिए, करिअर चुनते समय, एक संदर्भ में, लोगों को दान-पुण्य करने के अपने विचारों और योजनाओं को त्यागने की आवश्यकता है। दूसरे संदर्भ में, उन्हें अपने विचारों के संबंध में अपनी धारणाओं में भी सुधार करना चाहिए। उन्हें समाज में उन लोगों से ईर्ष्या करने की कोई जरूरत नहीं है जो दान-पुण्य के कार्य में लगे हुए हैं, या यह सोचने की जरूरत नहीं है कि वे कितने परोपकारी, महान, सदाचारी और निःस्वार्थ हैं, यह नहीं कहना चाहिए, “देखो अन्य लोगों की सहायता करते समय वे कितने नेक और निःस्वार्थ कार्य करते हैं। हम निःस्वार्थ क्यों नहीं हो सकते? हम इसे हासिल क्यों नहीं कर सकते?” पहली बात, तुम्हें उनसे ईर्ष्या करने की जरूरत नहीं है। दूसरी बात, तुम्हें स्वयं को धिक्कारने की जरूरत नहीं है। यदि परमेश्वर ने उन्हें नहीं चुना है, तो उनके पास अपने ध्येय और लक्ष्य हैं। चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण कर रहे हों, चाहे वह प्रसिद्धि और लाभ हो, या स्वयं के आदर्शों और इच्छाओं को साकार करना हो, तुम्हें इसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। तुम्हें चिंता इस बात की होनी चाहिए कि तुम्हें क्या अनुसरण करना चाहिए और किस प्रकार का मार्ग अपनाना चाहिए। सबसे व्यावहारिक मुद्दा यह है कि चूँकि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है, और तुम उसके घर में आ गए हो, और कलीसिया के सदस्य हो, और इसके अलावा, तुम अपने कर्तव्यों का पालन करने वालों की श्रेणी में हो, तो तुम्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि अपना कर्तव्य निभाते हुए उद्धार के मार्ग पर चलना कैसे शुरू करें, सत्य का अभ्यास कैसे करें, सत्य वास्तविकता में कैसे प्रवेश करें, और उस बिंदु तक कैसे पहुँचें जहाँ परमेश्वर के वचन तुम्हारे भीतर गढ़े जाएँ और तुम्हारे लक्ष्यों और तुम्हारे द्वारा चुकाई जाने वाली विभिन्न कीमतों के माध्यम से तुम्हारा जीवन बन जाएँ। निकट भविष्य में, जब तुम अपनी उस दशा को देखोगे जिसमें तुम पहली बार परमेश्वर में विश्वास करते समय थे, तो पाओगे कि तुम्हारा आंतरिक जीवन बदल गया है। अब तुम ऐसे व्यक्ति नहीं रहोगे जिसका जीवन उसके भ्रष्ट स्वभाव पर आधारित है। अब तुम पहले जैसे एक ऐसे अहंकारी, अज्ञानी, आक्रामक और मूर्ख व्यक्ति नहीं रहोगे जो खुद को किसी से कम नहीं समझता। इसके बजाय, परमेश्वर का वचन तुम्हारा नया जीवन बन गया होगा। तुम जान जाओगे कि परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कैसे करना है, और यह भी कि जीवन में तुम्हारे सामने आने वाली हर चीज को परमेश्वर के इरादों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कैसे संभालना है। तुम अपना हर दिन अत्यंत स्थिरता के साथ बिताओगे, और जो कुछ भी करोगे उसमें तुम्हारे पास एक सटीक लक्ष्य और दिशा होगी। तुम्हें पता होगा कि तुम्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। ये सारी बातें तुम्हारे दिमाग में शीशे की तरह साफ हो जाएँगी। तुम्हारा दैनिक जीवन भ्रामक, थकाऊ या निराशाजनक नहीं होगा। इसके बजाय, यह प्रकाश से भरा होगा, इसमें एक लक्ष्य और दिशा होगी। साथ ही, तुम अपने दिल में एक प्रेरणा महसूस करोगे। तुम महसूस करोगे कि तुम बदल गए हो, तुमने एक नया जीवन प्राप्त कर लिया है, और तुम एक ऐसे व्यक्ति बन गए हो जिसने परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन बना लिया है। क्या यह अच्छा नहीं है? (हाँ, है।) हम दान-पुण्य न करने पर अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे, जो कि करिअर का त्याग करने के विषय में पहला सिद्धांत है।
अपने करिअर का त्याग करना, इस विषय का दूसरा सिद्धांत क्या है? भोजन और वस्त्र से संतुष्ट रहना। समाज में जीवित रहने के लिए, लोग अपनी आजीविका चलाने हेतु विभिन्न प्रकार के श्रम या नौकरियाँ करते हैं, और यह सुनिश्चित करते हैं कि उनके पास अपने दैनिक भोजन और जीवनयापन के खर्चों का कोई स्रोत और सुरक्षा हो। परिणामस्वरूप, वे चाहे निम्न वर्ग के हों या थोड़े ऊँचे वर्ग के, वे विभिन्न व्यवसायों के माध्यम से अपनी आजीविका चलाते हैं। चूँकि उनका उद्देश्य आजीविका चलाना होता है, तो यह बिल्कुल सीधी-सी बात है : सिर छुपाने के लिए छत होना, दिन में तीन बार भोजन करना, यदि वे मांस खाना चाहें तो कभी-कभी उसका खर्च उठा पाना, नियमित काम-धंधा होना, आमदनी होना, फटेहाल न घूमना और पर्याप्त पोषण प्राप्त करने में समर्थ होना—इतना काफी है। ये लोगों की जीवन संबंधी मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। जब कोई व्यक्ति इन मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर लेता है, तो क्या भोजन और गर्माहट प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान नहीं हो जाता? क्या वह इन्हें जुटाने में समर्थ नहीं होता? (हाँ।) तो, यदि किसी के करिअर की प्रकृति केवल भोजन और शरीर को गर्माहट देना और आजीविका प्रदान करना है, तो फिर वह चाहे किसी भी करिअर में संलग्न हो, अगर वह विधिसम्मत है, तो सामान्यतया मानवता के मानकों के अनुरूप होगा। मैं क्यों कहता हूँ कि वह मानवता के मानकों के अनुरूप है? क्योंकि इस पेशे में होने के पीछे उसका मकसद, इरादा और उद्देश्य केवल अपनी आजीविका चलाना है, किसी और विचार या बात से उसका कोई लेना-देना नहीं है—उस पेशे का मकसद विशुद्ध रूप से, पर्याप्त भोजन और पर्याप्त गर्म कपड़े जुटाना और अपने परिवार का पालन-पोषण करने में समर्थ होना है। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) ये मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। इन मूलभूत आवश्यकताओं के पूरे हो जाने पर लोग एक आधारभूत गुणवत्ता वाले जीवन का आनंद उठा सकते हैं। इन्हें हासिल कर पाने पर वे एक सामान्य जीवन जी सकते हैं। क्या किसी व्यक्ति के लिए सामान्य जीवन जी पाने में सक्षम होना पर्याप्त नहीं है? क्या लोगों को मानवता के दायरे में रहते हुए यही हासिल नहीं करना चाहिए? (हाँ।) तुम अपने जीवन के लिए स्वयं जिम्मेदार हो, इसकी जिम्मेदारी तुम्हारे ही कंधों पर है—यह सामान्य मानवता की एक आवश्यक अभिव्यक्ति है। तुम्हारे लिए इसे हासिल कर लेना पर्याप्त और उपयुक्त है। लेकिन, अगर तुम संतुष्ट नहीं हो तो हो सकता है कि जहाँ एक आम इंसान सप्ताह में एक या दो बार मांस खाता हो, वहीं तुम हर दिन मांस-मछली और जो बचा खाना है वह भी खाना चाहो। उदाहरण के लिए, यदि तुम रोज आधा पौंड या एक पौंड मांस खाते हो लेकिन अपना शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए तुम्हें केवल चौथाई पौंड की आवश्यकता है, तो यह अतिरिक्त पोषण बीमारी का कारण बन सकता है। फैटी लीवर, उच्च रक्तचाप और उच्च कॉलेस्ट्रॉल जैसी बीमारियों का क्या कारण है? (बहुत अधिक मांस खाना।) बहुत अधिक मांस खाने में क्या समस्या है? क्या इसका कारण भोजन पर नियंत्रण न कर पाना नहीं है? क्या इसका कारण पेटूपन नहीं है? (हाँ।) यह पेटूपन कहाँ से आता है? क्या इसका कारण यह नहीं है कि किसी को अत्यधिक भूख लगती है? क्या अत्यधिक भूख और पेटूपन सामान्य मानवता की आवश्यकताओं के अनुरूप है? (नहीं।) वे सामान्य मानवता की आवश्यकताओं के दायरे के बाहर हैं। यदि तुम लगातार सामान्य मानवता की आवश्यकताओं से अधिक की चाहत रखते हो, तो इसका मतलब है कि तुम्हें अधिक काम करना होगा, अधिक पैसा कमाना होगा, और सामान्य लोगों की तुलना में कई गुना अधिक काम करना होगा। तुम्हें दिन में तीन बार और अपनी इच्छा के अनुसार मांस खाने के लिए, अधिक कमाने की आवश्यकता होगी, फिर चाहे वह ओवरटाइम के माध्यम से हो या एक से ज्यादा नौकरियाँ करके। क्या यह सामान्य मानवता के दायरे को पार नहीं करता? क्या सामान्य मानवता के दायरे से बाहर जाना अच्छा है? (नहीं।) यह अच्छा क्यों नहीं है? (एक वजह तो यह है कि इससे इंसान के शरीर के बीमार होने की संभावना बढ़ जाती है; दूसरी यह कि अपनी इच्छाओं और भूख के शमन के लिए, लोगों को अपने काम में अधिक समय, अधिक ऊर्जा और अधिक लागत का निवेश करना पड़ता है। इससे वह समय और ऊर्जा खर्च हो जाती है जिसका उपयोग वे सत्य का अनुसरण करने और अपने कर्तव्यों को निभाने में कर सकते थे। इससे उनके परमेश्वर में विश्वास करने और सत्य का अनुसरण करने का मार्ग प्रभावित होता है।) लोगों को बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी होने, भूख या ठंड न लगने से और सामान्य मानवता के लिए आवश्यक भोजन और गर्माहट प्राप्त करके संतुष्ट रहना चाहिए। तुम्हें शरीर की पोषण संबंधी सामान्य आवश्यकताओं के अनुरूप पर्याप्त धन अर्जित करना चाहिए। उतना ही पर्याप्त है, सामान्य मानवता वाले लोगों का जीवन इसी प्रकार का होना चाहिए। यदि तुम हमेशा दैहिक सुखों की लालसा रखते हो, अपने शारीरिक स्वास्थ्य पर विचार किए बिना अपनी दैहिक भूख को संतुष्ट करते हो, और सही मार्ग की उपेक्षा करते हो; यदि तुम हमेशा अच्छा खाना खाना चाहते हो, अच्छी चीजों का आनंद लेना चाहते हो, रहने के लिए अच्छा माहौल और अच्छी गुणवत्ता वाला जीवन चाहते हो, दुर्लभ व्यंजन खाना चाहते हो, ब्रांड वाले कपड़े और सोने-चाँदी के गहने पहनना चाहते हो, हवेलियों में रहना चाहते हो, और महंगी कारें चलाना चाहते हो—यदि तुम लगातार इसका अनुसरण करना चाहते हो, तो तुम्हारा काम-धंधा किस प्रकार का होना चाहिए? यदि तुम अपनी बुनियादी जरूरतों और भोजन तथा गर्माहट संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए केवल एक साधारण-सी नौकरी करते हो, तो क्या वह इन सभी इच्छाओं को पूरा कर सकती है? (वह ऐसा नहीं कर सकती।) निश्चित रूप से नहीं। उदाहरण के लिए, यदि तुम व्यवसाय करना चाहते हो, और सिर्फ एक दुकान वाला कोई छोटा व्यवसाय तुम्हारे पूरे परिवार के भोजन और गर्माहट की आवश्यकता पूरी कर सकता है, तो तुम्हारे पास स्वयं से ऊपर वालों की तुलना में कम हो सकता है, लेकिन खुद से नीचे वालों की तुलना में बहुत है। तुम किसी विशेष अवसर पर मांस खा सकते हो, और तुम्हारा पूरा परिवार शालीन कपड़े पहन सकता है। तुम अपने शेष समय का उपयोग परमेश्वर में विश्वास करने, सभाओं में भाग लेने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए कर सकते हो, और उसके बाद भी तुममें सत्य का अनुसरण करने के लिए ऊर्जा रह सकती है। यह बहुत अच्छा है। क्योंकि, तुम्हारे जीवन का भरोसा है, इस कारण, इस व्यवसाय में संलग्न रहते हुए तुम परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करने के लिए समय और ऊर्जा निकाल पाओगे। यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। लेकिन अगर तुम कभी संतुष्ट नहीं होते तो तुम हमेशा सोचोगे, “इस व्यवसाय में संभावना है। मैं सिर्फ एक दुकान से प्रतिमाह इतना पैसा कमा सकता हूँ। यह मेरे परिवार को भोजन और गर्माहट प्रदान कर सकता है। अगर मेरे पास दो दुकानें हों तो मैं अपनी कमाई दोगुनी कर सकता हूँ। न केवल मेरे परिवार को भोजन और गर्माहट मिल सकेगी, बल्कि हम कुछ पैसे भी बचा सकेंगे। हम जो चाहें खा सकते हैं और यहाँ तक कि घूमने-फिरने भी जा सकते हैं और कुछ विलासितापूर्ण सामान भी खरीद सकते हैं। हम उन चीजों को खा सकते हैं और उनका आनंद ले सकते हैं जिनका आनंद अधिकतर लोग नहीं ले पाते। यह बहुत बढ़िया होगा। एक दुकान और शुरू कर लेता हूँ!” एक और दुकान शुरू करने के बाद, तुम अमीर हो जाते हो; लाभों का स्वाद चख लेते हो और सोचते हो, “लगता है कि यह बाजार काफी बड़ा है। मैं एक और दुकान शुरू कर सकता हूँ, अपने व्यवसाय का विस्तार कर सकता हूँ, और इसे और अधिक बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार का सामान रख सकता हूँ। उससे मैं न केवल पैसे बचा सकता हूँ, बल्कि एक कार खरीद सकता हूँ और एक ज्यादा बड़ा घर भी ले सकता हूँ। मेरा पूरा परिवार घरेलू और अंतरराष्ट्रीय यात्राएँ कर सकता है!” तुम इस बारे में जितना अधिक सोचते हो, यह उतना ही अधिक आकर्षक लगने लगता है। तब तुम एक और दुकान करने को तैयार हो जाते हो। तुम्हारा व्यवसाय बड़ा होता जाता है, तुम पहले से अधिक पैसा कमाते हो, तुम्हारा आनंद बढ़ता है, लेकिन अब तुम उत्तरोत्तर पहले से कम सभाओं में जाते हो, तुम सभाओं में साप्ताहिक की जगह पाक्षिक या मासिक रूप से और अंततः छह महीने में केवल एक बार जाने लगते हो। तुम मन-ही-मन सोचते हो, “मेरा व्यवसाय बढ़ गया है, मैंने बहुत पैसा कमाया है, मैं परमेश्वर के घर के कार्य का समर्थन करता हूँ और काफी ज्यादा दान देता हूँ।” तुम एक बहुत महंगी गाड़ी चला रहे हो, तुम्हारी पत्नी और बच्चे सोने और हीरे के आभूषणों से सुसज्जित हैं, सिर से पैर तक बड़े ब्रांड के कपड़े पहने हैं, और तुमने विदेश यात्रा भी की है। तुम सोचते हो, “पैसा होना बहुत अच्छी बात है! अगर मुझे पता होता कि पैसा कमाना इतना आसान होगा, तो मैं पहले ही शुरुआत कर चुका होता। पैसा होना बहुत अच्छी बात है! धनवान व्यक्ति के दिन कितने आराम और सुविधा से कटते हैं! जब मैं स्वादिष्ट खाना खाता हूँ तो उसका स्वाद अद्वितीय होता है। जब मैं डिजाइनर ब्रांड पहनता हूँ, तो मुझे खुशी महसूस होती है, और जहाँ भी मैं जाता हूँ, लोग मुझे ईर्ष्यापूर्ण निगाहों से देखते हैं। मुझे लोगों का सम्मान और प्रशंसा मिली है, और मुझे अलग महसूस होता है, मैं थोड़ा अकड़कर चलने लगा हूँ।” तुम्हारी दैहिक इच्छाएँ, साथ ही तुम्हारा घमंड भी संतुष्ट हो गया है। लेकिन परमेश्वर के वचनों की किताबों पर धूल की परत और मोटी होती जा रही है, तुमने लंबे समय से उन्हें नहीं पढ़ा है, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रार्थनाएँ छोटी हो गई हैं। सभाएँ अब किसी अलग स्थान पर होती हैं, और तुम निश्चित रूप से यह भी नहीं जानते कि वे अब कहाँ आयोजित की जाती हैं। अब तुमने कभी-कभार भी कलीसिया जाना बंद कर दिया है। मुझे बताओ, यह उद्धार के समीप जाना हुआ या दूर? (दूर।) तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो रहा है, तुम्हारा शरीर अच्छी तरह से पोषित है, और तुम्हारे विशेष नियम हो गए हैं। पहले, तुम आठ से दस साल में भी मेडिकल जाँच के लिए नहीं जाते थे, लेकिन अब जबकि तुम अमीर हो गए हो, तो यह जानने के लिए हर छह महीने में जाँच के लिए जाते हो कि कहीं तुम्हें उच्च रक्तचाप, उच्च रक्त शर्करा, या उच्च कोलेस्ट्रॉल तो नहीं। तुम कहते हो, “व्यक्ति को अपने शरीर का ख्याल रखना चाहिए। जैसा कि कहा जाता है, ‘यदि तुम्हें कुछ बनना है, तो बीमार मत बनो। यदि तुम्हें कुछ नहीं बनना है, तो गरीब मत बनो।’” तुम्हारे विचार और दृष्टिकोण बदल गए हैं, है न? अब जबकि तुम अमीर हो और एक सामान्य व्यक्ति नहीं हो, तो तुम्हें लगता है कि तुम मूल्यवान और सम्मानित हो और इस तरह तुम अपने शरीर को और भी अधिक महत्व देते हो। जीवन के प्रति भी तुम्हारा रवैया बदल गया है। पहले, तुम यह सोचकर मेडिकल जाँच नहीं कराते थे, “हम गरीबों को इस बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। मैं मेडिकल जाँच क्यों करवाऊँ? अगर मैं गंभीर रूप से बीमार हुआ, तो वैसे भी इलाज का खर्च वहन नहीं कर सकता। मैं बस चुपचाप उसे सहन करूँगा, और अगर ऐसा नहीं कर सका तो शायद एक दिन प्राण त्याग दूँगा। इसमें कोई बड़ी बात नहीं।” लेकिन अब बात अलग है। तुम कहते हो, “लोगों को बीमारी के साथ नहीं जीना चाहिए। यदि वे बीमार हो जाते हैं, तो उनकी कमाई कौन खर्च करेगा? वे जीवन का आनंद नहीं ले पाएँगे। जीवन छोटा है!” अब बात अलग है, है न? पैसे, शारीरिक जीवन और आनंद, सभी के प्रति तुम्हारा रवैया बदल गया है। इसी प्रकार, परमेश्वर में विश्वास करने, सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने के प्रति तुम्हारा रवैया भी निरंतर उदासीन होता चला गया है।
एक बार जब कोई व्यक्ति भोजन और वस्त्र से संतुष्ट न होने के मार्ग पर चल पड़ता है, तो वह उच्च गुणवत्ता वाले जीवन और बेहतर चीजों के आनंद के पीछे भागता है। यह खतरे का संकेत है, यह प्रलोभन में पड़ना है, यह परेशानी का कारण बनेगा और यह एक अपशकुन है। एक बार जब कोई धन का आनंद ले लेता है और उसका स्वाद चख लेता है, तो उसे चिंता होने लगती है कि किसी दिन वह अपना धन खोकर गरीब न बन जाए। परिणामस्वरूप, अब वे विशेष रूप से धनवान होने के दिनों को संजोते हैं और अमीर होने की स्थिति और हैसियत को महत्व देते हैं। तुम अक्सर अविश्वासियों को यह कहते सुनते हो, “कड़वे से मीठे की ओर जाना आसान है, मीठे से कड़वे की ओर जाना आसान नहीं।” इसका मतलब यह है कि जब तुम्हारे पास कुछ नहीं होता, तो त्याग करने के लिए कहे जाने पर तुम्हें कोई आपत्ति नहीं होती; तुम बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग कर सकते हो, क्योंकि पकड़कर रखने लायक कुछ है भी नहीं। यह मौद्रिक और भौतिक संपत्ति तुम्हारे लिए बाधा नहीं बनती, और तुम्हारे लिए उसे छोड़ना आसान होता है। लेकिन एक बार जब ये चीजें तुम्हें मिल जाती हैं, तो तुम्हारे लिए इन्हें छोड़ना कठिन हो जाता है, स्वर्गारोहण से भी अधिक कठिन। यदि तुम गरीब हो, तो अपना घर छोड़ने और अपने कर्तव्य निभाने का समय आने पर तुम आसानी से जा सकते हो। लेकिन, यदि तुम एक अमीर असामी हो, तो तुम्हारे दिमाग में अनेक विचार आते हैं और तुम कहते हो, “ओह, मेरे घर की कीमत बीस लाख युआन है, मेरी कार की कीमत पाँच लाख युआन है। फिर अचल संपत्तियाँ, बैंक बचत, स्टॉक, फंड, निवेश और अन्य चीजें हैं, जो कमोबेश कुल मिलाकर दस मिलियन युआन हैं। अगर मैं चला गया, तो यह सब अपने साथ कैसे लेकर जाऊँगा?” तुम्हारे लिए इन भौतिक संपत्तियों को छोड़ना आसान नहीं है। तुम सोचते हो, “अगर मैं इन चीजों को और इस घर और अपने वर्तमान परिवार को छोड़ देता हूँ, तो क्या मेरे भावी आवास में भी यह सब होगा? क्या मैं मिट्टी की झोपड़ी या भूसे के घर में रह पाऊँगा? क्या मैं पशुशाला की दुर्गंध सह पाऊँगा? फिलहाल, मैं हर दिन गर्म पानी से स्नान कर सकता हूँ। क्या मैं ऐसी जगह बर्दाश्त कर सकूँगा जहाँ मैं प्रति वर्ष गर्म पानी से एक बार भी स्नान न कर सकूँ?” तुम सोचते चले जाते हो, और तुम यह सब बर्दाश्त नहीं कर पाते। जब तुम्हारे पास पैसा होता है, तो तुम चीजें खरीदने के लिए खुले दिल से नकदी निकालते हो, बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी पसंद की चीज खरीद लेते हो, तुम विशेष रूप से उदार होते हो, और पैसे के कारण कभी परेशान नहीं होते। लेकिन अगर तुम्हें यह सब छोड़ना पड़े, तो हर बार अपने बटुए में हाथ डालने पर तुम्हें यह सोचकर शर्मिंदगी महसूस होगी कि अगर वह खाली हुआ तो क्या होगा। अगर तुम्हें एक कटोरा गर्म नूडल्स खाने हों तो तुम्हें हिसाब लगाना होगा कि कौन-सा रेस्टोरेंट सबसे सस्ता है और अपने पास बचे पैसे से तुम कितनी बार और खाना खा सकते हो। तुम्हें एक गरीब व्यक्ति का जीवन जीते हुए एक सख्त बजट रखना होगा। क्या तुम यह बर्दाश्त कर सकते हो? इससे पहले, यदि किसी कपड़े को दो बार धोने पर वह ढीला हो जाता था और उसे पहनने पर तुम्हें शर्मिंदगी महसूस होती थी, तो तुम उसे फेंक देते थे और नया ले लेते थे। अब, तुम एक ही टी-शर्ट को बार-बार धोते और पहनते हो और यहाँ तक कि अगर उसकी कॉलर फट जाए तो भी तुम उसे फेंकना बर्दाश्त नहीं कर सकते। तुम इसे फिर से सिलकर पहनना होगा। क्या तुम यह बर्दाश्त कर सकते हो? तुम जहाँ भी जाओगे, वहाँ लोग गरीब जानकर तुमसे बात नहीं करना चाहेंगे। जब तुम खरीदारी करने जाओगे और किसी चीज की कीमत पूछोगे तो कोई भी तुम पर ध्यान नहीं देगा। क्या तुम यह सहन कर पाओगे? यह महसूस करना आसान नहीं है, है न? लेकिन अगर तुम्हारे पास ये मौद्रिक और भौतिक संपत्ति न हो, तो तुम्हें उसे छोड़ने की जरूरत भी नहीं होगी, और तुम्हें इस चुनौती का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम्हारे लिए सब कुछ त्यागना और सत्य का अनुसरण करना इससे बहुत आसान होगा। इसलिए, परमेश्वर ने हमेशा लोगों से कहा है कि उन्हें भोजन और वस्त्र से संतुष्ट रहना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस पेशे में हो, उसे एक करिअर के रूप में मत लो, और किसी स्प्रिंगबोर्ड या प्रमुखता तक पहुँचने या धन संचय करने और आराम से रहने का साधन के रूप में मत देखो। चाहे तुम किसी भी कार्य या पेशे में संलग्न हो, इसे केवल अपनी आजीविका बनाए रखने के साधन के रूप में देखना ही पर्याप्त है। यदि वह तुम्हारी आजीविका को बनाए रख सकता है, तो तुम्हें पता होना चाहिए कि कब रुकना है और धन के पीछे नहीं भागना है। यदि प्रति माह दो हजार युआन की कमाई तुम्हारे तीन बार के भोजन और जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, तो तुम्हें वहीं रुक जाना चाहिए और अपनी नौकरी का दायरा बढ़ाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यदि तुम्हारी कोई विशेष आवश्यकता है, तो तुम अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अतिरिक्त पारियों में अंशकालिक या अस्थायी नौकरी कर सकते हो—यह स्वीकार्य है। लोगों से परमेश्वर की अपेक्षा यह है : इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस पेशे में हो, चाहे वह ज्ञान या किसी तकनीकी कौशल से संबंधित हो, या उसमें किसी शारीरिक श्रम की आवश्यकता हो, जब तक वह तर्कसंगत और वैध है, तुम्हारी क्षमताओं के भीतर है, और तुम्हारी आजीविका को बनाए रख सकता है, तो उतना ही काफी है। अपने पेशे को अपने दैहिक जीवन को संतुष्ट करने के लिए अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की सीढ़ी मत बनाओ, जिसकी वजह से तुम प्रलोभन या दलदल में गिर जाओ, या खुद को ऐसे रास्ते पर ले जाओ जहाँ से वापसी का रास्ता न हो। यदि प्रति माह दो हजार युआन की कमाई तुम्हारे व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त है, तो तुम्हें उसी नौकरी में रहना चाहिए और शेष समय का उपयोग परमेश्वर में विश्वास का अभ्यास करने, सभाओं में भाग लेने, अपने कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने में करना चाहिए। यही तुम्हारा लक्ष्य है, एक विश्वासी के जीवन का मूल्य और अर्थ है। और तुम जिस भी पेशे में होते हो वह केवल सामान्य मानव जीवन की बुनियादी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए होता है। परमेश्वर यह माँग नहीं करेगा कि तुम विशिष्टता हासिल करो, उत्कृष्ट बनो, या अपने पेशे में नाम कमाओ। यदि तुम्हारा पेशा वैज्ञानिक अनुसंधान से संबंधित है, तो उसमें तुम्हारी काफी ऊर्जा लगेगी, लेकिन अभ्यास का सिद्धांत अपरिवर्तित रहता है—भोजन और वस्त्र से संतुष्ट रहो। यदि तुम्हारा पेशा तुम्हें पदोन्नति के अवसर और तुम्हारी क्षमताओं के आधार पर पर्याप्त आय प्रदान करता है, और यह आय भोजन और वस्त्रों से संतुष्ट होने की सीमा से अधिक है, तो तुम्हें क्या करना चुनना चाहिए? (प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना चाहिए।) तुम्हें उस सिद्धांत का पालन करना चाहिए जिसकी परमेश्वर ने चेतावनी दी है—भोजन और वस्त्रों से संतुष्ट रहो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस पेशे में हो, अगर यह भोजन और वस्त्र से संतुष्ट होने के दायरे से परे चला जाता है, तो तुम अतिरिक्त आय अर्जित करने के लिए अनिवार्य रूप से बुनियादी आवश्यकताओं की सीमा के बाहर ऊर्जा, समय या लागत का निवेश करोगे। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि वर्तमान में तुम एक कनिष्ठ कर्मचारी हो, जो अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त कमाई कर रहा है, लेकिन नौकरी में अच्छे प्रदर्शन के कारण, तुम्हारे वरिष्ठ अधिकारी तुम्हें प्रबंधकीय पद या कई गुना उच्च वेतन वाले किसी वरिष्ठ पद पर पदोन्नत करना चाहते हैं। क्या यह कमाई व्यर्थ है? जब तुम्हारी आय बढ़ती है, तो तुम्हारे द्वारा निवेश किया गया श्रम भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है। क्या श्रम निवेश करने के लिए ऊर्जा और समय की आवश्यकता नहीं है? यह तो एक तरह से यह कहना है कि तुम जो पैसा कमाते हो वह तुम्हारी काफी ऊर्जा और समय के बदले विनिमय किया जाता है। अधिक पैसा कमाने के लिए, तुम्हें और भी अधिक समय और ऊर्जा को निवेश करना होगा। जैसे-जैसे तुम अधिक पैसा कमाते हो, तुम्हारे समय और ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है, और साथ ही साथ, जो समय तुम परमेश्वर में अपनी आस्था, सभाओं में भाग लेने, कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने के लिए आवंटित करते हो, वह आनुपातिक रूप से कम हो जाता है। यह एक स्पष्ट तथ्य है। जब तुम्हारा समय और ऊर्जा धन संचय को समर्पित हो जाते हैं, तो तुम परमेश्वर में अपनी आस्था का प्रतिफल खो देते हो। तब परमेश्वर तुम्हारे साथ अनुकूल व्यवहार नहीं करेगा, और तुमसे जो कुछ छूट गया है उसकी पूर्ति परमेश्वर का घर सिर्फ इसलिए नहीं कर देगा क्योंकि तुम्हें पदोन्नत किया गया है और तुम्हारा ज्यादातर समय और ऊर्जा काम में लग जाता है, जिसके कारण तुम्हें कर्तव्य निभाने या परमेश्वर के घर की सभाओं में भाग लेने का समय नहीं मिल रहा है। क्या ऐसा होता है? (नहीं।) परमेश्वर का घर तुम्हें वह बातें नहीं बताएगा जो तुमसे छूट गई हैं या तुम्हारे साथ विशेष व्यवहार नहीं करेगा, और इस वजह से परमेश्वर तुम्हारे साथ अनुकूल व्यवहार नहीं करेगा। संक्षेप में, यदि तुम परमेश्वर में अपने विश्वास का प्रतिफल पाना चाहते हो, सत्य प्राप्त करना चाहते हो, तो यह समय और ऊर्जा सुरक्षित करने के तुम्हारे प्रयासों पर निर्भर करता है। यह चुनाव का मामला है। परमेश्वर तुम्हें सामान्य जीवन जीने से नहीं रोकता। तुम्हारी आय भोजन और गर्माहट उपलब्ध करवाने, तुम्हारे शारीरिक अस्तित्व और जीवन गतिविधियों को बनाए रखने के लिए पर्याप्त है। यह तुम्हारे जीवन को बनाए रखने के लिए पर्याप्त है। लेकिन तुम संतुष्ट नहीं हो; तुम हमेशा अधिक कमाना चाहते हो। तब यह धनराशि तुम्हारा समय और ऊर्जा ले लेगी। उन्हें क्यों लिया जा रहा है? तुम्हारे भौतिक जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए। जैसे-जैसे तुम अपने भौतिक जीवन की गुणवत्ता को सुधारते हो, तुम्हें परमेश्वर में विश्वास से कम लाभ होता है, और तुम्हारा कर्तव्य निभाने का समय खत्म हो जाता है, यह खप जाता है। यह समय किसमें खप जाता है? यह एक अच्छे भौतिक जीवन के पीछे भागने में, भौतिक आनंद में खप जाता है। क्या यह इसके लायक है? (नहीं।) यदि तुम फायदे और नुकसान का आकलन करने में अच्छे हो, तो तुम्हें पता होगा कि यह सार्थक नहीं है। तुम अपने भौतिक जीवन में आनंद प्राप्त करते हो, बेहतर भोजन खाते हो और अपने पेट को संतुष्ट रखते हो; तुम अच्छे, फैशनेबल और आरामदायक कपड़े पहनते हो। तुम कुछ और डिजाइनर चीजें और विलासिता का साजो-सामान खरीदते हो, लेकिन तुम्हारा काम थका देने वाला, अधिक मुस्तैद रखने वाला है और इसमें तुम्हारा समय और ऊर्जा खपती है। एक विश्वासी के रूप में, तुम्हारे पास सभाओं में भाग लेने या उपदेश सुनने का समय नहीं है। तुम्हारे पास सत्य और परमेश्वर के वचनों पर विचार करने का भी समय नहीं है। ऐसे अनेक सत्य हैं जिन्हें तुम अब भी नहीं समझते और पहचान पाते, लेकिन उन पर विचार और उनकी खोज के लिए तुम्हारे पास समय और ऊर्जा की कमी है। तुम्हारे भौतिक जीवन में सुधार होता है, लेकिन तुम्हारा आध्यात्मिक जीवन पनपने में विफल रहता है, और उसमें गिरावट आती है। यह लाभ है या हानि? (यह हानि है।) यह हानि बहुत बड़ी है! तुम्हें फायदों और नुकसानों को तोलना होगा। यदि तुम एक चतुर व्यक्ति हो जो वास्तव में सत्य से प्रेम करता है, तो तुम्हें दोनों पक्षों को तोलना चाहिए और देखना चाहिए कि तुम्हारे लिए हासिल करने लायक सबसे मूल्यवान और सार्थक चीज क्या है। यदि तुम्हें पदोन्नति मिलती है, और तुम्हारे पास अधिक पैसा कमाने और स्वयं को एक बेहतर भौतिक जीवन देने का अवसर होता है, तो तुम्हें क्या चुनना चाहिए? यदि तुम सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हो और सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ संकल्प रखते हो, तो तुम्हें ऐसे अवसरों को छोड़ देना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारी कंपनी में कोई कहता है, “तुम यह काम दस साल से कर रहे हो। कंपनी में अधिकतर लोगों का तीन से पाँच वर्ष में वेतन बढ़ता है और पदोन्नति होती है। लेकिन तुम्हारा वेतन पहले जितना ही है। तुम अपने लिए बेहतर काम क्यों नहीं करते? तुम अपना प्रदर्शन क्यों नहीं सुधार रहे हो? अमुक को देखो, वह तीन साल से यहाँ है, और अब वह एक महंगी गाड़ी चलाती है और पहले से बड़े घर में रहती है : उसने अपने एक-एक कमरे और बैठक वाले घर की जगह तीन कमरों औऱ दो बैठकों वाला घर ले लिया। जब वह आई थी तो एक गरीब छात्रा थी। अब, वह एक अमीर महिला है, सिर से पैर तक डिजाइनर कपड़े पहनती है, लग्जरी होटलों में ठहरती है, हवेली में रहती है और एक महंगी गाड़ी चलाती है।” उसकी संपन्नता देखने पर क्या तुम्हारे मन में टीस नहीं उठेगी? क्या तुम्हें बुरा महसूस नहीं होगा? क्या तुम ऐसे प्रलोभनों को झेल सकते हो? क्या तब भी तुम अपने मूल इरादे पर कायम रहोगे? क्या तुम सिद्धांतों पर कायम रहोगे? यदि तुम वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो, सत्य का अनुसरण करने के इच्छुक हो, और विश्वास करते हो कि सत्य में कुछ हासिल करना तुम्हारे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण, सबसे मूल्यवान चीज है, और तुमने अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण और मूल्यवान चीज को चुना है, तो तुम्हें इसका पछतावा नहीं होगा, और तुम पदोन्नति जैसी चीजों से विचलित नहीं होगे। तुम दृढ़ रहकर कहोगे, “मैं भोजन और वस्त्र से संतुष्ट हूँ; मैं जो भी काम करता हूँ, वह भोजन और शरीर को गरम रखने के उद्देश्य से है, ताकि मेरा शरीर जीवित रहे, वह शारीरिक आनंद के लिए नहीं है, और निश्चित रूप से प्रमुखता प्राप्त करने के लिए तो नहीं है। मैं पदोन्नति या उच्च वेतन के पीछे नहीं भागता; मैं सत्य का अनुसरण करने के लिए अपने सीमित जीवनकाल का उपयोग करूँगा।” यदि तुममें यह दृढ़ निश्चय है तो तुम डगमगाओगे नहीं, और तुम्हारे दिल में टीस नहीं उठेगी; जबकि तुम दूसरों को पदोन्नति, वेतन वृद्धि पाते हुए, या सोने-चांदी के आभूषण और ब्रांड वाले कपड़े पहनते हुए, स्वयं से बेहतर जीवन स्तर का आनंद लेते हुए और स्टाइल में तुमसे आगे निकलते देखोगे तो तुम्हें ईर्ष्या महसूस नहीं होगी। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) लेकिन, यदि तुम सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम स्वयं को रोक नहीं पाओगे, और लंबे समय तक अडिग नहीं रह पाओगे। ऐसे अवसर पर और ऐसे वातावरण में, यदि लोगों के जीवन में सत्य की कमी है, यदि उनमें दृढ़ संकल्प की थोड़ी कमी है, यदि उनमें सच्ची अंतर्दृष्टि की कमी है, तो उनका मन डोलेगा और वे कमजोर महसूस करेंगे। कुछ समय तक टिके रहने के बाद, वे यह सोचकर अवसादग्रस्त भी हो जाएँगे, “ये दिन कब जाएँगे? यदि परमेश्वर का दिन नहीं आया, तो मैं कब तक कंपनी में दरबान बना रहूँगा? दूसरे लोग मुझसे ज्यादा कमा रहे हैं। मैं केवल बुनियादी भोजन और शरीर को गरम रखने के साधन ही क्यों जुटा पाता हूँ? परमेश्वर मुझसे अधिक पैसा कमाने के लिए नहीं कहता।” तुम्हें ज्यादा पैसा कमाने से कौन रोक रहा है? यदि तुममें क्षमता है, तो तुम अधिक कमा सकते हो। यदि तुम अधिक पैसा कमाना, समृद्ध जीवन शैली जीना और विलासितापूर्ण जीवन का आनंद लेना चुनते हो, तो यह ठीक है; कोई तुम्हें नहीं रोक रहा है। लेकिन, तुम्हें अपने चुनावों के लिए स्वयं जिम्मेदार होना होगा। अंत में, यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं करते, यदि परमेश्वर के वचन तुम्हारे भीतर जीवन नहीं बने हैं, तो तुम ही पछताओगे। तुम्हें अपने कार्यों और चुनावों के लिए स्वयं जिम्मेदार होना होगा। कोई भी तुम्हारी जगह भुगतान नहीं कर सकता या तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं ले सकता। चूँकि तुमने परमेश्वर में विश्वास करना, उद्धार के मार्ग पर चलना और सत्य का अनुसरण करना चुना है, इसलिए पछतावा मत करो। चूँकि तुमने यही चुना है, इसलिए तुम्हें इसे ऐसे नियम या आदेश के रूप में नहीं देखना चाहिए जिसका तुम्हें पालन करना होगा; बल्कि, तुम्हें यह समझना चाहिए कि तुम्हारी दृढ़ता और चुनाव मूल्यवान और सार्थक हैं। अंततः, तुम सत्य और जीवन हासिल करते हो, न कि केवल एक नियम। यदि तुम्हारी दृढ़ता और चुनाव तुम्हें विशेष रूप से शर्मिंदा, असहज या अपने आस-पास के लोगों का सामना करने में असमर्थ महसूस कराते हैं, तो जारी मत रखो। अपने लिए चीजें कठिन क्यों बनाई जाएँ? अपने दिल में जो भी कामना करते हो, जो भी चाहते हो, उसी चीज की तलाश करो—तुम्हें कोई नहीं रोक रहा। इस समय, हमारा इस तरह से संगति करना तुम्हें बस एक सिद्धांत दे रहा है। दुनिया में, लोग जिस भी पेशे से जुड़ते हैं वह प्रसिद्धि, लाभ और शारीरिक आनंद से जुड़ा होता है। लोग अधिक पैसा क्यों कमाते हैं इसका कारण एक निश्चित संख्या हासिल करना नहीं है, बल्कि उस पैसे को अर्जित करके अपने भौतिक आनंद को बेहतर बनाना है, और साथ ही जनता में जाने-माने अमीर व्यक्ति बनना है। इस तरह, उनके पास प्रसिद्धि, लाभ और पद होगा, जो सभी बुनियादी जरूरतों की सीमा से परे है। लोग जो भी कीमत चुकाते हैं वह शारीरिक आनंद के लिए है, उसकी कोई सार्थकता नहीं है; वह सब खोखला है, किसी सपने की तरह। अंत में उन्हें विशुद्ध खालीपन हासिल होता है। हो सकता है कि आज नाश्ते में तुम समोसे खाओ और तुम्हें वे स्वादिष्ट लगें, लेकिन ध्यानपूर्वक चिंतन करने पर तुम जानोगे कि तुम्हें कुछ हासिल नहीं हुआ है। यदि तुम उसे प्रतिदिन खाते हो तो हो सकता है कि तुम उससे बोर हो जाओ, उसे खाना बंद कर दो और कुछ और खाने लगो, जैसे सैंडविच, चावल या चीला। तुम इस तरह से तालमेल बैठाते हो, और तुम्हारा भौतिक शरीर स्वस्थ हो जाता है। यदि तुम प्रतिदिन गरिष्ठ भोजन खाते हो, तो तुम्हारा भौतिक शरीर अस्वस्थ हो सकता है, है न?
भोजन और वस्त्रों से संतुष्ट रहना, क्या यह सही मार्ग है? (यह सही मार्ग है।) यह सही क्यों है? क्या किसी व्यक्ति के जीवन का मूल्य भोजन और वस्त्रों से होता है? (नहीं।) अगर किसी व्यक्ति के जीवन का मूल्य भोजन और वस्त्रों या दैहिक आनंदों से नहीं होता, तो किसी व्यक्ति के पेशे को केवल उसकी भोजन और वस्त्र संबंधी आवश्यकता को पूरा करना चाहिए; उसका दायरा इससे ज्यादा नहीं होना चाहिए। भोजन और वस्त्र पाने के पीछे क्या उद्देश्य है? यह सुनिश्चित करना कि शरीर सामान्य रूप से जीवित रह सके। जीने का उद्देश्य क्या है? जीवन दैहिक आनंद के लिए नहीं है, न ही जीवन के घटनाक्रमों का आनंद उठाने के लिए है, और निश्चित रूप से वह उन सभी चीजों का आनंद पाने के लिए नहीं है जिनका अनुभव मनुष्य अपने जीवन में करते हैं। ये सब महत्वहीन हैं तो सबसे महत्वपूर्ण क्या है? वह सबसे मूल्यवान चीज क्या है जो एक व्यक्ति को करनी चाहिए? (व्यक्ति को परमेश्वर में विश्वास और सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना चाहिए, और फिर स्वयं के कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए।) इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, तुम हो तो सृजित प्राणी ही। सृजित प्राणियों को वही करना चाहिए जिसके लिए वे बने हैं—उनके जीवन का मूल्य इसी में है। तो, सृजित प्राणी क्या करें जिसका मूल्य हो? प्रत्येक सृजित प्राणी के पास सृष्टिकर्ता द्वारा उसे सौंपा गया एक मिशन है, एक मिशन जिसे पूर्ण करने के लिए वे बने हैं। परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की नियति निर्धारित कर रखी है। उसके जीवन की जो भी नियति हो, उसे वही करना चाहिए। यदि तुम उसे अच्छी तरह से करते हो, तो जब तुम लेखा-जोखा देने के लिए परमेश्वर के सामने खड़े होगे, तो वह एक संतोषजनक उत्तर प्रदान करेगा। वह कहेगा कि तुमने मूल्यवान और फलदाई जीवन जिया, तुमने परमेश्वर के वचनों को अपना जीवन बना लिया, और तुम एक योग्य सृजित प्राणी हो। लेकिन अगर तुम्हारा जीवन केवल जीने, संघर्ष करने और भोजन, वस्त्रों, आनंद और खुशियों में झोंकने के लिए है, तो जब तुम अंततः परमेश्वर के सामने खड़े होगे, तो वह पूछेगा, “मैंने तुम्हें इस जीवन में जो कार्य और मिशन सौंपा था, तुमने उसे कितना पूरा किया?” तुम सबका हिसाब लगाओगे और पाओगे कि इस जीवन के समय और ऊर्जा को तो तुमने भोजन, वस्त्र और मनोरंजन पर खर्च कर दिया है। ऐसा लगता है जैसे तुमने परमेश्वर में अपनी आस्था का ज्यादा कुछ नहीं किया, अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया, तुम अंत तक कायम नहीं रहे, और तुमने अपनी भक्ति नहीं निभाई। जहाँ तक सत्य का अनुसरण करने की बात है, तो हालाँकि इसका अनुसरण करने की तुम्हारी थोड़ी-बहुत इच्छा थी, लेकिन तुमने इसकी अधिक कीमत नहीं चुकाई, और कुछ भी प्राप्त नहीं किया। अंतिम परीक्षा में, परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन नहीं बने, और तुम अब भी वही पुराने शैतान हो। चीजों को देखने और कार्य करने के तुम्हारे तरीके पूरी तरह से मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं तथा शैतान के भ्रष्ट स्वभाव पर आधारित हैं। तुम अभी भी पूरी तरह से परमेश्वर के विरोध में हो और उसके साथ संगत नहीं हो। उस स्थिति में, तुम्हें अनुपयोगी मान लिया जाएगा, और परमेश्वर को तुम्हारी और जरूरत नहीं होगी। इस बिंदु से, तुम परमेश्वर के सृजित प्राणी नहीं रहोगे। यह एक दयनीय बात है! इसलिए, चाहे तुम किसी भी पेशे में संलग्न हो, जब तक वह वैध है, उसे परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और पूर्वनिर्धारित किया गया है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि परमेश्वर अधिक पैसा कमाने या तुम्हारे द्वारा अपनाए गए करिअर में प्रमुखता हासिल करने के लिए तुम्हारा समर्थन करता है या तुम्हें प्रोत्साहित करता है। परमेश्वर इसकी मंजूरी नहीं देता, और उसने तुमसे कभी इसकी अपेक्षा नहीं की। इसके अलावा, परमेश्वर कभी भी तुम्हारे पेशे का उपयोग कर न तो तुम्हें दुनिया की ओर धकेलेगा, न ही शैतान को सौंपेगा, न ही वह तुम्हें इरादतन प्रसिद्धि और लाभों का पीछा करने देगा। इसके बजाय, तुम्हारे पेशे के माध्यम से परमेश्वर तुम्हें भोजन और शरीर की गर्माहट संबंधी अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने की अनुमति देता है—इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर ने अपने वचनों में तुम्हें ऐसी बातें बताई हैं जैसे तुम्हारा कर्तव्य क्या है, तुम्हारा मिशन क्या है, तुम्हें किसका अनुसरण करना चाहिए और क्या जीना चाहिए। ये वे मूल्य हैं जिन्हें तुम्हें जीना चाहिए और वे मार्ग हैं जिन पर तुम्हें जीवनभर चलना चाहिए। परमेश्वर के बोल लेने के बाद, जब तुम समझ जाते हो कि उसने क्या कहा है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? यदि सप्ताह में तीन दिन काम करना तुम्हारी भोजन और शरीर को गरम रखने संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, लेकिन फिर भी तुम अन्य दिन काम करना चुनते हो तो तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते। जब किसी कर्तव्य के लिए तुम्हारे सहयोग की आवश्यकता होती है, तो तुम कहते हो, “मैं कार्य कर रहा हूँ, मैं अपने कार्यस्थल पर हूँ,” और जब कोई तुमसे संपर्क करने का प्रयास करता है, तो तुम हमेशा समय न होने का दावा करते हो। तुम्हारे पास समय कब होता है? केवल रात 8 बजे के बाद, जब तुम पूरी तरह से थके और शिथिल होते हो, तुम्हारे पास इच्छाशक्ति तो होती है लेकिन ताकत नहीं। तुम सप्ताह में छह दिन काम करते हो, और जब भी कोई तुमसे फोन पर संपर्क करने का प्रयास करता है तो तुम हमेशा समय न होने की बात कहते हो। तुम्हारे पास केवल रविवार को समय होता है, और तब भी तुम्हें अपने परिवार और बच्चों के साथ समय बिताने, घर के कामकाज निपटाने, खुद को तरोताजा करने और थोड़ा आराम करने की जरूरत होती है। कुछ लोग तो छुट्टियों पर बाहर भी जाते हैं, कुछ समय अवकाश की गतिविधियों पर बिताते हैं, और पैसे खर्च करके खरीदारी करते हैं। कुछ लोग अपने सहकर्मियों के साथ संबंध बेहतर बनाते हैं और नेताओं तथा उच्च अधिकारियों के साथ मेल-जोल बढ़ाते हैं। यह कैसा विश्वास है? ऐसा व्यक्ति पूरी तरह से एक छद्म-विश्वासी है; औपचारिकता में उलझने का क्या लाभ? यह मत कहो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो; तुम्हारा परमेश्वर के विश्वासियों के साथ कोई संबंध नहीं है। तुम कलीसिया के नहीं हो; अधिक-से-अधिक, तुम कलीसिया के एक मित्र मात्र हो। परमेश्वर के घर को बाहरी मामले संभालने के लिए किसी की जरूरत है, और हो सकता है कि तुम मदद के लिए सहमत हो जाओ लेकिन बात सिर्फ इतनी है कि तुम केवल इनकार नहीं कर रहे। तुम अपना पद भर सकते हो या नहीं, या उसे कब भर सकते हो, यह अज्ञात है। और अपने पद पर पहुँचने के बाद, तुम अपना काम पूरा समय, पूरा दिल और ताकत लगाकर कर सकते हो या नहीं, यह अनिश्चित है—ये सभी बातें अज्ञात हैं। कौन जानता है कि कब तुम काम में अत्यधिक व्यस्त हो जाओ, या किसी व्यवसाय के काम से यात्रा पर चले जाओ, और दो सप्ताह या महीनेभर के लिए बिना किसी नामो-निशान के गायब हो जाओ—कोई भी तुम तक नहीं पहुँच सकता। यह अब वास्तविक आस्था नहीं, महज औपचारिकता रह गई है। जब ऐसे लोगों की बात आती है, तो उनकी परमेश्वर के वचनों की किताबें छीन ली जानी चाहिए, और फिर उन्हें निकालकर कह दिया जाना चाहिए, “यदि तुम काम नहीं छोड़ सकते, तुम्हारे पास सभाओं के लिए समय नहीं है, और अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते, तो परमेश्वर का घर तुम्हें बाध्य नहीं करेगा। चलो, यहीं अलग हो जाते हैं। जब तुम केवल भोजन और वस्त्र से ही संतुष्ट हो सको, उच्च गुणवत्ता वाले जीवन की माँगें छोड़ सको, और अपने कर्तव्य को निभाने के लिए अधिक समय दे सको, तब हम तुम्हें औपचारिक रूप से स्वीकार करेंगे और कलीसिया के एक सदस्य के रूप में गिनेंगे। यदि तुम यह हासिल नहीं कर सकते, और केवल अपने खाली समय में आते हो, मदद करते हो और भाई-बहनों के साथ कमजोर रिश्ते बनाते हो तो इसे एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के रूप में नहीं गिना जाता है, और इसे निश्चित रूप से परमेश्वर में औपचारिक रूप से विश्वास करना नहीं माना जाता।” ऐसे लोगों को हम क्या कहते हैं? (कलीसिया के मित्र।) कलीसिया के मित्र, कलीसिया के अच्छे मित्र। “क्योंकि जो हमारे विरोध में नहीं, वह हमारी ओर है” (मरकुस 9:40)। इसलिए, ऐसे लोग कलीसिया के मित्र कहलाते हैं। किसी को कलीसिया का मित्र कहना यह दर्शाता है कि वे अभी निगरानी चरण में हैं, वे अभी तक परमेश्वर के औपचारिक विश्वासी नहीं हैं, उन्हें कलीसिया के सदस्यों में नहीं गिना जाता है, न ही उन्हें अभी तक कर्तव्य निभाने वालों में माना जाता है; अधिक-से-अधिक उनकी अभी भी निगरानी की जानी है, क्योंकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि वे अपना कर्तव्य निभा सकते हैं या नहीं। हालाँकि, कुछ लोगों को, पारिवारिक माहौल या परिस्थितियों के कारण उन पर लगे प्रतिबंधों के कारण, आजीविका कमाने और अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए सप्ताह में कई दिन काम करना पड़ता है। हम उनसे कोई बाध्यकारी माँग नहीं करेंगे। यदि वे अपने शेष समय में अपने कर्तव्य निभा सकते हैं, तो उन्हें औपचारिक रूप से परमेश्वर में विश्वास करने वाले, परमेश्वर के घर के सदस्य के रूप में गिना जाता है क्योंकि वे पहले से ही भोजन और वस्त्रों से संतुष्ट रहने की बुनियादी शर्त पूरी कर चुके हैं। उनके सामने वस्तुगत चुनौतियाँ होती हैं और यदि तुम उन्हें काम करने से रोकते हो तो उनके पूरे परिवार के पास भरण-पोषण का कोई साधन नहीं होगा, और वे ठंड और भूख से पीड़ित हो जाएँगे। यदि तुम उन्हें काम नहीं करने दोगे तो उनके परिवार का भरण-पोषण कौन करेगा? क्या तुम उसका भरण-पोषण करने को तैयार हो? इसलिए, कलीसिया के अगुआओं, निरीक्षकों और उनसे संबंधित किसी भी व्यक्ति का यह माँग करना उचित नहीं है कि वे अपनी नौकरी छोड़ दें और अपने परिवारों की चिंता न करें। ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए। यह लोगों से असंभव कार्य करने के लिए कहना होगा; उन्हें आजीविका का साधन दिया जाना चाहिए। लोग शून्य में नहीं जीते, वे मशीनें नहीं हैं। उन्हें जीवित रहना, अपनी आजीविका को कायम रखना होता है। जैसा कि हमने पहले चर्चा की थी, यदि तुम्हारे पास बच्चे और परिवार है, तो परिवार के मुख्य सहारे या सदस्य के रूप में, तुम्हें अपने परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। इस जिम्मेदारी को पूरा करने का सिद्धांत भोजन और गर्माहट प्राप्त करना है, यही सिद्धांत है। कुछ लोगों के लिए, यह वह स्थिति है जिसमें वे हैं और वे इस बारे में कुछ नहीं कर सकते। अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के बाद, वे अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी दिनचर्या को समायोजित करते हैं। इसकी अनुमति परमेश्वर के घर द्वारा दी गई है; तुम लोगों से असंभव कार्य करने को नहीं कह सकते। क्या यह कोई सिद्धांत है? (हाँ।) किसी के लिए भी यह माँग करना उचित नहीं है कि जिन लोगों ने हाल ही में परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया है और जिन्हें अभी जड़ें जमानी बाकी हैं, उन्हें अपनी नौकरी छोड़ देनी चाहिए, अपने परिवार का त्याग कर देना चाहिए, तलाक ले लेना चाहिए, अपने बच्चों की उपेक्षा करनी चाहिए या अपने माता-पिता को ठुकरा देना चाहिए। इनमें से कुछ भी आवश्यक नहीं है। परमेश्वर के वचनों में लोगों से जिन चीजों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है, वे सत्य सिद्धांत हैं, और इन सिद्धांतों में विभिन्न स्थितियाँ और शर्तें शामिल हैं। इन विभिन्न स्थितियों व शर्तों के आधार पर सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप अपेक्षाएँ तथा मानक बनाए जाने चाहिए; केवल यही सही है। इसलिए, करिअर के मामले में, भोजन और वस्त्रों से संतुष्ट रहना अति महत्वपूर्ण है। यदि तुम इस बिंदु को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते, तो तुम अपना कर्तव्य खो सकते हो और बचाए जाने के अपने अवसरों को जोखिम में डाल सकते हो।
अंत के दिन एक विशेष समय भी हैं। एक दृष्टि से, कलीसिया के मामले व्यस्त और जटिल हैं; दूसरे नजरिये से, इस क्षण जबकि परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैल रहा है, परमेश्वर के घर के भीतर की विभिन्न परियोजनाओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक लोगों को अपना समय और ऊर्जा देने, अपने प्रयासों का योगदान देने और अपने कर्तव्यों को पूरा करने की आवश्यकता है। इसलिए, तुम्हारा पेशा जो भी हो, यदि जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के अलावा, तुम परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य को पूर्ण करने, और विभिन्न परियोजनाओं में सहयोग करने के लिए अपना समय और ऊर्जा समर्पित करने में सक्षम हो, तो परमेश्वर की दृष्टि में, यह न केवल वांछनीय है बल्कि इसका विशेष मोल भी है। यह परमेश्वर द्वारा याद रखने योग्य है, और निश्चित रूप से यह इस योग्य भी है कि लोगों इसमें इतना निवेश और व्यय करें। ऐसा इसलिए कि यद्यपि तुमने देह के सुखों का त्याग किया है, लेकिन तुम्हें जो प्राप्त हुआ है, वह है परमेश्वर के वचनों का अमूल्य जीवन, एक अनंत जीवन, एक अमूल्य खजाना जिसका दुनिया में किसी भी चीज से, पैसे या किसी अन्य चीज से आदान-प्रदान नहीं किया जा सकता है। और यह अमूल्य खजाना, वह चीज जिसे तुम समय और ऊर्जा का निवेश करके, स्वयं के प्रयासों और अनुसरण के माध्यम से प्राप्त करते हो : यह एक विशेष उपकार है और कुछ ऐसा है जिसे तुमने भाग्यशाली होने के कारण पाया है, है न? परमेश्वर के वचनों और सत्य का किसी का जीवन बन जाना : यह एक अमूल्य खजाना है जिसके बदले में लोगों को अपना सब कुछ अर्पित कर देना चाहिए। इसलिए, तुम्हें भोजन और वस्त्र उपलब्ध करवाने वाले तुम्हारे पेशे के आधार पर यदि तुम कीमत चुकाने और सत्य का अनुसरण करने में समय और ऊर्जा का निवेश करने में सक्षम हो—यदि तुम इस मार्ग को चुनते हो—तो यह जश्न मनाने लायक अच्छी बात है। तुम्हें इस बारे में हतोत्साहित या भ्रमित महसूस नहीं करना चाहिए; तुम्हें आश्वस्त रहना चाहिए कि तुमने सही चुनाव किया है। हो सकता है कि तुम पदोन्नति, वेतन वृद्धि और उच्चतर आय, शारीरिक जीवन के अधिक आनंद या समृद्ध जीवन के अवसरों से चूक गए हो, लेकिन तुमने उद्धार के अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया है। तुमने इन चीजों को खो या छोड़ दिया है, इस तथ्य का मतलब यह है कि तुम्हारा चुनाव तुम्हारे लिए उद्धार की आशा और जीवन शक्ति लेकर आया है। तुमने कुछ भी नहीं खोया है। इसके विपरीत, यदि भोजन और वस्त्र प्राप्त करने के बाद, तुम अतिरिक्त समय और ऊर्जा लगाते हो, अधिक पैसा कमाते हो, अधिक भौतिक सुख प्राप्त करते हो, और तुम्हारा शरीर संतुष्ट हो जाता है, लेकिन ऐसा करने में, तुम अपने उद्धार की आशा को नष्ट कर देते हो तो यह निस्संदेह तुम्हारे लिए अच्छी बात नहीं है। तुम्हें इस बारे में परेशान और चिंतित होना चाहिए; तुम्हें अपने काम को या जीवन के बारे में अपने रवैये और भौतिक जीवन की गुणवत्ता से संबंधित माँगों को समायोजित करना चाहिए; तुम्हें शारीरिक जीवन की कुछ ऐसी इच्छाओं, योजनाओं और उद्देश्यों को छोड़ देना चाहिए जो वास्तविकता से मेल नहीं खाते हैं। तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उसके समक्ष आना चाहिए, और अपने कर्तव्य को पूरा करने का संकल्प लेना चाहिए, अपने मन और शरीर को परमेश्वर के घर के विभिन्न कार्यों में लगाना चाहिए, ताकि भविष्य में, जिस दिन परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाए, जब वह तमाम तरह के सभी लोगों के काम की जाँच करे और इन तमाम तरह के सभी लोगों के आध्यात्मिक कद को नापे तो तुम उनका एक हिस्सा हो। जब परमेश्वर का महान कार्य पूरा हो जाएगा, जब परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार पूरे ब्रह्मांड में फैल जाएगा, जब यह आनंदमय दृश्य सामने आएगा, तो यह तुम्हारा परिश्रम, निवेश और बलिदान होगा। जब परमेश्वर महिमा पाता है, जब उसका कार्य पूरे ब्रह्मांड में फैलता है, जब हर कोई परमेश्वर के महान कार्य के सफलतापूर्वक पूर्ण होने का जश्न मना रहा होता है, तब आनंद के उस क्षण के सामने आने पर, तुम वह व्यक्ति होगे जो इस आनंद से जुड़ा हुआ है। तुम इस आनंद के भागीदार होगे, जिस समय बाकी सभी लोग आनंद से उछल और चिल्ला रहे होंगे, उस समय तुम वह व्यक्ति नहीं होगे जो रो रहा और दाँत पीस रहा होगा, अपनी छाती पीट और पीठ पर मार रहा होगा, जो कठोर दंड प्राप्त करेगा, जिसे परमेश्वर द्वारा पूरी तरह से तिरस्कृत करके निकाल दिया जाएगा। निःसंदेह, इससे भी बेहतर यह है कि जब परमेश्वर का महान कार्य पूरा हो जाएगा, तो तुम्हारे पास जीवन के रूप में परमेश्वर के वचन होंगे। तुम एक ऐसे व्यक्ति होगे जिसे बचा लिया गया है, जो अब परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करता, सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करता, बल्कि एक ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर के अनुरूप है। साथ ही, तुम उन सभी चीजों पर भी खुशी मनाओगे जिन्हें तुमने शुरू में ही त्याग दिया था : उच्च वेतन, शारीरिक सुख, अच्छा भौतिक उपचार, श्रेष्ठ जीवन परिवेश और अगुआओं द्वारा प्रदत्त प्रशंसा, पदोन्नति और उन्नयन। तुम्हें यह पछतावा नहीं होगा कि तुमने पदोन्नति के लिए वे अवसर नहीं छोड़े या अपना वेतन बढ़ाने और संपत्ति बनाने के लिए वे अवसर नहीं छोड़े या या विलासितापूर्ण जीवनशैली अपनाने के वे मौके नहीं छोड़े। संक्षेप में कहें तो किसी व्यक्ति के पेशे की अपेक्षाएँ और मानक अभ्यास के ऐसे सिद्धांत भी हैं जिनका उसे पालन करना चाहिए, और इन सभी का सार इस कहावत में है : “भोजन और वस्त्रों से संतुष्ट रहो।” जीवन प्राप्त करने के लिए सत्य का अनुसरण करना ही वह चीज है जिस पर लोगों को बने रहना चाहिए। उन्हें अपनी शारीरिक इच्छाओं की संतुष्टि और शारीरिक आनंद के लिए सत्य तथा सही मार्ग को नहीं छोड़ना चाहिए। यह दूसरा सिद्धांत है जिस पर लोगों को करिअर के संबंध में कायम रहना चाहिए।
अपने करिअर का त्याग करना, इस विषय के संबंध में आज हमने दो सिद्धांतों पर चर्चा की। क्या तुम इन दो सिद्धांतों को समझ गए हो? (हाँ।) सिद्धांतों के स्पष्ट होने पर, अगला कदम है इन सिद्धांतों के आधार पर यह मूल्यांकन करना कि उनका अभ्यास कैसे किया जाए। अंततः, जो लोग ही इन सिद्धांतों पर कायम रह सकते हैं वे ही परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं, जबकि जो लोग सिद्धांतों पर कायम नहीं रह सकते, वे परमेश्वर के मार्ग से भटक रहे हैं। यह इतनी सरल बात है। यदि तुम सिद्धांतों पर कायम रह सकते हो, तो सत्य प्राप्त कर लोगे; यदि तुम सिद्धांतों पर कायम नहीं रहते तो सत्य खो दोगे। सत्य की प्राप्ति उद्धार की आशा प्रदान करती है; सत्य को प्राप्त करने में असफल रहने पर उद्धार की आशा खो जाएगी—बात बस ऐसी है। ठीक है, चलो, आज की संगति यहीं समाप्त करते हैं। अलविदा!
10 जून 2023