7. कुछ लोग सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ है रविवार को कलीसिया में भाग लेने के लिए प्रतिबद्ध होना, दान करना और धर्मार्थी होना, और नियमित रूप से चर्च की गतिविधियों में भाग लेना। उनका मानना है कि इन चीज़ों को करने से उन्हें बचाया जा सकता है। क्या ऐसे विचार परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद :
"जो मुझ से, 'हे प्रभु! हे प्रभु!' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, 'हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?' तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, 'मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ'" (मत्ती 7:21-23)।
"स्वर्ग के राज्य में बलपूर्वक प्रवेश होता रहा है, और बलवान उसे छीन लेते हैं" (मत्ती 11:12 )।
"मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे" (मत्ती 18:3)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :
यद्यपि बहुत सारे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग समझते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बनने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यद्यपि लोग "परमेश्वर" शब्द और "परमेश्वर का कार्य" जैसे वाक्यांशों से परिचित हैं, लेकिन वे परमेश्वर को नहीं जानते और उससे भी कम वे उसके कार्य को जानते हैं। तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे सभी, जो परमेश्वर को नहीं जानते, उसमें अपने विश्वास को लेकर भ्रमित रहते हैं। लोग परमेश्वर में विश्वास करनेको गंभीरता से नहीं लेते और यह सर्वथा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करना उनके लिए बहुत अनजाना, बहुत अजीब है। इस प्रकार वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। दूसरे शब्दों में, यदि लोग परमेश्वर और उसके कार्य को नहीं जानते, तो वे उसके इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं, और उसकी इच्छा पूरी करने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं। "परमेश्वर में विश्वास" का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर में विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे भी बढ़कर, यह मानना कि परमेश्वर है, परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने जैसा नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक संकेतार्थों के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर में सच्चे विश्वास का अर्थ यह है: इस विश्वास के आधार पर कि सभी वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता है, व्यक्ति परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करता है, परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है और परमेश्वर को जान पाता है। केवल इस प्रकार की यात्रा को ही "परमेश्वर में विश्वास" कहा जा सकता है। फिर भी लोग परमेश्वर में विश्वास को अकसर बहुत सरल और हल्के रूप में लेते हैं। परमेश्वर में इस तरह विश्वास करने वाले लोग, परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ गँवा चुके हैं और भले ही वे बिलकुल अंत तक विश्वास करते रहें, वे कभी परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं करेंगे, क्योंकि वे गलत मार्ग पर चलते हैं। आज भी ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर में शब्दशः और खोखले सिद्धांत के अनुसार विश्वास करते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में उनके विश्वास में कोई सार नहीं है और वे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर सकते। फिर भी वे परमेश्वर से सुरक्षा के आशीषों और पर्याप्त अनुग्रह के लिए प्रार्थना करते हैं। आओ रुकें, अपने हृदय शांत करें और खुद से पूछें: क्या परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में पृथ्वी पर सबसे आसान बात हो सकती है? क्या परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है? क्या परमेश्वर को जाने बिना उसमें विश्वास करने वाले या उसमें विश्वास करने के बावजूद उसका विरोध करने वाले लोग सचमुच उसकी इच्छा पूरी करने में सक्षम हैं?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना
कुछ लोग हमेशा सोचते हैं: "क्या परमेश्वर पर विश्वास करना सिर्फ बैठकों में शामिल होना, गाने गाना, परमेश्वर के वचन को सुनना, प्रार्थना करना, और कुछ कर्तव्य निभाना नहीं है? क्या यह इसी बारे में नहीं है?" चाहे तुम लोगों ने कितने ही समय से परमेश्वर में विश्वास क्यों न किया हो, तुम लोगों ने अभी भी परमेश्वर में विश्वास के महत्व की सम्पूर्ण समझ को प्राप्त नहीं किया है। वास्तव में, परमेश्वर में विश्वास का महत्व इतना गहन है कि लोग इसकी थाह पा सकने में असमर्थ हैं। अंत में, लोगों के भीतर की चीज़ें जो शैतान की हैं और उनकी प्रकृति की चीज़ें अवश्य बदलनी चाहिए और सत्य की आवश्यकताओं के अनुरूप अवश्य बननी चाहिए; केवल इसी तरह कोई व्यक्ति वास्तव में उद्धार प्राप्त कर सकता है। यदि, जैसा कि जब तू धर्म के भीतर था तू किया करता था, तू कुछ सिद्धांतों के वचन झाड़ता या नारे लगाता है, और फिर थोड़े-बहुत अच्छे कर्म करता, थोड़ा और अच्छा व्यवहार करता है और कुछ पापों, कुछ स्पष्ट पापों को करने से दूर रहता है, तब भी इसका मतलब यह नहीं है कि तूने परमेश्वर पर विश्वास करने के सही मार्ग पर कदम रख दिया है। क्या नियमों का पालन कर पाना यह बताता है कि तू सही राह पर चल रहा है? क्या इसका मतलब है कि तूने सही चुना है? यदि तेरी प्रकृति के भीतर की चीज़ें नहीं बदली हैं, और अंत में तू अभी भी परमेश्वर का विरोध कर रहा है और अपमान कर रहा है, तो यह तेरी सबसे बड़ी समस्या है। यदि परमेश्वर में तेरे विश्वास में, तू इस समस्या का समाधान नहीं करता है, तो क्या तुझे बचाया हुआ माना जा सकता है? ऐसा कहने का मेरा क्या अर्थ है? मेरा अभिप्राय तुम सभी लोगों को तुम्हारे हृदयों में यह समझाना है कि परमेश्वर में विश्वास को परमेश्वर के वचनों से, परमेश्वर से या सत्य से पृथक नहीं किया जा सकता है। तुझे अपने मार्ग को अच्छी तरह से चुनना चाहिए, सत्य में प्रयास लगाना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों में प्रयास लगाना चाहिए। केवल अध-पका ज्ञान, या थोड़ी-बहुत समझ प्राप्त मत कर और फिर यह मत सोच कि तेरा काम हो गया; यदि तू स्वयं को धोखा देता है, तो तू केवल अपने आप को ही चोट पहुँचाएगा। लोगों को परमेश्वर के अपने विश्वास से भटकना नहीं चाहिये; अंत में, अगर उनके दिल में परमेश्वर का वास नहीं है, मात्र किताब को हाथ में थामे, पल भर के लिये उस पर सरसरी नज़र डालते हैं, मगर वे परमेश्वर के लिये अपने दिल में कोई जगह नहीं छोड़ते, तो वे नष्ट हो जाते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में, सही मार्ग चुनना सबसे महत्वपूर्ण है
परमेश्वर में आस्था का अर्थ बचाया जाना है, तो बचाये जाने के क्या मायने हैं? "बचाया जाना," "शैतान के अंधकारपूर्ण प्रभाव से मुक्त होना"—लोग अक्सर इन विषयों के बारे में बात करते हैं, लेकिन वे बचाये जाने का अर्थ नहीं जानते। बचाए जाने का क्या अर्थ है? इसका संबंध परमेश्वर की इच्छा से है। सीधे-सादे ढंग से कहें, तो बचाए जाने का अर्थ है कि तू जीता रह सकता है, और तुझे जीवन में वापस लाया गया है। तो इससे पहले, क्या तू मरा हुआ है? तू बोल सकता है, और तू साँस ले सकता है, तो तुझे मरा हुआ कैसे कहा जा सकता है? (प्राण मर चुका है।) ऐसा क्यों कहा जाता है कि यदि लोगों के प्राण मर गए हैं तो वे मर गए हैं? इस कहावत का आधार क्या है? उद्धार प्राप्त कर लेने से पहले लोग किसके अधिकार क्षेत्र में जीते हैं? (शैतान के अधिकार क्षेत्र में।) और शैतान के अधिकार क्षेत्र में जीने के लिए वे किस पर निर्भर करते हैं? वे जीने के लिए अपनी शैतानी प्रकृति और भ्रष्ट स्वभावों का सहारा लेते हैं। जब कोई व्यक्ति इन चीज़ों के अनुसार जीता है, तो उनका संपूर्ण अस्तित्व—उनकी देह, और उनके प्राण और उनके विचार जैसे सभी अन्य पहलू—जीवित है या मृत? परमेश्वर के दृष्टिकोण से वे मृत हैं। ऊपर से तू साँस लेते हुए और सोचते हुए दिखाई देता है, लेकिन हर चीज़ जिसके बारे में तू लगातार सोचता है वह दुष्टता है; तू उन चीज़ों के बारे में सोचता है जो परमेश्वर की अवहेलना करती हैं और परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करती हैं, ऐसी चीजें जिनसे परमेश्वर नफ़रत करता है, घृणा करता है और जिनकी निंदा करता है। परमेश्वर की नजर में, ये सभी चीज़ें न केवल देह से संबंधित हैं, बल्कि वे पूरी तरह शैतान और दुष्टात्माओं से संबंधित हैं। तो परमेश्वर की नज़र में लोग क्या हैं? क्या वे इंसान हैं? नहीं, वे नहीं हैं। परमेश्वर उन्हें हैवानों के रूप में, जानवरों के रूप में, और शैतानों, जीवित शैतानों के रूप में देखता है! लोग शैतान की चीज़ों और उसके सार के अनुसार जीते हैं, और परमेश्वर की नज़र में, वे स्वयं मानव देह धारण किए हुए जीवित शैतान हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को चलती-फिरती लाशों के रूप में; मरे हुए लोगों के रूप में परिभाषित करता है। परमेश्वर ऐसे लोगों को—इन चलती-फिरती लाशों को जो अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों और अपने भ्रष्ट शैतानी सार के अनुसार जीती हैं—ऐसे कथित मृत लोगों को ले कर उन्हें जीवित में बदल देने के लिए अपना उद्धार का वर्तमान कार्य करता है। बचाए जाने का यही अर्थ है।
परमेश्वर पर विश्वास करने का मकसद उद्धार प्राप्त करना है। बचाए जाने का अर्थ है कि तू मृत व्यक्ति से जीवित व्यक्ति में बदल जाता है। इससे तात्पर्य है कि तेरी साँस पुनर्जीवित हो जाती है, और तू जीवित हो जाता है; तू परमेश्वर को पहचान पाता है, और तू उसकी आराधना करने के लिए सिर झुकाने में सक्षम है। तेरे हृदय में परमेश्वर के विरुद्ध कोई और प्रतिरोध नहीं होता है; तू अब और उसकी अवहेलना नहीं करता है, उस पर हमला नहीं करता है, या उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं करता है। केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर की नज़र में असलियत में जीवित हैं। यदि कोई केवल कहता है कि वह परमेश्वर को स्वीकार करता है, तो क्या वे जीवितों में से हैं? (नहीं, वे जीवित नहीं हैं।) तो किस प्रकार के लोग जीवित हैं? जीवित प्राणी किस प्रकार की वास्तविकता को धारण करता है? कम से कम, जीवित प्राणी मानव भाषा बोल सकते हैं। वह क्या होती है? इसका अर्थ है कि जिन शब्दों को वे बोलते हैं उसमें मत, विचार, और विवेक शामिल होते हैं। जीवित प्राणी किन चीज़ों के बारे में बार-बार सोचता है। वे मानवीय गतिविधियों में संलग्न होने, और अपने कर्तव्यों को पूरा करने में सक्षम होते हैं। उनकी कथनी और करनी की प्रकृति क्या है? वह वो सब कुछ है जो वे प्रकट करते हैं, सोचते हैं, और करते हैं, वो परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की प्रकृति के साथ किया जाता है। इसे अधिक उपयुक्त रूप से कहें, तो जीवित प्राणियों में से एक होने के नाते, तेरे हर कर्म और हर विचार की परमेश्वर द्वारा निंदा नहीं की जाती है या उनसे नफ़रत नहीं की जाती है या उन्हें अस्वीकार नहीं किया जाता है; बल्कि, उनका परमेश्वर द्वारा अनुमोदन और प्रशंसा की जाती है। यही जीवित व्यक्ति करता है, और यही वह है जो जीवित व्यक्ति को करना चाहिए।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सच्ची आज्ञाकारिता से ही व्यक्ति में सच्ची आस्था हो सकती है
एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन प्रार्थना करने, भजन गाने, कलीसियाई जीवन में भाग लेने और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने जैसे अभ्यासों तक सीमित नहीं है। बल्कि, इसमें एक नया और जीवंत आध्यात्मिक जीवन जीना शामिल है। जो बात मायने रखती है वो यह नहीं है कि तुम अभ्यास कैसे करते हो, बल्कि यह है कि तुम्हारे अभ्यास का परिणाम क्या होता है। अधिकांश लोगों का मानना है कि एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन में आवश्यक रूप से प्रार्थना करना, भजन गाना, परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना या उसके वचनों पर मनन-चिंतन करना शामिल है, भले ही ऐसे अभ्यासों का वास्तव में कोई प्रभाव हो या न हो, चाहे वे सच्ची समझ तक ले जाएँ या न ले जाएँ। ये लोग सतही प्रक्रियाओं के परिणामों के बारे में सोचे बिना उन पर ध्यान केंद्रित करते हैं; वे ऐसे लोग हैं जो धार्मिक अनुष्ठानों में जीते हैं, वे ऐसे लोग नहीं हैं जो कलीसिया के भीतर रहते हैं, वे राज्य के लोग तो बिलकुल नहीं हैं। उनकी प्रार्थनाएँ, भजन-गायन और परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना, सभी सिर्फ नियम-पालन हैं, जो प्रचलन में है उसके साथ बने रहने के लिए मजबूरी में किए जाने वाले काम हैं। ये अपनी इच्छा से या हृदय से नहीं किए जाते हैं। ये लोग कितनी भी प्रार्थना करें या गाएँ, उनके प्रयास निष्फल होंगे, क्योंकि वे जिनका अभ्यास करते हैं, वे केवल धर्म के नियम और अनुष्ठान हैं; वे वास्तव में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं कर रहे हैं। वे अभ्यास किस तरह करते हैं, इस बात का बतंगड़ बनाने में ही उनका ध्यान लगा होता है और वे परमेश्वर के वचनों के साथ उन नियमों जैसा व्यवहार करते हैं जिनका पालन किया ही जाना चाहिए। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं; वे सिर्फ देह को तृप्त कर रहे हैं और दूसरे लोगों को दिखाने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। धर्म के ये नियम और अनुष्ठान सभी मूल रूप से मानवीय हैं; वे परमेश्वर से नहीं आते हैं। परमेश्वर नियमों का पालन नहीं करता है, न ही वह किसी व्यवस्था के अधीन है। बल्कि, वह हर दिन नई चीज़ें करता है, व्यवहारिक काम पूरा करता है। थ्री-सेल्फ कलीसिया के लोग, हर दिन सुबह की प्रार्थना सभा में शामिल होने, शाम की प्रार्थना और भोजन से पहले आभार की प्रार्थना अर्पित करने, सभी चीज़ों में धन्यवाद देने जैसे अभ्यासों तक सीमित रहते हैं—वे इस तरह जितना भी कार्य करें और चाहे जितने लंबे समय तक ऐसा करें, उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं होगा। जब लोग नियमों के बीच रहते हैं और अपने हृदय अभ्यास के तरीकों में ही उलझाए रखते हैं, तो पवित्र आत्मा काम नहीं कर सकता, क्योंकि उनके हृदयों पर नियमों और मानवीय धारणाओं का कब्जा है। इस प्रकार, परमेश्वर हस्तक्षेप करने और उन पर काम करने में असमर्थ है, और वे केवल व्यवस्थाओं के नियंत्रण में जीते रह सकते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करने में सदा के लिए असमर्थ होते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन के विषय में
क्योंकि यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तो तुम्हें उसके वचन को खाना-पीना चाहिए, उसका अनुभव करना चाहिए और उसे जीना चाहिए। केवल यही परमेश्वर पर विश्वास करना है! यदि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, परंतु उसके किसी वचन पर अमल नहीं कर सकते या वास्तविकता उत्पन्न नहीं कर सकते तो यह नहीं माना जा सकता कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। ऐसा करना "भूख शांत करने के लिए रोटी की खोज" करने जैसा है। बिना किसी वास्तविकता के केवल छोटी-छोटी बातों की गवाही, अनुपयोगी और सतही मामलों पर बातें करना, परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं है, और तुमने बस परमेश्वर पर विश्वास करने के सही तरीके को नहीं समझा है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को क्यों अधिक से अधिक खाना-पीना चाहिए? यदि तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते नहीं और केवल स्वर्ग की ऊँचाई चढ़ना चाहते हो तो क्या यह विश्वास माना जाएगा? परमेश्वर में विश्वास रखने वाले का पहला कदम क्या होता है? परमेश्वर किस मार्ग से मनुष्य को पूर्ण बनाता है? क्या परमेश्वर के वचन को बिना खाए-पिए तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो? क्या परमेश्वर के वचन को बिना अपनी वास्तविकता बनाए, तुम परमेश्वर के राज्य के व्यक्ति माने जा सकते हो? परमेश्वर में विश्वास रखना वास्तव में क्या है? परमेश्वर में विश्वास रखने वालों का कम-से-कम बाहरी तौर पर आचरण अच्छा होना चाहिए; और सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर के वचन के अधीन रहना। किसी भी परिस्थिति में तुम उसके वचन से विमुख नहीं होगे। परमेश्वर को जानना और उसकी इच्छा को पूरा करना, सब उसके वचन के द्वारा हासिल किया जाता है। सभी देश, संप्रदाय, धर्म और प्रदेश भी भविष्य में वचन के द्वारा जीते जाएँगे। परमेश्वर सीधे बात करेगा, सभी लोग अपने हाथों में परमेश्वर का वचन थामकर रखेंगे; इसके द्वारा लोग पूर्ण बनाए जाएँगे। परमेश्वर का वचन सब तरफ फैलता जाएगा : इंसान परमेश्वर के वचन बोलेगा, परमेश्वर के वचन के अनुसार आचरण करेगा, और अपने हृदय में परमेश्वर का वचन रखेगा, भीतर और बाहर पूरी तरह परमेश्वर के वचन में डूबा रहेगा। इस प्रकार मानवजाति को पूर्ण बनाया जाएगा। परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने वाले और उसकी गवाही देने में सक्षम लोग वे हैं जिन्होंने परमेश्वर के वचन को वास्तविकता के रूप में अपनाया है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है
आज परमेश्वर में वास्तविक विश्वास क्या है? यह परमेश्वर के वचन को अपनी जीवन-वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना, और परमेश्वर का सच्चा प्यार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन से परमेश्वर को जानना है। स्पष्ट कहूँ तो : परमेश्वर में विश्वास इसलिए है, ताकि तुम परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सको, उससे प्रेम कर सको, और वह कर्तव्य निभा सको, जिसे परमेश्वर के एक प्राणी द्वारा निभाया जाना चाहिए। यही परमेश्वर पर विश्वास करने का लक्ष्य है। तुम्हें परमेश्वर की मनोहरता का और इस बात का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि परमेश्वर कितने आदर के योग्य है, कैसे अपने द्वारा सृजित प्राणियों में परमेश्वर उद्धार का कार्य करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है—ये परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास की एकदम अनिवार्य चीज़ें हैं। परमेश्वर पर विश्वास मुख्यतः देह-उन्मुख जीवन से परमेश्वर से प्रेम करने वाले जीवन में बदलना है; भ्रष्टता के भीतर जीने से परमेश्वर के वचनों के जीवन के भीतर जीना है; यह शैतान के अधिकार-क्षेत्र से बाहर आना और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में जीना है; यह देह की आज्ञाकारिता को नहीं, बल्कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता को प्राप्त करने में समर्थ होना है; यह परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण हृदय प्राप्त करने और तुम्हें पूर्ण बनाने देना है, और तुम्हें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से मुक्त करने देना है। परमेश्वर में विश्वास मुख्यतः इसलिए है, ताकि परमेश्वर का सामर्थ्य और महिमा तुममें प्रकट हो सके, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा पर चल सको, और परमेश्वर की योजना संपन्न कर सको, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे सको। परमेश्वर पर विश्वास संकेत और चमत्कार देखने की इच्छा के इर्द-गिर्द नहीं घूमना चाहिए, न ही यह तुम्हारी व्यक्तिगत देह के वास्ते होना चाहिए। यह परमेश्वर को जानने की कोशिश के लिए, और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, और पतरस के समान मृत्यु तक परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होने के लिए, होना चाहिए। यही परमेश्वर में विश्वास करने के मुख्य उद्देश्य हैं। व्यक्ति परमेश्वर के वचन को परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने के उद्देश्य से खाता और पीता है। परमेश्वर के वचन को खाना और पीना तुम्हें परमेश्वर का और अधिक ज्ञान देता है, जिसके बाद ही तुम उसका आज्ञा-पालन कर सकते हो। केवल परमेश्वर के ज्ञान के साथ ही तुम उससे प्रेम कर सकते हो, और यह वह लक्ष्य है, जिसे मनुष्य को परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में रखना चाहिए। यदि परमेश्वर पर अपने विश्वास में तुम सदैव संकेत और चमत्कार देखने का प्रयास कर रहे हो, तो परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का यह दृष्टिकोण गलत है। परमेश्वर पर विश्वास मुख्य रूप से परमेश्वर के वचन को जीवन-वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना है। परमेश्वर का उद्देश्य उसके मुख से निकले वचनों को अभ्यास में लाने और उन्हें अपने भीतर पूरा करने से हासिल किया जाता है। परमेश्वर पर विश्वास करने में मनुष्य को परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में समर्थ होने, और परमेश्वर के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता के लिए प्रयास करना चाहिए। यदि तुम बिना शिकायत किए परमेश्वर का आज्ञापालन कर सकते हो, परमेश्वर की इच्छाओं के प्रति विचारशील हो सकते हो, पतरस का आध्यात्मिक कद प्राप्त कर सकते हो, और परमेश्वर द्वारा कही गई पतरस की शैली ग्रहण कर सकते हो, तो यह तब होगा जब तुम परमेश्वर पर विश्वास में सफलता प्राप्त कर चुके होगे, और यह इस बात का द्योतक होगा कि तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिए गए हो।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के वचन के द्वारा सब-कुछ प्राप्त हो जाता है
तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन लोगों को कभी आसान प्रवेश नहीं दिया है जो अनुग्रह पाने के लिए मेरे साथ साँठ-गाँठ करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है! तुम्हें जीवन की खोज करनी ही चाहिए। आज, जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे उसी प्रकार के हैं जैसा पतरस था : ये वे लोग हैं जो स्वयं अपने स्वभाव में परिवर्तनों की तलाश करते हैं, और जो परमेश्वर के लिए गवाही देने, और परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं। केवल ऐसे लोगों को ही पूर्ण बनाया जाएगा। यदि तुम केवल पुरस्कारों की प्रत्याशा करते हो, और स्वयं अपने जीवन स्वभाव को बदलने की कोशिश नहीं करते, तो तुम्हारे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—यह अटल सत्य है!
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है