मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और वे व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों का सौदा तक कर देते हैं (भाग तीन)
II. मसीह-विरोधियों के हित
ख. उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा
पिछली बार हमने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों के मद नौ के बारे में संगति की थी। आओ, इन पर फिर से एक नजर डालें। हमने अपने गहन-विश्लेषण के लिए मसीह-विरोधियों के हितों को कितने उपखंडों में बाँटा था? (तीन उपखंडों में। पहला, मसीह-विरोधियों की अपनी सुरक्षा, दूसरा, उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा, और तीसरा, लाभ।) मसीह-विरोधियों से संबंधित हितों में ये तीन उपखंड शामिल हैं : उनकी अपनी सुरक्षा, रुतबा, और उनके व्यक्तिगत लाभ—क्या यह सही है? (बिल्कुल सही है।) पहले उपखंड, यानी उनकी अपनी सुरक्षा को समझना अपेक्षाकृत आसान है। यह उन खतरनाक परिवेशों से संबंधित है जिनका वे सामना करते हैं, और यह मसीह-विरोधियों के प्रत्यक्ष हितों यानी उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा से भी जुड़ा है। हमने मूलतः इस उपखंड पर अपनी संगति पूरी कर ली है। दूसरा उपखंड है, उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा। पिछली बार हमने इसकी कुछ अभिव्यक्तियों के बारे में संगति की थी, मगर काफी व्यापक संदर्भ में थी। मुझे याद है तुम सब लोगों को इस उपखंड के बारे में केवल अवधारणात्मक समझ और ज्ञान है। अगर मैं तुम्हें कुछ उदाहरण, और कोई विस्तृत, ठोस विश्लेषण न दूँ, तो शायद तुम लोगों के पास मसीह-विरोधियों के सार और अभिव्यक्तियों के इस पहलू की केवल धर्म-सैद्धांतिक और शाब्दिक समझ ही होगी, और शायद तुम इनमें से किसी भी वास्तविक ौर विशिष्ट खुलासों और अभिव्यक्तियों को पहचान ही न पाओ। जब इन विषयों पर संगति करने की बात आती है, तो तुम लोगों के परिप्रेक्ष्य से, यह जितना स्पष्ट हो उतना ही बेहतर होगा, है ना? (बिल्कुल।) तुम लोगों को बनी-बनाई चीजें सुनना पसंद है; तुम्हें चीजों का पता लगाना पसंद नहीं है। इन धर्मोपदेशों को सुनने के बाद, क्या तुम सब इन पर कुछ काम करते हो? अगर मैं बहुत ज्यादा विस्तार से संगति करूँ, तो क्या तुम सबको यह लगेगा कि मैं बहुत रूढ़िवादी और उबाऊ हो रहा हूँ? शायद तुम कहो, “तुम हमारी सहज बुद्धि को बहुत कम करके आँक रहे हैं; क्या सच में हमारी काबिलियत इतनी कम है? तुम्हारे लिए तो एक या दो उदाहरण देना ही काफी है। वैसे भी, जहाँ तक मसीह-विरोधियों के सार का गहन-विश्लेषण करने की बात है, हम पहले ही इस बारे में काफी संगति कर चुके हैं कि रुतबे और ताकत के प्रति उनके प्रेम के बारे में हमें क्या करना चाहिए। मसीह-विरोधियों के हितों के बारे में हमारी संगति भी इस विषय पर बात क्यों करती है? क्या यह जरूरत से ज्यादा दोहराना और बेवजह मामले को खींचना नहीं है? क्या इस पर संगति करना वाकई इतना जरूरी है?” दरअसल, कभी-कभी चीजों को थोड़ा दोहराना बुरा नहीं है। अगर हम सभी दृष्टिकोणों से संगति करेंगे तो तुम लोगों को मसीह-विरोधियों के सार के इस पहलू की बेहतर समझ होगी। इसके अलावा, सत्य पर संगति करते समय, तुम्हें चीजों को दोहराने से पीछे नहीं हटना चाहिए। ऐसे कुछ सत्य हैं जिन पर सालों से संगति की जा रही है मगर लोग उनमें प्रवेश नहीं कर पाए हैं। क्या हमेशा चीजों को दोहराने से पीछे हटना, और हमेशा नए तरीके और अभिव्यक्तियाँ खोजना सही है? (यह गलत है।) सत्य अपने आप में लोगों के जीवन से करीब से जुड़ा है। लोग अपने जीवन में जितनी भी विभिन्न चीजें और भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, उनकी अभिव्यक्तियाँ, और तमाम तरह की चीजों के प्रति उनके दृष्टिकोण और रवैये हर दिन बार-बार सामने आते हैं। सत्य पर संगति करके अलग-अलग दृष्टिकोणों से विभिन्न विषयों और सार का गहन-विश्लेषण करना लोगों के सत्य में प्रवेश करने के लिए बेहद फायदेमंद है। पिछली बार, हमने मसीह-विरोधियों के हितों के दूसरे उपखंड यानी उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में सामान्य तरीके से और मोटे तौर पर संगति की थी। आज मैं कुछ उदाहरण दूँगा ताकि हम विस्तार से इस पर संगति कर सकें। बेशक, अगर तुम लोगों ने मेरी संगति के आधार पर कोई नई समझ हासिल की है या कोई प्रकाशन या रोशनी प्राप्त की है, या अगर तुमने अपने जीवन या अनुभव में इससे जुड़े कुछ प्रासंगिक उदाहरण देखे हैं, तो तुम लोग भी संगति में भाग ले सकते हो। आगे, मसीह-विरोधियों के हितों के परिप्रेक्ष्य से, आओ, इसका विशिष्ट रूप से गहन-विश्लेषण करें कि जब मसीह-विरोधियों की अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की बात आती है तो वे क्या अभिव्यक्त करते हैं, वे कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, और वे किन तरीकों से ऐसे प्रकृति सार प्रकट करते हैं।
अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : “मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?” यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; वे अन्यथा इन समस्याओं पर विचार नहीं करेंगे। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी घने-पुराने जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचेंगे। भले ही मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं, तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में उनकी आस्था में सत्य का अनुसरण प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है; प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है, और प्रतिष्ठा और रुतबा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा, लाभ या रुतबा नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या सम्मान या उनका अनुसरण नहीं करता है, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, “क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?” वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में अंतिम निर्णय उनका ही हो, और उनके पास शोहरत, लाभ और रुतबा हो—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं। वे हमेशा ऐसी बातों के बारे में ही क्यों सोचते रहते हैं? परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, उपदेश सुनने के बाद, क्या वे वाकई यह सब नहीं समझते, क्या वे वाकई यह सब नहीं जान पाते? क्या परमेश्वर के वचन और सत्य वास्तव में उनकी धारणाएँ, विचार और मत बदलने में सक्षम नहीं हैं? मामला ऐसा बिल्कुल नहीं है। समस्या उनमें ही है, यह पूरी तरह से इसलिए है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, क्योंकि अपने दिल में वे सत्य से विमुख हो चुके हैं, और परिणामस्वरूप वे सत्य के प्रति बिल्कुल भी ग्रहणशील नहीं होते—जो उनके प्रकृति सार से निर्धारित होता है।
परमेश्वर के वचनों और सत्य को सुनने के बाद, मसीह-विरोधियों को अपने दिलों में एक दिशा मिलती प्रतीत होती है। मगर यह तथाकथित दिशा असल में है क्या? यह उन्हें एक तरह का साधन मिल जाना है—या कोई कह सकता है कि यह एक तरह का फायदेमंद हथियार है—जो उन्हें रुतबा पाने के लिए और अधिक आश्वस्त करता है। तो, वे इस मौके का इस्तेमाल ज्यादा सुनने, ज्यादा पढ़ने, ज्यादा सीखने, ज्यादा संगति करने, ज्यादा अभ्यास करने, और धीरे-धीरे उस मुकाम तक पहुँचने के लिए करते हैं जहाँ वे कई शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को बोलने में सक्षम हों, और कुछ तथाकथित धर्मोपदेशों का प्रचार कर सकें जो कि याद रखने लायक हों और जिससे लोग उनका सम्मान करें। एक बार जब वे इन धर्म-सिद्धांतों पर पकड़ बना लेते हैं जिन्हें लोग उनके शाब्दिक अर्थ में अच्छे मानते हैं, तो लगता है जैसे उन्होंने जीवनरेखा पर पकड़ बना ली है, और उन्हें एक दिशा और भोर की रोशनी मिल गई है। तो, मसीह-विरोधी अपने अभ्यास की खातिर या परमेश्वर के मार्ग पर चलने के लिए धर्मोपदेशों को नहीं सुनते और परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ते, और वे ये सब परमेश्वर के इरादों को समझने के लिए तो कतई नहीं करते। वे ये सब इसलिए करते हैं ताकि लोगों को जीत सकें और परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल करके, या इन सिद्धांतों का इस्तेमाल करके जिन्हें वे आध्यात्मिक मानते हैं, या उदात्त धर्मोपदेशों का प्रचार करके, वे ज्यादा लोगों को अपनी भक्ति कराने और अपना अनुसरण कराने के लिए बहका सकें। अमूर्त रूप से, परमेश्वर के वचन, सत्य, और परमेश्वर का मार्ग एक तरह का जरिया, एक तरह की सीढ़ी, और साधन बन जाते हैं जिसका इस्तेमाल ये लोग अन्य चीजों के अलावा रुतबा और प्रतिष्ठा पाने के लिए करते हैं। इसलिए, चाहे तुम किसी भी दृष्टिकोण से देखो, मसीह-विरोधियों के भीतर कोई भी सच्ची आस्था या वास्तविक समर्पण नहीं ढूँढ पाओगे। इसके उलट, भले ही वे धर्मोपदेशों को सुनने और परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के लिए कितनी भी मेहनत करें, और परमेश्वर के वचनों में उनका विश्वास चाहे कितना भी “पवित्र” क्यों न लगे, एक बात से इनकार नहीं जा सकता कि ये चीजें करने के बावजूद भी मसीह-विरोधियों का इरादा और उनकी योजना परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलना नहीं है, और अपने कर्तव्यों को अच्छे से निभाना तो बिल्कुल नहीं है; वे परमेश्वर के आदेश और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को अच्छे आचरण के साथ कर्तव्यनिष्ठा से स्वीकारते हुए सबसे छोटे विश्वासी या सृजित प्राणी नहीं बनना चाहते हैं। बल्कि, वे इन चीजों का इस्तेमाल सिर्फ अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों को हासिल करने, दूसरों के दिलों में जगह बनाने और परमेश्वर के सामने सकारात्मक मूल्यांकन पाने के लिए करना चाहते हैं—वे केवल यही चाहते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों का चाहे कैसे भी प्रचार करें, और वे जिन धर्मोपदेशों का प्रचार करते हैं वे चाहे कितने भी सही, उदात्त, आध्यात्मिक और लोगों की पसंद के अनुकूल क्यों न हों, उनके पास जरा भी अभ्यास और प्रवेश नहीं होगा। साथ ही, रुतबे और प्रतिष्ठा का उनका अनुसरण उन्हें ज्यादा से ज्यादा “फल” देगा। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ क्योंकि इस तरह के लोग चाहे जो भी करें, अपने कठिन प्रयास से चाहे जो भी हासिल कर पाएँ, वे जिस दिशा और लक्ष्य का अनुसरण करते हैं उन्हें, और कोई कार्य करते समय उनके दिलों की गहराइयों में बसी मंशा और उसके उद्गम स्रोत को, उस रुतबे और प्रतिष्ठा से अलग नहीं किया जा सकता जो उनके अपने हितों से इतने करीब से जुड़ा है।
कहावत है कि जैसा बोओगे वैसा पाओगे। मसीह-विरोधियों के पास चाहे कैसी भी अच्छी काबिलियत और खूबियाँ हों, या वे चाहे जो भी पवित्र और आध्यात्मिक अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हों, चूँकि वे ताकत हासिल करने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर काबू पाने की महत्वकांक्षा और इच्छा पालते हैं, और चूँकि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और केवल प्रतिष्ठा और रुतबे की खोज में रहते हैं, तो क्या वे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास कर सकेंगे? क्या वे उन मानकों पर खरे उतर सकते हैं जिनकी परमेश्वर उनके कार्यों में अपेक्षा करता है? (नहीं।) तो उनके क्रियाकलापों और व्यवहार के क्या परिणाम होंगे? (निश्चित रूप से वे अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करेंगे और खुद ही फैसले लेंगे।) यह सही है। मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी करें, अंतिम परिणाम यही रहेगा। तो, ऐसे परिणाम का कारण क्या है? इसका कारण मुख्य रूप से मसीह-विरोधियों द्वारा सत्य को स्वीकार न कर पाना है। चाहे उनकी काट-छाँट की जाए, उनका न्याय किया जाए या उन्हें ताड़ना दी जाए, मसीह-विरोधी लोग इसे अपने दिलों में स्वीकार नहीं करेंगे। मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी कर रहे हों, उनके हमेशा अपने लक्ष्य और इरादे होते हैं, वे अपनी योजना के अनुसार काम करते हैं। परमेश्वर के घर की व्यवस्था और कार्य के प्रति उनका दृष्टिकोण ऐसा होता है, “हो सकता है कि तुम्हारी हजार योजनाएं हों, लेकिन मेरा एक नियम है”; यह सब मसीह-विरोधियों की प्रकृति से निर्धारित होता है। क्या मसीह-विरोधी लोग अपनी मानसिकता बदलकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं? यह बिल्कुल असंभव होगा, जब तक कि ऊपरवाला सीधे तौर पर उन्हें ऐसा करने के लिए न कहे, उस स्थिति में वे जरूरत के मुताबिक अनिच्छा से थोड़ा-बहुत कर पाएँगें। अगर उन्होंने बिल्कुल भी कुछ नहीं किया, तो उन्हें उजागर करके बरखास्त कर दिया जाएगा। केवल इन परिस्थितियों में ही वे थोड़ा-बहुत वास्तविक कार्य कर पाते हैं। कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है; सत्य का अभ्यास करने के प्रति भी उनका रवैया यही होता है : जब सत्य का अभ्यास करना उनके लिए फायदेमंद होता है, जब हर कोई उन्हें स्वीकृति देता है और इसके लिए उनकी प्रशंसा करता है, तो वे अवश्य कृतज्ञ होते हैं, और दिखावे के लिए कुछ प्रयास करते हैं जो दूसरों के लिए स्वीकार्य प्रतीत होते हैं। यदि सत्य का अभ्यास करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता, यदि इस पर कोई ध्यान नहीं देता और वरिष्ठ अगुआ इसे नहीं देखते, तो ऐसे समय में उनके सत्य का अभ्यास करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। सत्य का उनका अभ्यास संदर्भ और परिस्थिति पर निर्भर करता है, और वे विचार करते हैं कि वे इस काम को इस तरीके से कैसे कर सकते हैं जिससे यह दूसरों को दिखे, और इसके फायदे कितने बड़े होंगे; उन्हें इन चीजों की अच्छी समझ होती है, और वे विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार ढल सकते हैं। वे हर वक्त अपनी निजी शोहरत, लाभ, और रुतबे पर ध्यान देते हैं, और परमेश्वर के इरादों के प्रति बिल्कुल भी विचारशीलता नहीं दिखाते, और इस तरह वे सत्य का अभ्यास करने और सिद्धांतों को कायम रखने में पीछे रह जाते हैं। मसीह-विरोधी केवल अपनी निजी शोहरत, लाभ, रुतबे, और व्यक्तिगत हितों पर ध्यान देते हैं; कोई लाभ न मिलना या खुद की नुमाइश न करना उन्हें स्वीकार्य नहीं होता, और सत्य का अभ्यास करना उनके लिए बड़ा मुश्किल काम होता है। यदि उनके प्रयासों को मान्यता न मिले, और दूसरों के सामने काम करने पर भी उन्हें कोई न देखे, तो वे किसी भी सत्य का अभ्यास नहीं करेंगे। यदि सीधे परमेश्वर के घर ने उनके लिए किसी कार्य की व्यवस्था की है और उनके पास उसे करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, तो भी वे इस बात पर विचार करते हैं कि इससे उनके रुतबे और प्रतिष्ठा को लाभ होगा या नहीं। यदि यह उनके रुतबे के लिए अच्छा है और उनकी प्रतिष्ठा बढ़ सकती है, तो वे उस काम में अपना सब कुछ लगा देते हैं और अच्छा काम करते हैं; उन्हें लगता है कि वे एक तीर से दो निशाने लगा रहे हैं। यदि इससे उनकी शोहरत, लाभ और रुतबे को कोई लाभ नहीं होता है, और उसे खराब ढंग से करने पर उनकी साख को बट्टा लग सकता है, तो वे उससे छुटकारा पाने का कोई तरीका या बहाना सोच लेते हैं। मसीह-विरोधी चाहे कोई भी काम कर रहे हों, हमेशा एक ही सिद्धांत पर टिके रहते हैं : उन्हें प्रतिष्ठा, रुतबा या उनके हितों के संदर्भ में कुछ लाभ प्राप्त होना चाहिए, और उन्हें कोई नुकसान भी नहीं होना चाहिए। मसीह-विरोधी ऐसा काम सबसे ज्यादा पसंद करते हैं जिसमें उन्हें कोई कष्ट न उठाना पड़े या कोई कीमत न चुकानी पड़े और उससे उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को लाभ होता हो। संक्षेप में, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, वे पहले अपना हित देखते हैं, वे तभी कार्य करते हैं जब वे हर चीज पर अच्छी तरह सोच-विचार कर लेते हैं; वे बिना समझौते के, सच्चाई से, ईमानदारी से और पूरी तरह से सत्य के प्रति समर्पित नहीं होते, बल्कि वे चुन-चुन कर अपनी शर्तों पर ऐसा करते हैं। यह कौन-सी शर्त होती है? शर्त है कि उनका रुतबा और प्रतिष्ठा सुरक्षित रहे, उन्हें कोई नुकसान न हो। यह शर्त पूरी होने के बाद ही वे तय करते हैं कि क्या करना है। यानी मसीह-विरोधी इस बात पर गंभीरता से विचार करते हैं कि सत्य सिद्धांतों, परमेश्वर के आदेशों और परमेश्वर के घर के कार्य से किस ढंग से पेश आया जाए या उनके सामने जो चीजें आती हैं, उनसे कैसे निपटा जाए। वे इन बातों पर विचार नहीं करते कि परमेश्वर के इरादों को कैसे संतुष्ट किया जाए, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने से कैसे बचा जाए, परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए या भाई-बहनों को कैसे लाभ पहुँचाया जाए; वे लोग इन बातों पर विचार नहीं करते। मसीह-विरोधी किस बात पर विचार करते हैं? वे सोचते हैं कि कहीं उनके अपने रुतबे और प्रतिष्ठा पर तो आँच नहीं आएगी, कहीं उनकी प्रतिष्ठा तो कम नहीं हो जाएगी। अगर सत्य सिद्धांतों के अनुसार कुछ करने से कलीसिया के काम और भाई-बहनों को लाभ पहुँचता है, लेकिन इससे उनकी अपनी प्रतिष्ठा को नुकसान होता है और लोगों को उनके वास्तविक कद का एहसास हो जाता है और पता चल जाता है कि उनका प्रकृति सार कैसा है, तो वे निश्चित रूप से सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। यदि कुछ वास्तविक काम करने से और ज्यादा लोग उनके बारे में अच्छी राय बना लेते हैं, उनका सम्मान और प्रशंसा करते हैं, उन्हें और ज्यादा प्रतिष्ठा प्राप्त करने देते हैं, या उनकी बातों में अधिकार आ जाता है जिससे और अधिक लोग उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं, तो फिर वे काम को उस प्रकार करना चाहेंगे; अन्यथा, वे परमेश्वर के घर या भाई-बहनों के हितों पर ध्यान देने के लिए अपने हितों की अवहेलना करने का चुनाव कभी नहीं करेंगे। यह मसीह-विरोधी का प्रकृति सार है। क्या यह स्वार्थ और घिनौना नहीं है? किसी भी स्थिति में मसीह-विरोधी अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को सर्वोच्च महत्व देते हैं। उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। चाहे जो भी तरीका जरूरी हो, अगर यह काम लोगों को जीतता है और दूसरों से उनकी पूजा करवाता है, तो मसीह-विरोधी इसे करेंगे। अगर किसी और व्यक्ति को परमेश्वर की गवाही देने के कारण परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा सम्मानित और स्वीकृत किया जाता है, तो मसीह-विरोधी भी लोगों को जीतने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल करेंगे। मगर मसीह-विरोधियों के पास सत्य या व्यावहारिक अनुभव नहीं होता, इसलिए वे मानवीय कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर की गवाही देने वाले सिद्धांतों का एक सेट बनाने में अपना दिमाग खपाते हैं, इस बारे में बात करते हैं कि परमेश्वर कितना महान है, परमेश्वर मनुष्य से कितना प्रेम करता है, कैसे परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए कीमत चुकाता है, और परमेश्वर खुद को कितना विनम्र बनाकर और कितना छिपाकर रखता है। इस तरह से परमेश्वर की गवाही देने के बाद, परिणाम यह निकलता है कि लोग उनका और भी ज्यादा सम्मान करते हैं, और उनके दिलों में इन मसीह-विरोधियों के लिए और अधिक स्थान होता है, और परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होता। अगर उन्हें लगता है कि आत्म-ज्ञान के बारे में बात करने से ज्यादा लोग उन पर भरोसा कर सकते हैं, ज्यादा लोग उनका आदर और सम्मान कर सकते हैं, तो वे अक्सर खुद को जानने के बारे में बात करेंगे, और अक्सर खुद का गहन-विश्लेषण करेंगे। वे इस तथ्य का गहन-विश्लेषण करेंगे कि वे राक्षस हैं, वे मनुष्य नहीं हैं, उनके पास कोई सूझ-बूझ नहीं है, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, और यह भी कि उनके पास सत्य नहीं है। वे दूसरों को गुमराह करने, उनका भरोसा जीतने और ज्यादा से ज्यादा लोगों से उनकी प्रशंसा करवाने और उनके बारे में ऊँचा सोचने के लिए कुछ दिखावटी, महत्वहीन विषयों पर संगति करेंगे। मसीह-विरोधी इसी तरह काम करते हैं। अगर अनुभवजन्य गवाही साझा करने का कोई तरीका उन्हें दूसरे लोगों की स्वीकृति और प्रशंसा पाने में सक्षम बनाता है, तो वे इसका इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेंगे। वे इस तरीके पर वास्तव में ध्यान देंगे, कोशिश करेंगे और अपना दिमाग खपाएंगे। संक्षेप में कहूँ तो मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसके पीछे उनका लक्ष्य और उद्देश्य सिर्फ रुतबे और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द ही घूमता है। यह चाहे उनके बात करने, काम करने, व्यवहार करने का बाहरी तरीका हो या फिर उनकी सोच, दृष्टिकोण या अनुसरण का तरीका हो, ये सभी चीजें उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे के इर्द-गिर्द घूमती हैं। मसीह-विरोधी इसी तरह से काम करते हैं।
मसीह-विरोधियों के लिए, अगर उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे पर हमला किया जाता है और उन्हें छीन लिया जाता है, तो यह उनकी जान लेने की कोशिश करने से भी अधिक गंभीर मामला होता है। मसीह-विरोधी चाहे कितने भी उपदेश सुन ले या परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़ ले, उसे इस बात का दुख या पछतावा नहीं होगा कि उसने कभी सत्य का अभ्यास नहीं किया है, और वह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रहा है, न ही इस बात पर कि उसका प्रकृति सार मसीह-विरोधियों का है। बल्कि उसकी बुद्धि हमेशा इसी काम में लगी रहती है कि कैसे अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को बढ़ाया जाए। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं, दूसरों के सामने दिखावा करने के लिए करते हैं, परमेश्वर के सामने नहीं। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसे लोग रुतबे से इतना प्यार करते हैं कि वे इसे अपना जीवन समझते हैं, अपने जीवनभर का लक्ष्य समझते हैं। इसके अलावा, चूँकि वे अपने रुतबे से बहुत प्यार करते हैं, वे सत्य के अस्तित्व में विश्वास ही नहीं करते, और यह तक कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते। इस प्रकार, प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करने के लिए वे चाहे जैसे भी गणना करें, लोगों और परमेश्वर को धोखा देने के लिए चाहे जैसा बनावटी वेश बनाएँ, उनके दिलों की गहराइयों में कोई जागरूकता या धिक्कार नहीं होता, चिंतित होने की तो बात ही दूर है। प्रतिष्ठा और रुतबे की अपनी निरंतर खोज में वे, परमेश्वर ने जो किया है उसका भी मनमाने ढंग से खंडन करते हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? अपने दिलों की गहराइयों में मसीह-विरोधी मानते हैं, “समस्त प्रतिष्ठा और रुतबा व्यक्ति के अपने प्रयासों से अर्जित किया जाता है। केवल लोगों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करके और प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करके ही वे परमेश्वर के आशीषों का आनंद ले सकते हैं। जीवन का मूल्य तभी होता है, जब लोग पूर्ण सत्ता और रुतबा हासिल कर लेते हैं। बस यही मनुष्य की तरह जीना है। इसके विपरीत, परमेश्वर के वचन में जिस तरह से जीने के लिए कहा गया है उस तरह जीना बेकार होगा—यानी हर चीज में परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना, स्वेच्छा से सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होना और एक सामान्य व्यक्ति की तरह जीना—इस तरह के व्यक्ति का कोई आदर नहीं करेगा। इंसान को अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और खुशी खुद संघर्ष करके अर्जित करनी चाहिए; ये चीजें सकारात्मक और सक्रिय रवैये के साथ लड़कर जीती और हासिल की जानी चाहिए। कोई तुम्हें ये चीजें थाली में परोसकर नहीं देगा—निष्क्रिय होकर प्रतीक्षा करने से केवल विफलता मिलेगी।” मसीह-विरोधी इसी प्रकार हिसाब लगाते रहते हैं। मसीह-विरोधियों का यही स्वभाव है। अगर तुम मसीह-विरोधियों से आशा करते हो कि वे सत्य को स्वीकार लेंगे, अपनी गलतियाँ मान लेंगे, और असल में पछतावा करेंगे, तो यह असंभव है—वे ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकते। मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार शैतान जैसा है, और वे सत्य से नफरत करते हैं, वे चाहे कहीं भी जाएँ, यहाँ तक कि धरती के अंतिम छोर तक चले जाएँ, तो भी प्रतिष्ठा और रुतबा पाने की उनकी महत्वकांक्षा कभी नहीं बदलेगी, और न ही चीजों पर उनके विचार या जिस मार्ग पर वे चलते हैं वह कभी बदलेगा। कुछ लोग कहेंगे : “कुछ मसीह-विरोधी ऐसे होते हैं जो इस पर अपने विचारों को बदल सकते हैं।” क्या यह बात सही है? अगर वे सच में बदल सकते हैं, तो क्या वे अभी भी मसीह-विरोधी हैं? जिन लोगों की प्रकृति मसीह-विरोधी जैसी है, वे कभी नहीं बदलेंगे। जिनका स्वभाव मसीह-विरोधी का है, वे तभी बदलेंगे जब वे सत्य का अनुसरण करेंगे। कुछ लोग जो मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलते हैं, कुछ बुरे काम करते हैं जिससे कलीसिया के काम में गड़बड़ होती है, और भले ही उन्हें मसीह-विरोधी घोषित किया जाता है, बर्खास्त किए जाने के बाद, उन्हें सच में पछतावा होता है, और वे नए सिरे से आचरण करने का संकल्प लेते हैं, और कुछ समय के चिंतन, आत्म-ज्ञान और पश्चात्ताप के बाद, उनमें कुछ वास्तविक बदलाव आता है। ऐसे मामले में, उन्हें मसीह-विरोधी नहीं कहा जा सकता; उनके पास मसीह-विरोधी का केवल स्वभाव है। अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं, तो वे बदल सकेंगे। हालाँकि, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कलीसिया जिन लोगों को मसीह-विरोधी करार देकर निकाल देती है या निष्काषित कर देती है, उनमें से ज्यादातर लोग वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करते या नहीं बदलते। यदि उनमें से कोई ऐसा करता है, तो वे गिने-चुने मामले हैं। कुछ लोग पूछेंगे : “तो क्या उन गिने-चुने मामलों को गलत श्रेणी में डाल दिया गया?” यह नामुमकिन है। आखिर उन्होंने कुछ बुरे काम तो किए ही थे, और इसे खारिज नहीं किया जा सकता। हालाँकि, अगर वे वास्तव में पश्चात्ताप करने में सक्षम हैं, अगर वे कोई कर्तव्य करने के लिए तैयार हैं, और अगर उनके पास अपने पश्चात्ताप की सच्ची गवाही है, तो कलीसिया उन्हें अभी भी स्वीकार सकती है। अगर ये लोग मसीह-विरोधी करार दिए जाने के बाद भी गलती मानने या पश्चात्ताप करने से पूरी तरह इनकार करते हैं, और वे खुद को सही ठहराने के लिए हर मुमकिन प्रयास करते हैं, तो उन्हें मसीह-विरोधियों की श्रेणी में रखना बिल्कुल सटीक और सही है। अगर उन्होंने अपनी गलतियों को स्वीकार लिया होता और सच्चा पछतावा महसूस किया होता, तो कलीसिया उन्हें मसीह-विरोधियों की श्रेणी में कैसे रख सकती थी? यह नामुमकिन होता। चाहे वे कोई भी हों, चाहे उन्होंने कितनी भी बुराई की हो या उनकी गलतियाँ कितनी भी गंभीर हों, कोई व्यक्ति मसीह-विरोधी है या वह मसीह-विरोधी का स्वभाव रखता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वह सत्य को और काटे-छाँटे जाने को स्वीकारने में सक्षम है, और क्या उसमें सच्चा पछतावा है। अगर वह सत्य को और काटे-छाँटे जाने को स्वीकार सकता है, अगर उसमें सच्चा पछतावा है, और अगर वह अपना पूरा जीवन परमेश्वर के लिए मेहनत करने में बिताने के लिए तैयार है, तो यह वास्तव में थोड़ा पश्चात्ताप दर्शाता है। ऐसे व्यक्ति को मसीह-विरोधी नहीं कहा जा सकता। क्या वे पक्के मसीह-विरोधी लोग सच में सत्य को स्वीकार सकते हैं? बिल्कुल नहीं। क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, और वे सत्य से विमुख हैं, इसलिए वे कभी भी प्रतिष्ठा और रुतबे को नहीं त्याग पाएँगे जो उनके पूरे जीवन से इतनी घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं। मसीह-विरोधी अपने दिलों में दृढ़ता से विश्वास करते हैं कि सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबा होने से ही उन्हें गरिमा मिलती है और वे सच्चे सृजित प्राणी होते हैं, और सिर्फ रुतबा होने पर ही उन्हें पुरस्कृत किया और ताज पहनाया जाएगा, वे परमेश्वर के अनुमोदन के काबिल होंगे, सब-कुछ हासिल करेंगे, और एक वास्तविक व्यक्ति बनेंगे। मसीह-विरोधी रुतबे को क्या समझते हैं? वे उसे सत्य समझते हैं; वे उसे लोगों द्वारा प्राप्य सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं। क्या यह एक समस्या नहीं है? जो लोग रुतबे के प्रति इस तरह आसक्त हो सकते हैं, वे असली मसीह-विरोधी होते हैं। वे पौलुस जैसे लोग ही होते हैं। वे मानते हैं कि सत्य का अनुसरण करना, परमेश्वर के प्रति समर्पण खोजना, और ईमानदारी तलाशना सब वे प्रक्रियाएँ हैं जो व्यक्ति को उच्चतम संभव रुतबे तक ले जाती हैं; वे सिर्फ प्रक्रियाएँ हैं, मानव होने का लक्ष्य और मानक नहीं, और वे पूरी तरह से परमेश्वर को दिखाने के लिए की जाती हैं। यह समझ बेतुकी और हास्यास्पद है! सिर्फ सत्य से नफरत करने वाले बेतुके लोग ही ऐसा हास्यास्पद विचार प्रस्तुत कर सकते हैं।
जब मसीह विरोधियों की बात आती है, तो चाहे तुम सत्य के किसी भी पहलू पर संगति करो, चीजों को समझने-बूझने का उनका तरीका सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों से अलग होगा। सत्य को सुनने के बाद, इसका अनुसरण करने वाले लोग सोचते हैं, “मेरे पास सत्य का यह पहलू नहीं है, और मैं परमेश्वर द्वारा प्रकट की गई इस स्थिति को अपने आप से जोड़कर देख सकता हूँ। इसे सुनने के बाद, मैं इतना पछतावा क्यों हो रहा है और मैं परमेश्वर के प्रति इतना ऋणी क्यों महसूस करता हूँ? मैं अभी भी सत्य का अनुसरण करने में बहुत पीछे हूँ, और वास्तव में समर्पित होने के बिल्कुल भी करीब नहीं हूँ। मैं बहुत डरा हुआ हूँ; यह मेरे लिए एक चेतावनी जैसा है। मुझे लगा कि मैं इन दिनों बहुत अच्छा कर रहा हूँ, और मुझे इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि मैं वास्तव में सत्य का अभ्यास करने या परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला व्यक्ति नहीं हूँ। अब से, मुझे सतर्क और विवेकशील होना चाहिए, और परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने और उससे मार्गदर्शन और रोशनी पाने के लिए विनती करने पर ध्यान देना चाहिए। मुझे अपनी मनमर्जी नहीं करनी चाहिए। मैं सत्य के इस पहलू में गहराई से प्रवेश करूँगा, और मेरे पास अभी भी प्रगति करने की गुंजाइश है। मुझे उम्मीद है कि परमेश्वर ऐसा परिवेश बनाएगा जिससे मैं बेहतर प्रदर्शन कर सकूँ, और अपनी ईमानदारी और निष्ठा दिखा सकूँ।” सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ऐसा ही सोचते हैं। तो, मसीह-विरोधी लोग विभिन्न प्रकार के सत्यों को कैसे समझते हैं? मनुष्य को धिक्कारने वाले परमेश्वर के वचन सुनने के बाद, वे क्या सोचते हैं? “मैंने वह काम बहुत अच्छे से नहीं किया, मैंने अपने कार्यों में कुछ चूक की और उनमें गलतियाँ हुईं। कितने लोग इस बारे में जानते हैं? परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट रूप से बोले गए हैं; क्या इसका मतलब है कि उसने मेरी असलियत पहचान ली है? खैर, यह कोई बढ़िया परिणाम नहीं है; मैं यह नहीं चाहता। अगर परमेश्वर ने मेरी असलियत देख ली है तो क्या किसी और को इसके बारे में पता है? अगर किसी को पता चल गया तो यह और भी बुरा होगा। अगर केवल परमेश्वर को पता है, किसी और को नहीं, तो यह ठीक है। अगर कुछ लोग परमेश्वर के मनुष्य को उजागर करने वाले इन वचनों को सुनते हैं और वे उन्हें मुझसे जोड़ते हैं और मुझ पर लागू करते हैं, तो यह मेरी प्रतिष्ठा के लिए बुरा होगा। मुझे इसका समाधान करने का कोई तरीका सोचना होगा। मैं इसका समाधान कैसे कर सकता हूँ?” मसीह-विरोधी लोग इस तरह से विचार करते हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर को इस बारे में संगति करते हुए सुनने के बाद कि लोगों को कैसे ईमानदार बनना चाहिए, मसीह-विरोधी तुरंत यह सोचेगा, “केवल बेवकूफ लोग ईमानदार बनने की कोशिश करते हैं। मेरे जैसा चालाक व्यक्ति ईमानदार कैसे हो सकता है? ईमानदार लोग दिमाग से पैदल और बेवकूफ होते हैं; उनके मन में जो आता हैं वो बोल देते हैं, वे दूसरों को सब कुछ बता देते हैं और उन्हें सब कुछ समझने देते हैं। मैं तो ऐसा कभी न करूँ। परमेश्वर का यह कहना कि हमें ईमानदार होना चाहिए, सापेक्ष कथन है, इसलिए मैं तो बस बुद्धिमान व्यक्ति बनूँगा, और कुछ नहीं। जहाँ तक ईमानदार व्यक्ति होने की बात है, मैं खुद निश्चय करूँगा कि मुझे कब ईमानदार होना है। मैं कुछ चीजों के बारे में खुलकर बात करूँगा, मगर उन सभी रहस्यों और छिपी हुई चीजों के बारे में बात नहीं करूँगा जो मैं अपने दिल की गहराई में रखता हूँ, ऐसी चीजें जिनके बारे में बोलने पर लोग मुझे नीची नजरों से देख सकते हैं। ईमानदार व्यक्ति होने का क्या फायदा? मुझे नहीं लगता कि इसका कोई फायदा है। कुछ लोग हमेशा खुद का गहन विश्लेषण करते रहते हैं, ईमानदार बनने और ईमानदारी से बोलने की कोशिश करते हैं, और अपने भ्रष्ट स्वभाव को सामने लाते हैं, मगर उन्हें परमेश्वर का अनुग्रह नहीं मिला है, और जब उन्हें काटने-छाँटने की बारी आती है, तो उन्हें काट-छाँट दिया जाता है; परमेश्वर उनका कुछ अतिरिक्त उन्नयन नहीं करता।” वे लगातार सोचते रहते हैं, “मुझे दूसरा मार्ग चुनना होगा। मुझे इस मार्ग पर नहीं चलना चाहिए; मैं इसे दूसरों पर छोड़ देता हूँ। मेरे जैसा चालाक व्यक्ति इस तरह कैसे जी सकता है?” एक मसीह-विरोधी चाहे सत्य के किसी भी पहलू को सुने, वह अपने दिल में क्या हिसाब लगाता है? क्या वह उस सत्य को शुद्ध रूप से समझ सकता है? क्या वह इसे अपने दिल की गहराई में सत्य मानकर स्वीकार सकता है? बिल्कुल नहीं। मसीह-विरोधी लगातार हिसाब लगाते रहते हैं और साजिश करते रहते हैं, और लगातार नजर रखते हैं। वे आखिरकार कैसी प्रतिक्रिया देते हैं? वे परिस्थिति के अनुसार बदलते हैं, वे परिस्थितियों के अनुकूल हो जाते हैं, वे अन्य लोगों के साथ अपने व्यवहार में सहज और चालाक होते हैं, और वे पूरी गोपनीयता से कार्य करते हैं। चाहे वे कुछ भी करें, चाहे वे अपने अंदर कुछ भी सोच रहे हों या हिसाब कर रहे हों, वे दूसरों को नहीं जानने दे सकते, न ही वे परमेश्वर को बता सकते हैं; वे इन बातों को परमेश्वर के सामने खोल नहीं सकते, फिर लोगों से इनके बारे में स्पष्टता से बात करना तो दूर की बात है—वे मानते हैं कि ये बातें उनका निजी मामला है। इस प्रकार, मसीह-विरोधी ऐसे लोग हैं जो सत्य का अभ्यास करने में बिल्कुल भी सक्षम नहीं हैं। खुद सत्य का अभ्यास नहीं करने के अलावा, वे सत्य का अभ्यास करने वालों का तिरस्कार भी करते हैं, और इससे भी बढ़कर, वे उन लोगों का मजाक उड़ाते हैं जिन्हें इसलिए काट-छाँट दिया जाता है क्योंकि सत्य का अभ्यास करने में उनसे कोई चूक हो गई या उन्होंने कुछ गलत कदम उठाए या कुछ गलतियाँ कीं, और वे एक कोने में खड़े होकर उन पर हँसते हैं। वे परमेश्वर की धार्मिकता पर विश्वास नहीं करते, इस बात पर तो बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते कि लोगों के साथ उसके व्यवहार के तमाम तरीकों में सत्य और उसका प्रेम है; मसीह-विरोधी इन बातों पर विश्वास नहीं करते। उनके दृष्टिकोण से, उन्हें लगता है कि ये सभी बातें झूठ हैं जो लोगों को धोखा देने के लिए हैं; उन्हें लगता है कि ये सब सिर्फ बहाने हैं, कुछ अच्छी लगने वाली बातें हैं। और वे अक्सर गुप्त रूप से किस बात से खुश होते हैं? “सौभाग्य से, मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ कि सब कुछ अर्पित कर दूँ; सौभाग्य से, मैंने उन गंदी, बदसूरत चीजों के बारे में बात नहीं की है जो मेरे अंदर बसी हैं; सौभाग्य से, मैं अभी भी अपना रुतबा और प्रतिष्ठा बनाए हुए हूँ और उन्हें पाने के लिए अपनी पूरी कोशिश कर रहा हूँ, और उनकी खातिर इधर-उधर भाग रहा हूँ। अगर मैं अपनी खातिर इधर-उधर नहीं भागता, तो फिर कौन मेरे बारे में कुछ भी सोचता?” मसीह-विरोधी न केवल कपटी होते हैं, बल्कि वे दुष्ट भी होते हैं, वे सत्य से विमुख होते हैं, और स्वभाव से क्रूर होते हैं; यानी, भ्रष्ट मनुष्यों में अभिव्यक्त होने वाले भ्रष्ट स्वभाव के सभी पहलुओं की मसीह-विरोधियों में पाए जाने की की पुष्टि हो चुकी है और ये सभी पहलू मसीह-विरोधियों में एक कदम “बढ़कर” पाए जाते हैं। अगर तुम मानवजाति के भ्रष्ट स्वभावों को देखना चाहते हो, तो गहन विश्लेषण और बातचीत करने के लिए किसी मसीह-विरोधी को ढूँढो; यह इस मुद्दे को स्पष्ट करने और भ्रष्ट मानवता के भ्रष्ट सार और शैतान के चेहरे की असलियत देखने का सबसे अच्छा तरीका है। अगर तुम किसी मसीह-विरोधी को एक प्रमुख उदाहरण मानकर उसका गहन विश्लेषण करो और उसे जानने की कोशिश करो, तो इन बातों को और भी ज्यादा स्पष्टता से समझ सकोगे।
मसीह-विरोधी साधारण लोगों की तुलना में रुतबे और प्रतिष्ठा का अनुसरण कहीं ज्यादा बढ़कर करते हैं, और साथ ही रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए उनकी महत्वकांक्षा भी कहीं ज्यादा होती है। साधारण लोगों में रुतबा और प्रतिष्ठा पाने के लिए इतनी अधिक महत्वकांक्षा नहीं होती, जबकि मसीह-विरोधियों में यह महत्वकांक्षा बहुत तीव्र और स्पष्ट होती है। जब तुम किसी मसीह-विरोधी से मिलकर बातचीत करोगे और उसके साथ कुछ समय बिताओगे, तो उसका प्रकृति सार तुम्हारी नजरों के सामने उजागर हो जाएगा, और तुम तुरंत उसकी असलियत देख लोगे। मसीह-विरोधियों की इच्छा इतनी बड़ी होती है। जब उनके साथ तुम्हारा मेलजोल बढ़ेगा, तो तुम्हें उनसे घिन आएगी और तुम उन्हें नकार दोगे। आखिर में, न केवल तुम उन्हें नकार दोगे, बल्कि उनकी निंदा भी करोगे और कोसोगे भी। मसीह-विरोधी अच्छे लोग नहीं हैं; वे परमेश्वर के दुश्मन हैं, और साथ ही हर उस व्यक्ति के दुश्मन हैं जो सत्य का अनुसरण करता है। मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, वे रुतबे और प्रतिष्ठा की खातिर कोई भी बुरा काम कर सकते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें खुद को छिपाते हैं, नकल करते हैं, और परिस्थिति के अनुसार खेलते हैं, रुतबे और प्रतिष्ठा की खातिर समझौते करते हैं। ऐसे लोगों की आत्मा और सार गंदे होते हैं; वे घृणित होते हैं। उनमें सत्य या सकारात्मक चीजों के लिए रत्ती भर भी प्रेम नहीं होता। साथ ही, वे लोगों को गुमराह करने के लिए सकारात्मक चीजों और सही शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, ताकि वे प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करके अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकें। यही मसीह विरोधियों का व्यवहार और सार है। तुम नहीं देख सकते कि शैतान कैसा दिखता है, शैतान संसार में कैसे आचरण करता है और लोगों के साथ कैसे पेश आता है, और शैतान का प्रकृति सार किस प्रकार का है; तुम नहीं जानते कि परमेश्वर की नजरों में शैतान वास्तव में किस प्रकार का है। इसमें कोई समस्या नहीं है; तुम्हें बस एक मसीह विरोधी का अवलोकन और गहन विश्लेषण करना है, और तुम इन सभी चीजों को देख लोगे—शैतान का प्रकृति सार, शैतान का बदसूरत चेहरा, और शैतान की दुष्टता और क्रूरता—ये सब तुम्हें स्पष्ट दिखाई देंगे। मसीह-विरोधी जीते-जागते शैतान हैं; वे जीते-जागते दानव हैं।
1. मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने के प्रति कैसा व्यवहार करते हैं
जब रुतबे और प्रतिष्ठा की बात आती है, मसीह-विरोधी मन में बहुत-सी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पालते हैं, और दूसरे लोगों को यह बेहद अरुचिकर और घिनौना लगता है। इतना सब यह दिखाने के लिए काफी है कि मसीह-विरोधी का प्रकृति सार बहुत ही भद्दा और दुष्ट होता है। तो, कौन-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ एक मसीह-विरोधी के प्रकृति सार को दर्शाती हैं? सबसे पहले, आओ इस बारे में सोचें कि मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने के प्रति कैसा व्यवहार करते हैं। (वे इससे नफरत करते हैं और इसे स्वीकार नहीं करते।) वे इससे किस तरह से नफरत करते हैं? जरा विस्तार से बताओ। (एक मसीह-विरोधी था जिसने बहुत सारे बुरे काम किए थे, और जब भाई-बहनों ने उसकी कुछ अभिव्यक्तियों को उजागर किया, तो उसने बिल्कुल भी पश्चात्ताप नहीं किया, वह बहुत ही अड़ियल था, और उसे जरा भी पछतावा नहीं हुआ। यहाँ तक कि उसे यह भी लगा कि उसके साथ गलत हुआ है। मैंने इस तरह की अभिव्यक्ति देखी है।) यह मसीह-विरोधी की एक विशेष अभिव्यक्ति है। काट-छाँट के प्रति मसीह-विरोधियों का ठेठ रवैया उन्हें स्वीकार करने या मानने से सख्ती से इनकार करने का होता है। चाहे वे कितनी भी बुराई करें, परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान पहुँचाएँ, उन्हें इसका जरा भी पछतावा नहीं होता और न ही वे कोई एहसान मानते हैं। इस दृष्टिकोण से, क्या मसीह-विरोधियों में मानवता होती है? बिल्कुल नहीं। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हर तरह की क्षति पहुँचाते हैं, कलीसिया के कार्य को क्षति पहुँचाते हैं—परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे एकदम स्पष्ट देख सकते हैं, और मसीह-विरोधियों के कुकर्मों का अनुक्रम देख सकते हैं। और फिर भी मसीह-विरोधी इस तथ्य को मानते या स्वीकार नहीं करते; वे हठपूर्वक यह स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं कि वे गलती पर हैं, या कि वे जिम्मेदार हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि वे सत्य से विमुख हैं? मसीह-विरोधी सत्य से इस हद तक विमुख रहते हैं। चाहे वे कितनी भी दुष्टता कर लें, तो भी अड़ियल बनकर उसे मानने से इनकार कर देते हैं और अंत तक अड़े रहते हैं। यह पर्याप्त रूप से साबित करता है कि मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते या सत्य स्वीकार नहीं करते। वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते हैं; वे शैतान के अनुचर हैं, जो परमेश्वर के घर के कार्य को अस्त-व्यस्त करने के लिए आए हैं। मसीह विरोधियों के दिलों में सिर्फ प्रसिद्धि और हैसियत रहती है। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपनी गलती मानी, तो उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, और तब उनकी हैसियत और प्रसिद्धि गंभीर संकट में पड़ जाएगी। परिणामस्वरूप, वे “मरने तक नकारते रहो” के रवैये के साथ प्रतिरोध करते हैं। लोग चाहे उन्हें कैसे भी उजागर करें या उनका कैसे भी गहन-विश्लेषण करें, वे इसे नकारने के लिए जो बन पड़े वो करते हैं। चाहे उनका इनकार जानबूझकर किया गया हो या नहीं, संक्षेप में, एक ओर ये व्यवहार मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने वाले प्रकृति सार को उजागर करते हैं। दूसरी ओर, यह दिखाता है कि मसीह-विरोधी अपने रुतबे, प्रसिद्धि और हितों को कितना सँजोते हैं। इस बीच, कलीसिया के कार्य और हितों के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? यह अवमानना और गैर-जिम्मेदारी का रवैया होता है। उनमें अंतःकरण और विवेक की पूर्णतः कमी होती है। क्या मसीह-विरोधियों का जिम्मेदारी से बचना इन मुद्दों को प्रदर्शित नहीं करता है? एक ओर, जिम्मेदारी से बचना सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने के उनके प्रकृति सार को साबित करता है, तो दूसरी ओर, यह उनमें जमीर, विवेक और मानवता की कमी दर्शाता है। उनकी गड़बड़ी और कुकर्म के कारण भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए, उन्हें कोई ग्लानि महसूस नहीं होती और वे इससे कभी परेशान नहीं हो सकते। यह किस प्रकार का प्राणी है? अगर वे अपनी थोड़ी भी गलती मान लेते हैं, तो यह थोड़ा-बहुत जमीर और विवेक का होना माना जाएगा, लेकिन मसीह-विरोधियों में इतनी थोड़ी-सी भी मानवता नहीं होती। तो तुम लोग क्या कहोगे कि वे क्या हैं? सारतः, मसीह-विरोधी लोग दानव हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों को चाहे जितना नुकसान पहुँचाते हों, वे उसे नहीं देखते। वे अपने दिलों में इससे जरा भी दुखी नहीं होते, न ही वे खुद को धिक्कारते हैं, एहसानमंद तो वे बिल्कुल भी महसूस नहीं करते। यह वह बिल्कुल नहीं है, जो सामान्य लोगों में दिखना चाहिए। वे दानव हैं, और दानवों में कोई जमीर या विवेक नहीं होता है। चाहे वे कितने भी बुरे काम करें, और उनके कारण कलीसिया के काम को कितने भी बड़े नुकसान उठाने पड़ें, वे अपनी गलती स्वीकारने से पूरी तरह इनकार करते हैं। उनका मानना है कि इसे स्वीकारने का मतलब यह होगा कि उन्होंने कुछ गलत किया है। वे सोचते हैं, “क्या मैं कुछ गलत कर सकता हूँ? मैं कभी कुछ गलत नहीं करूँगा! अगर मुझसे मेरी गलती स्वीकार करवाई जाती है, तो क्या यह मेरे चरित्र का अपमान नहीं होगा? भले ही मैं उस घटना में शामिल था, मगर वह घटना मेरे कारण नहीं हुई, और वहाँ का मुख्य प्रभारी मैं नहीं था। तुम्हें जिसे भी ढूँढ़ना है ढूँढ़ो, मगर मुझे ढूँढ़ते हुए मत आ जाना। चाहे जो भी हो, मैं यह गलती नहीं स्वीकार सकता। मैं यह जिम्मेदारी नहीं ले सकता!” वे सोचते हैं कि अगर उन्होंने अपनी गलती स्वीकार ली तो उनकी निंदा की जाएगी, मौत की सजा सुनाई जाएगी; साथ ही, उन्हें नरक में और आग और गंधक की झील में डाल दिया जाएगा। मुझे बताओ, क्या इस तरह के लोग सत्य स्वीकार सकते हैं? क्या कोई उनसे सच्चे पश्चात्ताप की उम्मीद कर सकता है? दूसरे लोग चाहे सत्य पर कैसे भी संगति करें, मसीह-विरोधी फिर भी इसका प्रतिरोध करेंगे, इसके विरुद्ध खड़े रहेंगे, और अपने दिल की गहराई से इसका खंडन करेंगे। बर्खास्त किए जाने के बाद भी, वे अपनी गलतियाँ स्वीकार नहीं करते, और न ही वे पश्चात्ताप का कोई भी लक्षण दिखाते हैं। जब 10 साल बाद मामले का जिक्र किया जाता है, तब भी वे खुद को नहीं जानते, और यह स्वीकार नहीं करते कि उन्होंने गलती की थी। जब 20 साल बाद मामले को उठाया जाता है, तब भी वे खुद को नहीं जानते, और अपने आप को सही ठहराने और अपना बचाव करने की कोशिश करते हैं। और इससे भी बदतर यह है कि जब 30 साल बाद मामले का जिक्र किया जाता है, तब भी वे खुद को नहीं जानते हैं, और अपने बचाव में तर्क देने और खुद को सही ठहराने की कोशिश करते हैं, और कहते हैं : “मैंने कोई गलती नहीं की थी, तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। यह मेरी जिम्मेदारी नहीं थी; इसकी जिम्मेदारी मैं नहीं उठाऊँगा।” और चौंकाने वाली बात तो यह है कि बर्खास्त किए जाने के 30 साल बाद भी, ये मसीह-विरोधी अभी भी कलीसिया द्वारा उनके साथ किए गए व्यवहार के प्रति प्रतिरोध का रवैया रखते हैं। 30 साल बाद भी उनमें कोई बदलाव नहीं आया है। तो, उन्होंने वे तीस साल कैसे बिताए? क्या ऐसा हो सकता है कि उन्होंने परमेश्वर के वचन नहीं पढ़े या आत्म-चिंतन नहीं किया? क्या ऐसा हो सकता है कि उन्होंने परमेश्वर से प्रार्थना नहीं की या उस पर भरोसा नहीं किया? क्या ऐसा हो सकता है कि उन्होंने धर्मोपदेश नहीं सुने और संगति नहीं की? क्या ऐसा हो सकता है कि वे नासमझ हैं, और उनमें सामान्य मानवता की सोच नहीं हैं? उन्होंने वे तीस साल कैसे बिताए यह वाकई एक रहस्य है। घटना के तीस साल बाद भी, वे यह सोचते हुए अभी भी गुस्से से भरे हुए हैं कि भाई-बहनों ने उनके साथ गलत किया, कि परमेश्वर उन्हें नहीं समझता, कि परमेश्वर के घर ने उनके साथ बुरा व्यवहार किया, उनके लिए समस्याएँ खड़ी कीं, उनके लिए चीजें मुश्किल बना दीं, और उन पर अन्यायपूर्वक दोष लगाया। मुझे बताओ, क्या इस तरह के लोग बदल सकते हैं? वे बिल्कुल नहीं बदल सकते। उनके दिलों में सकारात्मक चीजों के प्रति बैर भाव, प्रतिरोध और विरोध है। उनका मानना है कि उनके बुरे कर्मों को उजागर करके और उन्हें काट-छाँट कर, दूसरे लोगों ने उनके चरित्र को नुकसान पहुँचाया, उनकी प्रतिष्ठा को बदनाम किया, और उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को जबरदस्त नुकसान पहुँचाया है। वे इस मामले में प्रार्थना करने, सत्य खोजने और अपनी गलतियों को पहचानने के लिए कभी भी परमेश्वर के सामने नहीं आएँगे, और उनमें कभी भी पश्चात्ताप करने या अपनी गलतियों को स्वीकारने का रवैया नहीं होगा। वे परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को तो और भी नहीं स्वीकारेंगे। आज भी, परमेश्वर के सामने खुद को सही ठहराते हुए उनके मन में अवज्ञा, असंतोष और शिकायतें हैं, और वे परमेश्वर से इन गलतियों का निवारण करने, इस मामले का खुलासा करने और वास्तव में यह निर्णय करने के लिए कहते हैं कि कौन सही था और कौन गलत; यहाँ तक कि वे इस मामले के कारण परमेश्वर की धार्मिकता पर संदेह करते हैं और इसे नकराते हैं, और इस तथ्य पर भी संदेह करते हैं कि परमेश्वर के घर में सत्य और परमेश्वर का शासन चलता है, और इसे नकारते हैं। मसीह-विरोधियों के काटने-छाँटने का अंतिम परिणाम यही होता है—क्या वे सत्य स्वीकारते हैं? वे सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते; वे इसे स्वीकारने के बिल्कुल खिलाफ हैं। हमें इससे पता चलता है कि मसीह-विरोधी का प्रकृति सार सत्य से विमुख होने और उससे घृणा करने वाला होता है।
चूँकि मसीह-विरोधी अपनी काट-छाँट किए जाने को स्वीकार नहीं करते, तो क्या उन्हें काटे-छाँटे जाने का कोई ज्ञान होता है? सत्य के इस पहलू पर संगति करते हुए वे क्या कहते हैं? वे दूसरों को क्या सिखाते हैं? वे कहते हैं, “लोगों की काट-छाँट करना परमेश्वर द्वारा उन्हें पूर्ण बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक तरीका है। इससे लोग खुद को बेहतर जान पाते हैं। जब लोगों को काटा-छाँटा जाता है तो उन्हें इसे स्वीकार करके बिना शर्त इसके प्रति समर्पण करना चाहिए। जो लोग अपने साथ काट-छाँट किए जाने को स्वीकार नहीं करते, वे परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करते हैं और सत्य से प्रेम नहीं करते हैं। अगर तुम सत्य का अभ्यास करना चाहते हो, तो तुम्हें पहले अपनी काट-छाँट किए जाने को स्वीकारना होगा; परमेश्वर इसी तरह लोगों को पूर्ण बनाता है, और हर व्यक्ति को इसका अनुभव करना चाहिए। यह कहा जा सकता है कि काट-छाँट किए जाने को स्वीकार करना लोगों के लिए सत्य समझने और इस प्रकार आत्म-ज्ञान पाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के अभ्यास का सबसे अच्छा मार्ग है। चाहे तुम कोई अगुआ हो या फिर एक साधारण विश्वासी, और तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाते हो, तुम्हें काटे-छाँटे जाने के लिए तैयार रहना होगा। अगर तुम अपनी काट-छाँट किए जाने को स्वीकार नहीं सकते तो इससे यह साबित होता है कि एक बच्चे की तरह तुम्हारे पास कोई आध्यात्मिक कद नहीं है। ऐसा हरेक व्यक्ति जो अपनी काट-छाँट किए जाने को स्वीकार सकता है, एक परिपक्व व्यस्क है जिसके पास जीवन है और उसे पूर्ण बनाया जा सकता है।” ये बड़ी-बड़ी बातें मसीह-विरोधियों के मुँह से हथौड़े के प्रहार की तरह निकलती हैं, और ये सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं! मगर ये बातें क्या हैं? क्या उनकी कही एक भी बात सत्य है? क्या तुम लोग इसे पहचान सकते हो? तुम लोग भी अक्सर ऐसी बातें कहते हो, है ना? (सही है।) मुझे बताओ, ये बातें क्या हैं? (धर्म-सिद्धांत।) किसी सामान्य वाक्यांश का इस्तेमाल करके संक्षेप में बताओ और समझाओ कि धर्म-सिद्धांत क्या हैं। (नारे।) क्या तुम्हें कोई और वाक्यांश याद आ रहा है? (निरर्थक, सैद्धांतिक बातें।) कोई और? (ये सभी बेकार की बातें और बकवास हैं।) यह सही है, यह परिभाषा बिल्कुल सही है, और दो टूक है। इसे रोजमर्रा की भाषा कहते हैं : सभी धर्म-सिद्धांत बकवास हैं। “बकवास” शब्द का क्या मतलब है? खोखले शब्द। वास्तव में, हम इसे कैसे परिभाषित करते हैं? शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के रूप में। मसीह-विरोधियों द्वारा बोले जाने वाले ये शब्द केवल शब्द और धर्म-सिद्धांत हैं। जब काटे-छाँटे जाने की बात आती है, तो वे लगातार ऐसे धर्म-सिद्धांत बोल सकते हैं, मगर क्या इससे यह साबित होता है कि उन्हें इसकी सही समझ और बोध है? जैसे ही तुम उन्हें ये शब्द बोलते हुए सुनते हो, तुम्हें पता चल जाता है कि उन्हें काटे-छाँटे जाने के बारे में कोई वास्तविक समझ नहीं है। इस तरह की बकवास करने की उनकी क्षमता यह दिखाती है कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। अगर उन्हें वास्तव में काटा-छाँटा जाए, तो सवाल ही नहीं उठता कि वे इसे स्वीकारेंगे। अपनी काट-छाँट किए जाने के प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया शत्रुता और प्रतिरोध का होता है; वे इसे बिल्कुल भी सत्य मान कर स्वीकार नहीं करते या इसके प्रति समर्पण नहीं करते हैं। उनके लिए, ऐसा करना उनके चरित्र और गरिमा का अपमान होगा।
क्या तुम लोगों के पास इस बारे में कोई और उदाहरण है कि मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने के प्रति कैसा व्यवहार करते हैं? (कुछ मसीह-विरोधियों का जब काटे-छाँटे जाने से सामना होता है, तो बाहर से ऐसा लग सकता है कि वे खुद को जान रहे हैं, मगर वास्तव में, इसमें कुतर्क करने और लोगों को गुमराह करने की कोशिश शामिल होगी। कभी-कभार अगर उनसे कोई गलती हुई, तो वे कहेंगे, “परमेश्वर ने ऐसा होने दिया, सभी को परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करना चाहिए।” यहाँ तक कि कभी-कभी मसीह-विरोधी यह कहते हुए झूठे आरोप भी लगाते हैं, “तुम्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं को पकड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, या उनसे बहुत ज्यादा माँगें नहीं करनी चाहिए।” मसीह-विरोधी लोगों को गुमराह करने और लोगों को उन्हें पहचानने से रोकने की कोशिश में ऐसी बातें कहते हैं।) यह एक लक्षण है कि मसीह-विरोधी गलत को सही में बदल देते हैं, वे सफेद और काले में फेर-बदल कर देते हैं। इस बात से डरकर कि लोग उनकी समस्याओं की हकीकत जान लेंगे, मसीह-विरोधी कुतर्क करने लगते हैं और लोगों को गुमराह करने, उन्हें भ्रमित करने, और उनकी दृष्टि को धुंधला करने के लिए तमाम तरह की बातें कहते हैं, ताकि लोगों को उनकी करनी के बारे में पता ही न चले या उसकी कोई समझ ही न हो, और इस तरह उनका रुतबा ऊँचा रहे और लोगों के मन में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा बनी रहे। यह उसी तरह का रवैया है जिसके बारे में हमने कुछ समय पहले बात की थी, कि कैसे मसीह-विरोधी काटे-छाँटे जाने पर या गलती करने पर या गलत मार्ग अपना लेने पर बिल्कुल भी नहीं बदलेंगे। और क्या-क्या उदाहरण हैं? (मसीह-विरोधी उन्हें काटने-छाँटने वाले हरेक व्यक्ति के प्रति द्वेष का भाव रखते हैं, और बाद में उनसे बदला लेने और उन पर हमला करने के अवसर भी ढूँढते हैं।) हमला करना और बदला लेना एक और लक्षण है। यह मसीह-विरोधियों का अपने रुतबे और प्रतिष्ठा की रक्षा करने से कैसे संबंधित है? वे हमला करना और बदला लेना क्यों चाहते हैं? (क्योंकि जिसने भी उन्हें काटा-छाँटा, उसने उनके द्वारा किए गए सभी बुरे कामों और मामले के वास्तविक तथ्यों को उजागर कर दिया; उन्होंने उनके रुतबे और प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाया, और लोगों के दिलों में जो उनकी छवि थी वह खराब कर दी, इसलिए वे उनके प्रति द्वेष का भाव रखते हैं।) यह सही है, संबंध यहीं पर है। वे सोचते हैं कि उन्हें काटने-छाँटने वाले लोगों ने उनके गौरव को चोट पहुँचाई, उन्हें शर्मनाक स्थिति में डाल दिया, उनकी प्रतिष्ठा को बर्बाद कर दिया, और इतने सारे लोगों के सामने उन्हें उजागर करके दूसरों के मन में उनके रुतबे को बहुत गंभीर नुकसान पहुँचाया। इसी कारण से वे बदला लेते हैं। इस मामले में, उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को नुकसान पहुँचा, और अपने दिलों में बसे गुस्से और नफरत को बाहर निकालने के लिए, वे उन लोगों पर हमला करने और उनसे बदला लेने के अवसर ढूँढते हैं जिन्होंने उन्हें उजागर किया और काटा-छाँटा। मसीह-विरोधी और क्या लक्षण दिखाते हैं? (कुछ मसीह-विरोधी बहुत कपटी भी होते हैं। जब कोई उन्हें काटता-छाँटता है, तो हो सकता है वे उनका खंडन न करें या दिखाने को कोई घोषणा न करें, और ऐसा लग सकता है कि उन्होंने अपने बारे में कुछ समझा है, मगर बाद में, वे वही बुरे काम करना जारी रखेंगे जैसे वे पहले करते थे और कभी भी सच्चा पश्चात्ताप नहीं करेंगे। वे इस तरह के मुखौटे का इस्तेमाल लोगों को गुमराह करने के लिए करते हैं।) यह एक और लक्षण है। एक विशेष प्रकार का मसीह-विरोधी ठीक यही करता है। मसीह-विरोधी अपने मन में सोचते हैं, “जहाँ जीवन है वहाँ आशा है। मैं फिलहाल धैर्य रखूँगा और तुम्हें मेरी असलियत नहीं देखने दूँगा। अगर मैं तुम्हारी बात का खुलकर विरोध करते हुए मेरी काट-छाँट किए जाने को स्वीकारने से इनकार करता हूँ, तो तुम लोग कहोगे कि मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो सत्य का अभ्यास नहीं करता या सत्य से प्रेम नहीं करता, और अगर यह बात बाहर आ गई, तो इसका मेरी प्रतिष्ठा पर असर पड़ेगा। अगर हमारे भाई-बहनों को पता चल गया, तो वे यकीनन किसी ऐसे व्यक्ति की अगुआई स्वीकारने से इनकार कर देंगे जो सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करता है। मुझे पहले एक अच्छी छवि बनानी होगी। जब मुझे काटा-छाँटा जाएगा, और कोई मेरी गलतियों या अपराधों को उजागर करेगा, तो मैं इसे स्वीकारने और हामी भरने का दिखावा करके इसे सह लूँगा, किसी को मेरी असलियत नहीं देखने दूँगा या यह नहीं जानने दूँगा कि मैं वास्तव में क्या सोच रहा हूँ। फिर मैं मुखौटा लगाकर थोड़े आँसू बहा दूँगा, और परमेश्वर के प्रति ऋणी होने के बारे में कुछ बातें कहकर मामले को रफा-दफा कर दूँगा। इस तरह, भाई-बहनों को लगेगा कि मैं सत्य स्वीकारने वाला व्यक्ति हूँ, और मैं सही मायने में एक अगुआ बना रह सकता हूँ—और तब मेरी प्रतिष्ठा और मेरा रुतबा सुरक्षित रहेगा, है ना?” वे जो कुछ भी करते हैं वह एक मुखौटा है। क्या तुम लोग कहोगे कि ऐसे लोगों की असलियत पहचानना आसान होता है? (उनकी असलियत पहचानना आसान नहीं होता।) यह देखने के लिए कि क्या वे समस्याओं का सामना करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करते हैं, और क्या वे वास्तव में सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करते हैं, उन पर कुछ समय तक नजर रखना और उनके साथ बातचीत करना जरूरी होता है। चाहे वे दिखाने के लिए कितनी भी अच्छी या सही बातें क्यों न बोलें, यह केवल कुछ समय के लिए है; देर-सवेर, उनकी वास्तविक सोच सामने आ ही जाएगी। भले ही परमेश्वर उन्हें बेनकाब न करे, पर क्या मसीह-विरोधी अपनी असली सोच और प्रकृति सार पर इतनी कड़ी पकड़ रख सकते हैं? क्या वे जीवन भर के लिए उन्हें छिपा सकते हैं? यह नामुमकिन होगा; देर-सवेर, ये बातें सामने आ ही जाएँगी। इसलिए, चाहे मसीह-विरोधी कितने भी दुष्ट या चालाक क्यों न हों, अगर उनके मन में इरादे और मंशाएँ हैं और अगर वे अपने क्रियाकलापों में सत्य के विरुद्ध जाते हैं, तो आखिरकार सत्य को समझने वाले लोग उन्हें पहचान लेंगे और उनकी असलियत जान लेंगे। इस तरह के मसीह-विरोधी लोग सबसे ज्यादा चालाक होते हैं; बाहर से यह लग सकता है कि वे सत्य और सकारात्मक चीजों को स्वीकारते हैं, मगर वास्तव में, अपने दिल की गहराई में और अपने सार में, वे सत्य से प्रेम नहीं करते, और सकारात्मक चीजों और सत्य से विमुख भी होते हैं। क्योंकि वे वाक्पटु होते हैं, इसलिए ज्यादातर लोग उन्हें पहचान नहीं पाते, और केवल सत्य समझने वाले लोग ही इस तरह के व्यक्ति को पहचान पाते हैं और उसकी असलियत देख पाते हैं। क्या कोई और उदाहरण है? (एक मसीह-विरोधी था जिसने देखा कि उसके सहकर्मियों में उससे बेहतर काबिलियत है और वे उससे बेहतर काम कर रहे हैं। अपने रुतबे को सुरक्षित रखने के लिए, उसने गुप्त रूप से तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया और अपने सहकर्मियों और साथियों की आलोचना की, लोगों को गुमराह किया, उन्हें फुसलाया और उन्हें अपनी बात सुनने के लिए मजबूर किया। इससे उसके सहकर्मियों के बीच भरोसा खत्म हो गया। वे अब मिल-जुलकर काम नहीं कर रहे थे, और काम के किसी भी पहलू में कोई नतीजा हासिल नहीं हुआ। जब इस मसीह-विरोधी के बुरे कर्मों को उजागर किया गया, तो उसने न केवल इसे स्वीकारने से इनकार कर दिया, बल्कि बहाने भी बनाए और जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की। जाहिर था कि वह अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कुछ भी कर सकता था; चाहे उसने कितने भी भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाया हो, और चाहे उसने परमेश्वर के घर के कार्य में कितनी भी बड़ी बाधा या गड़बड़ी पैदा की हो, उसे इसकी परवाह नहीं थी, परेशान होना या दोषी महसूस करना तो दूर की बात थी। उसमें रत्ती भर भी मानवता या विवेक नहीं था।) संक्षेप में कहूँ, तो मसीह-विरोधी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए किसी के हितों का बलिदान करने में कोई संकोच नहीं करते हैं। यहाँ तक कि अगर उन्हें अपना रुतबे बनाए रखने के लिए सबको कुचलना भी पड़े, तो वे इससे पीछे नहीं हटेंगे। जब अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा की बात आती है, तो उन्हें दूसरों के जीने-मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता, और परमेश्वर के घर का कार्य और कलीसिया के हित तो उनके मन में होते ही नहीं, और ये उनके विचारों के दायरे में भी कहीं नहीं होते हैं। इन क्रियाकलापों से, हम देख सकते हैं कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर के लोग नहीं हैं; वे अविश्वासी हैं जो कीड़े-मकोड़ों की तरह यहाँ घुस आए हैं। परमेश्वर का घर उनका घर नहीं है, इसलिए उसके किसी भी हित का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। वे बस सत्ता हासिल करके लोगों पर नियंत्रण करने के अपने लक्ष्य को पूरा करना चाहते हैं, और परमेश्वर के घर में अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को संतुष्ट करना चाहते हैं। क्योंकि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार ऐसा ही होता है, तो वे अपने साथ काट-छाँट किए जाने को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे, और न ही वे सत्य के किसी भी पहलू को स्वीकारेंगे।
हमने अभी-अभी जो उदाहरण दिए, उनसे तुम देख सकते हो कि प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने की मसीह-विरोधियों की महत्वाकांक्षा और इच्छा जन्मजात होती है। मसीह-विरोधी इसी तरह, ऐसे प्रकृति सार के साथ ही पैदा होते हैं। वे पैदा होने के बाद यह सब बिल्कुल नहीं सीखते, और न ही यह उनके परिवेश का परिणाम है। यह वैसा ही है जैसे कुछ बीमार लोग पैदा होने के बाद बीमार नहीं हुए होते हैं, बल्कि उन्हें यह बीमारी विरासत में मिलती है। इस तरह की बीमारियों का इलाज नामुमकिन है। मसीह-विरोधी लोग प्रतिष्ठा और रुतबा पाने की महत्वाकांक्षा के साथ पैदा होते हैं, और वे दानव राजाओं के अवतारों से अलग नहीं हैं। मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं और उससे नफरत करते हैं, और वे परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। तो, चाहे उन्हें किसी भी तरह से काटा-छाँटा जाए, वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे। अगर कोई साधारण भाई या बहन उन्हें काटता-छाँटता है, तो वे इसे और भी कम स्वीकार करेंगे। उनका मानना है : “तुम मुझे काटने-छाँटने के काबिल नहीं हो, तुम योग्य नहीं हो! तुम्हें विश्वासी बने कितने दिन हुए हैं? जब मैं विश्वासी बना था, तब तुम पैदा भी नहीं हुए थे! जब मैं अगुआ बना था, तब तुमने परमेश्वर में विश्वास रखना भी शुरू नहीं किया था!” जो भाई-बहन उन्हें काटते-छाँटते हैं उनके प्रति उनका यही रवैया होता है। वे योग्यताओं और वरिष्ठता पर ध्यान देते हैं, और इन आधारों पर काटे-छाँटे जाने को अस्वीकार करते हैं। तो, अगर ऊपरवाला उन्हें काटे-छाँटे, तब वे इसे स्वीकार सकेंगे? उनके प्रकृति सार के आधार पर, वे इसे भी स्वीकार नहीं करेंगे। भले ही वे दिखाने को कुछ न कहें, मगर उनके दिल निश्चित रूप से इसका प्रतिरोध करेंगे और इसे अस्वीकार करेंगे। इसमें कोई शक नहीं। जब वास्तव में ऊपरवाले की काट-छाँट से उनका सामना होता है, तो मसीह-विरोधियों की सबसे सामान्य अभिव्यक्ति जिम्मेदारी से बचने के लिए बेतहाशा कुतर्क करने और अपने पक्ष में बहस करने की होती है, यहाँ तक कि वे ऊपरवाले से झूठ बोलते हैं और अपने से नीचे वालों से बातें छिपाते हैं, ताकि वे बचकर बेदाग निकल सकें। ऊपरवाले की काट-छाँट से बचने के लिए मसीह-विरोधी अक्सर ऊपरवाले से झूठ बोलने और अपने से नीचे वालों से बातें छिपाने का तरीका अपनाते हैं। उदाहरण के लिए, अगर किसी कलीसिया में बहुत सारी समस्याएँ हैं तो वे कभी उनकी रिपोर्ट नहीं करते हैं। अगर उनके भाई-बहन उन समस्याओं की रिपोर्ट करना चाहते हैं तो मसीह-विरोधी उन्हें ऐसा करने नहीं देते, और जो कोई भी ऐसा करता है, उसे उनके दमन और बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। इस वजह से, कई लोगों को इससे दूर रहने, समस्याओं को अनसुलझा छोड़ने और खुशामदी लोगों की तरह काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। मसीह-विरोधी कलीसिया की सभी समस्याओं को पूरी तरह से गुप्त रखते हुए उन्हें रफा-दफा कर देते हैं, और ऊपरवाले को हस्तक्षेप करने या पूछताछ करने नहीं देते हैं। मसीह-विरोधी ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं को भी जितना हो सके उतना रोकते हैं, और उन्हें आगे नहीं बढ़ाते या लागू नहीं करते हैं। अगर ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाओं से उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा या रुतबे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है तो वे कुछ सतही घोषणाएँ कर सकते हैं, और आधे-अधूरे मन से कार्य कर सकते हैं, मगर वे निश्चित रूप से उन्हें वास्तव में लागू नहीं करेंगे। अगर ऊपरवाले की कार्य व्यवस्थाएँ उनकी प्रतिष्ठा और उनके रुतबे के लिए खतरा बनती हैं, या उन पर कोई खास प्रभाव डालती हैं, तो मसीह-विरोधी सोच में पड़ जाते हैं। वे विचार करते हैं कि काम कैसे करना है, किन लोगों पर करना है, और कब करना है। उन्हें इन चीजों के बारे में बारीकी से सोच-समझकर चलना होता है, अपने मन में बार-बार इनका हिसाब लगाना होता है। अगर कलीसिया के कार्य में कुछ समस्याएँ आती हैं, तो मसीह-विरोधी जानते हैं कि जब ऊपरवाले को इन समस्याओं के बारे में पता चलेगा तो उन्हें निश्चित रूप से काट-छाँट दिया जाएगा या बर्खास्त भी किया जा सकता है, इसलिए वे इन समस्याओं को छिपाते हैं, और इनके बारे में ऊपरवाले को रिपोर्ट नहीं करते हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अगर इन समस्याओं को हल नहीं किया गया तो परमेश्वर के घर के कार्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा या उसका कितना नुकसान होगा; उन्हें परमेश्वर के घर को होने वाले नुकसान से कोई लेना-देना नहीं होता है। वे इस बारे में नहीं सोचते कि कौन-सी कार्रवाई परमेश्वर के घर के कार्य को लाभ पहुँचाएगी या परमेश्वर को संतुष्ट करेगी, वे सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की सोचते हैं, यह सोचते हैं कि ऊपरवाला उन्हें कैसे देखेगा और उनके साथ कैसा व्यवहार करेगा, और वे अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को कैसे सुरक्षित रखें ताकि वे प्रभावित न हों। यही वह तरीका है जिससे मसीह-विरोधी चीजों को देखते हैं और समस्याओं के बारे में सोचते हैं, और यह पूरी तरह से उनके स्वभाव को दर्शाता है। इसलिए, मसीह-विरोधी कलीसिया के भीतर मौजूद समस्याओं या उनके काम में आने वाली समस्याओं के बारे में सच्चाई से बिल्कुल भी रिपोर्ट नहीं करेंगे। चाहे वे कोई भी काम करें, चाहे वे किसी भी कठिनाई का सामना करें, या अगर वे ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हों जहाँ वे नहीं जानते कि इन्हें कैसे संभालना है, या जहाँ वे नहीं जानते कि कौन-सा विकल्प चुनना है, उस काम को करते समय, वे इस डर से इसे ढक देंगे और छिपाएँगे कि कहीं ऊपरवाला यह ना कहे कि उनकी काबिलियत बहुत कम है, या उसे उनकी वास्तविक स्थिति के बारे में पता चल जाए, या वह उन्हें काट-छाँट दे क्योंकि उन्होंने उन कठिनाइयों या स्थितियों को तुरंत नहीं संभाला और उन्हें हल नहीं किया। मसीह-विरोधी लोग ऊपरवाले द्वारा काटे-छाँटे जाने से बचने के लिए परमेश्वर के घर और कलीसिया के कार्य के हितों की अवहेलना करते हैं। वे अपने रुतबे और आजीविका को बचाए रखने के लिए, और यह सुनिश्चित करने के लिए कि ऊपरवाले की नजरों में उनकी अच्छी छवि बनी रहे, कलीसिया के कार्य और हितों का बलिदान देने में संकोच नहीं करते। उन्हें कलीसिया के कार्य की प्रगति में देरी होने या उस पर कोई असर पड़ने की परवाह नहीं है, और उन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश की तो और भी कम परवाह है। चाहे भाई-बहनों को कितनी भी मुश्किलों का सामना करना पड़े, या उनके जीवन प्रवेश के मामले में कोई भी समस्या क्यों न आए, मसीह-विरोधी उन्हें हल नहीं कर सकते, और वे ऊपरवाले से भी कोई मदद नहीं माँगेंगे। वे अच्छी तरह जानते हैं कि समस्याओं को छिपाने और उन्हें अनसुलझा छोड़ने से कलीसिया के कार्य की प्रगति में देरी होगी और उस पर असर पड़ेगा, और भाई-बहनों के जीवन को नुकसान होगा, मगर वे इन बातों को नजरंदाज करते हैं, और उनकी परवाह नहीं करते। कलीसिया में चाहे कितनी भी बड़ी समस्याएँ क्यों न आएँ, वे कभी भी उनकी रिपोर्ट नहीं करते, बल्कि उन्हें छिपाने और दबाने की पूरी कोशिश करते हैं। अगर भाई-बहनों को उनके बुरे कर्मों का पता चलता है और वे उनकी रिपोर्ट करते हुए चिट्ठी लिखते हैं, तो मसीह-विरोधी उन चिट्ठियों को रोकने और दबाने की और भी ज्यादा कोशिश करते हैं। उन चिट्ठियों को रोकने और दबाने में उनका क्या लक्ष्य होता है? ताकि उनका रुतबा बना रहे, उनकी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि की सुरक्षा हो, और उस समय उनके पास जो कुछ भी है वह उनसे छीन न लिया जाए। उनके लिए, बर्खास्त किया जाना या ऊपरवाले द्वारा उन्हें उनके काम के लिए अयोग्य ठहराया जाना, अपनी जान गँवाने और मौत की सजा पाने जैसा है, यह ऐसा है मानो कि परमेश्वर में उनके विश्वास का अंतिम पड़ाव आ गया है। इसलिए, चाहे कुछ भी हो, वे ऊपरवाले से कभी कुछ मदद नहीं माँगते। बल्कि, अपने काम में मौजूद सभी समस्याओं को छिपाने और ऊपरवाले को उनका पता चलने देने से रोकने के तरीके सोचते हैं। क्या मसीह-विरोधियों का यह अभ्यास बेहद घिनौना नहीं है? उनका मानना है कि परमेश्वर और ऊपरवाले की नजरों में एक अच्छा अगुआ ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसे कभी कोई समस्या या कठिनाई न हो, जो सभी मामलों को अच्छी तरह से संभाल सके और जो सभी तरह के काम के लिए उपयुक्त हो। उन्हें लगता है कि एक अच्छा अगुआ कभी भी कठिनाइयों के बारे में शिकायत नहीं करता या समस्याएँ आने पर मदद नहीं माँगता, और एक अच्छा अगुआ परमेश्वर और ऊपरवाले के मन में एकदम परिपूर्ण, दोषरहित व्यक्ति होना चाहिए, जो ऊपरवाले की काट-छाँट के बिना काम को अच्छी तरह से करा सके। नतीजतन, मसीह-विरोधी अपने रुतबे की जोरदार ढंग से रक्षा करते हैं, इस उम्मीद में कि उपरवाले पर अच्छा प्रभाव डाल सकें, और ऊपरवाले को गलत तरीके से यह विश्वास दिला सकें कि वे अपने काम के लिए उपयुक्त हैं, अपने काम की जिम्मेदारी संभाल सकते हैं, और कोई बड़ी समस्या उत्पन्न नहीं होगी, और ताकि वह सोचे कि उनके काम के बारे में सीधे तौर पर पूछताछ करने या उन्हें मार्गदर्शन देने की कोई आवश्यकता नहीं है, और उन्हें काटने-छाँटने की तो बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। मसीह-विरोधी अपने लिए इस तरह की छवि बनाना चाहते हैं, ताकि दूसरों को यह गलत विश्वास हो जाए कि परमेश्वर उन पर विश्वास करता है और उन्हें सब कुछ सौंपता है, कि वह उन्हें महत्वपूर्ण काम सौंपता है और उन पर इतना ज्यादा भरोसा करता है कि उन्हें काटने-छाँटने से भी हिचकिचाता है, इस डर से कि उनके नकारात्मक हो जाने और ढिलाई बरतने से काम प्रभावित होगा। मसीह-विरोधी लोग भाई-बहनों को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि वे परमेश्वर के घर और कलीसिया में लोकप्रिय हैं, और परमेश्वर के घर में महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। वे भाई-बहनों में इस तरह का भ्रम पैदा क्यों करना चाहते हैं और मुखौटा लगाना क्यों चाहते हैं? ऐसा इसलिए ताकि लोग उनका सम्मान और उनकी आराधना करें, ताकि वे कलीसिया में रुतबे के लाभों का आनंद ले सकें, और साथ ही ऊँचे रुतबे और अनुकूल व्यवहार का आनंद ले सकें, इस हद तक कि उन्हें परमेश्वर का स्थान मिल जाए। वे अक्सर भाई-बहनों से कहते हैं, “परमेश्वर तुम लोगों से व्यक्तिगत रूप से बात नहीं कर सकता, वह तुम्हारे स्तर पर आकर व्यक्तिगत रूप से काम नहीं कर सकता, और न ही वह तुम लोगों के साथ रहकर तुम्हारे दैनिक जीवन में आने वाली तमाम तरह की अलग-अलग समस्याओं में तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकता है। तो, ये विशिष्ट काम कौन करेगा? हमारे जैसे अगुआ और कार्यकर्ता ही करेंगे ना?” अपने रुतबे को सुरक्षित रखने के लिए हर संभव प्रयास करते हुए, वे अक्सर इस तरह की बातें कहते हैं और ऐसे विचार व्यक्त करते हैं, ताकि भाई-बहन पूरी तरह से और बिना किसी संदेह के उन पर विश्वास और भरोसा करें। उनके इस अभ्यास की प्रकृति क्या है? क्या यह ऊपरवाले से झूठ बोलना और अपने से नीचे वालों से बातें छिपाना नहीं है? (बिल्कुल है।) यह उनके रवैये का चालाक हिस्सा है। ज्यादातर लोगों में कम काबिलियत होती है, वे सत्य को नहीं समझते, मसीह-विरोधियों को नहीं पहचान सकते, और इसलिए मसीह-विरोधियों द्वारा उन्हें गुमराह और उनका इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर मसीह-विरोधी सीधे तौर पर लोगों को यह कहकर गुमराह करने की कोशिश करें : “ऊपरवाले को वाकई मुझ पर विश्वास है, वो मेरी हर बात सुनता है,” तो लोग थोड़े सचेत हो सकते हैं और उन्हें थोड़ा पहचान सकते हैं, मगर मसीह-विरोधी इस तरह से सीधे तौर पर बात नहीं करते। वे लोगों को गुमराह करने के लिए अलग तरह से बोलते हैं, और उन्हें गलत तरीके से यह विश्वास दिलाते हैं कि ऊपरवाले को उन पर जरूर विश्वास और भरोसा होगा तभी उन्हें अगुआ का काम सौंपा है। जिन कमअक्ल लोगों में विवेक की कमी होती है और जो सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे झांसे में आकर उनका अनुसरण करने लगते हैं। और, जब कुछ घटित होता है, तो वे कमअक्ल लोग परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, या परमेश्वर के वचनों में सत्य नहीं खोजते, बल्कि मसीह-विरोधियों के सामने आते हैं, मसीह विरोधियों से उन्हें मार्ग दिखाने और उनके लिए मार्ग चुनने के लिए कहते हैं। मसीह-विरोधी अपने क्रियाकलापों से यही लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। अगर कलीसिया में मसीह-विरोधियों को पहचानने और उजागर करने के लिए सत्य समझने वाले कुछ लोग नहीं हों, तो ज्यादातर लोग आँखें मूंदकर उन पर विश्वास कर लेंगे, उनकी आराधना और उनका अनुसरण करेंगे, और उनके काबू में रहेंगे। यह बहुत खतरनाक है! अगर कोई व्यक्ति तीन या पाँच सालों तक किसी मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह होता है और उसके काबू में रहता है, तो उसके जीवन को बहुत नुकसान उठाना होगा। अगर वह आठ या दस सालों तक किसी मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह होता है और उसके काबू में रहता है, तो वह पूरी तरह से बर्बाद हो जाएगा; अगर वह खुद को छुटकारा दिलाना भी चाहे, तो उसके पास ऐसा करने का मौका नहीं होगा।
हमेशा रुतबे का आनंद लेने और सदैव अंतिम फैसला खुद लेने के अपने लक्ष्य को हासिल करने लिए मसीह-विरोधी अक्सर लोगों को गुमराह करते हैं, उन्हें जीतते हैं, और ऐसे दावों का इस्तेमाल करके उन्हें काबू में करते हैं कि वे परमेश्वर के घर में लोकप्रिय हैं, परमेश्वर ने उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर रखा है, और परमेश्वर उनका सम्मान और उन पर भरोसा करता है। मसीह-विरोधियों को सबसे ज्यादा किस बात का डर होता है? वे सबसे ज्यादा अपना रुतबा खोने और अपनी प्रतिष्ठा खराब होने से डरते हैं। वे इस बात से डरते हैं कि भाई-बहन यह सोचेंगे कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, कि उनकी काबिलियत बहुत कम है, उन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है या वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते, और कोई भी वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हैं। मसीह-विरोधी सबसे ज्यादा इन्हीं चीजों को सुनने से डरते हैं। इस तरह की बातें और घोषणाएँ सुनते ही, मसीह-विरोधी घबरा जाते हैं और यहाँ तक कि चिढ़ भी जाते हैं; कभी-कभी तो यहाँ तक कि गुस्से में आ जाते हैं, और कहते हैं, “मेरे पास कम काबिलियत है तो जिससे काम कराना है करा लो; मैं वैसे भी यह काम नहीं कर सकता! परमेश्वर तो धार्मिक है ना? मेरे भाई-बहनों, मैंने इतने सालों से उसमें विश्वास किया है, उसके लिए अपना परिवार और करियर त्याग दिया, और तुम लोगों के लिए कितना कुछ सहा। तुम मेरे बारे में कुछ अच्छा क्यों नहीं बोल सकते?” वे अब अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे पर कोई ध्यान नहीं दे सकते, न ही वे खुद को छिपाने या दिखावा करने की कोशिश करते हैं; उनकी कुरूपता पूरी तरह से सामने आ गई है। अपना गुस्सा उतारने के बाद, वे अपने आँसू पोछते हैं और सोचते हैं, “अरे, नहीं; मैंने अपनी बदनामी करा ली। मुझे सब ठीक करना होगा!” फिर वे दिखावा करना जारी रखते हैं, वे अच्छे-अच्छे नारे और धर्म-सिद्धांतों को सीखना, धर्मोपदेश सुनना, पढ़ना, प्रवचन देना, और लोगों को गुमराह करना जारी रखते हैं। उन्हें लगता है कि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाना होगा, और वे आशा करते हैं कि एक दिन, जब चुनाव का समय आएगा, भाई-बहन यह सब होने के बावजूद भी उनके बारे में सोचेंगे, उनके द्वारा किए गए अच्छे कामों को याद करेंगे, उनके द्वारा चुकाई गई कीमतों और उनकी कही गई बातों को याद करेंगे। कितनी बड़ी बेशर्मी है, है ना? उनकी पुरानी प्रकृति बिल्कुल भी नहीं बदली है, है ना? मसीह-विरोधी कभी बदलते क्यों नहीं हैं? यह उनके प्रकृति सार से निर्धारित होता है, वे नहीं बदल सकते; वे ऐसे ही हैं। जब उनकी महत्वकांक्षाएँ और इच्छाएँ धुएँ में उड़ जाती है, तो वे गुस्सा होते हैं, और फिर उनका व्यवहार पहले से बेहतर हो जाता है। मैंने हाल ही में किसी के बारे में पूछा था कि वह आजकल कैसा है, तो कुछ भाई-बहनों ने बताया कि उसका व्यवहार बहुत अच्छा रहा है। “अच्छे व्यवहार” का क्या मतलब था? इसका यह मतलब था कि आजकल उसका व्यवहार काफी बेहतर हो गया है, और पहले से काफी बेहतर काम कर रहा है; अब वह मुसीबत खड़ी नहीं कर रहा है, लोगों पर हमला नहीं कर रहा है या रुतबे के लिए होड़ नहीं कर रहा है, और वह लोगों से प्यार से, विनम्रता से, और शांति से बात करना सीख रहा है। वह सही वचनों का इस्तेमाल करके लोगों की मदद कर रहा है, और अपने दैनिक जीवन में, वह लोगों की विशेष चिंता कर रहा है और उनका ध्यान रख रहा है। यह सुनकर ऐसा प्रतीत होता है मानो वह पूरी तरह बदल गया हो। मगर क्या वह सच में बदला है? नहीं। तो, ये सब अभ्यास क्या थे? (बाहरी अच्छे व्यवहार।)
कुछ मसीह-विरोधी बेनकाब होने और अपने सभी बुरे कर्मों के सामने आ जाने के बाद, भाई-बहनों को देखकर कहते हैं, “मुझे लगता है परमेश्वर ने हाल ही में मुझे प्रबुद्ध और रोशन किया है, और मैं वाकई बहुत अच्छी स्थिति में हूँ। मुझे अपने पिछले क्रियाकलापों को लेकर गहरी घृणा महसूस होती है, और मैंने अपने भाई-बहनों को जो नुकसान पहुँचाया है, उसे कभी नहीं भूल पाऊँगा। मुझे बहुत दुख है।” ऐसा बोलते हुए, उनकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं और यहाँ तक कि वे भाई-बहनों को उन्हें काटने-छाँटने के लिए भी कहते हैं, “मेरे कमजोर पड़ने की चिंता मर करना। अगर मैं तुम्हें कुछ भी गलत करते दिखूँ, तो मुझे काट-छाँट देना, मैं इसे स्वीकार सकता हूँ—मैं इसे परमेश्वर से स्वीकार सकता हूँ; मैं तुम लोगों से कोई दुश्मनी नहीं रखूँगा।” वे भाई-बहनों द्वारा काटे-छाँटे जाने से हठपूर्वक इनकार करने, प्रतिरोध करने और अवहेलना करने, खुद को सही ठहराने लिए बहस करने और आक्रोश से भरे होने से लेकर सक्रियता से काटे-छाँटे जाने की माँग करने तक पहुँच गए हैं। उनके रवैये में बहुत तेजी से बदलाव हुआ है, है ना? क्या इसका मतलब यह है कि उन्हें पछतावा है? इस रवैये के आधार पर, ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने आप को बदला है, तो तुम्हें उन्हें काटना-छाँटना चाहिए। ऐसा करने से उन्हें अतीत में की गई गलतियों का एहसास हो सकता है और खुद को जानने में मदद मिल सकती है। उस पल, तुम्हें थोड़ी ईमानदारी दिखाते हुए उनकी मदद करनी चाहिए और कहना चाहिए, “मैं देख सकता हूँ कि आजकल तुम्हारा व्यवहार काफी अच्छा हो गया है। मैं तुमसे दिल से बात करूँगा। अगर मैं कुछ गलत कहता हूँ, और तुम इसे स्वीकार नहीं सकते, तो इस पर ध्यान मत देना; अगर तुम मेरी बात को सही मानते हो, तो इसे परमेश्वर से स्वीकार करना। मेरा इरादा तुम्हारी मदद करने का है, न कि जब तुम कमजोर हो तब तुम्हें नीचे गिराने या तुम पर हमला करने का। आओ, हम एक-दूसरे से दिल खोलकर बात करें और संगति करें। जब तुम अगुआ के रूप में काम करते थे, तो तुम अकड़कर घूमते रहते थे और अपनी गलतियों को स्वीकारने से इनकार करते थे; भले ही तुम बाहरी तौर पर कुछ गलतियों को स्वीकारते थे, मगर वास्तव में तुमने अंदर से कोई गलती स्वीकार नहीं की—और बाद में, जब वैसी ही समस्या तुम्हारे सामने दोबारा आई, तो भी तुमने पहले की तरह ही व्यवहार किया। उदाहरण के लिए, आओ उस पिछली घटना के बारे में बात करते हैं। तुम्हारी गैर-जिम्मेदारी के कारण, कुछ गलत हुआ और परमेश्वर के घर की संपत्तियों को भारी नुकसान हुआ। तुम्हारी गैर-जिम्मेदारी के कारण अनेक भाई-बहन गिरफ्तार हुए और उन्हें जेल भी जाना पड़ा, और इसके लिए उन्हें कीमत चुकानी पड़ी। क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए? तुम उस घटना के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार व्यक्ति थे, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के सामने आकर अपने पापों को स्वीकारना चाहिए और पश्चात्ताप करना चाहिए। वास्तव में, अगर तुम अपनी गलती स्वीकारते हो, तो ज्यादा-से-ज्यादा परमेश्वर इसे एक अपराध के रूप में देखेगा, और इससे भविष्य में तुम्हारे सत्य के अनुसरण पर कोई असर नहीं पड़ेगा। भाई-बहन भी तुम्हारे साथ उचित व्यवहार कर पाएँगे और तुम्हें परमेश्वर के घर के सदस्य के रूप में देख पाएँगे; वे तुम्हारा बहिष्कार नहीं करेंगे या तुम पर हमला नहीं करेंगे। यह सच है कि व्यक्ति का सब कुछ परमेश्वर के हाथों में होता है, लेकिन अगर तुम कभी सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो परमेश्वर यकीनन तुमसे घृणा करेगा और तुम्हें त्याग देगा, और तब तुम विनाश का लक्ष्य बन जाओगे। अगर तुम परमेश्वर के कार्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित होते हो और वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हो, तो परमेश्वर तुम्हारे पिछले अपराधों को याद नहीं रखेगा और तुम अभी भी एक ऐसे व्यक्ति होगे जो परमेश्वर के सामने सत्य का अनुसरण करता है। हम परमेश्वर से माफी या क्षमा नहीं माँगते हैं, मगर कम से कम, हमें वह करना चाहिए जो मनुष्यों को करना चाहिए; यह हरेक सृजित प्राणी की जिम्मेदारी और कर्तव्य है, और यही वह मार्ग है जिस पर हम सभी को चलना चाहिए।” ये सच्ची बातें हैं, है ना? क्या इनमें कोई नकल या चालाकी है? क्या इनमें कोई व्यंग्य या उपहास है? (नहीं।) ये सिर्फ दिल से निकले हुए शब्द हैं, जो शांति से, और लोगों की मदद करने और उन्हें शिक्षित करने के सिद्धांत के अनुरूप बोले गए हैं। ये शब्द सही हैं; इनके भीतर अभ्यास का मार्ग और साथ ही खोजने के लिए सत्य भी है। लेकिन, क्या मसीह-विरोधी इन शब्दों को स्वीकार सकते हैं? क्या वे इन्हें सत्य के रूप में समझकर उनका अभ्यास कर सकते हैं? (वे नहीं कर सकते।) वे इन शब्दों पर कैसी प्रतिक्रिया देंगे? “अभी भी, तुम लोग मेरी गलती के पीछे पड़े हो, इसे भूलना नहीं चाहते, हुँह? परमेश्वर भी लोगों के पिछले अपराधों को याद नहीं रखता, तो फिर तुम लोग हमेशा मेरे पीछे क्यों पड़े रहते हो? तुम कहते हो कि तुम मुझसे दिल से बात करना चाहते हो और तुम मेरी मदद कर रहे हो। यह किस तरह की मदद है? जाहिर है कि यह गड़े मुर्दे उखाड़ने और मुझे जिम्मेदार ठहराने की कोशिश है। तुम बस मुझे जिम्मेदारी लेने के लिए मजबूर करने की कोशिश कर रहे हो, है ना? क्या अकेला मैं ही उस घटना के लिए जिम्मेदार हूँ? सब कुछ परमेश्वर के हाथों में है, यानी इसका जिम्मेदार वही है। जब वह घटना हुई, तो परमेश्वर ने हमें इसके बारे में कोई संकेत क्यों नहीं दिया? क्या यह परमेश्वर द्वारा आयोजित नहीं है? तो फिर, तुम मुझे कैसे दोषी ठहरा सकते हो?” उन्होंने अपने मन की बात कही है, है ना? उनकी समस्या कहाँ है? बाहर से ऐसा लगता है कि वे बदल गए हैं और विनम्र हो गए हैं; वे पहले की तुलना में बहुत बेहतर व्यवहार करते दिखाई देते हैं, मानो कि वे अब रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे नहीं भागते और शांति से बैठकर किसी से बात कर सकते हैं, और दिल खोलकर बातें कर सकते हैं। तो वे अभी भी ऐसा कुछ कैसे कह सकते हैं? इसमें क्या समस्या देखी जा सकती है? (यही कि जिस तरह से उन्होंने काम किया वह सिर्फ उनका पैदा किया हुआ भ्रम था ताकि वे वापसी कर सकें।) और क्या? (वे वास्तव में खुद को बिल्कुल नहीं जानते हैं, और ये सच्चा पश्चात्ताप नहीं दिखाते हैं। यह सब बस एक तरह का पाखंडी व्यवहार है। जब दूसरे लोग उनकी समस्याओं के बारे में उनसे संगति करते हैं, तब भी वे सत्य को स्वीकारने में असमर्थ होते हैं। यह स्पष्ट है कि उनका प्रकृति सार सत्य के प्रति वैर-भाव वाला है।) इसमें दो बातें बहुत स्पष्ट हैं। पहली, जब कोई मसीह-विरोधी अपना रुतबा खोता है तो उसकी एक स्थिति यह होती है, “जहाँ जीवन है वहाँ आशा है”—वह हमेशा वापसी करने के लिए तैयार रहता है। दूसरी बात यह है कि जिस गलत मार्ग पर वह पहले चल रहा था और जो अपराध उसने किए थे, उनको लेकर, मसीह-विरोधी कभी भी ईमानदारी से आत्म-चिंतन नहीं करेगा। मसीह-विरोधी लोग अपनी गलतियों या सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे, और अपने बुरे कामों के तथ्यों से अपने सार को तो और भी नहीं समझ पाएँगे या सत्य के अनुसार अभ्यास करने के तरीके को सारांशित नहीं करेंगे। जब उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है और वे अपना रुतबा खो देते हैं, तो वे यह नहीं सोचते, “मैंने आखिर क्या गलत किया? मुझे कैसे पश्चात्ताप करना चाहिए? अगर इस तरह की घटना फिर से होती है, तो मुझे परमेश्वर के इरादे के अनुरूप कैसे काम करना चाहिए?” उनमें खुद को बदलने का यह रवैया नहीं होता। भले ही उन्हें काट-छाँट दिया जाए, और भले ही उन्हें बर्खास्त कर दिया जाए, फिर भी वे पीछे नहीं मुड़ेंगे और सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे, अभ्यास का मार्ग नहीं खोजेंगे या अपने अनुसरण की दिशा नहीं बदलेंगे। चाहे वे परमेश्वर के घर को कितना भी भारी नुकसान पहुँचाएँ और चाहे कितना भी नीचे गिरें, वे कभी भी अपने पापों को स्वीकार नहीं करेंगे। उनकी विफलताएँ उन्हें आने वाले समय में सत्य का अनुसरण करने और सत्य खोजने के लिए प्रेरित नहीं करेंगी; इसके बजाय, वे यह हिसाब लगाएँगे कि सब कुछ बचाने और अपना खोया हुआ रुतबा वापस पाने के लिए क्या कर सकते हैं। ये दो बिंदु हैं। पहला बिंदु, अपना रुतबा खोने के बाद की उनकी स्थिति होती है, जो लगातार वापसी के लिए तैयार रहती है। दूसरा बिंदु, वे जिस गलत मार्ग पर चल रहे थे उसे वे स्वीकारने या समझने से इनकार करते हैं। इस दूसरे बिंदु के भीतर, वे जिस गलत मार्ग पर चल रहे थे उसे न समझना इसका एक हिस्सा है; इसके अलावा, वे बिल्कुल भी ईमानदारी से पश्चात्ताप नहीं करेंगे, न ही सत्य को स्वीकारेंगे, और वे निस्संदेह पछतावे से भरे हुए दिलों से परमेश्वर के घर को हुए नुकसान की भरपाई नहीं करेंगे। वे इस बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचेंगे कि खुद को कैसे बदला जाए, और सत्य का अनुसरण न करने वालों से सत्य का अनुसरण और अभ्यास करने वाले लोग कैसे बना जाए। ये दो बिंदु स्पष्ट करते हैं कि मसीह-विरोधी सत्य से विमुख हैं और वे प्रकृति से दुष्ट हैं; वे गिरगिट की तरह रंग बदलकर खुद को छिपाने और अपने परिवेश के अनुकूल ढलने में काफी अच्छे हैं। उनका सार अस्थिर होता है, और उनके दिलों की गहराई में, रुतबा पाने की उनकी कोशिश और उनकी महत्वकांक्षाएं और इच्छाएँ कभी शांत नहीं होतीं, और न ही कभी ये बदलेंगी। कोई उन लोगों को नहीं बदल सकता। इन अभिव्यक्तियों को देखा जाए तो, इस तरह के व्यक्ति का प्रकृति सार क्या है? मसीह-विरोधी कोई भाई होता है या बहन? क्या मसीह-विरोधी एक वास्तविक व्यक्ति है? (नहीं।) अगर तुम सब इन लोगों को भाई-बहनों की तरह देखते हो, तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि तुम सब निहायत ही बेवकूफ हो? ये अभिव्यक्तियाँ एक मसीह-विरोधी के सार के खुलासे हैं। जब मसीह-विरोधियों के पास कोई रुतबा नहीं होता, तो वे इस तरह की स्थिति में होते हैं; अपने दिलों में वे जो हिसाब लगाते हैं, उनके खुलासे, उनका बाहरी व्यवहार, और उनके दिलों की गहराइयों में सत्य और अपने अपराधों के प्रति जिस तरह का रवैया होता है वह ऐसा ही होता है, और उनका दृष्टिकोण नहीं बदलेगा। चाहे तुम सत्य पर कितनी भी संगति करो या अभ्यास के उचित, सकारात्मक मार्गों के बारे में बोलो, वे वास्तव में इसे कभी भी अंतरमन से स्वीकार नहीं करेंगे; इसके बजाय, वे इसका प्रतिरोध करेंगे। वे यहाँ तक मानेंगे, “खैर, अब मेरे पास रुतबा नहीं रहा, तो मेरे कुछ कहने का कोई महत्व नहीं है। अब कोई मेरा समर्थन नहीं करता; तुम लोग सिर्फ मेरा मजाक उड़ाना और मुझे सबक सिखाना चाहते हो। क्या तुम मुझे सबक सिखाने के काबिल भी हो? आखिर समझते क्या हो खुद को? जब मैं अगुआ बना था, तब तुमने चलना भी नहीं सीखा था! तुम जो गिनी-चुनी बातें कहते हो, क्या वो तुमने मुझसे ही नहीं सीखी हैं? और अब तुम मुझे ही सबक सिखाने की कोशिश कर रहे हो। तुम वाकई यह नहीं जानते कि ब्रह्मांड में तुम्हारी क्या जगह है!” उन्हें लगता है कि उन्हें काटने-छाँटने, उनसे बोलने, उनसे बातचीत करने या उनसे दिल खोलकर बातें करने के लिए लोगों के पास एक खास वरिष्ठता होनी जरूरी है। ये किस तरह के लोग हैं? केवल मसीह-विरोधी ही ऐसी बातें कह सकते हैं; सामान्य लोग, और जिनमें थोड़ी भी शर्म और थोड़ी तार्किकता है, वे कभी भी ऐसी बातें नहीं कहेंगे। अगर कोई तुम लोगों को धर्मोपदेश सुना रहा है, शांति से दिल खोलकर बातें कर रहा है, और तुम लोगों की समस्याएँ बताते हुए तुम्हें कुछ सुझाव दे रहा है, तो क्या तुम लोग इसे स्वीकार पाओगे? या फिर तुम्हारी भी मानसिकता एक मसीह-विरोधी जैसी ही होगी? उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम 10 सालों से विश्वासी रहे हो, मगर कभी अगुआ के रूप में काम नहीं किया। किसी दूसरे व्यक्ति को विश्वासी बने सिर्फ दो साल हुए हैं, मगर उसका रुतबा तुमसे ऊँचा है, और तुम इस बात से परेशान हो। मान लो कि तुमने 20 सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया और आखिरकार एक जिले के अगुआ बन गए। कोई और व्यक्ति केवल पाँच सालों तक विश्वास रखने के बाद ही क्षेत्रीय अगुआ बन जाता है और तुम्हारा मार्गदर्शन करने लगता है, और तुम इसे स्वीकार नहीं पाते। अगर वह तुम्हें काटता-छाँटता है, तो तुम असहज महसूस करते हो, और भले ही उसका काटना-छाँटना सही हो, पर तुम इसे स्वीकार नहीं करना चाहते। क्या तुम लोगों का कभी इस तरह का रवैया या अभिव्यक्तियाँ रही हैं? (हाँ, रही है।) यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है। क्या तुम्हें यह लगता है कि केवल मसीह-विरोधियों में ही मसीह-विरोधियों जैसा स्वभाव होता है? जिस किसी में भी मसीह-विरोधियों जैसा स्वभाव है, वह खतरे में है, वह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल सकता है, और हो सकता है कि यह स्वभाव उसे नष्ट कर दे। चीजें ऐसी ही हैं। जब हम मसीह-विरोधियों के सार पर संगति करते हैं और उसका गहन-विश्लेषण करते हैं, तो इसमें वे लोग भी शामिल होते हैं जिनमें मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है। तुम लोगों को क्या लगता है कि इसमें शामिल लोग कम संख्या में हैं या ऐसे बहुत सारे लोग हैं? या इसमें सभी लोग शामिल हैं? (इसमें सभी लोग शामिल हैं।) सही बात है, ऐसा इसलिए क्योंकि मसीह-विरोधी का स्वभाव शैतान का स्वभाव है, और सभी भ्रष्ट मनुष्यों में शैतान का स्वभाव होता है। अब, हमने इस विषय पर थोड़ी संगति कर ली है कि मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने के प्रति कैसा व्यवहार करते हैं। ज्यादा विस्तार से बताने के लिए, कुछ ठोस उदाहरण दिए जा सकते हैं। मैं इसे तुम लोगों पर छोड़ता हूँ ताकि तुम अपनी सभाओं के दौरान इस पर संगति करो। संगति करने के दौरान केवल इस बारे में बात मत करना कि दूसरे लोग कैसे हैं। बेशक, दूसरों की अभिव्यक्तियों पर संगति करना बेहद जरूरी है, मगर तुम लोगों को मुख्य रूप से अपनी अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करनी चाहिए। अगर तुम लोग अपने भीतर कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों और खुलासों का पता लगा सकते हो जो मसीह-विरोधी के स्वभाव से जुड़े हैं, तो यह तुम्हारे आत्म-ज्ञान के लिए सहायक और लाभकारी होगा, और यह उस स्वभाव से छुटकारा पाने में तुम लोगों की मदद करेगा।
हमने पहले भी मसीह-विरोधी के स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियों के विषय पर संगति की है—क्या अब तुम लोग उनसे अपनी तुलना कर सकते हो? क्या तुम लोग कुछ समझ हासिल कर पाए हो? क्या तुम कुछ वास्तविक समस्याओं को हल कर सकते हो? चाहे तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव के किसी भी पहलू को बदलो, यह सब सत्य को समझने, खुद की सत्य से तुलना करने और फिर खुद को समझने की नींव पर हासिल होता है। इसलिए, अगर तुम खुद को पहचानना चाहते हो और स्वभाव में बदलाव लाना चाहते हो, तो तुम्हें भ्रष्ट स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियों को समझने और उनका गहन-विश्लेषण करने के मार्ग पर चलना होगा। क्या तुम लोग अब इस बात को समझ पाए हो? हो सकता है कि तुममें से कुछ लोग नहीं समझ पाए हों, और सोच रहे हों, “तुम हमेशा इन छोटे-मोटे विषयों और चीजों पर संगति करते रहते हो; तुम कभी कुछ गहन सत्यों के बारे में बात नहीं करते या किसी गहन रहस्यों का खुलासा नहीं करते। यह बहुत उबाऊ और थकाऊ है! तुम जिन चीजों पर संगति कर रहे हो उनका स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, महान आशीष पाने और भविष्य में पूर्ण बनाए जाने से क्या लेना-देना है?” ये लोग कभी नहीं समझते; ये बातें सुनते ही उन्हें नींद आने लगती है। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं है, वे इसे नहीं समझ पाते; हरेक सत्य हमें जिन विभिन्न मानवीय दशाओं के बारे में बताता है वे उन्हें नहीं समझ पाते, न ही वे विभिन्न सत्यों के बीच के संबंधों को समझ पाते हैं। वे इन बातों को नहीं समझते। तुम उन्हें जितना विस्तार से समझाओगे, वे उतने ही ज्यादा उलझन में पड़ जाएँगे और उतना ही कम समझ पाएँगे, इसलिए उन्हें हमेशा नींद आ जाती है। जब कोई सभा शुरू होती है, तो वे नाचते-गाते दिखाई देते हैं, और नियम और समारोह कितने ही नीरस या दोहराव वाले क्यों न हों, उन्हें नींद नहीं आती। लेकिन, जैसे ही तुम सत्य और लोगों की विभिन्न दशाओं पर संगति करना शुरू करते हो, उन्हें नींद आने लगती है। उन लोगों के साथ क्या हो रहा है जो हमेशा इस तरह से नींद में रहते हैं? क्या वे बेनकाब नहीं हो गए हैं? यह सत्य से प्रेम न करने की अभिव्यक्ति है, है ना? जब जीवन प्रवेश से संबंधित विभिन्न सत्यों के विवरण की बात आती है तो जो लोग ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करते हैं और जिनके पास थोड़ी काबिलियत होती है, वे उनके बारे में जितना ज्यादा सुनते हैं उतना ही बेहतर समझते हैं, जबकि जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है वे उनके बारे में जितना ज्यादा सुनते हैं उतना ही उलझन में पड़ जाते हैं। वे जितना ज्यादा सुनते हैं, उन्हें वह उतना ही उबाऊ लगता है, और चाहे वे कितना भी सुनें, उन्हें अभी भी ऐसा ही लगता है; वे उसमें कोई मार्ग नहीं सुन पाते। उन्हें लगता है कि जीवन प्रवेश से संबंधित मामले वास्तव में इतने जटिल नहीं हैं, तो उन पर इतनी संगति करने की कोई जरूरत नहीं है। जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं होती वे लोग ऐसे ही होते हैं। स्वभाव में बदलाव लाने के लिए बहुत से सत्य चाहिए। अगर, अपने स्वभाव को बदलने की कोशिश के मार्ग पर, लोग प्रत्येक सत्य के लिए समय व्यतीत नहीं करते और कोशिश नहीं करते, प्रत्येक सत्य की समझ, बोध और ज्ञान हासिल नहीं करते, और अभ्यास का कोई मार्ग नहीं खोजते, तो वे यकीनन किसी भी सत्य में प्रवेश नहीं कर पाएँगे। लोग किस तरीके से परमेश्वर को जान सकते हैं? वे विभिन्न सत्यों को समझकर और उनमें प्रवेश करके परमेश्वर को जान सकते हैं; यही एकमात्र तरीका है। इसके अलावा, प्रत्येक सत्य किसी तरह का सिद्धांत या कोई ज्ञान या फलसफा नहीं है; इसका संबंध लोगों के जीवन और उनके अस्तित्व की स्थिति, उनकी दशाओं और वे हर दिन क्या सोचते हैं, और उन विभिन्न विचारों, सोच, इरादों और रवैयों से है जो उनके अपने भ्रष्ट सार के प्रभाव में उत्पन्न होते हैं। तो, ये वे विषय हैं जिनके बारे में हम बात कर रहे हैं। जब तुम इन विषयों को समझ जाओगे, उन्हें खुद से जोड़ पाओगे, अभ्यास के सिद्धांत खोज लोगे, और अपने विभिन्न स्वभावों से उत्पन्न होने वाली विभिन्न स्थितियों और दृष्टिकोणों को जान लोगे, तब तुम वास्तव में उनसे संबंधित सत्यों को समझ चुके होगे, और केवल तभी तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार सटीक रूप से अभ्यास करने में सक्षम होगे। अगर तुम केवल शाब्दिक अर्थ समझते हो, और जब परमेश्वर मसीह-विरोधियों के स्वार्थ और घिनौनेपन का खुलासा करता है, तब तुम यह सोचते हो, “मसीह-विरोधी स्वार्थी और घिनौने होते हैं, मगर मैं काफी निस्वार्थ हूँ; मेरे पास देने के लिए बहुत सारा प्यार है, मैं सहनशील हूँ, मैं विद्वानों के परिवार में पैदा हुआ हूँ, मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की है, और मैं जानी-मानी हस्तियों और उत्कृष्ट कृतियों से प्रभावित हूँ, मैं कोई स्वार्थी व्यक्ति नहीं हूँ”—तो क्या ये बातें कहना सत्य स्वीकारना है? क्या यह खुद को जानना है? जाहिर है कि तुम इस सत्य को या इस विशेष सत्य में शामिल विभिन्न स्थितियों को नहीं समझते हो। जब तुम परमेश्वर द्वारा बोली गई और उजागर की गई उन विभिन्न स्थितियों को समझ जाओगे जो एक विशेष सत्य में शामिल होती हैं, और खुद की उनसे तुलना करसकोगे और अभ्यास के सटीक सिद्धांतों को खोज सकोगे, तब तुम सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर चल पड़ोगे, और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। अगर तुमने ऐसा नहीं किया है तो तुमने केवल एक धर्म-सिद्धांत को समझा है; तुमने सत्य को नहीं समझा है। यह उस विषय की तरह है जिसके बारे में हमने अभी-अभी बात की है—मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने के प्रति कैसा व्यवहार करते हैं। हमने जिन विभिन्न स्थितियों, अभिव्यक्तियों और खुलासों पर संगति की है, वे सभी मसीह-विरोधी के प्रकृति सार और स्वभाव से संबंधित हैं। इनमें से तुम कितनों को समझते हो? उनमें से कितनों से तुमने अपनी तुलना की है? क्या इस विषय में शामिल बातें, विवरण और स्थितियाँ जो तुमने समझी हैं, वे दूसरे लोगों से संबंधित हैं या फिर तुमसे? क्या तुम्हारा इन स्थितियों से कोई संबंध है? क्या तुमने वास्तव में उन्हें खुद से जोड़कर देखा है, या अनिच्छा से उन्हें स्वीकार किया और उनसे सहमत हुए हो? यह तुम्हारी समझ और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करता है। इन स्थितियों को खुद से जोड़ना तुम्हारे लिए सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होने के लिए केवल एक जरूरी शर्त है; इसका मतलब यह नहीं है कि तुम पहले ही इसका अभ्यास करना शुरू कर चुके हो। लेकिन, अगर तुम इन स्थितियों को खुद से नहीं जोड़ सकते तो सत्य का अभ्यास करने से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं होगा। ऐसा होने पर, जब तुम धर्मोपदेश सुनोगे तो तुम्हें क्या सुनाई देगा? तुम बस बहाने बनाओगे; ऐसा लगेगा कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, मगर तुम वास्तव में उसके वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं कर रहे होगे, और न ही तुम उसके वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। तुम केवल एक आम आदमी, सेवा करने वाले या एक विषमता होगे। जब यह बात आती है कि तुम्हें खुद की तुलना इन स्थितियों से कैसे करनी चाहिए और मेरी कही हुई बातों से संबंधित विभिन्न स्थितियों का गहन-विश्लेषण किस तरह से करना चाहिए, तो यह तुम लोगों के अपने ज्ञान पर निर्भर करता है। मैं बस इतना ही कर सकता हूँ कि तुम्हें ये वचन बता दूँ और इनसे तुम लोगों का पोषण करूँ, बाकी के लिए तुम लोगों को खुद ही कोशिश करनी होगी। तुम लोग इन वचनों को स्वीकार पाओगे या नहीं, यह तुम्हारे रवैये पर निर्भर करता है। कुछ लोग अपने दिल में हठी होते हैं; वे हमेशा बहाने बनाते हैं और अपना रुतबा और प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश करते रहते हैं। जाहिर है कि उनमें समस्याएँ हैं, मगर वे इन समस्याओं को नहीं देख पाते और उन्हें स्वीकार नहीं करते, और यहाँ तक कि वे दूसरों को उजागर करने और उनका गहन-विश्लेषण करने का काम भी अपने ऊपर ले लेते हैं। इस वजह से, उन दूसरे लोगों का फायदा होता है, जबकि वे खुद कुछ हासिल नहीं करते। ये लोग बेवकूफ हैं, है ना? यह मूर्खों जैसा व्यवहार है। धर्मोपदेश सुनने का उद्देश्य दूसरे लोगों को पहचानना सीखना नहीं है, न ही दूसरे लोगों के लिए सुनना है; इसका उद्देश्य खुद सुनकर इसमें कही गई बातों को समझना है। तुम परमेश्वर के वचन, सत्य और धर्मोपदेश सुनते हो, और इन सबसे तुम सत्य को समझते हो, जीवन प्राप्त करते हो, और अपने स्वभाव में बदलाव लाते हो। क्या इसका दूसरे लोगों से कोई लेना-देना है? इन वचनों का संबंध तुमसे है। अगर तुम इस तरह का रवैया अपनाते हो, तो शायद ये वचन तुम्हें बदल सकें, तुम्हारी वास्तविकता बन जाएँ, और तुम्हें अपने स्वभाव में बदलाव लाने में सक्षम बना दें।
इस पहले विषय में, हमने विभिन्न अभिव्यक्तियों के बारे में बातचीत की कि मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने के प्रति किस तरह का व्यवहार करते हैं। जब इस मसले की बात आती है, तो इस विषय पर संगति करने से एक ओर, तुम सबको मसीह-विरोधियों के रवैये और उनके प्रकृति सार के खुलासों को समझने में मदद मिलती है; वहीं दूसरी ओर, यह तुम लोगों को कुछ सकारात्मक मार्गदर्शन और चेतावनियाँ भी देता है। तुम लोग बाकी बची समस्याओं पर संगति करके उन्हें खुद ही हल कर सकते हो; वे तुम लोगों के अपने मामले हैं।
2. मसीह-विरोधी अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों के साथ कैसे पेश आते हैं
जब अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने के संबंध में मसीह-विरोधियों की इच्छा की बात आती है, तो वे काट-छाँट किए जाने के दौरान न केवल अपने प्रकृति सार को प्रदर्शित और प्रकट करते हैं, बल्कि मसीह-विरोधी लोग कई अन्य प्रकार की स्थितियों और मामलों का भी सामना करते हैं। इसलिए, दूसरा विषय जिस पर हम संगति करेंगे, वह यह है कि मसीह-विरोधी लोगों के समूहों के बीच अपना रुतबा और प्रतिष्ठा कैसे बनाए रखते हैं। लोगों के समूह के बीच, मसीह-विरोधी ऐसे कौन से व्यवहार प्रदर्शित करते हैं जो यह दर्शा सकता है कि वे जो कुछ भी करते हैं उसमें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने की कोशिश कर रहे होते हैं? क्या यह विषय स्पष्ट है? इसका दायरा बड़ा है या छोटा? क्या यह किसी का प्रतिनिधित्व करता है? (यह प्रतिनिधित्व करता है।) यह विषय सीधे मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार से संबंधित है। लोगों के समूहों के बीच रहते हुए मसीह-विरोधी कौन सी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं? अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा के लिए वे किस तरह का रवैया अपनाते है और कौन-से क्रियाकलाप करते हैं? पहली बात, अगर मसीह-विरोधियों के पास कोई रुतबा नहीं है, तो क्या वे फिर भी मसीह-विरोधी कहलाएँगे? (हाँ।) तुम्हें इस सिद्धांत की स्पष्ट समझ होनी चाहिए। ऐसा मत सोचो कि केवल रुतबे वाले लोगों में ही मसीह-विरोधियों का सार हो सकता है और वे ही मसीह-विरोधी हो सकते हैं, या बिना रुतबे वाले साधारण लोग मसीह-विरोधी नहीं होते। इसका दायरा वास्तव में बहुत बड़ा है। जिस व्यक्ति में भी मसीह-विरोधियों का सार है, वह मसीह-विरोधी है, फिर चाहे उसके पास रुतबा हो या न हो, और चाहे वह कोई अगुआ हो या कोई साधारण विश्वासी; यह उसके सार से निर्धारित होता है। तो, मसीह-विरोधी के सार वाले लोग साधारण विश्वासी होते हुए भी कौन-सी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं? उनके प्रकृति सार के कौन-से खुलासे इस बात का पर्याप्त सबूत है कि वे वास्तव में मसीह-विरोधी हैं? सबसे पहले, आओ देखें कि वे लोगों के समूहों के बीच कैसे रहते हैं, दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, और सत्य के प्रति उनका रवैया कैसा होता है। जिसके बारे में सबसे ज्यादा संगति करनी चाहिए, वह यह नहीं है कि मसीह-विरोधी क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं, कहाँ रहते हैं, या कैसे घूमते-फिरते हैं, बल्कि यह है कि वे समूहों में रहते हुए अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा कैसे करते हैं। भले ही वे साधारण विश्वासी हों, फिर भी वे लगातार अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने की कोशिश करते हैं, लगातार इस तरह के स्वभाव और सार को प्रकट करते हैं, और इस तरह की चीजें करते हैं। इस तरह, इससे हमें मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। मसीह-विरोधियों के पास चाहे रुतबा हो या न हो, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कब या कहाँ रहते हैं, मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार हमेशा उनमें प्रकट और अभिव्यक्त होता रहता है। यह किसी स्थान, भूगोल या लोगों, घटनाओं और चीजों तक सीमित नहीं है।
जब मसीह-विरोधी लोग कोई कर्तव्य निभाते हैं, चाहे वे कोई भी हों और जिस किसी भी समूह में हों, वे एक अलग तरह का आचरण प्रदर्शित करते हैं, जो यह है कि हर चीज में, वे हमेशा अलग दिखना चाहते हैं और खुद को प्रदर्शित करना चाहते हैं, वे हमेशा लोगों को बेबस और काबू में करना चाहते हैं, हमेशा लोगों की अगुआई करना और सभी फैसले खुद लेना चाहते हैं, वे हमेशा सुर्खियों में बने रहना चाहते हैं, हमेशा लोगों की नजर और ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं, और सभी से प्रशंसा पाना चाहते हैं। जब भी मसीह-विरोधी किसी समूह में शामिल होते हैं, चाहे उसमें कितने भी लोग हों, या समूह के सदस्य कोई भी हों, या उनका पेशा या पहचान चाहे कुछ भी हो, मसीह-विरोधी सबसे पहले यह देखने के लिए चीजों का जायजा लेते हैं कि कौन रोबदार और उत्कृष्ट है, कौन वाक्पटु है, कौन प्रभावशाली है, और कौन सुयोग्य या प्रतिष्ठित है। वे मूल्यांकन करते हैं कि वे किसे हरा सकते हैं और किसे नहीं, साथ ही कौन उनसे बेहतर है और कौन कमतर है। सबसे पहले वे इन्हीं चीजों पर ध्यान देते हैं। स्थिति का तुरंत आकलन करने के बाद, वे उन लोगों को अलग रखते हुए और नजरअंदाज करते हुए काम करना शुरू कर देते हैं जो फिलहाल उनके नीचे हैं। वे सबसे पहले उन लोगों के पास जाते हैं जिन्हें वे वरिष्ठ मानते हैं, जिनके पास थोड़ी प्रतिष्ठा और रुतबा है, या जिनके पास खूबियाँ या प्रतिभा है। सबसे पहले वे इन लोगों से अपनी तुलना करते हैं। अगर इनमें से किसी का भी भाई-बहन सम्मान करते हैं, या कोई लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहा है और अच्छे पद पर है, तो वह मसीह-विरोधियों की ईर्ष्या का लक्ष्य बन जाता है, और जाहिर है कि तब उसे प्रतिस्पर्धी की तरह देखा जाता है। फिर, मसीह-विरोधी चुपचाप खुद की तुलना उन लोगों से करते हैं जिनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है, और जो भाई-बहनों की प्रशंसा पते हैं। वे ऐसे लोगों पर विचार करना शुरू कर देते हैं, पता लगाते हैं कि वे क्या कर सकते हैं और उन्होंने किस चीज में महारत हासिल की है, और क्यों कुछ लोग उनका सम्मान करते हैं। निरीक्षण करते-करते, मसीह-विरोधियों को पता चलता है कि ये लोग किसी खास पेशे के विशेषज्ञ हैं, और साथ ही हर कोई उन्हें ऊँची नजरों से इसलिए देखता है क्योंकि वे लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास कर रहे हैं और वे कुछ अनुभवजन्य गवाही साझा कर सकते हैं। मसीह-विरोधी ऐसे लोगों को “शिकार” मानते हैं और उन्हें विरोधियों की तरह देखते हैं, और फिर वे कार्य योजना बनाते हैं। कैसी कार्य योजना? वे उन पहलुओं को देखते हैं जहाँ वे अपने विरोधियों से मेल नहीं खाते और फिर उन पहलुओं पर काम करना शुरू करते हैं। जैसे कि, अगर वे किसी पेशे में उनके जितने अच्छे नहीं हैं, तो वे ज्यादा किताबें पढ़कर, सभी तरह की जानकारी ढूँढकर, और दूसरों से विनम्रतापूर्वक ज्यादा निर्देश माँगकर उस पेशे का अध्ययन करेंगे। वे उस पेशे से संबंधित हर तरह के काम में भाग लेंगे, धीरे-धीरे अनुभव हासिल करेंगे और अपनी शक्ति विकसित करेंगे। और जब उन्हें लगता है कि उनके पास अपने विरोधियों से मुकाबला करने के लिए पर्याप्त पूंजी है, तो वे अक्सर अपने “शानदार विचार” व्यक्त करने के लिए आगे आते हैं, जानबूझकर अपने विरोधियों का खंडन करते हैं, उन्हें नीचा दिखाते हैं, उन्हें शर्मिंदा करते हैं और उनका नाम खराब करते हैं; इस तरह वे दर्शाते हैं कि वे कितने चालाक और असाधारण हैं, और साथ ही अपने विरोधियों को दबाते भी हैं। स्पष्ट दृष्टि वाले लोग इन सभी चीजों को देख सकते हैं, केवल वे लोग जो मूर्ख और अज्ञानी हैं और जिनमें विवेक की कमी है, वे नहीं देख सकते। ज्यादातर लोग केवल मसीह-विरोधियों के उत्साह, उनके अनुसरण, उनके कष्ट सहने, कीमत चुकाने और बाहरी अच्छे व्यवहार को देखते हैं, मगर असलियत मसीह-विरोधियों के दिलों की गहराई में छिपी होती है। उनका मूल उद्देश्य क्या है? रुतबा हासिल करना। उनका सारा काम, उनकी सारी मेहनत और वे जो भी कीमत चुकाते हैं वह सब, जिस लक्ष्य पर केंद्रित होता है, वह वही चीज है जिसकी वे अपने दिलों में सबसे अधिक आराधना करते हैं : यानि कि रुतबा और शक्ति।
शक्ति और रुतबा हासिल करने के लिए, मसीह-विरोधी कलीसिया में सबसे पहले दूसरों का भरोसा और सम्मान जीतने की कोशिश करते हैं, ताकि वे ज्यादा लोगों को अपने पक्ष में कर सकें, ज्यादा लोग उन्हें ऊँची नजरों से देखें और उनकी आराधना करें, और इस तरह कलीसिया में अंतिम फैसला लेने और शक्ति पाने का उनका लक्ष्य पूरा होता है। जब शक्ति हासिल करने की बात आती है, वे दूसरे लोगों से होड़ करने और लड़ने में माहिर होते हैं। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, कलीसिया में जिनकी प्रतिष्ठा है, और जिनसे भाई-बहन प्रेम करते हैं, वे उनके मुख्य प्रतिस्पर्धी होते हैं। जो कोई भी उनके रुतबे के लिए खतरा है वह उनका प्रतिस्पर्धी है। वे अपने से शक्तिशाली लोगों से बिना किसी हिचकिचाहट के होड़ करते हैं; और अपने से कमजोर लोगों से भी बिना किसी दया भाव के प्रतिस्पर्धा करते हैं। उनके दिल संघर्ष के फलसफों से भरे हुए हैं। उनका मानना है कि अगर लोग लड़ेंगे नहीं और होड़ नहीं करेंगे, तो उन्हें कोई लाभ नहीं मिल पाएगा, और वे केवल लड़कर और प्रतिस्पर्धा करके ही अपनी मनचाही चीजें हासिल कर सकते हैं। प्रतिष्ठा हासिल करने और लोगों के समूह में एक प्रमुख स्थान पाने के लिए, वे दूसरों से प्रतिस्पर्धा करने के लिए कुछ भी करते हैं, और वे ऐसे किसी भी व्यक्ति को नहीं छोड़ते जो उनके रुतबे के लिए खतरा हो। चाहे वे किसी से भी बातचीत करें, वे संघर्ष करने की इच्छा से भरे होते हैं, और यहाँ तक कि जब वे बुजुर्ग हो जाते हैं, तब भी लड़ते रहते हैं। वे अक्सर कहते हैं : “अगर मैं उस व्यक्ति से प्रतिस्पर्धा करूँ तो क्या उसे हरा पाऊँगा?” जो कोई भी वाक्पटु है, और तर्कसंगत, संरचित और व्यवस्थित ढंग से बोल सकता है, वह उनकी ईर्ष्या और उनकी नकल का लक्ष्य बन जाता है। यहाँ तक कि वह उनका प्रतिस्पर्धी बन जाता है। जो कोई भी सत्य का अनुसरण करता है और आस्था रखता है, और भाई-बहनों की लगातार मदद और सहयोग करने में समर्थ है और उन्हें नकारात्मकता और कमजोरी से उभरने में सक्षम बना सकता है, वह भी किसी ऐसे व्यक्ति की तरह मसीह-विरोधियों का प्रतिस्पर्धी बन जाता है, जो किसी खास पेशे में विशेषज्ञ है और जिसका भाई-बहन कुछ हद तक सम्मान करते हैं। जो कोई भी अपने काम में परिणाम प्राप्त करता है, और ऊपरवाले की स्वीकृति प्राप्त करता है, स्वाभाविक रूप से उनके लिए प्रतिस्पर्धा का एक बड़ा स्रोत बन जाता है। मसीह-विरोधी चाहे किसी भी समूह में हों, उनके आदर्श वाक्य क्या होते हैं? तुम लोग अपने विचार बताओ। (अन्य लोगों और स्वर्ग के साथ लड़कर बहुत मजा आता है।) क्या यह पागलपन नहीं है? यह पागलपन है। क्या कोई और भी है? (परमेश्वर, क्या वे यह नहीं सोचते कि : “सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ”? यानी कि वे सबसे ऊपर रहना चाहते हैं, और चाहे वे किसी के भी साथ हों, हमेशा उनसे आगे निकलना चाहते हैं।) यह उनके कई विचारों में से एक है। कोई और विचार? (परमेश्वर, मुझे चार शब्द याद आते हैं : “विजेता राजा होता है।” मुझे लगता है कि वे हमेशा दूसरों से बेहतर बनना चाहते हैं और अलग दिखना चाहते हैं, चाहे वे कहीं भी हों, और वे सबसे ऊपर रहने की कोशिश करते हैं।) तुम लोगों ने जो कुछ भी कहा है उनमें से ज्यादातर विचारों के प्रकार हैं; किसी प्रकार के व्यवहार का इस्तेमाल करके उनका वर्णन करने की कोशिश करो। यह जरूरी नहीं कि मसीह-विरोधी जहाँ भी हों वहाँ सबसे ऊँचा स्थान पाना चाहते हों। जब भी वे किसी स्थान पर जाते हैं, तो उनके पास एक स्वभाव और एक मानसिकता होती है जो उन्हें इस तरह काम करने के लिए मजबूर करती है। वह मानसिकता क्या है? वह यह है, “मुझे प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए! प्रतिस्पर्धा! प्रतिस्पर्धा!” तीन “प्रतिस्पर्धाएँ” क्यों, एक ही “प्रतिस्पर्धा” क्यों नहीं? (प्रतियोगिता उनका जीवन बन गई है, वे इसी के सहारे जीते हैं।) यह उनका स्वभाव है। वे ऐसे स्वभाव के साथ पैदा हुए थे, जो बेतहाशा अहंकारी है और जिसे नियंत्रित करना मुश्किल है; यानी वे खुद को किसी से भी कम नहीं समझते और बेहद अहंकारी होते हैं। कोई भी उनका यह बेहद अहंकारी स्वभाव कम नहीं कर सकता; वे खुद भी इसे नियंत्रित नहीं कर सकते। इसलिए उनका जीवन लड़ने और प्रतिस्पर्धा करने वाला होता है। वे किसके लिए लड़ते और प्रतिस्पर्धा करते हैं? स्वाभाविक रूप से, वे शोहरत, लाभ, रुतबे, नाम और अपने हितों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। चाहे उन्हें जिन भी तरीकों का इस्तेमाल करना पड़े, अगर हर कोई उनके प्रति समर्पण करता है, और अगर उन्हें अपने लिए लाभ और प्रतिष्ठा मिलती है, तो उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया होता है। प्रतिस्पर्धा करने की उनकी इच्छा कोई अस्थायी मनोरंजन नहीं होता; यह एक प्रकार का स्वभाव है, जो शैतानी प्रकृति से आता है। यह बड़े लाल अजगर के स्वभाव जैसा है, जो स्वर्ग से लड़ता है, पृथ्वी से लड़ता है, और लोगों से लड़ता है। अब, जब मसीह-विरोधी कलीसिया में दूसरों से लड़ते और प्रतिस्पर्धा करते हैं, तो वे क्या चाहते हैं? निस्संदेह, वे प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। लेकिन अगर वे रुतबा हासिल कर लेते हैं, तो इससे उन्हें क्या फायदा होता है? अगर दूसरे उनकी बात सुनते हैं, उनकी प्रशंसा और आराधना करते हैं, तो इसमें उनकी क्या भलाई है? खुद मसीह-विरोधी भी इसे स्पष्ट नहीं कर सकते। वास्तव में, उन्हें प्रतिष्ठा और रुतबे का आनंद लेना, हर एक का उन्हें देखकर मुस्कुराना, और चापलूसी और खुशामद के साथ अपना स्वागत किया जाना पसंद है। इसलिए, हर बार जब कोई मसीह-विरोधी कलीसिया जाता है, तो वह एक काम करता है : दूसरों से लड़ना और प्रतिस्पर्धा करना। सत्ता और प्रतिष्ठा प्राप्त करने के बाद भी उनका काम पूरा नहीं होता। अपनी हैसियत बचाने और अपनी सत्ता सुरक्षित रखने के लिए वे दूसरों से लड़ते और प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं। ऐसा वे मरते दम तक करते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधियों का फलसफा है, “जब तक तुम जीवित हो, लड़ना बंद मत करो।” अगर इस तरह का कोई दुष्ट व्यक्ति कलीसिया के भीतर मौजूद है, तो क्या इससे भाई-बहन परेशान होंगे? उदाहरण के लिए, मान लो कि हर कोई चुपचाप परमेश्वर के वचन खा-पी रहा है और सत्य पर संगति कर रहा है, और माहौल शांतिपूर्ण और मनोदशा खुशनुमा है। ऐसे वक्त पर, मसीह-विरोधी असंतोष से उबल रहा होगा। वह सत्य पर संगति करने वालों से ईर्ष्या और घृणा करेगा। वह उन पर आक्रमण करना और उनकी आलोचना करना शुरू कर देगा। क्या इससे शांतिपूर्ण माहौल बिगड़ेगा नहीं? वह एक दुष्ट व्यक्ति है, जो दूसरों को परेशान करने और उनसे घृणा करने आया है। मसीह-विरोधी ऐसे ही होते हैं। कभी-कभी मसीह-विरोधी उन लोगों को नष्ट या पराजित करने की कोशिश नहीं करते, जिनके साथ वे प्रतिस्पर्धा करते और जिन्हें दबाते हैं; अगर वे प्रतिष्ठा, रुतबा, गौरव और नाम हासिल कर लेते हैं और लोगों से अपनी प्रशंसा करवा लेते हैं, तो उन्होंने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया होता है। प्रतिस्पर्धा करते हुए, वे एक प्रकार का स्पष्ट शैतानी स्वभाव दिखाते हैं। यह कैसा स्वभाव है? यही कि चाहे वे किसी भी कलीसिया में क्यों न हों, वे हमेशा दूसरे लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा और लड़ाई करना चाहते हैं, वे हमेशा शोहरत, लाभ और रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं, और जब कलीसिया में अव्यवस्था और उथल-पुथल मच जाती है, जब वे रुतबा हासिल कर लेते हैं और हर कोई उनके आगे झुकता है, केवल तभी उन्हें लगता है कि उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है। यह मसीह-विरोधियों की प्रकृति है, यानी वे अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए प्रतिस्पर्धा और लड़ाई का रास्ता अपनाते हैं।
चाहे वे किसी भी समूह में क्यों न हों, मसीह-विरोधियों का आदर्श वाक्य क्या होता है? “मुझे प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए! प्रतिस्पर्धा! प्रतिस्पर्धा! मुझे सर्वोच्च और सबसे बड़ा बनने के लिए प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए!” यह मसीह-विरोधियों का स्वभाव है; वे जहाँ भी जाते हैं, प्रतिस्पर्धा करते हैं और अपने लक्ष्य हासिल करने का प्रयास करते हैं। वे शैतान के अनुचर हैं, और वे कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं। मसीह-विरोधियों का स्वभाव ऐसा होता है : वे कलीसिया के चारों ओर यह देखने से शुरुआत करते हैं कि कौन लंबे समय से परमेश्वर पर विश्वास कर रहा है और किसके पास पूँजी है, किसके पास कुछ खूबियाँ या प्रतिभाएँ हैं, कौन भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में लाभकारी रहा है, किसके पास अधिक प्रतिष्ठा है, किसमें वरिष्ठता है, किसका भाई-बहनों के बीच आदर से उल्लेख किया जाता है, किसमें अधिक सकारात्मक चीजें हैं। उन्हीं लोगों से उन्हें प्रतिस्पर्धा करनी है। संक्षेप में, हर बार जब मसीह-विरोधी लोगों के समूह में होते हैं, तो वे हमेशा यही करते हैं : वे रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, अच्छी प्रतिष्ठा के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, मामलों पर अपना अंतिम फैसला देने और समूह में निर्णय लेने का अधिकार पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिनकी प्राप्ति उन्हें खुश कर देती है। मगर क्या वे इन चीजों को हासिल करने के बाद भी कोई वास्तविक कार्य कर पाते हैं? बिल्कुल नहीं, वे वास्तविक कार्य करने के लिए प्रतिस्पर्धा या संघर्ष नहीं करते; उनका लक्ष्य दूसरों को काबू में करना होता है। “मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम मेरे सामने झुकने को तैयार हो या नहीं; पूंजी के मामले में मैं सबसे बड़ा हूँ, जहाँ तक बोलने के कौशल की बात है, मैं सबसे अच्छा हूँ, और मेरे पास सबसे अधिक खूबियाँ और प्रतिभाएँ हैं।” क्षेत्र चाहे कोई भी हो, वे हमेशा पहले स्थान पर रहने के लिए प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं। अगर भाई-बहन उन्हें सुपरवाइजर बनाते हैं तो वे अपनी बात मनवाने और निर्णय लेने के अधिकार के लिए अपने साथियों से प्रतिस्पर्धा करेंगे। अगर कलीसिया उन्हें किसी खास कार्य का प्रभारी बनाती है तो वे इस पर जोर देंगे कि इसे कैसे किया जाए इसका निर्णय वे खुद लें। वे जो कुछ भी कहते हैं और जो भी फैसले लेते हैं, उसे पूरा करने और वास्तविकता में बदलने की कोशिश करना चाहेंगे। अगर भाई-बहन किसी और के विचार को अपनाते हैं तो क्या यह बात उनकी समझ में आएगी? (नहीं।) यह मुसीबत वाली बात है। अगर तुम उनकी बात नहीं सुनते, तो वे तुम्हें सबक सिखाएँगे, तुम्हें यह महसूस कराएँगे कि उनके बिना तुम्हारा काम नहीं चल सकता, और तुम्हें यह भी दिखाएँगे कि उनकी बात न मानने के क्या परिणाम होंगे। मसीह-विरोधियों का स्वभाव इतना दंभी, घिनौना और अविवेकी होता है। उनके पास न तो जमीर होता है, न विवेक, न ही सत्य का कोई कण। मसीह-विरोधी के कार्यों और कर्मों में देखा जा सकता है कि वह जो कुछ करता है, उसमें सामान्य व्यक्ति का विवेक नहीं होता, और भले ही कोई उनके साथ सत्य के बारे में संगति करे, वे उसे नहीं स्वीकारते। तुम्हारी बात कितनी भी सही हो, उन्हें स्वीकार्य नहीं होती। एकमात्र चीज, जिसका वे अनुसरण करना पसंद करते हैं, वह है प्रतिष्ठा और रुतबा, जिसके प्रति वे श्रद्धा रखते हैं। जब तक वे रुतबे के लाभ उठा सकते हैं, तब तक वे संतुष्ट रहते हैं। वे मानते हैं कि यह उनके अस्तित्व का मूल्य है। चाहे वे किसी भी समूह के लोगों के बीच हों, उन्हें लोगों को वह “प्रकाश” और “गर्मजोशी” दिखानी होती है जो वे प्रदान करते हैं, अपनी प्रतिभाएँ, अपनी विशिष्टता दिखानी होती है। चूँकि वे मानते हैं कि वे विशेष हैं, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से सोचते हैं कि उनके साथ साधारण लोगों के मुकाबले बेहतर व्यवहार किया जाना चाहिए, कि उन्हें लोगों का समर्थन और प्रशंसा मिलनी चाहिए, कि लोगों को उन्हें सम्मान देना चाहिए, उनकी पूजा करनी चाहिए—उन्हें लगता है कि यह सब उनका हक है। क्या ऐसे लोग निर्लज्ज और बेशर्म नहीं होते? क्या ऐसे लोगों का कलीसिया में मौजूद रहना समस्या नहीं है? जब कुछ घटित होता है, तो यह सामान्य समझ की बात है कि लोगों को उसकी सुननी चाहिए जो सही बोलता हो, उसकी बात माननी चाहिए जो परमेश्वर के घर के कार्य के लिए लाभकारी सुझाव देता हो, और जिसका भी सुझाव सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हो उन्हें उसे अपनाना चाहिए। अगर मसीह-विरोधी कुछ ऐसा कहते हैं जो सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, तो हो सकता है कि बाकी सभी लोग उनकी बात न सुनें या उनके सुझाव को न अपनाएँ। ऐसे में, मसीह-विरोधी क्या करेंगे? वे खुद का बचाव करने और अपने आपको सही ठहराने की कोशिश करते रहेंगे, और दूसरों को समझाने के तरीके सोचेंगे, और भाई-बहनों को उनकी बात सुनने और उनके सुझाव को अपनाने के लिए मजबूर करेंगे। वे इस बात पर विचार नहीं करेंगे कि अगर उनके सुझाव को अपनाया जाता है तो इसका कलीसिया के काम पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। यह उनके विचार के दायरे में नहीं आता। वे केवल किस बात पर विचार करेंगे? “अगर मेरा सुझाव नहीं अपनाया जाता है तो मैं अपना चेहरा कहाँ दिखा पाऊँगा? इसलिए, मुझे प्रतिस्पर्धा करनी होगी और कोशिश करनी होगी ताकि मेरा सुझाव अपनाया जाए।” जब भी कुछ घटित होता है, तो वे इसी तरह सोचते और काम करते हैं। वे कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि यह सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं, और न ही वे कभी भी सत्य को स्वीकारते हैं। यही मसीह-विरोधियों का स्वभाव है।
मसीह-विरोधियों में विवेक की पूर्णतः कमी की प्राथमिक अभिव्यक्ति क्या है? वे मानते हैं कि उनके पास खूबियाँ हैं, वे सक्षम हैं, उनमें अच्छी काबिलियत है, और अन्य लोगों को उनकी आराधना और उनका समर्थन करना चाहिए, और परमेश्वर के घर को चाहिए कि उन्हें किसी महत्वपूर्ण पद पर रखे। इसके अलावा, वे यह भी मानते हैं कि परमेश्वर के घर को उनके सभी सुझावों और विचारों को अपनाना और बढ़ावा देना चाहिए, और अगर परमेश्वर का घर उन्हें नहीं अपनाता है, तो वे बहुत गुस्सा हो जाते हैं, परमेश्वर के घर के खिलाफ हो जाते हैं, और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेते हैं। क्या मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार के ऐसे खुलासे से कलीसिया में विघ्न-बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा नहीं होती हैं? यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के सभी क्रियाकलापों से कलीसिया के कार्य में और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश में बहुत सारी विघ्न-बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा होती हैं। जब मसीह-विरोधी लोग कलीसिया में अगुआ के पदों के लिए और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच प्रतिष्ठा के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं तो वे दूसरों पर हमला करने और खुद को ऊपर उठाने के लिए हरसंभव तरीका अपनाते हैं। वे यह नहीं सोचते कि वे परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को कितनी बुरी तरह नुकसान पहुँचा सकते हैं। वे सिर्फ इस बात पर विचार करते हैं कि क्या उनकी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं, और क्या उनके अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को बचाया जा सकता है। कलीसियाओं में और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच उनकी भूमिका राक्षसों, कुकर्मियों, और शैतान के अनुचरों जैसी होती है। वे ऐसे लोग बिल्कुल नहीं होते जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, न ही वे परमेश्वर के अनुयायी होते हैं, और ऐसे लोग तो वे बिल्कुल नहीं होते जो सत्य से प्रेम करते और उसे स्वीकारते हैं। जब उनके इरादे और लक्ष्य अभी पूरे नहीं हुए होते, तो वे कभी आत्मचिंतन करके खुद को नहीं जानते, वे कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि उनके इरादे और लक्ष्य सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, वे कभी इस बात की खोज नहीं करते कि उद्धार प्राप्त करने के लिए सत्य के अनुसरण के मार्ग पर कैसे चलें। वे समर्पण वाली मनःस्थिति के साथ परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और वह मार्ग नहीं चुनते जिस पर उन्हें चलना चाहिए। इसके बजाय, वे यह सोचने में दिमाग खपाते हैं : “मुझे अगुआ या कार्यकर्ता का पद कैसे मिल सकता है? मैं कलीसिया के अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथ प्रतिस्पर्धा कैसे कर सकता हूँ? मैं परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गुमराह और काबू में करके मसीह को महज एक पुतला कैसे बना सकता हूँ? कलीसिया में अपने लिए जगह कैसे सुरक्षित कर सकता हूँ? यह कैसे सुनिश्चित कर सकता हूँ कि कलीसिया में मेरी पकड़ मजबूत है और मुझे रुतबा हासिल है, यह गारंटी कैसे मिल सकती है कि मुझे सफलता मिले और मैं विफल न होऊँ, और अंततः परमेश्वर के चुने हुए लोगों को काबू में करने और अपना राज्य स्थापित करने का मेरा लक्ष्य हासिल करूँ?” मसीह-विरोधी दिन-रात इन्हीं चीजों के बारे में सोचते रहते हैं। यह कैसा स्वभाव और प्रकृति है? उदाहरण के लिए, जब साधारण भाई-बहन गवाहियों के लेख लिखते हैं, तो वे सोचते हैं कि अपने अनुभवों और समझ को लेख में ईमानदारी से कैसे व्यक्त किया जाए। इसलिए वे इस उम्मीद में परमेश्वर के सामने प्रार्थना करते हैं कि वह उन्हें सत्य के संबंध में और ज्यादा प्रबुद्ध बनाएगा, और उन्हें इसकी बेहतर और ज्यादा गहरी समझ हासिल करने में सक्षम बनाएगा। वहीं दूसरी ओर, जब मसीह-विरोधी लेख लिखते हैं तो वे इस बात पर विचार करने में अपना दिमाग खपाते हैं कि किस तरह से ऐसा लिखें जिससे ज्यादा लोग उन्हें समझें, उनके बारे में जानें, और उनकी प्रशंसा करें, और इस तरह ज्यादा लोगों के मन में उनका रुतबा बढ़े। वे अपनी शोहरत बढ़ाने के लिए इस सबसे साधारण, मामूली चीज का उपयोग करना चाहते हैं। वे इस तरह के अवसर को भी हाथ से नहीं जाने दे सकते। वे किस तरह के लोग हैं? कुछ मसीह-विरोधी, यह देखकर कि दूसरे लोग अनुभवजन्य गवाहियों के लेख लिख सकते हैं, रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए उनसे प्रतिस्पर्धा करने के प्रयास में, दूसरों की अनुभवजन्य गवाहियों से ज्यादा शानदार कुछ लिखने की इच्छा रखते हैं। और इसलिए, वे कहानियाँ गढ़ते और चुराते हैं। यहाँ तक कि वे झूठी गवाही देने जैसी हरकतें करने की भी जुर्रत करते हैं। खुद का नाम बनाने, ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने बारे में जानने देने, और अपना नाम फैलाने के लिए, मसीह-विरोधी कोई भी शर्मनाक हरकत करने से नहीं हिचकिचाते हैं। वे मशहूर होने, रुतबा पाने, और लोगों के समूह के बीच सम्मानित होने और विशेष सम्मान के साथ देखे जाने का मामूली-सा भी मौका नहीं गँवाते। वे ऐसा क्यों चाहते हैं कि लोग उन्हें विशेष सम्मान के साथ देखें? मसीह-विरोधी क्या परिणाम और लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं? मसीह-विरोधी चाहते हैं कि दूसरे उन्हें असाधारण लोगों के रूप में देखें, जो दूसरों से ज्यादा महान हैं, और जो कुछ क्षेत्रों में श्रेष्ठ हैं; वे दूसरों के मन में एक अच्छी और गहरी छाप छोड़ना चाहते हैं, और यहाँ तक कि धीरे-धीरे दूसरे लोगों को उनसे ईर्ष्या, उनकी प्रशंसा और उनका सम्मान करने के लिए मजबूर करना चाहते हैं। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत से प्रयास करते हुए, वे उसी मार्ग पर चलते रहते हैं जिस पर वे पहले चलते थे।
मसीह-विरोधी चाहे लोगों के किसी भी समूह में हों, चाहे वे दिखावा कर रहे हों या मेहनत, उनके दिलों की गहराई में सिर्फ रुतबा पाने की इच्छा छिपी होती है। जो सार वे प्रकट और अभिव्यक्त करते हैं वह लड़ाई और प्रतिस्पर्धा से बढ़कर कुछ नहीं है। मसीह-विरोधी चाहे जो कुछ भी करें, वे उसमें रुतबा, पहचान, और हितों के लिए दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसकी सबसे सामान्य अभिव्यक्ति लोगों के मन में एक अच्छा नाम, अच्छी प्रशंसा और रुतबा पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करना है, ताकि लोग उनका सम्मान और उनकी आराधना करें, और उनके इर्द-गिर्द घूमें। मसीह-विरोधी इसी मार्ग पर चलते हैं; वे इसके लिए ही प्रतिस्पर्धा करते हैं। परमेश्वर के वचन इन चीजों की चाहे कितनी भी निंदा और गहन-विश्लेषण करें, मसीह-विरोधी सत्य को या परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार नहीं करेंगे, या इन चीजों को नहीं छोड़ेंगे जिनकी परमेश्वर आलोचना और निंदा करता है। इसके विपरीत, परमेश्वर इन चीजों को जितना ज्यादा उजागर करता है, मसीह-विरोधी उतने ही ज्यादा शातिर बन जाते हैं। वे इन चीजों का अनुसरण करने के लिए ज्यादा गुप्त और धूर्त तरीके अपनाते हैं, ताकि लोग यह न देख सकें कि वे क्या कर रहे हैं, और गलती से यह मान लें कि उन्होंने इन चीजों को त्याग दिया है। परमेश्वर इन चीजों को जितना ज्यादा उजागर करता है, मसीह-विरोधी उनका अनुसरण करने और उन्हें पाने के लिए ज्यादा कुटिल और शातिर तरीकों का इस्तेमाल करने के उतने ही ज्यादा तरीके ढूँढ़ लेते हैं। इसके अलावा, वे अपनी गुप्त मंशाओं को छिपाने के लिए मीठी-मीठी बातें करते हैं। संक्षेप में, मसीह-विरोधी बिल्कुल भी सत्य स्वीकार नहीं करते, अपने व्यवहार पर चिंतन नहीं करते, या प्रार्थना करते हुए और सत्य खोजते हुए परमेश्वर के समक्ष नहीं आते। इसके विपरीत, वे परमेश्वर के खुलासे और न्याय से अपने दिलों में इतने ज्यादा असंतुष्ट होते हैं कि इन चीजों के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अपना लेते हैं। न केवल वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना नहीं छोड़ते, बल्कि इन चीजों को और ज्यादा संजोते हैं; साथ ही, वे अपनी इस कोशिश को छिपाने और लोगों को इसकी असलियत देखने और इसे पहचानने से रोकने के लिए कई तरकीबें लगाते हैं। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, मसीह-विरोधी ना केवल सत्य का अभ्यास करने में विफल होते हैं, बल्कि जब उनका असली रंग सामने आता है, यानी जब वे गलती से अपनी इन महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को प्रकट करते हैं, तो उन्हें इसकी और भी ज्यादा चिंता होती है कि अन्य लोग परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर उनके सार और असली चेहरे को देख लेंगे, इसलिए वे इसे छिपाने और खुद का बचाव करने की भरसक कोशिश करते हैं। इसे छिपाने के पीछे उनका क्या मकसद होता है? वे अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को नुकसान से बचाने, और अगली लड़ाई के लिए अपनी शक्ति बचाकर रखने के लिए ऐसा करते हैं। यह मसीह-विरोधियों का सार होता है। चाहे जब भी हो, या परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, उनके आचरण के लक्ष्य और दिशा नहीं बदलेंगे, ना ही जीवन में उनके लक्ष्य, उनके क्रियाकलापों के पीछे के सिद्धांत, या उनके दिलों की गहराई में रुतबे के पीछे भागने की उनकी इच्छा, महत्वकांक्षा, और उद्देश्य ही कभी बदलेगा। वे रुतबा हासिल करने के लिए ना केवल अपनी भरसक कोशिश करेंगे, बल्कि उसे पाने के लिए अपने प्रयासों को और बढ़ा देंगे। परमेश्वर के घर में सत्य पर जितनी ज्यादा संगति होगी, उतना ही ज्यादा वे ऐसे कुछ स्पष्ट व्यवहारों और अभिव्यक्तियों का उपयोग करने से चतुराई से कतराएँगे जिनकी असलियत दूसरे लोग देख और पहचान सकते हैं। वे अपना तरीका बदल देंगे, और अपनी गलतियों को स्वीकारते हुए फूट-फूट कर रोएँगे, खुद की निंदा करेंगे, लोगों की सहानुभूति बटोरेंगे, उन्हें गलती से यह विश्वास दिलाएँगे कि उन्होंने पश्चात्ताप किया है और वे बदल गए हैं, और लोगों के लिए उन्हें पहचानना मुश्किल बना देंगे। मसीह-विरोधियों का यह सार क्या है? क्या यह थोड़ी कुटिलता नहीं है? (बिल्कुल है।) जब लोग इतने कुटिल होते हैं, तो वे दानव होते हैं। क्या दानव वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हैं? क्या वे वाकई रुतबे के पीछे भागने की अपनी महत्वकांक्षा और इच्छा को छोड़ सकते हैं? दानव अपनी इस महत्वाकांक्षा को छोड़ने के बजाय मरना पसंद करेंगे। तुम चाहे उनके साथ सत्य पर कैसे भी संगति करो, इसका कोई फायदा नहीं होगा, वे इस महत्वकांक्षा को नहीं छोड़ेंगे। अगर, इस परिस्थिति में, वे लड़ाई हार जाते हैं और भाई-बहनों द्वारा उजागर किए जाते हैं, तो भी वे लड़ाई करते रहेंगे, और रुतबे, पहचान, अंतिम निर्णय खुद लेने, और अगले समूह में जाने पर फैसले लेने का अधिकार रखने के लिए प्रतिस्पर्धा करना जारी रखेंगे। वे इन चीजों के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे। चाहे कोई भी परिस्थिति हो, या वे लोगों के किसी भी समूह में हों, वे हमेशा प्रतिस्पर्धा करने के सिद्धांत पर चलते हैं : “केवल मैं ही अगुआई कर सकता हूँ; कोई और मेरी अगुआई नहीं कर सकता!” वे साधारण विश्वासी बिल्कुल नहीं बनना चाहते, और ना ही अन्य लोगों की अगुआई या मदद को स्वीकारना चाहते हैं। यही मसीह-विरोधियों का सार है।
कलीसिया में, क्या ऐसे लोग होते हैं, जो कई वर्षों से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और फिर भी सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं करते, और हमेशा रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ते हैं? ऐसे लोगों की अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? क्या तुम लोग कहोगे कि इस प्रकार का व्यक्ति वह होता है जो हमेशा खुद का प्रदर्शन करता है, जो मौलिक विचार रखने और ऊँचे लगने वाले विचार उगलने के लिए तत्पर रहता है? ऐसे लोग अक्सर किस तरह की चीजें करते हैं? (कोई अपना दृष्टिकोण व्यक्त करता है, जो बाकी सभी को यह सही लगता है, लेकिन यह दिखाने के लिए कि वह कितना प्रतिभाशाली है, यह व्यक्ति एक अलग दृष्टिकोण सामने रखता है, जिसे लोग और भी सही समझें, और जो पहले व्यक्ति के दृष्टिकोण को नकार दे, और इस प्रकार यह दर्शाए कि वह कितना प्रतिभाशाली है।) इसे दिखावा करना कहा जाता है। वे अन्य लोगों के विचार अस्वीकार कर देते हैं, और फिर अपने अनूठे दृष्टिकोण सामने रखते हैं, जो खुद उन्हें यथार्थपरक या मान्य नहीं लगता—मात्र एक नारा लगता है—फिर भी उन्हें लोगों को दिखाना होता है कि वे कितने प्रतिभाशाली हैं और सभी को अपनी बात सुनने के लिए बाध्य करना होता है। उन्हें हमेशा अलग होना होता है, उन्हें हमेशा मौलिक विचार सामने रखने होते हैं, वे हमेशा ऊँचे लगने वाले विचार उगलते हैं, और दूसरे लोगों की बात कितनी भी संभव और व्यावहारिक क्यों न हो, उन्हें उसके खिलाफ वोट देना होता है, और दूसरे लोगों के दृष्टिकोण नकारने के लिए विभिन्न कारण और बहाने खोजने होते हैं। ये उन लोगों के सबसे आम व्यवहार हैं जो मौलिक विचार सामने रखने और ऊँचे लगने वाले विचार उगलने की कोशिश करते हैं। किसी व्यक्ति के क्रियाकलाप चाहे कितने भी सही या उचित क्यों न हों, वे उन्हें खारिज कर देंगे और अनदेखा कर देंगे। भले ही वे स्पष्ट रूप से जानते हों कि इस व्यक्ति ने उचित तरीके से काम किया है, फिर भी वे कहते हैं कि उसके क्रियाकलाप उचित नहीं थे, और ऐसा जताते हैं जैसे कि वे बेहतर काम कर सकते थे, और वे उस व्यक्ति से बिल्कुल भी कमतर नहीं हैं। इस तरह के लोगों को लगता है कि उनसे अच्छा और कोई नहीं है, वे सभी मामलों में दूसरे लोगों से बेहतर हैं। उनके लिए, दूसरे लोग जो कुछ भी कहते हैं वह गलत है; दूसरे लोग बेकार हैं, और वे खुद हर तरह से अच्छे हैं। भले ही कुछ गलत करने पर उन्हें काट-छाँट दिया जाए, तो भी वे समर्पण करने के लिए तैयार नहीं होंगे, वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे, और हो सकता है कि वे अनेकों बहाने भी बनाएँ, जिससे दूसरों को लगे कि उन्होंने कोई गलती नहीं की है, और उनकी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए थी। जो लोग मौलिक विचार सामने रखना और ऊँचे लगने वाले विचार उगलना पसंद करते हैं, वे इस तरह से अभिमानी और आत्मतुष्ट होते हैं। दरअसल, इनमें से ज्यादातर लोगों के पास कोई वास्तविक प्रतिभा नहीं होती, और वे कुछ भी अच्छी तरह से नहीं कर सकते, वे जो भी करते हैं वह सब पूरी तरह से गड़बड़ हो जाता है। मगर उनके पास कोई आत्म-ज्ञान नहीं है, वे खुद को दूसरों से बेहतर समझते हैं, और दूसरे लोगों के काम में दखल देने और शामिल होने की हिम्मत करते हैं, और ऊँचे लगने वाले विचार उगलते रहते हैं, हमेशा यही चाहते हैं कि लोग उनका सम्मान करें और उनकी बात सुनें। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, या वे किसी भी समूह में हों, वे केवल यही चाहते हैं कि दूसरे लोग उनकी सेवा करें और उनकी बात सुनें; वे खुद किसी और की सेवा करना या किसी और की बात सुनना नहीं चाहते। क्या ये मसीह-विरोधी नहीं हैं? इससे पता चलता है कि मसीह-विरोधी कितने अभिमानी और आत्मतुष्ट होते हैं; उनमें विवेक की कितनी कमी होती है। वे केवल दिखावटी धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलते हैं, और जब दूसरे लोग उनकी गलतियाँ निकालते हैं, तो वे शब्दों और तर्क को तोड़-मरोड़ कर एक झूठे और अच्छे लगने वाले तरीके से बोलते हैं, ताकि लोगों को ऐसा लगे कि वे सही हैं। चाहे किसी और की राय कितनी भी सही क्यों न हो, मसीह-विरोधी इसे गलत साबित करने के लिए वाक्पटुता से बातें करके सभी को अपनी राय स्वीकारने के लिए मजबूर करेंगे। मसीह-विरोधी इसी प्रकार के लोग होते हैं—वे दूसरों को गुमराह करने में बेहद सक्षम होते हैं, वे उन्हें इस हद तक गुमराह कर सकते हैं कि वे भ्रमित हो जाएँ, भटक जाएँ, और सही-गलत में अंतर न कर पाएँ। अंत में, जिन लोगों में विवेक की कमी होती है, वे इन मसीह-विरोधियों द्वारा पूरी तरह से गुमराह किए जायेंगे और काबू में कर लिए जाएँगे। ज्यादातर कलीसियाओं में ऐसे लोग हैं जो दूसरों को इसी तरह गुमराह करते हैं। जब परमेश्वर के चुने हुए लोग सत्य पर संगति कर रहे होते हैं या अपनी अनुभवजन्य गवाही साझा कर रहे होते हैं, तो मसीह-विरोधी हमेशा खड़े होकर अपने दृष्टिकोण व्यक्त करते हैं। वे अपने अनुभव और ज्ञान पर खुलकर संगति करने के लिए दिल खोलकर नहीं बोलते; बल्कि वे हमेशा दूसरों के अनुभवों और ज्ञान के बारे में आलोचनात्मक, गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणियाँ करते हैं, ताकि यह दिखा सकें कि वे कितने चतुर हैं, और दूसरों से अपना सम्मान करवाने का उद्देश्य पूरा कर सकें। मसीह-विरोधी शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलने में सबसे ज्यादा कुशल होते हैं; वे कभी भी सच्ची अनुभवजन्य गवाही नहीं साझा कर सकते, और वे कभी आत्म-ज्ञान की बात नहीं करते। इसके बजाय, वे हमेशा दूसरों में समस्याएँ खोजते रहते हैं और उनके बारे में काफी बखेड़ा खड़ा करते रहते हैं। तुम कभी भी मसीह-विरोधियों को दूसरों की राय खुले दिमाग से स्वीकार करते या अपने भ्रष्ट स्वभावों पर सक्रियता से संगति करते और दूसरों के सामने खुद को उजागर करते नहीं देखोगे। तुम उन्हें इस बात पर संगति करते हुए तो निश्चित रूप से नहीं देखोगे कि उनके मन में कौन-से गलत और बेतुके दृष्टिकोण थे और उन्होंने उन्हें कैसे बदला, और न ही तुम कभी उन्हें अपनी गलतियों या अपनी कमियों को स्वीकारते हुए सुनोगे...। मसीह-विरोधी लोग चाहे कितने भी लंबे समय तक दूसरों के साथ बातचीत करें, वे हमेशा दूसरे लोगों को यह महसूस कराते हैं कि उनमें कोई भ्रष्टता नहीं है, वे जन्म से ही संत और पूर्ण लोग हैं और दूसरों को उनकी आराधना करनी चाहिए। जिनके पास वास्तव में विवेक है, वे यह नहीं चाहते कि दूसरे उनका सम्मान या उनकी आराधना करें। अगर दूसरे लोग वाकई उनका सम्मान और उनकी आराधना करते हैं तो उन्हें यह शर्मनाक लगता है, क्योंकि वे जानते हैं कि वे भ्रष्ट स्वभावों वाले भ्रष्ट इंसान हैं, और उनके पास सत्य वास्तविकताएँ नहीं हैं। वे खुद की असलियत जानते हैं, इसलिए वे जो भी भ्रष्टता प्रकट करते हैं, और उनके जो भी गलत दृष्टिकोण होते हैं, उनके बारे में वे खुलकर संगति करके दूसरों को उनके बारे में बता सकते हैं, और ऐसा करने से उन्हें बहुत आराम, मुक्ति और खुशी महसूस होती है। उन्हें ऐसा करना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं लगता। भले ही दूसरे लोग उनकी आलोचना करें, उन्हें नीची नजरों से देखें, उन्हें बेवकूफ कहें, या उनसे नफरत करें, उन्हें ज्यादा दुख नहीं होता। इसके विपरीत, उन्हें यह बहुत आम बात लगती है, और वे इसके प्रति सही रवैया अपना सकते हैं। क्योंकि लोगों के पास भ्रष्ट स्वभाव हैं, इसलिए उनके लिए भ्रष्टता प्रकट करना स्वाभाविक है। तुम चाहे इसे स्वीकार करो या न करो, यह एक तथ्य है। अगर तुम अपनी खुद की भ्रष्टता को पहचान सकते हो तो यह अच्छी बात है, और अगर दूसरे लोग इसे स्पष्ट देख सकते हैं तो यह और भी बेहतर है, इस तरह वे तुम्हारी आराधना या तुम्हारा सम्मान नहीं करेंगे। जो लोग सत्य समझते हैं और जिनके पास थोड़ा-बहुत विवेक है, वे खुद को पहचानने के बारे में दिल खोलकर संगति कर सकते हैं; उन्हें यह मुश्किल नहीं लगता। मगर मसीह-विरोधियों के लिए यह बहुत मुश्किल है। वे पूरी तरह से खुलकर बात करने वालों को बेवकूफ समझते हैं, और जो लोग अपने आत्म-ज्ञान के बारे में बात करते हैं और ईमानदारी से बोलते हैं उन्हें मूर्ख मानते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधी ऐसे लोगों को पूरी तरह से नीची नजरों से देखते हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य समझ सकता है और हर कोई उसे विशेष रूप से स्वीकार करता है तो मसीह-विरोधी उस व्यक्ति को अपनी आँखों की किरकिरी और अपने रास्ते का काँटा समझेंगे, और वे उसकी आलोचना और निंदा करेंगे। वे उस व्यक्ति के सही अभ्यासों और उसके पास मौजूद सकारात्मक चीजों का खंडन करेंगे, और उसे गलत और विकृत समझ वाले लोगों की तरह पेश करेंगे। चाहे कोई भी व्यक्ति ऐसा काम करे जिससे कलीसिया या भाई-बहनों को फायदा हो, मसीह-विरोधी उसे नीचा दिखाने, उसका मजाक उड़ाने और उपहास करने के तरीके सोचेंगे; चाहे उसने जो काम किया हो वह कितना भी अच्छा हो या इससे लोगों को कितना भी फायदा हुआ हो, मसीह-विरोधी इसे जिक्र करने लायक नहीं समझेंगे और वे इसे इस हद तक महत्वहीन और कमतर दिखाएँगे कि यह पूरी तरह से बेकार लगने लगेगा। जबकि, अगर मसीह-विरोधी कुछ अच्छा करते हैं तो वे इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और बड़ा दिखाने की भरसक कोशिश करेंगे, ताकि हर कोई इसे देखे और जाने कि यह काम उन्होंने किया है, और यह उनकी सराहनीय सेवा थी, ताकि भाई-बहन उन्हें विशेष सम्मान दें, उन्हें हमेशा याद रखें, उनके प्रति बहुत आभारी महसूस करें और उनकी अच्छाई को याद रखें। सभी मसीह-विरोधी और साथ ही मसीह-विरोधियों जैसा स्वभाव रखने वाले लोग इस तरह से काम करने में सक्षम हैं। इस मामले में, मसीह-विरोधी पाखंडी फरीसियों से अलग नहीं हैं; वास्तव में, वे उनसे भी बदतर हैं। ये मसीह-विरोधियों की सबसे आम और स्पष्ट सामान्य अभिव्यक्तियाँ हैं।
मसीह-विरोधी जब कुछ करते हैं तो उनका रवैया कैसा होता है? वे दूसरों के सामने अच्छे काम करना और चोरी-छिपे बुरे काम करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि हर कोई उनके अच्छे कामों के बारे में जाने, और वे सभी बुरे कामों को इस तरह से छिपाना चाहते हैं कि इनके बारे में किसी को कानों-कान खबर न हो, यहाँ तक कि इनके बारे में एक शब्द भी बाहर न आए, और वे उन्हें छिपाने की अपनी हर मुमकिन कोशिश करने के लिए मजबूर दिखते हैं। मसीह-विरोधियों का यह स्वभाव घिनौना है, है ना? इस तरह से काम करने के पीछे मसीह-विरोधियों का क्या मकसद होता है? (अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करना।) यह सही है। देखने में ऐसा लगता है कि वे रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहे हैं या रुतबे के लिए कुछ नहीं कह रहे हैं, मगर वे जो कुछ भी करते और कहते हैं वह अपने रुतबे की रक्षा करने और उसे बनाए रखने की खातिर, और ऊँची प्रतिष्ठा और अच्छा नाम पाने की खातिर होता है। कभी-कभी वे समूह में भी रुतबा पाने की कोशिश करते हैं, बिना किसी को यह भनक लगे कि वे ऐसा कर रहे हैं। यहाँ तक कि जब वे किसी की सिफारिश करते हैं, यानी कुछ ऐसे काम करते हैं जो उन्हें करने चाहिए, तो वे उस व्यक्ति को बहुत आभारी महसूस कराना चाहते हैं जिसकी उन्होंने सिफारिश की है, और यह जताना चाहते हैं कि उसे यह कर्तव्य निभाने का अवसर केवल उनकी सिफारिश के कारण मिला है। मसीह-विरोधी इस तरह के अवसर को कभी नहीं गंवाएँगे। वे सोचते हैं, “भले ही मैंने तुम्हारी सिफारिश की हो, फिर भी मैं तुम्हारा अगुआ हूँ, इसलिए तुम मुझसे आगे नहीं निकल सकते।” रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए मसीह-विरोधियों का जुनून काफी स्पष्ट है। रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने और उसकी रक्षा करने के लिए, वे किसी की एक नजर को या अनजाने में कही गई बात को भी अनदेखा नहीं करते, किसी कोने में होने वाली किसी बात को तो बिल्कुल भी अनदेखा नहीं करते। मसीह-विरोधी इन सभी छोटी-बड़ी चीजों पर ध्यान देते हैं, और दूसरे लोगों की कही गई बातें उनके मन में घूमती रहती हैं। ऐसा करने का उनका क्या मकसद है? क्या उन्हें बहस करना अच्छा लगता है? नहीं; बात यह है कि वे इन सबमें अपने रुतबे की रक्षा करने का एक तरीका और अवसर ढूँढ़ना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि किसी क्षणिक लापरवाही या असावधानी के कारण उनके रुतबे या नाम को नुकसान हो। रुतबे की खातिर, उन्होंने हर चीज के बारे में “अंतर्दृष्टि” पाना सीख लिया है; जब भी कोई भाई या बहन कुछ ऐसा कहते हैं जो उन्हें अपमानजनक लगता है या कोई ऐसी राय व्यक्त करते हैं जो उनकी अपनी राय से अलग है, तो वे इसे अनदेखा नहीं करते; वे इसे गंभीरता से लेते हैं, विस्तार से खोजबीन और गहराई से विश्लेषण करते हैं, और फिर जो कुछ उन्होंने कहा है उससे इस तरह से निपटने के लिए जवाब ढूँढते हैं कि उनका रुतबा सभी के मन में दृढ़ता से स्थापित हो जाए और वह बिल्कुल भी न डगमगाए। जैसे ही उनका नाम खराब होता है या कुछ ऐसा सुनने में आता है जो उनके नाम के लिए नुकसानदेह हो, तो वे जल्दी से उसके स्रोत का पता लगाएँगे और खुद को बचाने के लिए बहाने और तर्क खोजने की कोशिश करेंगे। इसलिए, चाहे मसीह-विरोधी कोई भी कर्तव्य कर रहे हों, चाहे वे अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में काम कर रहे हों या नहीं, वे जिस किसी भी चीज में व्यस्त रहते हैं और जो भी शब्द बोलते हैं वह उनके रुतबे की खातिर होता है, और उसे अपने हितों की रक्षा करने की उनकी इच्छा से अलग नहीं किया जा सकता। मसीह-विरोधियों के दिलों की गहराई में, सत्य का अभ्यास करने या परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने जैसी कोई अवधारणा नहीं होती है। इसलिए, मसीह-विरोधियों के सार को सटीक रूप से इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है : वे परमेश्वर के दुश्मन हैं; वे दानवों और शैतानों का एक समूह हैं जो परमेश्वर के घर के कार्य में विघ्न-बाधा और गड़बड़ी पैदा करने और उसे नष्ट करने आए हैं। वे शैतान के चाकर हैं; वे परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग नहीं हैं, न तो वे परमेश्वर के घर के सदस्य हैं, और न ही परमेश्वर के उद्धार के लक्ष्य हैं।
आज हमने जिन चीजों के बारे में संगति की है, क्या तुम लोग उनमें से किसी से भी प्रभावित हुए हो? तुम लोग किस हिस्से से प्रभावित हुए? (आखिरी हिस्से से, यानी जब परमेश्वर ने मसीह-विरोधियों की प्रतिस्पर्धी प्रकृति का गहन-विश्लेषण किया।) हमेशा प्रतिस्पर्धा करते रहना अच्छी बात नहीं है। यह व्यवहार मसीह-विरोधियों और विनाश से जुड़ा हुआ है। यह अच्छा मार्ग नहीं है। जब लोगों में ये अभिव्यक्तियाँ और खुलासे हों, तो उन्हें क्या करना चाहिए? उन्हें क्या विकल्प चुनना चाहिए? उन्हें इन चीजों से कैसे बचना चाहिए? ये वे समस्याएँ हैं जिनके बारे में लोगों को अभी सबसे ज्यादा सोचना और विचार करना चाहिए, और ये वे समस्याएँ भी हैं जिनका लोग हर दिन सामना करते हैं। जब चीजें घटित होती हैं, तो वे प्रतिस्पर्धा से कैसे दूर रह सकते हैं, और प्रतिस्पर्धा के बाद उन्हें अपने दिल की पीड़ा और बेचैनी कैसे दूर करनी चाहिए—यह ऐसी समस्या है जिसका सामना हर व्यक्ति को करना होगा। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए वे सभी प्रतिष्ठा, लाभ और नाम के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, और उनके लिए प्रतिस्पर्धा से दूर रहना मुश्किल होता है। तो, अगर कोई व्यक्ति प्रतिस्पर्धा नहीं करता है, तो क्या इसका मतलब यह है कि उसने मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार से छुटकारा पा लिया है? (नहीं, यह केवल सतही स्तर की घटना है। अगर उनके अंदर का स्वभाव ठीक नहीं होता है, तो उनके मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।) तो, उनके मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है? (एक ओर, उन्हें इस मामले को समझना होगा, और जब वे रुतबा पाने की कोशिश करने वाले विचार प्रकट करें, तो उन्हें प्रार्थना के लिए परमेश्वर के सामने आना होगा। इसके अलावा, उन्हें भाई-बहनों के सामने दिल खोलकर अपनी बात कहनी होगी और होशोहवास में इन गलत विचारों के खिलाफ विद्रोह करना होगा। उन्हें परमेश्वर से उनका न्याय करने, उन्हें दंडित करने, उन्हें काटने-छाँटने और अनुशासित करने के लिए भी कहना होगा। तभी वे सही मार्ग पर चल पाएँगे।) यह काफी अच्छा जवाब है। हालाँकि, ऐसा करना आसान नहीं है, और यह उन लोगों के लिए और भी ज्यादा कठिन है जो प्रतिष्ठा और रुतबे से बेहद प्यार करते हैं। प्रतिष्ठा और रुतबे को छोड़ना आसान नहीं है—यह लोगों के सत्य का अनुसरण करने पर निर्भर करता है। केवल सत्य समझकर ही व्यक्ति खुद को जान सकता है, शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ने का खोखलापन स्पष्ट रूप से देख सकता है और मानवजाति की भ्रष्टता का सत्य साफ तौर पर देख सकता है। जब व्यक्ति वास्तव में खुद को जान लेता है केवल तभी वह रुतबे और प्रतिष्ठा को त्याग सकता है। अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग पाना आसान नहीं है। अगर तुम पहचान गए हो कि तुममें सत्य की कमी है, तुम कमियों से घिरे हो और बहुत अधिक भ्रष्टता प्रकट करते हो, फिर भी तुम सत्य का अनुसरण करने का कोई प्रयास नहीं करते और छद्मवेश धारण करके पाखंड में लिप्त होते हो, इससे लोगों को विश्वास दिलाते हो कि तुम कुछ भी कर सकते हो, तो यह तुम्हें खतरे में डाल देगा और देर-सवेर एक ऐसा समय आएगा जब तुम्हारे आगे का रास्ता बंद हो जाएगा और तुम गिर जाओगे। तुम्हें स्वीकारना चाहिए कि तुम्हारे पास सत्य नहीं है, और पर्याप्त बहादुरी से वास्तविकता का सामना करना चाहिए। तुममें कमजोरी है, तुम भ्रष्टता प्रकट करते हो और हर तरह की कमियों से घिरे हो। यह सामान्य है, क्योंकि तुम एक सामान्य व्यक्ति हो, तुम अलौकिक या सर्वशक्तिमान नहीं हो, और तुम्हें यह पहचानना चाहिए। जब दूसरे लोग तुम्हारा तिरस्कार या उपहास करें, तो इसलिए तुरंत चिढ़कर प्रतिक्रिया मत दो, क्योंकि वे जो कहते हैं वह अप्रिय है, या इसलिए इसका प्रतिरोध मत करो क्योंकि तुम खुद को सक्षम और परिपूर्ण मानते हो—ऐसी बातों के प्रति तुम्हारा रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए। तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? तुम्हें अपने आपसे कहना चाहिए, “मेरे अंदर दोष हैं, मेरी हर चीज भ्रष्ट और दोषपूर्ण है और मैं एक साधारण-सा व्यक्ति हूँ। उनके द्वारा मेरा तिरस्कार और उपहास किए जाने के बावजूद, क्या इसमें कोई सच्चाई है? अगर वे जो कहते हैं उसका थोड़ा-सा हिस्सा भी सच है, तो मुझे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए।” अगर तुम्हारा ऐसा रवैया है, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम रुतबे, प्रतिष्ठा और अपने बारे में दूसरे लोगों की राय को सही तरीके से संभालने में सक्षम हो। रुतबे और प्रतिष्ठा को आसानी से दरकिनार नहीं किया जाता। उन लोगों के लिए तो इन चीजों को अलग रखना और भी मुश्किल है, जो कुछ हद तक प्रतिभाशाली होते हैं, जिनमें थोड़ी-बहुत क्षमता होती है या जो कुछ कार्य-अनुभव रखते हैं। भले ही वे कभी-कभी उन्हें दरकिनार करने का दावा करें, मगर वे अपने दिलों में ऐसा नहीं कर सकते। जैसे ही अनुकूल परिस्थिति आएगी और उन्हें अवसर मिलेगा, वे पहले की तरह शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ने लगेंगे, क्योंकि सभी भ्रष्ट मनुष्य इन चीजों से प्यार करते हैं, बस जिनके पास खूबियाँ या प्रतिभाएँ नहीं हैं, उनमें रुतबे के पीछे दौड़ने की थोड़ी कम इच्छा होती है। जिनके पास भी ज्ञान, प्रतिभा, सुंदरता और विशेष पूंजी है, उनमें प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए विशेष रूप से तीव्र इच्छा होती है, इस हद तक कि वे इस महत्वाकांक्षा और इच्छा से भरे होते हैं। इसे दरकिनार करना उनके लिए सबसे ज्यादा कठिन काम है। जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता, तो उनकी इच्छा प्रारंभिक अवस्था में होती है। एक बार जब वे रुतबा पा लेते हैं, जब परमेश्वर का घर उन्हें कोई महत्वपूर्ण कार्य सौंप देता है, और विशेष रूप से जब वे बरसों तक काम कर चुके होते हैं और उनके पास बहुत अनुभव और पूँजी होती है, तब उनकी इच्छा प्रारंभिक अवस्था में नहीं रहती, बल्कि गहरी जड़ जमा चुकी होती है, खिल चुकी होती है, और उस पर फल लगने वाले होते हैं। अगर किसी व्यक्ति में महान कार्य करने, प्रसिद्ध होने, कोई महान व्यक्ति बनने की निरंतर इच्छा और महत्वाकांक्षा रहती है, तो जैसे ही वह कोई बड़ा कुकर्म करता है, और इसके परिणाम सामने आते हैं, वह पूरी तरह से समाप्त हो जाता है और उसे हटा दिया जाता है। और इसलिए, इससे पहले कि यह बड़ी विपदा की ओर ले जाए, उसे फौरन और समय रहते स्थिति को पलट देना चाहिए। जब भी तुम कुछ करते हो, और चाहे उसका जो भी संदर्भ हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, ऐसा व्यक्ति बनने का अभ्यास करना चाहिए जो परमेश्वर के प्रति ईमानदार और आज्ञाकारी हो, और रुतबे और प्रतिष्ठा के अनुसरण को दरकिनार कर देना चाहिए। जब तुममें रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की निरंतर सोच और इच्छा होती है, तो तुम्हें यह बात पता होनी चाहिए कि अगर इस तरह की स्थिति को अनसुलझा छोड़ दिया जाए तो कैसी बुरी चीजें हो सकती हैं। इसलिए समय बर्बाद न करते हुए सत्य खोजो, रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की इच्छा पर प्रारंभिक अवस्था में ही काबू पा लो, और इसके स्थान पर सत्य का अभ्यास करो। जब तुम सत्य का अभ्यास करने लगोगे, तो रुतबे के लिए प्रतिस्पर्धा करने की तुम्हारी इच्छा और महत्वाकांक्षा कम हो जाएगी और तुम कलीसिया के काम में बाधा नहीं डालोगे। इस तरह, परमेश्वर तुम्हारे क्रियाकलापों को याद रखेगा और उन्हें स्वीकृति देगा। तो मैं किस बात पर जोर दे रहा हूँ? वह बात यह है : इससे पहले कि तुम्हारी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पुष्पित और फलीभूत होकर बड़ी विपत्ति लाएँ, तुम्हें उनसे छुटकारा पा लेना चाहिए। यदि तुम उन्हें शुरुआत में ही काबू नहीं करोगे, तो तुम एक बड़े अवसर से चूक जाओगे; अगर वे बड़ी विपत्ति का कारण बन गईं, तो उनका समाधान करने में बहुत देर हो जाएगी। यदि तुममें दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करने की इच्छा तक नहीं है, तो तुम्हारे लिए सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना बहुत मुश्किल हो जाएगा; यदि तुम शोहरत, लाभ और रुतबा पाने के प्रयास में असफलताओं और नाकामयाबियों का सामना करने पर होश में नहीं आते, तो यह स्थिति बहुत खतरनाक होगी : इस बात की संभावना है कि तुम्हें हटा दिया जाए। जब सत्य से प्रेम करने वालों को अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर एक-दो असफलताओं और नाकामियों का सामना करना पड़ता है, तो वे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि प्रतिष्ठा और रुतबे का कोई मूल्य नहीं है। वे रुतबे और प्रतिष्ठा को पूरी तरह त्यागने में सक्षम होते हैं, और यह संकल्प लेते हैं कि भले ही उनके पास कभी भी रुतबा न हो, फिर भी वे सत्य का अनुसरण करते हुए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना जारी रखेंगे, और अपनी अनुभवजन्य गवाही साझा करते रहेंगे और इस तरह परमेश्वर की गवाही देने का नतीजा हासिल करेंगे। वे साधारण अनुयायी होकर भी, अंत तक अनुसरण करने में सक्षम बने रहते हैं। उनकी बस एक ही चाहत होती है कि उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति मिले। ऐसे लोग ही वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं और उनमें संकल्प होता है। परमेश्वर के घर ने बहुत-से मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों को हटाया है और सत्य का अनुसरण करने वाले कुछ लोग मसीह-विरोधियों की विफलता देखकर उनके अपनाए गए मार्ग के बारे में चिंतन करते हैं और आत्मचिंतन कर खुद को भी जानते हैं। इससे वे परमेश्वर के इरादे की समझ प्राप्त करते हैं, सामान्य अनुयायी बनने का संकल्प लेते हैं और सत्य का अनुसरण करके अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने पर ध्यान देते हैं। भले ही परमेश्वर उन्हें सेवाकर्ता या तुच्छ नाचीज कह दे, तो भी वे इसे सिर माथे लेते हैं। वे परमेश्वर की नजर में बस नीच लोग और तुच्छ, महत्वहीन अनुयायी बनने का प्रयास करेंगे जो अंततः परमेश्वर द्वारा स्वीकार्य सृजित प्राणी कहलाएँगे। इस तरह के लोग ही नेक होते हैं और वे ऐसे लोग होते हैं जिन्हें परमेश्वर स्वीकृति देता है।
परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों को पसंद करता है, और वह सबसे ज्यादा घृणा उन लोगों से करता है जो शोहरत, लाभ, और रुतबे के पीछे दौड़ते हैं। कुछ लोग वाकई रुतबे और प्रतिष्ठा को संजोते हैं, उन्हें उनसे गहरा लगाव होता है, वे उन्हें छोड़ना सहन नहीं कर सकते। उन्हें हमेशा यही लगता है कि रुतबे और प्रतिष्ठा के बिना जीने में कोई खुशी या आशा नहीं है; उनके लिए इस जीवन में आशा केवल तब ही होती है जब वे रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए जीते हैं, और अगर उन्हें थोड़ी-सी प्रसिद्धि मिल भी जाती है तो वे अपनी लड़ाई जारी रखेंगे, कभी हार नहीं मानेंगे। अगर तुम्हारी सोच और दृष्टिकोण यही है, यदि तुम्हारा हृदय ऐसी बातों से भरा है, तो तुम न तो सत्य से प्रेम कर सकते हो और न ही उसका अनुसरण कर सकते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था में सही दिशा और लक्ष्यों की कमी है, तुम आत्म-ज्ञान का अनुसरण नहीं कर सकते, अपनी भ्रष्टता दूर कर एक इंसान की तरह नहीं जी सकते; तुम अपना कर्तव्य करते समय चीजों को अनदेखा करते हो, तुममें जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, तुम बस इस बात से संतुष्ट हो जाते हो कि तुम कोई बुराई नहीं कर रहे, कोई विघ्न-बाधा खड़ी नहीं कर रहे और तुम्हें निकाला नहीं जा रहा है। क्या ऐसे लोग एक स्वीकार्य मानदंड तक अपना कर्तव्य कर सकते हैं? और क्या उन्हें परमेश्वर के द्वारा बचाया जा सकता है? असंभव। तुम प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर कार्य करते समय यह भी सोचते हो, “जब तक मैं कोई बुरा काम नहीं कर रहा और उससे कोई अशांति पैदा नहीं होती, तो फिर भले ही मेरी मंशा गलत हो, कोई उसे न तो देख सकता है और न ही मेरी निंदा कर सकता है।” तुम्हें पता नहीं कि परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है। यदि तुम सत्य नहीं स्वीकारते या उसका अभ्यास नहीं करते, और अगर परमेश्वर तुम्हें ठुकरा दे, तो समझो तुम्हारे लिए सब खत्म हो गया है। जिन लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होता, वे सभी खुद को चतुर समझते हैं; वास्तव में, उन्हें पता भी नहीं चलता कि उन्होंने कब उसे ठेस पहुँचा दी। कुछ लोग इन बातों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते; उन्हें लगता है, “मैं तो केवल अधिक कार्य करने और अधिक जिम्मेदारियाँ लेने के लिए ही प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे पड़ा हूँ। इससे कलीसिया के कार्य में कोई विघ्न-बाधा या गड़बड़ी तो नहीं हो रही है, और निश्चित रूप से परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान नहीं पहुंच रहा है। यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। मुझे बस रुतबे से प्रेम है और मैं उसकी रक्षा करता हूँ, लेकिन यह कोई बुरा काम नहीं है।” हो सकता है कि देखने में इस तरह का मकसद बुरा कार्य न लगे, लेकिन अंत में इसका नतीजा क्या होता है? क्या ऐसे लोगों को सत्य प्राप्त होता है? क्या वे उद्धार प्राप्त कर पाएँगे? बिल्कुल नहीं। इसलिए, प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना सही मार्ग नहीं है—यह मार्ग सत्य की खोज के बिल्कुल विपरीत दिशा में है। संक्षेप में, तुम्हारी खोज की दिशा या लक्ष्य चाहे जो भी हो, यदि तुम रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ने पर विचार नहीं करते और अगर तुम्हें इन चीजों को दरकिनार करना बहुत मुश्किल लगता है, तो इनका असर तुम्हारे जीवन प्रवेश पर पड़ेगा। जब तक तुम्हारे दिल में रुतबा बसा हुआ है, तब तक यह तुम्हारे जीवन की दिशा और उन लक्ष्यों को पूरी तरह से नियंत्रित और प्रभावित करेगा जिनके लिए तुम प्रयासरत हो और ऐसी स्थिति में अपने स्वभाव में बदलाव की बात तो तुम भूल ही जाओ, तुम्हारे लिए सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना भी बहुत मुश्किल होगा; तुम अंततः परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह बेशक स्पष्ट है। इसके अलावा, यदि तुमने कभी रुतबे के पीछे भागना नहीं छोड़ा, तो इससे तुम्हारे ठीक से कर्तव्य करने की क्षमता पर भी असर पड़ेगा। तब तुम्हारे लिए एक स्वीकार्य सृजित प्राणी बनना बहुत मुश्किल हो जाएगा। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? जब लोग रुतबे के पीछे भागते हैं, तो परमेश्वर को इससे बेहद घृणा होती है, क्योंकि रुतबे के पीछे भागना शैतानी स्वभाव है, यह एक गलत मार्ग है, यह शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है, परमेश्वर इसका तिरस्कार करता है और परमेश्वर इसी चीज का न्याय और शुद्धिकरण करता है। लोगों के रुतबे के पीछे भागने से परमेश्वर को सबसे ज्यादा घृणा है और फिर भी तुम अड़ियल बनकर रुतबे के लिए होड़ करते हो, उसे हमेशा संजोए और संरक्षित किए रहते हो, उसे हासिल करने की कोशिश करते रहते हो। क्या इन तमाम चीजों की प्रकृति परमेश्वर-विरोधी नहीं है? लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, और अंततः उन्हें एक स्वीकार्य सृजित प्राणी, एक छोटा और नगण्य सृजित प्राणी बनाता है—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिस पर हजारों लोग श्रद्धा रखें। और इसलिए, इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है। रुतबे के पीछे भागने का तुम्हारा बहाना चाहे जितना भी उचित हो, यह मार्ग फिर भी गलत है और परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देता। तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता, तो तुम उसे पाने की लड़ाई में नाकाम रहोगे, और अगर तुम लड़ाई करते ही रहोगे, तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : बेनकाब करके तुम्हें हटा दिया जाएगा, और तुम्हारे सारे रास्ते बंद हो जाएँगे। तुम इसे समझते हो, है ना?
7 मार्च 2020