मद पंद्रह : वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं (भाग दो)
आज हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की पंद्रहवीं मद पर संगति जारी रखेंगे : वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं। अपनी पिछली संगति के दौरान हमने इस विषय को दो भागों में विभाजित किया था। पहला भाग है परमेश्वर के अस्तित्व में मसीह-विरोधियों के छद्म-विश्वास की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ, जिसे हमने पुनः दो मदों में विभाजित किया है : पहला, मसीह-विरोधियों द्वारा परमेश्वर की पहचान और सार को नकारना; दूसरा, मसीह-विरोधियों द्वारा सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता को नकारना। पिछली बार हमने मुख्य रूप से इस बात पर संगति की थी कि कैसे मसीह-विरोधी परमेश्वर के सार या उसके स्वभाव को नहीं स्वीकारते, और कैसे मसीह-विरोधी यह नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह सत्य है और उसकी पहचान दर्शाता है, और कैसे मसीह-विरोधी निश्चित रूप से परमेश्वर के हर कार्य के पीछे का अर्थ और सत्य नहीं स्वीकारते। मसीह-विरोधी शैतान की पूजा करते हैं, शैतान को परमेश्वर मानते हैं और शैतान के तमाम कथनों और दृष्टिकोणों को उस आधार और मानक के रूप में इस्तेमाल करते हैं, जिससे वे परमेश्वर की पहचान, सार और जो कुछ भी वह करता है, उसे मापते हैं। इसलिए, अपने दिलों में वे बार-बार, शैतान जो कुछ भी करता है उसकी बड़ाई और पूजा करते हैं, वे शैतान के क्रियाकलापों की बड़ाई और प्रशंसा करते हैं, और वे परमेश्वर की पहचान और सार का स्थान लेने के लिए शैतान का उपयोग करते हैं। इससे भी बदतर, शैतान द्वारा की गई हर चीज स्वीकारने के आधार पर, वे हर मोड़ पर परमेश्वर के वचनों और कार्य के बारे में सवाल उठाते हैं और धारणाएँ और राय बनाते हैं, और अंततः उसके वचनों और कार्य की निंदा करते हैं। इसलिए, परमेश्वर का अनुसरण करने की प्रक्रिया में मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन, अपने सत्य या अपने जीवन की दिशा और अपने जीवन के लक्ष्य के रूप में नहीं स्वीकारते। इसके बजाय, वे हर मोड़ पर परमेश्वर का विरोध करते हैं और अपनी धारणाओं और कल्पनाओं, शैतान के तर्क और विचारों, और शैतान के स्वभाव और तरीकों जैसी चीजों से परमेश्वर की पहचान और सार को मापते हैं। परमेश्वर का अनुसरण करने की प्रक्रिया में वे लगातार परमेश्वर पर संदेह करते हैं, शक करते हैं और उस पर निगाह रखते हैं, वे लगातार उसकी आलोचना करते हैं और अपने दिलों में उससे घृणा करते हैं, उसकी निंदा करते हैं और उसे नकारते हैं। ये सभी चीजें जो मसीह-विरोधी करते हैं और उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ वास्तव में यह साबित करती हैं कि वे परमेश्वर के अनुयायी, सच्चे विश्वासी या सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रेमी नहीं हैं, बल्कि वे सत्य और परमेश्वर के शत्रु हैं। जब ये लोग परमेश्वर के घर, कलीसिया में आते हैं, तो वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने या परमेश्वर के सामने आकर उसके वचनों को जीवन के रूप में स्वीकारने नहीं आते। तो वे यहाँ क्या करने आते हैं? जब ये लोग परमेश्वर के घर आते हैं, तो पहले, वे कम से कम अपनी जिज्ञासा का समाधान करने की कोशिश कर रहे होते हैं; दूसरे, वे इस प्रवृत्ति का अनुसरण करना चाहते हैं; और तीसरे, वे आशीष चाहते हैं। ये ही उनके इरादे और उद्देश्य होते हैं, बस। मसीह-विरोधियों के प्रकृति-सार के आधार पर आकलन करें तो, वे कभी भी परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकारने का इरादा नहीं रखते, वे कभी भी परमेश्वर के वचनों को अभ्यास के सिद्धांतों या अपने जीवन की दिशा और अपने जीवन का लक्ष्य मानने की योजना नहीं बनाते, और वे कभी भी अपने विचारों को बदलने या त्यागने, या अपनी धारणाओं को बदलने या त्यागने, और पूरी तरह से पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आने, और उसके सामने दंडवत करने और उसे अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकारने की योजना नहीं बनाते। उनका ऐसा कोई इरादा नहीं होता। वे बस परमेश्वर के सामने शेखी बघारते रहते हैं कि वे कितने महान हैं, कितने सक्षम हैं, कितने शक्तिशाली, गुणी और प्रतिभावान हैं, कैसे वे परमेश्वर के घर का स्तंभ और मेरुदंड बन सकते हैं, इत्यादि, जिससे वे अपने इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकें कि परमेश्वर के घर में उन्हें बहुत सम्मान दिया जाए, परमेश्वर द्वारा उन्हें पहचाना जाए और उसके घर में उन्हें पदोन्नत किया जाए, ताकि उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति हो सके। इतना ही नहीं, बल्कि वे “इस जीवन में सौ गुना और आनेवाले जीवन में अनंत जीवन पाने” की अपनी महत्वाकांक्षा, इच्छा और योजना भी पूरी करना चाहते हैं। क्या उन्होंने कभी ये महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और योजनाएँ त्यागी हैं? क्या वे व्यक्तिपरक रूप से इन मुद्दों को समझ सकते हैं, त्याग सकते हैं और हल कर सकते हैं? वे कभी ऐसा करने की योजना नहीं बनाते। चाहे परमेश्वर के वचन कुछ भी कहें या उजागर करें, भले ही वे उसके वचनों को खुद से जोड़ सकें, भले ही वे जानते हों कि उनकी योजनाएँ, विचार और इरादे परमेश्वर के वचनों के विपरीत हैं और उनके अनुरूप नहीं हैं, वे सत्य-सिद्धांतों के विरुद्ध हैं और मसीह-विरोधियों के स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ हैं, फिर भी वे अपने विचारों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं पर दृढ़ता से अड़े रहते हैं, और खुद को बदलने, अपने विचार पलटने, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ त्यागने और परमेश्वर का खुलासा, न्याय, ताड़ना और काट-छाँट स्वीकारने के लिए उसके सामने आने की कोई योजना नहीं बनाते। ये लोग न केवल अपने दिलों में अड़ियल होते हैं, बल्कि अहंकारी और दंभी भी होते हैं—वे पूरी तरह से अविवेकी होने की हद तक अहंकारी होते हैं। साथ ही, वे अपने दिलों की गहराई में परमेश्वर द्वारा कहे गए हर वचन से अत्यधिक विमुख होते हैं और उससे घृणा करते हैं; वे परमेश्वर द्वारा भ्रष्ट मनुष्य के प्रकृति-सार को उजागर करने और विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा करने से घृणा करते हैं। वे अकारण ही परमेश्वर और सत्य से घृणा करते हैं, यहाँ तक कि उन लोगों से भी घृणा करते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं और जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है। यह पूरी तरह से दिखाता है कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव वास्तव में दुष्ट होता है। परमेश्वर और सत्य के प्रति उनकी अकारण घृणा, शत्रुता, विरोध, आलोचना और इनकार भी हमें दिखाता है कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव बेशक क्रूर होता है।
मसीह-विरोधियों के विभिन्न स्वभाव भ्रष्ट मानवजाति के स्वभावों के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं, और मसीह-विरोधियों के विभिन्न स्वभावों की गंभीरता किसी भी साधारण भ्रष्ट व्यक्ति के स्वभावों से कहीं अधिक है। चाहे परमेश्वर मानवजाति के भ्रष्ट स्वभावों को कितनी भी गहराई से या ठोस तरीके से उजागर करे, मसीह-विरोधी उसे नकारते और ठुकराते हैं, उसे सत्य या परमेश्वर के कार्य के रूप में नहीं स्वीकारते। वे बस यह मानते और विश्वास करते हैं कि पर्याप्त रूप से बुरे, निर्दयी, दुष्ट, भयावह और शातिर होना ही अंततः दृढ़ रहने, और इस समाज में और बुरी प्रवृत्तियों के बीच अंत तक खड़े रहने और अपनी स्थिति बनाए रखने का एकमात्र तरीका है। यह मसीह-विरोधियों का तर्क है। इसलिए, मसीह-विरोधी परमेश्वर के धार्मिक और पवित्र सार, परमेश्वर की वफादारी और सर्वशक्तिमत्ता, और ऐसी दूसरी सकारात्मक चीजों के प्रति शत्रुता और घृणा रखते हैं। चाहे लोग परमेश्वर की पहचान, सार और उसके समस्त कार्य के बारे में कैसे भी गवाही दें, और चाहे वे कितने भी ठोस और वास्तविक तरीके से ऐसा करें, मसीह-विरोधी उसे नहीं स्वीकारते, वे नहीं स्वीकारते कि यह परमेश्वर का कार्य है, इसके भीतर खोजने के लिए सत्य है, या यह परमेश्वर के बारे में मानवजाति के ज्ञान के लिए सर्वोत्तम शैक्षिक सामग्री और गवाही है। इसके विपरीत, शैतान जो भी छोटी-मोटी चीज करता है, चाहे वह जानबूझकर की जाए या अनजाने में, मसीह-विरोधी उसकी प्रशंसा में दंडवत हो जाते हैं। जब शैतान द्वारा की जाने वाली चीजों की बात आती है, तो मसीह-विरोधी समान रूप से उन चीजों को स्वीकारते हैं, मानते हैं, पूजते हैं और उनका पालन करते हैं, भले ही उन्हें मानवजाति के बीच महान माना जाता हो या नीच। लेकिन एक चीज है जो मसीह-विरोधियों को परेशान करती है : बुद्ध ने कहा कि वह लोगों को शुद्ध भूमि पर पहुँचा सकता है, और मसीह-विरोधी सोचते हैं : “यह शुद्ध भूमि स्वर्ग के राज्य और परमेश्वर द्वारा बताए गए स्वर्ग से कमतर लगती है—यह नितांत आदर्श नहीं है। हालाँकि शैतान शक्तिशाली है और वह लोगों को अनंत लाभ प्रदान कर सकता है, और उनकी तमाम महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी कर सकता है, लेकिन एक चीज जो वह नहीं कर सकता, वह है मनुष्य से वादा करना, लोगों को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और अनंत जीवन प्राप्त करने में सक्षम बनाना। शैतान ऐसा दावा करने की हिम्मत नहीं करता और न ही वह ऐसा कर सकता है।” अपने दिल की गहराई में मसीह-विरोधी महसूस करते हैं कि यह अकल्पनीय है, और साथ ही, उन्हें लगता है कि यह सबसे खेदजनक बात है। इसलिए, अनिच्छा से परमेश्वर का अनुसरण करते हुए, वे अभी भी इस बारे में साजिश रचते हैं कि कैसे अधिक से अधिक आशीष प्राप्त करें, और कौन उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पूरी कर सकता है। वे हिसाब-किताब करते रहते हैं और अंततः, उनके पास परमेश्वर के घर में रहने से समझौते करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों के आधार पर, परमेश्वर के प्रति उनका रवैया और दृष्टिकोण क्या होता है? क्या उनमें सच्चे विश्वास का एक अंश भी है? क्या उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था है? क्या वे परमेश्वर के क्रियाकलापों को थोड़ा भी स्वीकारते हैं? क्या वे अपने दिल की गहराई से इस तथ्य पर “आमीन” कह सकते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य, जीवन और मार्ग हैं? परमेश्वर ने मानवजाति के बीच इतना महान कार्य किया है—क्या मसीह-विरोधी अपने दिल की गहराई से परमेश्वर की महान शक्ति और धार्मिक स्वभाव की प्रशंसा कर सकते हैं? (नहीं कर सकते।) यह वास्तव में इसलिए है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर की उस पहचान, सार और उसके समस्त कार्य को नकारते हैं, जिसकी वे उसका अनुसरण करने की प्रक्रिया के दौरान लगातार बड़ाई करते हैं और गवाही देते हैं, और लोगों का समर्थन और दिल जीतने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि लोगों के दिलों को नियंत्रित कर उन्हें पिंजरे में बंद करने की कोशिश करते हैं, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उससे प्रतिस्पर्धा करते हैं। ऐसी तमाम अभिव्यक्तियाँ साबित करती हैं कि मसीह-विरोधी परमेश्वर की पहचान और सार कभी नहीं स्वीकारते, न ही यह स्वीकारते हैं कि मानवजाति और सभी चीजें सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के अधीन हैं। यही वह चीज है, जिसका हमने पिछली बार परमेश्वर के अस्तित्व के संबंध में मसीह-विरोधियों के विचारों, अभिव्यक्तियों और खुलासों के बारे में विश्लेषण किया था। चूँकि मसीह-विरोधी परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में ये विचार और अभिव्यक्तियाँ रखते हैं, तो फिर मसीह, देहधारी परमेश्वर के देह के प्रति उनका रवैया क्या होता है? क्या वे वास्तव में उस पर विश्वास कर सकते हैं, उसे स्वीकार सकते हैं, उसका अनुसरण कर सकते हैं और उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं? (नहीं।) परमेश्वर के अस्तित्व के प्रति मसीह-विरोधियों के व्यवहार को देखते हुए, वे परमेश्वर के आत्मा के प्रति ऐसा रवैया रखते हैं, इसलिए कहने की आवश्यकता नहीं कि देहधारी परमेश्वर के देह के प्रति उनका रवैया उसके आत्मा के प्रति उनके रवैये से भी ज्यादा घृणित होना चाहिए, और इसकी अभिव्यक्तियाँ अधिक स्पष्ट और गंभीर होनी चाहिए।
II. मसीह-विरोधी मसीह के सार को नकारते हैं
आज हम इस बात पर संगति करेंगे कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के अस्तित्व में अपने छद्म-विश्वास के आधार पर मसीह, देहधारी परमेश्वर के देह के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। यह एक व्यापक रूप से स्वीकृत तथ्य है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। इस समस्त संगति, खुलासे और विश्लेषण के बाद क्या तुम लोगों को मसीह-विरोधियों के स्वभावों और अभिव्यक्तियों के बारे में कुछ ठोस समझ मिली है? चाहे वे देहधारी परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य या परमेश्वर के देहधारी होने के तथ्य को स्वीकारें या न स्वीकारें, वास्तव में, वे परमेश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं। तो, वे वास्तव में किस तरह के लोग हैं? ठीक-ठीक कहें तो, वे अवसरवादी छद्म-विश्वासी हैं, वे फरीसी हैं। उनमें से कुछ स्पष्ट रूप से बुरे दिखाई देते हैं, जबकि अन्य परिष्कृत, गरिमामय और महान व्यवहार के साथ विनम्र दिखाई देते हैं—वे मानक फरीसी हैं। जब इन दो प्रकार के लोगों की बात आती है—वे जो बुरे दिखाई देते हैं और वे जो बुरे नहीं बल्कि पवित्र दिखाई देते हैं—अगर वे मूल रूप से परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, तो क्या हम कह सकते हैं कि वे छद्म-विश्वासी हैं? (बिल्कुल।) आज हम इस बात पर संगति कर रहे हैं कि छद्म-विश्वासी मसीह के प्रति क्या विचार और दृष्टिकोण रखते हैं, मसीह के विभिन्न पहलुओं के प्रति वे क्या अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं, और इन अभिव्यक्तियों के माध्यम से हम मसीह-विरोधियों के सार को कैसे समझ सकते हैं।
क. मसीह-विरोधी मसीह की उत्पत्ति को कैसे लेते हैं
जब मसीह की बात आती है जो एक विशेष पहचान वाला साधारण व्यक्ति है, तो लोग आम तौर पर किन चीजों में सबसे ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं? सबसे पहले, क्या बहुत-से लोग उसकी उत्पत्ति के बारे में दिलचस्पी नहीं लेते? यह लोगों के ध्यान का केंद्र-बिंदु है। तो आओ, पहले इस बात पर संगति करते हैं कि मसीह-विरोधी मसीह की उत्पत्ति को कैसे लेते हैं। इस पर संगति करने से पहले, आओ इस बारे में बात करते हैं कि जब परमेश्वर ने देहधारण किया, तो उसने अपने देह की उत्पत्ति के विभिन्न पहलुओं की योजना कैसे बनाई। जैसा कि सर्वविदित है, अनुग्रह के युग में मसीह पवित्र आत्मा द्वारा गर्भ में आया और एक कुँआरी से पैदा हुआ। उसका जन्म एक बहुत ही साधारण, सामान्य परिवार में हुआ था, जिसे आज की शब्दावली में आम नागरिकों का घर कहा जाएगा। वह किसी धनी, अधिकारी या प्रतिष्ठित बड़े परिवार में पैदा नहीं हुआ था—यहाँ तक कि वह एक अस्तबल में पैदा हुआ था, जो बहुत ही अचिंतनीय और सभी की कल्पनाओं से परे था। पहले देहधारी परमेश्वर के देह की उत्पत्ति के हर पहलू को देखते हुए, जिस परिवार में देहधारी परमेश्वर का जन्म हुआ, वह बहुत ही साधारण था। उसकी माँ मरियम भी साधारण थी, कोई असाधारण इंसान नहीं थी, और निश्चित रूप से उसके पास कोई विशेष शक्तियाँ या असाधारण, अद्वितीय प्रतिभाएँ नहीं थीं। लेकिन, यह ध्यान देने योग्य है कि वह छद्म-विश्वासी या गैर-विश्वासी नहीं थी, बल्कि परमेश्वर की अनुयायी थी। यह बहुत महत्वपूर्ण है। मरियम का पति यूसुफ बढ़ई था। बढ़ई एक तरह का शिल्पकार होता है, और उसकी आय औसत थी, लेकिन वह अमीर नहीं था और उसके पास ज्यादा पैसे नहीं थे। लेकिन वह दरिद्र भी नहीं था और अपने परिवार की तमाम बुनियादी जरूरतें पूरी कर सकता था। प्रभु यीशु इस तरह के परिवार में जन्मा था; आज की आय और जीवन-स्थितियों के मानकों को देखते हुए, उसका परिवार मुश्किल से ही मध्यवर्गीय परिवार माना जा सकता है। ऐसे परिवार को मानवजाति के बीच महान माना जाएगा या निम्न? (निम्न माना जाएगा।) इसलिए, जिस परिवार में प्रभु यीशु का जन्म हुआ, वह प्रसिद्ध, धनी या प्रतिष्ठित नहीं था, और आजकल जिसे उच्चवर्गीय परिवार माना जाता है, वह तो बिल्कुल नहीं था। जब धनी या उच्च हैसियत वाले परिवारों के बच्चे बाहर जाते हैं, तो लोग आम तौर पर उन्हें घेर लेते हैं और उनके इर्द-गिर्द जमा हो जाते हैं, लेकिन प्रभु यीशु का परिवार इसके विपरीत था। उसका जन्म ऐसे परिवार में हुआ था, जहाँ न तो सुख-सुविधापूर्ण जीवन-स्थितियाँ थीं और न ही जिसकी कोई उल्लेखनीय हैसियत थी। यह एक बहुत ही साधारण परिवार था, जिस पर लोग ध्यान नहीं देते थे और उसे अनदेखा कर देते थे, कोई भी उनकी प्रशंसा नहीं करता था या उनके इर्द-गिर्द नहीं जुटता था। उस समय ऐसी पृष्ठभूमि और सामाजिक परिवेश में, क्या मसीह उच्च शिक्षा प्राप्त करने या उच्च समाज की विभिन्न जीवन-शैलियों, विचारों, दृष्टिकोणों आदि से प्रभावित और संक्रमित होने की स्थिति में था? स्पष्ट रूप से, वह इस स्थिति में नहीं था। उसने सामान्य शिक्षा प्राप्त की, घर पर ही इंजील पढ़ा, अपने माता-पिता से कहानियाँ सुनीं और उनके साथ कलीसिया की सेवाओं में हिस्सा लिया। हर लिहाज से, प्रभु यीशु की उत्पत्ति और वह संदर्भ जिसमें वह बड़ा हुआ, प्रतिष्ठित या महान नहीं थे, जैसा कि लोग कल्पना कर सकते हैं। जिस परिवेश में वह बड़ा हुआ, वह एक साधारण व्यक्ति के परिवेश जैसा ही था। उसका दैनिक जीवन सरल और साधारण था, उसकी जीवन-स्थितियाँ औसत व्यक्ति के जैसी ही थीं, वे कुछ खास नहीं थीं, और उसे समाज के उच्च वर्गों वाली विशेष, उत्कृष्ट जीवन-स्थितियाँ नहीं मिली थीं। यह वह संदर्भ था, जिसमें प्रथम देहधारी परमेश्वर के देह का जन्म हुआ, और यह वह परिवेश था जिसमें वह बड़ा हुआ।
हालाँकि इस बार देहधारी परमेश्वर का लिंग पिछली बार से पूरी तरह से भिन्न है, लेकिन उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि वैसी ही साधारण है और उल्लेखनीय हैसियत वाली नहीं है। कुछ लोग पूछते हैं, “कितनी साधारण?” वर्तमान युग में साधारण का अर्थ है एक सामान्य जीवन-यापन वाला परिवेश। मसीह का जन्म एक मजदूर के परिवार में हुआ था, अर्थात्, ऐसे परिवार में जो जीविका के लिए मजदूरी पर निर्भर करता है, अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सकता है, लेकिन धनी लोगों जितना समृद्ध नहीं है। मसीह ने साधारण लोगों के साथ संबंध बनाए और साधारण लोगों के जीवन से अवगत हुआ; वह इस तरह के परिवेश में रहा, इसमें कुछ खास नहीं था। आम तौर पर, क्या मजदूर-परिवारों के बच्चे कलात्मक कौशल सीखने की स्थिति में होते हैं? क्या उन्हें उच्च समाज में प्रचलित विभिन्न विचारों से अवगत होने का अवसर मिलता है? (नहीं मिलता।) न केवल वे विभिन्न कौशल सीखने की स्थिति में नहीं होते, बल्कि इससे भी बढ़कर, उनके पास उच्च समाज के लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आने के अवसर भी नहीं होते। इस परिप्रेक्ष्य से, इस बार देहधारी परमेश्वर का जन्म जिस परिवार में हुआ, वह बहुत साधारण है। उसके माता-पिता ऐसे लोग हैं, जो सम्मानजनक तरीके से अपना दिन गुजारते हैं, जिनकी आजीविका उनके काम और नौकरियों पर निर्भर करती है, और उनकी जीवन-स्थितियाँ औसत हैं। आधुनिक समाज में ऐसी स्थितियाँ सबसे आम हैं। गैर-विश्वासियों के परिप्रेक्ष्य से, मसीह के जन्म के परिवेश में कोई उत्कृष्ट स्थितियाँ नहीं थी, और उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि या जीवन की गुणवत्ता में कुछ भी ऐसा नहीं था जिस पर गर्व किया जा सके। कुछ मशहूर हस्तियाँ विद्वान परिवारों में पैदा हुई हैं; उनके सभी पूर्वज शिक्षक और वरिष्ठ बुद्धिजीवी थे। एक विद्वान परिवार की शैली और आचरण के साथ वे इस परिवेश में पले-बढ़े। क्या देहधारी परमेश्वर ने अपने देह के लिए ऐसी ही पारिवारिक पृष्ठभूमि चुनी? नहीं। इस बार देहधारी परमेश्वर की कोई प्रतिष्ठित पारिवारिक पृष्ठभूमि और प्रमुख सामाजिक हैसियत भी नहीं है, और बेहतर जीवन-परिवेश तो उसके पास बिल्कुल भी नहीं था—उसका परिवार बिल्कुल साधारण है। आओ, अभी इस बात पर चर्चा नहीं करते कि अपने पलने-बढ़ने के लिए देहधारी परमेश्वर ने ऐसा परिवार, जीवन-परिवेश और ऐसी पृष्ठभूमि क्यों चुनी; हम अभी इसके महत्व के बारे में बात नहीं करेंगे। मुझे बताओ, क्या कुछ लोग इस बात में दिलचस्पी नहीं दिखाते कि मसीह ने विश्वविद्यालय में पढ़ाई की थी या नहीं? मैं तुम लोगों को सच बताता हूँ : मैंने कॉलेज प्रवेश परीक्षा देने से पहले ही स्कूल छोड़ दिया था और 17 साल की उम्र में घर छोड़कर चला गया था। तो क्या मैंने विश्वविद्यालय में दाखिला लिया? (नहीं।) तुम लोगों के लिए यह बुरी खबर है या अच्छी? (मुझे लगता है कि इसे जानने से कोई फर्क नहीं पड़ता, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए यह अप्रासंगिक है।) यह सही परिप्रेक्ष्य है। मैंने पहले कभी इसका जिक्र नहीं किया, इसलिए नहीं कि मैं इसे छिपाना या ढकना चाहता था, बल्कि इसलिए कि यह कहना अनावश्यक है, क्योंकि परमेश्वर को जानने और उसका अनुसरण करने के लिए ये चीजें पूरी तरह से अप्रासंगिक हैं। हालाँकि देहधारी परमेश्वर के जन्म की पृष्ठभूमि का, उसके पारिवारिक परिवेश का और उस परिवेश का जिसमें वह पला-बढ़ा, परमेश्वर या देहधारी परमेश्वर को जानने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, और वे वास्तव में इन चीजों से संबंधित नहीं हैं, फिर भी मैं यहाँ इन मुद्दों का जिक्र क्यों कर रहा हूँ? यह मसीह के प्रति मसीह-विरोधियों के विचारों में से एक के बारे में बताता है, जिसका हम आज विश्लेषण कर रहे हैं। देहधारी परमेश्वर ने अपने देह के लिए कोई प्रमुख हैसियत, कुलीन पहचान या प्रतिष्ठित परिवार और सामाजिक पृष्ठभूमि नहीं चुनी, और अपने बड़े होने के लिए कोई श्रेष्ठ, चिंतामुक्त, समृद्ध, विलासी परिवेश तो बिल्कुल नहीं चुना। परमेश्वर ने ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी नहीं चुनी, जहाँ वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकता या उच्च समाज के संपर्क में आ सकता। जब परमेश्वर ने देहधारण किया, तो उसके द्वारा चुने गए विकल्पों के इन पहलुओं पर विचार करते हुए, क्या ये चीजें उस कार्य को प्रभावित करतीं, जिसे करने के लिए मसीह आया था? (नहीं।) उसके बाद के कार्य की प्रक्रिया, प्रकृति और परिणामों को देखते हुए, ये पहलू किसी भी तरह से परमेश्वर की कार्य-योजना, कार्य के चरणों या परिणामों को प्रभावित नहीं करते, बल्कि इसके विपरीत, उसके चुनाव के इन पहलुओं का एक निश्चित लाभ है, अर्थात, परमेश्वर का ऐसे परिवेश में जन्म लेना उसके चुने हुए लोगों के उद्धार के लिए ज्यादा लाभदायक है, क्योंकि उनमें से 99% ऐसी ही पृष्ठभूमि से आते हैं। यह देहधारी परमेश्वर की उत्पत्ति के महत्व का एक पहलू है, जिसे लोगों को समझना चाहिए।
अभी-अभी मैंने मसीह के जन्म की पृष्ठभूमि और परिवेश के बारे में सरल, व्यापक शब्दावली में बात की, ताकि तुम्हें इसकी एक सामान्य समझ मिल सके। इसके बाद, आओ इस बात का विश्लेषण करते हैं कि मसीह-विरोधी देहधारी परमेश्वर की उत्पत्ति को कैसे लेते हैं। पहले, मसीह-विरोधी गुप्त रूप से मसीह के जन्म के परिवेश और पृष्ठभूमि से घृणा करते हैं और उसके प्रति विद्रोही महसूस करते हैं। वे इससे घृणा क्यों करते हैं और इसके प्रति विद्रोही क्यों महसूस करते हैं? क्योंकि वे अपने भीतर विचार और धारणाएँ पालते हैं। इस पर उनका क्या परिप्रेक्ष्य होता है? “परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, वह सभी से श्रेष्ठ है, वह स्वर्ग से ऊपर है, और मानवजाति और अन्य सभी सृजित प्राणियों से ऊपर है। अगर वह परमेश्वर है तो उसे मानवजाति के बीच सर्वोच्च स्थान प्राप्त करना चाहिए।” उसके सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने से उनका क्या मतलब है? उनका मतलब है कि उसे सभी से बेहतर होना चाहिए, उसे एक प्रतिष्ठित, कुलीन बड़े परिवार में जन्म लेना चाहिए, और उसे किसी चीज की कमी नहीं होनी चाहिए; उसे अपने मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होना चाहिए, उसके पास पूर्ण शक्ति और साथ ही अधिकार और प्रभाव होना चाहिए, और उसे विशेष रूप से धनी और अरबपति होना चाहिए। साथ ही, उसे उच्च शिक्षित होना चाहिए, इस दुनिया में मनुष्यों को जो कुछ भी जानना चाहिए, उसे वह सब सीखना चाहिए। उदाहरण के लिए, सिंहासन के उत्तराधिकारी राजकुमार की तरह, उसे संबधित विषय-विशेषज्ञों से अकेले में शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, कुलीन स्कूलों में जाना चाहिए और उच्च वर्ग के जीवन का आनंद लेना चाहिए। उसे एक साधारण परिवार का बालक नहीं होना चाहिए। चूँकि मसीह देहधारी है, इसलिए उसकी शिक्षा अन्य सभी लोगों से बढ़कर होनी चाहिए, और उसकी अध्ययन-सामग्री सामान्य लोगों से अलग होनी चाहिए। उन्हें लगता है कि चूँकि मसीह एक राजा की तरह शासन करने आता है, इसलिए उसे शासन करने की कला सीखनी चाहिए, साथ ही यह भी सीखना चाहिए कि मानवजाति पर शासन और नियंत्रण कैसे करना है, और उसे छत्तीस युक्तियों का अध्ययन करना चाहिए, और कई भाषाएँ और कुछ कलात्मक कौशल सीखने चाहिए, ताकि ये चीजें उसके भविष्य के कार्य में इस्तेमाल हो सकें और वह भविष्य में सभी प्रकार के लोगों पर शासन कर सके। उनके विचार से केवल ऐसा मसीह ही अभिजात, महान और लोगों को बचाने में सक्षम होगा, क्योंकि उसके पास पर्याप्त ज्ञान और प्रतिभाएँ होंगी, और लोगों के दिमाग पढ़ने की पर्याप्त क्षमता होगी, ताकि वह उन्हें नियंत्रित कर सके। मसीह-विरोधी देहधारी परमेश्वर के देह की उत्पत्ति के बारे में ऐसी धारणाएँ रखते हैं और देहधारी परमेश्वर को स्वीकारते हुए वे ये धारणाएँ बनाए रखते हैं। पहले, वे अपनी धारणाएँ दूर नहीं करते और परमेश्वर जो कुछ करता है, उसे अपने दिल की गहराई से नए सिरे से नहीं समझते-बूझते। वे अपनी धारणाओं और विचारों को नहीं नकारते, वे जो भ्रांतियाँ पालते हैं उन्हें नहीं समझते, और वे मसीह और देहधारी परमेश्वर के देह को नहीं जानते, और मसीह जो कुछ भी कहता और करता है उसे सत्य के प्रति समर्पण के रवैये और सिद्धांत के साथ नहीं स्वीकारते। इसके बजाय, वे मसीह द्वारा कही गई हर बात को अपनी धारणाओं और विचारों से मापते हैं। “मसीह का यह कथन अतार्किक है; उस कथन की शब्दावली खराब है; इसमें व्याकरण संबंधी त्रुटि है; तुम कह सकते हो कि मसीह उच्च शिक्षित नहीं है। क्या वह एक आम आदमी की तरह नहीं बोलता? मसीह इस तरह कैसे बोल सकता है? यह उसकी गलती नहीं है। वास्तव में, वह भी प्रतिष्ठित होना चाहता है, दूसरों द्वारा सम्मानित होना चाहता है, लेकिन यह संभव नहीं है—वह अच्छे परिवार से नहीं आता। उसके माता-पिता बस साधारण लोग थे, और जिस तरह के वे थे, उसने उसे उसी तरह का व्यक्ति बनने के लिए प्रभावित किया है। परमेश्वर ऐसा कैसे कर सकता है? मसीह के शब्द और तरीका बहुत सुंदर और महान क्यों नहीं लगते? उसके पास समाज के विद्वानों और परिष्कृत बुद्धिजीवियों, समाज के उच्च वर्गों की राजकुमारियों और राजकुमारों की बोलचाल और तरीका क्यों नहीं हैं? मसीह के शब्द और कर्म उसकी पहचान के साथ इतने असंगत क्यों लगते हैं?” मसीह-विरोधी मसीह और उसके सभी वचनों और कार्य को, लोगों के साथ उसके व्यवहार को, और उसके भाषण और तरीके को कैसे देखते हैं, इसमें मसीह-विरोधी इसी तरह का परिप्रेक्ष्य और अवलोकन करने का दृष्टिकोण रखते हैं, और अनिवार्य रूप से उनके दिलों में धारणाएँ पैदा होती हैं। वे न केवल मसीह के प्रति समर्पण नहीं करते, बल्कि उसके वचनों को सही ढंग से लेने में भी विफल रहते हैं। वे कहते हैं, “क्या ऐसा साधारण व्यक्ति, ऐसा आम आदमी मेरा उद्धारकर्ता हो सकता है? क्या वह मुझे आशीष दे सकता है? क्या मैं उससे कोई लाभ प्राप्त कर सकता हूँ? क्या मेरी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ पूरी हो सकती हैं? यह व्यक्ति इतना साधारण है कि उसे हीन दृष्टि से देखा जा सकता है।” जितना ज्यादा मसीह-विरोधी मसीह को साधारण और औसत मानते हैं, और सोचते हैं कि मसीह बहुत सामान्य है, उतना ही ज्यादा वे खुद को उदात्त और महान समझते हैं। साथ ही, कुछ मसीह-विरोधी तो तुलना तक कर डालते हैं, “तुम जवान हो और नहीं जानते कि कपड़े कैसे पहनने चाहिए या लोगों से कैसे बात करनी चाहिए। तुम नहीं जानते कि लोगों से बातें कैसे निकलवाई जाएँ। तुम इतने सीधे क्यों हो? तुम्हारी कही कोई भी चीज परमेश्वर के सदृश कैसे हो सकती है? तुम्हारी कही कोई भी चीज यह कैसे दर्शाती है कि तुम परमेश्वर हो? तुम्हारे क्रियाकलाप, भाषण, व्यवहार, तरीका और पहनावा परमेश्वर के सदृश कैसे है? मुझे नहीं लगता कि तुम इनमें से किसी भी मामले में परमेश्वर के सदृश हो। मसीह को उच्च शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए, बाइबल बहुत अच्छी तरह से आनी चाहिए और वाक्पटुता के साथ बोलना चाहिए, लेकिन तुम हमेशा खुद को दोहराते हो और कभी-कभी ऐसे शब्दों का उपयोग करते हो, जो उपयुक्त नहीं होते।” कई वर्षों से मसीह का अनुसरण करने के बाद भी मसीह-विरोधियों ने न केवल परमेश्वर के वचनों और सत्य को अपने दिलों में स्वीकार नहीं किया है, बल्कि उन्होंने इस तथ्य को भी स्वीकार नहीं किया है कि मसीह देहधारी परमेश्वर का देह है। यह उनके द्वारा मसीह को अपने उद्धारकर्ता के रूप में न स्वीकारने के बराबर है। इसके बजाय, वे अपने दिलों में देहधारी परमेश्वर के देह को, इस साधारण व्यक्ति को, और भी ज्यादा तुच्छ समझते हैं। चूँकि वे मसीह में कुछ भी खास नहीं देखते, चूँकि उसकी उत्पत्ति बहुत ही सामान्य और साधारण थी, और चूँकि वह समाज में या मानवजाति के बीच उन्हें कोई लाभ पहुँचाने या उन्हें किसी भी लाभ का आनंद लेने में सक्षम बनाने में असमर्थ लगता है, इसलिए वे बेलगाम होकर और खुले तौर पर उसकी आलोचना करना शुरू कर देते हैं, “क्या तुम बस फलाँ-फलाँ परिवार के बालक नहीं हो? फिर मेरे द्वारा तुम्हारी आलोचना करने में क्या गलत है? तुम मेरा कर ही क्या सकते हो? अगर तुम्हारा कोई प्रतिष्ठित परिवार होता या तुम्हारे माता-पिता अधिकारी होते तो मैं तुमसे डर सकता था। लेकिन जैसे तुम हो, तो मैं तुमसे क्यों डरूँ? इसलिए, अगर तुम मसीह हो, परमेश्वर द्वारा प्रमाणित देहधारी देह हो, तो भी मैं तुमसे नहीं डरता! मैं अभी भी तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना करूँगा, और तुम पर खुलकर टिप्पणी करूँगा। जब भी मुझे मौका मिलेगा, मैं तुम्हारे परिवार और जन्मस्थान की जाँच करूँगा।” ये मसीह-विरोधियों की पसंदीदा चीजें हैं, जिन पर वे हंगामा करते हैं। वे कभी सत्य नहीं खोजते, और जो कुछ भी उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाता, उसकी बार-बार आलोचना और विरोध करते हैं। ये लोग अच्छी तरह जानते हैं कि मसीह जो कुछ व्यक्त करता है वह सत्य है, तो वे सत्य क्यों नहीं खोजते? वे वास्तव में अविवेकी हैं!
मसीह-विरोधी विशेष रूप से शक्ति और हैसियत की पूजा करते हैं। अगर मसीह एक धनी, शक्तिशाली परिवार से आता, तो वे कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं करते। लेकिन चूँकि वह एक साधारण परिवार से है जिसके पास शक्ति नहीं है, इसलिए वे उससे बिल्कुल नहीं डरते, उन्हें लगता है कि वे बड़ी सहजता से परमेश्वर, मसीह का अध्ययन और उसकी आलोचना कर सकते हैं, और वे इस बारे में पूरी तरह बेपरवाह हैं। अगर वे वास्तव में यह स्वीकारते और मानते कि यह व्यक्ति देहधारी परमेश्वर है, तो क्या वे ऐसा कर सकते थे? क्या कोई भी ऐसा व्यक्ति, जिसका दिल थोड़ा भी परमेश्वर का भय मानता हो, ऐसा करेगा? क्या वह खुद को संयमित नहीं करेगा? (बिल्कुल करेगा।) कैसे लोग इस तरह से कार्य कर सकते हैं? क्या यह मसीह-विरोधियों का व्यवहार नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुम स्वीकारते हो कि मसीह का सार स्वयं परमेश्वर है और जिस व्यक्ति का तुम अनुसरण करते हो वह परमेश्वर है, तो तुम्हें मसीह से संबंधित हर चीज कैसे लेनी चाहिए? क्या लोगों के पास सिद्धांत नहीं होने चाहिए? (हाँ, होने चाहिए।) फिर वे बिना संशय के इन सिद्धांतों का उल्लंघन करने की हिम्मत क्यों करते हैं? क्या यह मसीह के प्रति शत्रुता की अभिव्यक्ति नहीं है? चूँकि मसीह का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था, इसलिए मसीह-विरोधी मसीह से असंतुष्ट होने के साथ-साथ उसके परिवार और परिवार के सदस्यों के प्रति भी शत्रुता रखते हैं। और जब उनमें यह शत्रुता पैदा होती है, तो वे रुकते या ठहरते नहीं, बल्कि मसीह के घर के आसपास मँडराते रहते हैं और जब भी मौका मिलता है, पूछताछ करते हैं, मानो वे कोई वैध व्यवसाय कर रहे हों : “क्या मसीह वापस आ गया है? क्या मसीह के जन्म के बाद से उसके परिवार के जीवन का कोई हिस्सा बदल गया है?” वे हर मौके पर इन मामलों में अपनी टाँग अड़ाते हैं। क्या ऐसे लोग घृणास्पद नहीं हैं? क्या वे घिनौने नहीं हैं? क्या वे घृणित नहीं हैं? वे बेहद घृणित और नीच हैं! आओ, अभी यह बात छोड़ देते हैं कि परमेश्वर में उनकी आस्था कैसी है, और बस इस पर विचार करते हैं : जो लोग ऐसी चीजें कर सकते हैं और ऐसे घिनौने विचार रख सकते हैं, उनका चरित्र कैसा होना चाहिए? उनका चरित्र नीच होना चाहिए। वे सभी कमीने और बेहद घृणित और घिनौने हैं! अगर तुम मसीह में विश्वास नहीं करते, तो तुम मुझसे स्पष्ट रूप से कह सकते हो, “तुम परमेश्वर जैसे नहीं लगते; तुम सिर्फ एक व्यक्ति हो। मैंने तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारी आलोचना की है—तुम इसके बारे में क्या कर सकते हो? मैंने तुम्हें नकार दिया है—तुम इसके बारे में क्या कर सकते हो?” अगर तुम विश्वास नहीं करते, तो मैं तुम्हें ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं करूँगा, और कोई भी तुमसे ऐसा करने का आग्रह नहीं करेगा। लेकिन तुम्हें गुप्त रूप से इन तुच्छ क्रियाकलापों में शामिल होने की कोई जरूरत नहीं। वे किस उद्देश्य की पूर्ति करते हैं? क्या वे तुम्हारी आस्था बढ़ाने में मदद कर सकते हैं? क्या वे तुम्हारी जीवन-प्रगति में मदद कर सकते हैं या परमेश्वर को और अधिक समझने में तुम्हारी मदद कर सकते हैं? वे इनमें से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं करते, तो उनमें शामिल क्यों होते हो? कम से कम, जो लोग ऐसे क्रियाकलापों में शामिल होते हैं, उनमें अत्यंत घृणित मानवता होती है; वे मसीह के सार में विश्वास नहीं करते या उसकी पहचान नहीं स्वीकारते। अगर तुम विश्वास नहीं करते तो मत करो। चले जाओ! परमेश्वर के घर में अपने निवास को इतना लंबा क्यों खींचते हो? परमेश्वर में विश्वास न करना और फिर भी आशीष चाहना और महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पालना—यह मसीह-विरोधियों का घिनौनापन है। बेहद घिनौने होने के कारण ऐसे लोग ऐसे “असाधारण” क्रियाकलापों में सक्षम होते हैं। मैं 20 साल घर से दूर रहा, और इन लोगों ने 20 साल उस घर की “अच्छी देखभाल” की; मैं 30 साल घर से दूर रहा, और उन्होंने 30 साल उसकी “देखभाल” की। मैंने सोचा कि ये इतने “दयालु” और आलसी क्यों हैं। मुझे इस प्रश्न का उत्तर मिल गया, जो यह है कि वे अंत तक परमेश्वर का विरोध करना चाहते हैं। वे परमेश्वर के सार में या जो कुछ भी उसने किया है उसमें विश्वास नहीं करते। सतही तौर पर वे जिज्ञासु और चिंतित लगते हैं, लेकिन सार में वे निगरानी कर रहे होते हैं और लाभ उठाने की कोशिश कर रहे होते हैं, भीतर से वे शत्रुतापूर्ण, नकारने वाले और निंदक हैं। फिर भी ये लोग विश्वास क्यों करते हैं? परमेश्वर में विश्वास करने का उनका क्या मतलब है? उन्हें विश्वास करना बंद कर देना चाहिए और यहाँ से जल्दी से निकल जाना चाहिए! परमेश्वर के घर को ऐसे लोगों की आवश्यकता नहीं है। उन्हें खुद को शर्मिंदा नहीं करना चाहिए! क्या ऐसी परिस्थितियों और स्थितियों में तुम लोग यही करोगे? अगर तुम कर सकते हो, तो तुम लोग भी उन जैसे ही हो, मसीह-विरोधियों का एक समूह, जो अंत तक, मृत्यु तक लगातार परमेश्वर का विरोध करने के लिए दृढ़-संकल्प है, जो स्थिति का लाभ उठाने और परमेश्वर, उसके सार और उसकी पहचान नकारने के लिए उसके बारे में सबूत खोजने की कोशिश कर रहा है।
परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, वह कभी गलत नहीं होता। चाहे वह किसी सामान्य, साधारण परिवेश और पृष्ठभूमि में पैदा हुआ हो या किसी प्रतिष्ठित परिवेश और पृष्ठभूमि में, इसमें कोई दोष नहीं होगा, और लोगों को उसका फायदा उठाने की कोई गुंजाइश नहीं होगी। अगर तुम यह साबित करने के लिए देहधारी परमेश्वर में कोई दोष या सबूत खोजने की कोशिश करते हो कि वह मसीह नहीं है या उसमें परमेश्वर का सार नहीं है, तो मैं तुमसे कहता हूँ, तुम्हें कोशिश करने की जरूरत नहीं है, और तुम्हें विश्वास करने की भी जरूरत नहीं है। बस चले जाओ—तब क्या तुम मुसीबत से बच नहीं जाओगे? अपने लिए जीवन इतना कठिन क्यों बनाते हो? मसीह पर आरोप लगाने, उसे नकारने या उसकी निंदा करने के लिए उसमें दोष या सबूत खोजने की कोशिश करना तुम्हारा वैध व्यवसाय, कर्तव्य या जिम्मेदारी नहीं है। मसीह का जन्म जिस भी परिवार में हुआ हो, वह जिस भी परिवेश में बड़ा हुआ हो, या उसकी मानवता जैसी भी हो, यह स्वयं परमेश्वर, सृष्टिकर्ता का चुनाव था, और इसका किसी से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही है, वह सत्य है और वह मानवजाति की खातिर किया जाता है। अगर परमेश्वर का जन्म किसी साधारण परिवार में न होकर किसी महल में हुआ होता, तो क्या किसी साधारण व्यक्ति या निम्न सामाजिक वर्ग के व्यक्ति को परमेश्वर से बातचीत करने का कोई मौका मिलता? तुम्हें मौका न मिलता। तो, क्या परमेश्वर द्वारा जन्म लेने और बड़ा होने के लिए इस तरह का तरीका चुनने में कुछ गलत है? यह वह प्रेम है जो दुनिया में बेमिसाल है, यह सबसे सकारात्मक चीज है। लेकिन मसीह-विरोधी परमेश्वर द्वारा की गई इस सबसे सकारात्मक चीज को इस बात का संकेत मानते हैं कि उसे धमकाना और उसके साथ खिलवाड़ करना आसान है, और वे लगातार उसकी निगरानी करना चाहते हैं और उसके खिलाफ लाभ उठाने की कोशिश करते हैं। तुम किसकी निगरानी कर रहे हो? अगर तुम मसीह के चरित्र और मानवता पर भी भरोसा नहीं कर सकते, और तुम उसका परमेश्वर के रूप में अनुसरण करते हो, तो क्या तुम अपने ही चेहरे पर तमाचा नहीं मार रहे हो? क्या तुम अपने लिए चीजें मुश्किल नहीं बना रहे हो? यह खेल क्यों खेलते हो? क्या इसमें मजा आता है? बाद में, मैंने देखा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकारने वाले ज्यादातर लोग बाद में इस मामले को सही तरीके से सँभाल पाए। कुछ लोग मेरे साथ बातचीत करते समय उत्सुक थे, लेकिन मैंने ऐसे लोगों से परहेज किया और उन्हें अनदेखा किया। अगर तुम सत्य स्वीकार सकते हो, तो हम एक परिवार हैं। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते और हमेशा मेरी व्यक्तिगत जानकारी के बारे में पूछताछ करने की कोशिश करते रहते हो, तो चले जाओ। मैं तुम्हें नहीं पहचानता; हम परिवार नहीं, बल्कि दुश्मन हैं। अगर, परमेश्वर के इतने सारे वचन सुनने और इतने वर्षों से उसका कार्य और चरवाही प्राप्त करने के बाद भी लोग देहधारी परमेश्वर के बारे में ऐसे विचार रखते हैं और उन पर अमल भी करते हैं, तो यह कहा जाना चाहिए कि ऐसे लोगों का स्वभाव परमेश्वर के प्रति विरोधी है। वे परमेश्वर के जन्मजात दुश्मन हैं, सकारात्मक चीजों को स्वीकारने में असमर्थ हैं।
दो हजार साल पहले, पौलुस ने प्रभु यीशु का विरोध करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था, पागलों की तरह उसे सताया था, उसकी आलोचना और निंदा की थी। क्यों? क्योंकि प्रभु यीशु एक साधारण परिवार में पैदा हुआ था, वह आम जनता की तरह एक सामान्य आदमी था, और उसे धर्मशास्त्रियों और फरीसियों से तथाकथित शिक्षा, संक्रमण या प्रभाव नहीं मिला था। पौलुस की नजर में, ऐसा व्यक्ति मसीह कहलाने योग्य नहीं था। क्यों नहीं था? क्योंकि उसकी एक साधारण पहचान थी, उसका सामाजिक रुतबा ज्यादा नहीं था, और वह मानव-समाज में निम्न वर्ग का सदस्य था, और इस प्रकार वह मसीह या जीवित परमेश्वर का पुत्र कहलाने योग्य नहीं था। इस वजह से, पौलुस ने प्रभु यीशु का विरोध करने के लिए हर संभव प्रयास करने का दुस्साहस किया, उसकी निंदा और विरोध करने के लिए अपने प्रभाव, करिश्मे और सरकार का इस्तेमाल किया, उसके काम को नष्ट किया और उसके अनुयायियों को कैद किया। जब पौलुस ने प्रभु यीशु का विरोध किया, तो उसका मानना था कि वह परमेश्वर के कार्य का बचाव कर रहा है, उसके कार्य न्यायसंगत हैं और वह एक न्यायसंगत बल का प्रतिनिधित्व करता है। उसे लगता था कि वह परमेश्वर का नहीं, बल्कि एक साधारण व्यक्ति का विरोध कर रहा है। चूँकि वह मसीह की उत्पत्ति को महान नहीं, बल्कि नीच मानता था, ठीक इसी वजह से उसने बेईमानी और लापरवाही से मसीह की आलोचना और निंदा करने का साहस किया, और वह अपने क्रियाकलापों के बारे में अपने दिल में विशेष रूप से शांत और स्थिर महसूस करता था। वह किस तरह का प्राणी था? अगर उसे इस बात का एहसास नहीं हुआ था कि प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर है या वह यह नहीं जानता था कि उसके उपदेश और वचन परमेश्वर से आते हैं, तो भी क्या ऐसा साधारण व्यक्ति उसके चौतरफा हमले के लायक था? क्या वह इस तरह के दुर्भावनापूर्ण हमले के लायक था? क्या वह इस लायक था कि दूसरों को धोखा देने और लोगों के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करने के लिए पौलुस अफवाहें फैलाए और झूठ गढ़े? क्या पौलुस के झूठ निराधार नहीं थे? क्या प्रभु यीशु के किसी भी क्रियाकलाप ने पौलुस के हितों या हैसियत को प्रभावित किया था? नहीं। प्रभु यीशु ने निम्न सामाजिक वर्गों के बीच प्रवचन और उपदेश दिए, और साथ ही, बहुत लोगों ने उसका अनुसरण किया। यह पौलुस जैसे व्यक्ति के जीवन-परिवेश से पूरी तरह से अलग दुनिया थी, तो फिर पौलुस ने प्रभु यीशु को क्यों सताया? यह उसका मसीह-विरोधी सार काम कर रहा था। उसने सोचा, “तुम्हारे उपदेश कितने भी भव्य, सही या स्वीकृत क्यों न हों, अगर मैं कहता हूँ कि तुम मसीह नहीं हो, तो तुम मसीह नहीं हो। अगर मैं तुम्हें नापसंद करता हूँ, तो मैं तुम्हें सताऊँगा, मनमाने ढंग से तुम पर आरोप लगाऊँगा और तुम्हें इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा।” चूँकि मसीह की सामान्य मानवता के भीतर मौजूद ये चीजें पौलुस की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती थीं और पौलुस की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं थीं या नहीं की गई थीं, इसलिए पौलुस जैसे मसीह-विरोधी बेईमानी से उसकी आलोचना करने, उसे नकारने और उसकी निंदा करने में सक्षम थे। अंत में क्या हुआ? प्रभु यीशु द्वारा प्रहार करके गिराए जाने के बाद पौलुस ने आखिरकार माना, “हे प्रभु, तू कौन है?” तब प्रभु यीशु ने कहा, “मैं यीशु हूँ, जिसका तुम विरोध करते हो।” तब से पौलुस ने यीशु को एक साधारण व्यक्ति या ऐसा व्यक्ति नहीं माना जो अपनी निम्न उत्पत्ति के कारण मसीह से भिन्न था। क्यों? क्योंकि प्रभु यीशु का प्रकाश लोगों को अंधा कर सकता था, उसके पास अधिकार था और उसके वचन लोगों को और उनकी आत्माओं को प्रहार करके गिरा सकते थे। पौलुस ने मन ही मन सोचा, “क्या यीशु नामक यह व्यक्ति वास्तव में परमेश्वर हो सकता है? क्या यह जीवित परमेश्वर का पुत्र हो सकता है? यह लोगों को प्रहार करके गिरा सकता है, इसलिए वह परमेश्वर ही होना चाहिए। लेकिन बस एक चीज है—जो लोगों को प्रहार करके गिराता है, वह यह साधारण व्यक्ति नहीं है जिसे मसीह कहा जाता है, बल्कि परमेश्वर का आत्मा है। इसलिए, चाहे कुछ भी हो, जब तक तुम यीशु कहलाते रहोगे, तब तक मैं तुम्हारी आराधना में तुम्हारे सामने नहीं झुकूँगा। मैं सिर्फ स्वर्गिक परमेश्वर, परमेश्वर के आत्मा की आराधना करता हूँ।” प्रहार करके गिराए जाने के बाद पौलुस के मन में एक विचार आया। हालाँकि उसे प्रहार करके गिराना एक बुरी बात थी, लेकिन इसने उसे एहसास कराया कि मसीह कहलाने वाले व्यक्ति की एक विशेष पहचान होती है, और मसीह बनना एक बहुत बड़ा सम्मान है, और जो कोई मसीह बनता है वह जीवित परमेश्वर का पुत्र बन सकता है, परमेश्वर के करीब आ सकता है, और परमेश्वर के साथ अपना रिश्ता बदल सकता है, उस साधारण व्यक्ति को विशेष बना सकता है, और उस साधारण व्यक्ति की पहचान को परमेश्वर के पुत्र की पहचान में बदल सकता है। उसने सोचा, “यीशु, भले ही तुम जीवित परमेश्वर के पुत्र हो, लेकिन इसमें इतना प्रभावशाली क्या है? तुम्हारा पिता एक गरीब बढ़ई था और तुम्हारी माँ एक आम गृहिणी थी। तुम आम लोगों के बीच पले-बढ़े और तुम्हारे परिवार की सामाजिक स्थिति निम्न थी और तुममें कोई विशेष योग्यता नहीं है। क्या तुमने कभी उपासना-गृह में प्रवचन दिया है? क्या धर्मशास्त्री और फरीसी तुम्हें मानते हैं? तुमने क्या शिक्षा प्राप्त की है? क्या तुम्हारे माता-पिता के पास ज्ञान की उच्च डिग्री है? तुम्हारे पास इनमें से कुछ नहीं है, फिर भी तुम जीवित परमेश्वर के पुत्र हो। तो, चूँकि मेरे पास ज्ञान की इतनी ऊँची डिग्री है, और मैं उच्च समाज के लोगों के साथ उठता-बैठता हूँ, और मेरे माता-पिता बहुत बुद्धिमान, शिक्षित हैं, और वे एक खास पृष्ठभूमि से आते हैं, इसलिए क्या मेरे लिए मसीह बनना आसान नहीं होगा?” उसका क्या मतलब था? “अगर यीशु जैसा कोई व्यक्ति मसीह हो सकता है, तो क्या मैं, पौलुस, मसीह का, जीवित परमेश्वर का, पुत्र होने के लिए और भी अधिक योग्य नहीं हूँ, क्योंकि मैं इतना असाधारण, करिश्माई, ज्ञानी और उच्च सामाजिक हैसियत वाला हूँ? जब यीशु जीवित था, तो उसने सिर्फ प्रवचन दिया, धर्मशास्त्र पढ़े, पश्चात्ताप के मार्ग का प्रचार किया, हर जगह चला, लोगों की बीमारियाँ ठीक कीं, राक्षस बाहर निकाले, और बहुत सारे चिह्न और चमत्कार दिखाए। बस इतना ही न? इसके बाद वह जीवित परमेश्वर का पुत्र बन गया और स्वर्गारोहण कर गया। यह कितना मुश्किल हो सकता है? मैं, पौलुस, ज्ञान से भरा हुआ हूँ और मेरी कुलीन सामाजिक हैसियत और पहचान है। अगर मैं लोगों के बीच ज्यादा चलूँ, जैसा यीशु ने किया, अपनी प्रसिद्धि बढ़ाऊँ, ज्यादा अनुयायी बनाऊँ और ज्यादा लोगों को लाभ पहुँचाऊँ, और अगर मैं कठिनाइयाँ सह सकूँ, कीमत चुका सकूँ, अपनी सामाजिक स्थिति कम कर सकूँ, ज्यादा उपदेश दे सकूँ, ज्यादा काम कर सकूँ और ज्यादा लोगों को प्राप्त कर सकूँ, तो क्या मेरी पहचान बदल नहीं जाएगी? क्या मैं मनुष्य के पुत्र से परमेश्वर के पुत्र में नहीं बदल जाऊँगा? क्या परमेश्वर का एक पुत्र मसीह नहीं है? मसीह होने में इतनी मुश्किल क्या है? क्या मसीह मनुष्य से पैदा हुआ मनुष्य का पुत्र नहीं है? जब यीशु मसीह बन सकता है, तो मैं, पौलुस, मसीह क्यों नहीं बन सकता? यह बहुत आसान है! जो कुछ भी यीशु ने किया, वह मैं भी करूँगा; जो कुछ भी उसने कहा, वह मैं भी कहूँगा; जैसे वह लोगों के बीच चला, मैं भी वैसे ही चलूँगा। क्या तब मेरे पास यीशु जैसी ही पहचान और प्रतिष्ठा नहीं होगी? क्या मैं परमेश्वर की स्वीकृति पाने की शर्तें पूरी नहीं करता, जैसा यीशु ने किया था?” इसलिए, पौलुस के पत्रों से यीशु की पहचान के बारे में उसकी समझ और धारणा जानना मुश्किल नहीं है। वह मानता था कि प्रभु यीशु एक साधारण व्यक्ति था, जिसने काम करके और कीमत चुकाकर, और खास तौर से सलीब पर चढ़ाए जाने के बाद, स्वर्गिक पिता की स्वीकृति प्राप्त की और जीवित परमेश्वर का पुत्र बन गया—उसकी पहचान बाद में बदली। इस प्रकार, पौलुस जैसे लोग अपने मन में यीशु को पृथ्वी पर परमेश्वर द्वारा पहना गया देह, मानवजाति के बीच देहधारी परमेश्वर का देह कभी नहीं स्वीकारते। वे मसीह का सार कभी नहीं स्वीकारते।
आज के मसीह-विरोधी पौलुस जैसे हैं। पहली बात, उनके विचार, महत्वाकांक्षाएँ और तरीके वैसे ही हैं, और साथ ही, एक और चीज—मूर्खता का लक्षण भी वैसा ही है। उनकी मूर्खता कहाँ से आती है? यह उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से आती है। जब मसीह-विरोधी देहधारी परमेश्वर के देह को देखते हैं, चाहे जिस भी कोण से देखें, तो वे मसीह में परमेश्वर का सार देखने में विफल रहते हैं। चाहे वे जैसे भी देखें, वे इससे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते या परमेश्वर का स्वभाव नहीं समझ सकते। चाहे वे जैसे भी देखें, वे हमेशा यही मानते हैं कि मसीह एक साधारण व्यक्ति है। वे सोचते हैं कि अगर मसीह सब लोगों की आँखों के सामने सीधे स्वर्ग से उतरा होता, तो वह साधारण नहीं होता; वे सोचते हैं कि अगर मसीह की कोई उत्पत्ति या पृष्ठभूमि होती ही नहीं, और वह लोगों के बीच शून्य में से प्रकट हुआ होता, तो यह बहुत असामान्य और असाधारण होता! ऐसी चीजें ही, जिन्हें लोग समझ नहीं पाते, जो असाधारण होती हैं, मसीह-विरोधियों की महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और जिज्ञासा पूरी करती हैं। वे ऐसे मसीह का ही अनुसरण करना पसंद करेंगे, बजाय किसी साधारण व्यक्ति के जो सत्य व्यक्त कर सकता है और उन्हें जीवन प्रदान कर सकता है। चूँकि मसीह मनुष्य से पैदा हुआ था, और वास्तव में एक साधारण व्यक्ति है—एक सामान्य, व्यावहारिक व्यक्ति, जो पर्याप्त ध्यान आकर्षित नहीं करता या इस तरह से बात नहीं करता जो स्वर्ग और पृथ्वी को हिला दे—ठीक इसलिए जब मसीह-विरोधी उसे कुछ समय के लिए देख लेते हैं, तो वे मानते हैं कि मसीह जो कुछ भी करता है उसमें ज्यादा कुछ नहीं है। कुछ प्रतिरूपों का सारांश देने के बाद वे मसीह की नकल करना शुरू कर देते हैं। वे उसके लहजे, उसके बोलने के तरीके और उसके सुर की नकल करते हैं। कुछ लोग तो उसके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले विशिष्ट वचनों की नकल भी करते हैं, यहाँ तक कि उसकी साँस लेने की आवाज और खाँसी की भी नकल करते हैं। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या यह नकल अज्ञानता के कारण है?” ऐसा नहीं है। इसका क्या कारण है? जब मसीह-विरोधी मसीह जैसे साधारण व्यक्ति को देखते हैं, जो बस कुछ साधारण वचन बोलता है, जिसके इतने सारे अनुयायी हैं और इतने सारे लोग उसके प्रति समर्पण कर रहे होते हैं, तो क्या इस मामले के बारे में उनके दिल की गहराई में कुछ विचार नहीं उठते? क्या वे परमेश्वर के लिए आनंदित होते हैं, उसके लिए प्रसन्नता महसूस करते हैं और उसकी प्रशंसा करते हैं, या वे क्रोध, नाराजगी, शत्रुता, ईर्ष्या और शंका महसूस करते हैं? (ईर्ष्या और शंका महसूस करते हैं।) वे सोचते हैं, “तुम परमेश्वर कैसे बन गए? मैं परमेश्वर क्यों नहीं हूँ? तुम कितनी भाषाएँ बोल सकते हो? क्या तुम चिह्न और चमत्कार दिखा सकते हो? तुम लोगों के लिए क्या ला सकते हो? तुममें कौन-से गुण और प्रतिभाएँ हैं? तुममें कौन-सी योग्यताएँ हैं? तुमने इतने सारे लोगों से अपना अनुसरण कैसे करवा लिया? अगर तुम्हारी योग्यताएँ ही इतने सारे लोगों से अपना अनुसरण करवाने के लिए काफी थीं, तो मेरी योग्यताओं से तो और भी ज्यादा लोग मेरा अनुसरण करेंगे।” इसलिए, मसीह-विरोधी इस पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। इसलिए वे पौलुस के इस दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत हैं कि उनके लिए मसीह बनना एक ऐसा सपना है जो पूरा हो सकता है।
जब परमेश्वर लोगों से कर्तव्यनिष्ठ मनुष्य और कर्तव्यनिष्ठ सृजित प्राणी बनने के लिए कहता है, तो मसीह-विरोधी इन वचनों से विशेष रूप से घृणा महसूस करते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह अच्छा और सही है, लेकिन हमें मसीह न बनने देना गलत है। लोग मसीह क्यों नहीं बन सकते? क्या मसीह बस परमेश्वर के जीवन वाला व्यक्ति नहीं होता? इसलिए, अगर हम परमेश्वर के वचन स्वीकारते हैं, उसका सिंचन और चरवाही प्राप्त करते हैं, और हममें परमेश्वर का जीवन होता है, तो क्या हम भी मसीह नहीं बन सकते? तुम मनुष्यों से पैदा हुए एक साधारण व्यक्ति हो, और वही हम भी हैं। किस आधार पर तुम मसीह हो सकते हो, लेकिन हम नहीं हो सकते? क्या तुम भी जीवन में बाद में मसीह नहीं बने? अगर हम कष्ट उठाते हैं और कीमत चुकाते हैं, परमेश्वर के वचन और ज्यादा पढ़ते हैं, परमेश्वर का जीवन जीते हैं, वही वचन बोलते हैं जो परमेश्वर बोलता है, वही करते हैं जो परमेश्वर करना चाहता है, और परमेश्वर का अनुकरण करते हैं, तो क्या हम भी मसीह नहीं बन सकते? इसमें इतनी मुश्किल क्या है?” मसीह-विरोधी मसीह का अनुसरण करने और मसीह के साधारण अनुयायी बनने या सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन सृजित प्राणी बनने से खुश नहीं होते। उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ उन्हें भड़काती हैं : “साधारण व्यक्ति मत बनो। हर मोड़ पर मसीह का अनुसरण और आज्ञापालन करना अक्षमता की अभिव्यक्ति है। मसीह के वचनों और परमेश्वर के वादों से परे, तुममें उच्च आकांक्षाएँ होनी चाहिए, जैसे कि परमेश्वर का पुत्र, पहलौठा पुत्र, स्वयं मसीह बनने का प्रयास करना, परमेश्वर द्वारा बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने या परमेश्वर के राज्य में एक स्तंभ बनने का प्रयास करना। ये कितने महान और प्रेरक लक्ष्य हैं!” तुम इन विचारों के बारे में क्या सोचते हो? क्या ये बढ़ावा देने लायक हैं? क्या ये ऐसी चीजें हैं, जो सामान्य लोगों में होनी चाहिए? (नहीं।) चूँकि मसीह-विरोधियों में मसीह की पहचान और सार के बारे में इस तरह की समझ होती है, ठीक इसीलिए वे मसीह का विरोध करने, उसकी आलोचना करने, उसका परीक्षण करने, उसे नकारने और उसकी निंदा करने के अपने शब्दों और क्रियाकलापों को गंभीरता से नहीं लेते। वे सोचते हैं, “किसी व्यक्ति की आलोचना करने में इतना डरावना क्या है? तुम बस एक व्यक्ति हो, है न? तुम स्वीकारते हो कि तुम एक व्यक्ति हो, इसलिए मेरे द्वारा तुम्हारी आलोचना, मूल्यांकन या निंदा करने में क्या गलत है? मेरे द्वारा तुम्हारी निगरानी या जाँच करने में क्या गलत है? ये चीजें करना मेरी स्वतंत्रता है!” वे इसे परमेश्वर का प्रतिरोध या विरोध करना नहीं मानते, जो एक बहुत ही खतरनाक दृष्टिकोण है। लिहाजा कई मसीह-विरोधियों ने 20-30 वर्षों से इस तरह मसीह का विरोध किया है और हमेशा अपने दिलों में उसके साथ प्रतिस्पर्धा की है। मैं तुम लोगों को सच बताता हूँ—तुम जो करते हो वह तुम्हारी स्वतंत्रता है, लेकिन अगर परमेश्वर के अनुयायी के रूप में तुम देहधारी परमेश्वर के देह के साथ इतनी बेईमानी से पेश आते हो, तो एक बात निश्चित है : तुम किसी व्यक्ति के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम खुले तौर पर परमेश्वर के खिलाफ आवाज उठा रहे हो और खुद को उसके खिलाफ खड़ा कर रहे हो—तुम परमेश्वर के खिलाफ खड़े हो रहे हो। जो भी चीज परमेश्वर के सार, स्वभाव, क्रियाकलापों और खास तौर से देहधारी परमेश्वर के देह को छूती है, वह प्रशासनिक आदेशों से संबंधित होती है। अगर तुम मसीह के साथ इतनी बेईमानी से पेश आते हो और इतनी बेईमानी से उसकी आलोचना और निंदा करते हो, तो मैं तुम्हें बता दूँ, तुम्हारा परिणाम पहले ही तय हो चुका है। यह उम्मीद मत करना कि परमेश्वर तुम्हें बचाएगा। परमेश्वर ऐसे व्यक्ति को नहीं बचा सकता, जो खुले-आम उसके खिलाफ आवाज उठाता है और बेईमानी से उसके खिलाफ खड़ा होता है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का दुश्मन है, वह एक शैतान और एक दानव है, और परमेश्वर उसे नहीं बचाएगा। जल्दी से उसके पास चले जाओ, जो तुम्हें लगता है कि तुम्हें बचा सकता है। परमेश्वर का घर तुम्हें नहीं रोकेगा, उसके दरवाज़े खुले हैं। अगर तुम्हें लगता है कि पौलुस तुम्हें बचा सकता है, तो उसके पास चले जाओ; अगर तुम्हें लगता है कि पादरी तुम्हें बचा सकता है, तो उसके पास चले जाओ। लेकिन एक बात पक्की है : परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाएगा। तुम जो करते हो वह तुम्हारी स्वतंत्रता है, लेकिन परमेश्वर तुम्हें बचाता है या नहीं, यह उसकी स्वतंत्रता है, और अंतिम निर्णय उसी का है। क्या परमेश्वर के पास यह शक्ति है? क्या उसके पास यह गरिमा है? (बिल्कुल है।) देहधारी परमेश्वर मनुष्यों के बीच रहता है, वह गवाही देता है कि वह मसीह है, अंत के दिनों का कार्य करने के लिए आता है। कुछ लोग परमेश्वर के सार को पहचानते हैं और पूरे दिल से उसका अनुसरण करते हैं, और वे उसे परमेश्वर समझते हैं और उसके प्रति समर्पण करते हैं। दूसरे लोग अंत तक उसका हठपूर्वक विरोध करना चाहते हैं : “चाहे जितने भी लोग विश्वास करें कि तुम मसीह हो, मैं इस पर विश्वास नहीं करूँगा। तुम चाहे कुछ भी कहो, मैं पूरे दिल से तुम्हें परमेश्वर नहीं मानूँगा। जब मैं परमेश्वर को वास्तव में तुमसे बात करते और तुम्हारी गवाही देते हुए देखूँगा, जब स्वर्गिक परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से गरजती हुई आवाज में मुझसे कहेगा, ‘यह मेरा देहधारी देह, मेरा प्रिय, मेरा प्रिय पुत्र है,’ सिर्फ तभी मैं तुम्हें परमेश्वर मानूँगा और स्वीकारूँगा। जब मैं व्यक्तिगत रूप से स्वर्गिक परमेश्वर को तुमसे बात करते और तुम्हारी गवाही देते हुए सुनूँगा और देखूँगा, सिर्फ तभी मैं तुम्हें स्वीकारूँगा, वरना यह असंभव है!” क्या ऐसे लोग मसीह-विरोधी नहीं हैं? जब वह दिन वास्तव में आएगा, तो भले ही वे मसीह को परमेश्वर के रूप में स्वीकार लें, यह उनके लिए सजा का दिन होगा। उन्होंने परमेश्वर का विरोध किया, उसके खिलाफ आवाज उठाई और हर मोड़ पर उसके प्रति शत्रुतापूर्ण रहे—क्या ये क्रियाकलाप एक ही झटके में खारिज किए जा सकते हैं? (नहीं।) तो, यहाँ एक सत्य कथन है, जो यह है कि परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार प्रतिफल देगा। ये लोग न सिर्फ प्रतिदंड का सामना करेंगे, बल्कि वे कभी परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से अपने से बात करते हुए भी नहीं सुनेंगे। क्या वे इसी लायक हैं? परमेश्वर मनुष्यों के लिए अपनी गवाही देना चाहता है, मनुष्यों और सच्चे सृजित प्राणियों के सामने प्रकट होना चाहता है, अपना वास्तविक व्यक्तित्व प्रकट करना चाहता है, और उनसेबोलना और वचन कहना चाहता है। वह शैतानों के सामने न तो प्रकट होता है, और न ही उनसे बोलता और वचन कहता है। इसलिए, मसीह-विरोधियों को परमेश्वर का वास्तविक व्यक्तित्व देखने या उसके वचन और कथन अपने कानों से सुनने का अवसर कभी नहीं मिलेगा। उन्हें यह मौका कभी नहीं मिलेगा। तो क्या भविष्य में उनके लिए मुश्किल समय होगा? (बिल्कुल।) क्यों? मसीह-विरोधी, ये बेशर्म प्राणी, परमेश्वर का विरोध करते हैं और हर मोड़ पर उसके खिलाफ आवाज उठाते हैं, और जो कुछ भी वह करता है, उसे तुच्छ समझते हैं, उसकी निंदा करते हैं और उसका मजाक तक उड़ाते हैं। तो, परमेश्वर उनके साथ कैसे पेश आएगा? क्या वह उनके साथ दयालुता से पेश आएगा और उन्हें माफ कर देगा? क्या वह उन्हें आशीष देगा? क्या वह उन्हें अपना वादा देगा? क्या वह उन्हें बचाएगा? व्यावहारिक रूप से कहें तो, क्या ऐसे लोग परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं? इस जीवन में वे परमेश्वर की प्रबुद्धता और रोशनी, या उसकी ताड़ना और अनुशासन, या अपने जीवन के लिए उसका पोषण प्राप्त नहीं करेंगे। वे बचाए नहीं जाएँगे, और आने वाले संसार में वे अपने बुरे कर्मों की भारी कीमत हमेशा-हमेशा चुकाते रहेंगे। यही उनका परिणाम है। मसीह-विरोधियों का परिणाम पौलुस जैसा ही होगा।
ख. मसीह-विरोधी मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता को कैसे लेते हैं
अभी-अभी हमने मसीह-विरोधियों की मसीह के सार को नकारने वाली पहली अभिव्यक्ति पर संगति की और उसका विश्लेषण किया, जो यह है कि मसीह-विरोधी मसीह की उत्पत्ति को कैसे लेते हैं, वे क्या विचार और समझ रखते हैं और क्या क्रियाकलाप करते हैं। ऐसे लोगों के सार की पहचान करने के लिए हमने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों का विश्लेषण किया। मसीह के दूसरे पहलू—उसकी सामान्यता और व्यावहारिकता—के बारे में मसीह-विरोधी क्या विचार रखते हैं, वे क्या क्रियाकलाप करते हैं, और वे कौन-से स्वभाव और सार प्रदर्शित करते हैं? इसके बाद हम मसीह-विरोधियों की मसीह के सार को नकारने वाली दूसरी अभिव्यक्ति का विश्लेषण करेंगे, जो यह है कि मसीह-विरोधी मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता को कैसे लेते हैं। जब सामान्यता और व्यावहारिकता की बात आती है, तो ज्यादातर लोगों के कुछ निश्चित विचार और समझ होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, तीन दिनों तक पानी न पीना या खाना न खाना, लेकिन भूखा या प्यासा महसूस न करना, और वास्तव में पहले की तुलना में शारीरिक रूप से ज्यादा मजबूत और ऊर्जावान महसूस करना—क्या इसे सामान्यता और व्यावहारिकता माना जाता है? सामान्य लोग चार-पाँच किलोमीटर चलने के बाद थक जाते हैं; अगर मसीह 40 किलोमीटर चलने के बाद भी थका हुआ महसूस नहीं करता और उसके पैरों में दर्द नहीं होता, यहाँ तक कि वह हवा से भी हलका होता है, ज्यादा ऊर्जावान महसूस करता है, तो क्या इसे सामान्य और व्यावहारिक माना जा सकता है? अगर मसीह को ठंड में सर्दी नहीं लगती और वह किसी भी परिस्थिति में कभी बीमार नहीं पड़ता, अगर उसकी आँखें उन सभी तेज रोशनियों से, जिनमें वे देखती हैं, दर्जनों गुना ज्यादा तेज रोशनी उत्सर्जित कर सकती हैं, और चाहे वह कितनी भी देर तक कंप्यूटर देखता रहे, उसकी आँखें नहीं थकतीं, न ही दूर की चीजें देखने में धुँधलाहट होती, अगर वह चाहे जितनी देर भी देखे, सूर्य की रोशनी में उसकी आँखें नहीं चौंधियातीं, और रात में चलते समय उसे टॉर्च की जरूरत नहीं पड़ती, जबकि दूसरों को पड़ती है, और जैसे-जैसे दिन चढ़ता है, उसकी आँखें ज्यादा चमकदार हो जाती हैं—क्या इन्हें सामान्यता और व्यावहारिकता माना जाता है? इनमें से किसी को भी सामान्यता और व्यावहारिकता नहीं माना जाता, यह सामान्य ज्ञान है जिसके संपर्क में लोग अक्सर आते हैं। सामान्यता और व्यावहारिकता का अर्थ है लंबे समय तक पानी न पीने के बाद प्यास महसूस करना, बहुत बात करने के बाद थकान महसूस करना, बहुत चलने के बाद पैरों में दर्द महसूस करना, और दुखद और हृदयविदारक खबर सुनकर दुखी होना और आँसू बहाना—यह सामान्यता और व्यावहारिकता है। तो, सामान्यता और व्यावहारिकता की सटीक परिभाषा क्या है? जो देह की सामान्य जरूरतों और प्रवृत्तियों के अनुरूप हो, और इस सीमा से आगे न बढ़े, सामान्यता और व्यावहारिकता की यही परिभाषा है। जो कुछ सामान्य मानवता की क्षमताओं और दायरे के अनुरूप हो, सामान्य मानवता की तर्कसंगतता और सामान्य मानवता की भावनाओं, जैसे खुशी, गुस्सा, दुख और आनंद, के अनुरूप हो, वह सामान्यता और व्यावहारिकता के दायरे में आता है। मसीह पृथ्वी पर परमेश्वर द्वारा पहना गया देह है; किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह ही, उसकी सामान्य बोलचाल और व्यवहार, सामान्य जीवन-दिनचर्या और कार्यक्रम होते हैं। अगर वह तीन दिन और तीन रात न सोए तो उसे नींद आएगी और वह खड़े-खड़े भी सोना चाहेगा; अगर वह पूरे दिन न खाए तो उसे भूख लगेगी; और अगर वह लंबे समय तक चले तो वह थक जाएगा, और जल्दी आराम करने के सिवाय कुछ नहीं चाहेगा। उदाहरण के लिए, मैं भी तीन-चार घंटे तुम लोगों के साथ सभा और संगति करने के बाद थक जाता हूँ, और मुझे भी आराम करने की जरूरत पड़ती है। यह देह की सामान्यता और व्यावहारिकता है, यह पूरी तरह से देह की विशेषताओं और सामान्य मानवता की विभिन्न अभिव्यक्तियों और प्रवृत्तियों के अनुरूप है, यह अलौकिक बिल्कुल नहीं है। इसलिए, ऐसे देह में मानवता की कई अभिव्यक्तियाँ और प्रकाशन होते हैं, और इस देह की मानवता की बाहरी जीवन-शैली और जीवन-चर्या हर साधारण, सामान्य व्यक्ति द्वारा अभिव्यक्त और प्रकट की जाने वाली चीजों से अलग नहीं होतीं, वे बिल्कुल एक-जैसी होती हैं। परमेश्वर ने मानवजाति का निर्माण किया, और देहधारी परमेश्वर के देह में मानवजाति जैसी ही विशेषताएँ और सामान्य, व्यावहारिक जीवन-प्रवृत्तियाँ हैं, वह अलौकिक बिल्कुल भी नहीं है। मनुष्य दीवारों या बंद दरवाजों से नहीं गुजर सकते, और देहधारी परमेश्वर भी ऐसा ही है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या तुम देहधारी परमेश्वर नहीं हो? क्या तुम मसीह नहीं हो? क्या तुममें परमेश्वर का सार नहीं है? क्या तुम्हें वास्तव में बंद दरवाजे से रोका जा सकता है? तुम्हें बंद दरवाजे से गुजरने में सक्षम होना चाहिए। लोग पाँच किलोमीटर चलने के बाद थक जाते हैं, लेकिन तुम्हें 40 किलोमीटर चलने के बाद भी थकान महसूस नहीं होनी चाहिए; लोग दिन में तीन बार खाना खाते हैं, लेकिन तुम्हें 30 दिनों तक कुछ न खाने में सक्षम होना चाहिए, सिर्फ तभी खाना चाहिए जब तुम्हारा मन करे और जब तुम्हारा मन न करे तब नहीं खाना चाहिए, और फिर भी सभाओं में उपदेश देने में सक्षम होना चाहिए, और दूसरों की तुलना में ज्यादा उत्साह से जीना चाहिए। बीमार पड़ना मानव-जीवन का एक हिस्सा है, लेकिन तुम्हें बीमार नहीं पड़ना चाहिए। चूँकि तुम मसीह हो, इसलिए तुम्हारा एक पक्ष ऐसा होना चाहिए जो सामान्य लोगों से अलग हो, तभी तुम मसीह कहलाने योग्य होगे, सिर्फ यही यह साबित करेगा कि तुममें परमेश्वर का सार है।” क्या यह सही है? (नहीं।) यह गलत कैसे है? ये सत्य नहीं, बल्कि इंसानी धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं।
देहधारी परमेश्वर का देह सामान्य और व्यावहारिक है—उसकी सामान्य मानवता द्वारा की जाने वाली तमाम गतिविधियाँ, और उसका दैनिक जीवन, बोलचाल और आचरण, सब सकारात्मक चीजों की वास्तविकताएँ हैं। शुरू से ही, जब परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाया, उसने उन्हें ये सामान्य, व्यावहारिक प्रवृत्तियाँ प्रदान कीं; इसलिए देहधारी परमेश्वर का देह भी कभी इन नियमों का उल्लंघन नहीं करेगा। यही कारण और आधार है कि मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता सकारात्मक चीजें हैं। परमेश्वर ने मानवता का निर्माण किया, और उसकी सभी अभिव्यक्तियों और प्रवृत्तियों को बिल्कुल अपनी इच्छा के अनुसार बनाया। परमेश्वर ने मनुष्य को ये प्रवृत्तियाँ दीं, और ये मनुष्य के दैनिक जीवन के नियम हैं—क्या परमेश्वर अपने देहधारी देह को सामान्यता और व्यावहारिकता के इन नियमों का उल्लंघन करने देगा? स्पष्ट रूप से, परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा। परमेश्वर ने मानवजाति का निर्माण किया, और वह देहधारी देह का सार भी है—वे एक ही स्रोत से आते हैं, इसलिए उनके क्रियाकलापों के सिद्धांत और उद्देश्य भी एक ही हैं। मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता की अभिव्यक्तियों के कारण वह स्वाभाविक रूप से लोगों की नजरों में एक अत्यंत साधारण व्यक्ति प्रतीत होता है। बहुत-सी चीजों में उसके पास पूर्वज्ञान और दूरदर्शिता की शक्तियों का अभाव है जिनकी लोग उसके पास होने कल्पना करते हैं, और वह चीजों को गायब या प्रकट नहीं कर सकता, जैसी कि लोग कल्पना करते हैं, और वह साधारण लोगों, देह की क्षमताओं और सहज प्रवृत्तियों से बढ़कर तो बिल्कुल नहीं हो सकता, या मनुष्यों की सामान्य सोच से परे जाकर कुछ ऐसी चीजें नहीं कर सकता जिन्हें कोई व्यक्ति नहीं कर सकता, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। इन कल्पनाओं के विपरीत, इस साधारण व्यक्ति ने अपने कार्य के आरंभ से लेकर वर्तमान तक परमेश्वर का एक भी संकेत प्रकट या अभिव्यक्त नहीं किया है, जिसे मनुष्य अपनी आँखों से देख सके। उसके भाषण और कार्य के अलावा उसकी किसी भी सामान्य इंसानी गतिविधियों में परमेश्वर का कोई भी संकेत या परमेश्वर की पहचान और सार का प्रकाशन मनुष्य अपनी आँखों से नहीं देख सकता। लोग उसे कैसे भी देखें, वह उन्हें हमेशा एक साधारण व्यक्ति की तरह ही दिखाई देता है। क्यों? कारण एक ही है : मनुष्य जो देखता है वह सही है; देहधारी परमेश्वर का देह वास्तव में एक सामान्य, व्यावहारिक व्यक्ति, एक सामान्य, व्यावहारिक देह है। बाहरी तौर पर ऐसा सामान्य और व्यावहारिक देह अन्य लोगों की तरह ही बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न और धर-पकड़ का अनुभव करता है, उसके पास सिर छिपाने के लिए कोई जगह नहीं होती, या आराम करने के लिए कोई स्थान नहीं होता। इस मामले में वह किसी भी अन्य मनुष्य से अलग नहीं है, और वह कोई अपवाद नहीं है। ऐसे उत्पीड़न का अनुभव करते समय वह जहाँ कहीं खुद को छिपा सकता है, छिपा लेता है; वह खुद को अदृश्य नहीं बना सकता या भागकर भूमिगत नहीं हो सकता, इन खतरों से बचने के लिए उसके पास अलौकिक शक्तियाँ नहीं हैं। वह सिर्फ इतना कर सकता है कि उनके बारे में पहले से जानकारी प्राप्त कर ले और फिर जल्दी से वहाँ से भाग जाए। खतरनाक स्थितियाँ सामने आने पर लोग घबरा जाते हैं और डर जाते हैं, क्या तुम लोगों को लगता है कि मसीह को डर लगता है? क्या तुम्हें लगता है कि वह घबरा जाता है? (हाँ।) तुमने सही कहा; तुम लोग कैसे जानते हो? (उस स्थिति में कोई भी सामान्य व्यक्ति घबरा जाएगा।) सही कहा। तुमने इसे बहुत अच्छी तरह से बताया है। तुम लोग वास्तव में सामान्यता और व्यावहारिकता को समझते हो, तुमने इसे पूरी तरह से समझ लिया है। मसीह भी इन स्थितियों में घबराएगा और डर जाएगा, लेकिन क्या वह कायरता दिखाएगा? क्या वह सत्तारूढ़ पार्टी से भयभीत महसूस करेगा? क्या वह उससे समझौता करेगा? नहीं। वह सिर्फ घबराएगा और डरेगा, तथा राक्षसों की इस माँद से जल्दी से जल्दी बच निकलना चाहेगा। ये सब मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता की अभिव्यक्तियाँ हैं। बेशक, मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता की कुछ और अभिव्यक्तियाँ भी हैं, जैसे कि कभी-कभी भुलक्कड़ हो जाना, लोगों को लंबे समय तक न देखने के बाद उनके नाम भूल जाना, इत्यादि। सामान्यता और व्यावहारिकता एक सामान्य, साधारण व्यक्ति की विशेषताएँ, सहज प्रवृत्तियाँ, चिह्न और संकेत भर हैं। चूँकि मसीह में सामान्य, व्यावहारिक मानवता, जीवित रहने की सहज प्रवृत्तियाँ और देह की तमाम विशेषताएँ हैं, ठीक इसीलिए वह सामान्य रूप से बोल और काम कर सकता है, लोगों के साथ सामान्य रूप से बातचीत कर सकता है, लोगों की सामान्य और व्यावहारिक तरीके से अगुआई कर सकता है, और लोगों को अपने कर्तव्य सामान्य और व्यावहारिक तरीके से करने में मार्गदर्शन और मदद भी कर सकता है। यह मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता की वजह से ही है कि सभी सृजित मनुष्य परमेश्वर के कार्य की व्यावहारिकता ज्यादा महसूस करते हैं, उस कार्य से लाभ उठाते हैं, और उससे ज्यादा ठोस और उपयोगी लाभ प्राप्त करते हैं। मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता सामान्य मानवता के लक्षण हैं, वे उसके देहधारी देह के लिए समस्त सामान्य कार्य, गतिविधियों और मानव-जीवन में शामिल होने के लिए आवश्यक हैं, और इससे भी बढ़कर, वे ऐसी चीजें हैं जिनकी परमेश्वर का अनुसरण करने वाले सभी लोगों को जरूरत होती है। लेकिन मसीह-विरोधी मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता को इस तरह से नहीं समझते। मसीह-विरोधी मसीह को सिर्फ एक साधारण व्यक्ति मानते हैं, क्योंकि वह सामान्य और व्यावहारिक है और मनुष्य के बहुत समान है—जिसका अर्थ है कि वह परमेश्वर का पुत्र, मनुष्यों के बीच परमेश्वर का मूर्त रूप, या मसीह कहलाने के अयोग्य है, क्योंकि वह बहुत सामान्य और व्यावहारिक है, इस हद तक व्यावहारिक हैं कि लोग उसमें परमेश्वर का कोई संकेत या सार नहीं देख सकते। मसीह-विरोधी कहते हैं, “क्या ऐसा परमेश्वर लोगों को बचा सकता है? क्या ऐसा परमेश्वर मसीह कहलाने योग्य है? यह परमेश्वर, परमेश्वर से बहुत भिन्न है! परमेश्वर के बारे में मनुष्य की धारणाओं के कई तत्त्व उसमें नहीं है : पहला, उसका अलौकिक, असाधारण और रहस्यमय होना; दूसरा, उसके पास महाशक्तियाँ होना और प्रबल शक्ति प्रदर्शित करने की क्षमता होना; तीसरा, उसका परमेश्वर जैसा दिखना, उसमें परमेश्वर की पहचान, गरिमा और सार होना, इत्यादि। अगर इनमें से कोई भी तत्त्व उसमें नहीं देखा जा सकता, तो वह परमेश्वर कैसे हो सकता है? क्या उसके द्वारा वे कुछ वचन बोलने और वह छोटा-सा कार्य करने का यह अर्थ है कि वह परमेश्वर है? तब तो परमेश्वर बनना बहुत आसान है, है न? एक साधारण, सामान्य देह परमेश्वर कैसे हो सकता है?” यह ऐसी चीज है, जिसे मसीह-विरोधी कभी नहीं स्वीकार सकते।
चीन की मुख्यभूमि में बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न का अनुभव करते समय कई भाई-बहनों के साथ मुझे, जहाँ भी हम जाते थे, अक्सर छिपना पड़ता था, और हमारे पास कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं होती थी। कभी-कभी खतरे की खबर सुनकर हमें जल्दी से भागना पड़ता था। इन परिस्थितियों में, मेरे साथ रहने वाले लोगों में से कोई भी कमजोर नहीं पड़ा। इसका क्या कारण था? क्या वे मूर्ख थे? क्या वे भोले-भाले थे? नहीं, ऐसा इसलिए था क्योंकि उन्होंने देहधारी परमेश्वर के सार को दृढ़ता से पहचान लिया था। उन्होंने न सिर्फ मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता के बारे में कोई धारणा नहीं रखी या निंदा नहीं की, बल्कि इन गुणों के प्रति विचारशीलता और समझ भी दिखाई, और उन्हें सही तरीके से समझा। मसीह ने जो भी कष्ट सहा, उसके साथ-साथ उन्होंने भी उसे सहा, और मसीह ने चाहे जो भी उत्पीड़न और धर-पकड़ सही, उन्होंने फिर भी बिना किसी शिकायत के उसका अनुसरण किया, वे इन परिस्थितियों के कारण कभी कमजोर नहीं पड़े। जब मैं कुछ स्थानों पर गया, तो वहाँ कुछ लोग थे जिन्होंने, यह जानकर कि मैं खतरनाक परिवेशों से बचने के लिए जल्दबाजी में भागा हूँ और शायद मेरे रहने के लिए कोई और जगह नहीं है और शायद मुझे आश्रय देने वाला भी कोई नहीं है—मन ही मन सोचा : “हुँह! तुम मसीह, देहधारी परमेश्वर का देह होने का दावा करते हो, फिर भी देखो तुम किस दयनीय स्थिति में हो। तुम मसीह होने योग्य कैसे हो? तुम किस तरह से परमेश्वर जैसे दिखते हो? तुम्हें लगता है कि तुम दूसरों को बचा सकते हो? तुम्हें जल्दी से पहले खुद को बचाना चाहिए! क्या तुम्हारा अनुसरण करने से आशीष मिल सकते हैं? यह असंभव लगता है! अगर तुम्हारे वचन दूसरों को बचा सकते हैं, तो वे तुम्हें क्यों नहीं बचा सकते? अब खुद को देखो, तुम्हारे पास सिर छिपाने के लिए भी जगह नहीं है, और तुम्हें हम मनुष्यों से, शक्तिशाली लोगों से मदद माँगनी पड़ती है। अगर तुम परमेश्वर हो, तो तुम्हें इतना दयनीय नहीं होना चाहिए। अगर तुम देहधारी परमेश्वर के देह हो, तो तुम्हें बेघर नहीं होना चाहिए!” इसलिए, ऐसे लोग इस मामले को कभी समझ नहीं पाते। अगर किसी दिन वे देखते हैं कि राज्य का सुसमाचार विदेशों में फैल रहा है, विभिन्न देशों में कई लोग उसे स्वीकार रहे हैं, और यह देखते हैं कि बड़े लाल अजगर का पतन हो गया है, परमेश्वर के अनुयायी अपना सिर ऊँचा उठाए हुए हैं, और अब उन्हें सताया नहीं जाता, और वे शासन करते हुए शक्ति का उपयोग कर रहे हैं और कोई उन्हें धमका नहीं रहा है, तो वे निश्चित रूप से अपना ठेठ रवैया पूरी तरह से बदल लेंगे, और अब परमेश्वर द्वारा देह में हुकूमत करने के बारे में धारणाएँ नहीं पालेंगे। ऐसा अचानक परिवर्तन क्यों होगा? ये व्यक्ति सिर्फ आँखों देखी पर भरोसा करते हैं; वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, वह सर्वशक्तिमान है या वह जो कुछ भी कहता है वह सच होगा। क्या ऐसे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं? वे किसमें विश्वास करते हैं? (शक्ति में।) क्या मसीह के पास शक्ति है? भ्रष्ट मानवजाति के बीच मसीह के पास कोई शक्ति नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या परमेश्वर के पास अधिकार नहीं है? अगर मसीह का सार परमेश्वर है, तो फिर उसके पास परमेश्वर का अधिकार क्यों नहीं है? अधिकार शक्ति से कहीं ज्यादा बड़ा होता है, तो क्या उसके पास शक्ति भी नहीं होनी चाहिए?” देहधारी परमेश्वर के कार्य का क्या उद्देश्य है? देहधारी परमेश्वर का क्या कर्तव्य है? क्या यह शक्ति भाँजना है? (नहीं।) इसलिए, किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह, उसे इस दुनिया से अस्वीकृति, अपमान, बदनामी और शत्रुता सहनी पड़ती है—मसीह को ये सब चीजें सहनी होंगी, वह इनसे मुक्त नहीं है।
जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, वे न सिर्फ मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता के बारे में कोई धारणा नहीं रखते—बल्कि, इसके विपरीत, वे इन गुणों में परमेश्वर की मनोहरता और ज्यादा देखते हैं, और इनके जरिये परमेश्वर के सच्चे सार और सृष्टिकर्ता के सच्चे सार की बेहतर समझ प्राप्त करते हैं। परमेश्वर के बारे में उनकी समझ ज्यादा गहरी, ज्यादा व्यावहारिक, ज्यादा वास्तविक और ज्यादा सटीक हो जाती है। इसके विपरीत, मसीह-विरोधी अक्सर मसीह की समस्त सामान्यता और व्यावहारिकता के कारण इस तरह के मसीह का अनुसरण करने के अनिच्छुक होते हैं, वे सोचते हैं कि उसमें अलौकिक क्षमताओं का अभाव है और वह साधारण लोगों से अलग नहीं है, और इसके अलावा वह मानवजाति के समान ही जीवन-परिवेश का अनुभव करता है। मसीह-विरोधी न सिर्फ यह सब खुशी से स्वीकारने और इससे परमेश्वर के स्वभाव को समझने में असमर्थ होते हैं, बल्कि वे इसकी निंदा भी करते हैं और इससे बचते भी हैं, और इससे भी बढ़कर, इसके बारे में आरोप भी लगाते हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई ऐसा कुछ करता है जो सिद्धांतों के विरुद्ध है, अगर मैं उसके बारे में नहीं पूछता और कोई मुझे उसके बारे में नहीं बताता, तो मुझे उसके बारे में पता नहीं चलेगा—क्या यह ऐसी अभिव्यक्ति नहीं है जो सामान्यता और व्यावहारिकता के दायरे में आती है? (बिल्कुल।) जो लोग सही समझ और सामान्य मानवता रखते हैं, वे मुझे मामला स्पष्ट रूप से और पूरी तरह से बताएँगे, और फिर मुझे उससे जैसे मैं ठीक समझूँ वैसे निपटने देंगे। मसीह-विरोधी इसके बिलकुल विपरीत करते हैं; वे मुझे अपनी आँखों से देखते हैं और मुझसे सूचनाएँ निकलवाकर मेरी परीक्षा लेते हैं। फिर वे मन ही मन सोचते हैं, “चूँकि तुम इस मामले के बारे में नहीं जानते, इसलिए इसे सँभालना आसान है—अगर तुम इसके बारे में जानते हो तो मेरे पास तुमसे निपटने की एक योजना है और अगर नहीं जानते तो मेरे पास तुमसे निपटने की दूसरी योजना है; कोई बड़ा मुद्दा होगा तो मैं उसे छोटे मुद्दे जैसा दिखाऊँगा, और फिर उसे इतना छोटा कर दूँगा कि बिल्कुल शून्य लगे, तुम्हें पूरी तरह से अँधेरे में रखूँगा, और इस मामले को खत्म होने दूँगा—चूँकि तुम इस मुद्दे से अनजान हो, इसलिए तुम्हें आगे इसके बारे में जानने की जरूरत नहीं है या तुम्हें इसके बारे में जानना नहीं पड़ेगा। इसका जिम्मा मैं ले लूँगा। जब किसी दिन तुम्हें इसके बारे में पता चलेगा, तो यह पहले ही उस तरह हो चुका होगा जैसे मैं चाहता हूँ, और तब तुम मेरा क्या कर लोगे?” मसीह के साथ इस तरह कौन-से लोग पेश आते हैं? क्या वे अच्छे लोग होते हैं? क्या वे सत्य का अनुसरण करने वाले लोग होते हैं? क्या उनमें मानवता और ईमानदारी होती है? (नहीं।) कुछ अगुआ थे, जिन्होंने कुछ खास चीजें कीं; उन्होंने कलीसिया में लोगों को मनमाने ढंग से पदोन्नत किया, चढ़ावे बरबाद किए, और बेतरतीब ढंग से हद से ज्यादा खरीदारी की, और चाहे जितना भी पैसा खर्च किया गया हो या जो भी महत्वपूर्ण मुद्दा सामने आया हो, उन्होंने उसके बारे में एक शब्द नहीं कहा। मैं कई बार वहाँ गया, और उन्होंने कभी मुझसे इन चीजों के बारे में सलाह नहीं ली, न ही मुझसे पूछा, उन्होंने बस खुद ही निर्णय ले लिए; उन्होंने मुझे कोई जाँच भी नहीं करने दी, और मुझे उनसे मुश्किल से जानकारी निकालनी पड़ी। वे मेरे साथ एक बाहरी व्यक्ति की तरह पेश आए : “चूँकि तुम यहाँ हो, इसलिए हम बस तुम्हें रिपोर्ट करेंगे और तुम्हें बताएँगे कि तुम अपने सामने क्या देख सकते हो। जहाँ तक उन चीजों का सवाल है जो हमने तुम्हारी पीठ पीछे की हैं, बेहतर होगा कि तुम उनमें से किसी के बारे में पता लगाने की कोशिश न करो। हम तुम्हें हस्तक्षेप करने या पूछताछ करने की अनुमति नहीं देंगे।” मैं जितनी भी बार गया, उन्होंने मुझे कभी कोई पूछताछ नहीं करने दी। इस डर से कि मैं सवाल पूछना शुरू कर सकता हूँ, उन्होंने जानबूझकर झूठे, अच्छे लगने वाले शब्दों से सच्चाई छिपाई, छल-कपट किया। उन्होंने आपस में साँठ-गाँठ की, आम सहमति पर पहुँचे, और अर्थपूर्ण नजरों से एक-दूसरे को देखा; उन्होंने एकजुटता बनाए रखी, और एक-दूसरे की समस्याओं की रिपोर्ट नहीं की, एक-दूसरे को बचाते रहे। जब मुझे पता चला कि वे मेरी पीठ के पीछे क्या कर रहे थे और मैंने उन्हें जवाबदेह ठहराना चाहा, तो वे एक-दूसरे को बचाते रहे, उन्होंने यह नहीं बताया कि कौन जिम्मेदार है, भोले-भाले होने का अभिनय करते रहे और मेरे साथ शब्दों का खेल खेलते रहे। उन्होंने क्या गलती की? उन्होंने सोचा, “अपनी सामान्य, सरल सोच और साधारण, सामान्य मानवता के अलावा, मसीह—इस साधारण व्यक्ति—के पास घमंड करने लायक कुछ नहीं है और कोई अलौकिक शक्तियाँ नहीं हैं। चूँकि ऐसा है, इसलिए हम तुम्हारी पीठ पीछे कुछ छोटी-मोटी गतिविधियाँ कर सकते हैं, और अपने उद्यमों में संलग्न होने में सहज महसूस कर सकते हैं। कलीसिया के पैसे का नियंत्रण हमारे हाथों में है, इसलिए हम जो चाहें खरीदेंगे। जब हस्ताक्षर की जरूरत होती है तो हमें किसी से पूछने की जरूरत नहीं होती, हम बिना किसी समीक्षा की जरूरत के मनमाने ढंग से खरीदारियों पर हस्ताक्षर कर सकते हैं और पैसा लापरवाही से खर्च कर सकते हैं। क्या मसीह परमेश्वर नहीं है? क्या तुम इन चीजों पर नियंत्रण रख सकते हो? हम जैसा चाहेंगे वैसा करेंगे; जब तुम आस-पास होते हो उस समय को छोड़कर बाकी समय यह सब हमारा अधिकार-क्षेत्र है!” उन्होंने मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता को कैसे लिया? क्या उन्होंने उसे ऐसा व्यक्ति नहीं समझा, जिसे धमकाना आसान है? उन्होंने सोचा, “अगर तुममें सामान्य मानवता है, तो हम तुम्हें धमकाने से नहीं डरते। अगर तुममें अलौकिक मानवता नहीं है, तो हम तुमसे नहीं डरते।” वे किस तरह के लोग थे? अगर उनको मानवता के संदर्भ में आँका जाए, तो क्या वे अच्छे लोग माने जाएँगे? क्या वे ऐसे लोग माने जाएँगे, जिनमें शिष्टाचार और मानवता है? क्या वे ऐसे लोग माने जाएँगे, जिनमें नेक ईमानदारी है? वे वास्तव में क्या थे? क्या वे बदमाशों का गिरोह नहीं थे? जब ये लोग परमेश्वर के घर में काम करते थे, तो किसका प्रतिनिधित्व करते थे? यहाँ तक कि वे मनुष्य का प्रतिनिधित्व भी नहीं करते थे, वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते थे। वे शैतान के लिए काम करते थे, वे उसके चाकर और उसके जुर्म में सहभागी थे; वे यहाँ परमेश्वर के घर का काम बिगाड़ने और बरबाद करने के लिए थे, वे अपने कर्तव्य नहीं निभा रहे थे बल्कि बुरे कर्म कर रहे थे। शैतान के जुर्म में सहभागियों का यह गिरोह उस बड़े लाल अजगर से भिन्न कैसे था, जो परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पकड़ता, सताता और उनके साथ दुर्व्यवहार करता है? बड़ा लाल अजगर देखता है कि परमेश्वर का देहधारी देह सिर्फ एक साधारण व्यक्ति है, वह बिल्कुल भी डरावना नहीं है, इसलिए वह मनमाने ढंग से उसे पकड़ने की कोशिश करता है, और जब वह उसे पकड़ लेगा, तो उसे मारने की कोशिश करेगा। क्या शैतान के ये जुर्म के साथी, ये मसीह-विरोधी, मसीह के साथ इसी तरह पेश नहीं आते थे? क्या उनका सार एक-जैसा नहीं है? (बिल्कुल है।) उन्होंने अपने विश्वास में मसीह को क्या माना? वे उसमें परमेश्वर की तरह विश्वास करते थे या एक इंसान की तरह? अगर वे मसीह को परमेश्वर मानते, तो क्या वे उसके साथ इस तरह पेश आते? (नहीं।) इसका सिर्फ एक ही स्पष्टीकरण है : उन्होंने मसीह को एक इंसान के रूप में देखा, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा, जिसकी वे लापरवाही से आलोचना कर सकते थे, जिसे वे धोखा दे सकते थे, जिसके साथ वे खिलवाड़ कर सकते थे, जिसका वे तिरस्कार कर सकते थे और जिसके साथ जैसे चाहे पेश आ सकते थे; इसका मतलब है कि वे बहुत साहसी थे। अगर हम ऐसे दुस्साहसी लोगों को वर्गीकृत करें, तो क्या उन्हें सृजित प्राणियों, परमेश्वर के चुने हुए लोगों, उसके अनुयायियों, उसके द्वारा पूर्ण किए जा सकने वाले लोगों और उसके द्वारा बचाए जा सकने वाले लोगों की श्रेणी और समूह में रखा जा सकता है? (नहीं।) ऐसे कचरे को कहाँ डालना चाहिए? शैतान के खेमे में। इस समूह के लोगों को मसीह-विरोधियों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। उन्होंने मसीह के साथ एक साधारण व्यक्ति जैसा व्यवहार किया, और स्वेच्छाचारिता और लापरवाही से काम किया और अपने प्रभाव के दायरे में पूरी शक्ति का इस्तेमाल किया, और सोचा, “चाहे जो भी मुद्दा हो, अगर मैं तुमसे नहीं पूछता या तुम्हें इसके बारे में सूचित नहीं करता, तो तुम्हें हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, और तुम्हें इसके बारे में कभी पता नहीं चलेगा।” मुझे बताओ, क्या मसीह को उनसे निपटने का अधिकार है? (बिल्कुल है।) ऐसा करने का उचित तरीका क्या होगा? (उन्हें कलीसिया से निकाल दो।) मसीह-विरोधियों और शैतानों से इसी तरह निपटना चाहिए; उनके प्रति नरमी नहीं दिखानी चाहिए। जब ऐसे लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, तो परमेश्वर चाहे जो भी करे, वह लोगों को चाहे जैसे सत्य प्रदान करे, या वह जो भी कार्य करे, वे उस पर ध्यान नहीं देते। अगर उनके पास शक्ति नहीं होती, तो वे उसे प्राप्त करने के तरीकों के बारे में सोचते हैं, और जब वे सत्ता में आ जाते हैं, तो वे मसीह के साथ समान स्तर पर खड़े होने, उसके साथ दुनिया को बाँटने का प्रयास करते हैं, यह देखने के लिए प्रतिस्पर्धा करने का प्रयास करते हैं कि उनमें श्रेष्ठ कौन है, और उसके साथ हैसियत के लिए प्रतियोगिता करने का प्रयास करते हैं। अपने प्रभाव के दायरे में, वे मसीह को यह कहते हुए चुनौती देना चाहते हैं, “मैं देखना चाहता हूँ कि किसके शब्द ज्यादा महत्व रखते हैं, तुम्हारे या मेरे। यह कलीसिया मेरा क्षेत्र है; मैं कलीसिया के पैसे जैसे चाहूँ खर्च करूँगा, जो चाहूँगा खरीदूँगा, और मामले अपनी इच्छानुसार सँभालूँगा। जिस भी व्यक्ति को मैं बेकार मानता हूँ, वह बेकार है। मैं जिसका उपयोग करना चाहूँगा, उसका उपयोग करूँगा, और किसी को भी उन लोगों को छूने की अनुमति नहीं है जिनका मैं उपयोग करना चाहता हूँ। अगर कोई ऐसा करता है, तो मैं कभी भी मामले को खत्म नहीं होने दूँगा—भले ही परमेश्वर कहे कि वह ऐसा करना चाहता है, मैं इसे स्वीकार नहीं करूँगा!” क्या यह मौत को आमंत्रित करना नहीं है?
अगर लोग परमेश्वर की मनोहरता को ज्यादा समझने लगते हैं और देहधारी परमेश्वर की सामान्य और व्यावहारिक मानवता के जरिये परमेश्वर की व्यावहारिकता और सार की ज्यादा स्पष्ट और ज्यादा सटीक समझ प्राप्त कर लेते हैं, तो वे ऐसे लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं और जिनमें मानवता होती है। लेकिन कुछ लोग मसीह को उसके सामान्य, व्यावहारिक पक्ष के कारण परमेश्वर नहीं मानते। वे उसके सामने ज्यादा ढीठ और निर्भीक हो जाते हैं, वे स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए ज्यादा साहसी हो जाते हैं, और वे मसीह से आगे निकलने और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करने के विचारों से ज्यादा ग्रस्त हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनके पास मसीह से घृणा और प्रतिस्पर्धा करने के लिए पूँजी है, और मसीह को एक इंसान मानने के लिए सबूत है। उन्हें लगता है कि इस सबूत को प्राप्त करने के बाद उन्हें मसीह से डरने की जरूरत नहीं है और वे स्वतंत्र रूप से उसकी आलोचना कर सकते हैं, उसके साथ लापरवाही से बातचीत और हँसी-ठट्टा कर सकते हैं और खुद को उसके बराबर रख सकते हैं, और उससे अपने घरेलू मामलों और व्यक्तिगत परेशानियों पर चर्चा कर सकते हैं। कुछ लोग तो यह तक कहते हैं, “मैंने अपने आंतरिक विचार, कमजोरियाँ और भ्रष्ट स्वभाव तुम्हारे साथ साझा कर दिए हैं, इसलिए मुझे अपनी अवस्था के बारे में बताओ। मैंने तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने से पहले के और बाद के अपने अनुभवों के बारे में बता दिया है, और मैंने तुम्हें यह भी बता दिया है कि मैंने परमेश्वर का कार्य कैसे स्वीकारा, इसलिए अपने अनुभव मेरे साथ साझा करो।” वे क्या करने का प्रयास कर रहे हैं? क्या वे देहधारी परमेश्वर को बहुत साधारण और सामान्य नहीं मानते, और क्या वे उसे परिवार के सदस्य, यार, दोस्त या पड़ोसी में बदलना नहीं चाहते? चाहे मसीह कितना भी सामान्य और व्यावहारिक क्यों न हो, उसका सार कभी नहीं बदलेगा। चाहे उसकी उम्र कुछ भी हो, वह कहीं भी पैदा हुआ हो, या उसकी योग्यताएँ और अनुभव तुम्हारी तुलना में कैसे भी हों, चाहे वह तुम्हें उच्च लगे या क्षुद्र, यह कभी मत भूलना कि वह हमेशा तुमसे अलग रहेगा। ऐसा क्यों है? वह बाहरी तौर पर सामान्य और व्यावहारिक देह में रहने वाला परमेश्वर है; उसका सार तुमसे हमेशा अलग है; उसका सार सर्वोच्च परमेश्वर का है, जो हमेशा-हमेशा के लिए समस्त मानवजाति से ऊपर है। इसे मत भूलना। सतह पर वह एक साधारण और सामान्य व्यक्ति प्रतीत होता है, उसे मसीह कहा जाता है और उसके पास मसीह की पहचान है, लेकिन अगर तुम अपने विश्वास में उसे एक इंसान मानते हो, और उसे एक साधारण व्यक्ति, भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य के रूप में देखते हो, तो तुम खतरे में हो। मसीह की पहचान और सार कभी नहीं बदलता, उसका सार परमेश्वर का सार है और उसकी पहचान हमेशा परमेश्वर की पहचान है। वह एक सामान्य, व्यावहारिक देह के खोल के भीतर रहता है, इस तथ्य का यह मतलब नहीं कि वह भ्रष्ट मानवजाति का सदस्य है, न ही इसका मतलब यह है कि मनुष्य उसे प्रभावित या नियंत्रित कर सकते हैं, या वे उसके बराबर हो सकते हैं या सत्ता के लिए उसके साथ होड़ कर सकते हैं। अगर लोग उसे एक इंसान के रूप में देखते हैं और उसे इंसानी तरीकों और दृष्टिकोणों का उपयोग करके मापते हैं, और उसे एक दोस्त, साथी, सहकर्मी या वरिष्ठ अधिकारी में बदलने की कोशिश करते हैं, तो वे खुद को एक खतरनाक स्थिति में डाल रहे हैं। यह खतरनाक क्यों है? अगर तुम मसीह को एक साधारण, सामान्य इंसान के रूप में देखते हो, तो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव उभरने लगेंगे। जिस क्षण से तुम मसीह को इंसान मानोगे, तुम्हारे बुरे कर्म उजागर होने लगेंगे। क्या यह खतरनाक भाग नहीं है? अगर लोग मसीह को मनुष्य के रूप में देखते हैं और सोचते हैं कि वह सामान्य और व्यावहारिक है, उसे धोखा देना आसान है, और वह मनुष्य के समान ही है, तो वे परमेश्वर का भय नहीं मानते, और इस समय परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता बदल जाता है। यह रिश्ता क्या बन जाता है? उनका रिश्ता अब एक सृजित मनुष्य और सृष्टिकर्ता का नहीं रह जाता, वह अब एक अनुयायी और मसीह का रिश्ता नहीं रह जाता, और वह अब उद्धार के पात्र और परमेश्वर का रिश्ता नहीं रह जाता, इसके बजाय वह शैतान और सभी चीजों के संप्रभु का रिश्ता बन जाता है। लोग परमेश्वर के विरोध में खड़े हो जाते हैं और उसके शत्रु बन जाते हैं। जब तुम मसीह को मनुष्य के रूप में देखते हो, तो तुम परमेश्वर के सामने अपनी पहचान और उसकी नजरों में अपना मूल्य भी बदल देते हो; तुम अपने असंयम, विद्रोहशीलता, दुष्टता और अहंकार से अपनी संभावनाएँ और नियति पूरी तरह से नष्ट कर लेते हो। परमेश्वर सिर्फ इस आधार पर तुम्हें स्वीकारेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और तुम्हें जीवन और उद्धार प्राप्त करने का अवसर प्रदान करेगा कि तुम एक सृजित प्राणी हो, मसीह के अनुयायी हो, और ऐसे व्यक्ति हो जिसने परमेश्वर का उद्धार स्वीकारा है। अन्यथा परमेश्वर से तुम्हारा रिश्ता बदल जाएगा। जब लोग परमेश्वर, अर्थात् मसीह को एक व्यक्ति के रूप में देखते हैं, तो क्या वे मजाक नहीं कर रहे होते? लोग आमतौर पर इसे समस्या के रूप में नहीं देखते, वे सोचते हैं, “मसीह ने कहा कि वह एक साधारण और सामान्य व्यक्ति है, तो उसके साथ एक व्यक्ति की तरह पेश आने में क्या गलत है?” वास्तव में, इसमें गलत कुछ नहीं है, लेकिन इसके परिणाम गंभीर हैं। मसीह के साथ एक व्यक्ति की तरह पेश आने से तुम्हें कई लाभ हैं। एक ओर यह तुम्हारी प्रतिष्ठा बढ़ाता है, तो दूसरी ओर यह तुम्हारे और परमेश्वर के बीच की दूरी कम करता है, और इसके अलावा, तुम परमेश्वर की उपस्थिति में इतने औपचारिक नहीं होगे, तुम तनावमुक्त और स्वतंत्र महसूस करोगे। तुम्हारे पास अपने मानवाधिकार, स्वतंत्रता और अपने अस्तित्व के मूल्य की भावना होगी, और तुम अपनी उपस्थिति महसूस करोगे—क्या यह अच्छा नहीं है? किसी वास्तविक व्यक्ति के साथ इस तरह से व्यवहार करने में कुछ गलत नहीं है, यह दर्शाता है कि तुममें गरिमा और ईमानदारी है। मनुष्य को आसानी से झुकना नहीं चाहिए; लोगों को किसी व्यक्ति के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए, झुकना नहीं चाहिए, या आसानी से अपनी हीनता नहीं स्वीकारनी चाहिए—क्या मानव-अस्तित्व के कानून और मनुष्य के खेल के नियम यही नहीं हैं? बहुत-से लोग मसीह के साथ अपने व्यवहार में यही कानून और खेल के नियम लागू करते हैं। इसका अर्थ है परेशानी, और इससे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाने की बहुत संभावना है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मानवजाति के सभी सदस्यों का प्रकृति-सार, चाहे वे किसी भी नस्ल के हों, एक-जैसा है। सिर्फ मसीह ही मानवजाति से भिन्न है। हालाँकि मसीह में सामान्यता और व्यावहारिकता का आभास है, और उसकी जीवन-शैली और दिनचर्या सामान्य, व्यावहारिक मानवता की है, फिर भी उसका सार किसी भ्रष्ट मनुष्य से भिन्न है। ठीक यही कारण है कि वह यह अपेक्षा करने के योग्य है कि उसके अनुयायी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करें, जैसा वह चाहता है। मसीह के अलावा, कोई भी अन्य व्यक्ति लोगों से अपेक्षाएँ करने के लिए इन तरीकों और मानकों का उपयोग करने के योग्य नहीं है। क्यों? क्योंकि मसीह का सार स्वयं परमेश्वर है, और मसीह—यह साधारण, सामान्य व्यक्ति—एक सामान्य देह है जिसे परमेश्वर ने पहना है, और जो मनुष्यों के बीच परमेश्वर का देहधारण है। बस अकेले इसी आधार पर मसीह को एक व्यक्ति के रूप में देखना गलत है, उसके साथ एक व्यक्ति की तरह व्यवहार करना और भी गलत है, और उसके साथ छल करना, उसके साथ खिलवाड़ करना और उसके खिलाफ इस तरह लड़ना मानो वह एक व्यक्ति हो, और भी बुरा है। मसीह-विरोधी लोग, अर्थात् दुष्ट व्यक्तियों का यह गिरोह जो सत्य से घृणा करता है, इस महत्वपूर्ण समस्या और स्पष्ट भूल से हमेशा अनजान रहता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि उनका प्रकृति-सार मसीह-विरोधियों का सार है। वे आध्यात्मिक क्षेत्र में परमेश्वर से लड़ते हैं, उसके साथ हैसियत के लिए होड़ करते हैं, उसे कभी परमेश्वर के रूप में संबोधित नहीं करते या उसके साथ वैसा व्यवहार नहीं करते। परमेश्वर के घर में वे यही व्यवहार दोहराते हैं, मसीह के साथ इसी तरह पेश आते हैं। उनके पूर्वज ने भी परमेश्वर के साथ इसी तरह से व्यवहार किया था, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि वे भी ऐसा ही व्यवहार किए बिना नहीं रह पाते। चूँकि वे इसी तरह व्यवहार किए बिना नहीं रह पाते और उनके प्रकृति-सार का पता लगाया जा चुका है, तो क्या ऐसे लोग अभी भी परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं? क्या उन्हें परमेश्वर के घर से निकाल बाहर नहीं किया जाना चाहिए? क्या उन्हें परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों द्वारा अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए? (बिल्कुल।) क्या तुम लोगों में परमेश्वर के घर द्वारा ऐसे व्यक्तियों की निंदा करने, उन्हें बाहर निकालकर हटा देने के बारे में अभी भी धारणाएँ हैं? (नहीं।) क्या वे दया के पात्र हैं? (नहीं।) वे दया के पात्र क्यों नहीं हैं? वे कुत्सित और घृणित हैं, इसलिए वे दया के पात्र नहीं हैं।
ग. मसीह-विरोधी मसीह की नम्रता और उसके छिपे होने को कैसे लेते हैं
मसीह-विरोधी मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता को कैसे लेते हैं, यह कई तरह से अभिव्यक्त होता है और अभी हमने कुछ विशिष्ट उदाहरण उजागर किए हैं। हम इस पहलू पर अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे। मसीह के दूसरे पहलू—उसकी नम्रता और छिपे होने—के बारे में मसीह-विरोधी अभी भी अपना विशिष्ट स्वभाव-सार प्रदर्शित करते हैं, और उनमें वही अनिवार्य अभिव्यक्तियाँ और नजरिये होते हैं, जो उनमें मसीह की सामान्यता और व्यावहारिकता को लेकर हैं। वे अभी भी इन चीजों को परमेश्वर से आई नहीं स्वीकार सकते, या उन्हें सकारात्मक चीजों के रूप में नहीं स्वीकार सकते, इसके बजाय वे उनसे घृणा करते हैं, यहाँ तक कि उनका मजाक भी उड़ाते हैं और उनकी निंदा भी करते हैं, और फिर उन्हें नकार देते हैं। यह तीन भागों की शृंखला है : पहले, वे देखते हैं, फिर वे निंदा करते हैं, और अंत में वे नकार देते हैं। ये सब मसीह-विरोधियों की आदतन हरकतें हैं; यह मसीह-विरोधियों के सार द्वारा निर्धारित होता है। नम्रता और छिपा होना क्या है? इसे शाब्दिक रूप से समझना कठिन नहीं होना चाहिए—इसका अर्थ है दिखावा पसंद न करना, अपना प्रदर्शन न करना, अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने से बचना और अज्ञात बने रहना। यह देहधारी परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के आंतरिक व्यक्तित्व को छूता है। रूप-रंग के आधार पर लोगों के लिए यह देखना मुश्किल नहीं होना चाहिए : मसीह की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, वह सत्ता हथियाने की कोशिश नहीं करता, उसे सत्ता की कोई इच्छा नहीं है, वह लोगों के दिलों को पिंजरे में बंद नहीं करता, न ही वह उनके मन-मस्तिष्क पढ़ता है; मसीह सरल, साफ, स्पष्ट रूप से बोलता है, बहला-फुसलाकर लोगों के सच्चे विचार जानने के लिए कभी जिज्ञासा भरे शब्द या चालें इस्तेमाल नहीं करता। अगर लोग कुछ कहना चाहते हैं, तो वे कह सकते हैं; अगर नहीं, तो वह उन्हें मजबूर नहीं करता। जब मसीह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और उनकी विभिन्न अवस्थाएँ उजागर करता है, तो वह सीधे बोलता है और स्पष्ट रूप से उन्हें इंगित करता है; इसके अलावा, चीजें सँभालने का मसीह का तरीका बहुत सरल है। जिन लोगों ने मेरे साथ बातचीत की है उनकी मेरे प्रति यह धारणा होनी चाहिए और उन्हें कहना चाहिए, “तुम बहुत सीधे-सादे हो, तुम्हारे पास सांसारिक व्यवहारों की कोई चालें नहीं हैं। हैसियत होने के बावजूद तुम किसी समूह में श्रेष्ठता की भावना महसूस करते प्रतीत नहीं होते।” यह कथन वास्तव में सटीक है; मुझे सुर्खियों में रहना या दूसरों के सामने अपनी प्रसिद्धि बढ़ाना पसंद नहीं है। अगर मुझमें वाकई यह हैसियत न होती और परमेश्वर ने मेरी गवाही न दी होती, तो मेरा अंतर्निहित व्यक्तित्व भीड़ के पीछे रहना होता, मैं खुद को दिखाने की इच्छा नहीं रखता, मैं नहीं चाहता कि लोग जाने, भले ही मेरे पास कुछ खास कौशल हों, क्योंकि अगर लोग जान गए तो वे मेरा पीछा करेंगे, जो कि परेशानी भरा है और जिसे सँभालना मुश्किल है। इसलिए, मैं चाहे जहाँ भी जाऊँ, जैसे ही लोग मेरा पीछा करना शुरू करते हैं, मैं उन्हें भगाने के तरीके ढूँढ़ता हूँ, जब जरूरी हो तो मामलों पर चर्चा करता हूँ और जब जरूरी न हो, तो उन्हें जल्दी से उनके उचित स्थानों पर अपना-अपना काम करने के लिए वापस भेज देता हूँ। भ्रष्ट लोगों के लिए यह अकल्पनीय है, “हम इंसान तुमसे बहुत प्यार करते हैं और तुम्हारा इतना समर्थन करते हैं! हम तुम पर इतने मोहित हैं! तुम हमारा यह स्नेह क्यों नहीं स्वीकारते?” यह क्या बात है? मैंने तुमसे वह कह दिया है जो मुझे कहना चाहिए, तुम्हें वह निर्देश दे दिया है जो मुझे देना चाहिए, इसलिए जाकर वह करो जो तुम्हें करना चाहिए, मेरे इर्द-गिर्द चक्कर मत लगाओ, मुझे यह पसंद नहीं है। अपनी नजर में लोग सोचते हैं, “हे परमेश्वर, इतना बड़ा काम करने के बाद क्या तुम भी अक्सर आत्म-संतुष्ट महसूस नहीं करते? इतने सारे अनुयायियों के साथ क्या तुम भी हमेशा श्रेष्ठ महसूस नहीं करते? क्या तुम हमेशा विशेष व्यवहार का आनंद नहीं लेना चाहते?” मैं कहता हूँ कि मैंने ऐसा कभी महसूस नहीं किया; मैं कभी इतने सारे अनुयायी होने के प्रति सजग नहीं होता, मैं श्रेष्ठ महसूस नहीं करता, और मुझे इस बात की कोई सुध नहीं है कि मेरी हैसियत कितनी ऊँची है। मुझे बताओ, अगर कोई सामान्य व्यक्ति ऐसी स्थिति में होता, तो वह रोजाना कितना खुश होता? क्या उसे सुध होती कि क्या खाना है या क्या पहनना है? क्या वह पूरे दिन हवा में उड़ता न रहता? क्या वह हमेशा यह उम्मीद नहीं करता कि लोग उसके पीछे-पीछे चलें? (बिल्कुल।) विशेष रूप से, जिनके पास कुछ योग्यताएँ होती हैं, वे हमेशा बैठकें आयोजित करने, भाषणों के दौरान लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने और तालियों की गड़गड़ाहट का आनंद लेने के तरीके खोज लेते हैं, सोचते हैं कि यह मांस खाने और शराब पीने के आनंद से बढ़कर है। मुझे आश्चर्य है कि मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता? मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता कि यह अच्छा है? मैं उस भावना को पसंद क्यों नहीं करता? संगीत की दुनिया में, जिनके पास थोड़ी प्रतिभा है, खासकर जो नाच-गा सकते हैं, वे देवी, देवता, संगीत-सम्राट, संगीत-सम्राज्ञी, यहाँ तक कि पिता, माता और दादा भी कहलाते हैं। ये अच्छी उपाधियाँ नहीं हैं। इसके अलावा, कुछ लोग “शाओ[क] वांग” या “शाओ ली” कहे जाने पर असंतुष्ट महसूस करते हैं, उन्हें लगता है कि इससे उनकी वरिष्ठता कम होती है, इसलिए वे अपनी वरिष्ठता का स्तर बदलने के तरीके खोजते हैं, ताकि लोग उन्हें भविष्य में राजा या रानी कहकर बुलाएँ। यह भ्रष्ट मानवजाति है। परमेश्वर में विश्वास शुरू करने के बाद कुछ लोग कहते हैं कि विश्वासियों को गैर-विश्वासियों की तरह ढीठ नहीं होना चाहिए, उन्हें देवता, राजा या रानी कहकर नहीं बुलाना चाहिए, उन्हें नम्र और विनीत होना चाहिए। वे मानते हैं कि खुद को सीधे विनीत कहना थोड़ा अभद्र है, यह पर्याप्त रूप से छोटा या निम्न नहीं है, इसलिए वे खुद को नन्हे, छोटे, धूल, तुच्छ और कुछ तो रेत का कण और नैनोमीटर भी कहकर बुलाते हैं। वे सत्य पर ध्यान नहीं देते, बल्कि अश्लीलता पर ध्यान देते हैं, खुद के लिए छोटी खरपतवार, अंकुर, यहाँ तक कि धुल, कीचड़, गोबर जैसे नामों का प्रयोग करते हैं। इनमें से प्रत्येक नाम पिछले नामों से ज्यादा अप्रिय और निम्नतर है, लेकिन क्या ये कुछ बदल सकते हैं? मैं देखता हूँ कि इन नामों वाले लोग भी बहुत घमंडी, बुरे और कुछ लोग तो दुष्ट भी होते हैं। ऐसे नाम वाले लोग न सिर्फ छोटे या विनम्र नहीं हुए, बल्कि ढीठ, दुष्ट और दुर्भावनापूर्ण बने हुए हैं।
पहली बार जब परमेश्वर ने धरती पर कार्य करने के लिए देहधारण किया, तो उसका कार्य सरल और संक्षिप्त था, लेकिन यह मानवजाति के उद्धार के कार्य का एक अपरिहार्य और महत्वपूर्ण चरण था। लेकिन सलीब पर चढ़ाए जाने के बाद प्रभु यीशु फिर से जीवित हो गया और मानवजाति के सामने पुनः प्रकट हुए बिना स्वर्गारोहण कर गया। वह फिर से मानवजाति के सामने प्रकट क्यों नहीं हुआ? यह परमेश्वर की नम्रता और उसका छिपा होना है। आम इंसानी तर्क के अनुसार, परमेश्वर देहधारी हुआ और उसने मानवजाति की अस्वीकृति, बदनामी, निंदा, दुर्व्यवहार इत्यादि सहते हुए साढ़े तेंतीस वर्षों तक कष्ट सहे, और सलीब पर चढ़ाए जाने और फिर से जीवित होने के बाद उसे अपनी जीत और महिमा के फलों का आनंद लेने के लिए लोगों के बीच लौट आना चाहिए था। उसे और साढ़े तेंतीस वर्ष या उससे भी ज्यादा समय तक जीना चाहिए था, मानवजाति द्वारा अपनी आराधना और सम्मान करते देखने का आनंद लेना चाहिए था, और वह हैसियत और व्यवहार प्राप्त करना चाहिए था जिसका वह हकदार था। लेकिन परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया। कार्य के इस चरण में परमेश्वर उन मनुष्यों की तरह नहीं जो थोड़ी-सी भी क्षमता होने पर अपनी उपस्थिति महसूस कराने की कोशिश करते हैं, बल्कि बिना किसी समारोह के, धीरे से और चुपचाप आया, परमेश्वर दुनिया के सामने यह ढिंढोरा नहीं पीटना चाहता था, “मैं यहाँ हूँ, मैं स्वयं परमेश्वर हूँ!” परमेश्वर ने अपने लिए ऐसा एक भी वचन नहीं कहा, बल्कि चुपचाप एक अस्तबल में पैदा हो गया। परमेश्वर की आराधना करने आए तीन बुद्धिमान पुरुषों की घटना को छोड़कर, प्रभु यीशु मसीह का शेष जीवन कठिनाइयों और पीड़ा से भरा रहा, जो उसके सलीब पर चढ़ने के साथ ही समाप्त हुआ। परमेश्वर ने महिमा प्राप्त की और मनुष्य के पाप क्षमा किए—इसका मतलब है कि उसने मानवजाति के लिए एक महान कर्म किया, क्योंकि उसने पाप और दुख के सागर से बचने में लोगों की मदद की, और वह मानवजाति का उद्धारक है। इसलिए, यह तर्कसंगत है कि परमेश्वर को मानवजाति की आराधना, प्रशंसा और उसके साष्टांग प्रणाम का आनंद लेना चाहिए था। लेकिन परमेश्वर चुपचाप और ख़ामोशी से चला गया। पिछले दो हजार वर्षों में परमेश्वर के कार्य का लगातार विस्तार हो रहा है। विस्तार की यह प्रक्रिया कठिनाई, रक्तपात और समस्त मानवजाति की निंदा और बदनामी से भरी हुई है। लेकिन, मानवजाति का परमेश्वर के प्रति चाहे जो भी रवैया हो, उसने सत्य व्यक्त करना जारी रखा है और मनुष्य को बचाने का अपना कार्य कभी नहीं छोड़ा है। इसके अलावा, इन दो हजार वर्षों के दौरान, परमेश्वर ने खुद को घोषित करने के लिए, यह कहने के लिए कभी स्पष्ट वचनों का इस्तेमाल नहीं किया है कि प्रभु यीशु उसका देहधारी देह है और मानवजाति को उसकी आराधना करनी चाहिए और उसे स्वीकारना चाहिए। परमेश्वर बस सबसे सरल तरीका अपनाकर अपने सेवकों को सभी राष्ट्रों और स्थानों पर स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए भेजता है, जिससे ज्यादा लोग पश्चात्ताप कर सकें, परमेश्वर के सामने आ सकें और उसका उद्धार स्वीकार सकें, और इस तरह अपने पापों की क्षमा प्राप्त कर सकें। परमेश्वर ने यह कहने के लिए कभी अनावश्यक वचनों का इस्तेमाल नहीं किया है कि वह आगामी मसीहा है; इसके बजाय, उसने तथ्यों के जरिये साबित किया है कि उसने जो कुछ भी किया है वह स्वयं परमेश्वर का कार्य है, प्रभु यीशु का उद्धार परमेश्वर का अपना उद्धार है, प्रभु यीशु ने समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाया है, और कि वह स्वयं परमेश्वर है। वर्तमान देहधारण में परमेश्वर उसी तरीके से और उसी रूप में लोगों के बीच आया। परमेश्वर का देह में आना मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा आशीष है, एक बेहद दुर्लभ अवसर है, और इससे भी बढ़कर, यह मानवजाति का सौभाग्य है। लेकिन स्वयं परमेश्वर के लिए इसका क्या अर्थ है? यह सबसे दर्दनाक चीज है। क्या तुम लोग इसे समझ सकते हो? परमेश्वर का सार परमेश्वर है। परमेश्वर, जो परमेश्वर की पहचान रखता है, जिसमें स्वाभाविक रूप से अहंकार का अभाव है, और इसके बजाय जो विश्वासपात्र, पवित्र और धार्मिक है। मानवजाति के बीच आने से उसे मनुष्य के विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों का सामना करना होगा, जिसका अर्थ है कि वे सभी लोग, जिन्हें वह बचाना चाहता है, वे लोग हैं जिनसे वह घृणा करता है और जिन्हें वह घिनौना पाता है। परमेश्वर में अहंकारी स्वभाव, दुष्टता और धोखेबाज़ी का अभाव है, वह सकारात्मक चीजों से प्रेम करता है, वह धार्मिक और पवित्र है, लेकिन जिसका वह सामना करता है, वह वास्तव में मनुष्यों का एक समूह है जो उसके सार का विरोधी और शत्रु है। परमेश्वर सबसे ज्यादा क्या देता है? अपना प्रेम, धैर्य, दया और सहनशीलता। परमेश्वर का प्रेम, दया और सहनशीलता उसकी नम्रता और उसका छिपा होना है। भ्रष्ट मानवजाति सोचती है, “परमेश्वर इतना बड़ा कार्य करता है, इतनी बड़ी महिमा प्राप्त करता है और इतनी सारी चीजों पर संप्रभु है, तो वह खुद को जताता या घोषित क्यों नहीं करता?” मनुष्यों को यह चुटकी बजाने जितना आसान लगता है; जब वे कोई अच्छा कर्म करते हैं तो वे उसे दस गुना बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, जब वे थोड़ा-सा अच्छा काम करते हैं तो वे उसका दो-तीन गुना विस्तार कर देते हैं, उसे अनंत रूप से बड़ा करके बताते हैं, और सोचते हैं कि जितना ज्यादा विस्तार से वे ऐसा करेंगे, उतना ही बेहतर होगा। लेकिन परमेश्वर के सार में ये चीजें नहीं हैं। चाहे परमेश्वर कुछ भी करे, उसमें मनुष्य के तथाकथित “लेनदेनों” जैसा कुछ नहीं होता; परमेश्वर कुछ माँगना नहीं चाहता, वह “पारिश्रमिक” नहीं चाहता, जैसा कि मनुष्य कहते हैं। परमेश्वर में रुतबे की इच्छा नहीं होती जैसी कि भ्रष्ट मानवजाति में होती है, वह यह नहीं कहता, “मैं परमेश्वर हूँ; मैं जो चाहता हूँ वही करता हूँ, और चाहे मैं कुछ भी करूँ, तुम्हें मेरी अच्छाई याद रखनी चाहिए, तुम्हें मेरे द्वारा की जाने वाली सारी चीजें दिल से लेनी चाहिए और हमेशा मेरा स्मरण करना चाहिए।” परमेश्वर में ठीक ऐसा सार नहीं है; उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, उसमें भ्रष्ट मानवजाति का अहंकारी स्वभाव नहीं है, और वह खुद को घोषित नहीं करता। कुछ लोग कहते हैं, “अगर तुम खुद को घोषित नहीं करते, तो लोग कैसे जान सकते हैं कि तुम परमेश्वर हो? वे कैसे देख सकते हैं कि तुम्हारे पास परमेश्वर का दर्जा है?” यह अनावश्यक है; यह वह चीज है जिसे परमेश्वर का सार प्राप्त कर सकता है। परमेश्वर में परमेश्वर का सार है; चाहे वह कितना भी नम्र और छिपा हुआ हो, कितने भी गुप्त रूप से कार्य करता हो, मानवजाति के प्रति कितनी भी दया और सहनशीलता दिखाता हो, लोगों पर उसके वचनों, कार्य, क्रियाकलापों आदि का अंतिम प्रभाव यही होना है कि सृजित मनुष्य सृष्टिकर्ता की संप्रभुता स्वीकारें, सृष्टिकर्ता के सामने झुकें और उसकी आराधना करें, और सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति स्वेच्छा से समर्पण करें। यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है। और ठीक यही है, जिसे मसीह-विरोधी प्राप्त नहीं कर सकते। उनमें महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होती हैं, और साथ ही उनमें अहंकारी, क्रूर और दुष्ट स्वभाव होते हैं, उनमें सत्य का अभाव होता है, और फिर भी वे लोगों पर कब्जा और नियंत्रण करना चाहते हैं, और लोगों से अपने प्रति समर्पण और अपनी आराधना करवाना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों के सार के आधार पर आकलन करें तो, क्या वे दुष्ट नहीं हैं? मसीह-विरोधी परमेश्वर से उसके चुने हुए लोगों के लिए झगड़ते हैं, क्या परमेश्वर उनसे झगड़ेगा? क्या परमेश्वर में यह सार है? क्या परमेश्वर झगड़ा करके सृजित मनुष्यों की आराधना और समर्पण प्राप्त करता है? (नहीं।) वह इसे कैसे प्राप्त करता है? सृजित प्राणी परमेश्वर द्वारा बनाए गए हैं; सिर्फ सृष्टिकर्ता ही जानता है कि मानवजाति को क्या चाहिए, उसके पास क्या होना चाहिए, और उसे कैसे जीना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो कोई व्यक्ति एक मशीन बनाता है। सिर्फ उसका आविष्कारक ही उसके दोष और खामियाँ और उन्हें ठीक करना जानता है, मशीन की नकल बनाने का प्रयास करने वाला नहीं। इसी तरह, मानवजाति को परमेश्वर ने बनाया था; सिर्फ परमेश्वर ही जानता है कि लोगों को क्या चाहिए, सिर्फ परमेश्वर ही मानवजाति को बचा सकता है, और सिर्फ परमेश्वर ही भ्रष्ट मनुष्यों को सच्चे मनुष्यों में बदल सकता है। परमेश्वर यह सब अपने अधिकार से नहीं करता, न ही अपने बारे में घोषणाएँ करके या खुद को सही ठहराकर या लोगों को दबाकर, गुमराह या नियंत्रित करके करता है; परमेश्वर ये साधन और तरीके इस्तेमाल नहीं करता, सिर्फ शैतान और मसीह-विरोधी ही इन्हें इस्तेमाल करते हैं।
इतनी संगति के बाद परमेश्वर की नम्रता और उसके छिपे होने के बारे में तुम लोगों की समझ क्या है? परमेश्वर की नम्रता और उसका छिपा होना क्या है? क्या उसका छिपा होना अपनी पहचान जानबूझकर छिपाना है, अपना सार और वास्तविक परिस्थितियाँ जानबूझकर छिपाना है? (नहीं।) क्या नम्रता कोई कृत्रिम तरीके से दिखाई गई चीज है? क्या यह आत्म-संयम है? क्या यह दिखावा है? (नहीं।) कुछ लोग कहते हैं, “तुम देहधारी परमेश्वर हो, ऐसे महान रुतबे वाला कोई व्यक्ति ऐसे साधारण कपड़े कैसे पहन सकता है?” मैं कहता हूँ कि मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ, एक साधारण जीवन जी रहा हूँ; मेरे बारे में सब-कुछ साधारण है, तो मैं साधारण कपड़े क्यों नहीं पहन सकता? कुछ लोग कहते हैं, “तुम मसीह हो, देहधारी परमेश्वर हो। तुम्हारी हैसियत महान है—अपने आप को छोटा मत समझो।” मैं कहता हूँ, कैसा छोटा समझना? मैं अपने आप को ज़्यादा महत्व नहीं देता या अपने आप को छोटा नहीं समझता; मैं वही हूँ जो मैं हूँ, मैं वही करता हूँ जो मुझे करना चाहिए, और वही कहता हूँ जो मुझे कहना चाहिए—इसमें क्या गलत है? न तो अपने आप को ज़्यादा महत्व देना सही है और न ही अपने आप को छोटा समझना; अपने आप को ज़्यादा महत्व देना अहंकार है, अपने आप को छोटा समझना दिखावा और छल है। कुछ लोग कहते हैं, “देहधारी परमेश्वर की चाल-ढाल किसी मशहूर हस्ती जैसी होनी चाहिए, और तुम्हारा भाषण और व्यवहार सुरुचिपूर्ण होना चाहिए। समाज में उन शक्तिशाली महिलाओं का केश-विन्यास, पहनावा और साज-सिंगार देखो, वे हैसियत वाले लोग हैं, वे वो हैं जिनके बारे में लोग बहुत ऊँची राय रखते हैं!” मैं कहता हूँ, हैसियत क्या होती है? अगर लोग मुझे सम्मान देते हैं, तो इससे क्या फर्क पड़ता है? मैं इसकी परवाह नहीं करता; अगर तुम मुझे सम्मान देते हो, तो मुझे यह घृणित लगता है और मुझे इससे उबकाई आती है। तुम्हें मुझे बिल्कुल भी सम्मान नहीं देना चाहिए। दूसरे लोग कहते हैं, “समाज में उन महिला उद्यमियों को देखो, वे बहुत ही शानदार और सुरुचिपूर्ण ढंग से कपड़े पहनती हैं। एक ही नजर में तुम समझ सकते हो कि वे शक्तिशाली, कुलीन हस्तियाँ हैं—तुम उनसे क्यों नहीं सीखते?” मुझे ऐसा कुछ क्यों सीखना चाहिए, जो मुझे पसंद नहीं है? मैं ऐसे कपड़े पहनता हूँ जो मेरी उम्र से मेल खाते हैं, मुझे दिखावा क्यों करना चाहिए? मुझे दूसरों से क्यों सीखना चाहिए? मैं मैं हूँ, मैं किसके लिए दिखावा कर रहा हूँ? क्या यह धोखा नहीं है? मुझे बताओ, देहधारी परमेश्वर को कैसी समानता, रूप, वाणी और व्यवहार रखना चाहिए, जो उसकी पहचान से मेल खाए? क्या तुम लोगों के पास इसके लिए मानक हैं? तुम लोगों के पास अवश्य होंगे, वरना तुम लोग मसीह को इस तरह से न देखते। मेरे पास मेरे मानक हैं—क्या मेरे मानक सत्य-सिद्धांतों के दायरे से परे हैं? (नहीं।) कुछ लोग हमेशा मेरे पहनने या खाने के बारे में धारणाएँ क्यों रखते हैं, वे लगातार मेरे बारे में सारांश प्रस्तुत करते रहते हैं और निर्णय देते रहते हैं—क्या यह घृणित नहीं है? वे मुझे इस तरह से क्यों देखते हैं? उनकी नजर में मसीह जो कुछ भी करता है वह गलत है, वह सब नकारात्मक है, उसमें हमेशा कुछ न कुछ संदेहास्पद होता है। वे कितने दुष्ट होंगे! परमेश्वर की विभिन्न पहचानों, परमेश्वर के विभिन्न परिप्रेक्ष्यों—परमेश्वर के आत्मा और स्वयं परमेश्वर के सार से लेकर देहधारी परमेश्वर की मानवता तक—की इस शृंखला से आँकते हुए, परमेश्वर के सार में कोई अहंकार या शैतान की कोई महत्वाकांक्षा और इच्छा नहीं है, और मनुष्य की हैसियत पाने की तथाकथित लालसा तो बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर के आत्मा से लेकर उसके देहधारी देह तक, जो कुछ परमेश्वर में है, उसकी सबसे प्रमुख विशेषता, उसके सार के अलावा, उसकी नम्रता और उसका छिपा होना है। यह नम्रता दिखावटी नहीं है, यह छिपा होना जानबूझकर बचना नहीं है; यह परमेश्वर का सार है, यह स्वयं परमेश्वर है। परमेश्वर चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र में हो या उसने मनुष्य के रूप में देहधारण किया हो, उसका सार नहीं बदलता। अगर कोई इस आधार पर यह नहीं देख सकता कि देहधारी मसीह में परमेश्वर का सार है, तो वह किस तरह का व्यक्ति है? उसमें आध्यात्मिक समझ की कमी है, वह छद्म-विश्वासी है। अगर लोग परमेश्वर की नम्रता और उसके छिपे होने के सार को देखते हैं, तो वे सोचते हैं : “लगता नहीं कि परमेश्वर के पास इतना बड़ा अधिकार है। यह कहना कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, बहुत विश्वसनीय नहीं लगता, यह कहना ज्यादा सुरक्षित है कि परमेश्वर शक्तिमान है। चूँकि उसके पास इतना बड़ा अधिकार नहीं है, तो वह मानवजाति पर संप्रभुता कैसे रख सकता है? चूँकि वह कभी परमेश्वर का दर्जा और उसकी पहचान प्रदर्शित नहीं करता, तो क्या वह शैतान को हरा सकता है? परमेश्वर के बारे में कहा जाता है कि उसके पास बुद्धि है—क्या बुद्धि सब-कुछ तय कर सकती है? कौन ज्यादा बड़ी है, बुद्धि या सर्वशक्तिमत्ता? क्या बुद्धि सर्वशक्तिमत्ता को झुका सकती है? क्या बुद्धि सर्वशक्तिमत्ता को प्रभावित कर सकती है?” लोग इस पर विचार करते हैं, लेकिन इसे देख-समझ नहीं पाते। कुछ लोग अपने दिलों में कुछ संदेह रखते हैं, और फिर वे धीरे-धीरे उन्हें पचा जाते हैं, अपने अनुभवों के जरिये इस मामले को लगातार खोजने और समझने की कोशिश करते रहते हैं, और अनजाने ही वे कुछ अवधारणात्मक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। सिर्फ मसीह-विरोधी ही, परमेश्वर के सार के इन तमाम पहलुओं, इन तमाम अभिव्यक्तियों और उसके तमाम क्रियाकलापों पर संदेह करने के बाद, न सिर्फ यह समझने में विफल रहते हैं कि यह परमेश्वर की नम्रता और उसका छिपा होना है, यही परमेश्वर के बारे में प्यारी बात है, बल्कि इसके विपरीत उन्हें परमेश्वर के बारे में और ज्यादा संदेह होने लगते हैं और वे परमेश्वर की और ज्यादा कठोर निंदा करने लगते हैं। वे हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता पर संदेह करते हैं, उन्हें संदेह है कि परमेश्वर शैतान को हरा सकता है, उन्हें संदेह है कि परमेश्वर मानवजाति को बचा सकता है, उन्हें संदेह है कि परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन-योजना सफलतापूर्वक पूरी हो सकती है, और इससे भी बढ़कर, उन्हें इस तथ्य पर संदेह है कि परमेश्वर अपनी महिमा के साथ सभी लोगों के सामने खुद को प्रकट करेगा। इन चीजों पर संदेह करने के बाद वे क्या करते हैं? वे इन चीजों को नकार देते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधी कहते हैं, “मसीह की नम्रता और उसके छिपे होने का कोई मतलब नहीं है, वे प्रशंसा या गुणगान के योग्य नहीं हैं, और वे परमेश्वर का सार नहीं हैं। ऐसी नम्रता और छिपा होना वे चीजें नहीं हैं, जो परमेश्वर में हैं; मसीह की नम्रता और उसका छिपा होना उसकी अक्षमता की अभिव्यक्तियाँ हैं। दुनिया में जब तक किसी के पास थोड़ा-सा भी रुतबा है, उसे राजा, महाराजा या सम्राट का ताज पहना दिया जाता है। मसीह ने अपना राज्य स्थापित कर लिया है और उसके बहुत-से अनुयायी हैं, और साथ ही सुसमाचार-कार्य का विस्तार हो रहा है—क्या इसका मतलब यह नहीं कि मसीह की शक्ति बढ़ रही है? लेकिन उसके क्रियाकलापों के आधार पर आँकें तो, उसका इरादा अपनी शक्ति बढ़ाने या ऐसी शक्ति रखने का नहीं है। ऐसा लगता है कि उसके पास यह शक्ति रखने, मसीह का राज्य रखने की क्षमता नहीं है। तो क्या मैं उसका अनुसरण करके आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? क्या मैं अगले युग का स्वामी बन सकता हूँ? क्या मैं सभी राष्ट्रों और लोगों पर शासन कर सकता हूँ? क्या वह इस पुरानी दुनिया, इस भ्रष्ट मानवजाति को नष्ट कर सकता है? मसीह के साधारण रूप को देखते हुए, वह बड़ी चीजें कैसे कर सकता है?” ऐसे संदेह मसीह-विरोधियों के दिलों में हमेशा उठते हैं। मसीह की नम्रता और उसका छिपा होना ऐसी चीजें हैं, जिन्हें सभी भ्रष्ट मनुष्य, विशेष रूप से मसीह-विरोधी, स्वीकारने, अनुमति देने या समझने में असमर्थ हैं; मसीह-विरोधी परमेश्वर की नम्रता और उसके छिपे होने को परमेश्वर की पहचान और सार के बारे में अपने संदेहों के प्रमाण के तौर पर लेते हैं, वे उन्हें परमेश्वर के अधिकार को नकारने के प्रमाण और लाभ के रूप में लेते हैं, और इस तरह परमेश्वर की पहचान और सार को, और मसीह के सार को भी नकारते हैं। मसीह के सार को नकारने के बाद मसीह-विरोधी अपने अधिकार-क्षेत्र में परमेश्वर के चुने हुए लोगों के खिलाफ बिना दया के, बिना उदारता के और बिना डर के कार्य करना शुरू कर देते हैं, और साथ ही, वे अपनी क्षमताओं, कौशलों या महत्वाकांक्षाओं को जरा भी नहीं नकारते या उन पर जरा भी संदेह नहीं करते। अपने प्रभाव-क्षेत्र में, उस क्षेत्र में जहाँ वे कार्य कर सकते हैं, मसीह-विरोधी अपने पंजे फैलाकर, जिन्हें नियंत्रित कर सकते हैं उन्हें नियंत्रित करते हैं, और जिन्हें गुमराह कर सकते हैं उन्हें गुमराह करते हैं; वे मसीह और परमेश्वर को पूरी तरह से विचार से बाहर कर परमेश्वर, मसीह और परमेश्वर के घर से पूरी तरह से नाता तोड़ लेते हैं।
जब बात मसीह-विरोधी मसीह की नम्रता और उसके छिपे होने को कैसे लेते हैं वाली मद की आती है, तो हम मुख्य रूप से क्या संगति कर रहे हैं? परमेश्वर की नम्रता और उसका छिपा होना—जिसे लोगों को समझना चाहिए—मसीह-विरोधियों की नजर में, जो कुछ वे करना चाहते हैं उसे करने के लिए और परमेश्वर के घर में एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के लिए, सबसे ज्यादा मुफीद स्थितियाँ हैं। परमेश्वर देह में छिपा हुआ है और अंत के दिनों में कार्य का यह चरण अनुग्रह के युग से अलग है। हालाँकि परमेश्वर इस चरण में कौतुक और चमत्कार नहीं दिखाता, लेकिन उसने बहुत ज्यादा वचन, असंख्य ज्यादा वचन बोले हैं। परमेश्वर चाहे जैसे भी कार्य करे, जब तक वह देहधारी है, तब तक अपना कार्य करने के साथ उसे बहुत अपमान सहना पड़ता है। सिर्फ ऐसा परमेश्वर ही, जिसमें दिव्य सार है, अपना कार्य करने हेतु एक साधारण व्यक्ति बनने के लिए वास्तव में नम्र होकर छिप सकता है, क्योंकि उसमें नम्रता और छिपे होने का सार है। इसके विपरीत, शैतान ऐसा करने में एकदम असमर्थ है। मनुष्यों के बीच कार्य करने के लिए शैतान किस तरह का देह धारण करेगा? पहले, उसका स्वरूप रोबदार होगा, और वह क्रूर, धोखेबाज और दुष्ट होगा; फिर, लोगों के साथ खिलवाड़ कर उन्हें प्रभावित करने के लिए उसे विभिन्न रणनीतियों और तकनीकों में, और साथ ही विभिन्न कपटी चालों में भी, महारत हासिल करनी होगी, उसे काफी निर्दयी और दुर्भावनापूर्ण होना होगा। उसे लगातार लोगों के बीच दिखना होगा और हर जगह सुर्खियों में रहना होगा, इस डर से कि कोई उसे जान न ले, और उसे हमेशा अपनी प्रसिद्धि बढ़ाने और खुद को बढ़ावा देने की कोशिश करनी होगी। जब लोग अंततः उसे राजा या सम्राट कहेंगे, तो वह संतुष्ट होगा। परमेश्वर जो करता है, वह उससे बिल्कुल उलटा होता है जो शैतान करता है। परमेश्वर धैर्य रखते हुए छिपा रहता है, और ऐसा करते समय वह सृष्टिकर्ता की दया और प्रेमपूर्ण दयालुता का उपयोग करके लोगों में अपने वचनों और अपने जीवन को कार्यान्वित करता है, ताकि लोग सत्य समझ सकें, बचाए जा सकें, और सामान्य मानवता और सामान्य मानव-जीवन वाले सच्चे सृजित प्राणी बन सकें। हालाँकि परमेश्वर जो करता है वह मानवजाति के लिए अमूल्य है, फिर भी परमेश्वर इसे अपनी जिम्मेदारी मानता है। इसलिए, वह व्यक्तिगत रूप से देहधारी हुआ, और एक माता या पिता की तरह अथक रूप से लोगों को पोषण प्रदान करता है, उनकी सहायता करता है, उनका समर्थन करता है, उन्हें प्रबुद्ध और रोशन करता है। बेशक, वह लोगों को ताड़ना भी देता है, उनका न्याय भी करता है, उन्हें ताड़ित और अनुशासित भी करता है, उन्हें दिन-प्रतिदिन बदलते हुए, दिन-प्रतिदिन एक सामान्य कलीसियाई जीवन जीते हुए, और दिन-प्रतिदिन जीवन में बढ़ते हुए देखता है। इस तरह, परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। मानवजाति के बीच, मनुष्य परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत, उसकी महान शक्ति और उसकी महिमा की प्रशंसा करते हैं, लेकिन परमेश्वर के वचनों में, उसने लोगों से कब कहा है : “मैंने मानवजाति के लिए बहुत चीजें की हैं, मैंने बहुत त्याग किया है; लोगों को मेरी प्रशंसा और गुणगान करना चाहिए”? क्या परमेश्वर मानवजाति से ऐसी माँगें करता है? नहीं। यह स्वयं परमेश्वर है। परमेश्वर ने लोगों के साथ आदान-प्रदान करने के लिए यह कहते हुए कभी शर्तों का उपयोग नहीं किया है, “मैंने मसीह को तुम लोगों के बीच रखा है, तुम लोगों को उसके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए, उसके वचन सुनने चाहिए, उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए। गड़बड़ी या व्यवधान पैदा मत करो, वह तुम लोगों से जो कुछ भी करने के लिए कहे उसे करो, जैसे भी तुम लोगों से करने के लिए कहे वैसे करो, और जब सब-कुछ पूरा हो जाएगा, तो तुम सभी लोगों को श्रेय दिया जाएगा।” क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कुछ कहा है? क्या यह परमेश्वर का इरादा है? नहीं। इसके विपरीत, ये मसीह-विरोधी हैं जो हमेशा लोगों को बहकाने, विवश करने, नियंत्रित करने और उनसे संबंधित हर चीज पर कब्ज़ा करने के लिए विभिन्न साधनों का उपयोग करने की कोशिश करते हैं, ताकि लोग परमेश्वर को छोड़कर उनके सामने आ जाएँ। ये मसीह-विरोधी हैं, जो जब भी कोई छोटा-मोटा कर्म करते हैं, तो उसके बारे में हर जगह जताते हैं और घोषणा करते हैं। मसीह-विरोधी न सिर्फ परमेश्वर की नम्रता और उसके छिपे होने को समझ नहीं पाते, स्वीकार नहीं पाते, उसकी प्रशंसा या गुणगान नहीं कर पाते, बल्कि इसके बजाय वे इन चीजों का तिरस्कार और इनकी निंदा भी करते हैं। यह मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार द्वारा निर्धारित होता है।
आज हमने इस बात की तीन अभिव्यक्तियों पर संगति की है कि मसीह-विरोधी कैसे मसीह के सार को नकारते हैं। आओ, अब इस पर अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं। क्या तुम लोगों के कोई प्रश्न हैं? (नहीं।) ठीक है, अलविदा!
21 नवंबर 2020
फुटनोट :
क. चीनी-भाषी अपने से उम्र में छोटे व्यक्ति के उपनाम से पहले “शाओ” लगाते हैं।