मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग पाँच)
III. परमेश्वर के वचनों से घृणा करना
आज हम अपनी पिछली संगति को आगे बढ़ाएँगे जिसमें मसीह-विरोधियों की इस दसवीं अभिव्यक्ति पर चर्चा की गई थी—वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं। यह मद तीन भागों में बाँटी गई है। पहले दो पर संगति हो चुकी है और आज हम तीसरे पर संगति करेंगे : मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं। इस पहलू से जुड़ी कुछ अभिव्यक्तियों और कहावतों पर पहले संगति की जा चुकी है, जैसे, मसीह-विरोधी कैसे परमेश्वर के वचनों पर संदेह करते हैं, उन पर विश्वास नहीं करते, उनके प्रति कौतूहल से भरे रहते हैं, उनमें विश्वास का कोई तत्व नहीं होता बल्कि उनके मन में सिर्फ संदेह, परीक्षा और अटकलें होती हैं। संक्षेप में कहें तो मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते, न वे इनका अभ्यास ही करते हैं। जब मसले सामने आते हैं तो वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास के सिद्धांत नहीं खोजते। वे मन-ही-मन परमेश्वर के वचनों के प्रति अक्सर संदेह, प्रतिरोध और इनकार पाले रहते हैं। इन सभी चीजों को मसीह-विरोधियों की परमेश्वर के वचनों से घृणा की अभिव्यक्तियाँ कहा जा सकता है। आज हम परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के और भी अधिक गहरे और विशिष्ट रवैयों और कार्य-कलापों पर संगति को आगे बढ़ाएँगे, इस बात का गहन विश्लेषण करेंगे कि वास्तव में वे कैसे परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों से घृणा कैसे करते हैं, इस पर हम मद-दर-मद संगति करना जारी रखेंगे। क्या यह तरीका ज्यादा स्पष्ट नहीं रहेगा? (हाँ।) अब अगर मैं आम तरीके से संगति करता और तुम लोगों में कुछ समझने की क्षमता, पर्याप्त काबिलियत और आध्यात्मिक समझ होती और तुम अक्सर परमेश्वर के वचनों से रोशनी प्राप्त करते तो फिर मैं जो संगति पहले कर चुका हूँ वही तुम्हारे लिए वास्तव में पर्याप्त होती। लेकिन ज्यादातर लोगों में परमेश्वर के वचनों को समझने की काबिलियत नहीं होती है; वे उस स्तर पर नहीं पहुँचते जहाँ वे परमेश्वर के वचनों को ऐसा सत्य मान सकें जिसे समझा जाना चाहिए। इसलिए हमें हर मद पर सिलसिलेवार ढंग से संगति करने की जरूरत है। इस विषय को खासकर अनेक छोटे खंडों में बाँटा गया है।
क. मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं
पहली मद यह है कि मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं। पहले हम इस पहलू पर कुछ खास उदाहरणों के जरिए संगति कर चुके हैं लेकिन हमने एक लक्ष्य-केंद्रित, विस्तृत गहन विश्लेषण नहीं किया, सिर्फ सरसरी तौर पर संगति की। मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं, इसकी क्या अभिव्यक्तियाँ हैं? इस मद के लिहाज से मसीह-विरोधी किस प्रकार व्यवहार करते हैं? जहाँ तक बात यह है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों के प्रति ऐसा व्यवहार दिखा सकते हैं और ऐसे कार्य-कलाप कर सकते हैं, इससे पता चलता है कि अपनी प्रकृति के दृष्टिकोण से वे दिल से यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, पवित्र हैं और उनका अपमान नहीं किया जा सकता। परमेश्वर चाहे सत्य के वचनों के जिस किसी पहलू को व्यक्त करे, लोगों को यह चाहे साधारण लगे या गहन, फिर भी ये परमेश्वर के ही वचन हैं, यही सत्य हैं और ये व्यक्ति के जीवन प्रवेश, स्वभावगत परिवर्तन और उद्धार से अटूट रूप से जुड़े हैं। लेकिन मसीह-विरोधी इसे इस तरह नहीं देखते; वे दिल से इसके प्रति सचेत नहीं होते, न ही उनमें ऐसी सजगता या समझ होती है। वे नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न ही वे यह मानते हैं कि व्यक्ति के जीवन प्रवेश के लिए परमेश्वर के वचनों का अत्यंत महत्व है। इसके विपरीत, वे मानते हैं कि परमेश्वर के वचन ऊपरी तौर पर महज इंसानी शब्द लगते हैं, अत्यंत साधारण लगते हैं। वे इतने महत्वपूर्ण सिर्फ इसलिए लगते हैं कि जो भी लोग परमेश्वर, परमेश्वर के घर और कलीसिया का अनुसरण करते हैं, वे सब इन्हें “परमेश्वर के वचन” ठहरा चुके हैं। लेकिन हकीकत में, ऊपरी तौर पर देखने पर परमेश्वर के वचन लोगों के घिसे-पिटे आम वाक्यांश जैसे लगते हैं। शाब्दिक रूप से देखें तो इन वचनों में इंसानी भाषा के तत्व मौजूद होते हैं, इनमें इंसानी भाषा का तर्क, विचार और उच्चारण-शैली होती है, जिसमें कुछ-कुछ बोलचाल की शैली, मुहावरे, लोकोक्तियाँ और यहाँ तक कि तुलनात्मक कहावतें शामिल होती हैं। परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी ऐसा भव्य, गूढ़ और गहन नहीं मानते जैसा कि कोई व्यक्ति कल्पना करता होगा, न ही वे इन्हें स्वर्ग से उतरे पौराणिक धर्मग्रंथ मानते हैं। उनके लिए तो ये बस सपाट और साधारण होते हैं। इस प्रकार काफी जाँच-पड़ताल के बाद आखिरकार वे अपने मन में एक परिभाषा गढ़ लेते हैं : ये शब्द सिर्फ सपाट भाषा होते हैं, बिल्कुल व्यावहारिक होते हैं, ऐसी चीज जिन्हें विश्वासियों को पढ़ना चाहिए, ऐसे शब्द जो व्यक्ति को अपने व्यवहार और आस्था में मदद कर सकते हैं। काफी पढ़ने के बाद वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। कुछ मसीह-विरोधी और अहंवादी लोग तो परमेश्वर के वचन उठाते हैं और एक झटके में बहुत सारे अध्याय और पन्ने पढ़ डालते हैं। कुछ लोग तो “वचन देह में प्रकट होता है” पुस्तक को शुरू से अंत तक एक महीने में ही पढ़ डालते हैं और इससे उनके मन और विचारों पर कुछ गहरी छाप छूट जाती है। वे कुछ आध्यात्मिक शब्दावली, परमेश्वर के कहने के लहजे और ढंग की और यहाँ तक कि अलग-अलग चरणों में परमेश्वर के वचनों की विषयवस्तु की आम समझ हासिल कर लेते हैं। पढ़ने के बाद वे कहते हैं, “परमेश्वर के वचन बस ऐसे ही हैं। मैं इन्हें एक ही बार में पढ़ चुका हूँ और परमेश्वर की छह हजार साल की प्रबंधन योजना की सामान्य विषयवस्तु को समझता हूँ। लिहाजा परमेश्वर के वचनों में उतनी गहनता नहीं है। परमेश्वर के वचनों को सत्य के स्तर पर पहुँचा देना, ऐसी चीज मान लेना जो लोगों के जीवन प्रवेश के लिए अनिवार्य है, थोड़ी-सी अति लगती है।” इसलिए वे इन वचनों को चाहे जिस दृष्टि से देखें, उनके दिल में परमेश्वर के वचनों की अंतिम परिभाषा यही होती है कि ये समझने में उतने गहन या कठिन नहीं हैं जितना लोग सोचते हैं। कोई भी पढ़ा-लिखा और दृष्टिसंपन्न व्यक्ति इन्हें समझ सकता है। इन्हें एक सिरे से दूसरे सिरे तक पढ़ लेने के बाद भी वे न केवल जीवन प्रवेश से संबंधित उन तमाम सत्यों को पहचान या समझ नहीं पाते जिन्हें परमेश्वर के वचनों के जरिए समझकर लोगों को प्रबोधन, पोषण और सहारा हासिल करना चाहिए, बल्कि उन्हें यह भी लगता है कि परमेश्वर के वचन सत्य और स्वर्ग के पवित्र ग्रंथों से बहुत दूर हैं। ऐसे निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों से और भी अधिक घृणा करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन बस इतने ही हैं, कि परमेश्वर सिर्फ यही है और सत्य सिर्फ यही है। ऐसे रवैये और समझ के साथ परमेश्वर के वचनों और “वचन देह में प्रकट होता है” के प्रति मसीह-विरोधियों का आंतरिक रुख उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य से और भी अधिक घृणा करने की ओर ले जाता है। वे अपने ज्ञान और अपनी मेधा का उपयोग करते हैं, अपनी याददाश्त और चालाकियों के भरोसे रहते हैं ताकि इन वचनों की विषयवस्तु और इन वचनों के तथाकथित सिद्धांतों को तेजी से समझने के साथ ही इनमें प्रयुक्त कुछ-कुछ लहजे, शैली और उच्चारण-शैली को समझा जाए, जिसकी उच्चारण-शैली में प्रचलित और मुहावरेदार जुमले शामिल होते हैं। लिहाजा उन्हें लगता है कि वे सब कुछ हासिल कर चुके हैं और उनके पास सब कुछ है। ऐसी समझ और रवैया मन-ही-मन उन्हें परमेश्वर के वचनों से और भी अंधाधुंध ढंग से घृणा करने और उन पर सवाल खड़े करने और आगे परमेश्वर की पहचान और सार पर और ज्यादा संदेह करने के लिए प्रेरित करता है।
मसीह-विरोधियों की प्रकृति से इस पर नजर डालें, तो कोई भी देख सकता है कि वे सत्य से विमुख होते हैं, सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं, परमेश्वर की दीनता और अदृश्यता से घृणा करते हैं और उसकी वफादारी, वास्तविकता और मनोहरता से घृणा करते हैं। घृणा की इस लंबी कड़ी के कारण मसीह-विरोधी अनजाने में ही और स्वाभाविक रूप से कुछ ऐसे वमनकारी कार्य-कलाप कर बैठते हैं जिनसे परमेश्वर घृणा करता है और जिनकी निंदा करता है। इन कार्यों में मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करना शामिल है। छेड़छाड़ करने से क्या आशय है? मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचनों में सत्यता है, यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन लोगों को जीवन प्रदान कर सकते हैं और वे इस बात को तो और भी नहीं मानते कि ये वचन मनुष्य के अस्तित्व की नींव हैं और मनुष्य की प्रगति की दिशा और राह हैं। इसलिए वे यह नहीं समझते कि परमेश्वर इन तरीकों से क्यों बोलता है, न वे यह जानते हैं कि परमेश्वर किसी खास संदर्भ में ऐसे वचन क्यों कहता है, और वे इस बारे में तो और भी बेखबर होते हैं कि परमेश्वर यही विशिष्ट विषयवस्तु क्यों सुनाता है। जहाँ तक ये सवाल हैं कि यह विषयवस्तु कैसे आई, परमेश्वर क्या सोचता है और परमेश्वर ये वचन सुनाते समय लोगों में क्या देखना, हासिल करना और प्रभाव पैदा करना चाहता है, साथ ही—इन वचनों के दायरे में—परमेश्वर जो कुछ हासिल करना चाहता है, उसके इरादे और सत्य, इस सबको लेकर मसीह-विरोधी पूरी तरह बेखबर और निपट अज्ञानी होते हैं—जब यह बात आती है तो वे बिल्कुल आम लोग होते हैं। इसलिए उन्हें मन-ही-मन अक्सर यह लगता है कि परमेश्वर को यह वाक्यांश इस तरह नहीं कहना चाहिए था, इस वाक्य के बाद वह वाक्य आना चाहिए था, इस वाक्य को इस तरह गढ़ना चाहिए था, उस प्रसंग का ऐसा लहजा या वैसी स्वरशैली होनी चाहिए थी, यह शब्द-चयन गलत है तो वह शब्द परमेश्वर की पहचान का लिहाज नहीं रखता और इसके माकूल नहीं है, इस प्रकार वे अपनी राय बनाते रहते हैं। उनकी नजरों में परमेश्वर के वचन दुनिया में किसी भी मशहूर या महान व्यक्ति के लेखनकार्य जितने अच्छे नहीं हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर की वाणी उतनी सटीक नहीं है, इसमें शब्दों का आडंबर है और इनमें से कुछ वचनों की अगर बारीकी से जाँच-पड़ताल की जाए तो वे मानव व्याकरण और शब्दकोशीय नियमों के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं कहे जा सकते हैं। “इन वचनों में सत्य कैसे हो सकता है? ये परमेश्वर के वचन कैसे हो सकते हैं? ये सत्य कैसे हो सकते हैं?” मसीह-विरोधी संदेह और निंदा करने के साथ ही मन-ही-मन में हिसाब लगाते और चिंतन करते रहते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति ऐसे रवैये, ऐसे विचारों और ऐसे दृष्टिकोण के साथ मसीह-विरोधी अपने दानवी पंजे पैने करते हैं।
मुझे याद आता है कि कुछ साल पहले भजन मंडली में एक घटना घटी थी। वे कलीसिया में गाने के लिए परमेश्वर के वचनों के एक अनिवार्य अंश के लिए संगीत रचना चाहते थे। संगीत रचना के दौरान उन्हें पता चला कि परमेश्वर की वाणी की अवधि और शब्द संख्या धुन से मेल नहीं खा रही है; गीत की हर पँक्ति में बहुत ज्यादा शब्द थे। इसके अलावा, पूरे भजन की धुन अगर परमेश्वर के वचनों से मिलाई जाती थी तो इससे शब्द बहुत ज्यादा और बहुत लंबे प्रतीत हो रहे थे। ऐसे में उनके पास क्या समाधान था? उन्हें एक उपाय सूझा : उन्होंने परमेश्वर के वचनों का प्रत्यक्ष अर्थ बदले बिना कुछ वाक्यांशों और उच्चारण-शैली को थोड़ा-सा बदल दिया—जैसे, चार अक्षरों वाले मुहावरे को दो अक्षरों वाले अक्षर में बदल दिया या उन वाक्यों को हटा दिया जो बहुत लंबे, अनावश्यक और अर्थहीन नजर आ रहे थे। इस सिद्धांत पर चलकर उन्होंने परमेश्वर के वचनों के संपादित रूप को संगीतबद्ध किया और गायन के लिए कलीसिया में भेज दिया। ज्यादातर लोग चूँकि भ्रमित थे, इसलिए उन्होंने इसे परमेश्वर के वचनों का भजन समझा, लेकिन कौन जानता था कि ऐसा अंश परमेश्वर के वचनों का बिल्कुल भी नहीं है? यह ऐसा अंश था जिसे मसीह-विरोधियों ने मनमाने ढंग से संशोधित कर छोटा कर दिया था, गड़बड़ी कर बदल दिया था। बाद में जब इस भजन को एक कार्यक्रम के लिए तैयार किया जा रहा था तो मैंने पूछा कि यह परमेश्वर के वचनों के किस अध्याय पर आधारित है। उन्होंने मुझे बताया कि यह अमुक अध्याय का पहला अंश है। मैंने उस अंश को खोजकर इसका मिलान भजन-पुस्तिका वाले से किया तो मुझे झटका-सा लगा। भजन-पुस्तिका का अंश परमेश्वर के वचनों के अध्याय का चयनित हिस्सा बस नाममात्र के लिए था और इसे इस कदर बदल दिया गया था कि यह पहचान में ही नहीं आ रहा था। वाणी का लहजा बदल चुका था, बहुत-से महत्वपूर्ण शब्द हटा दिए गए थे, वाणी की विषयवस्तु उलट-पुलट दी गई थी, यहाँ तक कि शब्द-क्रम भी उलट दिया गया था। अगर किसी ने मुझे यह न बताया होता कि इस अंश को परमेश्वर के वचनों के किस अमुक अध्याय से लिया गया है तो मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति यह जान पाता कि यह किस अध्याय का अंश है; यह मूलपाठ से बिल्कुल भी मेल नहीं खा रहा था। ऊपरी तौर पर देखें तो ये लोग अपना कर्तव्य निभा रहे थे : परमेश्वर के वचनों को सबके गाने और आत्मसात करने के लिए संगीतबद्ध करके ये वचन लोगों की अनवरत अगुआई और मार्गदर्शन कर सकते थे, और उन्हें परमेश्वर के वचनों में प्रवेश करने में मदद कर सकते थे। यह कैसा अद्भुत कर्म था! लेकिन मसीह-विरोधियों में परमेश्वर का भय मानने वाले दिल का नितांत अभाव होने के कारण उन्होंने परमेश्वर के वचनों को साधारण लोगों की बातचीत के शब्द जैसा मान लिया और मनमाने ढंग से उन्हें हटा दिया और उनके साथ छेड़छाड़ की। एक भी सवाल पूछे बिना और किसी से अनुमति या सहमति लिए बिना—या किसी से अनुज्ञा लेना तो दूर की बात है—उन्होंने परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह बदल दिया, फिर भी उन्होंने लोगों को यह यकीन दिलाया कि वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, कि उन्होंने परमेश्वर के वचनों को संगीतबद्ध कर दिया है। यह किस प्रकार का व्यवहार और तरीका है? ऐसा व्यवहार करने वाले और ऐसा तरीका अपनाने वाले लोगों का स्वभाव कैसा होता है? जो ऐसा तरीका अपनाते हैं, जो परमेश्वर के वचनों से इस रवैये के साथ पेश आते हैं, क्या परमेश्वर के वचनों से ऐसा पेश आते समय उनके दिल में परमेश्वर के प्रति असल में कोई भय होता है? क्या वे परमेश्वर के वचनों को सँजोते हैं? क्या वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानते हैं? परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके श्रद्धाविहीन और लापरवाह रवैये के आधार पर देखा जाए तो वे परमेश्वर के वचनों को सँजोना तो दूर, इन्हें खिलवाड़ की चीज समझते हैं और जैसा जी में आए वैसा इनमें लापरवाही से बदलाव करते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया क्या स्वयं परमेश्वर के प्रति उनके रवैये का सूचक नहीं है? (हाँ, है।) यह बिल्कुल एक जैसी बात है। परमेश्वर के वचन स्वयं परमेश्वर के परिचायक होते हैं; वे परमेश्वर की अभिव्यक्ति होते हैं, उसके स्वभाव की अभिव्यक्ति होते हैं और उसके सार का प्रकाशन हैं। अगर लोग परमेश्वर के वचनों के प्रति इतने श्रद्धारहित और लापरवाह हैं तो यह बताने की जरूरत नहीं है कि वे स्वयं परमेश्वर से कैसे व्यवहार करते हैं। यही बहुत कुछ बता देता है।
लोग ऊपरी तौर पर परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उसके लिए परित्याग करते हैं, खपते हैं और कष्ट सहते हैं लेकिन परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया बहुत ही श्रद्धाविहीन और लापरवाह होता है। यह भी हो सकता है कि मसीह-विरोधी “वचन देह में प्रकट होता है” पुस्तक को खूब सजा-धजा कर और कपड़े में लपेटकर सबसे सुरक्षित जगह पर रखते हों। लेकिन इससे क्या साबित हो सकता है? क्या इससे यह दिखता है कि वे परमेश्वर के वचनों को सँजोकर रखते हैं, कि उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? क्या ये सतही क्रिया-कलाप परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके श्रद्धाविहीन रवैये को ढक सकते हैं? नहीं ढक सकते। वे जब भी परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो हमेशा कुछ शब्दों, अभिव्यक्तियों और लहजे को बदलने की सोचते हैं। और कुछ मसीह-विरोधी किस हद तक दुस्साहसी होते हैं? जब उन्हें परमेश्वर के वचनों में कुछ ऐसा नजर आता है जो उनकी धारणाओं से मेल नहीं खाता या उन्हें लगता है कि शब्द-योजना अनुचित या व्याकरण के अनुसार गलत है या उन्हें लगता है कि कोई विराम-चिह्न भी गलत है तो वे जोर-शोर से ऐलान कर मामले को बढ़ा-चढ़ाकर बताएँगे, वे चाहते हैं कि परमेश्वर के वचनों में किसी गलत विराम-चिह्न, किसी अनुचित शब्द के चयन या किसी अनुचित लगते कथन के बारे में सारी दुनिया जान जाए। वे उपहासपूर्ण और तिरस्कारपूर्ण लहजे में इसका ढोल पीटते हैं। लगता है कि ऐसे क्षणों में आखिर उनके हाथ वो चीज लग ही गई है जिसे वे परमेश्वर के वचनों में गलतियों का सबूत मानते हैं, लाभ लेने का हथकंडा, एक त्रुटि मानते हैं और इस तरह वे अंततः अपने दिल को तसल्ली दे सकते हैं कि परमेश्वर के वचनों में भी गलतियाँ होती हैं और परमेश्वर पूर्ण नहीं है। क्या यह एक मसीह-विरोधी स्वभाव नहीं है? मसीह-विरोधियों का लक्ष्य परमेश्वर के वचनों में गलतियाँ और चूक खोजना होता है; यह शत्रुता का रवैया है, समर्पण और स्वीकृति का नहीं। जब यह बात होती है कि मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं, तो भजन मंडली में हुई जिस घटना का हमने अभी-अभी उल्लेख किया, क्या उसे परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ माना जा सकता है? (हाँ।) मुझे बताओ, कैसा इंसान परमेश्वर के वचनों को इस कदर मनमाने ढंग से बदलेगा? क्या उसमें परमेश्वर का कोई भय होगा? (नहीं।) यह कैसा स्वभाव है? पहली बात, क्या वह परमेश्वर के वचनों को परमेश्वर के वचन मानता है? (नहीं।) तो फिर वह परमेश्वर के वचनों को क्या मानता है? वह इन्हें इंसानी शब्द मानता है। लोगों की अनुभवजन्य गवाहियों के आलेखों में अगर शब्द असंगत या अपूर्ण हैं तो शायद इन्हें बदलना स्वीकार्य हो सकता है, मगर परमेश्वर के वचनों के साथ भी ठीक यही व्यवहार करने का दुस्साहस करना, यह कैसी प्रकृति है? क्या यह मनमाने ढंग से और लापरवाही से कार्य करना और परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय न होना नहीं है? परमेश्वर के वचनों पर मनमाने ढंग से टिप्पणी करने और इन्हें बदलने का दुस्साहस करना, व्यक्ति के अपने विचारों या दृष्टिकोण के अनुसार न होने पर इन्हें जब-तब बदल देना—क्या यह प्रकृति गंभीर है? (हाँ।)
परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने में और कौन शामिल होता है? सुसमाचार प्रचार करने की प्रक्रिया के दौरान कुछ संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आते हैं और उनके मन में परमेश्वर के लहजे, शैली, उसके बोलने के परिप्रेक्ष्य और यहाँ तक कि शब्द-योजना और सर्वनामों के प्रयोग समेत कई अन्य पहलुओं को लेकर धारणाएँ होती हैं। सभी अलग-अलग लोगों की अलग-अलग धारणाएँ होती हैं; अलग-अलग संप्रदायों से आए लोगों की अलग-अलग रुचियाँ और अपेक्षाएँ होती हैं। सुसमाचार टोली के कुछ सदस्य कहते हैं, “इस तरीके से सुसमाचार प्रचार करना कठिन है! परमेश्वर के कुछ वचन बहुत कठोर हैं; कुछ वचन तो ऐसे लगते हैं मानो परमेश्वर लोगों को शाप दे रहा है। वे बिल्कुल भी सौम्य नहीं हैं, उनमें प्रेम का अभाव है और वे सब रोजमर्रा की बोली में हैं। कुछ वचन तो खास तौर पर कुछ जातिसमूहों को निशाने पर लेते हैं तो कुछ दूसरे वचन रहस्यों को खोलते हैं—लोगों को इनमें से कोई भी स्वीकार्य नहीं लगता! ये वचन परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करने वाले संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं की राह में बाधाएँ बन गए हैं। हमें क्या करना चाहिए?” कोई कहता है, “मेरे पास एक समाधान है। चूँकि संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता इन वचनों के कारण परमेश्वर का नया कार्य नहीं स्वीकार पाते, इसलिए क्यों न इन वचनों को ही हटा दिया जाए? लोग जिन वचनों को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं हैं उन सब पर निशान लगा लिया जाए, फिर चाहे यह कोई अकेला वाक्य ही हो, और इन्हें छापने से पहले हटा दिया जाए। इस तरह जब संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता इन्हें पढ़ेंगे तब ऐसा कोई वचन नहीं होगा जो उनके अभिमान या भावनाओं को आहत करेगा, न ही ऐसा कोई वचन रहेगा जो उनकी धारणाओं का खंडन करेगा। परमेश्वर के सारे वचन उचित रहेंगे, प्राप्तकर्ताओं के मन में कोई धारणा नहीं होगी और वे परमेश्वर का नया कार्य आसानी से स्वीकार कर पाएँगे।” सुसमाचार प्रचार टोली में कुछ सदस्यों ने वास्तव में ऐसा किया है और ऊपरवाले से पूछे बिना या उसकी सहमति लिए बिना ही उन्होंने परमेश्वर के इन संक्षिप्त और छेड़छाड़ युक्त वचनों की पुस्तिकाएँ छापकर बड़े पैमाने पर बाँट दीं। कार्य में अपनी सुविधा की खातिर उन्होंने अधिकाधिक लोगों को हासिल करने के लिए, अपनी कार्य क्षमता दिखाने के लिए और अपने कर्तव्य में वफादार दिखने के लिए यह तरीका रचा और यहाँ तक कि इसे पुस्तक के रूप में छापकर वास्तविकता में भी बदल दिया। लेकिन यह पुस्तक “वचन देह में प्रकट होता है” से पूरी तरह अलग है। क्या यह तरीका परमेश्वर के वचनों से छेड़छाड़ करना नहीं है? (हाँ, है।) क्या अधिकतर लोगों को यह एहसास है कि परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करना परमेश्वर के प्रतिरोध का ही एक तरीका है? (हाँ, है।) क्या ज्यादातर लोगों में यह जागरूकता है? आज इतनी अधिक संगति के बाद तुम लोग आसानी से हाँ कह सकते हो। लेकिन अगर तुम तीन-चार साल पहले सुसमाचार का प्रचार कर रहे होते तो क्या तुम लोगों को यह पता होता कि परमेश्वर के एक भी वचन या वाक्य को नहीं बदला जाना चाहिए? क्या तुम लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला ऐसा दिल होता? (नहीं।) तो फिर तुम लोगों में किस मायने में इस जागरूकता की कमी होती? क्या यह परमेश्वर के प्रति भय मानने वाले हृदय का नितांत अभाव होता जिसके संदर्भ से तुमने परमेश्वर के वचनों के साथ मनमाने ढंग से छेड़छाड़ करने की हिम्मत की होती? अगर किसी के पास परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय का नितांत अभाव है तो वह परमेश्वर के वचनों के साथ मनमाने ढंग से छेड़छाड़ करने का दुस्साहस करेगा, उनका मूल अर्थ बदल देगा, परमेश्वर की वाणी का तरीका और परमेश्वर के वचनों के कुछ अंशों का वांछित प्रभाव बदल देगा, और इस अंश में व्यक्त इरादों, मूलभावना और जोर को निकाल देगा—यह सब छेड़छाड़ की श्रेणी में आता है।
कुछ साल पहले संयोग से एक मुलाकात के दौरान सुसमाचार टोली के एक सदस्य ने सवाल पूछा : “एक विशेष जातीय समूह के सामने परमेश्वर के नए कार्य की गवाही देते समय लोगों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों के अंश उनके मन में जुगुप्सा जगाते हैं और वे उन्हें सुनने के इच्छुक नहीं होते और इनके बारे में धारणाएँ अपना लेते हैं। इसलिए ये वचन परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारने की उनकी राह में बाधा बन जाते हैं। हम इन वचनों को बदलने के बारे में सोच रहे हैं। एक बार इन्हें बदल दिया जाए तो वे इन्हें स्वीकार करने में सक्षम हो जाएँगे और उनके मन में परमेश्वर के नए कार्य या परमेश्वर के इस देहधारण को लेकर धारणाएँ नहीं रहेंगी।” इस प्रश्न के बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? अगर सुसमाचार कार्य के बारे में यह मुलाकात और चर्चा करने का अवसर न मिला होता तो उन्होंने इन वचनों को बदलने का बीड़ा खुद ही उठा लिया होता। शायद उनकी अपनी कल्पना के अनुसार, उस जातीय समूह के तीन, पाँच, दस या कुछ और लोग तब परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार कर सकते थे। लेकिन इसे अभी एक तरफ रख दें तो सुसमाचार प्रचार करने वाले हमेशा परमेश्वर के वचनों को बदलकर उन्हें इंसानी धारणाओं के अनुरूप ढालना चाहते हैं। वे हमेशा उन वचनों को हटा देना चाहते हैं जिनसे परमेश्वर भ्रष्ट मानव जाति को उजागर और उसका न्याय करता है, जिनसे वह भ्रष्ट मानव जाति के सार को उजागर करता है। ऐसे व्यवहार की प्रकृति क्या होती है? क्या इस प्रकार की हरकत परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय दिखाती है? (नहीं।) मेरी दृष्टि में ऐसा नहीं है कि किसी जाति या संप्रदाय के लोगों में परमेश्वर के वचनों को लेकर धारणाएँ होती हैं; वास्तव में सुसमाचार प्रचार करने वाले लोगों के ही मन में धारणाएँ होती हैं। परमेश्वर के वचन उन्हें भाते नहीं हैं; वे दिल में उनका खंडन करते हैं और उनसे गहराई से विमुख रहते हैं, वे परमेश्वर के इन वचनों को सुनना नहीं चाहते और इन्हें पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है कि अगर ये सचमुच परमेश्वर के वचन हैं तो इन्हें स्नेहमय होना चाहिए और लोगों को इतने खुले और रूखे तरीके से उजागर नहीं करना चाहिए, मानो उनके चेहरे पर चपत मारी जा रही हो। इसलिए वे यह पुरजोर माँग करते हैं कि अगर उनसे सुसमाचार प्रचार कराना है तो क्या इन वचनों को हटाया जा सकता है? सुसमाचार प्रचार करने और लोगों को हासिल करने के लिए क्या परमेश्वर बस एक बार छूट दे सकता है, ज्यादा चतुराई और मनमोहक ढंग से बोल सकता है? अधिकाधिक लोगों को परमेश्वर का कार्य स्वीकार कराने के लिए, परमेश्वर के समक्ष अधिकाधिक लोगों को लाने के लिए, क्या परमेश्वर अपनी रणनीति और बोलने की शैली बदल सकता है, भ्रष्ट मानव जाति के साथ समझौता कर आत्म-समर्पण कर सकता है, झुक सकता है, माफी माँग सकता है और क्षमायाचना कर सकता है? इस प्रकार समस्या सुसमाचार कार्यकर्ताओं में है, न कि किसी खास संप्रदाय के लोगों में। परमेश्वर के वचनों का एक भी शब्द या वाक्य बदले बिना या यह देखते हुए कि परमेश्वर के वचन सारे ही लोगों के मन में धारणाएँ उत्पन्न कर सकते हैं, फिर भी बहुत-से ऐसे लोग हैं जो धीरे-धीरे परमेश्वर के समक्ष आते हैं और उसके नए कार्य को स्वीकारते हैं। क्या उनकी धारणाओं ने उन्हें परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकारने से रोक दिया है? बिल्कुल नहीं। अगर मनुष्य को परमेश्वर के कहे इन वचनों की जरूरत न हो और ये मनुष्य की असली स्थिति न दिखाते हों तो फिर परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करना समझ में आता है और परमेश्वर अपने बोलने के अंदाज और अपनी वाणी की विषयवस्तु बदलने की सोच सकता है। लेकिन परमेश्वर का कहा हर शब्द और वाक्य मनुष्य की असली स्थिति दिखाता है और इसका संबंध मनुष्य के जीवन प्रवेश और उद्धार से होता है। अगर लोगों में धारणाएँ हैं और वे इन वचनों को स्वीकार नहीं कर सकते तो इससे साबित होता है कि मनुष्य दुष्ट, गंदे और बहुत ज्यादा भ्रष्ट हैं और वे परमेश्वर के समक्ष आने योग्य नहीं हैं। इससे यह साबित नहीं होता कि परमेश्वर के वचन गलत हैं या सत्य नहीं हैं।
परमेश्वर के वचनों और कार्यों के बारे में भ्रष्ट मानव जाति की धारणाओं को लेकर क्या किया जाना चाहिए? सुसमाचार प्रचार करने वाले परमेश्वर के वचनों से सिंचित हो चुके हैं और उन्होंने इतने साल इन्हें गौर से सुना है। इस बात को अगर छोड़ भी दें कि तुम लोग कितना सत्य समझते हो, सिर्फ सैद्धांतिक रूप से ही कहें तो परमेश्वर के कार्य के दर्शन, परमेश्वर के इरादे, परमेश्वर की छह हजार वर्षों की प्रबंधन योजना का उद्देश्य, मनुष्य के उद्धार के परमेश्वर के कार्य—क्या तुमने सत्य के इन सभी पहलुओं को समझा नहीं है, याद नहीं रखा है और ग्रहण नहीं किया है? अगर तुम इन सबसे सुसज्जित होते तो क्या तुम तब भी लोगों के धारणाएँ धरने से भयभीत होते? अगर तुम भयभीत हो तो तुम्हें खुद आगे आकर संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ताओं को स्पष्टीकरण देना चाहिए; उनके सामने परमेश्वर के इरादों की गवाही देनी चाहिए, सत्य को स्पष्ट रूप से समझा देना चाहिए! अगर इतने साल तक परमेश्वर के वचन सुनकर भी तुम इन्हें समझा नहीं सकते या स्पष्ट नहीं कर सकते तो फिर तुम बिल्कुल बेकार हो! तुम यह कर्तव्य निभा रहे हो, हर दिन तुम इन विषयों, इस विषयवस्तु और इन मामलों में संलग्न रहते हो—तो फिर अब भी तुम सुसमाचार प्रचार करने और लोगों को हासिल करने के लिए परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने जैसा घिनौना तरीका अपनाने की क्यों सोचोगे? ऊपरी तौर पर भले ही यह सिर्फ एक गलत कार्य-कलाप, एक घिनौना साधन, अक्षमता का प्रदर्शन नजर आए, लेकिन वास्तव में यह एक मसीह-विरोधी के सार की अकाट्य अभिव्यक्ति है—इससे जरा भी कम नहीं। परमेश्वर के लोग ही परमेश्वर के वचनों को सीने से लगाकर रखते हैं, परमेश्वर के वचनों को संजोकर रखते हैं, परमेश्वर के वचनों का भय मानते हैं, परमेश्वर के कहे प्रत्येक वचन और वाक्य का, उस परिप्रेक्ष्य का जिससे वह बोलता है और प्रत्येक अवतरण में वह जो कहता है, उसका सम्मान करते हैं। केवल परमेश्वर के शत्रु ही अक्सर उसके वचनों का उपहास और तिरस्कार करते हैं। उनकी उपेक्षा करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते, सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए वचन नहीं मानते। इस तरह, अक्सर मन-ही-मन उनकी इच्छा होती है कि वे परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करें और मनमाने ढंग से उनकी व्याख्या करें। वे परमेश्वर के वचनों को बदलने के लिए अपने तरीकों, अपने विचारों की रीति और अपनी सोच के तर्क का उपयोग करने का प्रयास करते हैं, ताकि उसके वचन भ्रष्ट मानवीय रुचि, भ्रष्ट मानवीय दृष्टिकोण और भ्रष्ट मानवीय विचार पद्धति और फलसफे न के अनुरूप हों, जिससे कि अंततः वे अधिक से अधिक लोगों की प्रशंसा पा सकें। परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन ही हैं, चाहे वे परमेश्वर के वचनों के किसी भी हिस्से से हों, चाहे ये किसी भी तरह कहे गए हों, और चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य से बोले गए हों। यह देखते हुए कि भ्रष्ट मानव परमेश्वर के वचनों को ज्यादा तत्परता से समझ सके, उन्हें अच्छे से सराह सके, उन्हें आसानी से प्राप्त कर सके, जिससे कि वह उसके वचनों में छिपे सत्य को समझ सके, परमेश्वर अक्सर मानवीय भाषाओं, मानवीय पद्धतियों, तरीकों और बोलने के लहजे का और ऐसे मौखिक तर्कों का उपयोग करता है जिन्हें इंसान के लिए समझना सरल हो सके। परमेश्वर यह सब अपने इरादों को समझाने के लिए और इंसान को उस बारे में बताने के लिए करता है जिसमें उसे प्रवेश करना चाहिए। फिर भी यही वे अस्पष्ट तरीके और अस्पष्ट लहजा और तमाम अस्पष्ट शब्द हैं जिनका इस्तेमाल मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर की निंदा करने और इस तथ्य को नकारने के लिए करते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। क्या यही मामला नहीं है? (हाँ।) ये मसीह-विरोधी अक्सर मशहूर लोगों के ज्ञान और कार्यों, यहाँ तक कि उनके भाषणों, उच्चारण-शैली और चाल-ढाल का इस्तेमाल परमेश्वर के वचनों की तुलना करने के लिए करते हैं। वे जितनी ज्यादा तुलना करते हैं, उतना ही ज्यादा उन्हें महसूस होता है कि परमेश्वर के वचन बहुत ही छिछले, बहुत ही स्पष्टवादी और बहुत ही आम बोलचाल के हैं। इसलिए वे अधिकाधिक ढंग से परमेश्वर के वचनों को बदलना चाहते हैं, उन्हें “सुधारना” चाहते हैं और साथ ही परमेश्वर के कहने के लहजे, शैली और परिप्रेक्ष्य को “सुधारना” चाहते हैं। परमेश्वर चाहे जैसे भी बोले या उसके वचन मनुष्य के लिए जितने भी लाभकारी हों, मसीह-विरोधी अपने मन में परमेश्वर के वचनों को कभी सत्य नहीं मानते। वे परमेश्वर के वचनों में सत्य, अभ्यास के सिद्धांत या जीवन प्रवेश का मार्ग नहीं खोजते। बल्कि वे परमेश्वर के वचनों को लगातार जाँच-पड़ताल के दृष्टिकोण, अध्ययन के रवैये और पूरी तरह जाँच-पड़ताल के रवैये के साथ देखते हैं। सारी जाँच-पड़ताल और खोजबीन करने के बाद भी उन्हें लगता है कि परमेश्वर के बहुत-से वचनों को बदलने या सुधारने की जरूरत है। इस प्रकार मसीह-विरोधियों की बात करें तो परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आने के पहले दिन से लेकर आज तक—10, 20 या 30 साल बाद भी वे दिल से यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर के वचनों में जीवन, सत्य, राज्य का प्रवेश द्वार या उस स्वर्ग का मार्ग है जिसकी लोग चर्चा करते हैं। वे इसे देख नहीं पाते, न ही खोज पाते हैं। तो फिर वे क्या महसूस करते हैं? उन्हें यह ताज्जुब होता है कि वे जितना अधिक विश्वास करते हैं, परमेश्वर के वचन उन्हें उतने ही अधिक आम बोलचाल वाले क्यों लगते हैं। उन्हें यह ताज्जुब होता है कि वे जितना अधिक विश्वास करते हैं, परमेश्वर के वचनों में उनकी रुचि उतनी ही क्यों घट जाती है। वे संदेह करने लगते हैं कि क्या परमेश्वर के वचन वास्तव में सत्य हैं। यह किस प्रकार का संकेत है? अच्छा संकेत है या बुरा? (बुरा संकेत।) यह भी बिल्कुल चमत्कार ही है कि परमेश्वर में उनका विश्वास यहाँ तक आ गया है! परमेश्वर में उनका विश्वास बंद गली के अंतिम छोर तक पहुँच चुका है, उनकी निगाहों से सत्य पूरी तरह ओझल हो चुका है। क्या यह उनकी आस्था का अंत नहीं है?
क्या तुम लोगों ने इस तथ्य पर गौर किया है? जिस दिन से हर किसी ने परमेश्वर में विश्वास शुरू करना, उसके वचन पढ़ना, अपने परिवार, करियर, शिक्षा और सांसारिक संभावनाओं का त्याग शुरू किया था, हर कोई एक ही शुरुआती रेखा पर खड़ा था। लेकिन अनजाने ही, दौड़ के दौरान कुछ लोग पीछे छूट गए और वे अब और अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते थे। वे कहाँ चले गए? कुछ लोग दोयम समूह में चले गए, अन्य लोग साधारण कलीसियाओं में चले गए और कुछ बस किसी तरह अंशकालिक कलीसिया में टिके रह पाए। जो लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहते और हटाए जाने का लक्ष्य बन जाते हैं, वे अपना कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं रहते—आज वे जहाँ हैं, वहाँ वे क्यों पहुँचे? अगर तुम मानवीय नजरों से परमेश्वर के प्रति उनका रवैया देखने की कोशिश करोगे तो तुम यह नहीं देख सकते क्योंकि तुम नहीं जानते कि उनके दिल में क्या है। तुम यह नहीं बता सकते कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं या घृणा, वे उसका प्रतिरोध करते हैं या उसके प्रति समर्पण करते हैं। तो तुम कैसे तय करते हो कि किसी व्यक्ति का स्वभाव सार क्या है? यह आसान है : परमेश्वर के वचनों के प्रति बस उसका रवैया देख लो। परमेश्वर के वचनों के प्रति इस समूह वाले लोगों में एक आम विशेषता होती है : स्थिति चाहे कोई भी हो, उन्हें पोषण के लिए परमेश्वर के वचनों की जरूरत महसूस नहीं होती। वे चाहे कैसी भी कठिनाइयों का सामना करें, वे परमेश्वर के वचनों में सिद्धांत या सत्य नहीं खोजते। ये लोग कभी-कभार ही परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और जब कोई परमेश्वर के वचनों का प्रार्थना-पाठ करता है या इनके बारे में अपनी समझ पर संगति करता है तो वे अपने अंदर विकर्षण तक महसूस करते हैं। वे यह विकर्षण कैसे दिखाते हैं? उन्हें लगता है, “तुम जो कह रहे हो वह मैं पहले से जानता हूँ; तुम्हें यह बताने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर के ये वचन मैं पहले पढ़ चुका हूँ; मैं सब कुछ समझता हूँ।” अगर वे सब कुछ समझते हैं तो उन्हें निकाला क्यों गया था? उन्हें दोयम समूह में क्यों भेजा गया था? माजरा क्या है? कारण यह है कि ये लोग बुनियादी तौर पर परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते; वे इनसे घृणा करते हैं और इनके प्रति बैर भाव रखते हैं। क्या परमेश्वर के वचनों से घृणा करने वाला और बैर रखने वाला व्यक्ति इनका अभ्यास कर सकता है? जब तुम उनसे कहते हो, “अगर तुम किसी स्थिति का सामना करते हो तो तुम्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहिए!” तो उनका रवैया क्या होता है? उनकी खास प्रतिक्रियाएँ कैसी होती हैं? (वे कहते हैं कि व्यावहारिक समस्याओं के लिए व्यावहारिक समाधानों की जरूरत होती है; परमेश्वर के वचन पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है।) उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन पढ़ना एक अस्पष्ट दृष्टिकोण है और व्यावहारिक समस्याओं के लिए व्यावहारिक समाधानों की दरकार होती है। यह एक मसीह-विरोधी का लहजा है। उनका आशय क्या होता है? “इंसानों के अपने तरीके होते हैं; परमेश्वर के वचन पढ़ने की क्या जरूरत है? क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन हर चीज का समाधान कर सकते हैं?” वे यह मान लेते हैं कि अगर कोई व्यक्ति किसी कठिनाई का सामना करता है तो यह महज एक कठिनाई है, यह उस व्यक्ति की आंतरिक दशा या स्वभाव का प्रतिबिंब बिल्कुल भी नहीं है। वे इसे नहीं देखते, न ही वे इसे एक तथ्य के रूप में मानते हैं। उन्हें लगता है, “मनुष्य की कठिनाइयाँ ऐसी ही होती हैं जैसे किसी मशीन का पुर्जा निकल जाना; मशीन का पुर्जा लगा दो और समस्या हल हो जाती है। परमेश्वर के वचन क्यों खोजे जाएँ? यह सब झूठी आध्यात्मिकता है। मैं ऐसा कभी नहीं करूँगा; यह तो बेवकूफी है! क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन हर चीज का समाधान कर सकते हैं? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।” यह स्पष्ट रूप से ऐसा व्यक्ति होता है जो सत्य को स्वीकार नहीं करता। यही नहीं, जब कुछ लोग समस्याओं का सामना करते हैं और तुम उनकी मदद करने के लिए संगति करते हो, उन्हें परमेश्वर के वचनों का अंश पढ़कर सुनाते हो तो यह सुनने के बाद उनकी प्रतिक्रिया होती है : “मैं इस अंश को पहले ही रट चुका हूँ, मैं कई बार इसका पाठ कर चुका हूँ। तुम मुझे यह क्यों बता रहे हो? मैं इसे तुमसे बेहतर समझता हूँ और यह व्यर्थ है, इससे मेरी समस्या हल नहीं होगी!” यहाँ क्या समस्या है? (वे सत्य को स्वीकार नहीं करते।) वे सत्य को स्वीकार नहीं करते और अपनी भ्रष्टता को मानने से इनकार करते हैं जो एक समस्या है। वे अपनी भ्रष्टता स्वीकार नहीं करते, इसलिए उन्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन पढ़ना सिर्फ खानापूर्ति है, व्यर्थ है। वे अपनी समस्याएँ हल करने के लिए त्वरित समाधान चाहते हैं, एक चमत्कारी उपाय चाहते हैं, और सत्य को स्वीकार करने से इनकार करना ही इस समस्या का सार है।
परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या की इस अभिव्यक्ति के संबंध में क्या तुम लोगों के पास कोई उदाहरण है? (समूह गान अल्बम का 20वाँ वीडियो बनाने के दौरान परमेश्वर ने निर्देश दिया था कि धर्मलेखों को एक-एक कर स्क्रीन पर दिखाया जाए। उस समय कुछ भाई-बहनों ने धर्मलेखों को बहुत ज्यादा लंबा पाकर कुछ वाक्यांश हटा दिए थे। बाद में इस समस्या का पता चलने पर परमेश्वर ने काफी कड़ाई से गहन विश्लेषण कर कहा कि यह परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार है।) जहाँ तक बाइबल में दर्ज परमेश्वर के मूल वचनों की बात है, वे परमेश्वर के वचन हैं और लोगों को इन्हें बदलना नहीं चाहिए, और यही बात कुछ पैगंबरों की भविष्यवाणियों पर भी लागू होती है; ये भी परमेश्वर के वचन हैं, ये परमेश्वर से प्रेरित हैं और इन्हें भी नहीं बदलना चाहिए। मेरी दृष्टि से भले ही ये वचन मूल भाषा में नहीं बल्कि अनुवाद हैं, फिर भी बरसों के संशोधनों के बावजूद अनूदित पाठ का भावार्थ मोटे तौर पर सटीक रहा है। तुम्हें यह बात तो माननी ही चाहिए। इसलिए अगर नियमित संगति में इन वचनों का उपयोग किया जा रहा है तो इन्हें पूरे का पूरा बयान करने की जरूरत नहीं है; इनका निचोड़ बताया जा सकता है। लेकिन असली तथ्य नहीं बदले जाने चाहिए। अगर इनका उद्धरण देना है तो मूल पूर्ण वाक्य लिए जाने चाहिए। यह सिद्धांत सुनने में कैसा लगता है? (अच्छा।) इसे इस तरह क्यों करना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “यह सब अतीत की बात है, क्या हमें इतना गंभीर होने की जरूरत है?” नहीं, इसका संबंध रवैये से है, मानसिकता से है। चाहे अतीत की बात हो, वर्तमान की या फिर भविष्य की, परमेश्वर के वचन तो परमेश्वर के वचन हैं और इन्हें मनुष्य के शब्दों के समान नहीं माना जाना चाहिए। लोगों को परमेश्वर के वचनों के साथ एक अनुशासित रवैये के साथ पेश आना चाहिए। बाइबल के मूल पाठ का अनुवाद तमाम भाषाओं में करने के बाद हो सकता है कि कुछ अर्थ मूल पाठ से सटीक ढंग से मेल न खाएँ या हो सकता है कि एक ही वाक्य के मूल पाठ और अनुवाद में कुछ गड़बड़ियाँ हों। हो सकता है अनुवादक यह जोड़ दें, “ध्यानार्थ : कुछ कुछ” या कोष्ठक में लिख दें, “या इस रूप में अनुवाद किया गया...।” क्या तुम लोगों को लगता है कि जिन लोगों ने बाइबल के मूल पाठों का अनुवाद किया, वे सभी परमेश्वर के विश्वासी थे? (जरूरी नहीं है।) वे यकीनन परमेश्वर का भय मानने वाले और बुराई से दूर रहने वाले लोग नहीं थे, तो फिर वे इस काम को इतने सटीक ढंग से कैसे सँभाल पाए? अविश्वासी लोग इसे पेशेवर खूबी बताते हैं, लेकिन परमेश्वर के विश्वासियों को इसे परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना कहना चाहिए। अगर तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला इतना भी हृदय नहीं है तो क्या तुम अब भी परमेश्वर के विश्वासी हो?
परमेश्वर के वचनों के प्रति तुम्हारा रवैया धर्मनिष्ठ होना चाहिए और जब तुम एकत्र होकर परमेश्वर के वचनों पर संगति करते हो तो इन्हें पढ़ने के बाद जब तुम अपनी जानकारी की चर्चा करते हो तो इसमें अपने व्यक्तिगत अनुभवों को और इन अनुभवों से प्राप्त सबकों को शामिल कर सकते हो। लेकिन तुम्हें परमेश्वर के वचनों को अपनी निजी कृतियाँ मानकर इनकी मनमानी व्याख्या नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर के वचनों को तुम्हारे समझाने की आवश्यकता नहीं होती है, और न ही तुम स्पष्ट रूप से या समझ में आने लायक उनकी व्याख्या कर सकते हो। यह पर्याप्त है कि तुम्हारे पास कुछ मामूली प्रबोधन और रोशनी या अनुभव हो, लेकिन लोगों को परमेश्वर के इरादे समझाने के लिए सत्य की व्याख्या करने की कोशिश करना या अपनी व्याख्या का इस्तेमाल करने की कोशिश करना असंभव होगा। यह चीजों को करने का गलत तरीका है। उदाहरण के लिए कुछ लोग परमेश्वर के वचनों में पढ़ते हैं कि परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है। परमेश्वर ने एक बार इंसान से कहा, “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है” (मत्ती 5:37)। आज भी परमेश्वर के वचन लोगों से ईमानदार होने का आह्वान करते हैं। इसलिए परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के प्रति सही रवैया क्या होना चाहिए? परमेश्वर के वचनों में खोजो : परमेश्वर ने कहा, “तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो।” तो फिर जो लोग परमेश्वर की नजरों में ईमानदार होते हैं, वे ठीक कैसा व्यवहार करते हैं? ईमानदार लोग कैसे बोलते हैं, वे कैसे कार्य करते हैं, वे अपने कर्तव्य के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाते हैं, और वे दूसरों के साथ कैसे समरस होकर काम करते हैं? लोगों को इन सिद्धांतों और अभ्यास के मार्गों के लिए परमेश्वर के वचनों में खोज करनी चाहिए और ऐसे ईमानदार लोग बनना चाहिए जैसी परमेश्वर अपेक्षा करता है। यह सही रवैया है, वो रवैया जो सत्य की तलाश करने वालों के पास होना चाहिए। तो वे लोग कैसा व्यवहार करते हैं जो सत्य को नहीं खोजते या उससे प्रेम नहीं करते और जिनके पास परमेश्वर और उसके वचनों का भय मानने वाला हृदय नहीं है? परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद वे सोचते हैं, “परमेश्वर यह माँग करता है कि लोग ईमानदार हों; यही पहले प्रभु यीशु ने कहा था। आज परमेश्वर एक बार फिर लोगों को ईमानदार होने के लिए कह रहा है। मैं समझ गया—क्या ईमानदार लोग वास्तव में निष्कपट लोग नहीं होते? क्या यह ऐसा ही नहीं है जैसा लोग कहा करते हैं कि निष्कपट लोग हमेशा जीतते हैं, कि अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है, और जो लोग निष्कपट होते हैं उन्हें धोखा देना पाप है? देखो, परमेश्वर निष्कपट लोगों द्वारा सहे गए अन्याय का निवारण कर रहा है।” क्या ये शब्द सत्य हैं? क्या ये ऐसे सत्य-सिद्धांत हैं जो उन्होंने परमेश्वर के वचनों से ढूँढ़ निकाले हैं? (नहीं।) तो ये शब्द क्या हैं? क्या इन्हें पाखंड और भ्रांतियाँ कहा जा सकता है? (इन्हें ऐसा कहा जा सकता है।) जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं होती और सत्य से प्रेम नहीं होता, वे हमेशा परमेश्वर के वचनों को उस चीज के साथ जोड़ते हैं जिसे मानवजाति के बीच कर्णप्रिय और उचित माना जाता है। क्या यह परमेश्वर के वचनों का मूल्य घटाना नहीं है? क्या यह सत्य को मानवजाति के बीच एक तरह के नारे में, अपने आचरण के तरीके के लिए एक तर्क में परिवर्तित करना नहीं है? परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने का आह्वान करता है, लेकिन ये लोग इस बात की अनदेखी करते हैं कि ईमानदार लोग कैसा व्यवहार करते हैं, ईमानदार कैसे बना जाए और ईमानदार होने के आचरण संबंधी नियम क्या हैं, और वे बेशर्मी से कहते हैं कि परमेश्वर चाहता है कि लोग निष्कपट बनें और वे सब जो निष्कपट, निठल्ले और मूर्ख हैं, ईमानदार लोग होते हैं। क्या यह परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या नहीं है? वे लोग परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या करते हैं, फिर भी खुद को बहुत चालाक समझते हैं, और साथ ही यह मानते हैं कि परमेश्वर के वचन इसके अलावा और कुछ नहीं हैं : “सत्य इतना गहन नहीं होता, क्या यह सिर्फ निष्कपट व्यक्ति होना नहीं है? क्या एक निष्कपट व्यक्ति होना खासा सरल नहीं है : चोरी मत करो और लोगों को गाली मत दो या दूसरों पर चोट मत मारो। ‘मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।’ सभी बातों में दूसरों के प्रति उदार रहो, अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो, एक अच्छा इंसान बनो, और अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” वे बहुत कुछ कहते हैं, लेकिन उनमें से कुछ भी सत्य के अनुरूप नहीं होता, यह पाखंडों और भ्रान्तियों के अलावा और कुछ नहीं होता है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर के वचनों के साथ इसका कुछ संबंध है, यह उनके साथ थोड़ा-सा जुड़ा हुआ प्रतीत होता है, लेकिन मामले पर चिंतन करने और इसकी असलियत जानने के बाद एहसास होता है कि यह भ्रामक कथनों के अलावा और कुछ नहीं होता है, यह लोगों के विचारों को भंग करने वाले भ्रांतियों के अलावा और कुछ नहीं है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर कहता है कि उसके सार में प्रेम है, कि वह इंसान से प्रेम करता है। वह जो कहता है, जिस तरह से वह मनुष्य के साथ व्यवहार करता है, मनुष्य को बचाने के लिए उसके श्रमसाध्य प्रयास, और वह मनुष्य में जैसे कार्य करता है उसके असंख्य पहलुओं के माध्यम से मनुष्य के प्रति परमेश्वर का प्रेम प्रकट होता है, और मनुष्य को परमेश्वर का उद्धार दिखाने के साथ ही परमेश्वर की इरादे को और उन साधनों को भी जिनके द्वारा वह मनुष्य को बचाता है, स्पष्ट किया जाता है ताकि लोग परमेश्वर के प्रेम को जान जाएँ। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती है, वे क्या सोचते हैं? “परमेश्वर एक ऐसा परमेश्वर है जो इंसान से प्रेम करता है, परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले। परमेश्वर ने कहा है कि लौटे हुए उड़ाऊ पुत्र का मोल स्वर्ण से भी अधिक होता है।” क्या परमेश्वर ने ऐसा कहा है? क्या ये परमेश्वर के मूल वचन हैं? (नहीं।) वे लोग और क्या कहते हैं? “एक सात-मंजिला पगोड़ा बनाने से बेहतर है एक जीवन को बचाना” और “बुद्ध परोपकारी है।” क्या वे चीजों को उलट-पुलट नहीं रहे हैं? स्पष्ट है कि वे आध्यात्मिक होने का, परमेश्वर के वचनों को समझने का और सत्य से प्रेम करने का केवल नाटक कर रहे हैं; वे स्पष्ट रूप से बाहरी, अल्पज्ञ और मूर्ख हैं, जिन्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं है। मैं ऐसे कई लोगों से मिला हूँ—वे उतावले लोग होते हैं, बोलने में साहसी, लेकिन दिमाग से विहीन, उनके विचार और उनके मन में उठती बातें पाखंड, भ्रांतियों और बनावटों के अलावा और कुछ नहीं होती हैं। जिन लोगों में दूसरों को गुमराह करने वाली परम शक्तियाँ होती हैं और वे दूसरों को गुमराह करने के लिए अक्सर के लिए अक्सर इन पाखंडों, भ्रांतियाँ और कुछ सही नजर आने वाले धर्मशास्त्रीय तर्कों का इस्तेमाल करते हैं और उन्हें अपनी बातों का पालन और अभ्यास करने के लिए मजबूर करते हैं—यो लोग मसीह-विरोधी होते हैं। दिखने में वे हर तरह से अत्यधिक आध्यात्मिक लगते हैं, वे अक्सर दूसरों के सामने परमेश्वर के वचनों के अंशों को उद्धृत करते हैं, और जैसे ही वे उनकी मनमानी व्याख्या करना समाप्त कर लेते हैं, तो वे कुछ पाखंडों और भ्रांतियों की लगाम खोल देते हैं। ऐसे लोग हर कलीसिया में मिल सकते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के उद्धरण और संगति के ध्वज तले लोगों की मदद और अगुआई करते हैं—लेकिन वास्तव में वे लोगों के मन में जो कुछ भी बिठाते हैं, वह वो नहीं होता जो परमेश्वर के वचन इंसान से अपेक्षा करते हैं, न ही वह परमेश्वर के वचनों में निहित सत्य-सिद्धांत होता है, बल्कि वे लोगों के मन में वो पाखंड और भ्रान्तियाँ बिठाते हैं जिन्हें वे परमेश्वर के वचनों के आधार पर की गई प्रक्रिया, व्याख्या और कल्पना के माध्यम से लेकर आते हैं, इनके कारण लोग परमेश्वर के वचनों से भटककर ऐसे लोगों का आज्ञापालन करते हैं, और अस्त-व्यस्त और गुमराह हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं : “अपनी छह हजार साल की प्रबंधन योजना का कार्य करने में परमेश्वर ने समस्त मानवजाति से परित्याग और प्रतिरोध झेला है; परमेश्वर तो परमेश्वर ही है, और उसके दिल की कोई सीमा नहीं होती है! जैसा कि लोग कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री का दिल इतना बड़ा होता है कि उसमें एक नाव चल जाए,’ और ‘सज्जन के बदला लेने में देर क्या और सबेर क्या।’ परमेश्वर कितना महान है!” बस दिखावे भर के लिए, वे लोगों को परमेश्वर की, और परमेश्वर के पास जो है और जो वह स्वयं है, इसकी गवाही देते हुए लगते हैं, लेकिन वे वास्तव में क्या संदेश दे रहे हैं? क्या यह सत्य है? क्या यह वास्तव में परमेश्वर का सार है? (नहीं।) वे किसकी गवाही दे रहे हैं? वे प्रधानमंत्री की गवाही दे रहे हैं। वे परमेश्वर की तुलना एक प्रधानमंत्री से कर रहे हैं, एक मनुष्य से कर रहे हैं—और क्या यह ईश-निन्दा नहीं है? क्या ऐसे शब्द परमेश्वर के वचनों में पाए जा सकते हैं? (नहीं।) तो ये शब्द कहाँ से आए? शैतान से। मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर की गवाही नहीं देते, वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर परमेश्वर के खिलाफ ईश-निंदा भी करते हैं, अक्सर उन लोगों को गुमराह करते हैं जिनकी कोई नींव नहीं होती है, जिन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं होती है और जो सत्य को समझने में असमर्थ होते हैं। ये लोग छोटे आध्यात्मिक कद के होते हैं, इनके पास सत्य को समझने की कोई नींव और क्षमता नहीं होती है, और इसलिए वे इन पाखंडों और भ्रांतियों से धोखा खा जाते हैं। मसीह-विरोधी पाखंडों और भ्रांतियों को आध्यात्मिक कथन मानते हैं और परमेश्वर के प्रेम के बारे में वे लोग ये एक बात कहा करते हैं, “परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति उद्धार पाए और वह नहीं चाहता कि कोई भी तबाही झेले।” परमेश्वर की इंसान से अपेक्षा के बारे में वे एक दूसरी बात यह बताते हैं, “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” और परमेश्वर द्वारा लोगों के अपराधों को याद न रखने और उन्हें पश्चात्ताप करने का मौका देने के बारे में वे कहते हैं, “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो।” क्या ऐसे शब्द परमेश्वर के वचनों में मिल सकते हैं? (नहीं।) इन बातों को सुनते ही मुझे इतना गुस्सा क्यों आता है? मैं इनसे इतना परेशान क्यों हो जाता हूँ? मैं इतना चिड़चिड़ा क्यों हो जाता हूँ? ये लोग कितने साल से परमेश्वर के वचनों को पढ़ते आ रहे हैं? क्या ये मंदबुद्धि हैं या पागल हो गए हैं? परमेश्वर के वचनों में कहाँ ऐसी बातों का उल्लेख किया गया है? परमेश्वर ने कब यह अपेक्षा की थी कि लोग निष्कपट हों? कब परमेश्वर ने कहा कि लोग इस कहावत का पालन करें कि “मारने से कोई फायदा नहीं होता; जहाँ कहीं भी संभव हो वहाँ उदार बनो”? क्या परमेश्वर यही करता है? इन पाखंडों और भ्रांतियों का, जिन्हें वे गले लगाते हैं, मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षा, उसके इरादों और सत्य-सिद्धांतों से कोई संबंध कहाँ है? वे पूरी तरह से असंबंधित हैं। उदाहरण के लिए परमेश्वर लोगों को आदर्श, इच्छाएँ और लक्ष्य अपनाने की छूट देता है लेकिन मसीह-विरोधी कहते हैं : “परमेश्वर हमें लक्ष्य अपनाने के लिए बढ़ावा देता है। यह कहावत इसे बखूबी बताती है : ‘जो सैनिक सेनानायक नहीं बनना चाहता वह अच्छा सैनिक नहीं है।’” यह कहावत एक तरह का सामाजिक चलन है, एक सामाजिक विचार है—क्या इसका उपयोग परमेश्वर के घर में करना उचित है? क्या यह उपयोगी है? (नहीं।) यह कथन परमेश्वर के किन वचनों के अनुरूप है? क्या यह परमेश्वर के वचनों से संबंधित है? (नहीं।) तो फिर मसीह-विरोधी इसे क्यों सुनाते हैं? उनका इसे सुनाने का उद्देश्य लोगों को शिद्दत से यह महसूस कराना होता है कि वे बहुत आध्यात्मिक हैं, कि उन्हें परमेश्वर के वचनों की समझ है और वे इनसे प्रबोधन लेते हैं, कि उनमें सत्य को समझने की योग्यता है और यह भी कि वे अज्ञानी आम जन नहीं हैं। लेकिन क्या इससे उनका अपेक्षित उद्देश्य हल होता है? ये शब्द सुनकर तुम लोग अपने दिल में स्वीकृति की अनुभूति करते हो या विकर्षण की? (विकर्षण की।) यह किस तरह तुममें विकर्षण पैदा करता है? (मसीह-विरोधी लोग शैतान की भ्रांतियों को परमेश्वर के वचनों के साथ जोड़कर उनका गलत अर्थ निकालते हैं। वे जो भी शब्द बोलते हैं उन सबमें आध्यात्मिक समझ का अभाव होता है।) मसीह-विरोधी केवल वही शब्द बोलते हैं जिनमें आध्यात्मिक समझ की कमी झलकती है, इन्हें सुनने के कारण लोगों के मन में घृणा उत्पन्न होती है और वे इनसे विमुख होते हैं। वे परमेश्वर के वचनों को बिल्कुल नहीं समझते, वे इन्हें समझ ही नहीं सकते, उनमें परमेश्वर के वचनों को समझने की काबिलियत और योग्यता नहीं होती, फिर भी वे इन्हें समझने का दिखावा करते हैं और बेशर्मी से दूसरों के सामने इनकी व्याख्या करते हैं, ऐसे निरर्थक और बचकाने शब्द बोलते हैं जिनसे लोगों को घिन आती है, कोई सीख नहीं मिलती, बल्कि लोगों के विचार गड़बड़ा जाते हैं। यह वाकई घृणास्पद है! जब ऐसे लोगों से सामना हो तो तुम लोगों को क्या करना चाहिए? (वे जो कह रहे हैं, हमें उसके भ्रामक अंशों का गहन विश्लेषण अवश्य करना चाहिए।) तुम्हें यह किस ढंग से करना चाहिए? दरअसल, यह काफी आसान है। तुम उनसे कहो : “परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद इस बारे में तुम्हारी समझ मुझे बहुत ज्यादा नजर नहीं आती है।” वे जवाब देंगे : “मैं ऐसा नहीं मानता, मुझे लगता है कि यह अच्छी है।” तुम कहते हो : “तुम्हें लगता है कि चाहे कुछ भी हो यह अच्छी है, तो फिर तुम्हारे तर्कों के अनुसार चलें तो क्या इसका यह अर्थ है कि परमेश्वर के वचन मनुष्य की भ्रांतियों और पाखंडों के समतुल्य हैं? अगर तुम इन भ्रांतियों और पाखंडों से सहमत होते हो तो फिर तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते ही क्यों हो? तुम्हें इन्हें पढ़ने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी यह समस्या अब गंभीर हो चुकी है—परमेश्वर के वचनों को तुम दुष्ट मानव जाति के सांसारिक आचरण के फलसफे जैसा मान रहे हो, तुम इन्हें दुष्ट मानव जाति के ऐसे तरीकों जैसा मान रहे हो जिनसे वह चीजों और विचारों से निपटती है। तुम्हारी दृष्टि में परमेश्वर जिन ईमानदार लोगों की बात करता है वे बिल्कुल निष्कपट, बहुत बड़े मूर्ख और अनाड़ियों जैसे हैं। तुम परमेश्वर के कहे हर वचन की व्याख्या इंसानी शब्दावली से कर इसे दुष्ट मानव जाति की भ्रांतियों और कहावतों के समान मानते हो। तो क्या परमेश्वर के वचनों से तुम्हारा यह आशय है कि ये मनुष्य के शब्द, मनुष्य की भाषा और मनुष्य की भ्रांतियाँ और पाखंड हैं? परमेश्वर के वचनों को इस तरीके से समझकर तुम उन्हें समझ नहीं रहे हो; तुम उनका तिरस्कार कर रहे हो और तुम परमेश्वर का तिरस्कार कर रहे हो।” क्या तुम सब लोग ये शब्द स्पष्ट रूप से कह पाओगे? अगर परमेश्वर के वचनों का वही अर्थ होता जो मसीह-विरोधी बताते हैं तो फिर परमेश्वर सीधे उन्हीं शब्दों को क्यों न कह देता? जब परमेश्वर लोगों को ईमानदार होने के लिए कहता है तो वह उन्हें बस निष्कपट और नेक बंदे होने की बात कहकर वहीं पर क्यों नहीं रुक जाता? क्या यह सिर्फ शब्दों का अंतर है? (नहीं।) परमेश्वर के वचन सत्य हैं और उन्हीं में लोगों के लिए अभ्यास का मार्ग निहित है। अगर लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करते और जीते हैं तो वे परमेश्वर का भय मानने वाले और बुराई से दूर रहने वाले लोग बन सकते हैं, ऐसे लोग बन सकते हैं जो परमेश्वर के इरादों के अनुरूप हैं। इस बीच, मनुष्य जो कहते हैं उसके अनुसार कार्य करना और जीना व्यक्ति को पूरी तक भ्रमित इंसान बना देता है, ठेठ जीता-जागता शैतान बना देता है। क्या तुम लोग इस बिंदु को पहचानते हो? ईमानदार व्यक्ति होने के संबंध में परमेश्वर ने जो कहा है, अगर तुम लोगों ने उसके अनुसार कार्य और अभ्यास किया होता तो इसका नतीजा क्या होता? और मनुष्य जिसे नेक या निष्कपट व्यक्ति कहते हैं, अगर तुम लोग उसके अनुसार कार्य और अभ्यास करते हो तो उसका नतीजा क्या होता? क्या नतीजे अलग-अलग नहीं होते? (हाँ, होते।) तो फिर एक ईमानदार व्यक्ति के रूप में जीने का नतीजा क्या होता है? (सामान्य मानवता होना, परमेश्वर की आराधना कर पाना, खरी बातें करना और परमेश्वर के साथ बेबाक और साफ-दिल होना। अगर कोई व्यक्ति मनुष्यों की परिभाषा के अनुसार निष्कपट या नेक व्यक्ति के रूप में आचरण करता है तो वह अधिकाधिक चालाक और छद्मवेश धारण करने में कुशल होता जाता है, वह सिर्फ कर्णप्रिय बातें करता है, सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफे के अनुसार जीता है और एक जीता-जागता शैतान बन जाता है।) तुम देखते हो कि अंतर है, है न? परमेश्वर जिसे ईमानदार व्यक्ति के अनुसार कार्य करना और जीना कहता है उससे मनुष्य का दिल अधिकाधिक शुद्ध बनता जाता है; उसका हृदय परमेश्वर के सामने खुलता जाता है और वह वेश बदले बिना, धोखाधड़ी किए बिना और मिथ्यारोपण के बिना परमेश्वर को अपना दिल दे सकता है। वह परमेश्वर से अपने दिल को छिपाता नहीं है, बल्कि वास्तव में उसके सामने खोलकर रखता है; वह अपने अंदर जो सोचता है, उसे ही बाहर प्रकट करता और जीता है, और वह बाहर जो प्रकट करता है और जीता है वह उसी के अनुरूप होता है जो कुछ उसके अंदर है। यही परमेश्वर चाहता है; यही सत्य है। दूसरी ओर लोग जिन्हें निष्कपट या नेक बताते हैं उनके अपने आचरण के सिद्धांत और अभ्यास के सिद्धांत क्या होते हैं? दरअसल, सब कुछ छद्म आवरण है। वे जो कुछ सोच रहे होते हैं वह आसानी से कहते नहीं हैं, न वे किसी और को यह समझने देते हैं। वे दूसरों के आत्म-सम्मान या हितों को उतावले होकर चोट नहीं पहुँचाते, लेकिन दूसरों को नुकसान न पहुँचाने का उद्देश्य भी खुद को सुरक्षित रखना होता है। वे अंदर से सावधान रहते हैं और बाहर से छद्म आवरण ओढ़े रहते हैं, वे बहुत ही धर्मनिष्ठ, सहनशील, धैर्यवान और करुणावान दिखते हैं। लेकिन कोई नहीं समझ पाता कि वे अंदर से क्या सोच रहे हैं; उनके अंदर भ्रष्टता, प्रतिरोध और विद्रोह होता है लेकिन दूसरे लोग इन्हें देख नहीं पाते। बाहर से वे विशेष रूप से शिक्षाप्रद, सौम्य और दयालु होने का दिखावा करते हैं। वे चाहे कितनी ही बुरी चीजें करते हों या अंदर से वे चाहे कितने ही विद्रोही और दुष्ट हों, कोई नहीं जान पाता। बाहरी तौर पर वे दूसरों की मदद करने और जरूरतमंदों को दान देने को भी तैयार रहते हैं, हमेशा उत्तर देने के लिए तैयार रहते हैं, जीते-जागते ली फंग होते हैं। वे मुस्कराते हुए दूसरों को हमेशा अपना अच्छा पहलू दिखाते हैं और एकांत में उन्होंने चाहे कितने ही आँसू बहाए हों, दूसरों के सामने वे हमेशा मुस्कराते रहते हैं जिससे लोग शिक्षाप्रद महसूस करते हैं। क्या इसे ही लोग अच्छा व्यक्ति नहीं कहते? इस अच्छे व्यक्ति की तुलना एक ईमानदार व्यक्ति से की जाए तो इनमें सकारात्मक कौन है? किसके पास सत्य वास्तविकता होती है? (ईमानदार व्यक्ति के पास।) ईमानदार लोगों में सत्य वास्तविकता होती है, उन्हें परमेश्वर प्रेम करता है और वे परमेश्वर-अपेक्षित मानकों पर खरे उतरते हैं जबकि अच्छे और निष्कपट लोग ऐसा नहीं कर पाते; ये ठीक वही लोग हैं जिनकी परमेश्वर निंदा और तिरस्कार करता है। जब मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर-अपेक्षित ईमानदार लोगों की सिर्फ अच्छे या निष्कपट लोगों के रूप में मनमानी व्याख्या करते हैं तो क्या यह परमेश्वर की कही बातों की एक तरह की गुपचुप निंदा नहीं है? क्या यह परमेश्वर के वचनों का तिरस्कार नहीं है? क्या यह सत्य का तिरस्कार नहीं है? यह एक स्पष्ट तथ्य है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते, सत्य क्या है यह तो बिल्कुल भी नहीं समझते, फिर भी वे दोषपूर्ण तर्कों का सहारा लेकर बिना सोचे-समझे अपनी व्याख्याएँ लागू करते हैं, जब उन्हें कुछ समझ में नहीं आता तो वे समझ का दिखावा करते हैं, परमेश्वर के वचनों की मनमाने ढंग से ऊटपटाँग व्याख्या करते हैं और दूसरों को गुमराह और परेशान करते हैं। क्या तुम लोग इस तरह से पेश आओगे? परमेश्वर के वचनों को स्पष्ट रूप से न समझते हुए भी इन्हें समझने का दिखावा करना और अपनी शाब्दिक समझ के आधार पर परमेश्वर के वचनों की व्याख्या करने और सीमा निर्धारित करने के लिए अपनी शब्दावली, अभिव्यक्तियों और दृष्टिकोणों का उपयोग करना—यही मसीह-विरोधियों का स्वभाव होता है।
परमेश्वर और मनुष्य के वचनों में और सत्य और धर्म-सिद्धांत में सारभूत अंतर क्या होता है? परमेश्वर के वचनों के कारण लोग विवेक और जमीर में, सिद्धांत के साथ कार्य करने में, विकास हासिल करते हैं, और वे जो जीते हैं उसमें सकारात्मक चीजों की वास्तविकता से ज्यादा-से-ज्यादा लैस होते हैं। दूसरी ओर, इंसान के शब्द लोगों की रुचियों और धारणाओं के साथ पूरी तरह से सही बैठते हुए प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन वे सत्य नहीं होते, वे खतरों, प्रलोभनों, पाखंडों और भ्रांतियों से छलकते हैं, और इसलिए यदि लोग इन शब्दों के अनुसार काम करते हैं, तो वे जो जीवन जीते हैं वह परमेश्वर से, और परमेश्वर के मानकों से, और भी दूर भटक जाएगा। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि लोगों के जीने का तरीका और भी अधिक बुरा और शैतान जैसा हो जाएगा। जब लोग पूरी तरह से इंसान के पाखंडों और भ्रांतियों के द्वारा जीते और कार्य करते हैं, जब वे इन तर्कों को पूरी तरह से गले लगा लेते हैं, तो वे शैतान की तरह जीते हैं। और क्या शैतान की तरह जीने का मतलब यह नहीं होता कि वे शैतान ही हैं? (बिल्कुल।) इसलिए वे “सफलतापूर्वक” जीते-जागते शैतान बन गए हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैं इसे नहीं मानता। मैं तो बस एक ऐसा निष्कपट व्यक्ति बनना चाहता हूँ, जिसे दूसरे लोग पसंद करें। मैं तो एक ऐसा व्यक्ति बनना चाहता हूँ जिसे ज्यादातर लोग अच्छा मानते हों, और फिर मैं देखूँगा कि परमेश्वर मुझसे खुश होता है या नहीं।” यदि परमेश्वर जो कहता है उसे तुम नहीं मानते हो, तो जाओ और निगाहें डालो, और—देखो कि क्या परमेश्वर के वचन सत्य हैं या मनुष्य की धारणाएँ सत्य हैं। यह परमेश्वर के वचनों और मनुष्य के शब्दों का सारभूत अंतर है। यह सत्य और पाखंडों तथा भ्रांतियों के बीच का सारभूत अंतर है। चाहे पाखंड और भ्रांतियाँ लोगों की रुचियों के साथ कितनी भी मिलती हों, वे कभी उनका जीवन नहीं बन सकती हैं; इस बीच, चाहे परमेश्वर के वचन कितने भी सरल प्रतीत होते हों, कितने भी देसी, लोगों की धारणाओं के साथ चाहे कितने भी बेमेल लगते हों, लेकिन उनका सार सत्य होता है, और अगर लोग जो करते हैं और जीते हैं, वो परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार हो, तो अंततः, एक दिन, वे परमेश्वर के सच्चे योग्य सृजित प्राणी बन जाएँगे, और वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होंगे। इसके उलट अगर लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते और परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य नहीं करते हैं तो वे योग्य सृजित प्राणी नहीं बन सकते हैं। उनके क्रियाकलापों और वे जिस मार्ग पर चलते हैं उसका परमेश्वर तिरस्कार ही करेगा : यह एक तथ्य है। इस संगति के जरिए क्या तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों की नई समझ या अवधारणा मिली है? परमेश्वर के वचन क्या हैं? वे सत्य, मार्ग और जीवन हैं—इसमें कोई झूठापन नहीं है। जन्मजात रूप से सकारात्मक चीजों से विमुख रहने वाले और इनसे नफरत करने वाले मसीह-विरोधी ही परमेश्वर के वचनों से तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करते हैं, वे परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और वे इस तथ्य को नकारते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य, मार्ग और जीवन हैं। वे परमेश्वर के वचनों को कभी भी अपना जीवन नहीं स्वीकारेंगे; वे लोगों का ऐसा समूह हैं जिसे बचाया नहीं जा सकता। ऐसी संगति के बाद कुछ लोग समझते हैं कि ये अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी मनमाने ढंग से व्याख्या करने के समान हैं जो मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ होती हैं। क्या तुम लोग यह मानते हो कि इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो परमेश्वर के वचनों को व्यवस्थित करते हैं? (हाँ।) वाकई? छेड़छाड़ करने का क्या अर्थ होता है? (इसका अर्थ है मनमाने ढंग से कोई बात हटा या जोड़ देना, परमेश्वर के वचनों का मूल अर्थ बदल देना। यह छेड़छाड़ है। अगर उसके वचनों को सिद्धांतों के अनुरूप व्यवस्थित किया गया है तो फिर यह छेड़छाड़ नहीं है।) सही कहा, तुम्हें यही बात समझने की जरूरत है। इस समझ के साथ जब तुम लोग परमेश्वर के वचनों को व्यवस्थित करोगे तो तुम्हें कोई चिंता नहीं होगी, है न? क्या तुम अब सिद्धांतों को ठीक ढंग से समझ सकते हो? जब तुम लोगों को व्यवस्थित करने को कहा जाता है तो यह तुम्हें छेड़छाड़ करने का न्योता देना नहीं होता। ऐसे भी लोग हैं जो अनुवाद का कार्य करते हैं—इन लोगों से परमेश्वर के वचनों का सीधा अनुवाद करने और परमेश्वर के वचनों के मूल अर्थ का और परमेश्वर के अपने ही वचनों का दूसरी भाषा में अनुवाद करने को कहा जाता है, न कि अनुवाद के दौरान परमेश्वर के वचनों की व्याख्या करने को कहा जाता है। तुम इस योग्य नहीं हो कि व्याख्या कर सको और तुम्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए और सावधानी बरतनी चाहिए। सिद्धांतों को अच्छी तरह समझना, यह समझना कि छेड़छाड़ में क्या-क्या शामिल है और क्या नहीं—इन सिद्धांतों को अच्छी तरह समझ लो, फिर ऐसी गलतियाँ करना कठिन होगा। अगर तुम इन सिद्धांतों को नहीं समझते और व्यवस्थित करते समय हमेशा अर्थ जोड़ना या बदलना चाहते हो, हमेशा यह सोचते हो कि परमेश्वर के कहने का तरीका बहुत आदर्श नहीं है या उसके कहने का तरीका अनुचित लगता है, यह सोचते हो कि इसे किसी खास ढंग से कहना चाहिए तो फिर ऐसे विचारों से तुम्हारी छेड़छाड़ करने की गलती की आशंका बढ़ जाएगी। जहाँ तक उन अनुवादकों की बात है जो यह कहते हैं कि “मैं जानता हूँ कि परमेश्वर के वचनों के इस वाक्य का अर्थ क्या है, इसलिए मैं उसी अर्थ के आधार पर इसका अनुवाद करूँगा। एक बार इसका अनुवाद हो जाए तो क्या पाठक इसे समझ नहीं लेगा और बात खत्म? खोजने या प्रार्थना-पाठ करने की जरूरत नहीं होगी; वे सीधे प्रबोधन और रोशनी प्राप्त कर लेंगे”—क्या यह गलती नहीं है? इससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है; यह परमेश्वर के वचनों की मनमाने ढंग से व्याख्या करना है। संक्षेप में कहें तो परमेश्वर के वचनों के साथ कभी भी ऐसा व्यवहार मत करो जैसा तुम मनुष्य के शब्दों के साथ करते हो, यह मत मानो कि ये कोई उपन्यास हैं, किसी मशहूर व्यक्ति का लेखन हैं या किसी विद्वतापूर्ण चर्चा से संबंधित कोई चीज हैं। इनके साथ छेड़छाड़ न करने या मनमाने ढंग से व्याख्या न करने के अलावा व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते और इनका प्रार्थना-पाठ करते समय इन्हें खोज, स्वीकृति और समर्पण के रवैये के साथ लेना चाहिए। केवल तभी व्यक्ति सत्य को समझ सकता है, परमेश्वर के इरादे समझ सकता है, परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग पा सकता है और अपने भ्रष्ट स्वभाव और उन तमाम कठिनाइयों का समाधान कर सकता है जिनका सामना अपना कर्तव्य निभाते हुए और जीवन में होता है। यह नतीजा हासिल करने से साबित होता है कि परमेश्वर के वचनों के प्रति तुम्हारा रवैया सही है। मसीह-विरोधियों की परमेश्वर के वचनों से घृणा करने की पहली अभिव्यक्ति—मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करने—पर हमारी संगति इसी बिंदु पर समाप्त होती है।
ख. अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी अस्वीकार कर देते हैं
दूसरी अभिव्यक्ति यह है कि अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी अस्वीकार कर देते हैं। परमेश्वर ने अपने कार्य में शुरुआत से लेकर अब तक बहुत सारे वचन कहे हैं। इन वचनों का दायरा व्यापक है, इनकी विषयवस्तु समृद्ध है, इनमें लोगों के इरादों और दृष्टिकोणों के साथ ही उनके परमेश्वर की सेवा करने संबंधी पहलू शामिल हैं। बेशक, इसमें लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित बातें अधिक हैं तो उससे भी बड़ा हिस्सा परमेश्वर के इरादों और मानव जाति से परमेश्वर की अपेक्षाओं से संबंधित है। इन वचनों में परमेश्वर ने नाना प्रकार के कहने के तरीके अपनाए हैं। कहने के इन तमाम तरीकों में शुरुआत में कहने का लहजा अपेक्षाकृत मनुष्यों के लहजे के करीब है, इसके बाद आता है मानव जाति का न्याय और उसे उजागर करना, साथ ही मानव जाति पर विजय प्राप्त करना और फिर धीरे-धीरे लोगों को सत्य के विभिन्न पहलू बताना। इन वचनों की विषयवस्तु बहुआयामी है लेकिन यह चाहे कितनी भी व्यापक हो, भ्रष्ट मानव जाति को इसी की जरूरत है। सबसे अधिक विशेष विषयवस्तु के एक छोटे से हिस्से को छोड़ दिया जाए तो इनमें से ज्यादातर वचन मनुष्य की भाषा शैलियों के अनुसार बोले गए हैं, इनका लहजा, शब्द-योजना और भाषाई तर्कशक्ति का प्रयोग ऐसा है जिसे मनुष्य सारा का सारा स्वीकार कर सकते हैं। संक्षेप में कहें तो भाषा और कहने के इन रूपों की शैलियाँ और पद्धियाँ बहुत ही सामान्य और सुबोध हैं। अगर व्यक्ति के विचार सामान्य हैं, मन और विवेक सामान्य है, तो वह परमेश्वर के इन वचनों को समझ सकता है। इसका आशय यह है : अगर व्यक्ति के विचार सामान्य हैं तो ये वचन पढ़ने के बाद वह अभ्यास का मार्ग पा सकता है, खुद को जान सकता है, परमेश्वर के इरादे समझ सकता है और अभ्यास के सिद्धांत खोज सकता है। अगर व्यक्ति के पास हृदय और सामान्य विचार हैं तो परमेश्वर के वचन जीवन में विभिन्न कठिनाइयों के दौरान लोगों को मदद और मार्गदर्शन दे सकते हैं और ये लोगों को अपने विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों को समझने में भी सक्षम बना सकते हैं। परमेश्वर के वचनों की अधिकांश विषयवस्तु ऐसी ही होती है लेकिन एक हिस्सा ऐसा भी है जो दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से, आत्मा के परिप्रेक्ष्य से कहा गया है। विषयवस्तु का यह हिस्सा बहुत ही विशेष है। मानव जाति की नजर में परमेश्वर के वचनों का यह हिस्सा बहुत ही गहन और समझने में कठिन है। यह एक रहस्य लगता है और एक भविष्यवाणी भी लगती है। वाणी के हर वाक्य, हर अंश और हर अध्याय में परमेश्वर का निहितार्थ समझना लोगों के लिए बहुत कठिन होता है, परमेश्वर के वचनों का संदर्भ और मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं के साथ ही लोग जो सत्य सिद्धांत खोज रहे हैं, इन सबको जानना कठिन होता है। तो फिर यह उसके वचनों का कौन-सा हिस्सा है? यह “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन” और इसके परिशिष्ट हैं। उसके वचनों का यह हिस्सा समझना लोगों के लिए बहुत कठिन होता है। परमेश्वर लोगों के लिए दुर्बोध यह हिस्सा क्यों बोलता है, इस बात को अलग रखकर चलो पहले इसी से जुड़े उस विषय पर चर्चा करते हैं जिस पर हमें संगति करनी है—“अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी अस्वीकार कर देते हैं।” जहाँ तक परमेश्वर के उन आम, सुबोध और जटिल-किंतु-सरल-ढंग-से-व्यक्त वचनों की बात है, साथ ही मनुष्य के लिए परमेश्वर की चेतावनियों और अनुस्मारकों, मनुष्य के लिए प्रोत्साहन और दिलासा भरे वचनों की बात है, मनुष्य को उजागर और उसकी आलोचना करने वाले वचनों, मनुष्य का पोषण और मार्गदर्शन करने वाले वचनों की बात है, तो जो लोग सत्य का अनुसरण बिल्कुल भी नहीं करते, जो लोग “परमेश्वर” नामक शब्द को दिव्यता ओढ़ाकर एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास करना पसंद करते हैं, वे सोचते हैं कि ये वचन बिल्कुल भी परमेश्वर के वचनों जैसे नहीं लगते। उन्हें ये बहुत ही सामान्य, बहुत ही सीधे-सादे लगते हैं—बिल्कुल कोरी बातें लगती हैं। उन्हें लगता है कि हर अध्याय बहुत ही लंबा है। वे इन वचनों को नहीं पढ़ना चाहते। उन्हें लगता है कि इन वचनों में गहराई और रहस्यमयता नहीं है, इसलिए ये पढ़ने लायक नहीं हैं। इसलिए उनके विचार से ये परमेश्वर के वचन नहीं हैं। वे ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि इन वचनों की विषयवस्तु, अंदाज और शैली उनकी रुचि से मेल नहीं खाती है। तो फिर उनकी रुचि क्या है? वे गहन ग्रंथ पढ़ना चाहते हैं, वे ऐसे शब्द पढ़ना चाहते हैं जिन्हें लोग चाहे कैसे भी पढ़ लें वे दुरूह ही रहें, जैसे कि स्वर्ग का कोई दुर्बोध ग्रंथ; वे इन्हें ही पढ़ना चाहते हैं। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के ऐसे वचनों से घृणा करते हैं जो मनुष्य की रुचियों के अनुरूप तरीके, लहजे और शैली में बोले गए हों। वे इन वचनों के प्रति धारणाओं, तिरस्कार और उपहास से भरे होते हैं। इसलिए ये लोग इन सामान्य, सुबोध और लोगों को जीवन प्रदान कर सकने वाले वचनों को पढ़ते, देखते या सुनते नहीं हैं। वे मन-ही-मन इन वचनों के प्रति शत्रुवत रहते हैं, इनसे दूर भागते हैं और इन्हें स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं। वे इन वचनों को क्यों अस्वीकार कर पाते हैं, इनसे दूर भागते हैं और इनके प्रति शत्रुवत रहते हैं? एक कारण तो तय है : उन्हें लगता है कि ये वचन देहधारी परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से बोले गए हैं, इसलिए वे इन वचनों को मनुष्य के शब्द मानते हैं। मनुष्य के शब्दों की अवधारणा क्या है? मसीह-विरोधियों के विचार से सिर्फ परमेश्वर के वचन, सिर्फ स्वर्गिक ग्रंथ ही उनके लिए पढ़ने लायक हैं। सिर्फ गहन, दुर्बोध और रहस्यमयी वचन ही उनके पढ़ने लायक हैं। ये साधारण और सुबोध इंसानी पाठ उनके पढ़ने लायक नहीं हैं, ये उनकी “पारखी” नजर को आकर्षित नहीं कर सकते और वे इनसे घृणा करते हैं। वे इन वचनों को बिल्कुल भी नहीं पढ़ते, इनमें निहित सत्य को स्वीकारना तो दूर की बात है।
जरा अपने आसपास नजर डालकर देखो कि परमेश्वर के वचनों को कौन नहीं पढ़ता है; जब कोई परमेश्वर के वचनों पर संगति कर रहा होता है तो कौन उठकर चला जाता है; जब परमेश्वर के वचन पढ़े जाते हैं या सत्य पर संगति हो रही होती है तो कौन उबासियाँ और अँगड़ाइयाँ लेता है, कौन कुलबुलाता है, अधीर होता है और कौन वहाँ से चले जाने या रुकावट डालने के बहाने तलाशता है और विषय बदल देता है—ऐसे लोग खतरे में हैं। तुम धर्मशास्त्र, किसी भी भ्रांति या किसी मानवीय दृष्टिकोण पर बात कर सकते हो तो वे पूरे समय जमे रहेंगे। लेकिन जैसे ही तुम परमेश्वर के वचनों को लेकर प्रवचन देना, प्रार्थना-पाठ करना या संगति करना शुरू करोगे या परमेश्वर के वचनों की बड़ाई करोगे तो वे फौरन बदल जाएँगे और असामान्य आचरण, राक्षसी आचरण करने लगेंगे। जब वे परमेश्वर के वचनों का पाठ होता सुनते हैं तो वे बेचैन और कुपित हो जाते हैं, और जब वे किसी को सत्य पर संगति करते सुनते हैं तो वे विरोधी रुख अपना लेते हैं और उठकर चले जाते हैं। इसकी प्रकृति क्या है? यह कैसा स्वभाव है? मसीह-विरोधी ऐसे ही होते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम उन्हें मसीह-विरोधी कैसे ठहरा सकते हो? हो सकता है कि वे नए विश्वासी हों जिनकी रुचि अभी परमेश्वर के वचनों में नहीं जागी हो या जिन्होंने परमेश्वर के वचनों की मिठास नहीं चखी हो। क्या तुम्हें यह संभावना मंजूर नहीं है कि नए विश्वासियों का आध्यात्मिक कद छोटा हो सकता है?” अगर इन नए विश्वासियों का आध्यात्मिक कद छोटा है और उन्हें परमेश्वर के वचनों में रुचि नहीं है तो जब तुम दूसरी बातों के बारे में चर्चा करते हो तब वे इनसे दूर क्यों नहीं भागते? अगर तुम बड़ी आपदाओं, मानव जाति के भविष्य, रहस्यों या प्रकाशितवाक्य पर चर्चा करते हो तो देखो कि क्या वे चुपचाप बैठ सकते हैं। तब वे अलग ढंग से पेश आते हैं। मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार के परिप्रेक्ष्य से देखें तो उन्हें सत्य से बैर होता है। सत्य से बैर होने का यह प्रकृति सार कैसे प्रकट होता है? वह इस तरह कि परमेश्वर के वचन सुनने पर वे विकर्षित और उनींदे हो जाते हैं और तिरस्कार, बेचैनी और सुनने की अनिच्छा जैसे तमाम हाव-भाव प्रकट करते हैं। उनका राक्षसी आचरण इस प्रकार प्रकट होता है। बाहरी तौर पर लगता है कि वे अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और वे खुद को परमेश्वर का अनुयायी मानते हैं। तो सत्य पर संगति के समय, परमेश्वर के वचनों पर संगति के समय वे उद्दंड क्यों हो जाते हैं? तब वे स्थिर होकर क्यों नहीं बैठ पाते? मानो परमेश्वर के वचन खंजरनुमा हों। क्या परमेश्वर के वचन उन्हें चुभे? क्या परमेश्वर के वचनों ने उनकी निंदा की? नहीं। इनमें से ज्यादातर वचन लोगों के पोषण के लिए हैं और इन्हें सुनकर लोग जागने, जीने का मार्ग ढूँढ़ने और मानव के समान जीने के लिए नया जीवन पाने में सक्षम होते हैं। तो फिर ये वचन सुनकर कुछ लोग असामान्य रूप से क्यों व्यवहार करते हैं? यह शैतान का असली रूप प्रकट करना है। जब तुम धर्मशास्त्र, पाखंडों, भ्रांतियों या प्रकाशितवाक्य के बारे में बात करते हो तो वे प्रतिकर्षित महसूस नहीं करते। अगर तुम निष्कपट, चापलूस होने के बारे में भी बात करते हो या उन्हें साहसिक कहानियाँ सुनाते हो, तो भी वे प्रतिकर्षित महसूस नहीं करते। लेकिन जैसे ही वे यह सुनते हैं कि परमेश्वर के वचनों का पाठ हो रहा है तो उन्हें नफरत होने लगती है और वे उठकर चले जाना चाहते हैं। अगर तुम उन्हें ठीक ढंग से सुनने की नसीहत देते हो तो वे लड़ने की मुद्रा में आ जाते हैं और तुम्हें गुस्से में घूरने लगते हैं। ये लोग परमेश्वर के वचनों को ग्रहण क्यों नहीं कर पाते? परमेश्वर के वचन सुनकर वे शांत होकर नहीं बैठ पाते—यह क्या चल रहा है? इससे साबित होता है कि उनकी आत्मा असामान्य है, उनकी आत्मा सत्य से विमुख और परमेश्वर विरोधी है। परमेश्वर के वचन सुनते ही वे अंदर से उत्तेजित हो जाते हैं, उनके अंदर का राक्षस जोर मारने लगता है और इससे वे चुपचाप नहीं बैठ पाते। मसीह-विरोधी का यही सार होता है। लिहाजा बाहरी तौर पर मसीह-विरोधी परमेश्वर के उन वचनों से घृणा करते हैं जो उनकी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते। लेकिन “उनकी धारणाओं के अनुरूप न होने” का वास्तव में क्या आशय है? यह स्पष्ट तौर पर इंगित करता है कि वे इन वचनों की निंदा करते हैं, वे इन्हें परमेश्वर से आया हुआ नहीं मानते, वे इन्हें सत्य नहीं मानते या इन्हें ऐसा जीवन-मार्ग नहीं मानते जो लोगों को बचाता है। उनकी धारणाओं के अनुरूप न होना सिर्फ एक बहाना है, एक सतही बात है। उनकी धारणाओं के अनुरूप न होने का अर्थ क्या है? परमेश्वर के बोले इन सारे वचनों के प्रति क्या हर व्यक्ति में कोई धारणा नहीं होती है? क्या हर कोई इन्हें परमेश्वर के वचन मान सकता है, सत्य मान सकता है? नहीं—हर व्यक्ति में कमोबेश किसी न किसी हद तक ऐसे विचार, धारणाएँ या दृष्टिकोण होते हैं जो परमेश्वर के वचनों से टकराते हैं या उनका खंडन करते हैं। लेकिन अधिकतर लोगों में सामान्य तार्किकता होती है और अपनी धारणाओं से मेल न खाने वाले परमेश्वर के वचनों का सामना होने पर उनमें जो रवैया पैदा होता है उससे उबरने में यह तार्किकता मदद कर सकती है। उनकी तार्किकता उन्हें बताती है, “भले ही ये वचन मेरी धारणाओं के अनुरूप न हों, तो भी ये परमेश्वर के वचन हैं; भले ही ये मेरी धारणाओं के अनुरूप न हों, मैं इन्हें सुनने को इच्छुक न रहूँ, मुझे लगे कि ये गलत हैं और मेरे विचारों से टकराते हैं, तो भी ये वचन सत्य हैं। मैं धीरे-धीरे इन्हें स्वीकार करूँगा और एक दिन जब मैं यह सब पहचान लूँगा तो मैं अपनी धारणाओं को त्याग दूँगा।” उनकी तार्किकता पहले उन्हें अपनी धारणाओं को दरकिनार करने को कहती है; उनकी धारणाएँ सत्य नहीं हैं और ये परमेश्वर के वचनों की जगह नहीं ले सकतीं। उनकी तार्किकता कहती है कि परमेश्वर के वचनों को समर्पण और ईमानदारी के रवैये के साथ स्वीकार करो, न कि अपनी ही धारणाओं और दृष्टिकोणों से परमेश्वर के वचनों का खंडन करते रहो। इस प्रकार जब वे परमेश्वर के वचन सुनते हैं तो वे अपनी धारणाओं से मेल खाने वाले वचनों को स्वीकार कर इन्हें चुपचाप बैठकर सुन सकते हैं। जहाँ तक उनकी धारणाओं से मेल न खाने वाले वचनों का मामला है, उनके लिए भी वे समाधान खोजते हैं, अपनी धारणाओं को दरकिनार करने और परमेश्वर के अनुरूप बनने की कोशिश करते है। अधिकतर तार्किक लोगों का यही सामान्य व्यवहार होता है। लेकिन “अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने” की जो बात मसीह-विरोधी करते हैं वह सामान्य लोगों के समान बात नहीं है। मसीह-विरोधियों के मामले में इसमें गंभीर समस्याएँ हैं; यह पूरी तरह परमेश्वर के कार्य-कलापों, वचनों, सार और स्वभाव विरोधी बात है, ऐसी बात है जिसका संबंध शैतानी स्वभाव सार से है। उनके मामले में यह परमेश्वर के वचनों की निंदा, तिरस्कार और उपहास है। उन्हें लगता है कि परमेश्वर जो साधारण और सुबोध इंसानी भाषा बोलता है वह सत्य नहीं है और यह लोगों को बचाने का उद्देश्य हासिल नहीं कर सकती। “अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने” से मसीह-विरोधियों का जो आशय होता है उसका यही सटीक अर्थ है। तो फिर इसका सार क्या है? हकीकत में यह परमेश्वर की निंदा, उससे इनकार और उसका तिरस्कार है।
मसीह-विरोधियों को लगता है कि जब परमेश्वर मानव जाति का परिप्रेक्ष्य अपना लेता है, जो एक तीसरे पक्ष का परिप्रेक्ष्य है, और लोगों से बात करने के लिए इंसानी शैलियों, संरचना और लहजे का उपयोग करता है तो इन शब्दों में पर्याप्त गहराई नहीं होती, ये परमेश्वर के वचन कहलाने लायक नहीं होते, इसलिए वे मर जाएँगे पर इन्हें स्वीकार नहीं करेंगे। कुछ लोग कहते हैं, “तुम कहते हो कि वे इन्हें स्वीकार नहीं करते मगर वे भी परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हैं, कभी-कभी उनमें आध्यात्मिक भक्ति होती है और कभी-कभी जब वे हमारे साथ संगति करते हैं तो परमेश्वर के वचनों की मिसाल भी देते हैं। तुम इसे कैसे समझाओगे?” यह एक अलग मामला है; यह बस सतही बात है लेकिन वास्तव में मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों को इस रूप में परिभाषित करते हैं : “मानव के देहधारी पुत्र के कहे हुए वचन सत्य के बराबर नहीं हो सकते, परमेश्वर के वचन तो बिल्कुल भी नहीं हैं, इसलिए मुझे इन्हें स्वीकारने, खाने-पीने या इनके प्रति समर्पण करने की जरूरत नहीं है।” लेकिन जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसने आत्मा के परिप्रेक्ष्य से, दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से वचनों का जो अंश व्यक्त किया है—संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन—यह ऐसी चीज है जिसे मसीह-विरोधी देख तो सकते हैं मगर उस तक पहुँच नहीं सकते। यह परमेश्वर के वचनों का एक ऐसा अंश है जिसे लेकर वे बहुत जुनूनी होते हैं। इस जुनून का आशय क्या है? इसका आशय इन वचनों पर मसीह-विरोधियों के लार टपकाने से है और वे सोचते हैं, “तुम्हारी वाणी के वास्तव में इसी अंश के कारण तुम, एक तुच्छ, साधारण और मामूली इंसान हमारी नजरों में परमेश्वर बन गए हो। यह बेहद अनुचित है, नाइंसाफी है!” हालाँकि एक पहलू ऐसा है जिसे वे “उत्सव मनाने लायक” पाते हैं। यह ठीक परमेश्वर के वचनों के उस अंश की अभिव्यक्ति की वजह से है कि उनकी स्वर्ग के परमेश्वर की प्रशंसा करने और उस पर श्रद्धा रखने की उनकी इच्छा और महत्वाकांक्षा पूरी हो जाती है। यह उनके लिए एक नया क्षितिज खोल देता है और वे कहते हैं, “वाह, परमेश्वर वास्तव में परमेश्वर है! यह तीसरे स्वर्ग का सबसे महान परमेश्वर है। वह वास्तव में परमेश्वर होने के योग्य है; ऐसे वचन बोलना इतनी सरल उपलब्धि नहीं है। एक भी वाक्य को मनुष्य समझ नहीं सकते, ये वचन बहुत गहन हैं, पैगंबरों की भविष्यवाणियों से भी ज्यादा गहन!” हर बार जब भी मसीह-विरोधी इन वचनों को पढ़ते हैं, उनके हृदय ईर्ष्या और जलन से भर उठते हैं, स्वर्ग के परमेश्वर के लिए सराहना से भर उठते हैं। हर बार जब भी वे इन वचनों को पढ़ते हैं तो उन्हें लगता है कि एक वही हैं जो परमेश्वर से सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं; हर बार जब भी वे ये वचन पढ़ते हैं तो उन्हें लगता है कि वही लोग परमेश्वर के सबसे निकट हैं। ये वचन परमेश्वर के बारे में उनकी जिज्ञासा को सबसे ज्यादा हद तक संतुष्ट करते हैं। भले ही परमेश्वर की वाणी के इस अंश में वे यह बिल्कुल भी नहीं समझ पाते कि परमेश्वर के इरादे क्या हैं, परमेश्वर के कहे प्रत्येक वाक्य का संदर्भ क्या है, इनका अंतिम प्रभाव क्या होना चाहिए या इनका निहितार्थ क्या है, फिर भी वे परमेश्वर के वचनों के इस हिस्से का बहुत उत्सुकता से इंतजार करते हैं। क्यों? वह इसलिए कि यह हिस्सा समझने में कठिन है, इसमें मानवता की वह भावना नहीं होती जो देहधारी परमेश्वर में दिखाई देती है, यह मानवता के परिप्रेक्ष्य से या तीसरे-पक्ष के परिप्रेक्ष्य से नहीं कहा जाता है। इस हिस्से में उन्हें परमेश्वर की महानता दिखाई देती है, उसकी अगाधता दिखाई देती है और वे उसे एक ऐसी चीज के रूप में देखते हैं जिसे वे देख तो सकते हैं लेकिन उस तक पहुँच नहीं सकते। जितना ज्यादा ऐसा होता है, उतना ही ज्यादा वे यह मानते हैं कि स्वर्ग के परमेश्वर का अस्तित्व होता है और यह कि पृथ्वी का परमेश्वर बहुत ही तुच्छ है, कि उसमें विश्वास करना मुश्किल है और वह विश्वास के योग्य नहीं है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि कुछ लोगों ने परमेश्वर के वचनों के इसी हिस्से कारण उसका अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया है। कुछ लोग खास इन्हीं वचनों के कारण परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य में उतरे हैं और कुछ लोग उसके वचनों के इसी हिस्से के पूर्ण होने का इंतजार कर रहे हैं। इतना ही नहीं, इन वचनों के जरिए कुछ लोगों ने स्वर्ग के परमेश्वर के अस्तित्व की पुष्टि कर दी है और इस प्रकार वे पृथ्वी के परमेश्वर की विनम्रता और तुच्छता से और भी ज्यादा घृणा करने लगे हैं। वे परमेश्वर के वचनों के इस हिस्से को जितना ज्यादा पढ़ते हैं, उतना ही ज्यादा उन्हें यह लगता है कि पृथ्वी का परमेश्वर, यह देहधारी परमेश्वर अत्यंत उथले ढंग से बोलता है। वे कहते हैं, “तुम्हारे वचन समझने में बहुत ही आसान हैं। तुम कुछ ऐसा क्यों नहीं सुनाते जिसे हम समझ न सकें? तुम कुछ रहस्यों के बारे में बात क्यों नहीं करते? तीसरे स्वर्ग की भाषा क्यों नहीं बोलते? दिव्य भाषा में क्यों नहीं बोलते? हमें भी अपने क्षितिज और अपनी बुद्धि का विस्तार कर लेने दो। अगर तुम इस प्रकार बोलोगे और कार्य करोगे तो क्या हमारी आस्था और अधिक नहीं बढ़ेगी? क्या हम तुम्हारा प्रतिरोध करना बंद नहीं कर देंगे? अगर तुम इस तरह बोलकर हमारी अगुआई करोगे तो क्या तुम्हारा दर्जा और ऊँचा नहीं हो जाएगा? तब हम तुमसे घृणा कैसे कर सकेंगे?” क्या यह कुछ-कुछ अनुचित बात नहीं है? यह निहायत अतार्किक है! क्या विवेकहीन लोगों में सामान्य मानवता होती है, क्या उनमें सामान्य मानवता वाली सोच होती है? (नहीं।) तो क्या इस प्रकार के मसीह-विरोधियों में, परमेश्वर के वचनों पर इस ढंग से प्रतिक्रिया जताने वाले लोगों के इस समूह में सामान्य तार्किकता होती है? (नहीं।) कभी-कभी जब मैं लोगों को बातचीत करते पाता हूँ तो उनसे बात करने में शामिल हो जाता हूँ। लेकिन मैं यह देखकर दंग रह जाता हूँ कि वे ऐसे उदात्त विषयों पर चर्चा करते हैं कि मैं उसमें दखल नहीं दे पाता या बातचीत में शामिल नहीं हो पाता हूँ। वे कहते हैं, “जाहिर है कि तुम इसके लिए नहीं बने हो। तुम तीसरे स्वर्ग की भाषा नहीं बोल सकते। हम तीसरे स्वर्ग की भाषा बोल रहे हैं, जिसे साधारण लोग नहीं समझ सकते। अगर तुम परमेश्वर हो तो भी क्या हुआ? फिर भी तुम समझ नहीं सकते, इसलिए तुम्हें हम अपने समूह में शामिल नहीं होने देंगे।” मुझे बताओ, ऐसी स्थितियों में मुझे क्या करना चाहिए? लोगों को समझदार होना सीखना चाहिए। जब मैं उन्हें तीसरे स्वर्ग की ऐसी उच्च और शक्तिशाली भाषा बोलते सुनता हूँ और खुद मैं उस स्तर तक नहीं पहुँच पाता तो फिर मुझे अपनी हँसी उड़वाने के बजाय वहाँ से सीधे चले जाना चाहिए। कुछ मसीह-विरोधी लोग इन पाखंडों, भ्रांतियों और खोखले अव्यावहारिक शब्दों का खुलेआम प्रचार करते हैं जो स्पष्ट तौर पर शैतान से, महादूत से उत्पन्न होते हैं। वे जो शब्द बोलते हैं वे सुनने में परिष्कृत और उच्च-स्तर के लगते हैं, जो अधिकतर सामान्य लोगों की पहुँच से परे होते हैं। पहुँच से परे होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि जैसे ही तुम इन्हें सुनते हो, तुम्हें पता चल जाता है कि ये शैतानी बातें हैं और तुम्हें इनको अस्वीकार कर देना चाहिए।
अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को अस्वीकार कर देने वाले मसीह-विरोधियों का सार क्या है? क्या तुमने इसे स्पष्ट रूप से देख लिया है? वे तो वास्तव में परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ते तक नहीं हैं। शुरुआत में वे उत्सुकतावश परमेश्वर के वचनों पर सतही ढंग से निगाह डालते हैं। सरसरी निगाह डालने के बाद वे सोचते हैं, “इनमें से ज्यादातर वचन पढ़ने लायक नहीं हैं, इनमें कुछ भी व्यावहारिक, मूल्यवान या सार्थक नहीं है, कुछ भी गहन शोध योग्य नहीं है।” जैसे-जैसे वे पढ़ते जाते हैं, वे इस हिस्से पर पहुँचते हैं संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन। उन्हें लगता है कि इस हिस्से में दिव्य भाषा का जायका है, इसमें ऊँचाई भी है और गहराई भी, यह मनुष्य के अन्वेषण और शोध के लायक है—यह उनकी रुचि को भाता है। अब वे किस चीज के इंतजार में हैं? “इस हिस्से को कौन समझा सकता है? परमेश्वर का इरादा वास्तव में क्या है? परमेश्वर के वचनों के हर अंश का अर्थ क्या है और यह कैसे पूर्ण होगा?” मसीह-विरोधी इन्हीं चीजों का पता लगाना चाहते हैं लेकिन वे इन्हें खुद नहीं समझ सकते। क्या तुम लोगों को लगता है कि उन्हें यह बताना जाना चाहिए? (कोई जरूरत नहीं है।) क्यों नहीं है? क्या दानव परमेश्वर के वचन सुनने लायक हैं? क्या वे परमेश्वर के रहस्य जानने के योग्य हैं? (नहीं।) परमेश्वर के रहस्य उन्हें बताए जाते हैं जो उसमें विश्वास करते हैं, उसका अनुसरण करते हैं और उसके प्रति समर्पण करते हैं, और ये दानवों और शैतानों से छिपे रहते हैं; ये अपात्र हैं। इसलिए अगर एक दिन परमेश्वर अपने वचनों के इस हिस्से के रहस्य और सार बताने के साथ ही इन वचनों का मूल और संदर्भ बताने का फैसला करेगा, तो वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को ही बताया जाएगा, उन्हें यह बात जानने दी जाएगी मगर शैतानों और दानवों को कभी नहीं। अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण करने वाले हो और इतने खुशकिस्मत हो कि अंत तक कायम रह सको तो फिर परमेश्वर के वचनों के इस हिस्से की विषयवस्तु समझने का अवसर तुम्हें मिलेगा। परमेश्वर के वचनों में अनेक रहस्य हैं और उसके कार्य में भी हैं। उदाहरण के लिए, परमेश्वर का वर्तमान देहधारण; भले ही—कमोबेश और न्यूनाधिक रूप से—इसके बारे में बाइबल में और पहले के पूर्वकथनों में कुछ अस्पष्ट-सी भविष्यवाणियाँ हैं लेकिन ये सारी भविष्यवाणियाँ काफी गुप्त हैं। परमेश्वर का वर्तमान देहधारण पूरी मानव जाति में और छह हजार साल की पूरी प्रबंधन योजना के दौरान सबसे बड़ा रहस्य और सबसे गुप्त मामला है। मनुष्य नहीं जानते, फरिश्ते नहीं जानते, परमेश्वर की सारी सृष्टियाँ नहीं जानतीं; यहाँ तक कि शैतान भी, जो सबसे सक्षम है, इस मामले के बारे में नहीं जानता है। शैतान क्यों नहीं जानता? अगर परमेश्वर उसे बताना चाहता तो क्या उसके लिए जानना बहुत ही आसान नहीं होता? तो फिर वह क्यों नहीं जानता? एक बात तय है : परमेश्वर नहीं चाहता कि शैतान इस बारे में जाने। भले ही इस बारे में कई संकेत, कई भविष्यवाणियाँ और कई तथ्य इशारा कर रहे हैं, इसके घटित होने का उल्लेख और पूर्वघोषणा कर रहे हैं लेकिन जब तक परमेश्वर नहीं चाहता इसके बारे में शैतान कभी नहीं जान पाएगा। यह एक तथ्य है। परमेश्वर जब चाहेगा कि शैतान इसे जाने तो तब वह उसे सीधे तौर पर बता देगा। अगर परमेश्वर उसे नहीं बताता और इस बारे में नहीं बोलता तो भले ही ये तथ्य और भविष्यसूचक बातें प्रकट हो जाएँ, परमेश्वर उसे अंधा कर सकता है और वह इस बारे में नहीं जान पाएगा। क्या शैतान में बहुत बड़ी क्षमता है? इसे इस ढंग से देखा जाए तो नहीं है। जब परमेश्वर के देहधारण जैसे महत्वपूर्ण कार्य की बात हो रही हो तो क्या इसके कुछ न कुछ संकेत मानवीय दुनिया में, भौतिक दुनिया में या फिर आध्यात्मिक जगत में नहीं मिलेंगे? अगर इन सारे संकेतों पर कुल नजर डाली जाए तो परमेश्वर यह जो कार्य करना चाहता था उसे देखना आसान होगा। तो फिर शैतान इसके बारे में क्यों नहीं जानता? बड़े लाल अजगर के राष्ट्र में परमेश्वर के इतने अधिक वर्षों तक कार्य करते रहने के बावजूद वह परमेश्वर द्वारा किए गए इस कार्य की अहमियत क्यों नहीं समझता है? उसे जब तक इसका एहसास होता है तब तक यह कार्य पहले ही पूरा हो चुका होता है, शैतान इसमें दखल नहीं दे पाता और इस कार्य के नतीजे और फल पहले ही तय हो चुके होते हैं। क्या तब तक शैतान के लिए सत्य ढूँढ़ने में थोड़ी देर नहीं हो जाती? क्या इससे यह कहावत पूरी नहीं हो जाती कि “परमेश्वर के हाथों में शैतान हमेशा एक पराजित शत्रु रहेगा”? बिल्कुल यही बात है। मसीह-विरोधी भ्रमित होकर यह मान बैठते हैं कि अगर परमेश्वर के वचन मानवीय धारणाओं या रुचियों के अनुरूप नहीं होते तो वे उन्हें अस्वीकार कर सकते हैं और परमेश्वर तब परमेश्वर नहीं रह जाता। उन्हें लगता है कि परमेश्वर का देहधारण कुछ भी सार्थक उपलब्धि हासिल नहीं कर सकता, न ही यह तथ्य बन सकता है। क्या यह एक भयंकर गलती नहीं है? वे गलत आकलन कर अपने ही जाल में फँस गए हैं। वे अपने ही जाल में क्यों फँस गए हैं? लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर के बोलने और कार्य करने का तरीका ठीक इन्हीं अप्रत्यक्ष वचनों का उपयोग होता है जो मानवीय धारणाओं के अनुरूप नहीं होते या भव्य नहीं लगते। वास्तव में इन्हीं सादे वचनों में निहित विषयवस्तु में परमेश्वर के इरादे समाहित हैं, सत्य, मार्ग और जीवन समाहित है। ये वचन इस भ्रष्ट मानव जाति को बचाने और परमेश्वर की प्रबंधन योजना को परवान चढ़ाने के लिए पर्याप्त हैं। इस बीच जो लोग इन साधारण वचनों की निंदा करते हैं उन्हें हटा दिया जाएगा, उनकी निंदा की जाएगी और उन्हें आखिरकार दंडित किया जाएगा। वे गलत ढंग से यह सोच लेते हैं, “मैं तुम्हारे ये वचन स्वीकार नहीं करूँगा, मैं इन्हें कुछ नहीं समझता! तुम्हारे वचन मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं, ये मेरी धारणाओं, दृष्टिकोणों या सोचने के तरीके से मेल नहीं खाते, इसलिए मैं इन्हें अस्वीकार कर सकता हूँ, मैं इनका प्रतिरोध और इनकी निंदा कर सकता हूँ और फिर तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे!” वे गलत हैं। मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के इन वचनों को स्वीकार न करना ही उनका अपने जाल में फँसना है; परमेश्वर ने कभी नहीं चाहा कि वे इन्हें स्वीकार करें, और ऐसा क्यों है? कारण यही है कि वे शैतान के हैं, वे दानवों के हैं। परमेश्वर ने उन्हें बचाने या बदलने की योजना कभी नहीं बनाई; तथ्य यही है। तो फिर अंतिम तथ्य क्या है? मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को अस्वीकार करके, उनकी निंदा करके और उन्हें अस्वीकार करके खुद भी परमेश्वर से निंदा और तिरस्कार पाते हैं। तुम लोगों को इससे क्या समझना चाहिए? परमेश्वर के वचनों का मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप न होना कोई ऐसा कारण नहीं है कि तुम इन्हें स्वीकार न करो। अगर परमेश्वर के वचनों में ऐसे अंश हैं जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं हैं तो इसका यह मतलब नहीं है कि ये वचन सत्य नहीं हैं और यह ऐसा कारण नहीं है कि तुम इन्हें नकार दो। इसके उलट परमेश्वर के वचन जितना ज्यादा तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते, तुम्हें सत्य खोजने के लिए अपनी धारणाओं को उतना ही ज्यादा दरकिनार करना चाहिए। परमेश्वर के वचन जितने ज्यादा तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते, उतने ही ज्यादा वे यह दिखाते हैं कि तुम्हारे पास क्या नहीं है, तुममें क्या कमी है, तुम्हें किस चीज की पूर्ति करने की जरूरत है, और खासकर तुम्हें क्या बदलाव खोजने और किस चीज में प्रवेश करने की जरूरत है। तुम लोगों को यही बात समझनी चाहिए।
मसीह-विरोधी खुद को शानदार, महान और श्रेष्ठ मानते हैं। अगर उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने हों तो वे दिव्य कथन चुनते हैं, तीसरे स्वर्ग के परमेश्वर के बोले हुए वचन चुनते हैं या वे परमेश्वर के कुछ ऐसे गहन वचन पढ़ते हैं जिन्हें समझना और पूरी तरह ग्रहण करना आम और साधारण लोगों के लिए कठिन होता है। परमेश्वर के वचनों में वे सत्य या अभ्यास का मार्ग नहीं चाहते, बल्कि वे इनसे अपना कौतूहल शांत करना चाहते हैं, अपने थोथे विचार और अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी करना चाहते हैं। इसलिए अगर तुम अपने आसपास कुछ लोगों को परमेश्वर के वचनों के अपेक्षाकृत साधारण और समझने में आसान अंशों की तौहीन करते देखते हो, परमेश्वर के उन वचनों की तौहीन करते देखते हो जो मानवता के परिप्रेक्ष्य से कहे गए हैं, या यह देखते हो कि वे इन वचनों को संगीतबद्ध होने पर गाते तक नहीं हैं, बल्कि चुनिंदा ढंग से परमेश्वर के वचनों पर गौर करते हैं, इन्हें सुनते या पढ़ते हैं तो फिर ऐसे लोगों के साथ समस्या है। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “यह किस प्रकार की समस्या है? क्या यह समस्या उनकी सोच में है या यह मानसिक समस्या है?” दोनों में से कोई भी नहीं; समस्या ऐसे लोगों के स्वभाव में होती है। क्या तुम लोगों ने यह गौर किया है कि कुछ लोग परमेश्वर के वचनों के भजन गाते समय दैनिक जीवन से जुड़े सत्यों से संबंधित भजन नहीं गाते, कि वे ऐसे भजन गाने के इच्छुक नहीं होते जो खुद को जानने से जुड़े हों, जो लोगों के भ्रष्ट स्वभावों, धर्मसंबंधी धारणाओं और परमेश्वर में विश्वास के गलत विचारों को उजागर करते हों, साथ ही वे ऐसे भजन गाने के इच्छुक भी नहीं होते जिनमें परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा करता है? खासकर जिन भजनों में परमेश्वर के देहधारण से जुड़े वचन और विषयवस्तु होते हैं, जो परमेश्वर की विनम्रता और अदृश्यता की गवाही देते हैं, जो परमेश्वर के देहधारण की प्रशंसा करते हैं और गवाही देते हैं, वे इनका एक भी शब्द नहीं गाएँगे और जैसे ही कोई और इन्हें गाने लगता है, वे बिदकने लगते हैं। लेकिन जब वे स्वर्ग के परमेश्वर की, परमेश्वर के आत्मा की गवाही देने और स्तुति करने वाले भजन गाते हैं, ऐसे भजन गाते हैं जो परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव, उत्कृष्टता, कर्मों, प्रशासनिक आदेशों और कोप की गवाही देते हैं तो वे इन्हें अत्यधिक उत्साह के साथ गाते हैं और ऐसे हाव-भाव भी प्रकट करते हैं जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता है। ऐसे भजन गाते समय वे अजीब-से बन जाते हैं; उनका चेहरा-मोहरा ऐंठ जाता है और उनकी बुरी चाल-ढाल सामने आ जाती है। परमेश्वर के धार्मिक और प्रतापी स्वभाव के बारे में गाते समय वे जोर-जोर से मेज पीटकर और पैर पटककर आवेश में आ जाते हैं; जब परमेश्वर का कोप प्रकट होने और मानव जाति पर भयंकर आपदाएँ आने का उल्लेख होता है तो वे दाँत पीसकर गाते हैं और उनके चेहरे तमतमाकर फूल जाते हैं। क्या ऐसे लोगों के आत्मा के साथ कोई समस्या तो नहीं है? उदाहरण के लिए, परमेश्वर कहता है, “जब मैं अपना कोप प्रकट करूँगा तो मुल्क के मुल्क हिल उठेंगे”; इस कथन को लयबद्ध करने के बाद यह प्रथम पुरुष से बदलकर उत्तम पुरुष बन जाता है, “जब परमेश्वर अपना कोप प्रकट करेगा तो मुल्क के मुल्क हिल उठेंगे”। सामान्य मानसिकता यह होती है कि ये परमेश्वर के वचन हैं, कि यह परमेश्वर के वचनों के गायन के जरिए उसके स्वभाव को समझना है और यह परमेश्वर के स्वभाव को और परमेश्वर के बोलने के पीछे की मानसिकता और संदर्भ को एक तीसरे-पक्ष, मानवीय परिप्रेक्ष्य से समझना है। सामान्य मानवता की समझ और प्रतिक्रिया यही होती है। लेकिन मसीह-विरोधी इसे कैसे गाते हैं? वे इसे उत्तम पुरुष में नहीं बदलते मगर उनकी मानसिकता सामान्य लोगों से अलग होती है। जब सामान्य लोग भजन में “परमेश्वर” गाते हैं तो उन्हें लगता है, “ये परमेश्वर के कर्म हैं, परमेश्वर के वचन हैं; परमेश्वर यही कहता है।” लेकिन जब मसीह-विरोधी गाते हैं तो तब क्या होता है? उनकी यह मानसिकता होती है, “यह मैंने किया है, मैंने कहा है, यह कोप मैं प्रकट करूँगा, यह स्वभाव मैं प्रकट करूँगा।” क्या यह अलग नहीं है? भले ही वे सबके सामने खुलेआम यह गाने की हिम्मत नहीं करते कि “जब मैं अपना कोप प्रकट करूँगा तो मुल्क के मुल्क हिल उठेंगे” लेकिन वे मन-ही-मन ऐसा ही गाते हैं। उन्हें लगता है कि वे खुद ही यह कोप प्रकट कर मुल्क के मुल्क हिला रहे हैं, इसलिए वे इन शब्दों को सच्चे जज्बात के साथ गाते हैं। क्या यह उनकी आंतरिक समस्या को नहीं दिखाता है? शुरुआत से अंत तक मसीह-विरोधियों का परमेश्वर को न मानने का कारण यह होता है कि वे खुद परमेश्वर बनना चाहते हैं। वे परमेश्वर को नकार कर खुद को स्थापित करना चाहते हैं, वे लोगों को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि वे परमेश्वर हैं और उन्हें मानव जाति का परमेश्वर माना जाए। बिल्कुल यही बात है। इसलिए परमेश्वर के वचनों का वह अंश पढ़ते हुए जहाँ वह अपनी दिव्यता में बोलता है, सामान्य मानवता की समझ वाले लोग इसे उत्तम-पुरुष के परिप्रेक्ष्य से समझते-बूझते और इसका प्रार्थना-पाठ करते हैं और परमेश्वर के इरादों पर विचार करते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी अलग होते हैं। जब वे इन वचनों को गाते या पढ़ते हैं तो वे अपने अंदर ऐसी उत्कंठा अनुभव करते हैं कि वे खुद भी ऐसा स्वभाव व्यक्त करें, ऐसे स्वभाव और सार के भीतर जिएँ। वे परमेश्वर के बोलने के लहजे, तरीके, उच्चारण-शैली और उसके कथनों के भीतर स्वभाव, उसकी वाणी के लहजे, उसकी सभी अभिव्यक्तियों, और वह जो स्वभाव प्रकट करता है उनकी नकल करने का प्रयास कर परमेश्वर का स्थान लेने के लक्ष्य पर निगाह गड़ाए रखते हैं। वे कट्टर मसीह-विरोधी होते हैं। चूँकि वे परमेश्वर की तरह नहीं बोल सकते, परमेश्वर का स्वभाव व्यक्त नहीं कर सकते और नकल करने में नाकाम रहते हैं, इसलिए जब परमेश्वर अपनी दिव्यता में बोलता है तो आखिरकार मसीह-विरोधियों को परमेश्वर की नकल करने और परमेश्वर बनने का प्रयास करने का मौका मिल जाता है। परमेश्वर की दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से उसके कथनों से संकेत और दिशा पाकर मसीह-विरोधी यह जान लेते हैं कि परमेश्वर कैसे बोलता है, मनुष्य को संबोधित करने के लिए वह कैसा लहजा, कैसा तरीका, परिप्रेक्ष्य और स्वर-शैली इस्तेमाल करता है। परमेश्वर की दिव्यता में कहे गए उसके वचनों को सँजोने और इनकी आराधना करने के पीछे मसीह-विरोधियों का एक उद्देश्य यह भी होता है। इसलिए दैनिक जीवन में अक्सर यह देखने में आता है कि कुछ लोग परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति या भाई-बहनों के जीवन के प्रति जिम्मेदार बनने के बहाने दूसरे लोगों को नसीहतें देने के लिए परमेश्वर के लहजे की नकल करते हैं। वे तो लोगों को नसीहत देने, उनकी निंदा, काट-छाँट करने और उन्हें उजागर करने के लिए परमेश्वर के वचनों को शब्दशः उद्धृत भी करते हैं। जब कई तथ्यों के मूलाधार और संदर्भ से जाँच की जाती है तो उनके कार्यों के पीछे का उद्देश्य वास्तव में वफादारी, न्याय की भावना या जिम्मेदारी से नहीं उपजता—इसके बजाय वे परमेश्वर के कार्य को परमेश्वर के दर्जे और परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से करने का प्रयास करते हैं और परमेश्वर का स्थान लेने का लक्ष्य रखते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “उन्होंने तो कभी नहीं कहा कि वे परमेश्वर की जगह लेना चाहते हैं।” उन्हें ऐसा कहने की जरूरत नहीं है; उनके कार्यों के सार, मूलाधार और प्रेरणा को देखने मात्र से कोई भी यह बात बता सकता है; यह तय किया जा सकता है कि यह किसी मसीह-विरोधी का विघ्न डालना है और उसका तरीका है। चाहे जो अभिव्यक्ति हो, परमेश्वर बनने की कामना हो, इस मंशा को किसी भी सूरत में पाले रखना—क्या सामान्य मानवता वाली समझ के व्यक्ति को यही करना चाहिए? (नहीं।) क्या अकेले इसी आधार पर ऐसे व्यक्ति को मसीह-विरोधी ठहराया जा सकता है? (हाँ।) अकेला यही बिंदु काफी है। तुम्हारा आध्यात्मिक कद चाहे कितना ही बड़ा हो, अगर तुम हमेशा परमेश्वर बनना चाहते हो और बेतहाशा परमेश्वर की नकल कर रहे हो, दूसरों से माँग करते हो कि वे तुम्हें परमेश्वर मानें और इसी के अनुसार व्यवहार करें, तो ऐसे कार्य-कलाप, व्यवहार और स्वभाव एक मसीह-विरोधी का सार होते हैं। अकेला यही बिंदु व्यक्ति को मसीह-विरोधी ठहराने के लिए काफी है। यह कोई एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है, न यह एक मसीह-विरोधी के व्यवहार का संकेत है, बल्कि एक मसीह-विरोधी का सार होने की अभिव्यक्ति है।
मुझे बताओ, किस चीज की प्रकृति ज्यादा गंभीर है : हमेशा परमेश्वर बनने की चाह या हमेशा रुतबा पाने की महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ? (परमेश्वर बनने की चाह।) लोगों में महत्वाकांक्षाएँ और अहंकारी स्वभाव होते हैं और उन्हें रुतबा जमाना, कभी-कभी इस रुतबे के फायदे उठाना और इसे सँजोना पसंद होता है—यह एक भ्रष्ट स्वभाव है और यह बदल सकता है। हालाँकि परमेश्वर बनने की चाह, परमेश्वर के बोलने के लहजे की नकल करना, परमेश्वर के बोलने के तरीके की नकल करना और यहाँ तक कि परमेश्वर के वचनों को पूरी तरह उद्धृत करना, उन्हें शब्दशः सुनाकर दूसरों को इस भुलावे में डालना कि कोई व्यक्ति बिल्कुल परमेश्वर की तरह बोल और कार्य कर सकता है, उनके बोलने का लहजा और तरीका परमेश्वर के इतना समान होता है, अंततः लोगों को गलत ढंग से यह विश्वास दिलाना कि वे परमेश्वर ही हैं या बिल्कुल परमेश्वर जैसे हैं, और कुछ तो उनके साथ परमेश्वर जैसा व्यवहार करने लगते हैं—यह समस्याजनक है; यह लाइलाज मुद्दा है, एक लाइलाज बीमारी है। क्या परमेश्वर बनने की चाह कोई तुच्छ मामला है? परमेश्वर की पहचान उसके सार से तय होती है। जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसका सार और स्वभाव उसके व्यक्तिगत प्रयासों से हासिल नहीं होता, न ही यह समाज, राष्ट्र, मानव जाति या किसी व्यक्ति के जरिए विकसित होता है, यहाँ तक कि यह स्वयं परमेश्वर के जरिए भी विकसित नहीं होता। बल्कि परमेश्वर में परमेश्वर का सार जन्मजात होता है। उसे इंसानी मदद या सहयोग नहीं चाहिए, न ही उसे परिवेश या लौकिक बदलावों की दरकार होती है। परमेश्वर के पास परमेश्वर के रूप में अपनी पहचान है, इसलिए उसका सार बहुत समय पहले पूर्वनियत हो चुका है; यह कुछ जन्मजात होता है। सत्य को व्यक्त करने की उसकी योग्यता ऐसी चीज नहीं है जो उसने इंसानों से सीखी हो, न ही यह ऐसी चीज है जो इंसानों ने विकसित की है। मसीह-विरोधी इस बात को समझने में पूरी तरह विफल रहते हैं। वे मूर्खतापूर्ण ढंग से यह मान बैठते हैं कि अगर वे परमेश्वर के बोलने के लहजे और तरीके की इतनी अच्छी तरह नकल कर लें कि लोग उन्हें और अधिक परमेश्वर-समान मानने लगें तो फिर उनमें परमेश्वर बनने की पात्रता है। यही नहीं, उन्हें लगता है कि वे लोगों को कुछ खोखले, अव्यावहारिक और अबूझ तथाकथित “परमेश्वर के वचन” सुनाकर अँधेरे में रख और चकरा सकते हैं और इससे शायद लोग उन्हें परमेश्वर मानने लगें और उन्हें परमेश्वर बनने का मौका मिल जाए। क्या यह खतरनाक मामला नहीं है?
मसीह-विरोधियों के मन में परमेश्वर बनने की इच्छा और महत्वाकांक्षा हमेशा मचलती रहती है। एक ओर वे परमेश्वर के वचनों को अस्वीकार कर उनकी निंदा करते हैं, तो दूसरी ओर वे उसके बोलने के लहजे की नकल भी करते हैं। यह कैसा घिनौना, दुष्ट, बेशर्म और नीच कृत्य है! वे परमेश्वर बनने की इच्छा से आसक्त और पगलाए रहते हैं। क्या यह घृणास्पद नहीं है? (हाँ, है।) क्या तुम लोगों में से कोई परमेश्वर बनने की इच्छा पालता है? जो कोई परमेश्वर बनना चाहता है, उसकी निंदा होगी! जो कोई भी परमेश्वर बनना चाहता है, नष्ट हो जाएगा! यह तथ्य है, कोई अतिशयोक्ति या तुम्हें डराने की कोशिश नहीं है। तुम्हें यकीन नहीं होता? तो आजमा कर देख लो। इस दिशा में सोचो, फिर इस पर अमल करो और फिर देखो कि क्या तुम इसे आंतरिक रूप से झेल सकते हो, देखो कि अंदर से कैसा महसूस होता है। अगर ऐसे कार्य-कलापों से तुम्हें अंदर से खुशी, गौरव और संतुष्टि मिलती है तो फिर तुम बेकार हो, और तुम खतरे में हो। लेकिन इस तरह के कार्य-कलाप से अगर तुम्हें आत्म-ग्लानि होती है, अपराध-बोध होता है, दूसरे लोगों या परमेश्वर का सामना करने में लज्जित होते हो, तो फिर तुममें थोड़ा-सा जमीर बचा है, सामान्य मानवता की थोड़ी-सी तार्किकता बची है। परमेश्वर बनने की आकांक्षा बहुत-से लोगों में होती है। परमेश्वर के देहधारण को समझे बिना, परमेश्वर की वाणी का लहजा और तरीका जाने बिना, इस जानकारी को समझे बिना हो सकता है कि उनकी इस विचार में रुचि हो और उनकी महत्वाकांक्षाएँ और योजनाएँ हों, लेकिन आगे बढ़ने का रास्ता पता न होने के कारण उनमें अंधाधुंध ढंग से कार्य करने का साहस नहीं होता। बहुत हुआ तो वे आध्यात्मिक होने, बचाए जाने, पवित्र होने या उद्धार के योग्य होने का दिखावा करते हैं। लेकिन जैसे ही वे परमेश्वर के बारे में कुछ जानकारी जुटाते हैं, उनकी महत्वाकांक्षाओं के अंकुर फूटने लगते हैं और वे कार्य करना शुरू कर देते हैं। वे क्या करते हैं? उनकी एक स्पष्ट अभिव्यक्ति यह होती है कि वे परमेश्वर के गहन और अथाह वचनों को अधिकाधिक पढ़ते हैं। इन वचनों में वे परमेश्वर की वाणी के रवैये, तरीके, लहजे और उच्चारण-शैली से परिचय करते हैं और फिर इनका गहराई से अध्ययन करते हुए खुद इनकी नकल करने की कोशिश करते हैं। वे जितना अधिक परिचित होते जाते हैं, उनके लिए उतना ही अच्छा रहता है, इस हद तक कि वे आँख मूँदकर भी परमेश्वर के बोलने का लहजा और तरीका भाँप सकें। वे इन्हें चाव से याद कर लेते हैं और लगे हाथ लोगों के बीच इनका अभ्यास और पूर्वाभ्यास करते हैं, और फिर अपने बोलने में इस शैली, तरीके, लहजे और उच्चारण-शैली की नकल कर वे गहराई से यह अनुभव करते हैं कि क्या इस तरह से कार्य करना और बोलना उन्हें परमेश्वर होने की अनुभूति कराता है। जब वे और अधिक अभ्यास करना सीखकर इसमें कुशल हो जाते हैं तो वे अनजाने में ही खुद को परमेश्वर के पद पर बैठा देते हैं। फिर एक दिन अचानक कोई कहता है, “उनके बोलने की भावना और लहजा परमेश्वर के समान लगता है। उनसे बात करना परमेश्वर के साथ होने जैसा लगता है; उनके शब्दों में परमेश्वर की वाणी की रंगत होती है।” अनजाने में ही ऐसी टिप्पणियाँ सुनकर उनके दिल असीम संतुष्टि से भर जाते हैं, उन्हें लगता है कि आखिरकार उनकी इच्छा पूरी हो गई है और अंततः वे परमेश्वर बन गए हैं। क्या अब उनका काम तमाम नहीं हो गया है? जब चलने के लिए दूसरे रास्ते हैं तो फिर विनाश का रास्ता क्यों चुना जाए? क्या यह मृत्यु की तलाश नहीं है? ऐसे विचार पालना भी खतरनाक है—इन विचारों को कार्यरूप देना तो और भी खतरनाक है। अगर किसी के कार्य नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं और वे अंत तक इसी दिशा में चलते रहते हैं, अगर इसमें सफल होने और इसे हकीकत में बदलने के लिए अड़े रहते हैं तो वे पूर्ण विनाश का निशाना बन जाते हैं। कुछ मसीह-विरोधी लोग वास्तव में इसी दिशा में कार्य और कोशिश करते रहते हैं। क्या तुम लोगों ने ऐसे लोग देखे हैं या तुम उनके संपर्क में आए हो? (जब मैं मुख्य भूमि चीन में था तो मैं एक ऐसी स्त्री से मिला जो परमेश्वर के बोलने के लहजे की नकल करती थी और अक्सर परमेश्वर होने का ख्याल पाले रहती थी। उस समय दो-तीन लोग उसे परमेश्वर मानते थे और एक व्यक्ति तो उसे देखकर उसके सामने झुककर दंडवत भी करता था।) कोई व्यक्ति चाहे जिस हद तक परमेश्वर बनने की कोशिश करे, यहाँ से आगे रास्ता बंद होता है। क्या तुम लोग इसकी असलियत समझ चुके हो? मानव जाति के लिए परमेश्वर के समस्त वचनों की अभिव्यक्तियों और पोषण का उद्देश्य लोगों को परमेश्वर के इरादे समझने में और इस तरह से उद्धार पाने में मदद करना होता है। अगर लोग भूलवश यह मान लेते हैं कि ये संदेश परमेश्वर ने व्यक्त किए हैं, इसलिए इनसे परमेश्वर बनने के ब्योरे जुटाने चाहिए और इस प्रकार परमेश्वर होने, परमेश्वर की नकल करने और परमेश्वर बनने का अनुसरण करना चाहिए, तो समझो उनके लिए सब कुछ खत्म हो चुका है। यह विनाश का मार्ग है; तुम्हें यह नकल कभी नहीं करनी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर की नकल न करना थोड़ा-सा कठिन है। हर बार जब भी मैं परमेश्वर को बोलते सुनता हूँ तो मुझे लगता है कि परमेश्वर की पहचान के साथ बोलना कितना गरिमापूर्ण और प्रभावशाली लगता है। यह सुनने में इतना सुखद और मोहक क्यों लगता है। मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ कि जब परमेश्वर बोलता है तो परमेश्वर होना इतना अच्छा लगता होगा? जब परमेश्वर की पहचान के साथ व्यक्ति बोलता है तो सुनने में बहुत अलग लगता है।” इस प्रकार अनजाने में ही वे परमेश्वर के लहजे और उच्चारण-शैली की कुछ-कुछ नकल करने लगते हैं। भले ही अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं में वे शायद परमेश्वर न बनना चाहते हों या इतने स्पष्ट ढंग से परमेश्वर न बनना चाहते हों, लेकिन उनकी नकल की जड़ें कहाँ हैं? क्या इसका यह कारण है कि वे सत्य और परमेश्वर के वचनों को सँजोते हैं? (नहीं।) तो फिर बात क्या है? (यह परमेश्वर बनना चाहने की मंशा से उपजता है।) अगर मेरे पास यह पहचान या रुतबा न होता और मैंने ये वचन कहे होते तो क्या कोई मेरी नकल करता? तब कोई मेरी परवाह न करता, न कोई मेरे बारे में उच्च विचार रखता; क्या यही तथ्य नहीं है? जब मेरे पास यह पहचान और रुतबा नहीं था तो मैं भी लोगों के साथ बातचीत और संगति करता था। तब कौन मुझे गंभीरता से लेता था? जैसे ही उन्होंने देखा कि मैं युवा हूँ, मेरे पास उच्च शिक्षा या योग्यताएँ नहीं हैं, मेरा कोई सामाजिक रुतबा नहीं है तो वास्तव में न तो मेरी अपनी कलीसिया या किसी और कलीसिया के किसी व्यक्ति ने मुझे गंभीरता से लिया, न ही मेरे साथ अपना कर्तव्य निभाने वाले या बातचीत करने वाले लोगों में से किसी ने मुझे गंभीरता से लिया। भले ही मैंने सही और ईमानदार बातें की हों, किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। क्यों? पहचान और रुतबे के बिना तुम्हारी उपस्थिति का महत्व नहीं होता; तुम जो कुछ कहते हो वह मायने नहीं रखता, फिर चाहे वह सही या सत्य ही क्यों न हो। ऐसा भी हो सकता है कि तुम जो कुछ कहते हो, उसे पूरी तरह गलत ठहराकर लोग नकार दें। तब क्या कोई तुम्हारी नकल करेगा? तुम एक बहुत ही औसत और साधारण व्यक्ति ठहरे, जिसकी न पहचान है न ही रुतबा—तुम्हारी नकल करने की फिक्र कौन करेगा? लोगों की नजरों में ऐसे व्यक्ति की न कोई उपस्थिति होती है, न ही वह सराहने लायक होता है; अगर वे तुम्हारे साथ दादागीरी नहीं करते तो समझो तुम किस्मतवाले हो। तुम्हारी नकल करने का फायदा ही क्या होगा? क्या वे तुम्हारी नकल सिर्फ इसलिए करेंगे कि दूसरे लोग उन्हें नीचा दिखा सकें, उन पर धौंस जमा सकें और उनसे भेदभाव कर सकें? लोग किसकी नकल करते हैं? वे उन्हीं की नकल करते हैं जो उनकी नजरों में उपस्थिति और शान रखते हैं, जिनका रुतबा और पहचान होती है। लोग ऐसे ही व्यक्तियों की नकल करते हैं। कोई व्यक्ति जैसे ही कुछ पहचान और रुतबा हासिल करता है तो वह बिल्कुल पहले जैसी बातें करने पर भी दूसरों की नजरों में अलग कैसे दिखने लगता है? अचानक कैसे उनकी उपस्थिति नजर आने लगती है और वे अनुकरणीय लगने लगते हैं? लोग वास्तव में किस चीज की नकल कर रहे होते हैं? वे जो चीजें स्वीकार करते हैं, जिनकी नकल करते हैं और जिन्हें पसंद करते हैं, वे सत्य या सकारात्मक चीजें नहीं होतीं, बल्कि वे बाहरी शानो-शौकत और सतही रुतबा होता है? क्या ऐसा नहीं है? अगर मेरी कोई पहचान या कोई रुतबा न होता तो मैं सत्य के अनुरूप चाहे कितना ही बोलता या कितने ही आध्यात्मिक वचन सुनाता, क्या ये वचन तुम लोगों के बीच फैल पाते? नहीं; इनकी कोई परवाह न करता। लेकिन एक बार मेरी पहचान बन जाती है और मेरा रुतबा बन जाता है तो मेरे कुछ वचन जो मैं अक्सर कहता हूँ, मेरी आम बोलचाल की भाषा, मेरी उच्चारण-शैली, मेरा बोलने का ढंग और शैली—बहुत-से लोग इनकी नकल करने लगते हैं। यह सुनकर मुझे घिन आती है। कितनी घिन आती है? यह सुनकर मुझे मिचली आने जैसा लगता है। जो भी मेरी नकल करता है उससे मुझे घिन आती है, जो भी मेरी नकल करता है उससे मुझे उबकाई आती है, इस हद तक कि मैं उनकी निंदा करने लगता हूँ! इन चीजों की नकल करने के पीछे लोगों का इरादा और उद्देश्य क्या होता है? यही कि परमेश्वर की वाणी के लहजे की नकल करना, परमेश्वर जैसा होने के अनुभव का मजा लेना; क्या यह तथ्य नहीं है? इसका संबंध रुतबे की चाह से है, रुतबेदार पद पर रहकर बात करने से है, इसका संबंध पहचान और रुतबे वाले किसी व्यक्ति के लहजे और तौर-तरीके से बोलने और कार्य करने से है, ऐसा दिखने से है कि उनके पास भी रुतबा, पहचान और योग्यता है—क्या यह सब बस इतना ही नहीं है? अगर तुम किसी साधारण व्यक्ति की नकल करते हो तो यह कोई बड़ी बात नहीं है; बहुत हुआ तो यह सिर्फ अहंकारी स्वभाव होता है। लेकिन तुम अगर परमेश्वर के बोलने के लहजे और तरीके की नकल करते हो, तो परेशानी यहीं से शुरू होती है। मैं तुम्हें बता देता हूँ, तुम एक बारूदी सुरंग पर पाँव रख रहे होगे।
परमेश्वर के वचनों में एक वाक्यांश यह है : परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है जो बुराई से बेइंतहा नफरत करता है। “बुराई से बेइंतहा नफरत करने” का क्या अर्थ है? परमेश्वर की पहचान और रुतबा विलक्षण है। परमेश्वर की पवित्रता, धार्मिकता, अधिकार और प्रेम ऐसे गुण हैं जो किसी भी सृजित या असृजित प्राणी में नहीं होते; इनकी नकल करने की कोशिश करना ईशनिंदा है। चूँकि तुममें ये गुण नहीं हैं तो फिर तुम इनकी नकल करने की कोशिश क्यों करोगे? चूँकि तुममें ये गुण नहीं हैं तो फिर तुम परमेश्वर होने की कोशिश क्यों करोगे? नकल करके क्या तुम परमेश्वर होने, परमेश्वर बनने का इरादा नहीं पाल रहे हो? या फिर क्या इसका कारण यह है कि तुम्हें परमेश्वर बहुत पसंद है, कि तुम उसकी सुंदरता और सार से ईर्ष्या करते हो? बिल्कुल भी नहीं; इसके लिए तुम्हारे पास चरित्र और आध्यात्मिक कद नहीं है। तुम सिर्फ परमेश्वर होने की लिप्सा पूरी करना चाहते हो, लोगों से सराहना और सम्मान पाना चाहते हो और यह चाहते हो कि लोग तुमसे परमेश्वर जैसा व्यवहार करें। क्या यह शर्मनाक कृत्य नहीं है? यह अत्यंत शर्मनाक है! नकल करना अपने आप में घृणित कृत्य है, और परमेश्वर बनने की आकांक्षा करना सिर्फ घृणित नहीं है; यह निंदनीय है। इसलिए आज मैं तुम लोगों से पूरी गंभीरता से कह देता हूँ कि मैंने चाहे जो कुछ भी कहा हो, मैंने चाहे जो कुछ भी किया हो, चाहे मैं कोई भी ऐसी बात करता या कहता हूँ जिससे तुम्हारे दिलों में श्रद्धा, ईर्ष्या या जलन पैदा होती हो, एक बात तुम्हें याद रखनी है : मेरी नकल कभी मत करना। तुम्हें नकल करने का इरादा छोड़ देना चाहिए, तुम्हें नकल करने की मानसिकता के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए और परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने से बचना चाहिए। यह एक गंभीर मसला है! एक भ्रष्ट मनुष्य अगर परमेश्वर की वाणी के लहजे, बोलने के तरीके और स्वभाव को एक तुच्छ चीज के रूप में लेता है, मनमाने ढंग से हेरफेर और खिलवाड़ करता है तो यह परमेश्वर के लिए घृणास्पद होता है। अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज कर रहे हो—ऐसा कभी मत करो! भले ही मैं तुम्हें देहधारी परमेश्वर के बोलने के तरीके और लहजे की नकल करते न सुन सकूँ, लेकिन तुम लोगों का ऐसा स्वभाव और विचार हैं सिर्फ इतना जानकर ही मुझे बहुत खीझ होती है। अगर तुम परमेश्वर के आत्मा के लहजे की नकल कर पूरी मानव जाति या जनसाधारण को संबोधित करना चाहते हो, तो क्या तुम लोग अपने लिए मौत नहीं माँग रहे हो? इस बारे में सबको सतर्क रहना चाहिए; ऐसा कभी मत करो! कुछ लोग पूछा करते थे, “परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने का क्या अर्थ होता है?” आज मैं तुम लोगों को एक बात बताता हूँ : परमेश्वर के बोलने के लहजे और ढंग की नकल करना, साथ ही परमेश्वर की पहचान और स्थिति से जुड़ी कई चीजों की नकल करना, फिर चाहे वे बाहरी हों या आंतरिक, यह सब परमेश्वर के स्वभाव के अपमान के दायरे में आता है। तुम लोगों को यह बात पूरी तरह याद रखनी चाहिए और कभी भी ऐसा अपराध नहीं करना चाहिए! अगर तुम यह अपराध कर ही डालते हो लेकिन तुरंत खुद को सुधार सकते हो, खुद से विद्रोह कर खुद को बदल सकते हो तो अभी उम्मीद बची है। लेकिन अगर तुम लगातार इस राह पर चलते रहे तो तुम्हें मसीह-विरोधी के रूप में चिह्नित कर दिया जाएगा और चलो मैं तुम्हें सच बता दूँ : परमेश्वर की नजर में तब सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होगी—तुम पूरी तरह खत्म हो जाओगे। याद रखो, परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है जो बुराई से बेइंतहा नफरत करता है। तुम्हें परमेश्वर की पहचान और सार से जुड़े हर पहलू को अत्यंत सावधानी से देखना चाहिए और इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। अगर परमेश्वर के बोलने के ढंग और लहजे की नकल कोई भ्रष्ट मनुष्य करता है तो यह परमेश्वर का बहुत बड़ा अपमान और उसकी ईशनिंदा है, यह एक ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता। मनुष्यों को कभी भी यह अपराध नहीं करना चाहिए। क्या तुम समझ रहे हो? अगर तुम यह अपराध करते हो तो मर जाओगे! अगर तुम मेरी बात गौर से नहीं सुनते और मुझ पर यकीन नहीं करते तो इसे आजमाकर देख लो और जब तुम पर सचमुच विपत्ति आ जाए तब मुझे यह दोष मत देना कि मैंने तुम्हें बताया नहीं था।
15 अगस्त 2020