मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह)
III. परमेश्वर के वचनों से घृणा करना
आज हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों से संबंधित इस दसवीं मद पर संगति करना जारी रखेंगे : “वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं” और इसके तीसरे भाग पर ध्यान केंद्रित करेंगे कि वे परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं। पिछली सभा में हमने इस भाग के दो पहलुओं पर संगति की थी। ये दो पहलू कौन-से थे? (एक था, मसीह-विरोधी मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ और उनकी व्याख्या करते हैं। दूसरा था, अपनी धारणाओं के अनुरूप न होने पर परमेश्वर के वचनों को मसीह-विरोधी अस्वीकार कर देते हैं।) दोनों पहलुओं का संबंध मसीह-विरोधियों के परमेश्वर के वचनों से घृणा करने से है। मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों से घृणा करना कई तरीकों से जाहिर होता है; यह उनके सार से जुड़ा है, परमेश्वर के प्रति उनके रवैये से जुड़ा है, और इस बात से जुड़ा है कि वे परमेश्वर से संबंधित सभी पहलुओं को कैसे लेते हैं। परमेश्वर के वचनों की विषयवस्तु का दायरा बहुत व्यापक है, इसलिए मसीह-विरोधियों का परमेश्वर के वचनों से घृणा करना उसके वचनों के प्रति साधारण रवैया नहीं होता है। उसके वचनों से उनके घृणा करने की वजहें एकांगी नहीं, बहु-आयामी होती हैं। पिछली संगति में हमने ऐसी दो खास अभिव्यक्तियों पर संगति की थी कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों से किस प्रकार घृणा करते हैं। आज हम एक अन्य अभिव्यक्ति पर संगति करेंगे।
ग. मसीह-विरोधी यह खोजबीन करते हैं कि परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं
मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं—क्या उन्हें परमेश्वर के कहे पर, उसकी बताई सारी विषयवस्तु पर सच्चा विश्वास होता है? (नहीं।) इस बारे में असली प्रमाण है। वे सचमुच विश्वास नहीं करते, तो फिर इस बारे में उनका क्या रवैया होता है कि परमेश्वर के कहे सारे वचन वास्तविकता से मेल खाते हैं या नहीं, वे सच हो सकते हैं या नहीं, या फिर वे तथ्यात्मक होते हैं या नहीं? क्या वे सचमुच विश्वास करते हैं या वे मन-ही-मन संदेह करते हैं और हिचकते हुए जाँच-परख करते रहते हैं? वे मन-ही-मन पक्के तौर पर संदेह करते हैं और हिचकते हुए जाँच-परख कर रहे होते हैं। मसीह-विरोधियों की यही अभिव्यक्ति आज हमारी संगति का विषय है : वे यह खोजबीन करते हैं कि परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं। “खोजबीन करने” का क्या अर्थ होता है? “खोजबीन करना” वाक्यांश का इस्तेमाल क्यों किया जाए? (हे परमेश्वर, खोजबीन करने का अर्थ है गुपचुप जाँच-परख करना, ताक-झाँक करना।) बुनियादी तौर पर यह अर्थ सही है। अब हर कोई “खोजबीन करने” का अर्थ समझता है; इसका अर्थ है गुप्त रूप से निगरानी करना और हिचकते हुए जाँच-परख करना, दूसरों की जानकारी में आए बिना गुपचुप ढंग से नजर रखना, छिपकर कार्य करना, खुले में आए बिना या दूसरों को नहीं देखने देना; यह तुच्छ चालबाजी है। स्पष्ट है कि जो व्यक्ति यह चालबाजी कर रहा है वह ऐसा सरेआम नहीं, बल्कि चुपके से कर रहा है। लिहाजा इन अभिव्यक्तियों और व्याख्याओं के आधार पर देखें तो जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करते हैं तो यह किस प्रकार का व्यवहार होता है? (सत्य से घृणा करने वाला।) इस बात को कौन-सी चीज स्पष्ट करती है कि यह सत्य से घृणा करना है? मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को खुलकर, उचित कारणों से और सरेआम क्यों नहीं पढ़ सकते? वे खोजबीन क्यों करते हैं? क्या खोजबीन करना वास्तव में एक तरह का क्रिया-कलाप है? व्याख्या से यह स्पष्ट है कि खोजबीन करना ऐसी चीज नहीं है जो खुलेआम की जाए; यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे बाहरी चेहरे-मोहरे, हाव-भाव या क्रिया-कलापों से पहचाना जा सके। बल्कि ये सारे विचार छिपे रहते हैं, दिल में रहते हैं, दूसरे इन्हें नहीं जान पाते और उनकी हाव-भावों और क्रिया-कलापों से यह भेद कर पाना मुश्किल होता है कि वे क्या सोच रहे हैं—इसे ही खोजबीन करना कहते हैं। यह परमेश्वर के वचनों के प्रति एक ऐसा रवैया होता है जो सरेआम खुलकर प्रकट नहीं हो सकता; यह स्पष्ट रूप से गलत रवैया है। यह परमेश्वर के वचनों के साथ एक तीसरे पक्ष के परिप्रेक्ष्य से, शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण से, हिचकभरी निगरानी से, जाँच-पड़ताल, संदेह और विरोध के नजरिए से पेश आना है। इन व्यवहारों के आधार पर क्या यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों का यह खोजबीन करना कि परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं परमेश्वर के वचनों से घृणा करने की अभिव्यक्ति है, जिसकी प्रकृति गंभीर है? (हाँ।) मसीह-विरोधियों का यह खोजबीन करना कि परमेश्वर के वचन सच होंगे या नहीं, उनके स्वभाव और परमेश्वर के वचनों के प्रति उनके सच्चे रवैये को दिखाता है जो उनके दिलों, विचारों और उनकी गुप्त मान्यताओं में प्रकट होता है।
मसीह-विरोधी परमेश्वर के कौन-से वचनों की खोजबीन करते हैं? उनकी दृष्टि में परमेश्वर के कौन से वचन उनके लिए गुप्त, गहन जाँच-पड़ताल और विश्लेषण के योग्य होते हैं? यानी परमेश्वर की सुनाई किस खास विषयवस्तु में मसीह-विरोधियों की विशेष रुचि होती है, जबकि साथ ही वे उस पर अक्सर मन-ही-मन संदेह करते रहते हैं और झिझकते हुए जाँच-परख करते रहते हैं? मसीह-विरोधियों के मतानुसार उनके दिल में परमेश्वर के कौन-से वचन इस योग्य हैं कि वे इनके बारे में खोजबीन करने के लिए समय और ऊर्जा खर्च करें? (परमेश्वर की कुछ भविष्यवाणियाँ, रहस्यों के साथ ही मनुष्य की संभावनाओं, नियति और मंजिल से संबंधित वचन।) भविष्यवाणियाँ, मंजिलें और रहस्य—इन चीजों की ज्यादातर लोग फिक्र करते हैं और उससे भी बढ़कर इन चीजों को मसीह-विरोधी तहेदिल से कभी त्याग नहीं सकते। खासकर परमेश्वर के किन वचनों से मसीह-विरोधी अपेक्षाकृत चिंतित रहते हैं और अक्सर इनकी अपने मन-ही-मन खोजबीन करते रहते हैं? चूँकि इसका वास्ता इस बात से होता है कि ये वचन सच साबित होंगे कि नहीं, ये साकार होंगे कि नहीं, वे उनकी असल उपलब्धि को तथ्य के रूप में देखेंगे कि नहीं, इसलिए मसीह-विरोधियों का वास्ता निश्चित रूप से मानवजाति से किए परमेश्वर के वादों से होता है, है न? (बिल्कुल।) साथ ही, परमेश्वर द्वारा लोगों को शाप और दंड देने से संबंधित वचन, बुरे लोगों को दंड देने और उन सबको दंड देने से संबंधित वचन जो परमेश्वर के वचनों के खिलाफ जाते हैं। और फिर आपदाओं की भविष्यवाणियाँ हैं—क्या यह भी मसीह-विरोधियों की चिंता का विषय नहीं होता? (हाँ, होता है।) इनके अलावा? (परमेश्वर पृथ्वी से कब विदा होगा इससे संबंधित वचन।) परमेश्वर पृथ्वी से कब विदा होगा, परमेश्वर कब महिमा प्राप्त करेगा, परमेश्वर का महान कार्य कब पूरा हो जाएगा, परमेश्वर इस मानवजाति का अंत कब करेगा, है न? (बिल्कुल।) कुल मिलाकर ये कितनी मद हैं? (चार।) एक, मनुष्य को वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचन। दो, मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचन। तीन, आपदा की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचन। चार, परमेश्वर के इस बारे में कहे गए वचन कि वह पृथ्वी से कब विदा होगा और कब उसका महान कार्य पूरा हो जाएगा। और परमेश्वर के वचनों की एक अन्य श्रेणी भी है, सबसे महत्वपूर्ण मद भी है जिसकी खोजबीन करने में मसीह-विरोधी खासे उत्सुक होते हैं, और वह है परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से संबंधित उसके वचन। इस अंतिम श्रेणी को क्यों जोड़ना चाहिए? मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सच साबित होंगे; वे अक्सर परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करते हैं तो फिर मुख्य रूप से किस कारण उनके मन में संदेह उत्पन्न होता है जिससे वे परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करने लगते हैं? बुनियादी बात तो यही है कि परमेश्वर में उनका अविश्वास होता है। मसीह-विरोधी बुनियादी तौर पर छद्म-विश्वासी होते हैं, वे दानव होते हैं; वे परमेश्वर के अस्तित्व पर संदेह करते हैं, वे यह नहीं मानते कि इस संसार में एक परमेश्वर है, वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते, न ही उस सब पर विश्वास करते हैं जो परमेश्वर करता है। इसलिए वे परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को लेकर बेहद संदेह में रहते हैं। उनके संदेह को देखें, तो वे क्या करेंगे? अगर वे परमेश्वर की पहचान और सार पर संदेह कर सकते हैं तो फिर जब परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से जुड़े वचनों की बात आएगी तो क्या वे इन्हें समझे या प्रतिक्रिया दिए बगैर पढ़ भी पाएँगे? क्या वे इन वचनों पर दृढ़ विश्वास कर इन्हें स्वीकार कर सकते हैं? (नहीं।) उदाहरण के लिए, अगर किसी को हमेशा यह संदेह होता रहे कि वह गोद लिया हुआ है तो क्या वह यह विश्वास कर सकता है कि उसके माँ-बाप उसके जैविक माता-पिता हैं? क्या वह यह विश्वास कर सकता है कि उसके माता-पिता का प्यार, सुरक्षा और उसकी संभावनाओं के लिए सारा त्याग सच्चा है? (नहीं।) जब उसे इस सब पर संदेह और अविश्वास होगा तो क्या वह कुछ चीजें चुपचाप नहीं करेगा? उदाहरण के लिए, कभी-कभी वह अपने माता-पिता की बातें गुपचुप ढंग से सुन सकता है ताकि यह देखे कि कहीं वे उसके कुल की चर्चा तो नहीं कर रहे हैं। वह आम तौर पर इस बात पर बारीकी से ध्यान देगा और अपने माता-पिता से आए दिन पूछताछ करेगा कि वह कहाँ जन्मा था, उसे किसने जन्म दिया था और जन्म के समय उसका वजन क्या था—वह हमेशा इन चीजों के बारे में पूछता रहेगा। अगर उसके माता-पिता उसे पीटते या अनुशासित करते हैं तो उसका संदेह और गहराता जाएगा। उसके माता-पिता चाहे जो करें, वह हमेशा सावधान रहेगा और शक करता रहेगा। माता-पिता उसके साथ चाहे जितनी अच्छी तरह पेश आएँ, उसके दिल में बैठा अविश्वास नहीं हटेगा। तो क्या यह सारा अविश्वास, ये सारी आंतरिक गतिविधियाँ, विचार और रवैये गुपचुप नहीं घट रहे हैं? जब उनके मन में अपने माता-पिता के जैविक होने या न होने का शक बैठ जाता है तो यह तय है कि वह कुछ न कुछ चीजें गुपचुप ढंग से जरूर करेगा। लिहाजा मसीह-विरोधियों का सार चूँकि छद्म-विश्वासियों वाला होता है, वे यकीनन परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार में न तो विश्वास करते हैं, न ही इसे मानते या स्वीकार करते हैं। इस छद्म-विश्वास, अस्वीकृति और अस्वीकार युक्त रवैये के साथ क्या वे वास्तव में परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से जुड़े वचनों पर विश्वास करेंगे और इन्हें अपने दिल से स्वीकार करेंगे? कतई नहीं। जहाँ तक इसका संबंध परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से है, उनके मन में संदेह, विरोध और हिचकभरी जाँच-परख घर किए रहती है। फिलहाल हमें इस पहलू के विस्तार में नहीं जाना चाहिए।
परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करने वाले मसीह-विरोधियों की जिन पाँच अभिव्यक्तियों पर अभी चर्चा की गई, वे बुनियादी तौर पर काफी व्यापक और प्रातिनिधिक हैं। परमेश्वर के वचनों में विशिष्ट विषयवस्तु और केंद्रबिंदु होता है जिसकी खोजबीन मसीह-विरोधी करते हैं। जहाँ तक जीवन प्रवेश से संबंधित अनेक वचनों की बात है, ऐसे वचन जिनसे परमेश्वर लोगों को दिलासा देता है, कुछ रहस्यों को समझाता है या मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव वगैरह उजागर करता है, क्या मसीह-विरोधी इन वचनों की परवाह करते हैं? (नहीं।) उनके लिए ये वचन महत्वहीन होते हैं। क्यों? इसलिए कि मसीह-विरोधी सत्य से प्रेम नहीं करते, वे नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और उनकी यह मंशा नहीं होती कि वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना या परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करें। उनकी ऐसी कोई योजना नहीं होती है, इसलिए वे मानव स्वभाव में बदलाव और जीवन प्रवेश संबंधी वचनों को महत्वहीन मानते हैं, वे इन्हें पढ़ने, सोचने या या दिल में उतारने लायक नहीं मानते। इन वचनों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती है। वे सोचते हैं, “इन वचनों का हमारी संभावनाओं और नियति से क्या लेना-देना है? इनका हमारी मंजिल से क्या लेना-देना है? वे वचन तुच्छ बातों के बारे में हैं, पढ़ने या सुनने लायक नहीं हैं। अगर कोई सचमुच परेशान है, उसके पास कोई दूसरा समाधान नहीं है तो वह अपने दिल के सूनेपन को भरने या कुछ खास चुनौतीपूर्ण बाधाओं को दूर करने और कुछ दुःसाध्य कठिनाइयों को हल करने के लिए फौरी तौर पर ये वचन पढ़ सकता है—बस इतना ही। यह कहना कि वे वचन व्यक्ति के स्वभाव को बदल सकते हैं, यह इतना सरल कैसे हो सकता है?” उनकी अपना स्वभाव बदलने की मूल रूप से कोई मंशा नहीं होती, परमेश्वर के वचनों को जीवन, मार्ग या सत्य के रूप में स्वीकार करने की कोई योजना नहीं होती। वे सिर्फ अपनी संभावनाएँ और मंजिल चाहते हैं और साथ ही सत्ता भी। इसलिए वे ऐसे वचनों को न तो गंभीरता से लेते हैं और न ही दिल में उतारते हैं। मसीह-विरोधियों के नजरिए से देखें तो इसका आशय यह है कि ये वचन उनकी जाँच-पड़ताल के लायक ही नहीं हैं, और इस लायक तो और भी नहीं हैं कि क्या ये सत्य हैं या क्या ये लोगों को बदल सकते हैं, इन सवालों का विश्लेषण करने और पता लगाने में समय खपाया जाए। मसीह-विरोधियों के लिए ऐसा हर वचन सार्थक और अत्यंत महत्वपूर्ण है जो उनकी नियति और मंजिल, उनकी अपनी पहचान, रुतबे, उनके सभी व्यक्तिगत हितों इत्यादि से संबंधित हो। कुछ लोग कहते हैं : “चूँकि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों के इन हिस्सों को इतना महत्वपूर्ण मानते हैं और इन पर इतना ध्यान देते हैं, तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि वे परमेश्वर के वचनों की खोजबीन कर रहे हैं? क्या यह आरोप थोड़ा-सा गलत नहीं है? क्या यह थोड़ी दूर की कौड़ी और अनुपयुक्त-सी बात नहीं है?” (नहीं। मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन अवश्य सच और पूरे होंगे, वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर जो कहता है उसका वही अर्थ होता है और वह जो कहता है वह होगा भी। वे परमेश्वर के वचनों को विश्वास और स्वीकृति की मानसिकता से नहीं पढ़ते, बल्कि वे यह जाँच-परख करते रहते हैं कि क्या परमेश्वर के वचन वास्तव में सच हो सकते हैं।) क्या यही बात है? (हाँ।) मसीह-विरोधी इन वचनों को इसलिए महत्व देते हैं कि ये उनकी इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं। साथ ही इसलिए भी कि अगर ये वचन पूरे हो जाते हैं तो इससे उनकी महत्वाकांक्षाएँ पूरी हो जाएँगी। अगर वे इन वचनों को समझकर इन पर टिके रहे और एक बार ये सच हो गए तो उन्होंने सही चीज पर दाँव लगाया और उनके लिए परमेश्वर का अनुसरण करना सही कदम होगा। हालाँकि उनका इन वचनों को महत्व देने का मतलब यह नहीं होता कि वे इन्हें गहन सत्य के रूप में, परमेश्वर से आए वचनों के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, न ही यह कहा जा सकता है कि वे इन वचनों को अपने दिल में परमेश्वर के वचनों के रूप में स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत, इन वचनों को महत्व देते हुए भी वे अपने दिल में इनके बारे में संदेह पालते हैं, वे बस संकोच के साथ जाँच-परख करते रहते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि ये वचन उनके लिए किसी भी क्षण, किसी भी समय और स्थान पर परमेश्वर को नकारने और परमेश्वर के कार्य के इस चरण को नकारने के लिए प्रमाण और सहूलियत बन सकते हैं। वे निरंतर और ध्यान से यह जाँच-परख करते रहते हैं कि क्या परमेश्वर के अपने कार्य के हर चरण और लोगों की अगुआई के हर दौर में ये वचन साकार और पूरे हो रहे हैं या नहीं। स्पष्ट है कि मसीह-विरोधियों का ध्यान हमेशा इस बात पर लगा रहता है कि परमेश्वर के वचन सच होते हैं कि नहीं। इस दौरान परमेश्वर के प्रति उनकी शत्रुता, परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण का रवैया कभी नहीं बदलता है। वे परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण रहते हैं और उसकी जाँच-पड़ताल करते हैं, हमेशा अपने हृदय में परमेश्वर के प्रत्येक कार्य और वचन की खोजबीन करते हैं; साथ ही वे परमेश्वर की और परमेश्वर के कार्य की निंदा करने का प्रयास भी करते हैं। क्या यह मसीह-विरोधियों की परमेश्वर का प्रतिरोध करने की सतत अभिव्यक्ति नहीं है? (हाँ, है।) मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों से क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति स्वीकृति का कोई संकेत मिलता है? समर्पण का कोई संकेत मिलता है? परमेश्वर को परमेश्वर मानने का रत्तीभर भी संकेत मिलता है? (नहीं।) अब हम इन मदों पर एक-एक करके संगति करेंगे।
1. मनुष्य को वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करना
पहली मद यह है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वादों और आशीष देने वाले वचनों की खोजबीन करते हैं। जबसे परमेश्वर ने अपना कार्य और बोलना शुरू किया, तब से वह मानवजाति को, अपने चुने हुए लोगों को और अपने वचन सुनने वाले लोगों को इस बारे में बहुत कुछ बता चुका है कि वह लोगों को कौन-से आशीष और अनुग्रह प्रदान करेगा, वह लोगों को कौन-से आशीष देने का वादा करता है, इत्यादि। अलग-अलग दौर, अवसरों या संदर्भों में परमेश्वर अपने अनुयायियों को आशीष और वादों के बारे में बताता है, उन्हें यह सूचित करता है कि अगर वे कुछ चीजें हासिल कर लेते हैं तो वह उन्हें अमुक तरीकों से आशीष देगा और उन्हें कुछ निश्चित आशीष और वादे प्राप्त होंगे, इत्यादि। परमेश्वर ने ये वचन चाहे जिस दौर में बोले हों या चाहे जिससे भी उसने ऐसे वादे किए हों, ये वचन कुछ निश्चित संदर्भों में और एक खास परिवेश में बोले गए थे। यही नहीं, परमेश्वर लोगों को जो वादे और आशीष प्रदान करता है उनका संबंध उनकी सकारात्मक अभिव्यक्तियों से होता है, जैसे कि सत्य का अनुसरण करना, स्वभाव में बदलाव और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण। साफ-साफ कहें तो लोगों के लिए परमेश्वर के वादे और आशीष सशर्त होते हैं। इन स्थितियों में अंतिम निर्णय लोगों का नहीं होता, न ही ये मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार तय होते हैं; बल्कि ये परमेश्वर के मानकों और अपेक्षाओं से तय होते हैं और इनमें कुछ सिद्धांत और नियम शामिल होते हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि परमेश्वर के वचन कैसे सच होते हैं, कैसे साकार होते हैं और विभिन्न लोगों में कैसे पूरे होते हैं, यह परमेश्वर बेतरतीबी से बिल्कुल नहीं करता—बल्कि इसका एक आधार होता है। अलग-अलग लोगों के किए एक समान कर्म के नतीजे परमेश्वर की नजर में अलग-अलग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, दो लोग एक-एक कलीसिया की अगुआई कर रहे हों; एक बार-बार प्रबोधन और रोशनी प्राप्त करता है और अक्सर अनुशासन सहता है जिससे उसके आध्यात्मिक कद में तेजी से वृद्धि होती है। इसके विपरीत, दूसरा अपेक्षाकृत प्रतिक्रिया देने में जड़ और सुस्त हो सकता है जिससे उसकी प्रगति धीमी हो सकती है। मानवीय दृष्टिकोण से देखें तो समान कार्य करने वाले और समान व्यवहार प्रदर्शित करने वाले इन दो लोगों को परमेश्वर की ओर से समान आशीष मिलने चाहिए और उनसे समान सलूक होना चाहिए। लेकिन जहाँ तक यह बात है कि अपने कर्तव्य निभाते हुए और अपने जीवन में वे क्या जीवन प्रवेश अनुभव और हासिल करते हैं, या वे क्या बाहरी अनुग्रह प्राप्त करते हैं, इनमें निश्चित ही अंतर होंगे। बेशक ये “निश्चित अंतर” अपरिहार्य नहीं हैं। तो फिर परमेश्वर लोगों को ये तथाकथित आशीष कैसे देता है और विभिन्न सलूक कैसे करता है या प्रबोधन, रोशनी और दूसरे लाभ कैसे बाँटता है, जो लोग परमेश्वर से प्राप्त करते हैं? परमेश्वर के पास अलग-अलग लोगों से निपटने के अलग-अलग तरीके होते हैं। कुछ लोग आलसी, व्यर्थ, प्रतिस्पर्धी और ईर्ष्यालु होते हैं और भले ही वे ऊपरी तौर पर खुद को खपाने और सतही तौर पर कुछ कठिनाइयाँ सहने के लिए तैयार होते हों, लेकिन वे सत्य को स्वीकार या उसका अभ्यास कर ही नहीं सकते। दूसरी ओर, कुछ लोग मेहनती होते हैं; भले ही उनके भ्रष्ट स्वभाव समान हों, वे अपेक्षाकृत ईमानदार और विनम्र होते हैं। वे सत्य स्वीकार सकते हैं और काट-छाँट स्वीकार सकते हैं। वे परमेश्वर की कही हर बात और परमेश्वर की ओर से निर्धारित प्रत्येक परिवेश को ईमानदारी से स्वीकार कर समझते हैं, साथ ही इससे ईमानदारी से पेश भी आते हैं। इस प्रकार हो सकता है कि बाहरी तौर पर दो लोग एक ही काम कर रहे हों और काम की मात्रा भी समान हो लेकिन परमेश्वर उनके अलग-अलग स्वभाव और अनुसरण के आधार पर अलग-अलग आशीष और अलग-अलग प्रबोधन और रोशनी प्रदान करेगा। ऊपरी तौर पर देखें तो हो सकता है कि प्रबोधन और रोशनी प्राप्त करने वाला व्यक्ति अधिक कष्ट और बार-बार अनुशासन सहता हो, लेकिन उसे लाभ भी अधिक होता है। इसके विपरीत, उदासीन और मंदबुद्धि व्यक्ति बहुत कम अनुशासन का सामना करता है, बहुत कम कष्ट सहता है और इस प्रकार उसका जीवन विकास धीमा होता है और उसे कम लाभ होता है। मूलतः कौन-सा व्यक्ति सच में परमेश्वर का आशीष और वादे प्राप्त करता है? (वह जो अधिक कष्ट सहता है और अक्सर अनुशासन की प्रक्रिया से गुजरता है।) ऐसा प्रतीत हो सकता है कि जो व्यक्ति परमेश्वर के वादे और आशीष प्राप्त करता है वह अनुशासित हो जाता है, बार-बार असफलताओं का सामना करता है, भ्रष्टता प्रकट करता है और उजागर हो जाता है, लेकिन वह अक्सर परमेश्वर का प्रबोधन और रोशनी प्राप्त करता है। दूसरी ओर, जिस व्यक्ति को अनुशासित नहीं किया जाता वह आरामदायक, आनंदमय और उन्मुक्त जीवन जीता है। जब वह आलसी होता है तो वह अनुशासन का सामना नहीं करता; जब वह ईर्ष्यालु होता है तो वह अनुशासन का सामना नहीं करता; जब वह अपने काम में गैर-जिम्मेदार होता है तो वह अनुशासन का सामना नहीं करता—यहाँ तक कि वह रुतबे के लाभों में लगा रहता है और काफी संतुष्ट होकर जीता है। आध्यात्मिक समझ वाले, चीजों की शुद्ध समझ रखने वाले और सकारात्मक चीजों से प्यार करने वाले लोग किसे पसंद करते हैं? वे उस अनुशासन सहने वाले, अक्सर असफलताओं का सामना करने वाले और प्रबोधन और रोशनी प्राप्त कर सकने वाले व्यक्ति को पसंद करते हैं; वे ऐसे व्यक्ति को सचमुच परमेश्वर का आशीष प्राप्त व्यक्ति मानते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ऐसा व्यक्ति बनना चाहते हैं। वे लगातार परमेश्वर के सामने रहने को तैयार रहते हैं, भले ही इसका मतलब अक्सर परमेश्वर का अनुशासन और ताड़ना प्राप्त करना हो। वे मानते हैं कि यह परमेश्वर का आशीष है और वास्तव में परमेश्वर का वादा है। इन अनुभवों और लाभों का होना परमेश्वर के कहे गए आशीष और वादों के अस्तित्व की पुष्टि करता है। लेकिन मसीह-विरोधी इसे कैसे देखते हैं? मसीह-विरोधी परमेश्वर के वादों और आशीषों को इस आधार पर नहीं तौलते कि कोई व्यक्ति कितना सत्य समझता है, उसने कितना सत्य प्राप्त किया है या उसे कितने सकारात्मक लाभ प्राप्त हुए हैं। इसके बजाय वे यह तौलते हैं कि दैहिक लाभ और भौतिक हितों के नजरिए से कितना लाभ हुआ है। तुम लोगों को क्या लगता है कि मसीह-विरोधी कैसे व्यक्ति से ईर्ष्या करते हैं? (ऐसे व्यक्ति से जो अनुशासन नहीं सहता है।) मसीह-विरोधी उस व्यक्ति से ईर्ष्या करते हैं जो आलसी और निष्ठाहीन है, जो किसी अनुशासन का सामना नहीं करता और रुतबे के लाभ उठाता है। मसीह-विरोधियों का ऐसे व्यक्तियों से ईर्ष्या करना यह साबित करता है कि चीजों को देखने का उनका तरीका गड़बड़ है; यह उनके प्रकृति सार से तय होता है।
मसीह-विरोधी यह खोजबीन कैसे करते हैं मनुष्य को वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं? जब परमेश्वर के वचन यह बताते हैं कि वह किसे आशीष देता है, कौन उसके वादे प्राप्त करता है और कौन उससे वादे प्राप्त कर सकता है तो मसीह-विरोधी इसे कैसे देखते हैं? वे कहते हैं, “जो लोग परमेश्वर के लिए कीमत चुकाते हैं वे प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करते हैं, उनके पास परमेश्वर का अनुशासन और मार्गदर्शन होता है, और इसे आशीष प्राप्त करना माना जाता है? क्या अनुशासित होना ही परमेश्वर का आशीष है? केवल मूर्ख ही ऐसा सोचेंगे! क्या यह नुकसान उठाना नहीं है? क्या यह अपनी प्रतिष्ठा धूल-धूसरित करना नहीं है? और इसे परमेश्वर का आशीष कहते हैं? क्या परमेश्वर के वचन ऐसे ही सच और साकार होते हैं? अगर ऐसी बात है तो फिर मैं ऐसा इंसान नहीं होना चाहता, मैं कष्ट सहने का अनुसरण कर कीमत नहीं चुकाना चाहता। मैं परमेश्वर की इस कार्यशैली को नहीं स्वीकारता; यह कैसा सत्य है? इसे लोगों को बचाना कैसे माना जा सकता है?” उनके दिल में विरोध जोर मारने लगता है; वे यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर इस तरह से आशीष देकर लोगों की अगुआई करे, वे यह स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर लोगों को इस तरह से जीवन प्रदान करे, और वे यह भी स्वीकार नहीं करते कि परमेश्वर इस तरह से लोगों में सत्य पर कार्य करे। जाहिर है, मसीह-विरोधियों के आसपास ऐसे लोग भी होंगे जिन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद अपना फलता-फूलता कारोबार जमाया, खूब पैसा कमाया, कारें और मकान खरीदे और धनवान बनकर उनका भौतिक जीवन सुधर गया है। यह देखकर मसीह-विरोधी सोचते हैं, “परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद इन्होंने आशीष पाए और परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाया। इन तथ्यों से ऐसा लगता है कि ऐसे लोगों में ही मनुष्य के लिए परमेश्वर के वादे और आशीष साकार होते हैं; परमेश्वर के वचन सच हो गए हैं। लगता है कि परमेश्वर के वचनों में अधिकार अवश्य है; परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकार करना सही है और व्यक्ति अपार आशीष प्राप्त कर सकता है, सब कुछ आराम से चलेगा और व्यक्ति परमेश्वर से अनुग्रह प्राप्त कर सकता है।” ऐसे तथ्यों का गवाह बनने के बाद मसीह-विरोधियों के दिल में अस्थायी तौर पर परमेश्वर के वादों और आशीषों के लिए थोड़ी-सी स्वीकृति और विश्वास जाग जाता है। जाहिर है, ऐसी स्वीकृति और विश्वास के साथ कोष्ठक में यह होना चाहिए—“आगे सत्यापन के अधीन।” मसीह-विरोधी अपने दैनिक जीवन में यह पुष्टि करने के लिए निरंतर नजर दौड़ाकर तमाम सबूत जुटाते रहते हैं कि क्या परमेश्वर के आशीष और वादे सच साबित हो रहे हैं और बहुत-से लोगों में साकार हो रहे हैं। जाँच-परख करते हुए ये मसीह-विरोधी यह सबूत जुटा रहे होते हैं, यह देखने की कोशिश करते हैं कि कौन-से लोगों ने परमेश्वर के आशीष और वादे प्राप्त कर लिए हैं, इन लोगों ने क्या किया है, परमेश्वर के प्रति उनके रवैये क्या हैं, वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं और उनके नजरिए क्या हैं। बेशक निरंतर निगरानी और सबूत जुटाने की इस अवधि में मसीह-विरोधी ऐसे लोगों के व्यवहार, क्रिया-कलापों और नजरियों की नकल भी करते हैं जिन्होंने परमेश्वर से आशीष और वादे प्राप्त कर लिए हैं। अगर खुद उन्हें भी कुछ न कुछ भौतिक आशीषें, खातिरदारी और आनंद प्राप्त होता है तो वे मन-ही-मन में मान लेते हैं : “परमेश्वर के आशीष और वादे खोखले वचन नहीं हैं; ये साकार हो सकते हैं। ऐसा लगता है कि परमेश्वर वास्तव में परमेश्वर है, उसमें सचमुच कुछ क्षमता है। वह लोगों को आशीष और वादे प्रदान कर सकता है, कुछ लाभ दिला सकता है और कुछ हितों से जुड़ी उनकी जरूरतें पूरी कर सकता है। लगता है कि मुझे उसमें विश्वास रखकर उसका अनुसरण करते रहना चाहिए; मुझे पीछे नहीं रहना चाहिए या सुस्ती नहीं बरतनी चाहिए।” शुरुआत से अंत तक मसीह-विरोधी संकोच के साथ निगरानी करते रहते हैं। लेकिन क्या कोई यह देखता है कि वे ऐसा कब करते हैं? क्या वे खुलेआम संकोच के साथ जाँच-परख करके सबसे यह कहते हैं कि “मैं परमेश्वर के इन आशीषों और वादों में विश्वास नहीं करता हूँ”? (नहीं।) ऊपरी तौर पर तुम नहीं कह सकते। तुम उन्हें बाकी सब लोगों के बीच देखते हो, वे अपनी नौकरियाँ, दांपत्य जीवन, परिवार आदि को त्यागते हैं और हर किसी के साथ अपने कर्तव्य भी निभा रहे होते हैं, सुबह जल्दी उठते हैं और देर से सोने जाते हैं, कष्ट सहते हैं और कीमत चुकाते हैं। वे बाधाएँ पैदा करने वाली या नकारात्मक बातें नहीं करते, आलोचनाएँ व्यक्त नहीं करते, बुरी चीजें नहीं करते और बाधाएँ उत्पन्न नहीं करते। लेकिन फिर भी एक चीज होती है : वे देखने में कितने ही गुपचुप होकर कार्य करें, उनके आंतरिक नजरिए और दृष्टिकोण उनके व्यवहार पर छाए रहते हैं और इसे प्रभावित करते हैं। उनके अंदर परमेश्वर के वचनों की संकोच के साथ जाँच-परख करने और खोजबीन करने की प्रवृत्ति परमेश्वर से छुपी नहीं रह सकती है। तो फिर मसीह-विरोधियों के कौन-से पहलू लोगों से तो छिपे रह सकते हैं लेकिन परमेश्वर से नहीं? लोग केवल दूसरों का व्यवहार देखते हैं, वे केवल यह देखते हैं कि दूसरे क्या प्रकट करते हैं—दूसरी ओर परमेश्वर इन्हें तो देखता ही है, इससे भी अहम बात यह है कि वह लोगों के दिल और अंतर्मन के विचार भी देख लेता है। किसी व्यक्ति का व्यवहार और खुलासे अपेक्षाकृत सतही होते हैं लेकिन उसका अंतर्मन एक अज्ञेय जगत है जिसमें उसके गहन विचार और उसकी प्रकृति के अनेक तत्व छिपे होते हैं। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के वादों और आशीष जैसे वचनों की खोजबीन करते हैं तो वे ऊपरी तौर पर अपना समय लगाकर एक भौतिक कीमत चुका सकते हैं लेकिन उनका हृदय पूरी तरह परमेश्वर को समर्पित नहीं होता। उनका हृदय पूरी तरह परमेश्वर को समर्पित न होने की ठोस अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? वे चाहे कुछ भी करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे इसमें अपनी पूरी ऊर्जा नहीं झोंकते और इसे बिना किसी हिचकिचाहट के नहीं करते, बल्कि उनका लक्ष्य केवल सुनिश्चित करना होता है कि इसमें जाहिर तौर पर कोई गलतियाँ न हों और पूरी प्रकिया की मूल दिशा सही रहे। वे ऐसा क्यों कर पाते हैं? वे अपने दिल की गहराई में, अपने अंतर्मन में एक विचार पाले रहते हैं : “परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं, इससे यह तय होता है कि क्या परमेश्वर मुझे बचा सकता है या नहीं और क्या वह वास्तव में मेरा परमेश्वर है या नहीं। अगर इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता तो फिर परमेश्वर की पहचान और सार की वास्तविकता भी सवालों के घेरे में आने लायक बात है।” अपने अंतर्मन में ऐसे विचारों के साथ क्या उनके पास परमेश्वर के प्रति सच्चा हृदय हो सकता है? उनके दिल में गहरे बैठे ये विचार उन्हें बाधित करते हैं, लगातार चेताते हैं : अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को मत सौंपो, सब कुछ मत झोंको, जो कुछ भी करते हो बस आधे-अधूरे ढंग से करो और मूर्ख मत बनो; कुछ चीजें परमेश्वर से बचाकर रखो, अपने लिए बचने का रास्ता रखना मत भूलो और इस अभी-तक अज्ञात परमेश्वर के हवाले अपना जीवन या अपनी सबसे महत्वपूर्ण चीजें मत करो। अपने दिल में वे इसी तरह सोचते हैं। क्या तुम लोगों ने इस पर गौर किया है? (नहीं।) ये मसीह-विरोधी दूसरों के साथ सभाओं और बातचीत के दौरान बाहरी तौर पर तो दयालु हो सकते हैं, सामान्य जुड़ाव बनाए रख सकते हैं और अपनी कुछ अंतर्दृष्टियों, समझ और अनुभवों पर संगति भी कर सकते हैं और कुछ ऐसे बाहरी, उथले और बुनियादी व्यवहार और अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित कर सकते हैं जो एक विश्वासी को दिखानी चाहिए; लेकिन परमेश्वर का भय मानने या उसके प्रति उनकी निष्ठा में कोई वृद्धि या सुधार नहीं होता। परमेश्वर के घर में ये लोग चाहे जितनी भी कीमत चुका लें या कितने ही साल कर्तव्य निभा लें, एक बात तय है : उनका जीवन विकसित नहीं होता—उनमें कोई जीवन नहीं होता। जीवन का यह अभाव किन क्षेत्रों में अभिव्यक्त होता है? जब वे मुश्किल स्थितियों का सामना करते हैं तो बिल्कुल भी सिद्धांत नहीं खोजते; वे बस इसी बात से संतुष्ट रहते हैं कि उनके हाथ में जो काम है वह चलता रहे, वे परमेश्वर के कहे सिद्धांतों को अपने अभ्यास की कसौटी के रूप में नहीं अपनाते, दूसरे लोगों की निगरानी, देखरेख और अगुआई को सिर्फ सतही तौर पर स्वीकारते हैं और परमेश्वर के हाथों जाँच-पड़ताल स्वीकार नहीं करते। यानी जब तक वे इस बात को स्पष्ट रूप से सुनिश्चित नहीं कर लेते कि परमेश्वर के वादे और आशीष वास्तव में किसके लिए सच हो रहे हैं, लोगों के किस समूह के लिए ये साकार हो रहे हैं, और जब तक वे यह पुष्टि नहीं कर लेते कि परमेश्वर मनुष्य को जो वादे और आशीष देता है उन्हें वे सचमुच खुद प्राप्त कर सकते हैं, तब तक उनके कार्य सिद्धांतों और तरीकों के साथ ही परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया नहीं बदलेगा। एक मायने में वे खुद को निरंतर याद दिलाते रहते हैं और साथ ही मन-ही-मन परमेश्वर के साथ बहस करने की साजिश रचते रहते हैं। परमेश्वर के साथ उनकी बहस का केंद्रबिंदु क्या होता है? वे सोचते हैं : “तुम्हारे वादे और आशीष साकार नहीं हुए हैं। मैंने उन्हें साकार होते नहीं देखा है और मैं नहीं देख पाता कि तुम कैसे कार्य करते हो, इसलिए मैं तुम्हारी पहचान की पुष्टि नहीं कर सकता। अगर मैं तुम्हारी पहचान की पुष्टि नहीं कर सकता तो फिर मैं तुम्हारे इन वचनों को सत्य कैसे मान लूँ, परमेश्वर के वचन कैसे मान लूँ?” क्या वे मन-ही-मन इस मामले पर परमेश्वर से विवाद नहीं कर रहे हैं? वे कहते हैं, “तुम लोगों को जो आशीष देने का वादा करते हो और लोगों से तुम्हारे वादों की तमाम विषयवस्तु की अगर मैं पुष्टि नहीं कर सकता तो फिर मेरी तुममें मेरी शत-प्रतिशत आस्था नहीं हो सकती। इसमें कुछ न कुछ मिलावट हमेशा रहेगी और मैं पूरी तरह विश्वास नहीं कर सकता।” मसीह-विरोधियों का यही रवैया रहता है। क्या ऐसा रवैया भयावह नहीं हैं? (हाँ, है।) इस प्रकार का रवैया अविश्वासियों में प्रचलित इस कहावत की प्रकृति के समान होता है, “जब तक कोई लाभ न दिखे, काम शुरू मत करो।” वे कहते हैं, “तुम परमेश्वर हो तो तुम्हारे पास अपने वादे और आशीष साकार करने की सामर्थ्य होनी चाहिए। तुम जो कहते हो अगर वह साकार न हो सके और तुम में विश्वास रखने वाले लोग अपार आशीष का आनंद न ले उठा सकें, यश, धन, सम्मान का आनंद न ले सकें, अनुग्रह का आनंद न सकें और तुम्हारा आश्रय न पा सकें तो फिर लोगों को तुम्हारा अनुसरण क्यों करना चाहिए?” मसीह-विरोधियों की नजर में और उनके विचारों और दृष्टिकोणों में परमेश्वर के अनुसरण के पीछे कुछ न कुछ फायदे होने चाहिए; वे फायदों के बिना नहीं हिलने वाले। अगर वे प्रसिद्धि, लाभ या रुतबे का आनंद नहीं ले सकते, अगर वे जो भी कार्य करते हैं या कर्तव्य निभाते हैं उसमें लोगों की प्रशंसा नहीं मिलती तो वे परमेश्वर में विश्वास करने और अपने कर्तव्य निभाने में कोई तुक नहीं समझते। उन्हें पहला लाभ यह होना चाहिए कि परमेश्वर के वचनों में जिन वादों और आशीषों की बात की गई है वे उन्हें जरूर मिलें, और उन्हें कलीसिया के अंदर प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे का आनंद भी मिलना चाहिए। मसीह-विरोधियों को लगता है कि परमेश्वर में विश्वास से व्यक्ति दूसरों से श्रेष्ठ हो जाएगा, उसे सराहना मिलेगी और वह विशेष हो जाएगा—परमेश्वर के विश्वासियों को कम-से-कम इन चीजों का आनंद लेना चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते तो फिर इस बात पर कुछ प्रश्नचिह्न लग जाता है कि क्या यह परमेश्वर जिस पर वे विश्वास कर रहे हैं सच्चा परमेश्वर है। क्या मसीह-विरोधियों का तर्क इन शब्दों को सत्य मान लेने वाला नहीं होता कि “परमेश्वर में विश्वास करने वालों को परमेश्वर के आशीष और अनुग्रह का आनंद जरूर मिलना चाहिए”? जरा इन शब्दों के विश्लेषण की कोशिश करो : क्या ये सत्य हैं? (नहीं हैं।) अब यह स्पष्ट है कि ये शब्द सत्य नहीं हैं, ये भ्रांति हैं, ये शैतान की दलील हैं और इनका सत्य से कोई संबंध नहीं है। क्या परमेश्वर ने कभी ऐसा कहा है, “अगर लोग मुझ में विश्वास करेंगे तो उन्हें अवश्य ही आशीष मिलेगा और वे कभी दुःख नहीं भोगेंगे”? परमेश्वर के वचनों की कौन-सी पँक्ति ऐसा कहती है? परमेश्वर ने कभी ऐसा कोई वचन नहीं कहा है, न कभी ऐसा किया है। जब आशीषों या दुःखों की बात आती है तो एक सत्य ऐसा है जिसे खोजना चाहिए। लोगों को किस बुद्धिमानी भरी कहावत का पालन करना चाहिए? अय्यूब ने कहा, “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10)। क्या ये शब्द सत्य हैं? ये एक मनुष्य के शब्द हैं; इन्हें सत्य की ऊँचाइयों पर नहीं रखा जा सकता, हालाँकि ये किसी न किसी रूप में सत्य के अनुरूप जरूर हैं। ये किस रूप में सत्य के अनुरूप हैं? लोग आशीष पाते हैं या दुःख भोगते हैं, यह सब परमेश्वर के हाथ में है, यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। यह सत्य है। क्या मसीह-विरोधी इसमें विश्वास करते हैं? नहीं, वे नहीं करते। वे यह नहीं मानते। वे इसमें विश्वास क्यों नहीं करते या इसे क्यों नहीं मानते हैं? (परमेश्वर में उनका विश्वास आशीष पाने की खातिर होता है—वे सिर्फ आशीष पाना चाहते हैं।) (क्योंकि वे बहुत स्वार्थी होते हैं और सिर्फ देह के हितों के पीछे भागते हैं।) अपने विश्वास में मसीह-विरोधी सिर्फ आशीष पाना चाहते हैं और दुःख नहीं भोगना चाहते। जब वे यह देखते हैं कि किसी व्यक्ति को आशीष मिला है, उसे लाभ मिला है, अनुग्रह मिला है और उसे अधिक भौतिक सुख और बड़े लाभ मिले हैं, तो उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर ने किया है; और अगर उसे ऐसे भौतिक आशीष नहीं मिले हैं तो फिर यह परमेश्वर का कार्य नहीं है। इसका तात्पर्य है, “अगर तुम सचमुच परमेश्वर हो तो फिर तुम लोगों को सिर्फ आशीष दे सकते हो; तुम्हें लोगों का दुःख टालना चाहिए और उन्हें पीड़ा नहीं होने देनी चाहिए। केवल तभी लोगों के लिए तुममें विश्वास करने का महत्व और औचित्य है। अगर तुममें विश्वास करने के बाद भी लोग दुःख से घिरे हैं, अभी भी पीड़ा में हैं, तो फिर तुममें विश्वास करने का क्या औचित्य है?” वे यह स्वीकार नहीं करते कि सभी चीजें और घटनाएँ परमेश्वर के हाथ में हैं, कि परमेश्वर समस्त चीजों का संप्रभु है। और वे ऐसा क्यों नहीं स्वीकारते? क्योंकि मसीह-विरोधी दुःख भोगने से घबराते हैं। वे सिर्फ लाभ उठाना चाहते हैं, फायदे में रहना चाहते हैं, आशीषों का आनंद लेना चाहते हैं; वे परमेश्वर की संप्रभुता या आयोजन नहीं स्वीकारना चाहते, बल्कि परमेश्वर से सिर्फ लाभ पाना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों का यही स्वार्थी और घृणित दृष्टिकोण होता है। यह परमेश्वर के वादों और आशीषों जैसे वचनों को लेकर मसीह-विरोधियों द्वारा प्रदर्शित अभिव्यक्तियों की एक कड़ी होती है। कुल मिलाकर इन अभिव्यक्तियों का संबंध मुख्य रूप से अपने अनुसरण के प्रति मसीह-विरोधियों के दृष्टिकोणों से, साथ ही परमेश्वर लोगों के लिए इस प्रकार का जो कार्य करता है उसके प्रति अपने दृष्टिकोणों, मूल्यांकनों और समझ से भी होता है। भले ही वे बाहरी तौर पर परमेश्वर के वचनों की खुलेआम निंदा या विरोध न कर सकें लेकिन अंदर ही अंदर परमेश्वर के इस प्रकार के वचनों के प्रति उनका रुख और परमेश्वर जिस ढंग से इस प्रकार का कार्य करता है और उसके प्रति उनका रुख निंदा, संहेद, तिरस्कार और पक्षपात वाला होता है। जब कुछ लोगों में परमेश्वर के वादों और आशीषों के वचन सच साबित होते हैं तो वे परमेश्वर की शक्तिमत्ता की स्तुति करते हैं और उसके नाम और उसके प्रेम का महिमागान करते हैं। लेकिन जब परमेश्वर जो कुछ करता है वह उनकी वादों और आशीषों संबंधी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाता तो मसीह-विरोधी अपने दिल में फौरन परमेश्वर के अस्तित्व को नकारने के साथ ही परमेश्वर जो कुछ भी करता है उस सब के औचित्य को भी नकार देते हैं, यही नहीं इससे भी अधिक वे परमेश्वर की संप्रभुता और इस तथ्य को नकार देते हैं कि परमेश्वर मनुष्य की नियति का आयोजन और व्यवस्था करता है। हो सकता है मसीह-विरोधियों की ये सारी अभिव्यक्तियाँ ऊपरी तौर पर प्रकट न हों और वे अपने दृष्टिकोण स्पष्ट भाषा में न फैलाएँ लेकिन वे मन-ही-मन परमेश्वर के इन वचनों को जिस दृष्टिकोण से हिचकते हुए परखते और खोजबीन करते हैं वह नहीं बदलता है। दूसरे लोग जीवन प्रवेश और लोगों को बचाए जाने के उपायों पर चाहे जैसे संगति करें, मसीह-विरोधी यह खोजबीन करने की अपनी मानसिकता और रवैया कभी एक तरफ नहीं करेंगे कि क्या परमेश्वर के वादों और आशीषों जैसे वचन सच होंगे और ये कैसे साकार होंगे। परमेश्वर के वादे और आशीष साकार होने पर हो सकता है मसीह-विरोधी परमेश्वर की शक्तिमत्ता की तारीफ करने लगें और उल्लास में आकर तालियाँ बजाने और खुशियाँ मनाने लगें। लेकिन जल्दी ही, जब परमेश्वर के वादे और आशीष साकार नहीं होते या उनकी धारणाओं के अनुसार सच साबित नहीं होते, तो मसीह-विरोधी मन-ही-मन उतनी ही तेजी से परमेश्वर को चुपचाप कोसते और गाली देते हैं और उसके नाम को बदनाम करते हैं। इसलिए दैनिक जीवन में जब सब कुछ शांतिमय और संकटमुक्त चल रहा होता है, तब कुछ लोगों की दशाएँ बेतहाशा डोलती रहती हैं। खुश होने पर वे सातवें स्वर्ग में हो सकते हैं लेकिन दुःखी होने पर वे नारकीय निराशा में डूब सकते हैं। उनका मिजाज बदलता रहता है और इसके बारे में पहले से कुछ कहा नहीं जा सकता, जिससे दूसरे लोग भौचक्के रहते हैं कि चल क्या रहा है। जब वे प्रसन्न होते हैं तो कहते हैं, “परमेश्वर सचमुच परमेश्वर है। परमेश्वर बहुत महान है, उसके अधिकार का वास्तव में अस्तित्व है, परमेश्वर लोगों से अत्यंत प्रेम करता है!” लेकिन जब वे खिन्न होते हैं तो उनके मुँह से “परमेश्वर” शब्द का निकलना तक मुश्किल हो जाता है। जो इंसान इतने जोर-शोर से परमेश्वर के नाम की प्रशंसा करता है वही इंसान उसे बदनाम करता है, उसे नकारता है, उसकी ईशनिंदा करता है, गाली देता है और मन-ही-मन कोसता है। वे सुबह जल्दी उठकर देर रात तक अपने कर्तव्य निभाते हैं, ऐसी कीमत चुकाते हैं जो दूसरे अधिकतर लोग नहीं चुका पाते, लेकिन यही वे लोग भी होते हैं जो अपने कर्तव्यों के जरिए अपनी खीझ उतारते हैं, परमेश्वर के घर के हितों से विश्वासघात करते हैं, जान-बूझकर कार्य में बाधा डालते हैं और सोची-समझी लापरवाही के साथ अपने कर्तव्य और कार्य सँभालते हैं। ऊपरी तौर पर ये बिल्कुल एक ही इंसान होते हैं लेकिन उनके व्यवहारों और स्वभावों के आधार पर आकलन करें तो ये विरोधाभासी अभिव्यक्तियाँ बताती हैं कि इसमें दो अलग-अलग इंसान शामिल हैं। इससे समस्या खड़ी होती है। मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों से जाहिर है कि वे बुनियादी तौर पर परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में या परमेश्वर के वचनों के रूप में नहीं स्वीकारते हैं। यही नहीं, मसीह-विरोधियों के सार के आधार पर आकलन करें तो वे परमेश्वर के वचनों को न तो कभी सत्य मानेंगे, न ही यह मानेंगे कि ये जीवन भर पालन करने लायक सत्य सिद्धांत हैं। मसीह-विरोधियों की यह खोजबीन कि परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं, की यह पहली मद है—वे परमेश्वर के वादों और आशीष देने वाले वचनों की खोजबीन करते हैं। मसीह-विरोधियों के लिए, परमेश्वर के वादे और आशीष इस जीवन में आनंद उठाने के लिए भौतिक व्यवहार, आध्यात्मिक व्यवहार, जीवन परिवेश और ऐसी अन्य चीजों से अटूट रूप से जुड़े हुए होते हैं, इसी कारण वे इस पहलू पर खास ध्यान देते हैं। वे परमेश्वर के वादों और आशीष देने वाले वचनों के पूर्ण होने को परमेश्वर की सामर्थ्य की सीमा और परमेश्वर की पहचान की विश्वसनीयता मापने के मानक के रूप में इस्तेमाल करते हैं। वे इसके बारे में चुपचाप चिंतन और विचार करते हैं—खोजबीन करने का यही अर्थ होता है। परमेश्वर ने जीवन प्रवेश के बारे में जो विभिन्न सत्य बताए हैं, उनमें मसीह-विरोधियों की कोई रुचि नहीं होती। हालाँकि जैसे ही परमेश्वर के वादों और आशीष देने वाले वचनों का उल्लेख होता है, उनकी आँखें ललचाकर चमक उठती हैं, उनकी इच्छाएँ सिर उठाने लगती हैं। ऊपरी तौर पर वे कहते हैं, “हमें परमेश्वर के लिए खुद को बिना शर्त खपाना चाहिए, हमें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने चाहिए,” लेकिन उनकी आँखें वास्तव में कहाँ गड़ी होती हैं? वे परमेश्वर के वादों और आशीषों जैसे वचनों पर गड़ी होती हैं। एक बार ये उनकी पकड़ में आ जाएँ, तो वे इन्हें हाथ से नहीं जाने देते। मनुष्य को वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचनों के साथ मसीह-विरोधी इसी तरह पेश आते हैं।
2. मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करना
दूसरी मद यह है कि मसीह-विरोधी मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करते हैं। परमेश्वर के वचनों में शाप और दंड का जो उल्लेख किया गया है उसके प्रति मसीह-विरोधियों का दृष्टिकोण और रुख वही होता है जो पहली मद के प्रति होता है। वे इस प्रकार के वचनों की खोजबीन कैसे करते हैं? जब वे यह देखते हैं कि परमेश्वर के वचनों का उद्देश्य किस प्रकार के लोगों को शाप और किस प्रकार के लोगों को दंड देना है, परमेश्वर ने ऐसे लोगों को शाप देने के लिए कौन-से वचन कहे हैं, परमेश्वर ऐसे लोगों को दंडित करने के लिए क्या तरीका अपनाता है, साथ ही किस प्रकार के लोगों को शाप देने के लिए परमेश्वर क्या तरीका और वचन अपनाता है तो वे अपने रोजमर्रा के जीवन में यह जाँच-परख करने लगते हैं कि परमेश्वर के ये वचन कैसे साकार होते हैं और क्या वे अभी तक साकार हुए हैं। उदाहरण के लिए, कलीसिया का एक अगुआ परमेश्वर के घर के पैसे का गबन करता है, भाई-बहनों को मनमाने ढंग से दंड देकर दबाता है, कलीसिया में निरंकुश होकर और बिना विचारे काम करता है, सिद्धांतों के बिना चलता है, परमेश्वर के इरादे नहीं खोजता, और दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग नहीं करता है। परमेश्वर के वचन बताते हैं कि ऐसे व्यक्ति के लिए शाप और दंड का प्रावधान है। एक मसीह-विरोधी देखता है : “परमेश्वर ऐसे लोगों से प्रेम नहीं करता, वह उनका तिरस्कार करता है। लेकिन वह इस व्यक्ति का तिरस्कार कैसे कर रहा है? वह व्यक्ति रोज काफी आराम से रहता है और बिना किसी ग्लानि के भाई-बहनों को सताता है; भाई-बहनों को बस इसे सहन करना पड़ता है। तो फिर परमेश्वर के ये वचन सच कैसे हो रहे हैं? मुझे तो नहीं दिखता कि ये कैसे सच हो सकते हैं; शायद ऐसे लोगों को परमेश्वर का शाप मिलना सिर्फ कहने की बात है। परमेश्वर के वचनों में अधिकार होना चाहिए और उसके बोलने से लोगों के दिल में बेचैनी और ग्लानि पैदा होनी चाहिए। मुझे यह देखने और समझने की जरूरत है कि क्या वह अपने दिल में बेचैनी महसूस कर रहा है, मुझे उससे बातचीत कर उसकी मंशा जानने की जरूरत है।” तो मसीह-विरोधी उस व्यक्ति से पूछता है, “इन दिनों तुम्हें कैसा अनुभव हो रहा है?” “बहुत बढ़िया। परमेश्वर हमारी अगुआई कर रहा है। कलीसिया का जीवन कोई बुरा नहीं है, सभी भाई-बहन सही राह पर आ चुके हैं, वे सभी परमेश्वर के वचन पढ़ना पसंद करते हैं और सुसमाचार का कार्य भी अच्छी तरह आगे बढ़ रहा है।” “जब कार्य सुचारु रूप से आगे नहीं बढ़ता तो क्या तुम परेशान नहीं होते? क्या तुम नकारात्मक नहीं होते? क्या परमेश्वर तुम्हें अनुशासित करता है? क्या तुम्हें अंदर से ग्लानि होती है?” “नहीं, जब काम इतना अच्छे से हो रहा हो तो मुझे ग्लानि क्यों होगी? जो भी हो, परमेश्वर मुझे आशीष दे रहा है।” मसीह-विरोधी सोचता है, “परमेश्वर ने ऐसे व्यक्ति को शाप नहीं दिया, इसलिए उसने बुरे लोगों को शाप देने के बारे में, अपना प्रतिरोध करने वालों को शाप देने के बारे में जो वचन कहे हैं, वे साकार नहीं हुए हैं! इस अगुआ ने परमेश्वर का प्रतिरोध करने और कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी पैदा करने जैसे स्पष्ट कृत्य किए हैं; उसे परमेश्वर का शाप मिलना चाहिए था। यह कैसे नहीं हुआ है? यह कहना मुश्किल है कि लोगों को शाप देने वाले परमेश्वर के वचन साकार हो सकते हैं या नहीं, इसलिए मैं इस पर निगाह रखे रहूँगा।” परमेश्वर के वचनों में एक वाक्यांश है : “विरोध का अर्थ है मृत्यु!” मसीह-विरोधी की नजर में कई लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब पहली बार परमेश्वर के कार्य के इस चरण के संपर्क में आए और वे सत्य को नहीं समझते थे तो उन्होंने परमेश्वर के लिए निंदापरक और अपमानजनक शब्द कहकर उसके इस चरण के कार्य को अस्वीकार कर दिया। मसीह-विरोधी अपने मन में सोचता है, “क्या ये परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले लोग हैं? अगर हैं तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार विरोध का अर्थ मृत्यु है। लेकिन इतने साल बाद भी ऐसा लगता है कि इनमें से किसी को मौत नहीं आई; परमेश्वर के वचन सच नहीं हुए हैं! भले ही वे मरें नहीं, कम-से-कम इनके हाथ टूट जाने चाहिए थे या पैर कट जाने चाहिए थे या घर में कुछ आपदाएँ आनी चाहिए थीं, जैसे परिवार के किसी सदस्य की मौत या घर ढह जाना या कार हादसा होना। जब ऐसी कोई अनहोनी नहीं हुई तो यह कैसे कहा जा सकता है कि विरोध का अर्थ मृत्यु है? मुमकिन है कि हमारे समझने की क्षमता कमजोर हो और हम अभी भी यह न जानते हों कि परमेश्वर के वचन कैसे सच और साकार होते हैं। परमेश्वर के वचन सच होंगे कि नहीं, लोग नहीं जानते; यह कहना मुश्किल है।” मसीह-विरोधी इन जाहिर तथ्यों, अपने मानसिक विश्लेषण और अपने “अनूठे” दृष्टिकोण के जरिए यह देखते हैं कि परमेश्वर के ये वचन सच होते है या नहीं और अगर ये सच होते हैं तो कैसे सच होते हैं। वे इस मामले पर हमेशा एक बड़ा-सा सवालिया निशान लगाते हैं; वे नहीं जानते कि इस मसले का अंतिम परिणाम क्या होगा, इन घटनाओं की व्याख्या कैसे करें या इन परिघटनाओं को कैसे समझें। बेशक, वे अक्सर इस बारे में प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करो, मुझे यह समझने दो कि तुम कैसे लोगों को शाप और दंड देते हो और कैसे तुम्हारे वचन सच होते हैं ताकि मैं तुमसे भय मानने वाला दिल बना सकूँ, ताकि मैं तुमसे डरूँ और ऐसे काम न करूँ जिनसे तुम्हारा विरोध होता है।” क्या यह प्रार्थना किसी काम की है? क्या परमेश्वर उनकी सुनेगा? (नहीं।) परमेश्वर तो इसकी परवाह भी नहीं करता; वह इन प्रार्थनाओं को कीट-पतंगों की निरर्थक भिनभिनाहट जैसा मानता है। परमेश्वर ऐसी प्रार्थनाएँ क्यों नहीं सुनता? क्योंकि मसीह-विरोधी का हर वाक्य परखने, उकसावे, बदनामी और ईश-निंदा से भरा है। भले ही परमेश्वर ने ऐसे व्यक्ति पर खुलेआम मार नहीं मारी है या उसकी निंदा नहीं की है, फिर भी उसका हर कार्य, उसके विचार, दृष्टिकोण और रुख परमेश्वर की नजर में निंदनीय हैं। मसीह-विरोधी की ये अभिव्यक्तियाँ दिल में छिपी रहती हैं; वह ये चीजें गुपचुप करता है और चुपचाप इनकी खोजबीन करता है। यकीकन परमेश्वर भी अपने दिल में उसकी निंदा करता है और उसे शाप देता है।
जहाँ तक मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचनों का संबंध है, मसीह-विरोधी इन पर विश्वास नहीं करते या इन्हें समझते नहीं हैं; वे अक्सर जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हैं : “आखिर ये वचन सच कैसे होते हैं? क्या वे वाकई सच हो सकते हैं? वे किसके लिए सच होंगे? परमेश्वर जिन लोगों को शाप और दंड देता है क्या उन्हें वाकई शाप और दंड मिलता है? क्या इसे इंसानी नजर से देखा जा सकता है? क्या परमेश्वर को यह सब इंसानी आँखों को दिखने लायक नहीं बनाना चाहिए?” वे इन मामलों पर अपने दिल में निरंतर विचार करते हैं, इन्हें अपने दैनिक जीवन के अहम और महत्वपूर्ण मसले मानते हैं। उन्हें जब भी समय या अवसर मिलता है, वे इन पर विचार करते हैं। अगर माहौल सही है और ऐसी घटनाएँ घटती हैं या जहाँ ऐसे विषयों का संबंध होता है, वहाँ उनका रुख और दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाता है। वे परमेश्वर के इन वचनों की जाँच-पड़ताल और निंदा कर रहे होते हैं, इन वचनों को इंसानी नजरिए और इंसानी तरीके से समझने का प्रयास कर रहे होते हैं, साथ ही यह भी परख रहे होते हैं कि क्या ये वचन साकार हो सकते हैं, क्या ये दैनिक जीवन में सच हुए हैं और इनका व्यावहारिक प्रभाव पड़ा है। वे ऐसा क्यों करते हैं? वे अपने दिल में इन चीजों पर चिंतन और अथक मंथन क्यों कर पाते हैं? क्योंकि मसीह-विरोधियों का दिल कहता है कि परमेश्वर चाहे कितने ही सत्य व्यक्त कर ले, वे परमेश्वर की पहचान और सार को साबित करने के लिए काफी नहीं होते। परमेश्वर की पहचान और सार को साबित कर सकने वाली एकमात्र चीज यह है कि परमेश्वर के वचन सच और साकार होते हैं या नहीं। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर की पहचान और सार को परखने की उनकी एकमात्र कसौटी यह होती है कि क्या परमेश्वर के वचन साकार और सच होते हैं। इसी तरह, क्या मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं, यह भी परमेश्वर की पहचान और सार को परखने की उनकी कसौटी बन गया है। परमेश्वर को मापने के पीछे मसीह-विरोधियों का सबसे महत्वपूर्ण विचार और दृष्टिकोण यही होता है। मसीह-विरोधी इंसानी नजरिए और समझ के तरीके इस्तेमाल कर और इंसानी बुद्धि के भरोसे रहकर लोगों को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचनों का परीक्षण और मूल्यांकन करते हैं। चाहे कुछ भी हो, जब उन्हें तथ्य या मनचाहा तमाशा देखने को नहीं मिल पाता तो वे अपने दिल में परमेश्वर की पहचान और सार को बार-बार नकारते हैं। जितना वे कम देख पाते हैं, उतनी ही अधिक तीव्रता से वे परमेश्वर को नकारते हैं और उनका संदेह इस बात पर उतना ही अधिक बढ़ जाता है कि उन्होंने जो निवेश किया और खपाया वह सार्थक है या नहीं। लेकिन मसीह-विरोधी जब परमेश्वर के घर में परमेश्वर को ही बदनाम करने वाले या परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालने वाले या उसकी निंदा और प्रतिरोध करने वाले कुछ बुरे लोगों को अलग-अलग स्तर का दंड या शाप मिलता देखते हैं और यह देखते हैं कि इन लोगों का क्या हश्र होता है, तो परमेश्वर के प्रति विस्मय के भाव से भरकर वे अचानक यह महसूस करने लगते हैं, “परमेश्वर वास्तव में दुर्जेय है। उसका कहा पूरा हो जाता है। वह तो भली-चंगी थी, फिर भी अचानक मर गई, क्योंकि वह कल ही अपने मुँह से परमेश्वर को गाली दे रही थी! एक और बैल की तरह बलिष्ठ व्यक्ति अचानक बीमार पड़ गया क्योंकि उसने परमेश्वर के घर के कार्य को भारी नुकसान पहुँचाए थे और इसे स्वीकार भी नहीं किया था, लिहाजा उसे परमेश्वर का शाप मिला। एक और महिला ने कलीसिया में कुछ गलत और बुरे कर्म किए थे जिस कारण उसके परिवार पर संकट आया और तब से उसके घर में अमन-चैन नहीं है। एक और व्यक्ति परमेश्वर के बारे में हमेशा निंदाजनक बातें करता था, अब पगला चुका है और परमेश्वर होने का दावा करता है। उस पर राक्षसों का साया है; परमेश्वर ने उसे शैतान को सौंपकर म्लेच्छ राक्षसों के ठिकाने पर रखवा दिया है। उसे दुष्ट आत्माओं के वश में करना कोई मनुष्यों के हाथ की बात नहीं है; ऐसा करने का अधिकार केवल परमेश्वर के पास है। परमेश्वर सब पर संप्रभु होकर शासन करता है—उसने उस व्यक्ति को दुष्ट आत्माओं को सौंप दिया, और उन्होंने उस पर कब्जा कर लिया जिससे वह अपनी मति और शर्म-हया खो बैठा और सड़कों पर नंगा दौड़ता फिरता है। देखो इन लोगों का क्या हश्र हुआ है, उन्हें क्या-क्या दंड और शाप भुगतना पड़ा है; उन सभी ने क्या किया है?” यह निचोड़ निकालने के बाद मसीह-विरोधियों के दिल जोर-जोर से धड़कने लगते हैं : “इनमें वे लोग शामिल हैं जो खुलेआम परमेश्वर को जुबानी तौर पर गाली देते हैं, जो खुलेआम परमेश्वर की निंदा और आलोचना करते हैं और वे भी शामिल हैं जो परमेश्वर के घर में जानबूझकर बाधा डालते और गड़बड़ी पैदा करते हैं। ऐसा लगता है कि परमेश्वर का विरोध करने से कुछ भी भला नहीं होता! परमेश्वर सचमुच दुर्जेय है! अगर तुम दूसरे लोगों को नाराज करते हो तो वे तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, लेकिन अगर तुम परमेश्वर को नाराज करते हो तो यह गंभीर बात है। अपने व्यवहार के लिए तुम खुद जिम्मेदार होगे; इसकी कीमत बहुत भारी है! और कुछ नहीं तो तुम पागल हो सकते हो और परमेश्वर तुम्हें म्लेच्छ राक्षसों को सौंप देगा, जिसका मतलब यकीनन नरक में जाना है; सबसे बुरी स्थिति तो यह है कि परमेश्वर इस जीवन में तुम्हारे दैहिक अस्तित्व को मिटा देगा, तुम्हें नष्ट कर देगा और आगामी संसार में—कहने की जरूरत नहीं है कि—तुम्हारे पास कोई मंजिल नहीं होगी, तुम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाओगे और न आशीष ले पाओगे। परमेश्वर का प्रतिरोध करने के उनके तमाम तरीकों के आधार पर देखें तो मुझे और भी सावधानी बरतने और अपने लिए कुछ सिद्धांत तय करने की जरूरत है। पहला सिद्धांत, मुझे परमेश्वर को खुलेआम अपने मुँह से गाली नहीं देनी चाहिए; अगर ऐसा करना ही है तो मुझे यह चुपचाप अपने दिल में करना चाहिए। दूसरा, भले ही मुझमें परमेश्वर बनने की इच्छा और महत्वाकांक्षा हो, मैं उसे प्रकट नहीं कर सकता या दूसरों को नहीं बता सकता। तीसरा, मुझे अपने व्यवहार और गतिविधियों को नियंत्रण में रखना चाहिए, ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे गड़बड़ी पैदा हो। अगर मैं परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाता हूँ और परमेश्वर को क्रोधित करता हूँ, तो यह भयावह होगा! कोई हल्का मामला होगा तो मैं अपनी जान से हाथ धो सकता हूँ; मामला गंभीर होगा तो मैं शाप पाकर अथाह कुंड में गिर जाऊँगा और यही मेरा अंत होगा।” ऐसी चीजें होती देखकर मसीह-विरोधियों को लगता है कि परमेश्वर के वचन सच हो गए हैं और परमेश्वर बहुत-ही महान और दुर्जेय है। इन घटनाओं के जरिए उन्हें परमेश्वर की महानता और दुर्जेयता का एहसास और उसकी पहचान होती है। क्या मसीह-विरोधियों के दिल में ये सभी विचार प्रक्रियाएँ, साथ ही इन चीजों को देखने के बाद उन्होंने जिन कार्य सिद्धांतों का निचोड़ निकाला है, उनकी आंतरिक दुनिया की गतिविधियाँ नहीं हैं? वे परमेश्वर को लेकर अपने दिल में जो कुछ भी करते हैं उसे ही खोजबीन करना कहते हैं।
मसीह-विरोधी खुलेआम यह नहीं कहते कि “परमेश्वर लोगों को शाप नहीं देता है, परमेश्वर के वचन सच नहीं हुए हैं,” न ही वे खुलेआम यह कहते हैं कि “परमेश्वर ने फलाने को दंडित किया है, परमेश्वर ने फलाने को शाप दिया है। परमेश्वर के वचन सच हो गए, परमेश्वर सचमुच महान है।” बल्कि वे अपने दिल की गहराई में इन मामलों की साजिशें रचकर और योजना बनाकर इन पर विचार करते हैं। विचार करने के पीछे उनका लक्ष्य क्या होता है? वे सोचते हैं कि अगर परमेश्वर के वचन सच हो जाएँ तो उन्हें क्या करना चाहिए और अगर परमेश्वर के वचन सच या साकार न हुए तो क्या करना चाहिए। उनका खोजबीन करने का उद्देश्य परमेश्वर के कार्यों को समझना नहीं होता, परमेश्वर के स्वभाव को समझना नहीं होता, और उनका उद्देश्य सत्य को हासिल करना और एक योग्य सृजित प्राणी बनना तो बिल्कुल भी नहीं होता—बल्कि उनका उद्देश्य इन सभी मामलों से निपटना होता है, इंसानी तरीके और रणनीतियाँ अपनाकर परमेश्वर के शाप और दंड का सामना करना होता है। मसीह-विरोधी अपने दिलों में यही साजिशें रचते हैं। क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति विचारों की यह कड़ी यह साबित कर सकती है कि वे परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं? क्या इसे यह साबित हो सकता है कि वे लगातार परमेश्वर की बदनामी और निंदा करते रहे हैं? (हाँ।) बिल्कुल! मसीह-विरोधी यही तो करते हैं। अगर परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं तो उनके पास जवाबी उपाय तैयार होते हैं; अगर उसके वचन सच साबित नहीं होते तो भी उनके पास जवाबी उपाय होते हैं—उनके जवाबी उपाय इस बात पर निर्भर करते हुए बदलते रहते हैं कि परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं कि नहीं। अगर परमेश्वर के वचन सच साबित हुए तो मसीह-विरोधी ठीक ढंग से व्यवहार करते हैं, परमेश्वर के घर के भीतर कार्यों में सावधानी बरतते हैं, विनम्र बनकर रहते हैं, अक्खड़ या ढीठ नहीं रहते, यह ख्याल रखते हैं कि वे कुछ भी गलत न करें। अगर परमेश्वर के वचन सच साबित न हुए तो वे सरासर लापरवाही से कार्य करेंगे। कुछ भी हो, उन्हें परमेश्वर के वचन सच होते दिखाई दें या नहीं, उनका दिल परमेश्वर को वास्तव में कभी परमेश्वर नहीं मानेगा, उनके दिल कभी भी पूरी तरह से परमेश्वर को सौंपे नहीं जा सकते। वे अपने कर्तव्य और कार्य दिल से नहीं करते, बल्कि वे इन्हें छल-कपट करके, आड़ लेकर और गुपचुप ढंग से साजिशों, चालबाजियों और बहानों का इस्तेमाल करके करते हैं। वे अपने दिल की गहराइयों में जो सोचते, विचारते और संदेह करते हैं, उसे कभी भी दूसरों के साथ या परमेश्वर के साथ खुलकर साझा नहीं करते। बल्कि वे हठपूर्वक अपने ही विचारों और धारणाओं को सत्य, सही और अच्छी दिशा और ऐसा लक्ष्य मानते हैं जिन्हें कार्यान्वित कर जिनका अभ्यास करना चाहिए। मसीह-विरोधियों की नजर में यह अत्यंत महत्वपूर्ण होता है कि मनुष्य को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं या नहीं, क्योंकि इसी से यह तय होता है कि वे अपने दैनिक जीवन में कैसे कार्य और व्यवहार करते हैं, वे कार्य को कैसे लेते हैं और भाई-बहनों से कैसे पेश आते हैं; इससे यह भी तय होता है कि वे कैसा व्यवहार प्रकट करते हैं, और साथ ही उनके कौन-से क्रिया-कलाप और अभिव्यक्तियाँ होती हैं। जब परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं तो मसीह-विरोधी उचित और निष्कपट ढंग से व्यवहार करते हैं, अपनी हरकतों पर अंकुश लगाते हैं, कुछ ऐसा करने की कोशिश नहीं करते जिससे गड़बड़ी या बाधा पैदा हो, न ऐसे शब्द बोलने का प्रयास करते हैं जो गड़बड़ करें या व्यवधान डालें, जो परमेश्वर के वचनों की निंदा करते हों या उसके कार्य को बदनाम करते हों। अगर परमेश्वर के ये वचन सच साबित नहीं होते तो वे बेहिचक परमेश्वर के कार्य का मूल्यांकन और निंदा करते हैं। इस तरह से मसीह-विरोधी अपने दिल की गहराइयों में परमेश्वर का निरंतर विरोध करते हैं और उसके खिलाफ शोर मचाते हैं—क्या उन्हें बेनकाब कर हटाना संभव नहीं होगा? उनका यह रवैया, स्वभाव और सार परमेश्वर के असली दुश्मन वाला है। मसीह-विरोधी भले ही जो चाहे वह न कर सकें, लेकिन वे जो कुछ सोचते हैं, जो योजना बना रहे होते हैं, जो कुछ विचार करते हैं या अपने अंतर्मन के दृष्टिकोणों को बिल्कुल भी नहीं छिपाते क्योंकि वे परमेश्वर से नहीं डरते। उनका परमेश्वर से न डरने का क्या कारण होता है? वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, न ही वे यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर मनुष्य के अंतस्तल की जाँच-परख करता है। इसलिए अपने तर्क के अनुसार मसीह-विरोधी अपना अस्तित्व बचाने की सबसे शानदार रणनीति यह मानते हैं : “मेरा जो कार्य और बुरा बर्ताव दूसरों को नजर आता है, वह यह मापने का मानक बन सकता है कि मैं किस तरह का व्यक्ति हूँ। लेकिन मैं अपने दिल में क्या सोचता हूँ, मैं कैसे योजना बनाता हूँ और इरादा रखता हूँ, मेरी आंतरिक दुनिया कैसी है, क्या मैं परमेश्वर की बदनामी और निंदा कर रहा हूँ, परमेश्वर की आलोचना कर रहा हूँ या परमेश्वर में विश्वास कर उसकी स्तुति कर रहा हूँ—अगर मैं यह नहीं बताता तो तुम लोगों में से कोई भी यह नहीं जानेगा। मेरी निंदा करने के लिए शुभकामना! अगर मैं नहीं बोलता तो तुममें से कोई भी यह जानने की उम्मीद भी नहीं कर सकता कि मैं अपने दिल में क्या सोचता हूँ या क्या योजना बनाता हूँ या परमेश्वर के प्रति मेरा रवैया और दृष्टिकोण क्या है, और कोई भी मुझे किसी भी पाप का भागी नहीं बता सकता।” यही मसीह-विरोधियों की योजना होती है। वे मानते हैं कि लोगों के बीच रहते और काम करते हुए अपने आचरण का यही सर्वोच्च सिद्धांत है। जब तक उनका व्यवहार गलत नहीं है और उनके कार्यों में कोई दोष नहीं है, तब तक उनके अंतर्मन के विचारों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। क्या मसीह-विरोधी अत्यधिक चतुर नहीं हैं? (नहीं।) वे चतुर कैसे नहीं हैं? वे खुद को इतनी अच्छी तरह छिपा लेते हैं। जब वे प्रार्थना करते हैं तो इसे सड़क के नुक्कड़ों पर करते हैं और वे दूसरों के सामने जो शब्द कहते हैं वे सभी सही होते हैं, इनमें कोई दोष नहीं मिलता। उन्हें विश्वास करते हुए जितना अधिक समय बीतता है, उतने ही अधिक वे आध्यात्मिक होते जाते हैं। वे वास्तव में अपने दिल में जो कुछ सोचते हैं, उसे वे केवल एकांत में अपने परिवार के साथ साझा करते हैं, और कुछ तो यह अपने परिवार को भी नहीं बताते, इसलिए कोई भी उनकी असलियत नहीं जान पाता। लेकिन वे एक बात भूल जाते हैं : इससे क्या फायदा है कि मनुष्य उनकी असलियत जान पाते हैं या नहीं? यह महत्वहीन है; कोई भी इंसान दूसरे व्यक्ति की किस्मत को निर्धारित नहीं कर सकता। मनुष्य उनकी असलियत जान पाते हैं या नहीं, यह मायने नहीं रखता; यह अप्रासंगिक है और इससे कुछ भी तय नहीं होता। महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर न केवल लोगों के बाहरी व्यवहार को देखता है, बल्कि वह उनके दिल की गहराइयों को भी देखता है। ठीक इसलिए कि मसीह-विरोधी यह नहीं मानते और यह नहीं जानते कि परमेश्वर मनुष्य के अंतर्मन का देखता है, वे मूर्खतापूर्ण और बेतुके ढंग से सोचते हैं, “मैं अपने दिल में जो सोचता हूँ उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता, न तो मनुष्य न ही परमेश्वर।” परमेश्वर मनुष्य के अंतर्तम हृदय की जाँच-परख कर सकता है, इसलिए तुम्हारे विचारों का संबंध परमेश्वर की तुम्हारे बारे में परिभाषा से है। परमेश्वर न केवल लोगों के बाहरी व्यवहार के आधार पर उनकी निंदा करता है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वह उनके आंतरिक विचारों के आधार पर उनकी निंदा करता है। यहीं पर मसीह-विरोधी मूर्ख ठहरते हैं; परमेश्वर के वचनों में खोजबीन करते हुए वे एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते हैं : परमेश्वर भी चुपचाप उनके विचारों की जाँच-परख कर रहा है। वे यह खोजबीन करते हैं कि क्या परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं, और वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं वह यह होता है कि उन्हें परमेश्वर के वचनों और उसके अस्तित्व को नकार देना चाहिए। परमेश्वर चुपचाप यह जाँच-परख करता रहता है कि अपने हृदय की गहराई में उनका परमेश्वर और परमेश्वर के वचनों के प्रति रवैया क्या है; वह उनके द्वारा परमेश्वर को बदनाम और उसकी निंदा करने, परमेश्वर को नकारने और उसका तिरस्कार करने के सभी प्रमाण देखता है, और वह इन सभी विचारों और दृष्टिकोणों के नियंत्रण में उत्पन्न होने वाले बाहरी व्यवहार को भी देख लेता है। तो व्यक्ति के विचारों और व्यवहार के आधार पर परमेश्वर अंततः उसे क्या मानता है? एक मसीह-विरोधी, परमेश्वर का शत्रु, जिसे कभी बचाया नहीं जा सकता। यही नतीजा होता है। क्या मसीह-विरोधी चतुर होते हैं? वे चतुराई से कोसों दूर हैं; वे खुद को विध्वंस की ओर ले जा चुके हैं। उन्हें लगता है कि वे सोचने में खासे सक्षम हैं, कि उनकी सोच बहुत तार्किक है और यह कि वे साजिश रचने में बहुत माहिर हैं। साजिश रचने के बाद उनके पास विभिन्न अप्रत्याशित घटनाओं और परमेश्वर द्वारा की जाने वाली तमाम तरह की चीजों के लिए जवाबी उपाय और तरीके होते हैं जिससे उन्हें हमेशा सर्वोत्तम नतीजे और लाभ प्राप्त होते हैं। वे अपनी क्षमताओं और कौशल की सराहना करते हुए अक्सर आत्म-संतुष्ट महसूस करते हैं और अपनी ही बड़ाई करते हैं। वे मानते हैं कि वे ही दुनिया में सबसे होशियार व्यक्ति हैं : वे यह समझ सकते हैं कि परमेश्वर के वचनों का स्रोत क्या है, वे किसे ध्यान में रखकर कहे गए हैं, परमेश्वर के वचनों का संदर्भ क्या है, परमेश्वर के वचनों के सच होने के बाद उन्हें क्या रवैया अपनाना चाहिए और अगर परमेश्वर के वचन सच न हों तो उन्हें क्या जवाबी उपाय अपनाने चाहिए। इतना चतुर और पारंगत होने के लिए, औसत व्यक्ति से अधिक बुद्धिमान होने के लिए वे अक्सर खुद को शाबाशी देते हैं। वे खुद को किस बात की शाबाशी दे रहे हैं? उन्हें लगता है कि परमेश्वर की जाँच-पड़ताल, उसका विश्लेषण और उससे होड़ करना और अपने दिल की गहराइयों में परमेश्वर के वचनों में खोजबीन करना बहुत ही रोमांचक है और यह उन्हें उपलब्धि का अपार एहसास कराता है। इसलिए वे वास्तव में आत्म-प्रशंसा करते हैं और ऐसा व्यक्ति होने के लिए खुद अपनी पीठ थपथपाते हैं। क्या मसीह-विरोधी मूर्ख नहीं हैं? दूसरे लोगों के साथ होड़ करने से हो सकता है तुम वाकई यह तय कर लो कि तुममें से कौन श्रेष्ठ है, और यहाँ तक कि तुम्हें अपने लाभ और अस्तित्व बोध का एहसास भी हो सकता है। लेकिन जब तुम परमेश्वर से होड़ करते हो, परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के क्रिया-कलापों और परमेश्वर जो कुछ भी करता है हर उस चीज में खोजबीन करते हो तो इसे क्या कहा जाता है? और इसके क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं? यह मौत को दावत देना है! तुम फिल्मी सितारों, गायकों, मशहूर लोगों, महान हस्तियों—किसी की भी खोजबीन कर सकते हो, लेकिन तुम्हें जिसकी खोजबीन बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए वह है परमेश्वर। अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम खोजबीन के लिए गलत लक्ष्य चुन रहे हो। आज की इस नवीनतम सूचना की दुनिया और सूचना प्रवाह को सुगम बनाने वाले नाना प्रकार के यंत्रों की दुनिया में हो सकता है किसी व्यक्ति के पता-ठिकाने, उसके विचारों और दृष्टिकोणों और उनके दैनिक जीवन में खोजबीन करना शर्मनाक न माना जाए। लेकिन जो व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखकर उसका अनुसरण करता है, जो परमेश्वर के वचनों को सिर-माथे रखकर उन्हें रोज खाता और पीता है, उसके लिए परमेश्वर के हर क्रिया-कलाप, परमेश्वर के हर वचन और परमेश्वर के हर कार्य की लगातार अपने दिल की गहराई में खोजबीन करना एक अपमानजनक अवज्ञा है! मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं; जब तुम परमेश्वर के सामने अपनी भ्रष्टता प्रकट करते हो तो समझने और जानने के लिए परमेश्वर तुम्हें सत्य प्रदान कर सकता है और इससे तुम्हें बदलने का समय मिल जाता है। परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता, अपराध और पाप माफ कर सकता है और इन्हें याद नहीं रखेगा। एकमात्र चीज जिसे परमेश्वर माफ या सहन नहीं कर सकता, वह है मसीह-विरोधियों के पास किंचित भी समर्पणकारी हृदय न होना, कि वे हमेशा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करते रहें, साथ ही यह भी कि वे हर समय और हर जगह परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के वचनों की निरंतर और अनवरत खोजबीन करते रहें। तुम किस कोशिश में लगे हो? क्या तुम यह परखना चाहते हो कि परमेश्वर सही है? तुम्हें क्या लगता है कि तुम किसकी निगरानी कर रहे हो? क्या तुम इस स्रोत और उद्देश्य का विश्लेषण करना चाहते हो कि परमेश्वर ये चीजें क्यों करता है? तुम खुद को क्या समझते हो? कुल मिलाकर तुम खुद को बाहरी व्यक्ति नहीं मानते? क्या परमेश्वर तुम्हारी खोजबीन का विषय हो सकता है? क्या परमेश्वर तुम्हारी जाँच-पड़ताल का विषय हो सकता है? तुम्हारा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार करना, परमेश्वर के मार्गदर्शन को स्वीकार करना, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना, उसके हाथों अपनी काट-छाँट स्वीकार करना और स्वभावगत परिवर्तन से संबंधित ऐसे सभी सकारात्मक चलन—ये वैध हैं। यहाँ तक कि कभी-कभी जब तुम परमेश्वर को गलत समझते हो, जब तुम कमजोर और निराश होते हो और परमेश्वर को लेकर शिकायत करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारा बुरा नहीं मानता, न ही वह तुम्हारी निंदा करता है। लेकिन एक बात है : तुम हमेशा परमेश्वर की खोजबीन करते रहते हो, हमेशा यह जानने में लगे रहते हो कि क्या परमेश्वर के वचन और परमेश्वर के कार्य सही हैं—यह कुछ ऐसा है जिसे परमेश्वर बिल्कुल भी माफ या बर्दाश्त नहीं करेगा; यह परमेश्वर का स्वभाव है। वास्तव में भ्रष्ट मनुष्य जानवर नहीं हैं; वे इस तरह से परमेश्वर का विरोध नहीं करते, न उनके ऐसे दृष्टिकोण और रवैये होते हैं, न ही वे परमेश्वर के साथ इस तरह पेश आते हैं। केवल शैतान ही एक ऐसी चीज है, एक ऐसा किरदार है जो निर्लज्ज होकर और सरेआम परमेश्वर के विरोध में खड़ा हो सकता है। परमेश्वर मनुष्यों के अपराधों और भ्रष्टता को याद नहीं रखता लेकिन शैतान के हाथों अपने विरोध, टकराव, निंदा और बदनामी को परमेश्वर कभी माफ नहीं करेगा। परमेश्वर सिर्फ भ्रष्ट मनुष्यों को बचाता है, शैतान को नहीं। अपनी प्रकृति न बदलने वाले और मसीह-विरोधियों के सार वाले मसीह-विरोधी शैतान का प्रतिनिधित्व कर शैतान के स्थान पर परमेश्वर के विरोध में खड़े हो सकते हैं और परमेश्वर के वचनों में खोजबीन कर सकते हैं। उनके प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है? यह शाप और निंदा वाला रवैया होता है। मसीह-विरोधी इस तरह कार्य करने से बच नहीं पाते और मौत को बुलावा दे रहे होते हैं।
3. आपदा की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करना
अभी-अभी हमने मसीह-विरोधियों की इस खोजबीन से संबंधित दो मदों पर संगति की कि परमेश्वर के वचन सत्य होते हैं या नहीं : एक मद का संबंध वादे और आशीष देने वाले परमेश्वर के वचनों से था तो दूसरी मद का संबंध लोगों को शाप और दंड देने वाले परमेश्वर के वचनों से था। अब हम तीसरी मद आपदा की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों पर नजर डालेंगे। इस प्रकार के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया पहली दो मदों जैसा ही होता है : वे जिज्ञासु होते हैं, जाँच-पड़ताल करना चाहते हैं, समझना चाहते हैं और वह दिन भी देखना चाहते हैं जब ये वचन सच होंगे, वे तथ्य सामने आने के गवाह बनना चाहते हैं। इस प्रकार के वचनों से पेश आने में मसीह-विरोधी अपने दिल की गहराइयों में साजिश भी रचते हैं, जवाबी उपायों पर सिर खपाते हैं और विभिन्न संदेह पैदा करते हैं। वे यह देखते और परखते हैं कि क्या इस प्रकार के वचन सच साबित होते हैं, ताकि संगत जवाबी उपाय तैयार किए जा सकें। जब मसीह-विरोधी आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले ये वचन पढ़ते हैं तो उनके दिल आपदाएँ पूरी होने के दिन के लिए उम्मीद से भर जाते हैं और उनके मन विभिन्न कल्पनाओं से भरे होते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर के वचन सच होंगे और यह उम्मीद भी करते हैं कि आपदाओं के आगमन से उनके फलक का विस्तार होगा, उनकी इच्छाएँ और कामनाएँ पूरी होंगी। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि परमेश्वर ने जिन आपदाओं की भविष्यवाणी की है उन सबका संबंध परमेश्वर का महान कार्य पूरा होने से है, परमेश्वर के महिमामंडन के दिन, संतों के स्वर्गारोहण, मानवजाति के एक अद्भुत मंजिल में प्रवेश आदि से है। इसलिए आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों के इस हिस्से को लेकर मसीह-विरोधी और भी अधिक प्रत्याशा और जिज्ञासा से भरे हुए होते हैं। पहली दो मदों की तुलना में इस प्रकार के वचनों में मसीह-विरोधियों की और भी अधिक रुचि होती है। मसीह-विरोधी अपने दिल में यह मानते हैं कि अगर कोई भूकंप, महामारी, कीट-पतंगों का प्रकोप, बाढ़, भूस्खलन या अन्य प्राकृतिक प्रकोप जैसी आपदाएँ ला सकता है तो वह एक बहुत शक्तिशाली प्राणी है, उसके पास बहुत अधिक क्षमता है और वह उनके अनुसरण, आराधना और भरोसे के लायक है। इसलिए इसी तरह मसीह-विरोधी आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचन सच होने को यह मापने का मानक भी मानते हैं कि परमेश्वर वास्तव में परमेश्वर है या नहीं। वे इस प्रकार की तार्किक सोच, विचार और दृष्टिकोण को अक्षरशः अपने दिल में रखते हैं, वे यह मानते हैं कि यह दृष्टिकोण सही, वैध और एक बुद्धिमानी भरा कदम है। इस प्रकार जिस दिन से मसीह-विरोधियों ने परमेश्वर का अनुसरण शुरू किया, जिस क्षण से उन्होंने आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों को देखा, तभी से वे अपने मन में इनके बारे में सोच रहे होते हैं। वे इस बात को लेकर चिंतित होते हैं कि परमेश्वर के वचनों में क्या कहा गया है—अंत के दिन कब आएँगे, परमेश्वर का महान कार्य कब पूरा होगा, परमेश्वर मानवजाति को कैसे ताड़ना देगा, मानवजाति को दंडित और नष्ट करने के लिए परमेश्वर किस प्रकार की आपदाएँ लाएगा, मानवजाति को आपदाओं में झोंकने के लिए परमेश्वर कौन-सा तरीका अपनाएगा, और कैसे परमेश्वर का अनुसरण और उसकी स्वीकृति पाने वाले लोग ही ऐसी आपदाओं से बचकर सुरक्षित निकलने में सक्षम होंगे और उन्हें ऐसी आपदाओं के कष्ट नहीं झेलने होंगे। मसीह-विरोधी आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं, अपने दिलों में उनका विश्लेषण करते हैं और उन्हें याद करके मन-ही-मन दोहराते हैं। वे आपदाओं से संबंधित हर वचन को याद रखते हैं और यह कल्पना भी करते हैं कि कोई आपदा कब और कैसे सच साबित होगी। वे इस पर विचार करते हैं कि अगर यह सच साबित हो गई तो वे क्या करेंगे, अमुक भविष्यवाणी किस प्रकार की आपदा की बात पहले ही बता देती है, और अगर यह सच साबित भी हो जाए तो उन्हें कैसे प्रतिक्रिया देनी चाहिए। लगता है कि इन भविष्यवाणियों को देखने के बाद से मसीह-विरोधियों को परमेश्वर में अपने विश्वास में प्रयास करने के लिए कुछ, जैसे एक दिशा और एक लक्ष्य मिल गया है। आपदाएँ आने के इंतजार में वे खुद को हर तरह से तैयार भी करते रहते हैं। जब बड़ी आपदाएँ आती हैं तो परमेश्वर का सुरक्षा कवच पाने के लिए वे अपनी नौकरी और अपने परिवार त्यागकर सुसमाचार का प्रचार करते हैं। साथ ही, आपदाएँ आने पर खुद को बचाए रखने के लिए वे अक्सर विनम्र होकर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, यह आशा करते हैं कि परमेश्वर के वचन जल्द ही सच होंगे, कि परमेश्वर जो कुछ हासिल करना चाहता है वह तेजी से पूरा होगा, कि परमेश्वर जल्द ही महिमा प्राप्त करेगा और विश्राम का आनंद लेगा, और वे शीघ्र ही स्वर्ग के राज्य के आशीष का आनंद ले सकते हैं। मसीह-विरोधियों के इन सभी दृष्टिकोणों से, उनके अक्सर बोले जाने वाले शब्दों और प्रार्थनाओं से ऐसा लगता है कि मसीह-विरोधी उत्सुकता से परमेश्वर का महान कार्य पूरा होने और परमेश्वर के शीघ्र विश्राम की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन लोग बेखबर हैं कि मसीह-विरोधियों की इन उम्मीदों के पीछे भयावह इरादे छिपे हैं। उन्हें यह उम्मीद रहती है कि ऐसी प्रार्थनाओं और झूठे हाव-भावों के जरिए वे आपदाओं से बचकर परमेश्वर को अपना आसरा बना सकते हैं। इस सबकी तैयारी करते हुए वे यह उम्मीद भी करते हैं कि शीघ्र ही आपदाएँ आएँगी और इनकी भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचन सच होंगे। अपनी सहनशीलता की सीमा के भीतर वे पहले की ही तरह कीमत चुकाते जाते हैं, खुद को खपाते रहते हैं, पीड़ा भोगते और सहते रहते हैं और सबको दिखाने के उद्देश्य से अपने दिमाग को मथते रहते हैं। वे यह चाहते हैं कि हर कोई यह माने कि सुसमाचार फैलाने के लिए उन्होंने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है, कितना भेदभाव और उत्पीड़न सहा है और इस दिन के इंतजार में कितनी बड़ी कीमत चुकाई है। उन्हें यह उम्मीद बनी रहती है कि उन्होंने जो कष्ट सहा और जो कीमत चुकाई उसे देखते हुए परमेश्वर आपदा आने पर उन्हें छोड़ देगा। साथ ही, उन्होंने जो कीमत चुकाई है उस कारण वे इतने खुशकिस्मत होने की उम्मीद करते हैं कि वे उन लोगों में एक बन पाएँ जिनके पास एक अच्छी मंजिल होगी और जो आपदा के बाद आशीष प्राप्त करेंगे। मसीह-विरोधी शांत रहकर और चुपचाप अपने मन में यह सारी गणना करते रहते हैं। आखिर एक दिन किसी छोटी-सी घटना के कारण मसीह-विरोधियों को कोई नाकामी मिलती है और उनके क्रिया-कलापों और व्यवहारों की निंदा होने लगती है। इसका मतलब है कि उनकी उम्मीदें और कल्पनाएँ चूर-चूर होने वाली हैं, उनकी इच्छाएँ अधूरी रहने वाली हैं। इस क्षण मसीह-विरोधियों के दिल की गहराई में पहला विचार क्या उठता है? “मैंने इतना कुछ दिया है, इतना कष्ट भोगा, इतने दिन सहा, इतने साल विश्वास किया है, फिर भी मैंने आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के किसी वचन को सच होते नहीं देखा है। क्या परमेश्वर सचमुच आपदाएँ लाएगा? हमने जिसके लिए प्रार्थना की है और जिसका इंतजार किया है, क्या परमेश्वर उसे कभी पूरा करेगा? परमेश्वर वास्तव में कहाँ है? क्या वह हमें सचमुच बचाएगा भी या नहीं? परमेश्वर ने जिन आपदाओं की बात की क्या उनका अस्तित्व है भी? अगर नहीं है तो हम सबको यहाँ से चले जाना चाहिए। इस परमेश्वर पर विश्वास नहीं किया जा सकता, कोई परमेश्वर नहीं है!” यह मसीह-विरोधियों की पराकाष्ठा होती है। एक छोटी-सी नाकामी, शायद किसी की ओर से अनजाने में निंदा और खुलासे प का एक शब्द उनकी दुखती रग को छेड़ देता है, फिर तो वे गुस्से से भड़ककर अब और संयम बरतने या ढोंग करने में असमर्थ हो जाते हैं। ऐसे में वे पहली चीज जो करते हैं वह है गुस्से से फूटकर और परमेश्वर के वचनों पर उंगली उठाकर यह कहना : “अगर तुम्हारे वचन सच नहीं होते, तुमने जिन आपदाओं की बात की अगर वे नहीं होतीं, तो मैं अब तुम पर विश्वास नहीं रखूँगा। मूलतः आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले इन्हीं वचनों के कारण मैंने सुसमाचार का प्रचार किया, कीमत चुकाई और अपना कर्तव्य निभाया। इन वचनों के बिना मैं तुममें बिल्कुल भी विश्वास नहीं कर पाऊँगा! इन्हीं वचनों के कारण, इन आसन्न आपदाओं के कारण मुझे विश्वास हुआ था कि तुम परमेश्वर हो। लेकिन अब इतना कष्ट सहने के बाद भी तुम्हारी बताई आपदाएँ नहीं आईं। अविश्वासियों में बहुत-से लोग बुराई करते हैं, फिर भी उनमें से किसी को भी दंड नहीं मिला है—उनमें से एक भी आपदा का शिकार नहीं हुआ है। वे अभी भी पाप में जीकर अपने जीवन का आनंद ले रहे हैं, जबकि मैं इतने बरसों से माने जा रहा हूँ, बस उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ कि कब आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले तुम्हारे वचन सच होंगे। लेकिन परमेश्वर तुमने क्या किया है? हमारी उत्सुक प्रत्याशा को ध्यान में रखकर तुमने कभी कोई संकेत या चमत्कार नहीं दिखाया, हमें दिखाने के लिए तुम कभी कोई आपदा लेकर नहीं आए ताकि हमारी आस्था मजबूत हो और हमारी वफादारी मजबूत हो। तुम ऐसी चीजें क्यों नहीं करते? क्या तुम परमेश्वर नहीं हो? इस बुरी दुनिया, इस बुरी मानवजाति को दंड देने के लिए आपदाएँ लेकर आना क्या इतना कठिन है? इन चीजों के पूरा होने के जरिए हम बस अपनी आस्था मजबूत करना चाहते हैं, लेकिन तुम तो बस कदम उठाते ही नहीं हो। अगर तुम कदम नहीं उठाते तो हम परमेश्वर में और विश्वास नहीं कर सकते; हम कुछ भी हासिल नहीं कर पाएँगे और परमेश्वर में विश्वास रखने की कोई तुक नहीं है। अब और विश्वास रखने की कोई जरूरत नहीं है, अपने कर्तव्य निभाने की कोई जरूरत नहीं है, सुसमाचार प्रचार की कोई जरूरत नहीं है।” जीवन में एक छोटी-सी नाकामी का सामना करने पर, थोड़ी-सी प्रतिकूलता या असंतोष का सामना करने पर मसीह-विरोधियों के असली चेहरे और अंतरतम विचार कभी भी और कहीं भी उजागर हो सकते हैं, जो काफी भयावह है। आपदाएँ कब आएँगी, क्या आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचन सच होंगे, ये कब और कैसे सच होंगे, ये सब परमेश्वर निर्धारित करता है। परमेश्वर जब लोगों को इन चीजों के बारे में बताता है तो इसका उद्देश्य उनकी भावनाओं की कद्र करना होता है, उनके साथ इंसानों के रूप में व्यवहार करना होता है—इन वचनों का उद्देश्य यह नहीं होता कि लोग इनका उपयोग परमेश्वर पर हावी होने और उसकी आलोचना करने के लिए करें। मसीह-विरोधी भ्रमवश यह मान लेते हैं कि चूँकि ये वचन परमेश्वर ने कहे हैं, इसलिए उसे लोगों को ये वचन उनके जीते-जी सच होते दिखाने चाहिए; वरना परमेश्वर के वचन खोखले साबित होंगे। जिस परमेश्वर के वचन खोखले हो सकते हैं, उसे परमेश्वर नहीं माना जाना चाहिए, वह परमेश्वर होने के योग्य नहीं है और वह उनका परमेश्वर होने योग्य नहीं है; मसीह-विरोधियों का यही तर्क होता है।
शुरू से लेकर अंत तक मसीह-विरोधी सिर्फ यह चाहते रहे कि आपदा की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के इन वचनों का फायदा उठाया जाए। इन वचनों ने उन्हें प्रेरित किया, उन्हें यह सोचने की ओर अग्रसर किया कि आपदाओं से बचने के लिए आशीष पाने के बदले अच्छे मानवीय व्यवहार और अपने सारे त्याग और दैहिक कष्टों का उपयोग किया जाए। शुरू से अंत तक, उनका एकमात्र लक्ष्य आपदाओं से बचना और आशीष पाना था। उन्होंने इन वचनों को व्यक्त करने वाले को वास्तव में परमेश्वर कभी नहीं माना। शुरू से लेकर अंत तक मसीह-विरोधी हमेशा परमेश्वर के विरोध में खड़े रहे हैं, वे परमेश्वर के वचनों की खोजबीन के तरीके के रूप में लगातार परमेश्वर को परखते और मापते रहे हैं। अगर परमेश्वर के वचन सच होकर उनके फलक का विस्तार करते हैं, उनकी रुचि, दृष्टिकोण और जरूरतों के अनुसार सच होते हैं तो वे परमेश्वर को परमेश्वर मानते हैं। लेकिन बात अगर उनकी इच्छाओं, दृष्टिकोण और जरूरतों के विपरीत हो ये वचन कहने वाला उनके लिए परमेश्वर नहीं रह जाता। मसीह-विरोधियों का यही दृष्टिकोण होता है। स्पष्ट है कि अपने दिल की गहराई में उन्होंने यह कभी नहीं माना कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, न ही उन्होंने इस तथ्य को माना है कि परमेश्वर समस्त चीजों का संप्रभु है। कष्टों की एक लंबी कड़ी से गुजरने के बाद, धैर्यपूर्वक सहते रहने और विचारों के संघर्ष से गुजरकर मसीह-विरोधियों ने एक सबक सीख लिया : “किसी को भी परमेश्वर के वचनों को हल्केपन में लेकर सीमित नहीं करना चाहिए, न ही किसी को परमेश्वर के वचन पूरा होने को हल्केपन में और ओछेपन से उसकी पहचान और सार को मापने के मानक के रूप में उपयोग करना चाहिए। हम अभी भी पर्याप्त रूप से नहीं तपे हैं और हमें अभी भी अपने मन को विस्तार देने के लिए सहते रहने की जरूरत है। जैसी कि कहावत भी है, ‘प्रधानमंत्री का दिल इतना बड़ा होता है कि उसमें एक नाव चल जाए’; ‘जहाँ जीवन है वहाँ आशा है।’ अगर ये शब्द सच नहीं होते तो क्या फर्क पड़ता है? कोई बड़ी बात नहीं। मैंने इतने बरस इसे सहा है; शायद अगर मैं कुछ और सह लूँ तो परमेश्वर के वचन सच हो जाएँगे और मुझे कुछ न कुछ हासिल होगा। मैं इसे बस थोड़ी देर और सह लूँगा, मैं एक और दाँव खेलूँगा। मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए; वरन मेरी पिछली सारी कोशिशें जाया हो जाएँगी और मेरे सहे सारे कष्ट बेकार हो जाएँगे। यह कितना बड़ा नुकसान होगा! अगर मैं अभी अपने विचारों को उजागर कर परमेश्वर को नकारने, उस पर सवाल उठाने और आरोप लगाने के लिए खड़ा हो जाऊँ तो यह समझदारी वाला कदम नहीं होगा। मुझे कीमत चुकाना, कष्ट झेलना और सहन करना जारी रखना होगा। ‘जो अंत तक सहता रहेगा वह बचा लिया जाएगा’—यह वाक्यांश नहीं भूलना चाहिए। यह कहावत सदा सच है और सर्वोच्च सत्य बनी हुई है। मुझे इस कहावत का मान रखकर इसे लगातार अपने दिल में अंकित रखना चाहिए।” निराशा और खामोशी की अवधि के बाद मसीह-विरोधी अंततः फिर से “खड़े” हो जाते हैं।
परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में मसीह-विरोधी विभिन्न भूमिकाओं में सेवा करते हुए तमाम तरह के कार्य करते हैं। उनमें बाहरी तौर पर तो कोई बदलाव नहीं दिखता लेकिन उन्हें परमेश्वर में विश्वास करते जितना अधिक समय होता है और वे उसका जितना ज्यादा अनुसरण करते हैं, वे मन-ही-मन आपदा की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों की उतनी ही अधिक मीन-मेख निकालते हैं। ऐसा क्यों होता है? वे परमेश्वर में जितने लंबे समय से विश्वास करते आए हैं तो इसका मतलब है कि उन्होंने उतना ही अधिक बलिदान दिया है, उतना ही अधिक त्याग किया है और उनके पास सांसारिक दुनिया में लौटने का उतना ही कम रास्ता बचा है। इसलिए आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले इन वचनों के संबंध में मसीह-विरोधी अधिक से अधिक और अनजाने ही सोचते रहते हैं, “मुझे आशा है कि यह सब सच है। यह सब अवश्य सच होना चाहिए।” वे इस “अवश्य” और इस दृढ़ विश्वास को परमेश्वर में अपनी सच्ची आस्था मानते हैं। यह कथित सच्ची आस्था उन्हें अपने कर्तव्य निभाने, पीड़ा सहने और कीमत चुकाने, सहने और फिर कुछ और सहने के लिए प्रेरित करती है, जैसा कि अविश्वासी कहते भी हैं : “जीतने के लिए तुम्हें अपना सब कुछ दाँव पर लगाना पड़ेगा।” इस तरह के विश्वास पर कायम रहते हुए मसीह-विरोधी उस दिन की खोजबीन में रहते हैं जब परमेश्वर के वचन सच होंगे। अंततः वह दिन आ जाता है—इस दुनिया में आपदाएँ और आफतें लगातार आती हैं और विभिन्न कोनों में, विभिन्न देशों में और विभिन्न जातीय समूहों के बीच घटित होती हैं। ये छोटी-बड़ी आपदाएँ कई जान ले लेती हैं, कई लोगों के जीवन परिवेश को बदल देती हैं, पारिस्थितिकीय पर्यावरण को बदल देती हैं, समाज में तमाम संरचनाओं, जीवन के तरीकों, आदि को बदल देती हैं। लेकिन चाहे कुछ भी हो, मसीह-विरोधियों की नजर में परमेश्वर के वचन अभी भी थोड़ी-सी हद तक सच हो रहे होते हैं, जो उनके अंतरतम के लिए सबसे संतोषप्रद बात होती है। उन्हें लगता है कि इतने वर्षों में उन्होंने व्यर्थ ही नहीं सहा या इंतजार किया और अंततः उस दिन और चरण के गवाह बने हैं जब परमेश्वर के वचन सच हो रहे हैं। लेकिन उन्हें लगता है कि उन्हें हतोत्साहित नहीं होना चाहिए या हार नहीं माननी चाहिए; उन्हें सहते रहना और इंतजार करते रहना चाहिए। मसीह-विरोधी चाहे कितना ही सहें या इंतजार करें, उन्हें अंदर-ही-अंदर कौन सी चीज सबसे अधिक परेशान करती है? “छोटी-मोटी आपदाएँ सच हो गई हैं; भुखमरी, महामारी, कुछ राजनीतिक शासनों का विघटन—ये सब कुछ हद तक सच हो रहे हैं। लेकिन बड़ी आपदाएँ कब सच होंगी?” एक ओर मसीह-विरोधी यह मानते हैं कि परमेश्वर के कुछ वचन धीरे-धीरे और थोड़े-थोड़े सच हो रहे हैं, जबकि दूसरी ओर वे संदेह करते हैं : “क्या ये आपदाएँ बस प्राकृतिक आपदाएँ नहीं हैं? पूरे इतिहास के दौरान आपदाएँ निरंतर आती रही हैं। क्या ये आपदाएँ आना परमेश्वर के वचन पूरे होना है? अगर नहीं, तो ये क्या हैं? मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए; परमेश्वर के विश्वासी को परमेश्वर के वचनों में विश्वास करना चाहिए। लेकिन परमेश्वर के वचन क्या इतनी आसानी से पूरे हो जाते हैं? परमेश्वर ने यह कैसे किया? मैंने उसे ऐसा करते क्यों नहीं देखा? इसके बारे में मैं क्यों नहीं जानता? अगर यह परमेश्वर का किया हुआ है तो उसमें विश्वास रखने वालों को यह दिखना चाहिए, परमेश्वर को उन्हें दर्शन देना चाहिए। लेकिन हमने न तो परमेश्वर का हाथ देखा है, न ही परमेश्वर की वाणी सुनी है। तो फिर ये घटनाएँ क्या संयोग मात्र हो सकती हैं? मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए; ऐसे विचार मुझे कमजोर बना सकते हैं। मुझे अब भी यह विश्वास रखना है कि यह सब परमेश्वर के वचनों का पूरा होना है; मैं इसे केवल परमेश्वर की संप्रभुता के रूप में, परमेश्वर के वचनों के सच होने के रूप में लूँगा, संयोग रूप में नहीं। इस तरह मेरा दिल अधिक सहज रहता है।” उन्हें लगता है कि इस तरह से सोचना बहुत चतुराईपूर्ण है और यह कि उन्होंने स्थिति का ठीक से विश्लेषण कर लिया है, और वे परमेश्वर पर संदेह न करने के साथ ही अपनी आस्था को सुस्थिर करने में सक्षम हैं, और अपने दिल के भीतर उठने वाली बेचैनी और इच्छाओं के ज्वार को भी शांत कर रहे हैं। अस्थायी रियायतें लेते और समझौते करते हुए मसीह-विरोधी बड़ी आपदाएँ आने का इंतजार करते हैं। “बड़ी आपदाएँ कब आएँगी? जब वे आएँगी तो संतों का हवा में स्वर्गारोहण होगा, लेकिन यह वास्तव में किस जगह होगा? स्वर्गारोहण कैसे होता है? क्या वे उड़कर जाएँगे या परमेश्वर के हाथ से उठा लिए जाएँगे? जब बड़ी आपदाएँ घटित होंगी तो क्या तब भी लोगों के पास अपना भौतिक शरीर बचा रहेगा? क्या वे तब भी अपने यही कपड़े पहने रहेंगे? क्या सभी अविश्वासी मर जाएँगे? वह कैसी दशा या परिस्थिति होगी? यह इंसानों के लिए अकल्पनीय है। बेहतर होगा कि मैं फिलहाल इसके बारे में न ही सोचूँ। मैं बस यह विश्वास करूँगा कि परमेश्वर के वचन यकीनन सच होंगे। लेकिन क्या वे सचमुच सच हो सकते हैं? वह दिन कब आएगा?” वे मन-ही-मन में खुद से ये सवाल पूछते रहते हैं और बार-बार संदेह जताते रहते हैं। चूँकि ये आपदाएँ उनकी संभावनाओं और नियति से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई हैं, इसलिए मसीह-विरोधी यह मानते हैं : “मुझे किसी भी समय आपदाएँ फलीभूत होने की अपनी तलाश और निगरानी में ढिलाई नहीं बरतनी चाहिए। मैं इस मामले को छोड़ नहीं सकता। तो मुझे क्या करना चाहिए? मुझे व्यापक रूप से सुसमाचार फैलाना चाहिए, अपने कर्तव्य परिश्रमपूर्वक निभाने चाहिए, विघ्न या गड़बड़ी पैदा करने या गलतियाँ करने से बचने और आडंबर दिखाए बिना विनम्र रहना चाहिए। इतना ही काफी होगा कि मैं गलतियाँ न करूँ और कलीसिया से निष्कासित न किया जाऊँ। मैं निश्चय ही शरण में पहुँच सकूँगा; यह परमेश्वर का वादा है—इसे कौन छीन सकता है?” जब थोड़ा-थोड़ा करके छोटी-मोटी आपदाएँ आती हैं और पूरी मानवजाति आपदाओं में पड़ जाती है, तो मसीह-विरोधियों को अंदर तक चैन और बड़ी-ही शांति मिलती है। साथ ही वे बड़ी आपदाओं के आगमन और संतों के स्वर्गारोहण के दिन की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं। मसीह-विरोधी हर हाल में आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों की खोजबीन में लगे रहते हैं। परमेश्वर की नजर में ऐसी खोजबीन शैतान की खोजबीन के समान है। वह इसे संदेह, इनकार, बदनामी और परमेश्वर की सटीकता के विश्लेषण की तरह देखता है। यह परमेश्वर की पहचान पर सवाल उठाना है, परमेश्वर के अधिकार और सर्वशक्तिमत्ता पर संदेह करना है, और परमेश्वर की निष्ठा पर संदेह करना है। परमेश्वर ऐसी चीजें नहीं होने देता, न ही वह ऐसे लोगों को अस्तित्व में रहने देता है और वह यकीनन ऐसे लोगों को नहीं बचाएगा। मसीह-विरोधियों को लगता है कि उन्होंने गुपचुप ढंग से सोचकर और दिल में हिसाब-किताब लगाकर जो जवाबी उपाय तैयार किए हैं वे सबसे चतुराईपूर्ण और सबसे गुप्त हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर उनके सारे विचारों को देखता है और उनकी निंदा करता है। परमेश्वर यह कहता है : “उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?’ तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ’” (मत्ती 7:22-23)। परमेश्वर शांति से अपने दिल में इन लोगों से कहता है : कुकर्म करने वाले लोगो मेरे पास से चले जाओ। तुम मेरे क्रिया-कलापों की खोजबीन करते हो, मेरे वचनों की खोजबीन करते हो। ऐसे लोग कभी नहीं बचाए जा सकते। आपदाओं की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं, मसीह-विरोधियों का इसे अपने अनुसरण का लक्ष्य और परमेश्वर की सटीकता की जाँच करने का मापदंड मानना एक भयानक बात है; यह एक बुरा कर्म भी है।
जहाँ तक इस बात का सवाल है कि क्या परमेश्वर के वचनों के कुछ पहलू सच होंगे, वे कैसे सच होंगे, वे कब और कहाँ सच होंगे तो इस बारे में परमेश्वर के अपने तरीके हैं। यह परमेश्वर का अनुग्रह ही है जो मनुष्य को परमेश्वर से ये वचन सुनने का परम सौभाग्य देता है। परमेश्वर का ये वचन कहने का उद्देश्य यह नहीं है कि मानवजाति इनका उपयोग परमेश्वर को बाध्य करने, परमेश्वर की सत्यता की जाँच करने या परमेश्वर की पहचान की पुष्टि करने के लिए करे। परमेश्वर ये वचन मानवजाति को सिर्फ यह बताने के लिए कहता है कि वह ऐसी चीजें करने जा रहा है, लेकिन परमेश्वर ने कभी किसी से नहीं कहा, “मैं इसे इस ढंग से करूँगा, इन लोगों के साथ करूँगा, इस समय और इस तरीके से करूँगा।” परमेश्वर ने मानवजाति को जो चीजें नहीं बताई हैं, उनमें एक स्पष्ट संकेत है : मानवजाति को जानने की जरूरत नहीं है, न ही वह यह जानने के लायक है। इसलिए, अगर मनुष्य हमेशा इन मामलों में खोजबीन करने की कोशिश करते हैं, हमेशा तह तक जाने की कोशिश करते हैं, हमेशा इन मामलों का उपयोग परमेश्वर पर हावी होने, उसकी आलोचना और निंदा करने के लिए करना चाहते हैं, तो जब ये घटनाएँ घटित होंगी तब मानवजाति अदृश्य रूप से परमेश्वर के विरोध में खड़ी होगी। जब तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े होते हो तो फिर परमेश्वर तुम्हें इंसान नहीं मानता। तो फिर तुम क्या होते हो? परमेश्वर की नजर में तुम एक शैतान हो, एक शत्रु, एक दानव होते हो। यह परमेश्वर के स्वभाव का वह हिस्सा है जो मनुष्य का किया अपमान बर्दाश्त नहीं करता है। अगर लोग यह बात नहीं समझते और अक्सर परमेश्वर की भविष्यवाणी के वचनों को मुद्दा बनाते हैं, परमेश्वर पर हावी होने की कोशिश करते हैं तो फिर मैं तुम्हें बता दूँ, यह मौत को दावत देना है। मनुष्यों को हर समय पता रहना चाहिए कि वे कौन हैं और उन्हें परमेश्वर और परमेश्वर संबंधी हर चीज के साथ किस तरीके से, कैसी सूझ-बूझ से और किस दृष्टिकोण से पेश आना चाहिए। एक बार जब लोग सृजित प्राणियों के रूप में अपनी पहचान और स्थिति खो बैठते हैं तो उनका सार बदल जाता है। अगर तुम एक जानवर बन गए तो परमेश्वर शायद तुम्हें अनदेखा कर दे क्योंकि तुम एक तुच्छ वस्तु होगे। लेकिन अगर तुम दानव या शैतान बन गए तो खतरे में पड़ जाओगे। दानव या शैतान बनने का अर्थ है परमेश्वर का शत्रु होना और फिर तुम्हारे पास कभी उद्धार की आशा नहीं रहेगी। इसलिए मैं यहाँ हर किसी को बता देना चाहता हूँ : परमेश्वर के क्रिया-कलापों की खोजबीन मत करो, परमेश्वर के वचनों की खोजबीन मत करो, परमेश्वर के कार्य की खोजबीन मत करो और परमेश्वर से संबंधित किसी भी चीज की खोजबीन मत करो। तुम एक मनुष्य हो, एक सृजित प्राणी हो, इसलिए परमेश्वर की सटीकता का विश्लेषण मत करो। परमेश्वर को अपने विश्लेषण और जाँच-पड़ताल की वस्तु मत समझो, न ही खोजबीन की वस्तु समझो। तुम एक सृजित प्राणी हो, एक मनुष्य हो, इसलिए परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है। परमेश्वर जो कुछ भी कहता है वह तुम्हें स्वीकार करना चाहिए। परमेश्वर तुम्हें जो कुछ भी बताता है वह तुम्हें स्वीकार करना चाहिए। जहाँ तक उन चीजों का सवाल है जो परमेश्वर तुम्हें नहीं बताता, वे मामले जिनका संबंध रहस्यों और भविष्यवाणियों से है, वे मामले जिनका संबंध परमेश्वर की पहचान से है, तो एक बात तय है : तुम्हें इन्हें जानने की जरूरत नहीं है। इन्हें जानने से तुम्हारे जीवन प्रवेश को लाभ नहीं होगा। उतना ही स्वीकार करो जितना तुम समझ सकते हो। इन्हें अपने स्वभाव में बदलाव और उद्धार की खोज में बाधा मत बनने दो। यही सही तरीका है। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के विरोध में खड़ा होता है और परमेश्वर से संबंधित बातों की खोजबीन में लगा रहता है, और अगर वह खुद को बदलने से लगातार इनकार करता रहता है, हठधर्मी बना रहता है, परमेश्वर के साथ इस तरीके से और ऐसे रवैये के साथ पेश आता है तो उसके बचाए जाने की उम्मीद बहुत धूमिल हो जाती है। मसीह-विरोधी आपदा की भविष्यवाणी करने वाले परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करते हैं—आओ इस मद पर अपनी संगति को यहीं समाप्त करते हैं। अब हम अगली मद पर चलते हैं।
4. परमेश्वर के इस बारे में कहे गए वचनों की खोजबीन करना कि वह पृथ्वी से कब विदा होगा और कब उसका महान कार्य पूरा हो जाएगा
चौथी मद यह है कि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के इस बारे में कहे गए वचनों की खोजबीन करते हैं कि वह पृथ्वी से कब विदा होगा और कब उसका महान कार्य पूरा हो जाएगा। परमेश्वर के वचनों में इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं है। इन गिने-चुने वचनों में अगर विषयवस्तु लोगों के खास मतलब के विषय से जुड़ी है तो फिर ये वचन चाहे कितने ही अस्पष्ट और छिपे हुए हों, वे इन्हें ढूँढ़ लेंगे। इन्हें ढूँढ़ने के बाद वे इन पर कलम से निशान लगाते हैं और इन्हें पढ़ने के लिए महत्वपूर्ण वचन मानते हैं। जब भी उन्हें मौका मिलता है वे इन वचनों को साझा करते हैं और खुद को चेतावनी और दिलासा देने के लिए इन्हें पढ़ते हैं। बेशक मसीह-विरोधियों की बड़ी चिंता का संबंध इस बात से नहीं है कि परमेश्वर पृथ्वी से कब विदा होगा या उसका महान कार्य कब पूरा होगा, बल्कि इन तथ्यों से है जिन्हें परमेश्वर इन वचनों की आड़ में पूरा करना चाहता है। मसीह-विरोधियों को अपने दिल में सबसे अधिक आशा यह होती है कि वे परमेश्वर के पृथ्वी से विदा होने के भव्य दृश्य को खुद अपने जीवनकाल में ही देख लें। इसका मतलब यह होगा कि उन्होंने जिस परमेश्वर का अनुसरण किया है वह सही है, उन्होंने कोई गलत परमेश्वर नहीं चुना है, न ही उन्होंने अनुसरण करने का गलत उद्देश्य चुना है। जब इनकी पुष्टि हो जाती है तो वे मानते हैं कि उनके आशीष पाने की संभावना काफी बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त, अगर वे परमेश्वर के पृथ्वी से विदा होने और उसका महान कार्य पूरा होने का दृश्य अपने जीवनकाल में देख सके तो इसका मतलब है कि उनकी आस्था और ज्यादा दृढ़ हो जाएगी और वे बिना किसी संदेह के परमेश्वर का अनुसरण करेंगे। इस दृश्य को देखने का मतलब यह होगा कि परमेश्वर के बारे में उनकी पिछली शंकाएँ और नासमझी, और दूसरों से उन्हें जो निंदा, आलोचना और अस्वीकृति का सामना करना पड़ा था, वह सब पीछे छूट जाएगा और आगे उन्हें बाधित नहीं करेगा। एक लिहाज से मसीह-विरोधी इस दिन के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, और दूसरे लिहाज से वे यह देख रहे होते हैं कि परमेश्वर अभी पृथ्वी पर क्या कर रहा है, क्या उसका कार्य पूरा होने को है, क्या उसके द्वारा बोले जाने वाले वचन लगभग समाप्त हो गए हैं, क्या उसका अनुसरण करने वाले लोगों में सच्ची निष्ठा है और क्या वे पूर्ण बनाए जा चुके हैं। जो लोग अब मसीह का अनुसरण कर रहे हैं, उनका अवलोकन कर मसीह-विरोधी देखते हैं कि अधिकतर लोगों की आस्था कमजोर है, वे अक्सर अपने कर्तव्य निभाने में गलतियाँ करते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हुए भ्रष्टता प्रकट करने पर कई लोगों की अक्सर काट-छाँट की जाती है। यहाँ तक कि कुछ को दोयम समूह में भेजकर अलग-थलग या निष्कासित कर दिया जाता है। इन संकेतों से उन्हें लगता है, “परमेश्वर का महान कार्य पूरा होने का दिन अभी भी दूर लगता है, जो बहुत निराशाजनक है! लेकिन अधीर होकर कोई क्या कर सकता है? इससे किस समस्या का समाधान हो सकता है?” चूँकि मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों में विश्वास नहीं करते, सत्य को स्वीकार नहीं करते, उनमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है और वे सत्य को नहीं समझते, इसलिए वे यह आकलन नहीं कर पाते कि लोगों पर परमेश्वर के कार्य का प्रभाव सामान्य है या नहीं। वे इस बात को समझ नहीं पाते कि परमेश्वर ने लोगों पर जो कार्य किया है उसका वास्तव में कोई प्रभाव पड़ा है या नहीं; क्या परमेश्वर के वचन लोगों को सचमुच बचा और बदल सकते हैं; क्या इन वचनों को स्वीकार करते हुए लोगों ने अपने में बदलाव किया, सचमुच कुछ हासिल किया या परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त की है; न ही वे यह समझ पाते हैं कि क्या ये लोग स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं और आशीष प्राप्त कर सकते हैं या नहीं—और वे उन तथ्यों को समझ या समझा नहीं सकते जिन्हें वे अपनी आँखों से देखते हैं। वे जिस किसी घटना को देखते हैं, जिस किसी घटना के बारे में अपने मन में सोचते हैं वह ऐसी धुँध में घिरी होती है जिसे दूर करना नामुमकिन होता है। “ये सभी मामले छलावे वाले हैं और इनको जानना और समझना कठिन है। क्या परमेश्वर के पृथ्वी से विदा होने और परमेश्वर के महान कार्य के पूरा होने की घटनाएँ सचमुच होती हैं? क्या ये वास्तव में सच हो सकती हैं?” एक ओर, मसीह-विरोधी यह विश्वास करने के लिए खुद को मजबूर करते हैं कि वे जिस परमेश्वर का अनुसरण करते हैं वह परमेश्वर है, लेकिन साथ ही वे संदेह करने से भी नहीं बच पाते : “क्या वह परमेश्वर है? वह एक इंसान है, है न? इस तरह सोचना अच्छा नहीं है। अधिकतर लोग मानते हैं कि वह परमेश्वर है, इसलिए मुझे भी मानना चाहिए। लेकिन नहीं, मैं इस पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ! मैं कहाँ देख सकता हूँ कि वह परमेश्वर है? क्या वह परमेश्वर का महान कार्य पूरा करवा सकता है? क्या वह परमेश्वर का कार्य कर सकता है? क्या वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है? क्या वह परमेश्वर की योजना को पूरा कर सकता है? क्या वह मानवजाति को बचा सकता है? क्या वह लोगों को एक खूबसूरत मंजिल तक ले जा सकता है?” ये सभी विचार और इनके समान और भी विचार मसीह-विरोधियों के हृदय की गहराइयों में अनसुलझी और अभेद्य गुत्थी बन जाते हैं। वे सोचते हैं, “मुझे क्या करना चाहिए? फिर भी, सबसे बड़ा सिद्धांत है : रुको और सहो; जो अंत तक सहता रहेगा वह बचा लिया जाएगा। भले ही मैं सत्य का अनुसरण नहीं करता, मेरे अपने नियम हैं। अगर दूसरे लोग नहीं जाएँगे तो मैं भी नहीं जाऊँगा। अगर दूसरे लोग अनुसरण करेंगे तो मैं भी अनुसरण करूँगा। मैं हवा के रुख के साथ चलूँगा। अगर हर कोई कहता है कि वह परमेश्वर है तो मैं भी उसे परमेश्वर कहूँगा। अगर हर कोई विश्वास करना बंद करके परमेश्वर को नकार देगा, तो मैं भी ऐसा ही करूँगा। जब हर कोई अपराधी हो तो कानून लागू नहीं किया जा सकता, है न?” जब वे परमेश्वर के कार्य के विस्तार को चरम पर पहुँचते हुए देखते हैं, तो वे चुपचाप अपने दिलों में खुशी मनाते हैं : “सौभाग्य से मैं उस समय छोड़कर नहीं गया जब मेरे मन में सबसे अधिक संदेह था और मैं कमजोर था। देखो मेरी आस्था अब क्या लेकर आई है। वो दिन आ ही गया है और अधिक से अधिक लोग परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं। खासकर विदेश में तमाम देशों के लोग सच्चे मार्ग की जाँच कर रहे हैं और विश्वासियों की संख्या बढ़ रही है। परमेश्वर का घर अधिक से अधिक वीडियो, फिल्में, भजन और गवाहियाँ बनाकर अधिक ध्यान खींच रहा है। ऐसे नतीजे कोई इंसान हासिल नहीं कर सकता; केवल परमेश्वर का कार्य ही ऐसा कर सकता है। यह साधारण व्यक्ति बहुत संभव है कि मसीह है, परमेश्वर है। चूँकि वह मसीह है, परमेश्वर है तो उसके वचन अवश्य सच होंगे। अगर उसके वचन सच नहीं हुए तो वह परमेश्वर नहीं है। तार्किक बुद्धि के अनुसार यह अनुमान समझ में आता है, यह सही है। अगर वह परमेश्वर है तो एक दिन ऐसा आएगा जब वह पृथ्वी से विदा हो जाएगा; अगर वह परमेश्वर है तो वह अपना महान कार्य पूरा कर सकता है। इन सभी संकेतों से पता चलता है कि कलीसिया में परमेश्वर का अनुसरण करने वाले लोग एक सकारात्मक दिशा में, एक अच्छे लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। सब कुछ बिल्कुल आदर्शमूलक है, यह सब बहुत सकारात्मक और रचनात्मक है। यह सांसारिक प्रवृत्तियों का अनुसरण करने से बेहतर है; उनका अनुसरण करने में कोई उम्मीद नहीं है, वे केवल पीड़ा, दुराचार और अंततः विनाश की ओर ले जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करता है, उसके पृथ्वी से विदा होने और उसका महान कार्य पूरा होने के दिन का गवाह बन सकता है और दूसरों के साथ परमेश्वर की महिमा में भाग ले सकता है—तो यह कितने सम्मान की बात होगी!” इस बारे में सोचकर उन्हें लगता है : “मैं इतना होशियार कैसे हो गया? मैंने यह रास्ता चुना; ऐसा लगता है कि मैं उच्च बुद्धिलब्धि वाला काफी मेधावी व्यक्ति हूँ।” वे इसका श्रेय परमेश्वर के अनुग्रह को नहीं देते, बल्कि अपनी बुद्धिमत्ता, अपनी चतुराई को देते हैं। यह कितना ऊटपटाँग ख्याल है!
मसीह-विरोधी सोचते हैं, “परमेश्वर के पृथ्वी से विदा होने और परमेश्वर के महान कार्य पूरा करने का मामला परमेश्वर के वादों और आशीषों, उसके शाप और दंड और आपदाओं के बारे में उसकी भविष्यवाणियों जैसे मामलों से अलग है—इस मामले में जल्दबाजी नहीं की जा सकती; उस दिन के आने की प्रतीक्षा करने के लिए लोगों को 12/10 सहनशीलता और 20/10 का धैर्य रखने की आवश्यकता है। क्योंकि जब वह दिन आएगा तो सब कुछ पूरा हो जाएगा। अगर मैं अभी सहन नहीं कर सकता, अकेलापन बर्दाश्त नहीं कर सकता और इस पीड़ा को नहीं सह सकता तो जब वह दिन आएगा तो मुझे छोड़ दिया जाएगा। अब यह अंतिम चरण है; इतना कष्ट सहने के बाद भी अगर मैं थोड़ा-सा और नहीं सहता तो मैं मूर्ख होऊँगा!” इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए उस दिन के आगमन को देखने का केवल एक ही तरीका होता है : आज्ञाकारी बनकर और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें, जल्दबाजी न करें और सहना सीखें। वे सोचते हैं, “चूँकि मैंने जुआ खेलना चुना है, इसलिए मुझे सहना सीखना चाहिए, क्योंकि यह सहनशीलता कोई छोटी बात नहीं है। अगर मैं अंत तक धैर्य बनाए रखता हूँ तो एक बार यह मामला पूरा हो जाने पर मुझे जो मिलेगा वह एक बड़ा आशीष होगा! अगर इस अवधि में मैं न सह सका तो मुझे बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ेगा। यह मामला दो में से एक तरफ जा सकता है; या तो यह बड़ा आशीष दिला सकता है या फिर बड़ी विपत्ति ला सकता है।” तुम देख रहे हो कि मसीह-विरोधी मूर्ख नहीं हैं, है न? उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है और वे सत्य पर विश्वास नहीं करते, वे छद्म-विश्वासी हैं—फिर भी वे इस मामले का इतना सटीक और इतने विस्तार से विश्लेषण कैसे कर सकते हैं? क्या इस प्रकार का विश्लेषण उचित है? (नहीं।) मुझे बताओ, क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति लोगों का ऐसा “गंभीर” रवैया होना चाहिए? कुछ लोग कहते हैं : “यह एक बड़ा मामला है, इसका संबंध किसी की संभावनाओं और नियति से है और परमेश्वर के महान कार्य के पूरा होने से है। इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। लोगों को उस साल और महीने की सटीक गणना करनी चाहिए जब परमेश्वर पृथ्वी से विदा होगा। यही नहीं, परमेश्वर के वचनों के निहितार्थ से प्रकट परमेश्वर के विदा होने की विधि और दृश्य का विश्लेषण किया जाना चाहिए। अगर व्यक्ति इसे गंभीरता से नहीं लेता और इसका अच्छी तरह से विश्लेषण नहीं करता तो इतनी अच्छी चीज खोकर उसे अंतहीन पछतावा होगा; ऐसी घटना फिर कभी देखने को नहीं मिलेगी। खासकर जब परमेश्वर का महान कार्य पूरा हो जाता है और परमेश्वर के महिमामंडन का दिन और क्षण आता है तो लोगों को और भी अधिक जानने की जरूरत होती है।” इस पर कोई पूछता है, “अगर परमेश्वर न कहे तो हम कैसे जान सकते हैं?” “फिर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह इसे सपने में तुम पर प्रकट करे, ठीक वैसे ही जैसे प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में यूहन्ना ने किया। अगर तुम्हें कोई दर्शन मिलता है, तुम अपने सपने या दर्शन में परमेश्वर के महान कार्य के पूरा होने के दिन को देखते हो तो इससे एक पल में तुम्हारी आस्था पूरी तरह से मजबूत हो जाएगी। तुम्हारा धीरज, तुम्हारा इंतजार, अब औपचारिकता नहीं रहेगा या केवल कुछ ऐसा नहीं होगा जो तुम करते हो; बल्कि तुम स्वेच्छा से इंतजार करोगे और अपने दिल की गहराई से इस तरह सहन करोगे। यह कितना बढ़िया होगा!” क्या यह दृष्टिकोण स्वीकार्य है? (नहीं।)
मानवजाति को चाहे कितने ही वर्षों तक देहधारी परमेश्वर की जरूरत पड़े, अंततः एक दिन ऐसा आएगा जब देह में उसका कार्य पूरा हो जाएगा। इसका मतलब यह है कि यह व्यक्ति अंततः मानवजाति को छोड़ देगा; यह बस समय की बात है। परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना का कार्य समाप्त होने के करीब है। अब यह अंत दस साल, बीस साल, पचास साल, अस्सी साल में होगा या सौ साल में, हमें इसकी गहराई में जाने की जरूरत नहीं है। यह तो बस परमेश्वर के बोलने का तरीका है। यह कहने का क्या मतलब है कि यह परमेश्वर के बोलने का तरीका है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर की “अंत” की अवधारणा वास्तव में कितने वर्षों की है—समय के बारे में परमेश्वर की अवधारणा निश्चित रूप से मनुष्यों से अलग होती है। क्या यह जाँच-पड़ताल करना हमारे लिए उपयोगी है कि यह अंत वास्तव में कितने वर्ष का है? नहीं, यह उपयोगी नहीं है। क्यों नहीं है? इसलिए कि यह सब परमेश्वर के हाथ में है, यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे मनुष्य माँगकर प्राप्त कर सकता है, न ही ऐसा कुछ है जिसे एक बार पता चल जाने पर लोग परमेश्वर को रोकने के लिए उपयोग कर सकते हैं। परमेश्वर जैसा चाहता है वैसा करता है। परमेश्वर के अनुयायियों को केवल सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने चाहिए, जीवन हासिल करना चाहिए, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलना चाहिए और सचमुच योग्य सृजित प्राणी बनना चाहिए। इस तरह से परमेश्वर का महान कार्य वास्तव में पूरी तरह पूरा हो जाएगा और परमेश्वर विश्राम करेगा। परमेश्वर के विश्राम का क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि मानवजाति को विश्राम मिलेगा। एक बार जब मानवजाति को विश्राम की जगह मिल जाए, तो परमेश्वर विश्राम कर सकता है। परमेश्वर का विश्राम ही मानवजाति का विश्राम होता है। जब मानवजाति के पास सामान्य जीवन-यापन का परिवेश और व्यवस्था होती है तो इससे परमेश्वर को विश्राम मिलता है। जहाँ तक यह सवाल है कि मनुष्यों को ऐसा जीने का परिवेश कब मिलेगा, कब वे इस चरण तक पहुँचेंगे और कब परमेश्वर अपना महान कार्य पूरा करेगा और अपने विश्राम स्थल में प्रवेश करेगा, ये सब चीजें परमेश्वर की योजना के भीतर हैं; उसका एक तय कार्यक्रम होता है। परमेश्वर की योजना का यह कार्यक्रम किस युग में आता है, इसके वर्ष, महीने, घंटा और मिनट का क्या लेखा-जोखा है, यह बात केवल स्वयं परमेश्वर जानता है। इसे मनुष्य को जानने की जरूरत नहीं है और तुम्हें बताने का कोई फायदा नहीं है। भले ही तुम्हें सटीक वर्ष, महीना, घंटा और मिनट बता भी दिया जाए, तो क्या यह तुम्हारा जीवन बन सकता है? क्या यही जीवन है? यह जीवन का स्थान नहीं ले सकता। सृजित प्राणियों को जो एकमात्र काम करना चाहिए वह है परमेश्वर के वचनों को सुनना, परमेश्वर के वचनों को स्वीकार करना और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करना, ऐसे लोग बनना जो परमेश्वर का भय मानें और बुराई से दूर रहें। लेकिन हमेशा परमेश्वर के वचनों की जाँच-पड़ताल करना, यह खोजबीन करना कि क्या परमेश्वर के वचन सच होते हैं, परमेश्वर के वचनों की सत्यता की जाँच करना, उनका विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करना—ये वे काम नहीं हैं जो सृजित मनुष्यों को करने चाहिए। जो लोग इस मार्ग पर चलने और ये काम करने पर जोर देते हैं वे स्पष्ट रूप से वो सृजित प्राणी नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर चाहता है। वे उसकी अपेक्षाओं के अनुसार कार्य नहीं करते, वे परमेश्वर द्वारा लोगों के लिए निर्धारित नियमों और विनियमों के अनुसार नहीं जीते। परमेश्वर की नजर में वे परमेश्वर के शत्रु हैं; वे दानव और शैतान हैं, परमेश्वर के उद्धार की वस्तु नहीं हैं। इसलिए जब परमेश्वर पृथ्वी से विदा होगा, जब उसका महान कार्य पूरा हो जाएगा और जब परमेश्वर के महिमामंडन का दिन आएगा तो परमेश्वर के इन वचनों और इस मामले के प्रति मानवजाति का सही दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? व्यक्ति को यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर ने ये जो बातें कही हैं वे निश्चित रूप से सच होंगी और साथ ही परमेश्वर के महान कार्य के पूरा होने, परमेश्वर का राज्य आने, परमेश्वर के सभी लोगों के सामने महिमा के साथ प्रकट होने और परमेश्वर के जल्दी विश्राम में प्रवेश करने की उम्मीद करनी चाहिए। परमेश्वर का अनुसरण करने वाले सृजित मनुष्य को यही आशा और प्रार्थना करनी चाहिए। ऐसा करना उचित है और यह खोजबीन करना नहीं होता। लेकिन क्या परमेश्वर के वचन सच होते हैं या नहीं, हमेशा इसका उपयोग परमेश्वर को धमकाने, परमेश्वर के साथ शर्तें तय करने के हथकंडे के रूप में करते रहने को ही खोजबीन करना कहा जाता है और परमेश्वर के शत्रु यही करते हैं; हमेशा यह तय करते रहना कि कीमत चुकानी है या नहीं, सब कुछ त्याग देना है या नहीं और परमेश्वर के वचन सच हैं या नहीं, हमेशा इसी आधार पर अपना कर्तव्य निभाना है या नहीं, यह काम भी दुश्मन ही करते हैं। सच्चे सृजित प्राणियों को परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर की पहचान और परमेश्वर के कहे हर अंश को सृजित प्राणियों के दृष्टिकोण से देखना चाहिए, शैतान, दानवों या परमेश्वर के शत्रुओं के दृष्टिकोण से नहीं।
5. परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से संबंधित उसके वचनों की खोजबीन करना
जिस अगली मद पर हम संगति करेंगे उसका वास्ता परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से संबंधित वचनों से है। इन वचनों का दायरा बहुत व्यापक है; परमेश्वर के वचनों की अधिकांश विषयवस्तु उसके स्वभाव, पहचान और सार को स्पर्श करती है। एक लिहाज से परमेश्वर की वाणी के ढंग और लहजे के साथ ही विषयवस्तु से भी लोगों को परमेश्वर के स्वभाव, उसकी पहचान और सार को देखने का मौका मिलता है। दूसरे लिहाज से, परमेश्वर के वचन स्पष्ट होते हैं जिनके जरिए वह मानवजाति को अपना स्वभाव, पहचान और सार बताता है और जाहिर करता है। जहाँ तक विषयवस्तु के इन दो हिस्सों का संबंध है, एक लिहाज से परमेश्वर के वचनों के निहितार्थ से, परमेश्वर के वचनों की विषयवस्तु, परमेश्वर के वचनों की प्रकृति, साथ ही परमेश्वर के लहजे और उसकी वाणी का श्रोता कोई व्यक्ति परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को देख सकता है। दूसरे लिहाज से, परमेश्वर लोगों को स्पष्ट शब्दों में यह बताता है कि उसका स्वभाव कैसा है, उसकी पहचान और सार कैसे हैं। विषयवस्तु के ये दो ऐसे हिस्से हैं जिनकी मसीह-विरोधी बुनियादी तौर पर उपेक्षा करते हैं; वे इनसे परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को नहीं भाँपेंगे और वे निश्चित रूप से यह विश्वास नहीं करेंगे कि यह सब परमेश्वर से संबंधित है। चूँकि वे छद्म-विश्वासी होते हैं, इसलिए वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के मुँह से कहे गए वचन उसकी पहचान और सार का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन, एक बिंदु ऐसा है जिसे वे नकार नहीं सकते; परमेश्वर के वचनों ने लोगों के सामने यह रहस्य खोल दिया है कि परमेश्वर का स्वभाव किस प्रकार का है, परमेश्वर की पहचान कैसी है और उसका सार कैसा है—उसके वचनों के इस हिस्से को वे नहीं नकार सकते। सिर्फ इसलिए कि वे इसे नकार नहीं सकते, क्या इसका यह मतलब है कि उनके मन में सच्ची स्वीकृति और खरी मान्यता होती है? वे इन वचनों को नहीं मानते। इसके विपरीत, जहाँ तक परमेश्वर के स्वभाव की विषयवस्तु का संबंध है—उसकी धार्मिकता, पवित्रता, प्रेम, अधिकार और उसकी चीजों और अस्तित्व से संबंधित अन्य खूबियाँ—जिनके बारे में वह बताता है, मसीह-विरोधी इनके प्रति अवहेलना, उपेक्षा और तिरस्कार व्यक्त करने के अलावा इन वचनों को खोजबीन के परिप्रेक्ष्य से देखते हैं। उदाहरण के लिए, जब परमेश्वर यह कहता है कि वह धार्मिक है तो तब एक मसीह-विरोधी यह जाँच-पड़ताल करने लगेगा : “तुम धार्मिक हो? दुनिया में एक भी ऐसा नहीं है जो यह दावा करने का साहस करता हो कि वह धार्मिक है। चूँकि तुम यह कहने साहस करते हो तो चलो इसे परख लेते हैं। तुम किस तरह से धार्मिक हो? तुम्हारे कौन-से कर्म धार्मिक रहे हैं? मैं तो आश्वस्त नहीं हूँ! अगर यह कथन सचमुच साकार हो जाता है, अगर तुम सचमुच कुछ ऐसा धार्मिक कार्य कर लेते हो जिससे मैं आश्वस्त हो जाऊँ तो तब मान लूँगा कि तुम धार्मिक हो। लेकिन अगर तुम जो करते हो वह मुझे आश्वस्त नहीं करता तो तब मुँहफट होने के लिए मुझे दोष मत देना। मैं बिल्कुल भी नहीं मानूँगा कि तुम्हारा स्वभाव धार्मिक है!” आखिरकार जिस दिन का उन्हें इंतजार होता है वह आ जाता है : एक खास अगुआ बहुत बड़ी कीमत चुकाने और काफी कष्ट सहने के बावजूद अंततः एक झूठा अगुआ ठहराकर बरखास्त कर दिया जाता है क्योंकि वह असली कार्य करने में असमर्थ था। बरखास्त होने के बाद वह नकारात्मक हो गया, उसने गलतफहमियाँ पाल लीं, शिकायतें करने लगा और उसके पास कहने के लिए बहुत सारी रोषपूर्ण और आलोचनापरक चीजें थीं। इस मामले की भनक मिलने पर और उन्हें देखने पर मसीह-विरोधी कहता है, “अगर तुम्हारे जैसा कोई व्यक्ति बरखास्त किया जा सकता है तो फिर मेरे जैसे लोगों के लिए तो और भी बुरा है। अगर तुम्हारे बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है, अगर तुम परमेश्वर के इरादों के अनुरूप नहीं हो तो फिर और कौन हो सकता है? और कौन है जिसे परमेश्वर मानेगा?” एक लिहाज से, मसीह-विरोधी झूठे अगुआ का बचाव कर उसके लिए न्याय की माँग करता है; दूसरे लिहाज से, वह झूठे अगुआ की कही रोषपूर्ण और आलोचनापरक बातों को भी स्वीकार कर रहा है। साथ ही वह मन-ही-मन परमेश्वर से गुपचुप ढंग से लड़ रहा है : “क्या परमेश्वर धार्मिक है? तो फिर किसी ऐसे व्यक्ति को क्यों बरखास्त करना जिसने कलीसिया के कार्य के लिए कष्ट सहे हैं और कीमत चुकाई है? यह व्यक्ति तुम्हारे प्रति सर्वाधिक वफादार है। मैंने उससे ज्यादा वफादार कोई दूसरा नहीं देखा है; मैंने उससे ज्यादा कष्ट सहने और कीमत चुकाने वाला कोई दूसरा नहीं देखा है। वह जल्दी उठकर देर से सोने जाता है, बीमारी भोगता है, अपने परिवार के प्रति भावनाओं को दरकिनार कर देता है और दैहिक सुख-सुविधाओं और संभावनाओं को परे रखकर तुम्हारे लिए कार्य करने को अपना जीवन जोखिम में डालता है। उसे पहले भी जेल में डाला गया था और उसने तुमसे विश्वासघात नहीं किया। फिर भी तुम उसे यूँ ही बरखास्त देते हो, यूँ ही उसे बेनकाब कर देते हो—क्या तुम वास्तव में धार्मिक हो? तुम्हारी धार्मिकता का प्रमाण कहाँ है? मुझे यह क्यों नहीं दिखाई देता?” आखिरकार मसीह-विरोधी ने परमेश्वर के कार्य में एक ऐसा मौका झटक लिया है जिससे वह परमेश्वर के स्वभाव की धार्मिकता पर सवाल उठा सकता है। वह मन-ही-मन सोचता है, “अगर परमेश्वर धार्मिक है तो फिर अधिकतर लोग बच नहीं पाएँगे; अगर परमेश्वर धार्मिक है तो फिर लोगों को वास्तव में सावधान रहने की जरूरत है और जीवन काफी कठिन हो जाएगा। आखिरकार आज परमेश्वर के कार्य में एक ऐसा मौका मेरे हाथ लग गया है जिससे मैं यह साबित कर सकता हूँ कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है, और इससे चीजें आसान हो जाती हैं।” इसके साथ ही वे मन-ही-मन गुपचुप खुशी मनाते हैं।
परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने परमेश्वर का अनुसरण करते हुए हमेशा ही बड़े लाल अजगर का दमन, गिरफ्तारी और क्रूर उत्पीड़न सहा है। हर जगह कलीसियाओं में अक्सर परमेश्वर के ऐसे चुने हुए लोग होते हैं जो गिरफ्तार कर लिए जाते हैं और अत्याचार झेलते हैं। नतीजतन अक्सर कुछ लड़खड़ा जाते हैं या परमेश्वर से विश्वासघात कर बैठते हैं और कलीसिया को छोड़ देते हैं। लेकिन बहुत-से ऐसे लोग भी होते हैं जो गिरफ्तारी और उत्पीड़न के बीच अपनी गवाही में दृढ़ खड़े रहते हैं। परमेश्वर बड़े लाल अजगर की सेवाओं का उपयोग उन छद्म-विश्वासियों को बेनकाब करने में करता है जिन्होंने आशीषें पाने के लिए कलीसिया में घुसपैठ की है, साथ ही उन चुने हुए लोगों को पूर्ण बनाता है जो ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास करते हैं। यही परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि है। लेकिन मसीह-विरोधी इस मामले को कैसे देखते हैं? वे हमेशा परमेश्वर के प्रति संदेह से भरे रहते हैं : “परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों को बड़े लाल अजगर के हाथों गिरफ्तार होने और उत्पीड़न सहने से क्यों नहीं बचाता?” वे देहधारी परमेश्वर पर संदेह करते हैं और हमेशा परमेश्वर के प्रति अपने मन में संदेह पाले रहते हैं : “परमेश्वर के चुने हुए लोगों को ऐसी मार और यातना क्यों सहनी चाहिए? इसका कारण उनकी आस्था है, क्योंकि वे यहूदा बनने को तैयार नहीं हैं। लेकिन जब उन्हें यातनाएँ दी जाती हैं तो तब परमेश्वर कहाँ होता है? परमेश्वर उन्हें क्यों नहीं बचाता? क्या परमेश्वर लोगों से प्रेम नहीं करता? परमेश्वर का प्रेम कहाँ है? क्या ऐसा हो सकता है कि जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें वह शैतानों और दानवों के हाथों बुरी तरह अपमानित होने और अत्यधिक यातनाएँ सहने देता हो? क्या यही परमेश्वर का प्रेम है? लोगों के लिए परमेश्वर का सुरक्षा कवच वास्तव में कहाँ है? मैं इसे क्यों नहीं देख पाता? ऐसा लगता है कि मुझे और सावधान रहने की जरूरत है। परमेश्वर न सिर्फ लोगों को प्रलोभन या खतरे से दूर नहीं रख पाता—इसके उलट, व्यक्ति जितना अधिक कोशिश करता है, व्यक्ति में जितनी अधिक इच्छाशक्ति होती है और व्यक्ति जितना अधिक परमेश्वर का अनुसरण करता है, तो वह उतने ही अधिक परीक्षणों का सामना करता है और उसके उतनी ही अधिक पीड़ा और यातना सहने की संभावना होती है। चूँकि परमेश्वर इसी तरह कार्य करता है, तो फिर मेरे पास भी अपने सुरक्षात्मक उपाय हैं। ये लोग ऐसा व्यवहार इसलिए सहते हैं क्योंकि उन्होंने त्याग किए हैं; अगर मैं ऐसी कीमत न चुकाऊँ, अगर मैं इस तरह से अनुसरण न करूँ तो क्या मैं इन परीक्षणों से नहीं बच जाऊँगा? ये परीक्षण न हों तो क्या मैं ऐसे कष्ट से नहीं बच जाऊँगा? इस तरह कष्ट न सहकर क्या मैं आराम से नहीं रहूँगा? फिर भी अगर मैं आशीषें प्राप्त कर लेता हूँ तो मैं इतना मूर्ख क्यों बनूँ कि अपनी देह को तमाम तरह की यातना और पीड़ा सहने दूँ? परमेश्वर कहता है कि वह लोगों से प्रेम करता है, लेकिन मैं परमेश्वर के प्रेम का यह तरीका स्वीकार नहीं कर सकता! तुम सब लोग इसका चाहे जैसा भी अर्थ निकालो; इससे मेरा कोई सरोकार नहीं है, मैं इसे स्वीकार नहीं करूँगा। मुझे नजरों से बचे रहना है, मुझे थोड़ा-सा मुसीबत टालनी है, मुझे सावधान रहना और अपना बचाव करना है; मैं ऐसा नहीं कर सकता कि परमेश्वर मुझे पकड़कर काम पर लगा दे।” मसीह-विरोधी अपने मन में ऐसी चीजें पाले रहते हैं, जिनमें से सब परमेश्वर के विरुद्ध गलतफहमियाँ, विरोध, आलोचना और प्रतिरोध होता है। जो भी हो उन्हें परमेश्वर के कार्य का कोई ज्ञान नहीं है। परमेश्वर के वचनों की खोजबीन करते हुए परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार की खोजबीन करते हुए वे ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। मसीह-विरोधी इन बातों को दिल में दबाकर खुद को चेताते हैं : “सावधानी ही सुरक्षा की जननी है; अपने को छिपाकर चलना ही सबसे अच्छा है; जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है; और ऊँचाई पर तुम अकेले ही होगे! चाहे जब भी हो, कभी भी अपना सिर बाहर निकालने वाले पक्षी की तरह मत बनो, कभी भी बहुत ऊपर मत चढ़ो; जितना अधिक ऊपर चढ़ोगे, उतनी ही जोर से गिरोगे।” वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न वे ये मानते हैं कि उसका स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। वे इन सबको मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से देखते हैं; और परमेश्वर के कार्य को मानवीय दृष्टिकोणों, मानवीय विचारों और मानवीय छल-कपट से देखते हैं, परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को निरूपित करने के लिए शैतान के तर्क और सोच का उपयोग करते हैं। जाहिर है, मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को स्वीकार नहीं करते या नहीं मानते; बल्कि इसके उलट वे परमेश्वर के प्रति धारणाओं, विरोध और विद्रोहीपन से भरे होते हैं और उसके बारे में उनके पास लेशमात्र भी वास्तविक ज्ञान नहीं होता। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के प्रेम की मसीह-विरोधियों की परिभाषा एक प्रश्नचिह्न है—संदिग्धता है, और वे उसके प्रति संदेह, इनकार और दोषारोपण की भावनाओं से भरे होते हैं; तो फिर परमेश्वर की पहचान का क्या? परमेश्वर का स्वभाव उसकी पहचान दर्शाता है; परमेश्वर के स्वभाव के प्रति उनके जैसा रुख, परमेश्वर की पहचान के बारे में उनका नजरिया स्वतः स्पष्ट है—प्रत्यक्ष इनकार। मसीह-विरोधियों का यही सार है।
मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों के चाहे जिस किसी हिस्से को देखते हों, वे परमेश्वर के कार्यों के चाहे जिस हिस्से को देखते हों, चाहे ये समस्त चीजों या खास व्यक्तियों में परमेश्वर के कार्य हों, वे उन्हें सत्य के रूप में और स्वीकृति के तरीके की तरह देखने के बजाय निष्कर्ष निकालने और आलोचना करने के लिए हमेशा मानवीय परिप्रेक्ष्य और शैतानी तर्क के साथ ही ज्ञान और तर्क के तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए जहाँ तक परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार के बारे में वचनों का संबंध है, जहाँ तक जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसका और परमेश्वर के आत्मा का संबंध है, मसीह-विरोधियों का रुख वास्तव में एक समान होता है और इसमें कोई अंतर नहीं होता। आम तौर पर जिस किसी चीज का संबंध स्वयं परमेश्वर से, सृष्टिकर्ता से होता है वह सब उनकी खोजबीन और फिर अनुमान, जाँच-पड़ताल और विश्लेषण के तहत होता है और अंततः यह उन्हें इनकार और लाँछन के निष्कर्षों की ओर ले जाता है। परमेश्वर के इन वचनों को मसीह-विरोधी चाहे जिस दृष्टिकोण या तरीके से देखें, वे अंततः हमेशा निंदा और लांछन के निष्कर्ष क्यों निकालते हैं? वे आखिरकार ऐसे निष्कर्षों पर क्यों पहुँचते हैं? क्या वास्तव में यह मामला हो सकता है कि सृजित मानवजाति में कोई भी ऐसा न हो जो परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में ले सके? क्या यह अपरिहार्य परिणाम है? क्या इसका कारण परमेश्वर है? (नहीं।) तो फिर वास्तव में इसका कारण क्या है? (यह इसलिए कि लोगों में परमेश्वर का प्रतिरोध करने की प्रकृति है।) हर व्यक्ति में परमेश्वर का प्रतिरोध करने की प्रकृति है। ऐसा क्यों है कि ये वचन पढ़ने के बाद कुछ लोग तो इन्हें सत्य मान लेते हैं और परमेश्वर जो कहता है उसे स्वीकार कर सकते हैं, जबकि दूसरे लोग इन्हें नकार सकते हैं, इनकी निंदा कर सकते हैं और इन पर लाँछन लगा सकते हैं? इससे स्पष्ट रूप से एक समस्या दिखती है कि लोगों के भीतर सार अलग-अलग होता है। परमेश्वर के वचनों के साथ पेश आते समय मसीह-विरोधी मूलतः और व्यक्तिपरक रूप से इन्हें सचमुच स्वीकारते नहीं हैं। वे विरोध और परीक्षण करते हैं : “तुम खुद को परमेश्वर बताते हो तो मुझे यह देखना है कि तुम किस प्रकार से परमेश्वर जैसे हो? तुम कहते हो कि तुम्हारे पास परमेश्वर का स्वभाव और दिव्यता है, तो फिर मुझे यह देखना है कि तुम्हारे कौन-से वचनों से इस बात की पुष्टि होती है कि तुम्हारे पास दिव्यता है, कि तुम्हारे पास परमेश्वर का स्वभाव है, तुम्हारे कौन-से कृत्यों से यह पुष्टि होती है कि तुम्हारे पास परमेश्वर की पहचान और सार है। क्या तुमने संकेत और चमत्कार दिखाए हैं या बीमारों को चंगा किया और राक्षसों को भगाया है? क्या कभी ऐसा हुआ कि तुमने किसी को शाप दिया हो और उसकी फौरन मौत हो गई हो? क्या तुमने किसी मुरदे को जिंदा किया है? वास्तव में तुमने ऐसा किया ही क्या है जिससे यह पुष्टि हो सके कि तुममें परमेश्वर का स्वभाव है, परमेश्वर की पहचान और सार है?” मसीह-विरोधी हमेशा ये चीजें देखना चाहते हैं, ऐसी चीजें देखना चाहते हैं जो सत्य, मार्ग और जीवन से परे हैं और इन चीजों का उपयोग परमेश्वर की पहचान की पुष्टि करने के लिए करते हैं, यह पुष्टि करने के लिए करते हैं कि वे जिसका अनुसरण करते हैं वह परमेश्वर है। यह प्रस्थान बिंदु ही अपने आप में गलत है। वह सबसे बुनियादी बात क्या है जिससे परमेश्वर की पहचान और सार का निरूपण हो सकता है? (परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन है।) यही सबसे बुनियादी बात है। मसीह-विरोधी इस सबसे बुनियादी बात को समझने में भी विफल क्यों रहते हैं? यही वह विषय है जिसकी हमें चर्चा करने की जरूरत है। मसीह-विरोधी सत्य और सकारात्मक चीजों से घृणा करते हैं; वे सत्य और सभी सकारात्मक चीजों से विमुख होते हैं; वे सत्य और सकारात्मक चीजों से नफरत करते हैं। परमेश्वर के सारे वचनों में वे यह नहीं देखते कि कौन-से वचन सत्य या सकारात्मक चीजें हैं। क्या उनकी शैतानी आँखें यह देख सकती हैं? इसे देखे बिना क्या वे इसे स्वीकार सकते हैं? इन वचनों को सत्य स्वीकारने में उनके विफल रहने का अर्थ यह है कि वे परमेश्वर की पहचान और सार को स्वीकार नहीं कर सकते। यह निश्चित है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार से संबंधित उसके वचनों को समझने का प्रयास करते समय वही दृष्टिकोण अपनाते है जो वे परमेश्वर के अन्य वचनों के साथ अपनाते हैं, वे मन-ही-मन गणनाएँ करते हैं, साजिश रचते हैं और मन में तोलते रहते हैं। अगर परमेश्वर अपनी परमेश्वर की पहचान से कुछ ऐसा कहता है जो तुरंत सत्य साबित हो जाता है तो उनका रवैया फौरन बदल जाता है; अगर परमेश्वर के रूप में परमेश्वर कुछ ऐसा कहता या करता है जिससे उन्हें लाभ मिल जाता है तो उनके पास भी एक संगत प्रतिरोधी उपाय होता है और उनका रवैया फिर से तुरंत बदल जाता है। यही लोग परमेश्वर की निंदा करते हैं और यही वे लोग हैं जो कहते हैं कि परमेश्वर परमेश्वर की तरह है। उनके दृष्टिकोण से जहाँ तक यह सवाल है कि क्या परमेश्वर के पास परमेश्वर का स्वभाव, पहचान और सार है, तो वे इस बारे में जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं, वह पूरी तरह उनकी अपनी ही आँखों और अपने मानसिक विश्लेषण से देखा हुआ होता है।
पिछले एक-दो साल में कलीसिया ने अनुभवजन्य गवाहियों के कुछ वीडियो बनाए हैं। अलग-अलग लोगों ने तमाम अनुभवजन्य गवाहियाँ दी हैं जिन्होंने अस्थिर आधार वाले और कुछ-कुछ संदेह में जीने वाले लोगों को अपना थोड़ा-बहुत आधार बनाने में मदद की है। बेशक मसीह-विरोधियों को स्थिर करने में भी इसने कुछ भूमिका निभाई है। ये गवाही देने वाले व्यक्ति अलग-अलग आयु वर्गों, सामाजिक वर्गों और कुछ तो अलग-अलग देशों और जातीय समूहों से हैं। उन्होंने जो अनुभवजन्य गवाहियाँ साझी की हैं उनसे स्पष्ट है कि परमेश्वर के वचनों के जरिए उनमें बदलाव आए हैं, उन्होंने सत्य और जीवन हासिल किया है और परमेश्वर के वचन स्वीकार करके और परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकार करके उन्होंने बहुत-से सत्य समझे और इस बात की पुष्टि की कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसमें परमेश्वर की पहचान और सार है। बेशक इन अनुभवजन्य गवाहियों को सुनकर मसीह-विरोधियों को भी अपने अंतर्मन में थोड़ा-सा गुप्त आनंद हुआ : “सौभाग्य से मैंने परमेश्वर की सरेआम आलोचना नहीं की। सौभाग्य से मैंने परमेश्वर को नकारने की हड़बड़ी नहीं की। इतने सारे लोगों की गवाहियों के आधार पर आकलन करें तो यह तरीका सही लगता है। यह मसीह, यह साधारण इंसान आखिरकार हो सकता है कि परमेश्वर ही हो। शायद मैंने सही चाल चली। अगर मैं इसी राह पर चलता रहा और अगर अधिकाधिक लोग इस व्यक्ति की गवाही देते रहे, अगर और अधिक लोग इस व्यक्ति के समक्ष आते रहे और अगर और अधिक लोग इस व्यक्ति की पहचान और सार की पुष्टि करते रहे, तो फिर आशीष पाने की मेरी उम्मीद और अवसर बढ़ते जाएँगे।” हिचकते हुए निगरानी करते हुए भी मसीह-विरोधी खुद को निरंतर प्रोत्साहित और प्रेरित करते रहते हैं : “हड़बड़ी मत करो। धैर्य रखो। तुम्हें बस सहते रहना है। जो अंत तक सहता रहेगा वह बचा लिया जाएगा। तमाम मौजूदा संकेतों के आधार पर देखें तो, कलीसिया के विस्तार और गति के आधार पर देखें तो अधिक से अधिक लोग इस परमेश्वर के बारे में खड़े होकर गवाही देने में सक्षम हैं और यह पुष्टि कर रहे हैं कि यह मार्ग सही है। तो फिर मैं हड़बड़ी में खड़े होकर उसे नकारने की मूर्खता क्यों करूँ? ऐसा मत करो, मूर्ख मत बनो। तीन से पाँच साल और इंतजार कर लो। अगर और अधिक लोग, और अधिक प्रतिष्ठित और जानकार लोग, सामाजिक रुतबे वाले लोग इस साधारण व्यक्ति की मसीह के रूप में पुष्टि करने के तगड़े प्रमाण देते हैं या अगर सांसारिक प्रसिद्धि और रुतबे वाले और भी अधिक लोग कलीसिया में शामिल होते हैं और अगर कलीसिया का आकार विश्व स्तर पर और भी फैलता है तो फिर क्या मुझे कुछ न कुछ हासिल नहीं होगा? तब क्या मुझे अपार लाभ नहीं हो चुका होगा? अगर कलीसिया के पास शक्ति होगी तो क्या मेरे पास भी शक्ति नहीं होगी? मुझे कतई छोड़कर नहीं जाना चाहिए! अगर यह सब कुछ सही है, अगर यह व्यक्ति सचमुच परमेश्वर है और अगर मैं अब इसे तिरस्कृत या नकार दूँ तो फिर मैं ये सारी आशीषें पाने से चूक जाऊँगा। मुझे सारा दाँव इस व्यक्ति पर लगाना होगा। अपनी पहचान और सार में उसका स्वरूप क्या है, उसका स्वभाव किसका निरूपण करता है, इसकी मुझे परवाह नहीं है। मेरा वास्ता इस बात से है कि क्या अधिक से अधिक लोग उसका अनुसरण कर रहे हैं, क्या कलीसिया की शक्ति और आकार बढ़ रहा है। अगर यह अच्छी दिशा में बढ़ रहा है और सामान्य परिस्थिति में और भी अधिक बढ़ सकता है तो फिर मुझे अपनी संभावनाओं को लेकर चिंता करने की जरूरत नहीं है। अगर वह वास्तव में वही देह है जिसमें परमेश्वर के देहधारण की बाइबल में भविष्यवाणी की गई है तो फिर मुझे अपार आशीषें मिलेंगी, भारी लाभ होगा।” मसीह-विरोधी हर बार जब भी यह सोचते हैं उन्हें मन-ही-मन कुछ दिलासा और सुख मिलता है : “यह कैसा रहेगा? परमेश्वर के वचनों को सत्य न मानते हुए भी मैं अब भी आशीषें पा सकता हूँ। बिना यह विश्वास किए भी कि परमेश्वर के सारे कर्म धार्मिक हैं, मैं मजबूती से खड़ा रह सकता हूँ। बिना यह विश्वास किए भी कि परमेश्वर लोगों को बचा सकता है, मैं जीवित रह सकता हूँ। बिना यह विश्वास किए हुए भी कि परमेश्वर लोगों के अंतरतम हृदय को परखता है, मैं कलीसिया में सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभा सकता हूँ। मैं परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और अधिकार में विश्वास नहीं करता, मैं यह विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सब सार्थक होता है और मैं यह विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर समस्त चीजों और सारी मानवजाति की नियति पर संप्रभु होकर शासन करता है—मैं इनमें से किसी भी चीज पर विश्वास नहीं करता तो फिर भी क्या? मैं परमेश्वर की पहचान और सार में विश्वास नहीं करता हूँ, फिर भी मैं कलीसिया में बस निरुद्देश्य कार्य करते रह सकता हूँ। क्या परमेश्वर धार्मिक नहीं है? मैं बस बेमन से काम चलाता रहूँगा, मैं इसी तरह कलीसिया में बना रहूँगा, बस सहता रहूँगा। मेरे साथ कौन क्या कर लेगा? क्या मैं अब भी अंत तक सहता नहीं रह सकता और निश्चित रूप से बचाया नहीं जा सकता?” तुम लोग क्या सोचते हो, क्या मसीह-विरोधियों के खयाली पुलाव सफल हो सकते हैं? (नहीं।) जब वास्तव में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखने का दिन आएगा तो वे कहाँ होंगे? जब वे वास्तव में परमेश्वर की पहचान और सार को मानने को बाध्य होंगे, यह मानने को बाध्य होंगे कि परमेश्वर धार्मिक है, जब उन्हें दिखाया जाएगा कि परमेश्वर वास्तव में धार्मिक है तो उन्हें कहाँ होना चाहिए? क्या वे वास्तव में बचाए जा सकते हैं? क्या उनकी सहनशक्ति सचमुच प्रभावी हो सकती है? क्या वे वास्तव में बेमन से काम चलाते रह सकते हैं? परमेश्वर के वचन सच साबित होते हैं या नहीं, यह खोजबीन करने के उनके कृत्य को क्या उनकी सहनशक्ति, उनके समझौते, उनका दृढ़ता से कष्ट सहना, उनकी काइयाँ बुद्धि वास्तव में बेअसर कर सकती है? क्या उनके खयाली पुलाव, प्रतिरोधी उपाय, साजिश, षड्यंत्र और अपने दिल में बनाई गई सारी योजनाएँ, साथ ही उनकी परमेश्वर से संबंधित चीजों की खोजबीन उनके सत्य के अनुसरण का स्थान ले सकते हैं? क्या ये उन्हें बचाए जाने में सक्षम बना सकते हैं? (नहीं।) तो फिर इन अभिव्यक्तियों के आधार पर देखा जाए तो ये मसीह-विरोधी जो इतने काइयाँ हैं और जो बिना कोई झोल छोड़े हर मामला सँभालते हैं, जो हर चीज को बेहद गोपनीय ढंग से करते हैं, वे अंततः इस गति को क्यों प्राप्त होते हैं? इसका केवल एक ही कारण है : वे परमेश्वर के वचनों का सधे हुए ढंग से सामना नहीं करते, वे परमेश्वर के वचनों को सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करते, परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण नहीं करते, बल्कि परमेश्वर के वचनों में खोजबीन करते हैं। इसी कारण मसीह-विरोधियों की अंततः ऐसी हालत होती है। तुम सब लोग इसे समझते हो, है न? यद्यपि मैंने तुम लोगों को यह नहीं बताया कि कैसे कार्य करें या परमेश्वर के वचनों से कैसे पेश आएँ, लेकिन ये तथ्य बताने और परमेश्वर के वचनों के प्रति मसीह-विरोधियों के दृष्टिकोणों और उनके रवैये के गहन विश्लेषण के जरिए तुम सभी जानते हो कि परमेश्वर के वचनों के प्रति किस प्रकार का रवैया और परमेश्वर के वचन समझने के लिए कैसा रवैया सबसे सही होता है, एक सृजित प्राणी को कैसा रवैया अपनाना चाहिए, और यह कि इन रवैयों को रखना ही वह है, जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए।
22 अगस्त 2020