प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग दो)
पिछली सभा में हमने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की दसवीं मद पर संगति की थी, “वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं।” हमने किन विवरणों पर विशेष रूप से संगति की थी? (परमेश्वर ने मुख्य रूप से इस बारे में संगति की कि परमेश्वर के वचन को कैसे लें।) क्या यह दसवीं मद से संबंधित है? (हाँ। क्योंकि “वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं” मद में मसीह-विरोधियों का एक व्यवहार यह है कि वे मसीह की कही हुई बातों को सुनते भर हैं, लेकिन न तो उसका पालन करते हैं और न ही उसके प्रति समर्पण करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों का पालन नहीं करते और न ही वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हैं। पिछली सभा में परमेश्वर ने इस बारे में संगति की थी कि परमेश्वर के वचन को कैसे लें, परमेश्वर के वचन का पालन कैसे करें और फिर परमेश्वर के वचन को कैसे लागू और क्रियान्वित करें।) यह सब समझ में आता है, है ना? अपनी पिछली सभा के दौरान मैंने दो कहानियाँ सुनाई थीं : एक नूह की कहानी थी और दूसरी अब्राहम की। ये बाइबल की दो विशिष्ट कहानियाँ हैं। बहुत-से लोग इन कहानियों के बारे में जानते और समझते हैं, लेकिन समझने के बावजूद, बहुत कम लोग जानते हैं कि परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। तो इन दो कहानियों पर हमारे संगति करने का मुख्य उद्देश्य क्या था? उसका उद्देश्य लोगों को यह बताना था कि उन्हें परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के प्रति एक व्यक्ति और एक सृजित प्राणी के रूप में क्या दृष्टिकोण अपनाना चाहिए—और यह बताना भी कि जब परमेश्वर की अपेक्षाएँ उनके सामने हों और जब वे उसके वचन सुन रहे हों, तो उन्हें एक सृजित प्राणी के रूप में कौन-सा स्थान लेना चाहिए और उनका रवैया क्या होना चाहिए। ये मुख्य बातें हैं। जब हमने पिछली बार इन दो कहानियों पर संगति की थी, तो यही वह सत्य था, जिसे लोगों को बताना और समझाना अभीष्ट था। तो इन दो कहानियों पर संगति करने के बाद, क्या तुम लोग अब इस बारे में स्पष्ट जान गए हो कि मसीह के प्रति समर्पण और उसके वचनों का पालन कैसे करना चाहिए, मसीह और मसीह द्वारा बोले गए वचनों के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए और उनका परिप्रेक्ष्य और स्थान क्या होना चाहिए, साथ ही उन्हें इस बारे में भी स्पष्ट होना चाहिए कि लोगों को परमेश्वर से आने वाले वचनों और अपेक्षाओं के प्रति क्या दृष्टिकोण रखना चाहिए और उनमें निहित कौन-से सत्य समझने चाहिए? (पहली बात है मसीह के प्रति ईमानदार होना, दूसरी है मसीह का आदर करना सीखना और तीसरी बात है परमेश्वर के वचनों का पालन करना, परमेश्वर के वचनों को दिल से सुनना।) तुम्हें ये नियम याद हैं। अगर मैंने तुम्हें ये नियम न बताए होते, तो क्या तुम लोग मेरी सुनाई दो कहानियों से उन्हें सारभूत रूप में ग्रहण कर पाते? (हम केवल यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी कहे, हमें उसका पालन करना चाहिए।) तुम लोग केवल सरल, हठधर्मी और व्यवहार के सैद्धांतिक तरीके ही सारभूत रूप में ले सकते हो; तुम लोग अभी भी उन सत्यों को समझने या जानने में असमर्थ हो, जिन्हें लोगों को खोजना और समझना चाहिए। तो आओ, हम विस्तार से नूह और अब्राहम की कहानियों पर संगति करें।
I. परमेश्वर के वचनों के प्रति नूह का रवैया
पहले नूह की कहानी के बारे में बात करते हैं। पिछली सभा में हमने मोटे तौर पर नूह की कहानी के कारणों और परिणामों पर चर्चा की थी। हमने अधिक विशिष्टता से चर्चा क्यों नहीं की थी? क्योंकि ज्यादातर लोग इस कहानी के कारणों, परिणामों और विशिष्ट विवरणों को पहले से ही जानते हैं। यदि कोई ऐसे विवरण हैं जिन पर तुम बहुत स्पष्ट नहीं हो, तो वे तुम्हें बाइबल में मिल जाएँगे। हम जिस पर संगति कर रहे हैं, वह इस कहानी का विशेष विवरण नहीं है, बल्कि इस बारे में है कि कहानी के नायक नूह ने परमेश्वर के वचनों के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाया, लोगों को इससे सत्य के कौन-से पहलू समझने चाहिए और नूह द्वारा उठाए गए हर कदम को देखने के बाद परमेश्वर का रवैया क्या था, उसने क्या सोचा और नूह के बारे में उसका क्या आकलन था। हमें इन विवरणों पर संगति करनी चाहिए। नूह के प्रति परमेश्वर का रवैया और नूह ने जो किया उसके बारे में उसका मूल्यांकन हमें यह बताने के लिए पर्याप्त है कि परमेश्वर मानवजाति से, अपना अनुसरण करने वालों से और वह जिन्हें वह बचाता है उनसे, किन मानकों की अपेक्षा रखता है। क्या इसमें ऐसा कोई सत्य है जिसे खोजना चाहिए? जहाँ ऐसा कोई सत्य है जिसे खोजा जाना हो, उसका विस्तार से विश्लेषण, मनन और संगति करना उचित है। हम नूह की कहानी के विशिष्ट विवरण पर नहीं जाएँगे। आज हम परमेश्वर के प्रति नूह के विभिन्न दृष्टिकोणों में खोजे जाने वाले सत्य, साथ ही परमेश्वर की उन अपेक्षाओं और इरादों पर संगति करेंगे जिन्हें लोगों को नूह के बारे में परमेश्वर के मूल्यांकन से समझना चाहिए।
नूह परमेश्वर की आराधना करने और उसका अनुसरण करने वाला एक साधारण इंसान था। जब उसने परमेश्वर के वचन सुने, तो उसका रवैया धीमी गति से आगे बढ़ने, विलंब करने या अपने समय से करने वाला नहीं था। बल्कि उसने परमेश्वर के वचनों को बड़ी गंभीरता से सुना, उसने परमेश्वर के प्रत्येक कथन को बड़ी सावधानी और ध्यान से सुना, परमेश्वर ने उसे जो भी आज्ञा दी, उसे ध्यानपूर्वक सुना और याद रखने की कोशिश की, थोड़ी-सी भी असावधानी बरतने की हिम्मत नहीं की। परमेश्वर और परमेश्वर के वचनों के प्रति उसके रवैये में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय था, जो दर्शाता था कि उसके हृदय में परमेश्वर बसता था और वह परमेश्वर के प्रति समर्पणशील था। उसने परमेश्वर की बात को, परमेश्वर के वचनों की विषयवास्तु को और परमेश्वर ने जो उससे करने के लिए कहा उसे ध्यान से सुना। उसने सारी बातें गौर से सुनी—विश्लेषण करने के बजाय उसने उन्हें स्वीकार किया। उसके हृदय में न तो कोई अस्वीकृति थी, न विरोध था और न ही कोई अधीरता थी; बल्कि उसने परमेश्वर की अपेक्षाओं से संबंधित हर वचन और चीज को अपने हृदय में शांति से, सावधानी से और ध्यान से अंकित कर लिया। परमेश्वर द्वारा दिए गए निर्देशों के बाद, नूह ने विस्तार से और अपने तरीके से, वह सब दर्ज कर लिया जो परमेश्वर ने कहा और उसे सौंपा था। उसके बाद उसने अपनी मेहनत-मजदूरी त्याग दी, अपने पुराने जीवन की दिनचर्या और योजनाएँ छोड़ दीं, और उन कामों को करने की तैयारी शुरू कर दी जो परमेश्वर ने उसे सौंपा था, और उस जहाज के लिए आवश्यक सभी सामग्री जुटानी शुरू कर दी जो परमेश्वर ने उसे बनाने के लिए कहा था। उसने परमेश्वर के एक भी वचन की या परमेश्वर ने उससे जो कुछ कहा था या परमेश्वर के वचनों में जो कुछ भी अपेक्षित था उसके किसी भी विवरण की उपेक्षा नहीं की। उसने अपने तरीके से उन सभी मुख्य बिंदुओं और विवरणों को दर्ज कर लिया, जो परमेश्वर ने उससे कहे थे और उसे सौंपे थे, फिर उसने उन पर बार-बार विचार और चिंतन किया। उसके बाद, नूह उस सारी सामग्री को जुटाने के लिए निकल पड़ा जिसे परमेश्वर ने तैयार करने के लिए कहा था। स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए प्रत्येक निर्देश के बाद, परमेश्वर ने उसे जो कुछ सौंपा था और जो करने का उसे निर्देश दिया था, उसके लिए उसने अपने तरीके से विस्तृत योजनाएँ और व्यवस्थाएँ बनाईं—और फिर, कदम-दर-कदम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार उसने अपनी योजनाओं और व्यवस्थाओं को लागू और क्रियान्वित करना शुरू कर दिया, हर विवरण पर ध्यान दिया और अलग-अलग कदम उठाए। पूरी प्रक्रिया के दौरान, नूह ने जो कुछ भी किया, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, चाहे वह इंसान की दृष्टि में उल्लेखनीय हो या न हो, वह वही था जिसे करने के लिए उसे परमेश्वर ने निर्देश दिया था, और वही था जिसके बारे में परमेश्वर ने कहा था और परमेश्वर द्वारा अपेक्षित था। परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के बाद नूह में जो कुछ भी प्रदर्शित हुआ, उससे यह स्पष्ट है कि परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका रवैया मात्र सुन लेने और कुछ न करने का नहीं था—नूह का ऐसा रवैया तो बिल्कुल भी नहीं था कि मन अच्छा होने पर ही वह इस पर अमल करेगा या जब माहौल सही होगा तब सोचेगा या जब इसे करने के लिए समय अनुकूल होगा तब करेगा। इसके बजाय, उसने अपना काम-धंधा छोड़ दिया, अपनी दिनचर्या तोड़ दी, और तब से परमेश्वर द्वारा आदेशित जहाज के निर्माण को अपने जीवन और अस्तित्व की सबसे बड़ी प्राथमिकता बना लिया और उसे तदनुसार कार्यान्वित किया। परमेश्वर के आदेश और परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका रवैया उदासीन, अनमना या उथला नहीं था, अस्वीकृति का तो बिल्कुल नहीं था; इसके बजाय, उसने परमेश्वर के वचनों को ध्यान से सुना, और उन्हें पूरे दिल से याद रखा और उन पर विचार किया। परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका रवैया स्वीकृति और समर्पण का था। परमेश्वर की दृष्टि में, सिर्फ यही वह रवैया है जो परमेश्वर के वचनों के प्रति एक सच्चे सृजित प्राणी का होना चाहिए, जो वह चाहता है। इस रवैये में न तो कोई अस्वीकृति थी, न कोई लापरवाही थी, न कोई उच्छृंखलता थी और न ही इंसानी मंशा की कोई मिलावट थी; यह पूर्णतय और सर्वथा ऐसा रवैया था जो एक सृजित मनुष्य का होना चाहिए।
परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के बाद, नूह ने योजना बनानी शुरू की कि परमेश्वर ने नाव बनाने का जो कार्य उसे सौंपा है, उसे कैसे पूरा किया जाए। उसने नाव के निर्माण के लिए विभिन्न सामग्री, लोगों और आवश्यक उपकरणों की तलाश शुरू कर दी। जाहिर है, इसमें बहुत-सी चीजें शामिल थीं; यह उतना आसान नहीं था जितना ग्रंथों में दिखता है। उस पूर्व-औद्योगिक युग में, जिसमें सब-कुछ हाथ से किया जाता था, शारीरिक श्रम से किया जाता था, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि ऐसी विशालकाय नाव बनाना, परमेश्वर द्वारा सौंपा गया नाव बनाने का कार्य पूरा करना कितना कठिन था। बेशक, नूह ने जिस तरह से योजना बनाई, तैयारी की, सामग्री और औजार जैसी विभिन्न चीजें ढूँढ़ी, वह कोई साधारण बात नहीं थी, और नूह ने शायद इतनी बड़ी नाव कभी देखी भी नहीं होगी। इस आदेश को स्वीकार लेने के बाद, परमेश्वर के वचनों का आशय समझते हुए और परमेश्वर ने जो कुछ कहा था उससे आँकते हुए, नूह जानता था कि यह कोई आसान मामला नहीं है, कोई सरल कार्य नहीं है। यह कोई सरल या आसान काम नहीं था—इसके क्या निहितार्थ थे? इसके एक मायने तो ये थे कि इस आज्ञा को स्वीकारने के बाद, नूह के कंधों पर भारी बोझ होगा। इसके अलावा, यह देखते हुए कि कैसे परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से नूह को बुलाया और और व्यक्तिगत रूप से निर्देश दिया कि नाव किस तरह बनानी है, यह कोई साधारण बात नहीं थी, यह कोई छोटी बात नहीं थी। परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा, उसके विवरण को देखते हुए, इसे कोई साधारण व्यक्ति नहीं संभाल सकता था। यह तथ्य कि परमेश्वर ने नूह को बुलाकर उसे नाव बनाने का आदेश दिया, दर्शाता है कि नूह परमेश्वर के हृदय में कितना महत्व रखता था। जब इस मामले की बात आई, तो, नूह बेशक परमेश्वर के कुछ इरादे समझने में सक्षम था—और समझ लेने पर, नूह को एहसास हुआ कि आने वाले वर्षों में उसे किस तरह के जीवन का सामना करना पड़ेगा और वह उन कठिनाइयों से भी अवगत था जो उसके जीवन में आने वाली थीं। हालाँकि नूह को इस बात का एहसास और समझ थी कि परमेश्वर ने उसे जो काम सौंपा है वह कितना मुश्किल है और उसे कितने बड़े इम्तहानों से गुजरना होगा, लेकिन उस काम को नकारने का उसका कोई इरादा नहीं था, बल्कि वह यहोवा परमेश्वर का अत्यंत आभारी था। नूह आभारी क्यों था? क्योंकि परमेश्वर ने अप्रत्याशित रूप से उसे बहुत ही महत्वपूर्ण काम सौंप दिया था और व्यक्तिगत रूप से उसे हर विवरण बताया और समझाया था। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर ने नूह को शुरू से लेकर अंत तक की पूरी कहानी भी बता दी थी कि जहाज क्यों बनाना है। यह परमेश्वर की अपनी प्रबंधन-योजना का मामला था, यह परमेश्वर का अपना काम था, लेकिन परमेश्वर ने उसे इस मामले के बारे में बताया था, इसलिए नूह ने इसके महत्व को समझा। संक्षेप में, इन विभिन्न संकेतों से, परमेश्वर की बातचीत के लहजे और परमेश्वर ने नूह को जो कुछ बताया, उन तमाम पहलुओं को देखते हुए, नूह जहाज बनाने के कार्य के महत्व को समझ पाया जिसे परमेश्वर ने उसे सौंपा था, वह अपने दिल में इसका महत्त्व समझ गया और उसने इसे हल्के में लेने या किसी बात को नजरअंदाज करने की हिम्मत नहीं की। इसलिए जब परमेश्वर ने अपने निर्देश देना समाप्त कर दिया, तो नूह ने अपनी योजना तैयार कर ली, और वह नाव बनाने के लिए व्यवस्थाएँ करने, श्रम-शक्ति तलाशने, तमाम तरह की सामग्री तैयार करने और परमेश्वर के वचनों के अनुसार, धीरे-धीरे विभिन्न प्रकार के जीवित प्राणियों को नाव में इकट्ठा करने के काम में जुट गया।
नाव बनाने की पूरी प्रक्रिया कठिनाइयों से भरी थी। फिलहाल, आओ इस बात को एक तरफ रखते हैं कि नूह ने साल-दर-साल तेज हवाओं, चिलचिलाती धूप, भीषण बारिश, भयंकर सर्दी-गर्मी और चार बदलते मौसमों से कैसे पार पाया। आओ, पहले बात करते हैं कि नाव बनाने का काम कितना बड़ा था, उसने विभिन्न सामग्रियों की तैयारी कैसे की और नाव के निर्माण के दौरान उसे किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसके सामने कौन-कौन-सी कठिनाइयाँ आईं? लोगों की धारणाओं के विपरीत, कुछ शारीरिक श्रम वाले काम हमेशा पहली बार में ही सही नहीं हो जाते, और नूह को असफलताओं से गुजरना पड़ा; कोई काम पूरा करने के बाद, अगर वह गलत लगता, तो वह उसे अलग कर देता और अलग करने के बाद उसे सामग्री तैयार करनी पड़ती, और यह सब फिर से करना पड़ता। यह आधुनिक युग की तरह नहीं था, जहाँ हर व्यक्ति हर चीज इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से करता है, एक बार किसी काम को व्यवस्थित कर दिया तो फिर सबकुछ एक निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार क्रियांवित हो जाता है। आज जब ऐसा कोई काम किया जाता है, तो वह मशीनीकृत होता है, और जब तुम मशीन चालू कर देते हो, वह काम पूरा कर देती है। लेकिन नूह आदिम समाज के युग में रह रहा था, जब सारा काम हाथ से किया जाता था और तुम्हें सारा काम अपने दोनों हाथों से, अपनी आँखों और दिमाग तथा अपनी मेहनत और ताकत का इस्तेमाल करके करना पड़ता था। बेशक, सबसे बढ़कर, लोगों को परमेश्वर पर भरोसा करने की जरूरत होती थी; उन्हें हर जगह, हर समय परमेश्वर को खोजने की जरूरत होती थी। तमाम तरह की कठिनाइयों का सामना करने की प्रक्रिया में और नाव बनाने में बिताए दिनों और रातों में इस विशालकाय काम को करते समय, नूह को न केवल विभिन्न हालात का सामना करना पड़ रहा था, बल्कि उसे अपने आस-पास की विभिन्न परिस्थितियों से भी जूझना पड़ रहा था, उसे लोगों के उपहास, बदनामी और गाली-गलौज का शिकार भी होना पड़ता था। हालाँकि हमने व्यक्तिगत रूप से उन दृश्यों के घटित होने पर उनका अनुभव नहीं किया, लेकिन क्या नूह ने जिन विभिन्न कठिनाइयों का सामना और अनुभव किया और जो विभिन्न चुनौतियों उसके सामने आईं, क्या उनमें से कुछ की कल्पना करना संभव नहीं है? नाव बनाने के दौरानजिस पहली चीज का नूह को सामना करना पड़ा, वह थी अपने परिवार की नासमझी, उनकी नुक्ताचीनी, शिकायतें, यहाँ तक कि बदनामी भी। दूसरी चीज थी आसपास के लोगों—उसके रिश्तेदारों, दोस्तों और हर तरह के दूसरे लोगों द्वारा उसकी निंदा, उपहास और आलोचना। लेकिन नूह का केवल एक ही रवैया था, और वह था परमेश्वर के वचनों का पालन करना, उन्हें अंत तक क्रियान्वित करना और इससे कभी न डगमगाना। नूह ने क्या तय किया था? “जब तक मैं जीवित हूँ, जब तक मैं चल-फिर सकता हूँ, तब तक मैं परमेश्वर के आदेश को नहीं छोड़ूँगा।” इतनी विशालकाय नाव के निर्माण कार्य के पीछे यही उसकी प्रेरणा थी, परमेश्वर की आज्ञा मिलने और उसके वचन सुनने के बाद यही उसका रवैया था। तमाम तरह की परेशानियों, कठिन स्थितियों और चुनौतियों का सामना करते हुए, नूह कभी पीछे नहीं हटा। जब कभी वह किसी तकनीकी कार्य में नाकाम हो जाता, कोई टूट-फूट हो जाती, तो भले ही नूह अपने दिल में परेशान और चिंतित महसूस करता था, लेकिन जब वह परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचता, जब उसे परमेश्वर के आदेश के तमाम वचन याद आते, परमेश्वर द्वारा अपना उत्कर्ष याद आता, तो अक्सर उसके अंदर प्रेरणा और स्फूर्ति भर जाती : “मैं हार नहीं मान सकता, परमेश्वर ने मुझे जो आज्ञा दी है और जो कार्य मुझे सौंपा है, मैं उसे छोड़ नहीं सकता; यह परमेश्वर का आदेश है और चूँकि मैंने इसे स्वीकार किया है, मैंने परमेश्वर के वचन और उसकी वाणी सुनी है, चूँकि मैंने इसे परमेश्वर से स्वीकार किया है, तो मुझे पूरी तरह से समर्पण करना चाहिए और यही वह है जिसे मनुष्य को हासिल करना चाहिए।” इसलिए उसे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जिस भी तरह के उपहास या बदनामी का सामना करना पड़ा, उसका शरीर कितना भी कमजोर हुआ, कितना भी थका, लेकिन उसने परमेश्वर द्वारा सौंपा गया काम नहीं छोड़ा, उसने परमेश्वर की कही हर बात और आज्ञा को लगातार दिलो-दिमाग में रखा। उसके परिवेश चाहे जैसे बदले, उसने कितनी भी भयंकर कठिनाइयों का सामना किया, पर उसे भरोसा था कि मुसीबतों के ये बादल एक दिन छँट जाएँगे, एकमात्र परमेश्वर के वचन ही शाश्वत हैं और केवल वही जो परमेश्वर ने करने की आज्ञा दी है, निश्चित रूप से पूरा होगा। नूह को परमेश्वर में सच्चा विश्वास था और उसमें वह समर्पण था जो उसमें होना चाहिए था, उसने वह जहाज बनाना जारी रखा जिसके निर्माण के लिए परमेश्वर ने उसे आदेश दिया था। दिन गुजरते गए, साल गुजरते गए और नूह बूढ़ा हो गया, लेकिन उसका विश्वास कम नहीं हुआ, परमेश्वर का आदेश पूरा करने के उसके रवैये और दृढ़-संकल्प में कोई बदलाव नहीं आया। यद्यपि ऐसा भी समय आया जब उसका शरीर थकने लगा, उसे कमजोरी महसूस होने लगी और वह बीमार पड़ गया, दिल से वह कमजोर हो गया, लेकिन परमेश्वर के आदेश को पूरा करने और उसके वचनों के प्रति समर्पण करने का उसका संकल्प और दृढ़ता कम नहीं हुई। जिन वर्षों में नूह ने नाव बनाई, उनमें वह परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों को सुनने और उनके प्रति समर्पण करने का अभ्यास कर रहा था, और वह परमेश्वर का आदेश पूरा करने के लिए जरूरी एक सृजित प्राणी और साधारण व्यक्ति के एक महत्वपूर्ण सत्य का अभ्यास भी कर रहा था। साफ तौर पर, पूरी प्रक्रिया वास्तव में केवल एक ही चीज थी : नाव का निर्माण; परमेश्वर के आदेश का अच्छे से कार्यांवयन करना और उसे पूरा करना। लेकिन इस काम को कुशलता से और सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए क्या आवश्यक था? इसके लिए लोगों के उत्साह या उनके नारों आवश्यकता नहीं थी, क्षणिक सनक में ली गई कसमों की तो बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं थी न ही सृष्टिकर्ता के लिए लोगों की तथाकथित प्रशंसा की आवश्यकता थी। उस कार्य को इन चीजों की आवश्यकता नहीं थी। नूह के नाव के निर्माण के सामने लोगों की तथाकथित प्रशंसा, उनकी कसमें, उनका जोश, और अपने आध्यात्मिक संसार में परमेश्वर में उनका विश्वास, ये सब बिल्कुल भी किसी काम के नहीं हैं; परमेश्वर में नूह की सच्ची आस्था और समर्पण के सामने लोग बहुत बेचारे, दयनीय लगते हैं, और जो थोड़े-से सिद्धांत वे समझते हैं, वे बहुत ही खोखले, फीके, दुर्बल और कमजोर लगते हैं—उनके शर्मनाक, तुच्छ और घिनौने होने का तो उल्लेख ही क्या करना।
जहाज बनाने में नूह को 120 साल लगे। ये 120 वर्ष, कोई 120 दिन या 10 वर्ष या 20 वर्ष नहीं थे, बल्कि आज के किसी सामान्य व्यक्ति की संभावित आयु से दशकों अधिक थे। समय की अवधि, उसे पूरा करने में आने वाली कठिनाई और उसके तकनीकी पहलू की विशालता को देखते हुए, यदि नूह में सच्चा विश्वास न होता, यदि उसका विश्वास मात्र एक विचार होता, केवल उम्मीदों, जोश या अस्पष्ट और अमूर्त विश्वास पर टिका होता, तो क्या इस जहाज का निर्माण कभी पूरा हुआ होता? यदि परमेश्वर के प्रति उसका समर्पण केवल एक मौखिक प्रतिज्ञा होती, यदि वह केवल कलम से लिखा गया एक नोट होता, जैसा कि आजकल तुम लोग बनाते हो, तो क्या जहाज का निर्माण हो पाता? (नहीं।) यदि परमेश्वर के आदेश को स्वीकारने के प्रति उसका समर्पण मात्र इच्छा और दृढ़ संकल्प, एक अभिलाषा से ज्यादा कुछ न होता, तो क्या जहाज का निर्माण किया जा सकता था? यदि परमेश्वर के प्रति नूह का समर्पण केवल त्याग, व्यय और कीमत चुकाने की औपचारिकताओं से होकर गुजरना होता या केवल अधिक कार्य करने, अधिक कीमत चुकाने और सिद्धांत रूप में या नारों के संदर्भ में परमेश्वर के प्रति वफादार होना होता, तो क्या जहाज का निर्माण संभव था? (नहीं।) इसे करना बहुत कठिन होता! यदि परमेश्वर के आदेश को स्वीकारने के प्रति नूह का रवैया एक प्रकार का लेन-देन होता, यदि नूह ने इसे केवल आशीष और पुरस्कार पाने के लिए स्वीकारा होता, तो क्या जहाज का निर्माण संभव था? बिल्कुल नहीं! किसी व्यक्ति का उत्साह 10-20 साल या 50-60 साल तक बना रह सकता है, लेकिन जब मृत्यु उसके दरवाजे पर आ खड़ी होती है, तो यह देखकर कि उसे कुछ हासिल नहीं हुआ है, परमेश्वर में उसकी आस्था जाती रहेगी। यह उत्साह जो 20, 50 या 80 वर्षों तक कायम रहता है, समर्पण या सच्ची आस्था नहीं बनता। यह बहुत दुखद है। आज के लोगों में नूह जैसी सच्ची आस्था और सच्चे समर्पण की ही कमी है, यही वे चीजें हैं जिन्हें आज के लोग देख नहीं पाते, और वे उनका तिरस्कार और उपहास करते हैं, यहाँ तक कि नाक-भौं भी सिकोड़ते हैं। नूह के जहाज बनाने की कहानी सुनाने पर हमेशा एक जबर्दस्त बहस छिड़ जाती है। हर कोई उस पर बोलना चाहता है, हर एक के पास बोलने को कुछ न कुछ होता है। लेकिन इस पर कोई विचार नहीं करता या यह पता लगाने की कोशिश नहीं करता कि नूह में क्या पाया जाता था, उसका अभ्यास का मार्ग क्या था, उसके अंदर परमेश्वर द्वारा अपेक्षित किस तरह का रवैया और परमेश्वर की आज्ञाओं के प्रति कैसा नजरिया था, या परमेश्वर के वचन सुनने और उनका अभ्यास करने की बात आने पर उसमें कौन-सा चरित्र होता था। इसलिए, मैं कहता हूँ कि आज के लोग नूह की कहानी सुनाने की योग्यता नहीं रखते, क्योंकि जब कोई यह कहानी सुनाता है, तो वह नूह को एक पौराणिक चरित्र के अलावा कुछ नहीं मानता, यहाँ तक कि वह उसे एक सफेद दाढ़ी वाला साधारण बूढ़ा व्यक्ति समझता है। वे लोग अपने मन में यह सवाल उठाते हैं कि क्या वास्तव में ऐसा कोई व्यक्ति था भी, वह वास्तव में कैसा था, वे इस बात को समझने की कोशिश नहीं करते कि परमेश्वर के आदेश को स्वीकारने के बाद नूह ने वे अभिव्यक्तियाँ कैसे प्रदर्शित कीं। आज जब हम नूह के नाव के निर्माण की कहानी पर फिर से विचार कर रहे हैं, तो तुम्हें यह घटना बड़ी लगती है या छोटी? क्या यह एक बूढ़े आदमी की साधारण-सी कहानी है, जिसने बीते समय में नाव बनाई थी? (नहीं।) सभी मनुष्यों में नूह परमेश्वर का भय मानने, परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने का प्रतीक था, जो कि सर्वाधिक अनुकरणीय है; उसे परमेश्वर द्वारा अनुमोदित किया गया था, और आज परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के लिए वह एक आदर्श होना चाहिए। और उसके बारे में सबसे अनमोल बात क्या थी? परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका केवल एक ही दृष्टिकोण था : सुनना और स्वीकारना, स्वीकारना और समर्पित होना, और मृत्युपर्यंत समर्पित होना। उसका यह रवैया ही था, जो सबसे अनमोल था, जिसने उसे परमेश्वर की स्वीकृति दिलाई। जब परमेश्वर के वचनों की बात आई, तो वह लापरवाह नहीं रहा, उसने बेमन से प्रयास नहीं किया, और उसने अपने दिमाग में उनकी जाँच-पड़ताल, विश्लेषण, विरोध या उन्हें अस्वीकार कर अपने दिमाग में पीछे नहीं धकेला; इसके बजाय, उसने उन्हें गंभीरता से सुना, धीरे-धीरे अपने हृदय में उन्हें स्वीकार किया, और फिर इस बात पर विचार किया कि उन्हें अभ्यास में कैसे लाया जाए, उन्हें विकृत किए बिना उस तरह कैसे कार्यान्वित किया जाए, जैसा कि मूल रूप में अभीष्ट था। और जिस समय उसने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, उसी समय उसने अपने तुम से अकेले में कहा, “ये परमेश्वर के वचन हैं, ये परमेश्वर के निर्देश हैं, परमेश्वर का आदेश हैं, मैं कर्तव्यबद्ध हूँ, मुझे समर्पण करना चाहिए, मैं कुछ भी नहीं छोड़ सकता, मैं परमेश्वर की किसी भी इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकता, न ही मैं उसके द्वारा कही गई बातों में से किसी चीज को नजरअंदाज कर सकता हूँ, अन्यथा मैं मानव कहलाने के योग्य नहीं हूँगा, मैं परमेश्वर के आदेश के योग्य नहीं हूँगा, और उसके द्वारा उन्नत किए जाने के योग्य नहीं हूँगा। अगर मैं वह सब पूरा करने में असफल रहता हूँ, जो परमेश्वर ने मुझे बताया और सौंपा है, तो मेरे पास पछतावा ही रह जाएगा। इससे भी बढ़कर, मैं परमेश्वर के आदेश और उसके द्वारा उन्नत किए जाने के योग्य नहीं रहूँगा, और मेरा सृष्टिकर्ता के सामने लौटने का मुँह नहीं होगा।” वह सब, जो नूह ने अपने दिल में सोचा और विचारा था, उसका हर दृष्टिकोण और रवैया, इन सभी ने निर्धारित किया कि वह अंततः परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने, और परमेश्वर के वचनों को वास्तविकता बनाने, परमेश्वर के वचनों को फलीभूत करने, और ऐसा करने में सक्षम था कि वे उसके कठिन परिश्रम के माध्यम से पूरे और संपन्न हो जाएँ और उसके माध्यम से वास्तविकता में बदल जाएँ, और परमेश्वर का आदेश व्यर्थ न जाए। नूह ने जो कुछ भी सोचा, उसके दिल में उठने वाले हर विचार और परमेश्वर के प्रति उसके रवैये को देखते हुए, नूह परमेश्वर के आदेश के योग्य था, वह परमेश्वर के भरोसे का व्यक्ति था, और परमेश्वर का अनुग्रह-प्राप्त व्यक्ति था। परमेश्वर लोगों का हर शब्द और कर्म देखता है, वह उनके विचार और मत देखता है। परमेश्वर की दृष्टि में, नूह के लिए ऐसा सोचने में सक्षम होने का अर्थ था कि उसने गलत चुनाव नहीं किया था; नूह परमेश्वर के आदेश और भरोसे को अपने कंधों पर उठा सकता था और वह परमेश्वर का आदेश पूरा करने में सक्षम था : वह पूरी मानवजाति के बीच एकमात्र विकल्प था।
परमेश्वर की दृष्टि में नाव बनाने जैसा बड़ा काम करने के लिए नूह ही उसका एकमात्र विकल्प था। तो नूह में परमेश्वर ने ऐसा क्या पाया? नूह में परमेश्वर ने दो चीजें पाईं : सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण। परमेश्वर के हृदय में, ये वे मानक हैं जिनकी उसे लोगों से अपेक्षा है। सरल, है न? (हाँ।) “एकमात्र विकल्प” में ये दो चीजें थीं, चीजें जो इतनी सरल हैं—फिर भी नूह के अलावा ये किसी और में नहीं पाई जातीं। कुछ लोग कहते हैं, “ऐसा कैसे हो सकता है? हमने अपने परिवार और करियर छोड़ दिए, हमने अपना काम, संभावनाएँ और शिक्षा त्याग दी, अपनी संपत्तियाँ और बच्चे त्याग दिए। देखो हमारी आस्था कितनी महान है, हम परमेश्वर से कितना प्रेम करते हैं! हम नूह से कमतर कैसे हैं? अगर परमेश्वर हमसे नाव बनाने के लिए कहे तो—ठीक है, आधुनिक उद्योग अत्यधिक विकसित है, क्या हमारी पहुँच पास लकड़ी और ढेर सारे औजारों तक नहीं है? हम भी मशीनों का उपयोग करके तपती धूप में काम कर सकते हैं; हम भी सुबह से शाम तक काम कर सकते हैं। ऐसा छोटा-सा काम करना कौन-सी बड़ी बात है? नूह को 100 साल लगे, लेकिन हम इसे कम समय में पूरा कर लेंगे, ताकि परमेश्वर को चिंता न हो—हमें इसमें सिर्फ 10 साल लगेंगे। तुमने कहा कि नूह ही एकमात्र विकल्प था, लेकिन आज कई उत्तम उम्मीदवार हैं; हम जैसे लोग जिन्होंने अपने परिवार और करियर त्याग दिए हैं, जिन्हें परमेश्वर में सच्ची आस्था है, जो सच में खुद को खपाते हैं—वे सभी उत्तम उम्मीदवार हैं। तुम कैसे कह सकते हो कि नूह ही एकमात्र विकल्प था? तुम हमें बहुत तुच्छ समझते हो, है न?” क्या इन शब्दों के साथ कोई समस्या है? (हाँ, है।) कुछ लोग कहते हैं, “नूह के समय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी अभी भी बहुत अविकसित थे, उसके पास बिजली नहीं थी, आधुनिक मशीनें नहीं थीं, यहाँ तक कि सबसे सरल इलेक्ट्रिक ड्रिल और बिजली की आरा-मशीनें या कीलें भी नहीं थीं। आखिर उसने नाव बनाई कैसे? आज तो हमारे पास ये सब चीजें हैं। क्या हमारे लिए यह काम बेहद आसान नहीं हो गया है? यदि परमेश्वर आकाश में बैठकर हमसे कहे कि हमें एक नाव बनानी है, तो एक छोड़ो—हम ऐसी 10 नाव बना सकते हैं। यह काम तो हमारे लिए बाएँ हाथ का खेल होगा। परमेश्वर, तू जो चाहे हमें वह काम करने का आदेश दे। तुझे जो भी चाहिए, बस हमें बता दे। हममें से बहुतों के लिए नाव बनाना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं होगा! हम 10, 20, यहाँ तक कि 100 नाव भी बना सकते हैं। तू जितनी चाहे उतनी नाव बना सकते हैं।” क्या चीजें इतनी सरल हैं? (नहीं।) जैसे ही मैं कहता हूँ कि नूह एकमात्र विकल्प था, तो कुछ लोग मेरे साथ विवाद में उलझना चाहते हैं, वे आश्वस्त नहीं हो पाते : “तुम पूर्वजों के बारे में अच्छा सोचते हो क्योंकि वे यहाँ नहीं हैं। आज के लोग तुम्हारे सामने हैं, लेकिन तुम्हें उनमें कोई अच्छाई दिखाई नहीं देती। तुम्हें आज के लोगों के किए हुए अच्छे काम, उनके अच्छे कर्म दिखाई ही नहीं देते। नूह ने तो बस एक छोटा-सा काम किया था; क्या इसकी वजह यह नहीं है कि उस समय कोई उद्योग नहीं था और कठोर शारीरिक श्रम करना पड़ता था, तुम्हें लगता है उसने जो किया वह स्मरण रखने योग्य है, तुम उसे एक उदाहरण, एक आदर्श मानते हो और आज के लोगों के कष्टों और हम तुम्हारे लिए जो कीमत चुकाते हैं उसके प्रति और हमारी आस्था के प्रति आँखें मूँदे रहते हो?” क्या ऐसी बात है? (नहीं।) कोई भी काल या युग हो, लोग चाहे किसी भी तरह की स्थितियों या परिवेश में रहते हों, ये भौतिक वस्तुएँ और सामान्य परिवेश मायने नहीं रखते, वे चीजें महत्वपूर्ण नहीं होतीं। महत्वपूर्ण क्या है? यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम किस युग में रहते हो या तुमने किसी तकनीक में महारत हासिल की है या नहीं, और न ही यह महत्वपूर्ण है कि तुमने परमेश्वर के कितने वचन पढ़े या सुने हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों में सच्ची आस्था है या नहीं, उनमें सच्चा समर्पण है या नहीं। ये दो चीजें सबसे महत्वपूर्ण होती हैं और इनमें से किसी एक भी चीज की कमी न हो। यदि तुम लोग नूह के कालखंड में होते, तो तुम में से कौन इस काम को पूरा कर पाता? मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि अगर तुम सभी एक-साथ मिलकर भी काम करते, तो भी तुम उसे पूरा न कर पाते। पाओगे। तुम लोग उस काम को आधा भी नहीं कर पाते। सारी आपूर्ति तैयार होने से पहले ही तुममें से बहुत-से लोग भाग खड़े होते, परमेश्वर के बारे में शिकायत करते और उस पर संदेह करते। तुममें से थोड़े ही लोग अपनी दृढ़ता, जोश और विचारों के कारण बहुत मुश्किल से डटे रह पाते। लेकिन तुम कितने समय तक डटे रह सकते थे? टिके रहने के लिए तुम्हें किस तरह की प्रेरणा की जरूरत होती है? सच्ची आस्था और सच्चे समर्पण के बिना तुम कितने साल तक दृढ़ रह पाते? यह चरित्र पर निर्भर करता है। बेहतर चरित्र और थोड़े कम विवेक वाले लोग 8-10 साल, 20-30 साल या शायद 50 साल तक टिक पाते। लेकिन वे भी 50 साल बाद सोचते, “परमेश्वर कब आ रहा है? बाढ़ कब आएगी? परमेश्वर द्वारा दिया गया संकेत कब प्रकट होगा? मैंने अपना पूरा जीवन एक ही काम करते हुए बिता दिया। अगर बाढ़ नहीं आई तो क्या होगा? मैंने पूरे जीवन बहुत कुछ सहा है, 50 साल संघर्ष किया है—यह समय बहुत होता है, अगर अब मैं यह काम बंद कर दूँ तो परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा या मेरी निंदा नहीं करेगा। तो मैं अब अपना जीवन जियूँगा। परमेश्वर बोलता या प्रतिक्रिया नहीं देता। मैं सारा दिन नीले आकाश और सफेद बादलों को ताकता रहता हूँ और कुछ दिखाई नहीं देता। परमेश्वर कहाँ है? जो कभी गरज कर बोला था—क्या वही परमेश्वर था? क्या वह कोई भ्रम था? यह सब कब खत्म होगा? परमेश्वर को तो कोई चिंता ही नहीं है। चाहे मैं मदद के लिए कैसे भी पुकारूँ, मुझे सिर्फ सन्नाटा ही सुनाई देता है। मैं जब प्रार्थना करता हूँ तो वह मुझे प्रबुद्ध नहीं करता या मेरा मार्गदर्शन नहीं करता। छोड़ो, जाने दो!” क्या उनमें अभी भी सच्ची आस्था होगी? जैसे-जैसे समय बीतेगा, संभवतः उनके अंदर शक पैदा होता जाएगा। वे बदलने के बारे में सोचेंगे, वे निकलने का कोई रास्ता खोजेंगे, परमेश्वर के आदेश को दर-किनार कर देंगे और अपने अल्पकालिक उत्साह और अल्पकालिक शपथ को त्याग देंगे; अपनी नियति को स्वयं नियंत्रित करने और अपने तरीके से जीवन जीने की चाहत में, वे परमेश्वर के आदेश को अपने दिमाग से निकाल देंगे। और जब एक दिन परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से उन्हें आगे प्रेरित करने आए, जब वह नाव के निर्माण की प्रगति के बारे में पूछे, तो वे कहेंगे, “अरे! परमेश्वर वास्तव में मौजूद है! तो वास्तव में परमेश्वर है। मुझे नाव बनानी चाहिए!” यदि परमेश्वर न बोलता, यदि वह उनसे जल्दबाजी करने को नहीं कहता, तो उन्हें समझ में नहीं आता कि यह कितना महत्वपूर्ण काम है; उन्हें यही लगता कि इस काम को टाला जा सकता है। सोचने का ऐसा अस्थिर तरीका, अनिच्छा से खानापूरी करने का यह रवैया—क्या यही वह रवैया है, जो सच्ची आस्था वाले लोगों को दिखाना चाहिए? (नहीं।) ऐसा रवैया रखना गलत है, इसका मतलब है कि उनमें सच्ची आस्था नहीं है, फिर सच्चे समर्पण की तो बात ही छोड़ दो। जब परमेश्वर ने तुमसे स्वयं बात करता, तो तुम्हारा क्षणिक उत्साह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था दर्शाता, लेकिन जब परमेश्वर तुम्हें दर-किनार करता, तुमसे आग्रह न करता, तुम्हारी निगरानी न करता या कोई पूछताछ न करता, तो तुम्हारी आस्था गायब हो जाती। समय बीतता जाता, और जब परमेश्वर तुमसे बात न करता या तुम्हारे सामने प्रकट न होता और तुम्हारे कार्य का निरीक्षण न करता, तो तुम्हारी आस्था पूरी तरह से गायब हो जाती; तुम अपना जीवन जीना चाहते और अपना उपक्रम पूरा करना चाहते, और परमेश्वर का आदेश तुम्हारे दिमाग के पीछे कहीं विस्मृत हो जाता; तुम्हारा उस समय का उत्साह, शपथ और दृढ़ संकल्प का कोई मूल्य न होता। तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर ऐसे किसी व्यक्ति को कोई दायित्वपूर्ण विशाल कार्य सौंपेगा? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि ऐसे लोग विश्वासपात्र नहीं होते।) बिल्कुल सही है। एक ही बात : विश्वासपात्र नहीं होते। तुम्हारे अंदर सच्ची आस्था नहीं है। तुम विश्वासपात्र नहीं हो। और इसलिए, तुम परमेश्वर द्वारा कोई भी काम सौंपे जाने योग्य नहीं हो। कुछ लोग कहते हैं, “मैं अयोग्य क्यों हूँ? मैं परमेश्वर द्वारा सौंपा जाने वाला कोई भी आदेश पूरा करूँगा—क्या पता मैं उसे पूरा कर पाऊँ।” तुम अपने दैनिक जीवन में कुछ काम लापरवाही से कर सकते हो और अगर परिणाम थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे भी हो जाए तो फर्क नहीं पड़ता। लेकिन परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम, जिन्हें परमेश्वर चाहता है कि पूरे किए जाएँ—वे कब सरल होते हैं? यदि वे काम किसी मूर्ख व्यक्ति या धोखेबाज को सौंपे जाएँ, किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपे जाएँ जो हर काम में लापरवाही दिखाता है, किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपे जाएँ जो आदेश को स्वीकारने के बाद, हर जगह और हर समय कमजोर आस्था से काम करता हो, तो क्या ऐसा व्यक्ति दायित्वपूर्ण विशाल कार्य में देरी नहीं करेगा? यदि तुम लोगों को किसी को चुनने के लिए कहा जाए, यदि तुम्हें किसी को कोई बड़ा काम सौंपना हो, तो तुम वह कार्य किस प्रकार के व्यक्ति को सौंपोगे? तुम कैसे व्यक्ति को चुनोगे? (एक भरोसेमंद व्यक्ति को।) कम से कम, ऐसा व्यक्ति भरोसेमंद और चरित्रवान तो होना चाहिए, फिर चाहे कितना भी समय लगे या कितनी भी बड़ी मुश्किलें आएँ, वह तुम्हारे द्वारा सौंपे गए काम को पूरे जी-जान से करेगा और तुम्हें उस काम का हिसाब देगा। जब आम लोग काम सौंपने के लिए ऐसे व्यक्ति को चुनेंगे, तो फिर परमेश्वर तो और भी ज्यादा ऐसे व्यक्ति को चुनेगा! तो इस बड़ी घटना के लिए, बाढ़ से दुनिया का विनाश करने के लिए, एक ऐसी घटना जिसके लिए एक नाव बनाने की आवश्यकता थी, कोई ऐसा व्यक्ति जो जीवित रहने योग्य हो, परमेश्वर किसे चुनेगा? सबसे पहले, सिद्धांत रूप में, वह किसी ऐसे व्यक्ति को चुनेगा जो जीवित रहने योग्य हो, जो अगले युग में जीवित रहने योग्य हो। वास्तव में, इन सारी बातों से पहले, वह ऐसा व्यक्ति हो जो परमेश्वर के वचनों का पालन करे, जो परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखे और परमेश्वर जो कुछ भी कहे, उसे परमेश्वर के वचन ही माने—चाहे उसमें कुछ भी शामिल हो, चाहे वह उसकी अपनी धारणाओं के अनुरूप हो या न हो, चाहे वह उसकी रुचि के अनुरूप हो या न हो, चाहे वह उसकी अपनी इच्छा के मुतबिक हो या न हो। परमेश्वर उससे चाहे कुछ भी करने को कहे, उसे परमेश्वर की पहचान कभी नहीं नकारनी चाहिए, उसे खुद को हमेशा एक सृजित प्राणी समझना चाहिए और परमेश्वर के वचनों का पालन करने को बाध्यकर कर्त्तव्य समझना चाहिए; ऐसे ही व्यक्ति को परमेश्वर यह विशेष कार्य सौंपता है। परमेश्वर की नजर में, नूह ऐसा ही एक व्यक्ति था। वह नए युग में जीवित रहने योग्य तो था ही, बल्कि वह ऐसा व्यक्ति भी था जो बड़े दायित्व उठा सकता था, जो बिना किसी समझौते के, परमेश्वर के वचनों के प्रति अंत तक समर्पित हो सकता था, और जो जीवन का उपयोग उस कार्य को पूरा करने के लिए कर सकता था, जिसे परमेश्वर ने उसे सौंपा था। यही वे गुण थे जो परमेश्वर ने नूह में देखे थे। जिस समय नूह ने परमेश्वर के आदेश को स्वीकार किया, तब से लेकर जब तक कि उसने सौंपे गए प्रत्येक कार्य को पूरा नहीं कर लिया, इस पूरी अवधि में, परमेश्वर के प्रति नूह की आस्था और समर्पण के उसके रवैये ने एक बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई; इन दो चीजों के बिना, काम कभी पूरा न हो पाता और यह आदेश कार्यांवित न होता।
यदि परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के दौरान, नूह के अपने विचार, योजनाएँ और धारणाएँ होतीं, तो पूरा उपक्रम किस तरह बदल जाता? पहली बात, परमेश्वर ने जब उसे सारे विवरण दिए, जैसे विनिर्देश और सामग्री की किस्म, नाव के निर्माण के साधन और तरीके, और पूरी नाव की लंबाई-चौड़ाई और आयाम—जब नूह ने यह सब सुना, तो क्या उसने सोचा होगा, “इतनी बड़ी चीज़ बनाने में कितने साल लगेंगे? इस सारी सामग्री को खोजने और जुटाने में कितना प्रयास और कितनी कठिनाई होगी? मैं तो थककर चूर हो जाऊँगा! यह थकान तो पक्का मेरी जिंदगी छोटी कर देगी, है न? देखो मैं कितनी बूढ़ा हूँ, फिर भी परमेश्वर मुझे अवकाश नहीं देगा, और वह मुझे इतनी मेहनत वाला काम करने के लिए कह रहा है—क्या मैं यह झेल पाऊँगा? खैर, मैं यह काम कर तो लूँगा, लेकिन मेरे पास एक युक्ति है : मैं मोटे तौर पर वैसा ही करूँगा जैसा परमेश्वर कहेगा। परमेश्वर ने जलरोधक किस्म की चीड़ की लकड़ी खोजने के लिए कहा है। मैंने सुना तो है वह लकड़ी कहाँ मिलती सकती है, लेकिन वह जगह बहुत दूर है और काफी खतरनाक भी है। उसे ढूँढ़ने और प्राप्त करने में भी बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, इसलिए इसके विकल्प के रूप में अपने आसपास ऐसी ही कोई दूसरी लकड़ी क्यों न ढूँढ़ी जाए? उसमें जोखिम भी कम होगा और मेहनत भी कम करनी पड़ेगी—यह भी ठीक रहेगा, है न?” क्या नूह के दिमाग में यह सब चल रहा था? अगर वह यह सब सोचता, तो क्या वह सच्चा समर्पण होता? (नहीं।) उदाहरण के लिए : परमेश्वर ने कहा कि नाव 100 मीटर ऊँची बनाई जाए। यह सुनकर क्या उसने यह सोचा होगा, “सौ मीटर तो बहुत ऊँची हो जाएगी, उस पर कोई चढ़ नहीं पाएगा। क्या इस पर चढ़कर काम करना जानलेवा नहीं होगा? तो मैं नाव थोड़ी छोटी कर दूंगा, चलो उसे 50 मीटर रखते हैं। उसमें जोखिम कम होगा और लोगों के लिए उस पर चढ़ना भी आसान होगा। यह ठीक रहेगा, है न?” क्या नूह के मन में ऐसे विचार रहे होंगे? (नहीं।) और अगर ऐसा होता, तो क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ने गलत व्यक्ति को चुना होता? (हाँ।) परमेश्वर के प्रति अपनी सच्ची आस्था और समर्पण के कारण नूह ने अपनी इच्छा को महत्व नहीं दिया; यदि उसके मन में ऐसे विचार आए भी होते, तो भी वह उन विचारों के अनुसार कार्य न करता। उस बिंदु पर, परमेश्वर जानता था कि नूह भरोसेमंद है। पहली बात तो यह कि नूह परमेश्वर द्वारा निर्धारित विवरण में कोई परिवर्तन नहीं करेगा, न ही वह उसमें अपना दिमाग लगाएगा, अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित किसी भी विवरण में फेर-बदल करने की तो बात ही छोड़ दो; बल्कि वह परमेश्वर द्वारा कहे गए सभी काम अक्षरशः पूरे करेगा, और चाहे नाव बनाने के लिए सामग्री जुटानाकितना भी कठिन क्यों न हो, चाहे काम कितना भी कठिन या थकाऊ क्यों न हो, वह पूरी कोशिश करेगा और अपनी सारी ऊर्जा उसे अच्छी तरह से पूरा करने में इस्तेमाल करेगा। क्या इसी बात ने उसे विश्वासपात्र नहीं बनाया? और क्या यह परमेश्वर के प्रति उसके सच्चे समर्पण की वास्तविक अभिव्यक्ति थी? (हाँ।) क्या यह समर्पण पूर्ण था? (हाँ।) और वह किसी भी चीज़ से दूषित नहीं था, उसमें उसकी अपनी कोई इच्छा शामिल नहीं थी, उसमें उसकी निजी योजनाओं की मिलावट नहीं थी, उसमें व्यक्तिगत धारणाओं या हितों की तो बात ही छोड़ दो; बल्कि वह शुद्ध, सरल और पूर्ण समर्पण था। और क्या यह हासिल करना आसान था? (नहीं।) हो सकता है कि कुछ लोग असहमत हों : “इसमें इतना कठिन क्या है? इसमें सोचने जैसा तो कुछ है ही नहीं, एक रोबोट की तरह काम करना है, जैसा परमेश्वर कहता है वैसा करना है—क्या यह एकदम आसान नहीं है?” जब कार्य करने का समय आता है, तो कठिनाइयाँ आती हैं; लोगों के विचार हमेशा बदलते रहते हैं, उनकी अपनी पसंद होती है और इसलिए उनके मन में शक बना रहता है कि क्या परमेश्वर के वचन पूरे किए जा सकते हैं; जब वे परमेश्वर के वचन सुनते हैं तो उन्हें स्वीकार करना उनके लिए आसान होता है, लेकिन जब कार्य करने का समय आता है, तो वह कठिन हो जाता है; जैसे ही कठिनाइयाँ शुरू होती हैं, वे नकारात्मक हो जाते हैं और फिर उनके लिए समर्पण करना आसान नहीं रहता। तो यह स्पष्ट है कि नूह का चरित्र और उसकी सच्ची आस्था और समर्पण वास्तव में अनुकरणीय हैं। तो क्या अब तुम इस बारे में स्पष्ट हो कि नूह ने परमेश्वर के वचनों, आज्ञाओं और अपेक्षाओं का सामना करने पर कैसे प्रतिक्रिया दी और समर्पण किया? यह समर्पण व्यक्तिगत विचारों से दूषित नहीं था। नूह ने बिना भटके या चतुर छोटी चालें खेले या होशियार बनने की कोशिश किए, बिना अपने बारे में कोई ऊँची राय रखे और यह सोचे कि वह परमेश्वर को सुझाव दे सकता है, परमेश्वर की आज्ञाओं में अपने विचार जोड़ सकता है, और बिना अपने नेक इरादों का योगदान किए खुद से पूर्ण समर्पण, आज्ञाकारिता और परमेश्वर के वचनों के क्रियान्वयन की अपेक्षा की। क्या पूर्ण समर्पण प्राप्त करने का प्रयास करते समय इसी का अभ्यास नहीं करना चाहिए?
जब परमेश्वर ने नूह को नाव बनाने की आज्ञा दे दी, तो उसे नाव बनाने में कितना समय लगा? (एक सौ बीस वर्ष।) इन 120 वर्षों में, नूह ने बस एक ही काम किया : उसने नाव का निर्माण किया और विभिन्न प्रकार के जीवों को एकत्र किया। हालाँकि कहने को यह केवल एक ही काम था, कोई अलग-अलग काम नहीं थे, लेकिन इस अकेले एक काम में ही बहुत सारा काम शामिल था। तो ऐसा करने का उद्देश्य क्या था? उसने नाव क्यों बनाई? ऐसा करने का उद्देश्य और मायने क्या थे? उसका उद्देश्य यह था कि जब परमेश्वर बाढ़ से दुनिया को नष्ट करे, तो हर प्रकार का जीव जीवित रह सके। तो परमेश्वर द्वारा विनाश से पहले, प्रत्येक प्रकार के जीव के जीवित रहने के लिए नूह जो तैयारी कर सकता था उसने की। और परमेश्वर के लिए क्या यह एक बहुत जरूरी मामला था? परमेश्वर की बातचीत के लहजे से, उसकी आज्ञा के सार से क्या नूह सुन पाया कि परमेश्वर अधीर है और उसका इरादा जरूरी है? (हाँ।) मान लो, (उदाहरण के लिए) तुम लोगों से कहा जाता है, “महामारी आ रही है। यह दुनियाभर में फैल रही है। तुम लोगों को एक काम करना है और जल्दी करो : जल्दी से भोजन और मास्क खरीद लो। बस इतना ही करो!” इसमें तुमने क्या सुना? क्या यह तुरंत करना है? (हाँ।) तो यह कब किया जाना चाहिए? क्या तुम्हें अगले साल तक, उसके अगले साल तक या और भी कई साल तक इंतज़ार करना है? नहीं—यह एक अत्यावश्यक कार्य है, एक महत्वपूर्ण मामला है। सारे काम छोड़कर पहले यह काम करना है। क्या इन शब्दों से तुम्हें यह बात समझ में आई? (हाँ।) तो जो लोग परमेश्वर के प्रति समर्पणशील हैं, उन्हें क्या करना चाहिए? उन्हें तुरंत वह काम छोड़ देना चाहिए जो वे कर रहे हैं। और कुछ मायने नहीं रखता। परमेश्वर ने जो कुछ करने की आज्ञा दी है, उसके बारे में वह बहुत अधीर है; उन्हें वह काम करने में जरा भी देर नहीं लगानी चाहिए, जो परमेश्वर के लिए जरूरी है और जो परमेश्वर को व्यस्त रखता है; उन्हें उसे दूसरे काम करने से पहले पूरा करना चाहिए। समर्पण का यही अर्थ है। लेकिन अगर यह सोचकर तुम इसका विश्लेषण करना शुरू कर दो, “महामारी आ रही है? फैल रही है? अगर फैल रही है, तो फैलने दो—यह कोई हम तक थोड़ी फैल रही है। जब फैलेगी तब देख लेंगे, तब हम इससे निपटेंगे। मास्क और खाने-पीने का सामान खरीदना है? मास्क तो हमेशा उपलब्ध रहते हैं। और फिर इससे क्या फर्क पड़ता है, लगाओ या मत लगाओ। अभी तो हमारे पास खाने-पीने का सामान है, उसकी चिंता क्यों करें? इतनी जल्दी क्या है? महामारी के यहाँ फैलने तक इंतजार करते हैं। फिलहाल तो और बहुत से काम हैं,” क्या यह समर्पण है? (नहीं।) यह क्या है? इसे कुल मिलाकर विद्रोह कहा जाता है। अधिक विशेष रूप से, यह उदासीनता, विरोध, विश्लेषण और जाँच-पड़ताल है, और है अपने दिल में तिरस्कार रखना, यह सोचना कि ऐसा कभी नहीं हो सकता, और यह विश्वास न करना कि यह वास्तविक है। क्या ऐसे रवैये में सच्ची आस्था होती है? (नहीं।) उनकी समग्र स्थिति यह होती है : परमेश्वर के वचनों के संबंध में और सत्य के प्रति वे हमेशा टालमटोल करने का रवैया रखते हैं, उदासीनता और लापरवाही का रवैया रखते हैं; अपने दिल में, वे इसे बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं मानते। वे सोचते हैं, “मैं तुम्हारी कही वे बातें, जो सत्य से संबंधित हैं, और तुम्हारे ऊँचे उपदेश सुनूँगा—मैं उन्हें नोट करने में संकोच नहीं करूंगा, ताकि मैं उन्हें भूल न जाऊँ। लेकिन तुम जो भोजन और मास्क खरीदने के बारे में कहते हो, वह सत्य से संबंधित नहीं है, इसलिए मैं उसे अस्वीकार सकता हूँ, मैं मन ही मन उस पर हँस सकता हूँ और मैं तुमसे उदासीनता और अवहेलना का व्यवहार कर सकता हूँ; इतना काफी है कि मैं अपने कानों से सुन लेता हूँ, लेकिन जो कुछ मैं अपने दिल में सोचता हूँ वह तुम्हारी चिंता का विषय नहीं है, उससे तुम्हें कोई लेना-देना नहीं है।” क्या परमेश्वर के वचनों के प्रति नूह का यही रवैया था? (नहीं।) किस बात से पता चलता है कि वह ऐसा नहीं था? हमें इसके बारे में बात करनी चाहिए; इससे तुम्हें यह सीख मिलेगी कि परमेश्वर के प्रति नूह का रवैया पूरी तरह से अलग था। और इसे साबित करने के लिए तथ्य हैं।
उस पूर्व-औद्योगिक युग में, जब सब-कुछ हाथ से करना होता था और हाथ से किया जाने वाला हर काम कठिन होता था और उसमें समय लगता था। जब नूह ने परमेश्वर का आदेश सुना, जब उसने वे सब चीजें सुनीं जो परमेश्वर ने कहीं, तो उसने इस मामले की गंभीरता और स्थिति की कठोरता महसूस की। वह जान गया कि परमेश्वर दुनिया को नष्ट कर देगा। और वह ऐसा क्यों करने वाला था? क्योंकि मनुष्य बहुत बुरे थे, वे परमेश्वर के वचन में विश्वास नहीं करते थे, यहाँ तक कि परमेश्वर के वचन को नकारते थे, और परमेश्वर उस मानवजाति से घृणा करता था। क्या परमेश्वर ने उस मानवजाति से सिर्फ एक या दो दिन के लिए घृणा की थी? क्या परमेश्वर ने आवेश में आकर कहा, “आज मुझे यह मानवजाति पसंद नहीं। मैं इस मानवजाति का नाश कर दूँगा, इसलिए जाओ और मेरे लिए एक नाव बनाओ”? क्या ऐसा ही है? परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद, नूह समझ गया कि परमेश्वर का अर्थ है। परमेश्वर को उस मानवजाति से सिर्फ एक या दो दिनों के लिए घृणा नहीं हुई थी; वह उस मानवजाति को नष्ट करना चाहता था, ताकि वह मानवजाति नई शुरुआत कर सके। लेकिन इस बार, परमेश्वर एक बार फिर से नई मानवजाति का सृजन नहीं करना चाहता था; बल्कि वह चाहता था कि नूह जीवित रहकर अगले युग का स्वामी, मानवजाति का पूर्वज बनने का सौभाग्य प्राप्त करे। जब नूह ने परमेश्वर के आशय का यह पहलू समझ लिया, तो वह अपने हृदय की गहराइयों से परमेश्वर का उत्कट इरादा महसूस कर सका, वह परमेश्वर की अत्यावश्यकता महसूस कर सका—और इसलिए, जब परमेश्वर बोला, तो ध्यान से, बारीकी से और लगन से सुनने के अलावा नूह ने अपने दिल में कुछ महसूस किया। उसने क्या महसूस किया? अत्यावश्यकता, वह भावना जो सृष्टिकर्ता के उत्कट इरादे समझने के बाद परमेश्वर के एक सच्चे सृजित प्राणी को महसूस करनी चाहिए। इसलिए, जब परमेश्वर ने नूह को जहाज बनाने का आदेश दिया, तो उसने अपने हृदय में क्या सोचा? उसने सोचा, “आज से, जहाज बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है, इससे अहम और जरूरी कुछ नहीं है। मैंने सृष्टिकर्ता के हृदय से वचन सुने हैं, मैंने उसका उत्कट इरादा महसूस किया है, इसलिए अब मुझे विलंब नहीं करना चाहिए; मुझे उस जहाज का निर्माण करना चाहिए जिसके बारे में परमेश्वर ने कहा था और जिसे परमेश्वर ने तुरंत बनाने के लिए आदेश दिया था।” नूह का रवैया कैसा था? उपेक्षा करने की हिम्मत न करने वाला। और उसने जहाज किस तरह बनाया? बिना विलंब किए। उसने परमेश्वर द्वारा कही गई बातों और निर्देशों का हर विवरण बिना किसी लापरवाही के, पूरी तत्परता और ऊर्जा के साथ पूरा किया। संक्षेप में, सृष्टिकर्ता के आदेश के प्रति नूह का रवैया समर्पण का था। उसके प्रति वह बेपरवाह नहीं था, उसके हृदय में कोई प्रतिरोध का भाव नहीं था, न ही उदासीनता थी। बल्कि, हर विवरण याद करते हुए उसने सृष्टिकर्ता का इरादा पूरी लगन से समझने की कोशिश की। जब उसने परमेश्वर का उत्कट इरादा समझ लिया, तो उसने तेजी से काम करने का फैसला किया, ताकि परमेश्वर ने जो काम उसे दिया था, उसे जल्दी से जल्दी पूरा कर सके। “तेजी से” का क्या मतलब था? इसका मतलब था कि काम को कम से कम समय में पूरा करना, जिसमें पहले एक महीने का समय लगता, उसे समय से तीन या पांच दिन पहले पूरा कर लेना, ढिलाई न करना, टालमटोल बिल्कुल न करना बल्कि भरसक प्रयास करते हुए परियोजना को आगे बढ़ाना। स्वाभाविक रूप से, प्रत्येक कार्य को करते समय, वह नुकसान और त्रुटियों को कम करने की पूरी कोशिश करता था और ऐसा कोई काम नहीं करता था जिसे फिर से करना पड़े; वह गुणवत्ता की गारंटी देते हुए प्रत्येक कार्य और प्रक्रिया को भी समय पर और अच्छी तरह से पूरा कर लेता था। यह तत्परता से कार्य करने की सच्ची अभिव्यक्ति थी। तो ढिलाई न दिखाने की पूर्वापेक्षा क्या थी? (उसने परमेश्वर की आज्ञा सुनी थी।) हाँ, यही इसकी पूर्वापेक्षा और संदर्भ था। नूह ने ढिलाई क्यों नहीं दिखाई? कुछ लोग कहते हैं कि नूह में सच्चा समर्पण था। तो, उसमें ऐसा क्या था जिसके कारण उसमें ऐसा सच्चा समर्पण आया? (वह परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील था।) यह सही है! हृदय होने का यही मतलब है! हृदय रखने वाले लोग परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील रह पाते हैं; हृदयहीन लोग खाली खोल होते हैं, मूर्ख होते हैं, वे परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील होना नहीं जानते। उनकी मानसिकता यह होती है : “मुझे परवाह नहीं कि यह परमेश्वर के लिए कितना जरूरी है, मैं इसे जैसे चाहूँगा वैसे करूँगा—वैसे मैं आलस या निकम्मापन नहीं दिखा रहा।” ऐसा रवैया, ऐसी नकारात्मकता, सक्रियता का पूर्णतया अभाव—यह कोई ऐसा इंसान नहीं है जो परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील है, न ही वह यह समझता है कि परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील कैसे हुआ जाए। इस स्थिति में, क्या उसमें सच्ची आस्था होती है? बिल्कुल नहीं। नूह परमेश्वर के हृदय के प्रति विचारशील था, उसमें सच्चा विश्वास था, और इस प्रकार परमेश्वर के आदेश को पूरा कर पाया। तो केवल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना और कुछ प्रयास करने का इच्छुक रहना ही पर्याप्त नहीं होता। तुम्हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील भी होना चाहिए, अपना सर्वस्व देना चाहिए और वफादार होना चाहिए—इसके लिए तुममें जमीर और विवेक होना जरूरी है; यही लोगों में होना चाहिए और यही नूह में था। तुम लोग क्या कहते हो, यदि नूह धीरे-धीरे काम करता, उसमें शीघ्रता का भाव न होता, कोई फिक्र न होती, कोई दक्षता न होती, उस समय इतनी बड़ी नाव बनाने में कितने साल लग जाते? क्या 100 साल में यह काम खत्म हो पाता? (नहीं।) अगर वह लगातार बनाता तो भी कई पीढ़ियाँ लग जातीं। एक ओर, नाव जैसी ठोस चीज के निर्माण में वर्षों लग जाते; इसके अलावा, सभी जीवों को इकट्ठा करने और उनकी देखभाल करने में भी वर्षों लगते। क्या इन जीवों को इकट्ठा करना आसान था? (नहीं।) यह आसान नहीं था। तो, परमेश्वर के आदेश सुनने के बाद, और परमेश्वर का उत्कट इरादा समझने के बाद, नूह ने महसूस किया कि यह न तो आसान होगा और न ही सीधा-सरल। उसे समझ आ गया कि उसे इसे परमेश्वर की इच्छाओं के अनुसार संपन्न कर परमेश्वर द्वारा दिया गया कार्य पूरा करना है, ताकि परमेश्वर संतुष्ट और आश्वस्त हो, ताकि परमेश्वर के कार्य का अगला चरण सुचारू रूप से आगे बढ़ सके। ऐसा था नूह का हृदय। और यह कैसा हृदय था? यह ऐसा हृदय था, जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील था। नाव बनाने में नूह के व्यवहार से आँकें, तो वह निश्चित रूप से बहुत आस्थावान व्यक्ति था और सौ साल तक परमेश्वर के वचन के प्रति उसने अपने मन में कोई संदेह नहीं रखा। वह किस पर निर्भर था? वह परमेश्वर में अपनी आस्था और उसके प्रति समर्पण पर निर्भर था। नूह पूर्ण रूप से समर्पण करने में सक्षम था। उसके पूर्ण समर्पण का विवरण क्या है? उसकी विचारशीलता। क्या तुम लोगों के पास ऐसा हृदय है? (नहीं।) तुम लोग धर्म-सिद्धांत बोलने और नारे लगाने में सक्षम हो, लेकिन तुम लोग अभ्यास नहीं कर सकते, और कठिनाइयों से सामना होने पर तुम परमेश्वर की आज्ञाएँ कार्यान्वित नहीं कर सकते। जब तुम बोलते हो तो बहुत स्पष्ट रूप से बोलते हो, लेकिन जब वास्तविक परिचालनों की बात आती है और तुम्हारे सामने कोई कठिनाई आती है तो तुम नकारात्मक हो जाते हो, और जब तुम थोड़े दुख सहते हो तो शिकायत करना शुरू कर देते हो, बस हार मान लेना चाहते हो। अगर आठ-दस वर्ष तक भारी बारिश नहीं हुई, तो तुम नकारात्मक हो जाओगे और परमेश्वर पर संदेह करोगे, और अगर 20 और वर्ष भारी बारिश के बिना बीत गए, तो क्या तुम नकारात्मक बने रहोगे? नूह ने नाव बनाने में 100 से ज्यादा साल बिता दिए और कभी नकारात्मक नहीं हुआ, न कभी परमेश्वर पर संदेह किया, वह बस नाव बनाता रहा। नूह के अलावा और कौन ऐसा कर सकता था? तुम लोगों में किस तरह की कमी है? (हमारे पास सामान्य मानवता या जमीर नहीं है।) सही है। तुम लोगों में नूह का चरित्र नहीं है। नूह कितने सत्य समझता था? क्या तुम्हें लगता है कि वह तुम लोगों से ज्यादा सत्य समझता था? तुम लोगों ने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं। परमेश्वर के देहधारण के रहस्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों का आंतरिक सत्य, परमेश्वर की प्रबंधन-योजना; ये मानवजाति के आगे व्यक्त किए गए सबसे ऊँचे और सबसे गूढ़ रहस्य हैं, और ये सभी तुम्हें स्पष्ट समझाए गए हैं, तो ऐसा कैसे है कि तुम लोगों में अभी भी नूह की मानवता नहीं है और तुम वैसा करने में असमर्थ हो जैसा नूह कर सकता था? तुम लोगों की आस्था और मानवता नूह से बहुत हीन हैं! यह कहा जा सकता है कि तुम लोगों में सच्ची आस्था नहीं है, या न्यूनतम जमीर या विवेक नहीं है जो मानवता के भीतर होना चाहिए। हालाँकि तुम लोगों ने बहुत-से धर्मोपदेश सुने हैं और ऊपरी तौर पर तुम सत्यों को समझते प्रतीत होते हो, लेकिन तुम्हारी मानवता की गुणवत्ता और तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव ज्यादा धर्मोपदेश सुनने या सत्यों को समझने से तुरंत नहीं बदला जा सकता। इन चीजों की समझ के बिना लोगों को लगता है कि वे पुराने संतों से बहुत हीन नहीं हैं, और वे मन-ही-मन सोचते हैं “हम भी अब परमेश्वर का आदेश स्वीकार रहे हैं और परमेश्वर के ही मुँह से परमेश्वर का वचन सुन रहे हैं। हम भी हर उस चीज को गंभीरता से ले रहे हैं, जो परमेश्वर हमसे करने के लिए कहता है। हर व्यक्ति इन चीजों पर एक-साथ संगति करता है और फिर उनकी योजना बनाने, तैनाती करने और उन्हें क्रियान्वित करने का काम करता है। हम पुराने संतों से कैसे अलग हैं?” क्या अब तुम जो अंतर देखते हो, वह बड़ा है या नहीं? यह बहुत बड़ा अंतर है, मुख्य रूप से चरित्र के संबंध में। आज के लोग बहुत भ्रष्ट, स्वार्थी और नीच हैं! वे तब तक एक उँगली भी नहीं हिलाते, जब तक उन्हें इससे लाभ न हो! वे पाते हैं कि अच्छी चीजें करने और अच्छे कर्म तैयार करने के लिए बहुत प्रयास करने की आवश्यकता होती है! वे कर्तव्य करने के लिए तैयार हैं लेकिन उनमें इच्छाशक्ति नहीं है, वे कष्ट सहने के लिए तैयार हैं लेकिन उसे नहीं सह सकते, वे कीमत चुकाना चाहते हैं लेकिन नहीं चुका सकते, वे सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार हैं लेकिन नहीं कर सकते, और वे परमेश्वर से प्रेम करना चाहते हैं लेकिन इसे अभ्यास में नहीं ला सकते। मुझे बताओ, ऐसी मानवता में कितनी कमी है! इसकी भरपाई करने के लिए कितना सत्य समझना और होना चाहिए?
हमने अभी परमेश्वर के इरादों के प्रति नूह की विचारशीलता के संबंध में संगति की, जो कि उसकी मानवीयता का एक अनमोल हिस्सा था। कुछ और भी है—वह क्या है? परमेश्वर के वचन सुनकर, नूह एक तथ्य जान गया था; उसे परमेश्वर की योजना का भी पता था। योजना सिर्फ एक स्मारक के रूप में काम आने वाली नाव बनाने, या कोई मनोरंजन पार्क बनाने या किसी बड़ी इमारत को ऐतिहासिक स्थल बनाने की नहीं थी—ऐसा नहीं था। परमेश्वर ने जो कहा, उससे नूह एक तथ्य जान गया था : परमेश्वर इस मानवजाति से घृणा करता था जो दुष्ट थी, और उसने तय कर लिया था कि इस मानवजाति को बाढ़ से नष्ट कर देना है। इस बीच, जो लोग अगले युग तक जीवित बचेंगे, उन्हें इस नाव के जरिए बाढ़ से बचाया जाएगा; इससे वो लोग जीवित रह पाएँगे। और इस तथ्य में मुख्य मुद्दा क्या था? वह यह था कि परमेश्वर संसार को बाढ़ से नष्ट कर देगा, और वह चाहता था कि नूह एक नाव बनाए और जीवित रहे और हर प्रकार का प्राणी बच जाए, लेकिन मानवजाति नष्ट हो जाए। क्या यह कोई बड़ी बात थी? यह कोई मामूली पारिवारिक मामला नहीं था, न ही यह किसी व्यक्ति या जनजाति से संबंधित कोई छोटा-मोटा मामला था; बल्कि यह एक विशाल कार्य था। किस तरह का विशाल कार्य? एक ऐसा विशाल कार्य जिसका संबंध परमेश्वर की प्रबंधन योजना से था। परमेश्वर कुछ बड़ा करने जा रहा था, कुछ ऐसा जिसमें पूरी मानवजाति शामिल थी, जो उसके प्रबंधन, मानवजाति के प्रति उसके दृष्टिकोण और उसकी नियति से संबंधित था। जब परमेश्वर ने नूह को यह काम सौंपा तो उसे प्राप्त होने वाली यह तीसरी जानकारी थी। और जब नूह ने परमेश्वर के वचनों से यह सुना तो उसका रवैया क्या था? उसने विश्वास किया, संदेह किया या बिल्कुल विश्वास नहीं किया? (विश्वास किया।) उसने किस हद तक विश्वास किया? और किन तथ्यों से पता चलता है कि उसने इस पर विश्वास किया? (परमेश्वर के वचन सुनकर उसने उन्हें अभ्यास में लाना शुरू कर दिया और परमेश्वर के आदेशानुसार, नाव का निर्माण किया, जिससे यह सिद्ध होता है कि परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका दृष्टिकोण विश्वासपूर्ण था।) नूह में प्रदर्शित हर चीज से—जब नूह ने परमेश्वर द्वारा सौंपा गया काम स्वीकार किया, तब से निष्पादन और कार्यान्वयन से लेकर नाव के संपूर्ण निर्माण कार्य तक—यह देखा जा सकता है कि नूह को परमेश्वर द्वारा उच्चारित प्रत्येक वचन में पूर्ण विश्वास था। उसे पूर्ण विश्वास क्यों था? उसके मन में संदेह क्यों नहीं पैदा हुआ? ऐसा कैसे हुआ कि उसने विश्लेषण करने का प्रयास नहीं किया, कि उसने अपने हृदय में इसकी जाँच-पड़ताल नहीं की? इससे क्या जाहिर होता है? (परमेश्वर में आस्था।) बिल्कुल सही, नूह को परमेश्वर में सच्ची आस्था थी। इसलिए, जब परमेश्वर ने जो कुछ कहा उसकी और उसके हर एक वचन की बात आई, तो नूह ने केवल उन्हें सुनकर स्वीकार नहीं किया; बल्कि उसे अपने दिल की गहराइयों में सच्चा ज्ञान और आस्था थी। हालाँकि परमेश्वर ने उसे विस्तृत ब्यौरा नहीं दिया था, जैसे कि बाढ़ कब आएगी या कितने साल बाद बाढ़ आएगी, बाढ़ का स्वरूप क्या होगा या परमेश्वर जब पूरी दुनिया को नष्ट कर देगा तो क्या होगा। दुनिया, नूह का मानना था कि परमेश्वर ने जो कुछ कहा है वह पहले ही सच हो चुका है। नूह ने परमेश्वर के वचनों को कोई कहानी, या मिथक, या कोई कहावत या लेख नहीं माना, बल्कि अपने दिल की गहराई में उसे विश्वास था, और वह निश्चित था कि परमेश्वर ऐसा करने जा रहा है; और परमेश्वर जो कुछ करने का निश्चय कर लेता है, फिर उसे कोई बदल नहीं सकता। नूह ने महसूस किया कि लोगों का परमेश्वर के वचनों और जो वह करना चाहता है उसके प्रति केवल एक ही दृष्टिकोण हो सकता है, जो यह है कि इस तथ्य को स्वीकार लो, परमेश्वर ने जो आदेश दिया है उसके प्रति समर्पित हो जाओ और उन कार्यों में सहयोग करो जिनमें परमेश्वर उन्हें सहयोग करने के लिए कहता है—यह उसका रवैया था। और चूँकि नूह का ऐसा रवैया था—विश्लेषण न करना, जाँच-पड़ताल न करना, संदेह न करना; फिर भी दिल की गहराइयों से विश्वास करना और फिर परमेश्वर द्वारा जो अपेक्षित था उसमें सहयोग करने का निर्णय लेना और जो परमेश्वर चाहता है उसे पूरा करना—ठीक इसी वजह से नाव का निर्माण कार्य और हर प्रकार के जीव को एकत्र करने और जीवित रखने का कार्य किया गया था। यदि उस समय, जब नूह ने परमेश्वर को यह कहते सुना कि वह जलप्रलय से संसार को नष्ट कर देगा, नूह को संदेह हुआ होता; यदि उसने उस बात पर पूर्ण विश्वास न किया होता, क्योंकि उसने न तो यह देखा था और न ही वह यह जानता था कि यह कब होगा, ऐसी बहुत-सी चीजें थीं जिनसे वह अनजान था, तो क्या नाव बनाने को लेकर उन बातों से नूह का मन और दृढ़विश्वास प्रभावित हुआ होता, क्या उसका मन और संकल्प बदल जाता? (हाँ।) कैसे बदल जाता? नाव का निर्माण करते समय, उसने बेमन से काम किया होता या परमेश्वर के विनिर्देशों को अनदेखा कर दिया होता या परमेश्वर की आज्ञानुसार हर प्रकार के जीव को नाव में इकट्ठा न किया होता; परमेश्वर ने कहा था कि हर प्रजाति से एक नर और एक मादा होना चाहिए, जिसके जवाब में उसने कहा होता, “कुछ जीवों में तो सिर्फ मादा ही काफी हैं। उनमें से कुछ मिल नहीं रहे हैं, तो उन्हें छोड़ देते हैं। क्या पता दुनिया को तबाह करने वाली बाढ़ कब आएगी।” नाव के निर्माण और हर प्रकार के जीवों को इकट्ठा करने के विशाल कार्य में 120 वर्ष लगे। यदि नूह को परमेश्वर के वचनों में सच्चा विश्वास नहीं होता तो क्या नूह 120 वर्षों तक दृढ़ता से उस काम में जुटा रहता? बिल्कुल नहीं। दुनियाभर के लोगों के हस्तक्षेप, घरवालों की ढेरों शिकायतों के चलते, अगर किसी में परमेश्वर के वचनों में आस्था न हो, तो नाव के निर्माण का कार्य करना ही बेहद मुश्किल होता, 120 वर्ष लगने न लगने की तो बात ही छोड़ दो। पिछली बार, मैंने तुम लोगों से पूछा था कि क्या 120 साल का समय लंबा है। तुम लोगों ने कहा कि लंबा है। मैंने पूछा था कि तुम कितने समय टिक सकते हो और आखिर में जब मैंने पूछा कि क्या तुम 15 दिन टिक सकते हो, तो तुम में से किसी ने नहीं कहा कि टिक सकते हैं और मेरा दिल बैठ गया था। तुम लोग नूह से बेहद हीन हो। तुम उसके बाल बराबर भी नहीं हो, तुम लोगों में उसके विश्वास का दसवाँ हिस्सा भी नहीं हैं। तुम लोग कितने दयनीय हो! एक बात तो यह है कि तुम लोगों की मानवता और ईमानदारी बहुत कम हैं। दूसरी बात यह है कि तुम लोगों में सत्य की खोज मूलतः नदारद है। इसलिए तुम लोग परमेश्वर में सच्चा विश्वास पैदा करने में असमर्थ हो और न ही तुम लोगों में सच्चा समर्पण है। तो तुम लोग अब तक भी कैसे टिके हुए हो—ऐसा कैसे है कि मैं संगति कर रहा हूँ और तुम लोग अभी भी बैठकर सुन रहे हो? तुम लोगों में दो आयाम पाए गए हैं। एक ओर तो, तुममें से अधिकांश अभी भी अच्छे बने रहना चाहते हैं; तुम अच्छे मार्ग पर चलना चाहते हो। तुम बुरे लोग नहीं बनना चाहते। तुममें थोड़ा-बहुत यह संकल्प है, तुम्हारे अंदर यह थोड़ी-बहुत आकांक्षा है। वहीं तुममें से ज्यादातर लोग मौत से डरते हैं। तुम मौत से किस हद तक डरते हो? दुनिया में थोड़ी-सी भी परेशानी के संकेत मिलने पर, तुम में से कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने कर्तव्य करने में अतिरिक्त प्रयास करने लगते हैं; और जब चीजें शांत हो जाती हैं, तो फिर से सुख-सुविधाओं के मजे लेने लगते हैं और अपने कर्तव्य के प्रति बहुत शिथिल हो जाते हैं; वे हमेशा दैहिक सुख का ध्यान रखते हैं। अगर नूह के सच्चे विश्वास से तुलना की जाए, तो क्या तुम लोगों में कोई सच्चा विश्वास प्रकट हुआ है? (नहीं।) मुझे भी ऐसा ही लगता है। और अगर थोड़ी-बहुत आस्था है भी, तो बेहद अल्प है जो परीक्षणों के इम्तहान का सामना नहीं कर पाता।
मैंने कभी भी कोई काम की व्यवस्था नहीं बनाई है, लेकिन मैंने अक्सर उनकी प्रस्तावना में इस तरह के शब्दों के बारे में सुना है : “विभिन्न देश गंभीर रूप से अव्यवस्थित हैं, हर ओर अराजकता है, सांसारिक प्रवृत्तियाँ और अधिक दुष्ट होती जा रही हैं, और परमेश्वर मानवजाति को दंडित करेगा; हमें ऐसा-ऐसा करके एक स्वीकार्य मानक के अनुसार अपना कर्तव्य करना चाहिए और परमेश्वर को अपनी निष्ठा अर्पित करनी चाहिए।” “इन दिनों महामारियाँ बद से बदतर होती जा रही हैं, पर्यावरण और अधिक प्रतिकूल होता जा रहा है, आपदाएँ और भी गंभीर रूप धारण कर रही हैं, लोगों के सामने बीमारी और मृत्यु का खतरा मंडरा रहा है, हम इन महामारियों से तभी बच पाएँगे, जब हम परमेश्वर में विश्वास रखेंगे और उससे निरंतर प्रार्थना करेंगे, क्योंकि मात्र परमेश्वर ही हमारा आश्रय है। आजकल, जब हम ऐसी परिस्थितियों और ऐसे परिवेश का सामना कर रहे हैं, तो हमें ऐसा-ऐसा करके अच्छे कर्म करने चाहिए—यह अनिवार्य है।” “इस साल का विषाणु-संक्रमण विशेष रूप से गंभीर था, मानवजाति अकाल का सामना करेगी, जल्दी ही लूटपाट और सामाजिक अस्थिरता की स्थिति पैदा हो सकती है, इसलिए जो लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं उन्हें निरंतर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर द्वारा सुरक्षा के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, सामान्य कलीसिया जीवन और सामान्य आध्यात्मिक जीवन को बनाए रखना चाहिए,” इत्यादि। और फिर एक बार प्रस्तावना बोल दिए जाने के बाद, विशिष्ट व्यवस्थाएँ शुरू होती हैं। हर बार इन प्रस्तावनाओं ने लोगों के विश्वास में एक सामयिक और निर्णायक भूमिका निभाई है। तो मैं सोचता हूँ, अगर ये प्रस्तावनाएँ और कथन न कहे गए होते, तो क्या ये कार्य-व्यवस्थाएँ न की जातीं? क्या कार्य-व्यवस्थाएँ इन प्रस्तावनाओं के बिना कार्य-व्यवस्थाएँ न रहतीं? क्या फिर भी उन्हें जारी करने का कोई कारण होता? उत्तर निश्चित रूप से यह है कि वे फिर भी वही रहतीं। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का क्या उद्देश्य होता है? परमेश्वर में उनकी आस्था के क्या मायने हैं? लोग उन तथ्यों को समझते हैं या नहीं जिन्हें परमेश्वर पूरा करना चाहता है? लोगों को परमेश्वर के वचनों को कैसे लेना चाहिए? सृष्टिकर्ता जो कुछ कहता है, उसे लोगों को कैसे लेना चाहिए? क्या ये प्रश्न विचारणीय हैं? यदि लोगों को नूह के मानक पर रखा गया होता, तो मेरा विचार है कि उनमें से एक भी “सृजित प्राणी” की उपाधि के योग्य न होता। वह परमेश्वर के सामने आने योग्य न होता। अगर आज के लोगों की आस्था और समर्पण को नूह के प्रति परमेश्वर के रवैये और परमेश्वर द्वारा नूह को चुनने के मानकों से मापा जाता, तो क्या परमेश्वर उनसे संतुष्ट हो सकता था? (नहीं।) दूर-दूर तक भी नहीं! लोग हमेशा कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसकी आराधना करते हैं, लेकिन यह आस्था और आराधना उनमें कैसे अभिव्यक्त होती है? असल में, यह अभिव्यक्त होती है परमेश्वर पर उनकी निर्भरता के रूप में, उससे उनकी माँगों के रूप में, और साथ ही उसके प्रति उनके पक्के विद्रोह में, यहाँ तक कि देहधारी परमेश्वर के प्रति उनके तिरस्कार के रूप में। क्या इन सबको मानवजाति द्वारा सत्य की अवमानना और सिद्धांत का खुला उल्लंघन माना जा सकता है? वास्तव में, यही सच है—इसका यही सार है। जब भी कार्य-व्यवस्थाओं में ये शब्द शामिल होते हैं, तो लोगों की “आस्था” में वृद्धि हो जाती है; जब भी कार्य व्यवस्थाएँ जारी की जाती हैं, जब भी लोगों को कार्य-व्यवस्थाओं की आवश्यकताओं और मायने का एहसास होता है और वे उन्हें क्रियान्वित कर पाते हैं, तो उन्हें लगता है कि उनके समर्पण के स्तर में वृद्धि हो गई है और अब उनमें समर्पण आ गया है—लेकिन क्या उनमें वास्तव में आस्था और सच्चा समर्पण होता है? और नूह के मानक से मापे जाने पर यह कथित आस्था और समर्पण आखिर है क्या? यह वास्तव में एक प्रकार का लेन-देन है। इसे संभवतः आस्था और सच्चा समर्पण कैसे माना जा सकता है? लोगों की यह तथाकथित सच्ची आस्था क्या है? “अंत के दिन आ गए हैं—मुझे आशा है कि परमेश्वर शीघ्र ही कार्रवाई करेगा! यह कितना बड़ा आशीष है कि जब परमेश्वर दुनिया को नष्ट करेगा, तब मैं यहाँ रहूँगा, मैं इतना भाग्यशाली हूँ कि मैं बच जाऊँगा और विनाश का कहर नहीं झेलूँगा। परमेश्वर कितना नेक है, वह लोगों से बहुत प्रेम करता है, परमेश्वर कितना महान है! उसने मनुष्य को कितना ऊँचा उठाया है, परमेश्वर वास्तव में परमेश्वर है, केवल परमेश्वर ही ऐसे काम कर सकता है।” और उनका तथाकथित सच्चा समर्पण? “परमेश्वर जो कुछ भी कहता है, वह सही होता है। वह जो कुछ भी कहता है, वही करो; नहीं करोगे तो तुम विपत्ति में फँस जाओगे और तुम्हारे लिए सब-कुछ समाप्त हो जाएगा, फिर तुम्हें कोई नहीं बचा सकेगा।” उनकी आस्था सच्ची आस्था नहीं है और उनका समर्पण भी सच्चा समर्पण नहीं है—ये झूठ के अलावा कुछ नहीं हैं।
आज दुनिया में हर कोई नूह की नाव के निर्माण के बारे में जानता है, है न? लेकिन अंदर की कहानी से कितने लोग वाकिफ हैं? नूह की सच्ची आस्था और समर्पण को कितने लोग समझते हैं? नूह के बारे में परमेश्वर का मूल्यांकन क्या था, इसे कौन जानता है और कौन उसकी परवाह करता है? इस ओर कोई ध्यान नहीं देता। यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि लोग सत्य का अनुसरण और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते। पिछली बार, जब मैंने इन दो हस्तियों की कहानियों पर संगति की थी, तो क्या किसी ने जाकर बाइबल में इन कहानियों का विवरण पढ़ा? जब तुम लोगों ने नूह, अब्राहम और अय्यूब की कहानियाँ सुनीं तो क्या तुम प्रेरित हुए? (हाँ।) क्या तुम लोगों को इन तीन लोगों से ईर्ष्या होती है? (हाँ।) क्या तुम उनकी तरह बनना चाहते हो? (हाँ।) तो क्या तुम लोगों ने उनकी कहानियों के बारे में, उनके व्यवहार के सार के बारे में, परमेश्वर के प्रति उनके दृष्टिकोण, उनकी आस्था और समर्पण के बारे में विस्तृत संगति की? जो इन लोगों जैसे बनना चाहते हैं, उन्हें कहाँ से शुरूआत करनी चाहिए? बहुत पहले मैंने पहली बार अय्यूब की कहानी पढ़ी थी, और मुझे नूह और अब्राहम की कहानियों की भी कुछ समझ थी। हर बार जब मैं पढ़कर इस बारे में अपने दिल में सोचता हूँ कि उन तीन लोगों ने क्या प्रदर्शित किया, परमेश्वर ने उनसे क्या कहा और उनके साथ क्या किया, मैं उनके विभिन्न नजरियों के बारे में भी सोचता हूँ, लगता है जैसे मेरी आँखों से आँसू टपक पड़ेंगे—मैं भावुक हो जाता हूँ। जब तुम लोगों ने उन्हें पढ़ा तो तुम्हें किस बात ने भावुक किया? (परमेश्वर की संगति सुनने के बाद मुझे अंततः पता चला कि जब अय्यूब अपने परीक्षणों से गुजर रहा था, तो उसने सोचा कि परमेश्वर उसके लिए कष्ट सह रहा है, और चूँकि वह नहीं चाहता था कि परमेश्वर कष्ट सहे, इसलिए उसने उस दिन को ही कोसा जिस दिन वह पैदा हुआ था। हर बार जब मैंने इसे पढ़ा, तो मुझे लगा कि अय्यूब वास्तव में परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील था और मैं बहुत भावुक हुआ।) और कुछ? (नूह ने नाव बनाते समय ऐसी कठिनाइयों का सामना किया, फिर भी वह परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाने में सक्षम था। अब्राहम को 100 वर्ष की आयु में एक बच्चा प्रदान किया गया था और वह खुशी से भर गया था, लेकिन जब परमेश्वर ने उससे अपने बच्चे की बलि देने के लिए कहा, तो वह आज्ञापालन करने और समर्पण करने में सक्षम था, लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते। हमारे पास नूह या अब्राहम की मानवता, जमीर या विवेक नहीं है। जब मैं उनकी कहानियाँ पढ़ता हूँ तो प्रशंसा से भर जाता हूँ, और वे हमारे अनुगमन के लिए आदर्श हैं।) (पिछली बार जब तुमने संगति की थी, तो तुमने उल्लेख किया था कि नूह नाव बनाने में 120 वर्षों तक दृढ़ रहने में सक्षम था और उसने परमेश्वर द्वारा आदेशित चीजें उत्कृष्ट तरीके से पूरी कीं और परमेश्वर की अपेक्षाओं पर पानी नहीं फेरा। अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये से इसकी तुलना करने पर मैं देखता हूँ कि मुझमें बिल्कुल भी दृढ़ता नहीं है। इससे मैं दोषी और साथ ही भावुक भी महसूस करता हूँ।) तुम सभी भावुक हुए हो, है न? (हाँ।) फिलहाल हम इस विषय पर संगति नहीं करेंगे; नूह और अब्राहम की कहानियाँ समाप्त करने के बाद हम इस सब पर चर्चा करेंगे। मैं तुम लोगों को बताऊँगा कि मुझे किन हिस्सों ने भावुक किया और हम देखेंगे कि क्या वे वही हिस्से हैं जिन्होंने तुम्हें भी भावुक किया।
हमने अभी परमेश्वर में नूह की सच्ची आस्था के बारे में संगति की। उसके द्वारा नाव बनाने के स्थापित तथ्य उसकी सच्ची आस्था दिखाने के लिए पर्याप्त हैं। नूह का सच्चा विश्वास उसके हर एक काम में, उसके हर विचार में और उस रवैये में प्रदर्शित होता है जिसे लेकर उसने परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार कार्य किया। यह परमेश्वर में नूह की सच्ची आस्था दर्शाने के लिए पर्याप्त है—वह आस्था जो किसी भी संदेह से परे है और पूरी तरह शुद्ध है। परमेश्वर ने उससे जो कुछ करने के लिए कहा था, वह चाहे उसकी अपनी धारणाओं के अनुरूप हो या न हो, चाहे यह वो काम हो या न हो जिसे करने की उसने जीवन में योजना बनाई थी, चाहे उनका टकराव उसके जीवन की चीजों से कैसे भी रहा हो, चाहे वह कार्य कितना भी कठिन रहा हो, उसका बस एक ही दृष्टिकोण था : स्वीकृति, समर्पण और कार्यान्वयन। अंततः, तथ्य बताते हैं कि नूह द्वारा निर्मित नाव ने जीवों की प्रत्येक प्रजाति को, साथ ही साथ नूह के परिवार को भी बचाया। जब परमेश्वर ने बाढ़ लाकर मानवजाति को नष्ट करना शुरू किया, तो नाव नूह के परिवार और विभिन्न प्रकार के जीवित प्राणियों को लेकर पानी पर तैरने लगी। परमेश्वर ने 40 दिनों तक भारी बाढ़ भेजकर पृथ्वी को नष्ट कर दिया और केवल नूह का आठ लोगों का परिवार और नाव में प्रवेश करने वाले विभिन्न जीवित प्राणी ही बच पाए, अन्य सभी लोग और जीवित चीजें नष्ट हो गईं। इन तथ्यों से क्या जाहिर होता है? चूँकि नूह में परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण था—इसलिए परमेश्वर के साथ नूह के सच्चे सहयोग के माध्यम से—परमेश्वर जो कुछ भी करना चाहता था, वह सब पूरा हो गया; वह सब एक वास्तविकता बन गया। परमेश्वर ने नूह की इसी चीज की कद्र की और नूह ने भी परमेश्वर को निराश नहीं किया; वह उस महत्वपूर्ण कार्य पर खरा उतरा जो परमेश्वर ने उसे दिया था और वह सब काम पूरा किया जो परमेश्वर ने उसे सौंपा था। नूह परमेश्वर के कार्य को एक तो इसलिए पूरा कर पाया, क्योंकि परमेश्वर ने उसे ऐसा करने की आज्ञा दी थी और साथ ही इसलिए भी कि नूह में परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था और पूर्ण समर्पण था। वह इसलिए उस काम को कर पाया क्योंकि नूह में दो सर्वोत्तम गुण थे जिनके कारण वह परमेश्वर को प्रिय हो गया; चूँकि नूह में सच्ची आस्था और पूर्ण समर्पण था, इसलिए परमेश्वर को लगा कि वह ऐसा व्यक्ति है जिसे जीवित रहना चाहिए, और ऐसा व्यक्ति जो जीवित रहने योग्य है। नूह के अलावा हर कोई परमेश्वर की घृणा का पात्र था, इसका आशय यह था कि वे सभी परमेश्वर की सृष्टि के बीच रहने योग्य नहीं थे। नूह के नाव बनाने से हमें क्या देखना चाहिए? एक ओर तो हमने नूह का महान चरित्र देखा है; नूह में जमीर और विवेक था। दूसरी ओर हमने परमेश्वर के प्रति नूह की सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण देखा है। यह सब अनुकरणीय है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर के कार्य के प्रति नूह की आस्था और समर्पण के कारण ही था कि नूह परमेश्वर की दृष्टि में प्रिय बन गया, ऐसा सृजित प्राणी बन गया जिसे परमेश्वर ने प्रेम किया—जो कि एक भाग्यशाली और धन्य होने वाली बात थी। ऐसे ही लोग परमेश्वर के मुखमंडल के प्रकाश में जीने योग्य होते हैं; परमेश्वर की दृष्टि में, केवल वही जीने योग्य होते हैं। जीने योग्य लोग : इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है वे लोग जो परमेश्वर द्वारा मानवजाति को प्रदान की गई उन सभी चीजों का आनंद लेने योग्य हैं जिनका आनंद लिया जा सकता है, जो परमेश्वर के मुखमंडल के प्रकाश में जीने योग्य हैं, जो परमेश्वर के आशीष और वादे प्राप्त करने योग्य हैं; ऐसे ही लोग परमेश्वर को प्रिय होते हैं, वे सच्चे सृजित इंसान होते हैं और ऐसे लोग होते हैं जिन्हें परमेश्वर प्राप्त करना चाहता है।
II. परमेश्वर के वचनों के प्रति अब्राहम का रवैया
आओ अब अब्राहम में उन चीजों पर गौर करें, जो बाद की पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय हैं। परमेश्वर के सामने अब्राहम का मुख्य कार्य वही था, जिससे बाद की पीढ़ियाँ बहुत परिचित हैं और जिसे वे बहुत अच्छी तरह से जानती हैं : इसहाक की बलि। इस मामले में अब्राहम ने जो कुछ भी अभिव्यक्त किया, उसका हर पहलू—चाहे वह उसका चरित्र हो या उसकी आस्था या समर्पण—बाद की पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है। तो आखिर, वास्तव में उसके द्वारा प्रदर्शित वे कौन-सी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ थीं, जो अनुकरणीय हैं? स्वाभाविक रूप से, वे विभिन्न चीजें जो उसने अभिव्यक्त कीं, खोखली नहीं थीं, अमूर्त तो बिल्कुल नहीं थीं, और निश्चित रूप से वे किसी व्यक्ति द्वारा गढ़ी भी नहीं गई थीं, इन सभी चीजों के सबूत हैं। परमेश्वर ने अब्राहम को एक पुत्र दिया; परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से अब्राहम को इसके बारे में बताया, और जब अब्राहम 100 वर्ष का था, तो उसका इसहाक नाम का एक पुत्र पैदा हुआ। स्पष्ट रूप से, इस बच्चे की उत्पत्ति साधारण नहीं थी, वह किसी और जैसा नहीं था—उसे परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से प्रदान किया था। जब परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से कोई बच्चा प्रदान किया हो, तो लोग सोचते हैं कि परमेश्वर निश्चित रूप से उसमें कुछ महान कार्य करने जा रहा है, कि परमेश्वर उसे कुछ महान कार्य सौंपेगा, परमेश्वर उस पर असाधारण कार्य करेगा, वह बच्चे को असाधारण बनाएगा, इत्यादि—ये वे चीजें थीं जिनकी अब्राहम और अन्य लोगों को बड़ी उम्मीदें थीं। लेकिन चीजें अलग दिशा में चली गईं और अब्राहम के साथ कुछ ऐसा हुआ, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं हो सकती थी। परमेश्वर ने अब्राहम को इसहाक प्रदान किया, और जब चढ़ावे का समय आया, तो परमेश्वर ने अब्राहम से कहा, “आज तुम्हें और कुछ चढ़ाने की जरूरत नहीं, सिर्फ इसहाक—यह काफी है।” इसका क्या अर्थ था? परमेश्वर ने अब्राहम को एक पुत्र दिया था, और जब यह पुत्र बड़ा होने वाला था, तो परमेश्वर उसे वापस लेना चाहता था। इस पर अन्य लोगों का यह परिप्रेक्ष्य होगा : “तुम्हीं थे, जिसने इसहाक दिया था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था, फिर भी तुमने यह बच्चा देने पर जोर दिया। अब तुम कह रहे हो कि इसे बलि के रूप में चढ़ा दिया जाए। क्या यह तुम्हारा उसे वापस लेना नहीं है? तुमने लोगों को जो दिया है, उसे तुम वापस कैसे ले सकते हो? अगर तुम उसे लेना ही चाहते हो, तो ले जाओ। तुम उसे चुपचाप वापस ले जा सकते हो। मुझे इतनी पीड़ा और कठिनाई देने की जरूरत नहीं। तुम मुझसे कैसे कह सकते हो कि मैं अपने हाथों से उसकी बलि दे दूँ?” क्या यह बहुत कठिन माँग थी? यह बेहद कठिन थी। इस माँग को सुनकर कुछ लोग कहते, “क्या यह वास्तव में ईश्वर है? इस तरह से कार्य करना बहुत अनुचित है! वो तुम्हीं थे जिसने इसहाक दिया था और अब तुम्हीं उसे वापस माँग रहे हो। क्या तुम वास्तव में हमेशा न्यायसंगत होते हो? क्या तुम जो कुछ करते हो, वह हमेशा सही होता है? जरूरी नहीं। लोगों का जीवन तुम्हारे हाथों में है। तुमने कहा था कि तुम मुझे एक बेटा दोगे और तुमने वैसा ही किया; तुम्हारे पास वह अधिकार है, ठीक ऐसे ही तुम्हारे पास उसे वापस लेने का अधिकार भी है—लेकिन क्या तुम्हारे वापस लेने का तरीका और यह मामला थोड़ा अनुचित नहीं है? तुमने यह बच्चा दिया, तो तुम्हें उसे बड़ा होने देना चाहिए, बड़े कार्य करने देने चाहिए और अपने आशीष फलते देखने चाहिए। तुम यह कैसे कह सकते हो कि वह मर जाए? उसकी मृत्यु का आदेश देने के बजाय तुम उसे मुझे न ही देते तो अच्छा होता! फिर तुमने उसे मुझे दिया ही क्यों? तुमने मुझे इसहाक दिया और अब तुम मुझे उसकी बलि चढ़ाने के लिए कह रहे हो—क्या यह तुम्हारा मुझे अतिरिक्त पीड़ा देना नहीं है? क्या तुम मेरे लिए चीजें कठिन नहीं बना रहे हो? तो फिर, तुम्हारे द्वारा मुझे यह बेटा देने का मतलब ही क्या था?” वे चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, इस माँग के पीछे का तर्क नहीं समझ पाते; वे इसे चाहे जिस भी तरीके से कहें, यह उन्हें समर्थन करने योग्य नहीं लगता, और कोई भी व्यक्ति इसे समझने में सक्षम नहीं है। लेकिन क्या परमेश्वर ने अब्राहम को इसके पीछे का तर्क बताया? क्या उसने उसे इसके कारण बताए और यह बताया कि उसका क्या इरादा था? क्या उसने बताया? नहीं। परमेश्वर ने सिर्फ इतना कहा, “कल के बलिदान के दौरान इसहाक की बलि चढ़ाना,” बस इतना ही। क्या परमेश्वर ने कोई स्पष्टीकरण दिया? (नहीं।) तो इन शब्दों की प्रकृति क्या थी? परमेश्वर की पहचान के संदर्भ में देखें तो, ये वचन एक आदेश थे, जिसे पूरा किया जाना चाहिए था, जिसका पालन किया जाना चाहिए था और जिसके प्रति समर्पण किया जाना चाहिए था। लेकिन परमेश्वर ने जो कहा उसे और इस मामले को देखें तो, क्या लोगों के लिए वह करना कठिन नहीं होगा जो उन्हें करना चाहिए? लोग सोचते हैं कि जो चीजें की जानी चाहिए वे उचित होनी चाहिए, और इंसानी भावनाओं और सार्वभौमिक इंसानी संवेदनाओं के अनुरूप होनी चाहिए—लेकिन क्या इनमें से कुछ भी उस पर लागू हुआ जो परमेश्वर ने कहा? (नहीं।) तो क्या परमेश्वर को स्पष्टीकरण देना चाहिए था और अपने विचार और अपना आशय व्यक्त करना चाहिए था या अपने वचनों का थोड़ा-सा भी निहितार्थ प्रकट करना चाहिए था, ताकि लोग समझ सकते? क्या परमेश्वर ने इनमें से कुछ भी किया? उसने नहीं किया, न ही उसने ऐसा करने की योजना बनाई। इन वचनों में वह था जो सृष्टिकर्ता द्वारा अपेक्षित था, जो उसने आदेश दिया था और जो उसने मनुष्य से अपेक्षा की थी। ये बहुत ही सरल वचन, ये अनुचित वचन—यह आदेश और माँग जिसमें लोगों की भावनाओं के लिए विचारशीलता का अभाव था—अन्य लोगों द्वारा, इस दृश्य को देखने वाले किसी भी व्यक्ति द्वारा सिर्फ कठिन, दुष्कर और अनुचित ही माने जाएँगे। लेकिन अब्राहम के लिए, जो वास्तव में इसमें शामिल था, यह सुनने के बाद उसकी पहली भावना हृदय-विदारक पीड़ा थी! उसे परमेश्वर द्वारा दिया गया यह बच्चा मिला था, उसने इतने साल उसका पालन-पोषण किया था और इतने साल पारिवारिक आनंद प्राप्त किया था, लेकिन परमेश्वर के एक वाक्य, एक आदेश से यह खुशी, यह जीवित मनुष्य, चला जाएगा और छीन लिया जाएगा। अब्राहम ने सिर्फ इस पारिवारिक आनंद के नुकसान का ही सामना नहीं किया, बल्कि इस बच्चे को खोने के बाद के चिरस्थायी अकेलेपन के दर्द और तड़प का भी सामना किया। एक बुजुर्ग व्यक्ति के लिए यह असहनीय था। ऐसे वचन सुनने के बाद कोई भी साधारण व्यक्ति आँसुओं की बाढ़ में डूब जाएगा, है कि नहीं? इतना ही नहीं, वह अपने दिल में परमेश्वर को कोसेगा, परमेश्वर के बारे में शिकायत करेगा, परमेश्वर को गलत समझेगा और परमेश्वर के साथ बहस करने की कोशिश करेगा; वह वो सब प्रदर्शित करेगा जो वह करने में सक्षम है, अपनी सारी योग्यताएँ और अपनी सारी विद्रोहशीलता, अशिष्टता और विवेकहीनता। लेकिन फिर भी, उतना ही दुखी होने के बावजूद अब्राहम ने ऐसा नहीं किया। किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह उसने तुरंत वह पीड़ा महसूस की, तुरंत अपने दिल के बिंध जाने की भावना का अनुभव किया और तुरंत बेटे को खोने से उपजने वाला अकेलापन महसूस किया। परमेश्वर के ये वचन इंसानी भावनाओं के प्रति विचारशून्य थे, लोगों के लिए अकल्पनीय थे और लोगों की धारणाओं के साथ असंगत थे, वे इंसानी भावनाओं के परिप्रेक्ष्य से नहीं बोले गए थे; उनमें इंसानी कठिनाइयों या इंसानी भावनाओं से संबंधित जरूरतों का ध्यान नहीं रखा गया था और निश्चित रूप से उनमें इंसानी दर्द पर विचार नहीं किया गया था। परमेश्वर ने ये वचन अब्राहम पर बेरुखी से उछाल दिए थे—क्या परमेश्वर ने इस बात की परवाह की थी कि ये वचन उसके लिए कितने दर्दनाक थे? बाहर से परमेश्वर बेपरवाह और उदासीन दोनों लग रहा था; जो कुछ उसने सुना, वह था परमेश्वर का आदेश और उसकी माँग। किसी को भी यह माँग इंसानी संस्कृति, परंपराओं, संवेदनाओं, यहाँ तक कि इंसानी नैतिकता और आचार-नीति के साथ असंगत लगेगी; इसने एक नैतिक और आचार-नीति संबंधी रेखा पार कर ली थी और मनुष्य के लोगों के साथ आचरण और व्यवहार के नियमों और साथ ही मनुष्य की भावनाओं के विरुद्ध चली गई थी। ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं, “ये वचन न सिर्फ अनुचित और अनैतिक हैं, बल्कि इससे भी बढ़कर, ये बिना किसी वाजिब कारण के परेशानी खड़ी करने वाले हैं! ये वचन परमेश्वर द्वारा कैसे कहे जा सके होंगे? परमेश्वर के वचन उचित और न्यायसंगत होने चाहिए और उन्हें मनुष्य को पूरी तरह से आश्वस्त करना चाहिए; उन्हें बिना किसी वाजिब कारण के परेशानी खड़ी नहीं करनी चाहिए और उन्हें अनैतिक, आचार-नीतिहीन या अतार्किक नहीं होना चाहिए। क्या ये वचन वास्तव में सृष्टिकर्ता द्वारा कहे गए थे? क्या सृष्टिकर्ता ऐसी बातें कह सकता था? क्या सृष्टिकर्ता स्वयं द्वारा सृजित लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार कर सकता था? ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता।” लेकिन फिर भी, ये वचन वास्तव में परमेश्वर के मुख से ही निकले थे। परमेश्वर के रवैये और उसके वचनों के लहजे से आँकें तो, परमेश्वर ने तय कर लिया था कि वह क्या चाहता है और उसमें चर्चा के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी और लोगों को चुनने का कोई अधिकार नहीं था; वह मनुष्य को चुनने का अधिकार नहीं दे रहा था। परमेश्वर के वचन एक माँग थे, वे एक आदेश थे जो उसने मनुष्य के लिए जारी किया था। अब्राहम के लिए परमेश्वर के ये वचन अटल और निर्विवाद थे; वे परमेश्वर की ओर से उससे की गई एक अडिग माँग थे और उन पर चर्चा नहीं की जा सकती थी। और अब्राहम ने क्या चुनाव किया? यही वह मुख्य बिंदु है, जिस पर हम संगति करेंगे।
परमेश्वर के वचन सुनने के बाद अब्राहम ने अपनी तैयारी शुरू कर दी, उसे पीड़ा महसूस हुई और ऐसा लगा जैसे उस पर कोई भारी बोझ पड़ रहा हो। उसने अपने दिल में चुपचाप प्रार्थना की : “मेरे प्रभु, मेरे परमेश्वर। तुम जो कुछ भी करते हो, वह प्रशंसनीय है; यह पुत्र तुम्हीं ने दिया था, और अगर तुम इसे वापस लेना चाहते हो, तो मुझे इसे वापस कर देना चाहिए।” हालाँकि अब्राहम पीड़ित था, लेकिन क्या इन शब्दों से उसका रवैया स्पष्ट नहीं था? लोग यहाँ क्या देख सकते हैं? वे सामान्य मानवता की कमजोरी, सामान्य मानवता की भावनाओं से जुड़ी जरूरतें और साथ ही अब्राहम का तर्कसंगत पक्ष और परमेश्वर के प्रति उसकी सच्ची आस्था और समर्पण का पक्ष देख सकते हैं। उसका तर्कसंगत पक्ष क्या था? अब्राहम अच्छी तरह से जानता था कि इसहाक परमेश्वर का दिया हुआ है, परमेश्वर के पास उसके साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार करने की शक्ति है, लोगों को इस पर कोई निर्णय नहीं देना चाहिए, सृष्टिकर्ता द्वारा कही गई हर बात सृष्टिकर्ता का प्रतिनिधित्व करती है, और चाहे वह उचित लगे या न लगे, चाहे वह इंसानी ज्ञान, संस्कृति और नैतिकता से मेल खाती हो या नहीं, परमेश्वर की पहचान और उसके वचनों की प्रकृति नहीं बदलती। वह स्पष्ट रूप से जानता था कि अगर लोग परमेश्वर के वचनों को समझ नहीं सकते, बूझ नहीं सकते या उनका पता नहीं लगा सकते, तो यह उनकी समस्या है, और कोई कारण नहीं है कि परमेश्वर इन वचनों को समझाए या स्पष्ट करे, और परमेश्वर के वचनों और इरादों को समझ जाने के बाद लोगों को सिर्फ समर्पण ही नहीं करना चाहिए, बल्कि चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ हों, परमेश्वर के वचनों के प्रति उन्हें सिर्फ एक ही रवैया रखना चाहिए : सुनना, फिर स्वीकारना, फिर समर्पण करना। यह अब्राहम का उस सब के प्रति स्पष्ट रूप से देखा जा सकने वाला रवैया था जो परमेश्वर ने उससे करने के लिए कहा था, और इसमें सामान्य मानवता की तर्कसंगतता और साथ ही सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण निहित है। सबसे बढ़कर, अब्राहम को क्या करने की जरूरत थी? परमेश्वर के वचनों के सही-गलत होने का विश्लेषण न करना, यह जाँच-पड़ताल न करना कि कहीं वे मजाक में या उसकी परीक्षा लेने के लिए तो नहीं कहे गए, या ऐसा ही कुछ और। अब्राहम ने ऐसी चीजों की जाँच नहीं की। परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका तात्कालिक रवैया क्या था? यही कि परमेश्वर के वचनों को तर्क से नहीं समझा जा सकता—चाहे वे तर्कसंगत हों या नहीं, परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन हैं और परमेश्वर के वचनों के प्रति लोगों के रवैये में पसंद और जाँच की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए; जो विवेक लोगों के पास होना चाहिए और जो काम उन्हें करना चाहिए, वह है सुनना, स्वीकारना और समर्पण करना। अपने हृदय में अब्राहम बहुत स्पष्ट रूप से जानता था कि सृष्टिकर्ता की पहचान और सार क्या हैं और एक सृजित मनुष्य को कौन-सा स्थान ग्रहण करना चाहिए। यह ठीक इसलिए था, क्योंकि अब्राहम में ऐसी तर्कसंगतता और इस तरह का रवैया था कि भले ही उसने बहुत पीड़ा सही, लेकिन फिर भी उसने बिना किसी संदेह या झिझक के इसहाक को परमेश्वर को अर्पित कर दिया, उसे परमेश्वर को वैसे ही लौटा दिया जैसे वह चाहता था। उसने महसूस किया कि चूँकि परमेश्वर ने कहा है, इसलिए उसे इसहाक को उसे लौटाना ही होगा और उसे उससे बहस करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, न अपनी इच्छाएँ या माँगें ही रखनी चाहिए। यह बिल्कुल वैसा रवैया है, जैसा एक सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के प्रति रखना चाहिए। ऐसा करने को लेकर सबसे कठिन चीज थी अब्राहम के बारे में सबसे अनमोल चीज। परमेश्वर द्वारा कहे गए ये वचन इंसानी भावनाओं की दृष्टि से अनुचित और उनके प्रति विचारशून्य थे—लोग उन्हें समझ या स्वीकार नहीं सकते, और किसी की चाहे कितनी भी उम्र हो या यह किसी के साथ भी घटित हो, इन वचनों का कोई मतलब नहीं है, ये दुष्कर हैं—फिर भी परमेश्वर ने ऐसा करने के लिए कहा। तो क्या किया जाना चाहिए? ज्यादातर लोग इन वचनों की जाँच करेंगे और कई दिन ऐसा करने के बाद मन-ही-मन सोचेंगे : “परमेश्वर के वचन अनुचित हैं—परमेश्वर ऐसा कैसे कर सकता है? क्या यह एक तरह की यातना नहीं है? क्या परमेश्वर मनुष्य से प्रेम नहीं करता? वह लोगों को इस तरह यातना कैसे दे सकता है? मैं ऐसे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता जो इस तरह लोगों को पीड़ा देता हो और मैं इन वचनों के प्रति समर्पण न करने को चुन सकता हूँ।” लेकिन अब्राहम ने ऐसा नहीं किया; उसने समर्पण करने को चुना। हालाँकि हर कोई मानता है कि परमेश्वर ने जो कहा और जो अपेक्षा की वह गलत थी, कि परमेश्वर को लोगों से ऐसी माँगें नहीं करनी चाहिए, फिर भी अब्राहम समर्पण करने में सक्षम था—जो कि उसके बारे में सबसे अनमोल चीज थी, और ठीक इसी की अन्य लोगों में कमी है। यह अब्राहम का सच्चा समर्पण है। इसके अलावा, यह सुनने के बाद कि परमेश्वर ने उससे क्या अपेक्षा की है, पहली चीज जिसके बारे में वह सुनिश्चित था, यह थी कि परमेश्वर ने यह मजाक में नहीं कहा था, यह कोई खेल नहीं था। और चूँकि परमेश्वर के वचन ये चीजें नहीं थे, तो वे क्या थे? यह अब्राहम का गहरा विश्वास था कि यह सच है कि कोई भी मनुष्य उस चीज को नहीं बदल सकता जिसके बारे में परमेश्वर यह निर्धारित करता है कि उसे किया जाना चाहिए, कि परमेश्वर के वचनों में कोई मजाक, परीक्षण या यातना नहीं है, परमेश्वर भरोसेमंद है और वह जो कुछ भी कहता है—चाहे वह उचित लगे या न लगे—सत्य है। क्या यह अब्राहम की सच्ची आस्था नहीं थी? क्या उसने यह कहा, “परमेश्वर ने मुझसे इसहाक की बलि चढ़ाने के लिए कहा। इसहाक को पाने के बाद मैंने परमेश्वर को ठीक से धन्यवाद नहीं दिया—क्या यह परमेश्वर का मुझसे कृतज्ञता की माँग करना है? तो मुझे अपना आभार ठीक से दिखाना चाहिए। मुझे दिखाना चाहिए कि मैं इसहाक की बलि चढ़ाने के लिए तैयार हूँ, मैं परमेश्वर को धन्यवाद देने के लिए तैयार हूँ, मैं परमेश्वर के अनुग्रह को जानता और याद रखता हूँ, और मैं परमेश्वर को चिंता में नहीं डालूँगा। निस्संदेह, परमेश्वर ने ये वचन मेरी जाँच करने और परीक्षा लेने के लिए कहे थे, इसलिए मुझे खानापूर्ति करनी चाहिए। मैं सारी तैयारियाँ करूँगा, फिर इसहाक के साथ एक भेड़ भी लाऊँगा, और अगर बलि के समय परमेश्वर ने कुछ नहीं कहा, तो मैं भेड़ की बलि चढ़ा दूँगा। बस खानापूर्ति करना काफी है। अगर परमेश्वर वास्तव में मुझसे इसहाक की बलि देने के लिए कहे, तो बस मुझे उसे वेदी पर इसका प्रदर्शन करने के लिए कह देना चाहिए; जब समय आएगा, तो हो सकता है परमेश्वर मुझे भेड़ की बलि चढ़ाने दे, मेरे बच्चे की नहीं”? क्या अब्राहम ने ऐसा सोचा था? (नहीं।) अगर उसने ऐसा सोचा होता, तो उसके हृदय में कोई पीड़ा न हुई होती। अगर उसने ऐसी बातें सोची होतीं, तो उसमें किस तरह की सत्यनिष्ठा रही होती? क्या उसमें सच्ची आस्था रही होती? क्या उसमें सच्चा समर्पण रहा होता? नहीं, ऐसा नहीं हुआ होता।
इसहाक की बलि देने के मामले में अब्राहम ने जो पीड़ा महसूस की और जो दर्द उसे हुआ, उसे देखें तो यह स्पष्ट है कि उसने परमेश्वर के वचन में पूरी तरह से विश्वास रखा, उसने परमेश्वर द्वारा कहे गए हर वचन पर विश्वास किया, परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा उसे उसने अपने हृदय की गहराई से ठीक उसी रूप में समझा जिस रूप में परमेश्वर को अभीष्ट था, और उसे परमेश्वर पर कोई संदेह नहीं था। यह सच्ची आस्था है या नहीं? (हाँ, है।) अब्राहम को परमेश्वर में सच्ची आस्था थी, और यह एक बात दर्शाता है जो यह है कि अब्राहम एक ईमानदार व्यक्ति था। परमेश्वर के वचनों के प्रति उसका एकमात्र रवैया आज्ञाकारिता, स्वीकृति और समर्पण का था—परमेश्वर जो कुछ भी कहता, वह उसका पालन करता। अगर परमेश्वर किसी चीज को काली कहता, तो भले ही अब्राहम को वह काली न दिखती, फिर भी वह परमेश्वर का कहा सच मानता और मान लेता कि वह चीज काली है। अगर परमेश्वर किसी चीज को सफेद बताता, तो वह मान लेता कि वह सफेद है। यह इतनी सरल-सी बात है। परमेश्वर ने उससे कहा कि वह उसे एक बच्चा देगा, और अब्राहम ने मन-ही-मन सोचा, “मैं पहले ही 100 साल का हूँ, लेकिन अगर परमेश्वर कहता है कि वह मुझे एक बच्चा देने वाला है, तो मैं अपने प्रभु, परमेश्वर का आभारी हूँ!” उसने ज्यादा सोच-विचार नहीं किया, बस परमेश्वर में विश्वास रखा। इस विश्वास का सार क्या था? वह परमेश्वर के सार और पहचान में विश्वास रखता था और सृष्टिकर्ता के बारे में उसका ज्ञान वास्तविक था। वह उन लोगों की तरह नहीं था, जो कहते हैं कि वे परमेश्वर को सर्वशक्तिमान और मानवजाति का सृष्टिकर्ता मानते हैं, लेकिन अपने दिलों में संदेह करते हैं, जैसे “क्या मनुष्य वास्तव में वानरों से विकसित हुए हैं? ऐसा कहा जाता है कि परमेश्वर ने सभी चीजें बनाईं, लेकिन लोगों ने इसे अपनी आँखों से नहीं देखा है।” चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, वे लोग हमेशा विश्वास और संदेह के बीच रहते हैं, और यह निर्धारित करने के लिए कि चीजें सच हैं या झूठ, वे जो देखते हैं उस पर भरोसा करते हैं। वे हर उस चीज पर संदेह करते हैं जिसे वे अपनी आँखों से नहीं देख सकते, इसलिए जब भी वे परमेश्वर को बोलता हुआ सुनते हैं, तो वे उसके वचनों के पीछे प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। वे परमेश्वर द्वारा सामने रखे जाने वाले हर तथ्य, मामले और आज्ञा की सावधानी, कर्मठता और सतर्कता से जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हैं। वे सोचते हैं कि परमेश्वर में अपने विश्वास में उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य की वैज्ञानिक शोध के रवैये से यह देखने के लिए जाँच करनी चाहिए कि क्या ये वचन वास्तव में सत्य हैं, अन्यथा उनके ठगे जाने और धोखा खाने की संभावना होगी। लेकिन अब्राहम ऐसा नहीं था, उसने परमेश्वर का वचन शुद्ध हृदय से सुना। हालाँकि, इस अवसर पर परमेश्वर ने अब्राहम से अपने इकलौते पुत्र इसहाक को उस पर बलिदान करने के लिए कहा। इससे अब्राहम को पीड़ा हुई, फिर भी उसने समर्पण करने को चुना। अब्राहम का मानना था कि परमेश्वर के वचन अपरिवर्तनीय हैं और परमेश्वर के वचन वास्तविकता बन जाएँगे। सृजित मनुष्यों को स्वाभाविक रूप से परमेश्वर का वचन स्वीकारना और उसके प्रति समर्पण करना चाहिए, और परमेश्वर के वचन के सामने सृजित मनुष्यों के पास विकल्प चुनने का कोई अधिकार नहीं है, और उन्हें परमेश्वर के वचन का विश्लेषण या जाँच तो बिलकुल भी नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर के वचन के प्रति अब्राहम ने यही रवैया अपनाया था। भले ही अब्राहम बहुत पीड़ा में था और भले ही अपने बेटे के प्रति उसके प्यार और उसे छोड़ने के प्रति उसकी अनिच्छा ने उसे अत्यधिक तनाव और पीड़ा दी, फिर भी उसने अपना बच्चा परमेश्वर को लौटाना ही चुना। वह इसहाक को परमेश्वर को क्यों लौटाने जा रहा था? अगर परमेश्वर ने अब्राहम से ऐसा करने के लिए नहीं कहा होता, तो उसे अपने बेटे को लौटाने की पहल करने की कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन चूँकि परमेश्वर ने कहा था, इसलिए उसे अपने बेटे को परमेश्वर को वापस देना ही था, उसके पास न देने का कोई बहाना नहीं था, और उसे परमेश्वर के साथ बहस करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए—यही वह रवैया था जो अब्राहम ने अपनाया था। उसने ऐसे शुद्ध हृदय के साथ परमेश्वर के सामने समर्पण किया। परमेश्वर यही चाहता था और वह यही देखना चाहता था। जब इसहाक की बलि देने की बात आई, तो अब्राहम का व्यवहार और जो उसने हासिल किया, वह बिल्कुल वैसा ही था जैसा परमेश्वर देखना चाहता था, और यह मामला परमेश्वर द्वारा उसकी परीक्षा लेने और उसे सत्यापित करने का था। और फिर भी, परमेश्वर ने अब्राहम के साथ वैसा व्यवहार नहीं किया, जैसा उसने नूह के साथ किया था। उसने अब्राहम को इस मामले के पीछे के कारणों, प्रक्रिया या इसके बारे में सब-कुछ नहीं बताया। अब्राहम सिर्फ एक ही चीज जानता था, जो यह थी कि परमेश्वर ने उससे इसहाक को वापस करने के लिए कहा है—बस। वह नहीं जानता था कि ऐसा करके परमेश्वर उसकी परीक्षा ले रहा है, न ही वह इस बात से अवगत था कि उसके यह परीक्षा देने के बाद परमेश्वर उसमें और उसके वंशजों में क्या हासिल करना चाहता है। परमेश्वर ने अब्राहम को इनमें से कुछ नहीं बताया, उसने उसे बस एक साधारण आज्ञा दी, एक अनुरोध किया। और हालाँकि परमेश्वर के ये वचन बहुत सरल और इंसानी भावनाओं के प्रति विचारशून्य थे, फिर भी अब्राहम ने वैसा करके, जैसा परमेश्वर चाहता और अपेक्षा करता था, परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कीं : उसने इसहाक को वेदी पर बलि के रूप में चढ़ाया। उसके हर कदम ने दिखाया कि इसहाक की बलि देना उसका बेमन से काम करना नहीं था, वह इसे लापरवाही से नहीं कर रहा था, बल्कि वह ईमानदार था और इसे अपने अंतर्मन से कर रहा था। भले ही वह इसहाक को छोड़ना सहन नहीं कर सकता था, भले ही इससे उसे पीड़ा हुई, लेकिन सृष्टिकर्ता के कहे का सामना होने पर अब्राहम ने वह तरीका चुना जो कोई अन्य व्यक्ति न चुनता : सृष्टिकर्ता ने जो माँगा था उसके प्रति पूर्ण समर्पण, बिना किसी समझौते के, बिना किसी बहाने के और बिना किसी शर्त के समर्पण—उसने वैसा ही किया जैसा परमेश्वर ने उससे करने को कहा था। और जब अब्राहम वैसा कर सका जैसा परमेश्वर ने उससे कहा था, तो उसके पास क्या था? एक लिहाज से, उसके भीतर परमेश्वर में सच्ची आस्था थी; वह सुनिश्चित था कि सृष्टिकर्ता परमेश्वर है, उसका परमेश्वर, उसका प्रभु, वह जो सभी चीजों पर संप्रभु है और जिसने मानवजाति का सृजन किया है। यह सच्ची आस्था थी। दूसरे लिहाज से, उसका हृदय शुद्ध था। वह सृष्टिकर्ता द्वारा कहे गए हर वचन पर विश्वास करता था और उसके द्वारा कहे गए हर वचन को सरलता से और सीधे तौर पर स्वीकारने में सक्षम था। और एक और लिहाज से, सृष्टिकर्ता ने जो कहा था, उसमें चाहे कितनी भी बड़ी कठिनाई क्यों न हो, इससे उसे चाहे कितनी भी पीड़ा क्यों न हो, उसने जो रवैया चुना वह था समर्पण, परमेश्वर के साथ बहस या उसका विरोध या इनकार करने की कोशिश न करना, बल्कि पूर्ण और समग्र समर्पण, परमेश्वर ने जो कहा था उसके अनुसार, उसके हर वचन और उसके द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार कार्य और अभ्यास करना। जैसा परमेश्वर ने कहा और देखना चाहा, ठीक वैसे ही अब्राहम ने इसहाक को वेदी पर बलि के रूप में चढ़ा दिया, उसने उसे परमेश्वर को अर्पित कर दिया—और जो कुछ भी उसने किया, उससे यह साबित हुआ कि परमेश्वर ने सही व्यक्ति को चुना था और परमेश्वर की नजरों में वह धार्मिक था।
जब परमेश्वर ने अब्राहम से इसहाक की बलि देने के लिए कहा, तो सृष्टिकर्ता के स्वभाव और सार का कौन-सा पहलू प्रकट हुआ? यही कि परमेश्वर उन लोगों से, जो धार्मिक हैं, जिन्हें वह पहचानता है, पूरी तरह से अपने अपेक्षित मानकों के अनुसार व्यवहार करता है, जो कि पूरी तरह से उसके स्वभाव और सार के अनुरूप है। इन मानकों में कोई समझौता नहीं हो सकता; उन्हें करीब-करीब पूरा नहीं किया जा सकता। ये मानक सटीक रूप से पूरे किए जाने चाहिए। परमेश्वर के लिए अब्राहम द्वारा अपने दैनिक जीवन में किए गए धार्मिक कार्य देखना ही पर्याप्त नहीं था, परमेश्वर ने अब्राहम का अपने प्रति सच्चा समर्पण नहीं देखा था, और यही कारण था कि परमेश्वर ने वह किया जो उसने किया। परमेश्वर अब्राहम में सच्चा समर्पण क्यों देखना चाहता था? उसने अब्राहम को इस अंतिम परीक्षा का भागी क्यों बनाया? क्योंकि, जैसा कि हम सभी जानते हैं, परमेश्वर चाहता था कि अब्राहम सभी जातियों का पिता बने। क्या “सभी जातियों का पिता” ऐसी उपाधि है, जिसे कोई भी साधारण व्यक्ति धारण कर सकता है? नहीं। परमेश्वर के अपने अपेक्षित मानक हैं, और वे मानक जिनकी वह किसी भी ऐसे व्यक्ति से अपेक्षा करता है जिसे वह चाहता और पूर्ण बनाता है और किसी भी ऐसे व्यक्ति से जिसे वह धार्मिक समझता है, वे एकसमान ही हैं : सच्ची आस्था और पूर्ण समर्पण। यह देखते हुए कि परमेश्वर अब्राहम में इतना बड़ा कार्य करना चाहता था, क्या वह उसमें ये दो चीजें देखे बिना ही जल्दबाजी में आगे बढ़कर ऐसा कर सकता था? बिलकुल नहीं। इसलिए, जब परमेश्वर ने उसे एक पुत्र दिया, तो उसके बाद यह अपरिहार्य था कि अब्राहम ऐसी परीक्षा से गुजरे; परमेश्वर ने यही करने का निश्चय किया था और यही करने की उसने पहले ही योजना बना ली थी। जब चीजें परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हुईं और अब्राहम ने परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कीं, तभी परमेश्वर ने अपने कार्य के अगले चरण को करने की योजना बनानी शुरू की : अब्राहम के वंशजों को आकाश के तारों और समुद्र-तट की रेत के समान असंख्य बनाना—उसे सभी जातियों का पिता बनाना। जब तक अब्राहम से इसहाक की बलि देने के लिए कहने का परिणाम अज्ञात था और अभी तक साकार नहीं हुआ था, तब तक परमेश्वर ने जल्दबाजी में कार्य नहीं किया; लेकिन जब वह साकार हो गया तो अब्राहम के पास जो कुछ था उससे परमेश्वर के मानक पूरे हो गए, जिसका अर्थ था कि उसे वे सब आशीष मिलने थे, जिनकी परमेश्वर ने उसके लिए योजना बनाई थी। फिर इसहाक की बलि से यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर लोगों में जो भी कार्य करता है या अपनी प्रबंधन योजना में जो भी भूमिका वह उनसे निभाने की अपेक्षा करता है या जो भी आदेश वह उनसे स्वीकारने की अपेक्षा करता है, उसके लिए उनसे उसकी अपेक्षाएँ और अपेक्षित मानक होते हैं। लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं के दो तरह के नतीजे होते हैं : एक तो यह कि अगर तुम वह नहीं कर सकते जो वह तुमसे कहता है, तो तुम्हें हटा दिया जाएगा; दूसरा यह कि अगर तुम वह कर सकते हो, तो परमेश्वर अपनी योजना के अनुसार तुममें वह करना जारी रखेगा जो वह चाहता है। परमेश्वर मनुष्यों से जो सच्ची आस्था और पूर्ण समर्पण चाहता है, उन्हें हासिल करना लोगों के लिए वास्तव में बहुत कठिन नहीं है। लेकिन चाहे आसान हों या कठिन, ये वे दो चीजें हैं जो परमेश्वर को लोगों में अवश्य मिलनी चाहिए। अगर तुम यह मानक पूरा कर सकते हो, तो परमेश्वर तुम्हें यथोचित पाएगा और परमेश्वर इससे अधिक कुछ नहीं चाहेगा; अगर तुम यह मानक पूरा नहीं कर सकते, तो फिर यह एक अलग मामला है। यह तथ्य कि परमेश्वर ने अब्राहम से अपने पुत्र की बलि देने के लिए कहा, यह दर्शाता है कि उसे नहीं लगा कि अब्राहम के पास अब तक परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय और उसमें सच्ची आस्था होना ही वह सब है जिसकी जरूरत थी, वह कमोबेश काफी था। परमेश्वर की माँग का ढंग बिल्कुल भी ऐसा नहीं था; वह अपने साधनों के द्वारा और लोग जो हासिल करने में सक्षम हैं उसके अनुसार माँग करता है, और इसे बातचीत से बदला नहीं जा सकता। क्या यह परमेश्वर की पवित्रता नहीं है? (हाँ, है।) परमेश्वर की पवित्रता ऐसी ही है।
अब्राहम जैसे अच्छे व्यक्ति को भी, जो शुद्ध था, जिसमें सच्ची आस्था और तर्कसंगतता थी, परमेश्वर की परीक्षा स्वीकारनी पड़ी—तो क्या मानवजाति की नजरों में यह परीक्षा इंसानी भावनाओं के प्रति कुछ हद तक विचारशून्यता नहीं थी? लेकिन इंसानी भावनाओं के प्रति विचारशीलता की यह कमी वास्तव में परमेश्वर के स्वभाव और सार का प्रतिरूप है, और अब्राहम ऐसी परीक्षा से गुजरा। इस परीक्षा में अब्राहम ने परमेश्वर को सृष्टिकर्ता के प्रति अपनी अडिग आस्था और अडिग समर्पण दिखाया। अब्राहम परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ। आम तौर पर अब्राहम ने कभी किसी उतार-चढ़ाव का अनुभव नहीं किया था, लेकिन परमेश्वर द्वारा इस तरह से उसकी परीक्षा लेने के बाद उसकी सामान्य आस्था और समर्पण वास्तविक साबित हुआ; यह बाहरी नहीं था, यह कोई नारा नहीं था। इस परिस्थिति में भी—परमेश्वर द्वारा ऐसे वचन कहने और उससे ऐसी माँग करने के बाद भी अब्राहम अडिग समर्पण करने में सक्षम था—तो इसका एक मतलब तो पक्का था : अब्राहम के हृदय में परमेश्वर, परमेश्वर था और हमेशा परमेश्वर रहेगा; परमेश्वर की पहचान और सार किसी भी बदलते कारकों के बावजूद अपरिवर्तनीय था। उसके हृदय में मनुष्य हमेशा मनुष्य ही रहेंगे और उन्हें सृष्टिकर्ता के साथ विवाद करने, बहस करने या प्रतिस्पर्धा करने का अधिकार नहीं है, न ही उन्हें सृष्टिकर्ता द्वारा कहे गए वचनों का विश्लेषण करने का अधिकार है। अब्राहम का मानना था कि जब सृष्टिकर्ता के वचनों या सृष्टिकर्ता द्वारा कही गई किसी चीज की बात आती है, तो लोगों को चुनने का अधिकार नहीं है; उनसे एक ही चीज की अपेक्षा की जाती है और वह है समर्पण करना। अब्राहम का रवैया बहुत-कुछ बताता था—उसे परमेश्वर में सच्ची आस्था थी और इस सच्ची आस्था में सच्चा समर्पण पैदा हुआ था, और इसलिए चाहे परमेश्वर ने उसके साथ कुछ भी किया हो या उससे कुछ भी माँगा हो या परमेश्वर ने जो भी कर्म किया हो, चाहे वह कुछ ऐसा हो या नहीं जिसे अब्राहम ने देखा, सुना या व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया हो, इनमें से कुछ भी परमेश्वर में उसकी सच्ची आस्था को प्रभावित नहीं कर सकता था और परमेश्वर के प्रति उसके आज्ञाकारी रवैये को तो बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर सकता था। जब सृष्टिकर्ता ने कुछ ऐसा कहा जो इंसानी भावनाओं के प्रति विचारशून्य था, कुछ ऐसा जो मनुष्य से अनुचित माँग करता था, चाहे कितने भी लोगों ने इन वचनों से नाराज होकर उनका प्रतिरोध, विश्लेषण और जाँच की हो या उनका तिरस्कार तक किया हो, अब्राहम का रवैया बाहरी दुनिया के परिवेश से अछूता रहा। परमेश्वर के प्रति उसकी आस्था और समर्पण नहीं बदला और वे सिर्फ उसके मुँह से निकले हुए वचन या औपचारिकताएँ नहीं थीं; इसके बजाय, उसने यह साबित करने के लिए तथ्यों का उपयोग किया कि जिस परमेश्वर में वह विश्वास रखता है वह सृष्टिकर्ता है, कि जिस परमेश्वर में वह विश्वास रखता है वह स्वर्ग का परमेश्वर है। अब्राहम में जो कुछ अभिव्यक्त हुआ, उससे हम क्या देखते हैं? क्या हम परमेश्वर के बारे में उसके संदेह देखते हैं? क्या उसे संदेह थे? क्या उसने परमेश्वर के वचनों की जाँच की? क्या उसने उनका विश्लेषण किया? (नहीं किया।) कुछ लोग कहते हैं, “अगर उसने परमेश्वर के वचनों की जाँच या विश्लेषण नहीं किया, तो वह व्यथित किसलिए महसूस कर रहा था?” क्या तुम लोग उसे व्यथित महसूस नहीं करने देना चाहते? इतना व्यथित होकर भी वह समर्पण करने में सक्षम था—क्या तुम तब भी समर्पण करने में सक्षम होते हो जब तुम व्यथित महसूस न करते? तुम्हारे भीतर कितना समर्पण है? ऐसे संकट और पीड़ा का भी अब्राहम के समर्पण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, इससे यह साबित होता है कि यह समर्पण वास्तविक था, यह झूठ नहीं था। यह शैतान के सामने, सभी चीजों के सामने, समस्त सृष्टि के सामने परमेश्वर के प्रति एक सृजित मनुष्य की गवाही थी और यह गवाही बहुत शक्तिशाली, बड़ी अनमोल थी!
नूह और अब्राहम की कहानियों में, और अय्यूब की कहानी में, जब परमेश्वर के वचन और कार्य उन पर पड़े, तो उनके व्यवहार और वाणी में, उनके रवैये में और उनके हर शब्द और कर्म में ऐसा क्या था, जिसने बाद की पीढ़ियों को इतना प्रेरित किया? परमेश्वर के वचनों के प्रति इन तीन व्यक्तियों के रवैये और परमेश्वर के वचन और परमेश्वर ने जो आज्ञा दी और अपेक्षा की, उसे सुनने के बाद इनके व्यवहार, वाणी और रवैये में लोगों को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली चीज यह थी कि सृष्टिकर्ता परमेश्वर के प्रति उनकी ईमानदारी कितनी शुद्ध और दृढ़ थी। आज के लोगों की नजर में इस शुद्धता और दृढ़ता को मूर्खता और जुनून कहा जा सकता है; लेकिन मेरी नजर में उनकी शुद्धता और दृढ़ता उनकी सबसे मार्मिक और दिल को छूने वाली चीजें थीं, और इससे भी बढ़कर, ऐसी चीजें जो अन्य लोगों की पहुँच से बाहर लगती हैं। इन व्यक्तियों से मैंने वास्तव में यह देखा-समझा कि एक अच्छा व्यक्ति कैसा दिखता है; उनके व्यवहार और बोलचाल से और साथ ही परमेश्वर के वचनों का सामना करने और परमेश्वर के वचन सुनने पर उनके रवैये से मैं देखता हूँ कि वे लोग कैसे होते हैं जिन्हें परमेश्वर धार्मिक और पूर्ण मानता है। और इन लोगों की कहानियाँ पढ़ने और समझने के बाद मैं किस सबसे असाधारण भावना का अनुभव करता हूँ? वह है इन व्यक्तियों की गहरी याद, उनसे गहरा लगाव और उनके प्रति गहरी श्रद्धा। क्या यह प्रेरित होने का एहसास नहीं है? मुझे ऐसा एहसास क्यों होता है? मानवजाति के लंबे इतिहास में इन तीन लोगों की कहानियाँ दर्ज करने, उनकी प्रशंसा और प्रचार करने पर ध्यान केंद्रित करने वाली इतिहास की कोई पुस्तक नहीं रही है, न ही किसी ने उन्हें बाद की पीढ़ियों द्वारा अनुकरणीय लोग मानते हुए उनकी कहानियों का उपयोग बाद की पीढ़ियों को शिक्षित करने के लिए किया है। लेकिन एक चीज है जो दुनिया के लोग नहीं जानते : अलग-अलग समय पर इन तीनों मनुष्यों में से प्रत्येक ने परमेश्वर से कुछ अलग सुना, प्रत्येक को परमेश्वर से एक अलग आदेश प्राप्त हुआ, प्रत्येक से परमेश्वर द्वारा अलग-अलग अपेक्षाएँ की गईं, प्रत्येक ने परमेश्वर के लिए कुछ अलग करते हुए परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया अलग-अलग कार्य पूरा किया—फिर भी उन सभी में एक चीज समान थी। क्या थी वह? वे सभी परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे उतरे। परमेश्वर की बात सुनने के बाद वे, परमेश्वर ने जो उन्हें सौंपा और उनसे कहा था, उसे स्वीकारने में सक्षम थे और उसके बाद वे परमेश्वर द्वारा कही गई हर चीज के प्रति समर्पण करने में सक्षम थे, वे हर उस चीज के प्रति समर्पण करने में सक्षम थे जो उन्होंने परमेश्वर को उनसे कहते सुना था। उन्होंने ऐसा क्या किया, जो परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरा? समस्त मानवजाति के बीच वे परमेश्वर के वचन सुनने, स्वीकारने और उनके प्रति समर्पण करने और शैतान के सामने परमेश्वर की शानदार गवाही देने के लिए आदर्श बन गए। चूँकि वे मानवजाति के लिए आदर्श और परमेश्वर की नजरों में पूर्ण और धार्मिक थे, तो आखिरकार यह हमें कौन-सी सबसे महत्वपूर्ण जानकारी देता है? यही कि यह वैसा व्यक्ति है जैसा परमेश्वर चाहता है, ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर जो कहता है उसे समझने में सक्षम है, जो सृष्टिकर्ता के वचनों को सुनने, समझने, बूझने, जानने और उनके प्रति समर्पण कर उन्हें क्रियान्वित करने के लिए अपने हृदय का उपयोग करता है; ऐसा व्यक्ति परमेश्वर को प्रिय होता है। उनके धार्मिक कार्यों की पुष्टि करने से पहले परमेश्वर उन्हें चाहे कितने भी बड़े परीक्षणों और परीक्षाओं से गुजारे, जब वे परमेश्वर की शानदार गवाही दे देते हैं, तो वे परमेश्वर के हाथों में सबसे कीमती चीज और ऐसे व्यक्ति बन जाते हैं, जो परमेश्वर की नजरों में हमेशा के लिए जीवित रहेंगे। यही वह तथ्य है, जो यह हमें बताता है। यही है जो नूह और अब्राहम की कहानियों पर संगति के माध्यम से मैं तुम लोगों को बताना चाहता हूँ और जिसे तुम लोगों को समझना चाहिए। निहितार्थ यह है कि जो लोग अभी भी सृष्टिकर्ता के वचनों को नहीं समझते और अभी भी नहीं जानते कि सृष्टिकर्ता के वचन सुनना उनकी जिम्मेदारी, दायित्व और कर्तव्य है, और इस चीज से अनजान हैं कि सृष्टिकर्ता के वचन स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण करना ही वह रवैया है जो सृजित मनुष्यों में होना चाहिए, चाहे उन्होंने कितने भी वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया हो—ऐसे ही लोगों को परमेश्वर द्वारा हटा दिया जाएगा। परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं चाहता, वह ऐसे लोगों से घृणा करता है। तो आखिरकार कितने लोग सृष्टिकर्ता के वचन सुनने, स्वीकारने और उनके प्रति पूरी तरह से समर्पण करने में सक्षम हैं? वे कम या ज्यादा हो सकते हैं, लेकिन सिर्फ वे ही ऐसा करेंगे जो करने में सक्षम हैं। जो लोग कई वर्षों से परमेश्वर का अनुगमन करते आए हैं लेकिन फिर भी सत्य से घृणा करते हैं, खुलेआम सिद्धांतों की धज्जियाँ उड़ाते हैं और जो परमेश्वर के वचनों को स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण करने में असमर्थ हैं, फिर चाहे वे देह में बोले गए हों या आध्यात्मिक क्षेत्र में, वे अंततः एक ही परिणाम का सामना करेंगे : हटाए जाने का।
परमेश्वर को देहधारी होकर धरती पर काम करने आए तीस साल हो चुके हैं। उसने बहुत-से वचन कहे हैं और बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं। चाहे वह कैसे भी बोले, चाहे वह बोलने के लिए कोई भी तरीका अपनाए और चाहे वह कितनी भी विषय-वस्तु बोले, उसकी लोगों से सिर्फ एक ही अपेक्षा है कि वे सुनने, स्वीकारने और समर्पण करने में सक्षम हों। लेकिन बहुत-से लोग हैं, जो यह सरलतम अपेक्षा भी समझ नहीं पाते या उसे क्रियान्वित नहीं कर पाते। यह बहुत तकलीफदेह है और यह दर्शाता है कि मानवजाति बहुत गहराई से भ्रष्ट है, उसे सत्य स्वीकारने में बहुत कठिनाई होती है और उसे आसानी से बचाया नहीं जा सकता। अब भी, जबकि लोगों ने यह पहचान लिया है कि मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया है और यह तथ्य भी कि देहधारी परमेश्वर स्वयं परमेश्वर है, लोग अभी भी परमेश्वर का विरोध और अवहेलना करते हैं और परमेश्वर के वचन और उसकी अपेक्षाओं को अस्वीकारते हैं। यहाँ तक कि वे देहधारी परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों की जाँच करते हैं, उनका विश्लेषण करते हैं, उन्हें अस्वीकारते हैं और उनके प्रति उदासीन रहते हैं, बिना यह समझे कि सृजित प्राणियों को परमेश्वर के वचन के साथ कैसे पेश आना चाहिए और परमेश्वर के वचन के प्रति उनका क्या रवैया होना चाहिए। यह वास्तव में दुखद है। अब भी लोग नहीं जानते कि वे कौन हैं, उन्हें किस स्थान पर खड़े होना चाहिए या क्या करना चाहिए। कुछ लोग तो यह कहते हुए लगातार परमेश्वर के बारे में शिकायत तक करते हैं, “परमेश्वर हमेशा अपने कार्य में सत्य क्यों व्यक्त करता है? वह हमेशा हमसे सत्य स्वीकारने की माँग क्यों करता है? जब परमेश्वर बोलता और कार्य करता है, तो उसे हमसे सलाह लेनी चाहिए और उसे हमेशा हमारे लिए चीजें मुश्किल नहीं बनानी चाहिए। हमारे पास उसका पूरी तरह से आज्ञापालन करने की कोई वजह नहीं है, हम मानवाधिकार और स्वतंत्रता चाहते हैं, हमें परमेश्वर द्वारा हमारे लिए रखी गई माँगों पर हाथ उठाकर मतदान करना चाहिए और हम सभी को चर्चा भी करनी चाहिए और आम सहमति पर पहुँचना चाहिए। परमेश्वर के घर को लोकतंत्र लागू करना चाहिए और सभी को मिलकर अंतिम निर्णय लेना चाहिए।” अब भी बहुत-से लोग यही दृष्टिकोण रखते हैं, और हालाँकि वे इसे खुले तौर पर नहीं कहते, फिर भी वे इसे अपने दिल में रखते हैं। अगर मुझे तुमसे कुछ माँगने का अधिकार नहीं है, अगर मुझे यह कहने का अधिकार नहीं है कि मैं जो कहता हूँ तुम उसका पालन करो, और मैं जो कहता हूँ उसके प्रति तुमसे पूर्ण समर्पण की माँग करने का अधिकार मुझे नहीं, तो फिर किसे है? अगर तुम मानते हो कि स्वर्ग के परमेश्वर को ऐसा करने का अधिकार है और स्वर्ग के परमेश्वर को गड़गड़ाहट के माध्यम से आसमान से तुमसे बात करने का अधिकार है, तो बढ़िया है! इसका मतलब है कि मुझे तुम्हारे सामने धैर्यवान और ईमानदार होने या तुमसे बात करने में अपना समय बरबाद करने की जरूरत नहीं है—मैं तुमसे और कुछ नहीं कहना चाहता। अगर तुम मानते हो कि स्वर्ग के परमेश्वर को आसमान से, बादलों से तुमसे बात करने का अधिकार है, तो आगे बढ़ो और सुनो, जाओ और उसके वचन खोजो—स्वर्ग के परमेश्वर द्वारा आसमान में, बादलों में, आग के बीच तुमसे बात करने की प्रतीक्षा करो। लेकिन एक चीज है, जो तुम्हारे मन में स्पष्ट होनी चाहिए : अगर वह दिन वास्तव में आता है, तो तुम्हारी मृत्यु का समय आ गया होगा। बेहतर होगा वह दिन न आए। “बेहतर होगा वह दिन न आए”—इन शब्दों का क्या अर्थ है? परमेश्वर पृथ्वी पर मनुष्य से व्यक्तिगत रूप से आमने-सामने बात करने, लोगों को वह सब बताने हेतु सत्य जारी करने के लिए मनुष्य बना है जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी लोग तिरस्कारपूर्ण और छिछोरे हैं; अपने दिलों में वे गुप्त रूप से परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके साथ होड़ लगाते हैं। वे सुनना नहीं चाहते और यह मानते हैं कि पृथ्वी पर परमेश्वर को लोगों पर शासन करने की कोशिश करने का अधिकार नहीं है। लोगों का यह रवैया परमेश्वर को खुश करता है या दुखी? (यह उसे दुखी करता है।) और दुखी होने पर परमेश्वर क्या करेगा? लोग परमेश्वर के क्रोध का सामना करेंगे—तुम इसे समझते हो न? परमेश्वर के क्रोध का, न कि परमेश्वर की परीक्षा का; ये दोनों अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। जब परमेश्वर का क्रोध लोगों पर पड़ता है, तो वे खतरे में होते हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर उन लोगों के प्रति क्रोधित होता है, जिनसे वह प्रेम करता है? क्या वह उन लोगों के प्रति क्रोधित होता है, जो परमेश्वर के मुखमंडल के प्रकाश में जीने के योग्य हैं? (नहीं।) परमेश्वर कैसे व्यक्ति के प्रति क्रोधित होता है? जो लोग कई वर्षों से उसका अनुसरण करते आए हैं और फिर भी उसके वचनों को नहीं समझते, जो अभी भी नहीं जानते कि उनसे परमेश्वर के वचन सुनना अपेक्षित है, जिनमें परमेश्वर के वचन स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण करने की जागरूकता नहीं है, परमेश्वर ऐसे लोगों से विमुख और विकर्षित महसूस करता है और उन्हें बचाना नहीं चाहता। तुम इसे समझते हो न? तो परमेश्वर, देहधारी परमेश्वर और सत्य के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? (हमें सुनना, स्वीकारना और समर्पण करना चाहिए।) सही कहा। तुम्हें सुनना, स्वीकारना और समर्पित होना चाहिए। इससे ज्यादा सरल कुछ नहीं है। सुनने के बाद तुम्हें अपने दिल में स्वीकारना चाहिए। अगर तुम कोई चीज स्वीकारने में असमर्थ हो, तो तुम्हें तब तक खोजते रहना चाहिए, जब तक तुम पूरी तरह स्वीकारने में सक्षम न हो जाओ—फिर, जैसे ही तुम उसे स्वीकारते हो, वैसे ही तुम्हें समर्पण करना चाहिए। समर्पण करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है अभ्यास और क्रियान्वित करना। चीजों को सुनने के बाद खारिज न करना, बाहरी तौर पर उन्हें करने का वादा करना, उन्हें नोट करना, उन्हें लिखने के लिए प्रतिबद्ध होना, उन्हें अपने कानों से सुनना लेकिन उन्हें आत्मसात न करना, और बस अपने पुराने तौर-तरीकों से चलते रहना और जब करने का समय आए तो जो जी चाहे वो करना, जो तुमने लिखा था उसे अपने दिमाग के पीछे रख छोड़ना और महत्वहीन समझना। यह समर्पण करना नहीं है। परमेश्वर के वचनों के प्रति सच्चे समर्पण का मतलब है उन्हें सुनकर अपने दिल से समझना और उन्हें सच में स्वीकारना—उन्हें एक अटल जिम्मेदारी के रूप में स्वीकारना। यह सिर्फ यह कहने की बात नहीं है कि व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को स्वीकारता है; इसके बजाय, यह उसके वचनों को हृदय से स्वीकारना है, उसके वचनों की अपनी स्वीकृति को व्यावहारिक क्रियाकलापों में बदलना और उसके वचनों को बिना किसी विचलन के कार्यान्वित करना है। तुम जो सोचते हो, जिसे करने में तुम हाथ लगाते हो और जो कीमत तुम चुकाते हो, अगर वह सब परमेश्वर की माँगें पूरी करने के लिए है, तो यह परमेश्वर के वचनों को कार्यान्वित करना है। “समर्पण” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अभ्यास और कार्यान्वयन, परमेश्वर के वचनों को वास्तविकता में बदलना। अगर तुम परमेश्वर के कहे वचनों और उसकी अपेक्षाओं को नोटबुक में लिखते हो और उन्हें कागज पर उतारते हो, लेकिन उन्हें अपने हृदय में दर्ज नहीं करते, और जब कार्य करने का समय आता है तो तुम जैसे जी चाहे वैसे करते हो, और बाहर से ऐसा लगता है कि तुमने वही किया है जो परमेश्वर ने कहा था, लेकिन तुमने उसे अपनी इच्छा के अनुसार किया है, तो यह परमेश्वर के वचनों को सुनना, स्वीकारना और उनके प्रति समर्पण करना नहीं है, यह सत्य से घृणा करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना है। यह विद्रोह है।
एक बार मैंने किसी को कोई काम सौंपा। जब मैंने उसे काम समझाया, तो उसने ध्यान से उसे अपनी नोटबुक में लिख लिया। मैंने देखा कि वह उसे कितनी सावधानी से लिख रहा है—वह काम के प्रति दायित्व महसूस करता और एक सावधान, जिम्मेदार रवैया अपनाता प्रतीत होता था। उसे काम बताने के बाद मैं उसकी प्रगति की जानकारी मिलने की प्रतीक्षा करने लगा; दो हफ्ते बीत गए, फिर भी उसने कुछ नहीं बताया। इसलिए मैंने उसका पता लगाने का बीड़ा खुद उठाया, और पूछा कि मैंने उसे जो कार्य दिया था, वह कैसा चल रहा है। उसने कहा, “ओह, नहीं—मैं तो उसके बारे में भूल ही गया! फिर से बताना, वह क्या था।” तुम लोगों को उसका जवाब कैसा लगा? काम करते समय उसका यही रवैया था। मुझे लगा, “यह व्यक्ति भरोसे के लायक बिल्कुल नहीं है। मुझसे फौरन दूर हो जाओ! मैं तुम्हें दोबारा नहीं देखना चाहता!” मुझे ऐसा ही महसूस हुआ। इसलिए, मैं तुम लोगों को एक तथ्य बताता हूँ : तुम लोगों को परमेश्वर के वचन कभी किसी चालबाज के झूठ से नहीं जोड़ने चाहिए—ऐसा करना परमेश्वर के लिए घृणास्पद है। कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि वे अपने वचन के पक्के हैं, कि वे अपना वादा जरूर निभाते हैं। अगर ऐसा है, तो जब परमेश्वर के वचनों की बात आती है, तो क्या वे उन्हें सुनकर वैसा कर सकते हैं, जैसा उन वचनों में कहा गया है? क्या वे उन्हें उतनी ही सावधानी से कार्यान्वित कर सकते हैं, जितनी सावधानी से वे अपने निजी कार्य पूरे करते हैं? परमेश्वर का हर वाक्य महत्वपूर्ण होता है। वह मजाक में नहीं बोलता। वह जो कहता है, लोगों को उसे कार्यान्वित और पूरा करना चाहिए। जब परमेश्वर बोलता है, तो क्या वह लोगों से परामर्श करता है? निश्चित रूप से नहीं करता। क्या वह तुमसे बहुविकल्पी प्रश्न पूछता है? निश्चित रूप से नहीं पूछता। अगर तुम समझ पाओ कि परमेश्वर के वचन और कार्य आदेश हैं, लोगों को उनमें कहे अनुसार करना चाहिए और उन्हें कार्यान्वित करना चाहिए, तो तुम्हारा दायित्व है कि तुम उन्हें कार्यान्वित और पूरा करो। अगर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन केवल एक मजाक हैं, केवल आकस्मिक टिप्पणियाँ हैं, जिनका पालन किया सकता है—या नहीं भी किया जा सकता—जैसा मन करे, और तुम उनके साथ वैसे ही पेश आते हो, तो तुम बहुत अविवेकी हो और इंसान कहे जाने लायक नहीं हो। परमेश्वर तुमसे फिर कभी बात नहीं करेगा। अगर कोई व्यक्ति हमेशा परमेश्वर की अपेक्षाओं, उसकी आज्ञाओं और कार्यों के संबंध में अपने चुनाव खुद करता है और उनके साथ लापरवाही के रवैये से पेश आता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जिससे परमेश्वर घृणा करता है। जो चीजें मैं तुम्हें सीधे आज्ञा देकर सौंपता हूँ, उनमें अगर तुम हमेशा यह अपेक्षा करते हो कि मैं तुम्हारी निगरानी करूँ, तुमसे आग्रह करूँ, तुमसे उनके बारे में पूछता रहूँ, और तुम हमेशा मुझे चिंता और पूछताछ करने के लिए बाध्य करते हो, मुझे हर मोड़ पर तुम्हारी हर चीज की जाँच करनी पड़े, तो फिर तुम्हें हटा दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के घर से वर्तमान में हटाए गए लोगों में ऐसे कई लोग हैं। मैं उन्हें कुछ चीजों के बारे में निर्देश देता हूँ और फिर उनसे पूछता हूँ : “क्या तुमने यह सब लिख लिया है? क्या यह स्पष्ट है? क्या तुम्हारे कोई प्रश्न हैं?” जिस पर वे जवाब देते हैं : “मैंने यह सब लिख लिया है, यहाँ कोई समस्या नहीं है, चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है!” वे बहुत आसानी से उन्हें करने के लिए सहमत हो जाते हैं, यहाँ तक कि अपने दिल पर हाथ रखकर मेरे सामने इसकी कसम भी खाते हैं। लेकिन सहमत होने के बाद क्या वे वास्तव में इन चीजों को कार्यान्वित करते हैं? नहीं, वे बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाते हैं और उनसे आगे कोई खबर नहीं आती। वे फौरन तेजी से और निर्णायक रूप से तुरंत वही काम करते हैं, जो उन्हें पसंद होता है। वे उन चीजों के लिए आसानी से सहमत हो जाते हैं जो मैं उन्हें सौंपता हूँ, लेकिन फिर वे उन्हें अनदेखा कर देते हैं, और जब मैं बाद में उनसे इस मामले में जानकारी लेता हूँ, तो मुझे पता चलता है कि उन्होंने कुछ भी नहीं किया है। ऐसे व्यक्तियों में जमीर या विवेक बिल्कुल नहीं होता। वे बेकार हैं और कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं हैं। वे सुअर या कुत्ते से भी बदतर हैं। प्रहरी कुत्ता पालने वाला कोई व्यक्ति जब अपने घर से बाहर होता है, तो वह कुत्ता अजनबियों के आने पर घर और आँगन की रखवाली करने में मदद करने में सक्षम होता है। बहुत-से लोग चीजें करने में कुत्तों जितने अच्छे भी नहीं होते। कुछ लोगों को हमेशा अपने कर्तव्य का थोड़ा-बहुत पालन करने के लिए भी किसी के द्वारा निरीक्षण किए जाने की जरूरत होती है, और उन्हें हमेशा किसी के द्वारा काट-छाँट किए जाने और कुछ भी करने से पहले उन पर नजर रखने की जरूरत होती है। क्या यह कर्तव्य निभाना है? ये लोग झूठे हैं! अगर उनकी ऐसा करने की नीयत नहीं थी, तो वे इसके लिए सहमत क्यों हुए? क्या यह जान-बूझकर लोगों को धोखा देना नहीं है? अगर उन्हें लगता था कि यह काम मुश्किल होगा, तो उन्होंने पहले ऐसा क्यों नहीं कहा? उन्होंने इसे करने का वादा क्यों किया और फिर इसे क्यों नहीं किया? अगर वे दूसरे लोगों को धोखा देते हैं तो वे तो उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, लेकिन अगर वे परमेश्वर को धोखा देते हैं तो इसके क्या परिणाम होंगे? ऐसे व्यक्ति को पहचान कर उसे हटा देना चाहिए! क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जो लोग सत्य से घृणा करते हैं और सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं, वे बुरे लोग हैं? वे सब बुरे लोग हैं, वे सब राक्षस हैं और उन्हें हटा देना जाना चाहिए! क्योंकि ये लोग मनमाने ढंग से काम करते हैं, सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, विद्रोही और अवज्ञाकारी हैं, अपना खुद का राज्य स्थापित करते हैं, और चूँकि वे आलसी और गैरजिम्मेदार हैं, इसलिए उन्होंने कलीसिया को बहुत नुकसान पहुँचाया है! ऐसे नुकसान की भरपाई कौन कर सकता है? कोई भी ऐसी जिम्मेदारी नहीं उठा सकता। ये लोग शिकायत करते हैं, और जब उनकी काट-छाँट की जाती है तो वे अनाश्वस्त और असंतुष्ट रहते हैं। क्या ये लोग अविवेकी दानव नहीं हैं? उनका वास्तव में कुछ नहीं किया जा सकता और उन्हें बहुत पहले ही हटा देना चाहिए था!
क्या तुम लोग समझते हो कि नूह और अब्राहम की कहानियों का क्या आशय है, जिन पर हमने आज संगति की? क्या परमेश्वर मनुष्य से जो अपेक्षा करता है, वह बहुत कठिन है? (नहीं।) परमेश्वर मनुष्य से जो अपेक्षा करता है, वह वो है जो सृजित मनुष्य में सबसे मूलभूत होना चाहिए; यह बिल्कुल भी कठिन नहीं है और यह सबसे व्यावहारिक और सबसे यथार्थपरक है। परमेश्वर द्वारा स्वीकृत होने के लिए लोगों में सच्ची आस्था और पूर्ण समर्पण होना चाहिए; जिनमें ये दो चीजें होती हैं, सिर्फ वे ही वास्तव में बचाए जाते हैं। लेकिन जो लोग गहराई से भ्रष्ट हो चुके हैं, जो सत्य से घृणा करते हैं और सकारात्मक चीजों से विमुख रहते हैं और जो सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं, उनके लिए इन दो चीजों से ज्यादा कठिन कुछ नहीं है! ये सिर्फ उन्हीं लोगों द्वारा प्राप्य हैं, जिनमें परमेश्वर के प्रति शुद्ध और खुला हृदय है, जिनमें मानवता, विवेक और जमीर है और जो सकारात्मक चीजों से प्रेम करते हैं। क्या ये चीजें तुम लोगों में पाई जाती हैं? और किसमें वह दृढ़ता और शुद्धता पाई जाती है, जो लोगों में होनी चाहिए? उम्र की दृष्टि से यहाँ बैठे तुम सभी लोग नूह और अब्राहम से छोटे हो, लेकिन शुद्धता के मामले में तुम उनसे तुलना नहीं कर सकते। तुम लोगों में शुद्धता, प्रज्ञा और बुद्धि नहीं पाई जाती; दूसरी ओर, तुच्छ चालाकी की तुममें कोई कमी नहीं। तो, इस समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? क्या परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने का कोई तरीका है? क्या कोई मार्ग है? कहाँ से शुरू करें? (परमेश्वर के वचन सुनने से।) सही है : सुनना और समर्पण करना सीखकर। कुछ लोग कहते हैं, “कभी-कभी परमेश्वर जो कहता है वह सत्य नहीं होता और उसके प्रति समर्पण करना आसान नहीं होता। अगर परमेश्वर सत्य के कुछ ही वचन बोलता, तो समर्पण आसान होता।” क्या ये शब्द सही हैं? (नहीं।) तुम लोगों ने नूह और अब्राहम की कहानियों में क्या पाया है, जिनके बारे में हमने आज बात की? परमेश्वर के वचन का पालन करना और परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति समर्पण करना मनुष्य का अनिवार्य कर्तव्य है। और अगर परमेश्वर कुछ ऐसा कहता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं होता, तो मनुष्य को उसका विश्लेषण या जाँच नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर चाहे जिसकी निंदा करे या चाहे जिसे हटा दे, जिससे चाहे कितने भी लोगों में धारणाएँ और प्रतिरोध पैदा हो जाएँ, परमेश्वर की पहचान, उसका सार, उसका स्वभाव और उसकी हैसियत हमेशा के लिए अपरिवर्तित रहती है। वह हमेशा के लिए परमेश्वर है। चूँकि तुम्हें इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह परमेश्वर है, इसलिए तुम्हारी एकमात्र जिम्मेदारी, एकमात्र चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है उसके कहे का पालन करना और उसके वचन के अनुसार अभ्यास करना; यही अभ्यास का मार्ग है। सृजित प्राणी को परमेश्वर के वचनों की जाँच, विश्लेषण, चर्चा, अस्वीकार, विरोध, विद्रोह या इनकार नहीं करना चाहिए; परमेश्वर को इससे घृणा है और वह मनुष्य में यही नहीं देखना चाहता। परमेश्वर के वचनों के साथ वास्तव में कैसे पेश आना चाहिए? तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह वास्तव में बहुत सरल है : उनका पालन करना सीखो, उन्हें अपने दिल से सुनो, उन्हें अपने दिल से स्वीकारो, उन्हें अपने दिल से समझो और बूझो, और फिर जाकर अपने दिल से उनका अभ्यास करो और उन्हें क्रियान्वित करो। तुम अपने दिल से जो सुनते और समझते हो, उसका तुम्हारे अभ्यास से गहरा संबंध होना चाहिए। दोनों को अलग मत करो; सब-कुछ—जो तुम अभ्यास करते हो, जिसके प्रति समर्पित होते हो, जो तुम अपने हाथों से करते हो, जिसके लिए भी तुम भाग-दौड़ करते हो—वह परमेश्वर के वचनों से सह-संबंधित होना चाहिए, फिर तुम्हें उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए और अपने क्रियाकलापों के माध्यम से उन्हें लागू करना चाहिए। सृष्टिकर्ता के वचनों के प्रति समर्पण करना यही है। परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने का यही मार्ग है।
18 जुलाई, 2020