मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो)

आज हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की दसवीं मद पर संगति जारी रखते हैं : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं। पिछली बार हमने सत्य से घृणा करने के विषय पर केंद्रित कुछ विशेष संगति की थी, इसलिए हम पहले इसी पर दुबारा नजर डाल लेते हैं। पिछली बार तुम लोगों ने “घृणा” को कैसे समझाया था? (हमने इसे सत्य को महत्व न देने, सत्य को हेय दृष्टि से देखने, इसका तिरस्कार करने और इसे तुच्छ समझने और सत्य के प्रति अवहेलना दिखाने के रूप में समझाया था।) क्या तुम लोग व्यावहारिक शब्दावली का प्रयोग करके इस शब्द के सार को स्पष्ट रूप से समझा चुके हो? (हमारी व्याख्या केवल घृणा के समानार्थी शब्दों तक सीमित थी; यह सतही थी और सत्य से घृणा करने के विवरण को स्पष्ट नहीं करती थी, और न ही सत्य से पेश आने के हमारे रवैये और अभिव्यक्तियों को स्पष्ट करती थी। हम इसका सार समझाने में नाकाम रहे।) इस तरह की व्याख्या की प्रकृति क्या है? यह किस श्रेणी में आती है? (शब्द और धर्म-सिद्धांत।) और कुछ? क्या यह ज्ञान से संबंधित है? (हाँ।) यह ज्ञान कैसे हासिल किया गया था? यह ज्ञान स्कूलों से, शिक्षकों से और किताबों व शब्दकोशों से भी हासिल किया गया था। तो मेरे और तुम लोगों के व्याख्या में क्या अंतर है? (परमेश्वर की संगति का संबंध सत्य के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के रवैये से है—यानी, लोग अपने दिल की गहराई से सत्य का प्रतिरोध करते हैं, इससे घृणा और वितृष्णा महसूस करते हैं, इसे स्वीकार नहीं करते और यहाँ तक कि इसकी निंदा तक करते हैं और दुर्भावना से इसका आकलन कर इसे कलंकित करते हैं। परमेश्वर की व्याख्या सत्य के प्रति लोगों के रवैये के सार से आती है।) मैं “घृणा” शब्द का सार विभिन्न सारभूत व्यवहारों, अभ्यासों, रवैयों और दृष्टिकोणों के परिप्रेक्ष्य से समझाता हूँ। कौन-सी व्याख्या वास्तव में सत्य है? (परमेश्वर की व्याख्या सत्य है।) तो तुम लोगों की व्याख्या में कमी कहाँ रह जाती है? (हम सत्य नहीं समझते हैं। हम चीजों को सतह पर देखते हैं और इनकी शाब्दिक व्याख्या करते हैं और मसलों को देखने के लिए ज्ञान और धर्म-सिद्धांतों के भरोसे रहते हैं।) तुम लोग इस शब्द की व्याख्या उस ज्ञान के आधार पर करते हो जो तुमने समझा है और शाब्दिक अर्थ की अपनी समझ के अनुसार करते हो, लेकिन तुम बिल्कुल भी नहीं जानते कि यह शब्द किसी व्यक्ति के प्रकृति सार और भ्रष्ट स्वभाव से कैसे जुड़ा हुआ है। ज्ञान व धर्म-सिद्धांत और सत्य के बीच यही अंतर है। क्या तुम लोग आमतौर परमेश्वर के वचन पढ़ते समय और सत्य पर संगति करते समय भी इस पद्धति और परिप्रेक्ष्य का उपयोग करते हो? (हाँ।) यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अधिकतर लोग चाहे जैसे भी परमेश्वर के वचन पढ़ें, यह नहीं समझ पाते हैं कि इनमें वास्तव में सत्य क्या है। इसीलिए बहुत-से लोगों को परमेश्वर में विश्वास करते हुए बहुत साल हो चुके हैं मगर उन्होंने सत्य वास्तविकता को समझा या इसमें प्रवेश नहीं किया है। इसीलिए हमेशा यह कहा जाता है, “लोग सत्य को नहीं समझते और उनमें इसे समझने की क्षमता नहीं होती है।”

हम मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों की दसवीं मद पर संगति करना जारी रखेंगे : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं। पिछली सभा में, हमने सत्य से घृणा करने को तीन मदों में बाँटा था। ये तीन मदें क्या थीं? (पहला, परमेश्वर की पहचान और सार से घृणा, दूसरा, उस देह से घृणा जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, तीसरा, परमेश्वर के वचनों से घृणा करना।) आओ, इन तीन मदों पर आधारित विषय “मसीह-विरोधियों द्वारा सत्य से घृणा करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना” का गहन विश्लेषण करें। पिछली बार, हमने आम तौर पर पहली मद को कमोबेश पूरा समझा दिया था लेकिन परमेश्वर के सार की पवित्रता और विशिष्टता के बारे में बहुत अधिक विस्तार से संगति नहीं की थी, जिसका उद्देश्य तुम लोगों के लिए चिंतन-मनन की गुंजाइश छोड़ना और मैंने जो परमेश्वर की धार्मिकता और सर्वशक्तिमत्ता के पहलुओं पर संगति की थी, उन पहलुओं के आधार पर तुमसे अधिक विशेष रूप से संगति कराना था। आज हम दूसरी मद पर संगति करेंगे, जिसमें यह शामिल है कि मसीह-विरोधी उस देह के साथ कैसा व्यवहार करते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है ताकि हम इस विषय का गहन विश्लेषण कर सकें कि कैसे मसीह-विरोधी सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं।

II. उस देह से घृणा करना जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है

देहधारी परमेश्वर यानी मसीह के प्रति मसीह-विरोधियों के परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण और उसके साथ संबंध की भी कुछ खास अभिव्यक्तियाँ और अनिवार्य खुलासे हैं। अगर हमें लोगों की कुछ खास अभिव्यक्तियों या कुछ लोगों के खास अभ्यासों को सपाट तरीके से पेश करना होता तो तुम लोगों को यह प्रस्तुति थोड़ी अस्पष्ट लग सकती थी। इसके बजाय आओ, इसे कुछ मदों में बाँट देते हैं, ताकि इनसे यह समझ लें कि जिस देह में परमेश्वर देहधारण करता है उसके प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया वास्तव में क्या है और यह सत्यापित और गहन विश्लेषण कर लें कि कैसे मसीह-विरोधी सत्य से घृणा करते हैं। पहली मद है, खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्द; दूसरी मद है, जिज्ञासा के साथ जाँच-पड़ताल और विश्लेषण; तीसरी है, मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है; चौथा है, मसीह जो कहता है उसे केवल सुनना, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करना और न ही उसके प्रति समर्पण करना। इनमें से प्रत्येक मद की अभिव्यक्तियों के आधार पर, साथ ही उन विचारों और अभिव्यक्तियों के आधार पर जिन्हें तुम लोग उनके शाब्दिक अर्थ से समझ सकते हो, आकलन करें तो क्या इनमें से प्रत्येक मद सकारात्मक है? क्या कोई ऐसी वस्तु है जो अधिक स्वीकारात्मक या सकारात्मक लगती है? “स्वीकारात्मक” और “सकारात्मक” से क्या आशय है? कम-से-कम इनका आशय मानवता और विवेक से है। इसे समर्पण होने के स्तर तक उठाने या उस रवैये या रुख तक उठाने की जरूरत नहीं है जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए। केवल मानवीय विवेक के पैमाने का उपयोग करते हुए इनमें से कौन-सा मानक पर खरा उतरता है?

सबसे पहले, आओ पहली मद को देखते हैं : खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्द। क्या इन तीन शब्दों को मानवीय भाषा में प्रशंसात्मक, सकारात्मक या स्वीकारात्मक माना जाता है? (नहीं।) आमतौर पर ये शब्द किस प्रकार के लोगों की कथनी और व्यवहार को चित्रित करते हैं? (कपटी, गद्दार, नीच और चापलूस लोगों की।) गद्दार, नीच और पाखंडी; ऐसे लोग जो कपट, नीचता और दुष्टता से संबंधित हैं। ऐसे लोगों के कार्यकलाप दूसरों की नजरों में ज्यादातर घृणित और नीच, अविश्वसनीय और निष्ठुर होते हैं। वे अक्सर खुशामद करते हैं, चापलूसी करते हैं और उन्हें अच्छे लगने वाले शब्द बोलते हैं, प्रभावशाली और ऊँचे रुतबे वाले लोगों की खुशामद और चापलूसी करते हैं। ऐसा करने वाले व्यक्ति से दूसरे लोग घृणा करते हैं और आमतौर पर उसे एक नकारात्मक व्यक्ति के रूप में देखा जाता है।

आओ, दूसरी मद पर नजर डालें : जिज्ञासा के साथ-साथ जाँच-पड़ताल और विश्लेषण। ये शब्द प्रशंसात्मक माने जाते हैं या अपमानजनक? (अपमानजनक।) अपमानजनक? जरा मुझे समझाओ, तुम उन्हें अपमानजनक श्रेणी में क्यों रखोगे? संदर्भ के बिना ये शब्द तटस्थ हैं और इन्हें प्रशंसात्मक या अपमानजनक नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए, किसी वैज्ञानिक परियोजना के प्रति जाँच-पड़ताल अपनाना, समस्या के सार का विश्लेषण करना, कुछ चीजों के प्रति जिज्ञासु होना—इन अभिव्यक्तियों को मूल रूप से सकारात्मक या नकारात्मक नहीं कहा जा सकता है और ये काफी तटस्थ हैं। लेकिन यहाँ एक संदर्भ है : लोगों की जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और जिज्ञासा का लक्ष्य ऐसा कोई विषय नहीं है जो मानव अनुसंधान के लिए उपयुक्त हो, बल्कि वह देह है जिसमें परमेश्वर देहधारण करता है। इसलिए स्पष्ट है कि इस अतिरिक्त संदर्भ के साथ देखते हुए इस प्रकार के लोगों द्वारा किए गए कार्यों के साथ ही साथ उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहारों के आधार पर ये शब्द यहाँ अपमानजनक हो जाते हैं। किस प्रकार के लोग आमतौर पर उस देह की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हैं जिसमें परमेश्वर देहधारण करता है? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं या वे हैं जो सत्य का अनुसरण नहीं करते? क्या ये वे लोग हैं जो वास्तव में अपने हृदय से मसीह में विश्वास करते हैं या वे हैं जो मसीह के प्रति संदेहपूर्ण रवैया रखते हैं? जाहिर है, ये वे लोग हैं जो संदेहपूर्ण रवैया रखते हैं। उन्हें मसीह में वास्तविक आस्था नहीं है, और जाँच-पड़ताल और विश्लेषण के अलावा वे बेहद जिज्ञासु भी हैं। वे वास्तव में किस बारे में उत्सुक हैं? हम शीघ्र ही इन अभिव्यक्तियों और सार के विवरण के बारे में खास तौर पर संगति करेंगे।

इसके बाद, आओ हम तीसरी मद को देखें : मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है। इस मद में प्रशंसात्मक या अपमानजनक अर्थ का विश्लेषण करने के लिए विशिष्ट शब्द नहीं हैं। ऐसे लोगों की इस प्रकार की अभिव्यक्ति और विशिष्ट अभ्यास से कौन-सा तथ्य प्रकट होता है? जो व्यक्ति ऐसी चीजें करता है और ऐसी अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करता है उसका स्वभाव किस प्रकार का है? सबसे पहले, क्या वे दूसरों के प्रति अपने व्यवहार में निष्पक्ष होते हैं? (नहीं।) यह निष्कर्ष किस वाक्यांश से निकाला जा सकता है? (“उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है।”) इस वाक्यांश का यह अर्थ है कि ऐसे लोग बिना किसी सिद्धांत के, बिना किसी आधार रेखा के और विशेष रूप से बिना किसी जमीर या विवेक के कार्य करते हैं और दूसरों लोगों या मामलों से पेश आते हैं—वे पूरी तरह अपनी मनःस्थिति से संचालित होते हैं। अगर कोई किसी साधारण व्यक्ति के साथ अपनी मनःस्थिति के आधार पर पेश आता है तो हो सकता है यह कोई बड़ा मसला न हो; यह प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन नहीं करेगा या परमेश्वर के स्वभाव को अपमानित नहीं करेगा, और केवल यह दर्शाता है कि यह व्यक्ति मनमानी करता है, सत्य का अनुसरण नहीं करता, सिद्धांतों के बिना कार्य करता है और अपनी मनोदशा और प्राथमिकताओं के आधार पर जो अच्छा लगे वो करता है, दूसरों की भावनाओं नहीं, बल्कि सिर्फ अपनी दैहिक इच्छाओं की परवाह करता है और दूसरों के प्रति कोई सम्मान प्रकट नहीं करता है। यह एक साधारण व्यक्ति के साथ उसके व्यवहार पर आधारित व्याख्या है—लेकिन यहाँ उनकी मनःस्थिति पर आधारित व्यवहार किसके साथ किया जा रहा है? यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है, बल्कि वह देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है—मसीह। अगर तुम मसीह से अपनी मनोदशा के आधार पर व्यवहार करते हो तो यह एक गंभीर समस्या है, जिसके विस्तार पर हम अभी चर्चा नहीं करेंगे।

अब, चौथी मद पर नजर डालते हैं : मसीह जो कहता है उसे केवल सुनना, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करना और न ही उसके प्रति समर्पण करना। यह क्या है, इसे ठीक-ठीक परिभाषित करने के लिए यहाँ कोई विशिष्ट शब्द नहीं हैं; यह एक तरह की अभिव्यक्ति है, एक आदतन दशा है और चीजों से पेश आने का लोगों का एक विशिष्ट रवैया है, और इसका संबंध व्यक्ति के स्वभाव से है। ऐसे लोगों का स्वभाव क्या होता है? वे सुनते हैं, लेकिन वे न तो आज्ञा मानते हैं और न ही समर्पण करते हैं। ऊपरी तौर पर वे अब भी सुन सकते हैं, लेकिन वे क्या वे बाहर से भी वही दिखाते हैं जो वे मन में सोचते हैं या जो उनका असली रवैया होता है? (नहीं।) बाहरी तौर पर लग सकता है कि वे सुसभ्य हैं और सुन रहे हैं, लेकिन अंदर से ऐसा नहीं है। आंतरिक रूप से अवज्ञा की मनःस्थिति और रवैये के साथ-साथ प्रतिरोध की मनःस्थिति और रवैया भी होता है। वे सोचते हैं : “मैं अपने हृदय में तुम्हारी आज्ञा नहीं मानता; मैं तुम्हें यह कैसे स्पष्ट दिखा सकता हूँ कि मैं आज्ञा का पालन नहीं करता? मैं केवल तुम्हारे कहे वचनों को सुनता हूँ, लेकिन मैं उन्हें बिल्कुल भी दिल में नहीं उतारता या उन पर अमल नहीं करता। मैं तुम्हारे विरुद्ध रुख अपनाकर तुम्हारा विरोध करूँगा।” आज्ञापालन और समर्पण न करने का यही मतलब है। अगर ऐसे लोग साधारण व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं और उनके साथ बातचीत करते हैं, सामान्य लोग जो कहते हैं उसके साथ इसी प्रकार की दशा, दृष्टिकोण और रवैये से पेश आते हैं, फिर चाहे यह एक स्पष्ट या पता लग सकने वाली अभिव्यक्ति हो या न हो, तो ऐसे लोगों का स्वभाव कैसा होता है? क्या उन्हें ऐसा व्यक्ति माना जा सकता है जिन्हें दूसरे मानवता और तार्किकता वाले नेक लोग कहते हैं? क्या उन्हें सकारात्मक व्यक्तियों के रूप में देखा जाता है? बिल्कुल भी नहीं। “केवल सुनना, लेकिन न तो आज्ञापालन करना और न ही समर्पण करना” वाक्यांश के आधार पर आँकने पर ये लोग अहंकारी हैं। वे कितने अहंकारी हैं? बहुत ही ज्यादा, वे तार्किकता खोने, पूरी तरह से बावले, किसी की बात न मानने और उसकी बुरी तरह अनदेखी करने की हद तक अहंकारी हैं। दूसरों से मिलते-जुलते समय उनका यह रवैया रहता है : “मैं तुमसे बात कर सकता हूँ, मैं तुमसे जुड़ सकता हूँ, लेकिन किसी के भी शब्द मेरे हृदय में प्रवेश नहीं कर सकते, न ही किसी के शब्द मेरे कार्यकलापों के सिद्धांत और मार्गदर्शन बन सकते हैं।” उनके मन में केवल उनके अपने विचार होते हैं, वे केवल अपने भीतर की आवाज पर ध्यान देते हैं। वे किसी भी सही, स्वीकारात्मक या सकारात्मक कथन और सिद्धांत को न तो सुनते हैं, न स्वीकार ही करते हैं, बल्कि अपने दिल में उनका प्रतिरोध करते हैं। क्या जनसाधारण के बीच ऐसे लोग हैं? किसी समूह में ऐसे लोगों को तार्किक माना जाता है या तर्कहीन? उन्हें सकारात्मक व्यक्तियों के रूप में देखा जाता है या नकारात्मक? (नकारात्मक व्यक्ति।) तो फिर समूह के अधिकतर लोग आमतौर पर उन्हें कैसे देखते हैं और उनसे कैसे पेश आते हैं? वे उनके साथ व्यवहार में कैसे तरीके इस्तेमाल करते हैं? क्या अधिकतर लोग ऐसे लोगों के संपर्क में आने और उनसे बातचीत करने को तैयार रहते हैं? (नहीं।) कलीसिया में अधिकतर लोगों की ऐसे व्यक्तियों के साथ नहीं निभती—इसका क्या कारण है? क्यों हर कोई ऐसे लोगों को नापसंद करता है और उनसे घृणा महसूस करता है? इस मसले को दो वाक्य समझा सकते हैं। पहला, ये लोग किसी के साथ सहयोग नहीं करते हैं, वे अंतिम निर्णय खुद लेना चाहते हैं और किसी की नहीं सुनते; उनसे किसी की बातों पर गौर करवाना बेहद कठिन है, और उनके लिए दूसरों से राय लेना और उनके विचार जानना या दूसरे की बात सुनना असंभव है। दूसरा, वे किसी के साथ भी सहयोग नहीं कर पाते। क्या ये दो वाक्य इस प्रकार के व्यक्ति की सबसे विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? क्या ये ऐसे व्यक्ति का सार नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) पहले तो, उनके स्वभाव के मद्देनजर, वे किसी की नहीं सुनते और किसी के प्रति समर्पण नहीं करते। वे अंतिम निर्णय खुद लेना चाहते हैं, दूसरों को नहीं सुनना चाहते हैं और उनके साथ असहयोग करते हैं। उनके दिल में न तो दूसरों के लिए कोई जगह होती है, न ही सत्य और कलीसिया के सिद्धांतों के लिए जगह होती है—ऐसे लोगों का इस प्रकार का मसीह-विरोधी स्वभाव होता है। यही नहीं, वे किसी के साथ सहयोग करने या तालमेल बैठाने में असमर्थ होते हैं, और भले ही उन्हें लगे कि उनका दिल अनिच्छा से ही सही सहयोग करने को तैयार है, तो भी वे समय आने पर दूसरों के साथ सहयोग नहीं कर पाते। यहाँ चल क्या रहा है? क्या इसका संबंध किसी खास दशा से नहीं है? वे दूसरों को नीची दृष्टि से देखते हैं, उनकी बात नहीं सुनते हैं और दूसरों की बातें चाहे सिद्धांतों के कितनी ही अनुरूप क्यों न हों, वे उन्हें स्वीकार नहीं करते हैं। जब दूसरों के साथ सहयोग करने की बात आती है, तो यह केवल उनके तरीके से ही किया जा सकता है। क्या यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग है? यह सहयोग नहीं है; यह मनमानी कार्रवाई करना है, जहाँ एक व्यक्ति ही फैसले करता है। यही वह स्वभाव है जो ऐसे लोगों का दूसरों के साथ बातचीत में होता है, और वे मसीह के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं। क्या यह गहन विश्लेषण के लायक है? यह मुद्दा गंभीर है और गहन विश्लेषण के योग्य है! इसके बाद, चलो हर मद में मसीह-विरोधियों की विशिष्ट अभिव्यक्तियों और अभ्यासों के बारे में बात करें, और इन विशिष्ट अभिव्यक्तियों और अभ्यासों के माध्यम से मसीह-विरोधियों के सार को समझें—सत्य से घृणा करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना। आओ, पहली मद से गहन विश्लेषण शुरू करें।

क. खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले वाले शब्द

खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्द—ऊपरी तौर पर हर किसी को पता होना चाहिए कि इन शब्दों का क्या अर्थ है और इन्हें मूर्त रूप देने वाले व्यक्ति हर जगह मिल जाते हैं। खुशामद करना, चापलूसी करना और अच्छे लगने वाले शब्द बोलना अक्सर दूसरों से कृपा, प्रशंसा या किसी प्रकार का लाभ पाने के लिए अपनाए जाने वाले बोलने के तरीके हैं। यह उन लोगों के बोलने का सबसे आम तरीका है जो खुशामद और चाटुकारिता करते हैं। यह कहा जा सकता है कि सभी भ्रष्ट मनुष्य किसी न किसी हद तक यह अभिव्यक्ति दर्शाते हैं, जो शैतानी फलसफे से संबंधित बोलने का तरीका है। तो क्या लोग देहधारी परमेश्वर के सामने ऐसी ही अभिव्यक्तियाँ और अभ्यास प्रदर्शित करते हैं, जो शायद कुछ लाभ पाने के लिए भी हो? निःसंदेह, यह इतना आसान नहीं है। जब लोग उस देह के प्रति खुशामद और चापलूसी करते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, तो उनके दिलों में मसीह के बारे में किस प्रकार के दृष्टिकोण या विचार के कारण ऐसा व्यवहार उपजता है? आम तौर पर यह ऐसा व्यवहार है जो लोग दूसरों लोगों के प्रति प्रदर्शित करते हैं। अगर लोग देहधारी परमेश्वर के प्रति भी इस तरह से पेश आएँ तो यह स्पष्ट रूप से एक समस्या प्रकट करता है : वे देहधारी परमेश्वर, मसीह को भ्रष्ट मानवजाति के बीच महज एक साधारण व्यक्ति मानते हैं। बाहरी परिप्रेक्ष्य से देखें तो मसीह हाड़-मांस वाला है और इंसान का स्वरूप धारण किए हुए है। इससे लोगों के मन में भ्रम उत्पन्न होता है, इससे वे यह मान बैठते हैं कि मसीह महज इंसान है, जिससे वे ढिठाई के साथ, मुनष्यों के साथ पेश आने के तर्क और सोच के आधार पर मसीह से पेश आने लगते हैं। मनुष्यों से पेश आने के तर्क और सोच के अनुसार, आमतौर पर किसी रुतबे वाले और प्रतिष्ठित व्यक्ति के साथ पेश आते समय आसानी से लाभ या भविष्य में पदोन्नति पाने के लिए एक अच्छा प्रभाव छोड़ने की सबसे अच्छी रणनीति यह है कि ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाए जो सुनने में मधुर और व्यवहारकुशल लगें जिससे यह सुनिश्चित हो जाए कि सुनने वाला सहज और खुश है। व्यक्ति को सौम्य भाव-भंगिमा अपनानी चाहिए और उग्र या गंभीर चेहरा नहीं दिखाना चाहिए, और अपने बोलचाल में ऐसे शब्द नहीं प्रयोग करने चाहिए जो तीखे, दुर्भावनापूर्ण या कठोर हों या दूसरों की गरिमा को चोट पहुँचाते हों। केवल ऐसी अभिव्यक्तियों और बोली से ही कोई व्यक्ति किसी दूसरे के सामने अच्छा प्रभाव छोड़ सकता है और इस तरह वह उससे दूर नहीं भागेगा। ऐसा लगता है कि मधुर ढंग से बोलना, खुशामद और चापलूसी करना ही दूसरों के प्रति सम्मान का सबसे सच्चा रूप माना जाता है। इसी तरह, लोगों का मानना है कि मसीह के प्रति सम्मान प्रकट करने और समरसता बनाए रखने के लिए उन्हें इस तरह का व्यवहार करने के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनकी कथनी में कुछ भी आहत करने वाले शब्द या कथ्य न हों और निश्चित रूप से कुछ भी अपमानजनक बातें न हों। लोग सोचते हैं कि मसीह के साथ मिलने-जुलने और बातचीत करने का यह सबसे अच्छा तरीका है। परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है, उसे वे एक सामान्य, भ्रष्ट स्वभाव वाला अत्यंत साधारण इंसान मानते हैं और यह सोचते हैं कि उससे व्यवहार करने या किसी दूसरी तरह पेश आने का कोई बेहतर तरीका नहीं है। इसलिए मसीह के सामने जब कोई मसीह-विरोधी आता है, तो उसके दिल में भय, सम्मान या सच्ची ईमानदारी नहीं होती, बल्कि उसमें मधुर और व्यवहारकुशल भाषा का उपयोग करने की इच्छा होती है, यहाँ तक कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है, उसके प्रति वह खुलेआम खुशामद और चापलूसी करने के लिए भ्रमों का सहारा लेता है। वह मानता है कि सभी मनुष्य इस तरीके के झाँसे में आ सकते हैं और चूँकि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है वह भी मानव है, इसलिए वह भी इस तरीके पर अनुकूल प्रतिक्रिया देकर इसका समर्थन करेगा। इसलिए मसीह यानी परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया उस देह के साथ पेश आते समय मसीह-विरोधी दिल से यह स्वीकार नहीं करते कि मसीह में परमेश्वर का सार है। बल्कि, जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है, उससे पेश आते समय वे कुछ मानवीय रणनीतियों, सांसारिक आचरण के मानवीय फलसफों और दूसरों को बरगलाने और उनसे व्यवहार करने की सामान्य मानवीय चालों का उपयोग करते हैं। क्या इन व्यवहारों का सार इस तथ्य को प्रदर्शित करता है कि मसीह-विरोधी उस देह से घृणा करते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है? (बिल्कुल।)

मसीह-विरोधी जैसे भ्रष्ट मनुष्यों से पेश आते हैं वैसे ही मसीह से पेश आते हैं, वे मसीह को देखकर केवल खुशामदी और चापलूसी भरे शब्द बोलते हैं और फिर मसीह की प्रतिक्रयाओं को देखते हैं और उसकी प्राथमिकताओं को पूरा करने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग मसीह को देखकर कहते हैं : “मैंने तुम्हें दूर से ही पहचान लिया था। तुम भीड़ में अलग दिखते हो। प्रभामंडल विहीन दूसरे लोगों के विपरीत तुम्हारे सिर पर एक प्रभामंडल है। मुझे तुरंत पता चल गया कि तुम कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हो। परमेश्वर के घर में मसीह के अलावा और कौन है जो साधारण नहीं है? तुम्हें देखते ही मैं जान गया कि यह बिल्कुल सच है। परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है वह वास्तव में दूसरों से भिन्न है।” क्या यह घोर बकवास नहीं है? मेरी शक्ल साधारण है, आम है। अगर मैं भीड़ में कुछ नहीं करता या कुछ नहीं कहता तो किसी को भी यह पहचानने में एक या दो साल लग सकते हैं कि मैं कौन हूँ। मैं किसी भी समूह में सिर्फ एक साधारण सदस्य हूँ; कोई भी मुझमें कुछ भी विशेष नहीं देख सकता। अब मैं कलीसिया में काम कर रहा हूँ और परमेश्वर की गवाही के कारण जब मैं तुम लोगों के बीच बोलता हूँ तो तुम लोग मुझे सुनते हो। लेकिन परमेश्वर की गवाही न हो तो कितने लोग मेरी बात सुनेंगे या इस पर ध्यान देंगे? यह एक अज्ञात प्रश्न बना हुआ है। कुछ लोग कहते हैं : “वह मुझे बिल्कुल परमेश्वर जैसा दिखता है। मुझे हमेशा यही लगा कि वह असाधारण है, दूसरों से अलग है।” मैं किस प्रकार अलग हूँ? क्या मेरे तीन सिर और छह भुजाएँ हैं? तुम लोग कैसे अंतर कर सकते हो? परमेश्वर ने एक बार कहा था : मैं जानबूझकर अपने में दिव्यता का एक भी संकेत लोगों को नहीं देखने देता हूँ। अगर परमेश्वर लोगों को अपनी दिव्यता नहीं देखने देता तो तुम लोग इसे ऐसे कैसे देख सकते हो? ये लोग जो कहते हैं क्या वह समस्या की बात नहीं है? यह स्पष्ट रूप से घिनौने चाटुकारों की निरर्थक बातों के अलावा और कुछ नहीं है, जिनकी बातों में कोई ठोस तत्त्व नहीं है। देहधारी परमेश्वर का बाहरी स्वरूप एक सामान्य व्यक्ति का है। मानवीय आँखें परमेश्वर की दिव्यता को कैसे पहचान सकती हैं? अगर मसीह कार्य न करे और बोले नहीं, तो कोई भी उसे पहचान नहीं सकता या उसकी पहचान और सार को नहीं जान सकता। यह सच है। फिर उन लोगों के बारे में क्या कहोगे जो यह कहते हैं, “मैं पहली नजर में बता सकता हूँ कि तुम वह देह हो जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, तुम दूसरों से अलग हो” या “तुम्हें देखते ही मुझे पता चल गया था कि तुम महान कार्य कर सकते हो।” ये कैसे कथन हैं? वे बिल्कुल बकवास हैं! जब तक परमेश्वर ने अपनी गवाही नहीं दी थी तो कितनी ही बार देखने के बावजूद तुम यह भेद कैसे नहीं जान पाए थे? परमेश्वर की गवाही के बाद जब मैंने अपना कार्य शुरू किया तो तुम इसे पहली नजर में कैसे समझ गए? ये साफ तौर पर भ्रामक शब्द हैं, सरासर पागलपन है।

कुछ लोग मुझसे मिलते या बातचीत करते समय अपना दिखावा करना चाहते हैं। वे सोचते हैं : “देहधारी परमेश्वर से बार-बार मिलना नहीं होता है; यह जीवन में एक बार मिलने वाला अवसर है। मुझे ठीक से प्रदर्शन करना चाहिए, परमेश्वर में बरसों के विश्वास के नतीजे बताने चाहिए और अपनी वे अच्छी उपलब्धियाँ भी बतानी चाहिए जो मैंने उसका वर्तमान चरण का कार्य स्वीकार करने के बाद अर्जित की हैं ताकि परमेश्वर इन्हें जान ले।” मुझे बताने से उनका क्या मतलब है? वे तरक्की पाने का मौका मिलने की उम्मीद करते हैं। अगर यह कलीसिया की बात होती तो उन्हें अपने जीवन काल में अलग दिखने या तरक्की पाने का मौका शायद कभी नहीं मिलता; उन्हें कोई नहीं चुनता। उन्हें लगता है कि मौका अब आया है, इसलिए वे यह मनन करते हैं कि किस प्रकार बोलें कि उनकी कोई समस्या प्रकट न हो और यह न दिखाई दे कि वे खुद को दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें खूब चतुर-सुजान होकर कुछ तरकीबें और चालाकियाँ बरतनी होंगी और तुच्छ हथकंडे अपनाने होंगे। वे कहते हैं : “हे परमेश्वर, इन वर्षों में तुममें विश्वास कर हमें वास्तव में खूब लाभ हुआ है! हमारा पूरा परिवार विश्वास करता है, सबने खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हुए सब कुछ त्याग दिया है। यह सबसे महत्वपूर्ण बात नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि तुम्हारे वचन इतने महान हैं और तुमने इतना अधिक कार्य किया है। हम सब अपने कर्तव्य निभाने और खुद को परमेश्वर के लिए खपाने को तैयार हैं।” इस पर मैं कहता हूँ : “लेकिन इसमें कोई फायदा नहीं है।” “फायदा है—परमेश्वर ने जो अनुग्रह दिया है वह भरपूर है। परमेश्वर के वचनों में हमें बहुत सारी नई रोशनी प्राप्त हुई है, अंतर्दृष्टि और समझ मिली है। सारे भाई-बहन इतने उत्साह से भरे हैं, सभी परमेश्वर के लिए खपने के लिए तैयार हैं।” “क्या कोई कमजोर और नकारात्मक है? क्या कोई ऐसा है जो गड़बड़ियाँ पैदा करता हो और बाधाएँ खड़ी करता हो?” “नहीं, हमारा कलीसियाई जीवन बहुत अच्छा है। सारे भाई-बहन प्रेममय परमेश्वर का अनुसरण करते हैं और सुसमाचार फैलाने के लिए सब कुछ त्याग देते हैं। परमेश्वर जो भी कहता है वह अच्छा है। हम सब अभिप्रेरित हैं, अब हम पहले की तरह विश्वास नहीं कर सकते कि अनुग्रह और भरपेट रोटी की खोज में लगे रहें। हमें परमेश्वर के लिए सब कुछ त्याग देना होगा, खुद को परमेश्वर को अर्पित करना होगा और खुद को परमेश्वर के लिए खपाना होगा।” “तो फिर इन पिछले कुछ वर्षों में तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों की कोई समझ हासिल हुई है?” “बिल्कुल। परमेश्वर, तुम्हारे वचन इतने महान हैं कि हर वाक्य सीधे हमारे महत्वपूर्ण मसलों पर चोट करता है और हमारे प्रकृति सार को उजागर करता है! हमें खुद को समझने में और तुम्हारे वचनों में बहुत रोशनी मिली है। तुम हमारे पूरे परिवार, हमारी पूरी कलीसिया के जीवनरक्षक हो। तुम न होते तो हम बहुत पहले न जाने कहाँ खत्म हो चुके होते। तुम न होते तो हम जान ही नहीं पाते कि कैसे चलते रहना है। हमारी कलीसिया में हर व्यक्ति तुम्हें देखने को तरसता रहता है, अपने सपनों में तुमसे मिलने के लिए रोज प्रार्थना करता है, रोज तुम्हारे साथ होने की आशा करता है!” क्या इनकी बातों में वास्तव में दिल को छूने वाले या ईमानदार शब्द कहे गए हैं? (नहीं।) तो फिर ये कैसे शब्द हैं? ये पाखंडपूर्ण, खोखले और निरर्थक शब्द हैं। जब मैं उनसे आत्म-ज्ञान के बारे में बात करने को कहता हूँ तो वे कहते हैं, “परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद से मुझे लगता है कि मैं दानव या शैतान हूँ, मुझमें मानवता नहीं है।” “तुममें मानवता किस तरह नहीं है?” “मैं सिद्धांतहीन ढंग से कार्य करता हूँ।” “तुम्हारे किन कार्यों में सिद्धांत नहीं होते हैं?” “मैं दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग नहीं कर सकता, दूसरों के साथ मेरे मेलजोल में सिद्धांत नहीं होते हैं, लोगों के साथ मेरे आचरण में सिद्धांत नहीं होते हैं। मैं दानव और शैतान हूँ, मैं शैतान की उपज हूँ, मुझे शैतान बहुत भ्रष्ट कर चुका है। मैं हर मोड़ पर परमेश्वर का प्रतिरोध करता हूँ, लगातार परमेश्वर का विरोध और उससे बहस करता हूँ।” ये शब्द सुनने में ऊपरी तौर पर अच्छे लगते हैं। जब मैं उनसे पूछता हूँ, “तुम्हारी कलीसिया में अमुक व्यक्ति कैसा है?” तो वे कहते हैं, “अब वह अच्छा कार्य कर रहा है। पहले उसे कलीसिया के अगुआ के पद से हटा दिया गया था लेकिन उसने पश्चात्ताप कर लिया और भाई-बहनों ने उसे दुबारा चुन लिया।” “क्या वह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है?” “अगर परमेश्वर कहता है कि वह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है तो वह करता है; अगर परमेश्वर कहता है कि वह नहीं करता तो फिर वह नहीं करता है।” “यह व्यक्ति उत्साही नजर आता है लेकिन उसकी काबिलियत बहुत कम है, है ना?” “कम? हाँ, थोड़ी-सी कम है। वरना पिछली बार भाई-बहन उसे हटाते ही क्यों?” “अगर उसकी काबिलियत कम होती तो क्या वह ठोस कार्य कर सकता है? क्या वह कलीसिया के अगुआ का दायित्व अच्छे से निभा सकता है?” मेरे वचन सुनकर वे इनका यह अर्थ निकालते हैं कि कम काबिलियत वाला कोई व्यक्ति अच्छे से दायित्व नहीं निभा सकता और कहते हैं, “तो फिर वह इसे नहीं निभा सकता। भाई-बहनों ने उसे अंधों में काना राजा चुना था; कोई और उससे अच्छा नहीं था, इसलिए उन्होंने उसे चुन लिया। सारे भाई-बहन यही कहते हैं कि उसकी काबिलियत औसत है, लेकिन वह अब भी हमारी अगुआई कर सकता है। अगर उसकी काबिलियत कम है तो मुझे लगता है कि भाई-बहन उसे अगली बार नहीं चुनेंगे। परमेश्वर, क्या मुझे भाई-बहनों को प्रभावित करने का कार्य करना चाहिए?” “यह मामला तुम्हारी कलीसिया के भाई-बहनों के आध्यात्मिक कद पर निर्भर करता है। उन्होंने सिद्धांतों के आधार पर किसी को अच्छा समझकर चुना—यह सही प्रक्रिया है, लेकिन कुछ लोग मूर्ख होते हैं और लोगों या मामलों की असलियत नहीं जानते हैं, वे कभी-कभी गलत व्यक्ति को चुन लेते हैं।” मेरा यह कहने का क्या अर्थ था? मैं तो सिर्फ एक तथ्य बता रहा था, मेरा लक्ष्य जानबूझकर इस व्यक्ति को बदलना नहीं था। लेकिन यह बात सुनकर मसीह-विरोधी इसे किस रूप में समझते हैं? उन्होंने यह बात जोर से तो नहीं कही मगर अपने मन में सोचा, “क्या यह इस व्यक्ति को बदलने के लिए परमेश्वर का संकेत है? तो फिर ठीक है, मुझे और आगे यह जाँच करनी चाहिए कि परमेश्वर का अभिप्राय वास्तव में क्या है? अगर यह व्यक्ति बदल दिया जाए तो फिर कलीसिया की अगुआई और कौन कर सकता है, इस कार्य को कौन कर सकता है?” मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति अंधे होते हैं, उनके हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं होता। मसीह से सामना होने पर वे उसे एक साधारण व्यक्ति से अलग नहीं मानते, लगातार उसकी अभिव्यक्ति और स्वर से संकेत लेते रहते हैं, स्थिति के अनुरूप अपनी धुन बदल लेते हैं, कभी नहीं कहते कि वास्तव में क्या हो रहा है, कभी कुछ ईमानदारी से नहीं कहते, केवल खोखले शब्द और धर्म-सिद्धांत बोलते रहते हैं, अपनी आँखों के सामने खड़े व्यावहारिक परमेश्वर को धोखा देने और उसकी आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करते हैं। उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल बिल्कुल भी नहीं होता। वे परमेश्वर के साथ दिल से बात करने, कुछ भी वास्तविक बात कहने तक में सक्षम नहीं होते हैं। वे ऐसे बात करते हैं जैसे एक साँप रेंगता है, लहरदार और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता चुनते हुए। उनके शब्दों का अंदाज और दिशा किसी खंभे पर चढ़ती खरबूजे की बेल की तरह होते हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम कहते हो कि किसी में भरपूर योग्यता है और उसे आगे बढ़ाया जा सकता है, तो वे फौरन बताने लगते हैं कि वे कितने अच्छे हैं, और उनमें क्या अभिव्यक्त और उजागर होता है; और अगर तुम कहते हो कि कोई बुरा है, तो वे यह कहने में देर नहीं लगाते कि वे कितने बुरे और दुष्ट हैं, और वे किस तरह कलीसिया में व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते रहते हैं। जब तुम किसी वास्तविक स्थिति के बारे में पूछते हो तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; वे टालमटोल करते रहते हैं और इंतजार करते हैं कि तुम खुद ही कोई निष्कर्ष निकाल लो, वे तुम्हारे शब्दों का अर्थ टटोलते हैं, ताकि अपने शब्दों को तुम्हारे विचारों के अनुरूप ढाल सकें। वे जो कुछ भी कहते हैं वे सिर्फ सुनने में अच्छे लगने वाले शब्द होते हैं, चापलूसी और निचले दर्जे की चाटुकारिता होती है; उनके मुँह से एक भी ईमानदार शब्द नहीं निकलता। वे इसी तरह लोगों के साथ बातचीत करते हैं और परमेश्वर के साथ व्यवहार करते हैं—वे इतने धूर्त होते हैं। यही एक मसीह-विरोधी का स्वभाव होता है।

कुछ लोग मेरे संपर्क में आते समय यह नहीं जानते कि मुझे किस प्रकार के शब्द या मामले सुनना पसंद हैं; फिर भी बिना जाने हुए ही वे एक उपाय ढूँढ़ लेते हैं। वे मेरे साथ चर्चा करने के लिए यह सोचकर कुछ विषय चुन लेते हैं कि “शायद ये विषय तुम्हें रुचिकर लगें, शायद तुम इन्हें जानना या सुनना चाहते हो लेकिन विनम्रतावश पूछ नहीं पाते हो, इसलिए मैं ही तुम्हें बताने की पहल करता हूँ।” जब हम मिलते हैं तो वे कहते हैं, “हाल ही में हमारे इलाके में मूसलाधार बरसात हुई जिससे पूरा शहर बाढ़ में डूब गया। सार्वजनिक व्यवस्था भी बिगड़ रही है; अब चोर-उचक्के बढ़ गए हैं। जब कोई बाहर जाता है तो उसके लुटने या उसका सामान चोरी होने का जोखिम रहता है। मैंने सुना कि कुछ जगह कई बच्चे अगवा कर लिए गए और लोग दहशत की स्थिति में हैं। अविश्वासी कहते हैं कि समाज बहुत ज्यादा अराजक बन गया है, पूरी तरह असामान्य हो गया है। धर्मावलंबी लोग अभी भी हाथों में बाइबल लेकर सुसमाचार का प्रचार कर रहे हैं, वे कह रहे हैं कि अंत के दिन आ चुके हैं, परमेश्वर उतरने वाला है और हमारे सिर पर बहुत बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ और आपदाएँ हैं।” और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मुझसे मिलते ही कहते हैं, “कुछ दिन पहले एक ही जगह आसमान में तीन चाँद दिखाई दिए और कई लोगों ने इनके फोटो खींच लिए। कुछ आम भविष्यवक्ता कहते हैं कि आसमान में महान दर्शन होने वाले हैं, सच्चा प्रभु दिखाई देने वाला है।” वे ऐसी ही बातें करते हैं—वे सामाजिक अराजकता, आपदाएँ और विभिन्न असामान्य घटनाएँ और खगोलीय परिघटनाएँ घटित होने के बारे में खास तौर पर रुचि लेकर सूचनाएँ जमा करते हैं। जब वे मुझसे मिलते हैं तो मेरे साथ करीबी संबंध बनाने के लिए वे इन सूचनाओं को बातचीत का विषय बनाते हैं। कुछ लोग मानते हैं, “देहधारी परमेश्वर एक साधारण व्यक्ति है। उसके और दूसरे लोगों के बीच सिर्फ यही फर्क है कि वह परमेश्वर का कार्य और परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार अधिकतर लोग जहाँ यह उम्मीद करते हैं दुनिया में शांति रहे, मनुष्य जाति सामंजस्य और संतुष्टि के साथ जिए, वहीं देहधारी मसीह सामान्य लोगों से भिन्न है। वह यह उम्मीद करता है कि विश्व में भारी उथल-पुथल हो, दर्शन हों और बड़ी आपदाएँ घटित हों, परमेश्वर का महान कार्य तेजी से पूरा हो और परमेश्वर का प्रबंधन कार्य तेजी से समाप्त हो ताकि उसके कहे वचन पूरे हों। परमेश्वर इन्हीं विषयों की परवाह करता है और इन्हीं में उसे रुचि होती है। इसलिए उससे मिलते समय मैं इन चीजों के बारे में बात करूँगा तो वह अत्यधिक प्रसन्न होगा। उसके प्रसन्न होने से शायद मुझे तरक्की मिल जाए, शायद उसके पास बैठकर और अधिक दिन बिताने का अवसर मिल जाए।” क्या ऐसे भी लोग हैं? मैं एक बार एक नवयुवती से मिला जो मीठा बोलती थी; वह वाक्पटु और हाजिर-जवाब थी, यह जानती थी कि कौन-सी बात वास्तव में किससे कहनी है, वह लोकप्रिय बातें कर सबका मन मोहने और हर दिशा में चमकने में माहिर थी, वह सत्ता में बैठे और रुतबे वाले लोगों के साथ बातचीत करने में खास तौर पर कुशल थी। मुझसे मिलते समय जब उसने मुझसे बात की तो तुरंत बोली : “अमुक-अमुक जगह अपराध जगत का राज है; यहाँ तक कि स्थानीय पुलिस के पास भी गुंडे हैं। एक गिरोह के सरगना ने स्थानीय स्तर पर कई बुरे काम किए। एक दिन उसका सामना सड़क पर एक बड़े अफसर, एक बड़े राक्षस से हुआ। उसने अपनी कार बड़े राक्षस की कार से आगे निकाल ली तो बड़े राक्षस ने अपने अंगरक्षक से कहा, ‘यह किसकी कार है? वह मुझे दुबारा नहीं दिखना चाहिए!’ अगले दिन उसका काम तमाम हो गया।” क्या समाज में ऐसी चीजें हो रही हैं? (बिल्कुल।) ऐसी चीजें जरूर होती हैं लेकिन क्या इन्हें मुझसे मिलते समय बातचीत का मुख्य विषय बनाना उपयोगी है? ये ऐसे विषय नहीं हैं जिनकी मैं परवाह या सुनना पसंद करता हूँ लेकिन वह यह नहीं जानती थी। उसने सोचा कि मुझे ये रोमांचक कहानियाँ सुनना पसंद है। मुझे बताओ, क्या आपदाएँ, दर्शन, प्राकृतिक और मानवजनित विपदाएँ ऐसे विषय हैं जिनकी मैं परवाह करता हूँ, जिन्हें सुनना चाहता हूँ? (नहीं।) समय बिताने के लिए इन चीजों को सुनना ठीक है लेकिन अगर तुम सोचते हो कि मैं इन्हें सुनना वास्तव में पसंद करता हूँ तो तुम गलत हो। इन चीजों में मेरी दिलचस्पी नहीं है, मैं इनके बारे में सुनने की परवाह नहीं करता। कुछ लोग कहते हैं, “जब लोग इन चीजों के बारे में बात करते हैं तो क्या तुम सुनते हो?” मैं सुनने का विरोध नहीं करता लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मुझे सुनना पसंद है, न ही यह अर्थ है कि मैं यह जानकारी और कहानियाँ जुटाना चाहता हूँ। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि अपने दिल की गहराई से मेरी इन मामलों को लेकर कोई जिज्ञासा नहीं है, कोई रुचि नहीं है। कुछ लोग तो यह भी सोचते हैं, “क्या तुम दिल ही दिल में बड़े लाल अजगर से खास तौर पर नफरत नहीं करते? अगर तुम बड़े लाल अजगर से नफरत करते हो तो मैं तुम्हें बड़े लाल अजगर को मिली एक सजा के बारे में बताता हूँ : बड़े लाल अजगर के आला अफसरों में अंतर्कलह चल रही है, कुछ गुट आपस में लड़ रहे हैं, वे एक मुख्य राक्षस को लगभग मार ही चुके थे। ये मुख्य राक्षस हत्या के कई प्रयासों से बचे हैं, बहुत ही खतरनाक स्थिति है! क्या तुम्हें यह सुनकर खुशी होगी?” क्या तुम सब लोगों को ऐसी चीजें सुनकर खुशी होगी? अगर तुम्हें खुशी होगी तो फिर हो; अगर तुम्हें यह सुनना पसंद नहीं है तो फिर मत सुनो—इसका मुझसे वास्ता नहीं है। संक्षेप में कहें तो जहाँ तक ऐसे मामलों की बात है कि क्या किसी देश में महामारी फैली है, महामारी कैसे आई, कितने लोग मरे, किस देश में बड़ी आपदा आई, किसी देश की सरकार की स्थिति, किसी देश के उच्च तबके में आंतरिक संघर्ष या सामाजिक उथल-पुथल कितनी पाशविक है, ये चीजें अगर सुनने में आती हैं तो मैं शायद सुन लूँ लेकिन सिर्फ इसलिए कि मुझे जानकारी नहीं है, मैं इन घटनाओं के बारे में विशेष ब्योरा जुटाने का कोई प्रयास नहीं करूँगा, खबरें नहीं सुनूँगा, अखबार नहीं पढ़ूँगा या ऑनलाइन सामग्री नहीं खोजूँगा। मैं ऐसे काम बिल्कुल नहीं करूँगा, कभी नहीं करूँगा। इन मामलों में मेरी रुचि है ही नहीं। कुछ लोग कहते हैं : “यह सब तुम्हारे नियंत्रण में है, यह सब तुम्हारी ही करनी है; इसीलिए तुम्हारी रुचि नहीं है।” क्या यह कथन सही है? यह धर्म-सिद्धांत के रूप में सही है, लेकिन सार रूप में ऐसी बात नहीं है। परमेश्वर तो मनुष्य की नियति से लेकर हर नस्ल, हर जन समूह, हर युग का संप्रभु है। हर युग में कुछ आपदाएँ और असामान्य घटनाएँ घटना बिल्कुल सामान्य बात है—यह सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है। चाहे कोई भी युग हो, चाहे बड़ी घटनाएँ घटें या छोटी, जब किसी युग के बदलने का समय आता है तो भले ही एक भी घास-पात में कोई बदलाव न हो, वह युग बदलकर रहेगा। यह परमेश्वर की संप्रभुता का मामला है। अगर किसी युग का अंत नहीं होना है तो भले ही खगोलीय परिघटनाओं में या धरती की सारी चीजों में बड़े-बड़े बदलाव हो जाएँ, युग का अंत नहीं होगा। ये सारे परमेश्वर के मामले हैं, ये मनुष्य के हस्तक्षेप या सहायता से परे के मामले हैं। लोगों को अधिक से अधिक बस यही करना चाहिए कि वे इन मामलों से वास्ता न रखें, अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए इन मामलों के बारे में सबूत और जानकारी न जुटाएँ। जहाँ तक परमेश्वर के कार्यों का सवाल है, तुम जितना समझ सकते हो उतना समझो और जहाँ संभव न हो, वहाँ अपना दिमाग मत लड़ाओ। भ्रष्ट मानवजाति के बीच ये मामले बहुत ही सामान्य हैं, बहुत ही आम हैं। ये सभी मामले—युगों का बदलना, विश्व व्यवस्था का बदलना, किसी नस्ल की नियति, किसी राज का शासन और रुतबा, वगैरह-वगैरह—परमेश्वर के हाथ में हैं, सब कुछ उसकी संप्रभुता के अधीन है। लोगों को सिर्फ विश्वास, स्वीकार और समर्पण करना चाहिए; यही काफी है। यह सोचकर अधिक रहस्य समझने का विचार मत पालो कि तुम जितने ज्यादा रहस्य समझोगे, यह उतनी ही ज्यादा लोकप्रिय बात होगी, मानो परमेश्वर में विश्वास करके तुम्हारे आध्यात्मिक कद और तुम्हारी आध्यात्मिकता का बहुत विस्तार हो गया हो। ऐसी मानसिकता होने का यही तात्पर्य है कि परमेश्वर में विश्वास का तुम्हारा दृष्टिकोण ही गलत है। ये मामले महत्वपूर्ण नहीं हैं। वास्तविक महत्वपूर्ण मामला जिससे लोगों को सबसे ज्यादा वास्ता रखना चाहिए, वो है परमेश्वर की प्रबंधन योजना का मुख्य भाग—मानवता का उद्धार, परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य के तहत मनुष्यजाति को बचाए जाने में सक्षम बनाना। यही सबसे बड़ा और सबसे केंद्रीय मामला है। अगर तुम इस मामले से जुड़े सत्यों और दर्शनों को समझते हो तो फिर परमेश्वर तुममें जो कार्य करता है और तुम्हें जो सत्य प्रदान करता है उन्हें स्वीकार करो, और अपनी काट-छाँट, न्याय और ताड़ना की हर घटना को स्वीकार करो, अगर तुम इन सब चीजों को स्वीकार कर लेते हो तो फिर यह खगोलीय परिघटनाओं, रहस्यों, आपदाओं या राजनीति पर शोध करने से ज्यादा मूल्यवान है।

कुछ लोग थोड़ा-सा इतिहास सीख लेते हैं, थोड़ी-सी राजनीति को समझते हैं और एक हिसाब से वे दिखावा करना पसंद करते हैं; दूसरे हिसाब से वे सोचते हैं, “देहधारी परमेश्वर के पास परमेश्वर का सार और सत्य होता है। वह इस तथ्य को जानता है कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है और वह इसमें निहित विवरणों को भी समझता है। इसलिए अगर मैं राजनीति और इतिहास को समझ लूँ तो क्या मैं परमेश्वर की जरूरतों को पूरा कर सकता हूँ? क्या मैं इन सारी चीजों को लेकर उसकी जिज्ञासा शांत कर सकता हूँ?” मैं तुम्हें बता दूँ, तुम गलत हो! मैं सबसे ज्यादा घृणा जिस चीज से करता हूँ उसमें पहले स्थान पर राजनीति है और दूसरे स्थान पर इतिहास। अगर तुम समय बिताने के लिए इतिहास के बारे में बातें करते हो, विनोदपूर्ण, कहानीनुमा प्रसंग या अनौपचारिक बातचीत करते हो, तो यह ठीक है। लेकिन अगर तुम खुशामद करने या संबंध बनाने के उद्देश्य से इन शब्दों, इन मामलों को गंभीर मानकर मेरे साथ चर्चा करते हो तो फिर तुम गलत हो; मुझे ये बातें सुनने की कोई लालसा नहीं है। कुछ लोग गलत ढंग से सोचते हैं, “तुम सत्य पर संगति करते हो और लोगों के लिए सभाएँ आयोजित करते हो क्योंकि तुम्हें ऐसा करना ही चाहिए; मन-ही-मन तुम्हें जो चीज सबसे अधिक पसंद है वह है दुनिया में भारी उथल-पुथल। तुम्हें लगता है कि दुनिया में पर्याप्त उथल-पुथल नहीं है। जब कभी आपदा आती है तो तुम पर्दे के पीछे न जाने कितने खुश होते होगे, शायद जश्न मनाने के लिए आतिशबाजी भी कर रहे होगे!” मैं तुम्हें बता दूँ कि ऐसी बात नहीं है। भले ही बड़ा लाल अजगर नष्ट हो जाए और ढह जाए, मैं जैसा हूँ वैसा ही रहूँगा। कुछ लोग पूछते हैं, “अगर बड़ा लाल अजगर ढह जाए तो क्या तुम खुश नहीं होगे?” जब बड़े लाल अजगर को नष्ट और दंडित कर दिया जाएगा तो क्या तुम्हें आतिशबाजी नहीं करनी चाहिए? क्या तुम्हें एक शानदार दावत देकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ जश्न नहीं मनाना चाहिए? मुझे बताओ, क्या मुझे यही सब करना चाहिए? ऐसा करना सही है या गलत? क्या यह सत्य के अनुरूप है? कुछ लोग कहते हैं : “बड़े लाल अजगर ने परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बहुत सताया है, परमेश्वर के बारे में अफवाहें फैलाकर उसके नाम को बदनाम किया है, परमेश्वर की निंदा और आलोचना की है। क्या उसे उसका प्रतिफल मिलने पर हमें थोड़ा-सा भी जश्न नहीं मनाना चाहिए?” अगर तुम लोग जश्न मनाते हो तो मेरी ओर से छूट है क्योंकि तुम्हारी अपनी मनःस्थिति है। अगर तुम सभी लोग खुश हो, तीन दिन-रात जागते हो, परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए एक साथ इकट्ठा होते हो, परमेश्वर की धार्मिकता की स्तुति करने के लिए भजन गाते हो और नृत्य करते हो, इस बात से खुश हो कि परमेश्वर ने बड़े लाल अजगर को, दुश्मन को आखिरकार नष्ट कर पैरों तले रौंद दिया है, और परमेश्वर के चुने हुए लोग अब इसके उत्पीड़न और यातनाएँ नहीं सहेंगे, अब अपने घर लौटने में असमर्थ नहीं होंगे और अंततः अपने-अपने परिवार के पास लौट सकते हैं, तो हर एक की मनःस्थिति समझी जा सकती है। अगर तुम लोग इस तरह से जश्न मनाना और तनावमुक्त होना चाहते हो तो मैं सहमत हूँ। परंतु जहाँ तक मेरी बात है, मैं वही करूँगा जो मुझे करना चाहिए; मैं इन गतिविधियों में शामिल नहीं होता। कुछ लोग पूछते हैं : “तुम्हारा रवैया ऐसा क्यों है? क्या इससे लोगों का उत्साह कम नहीं होता? तुम कुछ जुनून क्यों नहीं दिखाते? अगर तुम सबसे महत्वपूर्ण क्षण में उपस्थित नहीं रहोगे तो हम कैसे जश्न मना सकते हैं?” जश्न मनाना गलत नहीं है लेकिन हमें एक चीज पर स्पष्ट रूप से संगति करने की जरूरत है : मान लो कि बड़े लाल अजगर को दंडित किया गया है, परमेश्वर ने उसे हटा दिया है; इस राक्षस राजा को, जो कभी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पूर्ण बनाने का काम करता था, नष्ट कर जड़ से मिटा दिया जाता है—तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों के आध्यात्मिक कद का क्या? तुम कितना सत्य समझ चुके हो? अगर तुम सभी लोग समुचित रूप से अपने कर्तव्य निभा सकते हो, सभी योग्य सृजित प्राणी हो, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम हो, प्रत्येक व्यक्ति के पास अय्यूब और पतरस जैसा आध्यात्मिक कद है, और सभी पहले ही बचा लिए गए हों तो यह वास्तव में खुशी का क्षण है, उत्सव मनाने की बात है। लेकिन एक दिन अगर बड़े लाल अजगर का पतन हो जाता है और तुम लोगों का आध्यात्मिक कद वफादारी से अपने कर्तव्य निभाने के स्तर तक नहीं पहुँच पाया है, अगर तुम लोगों के मन में अभी भी परमेश्वर का कोई भय नहीं है और तुम बुराई से दूर नहीं रह पाते हो, अय्यूब और पतरस के आध्यात्मिक कद से अत्यंत दूर हो, परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति सच्चे मन से समर्पण करने में असमर्थ हो और तुम योग्य सृजित प्राणी नहीं माने जा सकते हो तो फिर तुम्हारे लिए खुश होने की क्या बात है? क्या यह केवल व्यर्थ आनंद मनाना नहीं है? ऐसा जश्न निरर्थक और मूल्यहीन है। कुछ लोग कहते हैं : “बड़ा लाल अजगर हमें बहुत सताता है; तो बेशक उससे नफरत करना ठीक है? उसके सार को पहचानना ठीक रहेगा, है ना? उसने हम पर इतना जुल्म किया है; तो भला उसके हटने से हम खुश क्यों नहीं हो सकते?” खुश होना, अपनी भावनाओं को व्यक्त करना ठीक है। लेकिन तुम अगर यह सोचते हो कि बड़े लाल अजगर का विनाश परमेश्वर की प्रबंधन योजना के समापन को दर्शाता है, कि मानवजाति को बचा लिया गया है, बड़े लाल अजगर के विनाश को परमेश्वर की प्रबंधन योजना के पूरा होने के साथ-साथ अपनी मुक्ति और पूर्णता के बराबर समझते हो, तो क्या यह समझ गलत नहीं है? (यह गलत है।) तो तुम लोग अब क्या समझते हो? जहाँ तक परमेश्वर के शत्रु, बड़े लाल अजगर की, उसकी नियति और उसके स्वरूप की बात है, ये परमेश्वर के मामले हैं और इनका तुम्हारे स्वभाव में बदलाव या उद्धार के अनुसरण से कोई संबंध नहीं है। बड़ा लाल अजगर केवल एक विषमता है, सेवा करने वाली वस्तु है, जो परमेश्वर के आयोजनों के अधीन है। वह क्या करता है और सेवा लेने के लिए परमेश्वर उसका उपयोग कैसे करता है, यह परमेश्वर का काम है, जिसका लोगों से कोई संबंध नहीं है। इसलिए अगर तुम इसके भाग्य को लेकर बहुत चिंतित हो, इससे अपने दिल को विचलित होने देते हो, तो फिर यह परेशानी की बात है, एक समस्या है। परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है, जिसमें बड़ा लाल अजगर, सभी दानव और शैतान भी शामिल हैं, इसलिए दानव और शैतान जो कुछ भी करते हैं, चाहे वे जैसे भी हों, उसका तुम्हारे जीवन प्रवेश और स्वभावगत बदलाव से कोई संबंध नहीं है। तुम्हारा वास्ता किस चीज से होना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के प्रति प्रतिरोध वाले इसके दुष्ट और शातिर सार को, परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी और शत्रुतापूर्ण होने के इसके सार को पहचानने की जरूरत है—तुम्हें यही बात समझने की जरूरत है। जहाँ तक बाकी बातें हैं, परमेश्वर उस पर क्या आपदाएँ बरपाता है, परमेश्वर उसके भाग्य को कैसे आयोजित करता है, इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है और इसे जानने का कोई फायदा नहीं है। इसका कोई फायदा क्यों नहीं है? क्योंकि अगर तुम जानते भी हो, तो भी तुम यह नहीं समझ सकते कि परमेश्वर इस तरह से कार्य क्यों करता है। अगर तुम इसे समझ भी लेते हो, तो भी तुम यह नहीं जान पाओगे कि परमेश्वर ने उस तरह से कार्य करने का फैसला क्यों किया, तुम इसके पीछे के सत्य को पूरी तरह नहीं जान सकते। मैं बस इन संक्षिप्त टिप्पणियों के साथ इस विषय को यहीं समाप्त करता हूँ।

खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्दों का प्रयोग करने संबंधी मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ बेशक सामान्य भ्रष्ट लोगों में भी पाई जाती हैं, लेकिन मसीह-विरोधियों को सामान्य भ्रष्ट लोगों से कौन-सी चीज अलग करती है? उनकी खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्दों में कोई सम्मान नहीं है, कोई ईमानदारी नहीं है। बल्कि उनका लक्ष्य देहधारी परमेश्वर से खिलवाड़ करना, उसका परीक्षण और उसे इस्तेमाल करना होता है, इस प्रकार ये परिपाटियाँ बढ़ती हैं; उनके अपने ही उद्देश्य होते हैं। वे खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्दों के जरिये उस सामान्य व्यक्ति के साथ खिलवाड़ करना चाहते हैं जिसे वे अपने सामने देखते हैं, इससे वे मसीह को धोखा देने की कोशिश करते हैं जिससे मसीह उनकी यह असलियत जानने में असमर्थ हो जाता है कि वे वास्तव में कौन हैं, उनके किस तरह के भ्रष्ट स्वभाव हैं, किस प्रकार की सत्यनिष्ठा है, उनमें किस प्रकार का सार है और वे किस किस्म के व्यक्ति हैं। वे धोखा देना और छल करना चाहते हैं, है ना? (बिल्कुल।) क्या उनकी खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्दों में एक भी ईमानदार शब्द होता है? एक भी नहीं है। मसीह-विरोधियों का इरादा और उद्देश्य धोखा देना, छल करना और खिलवाड़ करना है। क्या ये अभ्यास सत्य से घृणा करने वाले मसीह-विरोधियों का सार नहीं हैं। (बिल्कुल हैं।) वे सोचते हैं कि साधारण लोग सुखद बातें सुनना, चापलूसी का आनंद लेना और दूसरों का अपने आगे गिड़गिड़ाना पसंद करते हैं जिससे उन्हें अपनी अहमियत का एहसास होता है और उनका रुतबा औसत व्यक्ति की तुलना में अधिक सम्मानित और शानदार दिखाई देता है। इसके विपरीत अगर कोई व्यक्ति मसीह के सामने अत्यधिक दासों जैसा व्यवहार करे, उसमें निष्ठा और गरिमा का अभाव हो, वह अस्पष्ट बात करे, हमेशा धोखा देने की कोशिश करे, और हमेशा तथ्य छिपाने की कोशिश करे, मसीह के साथ झूठ-फरेब का व्यवहार करे तो मसीह न सिर्फ इस पर विश्वास नहीं करेगा, बल्कि वह अपने दिल में तुमसे नाराज हो जाएगा। किस हद तक? परमेश्वर कहेगा कि यह व्यक्ति घृणित है, एक भी सत्य नहीं बोलता है, केवल चाटुकारिता के बारे में सोचता है, किसी काम का नहीं है, सकारात्मक चरित्र का नहीं है—ऐसा व्यक्ति भरोसे और विश्वास के अयोग्य है। भरोसे और विश्वास के अयोग्य; ऐसे लोगों की यही परिभाषा दी गई है। ऊपरी तौर पर ये केवल दो वाक्यांश हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, सत्य हासिल नहीं कर सकता और उसके बचाए जाने की संभावना नहीं है। अगर ऐसा व्यक्ति सत्य को हासिल नहीं कर सकता और उसके बचाए जाने की संभावना न हो तो उसके परमेश्वर में विश्वास करने की क्या सार्थकता और मूल्य है? अगर वह गड़बड़ी पैदा नहीं करता और विघ्न नहीं डालता तो वह बड़े लाल अजगर की तरह परमेश्वर के घर में केवल एक विषमता या सेवा करने वाले की भूमिका निभा सकता है। किसी चीज की भूमिका निभाने का क्या मतलब है? इसका अर्थ होता है अस्थायी रूप से, जहाँ तक हो सके वहाँ तक कार्य करना, जैसे किसी गाड़ी को तब तक खींचते रहना जब तक वह पलट न जाए। उन्हें भूमिका निभाने को क्यों कहा जाता है? क्योंकि ऐसे लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। वे अपने दिल में सत्य से इतनी घृणा और उसका इतना तिरस्कार करते हैं, सत्य का इतना उपहास उड़ाते हैं और उससे खिलवाड़ करते हैं कि उनका अंतिम हश्र पौलुस की तरह होना तय है जो अंत तक पहुँचने में असमर्थ रहा। इसलिए इस किस्म का व्यक्ति परमेश्वर के घर में केवल अस्थायी सेवाकर्ता की भूमिका निभा सकता है। एक लिहाज से देखें तो ये वास्तव में सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों का विवेक और समझदारी बढ़ाने में मदद करते हैं। दूसरे लिहाज से देखें तो ऐसे लोग परमेश्वर के घर में वो सब करते हैं जो कुछ करने में सक्षम हैं, यथासंभव सेवा करते हैं क्योंकि वे मार्ग के अंत तक पहुँचने में सफल नहीं हो सकते हैं।

एक दिन जब मैं बाहर गया हुआ था तो एक परिचित महिला से मेरी मुलाकात हो गई। मैं कुछ बोल पाता, उससे पहले उसी ने पूछ लिया, “हमें मिले हुए कितना लंबा समय हो गया है। मैं यहाँ रोज तुम्हारा इंतजार करती रही हूँ, तुम्हारी इतनी याद आती है कि मैं घर पर नहीं रह सकती। मैं यहाँ आने-जाने वाली भीड़ के बीच बस तुम्हें ही ढूँढ़ती रहती हूँ!” मैंने मन-ही-मन सोचा, यह मानसिक रूप से थोड़ी अस्वस्थ हो सकती है। क्या मैंने तुम्हारे साथ मुलाकात तय की थी? तुम क्यों रोज यहाँ मेरा इंतजार करती हो? चूँकि हम संयोग से मिल ही गए हैं तो चलो कुछ सार्थक बात कर लेते हैं। मैंने उससे पूछा, “तुम्हारी जिंदगी कैसी चल रही है?” उसने उत्तर दिया, “ओह, मत पूछो। तुमसे पिछली मुलाकात के बाद से ही मैं तुम्हारे खयालों में इतनी डूबी रहती हूँ कि मेरी भूख और नींद उड़ गई है। मैं बस इसी आस में रही कि किसी दिन तुमसे मुलाकात होगी।” मैंने कहा, “चलो कुछ सार्थक बातें कर लेते हैं। इस अवधि में तुम्हारी दशा कैसी रही?” “काफी अच्छी। सही ही रही है।” “क्या तुम लोगों की कलीसिया में चुनाव हुए? क्या अगुआ अभी भी वही है?” “नहीं, वहाँ अमुक व्यक्ति को चुन लिया गया है।” “वह कैसा है?” “वह ठीकठाक है।” “तो फिर कलीसिया के पिछले अगुआ को क्यों बदला गया?” “मुझे पता नहीं; वह ठीक ही था।” “थोड़ा और विशिष्टता से बताओ, सिर्फ ‘ठीकठाक’ मत कहती रहो। क्या वह ठोस कार्य नहीं कर सका?” “मुझे लगा कि वह ठीकठाक है।” “नवनिर्वाचित अगुआ की मानवता कैसी है? सत्य की उसकी समझ कैसी है? क्या वह ठोस कार्य कर सकता है?” “वह ठीकठाक है।” मैंने उससे जो भी सवाल पूछा, उसने जवाब में हर बार “ठीकठाक” कहा, इससे बातचीत करना असंभव हो गया। इसलिए मैंने बातचीत बंद कर दी। तुम इस कहानी के बारे में क्या सोचते हो? इस कहानी का शीर्षक क्या होना चाहिए? (“ठीकठाक है।”) यह कहानी है “ठीकठाक है।” कई लोगों के साथ बातचीत में मैं देखता हूँ कि चंद लोग ही मानवीय विवेक के आधार पर बोल पाते हैं, सत्य सिद्धांतों के अनुसार बोलना तो रहने ही दो। अधिकतर लोगों के मुँह झूठ, बकवास, भ्राँतियों और भ्रम और धृष्ट शब्दों से भरे होते हैं; एक भी सच्चा कथन नहीं होता है। मैं तो यह माँग भी नहीं करता कि तुम्हारा हर वाक्य सत्य के अनुरूप हो या इसमें सत्य वास्तविकता हो, लेकिन कम-से-कम तुम्हें एक इंसान की तरह बोलने में सक्षम होना चाहिए, कुछ ईमानदारी दिखानी चाहिए, कुछ सच्ची भावना दिखानी चाहिए। क्या इसके बिना आपस में संवाद हो सकता है? नहीं हो सकता। तुम हमेशा खोखली बातें करते हो और झूठ बोलते हो; जब स्थितियों का सामना करते हो तो बकवास बातें, भ्राँतियाँ, अपशब्द और धृष्ट शब्द सामने आ जाते हैं, और अपना औचित्य साबित करने वाले और अपना बचाव करने वाले शब्द सामने आ जाते हैं, जिससे आपस में पटरी खाना या संवाद करना असंभव हो जाता है, है ना? (सही बात है।)

बहुत-से लोग परमेश्वर के वचनों को यह मानकर खाते-पीते हैं कि ये वचन केवल स्वर्ग के परमेश्वर से संबंधित हैं, केवल परमेश्वर के आत्मा से और केवल उस परमेश्वर से संबंधित हैं जो अदृश्य और अमूर्त है। चूँकि वह परमेश्वर इतनी दूर है, इसलिए उसके वचन इतने गहरे मान लिए जाते हैं कि इन्हें सत्य कहा जा सके। लेकिन उनके सामने यह साधारण व्यक्ति, जो बोलते समय दिखाई और सुनाई देता है, इस व्यक्ति का सत्य से, परमेश्वर से या परमेश्वर के सार से बहुत कम संबंध माना जाता है। इसका कारण यह है कि वह दिखता है और वह लोगों के बहुत करीब है, वह उनके दिल या उनकी आँखों पर कोई असर नहीं डालता और वह उनमें कोई रहस्यमयी जिज्ञासा की भावना पैदा नहीं करता है। लोगों को लगता है कि इस साधारण, मूर्त और बोलने वाले व्यक्ति का पता लगाना बहुत आसान है, बहुत पारदर्शी है। वे तो यह भी सोचते हैं कि वे एक ही नजर में उसे समझ और उसकी असलियत जान सकते हैं। लिहाजा लोग अनजाने में ही मसीह से ठीक उसी तरह पेश आते हैं जैसे वे किसी इंसान से पेश आते हैं, जैसे किसी रुतबे वाले या सत्ताधारी इंसान से पेश आते हैं। क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? मसीह की तुलना रुतबे वाले और सत्ताधारी भ्रष्ट इंसानों से कैसे की जा सकती है? जब लोग रुतबे वाले और सत्ताधारी भ्रष्ट व्यक्तियों की खुशामद और चापलूसी करते हैं तो वे उनसे फायदे और सराहना पाते हैं। भ्रष्ट लोगों को इसमें आनंद आता है; वे चाहते हैं कि दूसरे लोग उनकी खुशामद, चापलूसी और चाटुकारिता करें क्योंकि इससे वे अधिक कुलीन और श्रेष्ठ दिखते हैं, साथ ही उनके रुतबे और सत्ता पर अधिक जोर दिया जाता है। लेकिन मसीह, जिसके पास परमेश्वर का सार है, वह बिल्कुल विपरीत है। जब किसी व्यक्ति के पास रुतबा और प्रसिद्धि होती है तो इसका कारण यह नहीं होता कि उसका सार या चरित्र कुलीन है; इसलिए अपनी प्रसिद्धि और रुतबा दिखाने के लिए उसे ऐसे तमाम हथकंडे अपनाने पड़ते हैं जिससे दूसरे लोग उसे अपना आदर्श मानें और उसकी चापलूसी करें। इसके विपरीत, मसीह, जिसके पास परमेश्वर का सार है, उसके पास स्वाभाविक रूप से परमेश्वर की पहचान और दर्जा होता है, जो किसी भी सृजित प्राणी के सार और रुतबे से कहीं ऊँची चीजें हैं। उसकी पहचान और सार का तटस्थ रूप से अस्तित्व है, उसे किसी सृजित प्राणी द्वारा सत्यापन या प्रशंसा की दरकार नहीं है; न ही उसे अपनी पहचान, सार या अपना महान दर्जा दिखाने के लिए किसी सृजित प्राणी की खुशामद या चापलूसी की दरकार है। ऐसा इसलिए कि मसीह के पास परमेश्वर का सार होना एक अंतर्निहित तथ्य है; यह उसे किसी व्यक्ति ने नहीं दिया है, इसे मानवजाति के बीच वर्षों के अनुभव से तो बिल्कुल भी अर्जित नहीं किया गया है। कहने का आशय यह है कि सभी सृजित प्राणियों के बिना भी परमेश्वर की पहचान और सार यथावत कायम रहते हैं; किसी भी सृजित प्राणी से अपनी आराधना या अनुसरण कराए बिना भी परमेश्वर का सार अपरिवर्तित रहता है—यह तथ्य बदलता नहीं है। मसीह-विरोधी गलत ढंग से यह मान लेते हैं कि मसीह चाहे जो कुछ भी कहे या करे, लोगों को अच्छे लगने वाले शब्द इस्तेमाल करना चाहिए, जयकारा लगाना चाहिए, उसका अनुसरण करना चाहिए, उसकी प्राथमिकताओं की पूर्ति करने के लिए खुशामद करनी चाहिए और उसके इरादों के खिलाफ नहीं जाना चाहिए, और वे सोचते हैं कि इससे शायद मसीह को अपनी पहचान और अपने दर्जे के अस्तित्व का एहसास हो जाए। यह एक भयंकर भूल है! भ्रष्ट मानवजाति में कोई भी प्रसिद्ध, सत्ता और रुतबे वाला व्यक्ति प्रसिद्धि और शक्ति कैसे अर्जित करता है? (खुशामद और चाटुकारिता से।) यह एक पहलू है। इसके अलावा, ये चीजें मुख्य रूप से लोगों के बीच संघर्ष और जद्दोजहद करके, जोड़-तोड़ करके और तमाम तरीकों से भी पाई या कब्जाई जाती हैं। यह महज एक प्रतिष्ठा है, लोगों के बीच एक उच्च पद या श्रेणी है। यह उच्च प्रतिष्ठा, उच्च श्रेणी और ऊँचा रुतबा व्यक्ति को भीड़ के बीच अलग खड़ा करता है, एक अगुआ बनाता है, निर्णय लेने का अधिकार रखने वाला निर्णयकर्ता बनाता है। लेकिन रुतबे और प्रसिद्धि वाले इस व्यक्ति का सार क्या है, जो लोगों के बीच दूसरों के ऊपर खड़ा है? क्या उसमें और दूसरे लोगों में कोई अंतर है? उसकी पहचान और सार बिल्कुल किसी सामान्य भ्रष्ट इंसान के समान है; वह शैतान की सत्ता में भ्रष्ट किया गया एक सामान्य प्राणी है, जो सत्य और सकारात्मक चीजों से विश्वासघात करने, सही और गलत को उलटने, तथ्यों के खिलाफ जाने, बुराई करने, परमेश्वर का प्रतिरोध करने और स्वर्ग की अवहेलना और उसे कोसने में सक्षम है। ऐसे लोगों की असली पहचान और सार वही है जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए व्यक्ति की होती है, जो परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है, जिससे उनकी प्रसिद्धि और रुतबा महज खोखली उपाधियाँ बन जाती हैं। जो लोग निर्दयी, क्रूर और बेहद दुर्भावनायुक्त हैं, जो रुतबे और प्रसिद्धि के लिए दूसरों को मारते या नुकसान पहुँचाते हैं, वे उच्च पद प्राप्त करते हैं। जो लोग कपटी चालें चल सकते हैं, जिनके पास हथकंडे हैं और जो साजिश रच सकते हैं, वे दूसरों के अगुआ बन जाते हैं। ये लोग सामान्य भ्रष्ट लोगों की तुलना में ज्यादा दुर्भावनापूर्ण, क्रूर और दुष्ट हैं। वे चाहते हैं कि उनके साथ केवल अच्छे लगने वाले शब्दों, चाटुकारिता, खुशामद, और चापलूसी से पेश आया जाए। अगर तुम उनसे सत्य बोलते हो तो तुम अपनी जान जोखिम में डाल लेते हो। मसीह-विरोधी लोग खेल के इन सांसारिक नियमों और सांसारिक आचरण के फलसफों को परमेश्वर के घर में ले आते हैं और इन्हें मसीह के साथ बातचीत में अपनाते हैं। वे मानते हैं कि अगर मसीह अपने को मजबूती से स्थापित करना चाहता है, तो उसे अपनी खुशामद और चापलूसी कराना और अच्छे लगने वाले शब्द सुनना भी पसंद होगा। ऐसा करके वे धीमे से देहधारी परमेश्वर की देह को महज भ्रष्ट मानवजाति का एक सदस्य मानकर पेश आते हैं, जो कि मसीह-विरोधियों का दृष्टिकोण है। इसलिए मसीह के साथ बातचीत में मसीह-विरोधी जो स्वभाव प्रकट करते हैं वह निःसंदेह दुष्टतापूर्ण होता है। वे दुष्ट स्वभाव के हैं, वे लोगों के विचारों के बारे में अटकलें लगाते हैं और सोचते-विचारते हैं, दूसरे लोगों के शब्दों और हाव-भावों को आँकना पसंद करते हैं, और मसीह से पेश आने और उससे बातचीत करने से जुड़े मामलों में कुछ ऐसे तौर-तरीके और नियम अपनाना पसंद करते हैं जिनका इस्तेमाल सांसारिक लोग किया करते हैं। वे सबसे गंभीर गलती क्या करते हैं? वे इस तरह से क्यों पेश आ पाते हैं? इसकी जड़ कहाँ है? परमेश्वर कहता है कि देहधारी परमेश्वर एक साधारण व्यक्ति है। यह सुनकर मसीह-विरोधी फूले नहीं समाते और कहते हैं : “तो ठीक है, मैं तुम्हें एक सामान्य व्यक्ति मानकर पेश आऊँगा; तुमसे कैसे पेश आना है, अब इसके लिए मेरे पास एक आधार है।” जब परमेश्वर कहता है कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसमें परमेश्वर का सार है, तो मसीह-विरोधियों का उत्तर होता है : “परमेश्वर का सार? यह मुझे क्यों नहीं दिखता? यह कहाँ है? यह कैसे प्रकट होता है? उसमें परमेश्वर का सार है, यह साबित करने के लिए वह क्या प्रकट करता है? मैं केवल रुतबे वाले लोगों की खुशामद और चापलूसी करना जानता हूँ। मैं लोगों की खुशामद और चापलूसी करने में कभी गलती नहीं कर सकता; यह हमेशा सटीक रहा है। कुछ भी हो, यह सच बोलने से तो बेहतर है।” यही मसीह-विरोधियों की दुष्टता है। इसी प्रकार मसीह-विरोधी सत्य में विश्वास नहीं करते या इसे स्वीकार नहीं करते, वे केवल शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हैं।

कुछ लोग कहते हैं : “हर कोई उन्हीं लोगों को पसंद करता है जो खुशामद और चापलूसी कर सकते हैं और अच्छे लगने वाले शब्द बोलते हैं; ऐसे लोगों को केवल परमेश्वर ही पसंद नहीं करता। तो फिर परमेश्वर वास्तव में किस तरह के व्यक्ति को पसंद करता है? परमेश्वर के साथ व्यक्ति कैसे बातचीत करे कि वह उसे पसंद करने लगे?” क्या तुम लोग जानते हो? (परमेश्वर को ईमानदार लोग पसंद हैं, ऐसे लोग जो परमेश्वर से अपने दिल की बात कहते हैं, ऐसे लोग जो अपना दिल खोल देते हैं और निष्कपट होकर परमेश्वर के साथ संगति करते हैं।) और कुछ? (जिनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है, जो परमेश्वर के वचन सुन और स्वीकार कर पाते हैं।) (जिनका दिल परमेश्वर के घर की ओर होता है, जिनका दिल परमेश्वर से एकाकार हो गया है।) तुम सभी लोगों ने एक ईमानदार व्यक्ति होने के अनेक पहलुओं का उल्लेख किया है, जिनका अभ्यास किया जाना चाहिए। ईमानदार व्यक्ति होना मनुष्य से परमेश्वर की एक अपेक्षा है। यह एक सत्य है जिसका मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए। तो वे कौन-से सिद्धांत हैं जिनका मनुष्य को परमेश्वर के साथ व्यवहार करते समय पालन करना चाहिए? ईमानदार रहो : यही वह सिद्धांत है, जिसका परमेश्वर के साथ बातचीत करते समय पालन किया जाना चाहिए। चापलूसी या खुशामद करने की अविश्वासियों की प्रथा में संलग्न न हो; परमेश्वर को मनुष्य की खुशामद या चापलूसी की आवश्यकता नहीं है। ईमानदार होना ही पर्याप्त है। और ईमानदार होने का क्या मतलब है? इसे अभ्यास में कैसे लाया जाना चाहिए? (बस कोई दिखावा किए बिना या कुछ छिपाए बिना या कोई रहस्य रखे बिना परमेश्वर के सामने खुलना, परमेश्वर से सच्चे दिल से बातचीत करना और बिना किसी बुरे इरादे या फरेब के स्पष्टवादी होना।) सही कहा। ईमानदार होने के लिए तुम लोगों को पहले अपनी निजी इच्छाओं को एक तरफ रखना होगा। यह ध्यान देने की बजाय कि परमेश्वर तुम्हारे साथ किस तरह का व्यवहार करता है, तुम्हें परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलकर रख देना चाहिए और जो कुछ तुम्हारे दिल में है वह कह देना चाहिए। इस बात की चिंता या परवाह न करो कि तुम्हारे शब्दों का क्या दुष्परिणाम होगा; जो कुछ तुम सोच रहे हो वह कह दो, अपनी मंशाओं को एक तरफ रख दो, और बस किसी मकसद को हासिल करने के लिए बातें मत कहो। तुम्हारे अनेक व्यक्तिगत इरादे और मिलावटी विचार होते हैं; तुम हमेशा यह सोचते हुए तोलकर बातें करते हो कि “मुझे इस बारे में बात करनी चाहिए, उस बारे में नहीं, मैं जो कहता हूँ उसके बारे में सावधान रहना चाहिए। मैं इसे उस तरह कहूँगा जिससे मुझे फायदा हो और जो मेरी कमियाँ ढक दे, और परमेश्वर पर अच्छा प्रभाव छोड़े।” क्या यह मंसूबे पालनानहीं है? मुँह खोलने से पहले तुम्हारा दिमाग कुटिल विचारों से भरा होता है, तुम जो कहना चाहते हो उसे कई बार संशोधित करते हो, जिससे जब शब्द तुम्हारे मुँह से निकलते हैं तो वे इतने शुद्ध नहीं होते, और जरा भी वास्तविक नहीं होते, और उनमें तुम्हारे अपने इरादे और शैतान के षड्यंत्र शामिल होते हैं। यह ईमानदार होना नहीं है; यह कुटिल मंशाएँ और बुरे इरादे रखना है। और तो और, जब तुम बात करते हो, तो तुम हमेशा लोगों के चेहरे के हाव-भाव और उनकी आँखों के रुख से अपने संकेत लेते हो : अगर उनके चेहरों पर सकारात्मक अभिव्यक्ति होती है तो तुम बात करते रहते हो; अगर नहीं होती तो तुम बात दबा लेते हो और कुछ नहीं कहते; अगर उनकी आँखों का रुख बिगड़ा हुआ होता है और ऐसा लगता है कि वे जो सुन रहे हैं वह उन्हें पसंद नहीं है तो तुम इसके बारे में ध्यानपूर्वक सोचते हो और मन में कहते हो, “ठीक है, मैं वही कहूँगा जो तुम्हें रुचिकर लगे, जो तुम्हें खुश कर दे, जिसे तुम पसंद करोगे और जो तुम्हें मेरे अनुकूल बना दे।” क्या यह ईमानदार होना है? यह ईमानदार होना नहीं है। कुछ लोग जब कलीसिया में किसी को बुराई करते और बाधा डालते देखते हैं तो इसकी रिपोर्ट नहीं करते हैं। वे सोचते हैं, “अगर मैं इसके बारे में रिपोर्ट करने वाला पहला व्यक्ति हुआ तो उस व्यक्ति को नाराज कर बैठूँगा, और अगर मैं गलत निकला तो मेरी काट-छाँट की जाएगी। मुझे इंतजार करना चाहिए कि दूसरे लोग इसकी रिपोर्ट करें और फिर मैं उनके साथ शामिल हो जाऊँगा। भले ही हम गलत निकले तो भी कोई बात नहीं—आखिरकार, तुम किसी भीड़ को दोषी नहीं ठहरा सकते। जैसी कि कहावत भी है, ‘जो पक्षी अपनी गर्दन उठाता है गोली उसे ही लगती है।’ मैं वह पक्षी नहीं बनूँगा; कोई मूर्ख ही होगा जो अपनी गर्दन उठाने की जिद करेगा।” क्या यह ईमानदार होना है? बिल्कुल भी नहीं। ऐसा व्यक्ति वास्तव में धूर्त है; यदि वह कलीसिया में कोई अगुआ, कोई प्रभारी बन जाता है तो क्या वह कलीसिया के कार्य को नुकसान नहीं पहुँचाएगा? बिल्कुल पहुँचाएगा। ऐसे व्यक्ति का उपयोग कतई नहीं करना चाहिए। क्या तुम लोग इस प्रकार के व्यक्ति को पहचान सकते हो? उदाहरण के लिए, मान लो, किसी अगुआ ने कुछ बुरे काम कर कलीसिया के कार्य में बाधा डाली है, फिर भी कोई नहीं समझता कि इस व्यक्ति के साथ वास्तव में क्या हो रहा है, न ही ऊपरवाले को पता है कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है—सिर्फ तुम्हीं जानते हो कि उसका क्या मामला है। तो क्या ऐसी परिस्थिति में तुम ऊपरवाले को ईमानदारी से यह मसला बताओगे? यही मसला व्यक्ति को सबसे ज्यादा बेनकाब करता है। अगर तुमने इस मामले को छिपाया और किसी को कुछ नहीं बताया, यहाँ तक कि परमेश्वर को भी नहीं, बल्कि उस दिन का इंतजार करते रहे जब उस अगुआ की बुराइयों से कलीसिया का कार्य पूरा बिगड़ चुका होगा और हर कोई उसे उजागर कर उससे निपट चुका होगा, तब तुम खड़े होकर कहो, “मैं हमेशा से जानता था कि वह अच्छा इंसान नहीं है। कुछ लोग सोचते थे कि वह अच्छा है; अगर मैं कुछ कहता तो कोई भी मुझ पर विश्वास नहीं करता। इसलिए मैं कुछ नहीं बोला। अब जबकि वह कुछ बुरे काम कर चुका है और हर कोई उसकी असलियत जान चुका है तो मैं बता सकता हूँ कि उसके साथ वास्तव में क्या मामला था,” तो क्या यह ईमानदार होना है? (नहीं।) हर बार जब किसी की समस्याएँ उजागर होती हैं या किसी समस्या की सूचना दी जाती है, तब अगर तुम भीड़ का अनुसरण करते हो और उसे उजागर करने या समस्या की सूचना देने में सबसे अंत में खड़े होते हो तो क्या तुम ईमानदार हो? इनमें से कुछ भी ईमानदार होना नहीं है। अगर तुम किसी को नापसंद करते हो या किसी ने तुम्हें नाराज कर दिया है, और तुम जानते हो कि वह कोई बुरा व्यक्ति नहीं है, लेकिन क्षुद्र होने के कारण तुम उससे नफरत करने लगते हो और उससे बदला लेना चाहते हो और उसे शर्मिंदा करना चाहते हो तो हो सकता है कि तुम ऊपरवाले को उसके बारे में कुछ बुरी बातें बताने के तरीके और मौके तलाशने लगो। हो सकता है कि तुम केवल तथ्य बता रहे हो, उस व्यक्ति की निंदा नहीं कर रहे हो, लेकिन वे तथ्य बताते समय तुम्हारी मंशा प्रकट हो चुकी है : तुम उससे निपटने के लिए ऊपरवाले के हाथ का लाभ उठाना चाहते हो या परमेश्वर से कुछ कहलवाना चाहते हो। ऊपरवाले को समस्याओं के बारे में सूचना देकर तुम अपना लक्ष्य साधने का प्रयास कर रहे हो। इसमें निश्चित रूप से व्यक्तिगत इरादों की मिलावट है और यह ईमानदार होना बिल्कुल नहीं है। अगर वह कलीसिया के कार्य में बाधा डालने वाला बुरा व्यक्ति है और तुम उस कार्य की सुरक्षा के लिए ऊपरवाले को सूचना देते हो और उससे भी बढ़कर तुम जिन समस्याओं की सूचना दे रहे हो वे पूरी तरह से तथ्यात्मक हैं तो यह चीजों से निपटने के शैतानी फलसफों से अलग है। यह न्याय और जिम्मेदारी की भावना से उपजता है और यह अपनी वफादारी को अच्छे से निभाना है; ईमानदार होना इसी तरह से अभिव्यक्त होता है।

परमेश्वर उन लोगों को पसंद नहीं करता जो खुशामद और चापलूसी करते हैं या अच्छे लगने वाले शब्द बोलते हैं। तो परमेश्वर को किस प्रकार का व्यक्ति पसंद है? परमेश्वर के अनुसार उसके साथ लोगों को किस तरह से बातचीत और संगति करनी चाहिए? परमेश्वर को ईमानदार लोग पसंद हैं, ऐसे लोग जो उसके प्रति निष्ठावान हों। तुम्हें उसके लहजे और हाव-भाव पर गौर करने या उसकी वाहवाही करने की जरूरत नहीं है; तुम्हें बस ईमानदार होने की जरूरत है, तुम्हारा सच्चा दिल होना चाहिए, तुम्हारे दिल में कोई दुराव-छिपाव या छद्म-वेश नहीं होना चाहिए और तुम्हारा बाहरी रूप तुम्हारे दिल से मेल खाना चाहिए। यानी जब तुम मसीह के साथ पेश आओ और बातचीत करो तो तुम्हें कोई प्रयास करने, कोई “तैयारी” करने या पहले से कुछ करने-धरने की जरूरत नहीं है; इनमें से कुछ भी जरूरी नहीं है। परमेश्वर को ईमानदारी पसंद है : खुले दिल से, सामान्य, स्वाभाविक बातचीत और मेलजोल। भले ही तुम कुछ गलत कह दो या अनुचित शब्दों का प्रयोग कर दो, यह कोई समस्या नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लो कि मैं किसी जगह जाता हूँ और रसोइया पूछता है, “क्या तुम खाने में कोई पाबंदी बरतते हो? तुम कौन-से खाद्य पदार्थ खाते हो और कौन-से नहीं? मैं क्या खाना बनाऊँ?” मैं कहता हूँ : “खाना न अधिक नमकीन हो, न मसालेदार हो, और साथ ही ज्यादा तेल वाला न हो और कोई तला हुआ खाना न हो। ठोस आहार के रूप में चावल या या नूडल्स ठीक रहेंगे।” क्या ये भारी-भरकम निर्देश हैं? (नहीं।) जो भी खाना बनाना जानता है वह इन्हें तुरंत समझ जाएगा, उसे अटकलें लगाने, सोच-विचार करने या किसी से विशेष मार्गदर्शन या स्पष्टीकरण लेने की जरूरत नहीं है। बस अपने अनुभव के अनुसार खाना बनाओ, यह साधारण-सा मामला है। लेकिन भ्रष्ट स्वभाव और स्वार्थ के होने के कारण लोगों के लिए सरल से भी सरल काम करना असंभव हो जाता है। मैं कहता हूँ खाना अधिक तैलीय न हो, फिर भी थोड़ी-सी सब्जी पकाते समय वह एक बड़ा चम्मच तेल डाल देता है, मूलतः वह इन्हें तल ही देता है, जो स्वाद में बहुत तैलीय होता है। मैं कहता हूँ नमक बहुत ज्यादा न हो, और वह बस थोड़ा-सा नमक डालकर इसे लगभग फीका बना देता है। इतना अधिक तेल और इतना फीका होने के कारण इसमें भला क्या स्वाद हो सकता है? रसोइया यह छोटा-सा काम भी ठीक से नहीं कर पाता और यहाँ तक कहता है, “परमेश्वर के इरादों को समझना कठिन है। परमेश्वर का प्रत्येक शब्द सत्य है; इसे अभ्यास में लाना लोगों के लिए कठिन है!” “अभ्यास में लाना कठिन है” का क्या आशय है? ऐसा नहीं है कि इसे अभ्यास में लाना कठिन है, बल्कि बात यह है कि तुम इसका अभ्यास नहीं करते हो। तुम्हारा स्वार्थ बहुत अधिक है; तुम्हारे हमेशा अपने इरादे और व्यक्तिगत मिलावटें होती हैं। तुम चीजों को हमेशा अपनी इच्छानुसार करना चाहते हो, हर चीज को अपनी पसंद के अनुसार करते हो। मैं कहता हूँ : “मसालेदार व्यंजन मत बनाओ। अगर तुम सब लोगों को मसालेदार खाना पसंद है तो मेरे लिए कोई बिना मसालों का व्यंजन बना दो।” लेकिन खाना पकाते समय वह इसे मसालेदार बनाने पर तुला रहता है; वह अपना ढर्रा नहीं बदलता और सोचता है कि यही अच्छा है। मैं कहता हूँ : “मैंने कहा था कि इसे मसालेदार न बनाना। तुमने क्यों नहीं सुना?” “यह व्यंजन मसालेदार ही होना चाहिए। मसालों के बिना इसमें स्वाद नहीं आता, यह बेमजा हो जाता है।” यह कैसा व्यक्ति है? क्या उसके इरादे अच्छे हैं? कुछ लोगों को मांसाहार पसंद है; मैं कहता हूँ, “तुम्हें मांसाहार पसंद है तो अपने लिए भरपूर मांस का व्यंजन बना लो। मेरे लिए कम मांस वाला या केवल सब्जियों का व्यंजन बनाना।” वे तुरंत हामी भर लेते हैं मगर खाना बनाते समय वे मेरा आग्रह नहीं मानते, बर्तन में मांस के बड़े-बड़े टुकड़े ही नहीं, पिसी मिर्च भी डाल देते हैं। मांस में पहले ही भरपूर चिकनाई होती है, और वे इसे पकाते समय तलते भी हैं और सब कुछ अपने तीखे स्वाद के अनुरूप बनाते हैं। अगर मैं उन्हें ऐसा करने से रोकता हूँ तो उन्हें यह गवारा नहीं होता; वे यहाँ तक कह देते हैं : “तुम्हें खुश करना बहुत कठिन है। यह स्वादिष्ट है! बाकी सारे तो इसे खाते हैं, तुम क्यों नहीं खाते? क्या मैंने यह तुम्हारे लिए नहीं बनाया? तुम्हारे लिए थोड़ा ज्यादा भोजन करना अच्छा है, इससे ताकत मिलती है। अगर तुम सेहतमंद रहोगे तो क्या तुम और अधिक उपदेश नहीं दे सकते? मैं तुम्हें ध्यान में रखता हूँ और कलीसिया के सभी भाई-बहनों को भी।” क्या यह व्यक्ति अत्यंत कष्टकारी नहीं है? हर चीज में उसकी प्रबल इच्छाएँ होती हैं, हर चीज में उसकी अपनी राय और विचार होते हैं। उसके पास कोई सत्य होने या न होने की क्या बात की जाए, उसमें बुनियादी मानवता भी नहीं है। क्या यह ईमानदार होना है? (नहीं।) शुरुआत में जब इस व्यक्ति ने मेरी राय पूछी थी तो ऐसा लगा कि वह शालीन है, कि वह अच्छा खाना बना लेता होगा। लेकिन भोजन परोसे जाने के बाद मैंने जान लिया—वह अच्छी तरह से बात करता है, वह मेरे प्रति भला नजर आता है, लेकिन असल में वह सिर्फ स्वार्थी और घिनौना इंसान है।

मैं अक्सर एक ऐसी ही महिला को देखता हूँ; वह स्वाभाविक रूप से चालाक और होशियार है। मुझसे मिलते-जुलते समय अगर मैं अपनी दवा ले रहा होता हूँ तो वह पानी लेकर हाजिर हो जाती है; जब मैं बाहर निकलने वाला होता हूँ, वह तुरंत मेरा थैला ले आती है और बाहर सर्दी देखकर वह मेरे लिए गुलूबंद और दस्ताने भी ले आती है। मैं सोचता हूँ : वह फुर्तीली है लेकिन उसका व्यवहार मुझे इतना अजीब क्यों लगता है? चाहे मैं अंदर जा रहा हूँ या बाहर, जूते-कपड़े या टोपी पहन रहा हूँ, हमेशा कोई मुझसे तेज होता है। तुम लोगों के हिसाब से मेरे मन में क्या भावना होती होगी? मुझे खुश होना चाहिए या परेशान? (परेशान।) क्या तुम लोगों को इस तरह के व्यवहार से खीझ होगी? (बिल्कुल।) अगर तुम लोगों को परेशानी होती है तो क्या तुम्हें लगता है मुझे भी परेशानी होती होगी? (बिल्कुल।) कुछ लोग मेरे लिए यह सब करने के बाद काफी खुश होते हैं और खुद पर गर्व महसूस करते हुए कहते हैं : “जब मैं काम करता था तो मेरा बॉस मुझे पसंद करता था। मैं जहाँ भी जाता हूँ, लोग मुझे पसंद करते हैं क्योंकि मैं तेज दिमाग वाला हूँ।” निहितार्थ यह है कि वे चाटुकारिता, खुशामद और चापलूसी करना जानते हैं; वे बुद्धू, सुस्त या मूर्ख नहीं हैं; वे काम में तेज और तीक्ष्ण बुद्धि वाले हैं, इसलिए वे जहाँ भी जाते हैं उन्हें पसंद किया जाता है। वे कहते हैं कि हर कोई उन्हें पसंद करता है, यानी मुझे भी उन्हें पसंद करना चाहिए। क्या मैं उन्हें पसंद करता हूँ? मैं उनसे पूरी तरह परेशान रहता हूँ! जब कभी मैं ऐसे लोगों को देखता हूँ तो उनसे बचता हूँ। कुछ दूसरे लोग जब यह देखते हैं कि अपराध-जगत के आकाओं और बड़े खलनायकों के अंगरक्षक और चापलूस चाकर किस तरह उनके कार के दरवाजे खोलते हैं और दुनिया के सामने अपने आकाओं के सिर की रक्षा करते हैं तो वे मेरे साथ भी ऐसा ही करते हैं। इससे पहले कि मैं कार में बैठूँ, वे दरवाजा खोलने के लिए लपक पड़ते हैं, फिर अपने हाथों से मेरे सिर को बचाते हैं, वे मेरे साथ वैसे ही पेश आते हैं जैसे अविश्वासी लोग एक लीडिंग कैडर के साथ पेश आते हैं। मुझे इन लोगों से घिन आती है। ये लोग जो सत्य का जरा-सा भी अनुसरण नहीं करते हैं, इनकी मानवता स्वार्थी, घृणित और कुत्सित होती है और इनमें शर्म की कोई भावना नहीं होती है। जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करते हो, रुतबे वाले और प्रसिद्ध लोगों की खुशामद और चापलूसी करते हो और लगातार चाटुकारिता करते हो तो कुछ ईमानदार लोगों को भी यह घृणित लगता है और वे ऐसे लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं। अगर तुम लोग मेरे साथ ऐसे पेश आते हो तो मुझे यह और भी अधिक घृणित लगता है। मेरे साथ कभी भी इस तरह का व्यवहार मत करो; मुझे इसकी जरूरत नहीं है, इससे मुझे घृणा होती है। मुझे तुम्हारी खुशामद, चापलूसी या चाटुकारिता नहीं चाहिए। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे प्रति ईमानदार रहो, जब हम मिलें तो दिल से दिल की बात करें, तुम्हारी समझ, तुम्हारे अनुभवों और तुम्हारी कमियों के बारे में बात करें, इन बातों पर चर्चा करें कि अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम कौन-सी भ्रष्टता प्रकट करते हो और तुम्हें अपने अनुभवों में किन चीजों की कमी नजर आती है। तुम इन सभी चीजों के संबंध में खोज और संगति में जुट सकते हो और तुम उनकी छानबीन भी कर सकते हो। हम चाहे जिस विषय पर संगति या बातचीत करें, तुम्हें ईमानदार होने और इसी प्रकार का दिल और रवैया रखने की जरूरत है। यह मत सोचो कि खुशामद, चाटुकारिता, चापलूसी या वाहवाही करके तुम एक अच्छा प्रभाव छोड़ सकते हो—यह पूरी तरह से बेकार है। इसके विपरीत ऐसे व्यवहार का न केवल कोई लाभ नहीं होता, बल्कि इसके कारण तुम्हें बड़ी शर्मिंदगी भी उठानी पड़ सकती है और तुम्हारी मूर्खता भी उजागर हो सकती है।

जो लोग मसीह के प्रति भी ईमानदार नहीं हो सकते, वे आखिर किस तरह के लोग हैं? यदि तुम दूसरों के प्रति अपने व्यवहार में ईमानदार हो, तो तुम डरते हो कि वे तुम्हारी वास्तविक स्थिति जान सकते हैं और तुम्हें नुकसान पहुँचा सकते हैं, तुम डरते हो कि वे तुम्हें धोखा दे सकते हैं, तुम्हारा शोषण, उपहास या तिरस्कार कर सकते हैं। लेकिन मसीह के प्रति ईमानदार होने में तुम्हें किस बात का डर है? अगर तुम्हारे मन में शंकाएँ हैं, तो यह एक समस्या है। अगर तुम ईमानदार नहीं हो सकते, तो यह भी तुम्हारी समस्या है; यह एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए और परिवर्तन के लिए प्रयास करना चाहिए। अगर तुम वास्तव में विश्वास करते और मानते हो कि तुम्हारे सामने वाला व्यक्ति वही परमेश्वर है जिसमें तुम विश्वास करते हो, वही परमेश्वर है जिसका तुम अनुसरण करते हो तो बेहतर होगा कि तुम उसके साथ खुशामदी, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्दों में बातचीत न करो। बल्कि ईमानदार रहो, अपने दिल की बात कहो और तथ्यात्मक बातें करो। ऐसी बातें मत कहो जो तुम्हारे मनोभावों को छिपाती हैं, न झूठ बोलो न फरेब करो, न ही चालाकी या छल-प्रपंच करो। मसीह के साथ बातचीत करने का यही सबसे अच्छा तरीका है। क्या तुम ऐसा कर सकते हो? कौन-सा सकारात्मक रवैया है : ईमानदार होना या खुशामद और चापलूसी करना? (ईमानदार होना।) ईमानदार होना सकारात्मक है, जबकि खुशामद और चापलूसी करना नकारात्मक है। यदि लोग ईमानदार होने जैसी सकारात्मक चीज हासिल नहीं कर पाते हैं तो यह बताता है कि उनमें एक समस्या है, भ्रष्ट स्वभाव है। क्या मेरी यह अपेक्षा बहुत ज्यादा है? अगर तुम लोग सोचते हो कि यह बहुत ज्यादा है, अगर तुम्हें लगता है कि मैं इस तरह के व्यवहार के लायक नहीं हूँ, इस बात के लायक नहीं हूँ कि तुम लोग मेरे साथ इतने ईमानदार तरीके से और इतने ईमानदार रवैये के साथ बातचीत करो तो क्या तुम लोगों के पास कोई बेहतर तरीका, बेहतर मार्ग है? (नहीं।) तो फिर इस दृष्टिकोण का अभ्यास करो। इस विषय पर अपनी संगति को इसी बिंदु पर समाप्त करते हैं।

ख. जिज्ञासा के साथ जाँच-पड़ताल और विश्लेषण

इसके बाद हम दूसरी मद पर आते हैं—जिज्ञासा के साथ जाँच-पड़ताल और विश्लेषण। क्या यह मद समझने में आसान है? जहाँ तक देहधारी परमेश्वर के कार्यकलापों और वचनों के साथ ही उसके प्रत्येक वचन और कार्य में प्रकट होने वाले व्यक्तित्व और स्वभाव या यहाँ तक कि उसकी प्राथमिकताओं का संबंध है, सामान्य लोगों को इन्हें सही ढंग से समझना चाहिए। जो लोग वास्तव में परमेश्वर और सत्य का अनुसरण करते हैं वे मसीह के इन बाहरी खुलासों को उसकी देह का सामान्य पक्ष मानते हैं। जहाँ तक मसीह के कहे वचनों की बात है, वे उन्हें सत्य मानने के रवैये के साथ सुन और समझ सकते हैं, इन वचनों से परमेश्वर के इरादों को समझ सकते हैं, अभ्यास के सिद्धांतों को समझ सकते हैं और सत्य वास्तविकता में प्रवेश के लिए अभ्यास का मार्ग पा सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी अलग तरह से व्यवहार करते हैं। जब वे मसीह को बोलते और कार्य करते हुए देखते हैं तो उनके दिल में स्वीकृति या समर्पण का भाव नहीं होता, बल्कि जाँच-पड़ताल का भाव होता है : “ये वचन कहाँ से आते हैं? ये कैसे बोले जाते हैं? एक के बाद एक वाक्य—क्या ये पहले से सोचे-समझे हैं या पवित्र आत्मा से प्रेरित हैं? क्या ये वचन पहले से सीखे गए या तैयार किए गए हैं? मैं क्यों नहीं जानता? इनमें से कुछ वचन बिल्कुल सामान्य, बस कोरी बातें लगते हैं। यह परमेश्वर जैसा नहीं लगता; क्या परमेश्वर वास्तव में इतने सामान्य तरीके से, इतने आम तरीके से बोलता है? मैं जाँच-पड़ताल करके इसका पता नहीं लगा सकता, इसलिए मैं देखूँगा कि वह पृष्ठभूमि में क्या करता है। क्या वह अखबार पढ़ता है? क्या उसने कोई प्रसिद्ध पुस्तक पढ़ी है? क्या वह व्याकरण का अध्ययन करता है? वह आमतौर पर किस तरह के लोगों के साथ उठता-बैठता है?” उनमें सत्य के प्रति समर्पण या इसे स्वीकार करने का रवैया नहीं होता, बल्कि वे वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाले या शैक्षिक विषयों को पढ़ने वाले विद्वान के रवैये के साथ मसीह की जाँच-पड़ताल करते हैं। वे मसीह के वचनों की विषयवस्तु और उसके बोलने के तरीके, मसीह के श्रोता वर्ग के साथ ही मसीह के हर बार बोलते समय के रवैये और उद्देश्य की जाँच-पड़ताल करते हैं। जब भी मसीह बोलता या कार्य करता है तो जो कुछ भी उनके कानों तक पहुँचता है, जो कुछ वह देख सकते हैं और जिस किसी चीज के बारे में सुनते हैं, वह सब उनकी जाँच-पड़ताल का विषय बन जाता है। वे मसीह के बोले हर एक वचन और वाक्य, उसके प्रत्येक कार्य, उसके द्वारा संभाले गए प्रत्येक व्यक्ति, उसका लोगों के साथ व्यवहार करने का तरीका, उसकी वाणी और आचरण, उसकी नजर और चेहरे के हाव-भाव, यहाँ तक कि उसके रहन-सहन की आदतों और दिनचर्या और दूसरों के साथ बातचीत के तरीके और उनके प्रति रवैये—इन सभी की वे जाँच-पड़ताल करते हैं। इस जाँच-पड़ताल के जरिये मसीह-विरोधी यह निष्कर्ष निकालते हैं : मैं मसीह पर जैसे भी गौर करता हूँ, वह सामान्य मानवता वाला ही लगता है; वह बिल्कुल मामूली है, सत्य व्यक्त करने की क्षमता के अलावा उसके पास कुछ भी ज्यादा खास नहीं है। क्या यह सचमुच देहधारी परमेश्वर हो सकता है? वे चाहे कितनी ही जाँच-पड़ताल कर लें, वे एक निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते; वे चाहे कितनी ही जाँच-पड़ताल कर लें, वे यह सुनिश्चित नहीं कर सकते कि क्या मसीह ही वह परमेश्वर है जिसे वे अपने दिलों में स्वीकार करते हैं। ये वो लोग हैं जो मसीह की जाँच-पड़ताल करते हैं, वो नहीं जो परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं—तो वे परमेश्वर का ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

मसीह की जाँच-पड़ताल करते हुए मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर की शान को देखने में असमर्थ रहते हैं, वे परमेश्वर की धार्मिकता, सर्वशक्तिमत्ता और अधिकारिता को देखने में असमर्थ रहते हैं। वे चाहे कैसे भी जाँच-पड़ताल कर लें, वे इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि मसीह के पास परमेश्वर का सार है; वे इसकी असलियत जानने और समझने में असमर्थ हैं। कुछ लोग कहते हैं : “जहाँ तुम असलियत जान नहीं सकते या समझ नहीं सकते, वहाँ खोजने के लिए सत्य होता है।” जिस पर एक मसीह-विरोधी उत्तर देगा : “मुझे यहाँ खोजने योग्य कोई सत्य नहीं दिखता; यहाँ तो बस संदिग्ध ब्योरे हैं जिनकी गहराई से जाँच-पड़ताल की जानी चाहिए।” वे जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करने के बाद निष्कर्ष निकालते हैं : यह मसीह केवल कुछ वचन बोल सकता है और इसके अलावा उसमें आम लोगों से अलग कुछ भी नहीं है। उसके पास विशेष खूबियों का अभाव है, उसमें कोई विलक्षण क्षमताएँ नहीं हैं और उसके पास तो यीशु की तरह संकेत और चमत्कार दिखाने की अलौकिक शक्तियाँ भी नहीं हैं। वह जो कुछ भी कहता है वे एक नश्वर व्यक्ति के शब्द हैं। तो क्या वह सचमुच मसीह है? इस नतीजे को और आगे विश्लेषण और जाँच-पड़ताल का इंतजार है। चाहे वे कैसे भी देखें, वे मसीह में परमेश्वर का सार नहीं देख सकते हैं; वे चाहे जैसे जाँच-पड़ताल करते हों, वे यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि मसीह के पास परमेश्वर की पहचान है। एक मसीह-विरोधी की नजर से देखें तो परमेश्वर जिस देह में देहधारण करता है उसमें असाधारण शक्तियाँ, विशेष खूबियाँ, चमत्कार दिखाने की क्षमता और परमेश्वर के अधिकार को प्रकट करने और अमल में लाने का सार और क्षमता होनी चाहिए। लेकिन उनके सामने उपस्थित इस सामान्य व्यक्ति में इन सभी गुणों का अभाव है, उसकी वाणी में बहुत अधिक वाक्पटुता नहीं है; बहुत-सी चीजें बताते वक्त भी वह आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करता है जो मानवीय धारणाओं से मेल नहीं खाती और यहाँ तक कि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के स्तर तक भी नहीं पहुँचती है। मसीह-विरोधी लोग मसीह की भाषा की जाँच-पड़ताल चाहे जैसे करते हों, वे मसीह के कार्यकलापों के साथ ही उसके कार्य करने के रवैये और तरीके की चाहे जैसे जाँच-पड़ताल करते हों, वे यह नहीं देख सकते कि मसीह में—इस साधारण व्यक्ति में—परमेश्वर का सार है। इसलिए मसीह-विरोधियों के दिल में जो बात इस साधारण व्यक्ति को अनुसरण के सर्वाधिक योग्य बनाती है, वे कई ऐसी चीजें, शब्द और परिघटनाएँ हैं जिनकी असलियत वे जान नहीं सकते—यही उनकी जाँच-पड़ताल और विश्लेषण के योग्य होता है, यही इस व्यक्ति के अनुसरण के लिए उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा है। कौन-सी विषयवस्तु और कौन-से विषय उनकी जाँच-पड़ताल और विश्लेषण के लायक हैं? वे यही वचन हैं जो मसीह ने जीवन प्रवेश के संबंध में कहे हैं; साधारण लोग सचमुच ऐसी बातें नहीं कह सकते, वास्तव में उनके पास ये होते ही नहीं हैं और वाकई ऐसे शब्द मानवजाति के किसी दूसरे व्यक्ति के पास नहीं पाए जाते हैं—वे कहाँ से आते हैं यह अज्ञात है। मसीह-विरोधी बार-बार जाँच-पड़ताल करते हैं लेकिन इस बारे में कभी भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते हैं। उदाहरण के लिए, जब मैं इस बारे में बोलता हूँ कि कोई व्यक्ति कैसा है, उसका सार और स्वभाव क्या है तो साधारण लोग बहुत ही सावधानीपूर्वक इन विवरणों का मिलान वास्तविक व्यक्ति से कर मामले की पुष्टि करेंगे। जब मसीह-विरोधी इन वचनों को सुनते हैं तो वे मामले से मिलान करने और इसे समझने के लिए स्वीकृति का रवैया नहीं अपनाते, बल्कि विश्लेषण करने का रवैया अपनाते हैं। वे क्या विश्लेषण करते हैं? “तुम इस व्यक्ति की स्थिति के बारे में कैसे जानते हो? तुम कैसे जानते हो कि उसका स्वभाव ऐसा है? इसे परिभाषित करने का तुम्हारा आधार क्या है? तुम्हारा उसके साथ खास संपर्क नहीं रहा, इसलिए तुम उसे कैसे समझते हो? हम लंबे समय से उसके संपर्क में रहे हैं तो हम उसकी असलियत क्यों नहीं जान पाते या उसे क्यों नहीं समझ पाते हैं? मुझे तुम्हारे वचनों पर यकीन करने की बजाय खुद निरीक्षण करने की जरूरत है। तुम जो कहते हो, हो सकता है कि वह सटीक या सही न हो।” कुछ लोगों के साथ बातचीत के दौरान मैं उन्हें किसी काम या पेशे में मार्गदर्शन दे सकता हूँ। यदि इस मार्गदर्शन का ढंग और तरीका उनके तकनीकी ज्ञान से मेल खाता है और उन्हें संतुष्ट करता है तो वे अनिच्छा से इस पर अमल करेंगे। लेकिन वे अगर इससे संतुष्ट नहीं होते तो अपने दिल में इसका प्रतिरोध कर सोचेंगे, “तुम इसे इस तरीके से क्यों करते हो? क्या यह इस क्षेत्र के विपरीत नहीं है? मैं तुम्हें क्यों सुनूँ? अगर तुम जो कहते हो वह गलत है तो मैं तुम्हारी बात नहीं सुन सकता; मुझे अपने रास्ते पर चलना है। यदि तुम सही हो, तो मुझे यह समझने की जरूरत है कि तुम कैसे सही हो, तुम्हें यह कैसे पता चला। क्या तुमने इसका अध्ययन किया? यदि तुमने अध्ययन नहीं किया तो तुम इसे जान ही कैसे सकते हो? यदि तुमने इसका अध्ययन नहीं किया, तुम्हें इसकी समझ नहीं होनी चाहिए; यदि तुम इसे समझते हो तो यह असामान्य बात है। तुम इसे कैसे समझते हो? तुम्हें किसने बताया या क्या तुमने इसे गुपचुप तरीके से खुद ही सीख लिया?” वे आंतरिक रूप से विश्लेषण और जाँच-पड़ताल करते हैं। मैं जो भी वाक्य बोलता हूँ, जो भी मामला संभालता हूँ, उसे मसीह-विरोधियों की छलनी से गुजरना होगा, उनकी संपरीक्षा से गुजरना होगा। यदि यह उनकी संपरीक्षा में खरा उतरता है तभी वे इसे स्वीकार करेंगे; अगर ऐसा नहीं होता, तो वे आलोचना करेंगे, राय बनाएँगे और प्रतिरोध पैदा करेंगे।

परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है, वह सभी लोगों के लिए सबसे बड़ा रहस्य बनी हुई है। कोई भी यह नहीं समझ-बूझ सकता कि इस संबंध में वास्तव में क्या हो रहा है, न ही कोई यह समझ सकता है कि इस देह में परमेश्वर का सार कैसे साकार होता है—परमेश्वर कैसे एक इंसान बन गया, यह व्यक्ति कैसे परमेश्वर के मुँह से वचन बोल सकता है और कैसे परमेश्वर का कार्य कर सकता है, और वास्तव में कैसे परमेश्वर का आत्मा इस व्यक्ति को मार्गदर्शन और निर्देश देता है। इस सारे कार्य में लोगों ने न तो भव्य दर्शन देखे हैं, न ही इस देह से कोई महत्वपूर्ण हलचल देखी है—ऐसा प्रतीत नहीं होता कि इसमें कुछ भी विशेष हो रहा है; सभी कुछ सामान्य लगता है। नजर में आए बिना ही परमेश्वर इस्राएल में जो महिमा थी, उसे पूरब में ले आया है। इस व्यक्ति के बोलने और कार्य करने से इस तरह एक नया युग शुरू हो गया है और पुराना समाप्त हो गया, बिना किसी को पता चले कि यह कैसे हो गया। लेकिन जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, जो सरल और खुले-दिल के हैं, जिनमें मानवता और विवेक है, वे इन मामलों की जाँच-पड़ताल नहीं करते हैं। अगर वे जाँच-पड़ताल नहीं करते हैं तो वे क्या करते हैं? क्या केवल निष्क्रियता से इंतजार करते हैं? नहीं—वे देखते हैं कि ये वचन सत्य हैं, वे विश्वास करते हैं कि इन सभी वचनों का स्रोत परमेश्वर है और इस तरह इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि यह साधारण व्यक्ति मसीह है, बिना कुछ और विचार किए उसे अपना प्रभु और परमेश्वर स्वीकार करते हैं। दूसरी तरफ, मसीह-विरोधी यह नहीं देख सकते कि ये सभी वचन और ये सभी कार्य परमेश्वर से आते हैं, कि इस सारी कथनी और करनी का स्रोत परमेश्वर है, इसलिए वे इस साधारण व्यक्ति को अपने प्रभु और परमेश्वर के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। इसके बजाय, वे अपनी जाँच-पड़ताल तेज कर देते हैं और अपने दिलों में उसका प्रतिरोध करते हैं। वे क्या प्रतिरोध करते हैं? “तुम चाहे कितना ही बोल लो, तुम चाहे कितना ही महान कार्य कर लो, तुम्हारा स्रोत चाहे जो हो, जब तक तुम एक साधारण व्यक्ति हो, जब तक तुम्हारे बोलने का तरीका मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं होता है, जब तक तुम्हारी उपस्थिति इतनी भव्य न हो कि मुझे आकर्षक लगे और मेरा सम्मान अर्जित करे, तब तक मैं तुम्हारी जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करूँगा। तुम मेरी जाँच-पड़ताल का विषय हो; मैं तुम्हें अपना प्रभु, अपना परमेश्वर स्वीकार नहीं कर सकता हूँ।” इस जाँच-पड़ताल और विश्लेषण की प्रक्रिया में मसीह विरोधी न केवल अपनी धारणाओं, विद्रोहीपन और भ्रष्ट स्वभावों को हल करने में विफल रहते हैं, बल्कि उनकी धारणाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती हैं और अधिक गंभीर होती जाती हैं। उदाहरण के लिए, जब कलीसिया में गड़बड़ी करते हुए और बाधाएँ उत्पन्न करते हुए कोई अगुआ एक मसीह-विरोधी के रूप में बेनकाब होता है तो ऐसी घटना घटने पर मसीह-विरोधियों की पहली प्रतिक्रिया यह होती है : “क्या मसीह इसके बारे में जानता है? इस कलीसिया के अगुआ को किसने नियुक्त किया? इस बारे में मसीह की क्या प्रतिक्रिया है? वह इसे कैसे संभाल रहा है? क्या मसीह इस व्यक्ति को जानता है? क्या मसीह ने पहले कभी कहा कि यह व्यक्ति एक मसीह-विरोधी है या इस घटना की भविष्यवाणी की? अब जब इस कलीसिया में इतना बड़ा मुद्दा उठ गया है तो क्या मसीह को सबसे पहले पता चला?” मैं कहता हूँ कि मैं नहीं जानता था, मुझे भी इसके बारे में अभी पता चला है। “यह ठीक नहीं है—तुम परमेश्वर हो, तुम मसीह हो; तुम क्यों नहीं जानते थे? तुम्हें जानना चाहिए था।” इसका कारण वास्तव में यह है कि मैं मसीह हूँ, एक साधारण व्यक्ति हूँ, इसलिए मुझे जानने की जरूरत नहीं है। लोगों को संभालने के लिए कलीसिया के अपने प्रशासनिक आदेश और सिद्धांत हैं। जब मसीह-विरोधी सामने आते हैं तो उन्हें कलीसिया के सिद्धांतों के अनुसार हटाया और निष्कासित किया जा सकता है। यह दर्शाता है कि परमेश्वर में सामर्थ्य है, यह दर्शाता है कि सत्य में सामर्थ्य है। मुझे सब कुछ जानने की जरूरत नहीं है। अगर कलीसिया लोगों को संभालने के अपने प्रशासनिक आदेशों और सिद्धांतों के अनुसार मामले निपटाने में विफल रहती है, तब मैं दखल दूँगा। अगर भाई-बहन लोगों को हटाने या निष्कासित करने के बारे में परमेश्वर के घर के सिद्धांतों को समझते हैं तो मुझे इसमें शामिल होने की जरूरत नहीं है। जहाँ सत्य की सत्ता चलती हो वहाँ मुझे दखल देने की जरूरत नहीं है। क्या यह बहुत सामान्य नहीं है? (हाँ।) लेकिन मसीह-विरोधी इस मामले में मुद्दा बना सकते हैं और धारणाएँ विकसित कर सकते हैं, यहाँ तक कि इन धारणाओं का इस्तेमाल मसीह को नकारने और इस तथ्य की निंदा करने के लिए कर सकते हैं कि मसीह के पास परमेश्वर का सार है। मसीह-विरोधी बिल्कुल यही करते हैं। चूँकि कोई चीज उनकी धारणाओं, कल्पनाओं या अपेक्षाओं से मेल नहीं खाती, इसलिए वे मसीह के सार को नकार सकते हैं। मसीह के हर एक पहलू की उनकी जाँच-पड़ताल इस निष्कर्ष पर पहुँचती है : वे मसीह में परमेश्वर का सार नहीं देखते हैं; इस प्रकार वे इस व्यक्ति को परमेश्वर के सार और पहचान वाले व्यक्ति के रूप में परिभाषित नहीं कर सकते हैं। यह एक ऐसी स्थिति की ओर ले जाता है जहाँ जब कुछ नहीं होता है तो यह ठीक होता है, लेकिन जैसे ही कुछ होता है तो मसीह-विरोधी सबसे पहले सामने कूदकर मसीह की पहचान को नकारते हैं और मसीह की निंदा करते हैं। तो फिर मसीह-विरोधियों का जाँच-पड़ताल करने का उद्देश्य क्या है? इस जाँच-पड़ताल और विश्लेषण का उद्देश्य सत्य को बेहतर ढंग से समझना नहीं है, बल्कि साक्ष्य खोजने और लाभ उठाने के लिए है, देह में परमेश्वर के देहधारण करने के तथ्य को नकारना है, इस तथ्य को नकारना है कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है वह मसीह है, परमेश्वर है। मसीह-विरोधियों द्वारा मसीह की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करने के पीछे यही उद्देश्य और लक्ष्य है।

मसीह का अनुसरण करते हुए और उसके अनुयायी होने का दिखावा करते हुए मसीह-विरोधियों का जाँच-पड़ताल और विश्लेषण का रवैया होता है और वे अंततः सत्य समझने या इस तथ्य का पता लगाने में असफल होते हैं कि मसीह प्रभु है, परमेश्वर है। लेकिन वे अभी भी इतनी बेदिली से, इतनी अनिच्छा से अनुसरण क्यों करते हैं और क्यों परमेश्वर के घर में रहते हैं? एक बिंदु जिस पर हमने पहले चर्चा की है यह है कि वे आशीष पाने का इरादा पालते हैं; वे महत्वाकांक्षी हैं। दूसरा बिंदु यह है कि मसीह-विरोधियों में एक ऐसी जिज्ञासा होती है जो साधारण लोगों में नहीं पाई जाती। किस तरह की जिज्ञासा? यह अजूबी और असामान्य घटनाओं के प्रति उनका आकर्षण है। मसीह-विरोधी संसार में होने वाली सभी अजूबी और असामान्य घटनाओं, प्रकृति के नियमों से परे होने वाली सभी घटनाओं के बारे में विशेष रूप से उत्सुक रहते हैं। उनमें कई चीजों को गहराई से जानने और उनकी तह तक जाने की चाहत होती है। इस जाँच का सार क्या है? यह सरासर अहंकार है, वे सब चीजों को समझना चाहते हैं, सभी चीजों के पीछे का सत्य जानना चाहते हैं, ताकि वे अक्षम न दिखें। मामला चाहे जो भी हो, वे हर मामले के बारे में पूरा विवरण सबसे पहले जानना चाहते हैं, सबसे अधिक अवगत रहना और सबसे ज्यादा जानकार होना चाहते हैं—वे हर पहलू में “अव्वल” रहना चाहते हैं। इसलिए वे देह में परमेश्वर के देहधारण के मामले की अनदेखी नहीं करते या इसे चूकते नहीं हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर का देहधारण करना मानव जगत में सबसे बड़ा रहस्य है। इस महानतम रहस्य, इस सर्वाधिक अद्भुत चीज में आखिर चल क्या रहा है? चूँकि यह साधारण अपेक्षाओं से बढ़कर है और यह देह साधारण मनुष्यों से अलग है, तो अंतर कहाँ है? मुझे स्वयं देखना और समझना होगा।” जब वे कहते हैं कि “स्वयं देखेंगे और समझेंगे” तो उनका क्या मतलब होता है? उनका मतलब है, “मैंने दुनिया के विभिन्न देशों की यात्रा की है, प्रसिद्ध पर्वतों और ऐतिहासिक स्थलों पर गया हूँ, मशहूर और बुद्धिमान लोगों का साक्षात्कार लिया है; वे सब बिल्कुल साधारण लोग हैं। एकमात्र ऐसा व्यक्ति जिससे मैं नहीं मिला हूँ या उससे सीखा नहीं है, वह यही मसीह है। इस मसीह का सार वास्तव में क्या है? मुझे स्वयं देखना और समझना होगा।” वे वास्तव में क्या देखना और समझना चाहते हैं? “मैंने सुना है कि परमेश्वर संकेत और चमत्कार दिखा सकता है। कहा जाता है, यीशु प्रभु है, मसीह है; लोगों की जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिए उसने कौन से संकेत और चमत्कार दिखाए? मुझे एक घटना याद है, जब प्रभु यीशु ने एक अंजीर के पेड़ को श्राप दिया तो वह मुरझा गया था। क्या यह मसीह अब वैसा ही कर सकता है? मुझे अवश्य ही देखना और समझना चाहिए, और अगर मुझे मौका मिले तो मसीह को परखना चाहिए कि क्या वह ऐसे कार्य कर सकता है। कहा जाता है कि देहधारी परमेश्वर के पास परमेश्वर का अधिकार है, जो पंगुओं को चलने में, अंधों को देखने में, बहरों को सुनने में और बीमारों को चंगा करने में सक्षम बनाता है। ये चमत्कारी और अद्भुत घटनाएँ हैं; मानव जगत में इन्हें असाधारण क्षमताएँ माना जाता है जो साधारण लोगों के पास नहीं होती हैं। यह कुछ ऐसा है जिसे मुझे स्वयं देखना होगा।” इसके अलावा एक और, सबसे महत्वपूर्ण मामला है जो उनके दिमाग में छाया रहता है। वे कहते हैं : “अतीत और वर्तमान जीवन और इस मानव संसार में पुनर्जन्म के चक्र में वास्तव में क्या होता है? साधारण लोग इसे स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकते। चूँकि परमेश्वर देहधारी हो गया है और परमेश्वर हर चीज पर शासन करता है, तो क्या मसीह इसके बारे में जानता है? जब भी मौका मिलेगा, मैं उससे इस मामले के बारे में अवश्य पूछूँगा और जाँच करूँगा; मैं उससे अपने रूप की जाँच करवाऊँगा और देखूँगा कि क्या मेरा भाग्य अच्छा है, मैं अपने पिछले जीवन में क्या था, क्या मैं जानवर था या इंसान था। अगर वह ये बातें जानता है, तो मैं प्रभावित हो जाऊँगा; इससे वह असाधारण बन जाएगा, जो साधारण लोगों से परे और संभवतः मसीह होगा। वे यह भी कहते हैं कि स्वर्ग में परमेश्वर का सिंहासन और निवास स्थान है, तो क्या यह देहधारी परमेश्वर जानता है कि परमेश्वर का निवास और स्वर्ग का राज्य कहाँ है? ऐसा कहा जाता है कि स्वर्ग के राज्य की सड़कें सोने से मढ़ी हुई, दीप्तिमान और भव्य हैं; अगर यह देहधारी परमेश्वर हमें वहाँ सैर कराने ले जा सके, तो क्या हमारा पूरा जीवन सार्थक नहीं होगा, हमारा विश्वास व्यर्थ नहीं जाएगा? यही नहीं, हमें खेती करने की जरूरत नहीं होगी; भूख लगने पर मसीह एक वाक्य में पत्थरों को भोजन में बदल सकता है। पाँच रोटियों और दो मछलियों से उसने हजारों लोगों का पेट भरा था; क्या यह हमारे लिए बहुत बड़ा लाभ नहीं होगा? और जब मसीह बोलता है तो उसके बारे में क्या? कहा जाता है कि मसीह जीवंत जल देता है, लेकिन यह जीवंत जल कहाँ है? इसकी आपूर्ति कैसे होती है, यह कैसे बहता है? ये सभी खोजे जाने लायक मामले हैं, हर एक बिल्कुल अद्भुत है। अगर मैं इनमें से एक को भी अपनी आँखों से देख सकूँ तो मैं इस जीवनकाल में एक साधारण व्यक्ति नहीं रहूँगा, बल्कि एक अंतर्दृष्टियुक्त व्यक्ति बन जाऊँगा।” क्या यह जिज्ञासा उन पर हावी नहीं हो रही है? (बिल्कुल।)

कुछ लोग सत्य प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि मन में अन्य विचार लेकर परमेश्वर में विश्वास करने, मसीह को स्वीकार करने और मसीह का अनुसरण करने आते हैं। कुछ लोग मुझसे मिलते ही पूछते हैं, “प्रकाशितवाक्य में सात महाविनाशों और सात कटोरों का क्या मतलब है? सफेद घोड़ा क्या दर्शाता है? क्या साढ़े तीन साल की विपत्ति अभी आ गई है?” मैं कहता हूँ, “तुम किस बारे में पूछ रहे हो? प्रकाशितवाक्य क्या है?” वे प्रत्युत्तर देते हैं, “तुम प्रकाशितवाक्य के बारे में भी नहीं जानते? कहते हैं कि तुम परमेश्वर हो, लेकिन मैं उतना निश्चित नहीं हूँ।” अन्य लोग पूछते हैं, “सुसमाचार फैलाने के दौरान हमारा सामना रहस्यमय मामलों के बारे में पूछने वाले लोगों से होता। हमें क्या करना चाहिए?” मैं उनकी बात खत्म होने का इंतजार न कर कहता हूँ, “जो भी व्यक्ति सत्य खोजने के बजाय हमेशा रहस्यों के बारे में पूछता है, वह सत्य को स्वीकार करने वाला व्यक्ति नहीं होता; ऐसे लोगों को भविष्य में बचाया नहीं जा सकता। जो हमेशा रहस्यों की तलाश में रहते हैं, वे किसी काम के नहीं हैं; ऐसे लोगों में सुसमाचार प्रसार मत करो।” मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? आखिरकार ये सवाल कौन पूछ रहा है? यह कोई और नहीं है; यह वे स्वयं हैं। वे इन प्रश्नों को पूछना चाहते हैं और उनका उत्तर जानना चाहते हैं, और वे सोचते हैं कि मुझे नहीं पता कि कौन पूछ रहा है, मानो मैं उनकी असलियत ही नहीं जानता! मेरे यह कहने के बाद वे इसे सुनते हैं और सोचते हैं, “परमेश्वर ने कहा है कि मैं किसी काम का नहीं हूँ, इसलिए मैं अब और नहीं पूछूँगा।” मेरा तरीका कैसा रहा? क्या इसने उनकी बोलती बंद नहीं करा दी? अगर मैं उन्हें उत्तर दे देता तो क्या यह उनकी चाल में फँसना नहीं होता? तब वे उँगली पकड़ने की छूट मिलने पर कलाई पकड़ना चाहेंगे और अंतहीन सवाल पूछेंगे। क्या उन्हें ये बातें समझाना मेरा दायित्व है? यह जानकर तुम करोगे भी क्या? अगर मुझे पता भी हो तो भी मैं तुम्हें नहीं बताऊँगा। मुझे तुम्हें यह क्यों बताना चाहिए? क्या मैं धर्मग्रंथों का व्याख्याता हूँ? क्या तुम यहाँ धर्मशास्त्रीय अध्ययन के लिए आए हो? तुम मेरी जाँच-पड़ताल के लिए आते हो, और क्या मुझे जाँच-पड़ताल के लिए अपना दिल खोलकर रख देना चाहिए? क्या यह उचित है? तुम मुझे परखने के लिए आते हो, तो क्या मुझे खुद को परखने देना चाहिए? क्या यह उचित है? तुम यहाँ सत्य स्वीकार करने के लिए नहीं आए हो; तुम शत्रुता, संदेह और पूछताछ का रवैया लेकर प्रश्न पूछने आए हो। मैं यथासंभव तुम्हें उत्तर नहीं दूँगा। कुछ लोग कहते हैं, “क्या किसी प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक नहीं है?” यह उस मामले पर निर्भर करता है। जब सत्य और कलीसिया के कार्य की बात हो तो मुझे भी स्थिति पर विचार करना पड़ता है। अगर मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ और तुम अभी भी न जानने का ढोंग करते हो, विनम्रता से पूछने का दिखावा करते हो, तो मैं तुम्हें उत्तर नहीं दूँगा। मैं तुम्हारी काट-छाँट करूँगा और उसके बाद तुम समझ जाओगे। मसीह-विरोधी किस प्रकार मसीह की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हैं और मसीह और परमेश्वर के सार के बारे में उनकी जिज्ञासा के परिप्रेक्ष्य से, मसीह-विरोधी वास्तव में क्या जाँच-पड़ताल कर रहे हैं? वे सत्य की जाँच-पड़ताल कर रहे हैं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसे वे जाँच-पड़ताल और विश्लेषण का विषय मानते हैं और इसे समय बिताने का तरीका बना लेते हैं। वे परमेश्वर का अनुसरण इस तरह करते हैं, मानो वे ज्ञान के एक क्षेत्र या विषय का अध्ययन करने वाले विद्वान हों, ठीक उसी तरह जैसे धर्मशास्त्रीय विद्यालय में पढ़ने वाले छद्म-विश्वासी होते हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर से प्रबोधन पा सकते हैं? क्या वे सत्य कोसमझ सकते हैं? (नहीं।)

कलीसिया में कुछ ऐसे काम हैं जिनका पहले कभी सामना नहीं किया गया है और इनमें कुछ का संबंध पेशेवर कार्य से है। जब मैं ऐसे कार्य में मार्गदर्शन देता हूँ तो कुछ लोग ईमानदारी और नम्रता से सुनते हैं, उन कर्तव्यों को निभाने में जिन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए उन्हें समझते हैं, और उस सत्य वास्तविकता को समझते हैं जिसका अभ्यास और जिसमें प्रवेश किया जाना चाहिए। लेकिन कुछ लोग मन-ही-मन में जाँच-पड़ताल करते हुए अपने दिमाग मथ डालते हैं; वे सोचते हैं, “तुमने इन विषयों का अध्ययन नहीं किया है। इसके अलावा, क्या तुम वास्तव में इतने अधिक विषय सीख सकते हो? कौन सब कुछ समझ और जान सकता है? तुम किस आधार पर हमारा मार्गदर्शन करते हो? हमें तुम्हारी बात क्यों सुननी चाहिए? भले ही कभी-कभी हमारा मार्गदर्शन करते वक्त तुम जो कहते हो वह वास्तव में समझ में आता है, तुम इसे कैसे जानते हो? अगर मैं किसी चीज का अध्ययन नहीं करता तो मुझे उसके बारे में पता नहीं चलेगा। मुझे चिंतन-मनन करने, अधिक सीखने का प्रयास करने, अधिक देखने, अधिक सुनने और उस मुकाम तक पहुँचने का प्रयास करने की जरूरत होती है जहाँ मुझे तुम्हारे मार्गदर्शन की जरूरत न हो और मैं इसे स्वयं कर सकूँ। लगता है कि तुम भी कार्य करते-करते सीख रहे हो, धीरे-धीरे इसमें महारत हासिल कर रहे हो।” वे केवल बाहरी आकार-प्रकार देखते हैं, वे यह नहीं देखते कि एक लिहाज से यह व्यक्ति चाहे जो कुछ कहता या करता है, उसके पीछे कुछ सिद्धांत हैं—चाहे जिस किसी कार्य में मार्गदर्शन दिया जा रहा हो, यह सिद्धांत के अनुसार दिया जा रहा है, और यह सिद्धांत लोगों की असली जरूरतों और असली कार्य के वांछित नतीजों से संबंधित है। दूसरे लिहाज से, और यह सबसे महत्वपूर्ण बात है, इस व्यक्ति ने कुछ भी नहीं सीखा है; उसका ज्ञान, सीख, अंतर्दृष्टि और अनुभव उल्लेखनीय नहीं हैं। लेकिन लोगों को एक बात नहीं भूलनी चाहिए : भले ही उसकी अंतर्दृष्टि, ज्ञान, अनुभव और विशेषज्ञता समृद्ध या उल्लेखनीय हों या न हों, वर्तमान कार्य करने के लिए जिम्मेदार स्रोत यह बाहरी देह नहीं है, बल्कि इस देह का सार—यानी स्वयं परमेश्वर है। इसलिए अगर तुम इस देह के आकार-प्रकार—उसकी लंबाई और रूप-रंग, उसके लहजे, स्वर और बोलने के तरीके के आधार पर आकलन करते हो—तो तुम यह समझाने और थाह लेने में सक्षम नहीं होगे कि वह इन कार्यों को क्यों कर सकता है और इनमें सक्षम हो सकता है, तुम यह असलियत नहीं समझ पाओगे। क्या इसकी असलियत न समझ पाने का मतलब यह है कि यह एक हल न हो सकने वाला मामला है? नहीं, इसे हल किया जा सकता है। तुम्हें इसकी असलियत समझने की जरूरत नहीं है; तुम्हें बस एक बात जानने, याद रखने और मानने की जरूरत है : मसीह वह देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। मसीह के प्रति लोगों के जो सिद्धांत, रुख और रवैया होने चाहिए वे जाँच-पड़ताल, विश्लेषण या उनकी जिज्ञासा शांत करना नहीं हैं, बल्कि आभार जताना, स्वीकार करना, सुनना और समर्पित करना है। अगर तुम जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हो तो क्या उससे अंततः तुम परमेश्वर का सार समझ जाओगे? नहीं समझ पाओगे। परमेश्वर किसी को भी उसका विश्लेषण करने या जाँच-पड़ताल करने की अनुमति नहीं देता है; जितना अधिक तुम जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हो, उतना ही अधिक परमेश्वर तुमसे छिपेगा। जब परमेश्वर छिपता है तो लोग क्या महसूस करते हैं? यही कि उनके दिल में परमेश्वर की अवधारणा अस्पष्ट हो जाती है, सत्य की उनकी अवधारणा अस्पष्ट हो जाती है और जिस मार्ग का उन्हें अनुसरण करना चाहिए उससे जुड़ी हर चीज धुंधला जाती है। यह ऐसी ही बात है जैसे कोई दीवार तुम्हारी दृष्टि को अवरुद्ध कर रही हो; तुम आगे कोई दिशा नहीं देख सकते, सब कुछ धुंधला है। परमेश्वर कहाँ है? परमेश्वर कौन है? क्या परमेश्वर का अस्तित्व वास्तव में है? ये प्रश्न तुम्हारे सामने खड़ी काली दीवार के समान हैं, जिसका मतलब है कि परमेश्वर अपना चेहरा तुमसे छिपा रहा है, ऐसा इसलिए कर रहा है कि तुम उसे देख न सको। ये सभी दृश्य तुम्हारे लिए अस्पष्ट हो जाते हैं, वे गायब हो जाते हैं और अंधियारा तुम्हारे दिल में भर जाता है। जब तुम्हारा दिल अंधकारमय हो जाता है तो क्या अभी भी तुम्हारे पास आगे का रास्ता होता है? क्या तुम अभी भी जानते हो कि क्या करना है? तुम नहीं जानते। तुम्हारी मूल दिशा और लक्ष्य चाहे कितने ही स्पष्ट रहे हों, जब तुम परमेश्वर की जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते हो, तो वे अस्पष्ट और अंधकारमय हो जाएँगे। जब लोग ऐसी स्थिति में, ऐसी दशा में पड़ते हैं, तो वे खतरे में होते हैं; यह उन लोगों के लिए होता है जो परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। मसीह-विरोधी हमेशा ऐसी स्थिति में होते हैं, जब उनके सामने घुप्प अँधेरा होता है तो वे यह पहचान नहीं पाते कि सकारात्मक चीजें क्या हैं, सत्य क्या है। परमेश्वर चाहे कुछ भी कर ले, वे यह पुष्टि नहीं कर पाते कि यह वास्तव में परमेश्वर है, कि यह स्वयं परमेश्वर है; वे चाहे जैसे भी देख लें, वे देहधारी को केवल एक व्यक्ति की तरह देखते हैं, क्योंकि वे हमेशा जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करते रहते हैं, इसलिए परमेश्वर भी उन्हें अंधा करना जारी रखता है। तुम देखते हो कि उनकी आँखें खुली, चमकदार और बड़ी हैं, फिर भी वे अंधे ही हैं। जब परमेश्वर लोगों से अपना चेहरा छिपा लेता है, तो ऐसा लगता है कि उनके दिल निष्ठुर हो गए हैं, पूरी तरह अँधेरे में डूब गए हैं। वे केवल सतही घटनाओं को देखते हैं, भीतर के मार्ग को नहीं देख पाते, अंतर्निहित सत्य को नहीं समझ पाते—यही नहीं, वे परमेश्वर के सार या उसके स्वभाव को नहीं देख पाते हैं।

परमेश्वर के प्रकटन और कार्य को जाँच-पड़ताल और विश्लेषण का विषय बनाने से कोई नतीजा नहीं निकलेगा। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि विश्लेषण और जाँच-पड़ताल की स्थिति में न पड़ें; यह नकारात्मकता का मार्ग है। तो फिर सकारात्मक मार्ग क्या है? वह यही है कि जब एक बार तुम दृढ़ता से विश्वास करते हो कि यह परमेश्वर का कार्य है, कि यह साधारण व्यक्ति ही वह देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है और इसमें परमेश्वर का सार है, तो तुम्हें बिना शर्त इसे स्वीकार लेना और उसके प्रति समर्पण कर देना चाहिए। लोगों को लगता है कि इस देह में कई पहलू अप्रिय हैं, कई पहलू मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के विपरीत हैं; यह लोगों की एक समस्या है। परमेश्वर तो इसी तरह कार्य करता है, और जिस चीज को बदलने की जरूरत है वह है लोगों की धारणाएँ, उनके भ्रष्ट स्वभाव और परमेश्वर के प्रति उनके रवैये, न कि वह देह जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। लोगों को यहाँ सत्य खोजने, परमेश्वर के इरादे खोजने और अपने उचित परिप्रेक्ष्यों और रुख को अपनाने की जरूरत है, न कि उसे परमेश्वर के रूप में मानकर भी उसकी जाँच-पड़ताल या विश्लेषण और वह जो कुछ करता और कहता है उसकी चर्चा करने की। यह एक बड़ी समस्या हो जाएगी। जब सत्य को स्वीकार करने का तुम्हारा रुख और कोण गलत होता है, तो तुम्हारे हर चीज को देखने के तरीके का परिणाम बदल जाएगा, जिससे तुम्हारे अनुसरण का मार्ग और दिशा प्रभावित हो जाएगी। परमेश्वर जो कुछ भी करता या कहता है, वह मानवीय धारणाओं के साथ उपयुक्त बैठता है या नहीं, यह केवल एक अस्थायी मसला है। परमेश्वर मानवजाति के लिए जो कुछ करता है उस सबका योगदान और मूल्य, इससे मानव जीवन को जो अहमियत मिलती है, वो अनंत है। उन्हें कोई भी व्यक्ति, कोई भी शैक्षिक विषय, कोई तर्क या सिद्धांत या कोई प्रवृत्ति नहीं बदल सकती। यही सत्य का मूल्य है। हो सकता है कि वर्तमान में इस साधारण व्यक्ति के वचन और कार्य तुम्हारी जिज्ञासा या तुम्हारे दंभ को संतुष्ट न कर पाएँ, न वे तुम्हें पूरी तरह आश्वस्त कर पाएँ या न हृदय और वाणी से जीत पाएँ; लेकिन आज उसके द्वारा बोले गए सभी वचनों और इस युग में इस अवधि के दौरान उसके द्वारा किए गए सभी कार्यों का संपूर्ण मानवजाति, संपूर्ण युग और परमेश्वर की समय प्रबंधन योजना के प्रति योगदान सदा के लिए अपरिवर्तनीय है—यह एक तथ्य है। इसलिए एक दिन तुम्हें एहसास होगा : “बीस-तीस साल पहले मैंने इस साधारण व्यक्ति के एक अमुक कथन की जाँच-पड़ताल की, गलत व्याख्या की, इसका विरोध किया और यहाँ तक कि इसका आकलन किया और निंदा भी की। बीस-तीस साल बाद जब मैं उस कथन पर दोबारा गौर करता हूँ तो मेरा हृदय कृतज्ञता और आत्म-ग्लानि से भर गया है।” भ्रष्ट मनुष्य परमेश्वर के सामने तुच्छ और महत्वहीन होते हैं, वे हमेशा के लिए दुधमुँहे शिशु हैं, नाचीज हैं। कोई व्यक्ति चाहे कितना ही काम कर ले, इसकी तुलना अगर किसी भी काल और किसी भी संदर्भ में परमेश्वर के कहे हर वचन का संपूर्ण मानवजाति के लिए योगदान से की जाए तो यह अंतर स्वर्ग और पृथ्वी के समान है! इसलिए तुम्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर लोगों के लिए जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और संदेह की वस्तु नहीं है। परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उनका उद्देश्य लोगों की जिज्ञासा को संतुष्ट करना नहीं हैं। वह यह सब कार्य समय बिताने के लिए या दिन काटने के लिए नहीं करता है—उसका इरादा एक युग के लोगों बचाना है, संपूर्ण मानवजाति को बचाना है और वह जिस कार्य को पूरा करना चाहता है, उसके नतीजे हमेशा कायम रहेंगे। मसीह-विरोधी जाँच-पड़ताल और विश्लेषण करने, अपनी जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिए मसीह को एक साधारण व्यक्ति मानते हैं। इसकी प्रकृति क्या है? क्या इसे समझा या माफ किया जा सकता है? वे अनवरत पापी हैं, शापित और सदैव अक्षम्य हैं! अगर किसी व्यक्ति में मानवता है, वह सत्य समझता है और उसमें सत्य वास्तविकता है तो उसकी जाँच-पड़ताल करना भी काफी घृणित है। मसीह को एक साधारण व्यक्ति मानकर आंतरिक रूप से उसकी जाँच-पड़ताल करते हुए, वह जो कुछ भी करता है उसे शत्रुतापूर्ण और अपयशकारी मानते हुए और उसके कहे वचनों के बारे में केवल अपनी जिज्ञासा को संतुष्ट करने का प्रयास करते हुए कुछ लोग तो मुझे देखकर कहते हैं, “कुछ और सत्य पर संगति करो, तीसरे स्वर्ग की भाषा के बारे में अधिक संगति करो, कुछ और ऐसी चीजें बताओ जो हम नहीं जानते”—वे इस व्यक्ति को क्या समझते हैं? उनकी बोरियत को दूर करने वाला कोई? परमेश्वर इस मामले को कैसे परिभाषित करता है? क्या यह परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा नहीं है? अगर यह लोगों को लक्ष्य कर कहा जाए तो यह मजाक उड़ाना या उपहास कहा जाता है; अगर यह परमेश्वर को लक्ष्य कर कहा जाए तो यह ईशनिंदा है।

इस अभिव्यक्ति की विषयवस्तु के भीतर—जाँच-पड़ताल, विश्लेषण और जिज्ञासा—मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार स्वयं को दुष्टता के रूप में, सत्य से विमुख होने के रूप में प्रकट करता है। वे सभी सकारात्मक चीजों की उपेक्षा करते हैं; वे उनसे घृणा करते हैं और उनके साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करते हैं, यहाँ तक कि उस देह को भी नहीं बख्शते जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। उन्हें हर मामले में अपनी जिज्ञासा शांत करने की जरूरत पड़ती है, वे हर चीज को अपनी जाँच-पड़ताल के अधीन करते हुए निष्कर्ष निकालना चाहते हैं और हर चीज की तह में जाना चाहते हैं, पता लगाना चाहते हैं कि क्या हो रहा है, ताकि वे जानकार और बुद्धिमान दिखें। यह मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव है। हर चीज की जाँच-पड़ताल करने के अभ्यस्त हो जाने के बाद वे अपनी जाँच-पड़ताल की सुई परमेश्वर की ओर मोड़ देते हैं। और इससे उन्हें क्या मिलता है? पूर्णता और उद्धार? नहीं, यह उनके लिए केवल तबाही और विनाश लाता है! मसीह-विरोधियों को इसी प्रकार परिभाषित किया जाता है। वे शापित और निंदनीय हैं। परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उसे स्वीकार करने और देखने के लिए वे कभी भी अनुयायियों या सृजित प्राणियों का रुख नहीं अपनाते; बल्कि वे एक विद्वान के, सब कुछ जानने वाले के, जिज्ञासा से भरे व्यक्ति और एक ऐसे अहंकारी व्यक्ति के रुख और दृष्टिकोण से उसे देखते और समझते हैं जो सत्य को समझने में अक्षम और सकारात्मक चीजों से घृणा करता है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को बचाया नहीं जा सकता है।

6 जून 2020

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