मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक)
आज अपनी संगति शुरू करने से पहले हम एक बातचीत सुनेंगे। दो लोग आपस में बात कर रहे हैं। पहला कहता है : “अगर मेरी काट-छाँट की गई तो भाई-बहन आगे से अपने कर्तव्य नहीं निभाना चाहेंगे।” दूसरा कहता है : “वे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहेंगे? ये तो बहुत बड़ी बात है। अगर मुझे हटाया गया तो भाई-बहन नकारात्मक और कमजोर हो जाएँगे।” बातों में खुद को पिछड़ते देख पहले वाले ने कहा : “अगर मैं विश्वास रखना बंद कर दूँ तो सारे भाई-बहन मेरा अनुसरण करने लगेंगे।” यह सुनकर दूसरा बोला : “ठीक है, फिर तो तुम्हारी अहमियत मुझसे ज्यादा है। फिर भी, अगर मुझे बाहर निकाल दिया गया तो इस कलीसिया में बहुत-से लोग विश्वास रखना बंद कर देंगे। इस बारे में तुम क्या सोचते हो? मेरी अहमियत तुमसे ज्यादा है, है ना?” क्या तुम समझते हो कि इस बातचीत में वे क्या कह रहे हैं? उन दोनों में किस चीज के लिए होड़ मची है? (उनमें यह होड़ लगी है कि लोगों को जीतने में कौन ज्यादा सक्षम है, स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में कौन ज्यादा सक्षम है; वे यह देख रहे हैं कि उनमें से कौन दूसरे की तुलना में थोड़ा अधिक चालाक है।) वे इस बात के लिए स्पर्धा कर रहे हैं कि कौन ज्यादा चालाक है, कौन ज्यादा क्षमतावान है, किसमें ज्यादा योग्यता है और उनमें से किसने ज्यादा लोगों को जीता है। क्या वे इस बात के लिए स्पर्धा कर रहे हैं कि किसमें ज्यादा सत्य वास्तविकता है? किसमें ज्यादा मानवता है? उनमें से सत्य को कौन ज्यादा समझता है? (नहीं। उनमें यह होड़ लगी है कि अगर उन्हें बदल दिया जाता है या बाहर निकाल दिया जाता है तो उनमें से कौन ज्यादा लोगों को अपने बचाव में जुटा लेगा।) यह कैसी योग्यता है जिसे लेकर उनमें होड़ मची है? उनमें यह होड़ मची है कि लोगों को नियंत्रित करने, जाल में फँसाने और गुमराह करने की क्षमता किसमें ज्यादा है। अंदाजा लगाओ : ये दोनों कैसे व्यक्ति हैं? (वे दोनों मसीह-विरोधी हैं।) वे क्या हैं? क्या वे दोनों ही बुरे लोगों, आततायियों की जोड़ी नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) साफ-साफ देख सकते हैं कि वे बुरे लोगों की जोड़ी हैं—उनमें खुलेआम यह होड़ मची है कि बुराई करने की क्षमता किसमें ज्यादा है, लोगों को गुमराह और नियंत्रित करने में कौन ज्यादा सक्षम है, लोगों को जीतने में कौन ज्यादा सक्षम है, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए उससे स्पर्धा करने में कौन ज्यादा सक्षम है। उनमें जो भी ज्यादा लोगों को नियंत्रित कर सके, उसी की क्षमता ज्यादा है। इसी बात पर उनमें होड़ मची है। मुझे बताओ, क्या ऐसे मसीह-विरोधी हैं जो ऐसी प्रतिस्पर्धाएँ करते हों? (बिल्कुल हैं।) क्या वे इन्हें सरेआम करते हैं या फिर एक दूसरे से गुपचुप होड़ करते हैं? (गुपचुप।) तो क्या इस कहानी में दोनों के बीच हुई बातें असल में भी देखने को मिलती हैं? क्या यह वास्तविक है? (बिल्कुल।) यह देखते हुए कि वे एक दूसरे से गुपचुप होड़ लेते हैं, क्या वे ऐसी चीजें खुल्लम-खुल्ला कहेंगे? मसीह-विरोधियों की बड़ी तादाद चालाक और दुष्ट है; वे ऐसा सरेआम या सीधे तौर पर नहीं कहेंगे, ताकि लोगों को अपने खिलाफ ही गोला-बारूद न दे बैठें। लेकिन गुपचुप वे ऐसा ही सोचते हैं और यही वास्तव में करते भी हैं। लेकिन भले ही वे चीजों पर पर्दा डालने की कोशिश करते हों, चीजों को छिपाते हों और खुद छद्मवेश धारण करते हों, फिर भी उनकी मसीह-विरोधी प्रकृति और द्वेषपूर्ण प्रकृति छिपाई नहीं जा सकती है। इसका खुलासा होकर रहता है। हो सकता है कि वे कुछ भी ऊँचे स्वर में न कहें, और दूसरों के सुनने के लिए इसमें कुछ भी स्पष्ट नहीं होता, लेकिन वे कार्य करते हुए रत्तीभर भी आड़ नहीं लेते या अस्पष्टता की कोई गुँजाईश नहीं छोड़ते, इसमें कोई लुकाव-छिपाव नहीं होता। वे लोगों के पीठ पीछे भी नहीं जाते, कोई छूट लेना तो दूर रहा। लोगों को जाल में फँसाने, गुमराह और नियंत्रित करने और स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के लिए उनके व्यवहार और कार्यों में कोई अस्पष्टता या लापरवाही नहीं होती है। वे खुल्लम-खुल्ला परमेश्वर का विरोध करते हैं, वे खुल्लम-खुल्ला लोगों को जाल में फँसाते हैं और गुमराह करते हैं। उन्हें उम्मीद रहती है कि अगर उनकी काट-छाँट की गई तो कई भाई-बहन उनके बचाव में सामने आ जाएँगे, परमेश्वर और उसके घर का विरोध करेंगे, नकारात्मक होकर सुस्त पड़ जाएँगे और अपने कर्तव्य नहीं निभाएँगे। इससे वे खुश होंगे और उनकी इच्छा पूरी होगी। अगर उन्हें बदल दिया जाता है तो वे इस बात के लिए उतावले हो जाते हैं कि परदे के पीछे रहकर कई लोग नकारात्मक हो जाएँ, उनके लिए आवाज उठाएँ, उनके बचाव में आगे आएँ, उनकी ओर से सफाई और दलीलें दें। वे इस बात के लिए उतावले रहते हैं कि लोग उनकी खूबियों की फेहरिश्त दें, उनके सही होने का बचाव करें—यहाँ तक कि परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की आलोचना और निंदा करें, मन ही मन चुपचाप परमेश्वर के विरुद्ध हो जाएँ, उसकी धार्मिकता को नकारें, इस बात को नकारें कि परमेश्वर जो कुछ कहता और करता है वही सत्य है, कि ये सब सकारात्मक चीजें हैं। और अगर वे विश्वास रखना बंद कर दें तो वे इस बात लिए उतावले हो जाते हैं कि हर कोई विश्वास न कर उनका अनुसरण करने लगे, उनके साथ ही चला आए, उनका अनुयायी बन जाए; वे इस बात के लिए उतावले रहते हैं कि हर व्यक्ति यह नकार दे कि परमेश्वर सत्य है, और यह विश्वास कर ले कि उनके पास सत्य है, कि वे जो कुछ भी करते हैं वह सही है और यह भी कि वे लोगों को बदल सकते हैं और उन्हें बचा सकते हैं। अगर बुराई करने पर कलीसिया उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित कर देती है तो इस बात के लिए उतावले हो जाते हैं कि बहुत सारे लोग परमेश्वर का वजूद नकारकर संसार में लौट जाएँ और विश्वास न रखने वाले लोग बन जाएँ। इससे उन्हें खुशी मिलती है। इससे उनके दिल का संतुलन बहाल हो जाता है और उन्हें मुक्ति मिलती है। शैतानी स्वभाव के ये खुलासे, ये व्यवहार, ये सार और यहाँ तक कि ये जटिल, विस्तृत ख्याल और विचार—वे किसका प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या ये लोग सच्चे भाई-बहन हैं? क्या उनकी परमेश्वर में सच्ची आस्था है? क्या वे वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं? क्या वे रत्ती भर भी परमेश्वर का भय मानते हैं? (नहीं।) इससे यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधी लोग सार से परमेश्वर के विरोधी हैं और वे परमेश्वर के दुश्मन हैं। क्या यह कथन सही है? क्या यह सत्य है? (यह सही है और सत्य है।) शत प्रतिशत ऐसा ही है। यह कथन सत्य है, सत्य से लेशमात्र भी कम नहीं है क्योंकि यह एक तथ्य है, ऐसा तथ्य है जो कभी नहीं बदलने वाला है। मसीह-विरोधी इसी तरह सोचते हैं और यही करते हैं। उनके सभी कार्य और कर्म उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से संचालित होते हैं और मसीह-विरोधियों की प्रकृति से संचालित और प्रेरित होते हैं। तो क्या मसीह-विरोधियों जैसे लोग बचाए जा सकते हैं? (नहीं।) वे हर मोड़ पर परमेश्वर के विरोधी हैं, हर मोड़ पर सत्य के विरोधी हैं। जो भी उनकी नजरों में उनके हितों को चोट पहुँचाता है, उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाता है, उन्हें उनकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से वंचित रखता है, उन्हें आशीष पाने की उम्मीद से वंचित रखता है, वे उनके प्रतिरोध में खड़े होकर उनके शत्रु बन जाएँगे—फिर उन्होंने जो भी किया वह चाहे सही हो या गलत। मसीह-विरोधियों की यही प्रकृति है। यही कारण है कि मसीह-विरोधियों जैसे लोगों ने चाहे जो भी गलत या बुरा किया हो या चाहे उनके किए हुए काम सिद्धांतों और परमेश्वर की कार्य व्यवस्थाओं के विरुद्ध ही क्यों न हों, वे दूसरों को अपनी काट-छाँट करने या अपने को उजागर करने और सँभालने नहीं देंगे। जैसे ही ये चीजें उनके सिर पर आन पड़ती हैं तो वे न सिर्फ उनके प्रति समर्पण कर उन्हें स्वीकारने में विफल रहेंगे या यह मानने में विफल रहेंगे कि उन्होंने जो किया वह बुरा कर्म था—बल्कि, वे पलटवार करेंगे और जो भी तरीका जरूरी हुआ उससे अपनी प्रतिष्ठा को बहाल करने की कोशिश करेंगे। उनके पास जो भी साधन उपलब्ध हो उससे वे अपने पाप, अपनी गलतियाँ किसी दूसरे के सिर पर मढ़ने की कोशिश करेंगे और खुद कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे। और उससे भी आगे : उनकी सबसे बड़ी इच्छा यही रहती है कि लोगों को धोखा देकर गुमराह किया जाए ताकि वे उनके बुरे कर्मों के पक्ष में बहाने बनाएँ और उनके बचाव में दलीलें दें और अधिक से अधिक लोग उनके पक्ष में खड़े होकर उनकी तरफदारी कर सकें। यही वे सबसे ज्यादा देखना चाहते हैं।
हम यह कहानी यहीं खत्म करेंगे। तुम लोगों ने सही अनुमान लगाया : ये दोनों वाकई मसीह-विरोधी हैं। मसीह-विरोधियों के बीच ही ऐसी बातचीत हो सकती है, वे ऐसी चीजें कह सकते हैं और ऐसी चीजें चाह सकते हैं। समय-समय पर सामान्य, भ्रष्ट लोगों के ऐसे कुछ विचार हो सकते हैं लेकिन जब उनके साथ वास्तव में कुछ होता है तो वे खोजने और प्रार्थना करने परमेश्वर के समक्ष लौटेंगे। थोड़ा-थोड़ा करके वे समर्पण करने लगेंगे। जो भी सच्चे विश्वासी हैं, जो भी जमीर और विवेक वाले हैं, काट-छाँट होने या बदले जाने पर उन सबमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होगा। उनके पास समर्पण का रवैया होगा, समर्पण की इच्छा होगी। वे परमेश्वर के विरुद्ध खड़े होकर उससे शत्रुता नहीं करना चाहते। भ्रष्ट स्वभाव वाले एक साधारण व्यक्ति को इसी तरह पेश आना चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधियों में ऐसा कुछ नहीं होता। वे चाहे कितने ही धर्मोपदेश सुन लें, वे अपनी इच्छाएँ नहीं त्याग पाएँगे और वे अपनी ऐसी महत्वाकांक्षाएँ नहीं त्याग पाएँगे जैसे कि लोगों को नियंत्रित करना, उन्हें जीतना और गुमराह करना। यही नहीं, ये चीजें बिल्कुल गायब नहीं होंगी; जैसे-जैसे समय गुजरता है और परिस्थिति बदलती है, उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ और भी ज्यादा बदतर हो जाएँगी, और भी ज्यादा बढ़ जाएँगी। मसीह-विरोधियों और साधारण, भ्रष्ट लोगों के प्रकृति सार में यही मौलिक अंतर होता है।
अब हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की मद नौ पर अपनी संगति समाप्त कर चुके हैं। इस समय हम मद दस पर संगति करेंगे : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं। सत्य से घृणा करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना—इनमें से कोई एक भी अपने आप में काफी गंभीर है और कोई भी साधारण, भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा नहीं है। व्यक्ति इनमें से किसी में भी यह देख सकता है कि ये मसीह-विरोधियों का जो सार अपने में समेटे हुए हैं उसमें क्रूरता और दुष्टता है। ये दो स्पष्ट और गंभीर तत्व हैं। इस उदाहरण में, मसीह-विरोधियों का सार बताने के लिए क्या अहंकार, हठधर्मिता और कपट जैसे विशेषणों का उपयोग किया जा सकता है? (नहीं।) इन विशेषणों के जरिये एक मसीह-विरोधी के सार की विशेषताओं के मर्म को समझना काफी मुश्किल होगा। मसीह-विरोधियों के सार को संक्षेप में बताने के लिए केवल दो स्वभावों—क्रूरता और दुष्टता—का इस्तेमाल किया जा सकता है।
हम एक-एक कर इन्हें देखेंगे। वे सत्य से घृणा करते हैं—यहाँ “घृणा” का क्या अर्थ है? (किसी चीज को हेय दृष्टि से देखना।) (किसी चीज को कमतर आँकना, उसका तिरस्कार करना और उसे तुच्छ मानना।) (यह सोचना कि कोई चीज निंदा के लायक भी नहीं है।) तुम लोग जिन शब्दों का उपयोग कर रहे हो, उनका अर्थ काफी कुछ एक जैसा ही है। किसी चीज से “घृणा” करने का अर्थ है इसका अनादर करना, इसे हेय दृष्टि से देखना, तुच्छ मानना, कमतर मानना और इसका तिरस्कार करना। आम तौर पर कहें तो इसका मतलब है किसी चीज का प्रतिरोध करना, इससे दूर भागना, अपने दिल की गहराई से इससे नफरत करना, इसे स्वीकार न करना और यहाँ तक कि इसकी द्वेषपूर्ण आलोचना और निंदा करने के साथ ही इसकी भर्त्सना भी करना। तुम लोगों ने जो कहा उसकी तुलना में यह कैसा है? (यह अधिक ब्योरेवार और विशिष्ट है।) तुम लोगों ने जो कहा उससे यह अधिक विशिष्ट और व्यावहारिक है। तुम लोगों ने जो अधिकांश परिभाषाएँ दीं वे “घृणा” की समानार्थी थीं। मैंने जो कहा वह “घृणा” करने वाले कार्य और व्यवहार के सार का परिष्कार है; यह सत्य से घृणा करने वाले व्यवहार और सार का ठोस और ब्योरेवार वर्णन है। इसका अर्थ यह है कि जब कोई व्यक्ति सत्य से घृणा करता है तो वह जो करता है उससे, वह अपने दैनिक जीवन में सत्य से जैसे पेश आता है उससे और सत्य और सकारात्मक चीजों से जुड़े मामलों के प्रति वह दिल से जो रवैया अपनाता है उससे, लोग यह देख सकते हैं कि सत्य के प्रति उसका रवैया यही होता है : इसकी अस्वीकृति, इसका प्रतिरोध और इसके प्रति विमुखता—और यही नहीं इसकी आलोचना, निंदा और बदनामी भी। ये सब ऐसे विशिष्ट तरीके हैं जिनसे “सत्य से घृणा” अभिव्यक्त और प्रकट होती है—ये इतने विशिष्ट हैं कि इनमें सत्य के प्रति ऐसे व्यक्ति के रवैये और दृष्टिकोण का हर पहलू आ जाता है : वे सत्य से, परमेश्वर के वचनों से और सकारात्मक चीजों से दूर भागते हैं। वे अपने दिल की गहराई से इनका प्रतिरोध करते हैं और इन्हें स्वीकारते नहीं हैं। जब तुम उन्हें किसी चीज के बारे में बताते हो कि ये परमेश्वर के वचन हैं, कि यह सत्य है तो उनका रवैया क्या होगा? “परमेश्वर के वचन, सत्य—इनकी परवाह कौन करता है! तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य को हर चीज की जगह इस्तेमाल करते हो। हम लोग जो जीवन जीते हैं क्या उसमें परमेश्वर के वचनों के अलावा कोई और चीज नहीं है? हमने इतनी ज्यादा किताबें पढ़ी हैं, हमने इतनी ज्यादा शिक्षा प्राप्त की है—क्या यह सब बेकार था? लोगों में मन-मस्तिष्क होता है; उनमें स्वतंत्र होकर समस्याओं के बारे में सोचने की क्षमता होती है। हर चीज को परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर देखना—क्या यह कुछ ज्यादा ही हठधर्मिता नहीं है?” जब उनके साथ कुछ होता है और तुम उनसे कहते हो कि उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करने, उसे खोजने और उसके वचन पढ़ने की जरूरत है तो उनका रवैया क्या होगा? “‘परमेश्वर के वचन पढ़ूँ’? जब हमें कुछ होता है तो यह हमारी अपनी समस्या होती है। इंसान की समस्याओं का परमेश्वर से क्या लेना-देना है? इनका सत्य से क्या वास्ता है? क्या तुम्हें वाकई लगता है कि परमेश्वर के वचनों में सब कुछ है, कि ये कोई विश्वकोश हैं? जरूरी नहीं कि परमेश्वर के वचनों में हर चीज का उल्लेख हो। लोगों को समस्याएँ खुद संभालनी होती हैं और विशिष्ट समस्याओं के लिए विशिष्ट समाधान की आवश्यकता होती है। और अगर तुम किसी चीज को संभाल नहीं सकते तो इंटरनेट में देखो या इसके बारे में किसी विशेषज्ञ से सलाह लो। यहाँ हमारी कलीसिया में तो कॉलेज के प्रोफेसर भी हैं और बहुत सारे भाई-बहन कॉलेज के छात्र हैं। क्या हम सब लोग मिलकर सत्य की बराबरी नहीं कर सकते हैं?” जैसे ही तुम परमेश्वर को खोजने और सत्य को खोजने का उल्लेख करते हो, जैसे ही तुम कहते हो कि उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने चाहिए, तो वे तुम्हें तुच्छ समझने लगते हैं। वे इस तरह अभ्यास नहीं करना चाहते; वे इसे बहुत ही कमतर और अपमानजनक मानते हैं और उन्हें लगता है कि इससे वे नालायक नजर आएँगे। क्या किसी चीज के प्रति घृणा इसी रूप में सामने नहीं आती है? सत्य से घृणा करने की यह एक असली अभिव्यक्ति है, एक असली व्यवहार है। ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है। हो सकता है वे अक्सर धर्मोपदेश सुनते हों और परमेश्वर के वचनों के ग्रंथ के ग्रंथ अपने हाथों में उठाए रहते हों और परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाते हों लेकिन जब उनके साथ कुछ होता है और उन्हें सत्य खोजने और परमेश्वर के वचन पढ़ने को कहा जाता है तो उन्हें यह हास्यास्पद लगता है और वे इससे विमुख होते हैं। वे इसे स्वीकार नहीं पाते; वे इससे दूर भागते हैं। इसीलिए जब उनके साथ कुछ होता है तो इसे हल करने के लिए वे इंसानी तरीके इस्तेमाल कर दावा करते हैं : “विशिष्ट मामलों के लिए विशिष्ट समाधान की आवश्यकता होती है, और लोगों की समस्याएँ लोगों को ही हल करनी होती हैं। परमेश्वर को खोजने की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर को हर चीज का ख्याल रखने की जरूरत नहीं है। यही नहीं, कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिनका ख्याल परमेश्वर नहीं रख सकता है। ये हमारे निजी मामले होते हैं जिनका परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है और सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर को हमारी निजी स्वतंत्रता में दखल नहीं देना चाहिए और उसे हमारे निजी मामलों में दखल नहीं देना चाहिए। अपने विकल्प चुनने का हमें अधिकार है—और हमें यह चुनने का अधिकार है कि हम कैसे जिएँ, हम कैसे आचरण करें और कैसे बोलें। सत्य और परमेश्वर के वचन तो सबसे बड़ी जरूरत के समय के लिए हैं, संकट काल के लिए हैं, सबसे बड़ी लाचारी के समय के लिए हैं, जब किसी व्यक्ति के साथ कुछ ऐसा हो जाए जिसे वह हल न कर सके, जिससे निपटने का कोई उपाय न हो—यही वह समय होता है जब उसे परमेश्वर के वचन निकालकर इन्हें थोड़ा पढ़ना चाहिए ताकि उसे राहत मिले और थोड़ी-सी आध्यात्मिक दिलासा मिले। यही काफी है।” इसमें यह देखा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों जैसे लोगों का सत्य के प्रति रवैया स्पष्ट रूप से ऐसा है जो यह नहीं मानता कि सत्य मनुष्य का जीवन हो सकता है या लोगों के असल जीवन में जो कुछ भी होता है उससे परमेश्वर के वचन संबंधित हैं। और वे इस तथ्य को तो और भी कम मानते हैं कि मनुष्य का सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है।
मसीह-विरोधी लोग सत्य से घृणा करते हैं; इसका दायरा बहुत बड़ा है। मसीह-विरोधी लोग सत्य से घृणा करते हैं यह कहने का क्या अर्थ है? इसका विषय क्षेत्र क्या है? हम इसे गहन-विश्लेषण के लिए तीन मदों में बाँटेंगे। इस तरीके से तुम लोगों को ज्यादा स्पष्टता मिल जाएगी। पहली बात, वे परमेश्वर की पहचान और सार से घृणा करते हैं। क्या परमेश्वर की पहचान और सार सत्य का संकेत नहीं देते? (देते हैं।) दूसरी बात, वे उस देह से घृणा करते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। परमेश्वर ने जो देह धारण की और वह जो कार्य करता है, क्या वे सत्य नहीं हैं? (सत्य हैं।) जो बच गई वह बात है कि वे परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं। पहली बात है कि वे परमेश्वर की पहचान और सार से घृणा करते हैं; दूसरी बात को संक्षेप में यह कह सकते हैं कि वे मसीह से घृणा करते हैं; और तीसरी बात, वे परमेश्वर के वचनों से घृणा करते हैं। हम इनमें से हरेक का अलग-अलग गहन-विश्लेषण करेंगे।
I. परमेश्वर की पहचान और सार से घृणा करना
हम सबसे पहले इस बारे में संगति करेंगे कि परमेश्वर की पहचान और सार के प्रति मसीह-विरोधियों का कैसा रवैया होता है जो यह दिखाएगा कि इस लिहाज से वे सत्य से घृणा करते हैं। परमेश्वर की पहचान और सार के प्रति एक मसीह-विरोधी का रवैया क्या होता है? इन चीजों के बारे में वह क्या सोचता है? वह इन्हें कैसे परिभाषित करता है? वह इन्हें कैसा मानता है? परमेश्वर के सार में क्या निहित है? उसका धार्मिक स्वभाव, उसकी सर्वशक्तिमत्ता, उसकी पवित्रता और उसकी विशिष्टता। जहाँ तक इस तथ्य की बात है कि उसकी पहचान सृष्टिकर्ता की है, वह समस्त मानवजाति की नियति का संप्रभु है तो क्या मसीह-विरोधी भी ऐसा मानते हैं? (नहीं।) तो उनके ऐसा न मानने की अभिव्यक्ति खास तौर पर कैसे होती है? (मसीह-विरोधी रोज अपने सामने परमेश्वर से आने वाले लोगों, घटनाओं या चीजों को स्वीकार नहीं करते; बल्कि वे सिर्फ इन मसलों का जरूरत से ज्यादा विश्लेषण करते हैं और मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर इनका समाधान करते हैं।) वे मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर इनका समाधान करते हैं? तुमने जो कहा उसका पहला हिस्सा सही है : जब किसी मसीह-विरोधी के साथ कुछ होता है तो वह सिर्फ मसले का जरूरत से ज्यादा विश्लेषण करता है। लेकिन दूसरा हिस्सा जिसमें तुमने कहा कि वे मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर चीजों का समाधान करते हैं—ये ऐसे व्यवहार हैं जो साधारण, भ्रष्ट लोग करते हैं। हम यहाँ जिस बारे में संगति और जिसे उजागर कर रहे हैं वह यह है कि मसीह-विरोधी लोग सत्य से और इस तथ्य से घृणा करते हैं कि मानवजाति की नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता है। इसके साक्ष्य ढूँढ़ने के लिए तुम्हें मसीह-विरोधियों के प्रासंगिक तौर-तरीके और व्यवहार खोजने पड़ेंगे। वास्तव में मसीह-विरोधियों के शब्दों में ही कहें तो वे यह तो मानते हैं कि “मनुष्य को परमेश्वर ने बनाया है और मनुष्य की नियति परमेश्वर के हाथ में है, इसलिए लोगों को परमेश्वर के प्रभुत्व के प्रति समर्पण करना चाहिए”—लेकिन जब उनके साथ चीजें घटित होती हैं तो क्या वे तब भी ऐसा ही स्वीकार करते हैं? उनके ये शब्द बहुत अच्छे और सही हैं लेकिन जब उनके साथ कुछ घटित होता है तो वे इस तरीके से अभ्यास नहीं करते हैं। अपने साथ कुछ घटित होने पर चीजों के प्रति उनका दृष्टिकोण और उनका रवैया ही यह प्रकट करता है कि वे जो शब्द कहते हैं वे जुमले होते हैं, सच्चा ज्ञान नहीं। जब उनके साथ चीजें घटित होती हैं तो उनका किस प्रकार का दृष्टिकोण, उनके कौन-से विचार, कथन और रवैये यह साबित करते हैं कि उनमें एक मसीह-विरोधी का सार है? जब मसीह-विरोधी पर कोई संकट आन पड़ता है तो क्या वह अपनी पहली प्रतिक्रिया में इस तथ्य को स्वीकार कर पाता है? शांत होकर परमेश्वर के समक्ष समर्पण करना और परमेश्वर ने जो परिवेश रचा है उसे स्वीकार करना, फिर चाहे यह अच्छा हो या बुरा और चाहे इससे उसे लाभ हो या न हो—क्या उसका इसी तरह का रवैया होता है? जाहिर है, उसका ऐसा कोई रवैया नहीं होता। जब उसके साथ कुछ होता है तो उसका पहला विचार यही होता है कि इससे उसके हितों और पद पर किस प्रकार असर पड़ेगा; फिर वह इससे निकलने के प्रपंच रचता है, इसे टालकर बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ़ता है। वह उस चीज की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता और परोक्ष रूप से तर्क-वितर्क और बहाने ढूँढ़ता है; इसके समाधान के लिए मानवीय तौर-तरीके इस्तेमाल करता है और समस्या का विश्लेषण करने और समाधान निकालने के लिए अपने दिमाग का इस्तेमाल करता है। यहाँ तक कि वह जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देता है, शिकायत करता है कि यह व्यक्ति गलत है और वह व्यक्ति जैसा कहा जाता है वैसा नहीं करता, इस बात पर पछताता है कि वह शुरू से ही लापरवाही और अनदेखी कर रहा था और चीजें वैसी ही हैं जैसी शुरुआत में थीं। अपने सामने आने वाली परिस्थितियों के प्रति, उन परिस्थितियों के प्रति जिनकी योजना परमेश्वर बनाता है, वह स्पष्ट रूप से प्रतिरोध करने, टालने, नकारने और अस्वीकार करने का रवैया अपनाता है। उन परिस्थितियों के प्रति उसकी पहली प्रतिक्रिया उनके आगमन का विरोध करने की होती है; उनकी दूसरी प्रतिक्रिया उनकी गंभीरता घटाने के लिए मानवीय तौर-तरीके इस्तेमाल करने, मानवीय साधनों से तूफान को शांत करने, यहाँ तक कि तथ्यों को छिपाने और अपने कारण कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को हुए नुकसान को छिपाने के लिए मानवीय साधनों का उपयोग करने की होती है। वह अपने बुरे कर्मों को लुकाने-छिपाने के लिए मानवीय साधनों का इस्तेमाल करने में अपनी सारी मानसिक ऊर्जा लगा देता है। उसने जो बुरी चीजें की हैं वह उनकी प्रकृति को स्वीकार नहीं करता, न ही यह स्वीकार करता है कि उसने किन सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन किया है, यहाँ तक कि वह अपने आसपास के लोगों को निर्देश देता है : “यह बात बाहर मत जाने देना। हममें से कोई भी कुछ न बताए; कोई दूसरा न जान पाए।” न केवल वे समर्पण नहीं करते हैं और इन परिस्थितियों को स्वीकार करने से इनकार करते हैं—बल्कि वे पलटवार भी करते हैं, धोखा देते हैं और तथ्यों को दबाते हैं, इस उम्मीद में तथ्यों की असलियत छिपाने की कोशिश करते हैं कि वे पहाड़ को फिर से राई बना देंगे, इसका महत्व घटाने की कोशिश करते हैं ताकि उनसे बड़े अगुआ और परमेश्वर इस बारे में न जान पाएँ। मसीह-विरोधी लोग अपने पर आन पड़ी चीजों को इसी तरह संभालते हैं। क्या चीजों को संभालने का उनका तरीका उनके बोले जुमलों से मेल खाता है? उनके जुमलों और चीजें घटित होने पर उनके रवैये में से कौन-सी चीज उनके प्रकृति सार का खुलासा है? (चीजें घटित होने के समय उनका रवैया।) तो फिर यह रवैया वास्तव में क्या है? क्या उनमें समर्पण का रवैया होता है? क्या उनमें ऐसा रवैया होता है कि वे परमेश्वर के अनुशासन और अपनी काट-छाँट को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लें? क्या उनमें परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पण करने की इच्छा होती है? क्या उनका रवैये और वास्तविक व्यवहार में यह सच्चा विश्वास हैं कि उनके साथ चाहे जो हो जाए, वह परमेश्वर ही है जिसकी संप्रभुता मनुष्य की समस्त चीजों पर है? (नहीं।) बिल्कुल भी नहीं। तो फिर उनका रवैया कैसा है? यह बिल्कुल स्पष्ट है : चीजों को ठुकराने, चीजों को छिपाने और धोखा देने का उनका इरादा होता है; परमेश्वर का अंत तक विरोध करने और उसे कार्य न करने देने और संप्रभु न होने देने का इरादा होता है। उन्हें लगता है कि उनमें हर चीज को सही कर देने की काबिलियत और क्षमता है। उनके क्षेत्र में कोई उनके कार्य में दखल नहीं दे सकता या उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकता—वे सबसे बड़े हैं। तो क्या उस समय उस परमेश्वर का अभी भी अस्तित्व होता है जिसमें वे विश्वास रखते हैं? बिल्कुल भी नहीं—वह अब खोखला खोल है। तो फिर उस क्षण उनकी आस्था कैसी होती है? यह अस्पष्ट और थोथी होती है और इसमें कपट होता है। उनमें वास्तविक आस्था नहीं होती है।
जब मसीह-विरोधियों के साथ कुछ घटित नहीं होता तो वे धर्मोपदेश सुनने, परमेश्वर के वचन पढ़ने और भजन सीखने का दिखावा करते हैं। वे कलीसियाई जीवन में हिस्सा लेते हैं और कलीसिया की सारी कार्य परियोजनाओं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए अक्सर कहते हैं : “हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं, इसलिए हमें उसकी संप्रभुता में विश्वास करना होगा और उसकी संप्रभुता के आगे समर्पण करना होगा। सब कुछ परमेश्वर के हाथ में है और वह सब अच्छा करता है।” यही नहीं, वे अक्सर दूसरों को निर्देश देते हैं : “लोगों को अपने ही अनुसार कदम उठाने पर अड़ना नहीं चाहिए। जब कुछ हो जाता है तो उन्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि सब कुछ उसी के हाथ में है।” वे ये जुमले बिल्कुल बुलंद आवाज में सुनाते हैं और उनका रवैया काफी दृढ़ और सुनिश्चित लगता है—लेकिन वे इस लिहाज से उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाते कि जब विपदा आ ही जाती है तो वह तथ्य जो वे वास्तव में प्रकट करते हैं, उनके सच्चे आध्यात्मिक कद और सार को बुरी तरह से और पूरी तरह से उजागर कर देता है। इससे उजागर होता है कि वे न तो सृष्टिकर्ता की पहचान और सार पर विश्वास करते हैं, न ही परमेश्वर के सब चीजों के ऊपर संप्रभु होने के तथ्य पर विश्वास करते हैं। वे इन तथ्यों को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते, इन्हें मानना तो दूर की बात है। वे इन्हें मानने या स्वीकारने में नाकाम ही नहीं रहते, बल्कि इससे भी भयंकर बात यह है कि वे अंत तक हठपूर्वक विरोधी बने रहते हैं। जब उनके साथ कुछ होता है तो वे अगर एक चीज से नहीं तो दूसरी चीज से दुःखी हो जाते हैं। वे परमेश्वर की इच्छाओं और इरादों को खोजने के लिए उसके समक्ष शालीनता और विनम्रता से पेश नहीं आते; वे विनम्रता से परमेश्वर के समक्ष आकर उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं करते और उसके आयोजनों और संप्रभुता को स्वीकार नहीं करते; और वे विनम्रता से उसके अनुशासन को स्वीकार नहीं करते। बल्कि, वे मानवीय तरकीबों और चालाकियों और मानवीय साधनों से मामले की गंभीरता घटाना चाहते हैं—मामले को खत्म करना चाहते हैं, दूसरों और परमेश्वर की आँखों में धूल झोंकना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि मामले की गंभीरता घटाकर वे इसे आसानी से दबा देंगे—कि इसकी गंभीरता घटाकर वे अपनी गलतियाँ और अपने भ्रष्ट स्वभाव ढक पाएँगे और कोई भी उनके बारे में नहीं जान पाएगा या मसीह-विरोधी में कोई गड़बड़ी नहीं पकड़ पाएगा या मामले को और आगे नहीं बढ़ाएगा। वे बहुत बड़ी कामयाबी पा चुके होंगे और फिर मामला शांत हो जाएगा। एक मसीह-विरोधी के साथ जब कुछ घटित होता है तो उसके शब्द और व्यवहार, कर्मों और कार्यों के आधार पर आकलन किया जाए, और साथ ही उसके व्यवहार और कर्तव्य निर्वहन के सार के आधार पर देखा जाए, तो वह परमेश्वर की संप्रभुता का घोर प्रतिरोधी होता है। वह इससे अंत तक हठपूर्वक लड़ेगा। उसने जो भी गड़बड़ी की हो वह परमेश्वर को काट-छाँट नहीं करने देगा या ऐसे परिवेश नहीं बनाने देगा जिससे उसे अनुशासित किया जाए, वह परमेश्वर को यह इजाजत तो बिल्कुल भी नहीं देगा कि वह उसका खुलासा कर उसे उजागर करे। जैसे ही उसे उजागर किया जाता है, जैसे ही उसकी पोल खुलती है, वह घबरा जाता है, और परेशान हो जाता है और उसकी साँस फूल जाती है; यहाँ तक कि वह पासा पलटने की कोशिश करता है और अपने बचाव में पहले से ही यह आरोप लगाने लगता है कि परमेश्वर ने उसकी रक्षा नहीं की, कि उसे आशीष नहीं दिया, कि वह पक्षपाती है—वरना ऐसा क्यों होता है कि जब उसके साथ और दूसरों के साथ एक जैसी चीजें होती हैं तो परमेश्वर दूसरे व्यक्ति का खुलासा नहीं करता, सिर्फ उसी का करता है? वरना ऐसा क्यों होता है कि जब एक जैसी चीजें होती हैं तो परमेश्वर दूसरे व्यक्ति को अनुशासित नहीं करता, उसी को करता है? वह यहाँ तक कहता है कि, “यह देखते हुए कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है, मुझे अपनी रक्षा मानवीय तौर-तरीकों से, अपने तौर-तरीकों से करनी पड़ेगी।” ऐसे लोग मानते हैं कि जब वे कुछ गलत करते हैं तो परमेश्वर को उन्हें अनुशासित और उजागर नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी गलतियों को छिपाना चाहिए, हर मोड़ पर उन्हें आसान रास्ता देकर आगे बढ़ने देना चाहिए, उनके हर अपराध में शामिल होना चाहिए। वे मानते हैं कि परमेश्वर यही करेगा। अगर परमेश्वर उन्हें बेनकाब करता है और उनके साथ कुछ चीजें घटित होने पर उन पर खास मेहरबानी नहीं करता और उन्हें विशेष दृष्टि नहीं देता या उनकी अगुआई नहीं करता तो उन्हें लगता है कि ऐसा परमेश्वर प्यारा नहीं है, कि वह उनकी नियति का संप्रभु बनने के लायक नहीं है। इसलिए जब उनके साथ कुछ होता है तो वे एक सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर के सामने समर्पण नहीं करना चाहते और जो कुछ भी उससे आता है उसे स्वीकार नहीं करना चाहते; बल्कि, वे चाहते हैं कि परमेश्वर उनकी सेवा करे, हर चीज में उनकी मदद करे, यहाँ तक कि उनके किसी भी अपराध के लिए या उनकी किसी भी भ्रष्टता, विद्रोहीपन या प्रतिरोध के लिए उन्हें नहीं फटकारे या अनुशासित नहीं करे। एक मसीह-विरोधी के हर व्यवहार और अभिव्यक्ति में यह देखा जा सकता है कि उसे परमेश्वर में सच्ची आस्था नहीं होती है। उसकी तथाकथित सच्ची आस्था सिर्फ फायदे बटोरने और लाभ कमाने के लिए है। ऐसे लोग परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण नहीं करते, बल्कि परमेश्वर का आयोजन करते हैं, वे परमेश्वर का फायदा उठाना चाहते हैं और चाहते हैं कि परमेश्वर उनके लिए सभी कार्य करे और उनके लिए द्वार खोले। भ्रष्ट सृजित प्राणी के रूप में वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को या उसके उद्धार को नहीं स्वीकारते। बल्कि, उन्हें लगता है कि परमेश्वर में विश्वास कर वे उस पर असाधारण कृपा कर रहे हैं और परमेश्वर को यह बात याद रखनी चाहिए, उनकी रक्षा करनी चाहिए, उन्हें बिना शर्त आशीष देना चाहिए, चाहे उन्होंने जैसी भी बुरी चीजें की हों उन्हें विशेष क्षमादान देकर क्षमा कर देना चाहिए। मसीह-विरोधी किस्म के लोग वास्तव में बुरे होते हैं। उनमें बिल्कुल भी शर्म नहीं होती। वे यह भी नहीं जानते कि वे किस किस्म की चीज हैं या वे कौन हैं, इसलिए जब उनके साथ कुछ होता है तो वे निर्लज्ज होकर बहाने और स्पष्टीकरण पेश करते हैं, अपने पक्ष में दलीलें पेश करते हैं, अपनी जिम्मेदारी दूसरों के सिर पर डालते हैं और तथ्यों को छिपाते हैं। वे इस डर से अंत तक परमेश्वर का विरोध करते हैं कि अगर उन्हें बेनकाब कर दिया गया और लोग उनकी असलियत जान गए तो उनके पास कभी भी रुतबा या प्रतिष्ठा नहीं रहेगी। परमेश्वर में उनकी आस्था उनकी जुबान तक सीमित रहती है; वे खुद को बिल्कुल भी नहीं खपाते, वास्तविक ढंग से समर्पण नहीं करते, स्वीकार करने के करीब तो वे बिल्कुल भी नहीं पहुँचते हैं। इसलिए परमेश्वर की पहचान के तथ्य के लिहाज से किसी मसीह-विरोधी के सार में यह देखा जा सकता है कि वह अपने दिल की गहराई से इसका विरोध करता है—वह परमेश्वर को न तो अपनी नियति का संप्रभु बनने देना चाहता है, न अपनी सारी चीजों की योजना बनाने देना चाहता है। ऐसे लोग परमेश्वर को संप्रभु नहीं होने देना चाहते हैं—वे किसे संप्रभु होने देना चाहेंगे? वे चाहते हैं कि अंतिम निर्णय उन्हीं का चले, जिसका निहितार्थ है : शैतान को चीजों में हेरफेर करने देना, भ्रष्ट स्वभाव और शैतान के भ्रष्ट सार को अपना जीवन बनने देना और अपने दिल पर राजा की तरह राज करने देना। ऐसा ही होता है। और जहाँ तक परमेश्वर के सार की बात है, एक मसीह-विरोधी इससे कैसे पेश आता है? परमेश्वर के सार के तत्वों पर एक मसीह-विरोधी संदेह करता है। वह विश्वास नहीं करता; संदेह करता है; इन सभी तत्वों को लेकर उसके मन में तिरस्कार के साथ ही धारणाएँ भी होती हैं। समय-समय पर वह इन तत्वों का विश्लेषण और व्याख्या करने के लिए अपनी कल्पनाओं, ज्ञान और दिमाग का इस्तेमाल तक करता है। कुछ मूर्ख लोग तो यहाँ तक मानते हैं कि उनकी व्याख्याएँ काफी अच्छी, आध्यात्मिक, तर्कसंगत और व्यावहारिक होती हैं। यह तो और भी घिनौनी बात है।
क. परमेश्वर की धार्मिकता से घृणा करना
मसीह-विरोधियों जैसे लोग हमेशा परमेश्वर की धार्मिकता और स्वभाव को लेकर धारणाओं, संदेहों और प्रतिरोध के साथ पेश आते हैं। वे सोचते हैं, “यह केवल एक सिद्धांत है कि परमेश्वर धार्मिक है। क्या वास्तव में इस दुनिया में धार्मिकता जैसी कोई चीज होती है? अपने जीवन के तमाम वर्षों में मैंने उसे एक बार भी न पाया है, न देखा है। दुनिया बहुत अँधेरी और दुष्ट है, यहाँ बुरे लोग और दानव काफी सफल हैं, संतोष से जी रहे हैं। मैंने उन्हें वह मिलते हुए नहीं देखा, जिसके वे हकदार हैं। मैं नहीं देख पाता कि इसमें परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ है; मैं सोचता हूँ, क्या परमेश्वर की धार्मिकता असल में मौजूद भी है? उसे किसने देखा है? उसे किसी ने नहीं देखा और न ही कोई उसे प्रमाणित कर सकता है।” अपने मन में वे यही सोचते हैं। वे परमेश्वर के सारे कार्य, उसके सारे वचन और उसके सारे आयोजन इस विश्वास की नींव पर नहीं स्वीकारते कि वह धार्मिक है, बल्कि हमेशा संदेह और आलोचना करते रहते हैं, हमेशा धारणाओं से भरे रहते हैं, जिनके समाधान के लिए वे कभी सत्य की तलाश नहीं करते। मसीह-विरोधी हमेशा इसी तरह से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। क्या उन्हें परमेश्वर पर सच्ची आस्था होती है? नहीं होती। जब भी परमेश्वर की धार्मिकता की बात आती है, मसीह-विरोधी हमेशा संदेह का रवैया अपनाते हैं। बेशक, परमेश्वर के स्वभाव, उसकी पवित्रता, और जो उसके पास है और जो वह स्वयं है, इन सबके बारे में उनके अपने संदेह होते हैं। वे इनमें विश्वास नहीं करते, बल्कि जो आँख से दिखता है उसी के अनुसार चलते हैं—अगर वे अपनी आँखों से किसी चीज को देख नहीं सकते तो उस पर विश्वास नहीं कर सकते। वे बिल्कुल थॉमस की तरह हैं, हमेशा प्रभु यीशु पर संदेह करते हैं, यह विश्वास नहीं करते कि प्रभु यीशु मृत्यु के बाद दुबारा जी उठा था, वे परमेश्वर की महान शक्ति पर विश्वास नहीं करते। क्या उन मसीह-विरोधियों जैसी तलछट जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है या जो सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, यह विश्वास कर सकती है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं? क्या वह उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता पर विश्वास कर सकती है? वह इनमें से किसी पर विश्वास नहीं करती; उसके दिल में हमेशा संदेह रहते हैं। मसीह-विरोधियों के सार के मूल्यांकन के आधार पर कहें तो जो उनकी आँख देखती है, वे उसी अनुसार चलते हैं, इसीलिए वे भौतिकवादी हैं। वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता नहीं देख सकते और वे यह विश्वास नहीं करते कि उसके वचन सत्य हैं, कि ये ऐसे तथ्य हैं जिन्हें वह पहले ही साकार कर चुका है। चूँकि उन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं होती और उनमें सच्ची आस्था नहीं होती, इसलिए परमेश्वर के कार्य देखने का उनके पास कोई उपाय नहीं होता है। तथ्य यह है कि परमेश्वर में विश्वास करने के पीछे उनका छिपा हुआ मकसद होता है। वे बेलगाम उपद्रवी हैं—शैतान के चाकर हैं। क्या सत्य के अस्तित्व का कोई ऐसा व्यक्ति पता लगा सकता है जो सत्य को नहीं स्वीकारता या परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता और सभी चीजों को मानवीय नजरों से देखता है? क्या ऐसे लोग मानवजाति पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य का पता लगा सकते हैं? बिल्कुल भी नहीं। वे चीजों को जाँच-पड़ताल की निगाह से देखते हैं, शक की निगाह से और संदेह के रवैये से देखते हैं और यहाँ तक कि परमेश्वर जो भी करता है उसका प्रतिरोध करते हैं, इसलिए परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लेकर मसीह-विरोधी अविश्वास करते हैं। अपने संदेहों के कारण वे इसे स्वीकार नहीं करते। मसीह-विरोधियों के कौन-से व्यवहार दूसरों को यह दिखाते हैं कि वे सत्य को स्वीकार नहीं करते या परमेश्वर के सार को नहीं मानते? ऐसे कई खास व्यवहार हैं। उदाहरण के लिए : जब कलीसिया के कार्य में कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो चाहे दोष कितना भी गंभीर हो और उसके कुछ भी दुष्परिणाम हों, एक मसीह-विरोधी की पहली प्रतिक्रिया खुद को दोषमुक्त करने और किसी और पर दोष मढ़ने की होती है। जिम्मेदार न ठहराए जाने के लिए, वह मामले की सच्चाई छिपाने के लिए खुद से ध्यान भी हटा सकता है, कुछ सही, अच्छी-अच्छी बातें कहते हुए सतही भाग-दौड़ भी कर सकता है। सामान्य समय में लोग इसे नहीं देख पाते, लेकिन जब उन पर कुछ विपत्ति आती है, तो मसीह-विरोधी की कुरूपता उजागर होती है। अपने सारे काँटे खड़े किए किसी साही की तरह, वह कोई भी जिम्मेदारी न लेने की इच्छा रखते हुए, अपनी पूरी ताकत से अपनी रक्षा करता है। यह कैसा रवैया है? क्या यह इस बात पर विश्वास न करने वाला रवैया नहीं है कि परमेश्वर धार्मिक है? मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है या कि वह धार्मिक है; वे खुद को बचाने के लिए अपने तरीके इस्तेमाल करना चाहते हैं। उनका मानना है, “अगर मैं अपनी रक्षा नहीं करूँगा, तो कोई नहीं करेगा। परमेश्वर भी मेरी रक्षा नहीं कर सकता। लोग कहते हैं कि वह धार्मिक है, लेकिन जब लोग मुसीबत में पड़ते हैं, तो क्या वह वास्तव में उनके साथ उचित व्यवहार करता है? बिल्कुल नहीं—परमेश्वर ऐसा नहीं करता।” मुसीबत या उत्पीड़न का सामना करने पर वे असहाय महसूस करते हैं और सोचते हैं, “तो, परमेश्वर कहाँ है? लोग उसे देख या छू नहीं सकते। कोई मेरी मदद नहीं कर सकता; कोई मुझे न्याय नहीं दे सकता और मेरे लिए निष्पक्षता कायम नहीं रख सकता।” उन्हें लगता है कि अपनी रक्षा करने का एकमात्र उपाय अपने तरीकों से अपनी रक्षा करना है, वरना उन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा, उन्हें धमकाया और सताया जाएगा—परमेश्वर का घर भी इसका अपवाद नहीं है। अपने ऊपर कुछ आ पड़ने से पहले ही मसीह-विरोधी अपने लिए हर चीज की योजना बना चुके होते हैं। एक हिस्से में, वे जो करते हैं वह यह है कि अपने इतने शक्तिशाली व्यक्ति होने का स्वाँग रचने का भरसक प्रयास करते हैं कि कोई उन्हें परेशान करने या उनके साथ पंगा लेने या उन्हें धौंस देने की हिम्मत नहीं करेगा। दूसरा हिस्सा उनका हर मोड़ पर शैतान के फलसफों और उसके अस्तित्व के नियमों का पालन करना है। वे मुख्य रूप से क्या हैं? “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “चीजों को वैसे ही चलने दो अगर वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों,” “समझदार लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं, वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं,” परिस्थितियों के अनुसार कार्य करना, मधुरभाषी और चालाक बनना, “मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता,” “सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,” “दूसरों की भावनाओं और सूझ-बूझ का ध्यान रखते हुए अच्छी बातें कहो, क्योंकि निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है,” “बुद्धिमान इंसान हालात के अनुसार अपना रुख बदलता है,” और ऐसे दूसरे शैतानी फलसफे। वे सत्य से प्रेम नहीं करते, लेकिन शैतान के फलसफों को ऐसे स्वीकारते हैं मानो ये सकारात्मक चीजें हों, और यह मानते हैं कि ये उनकी रक्षा करने में सक्षम होंगे। वे इन चीजों के अनुसार जीते हैं; वे किसी से सच नहीं बोलते, लेकिन हमेशा मनभाती, चिकनी-चुपड़ी, चापलूसी भरी बातें कहते हैं, किसी को ठेस नहीं पहुँचाते, खुद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत करने के तरीकों के बारे में सोचते रहते हैं ताकि दूसरे उनका सम्मान करें। वे सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के अपने अनुसरण की परवाह करते हैं, और कलीसिया के काम को बनाए रखने के लिए कुछ नहीं करते। जो भी कोई कुछ बुरा करता है और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाता है, वे उसे उजागर या उसकी रिपोर्ट नहीं करते, बल्कि ऐसे व्यवहार करते हैं मानो उन्होंने उसे देखा ही न हो। चीजें सँभालने के उनके सिद्धांतों और उनके आस-पास जो होता है उसके प्रति उनके व्यवहार को देखते हुए, क्या उन्हें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कोई ज्ञान है? क्या उन्हें उसमें कोई आस्था है? बिल्कुल नहीं। यहाँ “बिल्कुल नहीं” का यह मतलब नहीं कि उन्हें इसके बारे में कोई जागरूकता नहीं है, बल्कि यह है कि उनके दिल में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लेकर संदेह हैं। वे न तो स्वीकारते हैं और न ही मानते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है। जब वे बहुत-से लोगों को यह गवाही देते हुए देखते हैं कि परमेश्वर के घर में सत्य और धार्मिकता का शासन है तो वे इसका प्रतिरोध करते हैं और अपने दिल में इसकी आलोचना करते हुए कहते हैं, “तो फिर ऐसा क्यों है कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों का उत्पीड़न करने के लिए बड़े लाल अजगर को कोई दंड नहीं मिला है? अविश्वासियों में से बुरे लोग परमेश्वर के चुने हुए लोगों को धौंस देते हैं, उनकी निंदा करते हैं, उनकी आलोचना करते हैं, और उन्होंने भी कोई दंड नहीं भुगता है। वे सभी भले-चंगे बैठे हैं—ऐसा क्यों होता है कि परमेश्वर के विश्वासियों को ही धौंस सहनी पड़ती है?” दिल से वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में विश्वास नहीं करते। वे नहीं मानते के परमेश्वर हर व्यक्ति से धार्मिकता के साथ पेश आता है, न वे इन विचारों पर विश्वास करते हैं कि परमेश्वर हर व्यक्ति को उसके कार्यों के हिसाब से उसके हिस्से का प्रतिफल देगा, और कि सत्य का अनुसरण करने वाले लोग ही परमेश्वर से आशीष और सुंदर मंजिल पाएँगे। मसीह-विरोधी इन चीजों में विश्वास नहीं करते। वे अपने आप से कहते हैं, “अगर ये तथ्य हैं तो फिर ऐसा कैसे है कि मैंने इन्हें नहीं देखा है? तुम कहते हो कि जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, सिर्फ उन्हें ही परमेश्वर आशीष देगा। ठीक है, हमारी कलीसिया में अमुक व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, खुद को परमेश्वर के लिए खपाता है और काफी वफादारी से अपना कर्तव्य निभाता है। इसका उसे क्या सिला मिलता है? बड़ा लाल अजगर उसका इस कदर पीछा करता है कि वह बमुश्किल अपने घर जा पाता है; उसके परिवार को कितनी मुसीबतें उठानी पड़ती हैं—वह अपने बच्चों का मुँह तक नहीं देख पाता है। क्या यही परमेश्वर की धार्मिकता है? एक और व्यक्ति है जिसे परमेश्वर में विश्वास करने के कारण जेल में डाल दिया गया जहाँ उसे यातनाएँ देकर अधमरा कर दिया गया। तब परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ मर गई थी? वह अपनी गवाही में दृढ़ता से खड़ा रहा; वह कोई यहूदा नहीं था। परमेश्वर ने क्यों नहीं उसे आशीष और सुरक्षा दी? और परमेश्वर ने क्यों बड़े लाल अजगर को उसे पीट-पीटकर अधमरा करने दिया? हमारी कलीसिया में एक अगुआ भी था जिसने कलीसिया के कार्य के लिए अपने परिवार और पेशे को त्याग दिया। उसने बरसों अपना कर्तव्य निभाया और काफी कठिनाइयाँ सहीं और अंत में थोड़ी-सी बुराई करने और कलीसिया के कार्य को बाधित करने पर उसकी निंदा कर उसे हटा दिया गया था। तब परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव कहाँ था? और ऐसे भी भाई-बहन हैं जो काफी कम उम्र से परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभा रहे हैं, कष्ट उठा रहे हैं और मेहनत कर रहे हैं, फिर भी जैसे ही वे कोई गलती और सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, उनकी काट-छाँट कर दी जाती है। उनमें से कुछ काफी दुःखी होकर इस भय से रोते हैं कि उन्हें हटाकर निकाल दिया जाएगा और उन्हें दिलासा देने वाला भी कोई नहीं होता है। इसमें मुझे परमेश्वर की धार्मिकता क्यों नहीं दिखाई देती? इन चीजों में परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव वास्तव में किस तरीके से अभिव्यक्त होता है? मैं इसे क्यों नहीं देख पाता? और खुद मेरा ही मामला देख लो—हो सकता है मैं अपना कर्तव्य निभाने में थोड़ा-सा लापरवाह होऊँ और हो सकता है मैं कभी-कभी थोड़ा-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर देता हूँ, फिर भी मुझमें प्रतिभा है। परमेश्वर का घर मुझे तरक्की क्यों नहीं देता?” इन सभी मामलों के चलते मसीह-विरोधी स्पष्ट रूप से यह नहीं देख पाते कि चल क्या रहा है। वे सिर्फ बाहरी परिघटनाओं को देखते हैं, लेकिन यह नहीं देख पाते कि चीजों के पीछे परमेश्वर के इरादे क्या हैं। उनके दिलों में कूट-कूटकर आशंकाएँ और संदेह, ख्याल और धारणाएँ भरी पड़ी हैं—और उनके दिलों में अनेकानेक गाँठें हैं जिन्हें वे सुलझा नहीं सकते। जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं उनके दिल नाराजगी से भर उठते हैं, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के प्रति निंदा और तिरस्कार से भर उठते हैं। खिन्न होकर वे अपने आप से कहते हैं : “अगर परमेश्वर धार्मिक है तो फिर निष्कपट लोगों की काट-छाँट क्यों होती है? अगर वह धार्मिक है तो वह थोड़ी-सी भ्रष्टता प्रकट करने पर लोगों को माफ क्यों नहीं करता? अगर वह धार्मिक है तो फिर अपना कर्तव्य निभा चुके और बहुत अधिक कष्ट भोग चुके कुछ लोगों को थोड़ा-सा असली कार्य न कर पाने पर बर्खास्त क्यों कर दिया जाता है? अगर वह धार्मिक है तो फिर क्यों अटूट भक्ति के साथ उसका अनुसरण करने वाले हम लोग उत्पीड़न और यातनाएँ सहें और संभवतः जेल भेज दिए जाएँ और कुछ मामलों में तो पीट-पीटकर मार भी दिए जाएँ?” इनमें से किसी भी परिघटना के लिए मसीह-विरोधियों के पास कोई स्पष्टीकरण नहीं होता है। वे नहीं जानते कि उनके साथ क्या हो रहा है; वे इसे स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते हैं। अक्सर वे खुद से पूछते हैं : “मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूँ क्या वह धार्मिक है, या नहीं है? जो परमेश्वर धार्मिक है उसका अस्तित्व है कि नहीं? वह कहाँ है? जब हम कठिनाइयों का सामना करते हैं, जब हमें सताया जाता है—तब वह क्या कर रहा होता है? क्या वह हमें बचा सकता है, या नहीं बचा सकता? अगर परमेश्वर धार्मिक है तो वह शैतान को नष्ट क्यों नहीं कर देता? वह बड़े लाल अजगर को नष्ट क्यों नहीं कर देता? वह इस दुष्ट मानवजाति को दंडित क्यों नहीं करता? जब हम उसमें विश्वास करते हैं और अत्यंत कष्ट सह चुके हैं तो वह हमें न्याय क्यों नहीं देता और हमारे लिए निष्पक्षता क्यों नहीं कायम रखता? वह हमारा साथ क्यों नहीं देता? हम दानवों और शैतान से नफरत करते हैं, हम बुरे लोगों से नफरत करते हैं—परमेश्वर हमारी शिकायतों का बदला क्यों नहीं लेता?” एक मसीह-विरोधी के दिल से किसी मशीनगन की गोलियों की तरह एक के बाद एक “क्यों” निकलते जाते हैं जिन्हें किसी भी तरह रोका नहीं जा सकता है। जब वे इन चीजों को नियंत्रित नहीं कर पाते तो प्रार्थना करने और खोजने के लिए परमेश्वर के समक्ष क्यों नहीं आते या उसके वचन पढ़कर संगति के लिए भाई-बहनों को क्यों नहीं खोजते? तब क्या वे एक-एक करके ऐसी समस्याएँ हल नहीं कर लेंगे? क्या इन समस्याओं को हल करना वाकई मुश्किल काम है? अगर तुम परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण का रवैया अपनाते हो, एक ऐसा रवैया जो सत्य को स्वीकारे, तो ये समस्याएँ फिर समस्याएँ नहीं रहेंगी—ये सभी हल की जा सकती हैं। मसीह-विरोधी ऐसा क्यों नहीं कर पाते हैं? क्योंकि वे सत्य को नहीं स्वीकारते या विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, या सत्य को नहीं मानते। वे परमेश्वर की समस्त संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, जो भी होता है वह सब परमेश्वर से स्वीकार करना तो दूर की बात है। यही कारण है कि मसीह-विरोधियों के दिल में परमेश्वर की धार्मिकता को लेकर संदेह भरे होते हैं। जब उनका सामना परीक्षाओं से होगा तो उनके दिल में भरे संदेह बाहर निकल पड़ेंगे और मन ही मन वे परमेश्वर से सवाल करेंगे : “अगर परमेश्वर धार्मिक है तो वह हमें इतना ज्यादा कष्ट क्यों सहने देता है? अगर परमेश्वर धार्मिक है तो वह हममें से उन लोगों पर दया क्यों नहीं करता जिन्होंने मसीह का अनुसरण कर अपने हिस्से के दुख भोग लिए हैं? अगर परमेश्वर धार्मिक है तो वह हममें से उन लोगों की रक्षा क्यों नहीं करता जो उसके लिए खुद को खपाते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं, या हमारे परिवारों की रक्षा क्यों नहीं करता? अगर परमेश्वर धार्मिक है तो वह अपने में निष्ठापूर्वक विश्वास करने वाले लोगों को जेल में बड़े लाल अजगर के हाथों क्यों मरने देता है?” वे फिर परमेश्वर के विरुद्ध शोर मचाने लगते हैं : “अगर परमेश्वर धार्मिक है तो उसे हमें इतने कष्ट नहीं सहने देने चाहिए; अगर परमेश्वर धार्मिक है तो उसे हमें अकारण अनुशासित या बेनकाब नहीं करना चाहिए; अगर परमेश्वर धार्मिक है तो उसे हमारे सारे बुरे कर्मों के प्रति सहनशील होना चाहिए, हमारी सारी नकारात्मकता और कमजोरी को माफ कर देना चाहिए और हमारे सारे अपराधों के लिए छूट देनी चाहिए। अगर तुम ये चीजें भी नहीं कर सकते तो फिर तुम धार्मिक परमेश्वर नहीं हो!” ये सारी चीजें मसीह-विरोधियों के दिमाग में रहती हैं। उनके मन में परमेश्वर के प्रति धारणाएँ भरी होती हैं और वे इन्हें हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते हैं। जब उन्हें बेनकाब करने का दिन आता है तो उन धारणाओं का फूटकर निकलना तय है। मसीह-विरोधियों की कुरूप मानसिकता और असली चेहरा ऐसा ही है।
मसीह-विरोधी सत्य को मानते या स्वीकारते नहीं हैं, इस तथ्य को तो बिल्कुल भी नहीं मानते कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है, इसलिए उनके लिए परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव एक बड़ा और अनुत्तरित प्रश्न बना रहता है। और समय के साथ-साथ, जैसे-जैसे घटनाएँ घटती हैं और विभिन्न समस्याएँ उठती हैं, उनका यह प्रश्न चिह्न और बड़ा होता चला जाता है—और धीरे-धीरे यह एक क्रॉस के निशान में बदल जाता है। इस क्रॉस के निशान का क्या अर्थ है? इसका यह अर्थ है कि वे परमेश्वर के धार्मिक होने के तथ्य को सिरे से नकार देते हैं। और जब यह क्रॉस का निशान बना दिया जाता है—जब एक मसीह-विरोधी परमेश्वर के धार्मिक होने को नकार देता है—तो उसकी सारी फंतासियाँ और इच्छाएँ हवा में काफूर बनकर उड़ जाती हैं। जरा सोचो : वह प्रारंभिक बिंदु क्या है जो ऐसे दुष्परिणाम की ओर लेकर जाता है? (मसीह-विरोधी सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने से उन्हें आशीष मिलना चाहिए और उसकी सुरक्षा मिलनी चाहिए। इसलिए जब परमेश्वर ऐसा कार्य करता है जो उनकी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाता तो उन्हें परमेश्वर धार्मिक नहीं लगता और वे इस कार्य को उससे स्वीकार नहीं सकते। साथ ही, जब परमेश्वर के बारे में उनके मन में धारणाएँ उत्पन्न होती हैं तो वे परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य नहीं खोजते और इन्हें तुरंत हल नहीं कर पाते। इस तरीके से उनकी धारणाएँ जमा होती जाती हैं—इसी कारण अंत में ऐसा दुष्परिणाम सामने आता है।) तुम लोग अभी सतही-स्तर की परिघटनाओं के बारे में बात कर रहे हो; तुम जड़ तक नहीं पहुँच रहे हो। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि इस तरह व्यवहार करने और ऐसे विचार रखने, परमेश्वर के बारे में संदेह करने और उसे नकारने की मसीह-विरोधियों की क्षमता के मूल में कुछ है। बेशक, यह मसीह-विरोधी के प्रकृति सार से तय होता है। यही जड़ है—हम इसे यहीं छोड़ते हैं। तो फिर मुख्य मूल कारण यह है कि आरम्भ से ही मसीह-विरोधियों में सत्य के प्रति प्रेम की या इसे स्वीकार करने की कमी रही है। वे सत्य को क्यों नहीं स्वीकारते? इसकी भी अपनी जड़ है : वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य है, कि उसके वचन सत्य हैं—और चूँकि वे ऐसा नहीं मानते, इसलिए इसे स्वीकार नहीं कर सकते। यह देखते हुए कि वे सत्य को नहीं स्वीकारते, क्या वे किसी भी समस्या को सत्य की निगाह से देख सकते हैं? (नहीं।) वे ऐसा नहीं कर सकते—तो, दुष्परिणाम क्या होते हैं? उनके साथ जो भी चीजें घटती हैं, वे उन्हें अच्छी तरह नहीं समझ पाते, फिर वे चाहे कुछ भी हों—उनके इर्द-गिर्द घटने वाली छोटी या बड़ी चीजें हों, और चाहे दूसरों की बातें हों। वे लोगों या घटनाओं की असलियत नहीं जान पाते—वे किसी भी चीज की असलियत नहीं जान पाते। बाहरी तौर पर कुछ चीजें वैसी ही लगती हैं जैसा वे कहते हैं, लेकिन सार रूप में वे वैसी होती नहीं हैं। इसका वास्ता सत्य से है। अगर तुम सत्य को नहीं समझते या नहीं स्वीकारते तो क्या इन चीजों से जुड़े सत्य को समझ सकते हो? तुम नहीं समझते, इसलिए तुम सिर्फ यही कर सकते हो कि चीजों का विश्लेषण और अध्ययन इंसानी निगाह से करो, इंसानी ज्ञान और दिमाग से करो। ऐसे अध्ययन के क्या नतीजे मिलेंगे? क्या ये सत्य के अनुरूप होंगे? क्या ये परमेश्वर की अपेक्षाओं और इरादों के अनुरूप होंगे? नहीं, कभी नहीं। यह वैसी ही बात है जैसी अय्यूब की कहानी जिसे परमेश्वर में विश्वास करने वाले सारे लोग जानते हैं। जो भी व्यक्ति सत्य को मानता और स्वीकारता है और परमेश्वर में विश्वास करने और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम है, वह दिल से अय्यूब की प्रशंसा और सराहना करता है; ऐसे सभी लोग दिल से अय्यूब जैसा इंसान बनना चाहते हैं। वे इस बात की भी प्रशंसा और सराहना करते हैं कि अय्यूब ने परीक्षणों के बीच परमेश्वर की प्रशंसा की और उसे उसका ज्ञान था। लोग अपने दिलों में समझ सकते हैं कि अय्यूब को जो तमाम क्लेश और संताप मिले वे परमेश्वर के कार्य थे। कुल मिलाकर अय्यूब एक व्यक्ति के रूप में सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोगों के लिए एक ऐसी चीज है जिसके लिए वे तरसते हैं। वे सभी उसका अनुकरण करना चाहते हैं और ऐसा ही इंसान बनना चाहते हैं। तो ऐसा सकारात्मक परिणाम कैसे प्राप्त किया जाता है? इसकी बुनियाद क्या है? हार्दिक विश्वास और यह मानना कि यही सत्य है, कि यह सारा परमेश्वर का कार्य है—यही वह बुनियाद है जिस पर कोई अय्यूब जैसा इंसान बनने की इच्छा की ओर कदम-दर-कदम बढ़ता है, ऐसा व्यक्ति बनने की ओर अग्रसर होता है जो परमेश्वर का भय माने और बुराई से दूर रहे। वह इस सब पर विश्वास करता है और इसे दिल से मानता है और अंततः वह चीज प्राप्त कर लेता है जिसके लिए वह तरसता है, और फिर वह उसका जीवन-भर अनुसरण करता है। ऐसा नतीजा हासिल करने के लिए सबसे बुनियादी बात यह है कि व्यक्ति दिल से इसे माने और इस पर विश्वास करे। तो क्या मसीह-विरोधी ऐसा मानते और विश्वास करते हैं? नहीं करते। अय्यूब जिन सारी चीजों से होकर गुजरा, मसीह-विरोधी उसे कैसे देखते हैं? क्या वे ऐसा सोचते हैं कि परमेश्वर ने जो कुछ भी किया उस सबका महत्व है? क्या वे यह देख सकते हैं कि यह सब परमेश्वर द्वारा शासित था? वे ऐसा नहीं देख सकते, न ही वे यह देख सकते हैं कि परमेश्वर ने जो कुछ किया उस सबका महत्व है। वे इसमें क्या देखते हैं? अय्यूब के पास ढेर सारी संपत्ति थी, बेशुमार भेड़ें और बैल थे, धरती पर सबसे सुंदर बेटे-बेटियाँ थीं। वे यह देखते हैं। और फिर सारी पीड़ा भोगने के बाद परमेश्वर ने उसे एक बार फिर आशीष दिया। वे इसमें क्या देखते हैं? वे कहेंगे, “उस इंसान ने इन आशीषों के लिए सौदेबाजी की—उसने इन्हें कमाया। यह उचित ही है कि परमेश्वर ने ये उसे प्रदान किए।” उनकी समग्र समझ देखें तो क्या मसीह-विरोधियों का नजरिया सत्य को स्वीकारने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला है? (नहीं।) तो फिर इस बारे में वे कैसा नजरिया अपनाते हैं? केवल एक ही नजरिया है जिससे मसीह-विरोधी पूरे मामले को देखते हैं और वह नजरिया एक छद्म-विश्वासी का है। एक छद्म-विश्वासी यह देखता है कि क्या कोई लाभ हुआ है या कोई फायदा हुआ है या नुकसान हुआ है; फायदा कैसे उठाया जाए और कैसे नहीं; किससे नुकसान और कष्ट होगा; और कौन-सी चीज करने लायक है और कौन-सी नहीं। छद्म-विश्वासियों का नजरिया यही होता है। छद्म-विश्वासी लोग इसी तरीके से, इसी तरह के सार के साथ हर चीज को देखते हैं, उससे पेश आते हैं और उसे करते हैं। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है।
ख. परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता से घृणा करना
मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को कैसे देखते हैं? यह कहना ठीक है कि किसी मसीह-विरोधी के लिए “सर्वशक्तिमत्ता” बहुत ही जज्बाती शब्द है, एक ऐसा शब्द जो उसकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को भड़का सकता है। इसका कारण यह है कि वह बहुत हद तक वैसा ही व्यक्ति बनना चाहता है। सर्वशक्तिमान, सर्वक्षमतावान और सर्वव्यापी होना, हर चीज में समर्थ होना, कुछ भी करने के तरीके जानना, कुछ भी कर लेने में सक्षम होना—अगर किसी में यह क्षमता आ जाए, अगर किसी में यह योग्यता हो तो फिर उसके लिए हर चीज करना आसान हो जाएगा। उसे किसी से डरना नहीं पड़ेगा; उसके पास सर्वोच्च अधिकार होगा, सर्वोच्च रुतबा होगा और वह दूसरों पर शासन कर सकेगा। उसके पास दूसरे लोगों को नियंत्रित करने और उनके साथ हेरफेर करने की निरंकुश शक्ति होगी। यह किसी मसीह-विरोधी की पहुँच से बहुत दूर की बात है और यह उसकी महत्वाकांक्षाएँ, उसकी इच्छाएँ और उसके असली रंग को उजागर करती है। इसका एक पक्ष यह है कि “परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता” वाक्यांश उसे तमाम तरह की कल्पनाओं, जिज्ञासा और धारणाओं से भर देता है। दूसरा पक्ष यह है कि वह परमेश्वर में आस्था के जरिये उसकी सर्वशक्तिमत्ता को लेकर अंतर्दृष्टि पाना चाहता है ताकि वह अपने क्षितिज का विस्तार कर सके, अधिक अंतर्दृष्टि पा सके और अपनी जिज्ञासा संतुष्ट कर सके। एक और पक्ष यह है कि वह सर्वक्षमतावान बनने का प्रयास करता है, हजारों लोगों से अपनी आराधना करवाने, अधिकाधिक लोगों से अपने आगे दंडवत करवाने और अपने लिए उनके दिलों में जगह बनाने का प्रयास करता है। तो क्या मसीह-विरोधियों को परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का सच्चा ज्ञान होता है? इसमें क्या उन्हें सच्ची आस्था होती है? फिर से, यह ठीक वैसा ही है जैसा परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को लेकर है—मसीह-विरोधी न सिर्फ धारणाओं, सत्यों से मेल नहीं खाने वाली अस्पष्ट और खोखली कल्पनाओं से भरे होते हैं—वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को लेकर भारी संदेह भी पैदा करते हैं। वे संदिग्ध हैं; वे इसमें विश्वास नहीं करते : “सर्वशक्तिमत्ता? इस दुनिया में ऐसा कोई है ही कहाँ जो सर्वशक्तिमान हो? इस दुनिया में ऐसा कोई है ही कहाँ जो सर्वव्यापी और सर्वक्षमतावान हो? ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है! दुनिया में बहुत सारे महान और मशहूर लोग हैं और ऐसे भी बहुत सारे लोग हैं जिनके पास अलौकिक शक्तियाँ हैं : जैसे नबी और तमाम तरह के ज्योतिषी और भविष्यवाणी को समझाने वाले लोग, और ये भी सर्वक्षमतावान नहीं हैं। ‘परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता’ पर प्रश्नचिह्न लगाने की अभी भी जरूरत है, इस पर पूरी तरह शोध करने की जरूरत है।” इसलिए एक मसीह-विरोधी के लिए परमेश्वर का सर्वशक्तिमत्ता का सार होता ही नहीं है क्योंकि जैसा कि वे मानते हैं, “मैं यह सोच या समझ नहीं सकता कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान कैसे हो सकता है, इसलिए उसकी इस ‘सर्वशक्तिमत्ता’ का अस्तित्व है ही नहीं। मैं इसे नहीं मानता। परमेश्वर की क्षमताएँ और योग्यताएँ वास्तव में कितनी बड़ी है? इन्हें अतीत, वर्तमान या भविष्य में न किसी ने देखा है, न ही कोई देखेगा।” मसीह-विरोधी लगातार संदेह करते रहते हैं और दिल से अनिश्चित होते हैं, इसलिए कलीसिया में और भाई-बहनों के साथ घटने वाली सभी चीजें मसीह-विरोधियों के लिए शोध का विषय और दायरा बन जाती हैं। वे क्या शोध कर रहे होते हैं? वे अपने सामने आने वाली हर चीज पर शोध कर रहे होते हैं, हर उस चीज पर जो किसी समूह में या किसी व्यक्ति के साथ होती है, परमेश्वर ने क्या किया है, उसने कैसे कार्य किया है, क्या इसमें कोई संकेत और चमत्कार तो नहीं हैं, क्या कोई नई और अनोखी घटनाएँ तो नहीं हैं जो मनुष्य की सोच से परे हों या मनुष्य की क्षमता और पहुँच से परे हों। इसके अलावा वे यह शोध कर रहे होते हैं कि क्या किसी भाई-बहन ने परमेश्वर द्वारा उनके अंदर किए गए किसी ऐसे कार्य के अनुभव के बारे में बात की है जो मनुष्य की अपेक्षाओं से परे हो। इसका एक उदाहरण लोक-कथा जैसी वह लड़की है जो घोंघे के कवच से बाहर निकलकर उनके लिए तब भोज तैयार करती है जब वे सबसे ज्यादा भूखे होते हैं। एक और उदाहरण, कंगाली के समय अकस्मात उनके घर में ही सोने का खजाना मिल जाए या जब उनका पीछा किया जा रहा हो तो पीछा करने वाले अचानक अंधे होकर कुछ भी न देख पाएँ और तब कोई फरिश्ता नीचे उतरकर उनसे कहे, “बच्चे, डरो मत—तुम्हारी मदद करने के लिए मैं हूँ ना।” एक अन्य उदाहरण यह है कि जब भाई-बहन निर्मम मार और क्रूर यातनाएँ सह रहे हों तो परमेश्वर की तीव्र रोशनी आततायियों को अंधा कर उन्हें फर्श पर लुढ़का दे, वे दया की भीख माँगने लगें और फिर कभी भाई-बहनों को पीटने का साहस न कर सकें और परमेश्वर उनसे बदला ले; या, परमेश्वर के वचन पढ़ते समय जब उन्हें कितनी भी कोशिश करने के बावजूद भी कुछ भी समझ में न आए और नींद आने लगे तो धुँधलके में उन्हें कोई साया दिखाई दे जो उनसे कहे, “सोओ मत; जागो—मेरे वचनों का यह अर्थ है”; या जब कोई चीज हो और वे गलती करने ही वाले हों तो वे किसी सशक्त, आंतरिक फटकार और अनुशासन से सतर्क हो जाएँ कि ऐसा करना गलत रहेगा और ऐसा करना सही रहेगा। साधारण लोगों को इनमें से किसी भी चीज का अनुभव नहीं होता, न वे इसे अनुभव करने में सक्षम हैं मगर यह अगर कलीसिया में, परमेश्वर के घर में, परमेश्वर का अनुसरण करने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ घटित हो जाए तो यह पर्याप्त सबूत रहेगा कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है। अगर ऐसी कोई चीज घटित न हो या यदा-कदा ही घटे, और अगर घटे भी तो यह सिर्फ सुनी-सुनाई बात हो और ऐसे में उनकी तथ्यात्मकता और विश्वसनीयता को लेकर संदेह हो तो क्या तब भी परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता एक तथ्य होगी या नहीं होगी? क्या परमेश्वर में सर्वशक्तिमत्ता का सार होता है या नहीं होता? मसीह-विरोधी अपने दिल में इन विचारों पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं।
मसीह-विरोधी हमेशा इन संकेतों, चमत्कारों और अलौकिक शक्तियों का अनुसरण कर रहे हैं जबकि परमेश्वर कार्य करता है, बात करता है और मनुष्य को बचाता है। वे ऐसी चीजों का अनुसरण करते हैं जो वास्तविकता या तथ्यों से मेल नहीं खाती हैं। वे जिन चीजों का अनुसरण करते हैं उनका मनुष्य को बचाने के परमेश्वर के कार्य या सत्य या मनुष्य के स्वभाव परिवर्तन से कोई लेना-देना नहीं होता। फिर भी वे इनका अनुसरण करने पर तुले रहते हैं। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को लेकर उनमें कौतूहल भरा रहता है। वे अक्सर अपनी प्रार्थनाओं में परमेश्वर से विनती करते हैं : “हे परमेश्वर, क्या तुम मेरे सामने अपनी सर्वशक्तिमत्ता प्रकट करोगे? हे परमेश्वर, क्या तुम सर्वशक्तिमान नहीं हो? अगर हो तो मैं कहता हूँ कि इस मामले को मेरे लिए सुलझा दो। परमेश्वर, अगर तुम सर्वशक्तिमान, सर्वक्षमतावान और सर्वव्यापी हो तो मैं तुमसे अपनी मदद की विनती करता हूँ क्योंकि मैं चुनौतियों का सामना कर रहा हूँ। हे परमेश्वर, अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे शरीर के रोग हर लो, मैं जिन परिस्थितियों का सामना कर रहा हूँ उन्हें मुझसे दूर कर दो, खतरे को दूर करने में मेरी मदद करो। हे परमेश्वर, अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो विनती है कि जब मैं अपना कर्तव्य निभाता हूँ तो तुम मुझे रातों रात होशियार और चतुर, प्रतिभाशाली और गुणी बना दो ताकि मैं बिना पढ़े ही पेशेवर हुनर सीख जाऊँ, पारंगत हो जाऊँ और दूसरों से अलग नजर आऊँ। हे परमेश्वर, अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो तुमसे उन लोगों को दंडित करने और उनसे प्रतिशोध लेने की विनती करता हूँ जो तुम्हारे प्रति मेरी आस्था को बदनाम करते हैं और उसका मजाक उड़ाते हैं। उन्हें अंधा और बहरा कर दो, उनके सिर पर फोड़े उग आएँ और उनके पैरों के तलुवों से पीप बहने लगे। उन्हें कुत्ते की मौत मरने दो। हे परमेश्वर, अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो विनती है कि तुम मुझे अपनी सर्वशक्तिमत्ता दिखाओ।” परमेश्वर ने इतने सारे वचन कहे हैं और इतना सारा कार्य किया है लेकिन मसीह-विरोधी इस तरफ आँख मूँद कर इसे अनदेखा कर देते हैं; वे परमेश्वर के वचनों को कभी दिल में नहीं उतारते, न ही वे उसके कार्यों और मनुष्य को बचाने के उसके अहम कार्य के हर चरण को दिल में उतारते हैं या गंभीरता से लेते हैं। इसके बजाय वे संकेतों और चमत्कारों की माँग करने पर तुले रहते हैं, इस बात पर अड़े रहते हैं कि परमेश्वर अपने कार्यों के दौरान चमत्कार दिखाए, यह माँग करते हैं कि परमेश्वर अपने अस्तित्व और अपने सर्वशक्तिमान होने को साबित करने के लिए ऐसी विशेष चीजें करे जो उनकी आँखें खोल दें और उनके कौतूहल को शांत कर दें। इससे भी हास्यास्पद बात तो यह है कि मसीह-विरोधी प्रार्थना में यह विनती तक करते हैं : “हे परमेश्वर, मैं तुम्हें देख नहीं सकता, इसलिए मेरी आस्था कम है। मैं तुमसे अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट करने की विनती करता हूँ, फिर चाहे यह सपने में ही क्यों ना हो—मैं तुमसे अपनी सर्वशक्तिमत्ता प्रकट करने की विनती करता हूँ, जिससे मैं तुम में आस्था रख सकूँ और निश्चित होकर तुम्हारे अस्तित्व पर विश्वास कर सकूँ। अगर तुम ऐसा नहीं करते हो तो तुम में विश्वास को लेकर मेरे मन में हमेशा संदेह रहेंगे।” वे परमेश्वर का अस्तित्व नहीं देख पाते या उसके कार्यों और वचनों में उसका सार और स्वभाव नहीं जान पाते, बल्कि उससे अतिरिक्त चीजें कराना चाहते हैं, ऐसी चीजें जो मनुष्य के लिए अकल्पनीय हैं ताकि वे मजबूत बन सकें और अपनी आस्था स्थापित कर सकें। परमेश्वर ने अनेक वचन कहे हैं और काफी कार्य किया है, फिर भी उसके वचन चाहे कितने ही व्यावहारिक हों, वह जो सत्य लोगों को बताता है वे चाहे कितने ही शिक्षाप्रद हों, उनके लिए इन्हें समझना चाहे कितना ही अत्यावश्यक हो, मसीह-विरोधियों की इनमें रुचि नहीं होती और वे इन्हें अपने दिल में नहीं उतारते हैं। वास्तव में परमेश्वर जितना ज्यादा बोलता है, जितना ज्यादा विशिष्ट कार्य करता है, मसीह-विरोधी उतने ही ज्यादा दूर भागते हैं, चिढ़ते हैं और प्रतिरोधी महसूस करते हैं। यही नहीं, उनमें परमेश्वर के प्रति तिरस्कार और निंदा का भाव भी आ जाता है; वे उसके खिलाफ शोर मचाते हैं : “क्या तुम्हारी सर्वशक्तिमत्ता इन्हीं वचनों में है? क्या तुम बस यही करते हो—वचन व्यक्त करना? अगर तुम बोलोगे नहीं तो क्या सर्वशक्तिमान नहीं रहोगे? अगर तुम सर्वशक्तिमान हो तो फिर बोलो मत? हमें जीवन प्राप्त करने और स्वभाव परिवर्तन हासिल करने में सक्षम बनाने के लिए अपनी वाणी या सत्य पर संगति करने और मनुष्य का सत्य से पोषण करने का उपयोग मत करो। अगर तुम हमें रातों रात देवदूत बना दो, अपने संदेशवाहक बना दो—तो, यह सर्वशक्तिमत्ता होगी!” जैसे-जैसे परमेश्वर अपने वचन सुनाता जाता है और अपना कार्य करता जाता है तो धीरे-धीरे मसीह-विरोधियों की प्रकृति बिना किसी दुराव-छिपाव के प्रकट और उजागर होती जाती है, साथ ही सत्य से विमुख होने और इसके प्रति प्रतिरोधी होने का उनका सार पूरी तरह उघड़कर सामने आ जाता है। जैसे-जैसे समय बीतता है और परमेश्वर अपने कार्य में निरंतर आगे बढ़ता रहता है, परमेश्वर की पहचान और उसके सार से घृणा करने वाला मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार भी धीरे-धीरे उजागर और प्रकट होता जाता है। मसीह-विरोधी अस्पष्ट चीजों का अनुसरण करते हैं; वे संकेत और चमत्कार देखने के पीछे भागते हैं—और वास्तविकता से मेल नहीं खाने वाली इस महत्वाकांक्षा और इच्छा के वश में होकर सत्य से विमुख होने और इससे नफरत करने वाली उनकी प्रकृति सामने आ जाती है। इसके विपरीत जो लोग वास्तव में वास्तविकता और सत्य का अनुसरण करते हैं, जो सकारात्मक चीजों में विश्वास करते हैं और इनसे प्रेम करते हैं, वे परमेश्वर के कार्यों और वचनों की प्रक्रिया में उसकी सर्वशक्तिमत्ता देखते हैं—और ये लोग जो देख सकते हैं, जो हासिल कर सकते हैं और जो जान सकते हैं वो वास्तव में वही चीजें हैं जिन्हें मसीह-विरोधी जानने और हासिल करने में सदा असमर्थ रहते हैं। मसीह-विरोधी मानते हैं कि अगर लोग परमेश्वर से जीवन हासिल करेंगे तो संकेतों और चमत्कारों की जरूरत है; वे मानते हैं कि संकेतों और चमत्कारों के बिना सिर्फ परमेश्वर के वचनों से जीवन और सत्य प्राप्त करना, और उसके फलस्वरूप स्वभाव परिवर्तन हासिल करना और उद्धार प्राप्त करना असंभव बात है। एक मसीह-विरोधी के लिए यह शाश्वत असंभव बात है—इसमें दम नहीं है। इसीलिए वे इस उम्मीद में अथक रूप से प्रतीक्षा और प्रार्थना करते हैं कि परमेश्वर संकेत और चमत्कार दिखाएगा और उनके लिए चमत्कार करेगा—और अगर वह ऐसा नहीं करता तो फिर उसकी सर्वशक्तिमत्ता है ही नहीं। इसका निहितार्थ यह है कि अगर परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है तो फिर निश्चित रूप से उसका अस्तित्व नहीं है। यही मसीह-विरोधियों का तर्क है। वे परमेश्वर की धार्मिकता की भर्त्सना करते हैं और उसकी सर्वशक्तिमत्ता की भर्त्सना करते हैं।
जब परमेश्वर लोगों को बचा रहा होता है तो मसीह-विरोधियों को उसके वचनों, उसकी विभिन्न अपेक्षाओं और उसके इरादों में कोई दिलचस्पी नहीं होती है। वे दिल की गहराई से इन चीजों का प्रतिरोध करते हैं और इनसे विमुख रहते हैं। उनकी रुचि न तो सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता में होती है, न ही उद्धार में और पूर्ण बनाए जाने में होती है जिन्हें मनुष्य सत्य का अनुसरण और परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करके हासिल कर सकता है। तो फिर उनकी रुचि किस चीज में होती है? उनकी रुचि इस बात में होती है कि परमेश्वर उन्हें दिखाने के लिए संकेत और चमत्कार दिखाए और चमत्कार करे, कि वह ऐसा करके उन्हें अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में सक्षम बनाए, उन्हें उल्लेखनीय व्यक्तियों, अतिमानवों, विशेष शक्तियों वाले लोगों और असाधारण लोगों में बदलने में सक्षम बनाए। परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता के जरिये वे खुद को साधारण लोगों, आम लोगों और भ्रष्ट लोगों जैसे पदों, पहचानों और रुतबों से मुक्ति दिलाना चाहते हैं। इसलिए परमेश्वर के कार्य के बीच उनके सामने जो भी धारणाएँ या समस्याएँ आएँ, वे इन्हें हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते। वे सत्य को समझने या स्वभाव परिवर्तन हासिल करने में ही असमर्थ नहीं रहते—बल्कि, वे परमेश्वर के बारे में फैसला भी सुनाते हैं, उसकी निंदा भी करते हैं, उसका प्रतिरोध करते हैं क्योंकि वह जो कुछ भी करता है वह सब उनकी धारणाओं से मेल नहीं खाता है। मसीह-विरोधियों की निगाह में, परमेश्वर का सारा व्यावहारिक कार्य ऐसा है जिसे वे स्वीकृति नहीं देते—वे इसकी निंदा करते हैं। अंत में यही विचार और परमेश्वर की यही परिभाषाएँ उन्हें दिल से परमेश्वर के सार का अस्तित्व पूरी तरह से नकारने की ओर ले जाती हैं, और उससे भी ज्यादा परमेश्वर के सार के अस्तित्व की भर्त्सना करने, उसे मलिन करने और उसकी निंदा करने की ओर ले जाती हैं। इसका कारण यह है कि परमेश्वर पर उनका विश्वास इस आधार पर टिका है कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, कि परमेश्वर उनकी शिकायतों का समाधान करेगा, कि वह उनकी ओर से बदला लेगा, कि उनके लिए वह उन सबको पराजित करेगा जिससे वे नफरत करते हैं और जिन्हें वे तुच्छ निगाह से देखते हैं—कि परमेश्वर उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ पूरी करेगा। परमेश्वर में उनके विश्वास की बुनियाद यही है। लेकिन यहाँ तक पहुँचने के बाद ये बुरे लोग अब देख रहे हैं कि ऐसे परमेश्वर का अस्तित्व नहीं है और इस बात की कोई संभावना नहीं है कि परमेश्वर उनके लिए कुछ करेगा। उनके नजरिये से उनके लिए यह खासी प्रतिकूल स्थिति है—यह भयावह है। इसलिए कई चीजों का अनुभव कर चुकने के बाद परमेश्वर के प्रति उनकी भ्रांतियाँ और संदेह और भी मजबूत होते जाते हैं, जब तक कि वे परमेश्वर और उसके घर को छोड़ने, संसार का अनुसरण करने, बुरी प्रवृत्तियों के अनुसार चलने और खुद को शैतान के आगोश में सौंपने का मन नहीं बना लेते। इन लोगों के साथ ऐसा ही होता है। परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उसकी सर्वशक्तिमत्ता के प्रति मसीह-विरोधियों के रवैये के आधार पर आकलन करते हुए, मसीह-विरोधी वास्तव में छद्म-विश्वासी हैं। उनके मन में परमेश्वर के प्रति लेशमात्र भी आस्था नहीं होती, न ही परमेश्वर जो कुछ करता है उसके प्रति लेशमात्र भी समर्पण या स्वीकार्यता होती है। जब सकारात्मक चीजों और सत्य की बात आती है तो वे इनसे दूर भागते हैं और इनके प्रति प्रतिरोधी बने रहते हैं। इसीलिए तुम इसे चाहे किसी भी ढंग से देखो, मसीह-विरोधियों का छद्म-विश्वासी सार वास्तव में विद्यमान होता है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे दूसरे लोग उन पर थोपते हों, न ही यह तिल का ताड़ बनाने जैसी बात है—उनका यह सार उन सारे विचारों और दृष्टिकोणों से परिभाषित होता है जो वे अपने ऊपर विपत्ति आने पर प्रकट करते हैं।
मसीह-विरोधी बरसों तक परमेश्वर में विश्वास करते हैं लेकिन यह तथ्य नहीं देख पाते कि परमेश्वर मनुष्य की नियति पर संप्रभुता रखता है। वे इस तथ्य को समझ नहीं सकते। वे एक तथ्य को समझ नहीं पाते जबकि यह उनकी आँखों के सामने रखा है—क्या यह अंधापन नहीं है? परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव और उसकी सर्वशक्तिमत्ता अक्सर कलीसिया के कार्य में, उसके चुने हुए लोगों में और घटित होने वाले तमाम चीजों में प्रकट होती है। वह लोगों को ये चीजें सब जगह देखने देता है—लेकिन अंधे होने के कारण मसीह-विरोधी इन्हें देख नहीं सकते। जब मसीह-विरोधी बरसों परमेश्वर का अनुसरण कर चुके होते हैं तो वे यह मशहूर जुमला सुनाते हैं : “मैं इतने बरसों से परमेश्वर में विश्वास कर रहा हूँ मगर मुझे मिला क्या?” ऐसा लगता है कि उन्हें वास्तव में कुछ भी हासिल नहीं हुआ। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए अपना जीवन उँडेल दिया है लेकिन मसीह-विरोधियों को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। क्या यह दयनीय बात नहीं है? वास्तव में ऐसी ही बात है! मसीह-विरोधियों का यह जुमला समस्या को बखूबी स्पष्ट करता है। जो भी व्यक्ति परमेश्वर के वचन सुनता है और उसके कार्यों को अनुभव करता है, जो उसके वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करता है, वह यही कहेगा : “हमने परमेश्वर में इतने वर्षों से विश्वास किया है और उससे इतना अधिक हासिल किया है। उसका अनुग्रह और आशीष, उसकी सुरक्षा और उसकी दया ही नहीं—इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि परमेश्वर से हमने इतने अधिक सत्य समझे और हासिल किए हैं। हम मानव के समान, गरिमा के साथ जीते हैं। हम जानते हैं कि आचरण कैसे करना है। हम परमेश्वर के इतने ऋणी हैं। वह जितनी कीमत चुकाता है, वह हमारे लिए जो कुछ करता है, उसकी तुलना में हमारी छोटी-सी कठिनाइयाँ उल्लेख करने लायक भी नहीं हैं। मनुष्य को परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करना चाहिए।” लेकिन मसीह-विरोधी तो बिल्कुल उलटे हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर इन पिछले कुछ बरसों से कार्य कर रहा है, तो ऐसा क्यों है कि मुझे कुछ भी हासिल नहीं हुआ है? तुम सभी लोग कहते हो कि तुमने ये हासिल किया, वो हासिल किया, यह या वह अनुभव प्राप्त किया—लेकिन क्या ये अनुभव तुम्हारा पेट भर पाएँगे? ये अनुभव क्या हैं? आशीषों और अनुग्रह की तुलना में, संकेत और चमत्कार दिखाई देने की तुलना में, क्या ये अनुभव पूरी तरह उल्लेख के अयोग्य नहीं हैं? इसीलिए मुझे लगता है कि परमेश्वर में वर्षों के विश्वास में मैंने कुछ भी नहीं पाया। परमेश्वर के लिए मैंने जो पीड़ा सही है, जो कुछ त्यागा और खपाया है, उसकी तुलना में मैंने जो चीजें पाई हैं वे बिल्कुल भी इसके लायक नहीं हैं! सत्य कुछ कथनों और सिद्धांतों के सिवाय है ही क्या? यह कुछ धर्म-सिद्धांतों के सिवाय है ही क्या? मैंने ये वचन सुने हैं, ये सत्य सुने हैं और मुझे नहीं लगता कि मुझमें कोई बहुत बड़ा बदलाव आया है! पहली बात तो यह है कि जब मैं चीजों के बारे में सोचता हूँ तो मेरा दिमाग उतना चुस्त नहीं रहता। यही नहीं, मेरी उम्र ढलती जा रही है और मेरी सेहत पहले से बेहतर नहीं हो रही है। मेरे बाल पक चुके हैं, मेरे चेहरे पर झुर्रियाँ बढ़ चुकी हैं—यहाँ तक कि मेरे कुछ दाँत भी गिर चुके हैं और दुबारा एक भी नया दाँत नहीं निकला है। परमेश्वर कहता है कि जो लोग बचाए जाते हैं वे ताजा, जिंदादिल बच्चों जैसे होंगे और यहाँ मैं हड्डियों का ढाँचा, बूढ़े चेहरे वाला बनकर रह गया हूँ। मैं तो बच्चे में नहीं बदला हूँ। परमेश्वर के वचनों की मानें तो पके बालों वाले बूढ़े लोग काले-चमकते बालों वाले नौजवानों में बदल सकते हैं। तो फिर मैं क्यों नहीं बदला हूँ? परमेश्वर कहता है कि वह लोगों का कायाकल्प कर देगा मगर मेरे साथ तो ऐसा नहीं हुआ; मैं तो नया इंसान नहीं बना हूँ। मैं तो अभी भी मैं ही हूँ और जब मेरे साथ चीजें घटित होंगी तो मुझे खुद पता लगाना पड़ेगा कि इन्हें अपने बलबूते कैसे संभालना है। मेरी दैहिक कठिनाइयाँ भी बढ़ती जा रही हैं—मैं अक्सर दुर्बल और नकारात्मक पड़ जाता हूँ। यही नहीं, पिछले दो बरस से मेरी याददाश्त भी खराब है। मैं परमेश्वर के वचन इतना ज्यादा पढ़ता हूँ, लेकिन उसने मेरी याददाश्त मजबूत नहीं की है। क्या परमेश्वर लोगों को थोड़ी-सी विशेष क्षमता नहीं दे सकता जो उनके शरीर को बूढ़ा होने से बचाए? मुझे लगता है कि इस समय सबसे बड़ा मसला लोगों को पूरी तरह बदलने का है; सत्य इस समस्या का समाधान करने में सक्षम नहीं लगता है। अगर परमेश्वर कुछ ऐसा कहेगा जो वास्तव में किसी को एक ऐसे नए इंसान में बदल सके जिसका रूप एक दमकते हुए फरिश्ते की तरह हो, जो शरीर से अलग हो सके, जो ठोस दीवारों के आर-पार निकल सके, जो उत्पीड़न और खतरे का सामना करने पर मंत्र मारकर गायब हो सके और हमेशा पकड़ से दूर रहे—अगर अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ने से लोगों के बाल सफेद न हों, उनके चेहरों पर झुर्रियाँ न पड़ें और टूटे हुए दाँतों की जगह नए दाँत निकल जाएँ—तो यह कितना अच्छा रहेगा! इसी को पूरा कायाकल्प कहते हैं! अगर परमेश्वर ऐसी चीजें करेगा तो मैं बिना किसी संकोच के विश्वास करूँगा कि वह परमेश्वर है। अगर वह सत्य सुनाता रहा और इसका उपदेश देता रहा तो फिर मेरी आस्था जल्द ही क्षीण पड़ जाएगी; जल्द ही मैं विश्वास करना जारी नहीं रख पाऊँगा, और शायद मैं आगे अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगा। मैं ऐसा करना नहीं चाहूँगा।” परमेश्वर के अनुसरण के दौरान मसीह-विरोधी के मन में परमेश्वर से कोई न कोई माँग उठती रहेगी, उनकी धारणाओं में अक्सर तमाम तरह के संदेह और सख्त माँगें उठती रहेंगी, और उनके परिवेशों और व्यक्तिगत इच्छाओं की प्रतिक्रिया में उनके मन में तमाम तरह के विचित्र विचार आते रहेंगे। लेकिन सिर्फ एक चीज है : वे परमेश्वर के कहे वचन नहीं समझ सकते और यह सच्चाई नहीं समझ सकते कि परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए कार्य करता है, उनके लिए यह बात समझना तो और भी दूर की बात है कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उस सबका उद्देश्य मनुष्य को बचाना है, कि इस सबका उद्देश्य मनुष्य को स्वभाव परिवर्तन हासिल करने में समक्ष बनाना है। इसलिए जैसे-जैसे वे विश्वास करते जाते हैं, वे उत्साह खो देते हैं; जैसे-जैसे वे विश्वास करते जाते हैं, उनके दिल में निराशा और मायूसी की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं और उनमें पीछे हटने और हार मान लेने की भावनाएँ और विचार आते हैं। जहाँ तक परमेश्वर के सार की बात है, यह तो भूल ही जाओ कि वे इसमें विश्वास करेंगे या इसे मानेंगे या इसे स्वीकार करेंगे—जैसे-जैसे वे विश्वास करते जाते हैं, वे इस मसले के बारे में चिंता करने की सोचते तक नहीं हैं। इसीलिए, जब तुम संगति में कहते हो कि परमेश्वर की धार्मिकता और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता जैसी कोई चीज है, कि लोगों को इसे जानना और इसके प्रति समर्पण करना चाहिए तो मसीह-विरोधी बाहरी तौर पर कोई शोर नहीं करेंगे—वे कतई कोई विचार व्यक्त नहीं करेंगे। लेकिन अंदरूनी तौर पर उनके अंदर विकर्षण पैदा होगा : वे सुनना नहीं चाहेंगे; वे सुनने के लिए तैयार नहीं होंगे; उनमें से कुछ बस खड़े होकर चल देंगे। जब हर कोई धर्मोपेदेश सुन रहा होता है, जब दूसरे लोग परमेश्वर के वचनों पर संगति कर रहे होते हैं, जब भाई-बहन पुरे जोश से अपनी अनुभवजन्य गवाहियों के बारे में संगति कर रहे होते हैं तो मसीह-विरोधी क्या कर रहे होते हैं? वे चाय पी रहे होते हैं, पत्रिकाएँ पढ़ रहे होते हैं, अपने फोन से खेल रहे होते हैं और निठल्ले बैठकर गप्पें मार रहे होते हैं। और इन मौन कार्यकलापों से विरोध और प्रतिरोध करते हुए वे अपने व्यवहारों से यह पुष्टि करने का प्रयास करते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सब बेकार है : “तुम लोग महज चीजों को तर्कसंगत ठहराने की कोशिश कर रहे हो, खुद को मूर्ख बना रहे हो—परमेश्वर और सत्य का वास्तव में अस्तित्व नहीं है, और यह बिल्कुल असंभव है कि मानवजाति को परमेश्वर बचा लेगा!” उनकी निगाह में जो लोग सत्य में विश्वास करते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं और इस तथ्य पर विश्वास करते हैं कि परमेश्वर मानवजाति को बचा लेगा, वे सभी मूर्ख हैं—वे सभी बुद्धिहीन हैं और उन सभी को ठगा गया है। वे मानते हैं कि मनुष्य की किस्मत उसके अपने हाथ में है, कि वह दूसरों को इसकी योजना बनाने की अनुमति नहीं दे सकता, कि लोग कठपुतली नहीं हैं, बल्कि उनमें दिमाग है और उनमें समस्याओं के बारे में स्वतंत्र होकर सोचने की योग्यता है—और अगर कोई अपनी किस्मत का नियंत्रण भी अपने हाथ में नहीं ले सकता तो फिर वे कूड़ा हैं, तुच्छ इंसान हैं। इसलिए चाहे जो हो जाए, वे अपनी किस्मत का नियंत्रण परमेश्वर को नहीं सौंपना चाहते हैं। परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसके प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है। वे शुरू से अंत तक ऐसे तमाशबीन और छद्म-विश्वासी बने रहते हैं जो शैतान के चाकरों की भूमिका निभाते हैं। वे मुफ्तखोर और उपद्रवी हैं—वे ऐसे कुकर्मी हैं जो चोरी-छिपे अंदर घुस आए हैं।
ग. परमेश्वर की पवित्रता और विशिष्टता से घृणा करना
मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के स्वभाव सार में धार्मिकता और सर्वशक्तिमत्ता को लेशमात्र भी नहीं मानते हैं और न ही इसमें विश्वास करते हैं, इनके बारे में कोई ज्ञान तो उन्हें बिल्कुल भी नहीं है। परमेश्वर की पवित्रता और विशिष्टता में विश्वास करना, इसे मानना और जानना तो उनके लिए यकीनन और भी कठिन है। इसलिए परमेश्वर जब यह चाहने की बात कहता है कि लोग ईमानदार हों, कि वे ऐसे सरल सृजित प्राणी हों जो अपने स्थान पर कायम रहें तो मसीह-विरोधियों के मन में ख्याल उठने लगते हैं और उनमें एक ऐंठ और भावना आ जाती है। वे कहते हैं : “क्या परमेश्वर उच्च नहीं है? क्या वह सर्वोच्च नहीं है? अगर ऐसा है तो वह मनुष्य से जो अपेक्षाएँ करता है वे भी भव्य और उच्च होनी चाहिए। मुझे लगता था कि परमेश्वर बहुत रहस्यमय है; मैंने नहीं सोचा था कि वह इंसान से ऐसी तुच्छ माँगें करेगा। क्या इन्हें सत्य माना जा सकता है? ये तो बहुत ही साधारण हैं! परमेश्वर की अपेक्षाएँ ऊँची होनी चाहिए : व्यक्ति को अलौकिक होना चाहिए, महान होना चाहिए, सक्षम होना चाहिए—परमेश्वर को इंसान से यही करने की अपेक्षा रखनी चाहिए। वह चाहता है कि व्यक्ति ईमानदार हो—क्या यह वाकई परमेश्वर का कार्य है? क्या यह नकली नहीं है?” अपने दिलों की गहराइयों में मसीह-विरोधी लोग न सिर्फ सत्य का प्रतिरोध करते हैं—जैसा कि वे करते ही है, वे ईशनिंदा भी करते हैं। क्या यह उनका सत्य से घृणा करना नहीं है? वे परमेश्वर की माँगों के प्रति तिरस्कार और नफरत से भरे हुए हैं; वे इन माँगों को तिरस्कार, उपेक्षा, व्यंग्य और उपहास के रवैये के साथ परिभाषित करते हैं और इसी रवैये के साथ इनसे पेश आते हैं। स्पष्ट है कि मसीह-विरोधी लोग अपने स्वभाव सार में घिनौने होते हैं; वे उन चीजों या शब्दों को स्वीकार नहीं पाते जो सच्ची, सुंदर और व्यावहारिक हैं। परमेश्वर का सार सच्चा और व्यावहारिक है और लोगों से उसकी अपेक्षाएँ लोगों की जरूरतों के अनुरूप हैं। जैसा कि मसीह-विरोधी लोग कहते हैं “भव्य और उदात्त”—वह क्या है? यह झूठा, खाली और खोखला है; यह लोगों को भ्रष्ट और गुमराह करता है; यह उन्हें गिराता है और परमेश्वर से बहुत दूर ले जाता है। दूसरी ओर परमेश्वर का जीवन और उसके द्वारा व्यक्त सत्य विश्वसनीय, प्यारे और व्यावहारिक हैं। एक बार व्यक्ति जब कुछ देर के लिए परमेश्वर के वचनों का अनुभव कर लेता है और उन्हें जी लेता है तो वह जान लेगा कि अकेला परमेश्वर का जीवन ही सबसे प्यारा है, कि अकेले उसके वचन ही लोगों को बदल सकते हैं और उनका जीवन बन सकते हैं और यही लोगों की जरूरत हैं—जबकि शैतान और मसीह-विरोधी लोग जो भव्य और उदात्त विचार और कहावतें पेश करते हैं वे परमेश्वर की मनुष्य से अपेक्षाओं की सच्चाई और व्यावहारिकता के बिल्कुल उलट हैं। इसलिए मसीह-विरोधी लोग अपने ऐसे सार के आधार पर परमेश्वर की पवित्रता और विशिष्टता को स्वीकार करने में पूरी तरह असमर्थ रहते हैं। वे कतई किसी सूरत में इन चीजों को नहीं मानेंगे। जहाँ तक परमेश्वर द्वारा लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्ट सार के विभिन्न पहलू—उनकी हठधर्मिता और अहंकार, उनके कपटीपन, दुष्टता, सत्य के प्रति विमुख होने और क्रूरता के स्वभाव—उजागर करने की बात है, मसीह-विरोधी लोग इन्हें भी बिल्कुल नहीं स्वीकारते। और, जहाँ तक परमेश्वर द्वारा लोगों का न्याय करने और उन्हें कठोर फटकार लगाने की बात है, मसीह-विरोधी लोग इनमें न सिर्फ परमेश्वर की पवित्रता और मनोहरता नहीं जान पाते—बल्कि, वे दिल से उन वचनों से विमुख रहते हैं जो परमेश्वर सुनाता है और उनका प्रतिरोध करते हैं। जब भी वे ताड़ना, न्याय और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो उनसे घृणा करते हैं और इन्हें कोसना चाहते हैं। अगर कोई यह कहता है कि वे अहंकारी, हठधर्मी, दुष्ट और सत्य से विमुख इंसान हैं तो वे उस व्यक्ति से बहस कर उसके पुरखों को गालियाँ देंगे; और अगर कोई उनके भ्रष्ट सार का खुलासा कर उनकी निंदा करता है तो उन्हें लगता है कि मानो वह व्यक्ति उनकी जान लेना चाहता था—वे इसे कतई स्वीकार नहीं करते। इसका कारण यह है कि मसीह-विरोधियों का ऐसा सार होता है और वे ऐसी चीजें प्रकट करते हैं जिससे वे अनजाने में ही पहचान लिए जाते हैं, और परमेश्वर के घर और कलीसिया में अनजाने में ही वे अलग-थलग और बेनकाब कर दिए जाते हैं। उनकी महत्वाकांक्षा और इच्छा अक्सर पूरी नहीं होती, इसलिए उनके मन में परमेश्वर के वचनों के प्रति, उसके अस्तित्व के प्रति और इस वाक्यांश के प्रति घृणा बढ़ जाती है कि “परमेश्वर के घर में सत्य का शासन होता है।” अगर तुम यह वाक्यांश उन्हें सुनाओगे तो वे मरने-मारने पर उतर आएँगे और तुम्हें तड़पा-तड़पा कर और सजा दे कर मारना चाहेंगे। क्या यह अपने आप में यह नहीं दिखाता कि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के प्रति शत्रुवत हैं? वास्तव में, यह दिखाता है! अगर किसी व्यक्ति ने यह कह दिया कि “परमेश्वर विशिष्ट है; मनुष्य उसके अलावा न किसी व्यक्ति की आराधना कर सकता है, न ही किसी मूर्ति की” तो क्या कोई मसीह-विरोधी यह सुनने के लिए तैयार होगा? (नहीं।) क्यों नहीं? ये शब्द मसीह-विरोधियों की निंदा करते हैं, है ना? क्या ये शब्द उन्हें परमेश्वर होने के अधिकार से वंचित नहीं कर देते? यह उम्मीद मिट जाने पर क्या वे परमेश्वर होने के अधिकार के बिना खुश होंगे? (नहीं।) इसीलिए अगर तुमने उन्हें उजागर कर दिया, उनकी पद-प्रतिष्ठा को इस तरह मिट्टी में मिला दिया कि कोई उनकी आराधना करने वाला न हो, उन्हें इस लायक नहीं छोड़ा कि वे लोगों को अपना बना सकें, उनके पास रुतबा न रहे तो वे तुम्हें सताने के लिए अपने विद्वेषपूर्ण, राक्षसी पंजों के साथ तुम तक पहुँच जाएँगे। जब कलीसिया में चीजें घटित होती हैं और कोई व्यक्ति उनके बारे में ऊपरवाले को सूचित करना चाहता है, तब अगर कलीसिया का अगुआ मसीह-विरोधी हुआ तो क्या वह सूचित करने देगा? वह ऐसा नहीं करने देगा। वह कहेगा, “अगर तुम यह सूचना देना चाहते हो तो इसके नतीजे खुद झेलना! अगर ऊपरवाला हमारी काट-छाँट करता है और हमारी कलीसिया से लोगों को बाहर निकाल देता है, मैं यह सुनिश्चित करूँगा कि तुम्हें पछताना पड़े—मैं हर किसी को तुम्हारा साथ छोड़ने को कहूँगा। तब तुम महसूस करोगे कि बाहर निकाले जाने पर कैसा लगता है!” क्या यह बात सूचना देने जा रहे व्यक्ति को डराती-धमकाती नहीं है? मसीह-विरोधी कहता है, “परमेश्वर विशिष्ट है, है ना? ठीक है; मैं भी विशिष्ट हूँ। मैं जो कहता हूँ, वही हमारी कलीसिया में होता है। तुम जो कुछ भी करना चाहते हो, वह मेरी नजरों से होकर गुजरना चाहिए—और तुम मुझे लाँघकर नहीं जा सकते। क्या तुम मुझे लाँघकर जाना चाहते हो? ऐसा तुम्हें मेरी लाश के ऊपर से करना होगा! हमारी कलीसिया में मेरा शासन है; मैं जो कहता हूँ, यहाँ वही होता है। मैं ही सत्य हूँ—मैं ही विशिष्ट हूँ!” क्या यह एक दानव प्रकट नहीं हो गया? बिल्कुल—यह दानवी चेहरा बेनकाब हुआ है, ये दानवी शब्द बोले गए हैं।
जहाँ तक यह बात है कि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के सार से कैसे पेश आते हैं, तो वे छद्म-विश्वास और संदेहों से शुरू कर सही समय आने का इंतजार और परीक्षण करते हैं, और आखिर में आलोचना और निंदा करने लगते हैं। इससे वे कदम-दर-कदम दलदल में, अगाध गर्त में धँसते जाते हैं और परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसका दुश्मन बनने की राह की ओर बढ़ते जाते हैं, उसके साथ पूर्ण मतभेद रखते हैं और अंत में उसके खिलाफ शोर मचाने लगते हैं जहाँ से वापस लौटने की कोई राह नहीं होती। वे परमेश्वर के सार के अस्तित्व को मानने में ही नाकाम नहीं होते—बल्कि, उनके मन में परमेश्वर के सार के हर पहलू को लेकर तमाम तरह की धारणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं, जिनसे वे अपने आसपास के लोगों और अपने संपर्क में आने वाले लोगों को गुमराह करते हैं। उनका लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने जैसा बनाना है जो परमेश्वर के अस्तित्व और उसके सार के अस्तित्व पर संदेह करें। जब वे मरते हैं तो वे दूसरों को भी अपने साथ नीचे ले जाते हैं। अपने आप बुरी चीजें कर लेना उनके लिए काफी नहीं होता—वे अपना साथ देने के लिए दूसरों को खोजना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि ये लोग उनके साथ-साथ बुरी चीजें करें, उनके साथ परमेश्वर का प्रतिरोध और परमेश्वर के घर का कार्य बाधित करें और उनके साथ परमेश्वर पर संदेह करें और उसे नकारें। परमेश्वर के सार के हर पहलू को लेकर मसीह-विरोधी लोग धारणाओं और कल्पनाओं से भरे रहते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं है कि परमेश्वर जो कुछ करता है उससे वे परमेश्वर के सार को नहीं जान पाते—बल्कि वे परमेश्वर के सार का कड़ाई से विश्लेषण, अध्ययन, परीक्षण करते हैं और इसके बारे में अपने फैसले सुनाते हैं, और तो और गुपचुप ढंग से परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करते हुए कहते हैं : “क्या तुम विशिष्ट नहीं हो? क्या तुम वो परमेश्वर नहीं हो जो मानवजाति की नियति का संप्रभु है? जो लोग तुममें विश्वास करते हैं उनके साथ तुम ऐसी चीजें कैसे होने दे सकते हो? अगर तुम विशिष्ट परमेश्वर हो तो तुम्हें किसी भी दुश्मन ताकत को अपने कार्यस्थान में नहीं घुसने देना चाहिए।” ये कैसी बातें हैं? कलीसिया में जब कभी कोई चीज होती है तो एक मसीह-विरोधी ही ऐसा पहला व्यक्ति होगा जो खड़े होकर कमजोर करने वाली चीजें, नकारात्मक और आलोचनापरक शब्द बोलेगा। वह पहला व्यक्ति होगा जो परमेश्वर से बहस करेगा, उसका विरोध करेगा और यह माँग करेगा कि परमेश्वर यह करे या वो करे। खासकर यही वह दौर होता है जब परमेश्वर का घर ऐसी कठिनाइयों या मुश्किल समस्याओं का सामना करता है जिनसे मसीह-विरोधी लोग खुश होते हैं। यही वह दौर होता है जब ऐसे लोग सबसे खुश और सबसे मुदित होते हैं, जब वे खुशी के मारे फूले नहीं समाते। वे न सिर्फ परमेश्वर के घर के हितों को कायम नहीं रख पाते—बल्कि, वे तमाशबीन बनकर देखते रहते हैं, और हँसते रहते हैं, उत्सुक होकर यह इंतजार करते हैं कि परमेश्वर के घर में विद्रोह सिर उठाए, कि उसके चुने हुए लोगों को पकड़ लिया जाए और तितर-बितर कर दिया जाए, और उसका घर आगे तरक्की न कर पाए। वे उतने ही खुश होते हैं जितने नए साल की संध्या के जश्न पर होते हैं। और हर बार जब परमेश्वर के घर में होने वाली चीज का निपटारा और समाधान हो जाता है, जब भाई-बहन इससे सबक सीख चुके होते हैं तो तब मसीह-विरोधियों को “सजा का आदेश” सुनाया जाएगा। यही वह समय भी होता है जब मसीह-विरोधी सबसे मायूस, दुखी और निराश होते हैं। वे भाई-बहनों को अच्छे से कार्य करते हुए या परमेश्वर के अनुयायियों को आस्था रखते हुए और उसका अनुसरण करते समय विश्वास से भरा हुआ देखना सह नहीं सकते; वे यह देखना भी सहन नहीं कर पाते कि भाई-बहन परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में अपने स्वभाव बदल रहे हैं और निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य निभा रहे हैं और परमेश्वर का कार्य उत्तरोत्तर बेहतर होता जा रहा है। वे यह देखना सहन नहीं करते कि कलीसिया फल-फूल रही है या परमेश्वर की प्रबंधन योजना एक अच्छी दिशा में धीरे-धीरे विकसित हो रही है—और वे इससे तो और भी ज्यादा घृणा करते हैं कि लोग हमेशा परमेश्वर के वचनों का प्रचार कर रहे हैं, उसके लिए गवाही दे रहे हैं, और उसकी मनोहरता और उसके धार्मिक स्वभाव की प्रशंसा कर रहे हैं। और उससे भी ज्यादा घृणा उन्हें तब होती है जब लोग अपने साथ कुछ भी होने पर परमेश्वर को खोजते हैं, उससे प्रार्थना करते हैं और उसके वचन खोजते हैं और उसके प्रति समर्पण कर उसके आयोजन का अनुपालन करते हैं। हालाँकि मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के घर में खाते हैं, परमेश्वर के वचनों का आनंद लेते हैं और उसके घर के सभी फायदे उठाते हैं, फिर भी वे अक्सर चाहते हैं कि उन्हें परमेश्वर के घर का मखौल उड़ाने का मौका मिले। वे बेसब्री से इस ताक में बैठे हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले सभी लोग बिखर जाएँ और परमेश्वर का कार्य आगे तरक्की करने लायक न रहे। इसलिए जब परमेश्वर के घर में कुछ होता है तो इसकी रक्षा करने की बजाय या समस्या हल करने के तरीके सोचने या अपनी पूरी ताकत से भाई-बहनों की रक्षा करने या उनके साथ मिल-जुलकर समस्या का हल करने या एक साथ मिलकर परमेश्वर के समक्ष आने और उसकी संप्रभुता के प्रति समर्पण करने की बजाय मसीह-विरोधी लोग तमाशबीन बने रहेंगे, हँसते रहेंगे, अनर्गल सलाह देंगे, विध्वंश करेंगे और बाधा डालते रहेंगे। किसी महत्वपूर्ण क्षण में तो वे परमेश्वर के घर की कीमत पर बाहरी लोगों को मदद की पेशकश भी कर देंगे, इस प्रकार वे शैतान के चाकर के रूप में पेश आते हैं और जानबूझकर बाधा डालकर चीजों का विध्वंश करते हैं। क्या ऐसा इंसान परेश्वर का दुश्मन नहीं होता है? जितना ज्यादा महत्वपूर्ण क्षण होगा, उतने ही ज्यादा स्पष्ट रूप से उनकी दानवी समानता उजागर होती है; जितना अधिक महत्वपूर्ण क्षण होगा, उतना ही अधिक यह घटनापूर्ण होगा, और उतनी ही ज्यादा उनकी दानवी समानता अपनी पूरी गहराई और सीमा तक उजागर होगी; जितना अधिक महत्वपूर्ण क्षण होगा, वे परमेश्वर के घर की कीमत पर बाहरी लोगों की उतनी ही अधिक मदद करेंगे। ये कैसे लोग हैं? क्या ऐसे लोग भाई-बहन हैं? ये विनाशकारी, घृणित कार्य करने वाले लोग हैं; ये परमेश्वर के दुश्मन हैं; ये दानव हैं, शैतान हैं; ये बुरे लोग हैं, मसीह-विरोधी हैं। ये भाई-बहन नहीं हैं और ये उद्धार के पात्र नहीं हैं। अगर ये वास्तव में भाई-बहन होते, परमेश्वर के घर के लोग होते तो उसके घर में कोई भी समस्या आने पर ये अपने भाई-बहनों के साथ दिल और दिमाग से एक होकर उसका सामना करते और एक साथ मिलकर इसे सँभालते। वे तमाशबीन बनकर खड़े नहीं रहते और न ही वे इसे देखकर हँसते रहते। ऐसी स्थिति में केवल मसीह-विरोधी जैसे लोग ही होंगे जो तमाशबीन बनकर हँसते रहेंगे और परमेश्वर के घर में बुरी चीजें घटने का बेसब्री से इंतजार करेंगे।
मसीह-विरोधियों का सार हर किसी मामले में उजागर हो सकता है। यह कतई नहीं छिपाया जा सकता है। मसीह-विरोधी लोग कुछ भी कर रहे हों, कोई भी मसला हो, वे जो भी विचार और स्वभाव प्रकट कर रहे हों सारे ही मनुष्य और परमेश्वर के प्रति घृणा उत्पन्न करने वाले होते हैं। वे न केवल तमाम तरह की चीजों को तहस-नहस कर इनमें गड़बड़ी और बाधा पैदा करते हैं, और तमाशबीन बनकर हँसते रहते हैं—वे अक्सर परमेश्वर से बहस भी करते हैं और उसकी परीक्षा भी लेते हैं। परमेश्वर की परीक्षा लेना, इसका क्या अर्थ है? (वे दिल से परमेश्वर में विश्वास नहीं करते और उसके विचार परखने और पता लगाने के लिए कुछ बातें कहते हैं या कुछ तरकीबें अपनाते हैं।) तुम देखते हो कि ऐसा कई बार होता है। अय्यूब के मामले में शैतान ने परमेश्वर की परीक्षा कैसे ली? (शैतान जब पहली बार बोला तो उसने कहा कि अगर परमेश्वर ने अय्यूब के घर और संपत्ति को नष्ट कर दिया तो वह अब और परमेश्वर की आराधना नहीं करेगा; दूसरी बार में उसने कहा कि अगर परमेश्वर ने अय्यूब के हाड़-मांस को नष्ट कर दिया तो वह परमेश्वर को नकार देगा। शैतान चाहता था कि अय्यूब पर आपदाएँ लाकर परमेश्वर की परीक्षा ली जाए।) क्या यह परीक्षा है? क्या यह इस शब्द की सटीक परिभाषा है? (नहीं।) सख्ती से कहें तो इन परिच्छेदों का आशय एक लांछन से है। ये बातें कहने के पीछे शैतान का मतलब यह था, “क्या तुम्हीं ने नहीं कहा कि अय्यूब एक पूर्ण व्यक्ति है? तुमने उसे जो तमाम अच्छी चीजें दी हैं, उनके कारण यह कैसे हो सकता है कि वह तुम्हारी आराधना न करे? अगर तुम उससे वे अच्छी चीजें छीन लो तो क्या तुम्हें लगता है कि तब भी वह तुम्हारी आराधना करेगा?” यह एक लांछन है। तो फिर परीक्षा किस तरह की चीज को कहते हैं? शैतान ने लुटेरों से अय्यूब की संपत्ति लूटने-खसोटने को कहा। यह अय्यूब के लिए एक परीक्षा थी। यह परीक्षा कैसे है? इस तरह से : “क्या तुम्हें परमेश्वर में विश्वास नहीं है? अगर मैं तुमसे ये चीजें छीन लूँगा, तो देखते हैं कि तब भी तुम उसमें विश्वास रखते हो या नहीं!” लेकिन अय्यूब ने इसे किस रूप में समझा? इसे परमेश्वर से आई एक परीक्षा मानते हुए वह न तो लड़ा-भिड़ा, न ही उसने कुछ कहा—उसने समर्पण किया और इसे परमेश्वर से स्वीकार किया। प्रभु यीशु के साथ भी कुछ चीजें घटीं : शैतान का उसे पत्थरों को रोटी में बदलवाना, उसे संसार का सारा यश और वैभव दिखाना और उससे सिर झुकाकर अपनी आराधना करवाना। वे प्रलोभन थे। अब परमेश्वर की परीक्षा के रूप में मसीह-विरोधी लोग कौन-सी चीजें करते हैं? (मसीह-विरोधियों के पास परमेश्वर का भय मानने वाले दिल नहीं होते। वे जानते हुए भी बुराई करते हैं; वे यह देखने के लिए परमेश्वर की परीक्षा लेना चाहते हैं कि क्या वह उन्हें दंड देगा कि नहीं। चूँकि वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव में विश्वास नहीं करते, इसलिए जब वे बुराई करते हैं तो इससे अनजान रहते हैं।) यह एक परीक्षा है। वे इस मानसिकता के साथ इसमें उतरते हैं कि चलो इसे आजमाकर देख लेते हैं; वे यह देखना चाहते हैं कि आखिर परमेश्वर क्या करेगा : “क्या परमेश्वर प्रतापी और क्रोधी नहीं है? मैं कलीसिया पर अत्याचार कर रहा हूँ। मैंने परमेश्वर और इंसान के पीठ पीछे इतनी सारी बुरी चीजें की हैं—क्या परमेश्वर इस बारे में जानता है या नहीं? अगर मेरे मन में कोई दुख नहीं है और मैं कोई दैहिक दंड नहीं भोगता तो इसका मतलब है कि परमेश्वर नहीं जानता है।” वे छोटे-छोटे धावे बोलकर यह परखते रहते हैं कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है या नहीं, वह लोगों के अंतस्थल को गौर से देखता है या नहीं। इन्हें ही परीक्षाएँ कहते हैं। वे मामले की सत्यता की पुष्टि करना चाहते हैं, यह परखना चाहते हैं कि क्या परमेश्वर वास्तव में कार्रवाई करेगा और क्या वास्तव में उसका अस्तित्व है। यही परीक्षाएँ हैं।
एक बार चीन की मुख्य भूमि पर एक मसीह-विरोधी ने लोगों के एक समूह को गुमराह कर दिया। उसने परमेश्वर के घर को विदेशों में भजन-मंडली बनाकर भजन गाते देखा तो सोचा, “अगर तुम लोग विदेशों में भजन-मंडली बना सकते हो तो हम यहाँ भी बना सकते हैं।” इसलिए वह विभिन्न स्थानों से लोगों को जुटाकर भजन-मंडली में गाने के लिए ले आया। उन्हें सुनने के लिए उसने बड़ी संख्या में श्रोता भी जुटाए; यह देखने लायक दृश्य था। उसने ऐसा क्यों किया? एक लिहाज से वह एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर रहा था, जिसे विस्तार से समझाने की जरूरत नहीं है। दूसरे लिहाज से उसका आशय यह था, “हम जिस परमेश्वर में विश्वास करते हैं वह सच्चा परमेश्वर है, और हमारे पास पवित्र आत्मा का कार्य है। भले ही हम एक प्रतिकूल परिवेश में हों जहाँ बड़ा लाल अजगर हमारा उत्पीड़न कर रहा है और हमें बारीक और कड़ी निगरानी में रख रहा है, लेकिन हमें लोगों को दिखाना चाहिए कि क्या परमेश्वर हमारी सुरक्षा करता है या नहीं। हमें यह देखना चाहिए कि क्या हमारे साथ कुछ हो सकता है; हमें यह देखना चाहिए कि क्या हम पकड़े जाते हैं।” यह कैसी मानसिकता है? (परीक्षा लेने वाली मानसिकता।) यह परीक्षा लेना है—यह ऐसे विश्वास के झंडे फहराना और ऐसे जुमले इस्तेमाल करना है जैसे कि यह विश्वास करना कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है जिससे यह परखा जा सके कि परमेश्वर वास्तव में क्या करेगा, उसके साथ शर्त लगाई जा सके और उससे प्रतिस्पर्धा की जा सके। इसे “परीक्षा लेना” कहा जाता है। क्योंकि कुछ लोगों से जब दूसरे लोग कहते हैं कि “तुम यह मत खाओ; इससे पेट खराब हो जाएगा” तो वे कहते हैं, “मुझे तुम्हारी बात पर यकीन नहीं है, मैं इसे खाऊँगा! देखते हैं कि परमेश्वर मेरा पेट खराब करता कि नहीं।” इसलिए वे इसे खाते हैं और वास्तव में इससे उनका पेट खराब हो जाता है। वे मन-ही-मन में सोचते हैं, “परमेश्वर ने मेरा बचाव क्यों नहीं किया? इसने दूसरे लोगों का पेट खराब किया लेकिन इसका कारण यह है कि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं। मैं तो परमेश्वर में विश्वास करता हूँ; इसने बाकी सबकी तरह मेरा पेट क्यों खराब कर दिया?” यह कैसा व्यवहार है? (परीक्षा लेने वाला व्यवहार।) यह उनके परमेश्वर को नहीं जानने का नतीजा है। लेकिन मसीह-विरोधियों के साथ कुछ और भी बात है : वे परमेश्वर के सार के अस्तित्व को बिल्कुल नहीं मानते, इसलिए वे चीजें अपने प्रयासों और अपनी कल्पनाओं के आधार पर करते हैं, अपनी आस्था के आधार पर नहीं। इसके बजाय वे परमेश्वर को परखते हैं। वे अपने व्यवहार और अपने क्षणिक विचारों और आवेगों का उपयोग यह जाँचने के लिए करते हैं कि क्या परमेश्वर है, क्या उसकी सर्वशक्तिमत्ता वास्तविक है और क्या वह सचमुच उनकी रक्षा कर सकता है। अगर उनका प्रयोग सफल रहता है तो फिर उसी आधार पर उनकी आस्था कायम रहेगी; अगर प्रयोग विफल हो जाता है, अगर परमेश्वर उन्हें निराश कर देता है तो वे क्या करेंगे? वे कहेंगे, “मैं अब और परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगा। ऐसा नहीं लगता कि वह लोगों की परवाह करता है। हर कोई कहता है कि परमेश्वर मनुष्य का आसरा है—जैसा मैंने देखा, जरूरी नहीं कि ऐसा ही है। इन शब्दों के संबंध में लोगों को भविष्य में अपने लिए कोई दूसरा सहारा भी तैयार करने की जरूरत है; उन्हें इतना मूर्ख नहीं होना चाहिए। लोगों को अपने मामले खुद ही हल करने की जरूरत है—वे हर चीज के लिए परमेश्वर के सहारे नहीं रह सकते।” इन परीक्षाओं से उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला है। इस निष्कर्ष के बारे में तुम्हारी क्या राय है? अगर लोग सत्य का अनुसरण करते हैं तो क्या उनके लिए भी यही नतीजा निकलेगा? (नहीं।) क्यों नहीं? अगर लोग सत्य का अनुसरण करेंगे तो अंततः उन्हें एक अच्छी, सकारात्मक उपलब्धि और पुरस्कार मिलेगा। यानी लोग चाहे जो भी कार्य करें, इन चीजों को देखने और इनके जवाब में कार्य करने के लिए परमेश्वर के अपने तरीके और सिद्धांत हैं, तो लोगों के पास निभाने के लिए अपने दायित्व हैं और उनकी अपनी सहज प्रवृत्ति होती है। परमेश्वर उन्हें यह सहज प्रवृत्ति प्रदान करता है; वह उन्हें पहले ही सिद्धांत दे चुका है, इसलिए लोगों को परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में इन्हीं सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। कुछ मामलों में ऊपरी तौर पर लगता है कि परमेश्वर को मनुष्य की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन क्या यह “चाहिए” मनुष्य से आता है या परमेश्वर से? (मनुष्य से।) यह मनुष्य के मन की कल्पना है। यह “चाहिए” सत्य नहीं है; यह परमेश्वर की जिम्मेदारी नहीं है। तो फिर परमेश्वर वास्तव में क्या करता है? परमेश्वर के कार्य करने के अपने तरीके और अपने सिद्धांत हैं। कभी-कभी तुम्हारी रक्षा न करके वह तुम्हारा खुलासा कर रहा होता है, वह यह देखता है कि तुम कौन-सा मार्ग चुनते हो। कभी-कभी प्रतिकूल परिवेश के जरिये वह किसी क्षेत्र में तुम्हारे ज्ञान को पूर्ण कर रहा होता है, वह तुम्हें सत्य का कोई पहलू जानने और किसी मामले में बदलाव लाने देता है। वह तुम्हें मजबूत और विकसित कर रहा है। संक्षेप में कहें तो परमेश्वर चाहे जैसे भी कार्य करे, उसके पीछे उसके अपने सिद्धांत और कारण हैं, साथ ही उसके अपने लक्ष्य और उद्देश्य भी हैं। अगर तुम इस विचार को सत्य मानते हो कि “परमेश्वर को मेरी रक्षा करनी चाहिए और उसे अमुक तरीके से कार्य करना चाहिए” और इस पर कायम रहकर इसी अनुसार परमेश्वर के सामने माँगें रखते हो तो जब परमेश्वर उस तरीके से कार्य नहीं करेगा तो तुम्हारे और परमेश्वर के बीच टकराव पैदा होगा। जब यह टकराव होगा तो दोष परमेश्वर का नहीं होगा। दोष किसका होगा? (मनुष्य का।) इसकी शुरुआत लोगों के विचारों में गड़बड़ी से होती है, उनके गलत रुख और गलत दृष्टिकोण अपनाने से होती है। जब तुम परमेश्वर से एक खास तरीके से कार्य करने के लिए कहते हो तो तुम्हें अपनी बात काफी उचित लगेगी। लेकिन एक कदम पीछे हटकर जब तुम समर्पण कर सकते हो और स्वीकार कर सकते हो तो तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे औचित्यों में दम नहीं है और ये तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव और अनुचित मांगें हैं। जब तुम स्वीकार कर सकते हो तो परमेश्वर तुम्हें उस सत्य और ज्ञान का पैमाना प्रदान करेगा जो तुम्हें प्राप्त करना चाहिए। जैसा कि वह सुनिश्चित करता है, तुम्हें सत्य का तत्व ही सबसे अधिक प्राप्त करना चाहिए, न कि कोई तुच्छ अनुग्रह या आशीष। अकेला परमेश्वर ही जानता है कि तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है और वह इसे सही समय पर और छोटी-छोटी खुराक में तुम्हें प्रदान करता है। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी लोग सत्य को या पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं मानते। चाहे कोई भी सत्य के बारे में संगति कर ले और परमेश्वर के प्रेम और उद्धार की गवाही दे दे, एक मसीह-विरोधी न केवल इसे स्वीकारने से मना कर देगा, बल्कि वह इससे दूर हटकर इसका प्रतिरोध भी करेगा। मसीह-विरोधियों और सामान्य भ्रष्ट लोगों में यही फर्क है।
परमेश्वर की पहचान और उसके सार की विशिष्टता को नकारने के मसीह-विरोधियों के लक्षण पर हम अपनी संगति यहीं समाप्त करेंगे। क्या तुम लोगों के पास कोई और भी सवाल हैं? (परमेश्वर, मेरा एक सवाल है। सुसमाचार प्रचार करते हुए मैं प्रभु में विश्वास रखने वाले कई लोगों का सामना करता हूँ और वे सभी पौलुस के इस विचार का पालन करने पर तुले रहते हैं, “मेरे लिये जीवित रहना मसीह है।” उन्हें लगता है कि अगर वे पौलुस के शब्दों के मानक पूरे कर सकें तो वे परमेश्वर बन सकते हैं। क्या यह भी मसीह-विरोधियों की एक और अभिव्यक्ति है, और परमेश्वर के सार की विशिष्टता को नकारना भी है?) बिल्कुल, कमोबेश। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर की विशिष्टता को मुख्यतः इसलिए नकारते हैं क्योंकि वे परमेश्वर बनना चाहते हैं। पौलुस के शब्द उनके विशेष रूप से पसंदीदा शब्द हैं : “क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, जीवित रहना परमेश्वर है, परमेश्वर के जीवन के साथ मैं परमेश्वर हूँ।” उनका मानना है कि अगर यह दृष्टिकोण सत्य है, तो उनके परमेश्वर बनने, राजा की तरह राज करने और लोगों पर नियंत्रण रखने की आशा है; अगर यह सत्य नहीं है, तो राजा की तरह राज करने और परमेश्वर बनने की उनकी आशा चूर-चूर हो जाएगी। संक्षेप में, शैतान हमेशा परमेश्वर के साथ बराबरी वाले स्तर पर रहना चाहता है—और मसीह-विरोधी भी ऐसा ही चाहते हैं : उनमें भी यही सार होता है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर का अनुसरण करने वालों में ऐसे लोग हैं जो लगातार परमेश्वर की बड़ाई करते हैं और उसकी गवाही देते हैं, उसके कार्य की और उसके वचनों के न्याय और ताड़ना के मनुष्य पर पड़ने वाले प्रभाव की गवाही देते हैं। वे उस समस्त कार्य की प्रशंसा करते हैं जो परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए करता है, और वे परमेश्वर द्वारा चुकाई गई कीमत की भी प्रशंसा करते हैं। क्या मसीह-विरोधी भी इस सबका आनंद लेना चाहते हैं या वे ऐसा नहीं चाहते? वे लोगों के समर्थन, चापलूसी, बड़ाई—यहाँ तक कि प्रशंसा का भी आनंद लेना चाहते हैं। और उनके अन्य कौन-से शर्मनाक विचार होते हैं? वे चाहते हैं कि लोग उन पर विश्वास करें, सभी बातों में उन पर निर्भर रहें; लोगों का परमेश्वर पर भी भरोसा करना ठीक है—लेकिन परमेश्वर पर भरोसा करने के दौरान ही अगर उनका मसीह-विरोधियों पर भरोसा और भी अधिक वास्तविक और सच्चा हो तो मसीह-विरोधी अत्यधिक प्रसन्न होंगे। जिस समय तुम परमेश्वर की स्तुति करते हो और परमेश्वर द्वारा दिए गए अनुग्रह गिनते हो, अगर उसी समय तुम मसीह-विरोधियों की सभी सराहनीय उपलब्धियों को भी उसमें जोड़ लेते हो, और उनके हर कृत्य का व्यापक प्रचार करते हुए अपने भाई-बहनों के बीच उनकी स्तुति गाते हो, तो वे अपने दिलों में अत्यधिक प्रसन्न होंगे और संतुष्ट अनुभव करेंगे। इस प्रकार मसीह-विरोधी के प्रकृति सार के दृष्टिकोण से बोलते हुए जब तुम कहते हो कि परमेश्वर के पास अधिकार है, कि वह धार्मिक है, और वह लोगों को बचाने में सक्षम है, जब तुम कहते हो कि केवल परमेश्वर के पास ही ऐसा सार है, कि केवल परमेश्वर ही इस प्रकार का कार्य कर सकता है, और इन चीजों को करने में कोई भी उसका स्थान नहीं ले सकता, न उसका प्रतिनिधित्व ही कर सकता है, न ही किसी में यह सार हो सकता है और न ही वह इन चीजों को कर सकता है : जब तुम यह कहते हो, तो मसीह-विरोधी अपने दिलों में इन शब्दों को स्वीकार नहीं करते, और उन्हें मानने से इनकार कर देते हैं। वे उन्हें स्वीकार क्यों नहीं करते? क्योंकि उनमें महत्वाकांक्षाएँ होती हैं—यह मुद्दे का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष यह है कि वे देहधारी देह को परमेश्वर नहीं मानते और न ही उसे स्वीकार करते हैं। जब भी कोई कहता है कि परमेश्वर विशिष्ट है, केवल परमेश्वर ही धार्मिक है, तो वे अपने हृदय में इससे असहमत होते हैं और यह कहते हुए आंतरिक रूप से इसका विरोध करते हैं : “गलत—मैं भी धार्मिक हूँ!” जब तुम कहते हो कि केवल परमेश्वर ही पवित्र है, तो वे कहेंगे : “गलत—मैं भी पवित्र हूँ!” पौलुस इसका एक उदाहरण है : जब लोगों ने प्रभु यीशु मसीह के वचनों का प्रसार करते हुए कहा कि प्रभु यीशु मसीह ने मानव जाति के लिए अपना बहुमूल्य रक्त दिया, कि वह पापबलि बना, और उसने समस्त मानव जाति को बचाया, और समस्त मानव जाति को पाप से छुटकारा दिलाया—तो यह सुनकर पौलुस को कैसा लगा? क्या उसने स्वीकार किया कि यह सब परमेश्वर का कार्य था? क्या उसने स्वीकार किया कि वह, जो यह सब करने में सक्षम था, मसीह था, और केवल मसीह ही यह सब कर सकता था? और क्या उसने स्वीकार किया कि केवल वही, जो यह सब करने में सक्षम था, परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता था? उसने ऐसा नहीं किया। उसने कहा : “अगर यीशु सूली पर चढ़ाया जा सकता है, तो लोग भी सूली पर चढ़ाए जा सकते हैं! अगर वह अपना कीमती लहू दे सकता है, तो लोग भी दे सकते हैं! इसके अतिरिक्त, मैं भी प्रचार कर सकता हूँ, और मैं उससे अधिक ज्ञानी हूँ, और मैं कष्ट सह सकता हूँ! अगर तुम कहते हो कि वह मसीह है, तो क्या मुझे भी मसीह नहीं कहा जाना चाहिए? अगर तुम उसके पवित्र नाम को फैलाते हो, तो क्या तुम्हें मेरा नाम भी नहीं फैलाना चाहिए? अगर वह मसीह कहलाने के योग्य है, अगर वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता है, और अगर वह परमेश्वर का पुत्र है, तो क्या हम भी नहीं हैं? हम जो कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हैं, और परमेश्वर के लिए कड़ी मेहनत और कार्य कर सकते हैं—क्या हम भी मसीह नहीं कहलाए जा सकते? परमेश्वर से अनुमोदन पाना और मसीह कहलाना मसीह से कैसे भिन्न है?” संक्षेप में कहें तो मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के सार के विशिष्टता वाले पहलू को समझने में विफल रहे हैं, और वे नहीं समझते कि वास्तव में परमेश्वर की विशिष्टता क्या है। वे मानते हैं, “मसीह या परमेश्वर होना कोई ऐसी चीज है, जो व्यक्ति अपने कौशल और क्षमता के बल पर बनता है, जैसे कोई व्यक्ति लड़-भिड़कर शक्ति हासिल करता है। तुम परमेश्वर का सार होने से मसीह नहीं कहलाते। मसीह होना व्यक्ति के अपने कौशल के दम पर की गई कड़ी मेहनत का नतीजा है। यह बिल्कुल दुनिया की चीजों की तरह है—जो भी ज्यादा कुशल और सक्षम है, वही एक बड़ा अधिकारी बन सकता है और उसी का कहा अंतिम हो सकता है।” यह उनका तर्क है। मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचन को सत्य नहीं मानते। परमेश्वर का सार और स्वभाव, जिनके बारे में परमेश्वर के वचनों में कहा गया है, उनकी समझ से बाहर होते हैं; वे आम आदमी और बाहरी लोग हैं, और उन्हें कुछ भी पता नहीं है, इसलिए उनकी बातों में पूरी तरह से बाहरी लोगों के शब्द, आध्यात्मिक समझ से रहित शब्द भरे होते हैं। अगर उन्होंने कुछ वर्षों तक काम किया होता है और वे सोचते हैं कि वे कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हैं, कि वे धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते समय हवा-हवाई बातें कर सकते हैं, उन्होंने बगुलाभगत बनना सीख लिया है, और वे दूसरों को गुमराह कर सकते हैं और उन्होंने कुछ लोगों का अनुमोदन प्राप्त कर लिया है तो वे स्वाभाविक रूप से विश्वास करते हैं कि वे मसीह बनने में सक्षम हैं, परमेश्वर बनने में सक्षम हैं।
क्या तुम लोगों के मन में और भी सवाल हैं? (परमेश्वर, क्या तुम इस बारे में थोड़ी-सी और संगति कर सकते हो कि परमेश्वर को परखने का अर्थ क्या होता है? लोगों में परमेश्वर को परखने की कौन-सी अभिव्यक्ति दिखाई देती हैं?) जब लोग यह नहीं जानते कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है और वे उसे जानते या समझते भी नहीं हैं, और इसलिए वे अक्सर उसके सामने कई अनुचित माँगें रखते हैं, तब यह परमेश्वर को परखना है। जैसे, जब कोई बीमार होता है तो हो सकता है कि वह खुद को ठीक करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करे। “मैं इलाज नहीं करवा रहा हूँ—देखते हैं कि परमेश्वर मुझे ठीक करेगा या नहीं करेगा।” इसलिए कुछ समय तक प्रार्थना करने के बाद भी जब परमेश्वर की ओर से कुछ भी होता नहीं दिखता तो ऐसे लोग कहते हैं, “चूँकि परमेश्वर ने कुछ भी नहीं किया, इसलिए मैं दवाइयाँ लूँगा और देखूँगा कि क्या वह मुझे रोकता है। अगर दवाई मेरे गले में अटक जाती है या मुझसे थोड़ा-सा पानी छलक जाए तो यह मुझे रोकने या दवाइयाँ लेने से दूर रखने का परमेश्वर का तरीका हो सकता है।” इसे ही परीक्षा लेना कहते हैं। या मान लो कि तुम्हें सुसमाचार प्रचार करने को कहा गया है। सामान्य परिस्थिति में हर कोई संगति और विचार विमर्श के जरिये तय कर लेता है कि तुम्हारे कर्तव्य तुमसे क्या माँग करते हैं और तुम्हें क्या करना चाहिए, फिर सही समय पर तुम कार्य करते हो। अगर कार्य करने के दौरान कुछ हो जाता है तो यह परमेश्वर की संप्रभुता है—अगर परमेश्वर तुम्हें रोकता है तो फिर वह ऐसा सक्रिय होकर करेगा। लेकिन, मान लो कि तुम प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर, मैं आज सुसमाचार प्रचार करने बाहर जा रहा हूँ। क्या यह तुम्हारे इरादे के अनुरूप है कि मैं बाहर निकलूँ? मैं नहीं जानता कि आज का संभावित सुसमाचार प्राप्तकर्ता इसे स्वीकार कर सकता है या नहीं, न ही यह जानता हूँ कि तुम इसे कैसे नियंत्रित करने जा रहे हो। मैं आपसे व्यवस्था, मार्गदर्शन और मुझे ये चीजें दिखाने की प्रार्थना करता हूँ।” प्रार्थना करने के बाद तुम वहाँ बिना हिले बैठे रहते हो और फिर कहते हो, “परमेश्वर इस बारे में कुछ क्यों नहीं कहता? हो सकता है कि मैं उसके वचन पर्याप्त रूप से नहीं पढ़ता, इसलिए वह मुझे ये चीजें नहीं दिखा सकता। अगर ऐसा है तो मैं सीधे निकल जाता हूँ। अगर मैं औंधे मुँह गिरता हूँ तो हो सकता है कि परमेश्वर मुझे जाने से रोकना चाहता है, और अगर सब कुछ सामान्य रूप से होता है और परमेश्वर मुझे नहीं रोकता तो इसका मतलब यह हो सकता है कि परमेश्वर मुझे जाने की अनुमति दे रहा है।” यह एक परीक्षा है। हम इसे परीक्षा क्यों कह रहे हैं? परमेश्वर का कार्य व्यावहारिक है; लोगों के लिए इतना ही ठीक है कि वे अपने कर्तव्य निभा लें, अपने दैनिक जीवन को व्यवस्थित रख लें और सामान्य मानवता के अपने जीवन को इस तरह जी लें कि यह सिद्धांतों के अनुरूप हो। यह परखने की जरूरत नहीं है कि परमेश्वर कैसे कार्य करने जा रहा है या वह क्या मार्गदर्शन प्रदान करेगा। अपना वास्ता सिर्फ उन्हीं कामों तक रखो जो तुम्हें करने चाहिए; हमेशा ऐसे अतिरिक्त विचार मत रखो जैसे, “क्या परमेश्वर मुझे ऐसा करने दे रहा है या नहीं? अगर मैं ऐसा करता हूँ, तो वह मुझे कैसे संभालेगा? क्या मेरे लिए यह सही है कि मैं इसे इस तरह करूँ?” अगर कोई बात जाहिर तौर पर सही है तो सिर्फ इसे करने से ही वास्ता रखो; इधर-उधर के बारे में मत सोचो। प्रार्थना करना ठीक है, बेशक परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने के लिए प्रार्थना करना, कि वह आज के दिन तुम्हारे जीवन का मार्गदर्शन करे, कि वह तुम्हारे आज के कर्तव्य निर्वहन में मार्गदर्शन करे। किसी व्यक्ति के पास आज्ञा मानने वाला दिल और रवैया होना ही काफी है। उदाहरण के लिए, तुम जानते हो कि अपने हाथ से बिजली को छूने से तुम्हें झटका लगेगा और तुम्हारी जान भी जा सकती है। फिर भी तुम यह सोचते हो : “घबराने की कोई बात नहीं है, परमेश्वर मेरी रक्षा कर रहा है। मुझे तो बस इसे छूकर आजमाना है, यह देखना है कि क्या परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा और परमेश्वर की सुरक्षा कैसी होती है।” फिर तुम इसे अपने हाथ से छूते हो और नतीजे में झटका खाते हो—यह एक परीक्षा है। कुछ चीजें साफ तौर पर गलत होती हैं और इन्हें नहीं करना चाहिए। तब भी अगर तुम परमेश्वर की प्रतिक्रिया देखने के लिए ये चीजें करते हो तो यह एक परीक्षा है। कुछ लोग कहते हैं, “लोगों का बहुत ज्यादा सजना-सँवरना और भारी मेकअप करना परमेश्वर को पसंद नहीं है। तो फिर मैं ऐसा करता हूँ और देखता हूँ कि परमेश्वर से उलाहना पाकर अंदर से कैसा लगता है।” लिहाजा, सारा मेकअप करने के बाद वे आईना देखकर कहते हैं : “हे परमेश्वर, मैं तो जीते-जागते भूत की तरह लग रहा हूँ, लेकिन मुझे यह सिर्फ थोड़ा-सा घिनौना लग रहा है और मैं आईने के सामने खड़ा नहीं हो पा रहा हूँ। इसके अलावा तो और कोई एहसास नहीं हो रहा है—न मुझे परमेश्वर की घृणा महसूस हुई, न मुझे एक बार भी ऐसा लगा कि उसके वचन मुझ पर प्रहार कर रहे हैं और मेरा न्याय कर रहे हैं।” यह कैसा व्यवहार है? (परीक्षा लेने वाला।) अगर तुम कभी-कभी अपने कर्तव्य में लापरवाही बरतते हो और तुम साफ तौर पर जानते हो कि यह लापरवाही है तो तुम्हारे लिए इतना ही काफी है कि तुम बस पश्चात्ताप कर लो और खुद को बदल लो। लेकिन तुम हमेशा प्रार्थना करते रहते हो, “हे परमेश्वर, मैं लापरवाह हूँ—विनती है कि तुम मुझे अनुशासित कर दो!” तुम्हारा जमीर किस काम का है? अगर तुममें जमीर है तो तुम्हें अपने व्यवहार की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। तुम्हें इसे वश में रखना चाहिए। परमेश्वर से प्रार्थना मत करो—यह प्रार्थना एक परीक्षा बन जाएगी। किसी बहुत ही गंभीर चीज को लेकर उसे मजाक बना देना, परीक्षा बना देना, ऐसी बात है जिससे परमेश्वर बेइंतहा नफरत करता है। जब किसी समस्या का सामना होने पर लोग परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और उसे खोजते हैं तब, और साथ ही परमेश्वर के साथ पेश आने के उनके कुछ रवैयों, माँगों और कार्यशैली में अक्सर कुछ परीक्षाएँ सामने आएँगी। इन परीक्षाओं में मुख्य रूप से क्या-क्या शामिल होता है? यही कि तुम यह देखना चाहोगे कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है या तुम यह देखना चाहोगे कि परमेश्वर कोई चीज कर सकता है या नहीं। तुम परमेश्वर की परीक्षा लेना चाहोगे; तुम इस मामले का उपयोग यह सत्यापित करने के लिए करना चाहोगे कि परमेश्वर कैसा है, यह सत्यापित करना चाहोगे कि परमेश्वर के कहे कौन-से वचन सही और सटीक हैं, कौन-से सच हो सकते हैं और कौन-से वह पूरे कर सकता है। ये सभी परीक्षाएँ हैं। क्या चीजों को करने के ये तरीके तुम लोग नियमित रूप से प्रकट करते हो? मान लो कि किसी चीज के बारे में तुम यह नहीं जानते कि क्या तुमने यह सही की या क्या यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। यहाँ दो तरीके यह पुष्टि कर सकते हैं कि इस मामले में तुमने जो किया वह परीक्षा है या फिर यह सकारात्मक बात है। एक तरीका है सत्य-खोजने वाले और विनम्र हृदय के साथ यह कहना, “मेरे साथ जो चीज हुई उसे मैंने इस तरह संभाला और देखा है, और मेरे इस तरह से संभालने के फलस्वरूप अब यह इस तरह है। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि क्या मुझे इसे वास्तव में इसी तरह करना चाहिए था।” इस रवैये के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? यह सत्य खोजने का रवैया है—इसमें कोई परीक्षा नहीं है। मान लो कि तुम कहते हो, “संगति के बाद इस चीज के बारे में हर व्यक्ति मिलकर फैसला करता है।” कोई पूछता है, “इसका प्रभारी कौन है? मुख्य निर्णयकर्ता कौन है?” और तुम कहते हो : “हर व्यक्ति।” तो तुम्हारा इरादा यह होता है : “अगर वे कहते हैं कि यह चीज सिद्धांतों के अनुसार की गई थी तो मैं कहूँगा कि यह मैंने की। अगर वे कहते हैं कि यह चीज सिद्धांतों के अनुसार नहीं की गई तो मैं यह छिपाने से शुरुआत करूँगा कि यह चीज किसने की और फैसला किसका था। इस तरह, अगर वे जोर देते भी रहे और दोष तय करने भी लगे तो वे मुझे दोष नहीं दे पाएँगे, और अगर किसी को अपमानित होना भी पड़ा तो अकेला मैं नहीं होऊँगा।” अगर तुम इस प्रकार के इरादे से बात करते हो तो यह एक परीक्षा है। कोई यह कह सकता है, “परमेश्वर को मनुष्य के सांसारिक चीजों के अनुसरण से घृणा होती है। वह मानवजाति के स्मृति दिवसों और त्योहारों जैसी चीजों से घृणा करता है।” अब जबकि तुम यह जान चुके हो तो जहाँ तक परिस्थितियाँ इजाजत दें, तुम ऐसी चीजों से बचने की भरसक कोशिश कर सकते हो। लेकिन मान लो कि किसी त्योहार पर तुम जानबूझकर सांसारिक चीजों का अनुसरण करते हो, और ऐसा करते हुए तुम अपने मन में यह इरादा पाल लेते हो : “मैं बस यह देख रहा हूँ कि क्या परमेश्वर इस काम के बदले मुझे अनुशासित करेगा, क्या वह मेरी ओर कोई ध्यान देगा। मैं तो बस यह देख रहा हूँ कि वास्तव में मेरे प्रति उसका रवैया क्या रहता है, वह मुझसे किस हद तक अत्यधिक घृणा करता है। वे कहते हैं कि परमेश्वर इससे बेइंतहा नफरत करता है, वे कहते हैं कि वह पवित्र है और बुराई से बेइंतहा नफरत करता है, इसलिए मैं देखना चाहता हूँ कि बुराई से उसकी बेइंतहा नफरत कैसी दिखती है और वह मुझे कैसे अनुशासित करेगा। जब मैं ये चीजें करता हूँ, तब अगर परमेश्वर मुझे उल्टी-दस्त करने को मजबूर कर दे, मुझे चक्कर आने लगें, मैं बिस्तर से न उठ पाऊँ, तभी ऐसा लगेगा कि परमेश्वर वास्तव में इन चीजों से बेइंतहा नफरत करता है। वह सिर्फ बातें नहीं बनाएगा—तथ्य खुद बोलेंगे।” अगर तुम हमेशा ऐसा नजारा देखने की उम्मीद करते हो तो तुम्हारा कैसा व्यवहार और कैसे इरादे हैं? ये परीक्षा लेने वाले व्यवहार और इरादे हैं। मनुष्य को कभी भी परमेश्वर को परखना नहीं चाहिए। जब तुम परमेश्वर को परखते हो तो वह तुमसे छिप जाता है और तुम्हारी नजरों से अपना चेहरा छिपा लेता है, और तुम्हारी प्रार्थनाएँ बेकार रहती हैं। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “अगर मैं दिल से ईमानदार हूँ तो क्या तब भी नहीं चलेगा?” बिल्कुल, भले ही तुम दिल से सच्चे हो तब भी ऐसा नहीं चलेगा। परमेश्वर लोगों को अपनी परीक्षा नहीं लेने देता; वह बुराई से बेइंतहा नफरत करता है। जब तुम इन दुष्ट विचारों और दृष्टिकोणों को अपनाते हो तो परमेश्वर तुमसे खुद को छिपा लेगा। वह आइंदा तुम्हें प्रबुद्ध नहीं करेगा, बल्कि तुम्हें दरकिनार कर देगा, और तुम तब तक मूर्खतापूर्ण, गड़बड़ी पैदा करने और बाधा डालने वाले काम करते रहोगे जब तक कि तुम्हें यह नहीं दिखा दिया जाता कि तुम्हारी असलियत क्या है। लोगों द्वारा परमेश्वर को परखने से यही दुष्परिणाम निकलता है।
(परमेश्वर, मेरा एक सवाल है। मैं कलीसिया में उपकरणों की व्यवस्था देखता हूँ। इस कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया हमेशा ढुलमुल और अगंभीर रहता है। भाई-बहनों ने मुझे मेरी गलतियाँ बताईं, मेरी काट-छाँट की और कभी परमेश्वर के दिए इस उदाहरण पर मेरे साथ संगति की कि एक व्यक्ति ने कैसे चुपके-से खाँसी की दवाई पी ली थी : इसे पीने पर परमेश्वर ने उसे अनुशासित नहीं किया या फटकार नहीं लगाई, बल्कि उसे निकाल दिया। परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य के अपराधों को बर्दाश्त नहीं करता—मैं ये वचन जानता हूँ, लेकिन मेरा विचार है कि परमेश्वर दयालु और प्रेमी है, कि वह संभवतः मेरे साथ वैसा व्यवहार नहीं करेगा जैसा उसने उस व्यक्ति के साथ किया था। इसलिए मैं भयभीत नहीं हूँ। आज परमेश्वर की संगति के आधार पर मुझे लगता है कि उसके धार्मिक स्वभाव के प्रति मेरा रवैया शंकालु है, और मेरा व्यवहार मसीह-विरोधियों वाला है : अर्थात परमेश्वर की परीक्षा लेने और उससे कभी न डरने वाला।) किसी व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का रवैया न तो इस पर आधारित होता है कि वह व्यक्ति उससे डरता है कि नहीं, न ही इस पर आधारित होता है कि किसी दिए गए मामले के प्रति उस व्यक्ति का क्षणिक रवैया क्या हो सकता है। कोई व्यक्ति जीवन के तुच्छ मामलों में जो बुरी आदतें और गैर-जिम्मेदाराना तौर-तरीके दिखा या प्रकट कर सकता है, परमेश्वर उन्हें गंभीर समस्या नहीं मानता। अपने अनिवार्य कर्तव्य में तुम खुद को झोंक सको और इसका उत्तरदायित्व ले सको, बस इतना ही काफी होता है। अगर तुम उपकरणों के प्रबंधन की जिम्मेदारी लेने में खुद को हमेशा असमर्थ पाते हो और इसे ठीक प्रकार से करने में अपनी पूरी ताकत नहीं झोंक सकते, तो यह क्या दिखाता है? आंशिक रूप से यह दिखाता है कि तुम प्रबंधन में कुशल नहीं हो; इसके अलावा यह दिखाता है कि तुम इस काम के लिए पूरी तरह उपयुक्त नहीं हो। अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारा इस काम पर बने रहना एक दिन आपदा का कारण बन सकता है तो बेहतर होगा कि तुम इस के लिए किसी और व्यक्ति की सिफारिश कर दो; कलीसिया में किसी ऐसे व्यक्ति को अपनी जगह आगे आने दो जो इस काम के लायक हो, फिर किसी ऐसे काम को पकड़ो जिसमें तुम अच्छे हो और जिसमें तुम्हारी दिलचस्पी हो, और उस कर्तव्य को वफादारी से निभाओ। यही नहीं, अगर कोई व्यक्ति सचमुच सत्य से प्रेम करता है और सचमुच परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना चाहता है, सम्मान के साथ जीना चाहता है और दूसरों से घृणा नहीं, बल्कि सम्मान पाना चाहता है, तो उसमें हर चीज अच्छे से करने का दृढ़ संकल्प होना चाहिए। और जब वह ऐसा करता है तो उसके पास परमेश्वर के सामने यह कहने की इच्छाशक्ति होनी चाहिए : हे परमेश्वर, अगर मैं खराब कार्य करूँ तो मुझे अनुशासित करना—अपना कार्य करना। लोग दूसरों के बुरे प्रबंधक होते हैं; हद-से-हद वे किसी को एक ही क्षेत्र की प्रतिभा बनना सिखा सकते हैं। लेकिन जब बात किसी व्यक्ति के चलने के मार्ग, जीवन के प्रति उसके विचार, जीवन में उसके द्वारा चुने गए लक्ष्यों और वह किस प्रकार का व्यक्ति बनना चाहता है, की आती है, तो कोई भी उसकी मदद नहीं कर सकता। परमेश्वर और परमेश्वर के वचन ही लोगों को बदल सकते हैं। यह कैसे साकार होता है? वो ऐसे कि लोग अपने आप में असहाय हैं—उन्हें चीजें परमेश्वर को संभालने देनी चाहिए। इसलिए परमेश्वर कार्य करने के लिए राजी हो, इससे पहले किसी व्यक्ति को परमेश्वर को कार्य करने देने के लिए कौन-से मानदंड पूरे करने होंगे? उसके पास सबसे पहले तो ऐसी इच्छा और आकांक्षा होनी चाहिए और उसे कहना चाहिए, “मैं जानता हूँ कि मैं इस काम को कभी भी अच्छी तरह नहीं कर पाया हूँ। भाई-बहन संतुष्ट नहीं हैं—मैं खुद भी संतुष्ट नहीं हूँ—लेकिन मैं इसे अच्छी तरह से करना चाहता हूँ। मैं क्या करूँ? मैं परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करूँगा और उसे मुझमें कार्य करने दूँगा।” अगर तुम चाहते हो कि परमेश्वर तुममें कार्य करे, तो सबसे पहले तुम्हें कष्ट सहने में सक्षम बनना होगा—परमेश्वर जब तुमको अनुशासित करे, जब वह तुम्हें फटकार लगाए तो तुम्हें इसे स्वीकारने में सक्षम होना पड़ेगा। आज्ञाकारी होना और दिल से स्वीकारना कोई भी चीज अच्छी तरह से करने की शुरुआत है। यह कहना उचित है कि पूरी तरह से बचाए जाने से पहले हर किसी के मन में परमेश्वर की धार्मिकता और सर्वशक्तिमत्ता के बारे में संदेह होंगे। अंतर यह है कि सामान्य, भ्रष्ट लोग अपने कोरे संदेहों के बावजूद अपना कर्तव्य सामान्य रूप से निभा सकते हैं, सत्य का अनुसरण कर सकते हैं और थोड़ा-थोड़ा करके परमेश्वर को जान सकते हैं; उनकी व्यक्तिपरक आकांक्षा सक्रिय और सकारात्मक होती है। मसीह-विरोधी बिल्कुल इसके उलट होते हैं : उनकी व्यक्तिपरक आकांक्षाएँ स्वीकारने वाली और आज्ञाकारी नहीं होती हैं, और वे स्वीकारने की इच्छा नहीं करते; बल्कि वे इसके प्रतिरोधी होते हैं। वे स्वीकार करने वाले नहीं होते हैं। तो फिर सामान्य, भ्रष्ट लोगों में अच्छा क्या है? वे अपने हृदय की गहराइयों से सकारात्मक चीजों को स्वीकारते और उनसे प्रेम करते हैं—यह अलग बात है कि अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण उनके सामने ऐसे मौके भी आते हैं जब वे खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते, जब वे खराब तरीके से काम करते हैं, चीजें उनके बस से बाहर, उनकी पहुँच से बाहर होती हैं, इसलिए वे अक्सर नकारात्मक और दिल से कमजोर पड़ जाते हैं, उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, उनसे घृणा करता है। क्या यह एक अच्छा एहसास है? यह एक अच्छा एहसास है—इसका अर्थ है कि तुम्हारे पास बचाए जाने का मौका है, यह संकेत है कि तुम बचाए जा सकते हो। अगर तुम्हें यह भी एहसास न हो तो सत्य प्राप्त करने और बचाए जाने की तुम्हारी उम्मीदें काफी दूर हैं। वास्तव में यही एहसास होना यह दर्शाता है कि तुममें अभी भी जमीर है, गरिमा और ईमानदारी है—कि तुममें अभी भी तार्किकता है। अगर तुममें ये चीजें भी नहीं हैं तो फिर तुम वाकई एक मसीह-विरोधी, एक छद्म-विश्वासी हो। अभी तुममें छद्म-विश्वासी के केवल कुछ व्यवहार हैं, वे जो प्रकट करते हैं उसका थोड़ा-सा हिस्सा, उनके स्वभाव का जरा-सा हिस्सा तुम में है, फिर भी तुम छद्म-विश्वासी नहीं हो। परमेश्वर की निगाह में तुम उसमें विश्वास करते हो और तुम उसके अनुयायी हो, हालांकि उसमें विश्वास की राह में, तुम्हारे अनुसरण में, तुम्हारे विचारों में और अपने व्यक्तिगत जीवन के हर पहलू में तुम्हारे लिए कई समस्याएँ और कमियाँ अभी भी बनी हुई हैं। तो फिर इन समस्याओं को कैसे हल किया जाए? यह सरल है। जब तक तुम अपने में जमीर और विवेक होने, सत्य का अनुसरण करने और सकारात्मक चीजों से प्रेम करने की बुनियादी अपेक्षाएँ पूरी करते हो, तब तक इन सभी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है—यह केवल समय की बात है। अगर तुम सत्य और परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन को स्वीकार कर सकते हो, तो तुम पहली बाधा पहले ही पार कर चुके हो। दूसरी बाधा यह है कि अपनी ओर से तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना सीखना होगा और जब तुम पर कोई मुसीबत आती है तो तुम्हारे अंदर जो विभिन्न स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं उनका समाधान करना सीखना होगा, और परमेश्वर के वचन पढ़ते समय और संगति सुनते समय और भाई-बहनों की अनुभवजन्य गवाहियाँ सुनते समय तुम्हें परमेश्वर के वचनों से समस्याओं का समाधान करना सीखना होगा। इसका मतलब यही है कि तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आने, उसे अपनी परिस्थितियों और स्थितियों के बारे में बताने, साथ ही अपने सामने आने वाली समस्याओं के बारे में खुलकर बताने, और ईमानदारी के साथ उसके हाथों अपनी काट-छाँट, उसका अनुशासन और ताड़ना स्वीकार करने, यहाँ तक कि तुम्हारे बारे में उसके प्रकाशन और तुम्हारे प्रति उसके रवैये को भी स्वीकारने में सक्षम होना आवश्यक है—तुम्हारा हृदय उसके लिए खुला रहना चाहिए, बंद नहीं। जब तक तुम्हारा हृदय खुला रहेगा, तुम्हारा जमीर और विवेक उपयोगी रहेगा, सत्य तुम में प्रवेश कर सकेगा और तुम में परिवर्तन ला सकेगा। तब ये सभी समस्याएँ हल की जा सकेंगी। ये समाधान से परे नहीं हैं; इनमें कोई भी बड़ी समस्या नहीं है। लोगों का अपने कर्तव्य निभाते समय लापरवाही बरतना आम बात है। समस्त भ्रष्ट मानवजाति में पाई जाने वाली यह सबसे आम स्थिति है। एक स्थिति है झूठ से भरा होना; दूसरी है कामचोरी करना, लापरवाह होना, और सभी चीजों में गैर-जिम्मेदार होना, भ्रम की स्थिति में होना और कामचलाऊ हालत में होना—यह समस्त भ्रष्ट मानवजाति की सामान्य स्थिति है। ये चीजें परमेश्वर के खिलाफ मनुष्य के प्रतिरोध और सत्य को ठुकराने की तुलना में बहुत कम भयावह हैं। वे ऐसी चीजें भी नहीं हैं जिन्हें परमेश्वर मनुष्य में देखता है। अगर परमेश्वर लोगों को इतनी बारीकी से मापता तो उनके मुँह से एक भी गलत बात निकलने पर परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता; अगर वे एक बार भी कोई छोटी-सी गलती कर देते तो वह उन्हें नहीं चाहता; अगर लोग जवानी में उतावले होते और बेसब्री से कार्य करते तो परमेश्वर उन्हें पसंद नहीं करता, और तब वे ऐसे व्यक्ति होते जिन्हें उसने छोड़ दिया है और हटा दिया है। अगर चीजें ऐसी ही हों तो एक भी व्यक्ति बचाया नहीं जाएगा। कुछ लोग कहेंगे, “क्या तुमने यह नहीं कहा था कि परमेश्वर लोगों की निंदा करता है और उनके व्यवहार के आधार पर उनके परिणाम निर्धारित करता है?” यह अलग मामला है। स्वभाव में परिवर्तन लाने और उद्धार पाने के लिए लोगों के सत्य के अनुसरण के मार्ग पर मनुष्य में ऐसी स्थितियाँ होना परमेश्वर की नजरों में सबसे सामान्य चीजें हैं, इतनी ज्यादा साधारण और आम जितनी हो सकती हैं। परमेश्वर इनकी तरफ देखता तक नहीं है। वह क्या देखता है? वह यह देखता है कि क्या तुम्हारा कोई सकारात्मक अनुसरण है, और यह भी देखता है कि सत्य और सकारात्मक चीजों के प्रति और स्वभाव में परिवर्तन के अनुसरण के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है। वह देखता है कि क्या तुममें ऐसी इच्छा है, क्या तुम प्रयास कर रहे हो। जब परमेश्वर यह देखता है कि तुममें ये चीजें हैं, कि तुम्हारा जमीर तुम्हें गलत कार्य करने पर झिड़कता है, कि तुम इससे नफरत करना जानते हो, कि तुम प्रार्थना में परमेश्वर के सामने आना जानते हो, और उसके सामने कबूलना और पश्चात्ताप करना जानते हो, तब वह कहता है कि तुम्हारे लिए उम्मीद बची है, कि तुम्हें नहीं हटाया जाएगा। क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव, उसकी दया और प्रेम सभी खोखले जुमले हैं? इसका कारण वास्तव में यह है कि परमेश्वर का ऐसा सार है कि हर प्रकार के व्यक्ति के प्रति उसका एक रवैया है, और ये रवैये अत्यधिक व्यावहारिक हैं—ये बिल्कुल भी खोखले नहीं हैं।
मसीह-विरोधियों के सार के बारे में हम कुछ समय से ये जो चर्चा कर रहे हैं, यह सब लोगों के सुनने के लिए है, एक तो इसलिए कि वे मसीह-विरोधियों को समझ और पहचान सकें, यह तय कर सकें कि वे कौन हैं और उन्हें अस्वीकार कर सकें; यह इसलिए भी सबको बताने के लिए है कि मसीह-विरोधियों की तरह हर किसी में मसीह-विरोधी स्वभाव होता है, लेकिन केवल असली मसीह-विरोधियों को ही हटाया और त्यागा जाना है, जबकि मसीह-विरोधी स्वभाव वाले साधारण लोग ऐसे हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा, वह उन्हें नहीं बचाएगा जिन्हें वह हटा चुका होगा। मसीह-विरोधियों के सार और उनके स्वभाव के हरेक पहलू के बारे में लोगों के साथ संगति करना लोगों की निंदा करना नहीं है—इसका वास्ता लोगों को बचाने, उन्हें राह दिखाने से है, उन्हें साफ तौर पर यह दिखाने से है कि वास्तव में उनमें कौन-कौन से भ्रष्ट स्वभाव हैं, इसका वास्ता इन बातों से भी है कि मानवजाति को अपना शत्रु बताते हुए परमेश्वर वास्तव में क्या कहना चाहता है और वह ऐसा क्यों कहता है—मनुष्य में वास्तव में किस तरह के भ्रष्ट स्वभाव हैं, और परमेश्वर ने अपने विरुद्ध मानवजाति में प्रतिरोध और विद्रोहीपन के किन खुलासों के कारण ऐसा कहा और ये निंदाएँ कीं। परमेश्वर मनुष्य को बचाना चाहता है, वह मानवजाति को या अपने अनुयायियों को या अपने चुने हुए लोगों को त्यागता नहीं है, वास्तव में इसी कारण वह अथक रूप से इस तरह से बोलता और कार्य करता है। परमेश्वर के इस तरह बोलने और कार्य करने का संबंध सिर्फ लोगों को यह समझाने से नहीं है कि वह कितना प्यारा है, वह लोगों के प्रति कितना ईमानदार और धैर्यवान है, उसने कितना प्रयास किया है। इन चीजों को समझने से क्या फायदा? इन चीजों को समझकर लोगों के मन में परमेश्वर के प्रति थोड़ी-सी भी कृतज्ञता नहीं होती—अभी उनके भ्रष्ट स्वभाव का बिल्कुल समाधान नहीं हुआ है। परमेश्वर इतने अटूट धैर्य के साथ इसलिए बोलता है ताकि लोग यह देख सकें कि परमेश्वर ने लोगों को बचाने के लिए प्रयास किए हैं और दृढ़ संकल्प लिया है—वह मजाक नहीं कर रहा है; परमेश्वर मानवजाति को बचाना चाहता है और वह इसके लिए कृतसंकल्प है। इसे कैसे देखा जाए? सत्य का ऐसा कोई पहलू नहीं है जिस पर परमेश्वर केवल एक पक्ष या एक कोण से बोलता है, न ही वह एक ही तरीके से बोलता है—इसके बजाय वह इसे अलग-अलग कोणों से, अलग-अलग शैलियों में, अलग-अलग भाषाओं में और अलग-अलग मात्राओं में लोगों को बताता है, ताकि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव और खुद को जानें, और इससे यह समझें कि उनका अनुसरण किस दिशा में होना चाहिए और उन्हें किस प्रकार का मार्ग अपनाना चाहिए। वह ऐसा इसलिए करता है ताकि लोग अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव को त्याग और बदल दें, और सांसारिक आचरण के वे फलसफे, जीवित रहने के वे तरीके, जीवन जीने के वे तरीके और साधन त्याग दे जिनसे शैतान लोगों को भ्रष्ट करता है, इसके बजाय वह चाहता है कि वे उन तरीकों, साधनों, दिशाओं और लक्ष्यों के अनुसार जीवन जिएँ जो परमेश्वर ने उन्हें दिखाए और बताए हैं। परमेश्वर यह सब इसलिए नहीं करता कि वह लोगों को इससे सहमत कर सके, उन्हें अपने अत्यंत दयालु इरादे दिखाए या यह दिखाए कि वह जो कुछ करता है वह सब कितना कठिन है। तुम्हें यह जानने की जरूरत नहीं है। अपना ध्यान केवल यह जानने पर लगाओ कि तुम्हें परमेश्वर के वचनों में क्या अभ्यास करना चाहिए और इनमें सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझो; सत्य वास्तविकता में प्रवेश करो; सत्य सिद्धांतों के अनुसार जियो, सत्य सिद्धांतों के अनुसार आचरण और कार्य करो, और परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेश को इस तरह पूरा करो कि तुम्हें उद्धार प्राप्त हो जाए। इस प्रकार परमेश्वर संतुष्ट हो जाएगा और मनुष्य के उद्धार का मामला संपूर्ण रूप से पूरा हो जाएगा, इससे मनुष्य को भी लाभ होगा। और जहाँ तक ऐसे मौकों का संबंध है जब लोगों की कथनी में बहुत सारा धर्म-सिद्धांत हो, जब वे अपने कार्यकलापों में बहुत सतही हों, जब वे हमेशा लापरवाह रहते हों, जब उनकी घिनौनी हरकतें हावी हो जाएँ—खासकर युवाओं में, जो नियमों का अनुसरण करने में अच्छे नहीं होते, जो कभी-कभी देर तक सोना पसंद करते हैं, जिनकी कुछ आदतें बिल्कुल उचित या दूसरों के लिए शिक्षाप्रद नहीं हैं—इन चीजों को जबरदस्ती मत करो। धीरे-धीरे आगे बढ़ो। अगर तुम सत्य के अनुसरण के लिए तैयार हो, परमेश्वर के वचनों के साथ प्रयास कर सकते हो और परमेश्वर के लिए अपना दिल खोलकर अक्सर उसके सामने आ सकते हो, तो वह कार्य करेगा। मानवीय शक्ति या मानवीय साधनों से कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे को नहीं बदल सकता, यहाँ तक कि तुम्हारे माता-पिता भी तुम्हें नहीं बदल सकते।
तुम आज परमेश्वर के घर आए हो, यह परमेश्वर का कार्य है, और इस युग में भी तुम बुरी प्रवृत्तियों के बीच रहकर यहाँ सुरक्षित और स्थिर रूप से उपदेश सुन सकते हो, और एक भी पाई कमाए बिना अपना कर्तव्य निभाते हो—यह परमेश्वर का कार्य है। परमेश्वर ऐसा क्यों करता है? परमेश्वर तुममें क्या पसंद करता है? यही कि तुममें न्याय की भावना हो, तुममें जमीर हो; तुम बुरी प्रवृत्तियों से विमुख रहो और सकारात्मक चीजें पसंद करो; और तुम परमेश्वर के राज्य, मसीह के शासन और सत्य के आगमन की उम्मीद रखो। तुममें ये आकांक्षाएँ हैं, और परमेश्वर तुममें ये पसंद करता है, इसीलिए वह तुम्हें अपने घर लाया है। क्या तुम्हें लगता है कि परमेश्वर तुम्हारे दोष और बुरी आदतों को नहीं देखता है? परमेश्वर तुम्हारे दोषों को देखता है—उसे इन सबकी जानकारी है। अगर वह इन्हें जानता है तो इनका समाधान क्यों नहीं करता? ऐसी चीजें कई मामलों में लोगों के दिलों में उलझन पैदा कर देती हैं। वे कहते हैं : “क्या परमेश्वर मुझ जैसे किसी इंसान को बचाएगा? क्या मेरे जैसा कोई इंसान उद्धार प्राप्त कर सकता है? मैं इतना दुष्ट और भ्रष्ट हूँ, अनुशासन के प्रति समर्पण का इतना अनिच्छुक हूँ, इतना विद्रोही हूँ—और मैं परमेश्वर का प्रतिरोध करता हूँ और उस पर संदेह करता हूँ। फिर भी परमेश्वर मुझे कैसे चुन लेगा?” तुम्हें कौन-सी चिंता खाए जा रही है? केवल परमेश्वर तुम्हें बचा सकता है; तुम्हें विश्वास रखना चाहिए कि वह ऐसा कर सकता है। तुम्हारे लिए इतना ही काफी है कि बस तुम परमेश्वर के वचन सुनने, उन्हें स्वीकार करने और उनका अभ्यास करने पर ध्यान केंद्रित कर लो। उन दूसरे मामलों में मत फँसो—उनके कारण हमेशा नकारात्मक मत रहो। किसी ने तुम्हें शिकंजे में जकड़ नहीं रखा है; किसी के पास तुम्हारे खिलाफ गोला-बारूद नहीं है। परमेश्वर इन चीजों को नहीं देखता। अगर जीवन की ऐसी तुच्छ उलझनों से पैदा होने वाली बुरी आदतें, कमियाँ या घिनौनी हरकतें तुम्हारे उचित मार्ग और सत्य के अनुसरण में बाधा डालती हैं तो क्या यह नुकसान नहीं है? क्या यह व्यर्थ नहीं है? (बिल्कुल है।) इस समय ऐसी स्थिति में बहुत से लोग फँसे होंगे। कुछ लोग कहते हैं कि हड़बड़ी उनके व्यक्तित्व में है, कि वे हर चीज उजड्डता से करते हैं और उन्हें अध्ययन करना पसंद नहीं है। वे कहते हैं कि उनमें बुरी आदतें भी है : उन्हें सुबह जल्दी उठना और रात को जल्दी सोना पसंद नहीं है, और उन्हें गेम खेलना पसंद है; उन्हें कभी-कभी बेकार की बातें करना पसंद है और वे कभी-कभी चुटकुले सुनाना पसंद करते हैं। वे पूछते हैं : क्या परमेश्वर हमें बचाएगा? तुम्हारे मन में अपने बारे में इतनी सारी धारणाएँ और कल्पनाएँ होना क्या एक समस्या नहीं हैं? तुम थोड़ा-सा खोजते क्यों नहीं हो? वास्तव में परमेश्वर का दृष्टिकोण क्या है और उसके वचन वास्तव में क्या कहते हैं? क्या उसके वचनों में इन चीजों का उल्लेख एक समस्या के रूप में किया गया है? कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें सजना-सँवरना पसंद है और उन्हें खुद को हमेशा संयम में रखना चाहिए। दूसरों का कहना है कि उन्हें भरपेट मांसाहार पसंद है। ये छोटी-छोटी समस्याएँ हैं। ये दोष, ये व्यक्तित्व, ये जीवन की आदतें हद-से-हद किसी व्यक्ति की मानवता की कमियाँ हैं; इन्हें भ्रष्ट स्वभाव में नहीं गिना जाता। लोगों को वास्तव में जिस चीज का समाधान करने की जरूरत है वह है उनका भ्रष्ट स्वभाव। बड़े उद्देश्य से नजर मत हटाओ। जब तुम जान लेते हो कि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, और तुम इस पर आत्म-चिंतन करने और इसे पहचानने पर ध्यान केंद्रित करना शुरू करते हो, इस पर प्रयास करते हो और इससे नफरत करना शुरू करते हो तो तुम्हारी ये छोटी-छोटी कमियाँ धीरे-धीरे बदलने लगेंगी—वे कोई समस्या नहीं रह जाएँगी। कुछ युवाओं को मौज-मस्ती का शौक होता है। एक बार जब वे अपना काम ठीक से निपटा लेते हैं, तो कुछ समय मौज-मस्ती करना ठीक है। कुछ जवान महिलाओं को सुंदर दिखना, सजना-सँवरना और मेकअप करना पसंद होता है। यह भी ठीक है, बशर्ते वे अति न करें, अजीबो-गरीब वेशभूषा न अपनाएँ या भारी मेकअप न करें। यह सब ठीक है; उन्हें कोई नहीं रोक रहा है। इनमें से कोई भी चीज समस्या नहीं है। जीवन की ये आदतें, तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता की माँगें और व्यक्तित्व की छोटी-छोटी समस्याएँ—इनमें से किसी के भी कारण तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करने या सत्य के विरुद्ध जाने को मजबूर नहीं हो सकते। तुम वास्तव में जिस चीज के कारण परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो, उसके सामने आने से कतराते हो और उसके खिलाफ विद्रोह करते हो, वह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है। जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव का पता लगाकर इसे जान सकते हो और इससे नफरत कर सकते हो, और तुममें सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की व्यक्तिपरक इच्छा आ जाती है तो इन सभी छोटी-छोटी कमियों का समाधान किया जा सकता है। और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान हो जाने पर—सबसे बड़ी समस्या, यानी परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारा प्रतिरोध सुलझ जाने पर—क्या तुम्हारी ये छोटी-छोटी कमियाँ अब भी समस्याएँ मानी जाएंगी? जब वह समय आएगा, तो ऐसी छोटी-छोटी बातें जैसे कि तुम कैसे आचरण करते हो, तुम कैसे रहते हो, तुम क्या खाते हो, क्या पीते हो, तुम कैसे आराम करते हो, तुम अपना कर्तव्य कैसे निभाते हो और तुम दूसरों के साथ कैसे घुलते-मिलते हो, ये सब थोड़ा-थोड़ा कर सिद्धांतों के अनुरूप होता जाएगा। तब तक तुम यह नहीं जान पाओगे कि व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान जीवन का सबसे बड़ा मसला था और रहेगा, कि जब किसी का भ्रष्ट स्वभाव हल हो जाता है तो अन्य सभी समस्याएँ भी हल हो जाती हैं। जब तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह की समस्या का समाधान कर लेते हो, तभी तुम मानव के समान जीते हो, सम्मान के साथ जीते हो। हो सकता है कि अब तुम कुछ छोटी-मोटी कमियाँ प्रदर्शित न करो। लोग यह कहते हुए तुम्हारी प्रशंसा कर सकते हैं कि तुम एक अच्छे नौजवान हो, कि तुम परमेश्वर में अपने विश्वास के प्रति ईमानदार हो, कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने वाले लगते हो। लेकिन अगर परमेश्वर यह कहता है कि तुम अब भी उसके खिलाफ विद्रोह कर सकते हो, तो तुम्हारे बाहरी सद्व्यवहार चाहे कितने ही अच्छे क्यों न हों, वे बेकार हैं। बुनियादी समस्या हल नहीं हुई है—तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अभी तक हल नहीं हुआ है और तुम अभी भी परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर सकते हो। तुम अभी भी उद्धार से बहुत दूर हो! केवल सद्व्यवहार होना तुम्हारे किस काम का है? क्या तुम उनके जरिये खुद को धोखा तो नहीं दे रहे हो?
अब तुम्हारे लिए कौन-सी समस्या का समाधान अत्यंत महत्वपूर्ण है? (भ्रष्ट स्वभाव की समस्या।) कुछ लोग कह सकते हैं : “मुझे रंग-बिरंगे कपड़े पहनना पसंद है लेकिन यह परमेश्वर के घर को पसंद नहीं है इसलिए मैं इनसे विद्रोह करूँगा।” तुम्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं है—अगर तुम्हें पसंद हैं तो पहनो। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे पाउडर लगाना और मेकअप करना पसंद है, मैं हर दिन लोगों से मिलते हुए आकर्षक दिखना चाहता हूँ—इससे बहुत अच्छा लगता है!” अगर तुम्हारे पास समय है तो यह ठीक है। कुछ लोग कहते हैं : “मुझे स्वादिष्ट भोजन पसंद है—मुझे मसालेदार और खट्टी चीजें भी पसंद हैं।” अगर तुम्हारे पास साधन, अवसर और खाली समय है, तुम जी भरकर ये चीजें खा सकते हो। भले ही तुम अतृप्त रहकर ये चीजें छोड़ दो, इन पर संयम रखो और इनसे विद्रोह कर दो, फिर भी तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव हल नहीं होगा। इन पर संयम रखने से भला क्या मिलेगा? तुम बहुत अधिक दैहिक कष्ट भोगोगे, लेकिन दिल से तुम्हें काफी बुरा लगेगा—और फिर इसके एवज में तुम्हें कैसे नकारात्मक नतीजे भुगतने पड़ेंगे? तुम्हें लगेगा कि तुमने परमेश्वर के लिए बहुत कष्ट उठाया है, कि तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है, जबकि वास्तव में तुम्हारे पास कुछ नहीं होगा या तुम कुछ भी नहीं होगे। हो सकता है कि तुम सुरुचिपूर्ण ढंग से, गरिमापूर्ण और सादगीपूर्ण ढंग से कपड़े पहनते हो—हो सकता है तुम किसी भाई या बहन जैसे लगते हो और तुममें संयम हो—लेकिन तुम्हें कर्तव्य निभाने के लिए कहने पर अगर तुम सत्य सिद्धांत तक न खोज पाओ और अगर तुम कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा करते रहो और बाधा डालते रहो तो क्या तुम्हारी मूलभूत समस्या का समाधान हो गया है? (नहीं।) इसलिए तुम इसे चाहे जैसे भी देख लो, सबसे बुनियादी चीज है परमेश्वर के वचनों को समझना, सत्य को समझना, सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना और अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करना। ऐसा न हो कि तुम अपने प्रयास कुछ तुच्छ समस्याओं और बाहरी व्यवहारों पर जाया कर दो, तुम उन्हीं के बारे में सोचते रहो और उन्हें त्याग न सको, दिल से हमेशा दोषी और ऋणी महसूस करते रहो, इन चीजों का समाधान हमेशा ऐसे करते रहो कि मानो ये बहुत बड़े मामले हों। इसका नतीजा यह निकलता है कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव हमेशा के लिए अनसुलझा रह जाता है। अगर तुम यह भी नहीं जानते कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो या तुम्हारा किस तरह का भ्रष्ट स्वभाव है—अगर तुम्हें इसकी रत्तीभर भी समझ नहीं है तो क्या इससे चीजें गड़बड़ नहीं हो जाएँगी? जब तुम्हें अपने भ्रष्ट सार का पता चल जाएगा, तो तुम्हारी ये छोटी-छोटी समस्याएँ फिर कभी समस्याएँ नहीं रह जाएँगी। जैसे-जैसे तुम सत्य को समझने लगते हो और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हो, और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम होते हो तो तुम स्वाभाविक रूप से धीरे-धीरे उन छोटी समस्याओं से छुटकारा पा लोगे। यह वैसा ही है जैसा बेचैन व्यक्तित्व वाले लोगों या धीमा बोलने वाले लोगों या बातूनी लोगों के साथ या अल्पभाषी लोगों के साथ होता है—ये समस्याएँ नहीं हैं। ये व्यक्तित्व के मसले हैं। कुछ लोगों के बोलने का अंदाज स्पष्ट होता है तो दूसरों का नहीं भी होता; कई लोग अधिक साहसी होते हैं और बहुत सारे लोगों के सामने बोलने का साहस कर लेते हैं, तो कुछ लोग कम साहसी होते हैं और अपने आसपास बहुत सारे लोगों के होने पर बोलने का साहस नहीं करते हैं; कुछ लोग बहिर्मुखी होते हैं तो कुछ अंतर्मुखी होते हैं। इनमें से कोई भी समस्या नहीं है। तो समस्या क्या होती है? परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाला मसीह-विरोधियों का स्वभाव—यह एक समस्या है। यही सबसे बड़ी समस्या है, मनुष्य की सारी भ्रष्टता का स्रोत है। अगर तुम भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान कर लेते हो तो कोई भी दूसरी समस्या आगे से समस्या नहीं रह जाती।
क्या कोई और सवाल है? (परमेश्वर, मेरे मन में एक सवाल है : सत्य का अनुसरण करते हुए मैं सामान्य आध्यात्मिक जीवन जी रहा हूँ, फिर भी सत्य से प्रेम करने और उसकी खोज करने वाला मेरा दिल इतना महान नहीं है। जब मुझे लगता है कि मेरी स्थिति गलत है तो मैं कुछ दिन लगन से प्रयास करता हूँ, लेकिन ये दिन बीतते ही मैं फिर ढीला पड़ जाता हूँ। यह स्थिति बार-बार आती है, और मैं जानता हूँ कि यह एक ऐसा स्वभाव है जो सत्य से विमुख है, लेकिन अभी भी मैं इसे जड़ से हल नहीं कर सका हूँ।) इससे बचने का कोई रास्ता नहीं है—मनुष्य का जीवन प्रवेश इसी तरह होता है। इस समस्या को हल करने की हमेशा इच्छा करके तुम गलती कर रहे हो। उदाहरण के तौर पर : अपने लिए पति ढूँढ़ने का प्रयास करते हुए कुछ महिलाओं का यह मानदंड होता है कि अगर वह चाहे आम चेहरे-मोहरे वाला भी हो तो कोई बात नहीं, लेकिन वह रोमांटिक होना चाहिए। उसे यह याद रखना होगा कि वे पहली बार कब और कहाँ मिले, उसे उसका जन्म दिन, सालगिरह, वगैरा भी याद रहना चाहिए। उसे हर महत्वपूर्ण दिन याद रहना चाहिए और उसे समय-समय पर यह भी कहना याद रखना चाहिए, “मैं तुमसे प्यार करता हूँ, मेरी जान!” और समय-समय पर उसके लिए तोहफे खरीदना भी याद रखना चाहिए। वह उसकी परीक्षा लेती रहती है : “हमारी पहली डेट किस दिन थी? वैलेंटाइन डे कब है?” वे अक्सर इस तरह के रोमांस और उत्तेजना की ताक में रहती हैं, अगर उनका जीवन थोड़ा भी नीरस हो जाता है तो वे रूठकर अपने पति से शिकायत करती हैं : “जरा खुद को देखो, बुद्धू। तुम्हें प्यार जताना भी नहीं आता। तुम्हारे साथ मेरी जिंदगी ऊब गई है! तुमने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी है!” क्या बहुत सी महिलाओं में यह कमी नहीं दिखाई पड़ती है? और जब तुम कहते हो कि किसी महिला का पति रोमांटिक है, वह महिला को मनाना जानता है, अपनी पत्नी को किसी रानी की तरह रखता है तो इन महिलाओं को असहनीय जलन होती है और वे उसके पति को छीनकर अपना बना लेना चाहती हैं। वे वास्तव में एक नीरस, साधारण जीवन जीने की इच्छुक नहीं हैं। क्या तुमने भी यह कमी दिखाई है? (बिल्कुल।) जब परमेश्वर कार्य करता है और लोगों को बचाता है तो इसमें उतने ज्यादा रोमांचक, उत्तेजक अंश नहीं होते, और वह तुम्हारे लिए आश्चर्य के मौके उत्पन्न नहीं करता। यह नीरस और साधारण कार्य है—व्यावहारिक होने का यही अर्थ है। सत्य का अनुसरण करने के लिए अनुभूति की जरूरत नहीं है। अगर तुम हृदय से अनुसरण करते हो; अगर तुम कभी-कभार जाँच लेते हो कि तुम जिस रास्ते पर हो क्या वह भटक तो नहीं रहा है और तुम जो कर्तव्य निभाते हो क्या उसमें मानवीय त्रुटि के कारण कोई चूक या हानि तो नहीं हुई है, और इन विषयों पर संगति करते हो कि क्या इस दौरान भाई-बहनों के पास कर्तव्य निभाने के बारे में कोई नई अंतर्दृष्टि या ज्ञान है जिसकी तुममें कमी है, क्या जब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ते हो तो इनके बारे में तुम्हारी समझ में विकृतियाँ होती हैं, क्या इनमें ऐसी चीजें हैं जो तुम्हारी समझ से परे हैं या जिन्हें तुमने अनुभव नहीं किया है या अनदेखा किया है, इत्यादि—अगर ऐसे सभी रास्ते, लक्ष्य और दिशाएँ सामान्य और सही हैं तो यही काफी है। जब तक तुम्हारी सामान्य दिशा सही है, वह पर्याप्त है। उत्तेजना मत खोजो, आश्चर्य की तलाश मत करो। तुम्हें कोई भी चकित नहीं करने वाला। परमेश्वर में विश्वास और सत्य का अनुसरण करना वैसा ही है जैसे सामान्य लोग अपना जीवन जीते हैं। अधिकांश समय यह काफी नीरस होता है, क्योंकि तुम इस संसार में रहते हो जहाँ कुछ भी अलौकिक नहीं है और कुछ भी वास्तविक जीवन से अलग नहीं है। यह ऐसा ही नीरस है। लेकिन इस तरह के नीरस जीवन और विश्वास न करने वाले लोगों के जीवन के बीच एक अंतर है : जब तुम परमेश्वर में विश्वास करते हुए अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम लगातार अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में सीखते रहते हो, परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते को लगातार सुधारते और बदलते रहते हो, और तुम जिन सत्यों को समझते नहीं हो उन्हें लगातार सीखते रहते हो, जिन सत्यों को जानते या समझते नहीं हो उन्हें जानते और स्वीकारते जाते हो। यही अंतर है। यही काफी बड़ा अंतर है—तो तुम लोगों को और क्या चाहिए? क्या परमेश्वर के घर में, कलीसिया में, तुम्हारे आसपास पर्याप्त चीजें घटित नहीं होती हैं? परमेश्वर के कार्य की शुरुआत से लेकर अब तक जो चीजें घटित हो चुकी हैं, वही लोगों के हिसाब के लिए काफी हैं। दिन इतनी तेजी से बीतते हैं : दस, बीस साल एक ही झटके में गुजर जाते हैं, फिर एक और झटके में तीस, पचास साल गुजर जाते हैं। एक व्यक्ति के जीवन के लिए यही तकरीबन सही है। इसमें और कौन-सी उत्तेजना तलाशी जाए? यही चीजें काफी रोमांचक हैं। अपने आसपास होने वाली तमाम चीजों के कारण तुम्हें अनोखी चीजें खोजने, सत्य का पता लगाने और अचरज करने का मौका मिलना चाहिए। यह नीरस नहीं है, क्या कहते हो? (नहीं, यह नीरस नहीं है।) सत्य का अनुसरण करने का मतलब उत्तेजना की तलाश नहीं है। इस भौतिक संसार में अपनी सामान्य मानवता के साथ जीने वाले लोगों के साथ यही बात है। उत्तेजना की तलाश में मत पड़ो—उत्तेजना और अनुभूति की तलाश तो निठल्ले बैठे हुए भरे पेट वाले लोग करते हैं। अपने कर्तव्य निभाने और सत्य का अनुसरण करने में लोगों के पास हर दिन सीखने के लिए नए सबक होते हैं। कुछ लोग कहेंगे, “तो फिर मैं क्यों नहीं सीख रहा हूँ?” ठीक है, हो सकता है कि तुम्हारी प्रगति धीमी हो; अगर तुम हर महीने कुछ चीजें सीखते हो, तो यही काफी है। अगर तुम सत्य का अनुसरण और प्रगति कर रहे हो तो तुम्हारे पास यह दिखाने के लिए कुछ न कुछ होगा। क्या इस संगति से समस्या का समाधान हो गया है? (बिल्कुल।) कैसे? किन वचनों से समाधान हुआ? (इसका समाधान इस अर्थ में हुआ है कि मैं जानता हूँ कि परमेश्वर में मेरे विश्वास के अनुसरण को लेकर मेरे विचार व्यावहारिक नहीं हैं—मेरे पास अनुसरण करने के लिए कोई व्यावहारिक तरीका नहीं है। मैं हमेशा उत्तेजना पाने की ताक में रहता हूँ, हमेशा चीजों को महसूस करने की कोशिश करता हूँ, और परमेश्वर को धारणाओं और कल्पनाओं से अधिक किसी और तरीके से नहीं मानता, उसके साथ सम्मानजनक दूरी का संबंध बनाए रखता हूँ, फिर भी इस बात की अनदेखी करता हूँ कि जीवन प्रवेश के दौरान लोगों में कमजोरी होगी, कि वे जैसे-जैसे जीवन प्रवेश करेंगे वैसे-वैसे प्रगति करेंगे और यह भी कि उन्हें तमाम तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। यह सामान्य है।) तुमने इसे सही ढंग से समझा है। जब कोई परिस्थिति नहीं आई है, तो लोगों को अपने कर्तव्य वैसे ही निभाने चाहिए जैसा उचित है, और वैसे ही अनुसरण करना चाहिए जैसा उचित है। उत्तेजना की तलाश मत करो, या चीजों को महसूस मत करो; अत्यधिक संवेदनशील बनकर यह मत कहो “आज मेरा मिजाज क्यों खराब है? ओह, परमेश्वर के साथ मेरा संबंध दूर का है—मैं जल्दी से प्रार्थना करूँगा!” ऐसी अतिसंवेदनशीलता की कोई आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर बुरा नहीं मानता; वह तुम्हारे उन तुच्छ मामलों से परेशान नहीं होता! तुम कह सकते हो, “मैंने कई दिनों से प्रार्थना नहीं की है, लेकिन जब मैं कार्य करता हूँ तो मैं अक्सर अपने दिल में परमेश्वर को खोजता हूँ और मेरे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है।” इसमें कोई समस्या नहीं है। कुछ लोग कहेंगे, “ओह, मैं अपने कर्तव्य में इतना व्यस्त हो गया हूँ कि मैंने कई दिनों से परमेश्वर के वचन नहीं पढ़े हैं।” तुम इस प्रक्रिया से नहीं गुजरे—तुमने इसे अनदेखा कर दिया—लेकिन अपना कर्तव्य निभाने के दौरान तुमने कई समस्याओं का पता लगाया है, और तुमने कुछ भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है, और तुमने उस अवधि में दूसरों की संगति सुनी, जिससे तुम्हें बहुत सीख मिली। क्या यह वास्तविक लाभ नहीं है? क्या तुम सत्य को समझने और हासिल करने के लिए परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते? एक खास तरीके या ढंग से ऐसा करने के लिए तुम पर दबाव डालने का क्या फायदा? ठीक बात है। हम आज की संगति यहीं समाप्त करेंगे। अलविदा! (धन्यवाद परमेश्वर, और अलविदा!)
30 मई 2020