मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग तीन)

II. उस देह से घृणा करना जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है

पिछली संगति का विषय था मसीह-विरोधियों की दसवीं अभिव्यक्ति—सत्य से घृणा करना, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाना और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करना। इस मद को विस्तृत संगति के लिए तीन और खंडों में बाँट दिया गया है। पहला खंड है परमेश्वर की पहचान और सार से घृणा करना, दूसरा है उस देह से घृणा करना जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है और तीसरा खंड है परमेश्वर के वचनों से घृणा करना। इन तीनों खंडों का उपयोग मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों संबंधी दसवीं मद के गहन विश्लेषण के लिए किया गया है। पहले खंड पर संगति हो चुकी है और दूसरे खंड, उस देह से घृणा करना जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, को संगति के लिए चार भागों में बाँटा गया है। ये चार भाग क्या हैं? (पहला, खुशामद, चापलूसी और अच्छे लगने वाले शब्द; दूसरा, जिज्ञासा के साथ जाँच-पड़ताल और विश्लेषण; तीसरा, मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है; और चौथा, मसीह जो कहता है उसे केवल सुनना, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करना और न ही उसके प्रति समर्पण करना है।) पिछली बार पहले दो भागों पर संगति की गई थी; इस बार हम तीसरे भाग पर संगति करेंगे।

ग. मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है

तीसरा भाग है “मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है”; यह सरल-सा वाक्यांश मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों को स्पष्ट दिखाता है। तुम लोगों के मन में बनी छवि में या जो कुछ तुम लोगों ने देखा और अनुभव किया है उसमें क्या इस भाग से संबंधित कुछ उदाहरण नहीं होने चाहिए? कुछ लोग कहते हैं, “मेरा मसीह से कभी संपर्क नहीं रहा; मैंने केवल उसके धर्मोपदेश सुने हैं। मुझे इस अभिव्यक्ति का कोई वास्तविक अनुभव नहीं है, न ही मैंने दूसरों को इसे वास्तविकता में प्रदर्शित करते देखा है।” तुम लोगों में से जिन्हें इस भाग का वास्तविक अनुभव है, क्या तुम्हारे पास इसके अनुरूप कोई भावना या समझ है? कोई नहीं? फिर तो हमें वास्तव में गहन संगति की जरूरत है, है ना? (हाँ।) ऊपरी तौर पर लगता है कि जब लोग मसीह के संपर्क में आते हैं तो इस भाग का संबंध विभिन्न रवैयों और अभिव्यक्तियों से होता है। वास्तव में इस भाग से कोई व्यक्ति न सिर्फ परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उसके प्रति लोगों की तमाम अभिव्यक्तियाँ और रवैये देख सकता है, बल्कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसके प्रति लोगों के व्यवहार में परमेश्वर के लिए उनके सच्चे रवैयों और अभिव्यक्तियों को भी पहचान सकता है। यानी इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लोग परमेश्वर की पहचान और सार रखने वाले स्वयं परमेश्वर से किस रवैये से पेश आते हैं और क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय, सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण है। विभिन्न स्थितियों का सामना करते समय मसीह के प्रति लोगों के रवैए उस परमेश्वर के प्रति उनके रवैयों को प्रकट कर देते हैं जिसमें वे विश्वास रखते हैं। इस साधारण व्यक्ति मसीह से पेश आते समय तुममें कोई धारणा, सच्ची आस्था या सच्चा समर्पण है या नहीं, इससे यह संकेत मिल जाता है कि क्या स्वयं परमेश्वर यानी जिस परमेश्वर में तुम विश्वास रखते हो उसके प्रति तुममें सच्ची आस्था और सच्चा समर्पण है या नहीं। लोग स्वर्ग के परमेश्वर के प्रति व्यवहार में—अपने रवैयों, विचारों और वास्तविक सोच में—बिल्कुल अस्पष्ट होते हैं, वे परमेश्वर के प्रति अपने वास्तविक रवैये प्रकट नहीं करते हैं। लेकिन जब लोग वास्तव में परमेश्वर का सामना करते हैं और उस मूर्त, हाड़-मांस के शरीर को देखते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है तो परमेश्वर के प्रति उनके सच्चे रवैयों का पूरी तरह से खुलासा हो जाता है। लोग जो शब्द बोलते हैं, उनके मन में जो विचार हैं, वे जो दृष्टिकोण अपनाते हैं और सीने से लगाए रखते हैं, और यहाँ तक कि मसीह के प्रति उनके दिलों के विचार और रवैये दरअसल इस बात की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं कि वे परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। चूँकि स्वर्ग का परमेश्वर अदृश्य और अमूर्त है, इसलिए लोग उसके बारे में कैसे सोचते हैं, वे उसके साथ कैसा व्यवहार करते हैं, वे उसे कैसे परिभाषित करते हैं और क्या वे आज्ञाकारी हैं, यह मापने के लिए लोगों के पास दरअसल कोई मानक नहीं है कि क्या उनकी अभिव्यक्तियाँ सही हैं या नहीं अथवा सत्य के अनुरूप हैं या नहीं। लेकिन जब परमेश्वर मसीह के रूप में देहधारण करता है तो यह सब बदल जाता है : परमेश्वर के प्रति लोगों की इन सभी अभिव्यक्तियों और रवैयों को मापने के लिए एक मानक बन जाता है, जिससे परमेश्वर के प्रति लोगों के सच्चे रवैये स्पष्ट दिखने लगते हैं। अक्सर लोग यह सोचते हैं कि उन्हें परमेश्वर में अपार आस्था और सच्चा विश्वास है, उन्हें लगता है कि परमेश्वर महान, सर्वोच्च और प्यारा है। लेकिन क्या ये उनके वास्तविक आध्यात्मिक कद का प्रतिबिंब हैं या महज एक मनःस्थिति हैं? यह तय करना कठिन है। जब लोग परमेश्वर को देख नहीं पाते तो उससे व्यवहार करने के प्रति लोगों के इरादे चाहे कितने ही अच्छे क्यों न हों, उसके प्रति उनके व्यवहार में हमेशा अस्पष्टता, खोखलेपन और अव्यावहारिकता की मिलावट होती है, यह हमेशा कुछ खोखली कल्पनाओं से भरा होता है। जब लोग वास्तव में परमेश्वर को देखते हैं और उसके संपर्क में आते हैं तो परमेश्वर में उनकी आस्था की सीमा, परमेश्वर के प्रति उनके समर्पण का स्तर और क्या उनमें परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम है, इन सबका पूरी तरह से खुलासा हो जाता है। इसलिए जब परमेश्वर देहधारी हो जाता है, खासकर जब वह सभी लोगों के लिए यथासंभव साधारण व्यक्ति बन जाता है, तो यह देह, यह साधारण व्यक्ति हर किसी के लिए एक परीक्षण बन जाता है और प्रत्येक व्यक्ति की आस्था और वास्तविक आध्यात्मिक कद का भी खुलासा कर देता है। हो सकता है कि जब तुमने पहली बार परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकारा हो तो तुम उसका अनुसरण करने में सक्षम रहे हो, लेकिन जब तुम देहधारी परमेश्वर को स्वीकारते हो तो परमेश्वर को एक साधारण व्यक्ति बना देखकर तुम्हारा मन धारणाओं से भर जाता है। तब जिस मसीह में तुम विश्वास रखते हो—यह साधारण व्यक्ति—तुम्हारे विश्वास के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाता है। तो फिर चलो आज इस बात पर संगति करते हैं कि यह साधारण व्यक्ति, वह देह जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है यानी मसीह लोगों पर क्या प्रभाव डालता है, और इस साधारण व्यक्ति मसीह के प्रति लोग ऐसी कौन-सी वास्तविक अभिव्यक्तियाँ प्रकट करते हैं जो परमेश्वर के प्रति उनके तमाम सच्चे रवैयों और दृष्टिकोणों का खुलासा करती हैं।

तीसरे भाग की मुख्य विषयवस्तु यह है कि लोग अपनी मनःस्थिति के आधार पर मसीह के साथ व्यवहार करते हैं। वास्तव में इस मनःस्थिति का आशय क्या है, यही आज की संगति का केंद्र बिंदु है, मुख्य विषय है। बेशक यह मनःस्थिति तो सिर्फ एक अनुनाम है, एक सामान्यीकरण है। यह मनःस्थिति नहीं है; इसके पीछे लोगों की विभिन्न धारणाएँ और कल्पनाएँ, साथ ही उनके तमाम भ्रष्ट स्वभाव, यहाँ तक कि उनका शैतानी प्रकृति सार भी घात लगाकर छिपे रहते हैं। जब व्यक्ति परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने में किसी बाधा का सामना नहीं करता, कोई भी चीज उसकी मनःस्थिति को प्रभावित नहीं करती और सब कुछ सुचारु रूप से चलता है, तो वह अक्सर परमेश्वर के सामने प्रार्थना कर सकता है और सुख और शांति से भरा बहुत ही नियमित जीवन जी सकता है। उसके आसपास का परिवेश भी सहज होता है, अधिकतर भाई-बहन एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहते हैं, परमेश्वर अक्सर उन्हें कर्तव्य निभाने के दौरान और कुछ तकनीकी क्षेत्रों के बारे में सीखने में मार्गदर्शन देता है, प्रबोधन और रोशनी प्रदान करता है, और अभ्यास के सिद्धांत उनके मन में अपेक्षाकृत स्पष्ट होते हैं—सब कुछ बहुत सामान्य और आसानी से चल रहा होता है। इस समय लोगों को लगता है कि उन्हें परमेश्वर में बहुत आस्था है, वे अपने दिल में खुद को परमेश्वर के बेहद करीब महसूस करते हैं, प्रार्थना करने और मन की बात कहने के लिए अक्सर परमेश्वर के समक्ष आ सकते हैं, खुद को परमेश्वर के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ महसूस कर सकते हैं और परमेश्वर को विशेष रूप से प्यारा पा सकते हैं। इस समय उनकी मनःस्थिति बहुत अच्छी होती है; वे अक्सर शांति और आनंद से रहते हैं, सभाओं में सक्रिय रूप से बोलते हैं, वे नियमित रूप से हर दिन परमेश्वर के वचनों का प्रार्थनापूर्वक पाठ करने और भजन सीखने में सक्षम होते हैं। जब सब कुछ इतने अच्छे और सुचारु ढंग से चल रहा होता है, तो लोग लगातार अपने दिल में परमेश्वर को धन्यवाद दे रहे होते हैं, मौन होकर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और खुद को जीवन भर परमेश्वर के लिए खपाने, अपना सब कुछ उसे अर्पित करने और कठिनाइयों को सहने और अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए कीमत चुकाने का संकल्प लेते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर इतना महान है, इतना प्यारा है और उनमें खुद को परमेश्वर को अर्पित करने, अपना पूरा जीवन उसे समर्पित करने का संकल्प और इच्छा होती है। क्या यह स्थिति बहुत ही सक्रिय और सकारात्मक नहीं है? यहाँ से ऐसा लगता है कि हम लोगों की वफादारी, परमेश्वर के लिए उनका प्रेम और उनका त्याग देख सकते हैं। सब कुछ बहुत अद्भुत, शांतिपूर्ण और सहज प्रतीत होता है। इन सभी अभिव्यक्तियों से ऐसा लगता है कि लोग बिना किसी प्रतिकूलता के अपनी ओर से बस सक्रिय रूप से प्रयास कर रहे हैं, परमेश्वर के कार्यों और उसकी अपेक्षाओं से सहयोग कर रहे हैं। इस प्रकार वे अपने दिलों में लगातार परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं, स्वर्ग के परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं और पृथ्वी पर मसीह को धन्यवाद देते हैं और मसीह के प्रति अनंत प्रेम और श्रद्धा से भरे होते हैं। जब भी वे “इस तुच्छ व्यक्ति” शब्दों वाला भजन गाते हैं तो वे यह सोचकर अत्यधिक द्रवित हो जाते हैं, “वास्तव में इस तुच्छ व्यक्ति ने ही मुझे बचाया, मुझे यह अवसर दिया, आज मुझे परमेश्वर के घर में एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने दिया है!” यहाँ तक कि कुछ लोग सीधे प्रार्थना करते हैं : “हे व्यावहारिक परमेश्वर, देहधारी परमेश्वर, मसीह : मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूँ, तुम्हारी स्तुति करता हूँ, क्योंकि तुमने मुझे ये सभी आशीष दिए हैं, तुमने मुझ पर अनुग्रह किया है। परमेश्वर तुम मेरे दिल के परमेश्वर हो, तुम सृष्टिकर्ता हो, एक तुम ही हो जिसका मैं अनुसरण करना चाहता हूँ। मैं उम्र भर खुद को तुम्हारे लिए खपाना चाहता हूँ।” ये सभी दृश्य इतने शांतिपूर्ण, इतने सुंदर और इतने सामंजस्यपूर्ण लगते हैं कि मानो बचाया जाना बहुत आसान और सहज हो। लेकिन क्या यह सामंजस्य और शांति वास्तव में हमेशा कायम रह सकती है? क्या यह अपरिवर्तित रह सकती है? यह उतना आसान नहीं है।

1. काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर उनका व्यवहार

लोगों के अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में यह लाजमी है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें, परिस्थितियों का सामना करते हुए बड़बड़ाएँ, अपने ही विचार पालें और इससे भी बढ़कर मनमाने ढंग से और लापरवाही से काम करें। ऐसी स्थितियों में लोगों को अनिवार्य रूप से काट-छाँट का सामना करना पड़ता है। जब काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो जो व्यक्ति उत्साह से भरा होता है, परमेश्वर के बारे में कल्पनाओं और धारणाओं से भरा होता है, क्या उसमें वास्तव में इन सबका सामना करने, ईमानदारी से इन सबका अनुभव करने और ऐसी स्थितियों से सफलतापूर्वक पार पड़ने लायक आध्यात्मिक कद होता है? इससे एक सवाल खड़ा होता है और यहीं समस्या निहित है। जब लोगों को लगता है कि सब कुछ बहुत अद्भुत है, जब उन्हें लगता है कि परमेश्वर इतना प्यारा है, परमेश्वर लोगों से बहुत प्रेम करता है, उसका प्रेम इतना महान और इतना वास्तविक है, तभी उन्हें काट-छाँट होने, प्रकट होने का सामना करना पड़ता है तब जो लोग सत्य को नहीं समझते वे अक्सर हतप्रभ और भ्रमित, भयभीत और आशंकित महसूस करते हैं। उन्हें एकाएक लगता है जैसे उनके सामने अँधेरा छा गया है, वे आगे का रास्ता नहीं देख पाते, वे नहीं जानते कि मौजूदा स्थिति का सामना कैसे करें। जब वे परमेश्वर के सामने आते हैं, तो अपनी पहले जैसी ही भावनाओं की खोज करते हैं, पहली जैसी ही मनःस्थिति, विचारों, दृष्टिकोण और रवैये के साथ प्रार्थना करते हैं। लेकिन तभी उन्हें लगता है कि वे अब परमेश्वर का आभास नहीं कर पा रहे हैं। जब उन्हें यह लगता है कि उन्हें परमेश्वर का आभास नहीं हो पा रहा है तो वे सोचने लगते हैं : “क्या परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता? क्या परमेश्वर मेरा तिरस्कार कर रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्ट स्वभाव के कारण परमेश्वर अब मुझे नापसंद कर रहा है? क्या परमेश्वर मुझे हटाने वाला है? अगर ऐसा है तो क्या मेरा काम तमाम नहीं हो गया? अब मेरे अस्तित्व का क्या मतलब रह गया है? परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या तुक है? मैं विश्वास न रखूँ तो भी ठीक है। अगर मैं विश्वास न रखता तो शायद आज मेरे पास एक अच्छी नौकरी होती, एक सामंजस्यपूर्ण परिवार होता, उज्ज्वल भविष्य होता! अब तक परमेश्वर में विश्वास रखकर मुझे कुछ नहीं मिला, अगर मैं विश्वास रखना सचमुच बंद कर दूँ तो क्या इसका अर्थ यह नहीं होगा कि मेरी पिछली सारी मेहनत बेकार हो गई, मेरा पहले का खपना और त्याग करना सब बेकार रहा?” ये विचार घिर आने पर वे यह सोचते हुए अचानक चारों तरफ से एकाकी और असहज महसूस करते हैं, “स्वर्ग का परमेश्वर बहुत दूर है और पृथ्वी का यह परमेश्वर संगति करने और सत्य प्रदान करने के अलावा भला मेरी और क्या मदद कर सकता है? वह मुझे और क्या दे सकता है? वह इतना तुच्छ और दूसरों का ख्याल न रखने वाला लगता है। थोड़ा-सा भ्रष्ट स्वभाव होना कौन-सी बड़ी बात है? अगर इसे मानवीय तरीके से लिया जाता तो परमेश्वर लोगों के थोड़े-से भ्रष्ट स्वभाव को अनदेखा कर देता; वह इसे उदारता से निपटाता और लोगों की छोटी-मोटी गलतियों में बाल की खाल नहीं निकालता। परमेश्वर इतनी छोटी-सी बात पर क्यों इस तरह मेरी काट-छाँट कर मुझे अनुशासित कर रहा है, यहाँ तक कि मुझे अनदेखा भी कर रहा है? इस तरह की स्थिति में ऐसा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन परमेश्वर वास्तव में मुझसे घृणा करता है। वह सचमुच लोगों से प्रेम करता भी है या नहीं? उसका प्रेम कहाँ प्रकट होता है? वह वास्तव में लोगों से कैसे प्रेम करता है? वैसे भी इस समय अब मैं परमेश्वर के प्रेम को महसूस नहीं कर सकता।” जब वे परमेश्वर के प्रेम को महसूस नहीं कर पाते तो उसी क्षण वे स्वर्ग के परमेश्वर से बहुत दूर महसूस करते हैं और पृथ्वी पर इस मसीह, इस साधारण व्यक्ति से तो और भी अधिक दूर महसूस करते हैं। जब वे अपने दिल में यह तनहाई महसूस करते हैं तो वे बार-बार प्रार्थना करते हैं और खुद को बारम्बार दिलासा देते हैं, “डरो मत, स्वर्ग के परमेश्वर में आशा रखो। परमेश्वर मेरी ढाल है, परमेश्वर मेरी ताकत है, परमेश्वर अभी भी लोगों से प्रेम करता है।” इस समय वह परमेश्वर कहाँ है जिसकी वे बात करते हैं? स्वर्ग में, सभी चीजों के बीच, एक वह परमेश्वर ही है जो सचमुच लोगों से प्रेम करता है, वह परमेश्वर जिसकी ओर लोग सराहना की दृष्टि से देखते हैं और उससे अत्यंत स्नेह करते हैं, जो उनकी ढाल बन सकता है, जो हमेशा मददगार हो सकता है और उनके दिलों को दिलासा दे सकता है। वह उनकी आत्मा, हृदय और देह के लिए आसरा है। लेकिन यह देखते हुए कि पृथ्वी का यह परमेश्वर क्या करने में सक्षम है, लोगों के दिलों में अब कोई भरोसा नहीं बचा है। उनका रवैया बदल जाता है। यह किस स्थिति में बदलता है? जब उन्हें अपनी काट-छाँट और खुलासे का सामना करना पड़ता है, और नाकामी हाथ लगती है तो उनकी असली आस्था प्रकट हो जाती है।

जब लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है तो उनकी तथाकथित सच्ची आस्था तुरंत स्वर्ग के अज्ञात परमेश्वर में आसरा ढूँढ़ लेती है। जहाँ तक पृथ्वी के दिखाई देने वाले परमेश्वर का सवाल है, उसके प्रति उनका रवैया क्या होता है? लोगों की पहली प्रतिक्रिया उसे नकारने और जाने देने की होती है, वे उस पर आगे से भरोसा या विश्वास न कर उससे बचना, छिपना और खुद को दूर कर लेना चाहते हैं। लोगों की ऐसी ही मनःस्थिति होती है। काट-छाँट का सामना होने पर लोग जिस सत्य को समझते हैं वह, और उनकी तथाकथित सच्ची आस्था, निष्ठा, प्रेम और समर्पण बहुत कमजोर पड़ जाते हैं। जब ये सभी परिस्थितियाँ बदल जाती हैं तो उसी के अनुरूप देहधारी परमेश्वर के प्रति उनका रवैया भी बदल जाता है। उनके पहले के त्याग—उनकी तथाकथित वफादारी, उनका खपना और उनके द्वारा चुकाई गई कीमत, साथ ही उनका तथाकथित समर्पण—इस समय किसी भी प्रकार की वफादारी या सच्चे समर्पण के रूप में नहीं, बल्कि केवल उत्साह के रूप में प्रकट होते हैं। और इस उत्साह में किस चीज की मिलावट होती है? इसमें मानवीय भावनाओं, मानवीय अच्छाई और मानवीय निष्ठा की मिलावट होती है। इस निष्ठा को उग्रता के रूप में भी समझा जा सकता है, जैसे कि इस बात में, “अगर मैं किसी का अनुसरण करता हूँ, तो मुझे सच्चे भाईचारे की निष्ठा दिखानी होगी, उसके लिए अपना जीवन त्यागने को तैयार रहना होगा, अपना दमखम लगाना होगा, उसके लिए छुरा भी खाना होगा, उसके लिए सब कुछ अर्पित करना होगा,” जोकि मानवीय उग्रता की अभिव्यक्ति है। ऐसी ही मानवीय अभिव्यक्तियाँ इस क्षण प्रकट होती हैं। ये क्यों प्रकट होती हैं? क्योंकि ऐसा लगता है कि लोगों ने अपने विचारों और दृष्टिकोणों में तो यह स्वीकार कर लिया है कि यह साधारण व्यक्ति देहधारी परमेश्वर है, मसीह है, परमेश्वर है और उसमें परमेश्वर की पहचान है—लेकिन उनके वास्तविक आध्यात्मिक कद को देखा जाए, उनके द्वारा समझे गए सत्य और परमेश्वर को लेकर उनके ज्ञान को देखा जाए तो उन्होंने इस साधारण व्यक्ति को न तो वास्तव में स्वीकार किया है, न ही उसे मसीह के रूप में, परमेश्वर के रूप में माना है। जब सब कुछ ठीक चल रहा हो, जब सब कुछ वैसा हो जैसा कोई चाहता हो, जब लोगों को लगता हो कि परमेश्वर उन्हें आशीष दे रहा है, रोशनी दे रहा है, उनकी अगुआई कर रहा है और उन पर अनुग्रह कर रहा है, और जब लोगों को परमेश्वर से जो मिल रहा है वह उनकी धारणाओं और कल्पानाओं से मेल खाता हो, तो वे व्यक्तिपरक रूप से इस साधारण व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा प्रमाणित मनुष्य के परमेश्वर के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। लेकिन जब ये सभी परिस्थितियाँ बदल जाती हैं, जब परमेश्वर इन सभी चीजों को छीन लेता है और जब लोगों में सच्ची समझ नहीं होती है और उनके पास सच्चा आध्यात्मिक कद नहीं होता, तो उनके बारे में हर चीज का खुलासा हो जाता है और वे जो व्यक्त करते हैं वह वास्तव में परमेश्वर के प्रति उनका सच्चा रवैया होता है। यह सच्चा रवैया कैसे उत्पन्न होता है? उसकी उत्पत्ति कहाँ से होती है? यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव से और परमेश्वर के बारे में उनके ज्ञान की कमी से उत्पन्न होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? लोगों में यह भ्रष्ट स्वभाव क्या है? (शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद लोग आंतरिक रूप से परमेश्वर के खिलाफ पहरा बैठा देते हैं और उसके खिलाफ एक अवरोध खड़ा कर देते हैं। परमेश्वर चाहे जो भी करे, वे हमेशा यही सोचते हैं, “क्या परमेश्वर मुझे नुकसान पहुँचाने जा रहा है?”) क्या लोगों और परमेश्वर के बीच रिश्ता महज एक अवरोध होने का मामला है? क्या यह इतना आसान है? यह सिर्फ एक अवरोध होने की बात नहीं है; यह दो अलग-अलग सार होने की समस्या है। मनुष्यों का स्वभाव भ्रष्ट है—क्या परमेश्वर का स्वभाव भ्रष्ट है? (नहीं।) तो फिर लोगों और परमेश्वर के बीच झगड़ा क्यों है, लोग परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण क्यों होते हैं? इसका कारण किसमें निहित है? क्या यह परमेश्वर में है या लोगों में? (लोगों में।) उदाहरण के लिए अगर दो लोग आपस में झगड़ा कर बात करना बंद कर दें, तो उनके दिलों में अवरोध होने से, भले ही वे बातचीत करें, यह सतही ही होगी। यह अवरोध कैसे बनता है? इसका कारण यह है कि उनके अलग-अलग दृष्टिकोण होते हैं जो आपस में मेल नहीं खा सकते, और उनमें से कोई भी अपना दृष्टिकोण छोड़ने को तैयार नहीं होता जिससे एकता में रुकावट पैदा होती है। लोगों के बीच इसी तरह से दूरियाँ बनती हैं। लेकिन अगर हम लोगों और परमेश्वर के बीच के रिश्ते को केवल एक अवरोध होने के रूप में वर्णित करते हैं तो क्या न्यूनोक्ति नहीं होगी, यह सत्य से कमतर बात नहीं होगी? यह सच है कि एक अवरोध है, लेकिन अगर हम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव की समस्या को समझाने के लिए “अवरोध” शब्द का उपयोग करते हैं तो यह बहुत हल्का होगा। ऐसा इसलिए है कि शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद लोगों के पास शैतानी भ्रष्ट स्वभाव और सार होता है; उनकी मूल प्रकृति परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होने की होती है। शैतान परमेश्वर से शत्रुता रखता है। क्या वह परमेश्वर को परमेश्वर मानता है? क्या इसमें परमेश्वर के प्रति आस्था या समर्पण होता है? उसमें न तो सच्ची आस्था होती है और न ही सच्चा समर्पण होता है—शैतान ऐसा ही है। लोग भी शैतान के समान हैं; उनमें शैतान का भ्रष्ट स्वभाव और सार है और उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था और समर्पण भी नहीं होता है। तो क्या हम कह सकते हैं कि सच्ची आस्था और समर्पण की कमी के कारण लोगों और परमेश्वर के बीच एक अवरोध है? (नहीं।) यह केवल यह दर्शाता है कि लोग परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। जब परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह लोगों की रुचियों, मनःस्थितियों और जरूरतों के अनुरूप होता है, उनकी प्राथमिकताओं को संतुष्ट करता है और सब कुछ सुचारु रूप से और उनकी इच्छा के अनुसार करता है, तब लोगों को लगता है कि परमेश्वर बहुत प्यारा है। लेकिन क्या ऐसे समय में परमेश्वर के प्रिय होने की यह भावना वास्तविक है? (नहीं।) यह सिर्फ लोगों का फायदा उठाना है, बदले में कुछ अच्छे शब्द पेश करना है; इसे ही लाभ बटोरना और फिर अच्छाई का दिखावा करना कहा जाता है। ऐसी स्थितियों में लोगों के कहे शब्द क्या परमेश्वर के बारे में उनका सच्चा ज्ञान दर्शाते हैं? क्या परमेश्वर के बारे में यह ज्ञान असली है या नकली? (नकली।) यह ज्ञान न तो सत्य के अनुरूप है, न ही परमेश्वर के सार के अनुरूप है। यह सच्चा ज्ञान नहीं है, बल्कि एक कल्पना है, मानवीय भावनाओं और उग्रता से उत्पन्न धारणा है। जब यह धारणा टूटती है, उजागर और प्रकट होती है तो लोग हताश महसूस करते हैं; इसका यह आशय होता है कि वे जो कुछ हासिल करना चाहते थे वह सब छिन चुका है। क्या विभिन्न रूपों में परमेश्वर के प्यारे और अच्छे होने के बारे में लोगों के पिछले बोध की आलोचना और निंदा नहीं हो चुकी है? यह उनके पहले के विश्वास के बिल्कुल विपरीत है। क्या लोग इस तथ्य को स्वीकार कर सकते हैं? (नहीं।) जब परमेश्वर तुम्हें कुछ नहीं देता तो वह तुम्हें बस अपने वचनों के अनुसार जीने देता है, बोलने और कार्य करने देता है, अपना कर्तव्य निभाने देता है, परमेश्वर की सेवा करने देता है, दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहने देता है, वगैरह-वगैरह, यह सब उसके शब्दों के अनुसार होता है। जब तुम वास्तव में उसके वचनों के अनुसार जीते हो, परमेश्वर की कष्टप्रद देखभाल को महसूस कर सकते हो और तुम वास्तव में परमेश्वर से प्रेम और उसके प्रति समर्पण कर सकते हो, तो तुममें अशुद्धियाँ कम होती हैं और तुम परमेश्वर की जो मनोहरता और सार महसूस करते हो वह वास्तविक होता है।

जब लोगों को अनुशासन और काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो वे परमेश्वर के बारे में धारणाएँ, शिकायतें और गलतफहमियाँ विकसित कर लेते हैं। जब ये चीजें सामने आती हैं तो लोग अचानक महसूस करते हैं कि परमेश्वर दूसरों का ख्याल नहीं रखता, मानो कि वह उतना प्यारा नहीं है जितनी उन्होंने कल्पना की थी : “हर कोई कहता है कि परमेश्वर प्यारा है, लेकिन मैं इसे महसूस क्यों नहीं कर सकता? अगर परमेश्वर वास्तव में प्यारा है, तो उसे मुझे आशीष और दिलासा देना चाहिए। जब मैं कोई गलती करने वाला होता हूँ तो उसे मुझको चेतावनी देनी चाहिए, न कि मुझे शर्मिंदा होने देना या गलती करने देना चाहिए; मेरे गलती करने से पहले उसे ये कार्य करने चाहिए, मुझे गलतियाँ करने या गलत रास्ता पकड़ने से रोकना चाहिए!” जब लोग मुश्किलों का सामना करते हैं तो उनके मन में ऐसी धारणाएँ और विचार उमड़ते-घुमड़ते हैं। इस समय, लोगों के बोलने और कार्य करने के तरीके में कम खुलापन होता है। जब लोगों का सामना काट-छाँट से होता है, जब उनका वास्ता मुश्किलों से पड़ता है तो उनकी मनःस्थिति और ज्यादा बिगड़ जाती है; उन्हें लगने लगता है कि परमेश्वर उनसे उतना प्रेम नहीं करता है या उन पर उतना अनुग्रह नहीं दिखाता है, कि उन पर उतनी कृपा नहीं की जाती है। वे अपने मन में सोचते हैं : “अगर परमेश्वर मुझसे प्रेम नहीं करता, तो मुझे उससे प्रेम क्यों करना चाहिए? मैं भी परमेश्वर से प्रेम नहीं करूँगा।” पहले परमेश्वर के साथ बातचीत में, परमेश्वर जो कुछ भी पूछता था, वे उत्तर दे देते थे; वे बहुत सक्रिय होते थे। वे हमेशा अधिक बातें साझा करना चाहते थे, उनके पास बताने के लिए कभी भी बातों की कमी नहीं होती थी, वे अपने दिल की हर बात व्यक्त करना और बताना चाहते थे, परमेश्वर का विश्वासप्राप्त बनने की आकांक्षा रखते थे। लेकिन जब उन्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर अब उतना प्यारा नहीं रहा, कि परमेश्वर अब उन्हें उतना अधिक प्रेम नहीं करता है, और वे खुद भी अब परमेश्वर से प्रेम नहीं करना चाहते हैं। जब परमेश्वर कुछ पूछता है तो वे केवल संक्षेप में और लापरवाही से जवाब देते हैं, केवल इक्का-दुक्का शब्दों में जवाब देते हैं। अगर परमेश्वर पूछता है, “इन दिनों तुम अपने कर्तव्य कितनी अच्छी तरह निभा रहे हो?” तो वे जवाब देते हैं, “ठीक-ठाक।” “क्या तुम्हें कोई कठिनाई होती है?” “कभी-कभी।” “क्या तुम भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग कर सकते हो?” अपने मन में वे सोचते हैं, “मैं अपना ही ध्यान नहीं रख पा रहा हूँ तो दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण ढंग से कैसे सहयोग कर सकता हूँ?” “क्या तुममें कोई कमजोरी है?” “मैं ठीक हूँ।” वे ज्यादा बातें करने के इच्छुक नहीं रहते, पूरी तरह से नकारात्मक और शिकायती रवैया दिखाते हैं। उनका पूरा अस्तित्व उदासी और हताशा से भर जाता है, शिकायतों और अन्याय होने की भावना से भर जाता है, वे जितना जरूरी है उससे ज्यादा बोलने के इच्छुक नहीं होते हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि अभी उनकी मनःस्थिति ठीक नहीं है, उनकी दशा अपेक्षाकृत हताशा से भरी है, और वे किसी से भी बात करने की मनःस्थिति में नहीं हैं। जब पूछा जाता है, “क्या तुमने हाल ही में प्रार्थना की है?” तो वे उत्तर देते हैं, “मेरी प्रार्थनाएँ अब भी उन्हीं पहले जैसे शब्दों वाली हैं।” “तुम्हारी दशा इन दिनों ठीक नहीं रही है; क्या तुमने कठिनाइयों का सामना करने पर सत्य को खोजा?” “मैं हर चीज समझता हूँ, मैं बस सक्रिय नहीं रह सकता हूँ।” “तुमने परमेश्वर के बारे में गलतफहमियाँ पाल ली हैं। क्या तुम समझ सकते हो कि तुम्हारी समस्या कहाँ है? कौन-से भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आने से रोक रहे हैं? तुम किस कारण से इतने नकारात्मक हो गए हो कि तुम्हारा मन प्रार्थना के लिए भी परमेश्वर के समक्ष आने का नहीं करता?” “मुझे नहीं पता।” यह किस प्रकार का रवैया है? (नकारात्मक और टकरावपूर्ण।) सही कहा, उनमें समर्पण का कोई संकेत नहीं है, बल्कि वे शिकवे-शिकायतों से भरे हुए हैं। अपने आध्यात्मिक और मानसिक संसार में वे परमेश्वर को बुद्ध या बोधिसत्व के स्वरूप के समान मानते हैं जैसा कि इंसान वर्णन करता है। लोग चाहे जो भी करते हों या जैसे भी रहते हों, बुद्ध या बोधिसत्व के ये स्वरूप कभी एक शब्द भी नहीं बोलते, बस खुद को लोगों की हेराफेरी के आगे समर्पित कर देते हैं। वे मानते हैं कि परमेश्वर को उनकी काट-छाँट नहीं करनी चाहिए, उन्हें नुकसान तो बिल्कुल नहीं पहुँचाना चाहिए; वे चाहे जो भी गलत करें, परमेश्वर को उन्हें केवल सांत्वना देनी चाहिए, उनकी काट-छाँट नहीं करनी चाहिए, उन्हें उजागर या प्रकट नहीं करना चाहिए और उन्हें अनुशासित तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। वे परमेश्वर में विश्वास रखना चाहते हैं और अपनी मनःस्थितियों और स्वभावों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहते हैं, जो जी में आए वैसा करना चाहते हैं, यह सोचकर कि वे चाहे जो कुछ भी करें, परमेश्वर को संतुष्ट, खुश और सहमत होना चाहिए। लेकिन चीजें वैसी नहीं होतीं जैसा वे चाहते हैं; परमेश्वर इस तरह से कार्य नहीं करता है। तब लोग सोचते हैं, “अगर वह वैसे कार्य नहीं करता जैसा मैंने सोचा था, तो क्या वह अभी भी परमेश्वर है? क्या वह अभी भी इस लायक है कि मैं उसमें निवेश करूँ, उसके लिए खपूँ और त्याग करूँ? अगर ऐसा नहीं है तो उसे अपना सच्चा दिल अर्पित करना मूर्खता होगी, है ना?” इस तरह जब काट-छाँट का समय आता है, तो एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से लोगों की प्रारंभिक प्रतिक्रिया यह सुनने की नहीं होती कि परमेश्वर क्या कह रहा है या उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, और न यह कि वे कौन-सी मानवीय समस्याएँ, दशाएँ या स्वभाव हैं जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है, न ही यह कि मनुष्य को इन चीजों को कैसे स्वीकार करना चाहिए, उन्हें कैसे देखना चाहिए या उनके प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए। ऐसी बातें लोगों के मन में नहीं होतीं। परमेश्वर लोगों से चाहे जैसे बात करे या चाहे जैसे उनका मार्गदर्शन करे, यदि उसका लहजा या बोलने का तरीका बेलिहाज है—यदि उनकी मनःस्थितियों, आत्म-सम्मान और कमजोरी को ध्यान में नहीं रखा जाता—तो लोगों के मन में धारणाएँ पैदा हो जाती हैं, और वे परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मानना चाहते हैं, न ही स्वयं को सृजित प्राणी मानना चाहते हैं। यहाँ सबसे बड़ी समस्या यह है कि जब परमेश्वर उन्हें सुखद समय प्रदान करता है, लोग जैसा चाहते हैं सब कुछ वैसा ही होने देता है, तब तो लोग सृजित प्राणियों की तरह व्यवहार करने को तैयार हो जाते हैं, लेकिन जब परमेश्वर लोगों को अनुशासित करने और उनका खुलासा करने के लिए, उन्हें सबक सिखाने के लिए, उन्हें सत्य समझाने और अपने इरादे से अवगत कराने के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ प्रस्तुत करता है—तो उस समय लोग तुरंत उससे मुँह मोड़ लेते हैं और फिर सृजित प्राणी नहीं बने रहना चाहते। जब कोई व्यक्ति सृजित प्राणी नहीं बने रहना चाहता, तो उस दृष्टिकोण और स्थिति से, क्या वह परमेश्वर को समर्पण कर सकेगा? क्या वह परमेश्वर की पहचान और सार को स्वीकार कर पाएगा? नहीं कर पाएगा। जब अच्छी मनःस्थितियों, अच्छी दशाओं और उत्साह का समय—वह समय जब लोग परमेश्वर के विश्वासपात्र बनना चाहते हैं—ऐसे समय में बदल जाता है, जब लोग परमेश्वर के हाथों काट-छाँट और उसके द्वारा निर्धारित परिवेशों के कारण उसका परित्याग कर देना चाहते हैं, तो यह कितना नाटकीय परिवर्तन होता है! वास्तव में क्या है इस मामले की सच्चाई? वह क्या है, जो लोगों को जानना चाहिए? क्या इंसान को यह नहीं जानना चाहिए कि एक सृजित प्राणी के रूप में उसका रवैया परमेश्वर के प्रति कैसा होना चाहिए? वे कौन-से सिद्धांत हैं, जिनका पालन करने की आवश्यकता है? एक इंसान—एक भ्रष्ट इंसान—के रूप में उसे परमेश्वर द्वारा दी जाने वाली हर चीज और उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेशों के प्रति क्या दृष्टिकोण और स्थान अपनाना चाहिए? लोगों को परमेश्वर के हाथों अपनी काट-छाँट के प्रति क्या रवैया अपनाना चाहिए? उन्हें इसे किस तरह लेना चाहिए? क्या लोगों को ऐसे मामलों पर विचार नहीं करना चाहिए? (करना चाहिए।) लोगों को इस तरह की चीजों पर चिंतन और विचार करना चाहिए। इंसान परमेश्वर से कभी भी और कैसे भी व्यवहार करे, लेकिन वास्तव में इंसान की पहचान नहीं बदलती; लोग हमेशा सृजित प्राणी ही रहते हैं। यदि तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति से सामंजस्य नहीं बिठाते, तो इसका मतलब है कि तुम विद्रोही हो और तुम अपने स्वभाव में बदलाव लाने, परमेश्वर का भय मानने और बुराई छोड़ने से बहुत दूर हो। यदि तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी स्थिति से सामंजस्य बिठा लेते हो, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया किस प्रकार का होना चाहिए? (बिना शर्त समर्पण वाला।) तुम्हारे अंदर कम-से-कम यह चीज तो होनी ही चाहिए : बिना शर्त समर्पण। इसका मतलब है कि किसी भी समय परमेश्वर जो भी करता है, वह कभी गलत नहीं होता; केवल लोग गलतियाँ करते हैं। चाहे जो भी परिवेश सामने आए—विशेष रूप से मुश्किलों में, और खासकर जब परमेश्वर लोगों को प्रकट या उजागर करे—सबसे पहले इंसान को परमेश्वर के सामने आकर आत्म-चिंतन करना चाहिए और अपने शब्दों, कर्मों और भ्रष्ट स्वभाव की जाँच करनी चाहिए, न कि यह जाँच, अध्ययन और आलोचना करनी चाहिए कि परमेश्वर के वचन और कार्य सही हैं या गलत। यदि तुम अपने उचित स्थान में रहते हो, तो तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हें वास्तव में क्या करना चाहिए। लोगों का स्वभाव भ्रष्ट है और वे सत्य को नहीं समझते। यह कोई ज्यादा बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन जब लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है और वे सत्य को नहीं समझते, और फिर भी वे सत्य को नहीं खोजते—तब बड़ी समस्या होती है। तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, तुम सत्य को नहीं समझते, और तुम मनमाने ढंग से परमेश्वर की आलोचना कर सकते हो, और अपनी मनोदशा, प्राथमिकताओं और भावनाओं के अनुसार उसके पास जाकर उससे बातचीत कर सकते हो। लेकिन अगर तुम सत्य को नहीं खोजते, उसका अभ्यास नहीं करते, तो चीजें इतनी सरल नहीं होंगी। तब तुम न केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर पाओगे, बल्कि तुम उसे गलत समझ सकते हो और उसकी शिकायत कर सकते हो, उसकी निंदा कर सकते हो, उसका विरोध कर सकते हो, यहाँ तक कि मन-ही-मन उसे फटकार कर उसे अस्वीकार सकते हो और कह सकते हो कि वह धार्मिक नहीं है, कि वह जो कुछ भी करता है, जरूरी नहीं कि वह सही हो। क्या यह खतरनाक नहीं है कि तुम अभी भी ऐसी चीजों को हवा देते हो? (खतरनाक है।) यह बहुत ही खतरनाक है। सत्य को न खोजने से व्यक्ति की जान जा सकती है! और यह किसी भी समय और किसी भी स्थान पर हो सकता है। इस समय तुम्हारी भावनाएँ, आकांक्षाएँ, इच्छाएँ या आदर्श कितने भी उफान पर हों, और इस समय तुम्हारे मन में परमेश्वर के लिए कितना भी प्रेम क्यों न हो, यह सब अस्थायी है। यह बिल्कुल वैसी ही बात है जब कोई पादरी विवाह कराते समय दोनों पक्षों से पूछता है, “क्या तुम उसे अपना पति (या पत्नी) स्वीकार करती (या करते) हो? बीमारी और सेहत में, आपदा में, गरीबी आदि में, क्या तुम उसके (पति या पत्नी) साथ अपना जीवन बिताने के लिए तैयार हो?” दोनों पक्ष अपनी आँखों में आँसू और भावनाओं से भरे दिलों के साथ एक-दूसरे के लिए अपना जीवन समर्पित करने और एक-दूसरे की आजीवन जिम्मेदारी लेने की कसम खाते हैं। उस क्षण की ये गंभीर प्रतिज्ञाएँ क्या होती हैं? ये केवल लोगों की क्षणभंगुर भावनाएँ और कामनाएँ होती हैं। लेकिन क्या दोनों पक्षों में वास्तव में ऐसी सत्यनिष्ठा होती है? क्या उनमें सचमुच ऐसी मानवता होती है? यह उस वक्त अनजानी बात होती है; सच्चाई अगले दस, बीस या तीस वर्षों के बाद सामने आ जाएगी। कुछ जोड़े तीन से पाँच साल के बाद तलाक ले लेते हैं, कुछ दस साल बाद और कुछ तीस साल के बाद बिना सोच-विचार किए रिश्ता तोड़ देते हैं। उनकी शुरुआती इच्छाएँ कहाँ चली गईं? उनकी गंभीर प्रतिज्ञाओं का क्या हुआ? वे बहुत पहले ही भुला दी गई थीं। ये गंभीर प्रतिज्ञाएँ क्या भूमिका निभाती हैं? कोई भी नहीं; वे सिर्फ इच्छाएँ हैं, क्षणिक भावनाएँ हैं—भावनाएँ और इच्छाएँ कुछ भी निर्धारित नहीं करती हैं। एक जोड़े को वास्तव में एक साथ जीवन बिताने के लिए, साथ-साथ बूढ़े होने के लिए किस चीज की जरूरत होती है? आदर्श रूप से कहें तो दोनों व्यक्तियों के पास कम-से-कम सत्यनिष्ठा और ईमानदार चरित्र होना चाहिए। कुछ और ठोस रूप से कहें तो अपने जीवन के दौरान उन्हें कई चीजों का सामना करना पड़ेगा—बड़ी और छोटी, अच्छी और बुरी, कठिनाइयाँ, असफलताएँ और मुश्किलें और ज्यादातर ऐसी चीजें जो वांछित नहीं हैं। इसके लिए दोनों पक्षों को अंत समय तक एक-दूसरे का समर्थन करने के लिए सच्ची सहनशीलता, धैर्य, प्रेम, विचारशीलता, देखभाल और मानवता से जुड़ी अन्य अपेक्षाकृत सकारात्मक चीजों की जरूरत होती है। इन गुणों के बिना केवल विवाह के समय की प्रतिज्ञाओं और आदर्शों, इच्छाओं और कल्पनाओं पर भरोसा करते हुए वे निश्चित रूप से अंत तक साथ नहीं रह सकते हैं। यही बात परमेश्वर में विश्वास रखने पर भी लागू होती है; अगर व्यक्ति सत्य की खोज नहीं करता है, बल्कि केवल थोड़े से उत्साह और इच्छा पर निर्भर रहता है तो वह निश्चित रूप से दृढ़ नहीं रह सकता है और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण नहीं कर सकता है।

कोई व्यक्ति अपनी मनःस्थिति पर निर्भर हुए बिना और अपनी मनःस्थिति और परिवेश से प्रभावित हुए बिना किस प्रकार परमेश्वर में विश्वास रखकर उसका अनुसरण कर सकता है? कोई भला इसे कैसे हासिल कर सकता है? परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए न्यूनतम अपेक्षा क्या है? इसके लिए सत्य से प्रेम करने और सत्य को खोजने के रवैये की जरूरत होती है। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या संकल्प होना और प्रतिज्ञाएँ करना महत्वपूर्ण है?” ये अपरिहार्य हैं लेकिन ये विश्वास के चरण पर निर्भर करते हैं। अगर किसी व्यक्ति को विश्वास रखे हुए एक-दो साल हुए हैं तो इनके बिना उसका उत्साह नहीं जग सकता है। उत्साह के बिना जो व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखने लगता है, हो सकता है वह उदासीन हो जाए, न तो अपने अनुसरण में बहुत जोशीला रहे, न ही पीछे हटे, बस जो कहा जाए, वही करता रहे। ऐसा व्यक्ति आगे बढ़ने के लिए छटपटाता रहता है और उसका स्पष्ट रवैया नहीं होता है। इसलिए नए विश्वासियों को इस उत्साह की जरूरत है। यह उत्साह किसी व्यक्ति के लिए कई सकारात्मक चीजें लेकर आ सकता है, जिससे वे सत्य, दर्शन और परमेश्वर के कार्य के लक्ष्य को जल्दी से समझ सकते हैं, और जल्दी से एक बुनियाद रख सकते हैं। इसके अलावा, जब लोग खुद को खपाते हैं, सक्रिय होकर और उत्साह के साथ कीमत चुकाते हैं तो वे अधिक तेजी से सत्य वास्तविकता में प्रवेश करते हैं। शुरुआत में व्यक्ति को इस उत्साह की जरूरत होती है और उसमें संकल्प और आदर्श होने चाहिए। लेकिन परमेश्वर में तीन साल से अधिक विश्वास रखने के बाद भी अगर व्यक्ति उत्साह के चरण में ही रहता है तो खतरा हो सकता है। यह खतरा कहाँ होता है? लोग हमेशा परमेश्वर में अपने विश्वास और अपने स्वभावगत बदलाव के मामलों से अपनी कल्पनाओं और धारणाओं के आधार पर पेश आते हैं। वे अपनी कल्पनाओं और धारणाओं के आधार पर परमेश्वर को जानने और उसके कार्यों और मनुष्य के लिए उसकी अपेक्षाओं की समझ हासिल करने का प्रयास करते हैं। क्या ऐसे लोग सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं या परमेश्वर के इरादों को समझ सकते हैं? (नहीं।) अगर कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझ सकता, तो समस्याएँ पैदा होती हैं। क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर में विश्वास रखता हो और अपना पूरा जीवन लाड़-प्यार वाले परिवेश में हमेशा अनुग्रह और आशीष के साथ जीता हो? नहीं, हर व्यक्ति को देर-सबेर वास्तविक जीवन और उन तमाम परिवेशों का सामना करना ही होगा जो परमेश्वर ने उसके लिए रचे हैं। जब तुम इन विभिन्न परिवेशों का सामना करते हो और वास्तविक जीवन में विभिन्न मसलों से रू-ब-रू होते हो, तो तुम्हारा उत्साह क्या भूमिका निभा सकता है? यह तुम्हें केवल खुद को संयमित रखने, कीमत चुकाने, कष्ट सहने के लिए प्रेरित कर सकता है, लेकिन यह तुम्हें सत्य को या परमेश्वर के इरादों को समझने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता है। लेकिन अगर तुम सत्य को खोजते और समझते हो, तो यह अलग बात होती है। यह किस प्रकार से अलग है? जब तुम सत्य को समझते हो और इन स्थितियों का सामना करते हो, तो तुम इनसे अपने उत्साह या धारणाओं के आधार पर पेश नहीं आते हो। जब भी तुम्हारा सामना किसी चीज से होता है, तुम सबसे पहले खोजने और प्रार्थना करने, सत्य सिद्धांतों को जानने के लिए परमेश्वर के सामने आते हो। तब तुम इस जागरूकता और रवैये से आज्ञाकारी बन सकते हो। यह रवैया और जागरूकता महत्वपूर्ण है। हो सकता है कि किसी विशेष परीक्षण में तुम कुछ हासिल न कर पाओ, सत्य में बहुत अधिक गहराई तक प्रवेश न कर पाओ और यह न समझ पाओ कि सत्य की वास्तविकता क्या है। लेकिन इस परीक्षण के दौरान इस तरह की आज्ञाकारी जागरूकता और रवैया रखने से तुम वास्तव में यह अनुभव कर लेते हो कि सृजित प्राणी के रूप में लोगों को कैसे कार्य करना चाहिए और परमेश्वर के समक्ष अत्यंत सामान्य और उचित होने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। भले ही हो सकता है कि तुम परमेश्वर के इरादों को न समझ सको या ठीक से न जान पाओ कि परमेश्वर ऐसे परिवेश में तुमसे क्या हासिल या प्राप्त कराना चाहता है, फिर भी तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर और ऐसी परिस्थितियों के प्रति समर्पण कर सकते हो। अपने अंतर्मन से तुम उस परिवेश को स्वीकार कर सकते हो जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बनाया है। तुम्हें लगता है कि तुमने सृजित प्राणी के रूप में अपना उचित स्थान बनाए रखा है, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह या उसका विरोध नहीं किया है और तुम्हारा हृदय सुरक्षित महसूस करता है। सुरक्षित महसूस करते हुए स्वर्ग के परमेश्वर पर तुम्हारी निर्भरता अस्पष्ट नहीं है, और तुम्हें पृथ्वी के परमेश्वर से दूरी महसूस नहीं होती और तुम उसे अस्वीकार नहीं करते हो। इसके बजाय, तुम्हारे दिल की गहराई में थोड़ा-सा और भय और थोड़ी-सी अधिक निकटता आ जाती है। इस पर गौर करो, सत्य को खोजने और समर्पण कर सकने वाले व्यक्ति और एक ऐसे व्यक्ति में अंतर है जो उत्साह पर निर्भर रहता है और जिसमें थोड़ा-सा ही संकल्प है—क्या यह अंतर ज्यादा है? अंतर बहुत बड़ा है। एक व्यक्ति जो उत्साह पर निर्भर रहता है और जिसके पास केवल संकल्प है, वह परिस्थितियों का सामना होने पर प्रतिरोध करेगा, बहस करेगा, शिकायत करेगा और महसूस करेगा कि उसके साथ अन्याय हुआ है। ऐसे लोग यह सोच सकते हैं, “परमेश्वर मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है? मैं अभी भी जवान हूँ, परमेश्वर मुझे क्यों नहीं मनाता? परमेश्वर मेरी पिछली उपलब्धियों को क्यों नहीं गिनता? मुझे पुरस्कार देने के बजाय दंड क्यों दिया जा रहा है? मैं अभी भी बहुत छोटा हूँ, मुझे पता ही क्या है? मेरे माता-पिता ने भी घर पर मेरे साथ कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया; उन्होंने मुझे अपने अनमोल बच्चे, अपने नन्हे मुन्ने के रूप में संजोया। अब जबकि मैं परमेश्वर के घर में आने के बाद काफी बड़ा हो गया हूँ, तो परमेश्वर का मेरे साथ ऐसा व्यवहार करना बहुत ही अविचारशील लगता है!” वे इसी तरह के दोषपूर्ण तर्क देते हैं। ऐसे दोषपूर्ण तर्क कैसे उपजते हैं? अगर कोई व्यक्ति सत्य को खोजता और समझता है, तो क्या तब भी उसके पास ऐसे दोषपूर्ण तर्क हो सकते हैं? अगर कोई व्यक्ति सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभाते समय इन सत्यों को समझता और जानता है, तो क्या स्थितियों का सामना करते समय उसके पास भी ऐसी शिकायतें और उतावलापन हो सकता है? (नहीं।) वह निश्चित रूप से इस तरह से नहीं बोलेगा। इसके बजाय वह खुद को एक सामान्य सृजित प्राणी के रूप में देखेगा और उम्र, लिंग या प्रतिष्ठा और रुतबे की परवाह किए बिना परमेश्वर के समक्ष आएगा और बस समर्पण करेगा और परमेश्वर के वचन सुनेगा। जब लोग परमेश्वर के कहे वचनों और उसकी अपेक्षाओं पर गौर कर सकते हैं तो उनके दिलों में समर्पण होता है। जब कोई व्यक्ति सचेत होकर समर्पण कर सकता है, जब उसमें समर्पण का रवैया होता है तो वह सचमुच एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़ा होता है, उसमें परमेश्वर के प्रति प्रेम, समर्पण और भय होता है, वह अपनी मनःस्थिति और भावनाओं पर निर्भर नहीं रहता। जब लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है तो ये उनकी कुछ प्रतिक्रियाएँ होती हैं। मुख्य प्रतिक्रियाएँ क्या होती हैं? वे बुरा महसूस कर रहे हैं, कुंठित महसूस कर रहे हैं, महसूस कर रहे हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है और उन्हें दिलासे की जरूरत है। जब उन्हें दिलासा और स्नेह नहीं मिलता, तो वे अपने दिलों में परमेश्वर के प्रति शिकायतें और गलतफहमियाँ पालने लगते हैं। वे अब परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करना चाहते हैं और भीतर कहीं गहरे वे परमेश्वर का परित्याग करने पर विचार करते हैं, उससे दूरी बना लेना चाहते हैं—स्वर्ग के परमेश्वर से भी और पृथ्वी के परमेश्वर से भी। कुछ लोग ऐसे हैं, जिनकी अगर मैं थोड़ी-सी भी काट-छाँट करूँ, तो अगली बार जब हम मिलेंगे तो वे मुझसे बचना चाहेंगे, मेरे साथ बातचीत नहीं करना चाहेंगे। आमतौर पर जब उनकी काट-छाँट नहीं की जा रही होती है तो वे हमेशा मेरे आसपास रहते हैं, मेरे लिए चाय लाते हैं, पूछते हैं कि क्या मुझे किसी चीज की जरूरत है, अच्छी मनःस्थिति में रहते हैं, मेहनती, बातूनी और परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते में घनिष्ठ होते हैं। लेकिन जब उनकी काट-छाँट की जाती है, तो पहले जैसी बात नहीं रह जाती है—वे अब न तो चाय लाते हैं, न ही अभिवादन करते हैं और अगर मैं उनसे कुछ और सवाल पूछता हूँ तो वे बस चले जाते हैं, फिर कभी दिखाई नहीं देते हैं।

पहले जब मैं मुख्यभूमि चीन में था तो मैं कुछ भाई-बहनों के घरों में ठहरा था। इनमें से कुछ लोगों में खराब मानवता थी, कुछ नए विश्वासी थे, कुछ ने हमारे पहले संपर्क में ही अनगिनत धारणाएँ विकसित कर ली थीं और वे सत्य को नहीं समझते थे, और दूसरे लोग बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे थे। इन लोगों को भ्रष्टता प्रकट करते देखकर मैं उनकी काट-छाँट नहीं कर सका; मुझे विनम्रता और चतुराई से बात करनी पड़ी। अगर तुम सचमुच उनकी काट-छाँट कर दोगे, तो उनमें धारणाएँ और विद्रोहशीलता विकसित हो जाएँगी, इसलिए तुम्हें उन्हें मनाना होगा और बातचीत करनी होगी, और उनका मार्गदर्शन करने के लिए सत्य पर अधिक संगति करनी होगी। अगर तुम बातचीत नहीं करते हो या संगति नहीं करते हो और केवल सीधी मांगें करते हो तो इससे बिल्कुल भी काम नहीं होगा। उदाहरण के लिए, तुम कह सकते हो, “यह भोजन कुछ ज्यादा ही नमकीन है; हो सके तो अगली बार थोड़ा-सा कम नमक डालना। ज्यादा नमक खाना तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं है। परमेश्वर के विश्वासियों के रूप में तुम्हें सामान्य समझ का प्रयोग करना चाहिए और अज्ञानी नहीं बनना चाहिए; तुम्हें सकारात्मक चीजें स्वीकार करनी होंगी। अगर तुम मुझ पर विश्वास नहीं करते, तो तुम पारंपरिक चीनी चिकित्सकों से गुर्दों पर बहुत अधिक नमक से पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में पूछ सकते हो।” यह दृष्टिकोण उनके लिए स्वीकार्य है। लेकिन अगर तुम कहते हो कि “इस भोजन में बहुत ज्यादा नमक है, क्या तुम नमक खिलाकर किसी को मारने की कोशिश कर रहे हो? इसमें हमेशा इतना नमक क्यों छिड़कते हो? यह इतना नमकीन है कि खाया ही नहीं जा सकता! तुम इतने अज्ञानी कैसे हो सकते हो? अगली बार इसे इतना नमकीन मत बनाना!” तो इससे बात नहीं बनेगी। हो सकता है कि अगली बार वे खाने में बिल्कुल नमक न डालें। तब तुम कहते हो, “यह इतना बेस्वाद क्यों है?” “बेस्वाद? क्या तुमने पहले यह नहीं कहा था कि यह बहुत नमकीन है? बहुत अधिक नमक गुर्दों को नुकसान पहुँचाता है, तो क्या नमक बिल्कुल न डालना बेहतर नहीं है? तब यह गुर्दों को नुकसान नहीं पहुँचाएगा।” बहुत अधिक कठोर होने से बात नहीं बनेगी; तुम्हें बातचीत करने और मनाने की जरूरत है। बहुत-से लोग काफी तकलीफदेह होते हैं; उनसे बात करते समय तुम्हें अपने बोलने के तरीके और समय के बारे में सावधान रहना होगा और उनकी मनःस्थिति पर भी विचार करना होगा—तुम्हें कुछ सुलझी हुई बातचीत करनी होगी। कभी-कभी अगर तुम संयोग से कुछ ज्यादा ही कठोरता से बोलते हो तो तुम उन्हें ठेस पहुँचा सकते हो और वे अंदरखाने प्रतिरोध कर सकते हैं। ऊपरी तौर पर हो सकता है कि यह ज्यादा न लगे, लेकिन अंदर से बात अलग होती है। आम तौर पर जब तुम उनसे कुछ करने के लिए कहते हो तो वे तुरंत ऐसा कर देते हैं, लेकिन अगर तुम उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाते हो, तो वे काम करने के प्रति कम उत्साहित होते हैं, जान-बूझकर देरी करते हैं और बिल्कुल अनिच्छुक हो जाते हैं। वे कहते हैं, “जब मेरी मनःस्थिति खराब है तो मैं तुम्हारे लिए अच्छा कैसे बन सकता हूँ? जब मेरी मनःस्थिति कुछ अच्छी होगी तो मैं अच्छा हो जाऊँगा, लेकिन जब मैं अच्छी मनःस्थिति में नहीं होऊँगा तो बस समय काटना ही काफी है।” आखिर यह किस तरह का प्राणी है? क्या लोगों से निपटना कठिन नहीं है? (बिल्कुल।) लोग ऐसे ही होते हैं, विवेक से प्रभावित न होने वाले और तर्क से परे। बाद में आत्म-चिंतन करते समय वे अपना सिर झुका लेंगे, अपने पाप कबूल कर लेंगे और फूट-फूट कर रो भी लेंगे, लेकिन जब वे एक बार फिर ऐसे मसलों का सामना करते हैं और उनकी काट-छाँट की जाती है, तब भी वे पहले जैसी ही प्रतिक्रिया करते हैं। क्या यह ऐसा इंसान है जो सत्य को खोजता है? (नहीं।) यह किस प्रकार का इंसान है? ऐसा इंसान स्वेच्छाचारी होता है और सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता है। जब लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है और जब वे मुश्किलों का सामना करते हैं, तो परमेश्वर के प्रति उनका रवैया इसी प्रकार का होता है। संक्षेप में कहें तो वे आज्ञाकारी नहीं हैं, वे सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते और जब उन्हें ठेस पहुँचती है तो वे परमेश्वर के साथ उतावलेपन से पेश आते हैं। क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है? जब मेरी मुलाकात कुछ लोगों से होती है, तो उनकी काट-छाँट करने से पहले ही हाथ में लिए मामले के बारे में सुनते ही उनके चेहरे उतर जाते हैं, वे मुँह फुलाकर बोलते हैं, उनका रवैया खराब होता है, यहाँ तक कि वे चीजें भी फेंक देते हैं। तुम उनसे खुलकर बात नहीं कर सकते; तुम्हें घुमा-फिराकर बात करनी होती है और चतुराई से काम लेना पड़ता है। क्या मैं लोगों की तरह घुमा-फिरा कर बात कर सकता हूँ? चाहे तुम इसे स्वीकार कर सको या न कर सको, मुझे वही कहना है जो सच है—परमेश्वर के घर में चीजें सत्य धर्म-सिद्धांतों के अनुसार होनी चाहिए। जब कुछ लोगों की काट-छाँट की जाती है तो वे कोई बाहरी प्रतिक्रिया नहीं दिखाते हैं परंतु अंदर-ही-अंदर वे खीझते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छे से निभा सकता है? (नहीं।) अगर ऐसे लोग अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकते और गलतियाँ करते रहते हैं, तो कलीसिया को उनसे सिद्धांतों के अनुसार निपटना होगा।

2. मसीह के प्रति उनका तब का व्यवहार जब उसका पीछा किया जा रहा था और उसके पास सिर टिकाने की भी जगह नहीं थी

मुख्य भूमि चीन में परमेश्वर में विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने में हर दिन खतरा है। इसके लिए यह असाधारण रूप से कठोर वातावरण है, जिसमें किसी व्यक्ति को कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है। तुम सब लोगों ने पीछा किए जाने के माहौल का अनुभव किया है—और क्या मैंने भी नहीं किया है? तुम और मैं एक ही माहौल में रहते थे, इसलिए उस माहौल में मुझे अक्सर खुद को छिपाना पड़ता था। कई बार मुझे दिन में दो-तीन बार स्थान बदलना पड़ता था; कई बार ऐसा भी होता था, जब मुझे किसी ऐसी जगह जाना पड़ता था, जहाँ जाने के बारे में मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। सबसे कठिन समय वह था जब मेरे पास जाने के लिए कोई जगह नहीं थी—मैं दिन में सभा आयोजित करता था, फिर रात में मुझे पता नहीं रहता था कि सुरक्षा कहाँ है। कभी-कभी कड़ा संघर्ष करके कोई जगह ढूँढ़ने के बाद मुझे अगले ही दिन चले जाना पड़ता था, क्योंकि बड़ा लाल अजगर वहाँ बढ़ा चला आता था। ऐसा दृश्य देखकर सच्ची आस्था वाले लोग क्या सोचते हैं? “परमेश्वर का मनुष्य को बचाने के लिए देहधारी होकर पृथ्वी पर आना ही वह कीमत है, जो उसने चुकाई है। यह उन कष्टों में से एक है, जो उसने सहे हैं, और यह उसके इन वचनों को पूरी तरह से साकार करता है, ‘लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं; परन्तु मनुष्य के पुत्र के लिये सिर धरने की भी जगह नहीं है’ (मत्ती 8:20)। चीजें वास्तव में ऐसी ही हैं—और देहधारी मसीह व्यक्तिगत रूप से इस तरह के कष्ट झेलता है, वैसे ही जैसे मनुष्य झेलता है।” जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, वे सभी देख सकते हैं कि मनुष्य को बचाने का उसका कार्य कितना कठिन है, और इसके लिए वे परमेश्वर से प्रेम करेंगे और उस कीमत के लिए उसका धन्यवाद करेंगे, जो वह मानवजाति के लिए चुकाता है। जो लोग बहुत ही खराब मानवता वाले हैं, जो दुर्भावनापूर्ण हैं और सत्य को पूरी तरह अस्वीकार करते हैं, और साथ ही जो केवल जिज्ञासावश और चमत्कार देखने की इच्छा से मसीह का अनुसरण करते हैं, वे जब ऐसे दृश्य देखते हैं तो इस तरह से नहीं सोचते हैं। वे मन-ही-मन सोचते हैं, “तुम्हारे पास रहने का कोई ठिकाना नहीं है? तुम परमेश्वर हो, लोगों को बचाने के लिए कार्य कर रहे हो, फिर भी तुम खुद को ही नहीं बचा सकते और यह भी नहीं जानते कि कल तुम कहाँ रहोगे। अब तुम्हारे पास शरण लेने के लिए भी जगह नहीं है—मैं तुममें कैसे विश्वास रख सकता हूँ या कैसे तुम्हारा अनुसरण कर सकता हूँ?” परिस्थितियाँ जितनी ज्यादा जोखिमभरी होती हैं, वे यह सोचकर उतना ही अधिक आनंदित होते हैं, “सौभाग्य से मैंने सब कुछ पूरी तरह से नहीं त्यागा; सौभाग्य से मैंने अपने लिए एक सहायक योजना रखी है। देखा? अब तुम्हारे पास अपना घर कहने को कोई जगह नहीं है! मैं जानता था कि यह नौबत आएगी—तुम्हारे पास अपना सिर टिकाने की कोई जगह नहीं है और तुम्हें शरण दिलाने के लिए मुझे जगह तलाशने में भी मदद करनी होगी।” ऐसे लोगों का खुलासा हो गया, है ना? अगर ऐसे लोगों को प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाए जाने का दृश्य देखना पड़ता तो वे कैसा व्यवहार करते? जब प्रभु यीशु क्रूस को गोलगोथा की पहाड़ी की ओर ले जा रहा था तो ऐसे लोग कहाँ थे? क्या वे उसका अनुसरण करते रहे? (नहीं।) उन्होंने परमेश्वर की पहचान, उसके सार और यहाँ तक कि उसके अस्तित्व को भी नकार दिया। वे भाग खड़े हुए, अपनी जान बचाने के लिए दूर चले गए और परमेश्वर का अनुसरण करना बंद कर दिया। उन्होंने पहले चाहे कितने ही धर्मोपदेश सुने हों, वे सब उनके दिलों से मिट गए, उनका नामो-निशान तक न रहा। वे मानते थे कि उन्होंने अपने सामने जो कुछ भी देखा वह वास्तविक था और मानवीय मूल का था, जिसका परमेश्वर से कोई संबंध नहीं था। उन्हें लगता था, “यह व्यक्ति सिर्फ एक इंसान है; उसमें परमेश्वर की पहचान या सार कहाँ है? अगर वह परमेश्वर होता तो क्या वह खुद को इस तरह छिपाता और गुप्त रखता, शैतान उसका इस तरह पीछा करता कि उसके पास सिर टिकाने और शरण लेने के लिए कोई जगह न होती? अगर वह परमेश्वर होता तो अपना पीछा किए जाने पर उसे अचानक रूप बदलकर सबकी नजरों से गायब हो जाना चाहिए, ऐसा बन जाना चाहिए कि कोई भी उसे देख न सके और यह जानना चाहिए कि खुद को अदृश्य कैसे किया जाए—तब वह परमेश्वर होता!” मुख्य भूमि चीन के खतरनाक माहौल में कुछ भाई-बहनों ने यह देखकर कि मैं उनके यहाँ गया था, मेरी मेजबानी और सुरक्षा करने के लिए अपनी सुरक्षा जोखिम में डाल ली, जबकि दूसरे लोग भाग गए, अपना कोई निशान छोड़े बिना गायब हो गए। कुछ लोगों ने तो दूर से कौतुक के साथ देखा। ये लोग कौन हैं? वे छद्म-विश्वासी हैं, मसीह-विरोधी हैं। जब उन्होंने मुझे शरणविहीन देखा तो उन्होंने इस स्थिति को किस रूप में भाँपा? उन्होंने इसे कैसे समझा? “मसीह भी खतरे में है, पकड़ा जाने वाला है। अफसोस, कलीसिया खत्म हो गई है, परमेश्वर के घर का काम तमाम हो गया है। कार्य का यह चरण एक गलती है, परमेश्वर ने जो गवाही दी वह गलत है—यह वह नहीं है जिसकी परमेश्वर ने गवाही दी। बेहतर होगा कि मैं जल्दी करूँ और अपना जीवन जियूँ; मैं खूब पैसा कमाने जा रहा हूँ!” यह एक मसीह-विरोधी का व्यवहार है। जब मसीह का पीछा किया जा रहा था और उसके पास छिपने और सिर टिकाने के लिए कोई जगह नहीं थी, तो ऐसे माहौल में परमेश्वर के साथ एकजुट होकर पीड़ा सहने और उसके साथ कलीसिया का कार्य जारी रखने के बजाय वे तमाशबीन बन गए और उसे देखकर खिल्ली उड़ाने लगे। उन्होंने तो दूसरों को भी तोड़फोड़ करने, गड़बड़ी करने और बाधा डालने को उकसाया, यही नहीं, जब कुछ लोगों ने देखा कि मेरे पास छिपने और बसने के लिए कोई जगह नहीं है तो उन्होंने इसे कलीसिया के कार्य में बाधा डालने और परमेश्वर के घर की संपत्ति को जब्त करने के मौके के रूप में इस्तेमाल किया। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा यीशु को सूली पर चढ़ाते समय कई छद्म-विश्वासियों और मसीह-विरोधियों ने सोचा था कि “कलीसिया खत्म हो गई है, परमेश्वर का कार्य नष्ट हो गया है, शैतान ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। बेहतर है कि हम भाग जाएँ और सामान आपस में बाँटना शुरू कर दें!” वे चाहे कैसी भी परिस्थितियों का सामना करें, ये छद्म-विश्वासी और मसीह-विरोधी हमेशा अपने दुष्ट स्वभाव प्रकट करेंगे, छद्म-विश्वासियों के असली लक्षण प्रकट करेंगे। कलीसिया को जब भी परेशानी या प्रतिकूल परिस्थितियों का हल्का-सा भी संकेत मिलता है तो वे तुरंत भाग जाना चाहते हैं, इस बात के लिए उत्सुक रहते हैं कि सभी भाई-बहन तितर-बितर हो जाएँ, पीछे हट जाएँ और आइंदा मसीह का अनुसरण न करें। उनकी दिली इच्छा होती है कि यह धारा गलत हो और परमेश्वर का कार्य अधूरा छूट जाए। मसीह-विरोधियों के यही असली लक्षण हैं। ऐसी परिस्थितियों का सामना करते समय मसीह के प्रति उनका यही रवैया होता है।

3. मसीह के बारे में धारणाओं को जन्म देने के समय उनका व्यवहार

एक अन्य मद है मसीह-विरोधियों की उस समय की अभिव्यक्तियाँ जब उनके मन में देहधारी परमेश्वर के देह के बारे में धारणाएँ होती हैं। उदाहरण के लिए, जब वे देहधारी परमेश्वर को कुछ ऐसे कार्य करते हुए या कुछ ऐसे वचन कहते हुए देखते हैं जो निहायत मनुष्य-जैसे हैं तो दिव्यता का लेशमात्र भी संकेत न भाँपकर उनके अंतर्मन में प्रतिरोध पैदा हो जाता है, धारणाएँ और निंदा उपजने लगती हैं और वे सोचते हैं, “उस व्यक्ति को मैं चाहे जैसे देखूँ, वह परमेश्वर जैसा नहीं लगता; वह बिल्कुल एक साधारण इंसान जैसा दिखता है। अगर वह मनुष्य जैसा है, तो क्या तब भी वह परमेश्वर हो सकता है? अगर वह एक इंसान है तो क्या इस तरह उसका अनुसरण करना निपट मूर्खता नहीं होगी?” वे मसीह की वाणी और क्रियाकलापों, मसीह की जीवनशैली, उसके पहनावे और रूप-रंग, यहाँ तक कि उसके बोलने के तरीके, उसके लहजे, उसके शब्द-चयन इत्यादि के बारे में धारणाएँ बना लेते हैं—वे इन सबके बारे में धारणाएँ बना सकते हैं। जब ये धारणाएँ उपजती हैं तो वे कैसी प्रतिक्रिया करते हैं? वे ये विचार पाल लेते हैं और इन्हें जाने नहीं देते हैं, वे मानते हैं कि इन धारणाओं को समझना कुंजी हाथ लगने जैसा है। उन्हें लगता है कि यह “कुंजी” बिल्कुल ठीक समय पर मिली है, कि जब वे ये धारणाएँ पाल लेते हैं तो इससे वे फायदे की स्थिति में रहते हैं, और जब वे फायदे की स्थिति में होते हैं तो संभालना आसान हो जाता है। मसीह-विरोधी इसी तरह सोचते हैं; उन्हें लगता है कि धारणाएँ होना फायदे की स्थिति में होने के बराबर है, और इसलिए वे कभी भी और कहीं भी मसीह को नकार सकते हैं और इस तथ्य को भी नकार सकते हैं कि जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसमें परमेश्वर का सार है। कुछ लोग पूछते हैं, “मसीह-विरोधी ऐसे इरादे क्यों पालते हैं?” मुझे बताओ, मसीह-विरोधी यानी शैतान के गिरोह के लोग परमेश्वर के कार्यों के सफल समापन की आशा करते हैं या नहीं? (वे नहीं करते हैं।) वे इसकी आशा क्यों नहीं करते? इससे क्या खुलासा होता है? मसीह-विरोधी बुनियादी तौर पर सत्य से विमुख होते हैं जबकि परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी वचन सत्य हैं, जो उनके दिल को पूरी तरह घृणित लगते हैं और वे इन्हें सुनने या स्वीकारने के इच्छुक नहीं रहते हैं। परमेश्वर के जो वचन मानवजाति को उजागर कर उसका न्याय करते हैं वे इन मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों की निंदा होते हैं और वे जब ये वचन सुनते हैं तो इन्हें अपनी निंदा, आकलन और शाप मानकर असहज और बेचैन हो जाते हैं। वे अपने दिलों में क्या सोचते हैं? “परमेश्वर के कहे हुए ये सारे वचन मेरा आकलन और निंदा कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि मेरे जैसे किसी व्यक्ति को बचाया नहीं जा सकता; मैं उस प्रकार का व्यक्ति हूँ जिसे हटा दिया जाता है, अस्वीकृत कर दिया जाता है। जब मुझे बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं है, तो परमेश्वर में विश्वास रखने का क्या मतलब है? लेकिन तथ्य यह है कि वह अभी भी परमेश्वर है, वह वही देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, जिसने इतने सारे वचन बोले हैं और जिसके इतने सारे अनुयायी हैं। इसके बारे में मुझे क्या करना चाहिए?” यह मामला उन्हें व्याकुल कर देता है; अगर वे कोई चीज हासिल नहीं कर सकते तो वे नहीं चाहते कि यह दूसरों को भी मिले। अगर यह उन्हें न मिले और दूसरों को मिल जाए, तो वे बुरी तरह से द्वेषपूर्ण और नाखुश हो जाते हैं। वे उम्मीद करते हैं कि देहधारी परमेश्वर काश परमेश्वर न हो और वह जो कार्य करता है वह नकली हो और परमेश्वर का किया हुआ न हो। अगर यह बात है, तो वे अंदर से संतुलित महसूस करेंगे और समस्या जड़ से हल हो जाएगी। वे मन-ही-मन सोचते हैं, “अगर यह व्यक्ति देहधारी परमेश्वर न हुआ तो क्या इसका मतलब यह है कि उसका अनुसरण करने वाले लोग मूर्ख बनाए जा रहे हैं? अगर यह बात है तो देर-सबेर ये लोग तितर-बितर हो जाएँगे। अगर वे तितर-बितर हो गए और उनमें से किसी को भी कुछ हासिल नहीं हुआ तो यह जानकर भी मैं निश्चिंत और शांत हो लूँगा कि मुझे कुछ नहीं मिला, है ना?” उनकी यह मानसिकता होती है; वे कुछ भी हासिल नहीं कर सकते, इसलिए वे नहीं चाहते कि दूसरों को भी कुछ हासिल हो। दूसरों को कुछ भी हासिल करने से रोकने का सबसे अच्छा हथकंडा है मसीह को नकार देना, मसीह के सार को नकार देना, मसीह के किए कार्यों को नकार देना और मसीह के कहे सभी वचनों को नकार देना। इस तरह से उनकी निंदा नहीं होगी और कुछ भी हासिल न करने को वे स्वीकार कर और शांत रहेंगे और उन्हें इस मामले को लेकर फिर कभी चिंतित होने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मसीह-विरोधियों जैसे लोगों का यही प्रकृति सार है। तो क्या उनमें मसीह को लेकर धारणाएँ होती हैं? और जब उनमें धारणाएँ होती हैं तो क्या वे उन्हें हल करते हैं? क्या वे इन्हें जाने दे सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। उनकी धारणाएँ कैसे उपजती हैं? उनके लिए धारणाएँ बनाना आसान है : “जब तुम बोलते हो तो मैं तुम्हारी पड़ताल करता हूँ, तुम्हारे वचनों के पीछे के मकसद और उनके स्रोत को समझने का प्रयास करता हूँ। क्या ये वचन तुमने सुने हैं या सीखे हैं या किसी ने तुम्हें ये बोलने का निर्देश दिया है? क्या किसी ने तुम्हारे पास कोई सूचना या शिकायत दर्ज कराई है? तुम किसे उजागर कर रहे हो?” वे इस तरह पड़ताल करते हैं। क्या वे सत्य को समझ सकते हैं? वे सत्य को कभी नहीं समझ सकते; वे अपने हृदय से इसका प्रतिरोध करते हैं। वे सत्य से विमुख हैं, इसका प्रतिरोध और इससे नफरत करते हैं और वे इस प्रकार के प्रकृति सार के साथ धर्मोपदेश सुनते हैं। परिकल्पनाओं और धर्म-सिद्धांतों के अलावा अगर वे कुछ और जुटाते हैं तो वे सिर्फ धारणाएँ हैं। किस तरह की धारणाएँ? “मसीह इस प्रकार बोलता है, कभी-कभी चुटकुले भी सुनाता है; यह सम्मानजनक बात नहीं है! कभी वह प्रतीकात्मक कहावतों का प्रयोग करता है; यह गंभीरता की बात नहीं है! उसकी वाणी में वाक्पटुता नहीं है; वह बहुत अधिक पढ़ा-लिखा नहीं है! कभी-कभी उसे अपने शब्द-चयन के लिए सोच-विचार करना पड़ता है; उसने विश्वविद्यालय में पढ़ाई नहीं की, क्या उसने की? कभी-कभी उसकी वाणी किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाती है—वह कौन है? क्या किसी ने शिकायत दर्ज कराई है? वह कौन था? जब मसीह बोलता है, तो हमेशा मेरी आलोचना क्यों करता है? क्या वह दिन भर मुझे देख रहा है और मेरी निगरानी कर रहा है? क्या वह पूरा दिन लोगों के बारे में सोचने में बिताता है? मसीह अपने दिल में क्या सोच रहा है? देहधारी परमेश्वर की वाणी ऐसी नहीं लगती कि वह एकछत्र अधिकार वाले स्वर्ग के परमेश्वर की गरजदार आवाज हो—वह जो अभिव्यक्त करता है वह इतना मनुष्य-जैसा क्यों लगता है? मैं उसे चाहे जैसे देखूँ, वह बस एक इंसान ही है। क्या देहधारी परमेश्वर में कोई कमजोरी है? क्या वह अपने दिल में लोगों से नफरत करता है? क्या लोगों के साथ बातचीत करने के लिए उससे पास सांसारिक आचरण का कोई फलसफा है?” क्या ये धारणाएँ प्रचुर नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) मसीह-विरोधियों के विचार ऐसी चीजों से भरे होते हैं जिनका सत्य से संबंध नहीं होता, ये सभी विचार शैतान की सोच और तर्क से उपजते हैं, शैतान के सांसारिक आचरण के फलसफे से उत्पन्न होते हैं। वे अंदर तक दुष्टता से भरे होते हैं, सत्य से विमुख दशा और स्वभाव से भरे होते हैं। वे सत्य को खोजने या प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर की पड़ताल करने आते हैं। उनकी धारणाएँ कभी भी, कहीं भी उत्पन्न हो सकती हैं, और वे निरीक्षण और पड़ताल करते समय धारणाएँ बनाते हैं। उनकी धारणाएँ उनका न्याय और निंदा होने के दौरान उपजती हैं, और वे इन धारणाओं को अपने दिलों में कसकर जकड़ लेते हैं। जब वे देहधारी परमेश्वर के मानवीय पक्ष को देखते हैं, तब धारणाएँ बना लेते हैं। जब वे दिव्य पक्ष को देखते हैं तो जिज्ञासु और चकित हो जाते हैं, जिससे भी धारणाएँ पैदा होती हैं। मसीह के प्रति और उस देह के प्रति जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, उनका रवैया समर्पण भरा या दिल की गहराई से वास्तविक स्वीकृति का नहीं होता है। बल्कि वे मसीह के विरुद्ध खड़े होते हैं, उसकी एकटक दृष्टि, उसके विचारों और व्यवहार को देखते और उनकी पड़ताल करते हैं, यहाँ तक कि मसीह की हर अभिव्यक्ति को देखते और पड़ताल करते हैं, हर तरह के लहजे, बोलने की लय और शब्द-चयन, मसीह की वाणी में आए संदर्भों, वगैरह को सुनते और उन पर गौर करते हैं। जब मसीह-विरोधी लोग मसीह का इस तरह निरीक्षण और पड़ताल करते हैं, तो उनके रवैये में यह मंशा नहीं होती कि सत्य को खोजें और उसे समझ लें ताकि वे मसीह को अपना परमेश्वर स्वीकार कर सकें, मसीह को अपना सत्य मान सकें और अपना जीवन बना सकें। इसके विपरीत वे इस व्यक्ति की पड़ताल करना चाहते हैं, पूरी तरह पड़ताल कर उसे समझना-बूझना चाहते हैं। वे किस चीज को समझने-बूझने की कोशिश कर रहे हैं? वे इस बात की पड़ताल कर रहे हैं कि यह व्यक्ति किस प्रकार से परमेश्वर के समान है, और अगर वह सच में परमेश्वर के समान लगता है तो वे उसे स्वीकार कर लेते हैं। वे उसकी चाहे कितनी भी पड़ताल कर लें, अगर वह परमेश्वर जैसा न लगे, तो वे उसे स्वीकारने के विचार को पूरी तरह त्याग देते हैं और देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाओं पर कायम रहते हैं या यह मानते हुए कि आशीष पाने की कोई आस नहीं है, वे जल्द रफूचक्कर हो जाने की ताक में रहते हैं।

परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उसके बारे में धारणाएँ बनाना मसीह-विरोधियों के लिए बिल्कुल सामान्य बात है। अपने मसीह-विरोधी सार के कारण, अपने सत्य-विमुख सार के कारण उनके लिए अपनी धारणाओं को त्याग देना असंभव है। जब कुछ नहीं हो रहा होता है तो वे परमेश्वर के वचनों की पुस्तक का पाठ कर इन वचनों को परमेश्वर के रूप में देखते हैं, लेकिन देहधारी परमेश्वर के संपर्क में आने पर और उसे परमेश्वर के समान न पाकर उनके मन में तुरंत धारणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं और उनका रवैया बदल जाता है। जब वे देहधारी परमेश्वर के संपर्क में नहीं होते हैं, तो वे महज परमेश्वर के वचनों की पुस्तक थामकर उसके वचनों को परमेश्वर मानते हैं, और अभी भी वे अपने मन में एक अज्ञात कल्पना और आशीष पाने का इरादा पाल सकते हैं ताकि अनिच्छा से कुछ प्रयास करें, कुछ कर्तव्य निभाएँ और परमेश्वर के घर में एक भूमिका निभाएँ। लेकिन जैसे ही वे उस देह के संपर्क में आते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, उनके मन में धारणाएँ उमड़ने लगती हैं। भले ही उनकी काट-छाँट न की जाए, फिर भी हो सकता है कि अपना कर्तव्य निभाने के प्रति उनका उत्साह काफी क्षीण हो जाए। मसीह-विरोधी लोग परमेश्वर के वचनों के साथ और उस देह के साथ जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, इसी तरह व्यवहार करते हैं। वे अक्सर परमेश्वर के वचनों को उस देह से अलग कर देते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, वे परमेश्वर के वचनों को परमेश्वर मानते हैं और जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उसे इंसान मानते हैं। जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है जब वह उनकी धारणाओं से मेल नहीं खाता या इनका उल्लंघन करता है तो वे तुरंत परमेश्वर के वचनों की ओर रुख कर इनका प्रार्थनापूर्वक पाठ करते हैं, अपनी धारणाओं को जबरन दबाने और कैद करने की कोशिश करते हैं। फिर वे परमेश्वर के वचनों की आराधना ऐसे करते हैं मानो वे स्वयं परमेश्वर की आराधना कर रहे हों और ऐसा लगता है मानो उनकी धारणाएँ दूर हो गई हों। लेकिन वास्तविकता में मसीह के प्रति उनकी दिली अवज्ञा और अवमानना बिल्कुल भी दूर नहीं हुई है। मसीह से व्यवहार करते हुए मसीह-विरोधी अपने मन में लगातार धारणाओं को जन्म देते रहते हैं और उनसे मृत्यु-पर्यंत हठपूर्वक चिपके रहते हैं। जब उनमें धारणाएँ नहीं होतीं तो वे पड़ताल और विश्लेषण करते हैं; जब उनमें धारणाएँ होती हैं तो वे न केवल पड़ताल और विश्लेषण करते हैं बल्कि इन पर हठपूर्वक कायम भी रहते हैं। वे न तो अपनी धारणाओं को दूर करते हैं न ही सत्य को खोजते हैं; वे इस बात के कायल होते हैं कि वे सही हैं। क्या यह शैतानी बात नहीं है? (बिल्कुल।) जब मसीह-विरोधियों के मन में देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाएँ होती हैं, तो उनकी यही अभिव्यक्तियाँ होती हैं।

4. पदोन्नत या बरखास्त किए जाने पर उनका व्यवहार

कलीसिया में, कुछ लोगों के पास कार्य करने के लिए थोड़ी-सी काबिलियत और थोड़ी योग्यता होती है। जब उन्हें पदोन्नत किया जाता है तो उनमें अत्यधिक उत्साह होता है, वे सक्रिय रूप से अपने कर्तव्य निभाते हैं, जिम्मेदारी लेते हैं, कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं और उनमें वफादारी भी होती है। लेकिन कार्य करने में अक्षमता के कारण जब उन्हें उनके पद से बरखास्त कर दिया जाता है और वे अपना रुतबा खो बैठते हैं, तो परमेश्वर के प्रति उनका रवैया बदल जाता है। जब उनके पास रुतबा था तो वे परमेश्वर से इस तरह बात करते थे, “हमारे परिवार के भाई-बहन ऐसे हैं, हमारे परिवार के भवन की मरम्मत कराने की जरूरत है, हमारे परिवार के आँगन को साफ-सुथरा रखने की जरूरत है...।” उनकी हर बात का संबंध “हमारे परिवार” से होता था। जब उन्हें पदोन्नत किया गया तो वे परमेश्वर के घर का हिस्सा बन गए, प्रतीत होता था कि उनका दिल परमेश्वर के साथ एकाकार हो गया है, एक परिवार की तरह, वे परमेश्वर के दिल को ध्यान में रखते हुए और उसके साथ मिलकर परमेश्वर के घर के कार्य संभालने और परमेश्वर के साथ समान स्तर पर बातचीत करने में सक्षम थे। जब उन्हें पदोन्नत कर एक महत्पूर्ण पद पर रखा गया तो उन्होंने सम्मानित महसूस किया और साथ ही उन्हें अपनी जिम्मेदारी का भी एहसास हुआ। वे चाहे मुझसे बात कर रहे हों या भाई-बहनों से, अपनी बातचीत में अक्सर “हमारा परिवार” कहा करते थे। यह सुनकर तुम्हें लगेगा कि यह व्यक्ति बुरा नहीं है, नेक-दिल है, मिलनसार है, परमेश्वर के घर को अपना घर मानता है, हर चीज की बहुत परवाह करता है और बहुत जिम्मेदारी लेता है, पहले से ही हर चीज का सारा आगा-पीछा सोच लेता है, सत्य का अनुसरण करने वाला और कीमत चुकाने के लिए उत्साहित लगता है। लेकिन जब उसे बरखास्त कर दिया जाता है तो क्या वह तब भी इसी तरह बोलता है? बरखास्त होते ही उसकी वह पहले वाली मनःस्थिति नहीं रहती—वह रवैया नहीं रहता। अब वे लोग “हमारा परिवार” नहीं कहते और जब उनसे कुछ करने के लिए कहा जाता है, तो वे उतने उत्साहित नहीं रहते। वे क्या सोचते हैं? “पहले जब तुमने मुझे पदोन्नत किया था, तो मेरे पास रुतबा था और मैं पूरे दिल से तुम्हारे साथ था। अब जबकि मेरे पास कोई रुतबा नहीं रहा, हम अब एक परिवार नहीं रहे, इसलिए तुम इसे खुद करो। तुम इसे कैसे करते हो, इस बारे में मुझसे राय-मशविरा मत करो और मुझे बताओ भी मत, इसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं तुम्हारे लिए केवल संदेशे देता रहूँगा और बस इतना ही—तुम मुझे जो कुछ भी करने के लिए कहोगे, मैं वह थोड़ा-बहुत कर दूँगा, लेकिन अब तुम्हारे साथ मेरा दिल एकाकार नहीं है।” फिर वे तुम्हारे साथ एक बाहरी व्यक्ति जैसा व्यवहार करते हैं। अगर तुम उनसे कुछ करने के लिए कहते हो, तो वे ऐसे काम करते हैं मानो वे किसी और के लिए काम कर रहे हों और सतही तौर पर आधे-अधूरे ढंग से काम करते हैं। हो सकता है पहले वे पाँच कार्य करते रहे हों, लेकिन अब एक-दो ही करते हैं, बस प्रक्रिया से गुजरते हैं, काम चलाते हैं, कुछ सतही कार्य करते हैं, और हो गई छुट्टी। ऐसा क्यों है? वे कहते हैं : “पहले मैं पूरे दिल से तुम्हारे साथ था, तुम्हारी इस या उस चीज में मदद करता था, तुम्हारे मामलों को अपने ही मामले मानता था, अपना साझा काम मानता था, तुम्हारी ओर से कार्य करता था। लेकिन फिर तुमने मेरी भावनाओं की जरा-सी भी कद्र किए बिना मुझे बरखास्त कर दिया! तुम मेरी भावनाओं की कद्र नहीं करते—मैं तुम्हारे लिए कैसे काम कर सकता हूँ? अगर तुम मुझे फिर से पदोन्नत करो और मुझे रुतबा प्रदान करो तो यह ठीक रहेगा। लेकिन अगर तुम मुझे रुतबा प्रदान नहीं करते तो भूल जाओ। अगर तुम कार्य करने के लिए मुझे फिर से बुलाना चाहते हो तो पहले की तरह काम नहीं बनेगा। अगर तुम मेरा उपयोग करते हो तो तुम्हें मुझे शोहरत और रुतबा देना होगा। अगर कोई रुतबा न हो और इसके बजाय तुम सिर्फ आदेश देते हो और मुझसे कोई कार्य करने की अपेक्षा करते हो तो इसमें पहचान कहाँ है? इसका कुछ स्पष्टीकरण होना चाहिए!” अब जब तुम बोलते हो तो यह प्रभावी नहीं रहता है। जब तुम उन्हें कुछ करने के लिए कहते हो, तो वे पहले जैसे समर्पित नहीं रहते, अपना पूरा दिल और दिमाग समर्पित नहीं करते; उनका रवैया बदल चुका है। अगर तुम दोबारा उनसे कुछ करने के लिए कहते हो या अगर परमेश्वर का घर उनसे कुछ करने के लिए कहता है तो वे इसे एक अतिरिक्त कार्य के रूप में, एक बाहरी व्यक्ति के मामले के रूप में लेते हैं, मानो उनका इसे करने के लिए आगे बढ़ना तुम्हारा पहले ही बहुत बड़ा सम्मान है। उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा नहीं करते तो यह अनुचित लगता है, खासकर इसलिए कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। लेकिन अगर वे ऐसा करने के लिए आगे बढ़ते भी हैं तो वे अनिच्छा से ऐसा करते हैं और आधे-अधूरे ढंग से कार्य करते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं? वे सोचते हैं, “मैंने पहले तुम पर 100 फीसदी भरोसा किया था, तुम्हारे मसलों को अपना माना था, फिर भी तुमने मुझे यों ही किनारे डाल दिया, जिससे मेरे दिल और आत्मसम्मान को ठेस पहुँची; तुमने मेरी उपेक्षा की। तो ठीक है, अगर तुम मेरे प्रति निर्दयी हो तो मुझे निर्मम होने का दोष मत देना। अगर तुम मेरा दोबारा इस्तेमाल करो, तो शायद मैं पहले जैसा न रह पाऊँ, क्योंकि हमारा रिश्ता पहले ही टूट चुका है। मुझ पर इतनी आसानी से हुक्म नहीं चलाया जा सकता कि बुलाते ही आ जाऊँ और दूर भेजने पर चला जाऊँ। मैं कौन हूँ? अगर परमेश्वर में विश्वास रखने की बात न होती तो क्या मैं दूसरों को खुद से इस तरह हेराफेरी करने देता?” जब मसीह-विरोधियों को बरखास्त कर दिया जाता है और वे अपना रुतबा खो बैठते हैं तो उनके रवैये में इतना अहम बदलाव आ सकता है। जब उनके पास रुतबा था, तब भले ही वे परमेश्वर के घर को “हमारा परिवार” कहते थे और अक्सर इस बारे में बात करते थे, वे परमेश्वर के घर के मामलों को वास्तव में अपना नहीं मानते थे। बरखास्त होने और अपना रुतबा खोने के बाद अगर परमेश्वर का घर उन्हें अपना कर्तव्य निभाने के लिए कहता है तो वे मोलभाव किए बिना ऐसा करने के लिए इच्छुक नहीं होते हैं, और तब भी उन्हें किसी स्पष्टीकरण या किसी प्रकार की मान्यता की जरूरत होती है। कुछ लोग तो ऐसा भी कहते हैं, “पिछली बार तुमने मुझे बरखास्त कर दिया था, यों ही मुझे किनारे डाल दिया था। अगर तुम मुझसे अब कुछ कराना चाहते हो तो मैं ऐसा तभी करूँगा जब पवित्र आत्मा द्वारा प्रयुक्त व्यक्ति मुझसे व्यक्तिगत रूप से बात करे या स्वयं देहधारी परमेश्वर मुझसे बात करने आए, वरना, भूल जाओ!” वे कितने ढीठ हैं! मुझे बताओ, क्या परमेश्वर के घर को ऐसे लोगों का उपयोग करना चाहिए? (नहीं।) उन्हें लगता है कि वे कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, लेकिन वास्तव में परमेश्वर का घर ऐसे लोगों को महत्व नहीं देता है। तुम कितने ही प्रतिभाशाली, काबिल और अगुआई करने में कुशल क्यों न हो, परमेश्वर का घर तुम्हारा उपयोग नहीं करेगा। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “क्या ऐसा इसलिए है कि तुम बुरे लोगों के आगे घुटने नहीं टेकते हो?” नहीं; यह परमेश्वर के घर का प्रशासनिक आदेश है, उसका लोगों को उपयोग करने का सिद्धांत है। अगर परमेश्वर के घर में मसीह-विरोधियों को अपने हाथ में शक्ति रखने की अनुमति दी गई, तो क्या यह भाई-बहनों और कलीसिया के लिए अच्छी बात होगी या बुरी बात? (बुरी बात।) क्या परमेश्वर का घर इतना बुरा काम कर सकता है? कदापि नहीं। जब उनके मसीह-विरोधी होने का खुलासा नहीं हुआ था, तब परमेश्वर के घर ने उन्हें सेवा प्रदान करने के लिए अनिच्छा से पदोन्नत किया। एक बार यह खुलासा हो जाने पर भी कि वे मसीह-विरोधी हैं, क्या परमेश्वर का घर उन्हें पदोन्नत कर सकता था? यह मुमकिन नहीं है। वे कल्पनाएँ करते रहते हैं और खयाली पुलाव पकाते रहते हैं। कुछ मसीह-विरोधी इस तरह सोचते हैं : “मेरे बिना परमेश्वर के घर का काम नहीं चल सकता। परमेश्वर के घर में मेरे सिवाय यह कार्य कोई नहीं संभाल सकता है। मेरी जगह कौन ले सकता है?” मसीह-विरोधी यह दावा करना चाहते हैं। आओ, उन्हें दिखा दें कि परमेश्वर के घर में इन मसीह-विरोधियों के बिना परमेश्वर का कार्य सुचारु रूप से आगे बढ़ सकता है और पूरा हो सकता है या नहीं।

अब परमेश्वर के घर में विभिन्न प्रकार के कार्यों की सुचारु प्रगति और विकास—क्या इसका कोई संबंध तमाम तरह के मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों को कलीसिया से बहिष्कृत और निष्कासित करने से है? ये आपस में बहुत अधिक जुड़े हुए हैं! मसीह-विरोधियों को इसका एहसास नहीं है; वे इस बात से अनजान हैं कि वास्तव में उन्हें बहिष्कृत, निष्कासित और प्रतिबंधित करने से ही परमेश्वर के घर का कार्य सुचारु रूप से आगे बढ़ सकता है—वे तो दूसरों से श्रेष्ठ होने की अकड़ भी दिखाते हैं और शिकायत भी करते हैं! तुम किस बारे में शिकायत कर रहे हो? तुम सोचते हो तुम्हारे पास प्रतिभा और दिमाग है, कार्य करने की काबिलियत और योग्यता है, लेकिन तुम परमेश्वर के घर में क्या कर सकते हो? ये लोग केवल शैतान के पिछलग्गुओं की भूमिका निभाते हैं, परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने और उसे बिगाड़ने की। उनकी मौजूदगी के बिना परमेश्वर के चुने हुए लोगों का कलीसियाई जीवन, उनका कर्तव्य निभाने का जीवन और रोजमर्रा का जीवन, सभी बहुत सुस्थिर, अधिक सहज और शांतिपूर्ण होगा—कुछ ऐसा जिसका मसीह-विरोधियों को एहसास नहीं है। ये मसीह-विरोधी अपनी क्षमताओं को ज्यादा आँकते हैं और उन्हें एहसास ही नहीं होता कि वे असल में क्या हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर का घर उनके बिना नहीं चल सकता, कि उनके बिना काम नहीं हो सकता और विभिन्न तकनीकी कार्य आगे नहीं बढ़ सकते। वे यह नहीं समझते हैं कि परमेश्वर के घर में धार्मिकता और सत्य की ही सत्ता चलती है। वे यह क्यों नहीं जानते? मसीह-विरोधी इतनी सरल बात क्यों नहीं समझ पाते? इससे केवल यही पता चलता है कि मसीह-विरोधियों का सार सत्य के प्रति विमुख और शत्रुतापूर्ण है। वास्तव में सत्य से विमुख होने और सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण होने के कारण ही वे नहीं जानते कि सत्य क्या है और सकारात्मक चीजें क्या हैं। इसके विपरीत वे सोचते हैं कि परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाले उनके दुष्ट, दुर्भावनापूर्ण व्यवहार अच्छे और सही हैं, इनमें कोई गलती नहीं है। वे मानते हैं कि केवल वे ही सत्य को समझते हैं, परमेश्वर के प्रति वफादार हैं, और केवल वे ही परमेश्वर के घर में सत्ता संभालने के लायक हैं। वे गलत हैं! परमेश्वर के घर में सत्य की ही सत्ता चलती है। सभी मसीह-विरोधियों की निंदा की जानी चाहिए, उन्हें अस्वीकार कर हटा देना चाहिए; उन्हें संभवतः परमेश्वर के घर में जगह नहीं मिल सकती और उन्हें हमेशा के लिए अस्वीकार ही किया जा सकता है।

कुछ मसीह-विरोधियों के पास कुछ गुण, थोड़ी-सी काबिलियत और कुछ क्षमता होती है और वे सत्ता के खेल खेलने में कुशल होते हैं। उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में उन्हें ही पदोन्नत कर महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया जाना चाहिए। लेकिन आज इस पर गौर करें, तो ऐसा नहीं है। ये लोग निंदित हुए हैं, प्रतिबंधित और अस्वीकृत हुए हैं, और कुछ लोग तो कलीसिया से निष्कासित या बहिष्कृत किए जा चुके हैं। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की कि महान योग्यताओं और ऊँचे कौशलों वाले उनके जैसे “श्रेष्ठ” व्यक्ति सचमुच परमेश्वर के घर में ठोकर खाएँगे और अस्वीकृत कर दिए जाएँगे। वे समझ ही नहीं सकते कि ऐसा क्यों है। तो क्या हमें उन पर कार्य करते रहना चाहिए? इसकी कोई जरूरत नहीं है। क्या तुम शैतानों से तर्क कर सकते हो? शैतानों से तर्क करने की कोशिश करना बहरों को उपदेश देने के समान है; शैतानों को निरूपित करने का एक ही तरीका है—वे तर्क से अप्रभावित रहते हैं। यह वैसा ही है, जैसा कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने के लिए कहता है, लेकिन ईमानदार होने में इतना अच्छा क्या है? थोड़े-से झूठ बोलने, लोगों को धोखा देने में क्या बुराई है? कुटिल और धोखेबाज होने में क्या खराबी है? बेवफा होने में क्या खराबी है? चतुर और लापरवाह होने में क्या खराबी है? परमेश्वर को आँकने में क्या खराबी है? परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखने में क्या खराबी है? परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने में क्या खराबी है, यह कौन सी बड़ी गलती है? यह वास्तव में सिद्धांत का मसला नहीं है!” कुछ लोग तो यह भी कहते हैं, “क्या किसी सक्षम व्यक्ति के लिए अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करना अत्यंत सामान्य बात नहीं है? इस दुनिया में यही चलता है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, यह दुनिया कमजोरों को शिकार बनाने वाले बलशाली लोगों की है। यदि तुममें योग्यता है तो तुम्हें आगे बढ़कर अपना राज्य बनाना चाहिए, इसमें गलत क्या है? हर किसी के पास उतनी ही ताकत है जितनी उसकी योग्यता निर्धारित करती है, और उन्हें उतने ही लोगों पर शासन करना चाहिए जितने की उनकी शक्ति अनुमति देती है!” दूसरे लोग कहते हैं, “असंयमी होने में क्या खराबी है? असंयम में समस्या क्या है? दुष्ट प्रवृत्तियों का अनुसरण करने में क्या गलत है?” और इसी तरह की तमाम बातें। इन शब्दों को सुनने के बाद तुम लोग क्या महसूस करते हो? (घृणा।) सिर्फ घृणा? इन शब्दों को सुनने के बाद व्यक्ति को ऐसा महसूस होता है, “हम सब मानव एक ही चमड़ी के बने हैं, तो फिर ऐसा क्यों है कि कुछ लोग इन नकारात्मक चीजों से घृणा करना तो दूर रहा, इन्हें संजोते भी हैं? और कुछ लोग इन चीजों से घृणा क्यों करते हैं? लोगों के बीच इतना बड़ा अंतर क्यों है? जो लोग सत्य और सकारात्मक चीजों से विमुख रहते हैं, वे सकारात्मक चीजों को आखिर क्यों पसंद नहीं करते? वे नकारात्मक चीजों को इतना क्यों संजोते हैं, यहाँ तक कि इन्हें खजाना मानते हैं? वे इन नकारात्मक चीजों की दुष्टता और घिनौनेपन को क्यों नहीं पहचान सकते?” लोगों के दिल में ऐसे विचार उठते हैं। मसीह-विरोधियों के मुँह से ये शब्द सुनकर, लोग एक अर्थ में घृणा महसूस करते हैं तो दूसरे अर्थ में अवाक रह जाते हैं। ऐसे लोगों की प्रकृति अपरिवर्तनीय होती है; वे बदल नहीं सकते, इसी कारण से परमेश्वर कहता है कि वह दानवों या शैतानों को नहीं बचाता। परमेश्वर का उद्धार मानवजाति के लिए है, जानवरों या राक्षसों के लिए नहीं। इन मसीह-विरोधियों जैसे लोगों को ही वास्तव में परमेश्वर दानव और जानवर कहता है; उन्हें मानवजाति में गिना नहीं जा सकता। यह स्पष्ट है, है ना?

5. बदलती परिस्थितियों में कलीसिया के प्रति उनका व्यवहार

मसीह के साथ मसीह-विरोधियों का व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है—अभी-अभी इस मद के कितने पहलुओं पर संगति की गई? एक पहलू यह है कि अपनी काट-छाँट से सामना होने पर वे मसीह के साथ एक खास तरीके से व्यवहार करते हैं। और कौन-से पहलू हैं? (जब वे देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाएँ उत्पन्न करते हैं, जब उन्हें पदोन्नत या बरखास्त किया जाता है और जब मसीह का पीछा होता है तब उनका व्यवहार।) ये कुल मिलाकर चार पहलू हो गए। चलो संगति जारी रखें। मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं, इसलिए वे सत्य को खोजने के लिए परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते—वे परमेश्वर में विश्वास आशीष पाने के लिए रखते हैं; उनकी अपनी योजनाएँ, इरादे और उद्देश्य होते हैं। यही नहीं, उन्हें सत्ता और रुतबा पसंद है, इसलिए वे देखो-और-इंतजार करो के रवैये के साथ परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे कैसे देखते और इंतजार करते हैं? इसका मतलब है कि विश्वास रखते हुए वे यह जायजा भी लेते हैं कि क्या परमेश्वर के घर में लोगों की संख्या बढ़ रही है, सुसमाचार का कार्य कैसे फैल रहा है, यह सुचारु रूप से हो रहा है या नहीं और क्या परमेश्वर के घर का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। इसके अलावा, वे यह भी देखते हैं कि क्या परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है, क्या अधिकाधिक लोग परमेश्वर के लिए स्वेच्छा से सेवा कर रहे हैं और क्या अधिकाधिक लोग परमश्वेर के घर के लिए कार्य करने को तैयार हैं। वे यह जायजा भी लेते हैं कि परमेश्वर के घर में कार्य कर रहे लोगों की सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि कैसी है, समाज में उनकी पहचान और उनका रुतबा वास्तव में कैसा है। निरीक्षण के जरिये वे देखते हैं कि अधिकाधिक लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, परमेश्वर के घर में लोगों की संख्या बढ़ रही है और परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने के लिए और भी अधिक लोग अपने परिवारों, नौकरियों और संभावनाओं को त्यागने के लिए तैयार हैं। इन चीजों को देखकर उन्हें लगता है कि वे अब और उदासीन नहीं रह सकते और उन्हें भी सदस्य बनकर खुद को भी परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति और कर्तव्य निभाने वाले लोगों की श्रेणी के प्रति समर्पित कर देना चाहिए ताकि भविष्य में मिलने वाले आशीषों में उनकी भी हिस्सेदारी हो सके। भले ही वे परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभा कर अपनी भूमिका निभा सकते हैं, फिर भी वे अपनी संभावनाओं और नियति को लेकर उम्मीद कभी नहीं छोड़ते और अपने दिल में लगातार अपना उल्लू सीधा करने के बारे में सोचते रहते हैं। चूँकि इस समूह की, इन मसीह-विरोधियों की ऐसी महत्वाकांक्षाएँ और ऐसे स्वभाव हैं, इससे तय होता है कि जैसे-जैसे परमेश्वर के घर का रुतबा और शोहरत बढ़ेगी, वैसे-वैसे मसीह और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया बदलता जाएगा। इसलिए अपने कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में, एक लिहाज से, वे अपनी संभावनाओं और नियति की खातिर पुरजोर ढंग से योजना बना रहे हैं, अपने मतलब की बात सोच रहे हैं और इंतजाम कर रहे हैं; दूसरे लिहाज से, वे यह भी देख रहे हैं कि परमेश्वर के घर का विकास हो रहा है, देश-विदेश में इसका प्रभाव है, क्या धीरे-धीरे लोगों की संख्या बढ़ रही है, क्या कलीसिया का स्तर लगातार बढ़ रहा है, क्या कलीसिया समाज के कुछ नामी-गिरामी लोगों के साथ जुड़ चुकी है, क्या इसने पश्चिम में किसी स्तर की शोहरत हासिल कर ली है और क्या इसने एक ठोस बुनियाद डाल ली है। वे लगातार इन मामलों पर नजर रखकर पूछताछ कर रहे हैं। यहाँ तक कि कलीसिया के कार्य में हिस्सा न लेने वाले और अपने कर्तव्य न निभाने वाले कुछ लोग भी कलीसिया के विकास के बारे में बड़ी जिज्ञासा दिखाते हुए अपनी संभावनाओं और नियति की खातिर लगातार मतलब की बात सोच रहे हैं। इस प्रकार ये दोनों तरह के लोग कलीसिया की वेबसाइट पर इस बारे में जानकारी खोजते हैं और कलीसिया के भीतर भी इन मामलों के बारे में पूछताछ करते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि विदेशों में परमेश्वर के घर का कार्य सुचारु रूप से फैल रहा है और अधिक आशाजनक हो रहा है, कि पश्चिम में कार्य बेहतर ढंग से फैल रहा है और स्थिति सुधर रही है, तो वे दिल से आश्वस्त महसूस करते हैं। क्या उनकी आश्वस्ति की यह भावना उनमें सच्चे बदलाव का संकेत देती है? (नहीं।) वे आश्वस्त तो महसूस करते हैं मगर देहधारी परमेश्वर के प्रति, मसीह के प्रति उनका रवैया सिर्फ थोड़े अधिक “सम्मान” और प्रशंसा वाला होता है, इसमें सच्चा समर्पण नहीं होता।

जब मसीह मुख्य भूमि चीन में कार्य कर रहा था तो मसीह-विरोधी अक्सर सोचते थे, “क्या देहधारी परमेश्वर को गिरफ्तार किया जा सकता है? क्या वह सरकारी अधिकारियों के हाथों में पड़ सकता है?” इस तरह सोचकर उनके मन में इस “तुच्छ व्यक्ति” के प्रति थोड़ी अवमानना का भाव पैदा हो गया। जब उन्होंने सुना कि देहधारी परमेश्वर के पास अक्सर घर नाम की जगह नहीं होती, अपना सिर टिकाने की कोई जगह नहीं होती और पकड़े जाने से बचने के लिए वह जहाँ भी संभव हो छिप जाता है, तो उनकी नाममात्र की जिज्ञासा और बहुत बेमन का “सम्मान” पूरी तरह चकनाचूर हो गया। लेकिन जब उन्होंने सुना कि देहधारी परमेश्वर, मसीह, सँयुक्त राज्य अमेरिका में है, स्वतंत्रता की उस भूमि में है जिसके लिए मानवजाति लालायित रहती है तो उन्हें देहधारी परमेश्वर के प्रति ईर्ष्या महसूस हुई—सम्मान नहीं, बल्कि ईर्ष्या। लेकिन जब उन्होंने सुना कि देहधारी परमेश्वर पश्चिम में है, मानवजाति उसे अस्वीकार कर रही है, उसकी बदनामी और निंदा कर रही है, उसका आकलन कर रही है, तो मसीह-विरोधियों के अंतर्मन में उथल-पुथल भरी लहरें हिलोरें मारने लगीं : “तुम परमेश्वर हो तो लोग तुम्हें स्वीकार क्यों नहीं करते? तुम परमेश्वर हो तो धर्मावलंबी समुदाय तुम्हें स्वीकार क्यों नहीं करता, बल्कि तुम्हारे बारे में इतनी अफवाहें क्यों फैलाता है? तुम अपना बचाव करने के लिए आगे क्यों नहीं आते? तुम्हें वकीलों की टीम नियुक्त करनी चाहिए! जरा ऑनलाइन उन मानहानिकारक और निंदात्मक शब्दों को देखो, धर्मावलंबी समुदाय की ओर से फैलाई गई अफवाहों को देखो जो तुम्हें बहुत भयावह रूप में पेश करती हैं! हमें तुम्हारा अनुसरण करने में शर्मिंदगी महसूस होती है और इन बातों का उल्लेख करना भी अजीब लगता है। तुम पूरब और पश्चिम में निंदित हो, धर्मावलंबी समुदाय, मानवजाति और इस दुनिया द्वारा अस्वीकृत हो। हम तुम्हारा अनुसरण करके अपमानित महसूस करते हैं।” मसीह-विरोधियों की यही मानसिकता है। अपने दिलों में अपमानित महसूस करते हुए उनमें इस “तुच्छ व्यक्ति”, जिस रूप में उन्होंने उसे अपनी नजरों और दिलों से देखा था, के लिए घृणा और सहानुभूति भी विकसित हुई—एक अत्यधिक अनिच्छित सहानुभूति। यह सहानुभूति कैसे उत्पन्न हुई? उन्होंने सोचा, “तुम व्यक्तिगत लाभ-हानि की चिंता किए बगैर इतना महान कार्य कर रहे हो, जिसे निःस्वार्थ समर्पण माना जा सकता है। इतनी बड़ी पीड़ा और अपमान सहने के पीछे तुम्हारा लक्ष्य क्या है? तार्किक रूप से कहें तो तुम अवश्य एक अच्छे इंसान होगे; वरना तुम इतना बड़ा अपमान कैसे झेल सकते थे और इतनी ज्यादा पीड़ा कैसे सह सकते थे? यह काफी दयनीय है और आसान नहीं है; तुम दिल से बहुत अन्याय महसूस करते होगे।” इस प्रकार उन्हें मसीह के प्रति थोड़ी-सी सहानुभूति महसूस हुई। उन्होंने विचार किया, “अगर मैं होता तो इतनी बड़ी पीड़ा सह न पाता; मैं मानवजाति के सामने अपना पक्ष रखूँगा। एक ओर मैं उन ऑनलाइन झूठी अफवाहों को मिटाने के लिए वकीलों की एक टीम नियुक्त करूँगा, तो दूसरी ओर धर्मावलंबी समुदाय को कुछ चमत्कार और अजूबे दिखाऊँगा ताकि वे देख लें कि परमेश्वर कौन है—कौन सच्चा है और कौन झूठा है—बदनामी और निंदा करने वालों का मुँह बंद करने, उन्हें दंडित करने और सबक सिखाने के लिए मैं ऐसा करूँगा। क्या वे आगे ऐसा करने का दुस्साहस करेंगे? तुम ऐसा क्यों नहीं करते? तुम कभी अपना बचाव क्यों नहीं करते? क्या इसका यह कारण है कि तुममें शक्ति, साहस या बहादुरी की कमी है? वास्तव में क्या चल रहा है? कहीं यह कायरता तो नहीं है? ओह, तुमने अपने दिल में बहुत कुछ छिपा रखा है, इतने बड़े अन्याय को सहते हुए और चुप रहकर, अभी भी कार्य का विस्तार कर रहे हो और कलीसिया में लोगों से धैर्यपूर्वक और ईमानदारी से बात कर रहे हो, उनका पोषण कर रहे हो, फिर भी वे हमेशा धारणाएँ पालते हैं और विद्रोही बने रहते हैं। तुम्हारा दिल दुख रहा होगा! यह देखते हुए कि तुम यह सब सह सकते हो, तुम वास्तव में काफी अच्छे इंसान हो और सहानुभूति के पात्र हो।” उनकी सहानुभूति इसी तरह से उत्पन्न हुई। यह मसीह-विरोधियों की सहानुभूति है। मसीह-विरोधियों के उजागर होने से लेकर अब तक, यह एक एकमात्र “अच्छाई” है जो उन्होंने की है। यह “अच्छाई” कितनी अच्छी तरह की गई है? क्या यह वास्तविक है? (नहीं।)

मसीह-विरोधी लोग मसीह का अनुसरण करते हैं और उन्होंने वर्षों तक मसीह के बोले वचन स्वीकार किए हैं, फिर भी उन्होंने इस जीवन में मसीह को अपने रक्षक के रूप में स्वीकार करके कभी भी सम्मानित महसूस नहीं किया, न ही उन्होंने कष्ट सहने, निंदित होने और दुनिया द्वारा अस्वीकार किए जाने पर मसीह की ही तरह सम्मानित महसूस किया। इसके बजाय वे मसीह के कष्टों को उसका तिरस्कार करने और उसे नकारने का हथकंडा और सबूत मानते हैं। उनमें मसीह के साथ इन सभी कष्टों को साझा करने की इच्छा या रवैया नहीं है। बल्कि वे तमाशबीनों के रूप में खड़े हैं, मसीह द्वारा सहन किए गए तमाम कष्ट देख रहे हैं, यह देख रहे हैं कि मानवजाति मसीह के साथ कैसा व्यवहार करती है और वे इन अवलोकनों को मसीह के प्रति अपने व्यवहार का आधार बनाते हैं। जब परमेश्वर के नाम की घोषणा की जाती है और सुसमाचार का कार्य मानवजाति के बीच धीरे-धीरे फैलता जाता है, और सुसमाचार के कार्य की संभावनाएँ आशाजनक दिखती हैं, तो धीरे-धीरे मसीह-विरोधी लोग देहधारी परमेश्वर के करीब आने लगते हैं और उसके प्रति थोड़ा-सा सम्मान और ईर्ष्या महसूस करते हैं। इसके साथ ही वे परमेश्वर के घर के करीब आने, परमेश्वर के घर का सदस्य बनने और परमेश्वर के कार्य के विस्तार में भागीदार बनने का प्रयास करने के लिए बहुत जतन करते हैं। क्या बस इतनी ही बात है? क्या यह इतना सरल है? नहीं; वे परमेश्वर के घर में विभिन्न कार्य परियोजनाओं के विस्तार की स्थिति के आधार पर परमेश्वर के घर और मसीह के प्रति अपना रवैया बदलते हैं, वे ऐसा कभी भी और कहीं भी करते हैं। अगर वे सुनते हैं कि मानवजाति के बीच, और विशेष रूप से पश्चिम में, लोगों की कोई जाति कहती है कि “ये वचन वास्तव में परमेश्वर के वचन हैं, इनमें वास्तव में अधिकार है! परमेश्वर के वचनों से हम परमेश्वर का सार देखते हैं, हम सुनिश्चित हैं कि यह साधारण व्यक्ति परमेश्वर है, और यही मार्ग सच्चा मार्ग है,” तो मसीह-विरोधी चुपचाप अपने दिलों में खुशी मनाते हैं; “खुशकिस्मती से मैंने नहीं छोड़ा; यह सचमुच सच्चा मार्ग है! देखो, पश्चिमवाले भी कह रहे हैं कि देहधारी परमेश्वर कहाँ है। मुझे उसके वचनों पर और अधिक गौर करना चाहिए, मुझे जल्दी से उसके धर्मोपदेश सुनने की जरूरत है!” इस पल मसीह-विरोधियों को लगता है कि परमेश्वर की वाणी बहुत सुंदर है, उनकी आत्मा को शुद्ध करने वाली है, और उसे संजोना चाहिए। लेकिन जब परमेश्वर के घर को विदेशों में और मानवजाति के बीच अपने कार्य के विस्तार में कभी-कभी कुछ असफलताओं का सामना करना पड़ता है या जब परमेश्वर के घर का काम बाधित या प्रभावित होता है, इसमें बाहरी ताकतें दखल देती हैं, यहाँ तक कि जब परमेश्वर के घर को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है तो मसीह-विरोधियों के दिल में फिर से ज्वार उठने लगता है : “देहधारी परमेश्वर कहाँ है? क्या वह बोल रहा है? इस मामले को कैसे संभाला जा रहा है? क्या परमेश्वर चीजों को सही करता है? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोग डर गए हैं? क्या किन्हीं लोगों ने परमेश्वर का घर छोड़ दिया है? क्या बाहरी दुनिया के कोई नामचीन या वरिष्ठ लोग परमेश्वर के घर के लिए दिल खोलकर बोल रहे हैं या कार्रवाई कर रहे हैं या इसके पक्ष में खड़े हैं? मैंने सुना है ऐसा कोई नहीं है। तो फिर क्या किया जाना चाहिए? क्या परमेश्वर की कलीसिया का काम तमाम हो गया? क्या मुझे संभव होते ही बाहर निकल जाना चाहिए?” क्या यह उथल-पुथल मायने रखती है? इस समय जब वे परमेश्वर के धर्मोपदेश दोबारा सुनते हैं तो सोचते हैं : “अब उन खोखले वचनों की बात मत करो या उनके बारे में इतनी ऊँची बातें मत करो। मैं अब तुम्हारी बातें नहीं सुनने वाला। दुनिया परमेश्वर के घर को किसी भी क्षण निगल सकती है; वे वचन किस काम के हैं? क्या वे लोगों को बचा सकते हैं? परमेश्वर के घर का प्रभाव पलक झपकते ही गायब हो सकता है; इसके सारे लोग यूँ ही तितर-बितर हो जाएँगे।” वे मेरी बातों सुनना पसंद नहीं करते। क्या उनमें कोई सम्मान बचा है? कोई सहानुभूति? (कुछ भी नहीं।) क्या बचा है? बस देखने और मजाक उड़ाने की इच्छा बची है। कुछ लोग पर्दे के पीछे गंदी बातें कहते हैं, हानिकारक शब्द बोलते हैं और परमेश्वर के घर के दुर्भाग्य पर खुश होते हैं : “मुझे लगता है कि परेशानी बढ़ रही है, मुझे नहीं लगता कि तुम दृढ़ता से खड़े रह सकते हो। क्या वे सत्य किसी काम के हैं? क्या तुम्हारे वचन असरदार हैं? अब क्या? मुसीबत आ चुकी है, है ना?” उनका राक्षसी पक्ष उभरकर सामने आ जाता है। क्या मसीह-विरोधी हर चीज वही नहीं करते जो दानव करते हैं? उनमें सबसे बुनियादी मानवीय नैतिकता भी नहीं होती; वे पूरी तरह से दुष्ट हैं, जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं! वे परमेश्वर के घर से खाना खाते हैं, परमेश्वर के वचनों का पोषण पाते हैं, परमेश्वर की रक्षा और अनुग्रह का आनंद लेते हैं, लेकिन संकट का पहला संकेत पाते ही वे बाहरी लोगों का साथ देते हैं, परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करते हैं और इसके दुर्भाग्य पर खुशियाँ मनाते हैं। वे दानव नहीं तो क्या हैं? वे पूरी तरह से दानव हैं! जब वे देखते हैं कि परमेश्वर का घर रफ्तार पकड़ रहा है तो वे देहधारी परमेश्वर के सामने “धम्म” से घुटनों के बल बैठ जाते हैं, मानो वे परमेश्वर के अनुयायी हों। लेकिन जब वे परमेश्वर के घर को शैतान द्वारा घिरा हुआ और निंदित देखते हैं तो वे परमेश्वर के सामने दंडवत होना बंद कर देते हैं। इसके बजाय वे गर्व से तनकर खड़े होते हैं, खुद को इतना गरिमामय मानते हैं कि किसी के सामने घुटने नहीं टेक सकते और तुम्हारा मजाक उड़ाने की ताक में बैठे रहते हैं। तुमसे बात करते हुए उनका लहजा और स्वर तेज हो जाता है; वे अनाप-शनाप बोलने लगते हैं, असामान्य व्यवहार करने लगते हैं, उनका राक्षसी आचरण उभरने लगता है, तेजी से बदलने लगता है। मुझे बताओ, ये लोग क्या कभी परमेश्वर का भय मानेंगे? (कभी नहीं।) बिल्कुल सही कहा, यह बिल्कुल सच्चा कथन है। ये लोग शैतान की जमात के हैं; वे परमेश्वर का भय कभी नहीं मानेंगे क्योंकि वे सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं—वे शैतान के हैं। शैतान से जुड़े लोगों का यही प्रकृति सार है, उन मसीह-विरोधियों का घिनौना चेहरा जो शैतान से जुड़े हुए हैं। वे हमेशा परमेश्वर के घर का मजाक उड़ाने के लिए तैयार रहते हैं, हमेशा देहधारी परमेश्वर की हँसी उड़ाने की फिराक में रहते हैं, लगातार ऐसी सामग्री तैयार करने और इकट्ठा करने में लगे रहते हैं जिससे मसीह को और परमेश्वर के सार को नकारा जा सके, और वे हमेशा बाहरी लोगों का साथ देने और परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करने के लिए तैयार रहते हैं। परमेश्वर के घर को जितनी अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है, मसीह विरोधी उतने ही अधिक खुश और आनंदित होते हैं। जब भाई-बहन सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभाने की स्थिति में रहते हैं और परमेश्वर के घर का सारा काम व्यवस्थित रहता है तो ये मसीह-विरोधी असहज और असंतुष्ट रहते हैं, वे कामना करते हैं कि परमेश्वर के घर पर तुरंत मुसीबतें आ जाएँ और उम्मीद करते हैं कि परमेश्वर के घर का काम सुचारु रूप से न चले, कि उसे असफलताओं और बाधाओं का सामना करना पड़े। संक्षेप में कहें तो अगर परमेश्वर के घर में सब कुछ ठीक चल रहा हो और भाई-बहन सामान्य ढंग से अपने कर्तव्य निभाने और सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हों, तो मसीह-विरोधियों के दिलों को कोई खुशी नहीं मिलती। जब भाई-बहन परमेश्वर के वचन सुनते हैं, उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करते हैं, परमेश्वर और मसीह को महान मानकर उनका सम्मान करते हैं, और मसीह की गवाही दे सकते हैं और उसकी बड़ाई कर सकते हैं तो मसीह-विरोधियों के लिए यह सबसे असहनीय समय होता है, ऐसा समय जब उनका सर्वाधिक आकलन होता है और यातना मिलती है।

मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर के विभिन्न समाचारों के बारे में पूछताछ करते रहते हैं। अगर वे लंबे समय तक यह पता नहीं लगा पाते कि परमेश्वर के घर का सुसमाचार कार्य कैसे फैल रहा है, परमेश्वर के घर में विभिन्न पेशेवर कार्य कैसे आगे बढ़ रहे हैं, क्या वे सुचारु रूप से आगे बढ़ रहे हैं, क्या विदेशों में लोगों की तादाद बढ़ रही है, क्या कलीसिया का स्तर बढ़ रहा है, क्या विभिन्न देशों में कलीसियाएँ स्थापित की गई हैं, या अगर वे यह नहीं सुन सकते कि अधिक अभिलाषी व्यक्तियों या समाज में प्रतिष्ठित लोगों का परमेश्वर के घर में प्रवेश हो रहा है तो उन्हें लगता है कि देहधारी परमेश्वर में विश्वास रखना ऊबाऊ और अरुचिकर है। वे देहधारी परमेश्वर पर ध्यान देना बंद कर देते हैं, यहाँ तक कि इस बात पर विचार करने लगते हैं कि अन्य अधिक जीवंत या प्रभावशाली संप्रदायों से जुड़ जाएँ। लेकिन, अगर वे कभी-कभार परमेश्वर के घर के बारे में कुछ अच्छी खबरें सुनते हैं, जैसे कि भाई-बहनों की गवाहियों के ऐसे वीडियो जो कुछ मानवाधिकार संगठनों की रुचि जगाते हैं और काफी ध्यान खींचते हैं, तो उनके दिल खुशी, आशा और आनंद से भर उठते हैं। उदाहरण के लिए, अगर परमेश्वर का घर किसी मशहूर समूह का ध्यान खींचता है या उससे कवरेज पाता है तो वे और भी अधिक प्रसन्न और उत्साहित हो जाते हैं : “ऐसा लगता है कि यह साधारण व्यक्ति बिल्कुल भी सीधा-सादा नहीं है; लगता है वह कुछ बड़ा करने जा रहा है!” अगर सौभाग्य से कोई जानी-मानी हस्ती या नेता कलीसिया के नाम का उल्लेख करे दे, तो मसीह-विरोधी और भी उत्तेजित हो जाते हैं : “इस जीवन में मैंने सबसे बड़ा और सबसे सटीक विकल्प चुना है, वह है सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अनुसरण करना। अब से मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर को कभी न छोड़ने, उसे परमेश्वर के रूप में मानने और अपने दिल में उसके प्रति श्रद्धा रखने का निर्णय लिया है, क्योंकि इस परमेश्वर का सम्मान अमुक नेता करता है। अगर वह उसका आदर करता है, तो मुझे भी उसका आदर करना चाहिए। नेतागण इस परमेश्वर का नाम लेते हैं और उसे मान्यता देते हैं तो उसमें विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने में भला क्या पछतावा हो सकता है? क्या मुझे और भी अधिक दृढ़ता से उसका अनुसरण नहीं करना चाहिए? अब से मैंने दढ़ निश्चय कर लिया है कि मैं कभी भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया छोड़ने का विचार मन में नहीं लाऊँगा। मुझे अच्छे से कार्य करना चाहिए, और भी कष्ट सहना चाहिए, और भी अधिक कीमत चुकानी चाहिए, कार्य करते समय भाई-बहनों से अधिक सलाह-मशविरा करना चाहिए और कलीसिया जो भी कहता है उसका पालन करना चाहिए। हो सकता है कि भविष्य में जैसे-जैसे कलीसिया का विस्तार होगा और उसे अधिक शोहरत मिलेगी, मुझे एक ऊँची उपाधि मिल सकती है और मैं श्रेष्ठ हो सकता हूँ!” इस बारे में सोचकर वे अपने दिल में खुशी महसूस करते हैं : “मैंने इतना अच्छा, इतना सटीक विकल्प चुना! मैं कितना चतुर हूँ! मैंने तो पहले छोड़ने के बारे में भी सोचा लिया था—उस समय मैं कितना मूर्ख और अज्ञानी था! मैं युवा और मनमौजी था, मेरे गलत विकल्प चुनने और गलत निर्णय लेने की आशंका रहती थी। अब जब मैं बड़ा हो गया हूँ, मैं अधिक स्थिर हो गया हूँ और छिपना जानता हूँ, और आखिरकार मुझे उम्मीद नजर आती है। शुक्र है कि मैं छोड़-छाड़कर नहीं गया, मैंने उन अफवाहों पर विश्वास नहीं किया, मैं उनसे गुमराह नहीं हुआ या उनके बहकावे में नहीं आया। वह काफी खतरनाक था! मुझे आइंदा और अधिक सावधान रहने की जरूरत है। ऐसा लगता है कि यह व्यक्ति असाधारण है, और मुझे उसके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए!” जोश और आवेग में आकर उन्होंने चढ़ावे के लिए कुछ आरोग्य उत्पाद और अच्छी चीजें खरीदीं और उन पर लिखा : “इन चीजों के साथ अपने प्यारे परमेश्वर को समर्पित।” नीचे उन्होंने अपने नाम के साथ लिखा : “विशेष भेंट, सादर समर्पित ...नाम ...तारीख।” यह एक खास और कीमती भेंट थी, लेकिन इसके पीछे एक कहानी है, एक गुप्त मंसूबा है। यह सुनकर क्या तुम यह नहीं कहोगे, “तो परमेश्वर को लोगों द्वारा दिए जा रहे चढ़ावे को तुम इस तरह समझ रहे हो?” ऐसा नहीं है कि मैं इसे इस तरह समझता हूँ, न ही सभी लोग इस तरह करते हैं, और सारा चढ़ावा ऐसे मंसूबों के साथ नहीं आता। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ लोगों का चढ़ावे देने का कदम वास्तव में ऐसे इरादों और ऐसी पृष्ठभूमि से प्रभावित और प्रेरित होता है। क्या यह एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण है? (हाँ।)

मसीह-विरोधी जब हर चीज में अपना उल्लू सीधा करने की सोचते हैं, तो उनका मुख्य ध्येय स्वार्थ-परता होता है। वे स्वार्थी और नीच हैं, हर चीज में अपना उल्लू सीधा करने की सोचते हैं। जहाँ तक परमेश्वर के घर के विभिन्न कार्यों की प्रगति का संबंध है, सत्य का अनुसरण करने वाले अधिकतर लोगों के साथ ही अधिकतर सामान्य विश्वासी ऐसे मामलों के बारे में जानना और पूछताछ करना नहीं चाहते हैं, क्योंकि सत्य का अनुसरण करने के लिए इन सामान्य मामलों के बारे में जानने की कोई प्रासंगिकता नहीं है। इनके बारे में अवगत होना किसी काम का नहीं है; इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास जीवन या सत्य है, न ही उनके प्रति अज्ञानता का मतलब यह है कि तुम छोटे आध्यात्मिक कद के हो। ये मामले सत्य से जुड़े हुए नहीं हैं और ये सत्य को समझने या परमेश्वर का भय मानने में किसी तरह की मदद नहीं करते हैं। यह वह स्तर है जिस तक विवेकशील लोग पहुँच सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी इन मामलों को सर्वोच्च सत्य मानते हुए इनसे दृढ़ता से चिपके रहते हैं। वे इन मामलों के बारे में पूछताछ करते हैं और जानकारी इकट्ठा करते हैं। इन मामलों के बारे में जानकारी एकत्र करने के बाद वे इसे अपने तक ही सीमित नहीं रखते; वे इसे सब जगह फैलाते हैं, उन्हें लगता है कि इन चीजों के बारे में हर भाई-बहन को जिज्ञासा है, लेकिन हकीकत में कई लोगों को इनमें कोई दिलचस्पी नहीं होती है। मैं स्वयं इन मामलों के बारे में शायद ही कभी पूछता हूँ। अगर मैं इसमें शामिल किसी व्यक्ति से मिलता हूँ तो हो सकता है कि मैं इसके बारे में बात कर लूँ, लेकिन मैं पूछताछ करने के लिए सक्रिय रूप से लोगों की तलाश नहीं करता हूँ। मैं केवल एक ही स्थिति में जरूर पूछताछ करता हूँ : कोई कार्य कैसे किया जाना चाहिए, तुम लोगों के कार्य की प्रगति कैसी है, क्या कोई समस्या है या भूल-चूक तो नहीं हुई है। केवल इस मामले में ही मैं पूछताछ करता हूँ, लेकिन इसके सिवाय जिज्ञासा या परवाह के कारण मैं बिल्कुल भी पूछताछ नहीं करता हूँ। मेरी पूछताछ केवल कार्य के संबंध में होती है, जानकारी या जिज्ञासा के स्रोत को लेकर नहीं। मसीह-विरोधी लोग जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे इन मामलों की तह तक जाने को उत्सुक रहते हैं और ऐसा करने के पीछे उनका एक विशेष उद्देश्य होता है। परमेश्वर का कार्य सही है या गलत, यहाँ तक कि क्या मसीह परमेश्वर है, यह निर्णय लेने के लिए वे बाहरी परिस्थितियों और परिवेशों का उपयोग करते हैं, जिसमें विभिन्न अवधियों में और विभिन्न सम्प्रदायों, नस्लों और जातीय समूहों के बीच कलीसिया की परिस्थितियाँ भी शामिल होती हैं। वे किस प्रकार के प्राणी हैं? क्या वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं? साफ तौर पर वे छद्म-विश्वासी हैं। चाहे तुम सत्य पर कितनी ही संगति करो, वे उसे सुन या समझ नहीं सकते। लेकिन वे कलीसिया के बाहरी मूल्यांकनों और विभिन्न देशों में कलीसिया की स्थिति और परिस्थितियों के बारे में बहुत विस्तार से पूछताछ करते हैं, जो वास्तव में छद्म-विश्वासियों से अलग नहीं है। ये अभिव्यक्तियाँ गुप्त एजेंडे वाले छद्म-विश्वासियों की हैं। क्या तुम लोगों के इर्द-गिर्द ऐसे लोग हैं? तुम लोगों ने ध्यान नहीं दिया होगा। हर बार जब हम सभा करके मसीह-विरोधियों के विभिन्न सार को उजागर करते हैं, तो इनमें से कुछ लोगों की निंदा की जाती है। एक बार उजागर हो जाने पर उनके असली रंग फीके पड़ जाते हैं और वे खुद को दिखाने की हिम्मत नहीं कर पाते। खासकर इस संगति के बाद कुछ लोग पूछताछ करने का साहस नहीं करेंगे। लेकिन भले ही वे अब सीधे तौर पर पूछने की हिम्मत न करें, फिर भी वे पर्दे के पीछे रहकर अफवाहें जुटाते हैं। वे भाई-बहनों के बीच पूछना बंद कर देते हैं लेकिन चोरी-छिपे इंटरनेट पर पूछ लेते हैं। साथ ही, वे लगभग बावले होकर यह पता लगाने के सारे जतन करते हैं कि गैर-विश्वासी, विभिन्न संप्रदाय और पश्चिमी देश हमारी कलीसिया के बारे में क्या सोचते और कहते हैं। क्या यह थोड़ा पागलपन नहीं है? वे जुनूनी हैं, वे खुद को रोक नहीं सकते। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते और सत्य से विमुख होते हैं, वे समझ से परे होते हैं।

हमने अभी-अभी जो उजागर किया वह यह है कि मसीह-विरोधी लोग कलीसिया की परिस्थितियों और परमेश्वर के कार्य के विस्तार के अनुसार कलीसिया के साथ और उस देह के साथ कैसा व्यवहार करते हैं जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। यह इस बात का एक पहलू है कि मसीह-विरोधी अपनी मनःस्थिति के आधार पर मसीह से कैसा व्यवहार करते हैं। मैंने जिन चीजों पर चर्चा की, क्या ये कलीसिया में हो रही हैं? क्या ये गंभीर मामले हैं? क्या ये जिक्र करने लायक हैं? (हाँ।) इन मामलों पर संगति करने का क्या महत्व है? क्या इसका मतलब यह है कि यह संगति सुनने के बाद कुछ लोग अब इन मामलों के बारे में पूछने की हिम्मत नहीं करेंगे, कलीसिया की स्थिति और परिस्थितियों के बारे में जिज्ञासु होने की हिम्मत नहीं करेंगे? क्या यही एकमात्र महत्व है? (नहीं।) तो फिर, इन चीजों को उजागर करने का क्या महत्व है? लोगों को इससे कौन-सा सत्य समझना चाहिए? अगर तुम लोगों ने अभी तक इसके बारे में नहीं सोचा, तो तुम बोलने से बच सकते हो। मैं तुम लोगों के साथ इस पर संगति अंत में करूँगा। ये मामले तुम लोगों से बहुत दूर के हैं, इसलिए इन्हें तुरंत स्पष्ट करने में तुम लोगों को कठिनाई हो सकती है। तुम्हें अपने विचारों को संजोकर अपनी भाषा को व्यवस्थित करने की जरूरत है; हो सकता है तुम यह न जानो कि कहां से शुरू करना है, या हो सकता है तुम इसे स्पष्ट रूप से व्यक्त न कर सको। लोगों की समझ में आने वाली चीजों की संख्या बहुत कम है, यह बहुत दयनीय बात है। किसी मामले के सार और कारण को स्पष्ट रूप से न बता पाना चीजों की असलियत न समझ पाने का संकेत है।

जब लोग स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और परमेश्वर के लिए खुद को खपाते और अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो कोई यह कह सकता है कि कलीसिया, परमेश्वर का घर और परमेश्वर लोगों के लिए मूल रूप से एक ही अवधारणा हैं। कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाना परमेश्वर के लिए खुद को खपाना समझा जाता है; परमेश्वर के घर के लिए कार्य करना कलीसिया के लिए कार्य करने के समान ही है और यह परमेश्वर के प्रति वफादार होना और परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना भी है। इन्हें एक दूसरे की जगह रखकर चर्चा की जा सकती है और इन्हें एक ही अवधारणा के रूप में देखा जाता है। लेकिन जब परमेश्वर देहधारी होकर एक साधारण व्यक्ति के रूप में प्रकट होता है, तो अधिकतर लोगों के लिए कलीसिया, परमेश्वर का घर और परमेश्वर (यानी मसीह) आसानी से अलगाने योग्य हो जाते हैं। लोग सोचते हैं, “कलीसिया के लिए कार्य करना परमेश्वर के घर के लिए, परमेश्वर के लिए कार्य करने के समान ही है; परमेश्वर के घर के लिए कार्य करना अपना कर्तव्य निभाना है। लेकिन जब मसीह के लिए कार्य करने की बात आती है तो मैं उतना सुनिश्चित नहीं हूँ। क्या इसका आशय किसी व्यक्ति की सेवा करना नहीं है? यह एक तरह से एक व्यक्ति के लिए कार्य करने जैसा लगता है।” कई लोगों के दिल की गहराइयों में इन तीन चीजों के बीच स्पष्ट भेद कर पाना और इन्हें आपस में जोड़ना कठिन होता है। परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाते समय लोग किसके लिए कर्तव्य निभा रहे हैं, इस बारे में अधिकतर की मूल अवधारणा यह होती है : जब वे कलीसिया के भीतर अपने कर्तव्य निभाते हैं तो वे उस इकाई की खातिर अपने कर्तव्य निभा रहे होते हैं जो कि कलीसिया है, यह पदनाम है। तो फिर कलीसिया का तथाकथित प्रमुख कौन है? बेशक यह स्वर्ग का परमेश्वर है जिसको लेकर किसी के मन में कोई संदेह नहीं है। परमेश्वर के घर के लिए कार्य करने को अधिकतर लोग भाई-बहनों की पदवी और समूह की सेवा करने के रूप में समझते हैं और इसे निश्चित रूप से अपना कर्तव्य निभाने की श्रेणी में रखा जा सकता है; यह अपना कर्तव्य निवर्हन है, जो निःसंदेह परमेश्वर की ओर भी मुड़ा हुआ है। इसलिए लोगों के मन में कलीसिया, भाई-बहन और परमेश्वर का घर समतुल्य हो सकते हैं, और ये सब स्वर्ग के अज्ञात परमेश्वर की ओर लक्ष्य करते हैं। इसका आशय क्या है? अधिकतर लोगों के अनुसार, वे परमेश्वर के घर में चाहे अपने कर्तव्य निभा रहे हों या मामले संभाल रहे हों, वे यह कार्य कलीसिया रूपी एक अमूर्त संस्थान के लिए, भाई-बहनों के मूर्त समूह के लिए और खासकर स्वर्ग के अज्ञात, अदृश्य परमेश्वर के लिए कर रहे हैं—इन्हीं तीनों के लिए वे अपने कर्तव्य निभाते हैं। जहाँ तक देहधारी परमेश्वर की बात है, लोग उसे कलीसिया का सदस्य या भाई-बहनों के बीच सर्वोच्च अगुआ मान सकते हैं और बेशक कुछ लोग मसीह को परमेश्वर के घर का प्रवक्ता या प्रतिनिधि भी समझते हैं। इसलिए कलीसिया में लोग किसके लिए अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, यह अवधारणा अनेक लोगों के लिए बहुत अस्पष्ट है। उदाहरण के लिए, अगर किसी व्यक्ति को भाई-बहनों के लिए कुछ करने या कोई सेवा प्रदान करने के लिए कहा जाता है, तो उन्हें ऐसा करना पूरी तरह उचित लगता है। या अगर उन्हें कलीसिया के लिए या परमेश्वर के घर के लिए कोई कार्य करने के लिए कहा जाता है तो वे इसे अपना निर्विवाद कर्तव्य मानते हुए निभाकर खुश होते हैं। लेकिन अगर देहधारी मसीह एक वैसा ही कार्य उन्हें देता या सौंपता है तो वे निराश महसूस करते हैं : “एक व्यक्ति के लिए कार्य करना होगा? मैं परमेश्वर में विश्वास रखने इसलिए नहीं आया हूँ कि लोगों की सेवा करूँ; मैं अपना कर्तव्य निभाने आया हूँ। मैं यहाँ किसी का अनुचर बनने, किसी की चाकरी करने या सेवा प्रदान करने नहीं आया हूँ!” कलीसिया में बहुत-से लोग अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। अगर तुम उनसे कलीसिया के लिए कुछ करने, परमेश्वर के घर के लिए या भाई-बहनों के लिए कुछ करने के लिए कहते हो तो वे खुशी-खुशी ये कार्य स्वीकार कर लेते हैं, उन्हें लगता है कि ऐसा करने के लिए उनके पास एक ठोस आधार है। कौन सा आधार? “मैं इसे परमेश्वर से स्वीकार करता हूँ; यह मेरा कर्तव्य है, मेरी जिम्मेदारी है।” लेकिन जब देहधारी परमेश्वर उनसे कुछ करने के लिए कहता है तो “इसे परमेश्वर से स्वीकार करने” का उनका सैद्धांतिक आधार छूमंतर हो जाता है और वे यह कार्य करने के लिए अनमने, अप्रसन्न और अनिच्छुक हो जाते हैं। वे सोचते हैं, “यदि यह कलीसिया के लिए है तो ठीक है, क्योंकि मैं कलीसिया के लिए कार्य करने वाला बंदा हूँ; अगर यह भाई-बहनों के लिए है तो भी ठीक है, क्योंकि वे सब परमेश्वर के घर के हैं, परमेश्वर के हैं; अगर यह परमेश्वर के घर के लिए है तो ‘परमेश्वर के घर’ का नाम इतना पवित्र, इतना भव्य और महान है, ऐसे में परमेश्वर के घर के लिए ये चीजें करना पूरी तरह से उचित है; और यह महिमा और पहचान प्रदान करता है। लेकिन तुम्हारे जैसे किसी तुच्छ व्यक्ति के लिए कोई कार्य करना, वह क्या है? क्या वह अपना कर्तव्य निभाना है? यह सही या उचित नहीं लगता। यह अपना कर्तव्य निभाना नहीं है, न ही यह कार्य है। मुझे इसे किस रूप में लेना चाहिए?” वे एक दुविधा का सामना करते हैं, वे इसे संभालने को लेकर अनिश्चित होते हैं। वे विचार करते हैं, “यह कोई कार्य नहीं है, न ही यह अपना कर्तव्य निभाना है, और इससे भाई-बहनों को भी निश्चित रूप से कोई लाभ नहीं हो रहा है। अगर तुम मुझे इसे तुम्हारे लिए करने को कहते हो तो ठीक है, मैं इसे वैसे ही कर तो दूँगा, लेकिन इससे मैं खुश या संतुष्ट नहीं होऊँगा। यह सही या उचित नहीं लगता! कौन याद रखेगा या जानेगा कि मैं तुम्हारे लिए क्या करता हूँ? क्या इसे किसी की प्रशंसा मिल सकती है? क्या इससे मुझे कोई ईनाम मिलेगा? क्या यह मेरा कर्तव्य निर्वहन माना जाएगा? क्या मुझे इसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए?” वे दिल से अनिच्छुक होते हैं, उन्हें लगता है कि यह एक असुविधा है, अनावश्यक कार्य है, मानो एक ऐसा कार्य स्वीकार करना है जिसे उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए। वे असहज महसूस करते हैं और इसे अनिच्छा से करते हैं, सारा समय कुछ लाभ पाने की आशा करते हैं और मुखर रूप से यह कहकर बड़ी अनिच्छा भी दिखाते हैं कि “मैं यह नहीं करना चाहता।” मैं कहता हूँ कि अगर तुम यह कार्य नहीं करना चाहते तो तुम्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं है। मैं अपनी खातिर व्यक्तिगत कार्य करने के लिए किसी को बाध्य नहीं करता। अगर तुम इसे करना चाहते हो तो करो; अगर नहीं करना चाहते तो मैं किसी और को ढूँढ़ लूँगा। जो भी इच्छुक होगा, मैं उसे कह दूँगा। क्या यह सरल-सी बात नहीं है? परमेश्वर के घर में जब इतने सारे लोग अनुसरण कर रहे हैं, तो किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ना आसान है जो सहमत हो और काम करने के लिए तैयार हो जाए। मैं ऐसा व्यक्ति ढूँढ़ सकता हूँ। तुम्हें चुनना अनिवार्य नहीं है; यह बहुत आसान है! क्या परमेश्वर के घर में किसी भरोसेमंद, निष्कपट और कार्यकुशल व्यक्ति को ढूँढ़ना मुश्किल है? (नहीं।) भले ही मैंने निजी तौर पर किसी भी व्यक्ति के साथ खूब घनिष्ठ या अच्छे संबंध विकसित नहीं किए हैं, न ही मेरी किसी से कोई निजी मित्रता या गहरा भावनात्मक जुड़ाव है, फिर भी इन तीस वर्षों में ये सब मेरे वचन ही हैं जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया में हर किसी ने खाए, पिए और गौर से सुने हैं। ये लोग मुझमें विश्वास रखते हैं और मेरा अनुसरण करते हैं, फिर ऐसा चाहे सार रूप में हो या दिल की गहराई से, ऊपरी तौर पर हो या मौखिक रूप से हो। भले ही मैंने सीधे तौर पर किसी को विशेष लाभ नहीं दिए हैं या वादे नहीं किए हैं, न ही मैंने सीधे तौर पर किसी की प्रशंसा की है या उसे आगे बढ़ाया है, फिर भी शुरुआत से अब तक मेरा अनुसरण करने वाले हर व्यक्ति ने परमेश्वर के भरपूर वचन खाए-पिए हैं। मैंने जो कुछ कहा उसके माध्यम से इन लोगों ने चाहे कुछ सत्य समझ लिए हों या आत्म-आचरण के धर्म-सिद्धांत समझ लिए हों, क्या उन सबने कुछ-न-कुछ हासिल नहीं किया है? (हाँ।) इस नजरिये से मुझे तुम लोगों का जरा भी देनदार नहीं होना चाहिए, है ना? मुझे यह बात कहनी तो नहीं चाहिए, लेकिन आज यहाँ मुझे इसका जिक्र करने की जरूरत है। क्या तुम्हीं लोगों को मेरा ऋणी नहीं होना चाहिए? (हाँ।) इसलिए अगर मैं तुममें से किसी से कुछ करने के लिए व्यक्तिगत तौर पर कहता हूँ, तो तुम लोगों को अनिच्छुक नहीं होना चाहिए, है ना? (हम इच्छुक हैं।) मैं चाहे किसी भी नजरिये से जब तुम लोगों से कुछ करने के लिए कहता हूँ, तो क्या मुझे तुम लोगों को मनाना होगा, तुम लोगों की खुशामद करनी होगी, या तुम लोगों से मीठे बोल बोलने होंगे या वादे करने होंगे? (नहीं।) लेकिन कुछ लोग यह कहते हुए अनिच्छुक होते हैं : “तुम्हारे लिए कुछ करना इतना बोझिल क्यों होता है? इससे कोई फायदा तो होता नहीं, उलटे यह थकाऊ और तकलीफदेह भी होता है!” यह सुनकर तुम लोगों को कैसा लगता है? (क्रोध आता है।) अगर दुनिया की नजरों में एक साधारण व्यक्ति के पास ऐसा कोई आला अधिकारी आए जिसने उसे कोई काम सौंपा है तो हो सकता है वह बहुत खुश और सम्मानित महसूस करते हुए हर तरह से उसकी चापलूसी करने की कोशिश करे, और उस छोटे-से काम को जीवन भर न भूले। अगर लोग किसी रुतबे वाले व्यक्ति के साथ इस तरह का व्यवहार कर सकते हैं तो वे मसीह के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते? यह उनकी पहुँच से बाहर क्यों होता है? ऐसा कैसे हो जाता है? (क्योंकि मनुष्य स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होता है।) यह सही है; यह इस बात को सिद्ध ही करता है। लोग ऊँचे दर्जे के शैतान से तो संगत बैठा सकते हैं लेकिन मसीह से वे दिल से घृणा करते हैं, उसका प्रतिरोध करते हैं, उसे खारिज करते हैं, उसे नकारते हैं और उसका परित्याग कर देते हैं। अगर किसी दानव के आगे घुटने टेकने और उसकी आराधना करने के लिए कहा जाए तो लोग खुशी से घुटनों के बल रेंगने लगेंगे, लेकिन जब मसीह की बात आती है, इस साधारण व्यक्ति की बात आती है, जिससे वे इतना ज्यादा पा चुके हैं तो वे परमेश्वर के साथ बराबरी पर खड़े होने, बोलने या बातचीत करने के अनिच्छुक होते हैं। ये कैसे प्राणी हैं? ये मानवीय नहीं, राक्षसी हैं। बाद में मैंने किसी और को यह काम संभालने के लिए कहा और वह व्यक्ति ठीकठाक था। इस बारे में संदेश पहुँचाने वाले व्यक्ति ने कहा : “इस बार काम संभालने वाला व्यक्ति वास्तव में खुश है, वह परमेश्वर के लिए कुछ करने को बहुत इच्छुक है।” मैंने कहा, “ठीक है, अगर वह इच्छुक है तो यह अच्छा है। लेकिन इतना छोटा-सा काम करना कौन-सी बड़ी बात है? यह अपेक्षित है, इसकी घोषणा करने के लिए संदेश भेजने की जरूरत नहीं है।” यह जो संदेश दिया गया, उसके बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? इसे सुनकर तुम्हें कैसा लगता है? क्या यह तुम लोगों को उत्साहहीन लगा? (हाँ, लगा।) यह तुम्हें उत्साहहीन क्यों कर देता है? (यह कुछ ऐसा है जो लोगों को करना चाहिए, लेकिन वे परमेश्वर के सामने कृपापात्र बनने की कोशिश कर रहे हैं, मानो परमेश्वर के लिए कुछ करके वे उस पर बहुत बड़ा उपकार कर रहे हों।) तो जिसने यह कहा वह कैसा इंसान है? ऐसे लोगों का चरित्र कैसा है? (वे नीच चरित्र के हैं, विवेकहीन हैं।) यह मानवता की कमी है।

परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष, मनुष्य को परमेश्वर द्वारा पोषण दिए जाने के बारे में सुनते ही कुछ लोगों के हृदय बहुत द्रवित हो जाते हैं और वे निरंतर परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं : “परमेश्वर मनुष्य से बहुत प्रेम करता है!” वे बहुत ज्यादा जोश में जाते हैं! जब कभी इन विषयों का जिक्र छिड़ता है, इन लोगों की आँखें डबडबा जाती हैं, इनके हृदय द्रवित हो जाते हैं और वे खुद को पूरी लगन से परमेश्वर के लिए खपाने का संकल्प लेते हैं। लेकिन जब उनसे इस साक्षात और मूर्त देहधारी परमेश्वर के लिए कुछ करने को कहा जाता है, तो वे बेहद अपमानित, विमुख और अनिच्छुक महसूस करते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? (वे एक अज्ञात परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, देहधारी परमेश्वर में नहीं। वे स्वर्ग के अज्ञात परमेश्वर को भव्य मानते हैं लेकिन देहधारी परमेश्वर को तुच्छ मानते हैं।) मैंने सुना है कि कुछ लोग भाई-बहनों के जूते साफ करने, मोजे और कपड़े-लत्ते धोने कि लिए कुछ ज्यादा ही तत्पर रहते हैं, लेकिन जब उनसे मसीह के लिए थोड़ा-सा भी कुछ करने को कहा जाता है तो वे इच्छुक नहीं होते हैं। दूसरे लोग यह देखकर सह नहीं सकते और वे कहते हैं, “इस इंसान को क्या परेशानी है? यह मसीह के बजाय भाई-बहनों के लिए काम करना पसंद करता है। यह कैसा इंसान है?” कुछ लोगों को जब मैं कोई कार्य सौंपता हूँ और उन्हें परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और कलीसिया के विनियमों के अनुसार कार्य करने को कहता हूँ तो वे इसे सुनने के बाद गंभीरता से नहीं लेते हैं। वे कहते हैं : “तुम किस काम के बारे में बात कर रहे हो? मुझे भाई-बहनों से पूछना होगा; मुझे भाई-बहनों का ख्याल रखना है, ताकि उनमें से अधिकतर को फायदा हो सके।” उदाहरण के लिए, मैंने कुछ लोगों को फलदार पौधे लगाने की जिम्मेदारी सौंपकर उन्हें यह निर्देश भी दिया कि वे बाजार जाकर पता लगाएँ कि इस इलाके में किस प्रकार के फलदार पौधे खेती के लिए उपयुक्त हैं। एक लिहाज से उन्हें स्थानीय जलवायु और मिट्टी के लिए अनुकूल होना चाहिए, तो दूसरे लिहाज से हमें यह देखना चाहिए कि स्थानीय लोग किन फलों को उच्च पोषण वाला मानते हैं और हमें उन्हें ही उचित मात्रा में रोपने के लिए चुनना चाहिए। मेरी बात पूरी होने पर सुनने वालों को कैसा कार्य करना चाहिए? (तुमने जो कहा उसे तुरंत क्रियान्वित करना चाहिए।) उन्हें इसे कैसे क्रियान्वित करना चाहिए? (उन्हें संगत जानकारी खोजनी चाहिए, जानकार लोगों से पूछना चाहिए, कुछ ब्योरों के बारे में जानना चाहिए और फिर इसे क्रियान्वित करना चाहिए।) स्थानीय जलवायु को ध्यान में रखना और यह भी जाँचना कि कौन-से फल पौष्टिक हैं, इस तरह क्रियान्वित करना ही मेरे निर्देशों का पालन करना है। तो क्या तुम लोग मानते हो कि मेरे विचार समग्र और व्यावहारिक थे? लेकिन मेरे वचन सुनने वालों ने उन्हें कैसे क्रियान्वित किया? उन्होंने स्थानीय कलीसिया के सभी भाई-बहनों की राय माँगी, हर एक से पूछा कि उसे कौन-सा फल खाना पसंद है और फिर मात्रा और अनुपात के अनुसार रोपण के लिए सबके पसंदीदा फलों की गणना की। इस तरह से उन्होंने इसे क्रियान्वित किया। उन्होंने अपने दिल में इस समूह को, इस पदवी को सर्वोच्च मानकर भाई-बहनों की राय ली। भाई-बहनों की सेवा उनके कर्तव्य का प्रयोजन और लक्ष्य है। वे मानते हैं कि भाई-बहनों की सेवा करना परमेश्वर के घर की सेवा करना है, और परमेश्वर के घर की सेवा करना भाई-बहनों की सेवा करना है। अगर भाई-बहन खुश और संतुष्ट हैं तो परमेश्वर भी खुश और संतुष्ट है। भाई-बहन परमेश्वर के पूर्ण प्रतिनिधि हैं, सत्य के प्रतीक और परमेश्वर के प्रवक्ता हैं। भाई-बहनों का निर्णय अंतिम होता है; वे परमेश्वर के घर का मुख्य आधार हैं। इसलिए चाहे कुछ भी किया जाए, उसे भाई-बहनों की पदवी और समूह से अलग नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर के घर में कार्य करने वाले या अपना कर्तव्य निभाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए भाई-बहन ही उनकी सेवा का उचित लक्ष्य हैं। उन्होंने इसी तरह इसे क्रियान्वित किया; मैंने जो कहा उसका कोई मायने नहीं था। मेरे निर्देश चाहे कितने ही विस्तृत थे, उनके लिए तो ये केवल खोखले धर्म-सिद्धांत, नारे मात्र थे। वे मानते थे कि भाई-बहनों को पूरी तरह से अपनी राय व्यक्त करने देना, उन्हें पर्याप्त बोलने और निर्णय लेने का अधिकार देना और परमेश्वर के घर में लोकतंत्र का अभ्यास करना ही सर्वोच्च सत्य है। मैंने चाहे जो भी कहा हो उन्होंने तो उसे इसी नजरिये से लिया : “तुम केवल अंधेरे में तीर चला रहे हो, औपचारिकताएँ निभा रहे हो, और फिर अब यह भाई-बहनों का मामला है, तुम्हारा नहीं। तुम एक तरफ खड़े रह सकते हो! हम क्या खाते-पीते हैं, इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है; तुम तो बस पैसा देने से मतलब रखो और बस इतना ही। हमारे पास खाना-पीना है और यही सर्वोच्च सत्य है। परमेश्वर के घर की सेवा करना, भाई-बहनों की सेवा करना, उन्हें खुश करना, उन्हें पूर्ण मानव अधिकारों और स्वतंत्रता का आनंद लेने देना, यही सर्वोच्च सत्य है।” ये किस तरह के लोग हैं? क्या यही काम मसीह-विरोधी नहीं करेंगे? मसीह-विरोधियों के सत्य से विमुख होने की पहली अभिव्यक्ति यह है कि वे सत्य की निंदा करते हैं और इसे नकारते हैं; फिर वे सिद्धांतों और नारों का एक वैकल्पिक समूह ढूँढ़ते हैं जिनके बारे में उनका मानना है कि वे व्यवहार्य और लागू करने योग्य हैं, वे खुलेआम सत्य का उल्लंघन करते हैं, खुलेआम मसीह की निंदा कर उसे अस्वीकार करते हैं। इतनी छोटी-सी बात में ही मसीह-विरोधियों का खुलासा हो जाता है। क्या ये सत्य को स्वीकार करने वाले लोग हैं? (नहीं।)

मैं कुछ लोगों को अक्सर यह कहते सुनता हूँ, “अरे देखो, भाई-बहन कितने परेशान हैं”; या “अरे देखो, भाई-बहन कितने खुश हैं”; या “अरे देखो, भाई-बहन कितने बीमार हैं; वे वास्तव में कष्ट भोग रहे हैं।” उनके दिलों में भाई-बहनों का इतना ऊँचा स्थान क्यों है? वे भाई-बहनों से इतना प्रेम क्यों करते हैं? इतने सारे लोगों से प्रेम करने के लिए वे कितने बड़े दिल वाले होंगे? तो ठीक है; मैं कुछ कहूँगा, और जैसा मैं कहूँ तुम वैसा ही करना, ठीक है? तुम इतने सारे लोगों के साथ तालमेल बैठा लेते हो तो मुझ जैसे सिर्फ एक और व्यक्ति को साथ लेने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, है ना? तुम्हें मेरे साथ भी तालमेल बैठाने में सक्षम होना चाहिए? इसके विपरीत, मैं जो कहता हूँ वे उसके साथ तालमेल नहीं बैठा पाते, न ही वे मेरे साथ तालमेल बैठा पाते हैं। वे सभी भाई-बहनों के साथ तालमेल बैठा सकते हैं, वे कलीसिया में सबके साथ तालमेल बैठा सकते हैं, लेकिन वे बस मसीह के साथ तालमेल नहीं बैठा सकते। ये कैसे प्राणी हैं? क्या ये इंसान हैं? क्या ऐसा कोई व्यक्ति मसीह का अनुयायी होने योग्य है? (नहीं।) तो फिर हमें ऐसे लोगों को कैसे परिभाषित करना चाहिए? (दानव, मसीह-विरोधी के रूप में।) क्या वे परमेश्वर के घर में लोकतांत्रिक चुनावों के विचार का गलत अर्थ नहीं निकाल रहे हैं? परमेश्वर के घर के मामलों में भाई-बहनों को शामिल करना, उन्हें अपनी राय व्यक्त करने देना, उन्हें अगुआओं को चुनने और बदलने देना और उन्हें निर्णय लेने देना—क्या उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में भाई-बहन सर्वोच्च हैं? क्या यह परमेश्वर के घर में लोकतांत्रिक चुनावों की गलत समझ नहीं है? लोकतांत्रिक चुनावों का सिद्धांत क्या है? क्या भाई-बहनों को लोकतांत्रिक तरीके से मतदान करने की अनुमति देने का मतलब यह है कि अंतिम निर्णय उन्हीं का है? क्या इसका यह मतलब है कि अंतिम निर्णय लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को लेने दिया जाए? क्या इसका मतलब दानवों और शैतानों को सत्ता सौंप देना है? नहीं, इसका मतलब है भाई-बहनों के दिलों में समझे गए सत्य को शक्तिशाली होने देना, न कि खुद भाई-बहनों को, इन स्वाभाविक और भ्रष्ट मनुष्यों को शक्तिशाली होने देना। यह उतावलेपन को शक्तिशाली नहीं होने देना है, मानवीय धारणाओं को शक्तिशाली नहीं होने देना है, मानवीय विद्रोह और प्रतिरोध को शक्तिशाली नहीं होने देना है और लोगों के दुष्ट स्वभावों को शक्तिशाली नहीं होने देना है—यह सत्य को शक्तिशाली होने देना है। कुछ लोग पूछते हैं, “कलीसिया के कुछ चुनावों में आखिरकार मसीह-विरोधियों को क्यों चुन लिया जाता है या कलीसिया के अगुआ और कार्यकर्ता गलत निर्णय क्यों लेते हैं?” ऐसा इसलिए है कि लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है; वे सत्य को नहीं समझते और लोगों की असलियत नहीं पहचान सकते हैं। लेकिन कलीसियाई चुनावों का सिद्धांत सत्य सिद्धांतों पर आधारित है; इसकी बुनियाद सत्य पर टिकी है। तो ये मसीह-विरोधी—जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं है—वे गलती से क्या विश्वास करते हैं? वे सोचते हैं कि परमेश्वर के घर में भाई-बहनों को महान मानकर सम्मानित किया जाता है, कि भाई-बहनों को ऊँचा माना जाता है, कि भाई-बहनों की पदवी और समूह को परमेश्वर की दृष्टि में सम्माननीय माना जाता है। लेकिन वास्तव में क्या भाई-बहन सम्माननीय हैं? क्या उनके पास सत्य है? अधिकतर भाई-बहनों के पास सत्य वास्तविकता नहीं होती है, उनके क्रियाकलापों में सिद्धांत नहीं होते और वे परमेश्वर के घर की विभिन्न कार्य परियोजनाओं में अराजकता भी पैदा कर सकते हैं। अगर ऊपरवाला हस्तक्षेप न करे, समय पर सुधार न करे और समस्याओं का समाधान न करे, तो क्या ये भाई-बहन अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकते हैं? वे न केवल अपने कर्तव्य अच्छी तरह नहीं निभा सकते, बल्कि वे कई गड़बड़ियाँ और बाधाएँ भी पैदा कर सकते हैं। क्या इन लोगों के पास सत्य है? क्या वे महान माने जाने योग्य हैं? वे नहीं हैं। तो फिर मसीह-विरोधी अभी भी इस तरह क्यों कार्य करते हैं? यह उनकी जन्मजात प्रकृति है, वे सत्य को नकारने और मसीह की निंदा करने का बहाना ढूँढ़ते हैं—क्या यह उनकी जन्मजात प्रकृति नहीं है? उनकी प्रकृति शैतान की है; वे बेलगाम होकर इससे प्रेरित होते हैं।

आज की संगति मुख्य रूप से इस बात पर केंद्रित है कि मसीह के साथ मसीह-विरोधियों का व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है। हम जो संगति कर रहे हैं उसका हर पहलू मसीह-विरोधियों की मनःस्थिति से संबंधित है। ऊपरी तौर पर ऐसा ही प्रतीत होता है लेकिन वास्तव में यह मनःस्थिति उत्पन्न कैसे होती है? यह मसीह-विरोधियों के भ्रष्ट स्वभाव और सार से निर्धारित होता है। मसीह-विरोधी वाला सार होने के कारण उनमें तमाम तरह के विचार पैदा होते हैं, और इन तमाम विचारों के अधीन होकर वे विभिन धारणाएँ, दृष्टिकोण, परिप्रेक्ष्य और रुख उत्पन्न करते हैं जिसके फलस्वरूप विभिन्न मनःस्थितियाँ पैदा होती हैं। इन मनःस्थितियों के उपजने पर मसीह-विरोधी स्वर्ग के परमेश्वर और पृथ्वी के परमेश्वर—मसीह—के साथ विभिन्न तौर-तरीकों और रवैयों के साथ पेश आते हैं। ये तौर-तरीके और रवैये मसीह-विरोधियों के सार को सत्य विमुख, सत्य के प्रति शत्रुतापूर्ण, मसीह को नकारने और मसीह की निंदा करने वाला साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। जब भी उनका सामना सत्य और देहधारी परमेश्वर के सार और पहचान से जुड़े मामलों से होता है तो वे जान-बूझकर परमेश्वर के विरोध में खड़े होकर परमेश्वर के शत्रुओं की भूमिका निभाते हैं। जब कुछ गलत नहीं हो रहा होता है तो वे परमेश्वर का नाम पुकारते रहते हैं, यहाँ तक कि बोलचाल में लगातार “परमेश्वर, मेरे परमेश्वर” कहा करते हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह इसी संबोधन से शुरू होना होता है, “परमेश्वर, देखो,” “परमेश्वर, क्या तुम जानते हो,” “परमेश्वर, मेरी बात सुनो,” “परमेश्वर, मुझे एक मामले में खोजना है,” “परमेश्वर, यह स्थिति है,” इत्यादि। अपने हृदय में “परमेश्वर” को पुकारते समय वे मसीह के प्रति धारणाओं, शत्रुता और अवमानना से भरे होते हैं। जब कलीसिया, परमेश्वर का घर और मसीह विभिन्न परिवेशों और परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो मसीह और परमेश्वर के प्रति मसीह-विरोधियों का रवैया बार-बार बदलकर विभिन्न परिवर्तनों से गुजरता है। जब मसीह उनसे माँग करता है और उन्हें दयालुता और गर्मजोशी दिखाता है, तो उनका रवैया काफी सौम्य और नम्र लगता है; जब मसीह उनके प्रति कठोर होता है, उनकी काट-छाँट करता है तो मसीह के प्रति उनका रवैया अरुचि, घृणा और अवमानना, यहाँ तक कि उससे बचने और उसे अस्वीकार करने वाला हो जाता है। जब मसीह स्पष्ट रूप से उन्हें पुरस्कार और आशीष देने का वादा करता है, तो वे मन ही मन चोरी-छिपे खुशी मनाते हैं, यहाँ तक कि ये लाभ पाने के लिए अपनी गरिमा और सत्यनिष्ठा त्यागने का संकोच न कर उसकी वाहवाही, खुशामद और चापलूसी करते हैं। लेकिन उनका रवैया कैसा भी हो, उनमें कभी भी मसीह के प्रति सच्ची स्वीकृति और आस्था नहीं होती है, और वे वास्तव में उसके प्रति समर्पण तो बिल्कुल भी नहीं करते हैं। मसीह के प्रति उनका रवैया हमेशा टालने, निंदा करने और सतर्कतायुक्त संकोच का होता है, वे उसे अपने दिल की गहराई से खारिज करते हैं। वे चाहे जहाँ हों या उनकी मनःस्थिति चाहे जैसी हो, उनका सार अपरिवर्तित रहता है। भले ही उनमें कभी-कभार कुछ अप्रत्याशित बदलाव या स्वभाव दिखते हों लेकिन ये अस्थायी होते हैं। इसका कारण यह है कि मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार मसीह के प्रति शत्रुतापूर्ण होता है, इसलिए वे इस साधारण व्यक्ति को कभी भी ईमानदारी से अपना प्रभु, अपना परमेश्वर नहीं मानेंगे।

मसीह के साथ मसीह-विरोधियों का व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है, इस मद के विभिन्न पहलुओं पर वास्तव में संगति की जा चुकी है। जैसा कि मैंने तुम लोगों से पहले पूछा था, समाधान करने योग्य आखिरी मसला यह है कि इन मामलों को उजागर करने का क्या महत्व है और वह कौन-सा सत्य है जो लोगों को समझना चाहिए। इन मामलों को उजागर करने का महत्व केवल दो पहलुओं से बताया जा सकता है। एक पहलू यह उजागर करता है कि परमेश्वर के प्रति लोगों के सच्चे रवैयों का सार वास्तव में क्या है, जिससे लोग मानवजाति की भ्रष्टता की विभिन्न अभिव्यक्तियों को पहचान सकते हैं। यह खुद को जानने और लोगों के भ्रष्ट स्वभावों को जानने के लिए फायदेमंद है। दूसरा पहलू यह है कि यह लोगों को जानने देता है कि परमेश्वर के प्रति सही रवैया वास्तव में क्या होना चाहिए। तुम यह सोच सकते हो कि परमेश्वर के साथ तुम जैसा व्यवहार करते हो, वह पहले ही उसे परमेश्वर मानने वाला है, लेकिन दरअसल इसमें बहुत अशुद्धता है, शैतान से संबंधित कई तत्व हैं—ये मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ हैं, जिन्हें परमेश्वर अनुमोदन या स्वीकृति नहीं देता है। यह एक अशुद्धि है जिसे शुद्ध करने की आवश्यकता है। यहाँ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही महत्व हैं : नकारात्मक नजरिए से कम-से-कम यह तुम्हें यह जानने देता है कि ये चीजें प्रतिकूल हैं, ये एक मसीह-विरोधी की अभिव्यक्तियाँ हैं। सकारात्मक पहलू यह है कि यह तुम्हें यह जानने देता है कि परमेश्वर इन चीजों को पसंद नहीं करता, वह अपने साथ तुम्हारा इस तरह का व्यवहार स्वीकार नहीं करता है। मतलब यह है कि, लोग परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार को चाहे कितना भी सही, कितना भी अच्छा, कितना भी तार्किक या मानवीय भावनाओं के अनुरूप क्यों न मानते हों, परमेश्वर इससे सहमत नहीं होता है। अगर परमेश्वर इससे सहमत नहीं होता है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? अगर तुम यह कहते हो कि “मैं इसे इस तरह से करूँगा, मुझे विश्वास है कि यह अच्छा है और मैं इसी पर कायम रहूँगा; चाहे तुम इससे सहमत हो या नहीं, मैं बस ईमानदार रहूँगा,” तो क्या यह ठीक है? (नहीं।) हम इस बात पर चर्चा नहीं करेंगे कि दूसरे मामलों की तुलना में यह रवैया सही है या नहीं; परमेश्वर के साथ व्यवहार करते समय इस तरह से व्यवहार करना बहुत खतरनाक है और तुम्हें अपना रास्ता पलट लेना चाहिए। जिन चीजों को परमेश्वर स्वीकार नहीं कर सकता, उनके प्रति लोगों का रवैया क्या होना चाहिए? लोगों का एकमात्र रवैया यह होना चाहिए कि वे परमेश्वर से आने वाली हर चीज को स्वीकार करें; चाहे उन्हें यह अच्छी लगे या खराब, चाहे यह सुखद लगे या कठोर और अप्रिय, उन्हें बिना शर्त स्वीकार करना चाहिए और समर्पण करना चाहिए, इसे सत्य मानकर खुद को बदलना और शुद्ध करना चाहिए। इन मामलों को उजागर करने का क्या महत्व है? क्या इसका समाधान नकारात्मक और सक्रिय दोनों पहलुओं से, सकारात्मक और विपरीत दोनों दृष्टिकोणों से नहीं कर लिया गया है? तो फिर वह कौन-सा सत्य है जो लोगों को समझना चाहिए? (परमेश्वर सत्य है, परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। चाहे वह देहधारण करता हो या किसी अन्य रूप में प्रकट होता हो, वह जो वचन बोलता है वे सत्य हैं, और हमें बिना शर्त समर्पण और स्वीकार करना चाहिए।) क्या हर कोई इस कथन पर आमीन कह सकता है? (आमीन।) मैं भी उस पर आमीन कहता हूँ; बिना शर्त स्वीकार और समर्पण करना, यही सत्य है। परमेश्वर लोगों के बीच चाहे किसी रूप में या किसी तरीके से प्रकट हो और रहे, परमेश्वर चाहे किसी रूप में विद्यमान हो, परमेश्वर सदैव परमेश्वर है। यही सत्य है और यही वह सत्य है जिसे लोगों को सबसे अधिक समझना चाहिए। दूसरी बात, परमेश्वर के प्रति एक सृजित प्राणी का रवैया बिना शर्त समर्पण वाला होना चाहिए। इसके अलावा लोग एक और बिंदु को नहीं समझते हैं : लोग परमेश्वर का अनुसरण क्यों करते हैं? क्या यह ऊब दूर करने के लिए है? क्या यह उनके दिमाग को व्यस्त रखने और उनके आध्यात्मिक खालीपन का समाधान करने के लिए है? क्या यह उनके भविष्य की नियति का समाधान करने के लिए है? क्या यह स्वच्छ बनाने के लिए है या सत्य के विश्वविद्यालय में जाने के लिए है? परमेश्वर का अनुसरण करके लोग क्या हल करना चाहते हैं? लोगों का यह जानना आवश्यक है। (वे अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना चाहते हैं।) सही है। लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव के समाधान के लिए परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। क्या लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान स्वयं कर सकते हैं? क्या शोहरत, ज्ञान और शिक्षा वाले लोग इसका समाधान कर सकते हैं? क्या मानवजाति में ऐसा कोई है जो इस समस्या का समाधान कर सकता है? (कोई भी इसका समाधान नहीं कर सकता।) परमेश्वर आज इस समस्या का समाधान करने आया है; केवल देहधारी परमेश्वर, केवल स्वयं परमेश्वर ही इसका समाधान कर सकता है। मनुष्य के समान प्रतीत होने वाला देहधारी मसीह इस समस्या का समाधान कैसे कर सकता है? मनुष्यजाति के पास भाषा, विचार और अवधारणाएँ हैं, तो वह इसका समाधान क्यों नहीं कर सकती है? अंतर कहाँ है? (परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन है; मनुष्यों के पास सत्य नहीं है।) परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन है। केवल इस तथ्य को स्वीकार करने और उस संपूर्ण देह को स्वीकार करने से जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान किया जा सकता है। इसका आशय यह है कि लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आते हैं, जिसका अर्थ है सत्य प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के पास आना। सत्य प्राप्त करके ही लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान किया जा सकता है। सत्य प्राप्त किए बिना तुम उन्हें कैसे हल कर लोगे? क्या धर्म-सिद्धांत भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर सकते हैं? क्या ज्ञान कर सकता है? क्या धारणाएँ और कल्पनाएँ कर सकती हैं? ये नहीं कर सकते। केवल व्यावहारिक देहधारी परमेश्वर ही इसे सुलझाने में तुम्हारी मदद कर सकता है। इसलिए किसी प्रसिद्ध हस्ती, महान व्यक्ति या ऋषि की आराधना करना व्यर्थ है; वे तुम्हारी वास्तविक कठिनाइयों का समाधान नहीं कर सकते या तुम्हें बचा नहीं सकते। यही नहीं, किसी भी विषय, पेशे या ज्ञान के निकाय को सीखने से तुम्हारी असली कठिनाइयों या वास्तविक मुद्दों का समाधान नहीं हो सकता है। अगर तुम कहते हो कि “मैं इस साधारण व्यक्ति को बिल्कुल हेय दृष्टि से देखता हूँ,” तो तुम्हारे दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है। तथ्य तो यथावत है; परमेश्वर ने इसी प्रकार कार्य किया है। अगर तुम परमेश्वर को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के कहे हर वाक्य और उसके हर कार्य को स्वीकार करना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर को सत्य के रूप में स्वीकार करते हो, तो तुम्हें इस तथ्य की स्पष्टता और पूर्णता को मानना और स्वीकारना चाहिए कि परमेश्वर चाहे किसी भी तरीके से या रूप में मौजूद हो या प्रकट हो, वह हमेशा सत्य है। इस तथ्य को स्वीकारने के बाद तुम्हें इस साधारण व्यक्ति से, उस देह से जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, किस रवैये के साथ व्यवहार करना चाहिए? खोजने योग्य सत्य इसी में निहित है।

मसीह के साथ मसीह-विरोधियों का व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है, इस मद की अभिव्यक्तियों को उजागर करते हुए, वह अंतर्निहित सत्य क्या है जिसे लोगों को समझना चाहिए? कुछ मदों को संक्षेप में बताओ ताकि वे स्पष्ट हो जाएँ और तुम इस सत्य को समझ लो और इसके बारे में स्पष्ट हो लो। (हमने चार मदों को संक्षेप में प्रस्तुत किया है : पहला यह कि परमेश्वर हमेशा परमेश्वर है और यह सत्य है। दूसरा यह है कि परमेश्वर के प्रति एक सृजित प्राणी का रवैया बिना शर्त समर्पण वाला होना चाहिए। तीसरा यह है कि परमेश्वर ही सत्य, मार्ग और जीवन है और केवल इस तथ्य को स्वीकार करने और उन सभी देहों को स्वीकार करने से जिनमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो सकता है। चौथा यह है कि अगर लोग परमेश्वर को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं, तो उन्हें इस तथ्य की स्पष्टता को मानना और स्वीकार करना चाहिए कि परमेश्वर चाहे किसी तरीके या रूप में मौजूद या प्रकट हो, वह हमेशा सत्य है।) क्या ये चार मदें महत्वपूर्ण हैं? (हाँ।) दरअसल हर कोई इन मदों को धर्म-सिद्धांत के संदर्भ में जानता है, लेकिन जब यह बात आती है कि मसीह के साथ व्यवहार के मामले में कौन-से सत्य सिद्धांत शामिल होते हैं तो वास्तविक स्थितियों का सामना करने पर लोग भ्रमित हो जाते हैं। वे नहीं जानते कि उनका अभ्यास कैसे किया जाए, और वे पहले जिन सत्यों को समझते थे वे मात्र धर्म-सिद्धांत बन जाते हैं जिन्हें लागू नहीं किया जा सकता है। यह पर्याप्त रूप से दर्शाता है कि लोग चाहे जितने धर्म-सिद्धांत समझते हों, ये बेकार हैं; सत्य को समझे बिना उनकी समस्याओं का समाधान अभी भी नहीं किया जा सकता है।

20 जून 2020

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