प्रकरण पाँच : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग दो)

II. चरित्र और स्वभाव सार के बीच अंतर

पिछली बार हमने मसीह-विरोधियों के चरित्र का सारांश प्रस्तुत किया था। क्या तुम लोग बता सकते हो कि इसमें क्या-क्या शामिल है? (पहली मद है आदतन झूठे होना, दूसरी है कपटी और निर्दयी होना, तीसरी है गौरव की भावना से रहित और शर्म से बेपरवाह होना, चौथी है स्वार्थी और नीच होना, पाँचवीं है ताकतवरों से चिपकना और कमजोरों को दबाना, और छठी है सामान्य लोगों से ज्यादा भौतिक चीजों का अभिलाषी होना।) ये कुल छह मदें हैं। इन छह मदों को देखें तो, मसीह-विरोधियों के चरित्र में मानवता, जमीर और विवेक नहीं होता। उनमें निष्ठा कम होती है और उनका चरित्र घटिया होता है। मान लो, तुम किसी व्यक्ति के स्वभाव को नहीं जानते या उसकी थाह नहीं ले पाते या यह नहीं जानते कि वह अच्छा है या बुरा, लेकिन उदाहरण के लिए, उसके चरित्र के बारे में जानकर तुम पाते हो कि उसका चरित्र घटिया है, जैसे कि आदतन झूठ बोलना, गौरव की भावना न होना या कपटी और निर्दयी होना। तब तुम उसे प्रारंभिक रूप से किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित कर सकते हो जिसके पास जमीर, दयालु हृदय या नेक चरित्र नहीं है, बल्कि जिसके पास खराब, अत्यंत कमजोर और बुरी मानवता है। अगर ऐसे लोगों के पास हैसियत न हो, तो उन्हें अस्थायी तौर पर बुरे लोगों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है; उनके चरित्र से आँकें तो, क्या उन्हें पूरी तरह से और सर्वथा मसीह-विरोधियों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है? अगर हम केवल उनकी मानवता की इन अभिव्यक्तियों पर विचार करें, तो ऐसे लोगों को 80% निश्चितता के साथ मसीह-विरोधियों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। उनमें न सिर्फ मसीह-विरोधियों का स्वभाव होता है, और बस इतना ही नहीं है कि उनकी मानवता बुरी, खराब और कमजोर होती है, इसलिए हम उन्हें प्राथमिक रूप से मसीह-विरोधियों के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। क्योंकि मसीह-विरोधी के रूप में परिभाषित किसी भी व्यक्ति के पास अच्छी मानवता, ईमानदारी, दयालुता, सादगी, सच्चाई, दूसरों के प्रति नेकनीयती या गौरव की भावना नहीं होती; कोई भी व्यक्ति जिसमें चरित्र के ये पहलू होते हैं, मसीह-विरोधी नहीं होता। मसीह-विरोधियों की मानवता सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण रूप से काफी खराब होती है। उनमें जमीर और विवेक की कमी होती है और निश्चित रूप से उनमें वह चरित्र नहीं होता जो मानवता और नेक निष्ठा वाले लोगों में होता है। इसलिए मसीह-विरोधियों के चरित्र से आँकें तो, अगर उनके पास कोई हैसियत नहीं होती और वे सिर्फ एक साधारण अनुयायी या अपना कर्तव्य निभाने वाले, समूह के सामान्य सदस्य होते हैं, लेकिन अगर उनका चरित्र काफी खराब है और उनमें मसीह-विरोधी के चरित्र के वे लक्षण हैं, तो हम इन लोगों को प्राथमिक रूप से मसीह-विरोधियों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। उन लोगों के बारे में क्या किया जाना चाहिए, जिनकी असलियत नहीं जानी जा सकती? उन्हें पदोन्नत नहीं किया जाना चाहिए या हैसियत नहीं दी जानी चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर हम उन्हें हैसियत दे दें, तो क्या इससे यह निर्धारित नहीं हो जाएगा कि वे मसीह-विरोधी हैं या नहीं?” क्या यह कथन सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) अगर हम ऐसे लोगों को हैसियत दे दें, तो वे मसीह-विरोधियों द्वारा की जाने वाली हरकतें करेंगे और हर वो काम करेंगे जो मसीह-विरोधी करते हैं। पहले वे स्वतंत्र राज्य स्थापित करेंगे और इसके अलावा, वे लोगों को नियंत्रित करेंगे। क्या ऐसा व्यक्ति ऐसे काम करेगा जो परमेश्वर के घर को लाभ पहुँचाते हैं? (नहीं, वह ऐसे काम नहीं करेगा।) जब ऐसे लोग हैसियत प्राप्त कर लेते हैं, तो वे स्वतंत्र राज्य स्थापित कर सकते हैं, अनियंत्रित ढंग से कार्य कर सकते हैं, गड़बड़ी और व्यवधान पैदा कर सकते हैं, गुट बना सकते हैं और बुरे लोगों के सभी कर्म कर सकते हैं। यह लोमड़ी को अंगूर के बाग में जाने देने, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को बुरे लोगों के हाथों में सौंपने और उन्हें राक्षसों और शैतानों के हवाले करने जैसा है। जब ये लोग सत्ता सँभाल लेते हैं, तो यह तय है कि वे निस्संदेह मसीह-विरोधी होते हैं। अगर कोई व्यक्ति सिर्फ उसके चरित्र के आधार पर यह निर्धारित करता है कि वह मसीह-विरोधी है या नहीं, तो कई लोगों के लिए, जो वास्तविक तथ्यों से अनजान होते हैं और मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार को नहीं समझते या नहीं पहचान पाते, उन्हें यह थोड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है। वे सोच सकते हैं, “सिर्फ इसी आधार पर किसी को पूरी तरह से खारिज या उसकी निंदा क्यों की जाए? उसके कुछ करने से पहले ही उस पर मसीह-विरोधी होने का ठप्पा लगाना अनुचित लगता है।” लेकिन मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार से आँकें तो, उनमें अच्छी मानवता की निश्चित रूप से कमी होती है। पहली बात तो यह कि वे निश्चित रूप से सत्य का अनुसरण करने वाले नहीं होते; दूसरे, वे सत्य से निश्चित रूप से प्रेम नहीं करते; इतना ही नहीं, वे ऐसे लोग बिल्कुल नहीं होते जो परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित होते हैं, परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं। जिन लोगों में ऐसे गुण नहीं होते, उनके मामले में यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उनका चरित्र महान है या नीच, अच्छा है या बुरा।

पिछली सभा में हमने मसीह-विरोधियों के चरित्र के माध्यम से अभिव्यक्त होने वाले विभिन्न व्यवहारों, बोलने और मामले सँभालने के तरीकों आदि पर संगति की थी। अगर हम किसी व्यक्ति के चरित्र के आधार पर पूरी तरह से यह निर्धारित न कर सकें कि वह मसीह-विरोधी है या नहीं, तो फिर हमारे लिए मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार पर आगे और संगति करना आवश्यक है। एक ओर मसीह-विरोधियों के चरित्र की और दूसरी ओर उनके स्वभाव-सार की जाँच-पड़ताल और पहचान करके और इन दोनों को जोड़कर हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि क्या किसी व्यक्ति में सिर्फ मसीह-विरोधी का स्वभाव है या वह वास्तव में मसीह-विरोधी है। आज आओ इस बात का सारांश निकालते हैं कि मसीह-विरोधियों में क्या स्वभाव-सार होते हैं। यह एक ज्यादा महत्वपूर्ण विशेषता है, जिससे हम बेहतर ढंग से यह पहचान पाएँगे, जान पाएँगे या परिभाषित कर पाएँगे कि कोई व्यक्ति मसीह-विरोधी है या नहीं।

स्वभाव के बारे में हमने पहले इसका एक ठोस सारांश बनाया था—लोगों के भ्रष्ट स्वभाव क्या हैं? (कट्टरता, अहंकार, छल, सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता।) वे कमोबेश ये छह ही हैं और स्वभावों की अन्य व्याख्याएँ, जैसे स्वार्थ और नीचता कुछ हद तक इन छह में से एक से संबंधित या उसके समान ही हैं। मुझे बताओ, क्या किसी के चरित्र और उसके स्वभाव-सार के बीच कोई अंतर है? क्या अंतर है? चरित्र मुख्य रूप से जमीर और विवेक से मापा जाता है। इसमें यह शामिल है कि क्या किसी व्यक्ति में निष्ठा है, क्या उसकी निष्ठा नेक है, क्या उसमें गरिमा है, क्या उसमें इंसानी नैतिकता है, उसकी नैतिकता का स्तर, क्या उसमें अपने आचरण का कोई आधार और सिद्धांत है, उसकी मानवता अच्छी है या बुरी, और क्या वह सरल और ईमानदार है—ये पहलू मानव-चरित्र से संबंधित हैं। अनिवार्य रूप से, चरित्र अच्छे और बुरे के प्रति, सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के प्रति और सही और गलत के प्रति उन विकल्पों और झुकावों से बना होता है जिन्हें लोग अपने दैनिक जीवन में अभिव्यक्त करते हैं—यही है जिससे उसका संबंध है। इसमें मूलतः सत्य शामिल नहीं होता; इसे सिर्फ जमीर के मानक के साथ-साथ अच्छी और बुरी मानवता का उपयोग करके मापा जाता है और यह सत्य के स्तर तक नहीं पहुँचता। अगर इसमें स्वभाव शामिल है, तो इसे व्यक्ति के सार का उपयोग करके मापा जाना चाहिए। वह अच्छाई पसंद करता है या बुराई, और जब न्याय और दुष्टता के साथ-साथ सकारात्मक और नकारात्मक चीजों की बात आती है, तो वह क्या अभिव्यक्त करता है, उसके विकल्प और वह जो स्वभाव प्रकट करता है, वह वास्तव में क्या है, और उसकी प्रतिक्रियाएँ क्या हो सकती हैं—ये चीजें सत्य का उपयोग करके मापी जानी चाहिए। अगर किसी व्यक्ति का चरित्र अपेक्षाकृत दयालु है, अगर उसमें जमीर और विवेक है, तो क्या कोई यह कह सकता है कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? (नहीं, कोई नहीं कह सकता।) अगर कोई व्यक्ति बहुत दयालु है, तो क्या उसमें अहंकार होता है? (हाँ, होता है।) अगर कोई व्यक्ति बहुत ईमानदार है, तो क्या उसमें अड़ियल स्वभाव होता है? (हाँ, होता है।) यह कहा जा सकता है कि चाहे किसी व्यक्ति का चरित्र कितना भी अच्छा क्यों न हो, चाहे उसकी निष्ठा कितनी भी नेक क्यों न हो, इसमें से किसी का यह मतलब नहीं कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। अगर किसी व्यक्ति में जमीर और विवेक है, तो क्या इसका मतलब यह है कि वह कभी परमेश्वर का विरोध नहीं करता या उसके खिलाफ विद्रोह नहीं करता? (बिल्कुल नहीं।) तो यह विद्रोह कैसे घटित होता है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है और उनके स्वभाव-सार में कट्टरता, अहंकार, दुष्टता आदि होती है। इसलिए चाहे किसी व्यक्ति का चरित्र कितना भी अच्छा क्यों न हो, इसका मतलब यह नहीं कि उसमें सत्य है, भ्रष्ट स्वभाव नहीं है या वह परमेश्वर का विरोध, उससे विश्वासघात और उसके प्रति विद्रोह करने से बच सकता है और सत्य का अनुसरण किए बिना परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है। अगर उसका चरित्र अच्छा है, वह अपेक्षाकृत सरल, ईमानदार, सच्चा, दयालु है और उसमें गौरव की भावना है, तो इसका मतलब बस इतना है कि वह सत्य स्वीकार सकता है, सत्य से प्रेम कर सकता है और परमेश्वर जो करता है उसके प्रति समर्पित हो सकता है, क्योंकि उसका चरित्र ऐसा है जो सत्य स्वीकार सकता है।

अच्छा या बुरा चरित्र बुनियादी मानदंडों, जैसे जमीर, नैतिकता और निष्ठा का उपयोग करके मापा जाता है। लेकिन व्यक्ति का स्वभाव-सार पहले उल्लिखित छह भ्रष्ट स्वभावों का उपयोग करके मापा जाना चाहिए। अगर किसी व्यक्ति में उच्च नैतिक मानक, निष्ठा, जमीर, विवेक और दयालु हृदय है, तो यही कहा जा सकता है कि उसका चरित्र अपेक्षाकृत अच्छा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह व्यक्ति सत्य समझता है, उसमें सत्य है या वह सत्य-सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभाल सकता है। यह किस बात की पुष्टि करता है? हालाँकि उसके पास अच्छा चरित्र, अपेक्षाकृत नेक निष्ठा, आचरण और कार्य करने के उच्च नैतिक मानक हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसमें भ्रष्ट स्वभाव नहीं है, कि उसमें सत्य है या उसका स्वभाव पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है। अगर किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव में कोई बदलाव नहीं दिखता और वह सत्य नहीं समझता, तो चाहे उसका चरित्र कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह असल में अच्छा व्यक्ति नहीं है। मान लो, कोई व्यक्ति स्वभाव में सापेक्ष परिवर्तन अनुभव करता है, यानी वह अपने कार्यों में सत्य खोजता है, मामले सँभालने में सत्य-सिद्धांतों का सक्रिय रूप से पालन करता है और सत्य और परमेश्वर के प्रति समर्पित होता है, और हालाँकि उसका भ्रष्ट स्वभाव अभी भी कभी-कभी सतह पर आ जाता है, वह अहंकार, छल और गंभीर मामलों में दुष्ट स्वभाव प्रकट करता है, फिर भी कुल मिलाकर, उसके कार्यों का स्रोत, दिशा और उद्देश्य सत्य-सिद्धांतों के अनुसार होते हैं, और जब वह कार्य करता है तो खोज और समर्पण के साथ करता है। तो क्या यह कहा जा सकता है कि उसका चरित्र उन लोगों से ज्यादा नेक है, जिनके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं दिखता? (बिल्कुल।) अगर किसी व्यक्ति का चरित्र सिर्फ स्वाभाविक रूप से अच्छा है और दूसरों की नजर में वह अच्छा इंसान है लेकिन वह सत्य बिल्कुल नहीं समझता, परमेश्वर के बारे में धारणाओं और कल्पनाओं से भरा हुआ है, वह नहीं जानता कि परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे करे और वह इस बात से अनभिज्ञ है कि परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को कैसे स्वीकारे, परमेश्वर द्वारा की जाने वाली हर चीज के प्रति समर्पित होना तो दूर की बात है, तो क्या यह वास्तव में एक अच्छा व्यक्ति है? सटीक रूप से कहूँ तो, वह वास्तव में अच्छा व्यक्ति नहीं है, लेकिन यह सटीक रूप से कहा जा सकता है कि उसका चरित्र बहुत अच्छा है। बहुत अच्छा चरित्र होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है सापेक्ष निष्ठा होना, अपने कार्यों और दूसरों के साथ व्यवहार में अपेक्षाकृत निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होना, दूसरों से फायदा न उठाना, अपेक्षाकृत ईमानदार होना, दूसरों को चोट या नुकसान न पहुँचाना, जमीर से काम करना और सिर्फ कानून तोड़ने और नैतिक संबंधों का अतिक्रमण करने से परे एक निश्चित नैतिक मानक रखना—यह इन दो मानकों से थोड़ा ज्यादा है। जब लोग ऐसे व्यक्ति के साथ बातचीत करते हैं, तो उन्हें लगता है कि वह व्यक्ति अपेक्षाकृत ईमानदार है और जब वे साथ होते हैं तो उन्हें उससे सावधान रहने की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि वह व्यक्ति दूसरों को नुकसान या चोट नहीं पहुँचाता और जब भी वे उसके साथ बातचीत करते हैं तो लोगों का मन बेतकल्लुफ रहता है—इन गुणों का होना एक बहुत अच्छा व्यक्ति होने का संकेत है। लेकिन उन लोगों की तुलना में, जो सत्य समझते हैं और सत्य का अभ्यास और उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं, ऐसी मानवता जरा भी नेक नहीं होती। दूसरे शब्दों में, कोई व्यक्ति कितना भी अच्छा इंसान क्यों न हो, उसकी अच्छाई सत्य समझने या सत्य का अभ्यास करने का स्थान नहीं ले सकती और स्वभाव में परिवर्तन का स्थान तो निश्चित रूप से नहीं ले सकती।

चरित्र का तात्पर्य लोगों के जमीर, नैतिकता और निष्ठा से है। किसी के चरित्र को मापने के लिए उसके जमीर, नैतिकता और निष्ठा का आकलन करने की आवश्यकता होती है। लेकिन स्वभाव से क्या तात्पर्य है और वह कैसे मापा जाता है? वह सत्य से, परमेश्वर के वचनों से मापा जाता है। मान लो, किसी व्यक्ति का चरित्र सभी पहलुओं में बहुत अच्छा है, हर कोई मानता है कि वह एक अच्छा व्यक्ति है, और यह कहा जा सकता है कि भ्रष्ट मानवजाति की नजर में वह उत्तम और पूर्ण है, उसमें कोई कमी या दोष प्रतीत नहीं होता; लेकिन जब सत्य से मापा जाता है, तो उसकी तथाकथित अच्छाई का थोड़ा-सा भी अंश उल्लेख करने लायक नहीं होता। उसके स्वभाव की जाँच-पड़ताल करने पर अहंकार, कट्टरता, धोखेबाजी, दुष्टता, यहाँ तक कि सत्य से विमुखता और दुष्ट स्वभाव की अभिव्यक्ति भी पाई जा सकती है। क्या यह तथ्य नहीं है? (हाँ, यह तथ्य है।) किसी व्यक्ति का स्वभाव-सार कैसे मापा जाता है? वह सत्य से मापा जाता है, सत्य और परमेश्वर के प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण का आकलन करके मापा जाता है। इस तरह उस व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से और सर्वथा प्रकट किया जाता है। हालाँकि लोग उसे जमीर, निष्ठा और उच्च नैतिक मानक वाला समझ सकते हैं और वह दूसरों के बीच संत या एक पूर्ण व्यक्ति के उदहारण के रूप में पेश किया जाता है, लेकिन जब वह सत्य और परमेश्वर के सामने आता है तो उसका भ्रष्ट स्वभाव उजागर हो जाता है, वह किसी भी गुण से रहित होता है और बाकी मानवता के समान ही भ्रष्ट स्वभाव वाला दिखता है। जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है, लोगों के सामने प्रकट होकर कार्य करता है, तो वह व्यक्ति अन्य लोगों की तरह ही कट्टरता, अहंकार, छल, सत्य से विमुखता, दुष्टता और क्रूरता का हर एक भ्रष्ट स्वभाव अभिव्यक्त करता है। क्या ऐसे लोग पूर्ण नहीं हैं? क्या वे संत नहीं हैं? क्या वे अच्छे लोग नहीं हैं? वे सिर्फ अन्य लोगों की नजर में अच्छे हैं; क्योंकि लोगों में सत्य का अभाव होता है और उनमें भी वही भ्रष्ट स्वभाव होता है, जिस मानक से वे एक-दूसरे को मापते हैं, वह सिर्फ जमीर, निष्ठा और नैतिकता पर आधारित है, सत्य पर नहीं। जब किसी व्यक्ति का चरित्र सत्य से नहीं मापा जाता, तो वह कैसा दिखाई देता है? क्या वह वास्तव में अच्छा व्यक्ति होता है? स्पष्ट रूप से नहीं, क्योंकि जिस व्यक्ति का अन्य लोगों द्वारा अच्छे व्यक्ति के रूप में मूल्यांकन और आकलन किया जाता है, उसमें किसी भी भ्रष्ट स्वभाव की कमी नहीं होती। तो, लोगों के भ्रष्ट स्वभाव कैसे विकसित और उजागर होते हैं? जब परमेश्वर सत्य व्यक्त नहीं करता या मानवजाति के सामने प्रकट नहीं होता, तो लोगों के भ्रष्ट स्वभाव अस्तित्वहीन प्रतीत होते हैं। लेकिन जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है और मनुष्यों के सामने प्रकट होता है, तो दूसरों की नजर में तथाकथित संतों या पूर्ण लोगों के भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से उजागर हो जाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य से लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उनके चरित्र के साथ ही मौजूद रहते हैं। ऐसा नहीं है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव तभी होता है जब परमेश्वर प्रकट होता है; बल्कि, जब परमेश्वर सत्य व्यक्त करता है और मानवजाति के बीच प्रकट होकर कार्य करता है, तो उनका भ्रष्ट स्वभाव और कुरूपता उजागर हो जाती है। इस मुकाम पर लोगों को एहसास होता है और पता चलता है कि एक अच्छे चरित्र के पीछे एक भ्रष्ट स्वभाव भी होता है। दूसरों की नजर में अच्छे लोगों, पूर्ण लोगों या संतों में हर किसी की तरह ही भ्रष्ट स्वभाव होता है और किसी भी अन्य व्यक्ति से कम नहीं होता—इन लोगों के भ्रष्ट स्वभाव अन्य लोगों की तुलना में और ज्यादा छिपे होते हैं और उनमें गुमराह करने की क्षमता ज्यादा होती है। तो, भ्रष्ट स्वभाव वास्तव में क्या होता है और स्वभाव-सार क्या होता है? व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव उस व्यक्ति का सार होता है; व्यक्ति का चरित्र सिर्फ आचरण के कुछ सतही नियम दर्शाता है, वह व्यक्ति का मानवता-सार नहीं दर्शाता। जब हम किसी व्यक्ति के मानवता-सार के बारे में बात करते हैं, तो हम उसके स्वभाव का उल्लेख कर रहे होते हैं। जब हम किसी व्यक्ति के चरित्र की चर्चा करते हैं, तो हम स्पष्ट पहलुओं का उल्लेख कर रहे होते हैं, जैसे कि क्या उसके इरादे अच्छे हैं, क्या वह दयालु है, उसकी निष्ठा कैसी है और क्या उसमें नैतिक मानक हैं। क्या अब तुम लोग समझ गए हो कि चरित्र का क्या अर्थ है और स्वभाव-सार का क्या अर्थ है? इस मामले को व्यक्ति सिर्फ अपने हृदय में ही समझ सकता है; इसे एक शब्द या वाक्यांश से परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह बहुत जटिल मामला है। अगर इसे बहुत बारीकी से परिभाषित किया और समझाया जाए, तो यह मानकीकृत लग सकता है, लेकिन वास्तव में अस्पष्ट है। मैं इस पर कोई परिभाषा लागू नहीं करूँगा, मैंने इसे इस तरह से समझाया है और अगर तुम लोग इसे हृदयंगम कर लो, तो तुम इसे समझ लोगे।

मनुष्य के कुल छह भ्रष्ट स्वभाव होते हैं : कट्टरता, अहंकार, छल, सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता। इन छह में से कौन-से अपेक्षाकृत गंभीर हैं और कौन-से ज्यादा साधारण या सामान्य हैं, मात्रा के लिहाज से हलके हैं और परिस्थितियों के लिहाज से कम गहन हैं? (कट्टरता, अहंकार और छल थोड़े हलके हैं।) सही कहा। ऐसा लगता है कि तुम लोगों को मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की कुछ समझ और बोध है। हालाँकि ये तीनों भी शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई मानवजाति के भ्रष्ट स्वभावों से संबंधित हैं और सार के मामले में परमेश्वर इनसे घृणा भी करता है, फिर भी ये सत्य के अनुरूप नहीं हैं और परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी हैं, मात्रा के मामले में ये अपेक्षाकृत हलके और उथले हैं, यानी ये थोड़े ज्यादा सामान्य हैं; ये भ्रष्ट मानवजाति के प्रत्येक सदस्य में अलग-अलग सीमा तक होते है। इन तीनों के अलावा, सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता मात्रा के मामले में तुलनात्मक रूप से बहुत ज्यादा गंभीर हैं। अगर पहले तीन साधारण भ्रष्ट स्वभाव कहे जाते हैं, तो बाद के तीन असाधारण भ्रष्ट स्वभाव हैं, जो मात्रा के मामले में ज्यादा गंभीर हैं। उनके ज्यादा गंभीर होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि परिस्थितियों, सार और उस सीमा के मामले में ये तीनों ज्यादा गंभीर हैं, जिस सीमा तक व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिरोध, उसके प्रति विद्रोह और उसका विरोध करते हैं। ये तीनों ज्यादा गंभीर स्वभाव हैं, जिन्हें लोग सत्य को सीधे नकारने, परमेश्वर को नकारने, परमेश्वर के विरुद्ध चिल्ल-पों मचाने, परमेश्वर पर हमला करने, परमेश्वर की परीक्षा लेने, परमेश्वर की आलोचना करने आदि के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं। मनुष्य के ये तीन भ्रष्ट स्वभाव पहले तीन स्वभावों से किस प्रकार भिन्न हैं? पहले तीन स्वभाव ज्यादा सामान्य हैं, वे सभी भ्रष्ट मनुष्यों में पाए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों के लक्षण हैं, अर्थात्, प्रत्येक व्यक्ति में, चाहे उसकी उम्र, लिंग, जन्म-स्थान, नस्ल या जातीयता कुछ भी हो, ये तीनों स्वभाव होते हैं। बाद के तीन स्वभाव अलग-अलग मात्रा में और ज्यादा या कम सीमा तक हर व्यक्ति में होते हैं, जो उनके सार पर निर्भर करता है, लेकिन भ्रष्ट मानवजाति के भीतर सिर्फ मसीह-विरोधियों में ही ये तीन स्वभाव—दुष्टता, सत्य से विमुखता और क्रूरता—सबसे ज्यादा गंभीर सीमा तक होते हैं। मसीह-विरोधियों के अलावा, साधारण भ्रष्ट मनुष्य दुष्टता, सत्य से विमुखता और क्रूरता के स्वभाव सिर्फ एक निश्चित सीमा तक या कुछ निश्चित परिवेशों या विशेष संदर्भों में ही अभिव्यक्त करते हैं। भले ही उनमें ये स्वभाव हों, लेकिन वे मसीह-विरोधी नहीं होते। उनका सार दुष्ट या क्रूर नहीं होता और वह सत्य से विमुख तो निश्चित रूप से नहीं होता। इसका संबंध उनके चरित्र से होता है। ये लोग अपेक्षाकृत दयालु होते हैं, उनमें निष्ठा होती है, वे सच्चे होते हैं, उनमें गौरव की भावना होती है, इत्यादि—उनका चरित्र अपेक्षाकृत अच्छा होता है। इसलिए वे बाद के तीन गंभीर भ्रष्ट स्वभाव कभी-कभार ही या कुछ निश्चित परिवेशों और संदर्भों में ही प्रकट करते हैं। लेकिन ये स्वभाव उनके सार पर हावी नहीं होते। उदाहरण के लिए, जब सामान्य भ्रष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन में लापरवाही बरतते हैं और परमेश्वर के अनुशासन का सामना करते हैं, तो वे यह सोचकर उसके आगे झुकने से इनकार कर सकते हैं, “दूसरे भी तो लापरवाही बरतते हैं; उन्हें अनुशासित क्यों नहीं किया जाता? मुझे ही ऐसा अनुशासन और ताड़ना क्यों मिल रही है?” झुकने से इनकार करने का यह स्वभाव कैसा है? यह स्पष्ट रूप से एक दुष्ट स्वभाव है। वे परमेश्वर के अनुचित और पक्षपातपूर्ण व्यवहार के बारे में शिकायत करते हैं, जिसमें परमेश्वर का विरोध करने और उसके विरुद्ध चिल्ल-पों मचाने का दोष होता है—यह एक दुष्ट स्वभाव है। ऐसे लोगों का दुष्ट स्वभाव इन स्थितियों में प्रकट होता है, लेकिन अंतर यह है कि इन लोगों में एक दयालु हृदय, जमीर की जागरूकता, निष्ठा और सापेक्ष ईमानदारी होती है। जब वे परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करते हैं और एक दुष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, तो उनका जमीर प्रभावी हो जाता है। जब उनका जमीर प्रभावी हो जाता है, तो वह उनके दुष्ट स्वभाव के साथ संघर्षरत हो जाता है और उनके मन में कुछ विचार विकसित होने लगते हैं : “मुझे इस तरह से नहीं सोचना चाहिए। परमेश्वर ने मुझे बहुत आशीष दिया है और मुझ पर अनुग्रह दिखाया है। क्या मेरा इस तरह से सोचना जमीर की कमी नहीं है? क्या यह परमेश्वर का विरोध करना और उसका दिल तोड़ना नहीं है?” क्या यहाँ उनका जमीर काम नहीं कर रहा? इस समय उनका अच्छा चरित्र प्रभावी होता है। जैसे ही उनका जमीर काम करना शुरू करता है, उनका गुस्सा, शिकायतें और झुकने से इनकार क्षीण हो जाता है और धीरे-धीरे अलग होकर खत्म हो जाता है। क्या यह उनके जमीर का प्रभाव नहीं है? (बिल्कुल है।) तो, क्या वे एक दुष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं? (बिल्कुल।) वे एक दुष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, लेकिन चूँकि ऐसे व्यक्तियों में जमीर और मानवता होती है, इसलिए उनका जमीर उनके दुष्ट स्वभाव को नियंत्रित कर सकता है और उन्हें तर्कसंगत बना सकता है। जब वे तर्कसंगत होकर शांत हो जाते हैं, तो चिंतन कर महसूस करते हैं कि वे भी परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं। इस समय अनजाने ही उनमें कृतज्ञता और पश्चात्ताप की भावना पैदा होगी : “अभी मैं बहुत आवेगशील हो गया था, परमेश्वर का प्रतिरोध और उसके प्रति विद्रोह कर रहा था। क्या परमेश्वर मुझे अपने प्रेम से अनुशासित नहीं कर रहा है? क्या यह उसका अनुग्रह नहीं है? मैंने इतना अनुचित कार्य क्यों किया? क्या मैंने परमेश्वर को क्रोधित नहीं किया है? मैं ऐसा नहीं करता रह सकता; मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करने, पश्चात्ताप करने, जो बुराई मैं कर रहा हूँ उसे छोड़ने और अपना विद्रोह समाप्त करने की आवश्यकता है। चूँकि मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं लापरवाही से काम कर रहा था, इसलिए मुझे लापरवाही छोड़ देनी चाहिए, गंभीरता से काम करने चाहिए और खोजना चाहिए कि अपने कार्यों के माध्यम से अपनी वफादारी कैसे पेश करूँ, साथ ही यह जानना चाहिए कि मेरे कर्तव्य निभाने के सिद्धांत क्या हैं।” क्या यह उनके अच्छे चरित्र का प्रभाव नहीं है? निस्संदेह, इन लोगों में दुष्ट स्वभाव भी है, लेकिन इनके जमीर के प्रभाव और अपनी तर्कसंगतता का उपयोग करके चीजों को तोलने से इनका अच्छा, सत्य-प्रेमी चरित्र अंततः प्रबल हो जाता है। इन व्यक्तियों के भ्रष्ट स्वभावों में दुष्टता होती है, तो क्या यह कहा जा सकता है कि उनमें एक दुष्ट सार है? क्या यह कहा जा सकता है कि उनका सार दुष्ट है? नहीं। वस्तुपरक ढंग से कहें तो, हालाँकि जो भ्रष्ट स्वभाव वे प्रकट करते हैं उनमें दुष्टता शामिल रहती है, लेकिन चूँकि उनमें जमीर, तर्कसंगतता और सत्य के प्रति सापेक्ष प्रेम होता है, इसलिए उनकी दुष्टता सिर्फ एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव होती है, न कि उनका सार। वह उनका सार क्यों नहीं होती? ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनका यह भ्रष्ट स्वभाव बदल सकता है। हालाँकि वे ऐसा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं और परमेश्वर का विरोध और उसके प्रति विद्रोह कर सकते हैं, चाहे वह लंबे समय के लिए हो या कम समय के लिए, फिर भी उनके चरित्र में उनके जमीर, निष्ठा, विवेक आदि का प्रभाव उनके दुष्ट स्वभाव को सत्य के प्रति उनके व्यवहार या रवैये पर हावी होने से रोकता है। इसका अंतिम परिणाम क्या होता है? वे अपने पाप कबूल सकते हैं, पश्चात्ताप कर सकते हैं, सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हैं, सत्य के प्रति समर्पित हो सकते हैं और परमेश्वर का आयोजन स्वीकार सकते हैं और यह सब बिना किसी शिकायत के कर सकते हैं। दुष्ट स्वभाव प्रकट करने के बावजूद अंतिम परिणाम यह होता है कि वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह नहीं करते या परमेश्वर की संप्रभुता का विरोध नहीं करते—वे समर्पित हो जाते हैं। यह एक साधारण भ्रष्ट व्यक्ति की अभिव्यक्ति है। ऐसे लोगों का सिर्फ भ्रष्ट स्वभाव होता है; उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव-सार नहीं होता। यह एकदम सही है।

उदाहरण के लिए दुष्ट स्वभावों को लें : सबसे ज्यादा दुष्ट स्वभाव कौन-सा है, जिसे लोग परमेश्वर के सामने प्रकट करते हैं? वह है परमेश्वर की परीक्षा लेना। कुछ लोग चिंता करते हैं कि शायद उन्हें अच्छी मंजिल न मिले और शायद उनके परिणाम की गारंटी न हो, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद वे भटक गए थे, उन्होंने कुछ बुरे काम किए थे और कई अपराध किए थे। उन्हें चिंता होती है कि वे नरक में जाएँगे, अपने परिणाम और मंजिल को लेकर वे लगातार डरे रहते हैं। वे लगातार चिंतित रहते हैं और हमेशा सोचते रहते हैं, “मेरा भावी परिणाम और मंजिल अच्छी होगी या बुरी? मैं नीचे नरक में जाऊँगा या ऊपर स्वर्ग में? मैं परमेश्वर के लोगों में से एक हूँ या सेवाकर्ता? मैं नष्ट हो जाऊँगा या बचाया जाऊँगा? मुझे यह पता लगाना होगा कि परमेश्वर के कौन-से वचन इस बारे में बताते हैं।” वे देखते हैं कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं और वे सब लोगों के भ्रष्ट स्वभाव उजागर करते हैं और उन्हें वे उत्तर नहीं मिलते जिन्हें वे खोजते हैं, इसलिए वे लगातार सोचते रहते हैं कि और कहाँ पूछताछ की जाए। बाद में जब उन्हें पदोन्नत होने और महत्वपूर्ण भूमिका में रखे जाने का अवसर मिलता है, तो वे यह कहते हुए ऊपर वाले से पता लगाना चाहते हैं : “मेरे बारे में ऊपर वाले की क्या राय है? अगर उसकी राय अनुकूल है, तो इससे साबित होता है कि परमेश्वर ने मेरे द्वारा अतीत में किए गए बुरे काम और अपराध याद नहीं रखे हैं। इससे साबित होता है कि परमेश्वर अभी भी मुझे बचाएगा और मुझे अभी भी उम्मीद है।” फिर अपने विचारों का अनुगमन करते हुए वे सीधे कहते हैं, “जहाँ हम हैं, वहाँ अधिकांश भाई-बहन अपने पेशे में बहुत कुशल नहीं हैं और उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखते हुए बहुत कम समय हुआ है। मैं सबसे अधिक समय से परमेश्वर में विश्वास रखता आया हूँ। मैं गिरा हूँ और असफल हुआ हूँ, मैंने कुछ अनुभव किए हैं और कुछ सबक भी सीखे हैं। अगर मौका मिले, तो मैं भारी दायित्व उठाने और परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखाने के लिए तैयार हूँ।” वे ये शब्द यह देखने के लिए एक परीक्षा के रूप में इस्तेमाल करते हैं कि क्या ऊपर वाले का उन्हें पदोन्नत करने का कोई इरादा है या ऊपर वाले ने उन्हें त्याग दिया है। असलियत यह है कि वे वास्तव में यह जिम्मेदारी या दायित्व नहीं उठाना चाहते; ये शब्द कहने का उनका उद्देश्य सिर्फ संभावनाओं का पता लगाना और यह देखना होता है कि क्या उनके अभी भी बचाए जाने की उम्मीद है। यह परीक्षा है। परीक्षा के इस नजरिये के पीछे कौन-सा स्वभाव है? यह एक दुष्ट स्वभाव है। चाहे इस नजरिये को कितने भी समय के लिए प्रकट किया जाए, वे इसे कैसे भी करें या इसे कितना भी लागू किया जाए, हर हाल में वे जो स्वभाव प्रकट करते हैं वह निश्चित रूप से दुष्ट होता है, क्योंकि इसे करने के दौरान उनके मन में कई विचार, आशंकाएँ और चिंताएँ होती हैं। जब वे इस दुष्ट स्वभाव को प्रकट करते हैं, तो वे ऐसा क्या करते हैं जो दिखाता है कि वे मानवता वाले लोग हैं और ऐसे लोग हैं जो सत्य का अभ्यास कर सकते हैं और जो यह पुष्टि करता है कि उनमें सिर्फ यह भ्रष्ट स्वभाव है, न कि दुष्ट सार? ऐसी चीजें करने और कहने के बाद जमीर, विवेक, निष्ठा और गरिमा वाले लोग अपने दिलों में बेचैनी और दर्द महसूस करते हैं। वे यह सोचकर संतप्त हो जाते हैं, “मैंने इतने सालों से परमेश्वर में विश्वास किया है; मैं परमेश्वर की परीक्षा कैसे ले सकता हूँ? मैं अभी भी अपनी मंजिल के बारे में कैसे चिंतित रह सकता हूँ और परमेश्वर से कुछ पाने और उसे ठोस जवाब देने को विवश करने के लिए इस तरह के तरीके का उपयोग कैसे कर सकता हूँ? यह बहुत ही घिनौना है!” वे अपने दिलों में बेचैनी महसूस करते हैं, लेकिन कर्म हो चुका होता है और शब्द कहे जा चुके होते हैं—उन्हें वापस नहीं लिया जा सकता। तब वे समझते हैं, “हालाँकि मुझमें थोड़ी सदिच्छा और न्याय की भावना रही हो सकती है, लेकिन मैं अभी भी ऐसी नीच हरकतें कर सकता हूँ; ये एक नीच व्यक्ति के व्यवहार हैं! क्या यह परमेश्वर की परीक्षा लेने का प्रयास नहीं है? क्या यह परमेश्वर से उगाही करना नहीं है? यह वास्तव में नीच और शर्मनाक है!” ऐसी स्थिति में उचित क्रियाविधि क्या है? प्रार्थना के लिए परमेश्वर के सामने आकर अपने पाप कबूलना या हठपूर्वक अपने ही नजरियों पर अड़े रहना? (प्रार्थना करना और पाप कबूलना।) तो पूरी प्रक्रिया में विचार की कल्पना करने से लेकर कार्रवाई के बिंदु तक और आगे उनके द्वारा प्रार्थना करने और पाप कबूलने तक, कौन-सा चरण भ्रष्ट स्वभाव का सामान्य प्रकाशन है, कौन-सा चरण जमीर का प्रभावी होना है और कौन-सा चरण सत्य को व्यवहार में लाना है? कल्पना से लेकर कार्रवाई तक का चरण दुष्ट स्वभाव द्वारा शासित होता है। तो क्या आत्मनिरीक्षण का चरण उनके जमीर के प्रभाव से शासित नहीं होता? वे यह महसूस करते हुए अपनी जाँच-पड़ताल करना शुरू करते हैं कि उन्होंने जो किया वह गलत था—यह उनके जमीर के प्रभाव से शासित होता है। इसके बाद प्रार्थना और पाप कबूलना होता है, वह भी उनकी निष्ठा, जमीर और चरित्र के प्रभाव से शासित होता है; वे अफसोस, पश्चात्ताप और परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता महसूस कर पाते हैं और अपनी मानवता और भ्रष्ट स्वभाव पर चिंतन कर उसे भी समझ पाते हैं और उस बिंदु तक पहुँच जाते हैं जहाँ वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। क्या इसके तीन चरण नहीं हैं? भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन से लेकर उनके जमीर के प्रभाव तक और फिर वे जो बुराई कर रहे हैं उसे छोड़ देने, पश्चात्ताप करने, अपनी दैहिक इच्छाओं और विचारों को छोड़ देने, अपने भ्रष्ट स्वभाव के विरुद्ध विद्रोह करने और सत्य का अभ्यास करने की क्षमता तक—ये वे तीन चरण हैं जिन्हें मानवता और भ्रष्ट स्वभावों वाले सामान्य लोगों को हासिल करना चाहिए। अपने जमीर की जागरूकता और अपनी अपेक्षाकृत अच्छी मानवता के कारण ये लोग सत्य का अभ्यास कर सकते हैं। सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होने का अर्थ है कि ऐसे लोगों को उद्धार की आशा है। दूसरे शब्दों में, अच्छी मानवता वाले लोगों के लिए उद्धार की संभावना अपेक्षाकृत ज्यादा होती है।

मसीह-विरोधियों को मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोगों से कौन-सी चीज अलग करती है? पहले चरण में, मसीह-विरोधी जो प्रकट करते हैं, वह बाह्य रूप से मूलतः किसी भी भ्रष्ट मनुष्य के प्रकाशनों के समान ही होता है, लेकिन अगले दो चरण अलग होते हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति काट-छाँट के दौरान दुष्ट भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, तो अगले चरण में उसके जमीर के प्रभावी होने की आवश्यकता होती है। लेकिन मसीह-विरोधियों में जमीर नहीं होता, तो वे क्या सोचेंगे? उनमें कौन-सी अभिव्यक्तियाँ होंगी? वे यह आरोप लगाते हुए परमेश्वर के अन्यायी होने की शिकायत करेंगे कि परमेश्वर उनमें खोट निकालने की कोशिश कर रहा है और हर मोड़ पर उनके लिए कठिनाइयाँ और परेशानियाँ पैदा कर रहा है। इसके बाद वे पक्के पश्चात्तापहीन बने रहेंगे, अपनी सबसे स्पष्ट गलतियों या भ्रष्ट स्वभावों को भी स्वीकारने से इनकार कर देंगे, अपनी त्रुटियाँ कभी नहीं स्वीकारेंगे, यहाँ तक कि गुप्त रूप से चीजों को और ज्यादा ऊर्जा और उत्साह से करेंगे और अपने कार्य जारी रखने के हर संभव प्रयास करेंगे। मसीह-विरोधियों द्वारा प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभावों से आँकें तो, उनका चरित्र कैसा होता है? उनमें कोई जमीर नहीं होता, वे अपनी जाँच-पड़ताल करना नहीं जानते और क्रूरता, द्वेष, हमले और प्रतिशोध प्रकट करते हैं। वे तथ्यों को छिपाने के लिए झूठ गढ़ते हैं, जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देते हैं; दूसरों को फँसाने के लिए षड्यंत्र रचते हैं, भाई-बहनों से असली तथ्य छिपाते हैं; वे अपने बचाव के लिए जोरदार तरीके से औचित्य सिद्ध करते हैं और अपने तर्क हर जगह फैलाते हैं। यह उनके दुष्ट स्वभाव की निरंतरता है। उनमें न सिर्फ जमीर की जागरूकता नहीं होती और वे अपनी जाँच-पड़ताल करने, आत्मचिंतन करने और खुद को समझने में विफल रहते हैं, बल्कि वे चीजों को और जोर-शोर से करते हैं और अपना दुष्ट स्वभाव प्रकट करना, परमेश्वर के घर के विरुद्ध चिल्ल-पों मचाना, भाई-बहनों के खिलाफ शोर मचाना और उनका विरोध करना, और इससे भी ज्यादा गंभीर रूप से, परमेश्वर का विरोध करना जारी रखते हैं। कुछ समय बाद जब स्थिति शांत हो जाती है, तो क्या वे पश्चात्ताप कर अपने पाप कबूलते हैं? हालाँकि घटना पहले ही बीत चुकी है, सही तथ्य प्रकट हो चुके हैं, जिम्मेदारी उनकी है, यह बहुत लोगों को पता चल चुका है और उन्हें यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए—क्या वे इसे स्वीकार सकते हैं? क्या वे पश्चात्ताप करते हैं या क्या उनमें कृतज्ञता की भावना आती है? (नहीं।) वे यह सोचते हुए लगातार विरोध करते रहते हैं, “वैसे तो मैं कभी भी दोषी नहीं था, लेकिन अगर मैं था भी तो मेरे इरादे अच्छे थे; अगर मैं दोषी था भी तो अकेले मुझे इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। तुम दूसरों को दोष क्यों नहीं देते—मुझे क्यों निशाना बनाते हो? मैंने कहाँ गलती की? मैंने जानबूझकर कुछ भी गलत नहीं किया। तुम सभी लोगों ने गलतियाँ की हैं, तो तुम खुद को जवाबदेह क्यों नहीं ठहराते? इसके अलावा, कौन बिना कुछ गलतियाँ किए जीवन जी सकता है?” क्या उन्हें पश्चात्ताप होता है? क्या वे कृतज्ञ महसूस करते हैं? वे कृतज्ञ महसूस नहीं करते, न ही वे पश्चात्ताप करते हैं। कुछ तो यहाँ तक कहते हैं, “मैंने इतनी बड़ी कीमत चुकाई—तुम लोगों में से किसी ने ध्यान क्यों नहीं दिया? किसी ने मेरी प्रशंसा क्यों नहीं की? मुझे पुरस्कार क्यों नहीं दिया गया? जब कुछ गलत होता है, तो तुम हमेशा मुझे दोषी ठहराते हो और मुझमें खोट निकालते हो। क्या तुम सिर्फ मेरे खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कोई फायदे की चीज नहीं ढूँढ़ रहे?” यह उनकी मानसिकता और अवस्था होती है। स्पष्ट रूप से यह एक दुष्ट स्वभाव है—वे पश्चात्ताप बिल्कुल नहीं करते, जब तथ्य उनके सामने रखे जाते हैं तो वे उन्हें स्वीकारने से इनकार कर देते हैं और लगातार विरोध करते रहते हैं। हालाँकि हो सकता है वे किसी को ऊँचे स्वर में न कोसते हों, लेकिन अंदर ही अंदर वे ऐसा अनगिनत बार कर चुके होंगे—अगुआओं को आँख मूँदकर काम करने के लिए और भाई-बहनों को अच्छे लोग न होने के लिए कोसते होंगे और इस बात के लिए भी कि जब उनके पास हैसियत थी तब तो वे उनकी चापलूसी करते थे, लेकिन अब जबकि वे अपनी हैसियत खो चुके हैं तो उन पर ध्यान नहीं देते या उनके साथ संगति नहीं करते या उनकी ओर देखकर मुस्कुराते तक नहीं। यहाँ तक कि वे अपने दिल में परमेश्वर को भी कोसते हैं और उसकी आलोचना करते हुए कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है। शुरू से अंत तक वे जो स्वभाव प्रकट करते हैं वह दुष्ट होता है, उसमें जमीर का जरा भी प्रभाव नहीं होता, न ही अफसोस या पश्चात्ताप का कोई संकेत होता है। उनका पलटने, सत्य सिद्धांतों की खोज करने, पाप कबूलने और पश्चात्ताप करने के लिए परमेश्वर के सामने आने या परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने का कोई इरादा नहीं होता। इसके बजाय, वे लगातार बहस, विरोध और शिकायत करते हैं। मसीह-विरोधी और पश्चात्ताप करने में सक्षम लोग दोनों ही एक-जैसे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, लेकिन क्या इन प्रकाशनों की प्रकृति में कोई अंतर नहीं है? इन समूहों में से किसमें मसीह-विरोधी का स्वभाव है और किसमें मसीह-विरोधी का सार है? (जो लोग पश्चात्ताप नहीं करते, उनमें मसीह-विरोधी का सार होता है।) वे कौन हैं, जो पश्चात्ताप करने में सक्षम होते हैं? वे मसीह-विरोधी स्वभाव वाले भ्रष्ट मनुष्य होते हैं, लेकिन वे मसीह-विरोधी नहीं होते। मसीह-विरोधी के सार वाले लोग मसीह-विरोधी होते हैं, जबकि मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले लोग साधारण भ्रष्ट मनुष्य होते हैं। इन दोनों में से कौन-सा समूह बुरे लोगों से बनता है? (मसीह-विरोधी के सार वाले लोगों का समूह।) तुम इसे पहचानने में सक्षम हो, है न? यह इस बात पर निर्भर करता है कि कौन-सा समूह इस बात का कोई संकेत नहीं देता कि उनका जमीर उन्हें दोषी ठहराता है, पलटे या चिंतन किए बिना बहस करता रहता है, और कुछ गलत करने पर काट-छाँट किए जाने, बदले जाने या अनुशासित किए जाने आदि जैसी परिस्थितियों का सामना करता है तो अनैतिक ढंग से आलोचना करता है और अपने तर्क फैलाता है। अगर उन्हें रोकने वाला कोई न हो, तो क्या वे अपने कार्य रोक देंगे? नहीं। उनके दिल नकारात्मकता और विरोध से भरे होंगे और वे कहेंगे, “चूँकि लोग मेरे साथ अनुचित व्यवहार करते हैं और परमेश्वर मुझ पर अनुग्रह नहीं करता या मेरी ओर से कार्य नहीं करता, इसलिए भविष्य में अपना कर्तव्य निभाते समय मैं बस बेमन से कार्य करूँगा। अगर मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँगा, तो भी मुझे पुरस्कार नहीं मिलेगा, कोई मेरी प्रशंसा नहीं करेगा और फिर भी मेरी काट-छाँट की जाएगी, इसलिए मैं इसे बस बेमन से करूँगा। मुझसे सिद्धांतों के अनुसार मामले सँभालने या अपने काम में दूसरों के साथ चर्चा और सहयोग करने या सत्य खोजने के लिए कहने के बारे में सोचना भी मत! मैं उदासीन रहूँगा, न तो घमंडी और न ही विनम्र। अगर तुम मुझसे कुछ करने के लिए कहोगे तो मैं कर दूँगा; अगर तुम मुझसे कुछ करने के लिए नहीं कहोगे तो मैं बस चला जाऊँगा। तुम लोग जैसा चाहो वैसा करो; मैं जैसा हूँ वैसा ही रहूँगा। मुझसे बहुत ज्यादा की अपेक्षा मत करना; अगर तुम्हारी माँगें ऊँची हुईं, तो मैं उन्हें अनदेखा कर दूँगा।” क्या यह एक दुष्ट स्वभाव की निरंतरता नहीं है? क्या ऐसे लोग पश्चात्ताप कर सकते हैं? (नहीं, वे पश्चात्ताप नहीं कर सकते।) यह उन लोगों की अभिव्यक्ति है जिनमें मसीह-विरोधी का सार होता है। यह मसीह-विरोधी द्वारा दुष्ट स्वभाव प्रकट करने जैसा ही है, वे कभी चिंतन भी नहीं करते क्योंकि उनमें जमीर नहीं होता। चाहे वे कोई भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करें या जब उन पर कुछ आ पड़े तो उनके कोई भी इरादे, इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ क्यों न हो, वे कभी अपने जमीर से नियंत्रित नहीं होते। इसलिए, जब समय सही और उनके अनुकूल होता है, तो वे जो चाहते हैं वह करते हैं। उनके कार्यों के चाहे जो भी परिणाम हों, वे पलटते नहीं, अपने दृष्टिकोणों से चिपके ही रहते हैं और अपनी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और इरादे बनाए रखते हैं, साथ ही बिना किसी आत्म-ग्लानि के वे साधन और तरीके भी बनाए रखते हैं जिनके द्वारा उन्होंने हमेशा चीजें की होती हैं। उन्हें आत्म-ग्लानि क्यों नहीं होती? क्योंकि ऐसे लोगों में जमीर नहीं होता, गौरव की भावना नहीं होती और वे बेशर्म होते हैं; उनकी पूरी मानवता के भीतर ऐसा कुछ नहीं होता जो उनके भ्रष्ट स्वभावों को रोक सके और न ऐसा कुछ होता है जिसका उपयोग वे यह आकलन करने के लिए कर सकें कि उनके द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव सही हैं या गलत। इसलिए जब ये लोग दुष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, तो चाहे दूसरे उसे कैसे भी देखें या उसकी प्रक्रिया और परिणाम कुछ भी हो, शुरू से अंत तक उन्हें कोई आत्मग्लानि, दुख, पश्चात्ताप, कृतज्ञता की भावना महसूस नहीं होती और अपने दिलों में वे निश्चित रूप से पलटते भी नहीं। ये मसीह-विरोधी हैं। इन दो उदाहरणों से आँकें तो, मसीह-विरोधियों का सबसे स्पष्ट लक्षण क्या होता है? (उनमें जमीर और विवेक नहीं होता।) जमीर और विवेक की यह कमी कैसी अभिव्यक्ति की ओर ले जाती है? उनके द्वारा प्रकट किए गए स्वभावों का क्या परिणाम होता है? (वे चिंतन या पश्चात्ताप नहीं कर सकते।) जो लोग चिंतन या पश्चात्ताप नहीं कर सकते, क्या वे सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? कभी नहीं!

जिस व्यक्ति में सिर्फ मसीह-विरोधी का स्वभाव है, उसे सार से मसीह-विरोधी होने की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। जो लोग मसीह-विरोधी के प्रकृति सार वाले होते हैं, केवल वही असली मसीह-विरोधी होते हैं। निश्चित तौर पर दोनों की मानवता में अंतर होता है, और विभिन्न प्रकार की मानवता के शासन के अंतर्गत, सत्य के प्रति उन लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले रवैये भी समान नहीं होते—और जब सत्य के प्रति लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले रवैये समान नहीं होते, तो उनके द्वारा चुने गए रास्ते भी अलग होते हैं; और जब उनके रास्ते अलग होते हैं, उनके कार्यों के परिणामी सिद्धांतों और नतीजों में भी अंतर होता है। चूँकि सिर्फ मसीह-विरोधी के स्वभाव वाले व्यक्ति की अंतरात्मा काम कर रही होती है, उसमें विवेक होता है, गौरव की भावना होती है और सापेक्ष रूप से कहें तो, वह सत्य से प्रेम करता है, तो जब उनका भ्रष्ट स्वभाव उजागर होता है, तो मन ही मन वे उसकी भर्त्सना करते हैं। ऐसे में वे आत्मचिंतन कर खुद को जान सकते हैं, अपने भ्रष्ट स्वभाव और भ्रष्टता के प्रकाशन को स्वीकार सकते हैं, इस तरह वे दैहिक सुख और भ्रष्ट स्वभाव के विरुद्ध विद्रोह सकते हैं और सत्य का अभ्यास कर परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी के साथ ऐसा नहीं होता। चूँकि उनकी अंतरात्मा क्रियाशील नहीं होती या उनमें कर्तव्यनिष्ठा के भाव नहीं जगा होता, उनमें गौरव की भावना तो होती ही नहीं, इसलिए जब उनका भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है, तो वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार इसका आकलन नहीं करते कि उनका प्रकाशन सही है या गलत, वह भ्रष्ट स्वभाव है या सामान्य मानवता या वह सत्य के अनुरूप है या नहीं। वे इन बातों पर कभी विचार नहीं करते। तो उनका व्यवहार कैसा होता है? वे हमेशा यही मानते हैं कि उन्होंने जो भ्रष्ट स्वभाव दिखाया और जो रास्ता चुना है, वह सही है। उन्हें लगता है कि वे जो कुछ भी करते हैं वह सही है, जो कहते हैं वह सही है; वे अपने विचारों पर अड़े रहते हैं। और इसलिए, वे चाहे कितनी भी बड़ी गलती कर लें, चाहे उनका कितना ही भयंकर भ्रष्ट स्वभाव उजागर हो जाए, वे उस मामले की गंभीरता को नहीं पहचानते और निश्चित रूप से अपने द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव को नहीं समझते। बेशक, वे अपनी इच्छाओं को दरकिनार नहीं करते, परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण के मार्ग को चुनने के पक्ष में अपने भ्रष्ट स्वभाव की अपनी महत्वाकांक्षा के खिलाफ विद्रोह नहीं करते। इन दो अलग-अलग परिणामों से देखा जा सकता है कि अगर एक मसीह-विरोधी के स्वभाव वाला व्यक्ति अपने दिल में सत्य से प्रेम करता है तो उसके पास उसकी समझ हासिल करने, उसका अभ्यास करने और उद्धार प्राप्त करने का अवसर होता है, जबकि एक मसीह-विरोधी के सार वाला व्यक्ति सत्य नहीं समझ सकता या उसे व्यवहार में नहीं ला सकता और न ही वह उद्धार प्राप्त कर सकता है। दोनों में यही अंतर होता है।

III. मसीह-विरोधियों का स्वभाव सार

आज की संगति का जोर अभी भी मुख्य रूप से इस बात का सारांश प्रस्तुत करने पर है कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव-सार क्या होता है। मनुष्यों के छह भ्रष्ट स्वभावों में से, जिन पर हमने अभी चर्चा की, कौन-से तीन स्वभावों का उपयोग मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार वाले लोगों को वर्गीकृत करने के लिए ज्यादा सटीक रूप से किया जाता है? (सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता।) चूँकि हमने दायरे को इन तीन स्वभावों तक सीमित कर दिया है, इसलिए पहले तीन स्वभाव इस संगति का हिस्सा नहीं होंगे। तो क्या मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार वाले लोगों में कट्टरता, अहंकार और छल के भ्रष्ट स्वभावों का अभाव होता है? (नहीं।) तो फिर मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार को वर्गीकृत करने के लिए पहले तीन स्वभावों का उपयोग क्यों नहीं किया जाता? (क्योंकि साधारण भ्रष्ट मनुष्यों में भी पहले तीन स्वभाव होते हैं और वे व्यक्ति का सार नहीं दर्शाते।) यह एक बहुत ही सटीक सारांश है। स्वभाव-सार के विषय के संबंध में पहले तीन भ्रष्ट स्वभाव अपेक्षाकृत हलके स्तर के होते हैं, जबकि वास्तव में मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार का सारांश प्रस्तुत कर सकने वाले स्वभाव बाद वाले तीन ही हैं—सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता। ये तीन भ्रष्ट स्वभाव मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार को ज्यादा सटीक रूप से वर्गीकृत कर सकते हैं। हालाँकि पहले तीन स्वभावों का उपयोग मसीह-विरोधियों के सार को वर्गीकृत करने के लिए नहीं किया जाता, लेकिन उन तीनों भ्रष्ट स्वभावों में से प्रत्येक स्वभाव मसीह-विरोधियों में मौजूद होता है और वह आम लोगों की तुलना में ज्यादा गंभीर होता है। सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता इन सभी का उपयोग उनकी कट्टरता का सारांश प्रस्तुत करने और उसकी विशेषता बताने के लिए और उनकी कट्टरता का स्तर वर्णित करने के लिए किया जा सकता है। साथ ही, अंतिम तीन स्वभावों का उपयोग उनके अहंकार और धोखेबाजी का सारांश प्रस्तुत करने और उनकी विशेषता बताने के लिए भी किया जा सकता है। यह स्पष्ट है कि मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार की मुख्य विशेषताएँ सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता हैं।

क. दुष्टता

इन तीन भ्रष्ट स्वभावों—सत्य से विमुखता, क्रूरता और दुष्टता—में से दुष्टता मसीह-विरोधी के स्वभाव-सार में स्वभाव का सबसे व्यापक सारांश है और यह मसीह-विरोधी के स्वभाव-सार में सबसे सामान्य है। मसीह-विरोधी के स्वभाव-सार का वर्णन करने के लिए दुष्टता का उपयोग क्यों किया जाता है? अगर यह कहा जाता है कि मसीह-विरोधी बहुत दुष्ट होते हैं, तो उनके विचारों से आँकने पर वे रोज ऐसा क्या सोचते, कहते और करते हैं जो साबित करता है कि वे दुष्ट सार वाले लोग हैं? क्या इस प्रश्न पर विचार नहीं किया जाना चाहिए? (हाँ, किया जाना चाहिए।) तो हमें अपना विश्लेषण और अवलोकन जो वे सोचते हैं, उनकी बोलचाल और अंदाज, वे कैसा आचरण करते हैं और दुनिया के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, इससे शुरू करना चाहिए, ताकि यह आकलन लिया जा सके कि क्या वास्तव में इन लोगों में दुष्ट सार मौजूद है। आओ, सबसे पहले देखते हैं कि मसीह-विरोधी रोज क्या सोचते हैं। कुछ लोग सोचते हैं : “लोगों के इस समूह में मुझे सबसे योग्य नहीं माना जाता, न ही मुझमें सबसे ज्यादा गुण हैं, तो मैं ज्यादा लोकप्रियता कैसे प्राप्त कर सकता हूँ, सभी का सम्मान कैसे पा सकता हूँ, अपने पूर्वजों को गौरव कैसे दिला सकता हूँ और अपने सिर पर प्रभामंडल कैसे रख सकता हूँ? मैं दूसरों को अपनी बात सुनने और अपनी प्रशंसा करने के लिए कैसे राजी कर सकता हूँ? ऐसा लगता है कि हैसियत होना एक अच्छी बात है। कुछ लोग वास्तव में प्रतिष्ठा के साथ बात करते हैं और जब अन्य लोगों को कोई समस्या होती है, तो वे उनके पास जाते हैं—कोई मेरे पास क्यों नहीं आता? कोई मुझ पर ध्यान क्यों नहीं देता? मुझमें दिमाग है, विचार हैं, अपने कार्यों के प्रति एक व्यवस्थित नजरिया है और मैं मामलों में विवेक का इस्तेमाल करने में सक्षम हूँ—कोई मुझ पर ध्यान क्यों नहीं देता या मेरे बारे में ऊँची राय क्यों नहीं रखता? मैं कब दूसरों से अलग दिखूँगा? कब हर कोई मदद के लिए मेरे पास आएगा और सार्वजनिक रूप से मेरा समर्थन करेगा?” ये लोग किस बारे में सोच रहे हैं? ये सकारात्मक चीजों के बारे में सोच रहे हैं या नकारात्मक चीजों के बारे में? (नकारात्मक चीजों के बारे में।) जब कुछ लोग देखते हैं कि दूसरों का एक-दूसरे के साथ अच्छा रिश्ता है, तो वे सोचते हैं : “इनका रिश्ता इतना अच्छा कैसे है? मुझे इनमें कलह के बीज बोकर इनका रिश्ता खराब करने का कोई तरीका ढूँढ़ना होगा; इस तरह मैं अकेला नहीं पडूँगा और मेरे पास एक साथी होगा।” ये लोग क्या कर रहे हैं? ये चाहे कोई भी तरीका इस्तेमाल करें, उसका उद्देश्य कलह के बीज बोना ही होता है। जब वे किसी को अपना कर्तव्य उत्साह और जोश से निभाते हुए देखते हैं और अपना कर्तव्य निभाते हुए वे जो कुछ भी करते हैं उसमें प्रकाश प्राप्त करता हुआ देखते हैं, तो वे ईर्ष्यालु हो जाते हैं और सोचते हैं कि इस व्यक्ति का महत्त्व कैसे घटाया जाए, इसका उत्साह भंग कर इसे नकारात्मक कैसे महसूस कराया जाए। ये विचार, चाहे इन पर अमल किया जाए या नहीं, नकारात्मक विचार होते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो सोचते हैं : “नवनिर्वाचित अगुआ मुझे कैसे देखता है? मुझे इस अगुआ के करीब जाना चाहिए। हमारे रिश्ते बहुत अच्छे नहीं हैं और हम बहुत करीब भी नहीं हैं, तो मैं इससे चिकनी-चुपड़ी बातें करके लाभ कैसे उठा सकता हूँ? मेरे पास कुछ पैसे हैं, इसलिए मैं पता लगाऊँगा कि उसे किस चीज की जरूरत है और फिर वह चीज उसके लिए खरीद लूँगा। लेकिन अगर उसे कंप्यूटर की जरूरत हुई, तो मैं उतना पैसा खर्च करने को तैयार नहीं हूँ; अगर वह भविष्य में अगुआ न रहा, तो क्या यह पैसा बरबाद नहीं हो जाएगा? अगर उसे दस्ताने या कपड़े जैसी किसी चीज की जरूरत हो, तो मैं वह खरीद सकता हूँ और यह खर्च करने लायक भी है। पैसा सही चीजों पर खर्च करना चाहिए, बेकार में नहीं। मुझे अगुआ की चापलूसी भी करनी है, लेकिन सिर्फ खोखले शब्दों से नहीं बल्कि उसे वास्तविक कार्यों से खुश करना है—मुझे यह पता लगाते रहना होगा कि अगुआ को क्या पसंद है। इसके अलावा, मैं रोज खाने के समय अगुआ को खाना परोसने में मदद करूँगा और जब वह खाना खा लेगा, तो उसके बर्तन भी धो दूँगा। अगर अगुआ किसी की आलोचना करेगा, तो मैं भी वैसा ही करते हुए उसकी हाँ में हाँ मिलाऊँगा; अगर अगुआ किसी की प्रशंसा करेगा, तो मैं तुरंत उस व्यक्ति की सिफारिश कर उसके गुणों की प्रशंसा करूँगा।” ये लोग किस बारे में सोच रहे हैं? (अगुआ को खुश करने और उसकी चापलूसी करने के बारे में।) ऐसे लोग भी हैं जो परमेश्वर के घर में काम करते हुए सोचते हैं : “दूसरे लोग कड़ी मेहनत और ईमानदारी से काम करते हैं; मुझे चतुर बनना होगा, मैं मूर्ख नहीं बन सकता और मैं बहुत ज्यादा मेहनत भी नहीं कर सकता। अगर भविष्य में परमेश्वर के घर को मेरी जरूरत न रही, तो क्या यह प्रयास व्यर्थ नहीं चला जाएगा? क्या मैं व्यर्थ में कड़ी मेहनत नहीं करूँगा? लेकिन अगर मैं बिल्कुल भी काम नहीं करता, तो मुझे परमेश्वर के घर द्वारा चलता कर दिया जाएगा। मुझे क्या करना चाहिए? जब अगुआ मौजूद होगा, तो मैं पूरी मेहनत से काम करूँगा, खूब पसीना बहाकर अगुआ को दिखाऊँगा; जब वह आसपास नहीं होगा तो मैं शौचालय चला जाऊँगा, पानी पिऊँगा, टहलने के लिए बाहर चला जाऊँगा या आराम करने के लिए कोई एक कोना तलाश लूँगा। अगर दूसरे लोग तीन फावड़े मिट्टी खोदते हैं तो मैं आधा फावड़ा ही खोदूँगा; अगर दूसरे तीन या पाँच बार सामान लेकर आते-जाते हैं तो मैं एक बार ही जाऊँगा। मैं जब भी संभव होगा आराम करूँगा और सुस्ताऊँगा। मुझे ज्यादा उत्साही नहीं होना चाहिए; अगर मैं बहुत ज्यादा काम करने से बीमार हो गया या थक गया, तो मेरे लिए कौन दुखी होगा? बीमारी में मेरी तीमारदारी कौन करेगा? क्या अगुआ मेरा ख्याल रखेगा? क्या परमेश्वर मेरा ख्याल रखेगा? क्या परमेश्वर इन चीजों के लिए जिम्मेदार होगा? इसलिए काम करते समय मुझे यह पता लगाना होगा कि मैं कहाँ काम कर सकता हूँ ताकि साफ तौर पर दिखाई दूँ। जब मैं सुस्ताना चाहूँ, तो मुझे यह पता लगाना होगा कि मुझे खोजे जाने की सबसे कम संभावना कहाँ होगी, मेरे ध्यान आकर्षित करने की सबसे कम संभावना कहाँ होगी।” ये लोग क्या सोच रहे हैं? (काम में ढिलाई बरतना और चालाकी दिखाना।)

1. मसीह-विरोधी लोगों के प्रति क्या करते हैं

दिन भर दुष्ट विचार रखने वाले लोगों का चरित्र कैसा होता है? यह कम निष्ठा और कपटपूर्णता वाला चरित्र होता है। उनके स्वभाव से आँकें तो यह क्या है? (दुष्टता।) जिन चीजों के बारे में वे सोचते हैं, क्या उनकी प्रकृति में कुछ भी सही है होता है? क्या उसमें कुछ भी ऐसा होता है जो नेक, खुला और ईमानदार लगता हो? क्या उसमें कुछ भी अच्छा होता है? (नहीं, कुछ नहीं।) तो संक्षेप में, मसीह-विरोधी के सार वाले लोगों के दुष्ट स्वभाव में अभिव्यक्त होने वाली पहली चीज यह है कि वे दिन भर सिर्फ बुराई के बारे में सोचते रहते हैं। चाहे वे किसी बड़ी समस्या का सामना करें या छोटी समस्या का, उनके विचार बुराई से ही भरे होते हैं। विशेष रूप से, वे लोगों के प्रति कुछ खास चीजें करते हैं और परमेश्वर के प्रति उनकी अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ और अभ्यास भी होते हैं। तो वे लोगों के प्रति क्या चीजें करते हैं? वे अपने विचारों में किस तरह के अभ्यास विकसित करते हैं? अभी बताए गए कई उदाहरणों में क्या तुम लोग देख सकते हो कि ऐसा व्यक्ति कैसे लगातार दूसरों के खिलाफ साजिश रचता है? वे लगातार साजिश रचते हैं और जिस किसी के साथ उनका व्यवहार या संपर्क होता है, वह उनकी साजिशों का लक्ष्य बन जाता है। दूसरे, हालाँकि कभी-कभी वे कार्य करते समय बोलते नहीं, फिर भी उनके कार्यों के तरीके, पद्धतियाँ और स्रोत ईमानदार नहीं होते और वे सत्य का अभ्यास नहीं करते—यह सिर्फ एक भ्रामक दिखावा होता है। इसकी प्रकृति क्या होती है और यह अभ्यास क्या होता है? यह छल और दिखावा होता है और वे दूसरों को प्रलोभन भी दे रहे होते हैं। चूँकि वे दिखावा करके लोगों को धोखा दे सकते हैं, तो क्या वे लोगों को फुसलाकर गुमराह भी कर सकते हैं? (हाँ, कर सकते हैं।) इसके अतिरिक्त, ऐसा व्यक्ति हैसियत, प्रतिष्ठा, इज्जत और अपने हितों को लेकर दूसरों के साथ निरंतर संघर्षरत रहता है। वे प्रसिद्धि के लिए लड़ते हैं और इस बात के लिए भी कि किसका निर्णय अंतिम होगा, किसके पास ज्यादा विचार हैं, किसके मत ज्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण और ज्यादा उचित हैं, किसका सभी लोग ज्यादा समर्थन करते हैं और कौन ज्यादा लाभ प्राप्त कर सकता है—वे इन्हीं चीजों की होड़ में लगे रहते हैं। हैसियत न होने पर भी वे लोगों के खिलाफ इस तरह साजिश करते हैं, तो हैसियत होने पर वे क्या करेंगे? तब उनके प्रभुत्व के तहत लोगों को लगातार सताया जाता है; वे सत्य से प्रेम न करने वाले लोगों को फुसलाकर अपने साथ मिला लेते हैं और उन पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, वे उन लोगों पर हमला कर उन्हें बाहर निकाल देते हैं जो सत्य स्वीकार सकते हैं, जिसका उद्देश्य सभी को अपनी बात सुनने और अपना आज्ञापालन करने के लिए मजबूर करना होता है; वे हमेशा गुट बनाकर समूहों में कलह के बीज बोते हैं और अंत में सभी को अपना बना लेते हैं। ये सभी चीजें उनके उत्पीड़न के दायरे में आती हैं। मसीह-विरोधी दिन भर बुराई के बारे में सोचते रहते हैं और जो भी स्वभाव वे प्रकट करते हैं वह बुरा होता है। तो क्या यह कहना सही है कि ऐसे लोगों का स्वभाव दुष्ट होता है? (हाँ, यह सही है।) ऐसे समूह में जहाँ हर कोई अपनी जगह जानता है, अपने काम में संलग्न रहता है और वही करता है जो उसे करना चाहिए, जैसे ही कोई मसीह-विरोधी प्रकट होता है, वह भीतर से कलह के बीज बो देता है, क नामक व्यक्ति के सामने ख नामक व्यक्ति की और ख नामक व्यक्ति के सामने क नामक व्यक्ति की बुराई करता है और दोनों को आपस में भिड़ा देता है। क्या यह कलह के बीज बोने का नतीजा नहीं है? तो मसीह-विरोधी के साजिश करने की कुछ अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? उदाहरण के लिए, जब कलीसिया में चुनाव होता है, तो महत्वाकांक्षा-रहित साधारण लोग सोच सकते हैं, “जो कोई भी चुना जाएगा, मैं उसके प्रति समर्पित हो जाऊँगा; जिस किसी को भी परमेश्वर अगुआ बनने देगा, मैं उसका समर्थन करूँगा और कोई उपद्रव नहीं करूँगा या परेशानी पैदा नहीं करूँगा।” लेकिन बुरे इरादे वाले लोग इस तरह से नहीं सोचते। अगर वे देखते हैं कि इस चुनाव में उनके जीतने की कोई उम्मीद नहीं है, तो वे अपने दिल में हिसाब लगाना शुरू कर देते हैं : “मुझे सभी के लिए कुछ अच्छी चीजें खरीदनी होंगी। आजकल कलीसिया में किन चीजों की कमी है? मैं एक एयर-प्यूरीफायर खरीदूँगा और उसे सभा-स्थल में रख दूँगा, ताकि जब सभी लोग ताजी हवा में साँस लें तो मेरे बारे में सोचें। इस तरह जब चुनाव का समय आएगा, तो क्या मैं पहला उम्मीदवार नहीं होऊँगा जिसके बारे में वे सोचेंगे? इसलिए मैं बेकार में कार्य या पैसा खर्च नहीं करूँगा।” यह सोचकर वे जल्दी से सबसे सस्ता और देखने में सबसे आकर्षक एयर-प्यूरीफायर खरीद लेते हैं। इसके अतिरिक्त वे सोचते हैं : “इस दौरान मुझे सावधान रहने की जरूरत है। मुझे गलत बातें नहीं कहनी चाहिए और ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए जो नकारात्मक हों और लोगों को शिक्षित न करें; जब भी मैं लोगों से मिलूँ, तो मुझे चापलूसी भरी बातें करनी चाहिए और अक्सर ऐसी बातों से दूसरों की तारीफ करनी चाहिए, ‘तुम वाकई बहुत अच्छे लग रहे हो! तुम सत्य का अनुसरण कर रहे हो! हालाँकि तुमने परमेश्वर पर उतने समय से विश्वास नहीं किया है जितने समय से मैंने किया है, फिर भी तुमने मुझसे ज्यादा सत्य का अनुसरण किया है। तुम में मानवता है और तुम जैसे मानवता वाले लोग बचाए जा सकते हैं—मुझ जैसे नहीं।’ मुझे विनम्र दिखना चाहिए और दूसरों की इस तरह प्रशंसा करनी चाहिए मानो वे सभी पहलुओं में मुझसे बेहतर हों, जिससे उन्हें लगे कि उन्हें पर्याप्त सम्मान मिला है।” क्या यह साजिश करना नहीं है? मसीह-विरोधी ऐसी चीजें आसानी से कर लेते हैं; आम लोग साजिश करने में उनसे आगे नहीं निकल सकते। अविश्वासियों के बीच क्या कहावत चलती है? (तुम्हें किसी ने बेचा है और तुम फिर भी पैसे गिनने में उसकी मदद करते हो।) मसीह-विरोधी ऐसी चीजें करते हैं और ज्यादातर लोग उनके विश्वासघात और उनकी साजिश के लक्ष्य होते हैं।

मुझे बताओ, क्या मसीह-विरोधी काट-छाँट किया जाना स्वीकारते हैं? क्या वे स्वीकारते हैं कि उनमें भ्रष्ट स्वभाव है? (नहीं, वे नहीं स्वीकारते।) वे भ्रष्ट स्वभाव होना नहीं स्वीकारते, लेकिन काट-छाँट किए जाने के बाद भी वे ऐसा दिखावा करते हैं जैसे वे खुद को जानते हों। वे कहते हैं कि वे राक्षस और शैतान हैं, उनमें मानवता नहीं है और उनकी काबिलियत कमजोर है और वे चीजों पर पूरी तरह से विचार करने में असमर्थ हैं, वे कलीसिया द्वारा व्यवस्थित कार्यों के लिए अयोग्य हैं और उन्होंने अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभाए हैं। फिर ज्यादातर लोगों के सामने वे अपना भ्रष्ट स्वभाव स्वीकारते हैं, वे स्वीकारते हैं कि वे राक्षस हैं और अंत में यह भी कहते हैं कि परमेश्वर ही उनका शोधन और बचाव कर रहा है और लोगों को यह दिखाते हैं कि काट-छाँट किए जाने को स्वीकारने में वे कितने सक्षम और सत्य के प्रति कितने विनीत हैं। वे इस बात का उल्लेख नहीं करते कि उनकी काट-छाँट क्यों की जा रही है या उनके कामों ने कलीसिया के कार्य को क्या नुकसान पहुँचाया है। वे इन मुद्दों से बचते हैं और लोगों से यह मनवाने के लिए कि उन्हें परमेश्वर के घर से प्राप्त होने वाली काट-छाँट अनुपयुक्त और अनुचित है, वे खोखले शब्द, धर्मसिद्धांत, कुतर्क और व्याख्यात्मक टिप्पणियाँ बोलते हैं, मानो उन्होंने कोई बहुत बड़ा अन्याय सहा हो। काट-छाँट किए जाने के बाद वे अपने दिलों में अडिग रहते हैं, अपने विभिन्न बुरे कर्मों को जरा भी नहीं स्वीकारते। तो वे तमाम शब्द क्या हैं जिनकी उन्होंने अपना भ्रष्ट स्वभाव स्वीकारने, सत्य स्वीकारने के लिए तैयार होने और काट-छाँट के लिए प्रस्तुत होने में सक्षम होने के बारे में संगति की थी? क्या ये उनकी सच्ची भावनाएँ हैं? बिल्कुल नहीं। ये सब झूठ, दिखावा और शैतानी शब्द हैं, जो लोगों को गुमराह कर फुसलाने के लिए हैं। लोगों को गुमराह करने के पीछे उनका क्या उद्देश्य होता है? (लोगों से अपनी आराधना और अनुसरण करवाना।) बिल्कुल सही, यह लोगों से अपना अनुसरण करवाने और उन्हें अपनी बात सुनने को मजबूर के लिए उन्हें गुमराह कर फुसलाने के लिए होता है, जिससे हर कोई यह सोचे कि वे सही और अच्छे हैं। इस तरह कोई उनकी असलियत नहीं देखता या उनका विरोध नहीं करता। इसके विपरीत, लोग मानते हैं कि वे ऐसे व्यक्ति हैं जो सत्य और काट-छाँट स्वीकारते हैं और पश्चात्ताप करते हैं। तो वे अपने बुरे कर्म क्यों नहीं स्वीकारते या परमेश्वर के घर के कार्य में स्वयं द्वारा किए गए नुकसान क्यों नहीं स्वीकारते? वे इन मामलों को संगति के लिए सबके सामने क्यों नहीं लाते? (अगर वे ये बातें कहेंगे, तो लोग उन्हें पहचान लेंगे।) अगर लोग उन्हें पहचान लेंगे, उनकी असलियत देख लेंगे और उनकी मानवता और उनके स्वभाव-सार को समझ लेंगे, तो वे उन्हें त्याग देंगे। क्या वे फिर भी उनकी चालों में फँसकर उनके द्वारा गुमराह होंगे? क्या वे फिर भी उनका बहुत सम्मान करेंगे? क्या वे फिर भी उनकी बेहद प्रशंसा करेंगे? क्या वे फिर भी उनकी आराधना करेंगे? वे इनमें से कुछ नहीं करेंगे। मसीह-विरोधी खुद को जानने का दिखावा करते हैं, लेकिन वास्तव में यह सब कुतर्क और स्व-स्पष्टीकरण हैं जो लोगों को गुमराह कर उन्हें अपने पक्ष में खड़ा होने को मजबूर करने के लिए हैं और यही उनका गुप्त उद्देश्य है। वे महत्वपूर्ण मामलों से बचते हैं और लोगों को गुमराह कर उन्हें फुसलाने, लोगों से अपना सम्मान और आराधना करवाने के लिए खुद को जानने और काट-छाँट स्वीकारने के बारे में हलकी बातें करते हैं। क्या यह तरीका काफी दुष्टतापूर्ण नहीं है? कुछ लोग वास्तव में इस झाँसे में आ जाते हैं और मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह किए जाने के बाद कहते हैं, “वह व्यक्ति बहुत अच्छा बोलता है—मैं बहुत प्रेरित हुआ। मैं कई बार रोया!” उस समय ये लोग उनकी बहुत आराधना और सम्मान करते हैं, लेकिन अंत में वे मसीह-विरोधी साबित होते हैं; यह मसीह-विरोधियों द्वारा दूसरों को गुमराह कर उन्हें फुसलाने का नतीजा है। मसीह-विरोधी इस तरह से लोगों को गुमराह कर सकते हैं और निश्चित रूप से ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो इस झाँसे में आकर धोखा खा जाते हैं। अगर कोई इस मामले में मसीह-विरोधियों को पहचान सकता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जो सत्य समझता है और जिसमें विवेक है।

मसीह-विरोधी अक्सर लोगों को सताते हैं। उनकी एक प्रसिद्ध कहावत है : “प्यारे बच्चो, चूँकि तुम मेरे सामने झुकते नहीं, इसलिए मैं तुम्हें दो ही चालों में तुम्हारे हाथों और घुटनों पर गिराकर तुमसे अपनी आराधना करवाऊँगा—अगर तुम मेरे सामने नहीं झुकते तो मैं तुम्हें मौत के घाट उतार दूँगा!” मसीह-विरोधी क्या करना चाहते हैं? वे लोगों को सताना चाहते हैं। वे किस तरह के लोगों को सताना चाहते हैं? अगर तुम उनका आज्ञापालन करते हो, उनकी चापलूसी और आराधना करते हो, तो क्या वे तुम्हें सताएँगे? अगर तुम उनके साथ विनम्र और आज्ञाकारी हो, अगर वे तुम्हें खतरनाक नहीं समझते और तुम सिर्फ भोले या गुलाम हो, तो वे तुम्हें सताने की जहमत नहीं उठाएँगे। अगर वे कुछ बुरा करते हैं या बुरे काम करते हैं, अगर उन्हें कोई ऐसा मिल जाता है जो उन्हें पहचानता है, जो उन्हें उजागर कर उनका पर्दाफाश कर देगा और उन्हें उनके पद से हटा देगा, जो उनकी प्रतिष्ठा नष्ट कर देगा और उनके कार्यों का अवमूल्यन कर देगा, तो वे सोचेंगे कि उस व्यक्ति को कैसे सताएँ। मसीह-विरोधी लोगों को सनक में आकर नहीं सताते; बल्कि वे लगातार लोगों का निरीक्षण और परीक्षण करते हैं, देखते हैं कि कौन उनकी पीठ पीछे उनके बारे में बुरा-भला कह रहा है, कौन उनके आगे नहीं झुकता, कौन उनके कार्यों को पहचानता है, कौन उन पर ध्यान नहीं देता और कौन उनके साथ घुलने-मिलने से इनकार करता है। कुछ समय तक निरीक्षण कर दो-तीन ऐसे व्यक्तियों को खोजने के बाद वे सभाओं के दौरान इन लोगों के मुद्दों के बारे में संगति करना शुरू कर देते हैं। हालाँकि वे जो कहते हैं वह ऊपर से सही लगता है, लेकिन वास्तव में वह लक्षित होता है, किसी कारण और उद्देश्य के साथ होता है। कारण क्या होता है? उन्होंने पहले ही पूरी तरह से जाँच-पड़ताल कर ली होती है; ये व्यक्ति उनके आगे झुकते नहीं और उन्हें पहचानते हैं, हमेशा उन्हें उजागर कर उनका पर्दाफाश करने, उन्हें पद से हटाने की कोशिश करते रहते हैं। वे ये बातें उन व्यक्तियों को चेतावनी देने, उन्हें सावधान करने के लिए कहते हैं। अगर ये लोग पीछे हट जाते हैं और आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं करते और सब-कुछ मसीह-विरोधियों की इच्छा के अनुसार होता है, तो मसीह-विरोधी उन्हें अनदेखा कर देते हैं। लेकिन अगर ये लोग पहले की तरह ही करते रहते हैं, उनके साथ घुलने-मिलने से इनकार करते हैं और अभी भी उनका पर्दाफाश करने, ऊपर वाले से उनकी रिपोर्ट करने और उन्हें पद से हटाने का इरादा रखते हैं, तो वे मसीह-विरोधियों के अगले लक्ष्य बन जाते हैं। वे दूसरे हथकंडों के बारे में सोचते हैं और ज्यादा प्रबल और कठोर तरीके अपनाते हैं, उन पर बढ़त पाने के तरीके सोचने की कोशिश करते हैं और उन्हें सताने के अवसर ढूँढ़ते हैं और तब तक नहीं रुकते जब तक कि वे उन्हें कलीसिया से निकलवा न दें। मसीह-विरोधी असहमति जताने वालों को इस तरह की यातना देते हैं और तब तक आराम से नहीं बैठते, जब तक कि अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर लेते। लोगों को सताने के लिए जो तरीके मसीह-विरोधी अपनाते हैं, वे क्रूर होते हैं। वे बहाना ढूँढ़कर लोगों पर ठप्पा लगाने से शुरुआत करते हैं और फिर उन्हें सताना शुरू कर देते हैं और तब तक नहीं रुकते जब तक कि लोग उनका आज्ञापालन कर पूरी तरह से उनके सामने झुक नहीं जाते—वरना यह काम खत्म नहीं होता। कलीसिया में मसीह-विरोधी लगातार कलह के बीज बोकर गुट बनाते हैं, जिसका उद्देश्य गुटबंदी करके कलीसिया पर नियंत्रण करना होता है। क्या यह एक आम बात नहीं है? मसीह-विरोधी गुट बनाते हैं, कलह के बीज बोते हैं, बल जुटाते हैं, अपने लिए लाभदायक लोगों के साथ षड्यंत्र करते हैं जो उनके लिए बोल सकते हैं, उनके बुरे काम छिपा सकते हैं और महत्वपूर्ण क्षणों में उनका बचाव कर सकते हैं। वे इन लोगों से अपने लिए काम करवाते हैं, यहाँ तक कि दूसरों के बारे में रिपोर्ट करवाकर अपने संदेशवाहक के रूप में काम करवाते हैं। अगर उनके पास हैसियत होती है, तो यह समूह उनका स्वतंत्र राज्य बन जाता है। अगर उनके पास हैसियत नहीं होती, तो वे और उनका समूह कलीसिया के भीतर एक बल बनाते हैं, कलीसिया की सामान्य व्यवस्था में बाधा डालते और हस्तक्षेप करते हैं और सामान्य कलीसियाई जीवन और कार्य को बाधित करते हैं।

मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार की सबसे सामान्य अभिव्यक्ति यह है कि वे दिखावे और पाखंड में विशेष रूप से अच्छे होते हैं। अपने विशेष रूप से शातिर, कपटी, निर्दयी और अहंकारी स्वभाव के बावजूद वे खुद को बाहरी तौर पर विशेष रूप से विनम्र और सौम्य व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं। क्या यह दिखावा नहीं है? ये लोग अपने दिलों में प्रतिदिन यह सोचते हुए चिंतन करते हैं, “खुद को ज्यादा ईसाई, ज्यादा ईमानदार, ज्यादा आध्यात्मिक, ज्यादा दायित्व उठाने वाला और ज्यादा अगुआ-जैसा दिखाने के लिए मुझे कैसे कपड़े पहनने चाहिए? मुझे कैसे खाना चाहिए, ताकि लोगों को लगे कि मैं काफी परिष्कृत, शिष्ट, प्रतिष्ठित और नेक हूँ? अगुआई और करिश्मे का आभास देने, साधारण व्यक्ति के बजाय एक असाधारण व्यक्ति की तरह दिखने के लिए मुझे चलने की कौन-सी मुद्रा अपनानी चाहिए? दूसरों के साथ बातचीत में कौन-सा लहजा, शब्दावली, रूप और चेहरे के हाव-भाव लोगों को यह महसूस करा सकते हैं कि मैं उच्च वर्ग का हूँ, एक सामाजिक अभिजात वर्ग या उच्च श्रेणी के बुद्धिजीवी जैसा हूँ? मेरा पहनावा, शैली, बोल-चाल और व्यवहार कैसे लोगों से मुझे उच्च सम्मान कैसे दिला सकते हैं, कैसे उन पर एक अमिट छाप छोड़ सकते हैं और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि मैं हमेशा उनके दिलों में बना रहूँ? लोगों के दिल जीतने और उनमें गर्मजोशी भरने और एक स्थायी छाप छोड़ने के लिए मुझे क्या कहना चाहिए? मुझे दूसरों की मदद करने और उनके बारे में अच्छी बातें करने का काम और ज्यादा करना चाहिए, लोगों के सामने अक्सर परमेश्वर के वचनों के बारे में बात करनी चाहिए और कुछ आध्यात्मिक शब्दावली का इस्तेमाल करना चाहिए, दूसरों को परमेश्वर के वचन और ज्यादा पढ़कर सुनाने चाहिए, उनके लिए ज्यादा प्रार्थना करनी चाहिए, धीमी आवाज में बोलना चाहिए ताकि लोग उत्सुक होकर मेरी बात सुनें, और उन्हें यह महसूस कराना चाहिए कि मैं कोमल, देखभाल करने वाला, प्रेमपूर्ण, उदार और क्षमाशील हूँ।” क्या यह दिखावा नहीं है? ये वे विचार हैं जो मसीह-विरोधियों के दिलों पर कब्जा किए रहते हैं। उनके विचारों को कुछ और नहीं, बल्कि गैर-विश्वासियों की प्रवृत्तियाँ भरती हैं, जो पूरी तरह से यह दर्शाता है कि उनके विचार और दृष्टिकोण दुनिया और शैतान से संबंधित हैं। कुछ लोग अकेले में वेश्या या बदचलन महिला की तरह कपड़े पहन सकते हैं; उनके कपड़े विशेष रूप से बुरी प्रवृत्तियों के अनुरूप और खास तौर से फैशनेबल होते हैं। लेकिन जब वे कलीसिया में आते हैं, तो भाई-बहनों के बीच वे पूरी तरह से अलग पोशाक पहनते और चाल-ढाल अपनाते हैं। क्या वे दिखावा करने में बेहद माहिर नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) मसीह-विरोधी अपने दिलों में जो सोचते हैं, जो वे करते हैं, उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ और जो स्वभाव वे प्रकट करते हैं, वे सभी स्पष्ट करते हैं कि उनका स्वभाव-सार दुष्ट है। मसीह-विरोधी सत्य, सकारात्मक चीजों, सही मार्ग या परमेश्वर की अपेक्षाओं पर विचार नहीं करते। उनके विचार और उनके द्वारा चुने जाने वाले नजरिये, तरीके और लक्ष्य सब दुष्ट होते हैं—वे सब सही मार्ग से भटक जाते हैं और सत्य के साथ असंगत होते हैं। यहाँ तक कि वे सत्य के विरुद्ध भी चले जाते हैं और सामान्य तौर पर उन्हें बुरे व्यक्तियों के रूप में सारांशित किया जा सकता है; बात यह है कि इस बुरे व्यक्ति की प्रकृति दुष्ट होती है—इसलिए इसे सामूहिक रूप से दुष्टता कहा जाता है। वे ईमानदार व्यक्ति होने, शुद्ध और खुले होने या ईमानदार और वफादार होने पर विचार नहीं करते; इसके बजाय वे दुष्ट तरीकों के बारे में सोचते हैं। उदाहरण के लिए, एक ऐसे व्यक्ति को लो, जो अपने बारे में शुद्ध तरीके से खुलकर बता सकता हो, जो एक सकारात्मक चीज और सत्य का अभ्यास करना है। क्या मसीह-विरोधी ऐसा करते हैं? (नहीं।) वे क्या करते हैं? वे लगातार दिखावा करते हैं और जब वे कुछ बुरा करके खुद को उजागर करने लगते हैं, तो वे इसे उग्र रूप से छिपाते हैं, खुद को सही ठहराकर अपना बचाव करते हैं और तथ्यों को छिपाते हैं—फिर वे अंततः अपने तर्क देते हैं। क्या इनमें से कोई भी अभ्यास सत्य का अभ्यास करने के बराबर है? (नहीं।) क्या इनमें से कोई भी सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप है? बिल्कुल नहीं।

अभी हमने मसीह-विरोधियों के स्वभाव-सार के पहले पहलू—दुष्टता पर संगति कर उसका विश्लेषण किया। हमने इस बात का विश्लेषण करने से शुरुआत की कि मसीह-विरोधी लोग पूरे दिन क्या सोचते हैं और मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव का विश्लेषण करने के लिए उनके विचारों, दृष्टिकोणों और विभिन्न मामलों पर प्रतिक्रिया देने के उनके तरीकों और विधियों का इस्तेमाल किया। हमने मसीह-विरोधियों के विचारों में जो कुछ मौजूद होता है, उसके आधार पर उनके द्वारा की जाने वाली विभिन्न चीजों की प्रकृति का भी विश्लेषण किया। हमने कुछ मिसालें देकर उन उदाहरणों के माध्यम से प्रकट होने वाले उनके स्वभाव-सार का विश्लेषण भी किया। इन उदाहरणों के संबंध में, क्या तुम लोगों ने इन व्यवहारों को प्रदर्शित और इन स्वभावों को प्रकट करने वाले लोगों में अपेक्षाकृत मानवता वाले किसी व्यक्ति को देखा है? जब ऐसे व्यक्ति की बात आती है जिसमें ऐसे प्रकाशन और अभिव्यक्तियाँ होती हैं, तो क्या उसके चरित्र में ईमानदारी, दयालुता, सरलता, नेकनीयती, सच्चाई आदि होती हैं? (नहीं होतीं।) स्पष्ट रूप से उसमें ये गुण नहीं होते। इसके विपरीत, उसका चरित्र कपटी, निर्दयी, आदतन झूठ बोलने वाला, स्वार्थी, नीच और गौरव की भावना से रहित होता है। उसके चरित्र की ये विशेषताएँ बिल्कुल स्पष्ट होती हैं। यह सटीक रूप से कहा जा सकता है कि जो लोग दिन भर दुष्ट विचार रखते हैं और जो विभिन्न दुष्ट चीजें कर सकते हैं, उन सभी का चरित्र बहुत खराब होता है। वह किस हद तक खराब होता है? उसमें जमीर, निष्ठा और खास तौर पर सामान्य तर्क-शक्ति का अभाव होता है। क्या इन चीजों से रहित लोगों को इंसान माना जा सकता है? यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जिन लोगों में ये चीजें नहीं होतीं, वे इंसान नहीं हैं; वे सिर्फ इंसान का बाहरी खोल ओढ़े हुए हैं। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “क्या यह भेड़ की खाल में भेड़िये जैसा नहीं है?” यह तो सिर्फ एक रूपक है। भेड़ की खाल में भेड़िये क्या होते हैं? वे मूलतः भेड़िये होते हैं। क्या भेड़ियों और शैतानों या मसीह-विरोधियों के बीच कोई मूलभूत अंतर होता है? भेड़िये मवेशियों और भेड़ों का शिकार करके खाते हैं, किसी लालच की वजह से नहीं बल्कि अपनी परमेश्वर-निर्धारित प्रकृति के अंश के रूप में। लेकिन भेड़ियों में एक चीज होती है, जो मसीह-विरोधियों में नहीं होती। अगर कोई भेड़िये को गोद लेकर पालता है या उसकी जान बचाता है, तो भेड़िया उस व्यक्ति को कभी नुकसान नहीं पहुँचाएगा और कृतज्ञता दिखाएगा। इसके विपरीत, मसीह-विरोधी परमेश्वर के अनुग्रह, अगुआई और उसके वचनों के पोषण का आनंद लेते हैं, फिर भी वे हर चीज में परमेश्वर के विरुद्ध षड्यंत्र रचते हैं, हमेशा उसके विरोध में रहते हैं और उसके प्रति शत्रुता रखते हैं। वे परमेश्वर द्वारा की जाने वाले किसी भी चीज के प्रति समर्पित नहीं हो सकते; वे उसके लिए आमीन नहीं कह सकते—वे विरोध में खड़े होना चाहते हैं। क्या यह कहना उचित है कि मसीह-विरोधी भेड़ की खाल में भेड़िये होते हैं? क्या यह रूपक सटीक है? (नहीं, यह सटीक नहीं है।) अतीत में, धर्म में जिसे भी मसीह-विरोधी या दुष्ट व्यक्ति करार दिया जाता था, उसे भेड़ की खाल में भेड़िया माना जाता था। यह सिर्फ एक रूपक था, जिसका इस्तेमाल लोग तब करते थे जब वे सत्य और विभिन्न व्यक्तियों के मानवता-सार और स्वभाव को नहीं समझते थे। लेकिन जब इस स्तर पर सत्य की संगति की जाती है, तो इस रूपक का उपयोग करना कम उपयुक्त हो जाता है। शैतान शैतान होते हैं और मसीह-विरोधी शैतान के समान होते हैं और वे परमेश्वर द्वारा सृजित सभी जीवों से तुलना करने के काबिल नहीं होते। क्या परमेश्वर द्वारा सृजित किसी प्राणी, जैसे भेड़िये या अन्य मांसाहारी पशु ने कभी परमेश्वर का विरोध या उसके प्रति विद्रोह किया है? क्या वे परमेश्वर के विरुद्ध शोर मचाएँगे या उसका विरोध करेंगे? क्या वे परमेश्वर द्वारा कही गई किसी चीज की आलोचना, उसकी निंदा या उस पर हमला करेंगे? वे ऐसी हरकतें नहीं करते; वे सिर्फ उन प्रवृत्तियों और जीवन-परिवेश के अनुसार जीते हैं, जो परमेश्वर ने उनके लिए निर्धारित किया है। परमेश्वर ने उन्हें जैसा होने के लिए बनाया है, वे वैसे ही हैं—बिना किसी दिखावे के। लेकिन मसीह-विरोधी अलग होते हैं : उनमें शैतान की प्रकृति होती है और वे सकारात्मक चीजों और सत्य के विरुद्ध कार्य करने में विशेषज्ञता रखते हैं। वे बड़े लाल अजगर जैसे ही होते हैं : वे परमेश्वर के विरुद्ध प्रतिरोध के कार्य करने में विशेषज्ञता रखते हैं।

2. मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति क्या करते हैं

मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों के प्रति प्रदर्शित की जाने वाली विभिन्न दुष्ट अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करने के बाद, आओ हम इस बारे में संगति करें कि मसीह-विरोधी पूरे दिन अपने भीतर सिर्फ दुष्ट चीजों के बारे में सोचते हुए परमेश्वर के प्रति क्या अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करते हैं। हमने इस विषय पर पहले बहुत-कुछ शामिल किया है, इसलिए आओ, उसका सारांश प्रस्तुत करते हैं। हम हलके मामलों से शुरू करेंगे और फिर धीरे-धीरे ज्यादा गंभीर मामलों की ओर बढ़ेंगे। पहला है संदेह, जिसके बाद आता है परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करना और फिर संशय, सतर्कता, माँगें और सौदेबाजी करना भी है। क्या कुछ और है? (परमेश्वर की परीक्षा लेना।) इस व्यवहार की प्रकृति काफी गंभीर है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, प्रत्येक व्यवहार की प्रकृति ज्यादा से ज्यादा गंभीर होती जाती है—इनकार, तिरस्कार, आलोचना, ईशनिंदा, मौखिक दुर्व्यवहार, हमला, शोरगुल और विरोध। देखने में इनमें से कुछ शब्दों के अर्थ कुछ हद तक समान लग सकते हैं, लेकिन करीब से जाँच-पड़ताल करने पर उनकी गहराई या बल अलग-अलग होता है। विभिन्न परिप्रेक्ष्यों को अपनाकर या मसीह-विरोधियों के विभिन्न नजरियों पर विचार करके हम इन शब्दों की प्रकृति में अंतर कर सकते हैं।

i. संदेह

संदेह, जाँच-पड़ताल और संशय अपेक्षाकृत प्रारंभिक अभिव्यक्तियाँ हैं। कुछ लोग यह सोचते हुए अपने दिलों में सिर्फ संदेह पालते हैं, “क्या देहधारी देह वास्तव में परमेश्वर है? वह तो मुझे एक व्यक्ति जैसा लगता है। क्या उसके सभी वचन सत्य हैं? उनमें से कौन-से वचन सत्य जैसे लगते हैं? वह जो कहता है, उसमें से कुछ इंसानी बोलचाल और ज्ञान से परे हो सकता है। लोग शायद रहस्य और भविष्यवाणियाँ स्पष्ट रूप से नहीं समझा सकते, लेकिन क्या भविष्यवक्ता भी ऐसी बातें नहीं कह सकते? कहा जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है, लेकिन परमेश्वर धार्मिक कैसे है? कहा जाता है कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभुता रखता है, लेकिन फिर शैतान हमेशा बुरे काम क्यों करता है? जब शैतान हमें पकड़कर सताता है, हमारे साथ दुर्व्यवहार करता है, तो परमेश्वर हस्तक्षेप क्यों नहीं करता? परमेश्वर कहाँ है? क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है?” जब लोगों में वास्तविक आस्था की कमी होती है, तो वे परमेश्वर की संप्रभुता को नहीं पहचानते, परमेश्वर के स्वभाव या सार को नहीं जानते और सत्य नहीं समझते, फिर उनके दिलों में ऐसे संदेह तो पैदा होंगे ही। लेकिन जैसे-जैसे लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, सत्य समझते हैं और परमेश्वर की संप्रभुता को पहचानते हैं, ये संदेह धीरे-धीरे दूर होते जाते हैं और वास्तविक आस्था में बदल जाते हैं। यह उन सभी के लिए अपरिहार्य मार्ग है जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। लेकिन क्या दुष्ट सार वाले मसीह-विरोधियों के संदेह दूर किए जा सकते हैं? (नहीं, दूर नहीं किए जा सकते।) वे दूर क्यों नहीं किए जा सकते? (मसीह-विरोधी छद्म-विश्वासी होते हैं—वे परमेश्वर को नहीं मानते।) सिद्धांत रूप में, वे छद्म-विश्वासी होते हैं, इसलिए वे लगातार परमेश्वर पर संदेह करते हैं। वस्तुगत कारण यह है कि ऐसे लोग सहज रूप से सत्य और सकारात्मक चीजों को स्वीकारने से इनकार करते हैं। लेकिन परमेश्वर जो कुछ भी करता है, वह सकारात्मक और सत्य होता है। चूँकि मसीह-विरोधी सत्य से विमुख और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण होते हैं, इसलिए भले ही हर कोई यह स्वीकार करता हो कि परमेश्वर द्वारा किया गया हर एक कार्य तथ्य है, कि यह सब परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है और परमेश्वर की संप्रभुता—परमेश्वर की ही तरह—निश्चित रूप से मौजूद है, मसीह-विरोधी यह नहीं मानते या स्वीकारते कि ये तथ्य हैं। उनके दिलों में परमेश्वर के बारे में संदेह हमेशा बने रहते हैं। स्पष्ट रूप से ये तथ्य हैं, हर कोई इनकी गवाही देता है, यहाँ तक कि जो लोग आम तौर पर सबसे कम आस्था रखते हैं, कई वर्षों तक परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद परमेश्वर के बारे में उनके संदेह भी मिट जाते हैं और परमेश्वर में उनकी सच्ची आस्था हो जाती है। मसीह-विरोधी अकेले ही परमेश्वर के बारे में अपने संदेह दूर नहीं कर सकते। वस्तुनिष्ठ रूप से कहें तो, सिद्धांत रूप में ये व्यक्ति छद्म-विश्वासी होते हैं जो सत्य नहीं स्वीकारते, लेकिन वास्तव में ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मसीह-विरोधी सत्य से विमुख होते हैं और दुष्ट सार रखते हैं—यही मूलभूत कारण है। परमेश्वर ने जो किया है, चाहे कितने भी लोग उसकी पुष्टि करें या गवाही दें या मसीह-विरोधियों की आँखों के सामने कितना भी जबरदस्त सबूत रख दिया जाए, वे फिर भी परमेश्वर के सार पर या इस बात पर विश्वास करने से इनकार करते हैं कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है—यह अत्यधिक दुष्टता है। इसे एक बिंदु से स्पष्ट किया जा सकता है : जब मसीह-विरोधी सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता का जबरदस्त और स्पष्ट तथ्य देखते हैं, तो वे न तो उस पर विश्वास करते हैं और न ही उसे स्वीकारते हैं, यहाँ तक कि वे परमेश्वर पर संदेह भी करते हैं। लेकिन जब उन तथाकथित बुद्ध या अमर लोगों के कर्मों की बात आती है, जिनके बारे में गैर-विश्वासी, शैतान और दुष्ट आत्माएँ बात करती हैं—उन कर्मों की जिन्हें मसीह-विरोधी लोगों ने नहीं देखा है और जिनके कोई ठोस सबूत नहीं हैं—तो वे आसानी से विश्वास कर लेते हैं। यह दुष्टता का चरम प्रदर्शन है। परमेश्वर के कार्य चाहे कितने भी महान या प्रभावशाली क्यों न हों, मसीह-विरोधी फिर भी संदेह करते हैं, अवमानना करते हैं और अपने दिलों में लगातार संदेह पालते रहते हैं। लेकिन जब दानव या शैतान कुछ भी विचित्र करते हैं, तो वे आश्वस्त हो जाते हैं और प्रशंसा में झुक जाते हैं। परमेश्वर चाहे कितने भी महान कार्य क्यों न करे, वे परमेश्वर का भय या उसके प्रति वास्तविक आस्था उत्पन्न नहीं कर सकते। इसके विपरीत, वे शैतान की तमाम मनगढ़ंत बातों पर आसानी से विश्वास कर लेते हैं और पूरे दिल से उनका आदर करते हैं। यह दुष्टता का प्रदर्शन है। यह तथ्य कि मसीह-विरोधी परमेश्वर पर संदेह करते हैं, हमेशा मौजूद रहता है। वे कभी नहीं मानते कि परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है और कभी नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर सत्य है; चाहे कितने भी लोग इन चीजों की गवाही दें या इनके लिए कितने भी सबूत पेश किए जाएँ, वे न तो उन्हें स्वीकार सकते हैं और न ही उन पर विश्वास कर सकते हैं। एक ओर यह मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव-सार के कारण होता है और दूसरी ओर यह इंगित करता है कि ऐसे व्यक्ति वास्तव में मानव नहीं हैं, क्योंकि उनमें सामान्य मानवता की विचार-प्रक्रिया ही नहीं होती। इसका क्या मतलब है कि उनमें सामान्य मानवता की विचार-प्रक्रिया नहीं होती? इसका मतलब है कि उनमें सकारात्मक चीजों, सत्य और सभी चीजों के पीछे के सार और उद्गम के बारे में सही आकलन और समझ नहीं होती। यहाँ तक कि परमेश्वर के वचन पढ़ने, उपदेश सुनने और परमेश्वर के वचनों का अनुभव कर उनकी सराहना करने पर भी वे पुष्टि या विश्वास नहीं कर सकते, बल्कि संदेहग्रस्त रहते हैं। स्पष्ट रूप से इन व्यक्तियों में सामान्य मानवता की विचार-प्रक्रिया नहीं होती। जिन लोगों में सामान्य विचार-प्रक्रिया नहीं होती, जो सत्य, परमेश्वर के वचनों, सकारात्मक चीजों और तथ्यों को नहीं समझ सकते, क्या वे फिर भी मानव होते हैं? (नहीं, वे मानव नहीं होते।) वे मानव नहीं हैं, लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे जानवर हैं, क्योंकि जानवरों में दुष्ट स्वभाव नहीं होता; चूँकि इन व्यक्तियों में दुष्ट स्वभाव होता है, इसलिए यह कथन सत्य है : ये लोग वास्तव में असली मसीह-विरोधी हैं और इनमें शैतानी प्रकृति है। संदेह मसीह-विरोधी लोगों के विचारों में परमेश्वर के प्रति अभिव्यक्त होने वाली एक अवस्था है और यह उनके व्यवहार में प्रकट होने वाला एक प्रकार का स्वभाव-सार भी है, जो बेहद सतही, मूलभूत, बाहरी और सामान्य अभिव्यक्ति है।

ii. जाँच-पड़ताल

मसीह-विरोधी अपने दिलों में परमेश्वर के बारे में संदेह से भरे होते हैं, तो क्या वे वास्तव में परमेश्वर के वचनों, उसके स्वभाव और कार्य को स्वीकारते हैं? क्या वे वास्तव में इन सबके प्रति समर्पित होते हैं? क्या वे वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करते हैं? स्पष्ट रूप से उत्तर है, नहीं। इससे क्या नतीजा निकलता है? जब ये व्यक्ति परमेश्वर के घर में आते हैं, तो सोचते हैं : “परमेश्वर कहाँ है? मैं उसे देख नहीं सकता, सिर्फ उसकी वाणी सुन सकता हूँ। वाणी से लगता है कि वह महिला है; वचनों से वह अनपढ़ नहीं, शिक्षित लगती है; लेकिन उसके बोलने के तरीके और वचनोंकी विषयवस्तु से देखें तो, वह क्या कह रही है? यह भ्रामक क्यों लगता है? सुनने के बाद कई लोग कहते हैं कि यह सत्य है, लेकिन मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता? यह सब मानवता, मानव-स्वभाव, लोगों द्वारा अपने कार्यों में प्रकट की जाने वाली विभिन्न अवस्थाओं के मामलों के बारे में है—क्या इसमें जीवन और मार्ग है? मैं समझ नहीं पाता। सुनने के बाद हर कोई कहता है कि उसे अपने कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाने चाहिए, परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए और उद्धार का अनुसरण करना चाहिए। कई लोग अनुभवजन्य गवाही के लेख लिखकर गवाही भी देते हैं। क्या यह व्यक्ति परमेश्वर है? क्या वह परमेश्वर जैसी दिखती है? मैंने उसका चेहरा नहीं देखा है; अगर देखा होता, तो शायद मैं उसके चेहरे के भाव पढ़कर एक निश्चित उत्तर पा सकता था। अभी बस उसकी वाणी और वह जो कहती है उसे सुनकर मैं अभी भी थोड़ा अनिश्चित महसूस करता हूँ।” वे क्या कर रहे हैं? वे जाँच-पड़ताल कर रहे हैं, परीक्षण कर रहे हैं, वास्तविक स्थिति समझने की कोशिश कर रहे हैं, यह देखने के लिए कि क्या यह वास्तव में परमेश्वर है और फिर यह निर्धारित करने के लिए कि उसका अनुसरण करना है या नहीं, उसका अनुसरण कैसे करना है और यह पता लगाने के लिए कि क्या वे इस व्यक्ति में उन आशीषों और गंतव्य के लिए उत्तर पा सकते हैं जिन्हें वे प्राप्त करना चाहते हैं, साथ ही अपनी इच्छाओं के लिए भी और क्या वे इस व्यक्ति के माध्यम से सटीक रूप से जान सकते हैं कि स्वर्गिक परमेश्वर कैसा है, क्या वह वास्तव में मौजूद है, उसका स्वभाव क्या है, मनुष्यों के प्रति उसका नजरिया और रवैया क्या हो सकता है और उसमें किस प्रकार की योग्यताएँ, कौशल और अधिकार हैं। क्या यह परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करना नहीं है? स्पष्ट रूप से वही है।

परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करते समय क्या मसीह-विरोधी परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार सकते हैं और उन्हें अपने दैनिक जीवन और व्यवहार के लिए एक मार्गदर्शक और लक्ष्य के रूप में ले सकते हैं? (नहीं।) एक साधारण भ्रष्ट व्यक्ति कुछ समय के लिए परमेश्वर की जाँच-पड़ताल कर सकता है और फिर सोच सकता है, “यह मार्ग गलत है, मैं दिल में बेचैनी महसूस कर रहा हूँहूँ; मैं इस तरह से परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करके उत्तर नहीं पा सकता। परमेश्वर का विश्वासी उसकी जाँच-पड़ताल कैसे कर सकता है? परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने से क्या हासिल हो सकता है? जब विश्वासी परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करते हैं, तो परमेश्वर उनसे अपना चेहरा छिपा लेता है और वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। ऐसा कहा जाता है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और लोग उसके वचनों से मार्ग पा सकते हैं और जीवन प्राप्त कर सकते हैं। मेरे लिए इस तरह से कार्य करना अच्छा नहीं है—मैं उसकी जाँच-पड़ताल करना जारी नहीं रख सकता।” जैसे-जैसे वह उपदेश सुनता है और परमेश्वर के वचन पढ़ता है, उसे धीरे-धीरे पता चलता है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं और उसे लगातार एहसास होता है कि जब तक इन भ्रष्ट स्वभावों का समाधान नहीं किया जाता, वह परमेश्वर के साथ अनुरूप नहीं हो सकता, अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकता या कुछ भी अच्छी तरह से नहीं कर सकता। उसे धीरे-धीरे पता चलता है कि लोग अपने कर्तव्य अच्छी तरह से इसलिए नहीं निभा पाते, क्योंकि उनके भ्रष्ट स्वभाव और उनकी विद्रोहशीलता उन्हें बाधित करते हैं और वे अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार कार्य करते हैं और मामले सत्य-सिद्धांतों के अनुसार सँभालने में सक्षम नहीं हैं। इसके बाद वह सोचने लगता है, “मैं सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य कैसे कर सकता हूँ? जब मेरे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं, तो मैं उन्हें हल कैसे कर सकता हूँ?” लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का सबसे अच्छा समाधान सत्य और परमेश्वर के वचन हैं। लोगों के लिए सत्य में प्रवेश करने का सबसे सीधा तरीका सत्य-सिद्धांत और वे जो कुछ भी करते हैं उसके लिए सिद्धांत खोजना है। यह लक्ष्य, दिशा, मार्ग और अभ्यास के तरीके स्थापित करता है। जब ये स्थापित हो जाते हैं, तब लोगों के पास अनुगमन के लिए एक मार्ग होता है और जब वे कार्य करते हैं, तो उनके द्वारा प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने, अपने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने या गड़बड़ी और व्यवधान पैदा करने की संभावना नहीं होती और परमेश्वर का विरोध करने की संभावना तो बिल्कुल नहीं होती। ऐसे अनुभव से गुजरने के बाद उन्हें लगता है कि उन्हें परमेश्वर में अपने विश्वास के लिए एक उपयुक्त मार्ग मिल गया है और यह वह मार्ग है जिसकी उन्हें आवश्यकता है, जिसमें उन्हें प्रवेश करना चाहिए, यह परमेश्वर में विश्वास और जीवन के लिए सही मार्ग है और यह उसकी जाँच-पड़ताल करने और उसके प्रति हमेशा प्रतीक्षा करो और देखो का नजरिया अपनाने से कहीं बेहतर है। उन्हें एहसास होता है कि परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करना व्यर्थ है और चाहे कोई उसकी कितनी भी जाँच-पड़ताल करे, इससे उनके द्वारा प्रकट किए जाने वाले विभिन्न भ्रष्ट स्वभावों या अपने कर्तव्य निभाते समय उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान नहीं होगा। इसलिए वे धीरे-धीरे परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने से सत्य-सिद्धांतों की खोज करने के मार्ग पर चले जाते हैं। यह सामान्य भ्रष्ट मनुष्यों के लिए प्रवेश और अनुभवजन्य प्रक्रिया का सामान्य तरीका है। लेकिन मसीह-विरोधियों का तरीका अलग है। परमेश्वर के घर में प्रवेश कर उसकी दहलीज पार करने के पहले दिन से ही वे सोचते हैं, “परमेश्वर के घर में सब-कुछ कितना दिलचस्प है, सब-कुछ कितना नया है—यह गैर-विश्वासियों की दुनिया से अलग है। परमेश्वर के घर में सभी को ईमानदार होना चाहिए; यह एक बड़े परिवार की तरह है, और कितना जीवंत है!” भाई-बहनों की जाँच-पड़ताल करने, उनसे परिचित होने और उन्हें अच्छी तरह से समझने के बाद उनके द्वारा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने का समय आता है। वे मन ही मन सोचते हैं, “परमेश्वर कहाँ है? परमेश्वर क्या कर रहा है? वह यह कैसे कर रहा है? स्वर्ग में परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करना मुश्किल है; उसकी थाह पाना मुश्किल है और हम इसमें असफल रहते हैं। लेकिन अब एक सुविधाजनक शॉर्टकट है—परमेश्वर धरती पर आ गया है, जिससे उसकी जाँच-पड़ताल करना आसान हो गया है।” उनमें से कुछ इतने भाग्यशाली हैं कि धरती पर परमेश्वर के संपर्क में आ जाते हैं, इस व्यक्ति को अपनी आँखों से देखते हैं, जिससे उनके लिए उसकी जाँच-पड़ताल करना और भी सुविधाजनक हो जाता है। वे यह कैसे करते हैं? वे पृथ्वी पर परमेश्वर की प्रसन्नचित्त बातचीत की जाँच-पड़ताल करते हैं, किन मामलों में वह एक तरह से बोलता है और किन मामलों में दूसरी तरह से, वह किस संदर्भ में हँसता और खुश होता है और उस समय वह किस बारे में बात कर रहा होता है, साथ ही जब वह खुश नहीं होता या क्रोधित होता है तो किस बारे में बात करता है। वे जाँच-पड़ताल करते हैं कि किन स्थितियों में वह लोगों को अनदेखा करता है या उनके साथ काफी मैत्रीपूर्ण होता है, वह कब लोगों की काट-छाँट करता है और कब नहीं करता, वह किन मामलों पर ध्यान देता है और किनकी परवाह नहीं करता, साथ ही यह भी कि क्या वह जानता है कि लोग कब उसकी जाँच-पड़ताल करते हैं, उसे धोखा देते हैं या उसकी पीठ पीछे उसे चोट पहुँचाते हैं। व्यापक पहलुओं की जाँच-पड़ताल करने के बाद मसीह-विरोधी बारीकियों में जाते हैं, जैसे कि पृथ्वी पर परमेश्वर क्या खाता है, क्या पहनता है और उसकी दैनिक दिनचर्या क्या है। वे जाँच-पड़ताल करते हैं कि उसे क्या पसंद है, वह कहाँ जाना पसंद करता है, यहाँ तक कि उसे कौन-से रंग पसंद या नापसंद हैं, उसे धूप वाला मौसम पसंद है या बादलों वाला और क्या वह खराब मौसम में बाहर जाता है—ये सभी विशिष्ट विवरण। शुरू से आखिर तक मसीह-विरोधी हमेशा जाँच-पड़ताल करते रहते हैंऔर इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि परमेश्वर की पहचान रखने वाला यह व्यक्ति क्या करने आया है। वे कहते हैं, “मुझे परवाह नहीं कि तुम यहाँ क्या करने आए हो; जब भी मैं तुम्हें देखूँगा, मैं तुम्हारी जाँच-पड़ताल करूँगा ही।” उनकी जाँच-पड़ताल का उद्देश्य क्या होता है? वे सोचते हैं, “अगर मैं पुष्टि कर पाऊँ कि तुम सच में परमेश्वर हो, तो मैं दृढ़तापूर्वक और पूरे दिल से तुम्हारा अनुसरण करने के लिए सब-कुछ छोड़ सकता हूँ। चूँकि परमेश्वर में विश्वास करना शर्त लगाने जैसा है और चूँकि तुम परमेश्वर होने और परमेश्वर के देहधारी देह होने का दावा करते हो, इसलिए तुम पर विश्वास करना तुम पर शर्त लगाने के बराबर है। मैं तुम्हारी जाँच-पड़ताल क्यों न करूँ? अगर मैंने तुम्हारी जाँच-पड़ताल न की, तो यह मेरे साथ अन्याय होगा। अगर मैंने तुम्हारी जाँच-पड़ताल न की, तो इसका मतलब है कि मैं अपने गंतव्य, संभावनाओं और नियति की जिम्मेदारी नहीं ले रहा। मैं अंत तक तुम्हारी जाँच-पड़ताल करूँगा।” आज भी अपनी सारी जाँच-पड़ताल के बाद भी वे निश्चित नहीं हैं : “क्या यह व्यक्ति वास्तव में मसीह है? क्या यह वास्तव में देहधारी परमेश्वर है? यह बहुत स्पष्ट नहीं है। वैसे भी, बहुत-से लोग उसका अनुसरण कर रहे हैं और सुसमाचार के विस्तार की अवस्था अपेक्षाकृत आशाजनक है। ऐसा लगता है कि यह और फैल सकता है, इसलिए मुझे पीछे नहीं रहना चाहिए। लेकिन मुझे अभी भी इसकी जाँच-पड़ताल करते रहना होगा।” वे सुधर नहीं सकते।

मसीह-विरोधियों में दुष्ट स्वभाव-सार होता है, इसलिए वे कभी अपनी जाँच-पड़ताल बंद नहीं करते। गैर-विश्वासियों के संगठन या समुदाय में वे सभी प्रकार के लोगों की जाँच-पड़ताल कर उनका शोषण करते हैं, यह पता लगाते हैं कि उनके वरिष्ठों को क्या पसंद है, उनकी कमजोरियों की पहचान करते हैं और फिर उनकी चापलूसी करने के लिए अपने कार्यों को अपने वरिष्ठों की पसंद के अनुसार ढालते हैं। परमेश्वर के घर में प्रवेश करने के बाद भी उनका स्वभाव अपरिवर्तित रहता है—वे अपनी जाँच-पड़ताल जारी रखते हैं। वे यह समझने में विफल रहते हैं कि परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करना वह मार्ग नहीं है जिस पर विश्वासियों को चलना चाहिए। परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने से वे कभी परमेश्वर के क्रियाकलाप नहीं समझ पाएँगे या यह नहीं देख पाएँगे कि परमेश्वर द्वारा व्यक्त की जाने वाली हर चीज सत्य है, न ही यह समझ पाएँगे कि परमेश्वर के ये सभी सत्य और क्रियाकलाप मानवजाति के उद्धार के लिए हैं। मसीह-विरोधी यह बात कभी नहीं समझेंगे। वे सिर्फ यह देखते हैं कि परमेश्वर के चुने हुए लोग लगातार शैतान का उत्पीड़न और धर-पकड़ सहते हैं। वे सिर्फ यह देखते हैं कि बुरे लोग कलीसिया के भीतर बुरे काम कर गड़बड़ी पैदा करते हैं और धार्मिक समुदाय में मसीह-विरोधी ताकतें लगातार परमेश्वर की बदनामी और निंदा करती रहती हैं, लेकिन परमेश्वर कभी इनमें से किसी भी समस्या का समाधान नहीं करता। इसलिए मसीह-विरोधी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से चिपके रहते हैं और परमेश्वर द्वारा व्यक्त किसी भी सत्य को स्वीकारने से दृढ़तापूर्वक इनकार करते हैं। परिणाम क्या होता है? उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ उनके द्वारा परमेश्वर का विरोध करने के सबूत बन जाती हैं। मसीह-विरोधियों की नजर में, ये तथाकथित सबूत ही वे कारण हैं, जिनकी वजह से वे परमेश्वर की पहचान और सार पर विश्वास नहीं करते या उसे स्वीकार नहीं करते। यह ठीक इसलिए है क्योंकि वे सत्य स्वीकारने से इनकार करते हैं कि वे कभी इन तथ्यों के पीछे निहित वे सत्य और परमेश्वर के इरादे नहीं देखेंगे जिन्हें लोगों को समझना-बूझना चाहिए। यह उनकी जाँच-पड़ताल का नतीजा है। इन तथ्यों का सामना करने पर, जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, सत्य से प्रेम करते हैं और परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं, वे परमेश्वर से चीजें स्वीकार सकते हैं और सही ढंग से प्रतिक्रिया दे सकते हैं, चाहे परमेश्वर के घर में कुछ भी घटित हो और वे परमेश्वर की प्रतीक्षा कर सकते हैं, परमेश्वर के सामने शांत रहकर उससे प्रार्थना कर सकते हैं, परमेश्वर के इरादे समझने की कोशिश कर सकते हैं और यह भी समझ-बूझ सकते हैं कि इन सभी चीजों के घटित होने के पीछे परमेश्वर के इरादे अच्छे हैं। बुरे लोगों को प्रकट कर उन्हें अलग करने की खातिर परमेश्वर कई ऐसी चीजें करता है जिनके बारे में लोग सोच भी नहीं सकते। साथ ही, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पूर्ण बनाने और उन्हें विवेक प्राप्त करने और सबक सीखने में सक्षम बनाने की खातिर वह सेवा प्रदान करने के लिए बुरे लोगों और उनके बुरे कर्मों का भी उपयोग करता है। एक ओर परमेश्वर उन्हें प्रकट कर अलग कर देता है; दूसरी ओर वह अपने चुने हुए लोगों को यह देखने में सक्षम बनाता है कि कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं और कौन-सी नकारात्मक, परमेश्वर किसे अनुमोदित करता है, किससे घृणा करता है, परमेश्वर किसे हटा देता है और किसे आशीष देता है। ये सब वे सबक हैं जिन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सीखने की जरूरत है, वे सकारात्मक परिणाम हैं जो सत्य का अनुसरण करने वालों को प्राप्त करने चाहिए और वे सत्य हैं जो लोगों को समझने चाहिए। लेकिन अपने दुष्ट स्वभाव-सार के कारण मसीह-विरोधी ये सबसे कीमती चीजें कभी प्राप्त नहीं करेंगे। इसलिए उनमें सिर्फ एक ही अवस्था होती है—जब वे परमेश्वर की उपस्थिति में होते हैं, तो उस पर संदेह करने के अलावा वे लगातार उसकी जाँच-पड़ताल कर रहे होते हैं। भले ही वे इसकी तह तक न पहुँच पाएँ, फिर भी वे उसकी जाँच-पड़ताल करना जारी रखते हैं। अगर तुम उनसे पूछो कि वे थकते नहीं क्या, तो वे कहते हैं, “बिल्कुल नहीं। परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करना एक मजेदार, आकर्षक, दिलचस्प और दिलकश चीज है!” क्या ये शैतानी शब्द नहीं हैं? उनका चेहरा शैतान का है, उनमें मसीह-विरोधियों का प्रकृति-सार होता है। सत्य या परमेश्वर के उद्धार को स्वीकारने का उनका कोई इरादा नहीं होता; वे यहाँ सिर्फ परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने के लिए हैं।

iii. संशय

इसके बाद हम परमेश्वर के प्रति मसीह-विरोधियों के संशय के बारे में संगति करेंगे। संशय का शाब्दिक अर्थ क्या है? परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने के लिए कुछ विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ, विचार और व्यवहार होते हैं और यह कहना बिल्कुल सही है कि संशय के बारे में भी यही सच है। परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने के बाद भी कुछ लोग नहीं जानते कि परमेश्वर का स्वभाव वास्तव में क्या है या परमेश्वर की भावनाएँ किस प्रकार की हैं और वे निश्चित नहीं होते कि वास्तव में परमेश्वर का अस्तित्व है भी या नहीं। यह निर्धारित करने में तो वे बिल्कुल सक्षम नहीं होते कि यह साधारण व्यक्ति मसीह है या नहीं या उसमें परमेश्वर का सार है या नहीं। वे इन चीजों को नहीं समझते और इनके बारे में अस्पष्ट होते हैं। बाद में जब उन्हें परमेश्वर के साथ बातचीत करने का अवसर मिलता है, तो वे सोचते हैं, “मसीह ने मेरे साथ लोगों द्वारा अपने कर्तव्य बेमन से निभाने के बारे में संगति की; क्या ऐसा हो सकता है कि किसी ने मेरे द्वारा अपने कर्तव्य बेमन से निभाने के बारे में कहा हो और मसीह को इसके बारे में पता चल गया हो? क्या इसीलिए उसने हमारी मुलाकात के दौरान इस बारे में बात की? यह निश्चित रूप से इसलिए है कि किसी ने मेरे बारे में बताया और पता चलने के बाद मसीह ने मुझे उजागर करने के लिए निशाना बनाया। क्या मसीह यह जानने के बाद भी मुझे पसंद करता है कि मैं किस तरह का व्यक्ति हूँ? क्या वह मेरे प्रति विमुख है या मेरे बारे में खराब राय रखता है? क्या वह मुझे बदलने की तैयारी कर रहा है?” कुछ देर प्रतीक्षा कर यह देखने के बाद कि उन्हें बदला नहीं गया है, वे सोचते हैं, “ओह, मैं कितना डरा हुआ था। मैं सोच रहा था कि मसीह शायद क्षुद्र होगा, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। अब मैं निश्चिंत हो सकता हूँ।” कुछ लोग कह सकते हैं, “मसीह के साथ अपनी पिछली मुलाकात के दौरान मैंने एक अशिक्षित व्यक्ति की तरह असंगतिपूर्ण ढंग से बातें कीं और मेरी भाषा थोड़ी गड़बड़ थी। मैंने अपना असली रूप उजागर कर दिया। क्या मसीह पर मेरा गलत प्रभाव पड़ेगा? क्या वह बाद में मुझे हटा देगा? जब मैं उसे नहीं देखता तो सब-कुछ ठीक रहता है—मेरी समस्याएँ तभी सामने आती हैं, जब मैं उससे मिलता हूँ। मुझे उससे दोबारा नहीं मिलना चाहिए, उसके दिखने पर मुझे उससे बचना चाहिए और जितना हो सके उससे दूर रहना चाहिए और मुझे मसीह के साथ बिल्कुल भी व्यवहार, बातचीत या निकट संपर्क नहीं रखना चाहिए। वरना वह मेरे बारे में खराब राय बना सकता है।” ये कैसे विचार और नजरिये हैं? (ये संशय हैं।) ये संशय ही हैं। ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं, “पिछली सभा में परमेश्वर ने एक सरल प्रश्न पूछा था, लेकिन मैंने उसका ठीक से उत्तर नहीं दिया जिससे मेरी खामियाँ प्रकट हो गईं। क्या परमेश्वर सोचेगा कि मुझमें काबिलियत नहीं है और क्या वह भविष्य में मुझे विकसित नहीं करेगा? पिछली बार किसी ने मेरे द्वारा की गई कोई चीज यह कहते हुए उजागर कर दी थी कि मैं मूर्ख हूँ और बिना सोचे-समझे काम करता हूँ। अगर परमेश्वर को इस बारे में पता चलता है, तो क्या वह भविष्य में भी मुझे पूर्ण करेगा? परमेश्वर के मन में मेरी हैसियत क्या है—उच्च है या निम्न है, श्रेष्ठ है या हीन? मैं किस वर्ग में आता हूँ? भविष्य में जब भी मैं परमेश्वर से बात करूँगा, मुझे अपने शब्दों का मसौदा तैयार करना होगा। मैं लापरवाही से बात नहीं कर सकता या जो कुछ भी मेरे मन में है, उसे नहीं कह सकता। मुझे ज्यादा चिंतन करना चाहिए, चीजों के बारे में ज्यादा सोचना चाहिए, ज्यादा विचार करना चाहिए, अपनी भाषा अच्छी तरह से व्यवस्थित करनी चाहिए और मसीह के सामने अपना सबसे उत्कृष्ट और कुशल पक्ष प्रस्तुत करना चाहिए। यह कितना अद्भुत और पूर्ण होगा!” यह भी संशय है।

संशय मसीह-विरोधियों के दुष्ट स्वभाव का एक और लक्षण है। संदेह और जाँच-पड़ताल करने के अलावा मसीह-विरोधी अनेक संशय भी पालते हैं। संक्षेप में, उनके विचारों पर चाहे जो भी पहलू हावी हो, उनमें से किसी का भी सत्य का अभ्यास और खोज करने से कोई लेना-देना नहीं होता। तो क्या ये नजरिये, विचार या तरीके इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि मसीह-विरोधियों का स्वभाव-सार दुष्ट होता है? (बिल्कुल।) मसीह-विरोधी चाहे परमेश्वर पर संदेह कर रहे हों, परमेश्वर की जाँच-पड़ताल कर रहे हों या परमेश्वर के प्रति संशय पाल रहे हों, हर हाल में वे सत्य पर ध्यान केंद्रित करने में हमेशा विफल रहते हैं, कभी पीछे नहीं मुड़ते और सत्य खोजे बिना परमेश्वर से संबंधित मामलों पर चिंतन करने और परमेश्वर के पास जाने के लिए लगातार इन तरीकों का उपयोग करते हैं। चाहे ये क्रियाकलाप कितने भी थकाऊ और कठिन क्यों न हों, वे अथक रूप से उन्हें करते और दोहराते रहते हैं। चाहे उन्होंने कितने भी समय तक परमेश्वर की जाँच-पड़ताल या उस पर संशय किया हो या उन्हें कोई नतीजा मिला हो या नहीं, वे पहले की तरह इस मार्ग पर चलते रहते हैं, इसी तरह कार्य करते रहते हैं और अपने क्रियाकलाप दोहराते रहते हैं। वे यह सोचकर कभी अपनी जाँच नहीं करते, “क्या यही वह तरीका और रवैया है जिससे एक सृजित प्राणी को परमेश्वर के साथ व्यवहार करना चाहिए? मैं जिस तरह परमेश्वर के साथ व्यवहार करता हूँ उसकी प्रकृति क्या है? मैं किस तरह का स्वभाव प्रकट कर रहा हूँ? क्या उसके साथ इस तरह से व्यवहार करना सत्य के अनुरूप है? क्या परमेश्वर इससे घृणा करता है? अगर मैं वही चीजें करता रहा जिनसे परमेश्वर घृणा करता है, तो इसका अंतिम नतीजा क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर द्वारा त्यागकर हटा दिया जाऊँगा? चूँकि इसके नकारात्मक परिणाम होंगे, तो मैं परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार कार्य और अभ्यास क्यों नहीं कर सकता?” क्या वे इन मामलों पर चिंतन करते हैं? (नहीं।) वे चिंतन क्यों नहीं करते? क्योंकि उनके चरित्र में जमीर और तर्कसंगतता का अभाव होता है। उनमें जमीर नहीं होता, इसलिए वे अनजाने ही ऐसे अनुचित और बेतुके क्रियाकलाप करते हैं। तर्कसंगतता के अभाव के कारण वे कभी नहीं समझ पाते कि वे कौन हैं या उन्हें कौन-सी स्थिति, परिप्रेक्ष्य और हैसियत अपनानी चाहिए। उन्हें कभी नहीं लगता कि वे एक साधारण व्यक्ति, एक भ्रष्ट मनुष्य या शैतान की वह किस्म या संतान हैं जिससे परमेश्वर घृणा करता है। लोगों को जो चीजें स्वीकार करनी चाहिए, वे हैं परमेश्वर के वचन, परमेश्वर की अपेक्षाएँ और वह सत्य जिसकी परमेश्वर उन्हें आपूर्ति करता है; उन्हें परमेश्वर की इस तरह से जाँच-पड़ताल नहीं करनी चाहिए मानो वे उसके बराबर के हों और परमेश्वर के साथ इस तरह से हँसना और बातचीत नहीं करनी चाहिए मानो वे किसी दूसरे व्यक्ति के साथ बातचीत कर रहे हों—क्या ये ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें कोई गैर-मानव करेगा? इस समय मसीह-विरोधियों का चरित्र प्रकट हो जाता है और मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव-सार उन पर हावी हो जाता है जिससे वे बिना थके इन बेकार और निरर्थक क्रियाकलापों में संलग्न हो जाते हैं जो दूसरों को तो नुकसान पहुँचाते ही हैं, खुद उन्हें भी कोई लाभ नहीं पहुँचाते। फिर भी वे इन्हें छोड़ नहीं सकते; वे इस मार्ग की त्रुटि और इन क्रियाकलापों के पीछे की प्रकृति से अनजान रहते हैं। इस मामले में चाहे जितना भी प्रयास, कष्ट और असफलता शामिल हों, वे कोई आत्म-ग्लानि, कोई दोष और कोई कृतज्ञता महसूस नहीं करते। वे परमेश्वर के साथ बराबरी के स्तर पर होने पर जोर देते हैं, यहाँ तक कि वे ऊँचाई से परमेश्वर की जाँच-पड़ताल और उसका तिरस्कार भी करते हैं, बार-बार उस पर संदेह और संशय करते हैं। चाहे वे कितने भी वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हों, परमेश्वर के प्रति उनका रवैया और उसके साथ उनका व्यवहार कभी नहीं बदला। अगर वे उस पर संदेह नहीं कर रहे होते, तो वे उसकी जाँच-पड़ताल कर रहे होते हैं और अगर वे उसकी जाँच-पड़ताल नहीं कर रहे होते, तो वे उस पर संशय कर रहे होते हैं। ऐसा लगता है जैसे वे किसी राक्षस के कब्जे में हों या उन पर जादू कर दिया गया हो—ये मसीह-विरोधियों के दुष्ट सार की कई अभिव्यक्तियाँ हैं। मसीह-विरोधी स्वाभाविक रूप से दुष्ट होते हैं; कुछ लोग जो मसीह-विरोधियों के सार को नहीं समझ सकते, कह सकते हैं, “क्या तुम परमेश्वर की जाँच-पड़ताल करने से बाज नहीं आ सकते? क्या तुम उस पर संदेह करना बंद नहीं कर सकते? क्या तुम उसके प्रति संशयग्रस्त होना बंद नहीं कर सकते? अगर तुम ये काम करना बंद कर दो तो तुम सत्य समझ पाओगे, परमेश्वर को परमेश्वर मान पाओगे, परमेश्वर में वास्तविक आस्था विकसित कर पाओगे और वैध रूप से परमेश्वर के लोगों में से एक बन पाओगे; तुम्हारे पास एक उपयुक्त सृजित प्राणी बनने का अवसर होगा और क्या तब तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक कहलाने के योग्य नहीं होगे? यह कितना अद्भुत होगा!” लेकिन मसीह-विरोधी जवाब देते हैं, “मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ। एक उपयुक्त सृजित प्राणी होने का क्या लाभ है? यह उबाऊ है। मामला तभी दिलचस्प होता है जब मैं परमेश्वर पर संदेह करता हूँ, उसकी जाँच-पड़ताल करता हूँ और उसके प्रति संशयग्रस्त होता हूँ!” मसीह-विरोधियों की यह अभिव्यक्ति वैसी ही है, जैसा कि महान लाल अजगर कहता है : “अन्य लोगों और स्वर्ग के साथ लड़ना अंतहीन मजे का स्रोत है।” यह मसीह-विरोधियों के दुष्ट प्रकृति-सार की एक सटीक परिभाषा और सच्चा प्रतिबिंब है। संक्षेप में, मसीह-विरोधी अत्यधिक दुष्ट होते हैं, वे चरम सीमा तक दुष्ट होते हैं। जो लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन सत्य स्वीकारने से साफ इनकार कर देते हैं, वे दुष्ट लोग होते हैं। बहुत-से लोग यह सोचकर हमेशा मसीह-विरोधियों को पश्चात्ताप करने का मौका देना चाहते हैं कि वे एक दिन पश्चात्ताप करेंगे—क्या यह तर्क सही है? जैसी कि कहावत है, “बाघ अपनी धारियाँ नहीं बदल सकता” और “कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती।” इसलिए तुम मनुष्यों से व्यवहार करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मानक और तरीके मसीह-विरोधियों से व्यवहार करने या उनसे माँगें करने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते। वे जो हैं सो हैं। अगर वे परमेश्वर की जाँच-पड़ताल या उस पर संदेह नकरें या उसके प्रति संशयग्रस्त नहों, तो वे असहज महसूस करते हैं, क्योंकि वे अपनी दुष्ट प्रकृति से नियंत्रित होते हैं।

iv. सतर्कता

इसके बाद हम सतर्कता के बारे में संगति करेंगे। मसीह-विरोधियों का एक सबसे प्रमुख और स्पष्ट विचार और दृष्टिकोण होता है। वे कहते हैं, “लोगों को परमेश्वर को अपने भाग्य पर नियंत्रण या संप्रभुता नहीं रखने देनी चाहिए; अगर परमेश्वर व्यक्ति के भाग्य का नियंत्रक होता है, तो उसके लिए सब-कुछ खत्म हो जाता है। खुशी पाने, निश्चिंत होकर खाने, पीने और मौज-मस्ती करने के लिए लोगों पर अपना ही नियंत्रण होना चाहिए। परमेश्वर लोगों को खाने, पीने और मौज-मस्ती नहीं करने देता, वह उन्हें अच्छी तरह से जीने नहीं देता; वह सिर्फ लोगों से कष्ट सहन करवाता है। इसलिए हमें अपनी खुशी का प्रभार खुद लेना चाहिए; हम अपनी नियति परमेश्वर को नहीं सौंप सकते या निष्क्रिय रूप से हर चीज का इंतजार नहीं कर सकते या परमेश्वर को हमारे बारे में तैयारियाँ करने, हमें प्रबुद्ध करने और हमारी अगुआई करने नहीं दे सकते—हम उस तरह के व्यक्ति नहीं हो सकते। हमारे मानवाधिकार हैं, हमें स्वायत्त क्रियाकलाप करने का अधिकार है और हमारी स्वतंत्र इच्छा है। हमें हर चीज की रिपोर्ट परमेश्वर को करने और हर चीज के लिए परमेश्वर से पूछने की जरूरत नहीं है—इससे हम बहुत अक्षम दिखेंगे; सिर्फ मूर्ख ही ऐसा करते हैं!” वे क्या कर रहे हैं? (परमेश्वर से सतर्कता बरत रहे हैं।) कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर के सामने शपथ लेते समय सावधान रहना; अपने शब्दों के बारे में सावधानी से सोचना। जब मनुष्य कार्य करता है, तो स्वर्ग देख रहा होता है!” कुछ लोग प्रार्थना करते हैं, “हे परमेश्वर, मैं अपना पूरा जीवन और यौवन तुम्हें समर्पित करता हूँ; मैं जीवनसाथी की तलाश नहीं करूँगा, न ही शादी करूँगा।” लेकिन ऐसा कहने के बाद वे यह सोचकर पछताते हैं, “क्या परमेश्वर मेरे वचन पूरे कर देगा? अगर मुझे वास्तव में जीवनसाथी की जरूरत हुई या मैंने शादी करनी चाही तो? क्या परमेश्वर मुझे दंड देगा? यह तो खराब बात है!” तब से वे उदास और दुखी हो जाते हैं, विपरीत लिंगी से दूर रहने लगते हैं और दंड मिलने से डरते हैं। वे क्या कर रहे हैं? (परमेश्वर से सतर्कता बरत रहे हैं।) दूसरी तरह का व्यक्ति कहता है, “परमेश्वर के लिए खुद को खपाना न तो आसान है और न ही सरल। तुम्हारे पास एक पूरक योजना होनी चाहिए; परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से पहले तुम्हें अपने लिए कोई रास्ता तैयार कर लेना चाहिए। वरना जब तुम्हारे संसाधन समाप्त हो जाएँगे, तो परमेश्वर तुम्हारा खयाल नहीं रखेगा! परमेश्वर के लिए खुद को खपाने का संबंध तुमसे है; परमेश्वर का सभी चीजों पर संप्रभु होना दूसरी बात है। परमेश्वर सभी चीजों पर संप्रभु है—क्या वह तुम जैसे छोटे व्यक्ति का खयाल रखेगा? परमेश्वर सिर्फ बड़े मामलों पर ध्यान देता है; वह इन छोटी चीजों की परवाह नहीं करता। इसलिए तुम्हें योजना बनाकर अपना रास्ता तैयार कर लेना चाहिए; अगर बाद में परमेश्वर ने तुम्हें नहीं चाहा और चलता कर दिया, तो वह तुम पर कोई दया नहीं दिखाएगा।” यह किस तरह की सोच है? (परमेश्वर से सतर्कता।) लोग बहुत मतलबी होते हैं। कुछ लोग अगुआ बनने के बाद कुछ कीमतें चुकाते हैं और वास्तव में खुद को थोड़ा खपाते हैं, लेकिन मानवता न होने, घृणित स्वभाव और अपने अंदर मौजूद मसीह-विरोधियों के स्वभाव के कारण वे परमेश्वर के घर को काफी नुकसान पहुँचाते हैं। नतीजतन, उन्हें चलता कर दिया जाता है। उसके बाद वे उचित और विनम्र व्यवहार करना और अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने से बचना सीखते हैं, किसी पर भरोसा करके उससे निजी बातें साझा नहीं करते और कहते हैं, “मैं हमेशा लोगों पर भरोसा करके उनसे निजी बातें साझा कर लिया करता था, इसलिए हर कोई जानता था कि मेरे साथ वास्तव में क्या चल रहा है, लेकिन फिर किसी ने मेरे बारे में परमेश्वर के घर में रिपोर्ट कर दी और मुझे चलता कर दिया गया। इसलिए अब मुझे दूसरों से संपर्क न रखना, खुद को छिपाना, अपना बचाव और रक्षा करना सीखना होगा। मुझे लोगों पर भरोसा करके उनसे निजी बातें साझा करने के बारे में सावधान रहना चाहिए, यहाँ तक कि इस मामले में मुझे परमेश्वर पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए। मैं अब यह नहीं मानता कि परमेश्वर सत्य है, विश्वसनीय है। भाई-बहनों पर तो मुझे बिल्कुल भी भरोसा नहीं है। कोई भी मेरे भरोसे के लायक नहीं है, यहाँ तक कि मेरे परिवार के सदस्य या रिश्तेदार भी नहीं, सत्य का अनुसरण करने वालों की तो बात ही छोड़ दो।” वे क्या कर रहे हैं? (वे सतर्कता बरत रहे हैं।) जब मसीह-विरोधी काट-छाँट, असफलता, पतन और बेनकाब किए जाने का अनुभव करते हैं, तो वे इसका जायजा लेते हैं और एक कहावत प्रस्तुत करते हैं : “कभी दूसरों को नुकसान पहुँचाने का इरादा न रखो, लेकिन उनके द्वारा पहुँचाए जा सकने वाले नुकसान के प्रति हमेशा सतर्कता बरतो।” वास्तव में उन्होंने दूसरों को काफी नुकसान पहुँचाया होता है और अंत में वे स्वाँग रचकर यह भ्रांति प्रस्तुत करते हैं। कई वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करने और कई असफलताओं और बाधाओं का अनुभव करने के बाद और साथ ही परमेश्वर के प्रकाशन और काट-छाँट का अनुभव करने के बाद, सामान्य परिस्थितियों में, लोगों को इन असफलताओं से सबक लेकर आत्मचिंतन करना और खुद को जानना चाहिए, समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में अपनी असफलताओं और चूकों के कारण ढूँढ़ने चाहिए और साथ ही अभ्यास का वह मार्ग खोजना चाहिए जिस पर उन्हें चलना चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधी ऐसा नहीं करते। कई बार चूकने और असफल होने के बाद वे अपने व्यवहार को और संगीन बना देते हैं, परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों की संख्या बढ़ती जाती है और वे और ज्यादा गंभीर हो जाते हैं, परमेश्वर के बारे में उनकी जाँच-पड़ताल और ज्यादा गहन हो जाती है, परमेश्वर के बारे में उनका संशय और ज्यादा गहरा हो जाता है और इसी तरह उनका दिल परमेश्वर के प्रति सतर्कता से भर जाता है। उनकी सतर्कता शिकायतों, क्रोध, अवज्ञा और क्षोभ से भरी होती है, यहाँ तक कि वे धीरे-धीरे परमेश्वर के प्रति इनकार, आलोचना और निंदा भी पैदा कर लेते हैं। क्या वे बढ़ते हुए खतरे में नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।)

परमेश्वर और उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेशों और लोगों, घटनाओं और चीजों और परमेश्वर द्वारा उन्हें प्रकट कर अनुशासित करने इत्यादि के प्रति मसीह-विरोधियों के रवैये से आँकें तो, क्या उनका सत्य खोजने का जरा-सा भी इरादा होता है? क्या उनका परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का जरा-सा भी इरादा होता है? क्या उनमें जरा-सी भी आस्था होती है कि यह सब आकस्मिक नहीं, बल्कि परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है? क्या उनमें यह समझ और जागरूकता होती है? जाहिर है, नहीं होती। कहा जा सकता है कि उनकी सतर्कता की जड़ परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों से आती है। परमेश्वर के प्रति उनके संशय की जड़ भी परमेश्वर के बारे में उनके संदेहों से आती कही जा सकती है। उनके द्वारा परमेश्वर की जाँच-पड़ताल से उत्पन्न परिणाम उन्हें परमेश्वर के प्रति और ज्यादा संशयग्रस्त और ज्यादा सतर्क बना देते हैं। मसीह-विरोधियों की सोच से उत्पन्न विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों और साथ ही इन विचारों और दृष्टिकोणों के प्रभुत्व के तहत उत्पन्न विभिन्न नजरियों और व्यवहारों से आँकें तो, ये लोग बहुत ही अविवेकी होते हैं; ये सत्य नहीं समझ सकते, परमेश्वर में वास्तविक आस्था विकसित नहीं कर सकते, परमेश्वर के अस्तित्व पर पूरी तरह से विश्वास कर उसे स्वीकार नहीं सकते, यह मान और स्वीकार नहीं सकते कि परमेश्वर समस्त सृष्टि पर संप्रभुता रखता है, वह हर चीज पर संप्रभुता रखता है। यह सब उनके दुष्ट स्वभाव-सार के कारण होता है।

19 दिसंबर 2020

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